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जानिए, चुकंदर खाने के क्या है फायदे

इन दिनों चुकंदर खूब मिलता है, हम रोज एक चुकंदर खा सकते हैं. इसमें मौजूद विटामिन , खनिज, सोडियम, पोटैशियम, फौस्फोरस, कैल्शियम, सल्फर, क्लोरीन, आयोडीन, आयरन, विटामिन बी1, बी2 अन्य आदि तत्व पाए जाते है, जो शरीर को रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करते हैं. इसलिए चुकंदर को अपनी डाइट का हिस्सा जरूर बनाएं. रोज एक चुकंदर खाने से एनिमिया जैसी समस्या से छुटकारा पा सकते हैं.चुकंदर खाकर कोलेस्ट्रोल को भी नियंत्रित रखा जा सकता है. इतने सारे फायदे के बावजूद हमें इसे खाना अच्छा नहीं लगता..

ये है कुछ नए तरीके जिससे न केवल इसे खाना अच्छा लगेगा बल्कि आपके खाने का भी स्वाद बढ़ जाएगा.

1- चुकंदर को कद्दूकस करके उसमें पतली पतली हरी मिर्च और धनिया, कुछ बूंदे नीबू की और स्वादानुसार नमक मिलाकर खाए.. खाने का स्वाद बढ़ जाएगा.

2- चुकंदर, टमाटर, प्याज, मूली को बारीक बारीक काट कर उसमें  चाट मसाला मिलाकर खा सकते हैं.. चाहे तो नीबू भी मिला ले.

3- चुकंदर की एकदम पतली पतली slice काटकर प्लेट में सजा ले और ऊपर से नमक, काली मिर्च छिड़ककर खा सकते हैं.

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4- चुकंदर का हलवा भी बना सकते हैं गाजर की तरह. चुकंदर को छिल के धुल लें और फिर कद्दू कस करके उसे कढ़ाई में पकाये. पकाते समय ही उसमें दूध भी डाल दें तो बाद में खोए की जरूरत नहीं पड़ेगी. जब पक जाए तो ऊपर से ड्राई फ्रूट डाल ले. ये आपके लिए गाजर के हलवे से ज्यादा सेहतमंद और स्वादिष्ट लगेगा. खासकर बच्चों को के लिए.. एक दिन बनाकर कई टाइम खिला सकती है..

इन सभी तरह से खाकर खुद और पूरे परिवार को सेहतमंद कर सकती हैं.

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प्रतिदिन

इक विश्वास था

लेखक: मनीष जैन

अमर में न जाने ऐसी क्या बात थी कि न चाहते हुए भी उस की बातों पर मेरा दिमाग विश्वास नहीं कर पा रहा था लेकिन दिल उस की बातों को झुठला भी नहीं पा रहा था. दिल और दिमाग की कशमकश में उलझा मैं इस उस की मदद को तैयार हो गया.

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

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वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

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मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

प्रतिदिन : भाग 3

‘‘‘रात खानेपीने के बाद देवरानी व जेठानी एकसाथ बैठीं तो यहांवहां की बातें छिड़ गईं. सुमित्रा कहने लगी कि दीदी, यहां भी तो लोग अच्छा कमातेखाते हैं, नौकरचाकर रखते हैं और बडे़ मजे से जिंदगी जीते हैं. वहां तो सब काम हमें अपने हाथ से करना पड़ता है. दुख- तकलीफ में भी कोई मदद करने वाला नहीं मिलता. किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि किसी बीमार की जा कर खबर ले आए.’

‘‘भाभी का जला दिल और जल उठा. वह बोलीं कि सुमित्रा, हमें भरमाने की बातें तो मत करो. एक तुम्हीं तो विलायत हो कर नहीं आई हो…और भी बहुत लोग आते हैं. और वहां का जो यशोगान करते हैं उसे सुन कर दिल में टीस सी उठती है कि आप ने विलायत रह कर भी अपने भाई के लिए कुछ नहीं किया.

‘‘सुमित्रा ने बात बदलते हुए पूछा कि दीदी, उस सुनंदा का क्या हाल है जो यहां स्कूल में प्रिंसिपल थी. इस पर बड़ी भाभी बोलीं, ‘अरे, मजे में है. बच्चों की शादी बडे़ अमीर घरों में कर दी है. खुद रिटायर हो चुकी है. धन कमाने का उस का नशा अभी भी नहीं गया है. घर में बच्चों को पढ़ा कर दौलत कमा रही है. पूछती तो रहती है तेरे बारे में. कल मिल आना.’

‘‘अगले दिन सुमित्रा से सुनंदा बड़ी खुश हो कर मिली. उलाहना भी दिया कि इतने दिनों बाद गांव आई हो पर आज मिलने का मौका मिला है. आज भी मत आतीं.

‘‘सुनंदा के उलाहने के जवाब में सुमित्रा ने कहा, ‘लो चली जाती हूं. यह तो समझती नहीं कि बाहर वालों के पास समय की कितनी कमी होती है. रिश्तेदारों से मिलने जाना, उन के संदेश पहुंचाना. घर में कोई मिलने आ जाए तो उस के पास बैठना. वह उठ कर जाए तो व्यक्ति कोई दूसरा काम सोचे.’

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‘‘‘बसबस, रहने दे अपनी सफाई,’ सुनंदा बोली, ‘इतने दिनों बाद आई है, कुछ मेरी सुन कुछ अपनी कह.’

‘‘आवभगत के बाद सुनंदा ने सुमित्रा को बताया तुम्हारी जेठानी ने तुम्हारा घर अपना कह कर किराए पर चढ़ाया है. 1,200 रुपए महीना किराया लेती है और गांवमहल्ले में सब से कहती फिरती है कि सुमित्रा और देवरजी तो इधर आने से रहे. अब मुझे ही उन के घर की देखभाल करनी पड़ रही है. सुमित्रा पिछली बार खुद ही मुझे चाबी दे गई थी,’ फिर आगे बोली, ‘मुझे लगता है कि उस की निगाह तुम्हारे घर पर है.’

‘‘‘तभी भाभी मुझ से कह रही थीं कि जिस विलायत में जाने को हम यहां गलतसही तरीके अपनाते हैं, उसी को तुम ठुकरा कर आना चाहती हो. तेरे भले की कहती हूं ऐसी गलती मत करना, सुमित्रा.’

‘‘सुनंदा बोली, ‘मैं ने अपनी बहन समझ कर जो हकीकत है, बता दी. जो भी निर्णय लेना, ठंडे दिमाग से सोच कर लेना. मुझे तो खुशी होगी अगर तुम लोग यहां आ कर रहो. बीते दिनों को याद कर के खूब आनंद लेंगे.’

‘‘सुनंदा से मिल कर सुमित्रा आई तो घर में उस का दम घुटने लगा. वह 2 महीने की जगह 1 महीने में ही वापस लंदन चली आई.

‘‘‘विनोद भाई, तुम्हीं कोई रास्ता सुझाओ कि क्या करूं. इधर से सब बेच कर इंडिया रहने की सोचूं तो पहले तो घर से किराएदार नहीं उठेंगे. दूसरे, कोई जगह ले कर घर बनाना चाहूं तो वहां कितने दिन रह पाएंगे. बच्चों ने तो उधर जाना नहीं. यहां अपने घर में तो बैठे हैं. किसी से कुछ लेनादेना नहीं. वहां तो किसी काम से भी बाहर निकलो तो जासूस पीछे लग लेंगे. तुम जान ही नहीं पाओगे कि कब मौका मिलते ही तुम पर कोई अटैक कर दे. यहां का कानून तो सुनता है. कमी तो बस, इतनी ही है कि अपनों का प्यार, उन के दो मीठे बोल सुनने को नहीं मिलते.’’

‘‘‘बात तो तुम्हारी सही है. थोडे़ सुख के लिए ज्यादा दुख उठाना तो समझदारी नहीं. यहीं अपने को व्यस्त रखने की कोशिश करो,’’ विनोद ने उन्हें सुझाया था.

‘‘अब जब सारी उम्र खूनपसीना बहा कर यहीं गुजार दी, टैक्स दे कर रानी का घर भर दिया. अब पेंशन का सुख भी इधर ही रह कर भोगेंगे. जिस देश की मिट्टीपानी ने आधी सदी तक हमारे शरीर का पोषण किया उसी मिट्टी को हक है हमारे मरने के बाद इस शरीर की मिट्टी को अपने में समेटने का. और फिर अब तो यहां की सरकार ने भारतीयों के लिए अस्थिविसर्जन की सुविधा भी शुरू कर दी है.

‘‘विनोद, मैं तो सुमित्रा को समझासमझा कर हार गया पर उस के दिमाग में कुछ घुसता ही नहीं. एक बार बडे़ बेटे ने फोन क्या कर दिया कि मम्मी, आप दादी बन गई हैं और एक बार अपने पोते को देखने आओ न. बस, कनाडा जाने की रट लगा बैठी है. वह नहीं समझती कि बेटा ऐसा कर के अपने किए का प्रायश्चित करना चाहता है. मैं कहता हूं कि उसे पोते को तुम से मिलाने को इतना ही शौक है तो खुद क्यों नहीं यहां आ जाता.

‘‘तुम्हीं बताओ दोस्त, जिस ने हमारी इज्जत की तनिक परवा नहीं की, अच्छेभले रिश्ते को ठुकरा कर गोरी चमड़ी वाली से शादी कर ली, वह क्या जीवन के अनोखे सुख दे देगी इसे जो अपनी बिरादरी वाली लड़की न दे पाती. देखना, एक दिन ऐसा धत्ता बता कर जाएगी कि दिन में तारे नजर आएंगे.’’

‘‘यार मैं ने सुना है कि तुम भाभी को बुराभला भी कहते रहते हो. क्या इस उम्र में यह सब तुम्हें शोभा देता है?’’ एक दिन विनोद ने शर्माजी से पूछा था.

‘‘क्या करूं, जब वह सुनती ही नहीं, घर में सब सामान होते हुए भी फिर वही उठा लाती है. शाम होते ही खाना खा ऊपर जा कर जो एक बार बैठ गई तो फिर कुछ नहीं सुनेगी. कितना पुकारूं, सिर खपाऊं पर जवाब नहीं देती, जैसे बहरी हो गई हो. फिर एक पैग पीने के बाद मुझे भी होश नहीं रहता कि मैं क्या बोल रहा हूं.’’

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पूरी कहानी सुनातेसुनाते दीप्ति को लंच की छुट्टी का भी ध्यान न रहा. घड़ी देखी तो 5 मिनट ऊपर हो गए थे. दोनों ने भागते हुए जा कर बस पकड़ी.

घर पहुंचतेपहुंचते मेरे मन में पड़ोसिन आंटी के प्रति जो क्रोध और घृणा के भाव थे सब गायब हो चुके थे. धीरेधीरे हम भी उन के नित्य का ‘शबद कीर्तन’ सुनने के आदी होने लगे.

प्रतिदिन : भाग 2

‘‘इसी की तो सजा भुगत रहा है हमारा समाज,’’ दीप्ति बोली, ‘‘इन के 2 बेटे 1 बेटी है. तीनों ऊंचे ओहदों पर लगे हुए हैं. और अपनेअपने परिवार के साथ  आनंद से रह रहे हैं पर उन का इन से कोई संबंध नहीं है. हुआ यों कि इन्होंने अपने बड़े बेटे के लिए अपनी बिरादरी की एक सुशील लड़की देखी थी. बड़ी धूमधाम से रिंग सेरेमनी हुई. मूवी बनी. लड़की वालों ने 200 व्यक्तियों के खानेपीने पर दिल खोल कर खर्च किया. लड़के ने इस शादी के लिए बहुत मना किया था पर मां ने एक न सुनी और धमकी देने लगीं कि अगर मेरी बात न मानी तो मैं अपनी जान दे दूंगी. बेटे को मानना पड़ा.

‘‘बेटे ने कनाडा में नौकरी के लिए आवेदन किया था. नौकरी मिल गई तो वह चुपचाप घर से खिसक गया. वहां जा कर फोन कर दिया, ‘मम्मी, मैं ने कनाडा में ही रहने का निर्णय लिया है और यहीं अपनी पसंद की लड़की से शादी कर के घर बसाऊंगा. आप लड़की वालों को मना कर दें.’

‘‘मांबाप के दिल को तोड़ने वाली यह पहली चोट थी. लड़की वालों को पता चला तो आ कर उन्हें काफी कुछ सुना गए. बिरादरी में तो जैसे इन की नाक ही कट गई. अंकल ने तो बाहर निकलना ही छोड़ दिया लेकिन आंटी उसी ठाटबाट से निकलतीं. आखिर लड़के की मां होने का कुछ तो गरूर उन में होना ही था.

‘‘इधर छोटे बेटे ने भी किसी ईसाई लड़की से शादी कर ली. अब रह गई बेटी. अंकल ने उस से पूछा, ‘बेटी, तुम भी अपनी पसंद बता दो. हम तुम्हारे लिए लड़का देखें या तुम्हें भी अपनी इच्छा से शादी करनी है.’ इस पर वह बोली कि पापा, अभी तो मैं पढ़ रही हूं. पढ़ाई करने के बाद इस बारे में सोचूंगी.

‘‘‘फिर क्या सोचेगी.’ इस के पापा ने कहा, ‘फिर तो नौकरी खोजेगी और अपने पैरों पर खड़ी होने के बारे में सोचेगी. तब तक तुझे भी कोई मनपसंद साथी मिल जाएगा और कहेगी कि उसी से शादी करनी है. आजकल की पीढ़ी देशदेशांतर और जातिपाति को तो कुछ समझती नहीं बल्कि बिरादरी के बाहर शादी करने को एक उपलब्धि समझती है.’ ’’

इसी बीच दीप्ति की मम्मी कब हमारे लिए चाय रख गईं पता ही नहीं चला. मैं ने घड़ी देखी, 5 बज चुके थे.

‘‘अरे, मैं तो मम्मी को 4 बजे आने को कह कर आई हूं…अब खूब डांट पड़ेगी,’’ कहानी अधूरी छोड़ उस से विदा ले कर मैं घर चली आई. कहानी के बाकी हिस्से के लिए मन में उत्सुकता तो थी पर घड़ी की सूई की सी रफ्तार से चलने वाली यहां की जिंदगी का मैं भी एक हिस्सा थी. अगले दिन काम पर ही कहानी के बाकी हिस्से के लिए मैं ने दीप्ति को लंच टाइम में पकड़ा. उस ने वृद्ध दंपती की कहानी का अगला हिस्सा जो सुनाया वह इस प्रकार है:

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‘‘मिसेज शर्मा यानी मेरी पड़ोसिन वृद्धा कहीं भी विवाहशादी का धूमधड़ाका या रौनक सुनदेख लें तो बरदाश्त नहीं कर पातीं और पागलों की तरह व्यवहार करने लगती हैं. आसपड़ोस को बीच सड़क पर खड़ी हो कर गालियां देने लगती हैं. यह भी कारण है अंकल का हरदम घर में ही बैठे रहने का,’’ दीप्ति ने बताया, ‘‘एक बार पापा ने अंकल को सुझाया था कि आप रिटायर तो हो ही चुके हैं, क्यों नहीं कुछ दिनों के लिए इंडिया घूम आते या भाभी को ही कुछ दिनों के लिए भेज देते. कुछ हवापानी बदलेगा, अपनों से मिलेंगी तो इन का मन खुश होगा.

‘‘‘यह भी कर के देख लिया है,’ बडे़ मायूस हो कर शर्मा अंकल बोले थे, ‘चाहता तो था कि इंडिया जा कर बसेरा बनाऊं मगर वहां अब है क्या हमारा. भाईभतीजों ने पिता से यह कह कर सब हड़प लिया कि छोटे भैया को तो आप बाहर भेज कर पहले ही बहुत कुछ दे चुके हैं…वहां हमारा अब जो छोटा सा घर बचा है वह भी रहने लायक नहीं है.

‘‘‘4 साल पहले जब मेरी पत्नी सुमित्रा वहां गई थी तो घर की खस्ता हालत देख कर रो पड़ी थी. उसी घर में विवाह कर आई थी. भरापूरा घर, सासससुर, देवरजेठ, ननदों की गहमागहमी. अब क्या था, सिर्फ खंडहर, कबूतरों का बसेरा.

‘‘‘बड़ी भाभी ने सुमित्रा का खूब स्वागत किया. सुमित्रा को शक तो हुआ था कि यह अकारण ही मुझ पर इतनी मेहरबान क्यों हो रही हैं. पर सुमित्रा यह जांचने के लिए कि देखती हूं वह कौन सा नया नाटक करने जा रही है, खामोश बनी रही. फिर एक दिन कहा कि दीदी, किसी सफाई वाली को बुला दो. अब आई हूं तो घर की थोड़ी साफसफाई ही करवा जाऊं.’

‘‘‘सफाई भी हो जाएगी पर मैं तो सोचती हूं कि तुम किसी को घर की चाबी दे जाओ तो तुम्हारे पीछे घर को हवाधूप लगती रहेगी,’ भाभी ने अपना विचार रखा था.

‘‘‘सुमित्रा मेरी सलाह लिए बिना भाभी को चाबी दे आई. आ कर भाभी की बड़ी तारीफ करने लगी. चूंकि इस का अभी तक चालाक लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था इसलिए भाभी इसे बहुत अच्छी लगी थीं. पर भाभी क्या बला है यह तो मैं ही जानता हूं. वैसे मैं ने इसे पिछली बार जब इंडिया भेजा था तो वहां जा कर इस का पागलपन का दौरा ठीक हो गया था. लेकिन इस बार रिश्तेदारों से मिल कर 1 महीने में ही वापस आ गई. पूछा तो बोली, ‘रहती कहां? बड़ी भाभी ने किसी को घर की चाबी दे रखी थी. कोई बैंक का कर्मचारी वहां रहने लगा था.’

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‘‘सुमित्रा आगे बताने लगी कि भाभी यह जान कर कि हम अब यहीं आ कर रहेंगे, खुश नहीं हुईं बल्कि कहने लगीं, ‘जानती हो कितनी महंगाई हो गई है. एक मेहमान के चायपानी पर ही 100 रुपए खर्च हो जाते हैं.’ फिर वह उठीं और अंदर से कुछ कागज ले आईं. सुमित्रा के हाथ में पकड़ाते हुए कहने लगीं कि यह तुम्हारे मकान की रिपेयरिंग का बिल है जो किराएदार दे गया है. मैं ने उस से कहा था कि जब मकानमालिक आएंगे तो सारा हिसाब करवा दूंगी. 14-15 हजार का खर्चा था जो मैं ने भर दिया.

प्रतिदिन : भाग 1

प्रीति अपने पड़ोस में रहने वाले वृद्ध दंपती मिस्टर एंड मिसेज शर्मा के आएदिन के आपसी झगड़ों से काफी हैरानपरेशान थी. लेकिन एक दिन सहेली दीप्ति के घर मिसेज शर्मा को देख कर चौंक गई. और वह दीप्ति से मिसेज शर्मा के बारे में जानने की जिज्ञासा को दबा न सकी.

कहते हैं परिवर्तन ही जिंदगी है.

सबकुछ वैसा ही नहीं रहता जैसा

आज है या कल था. मौसम के हिसाब से दिन भी कभी लंबे और कभी छोटे होते हैं पर उन के जीवन में यह परिवर्तन क्यों नहीं आता? क्या उन की जीवन रूपी घड़ी को कोई चाबी देना भूल गया या बैटरी डालना जो उन की जीवनरूपी घड़ी की सूई एक ही जगह अटक गई है. कुछ न कुछ तो ऐसा जरूर घटा होगा उन के जीवन में जो उन्हें असामान्य किए रहता है और उन के अंदर की पीड़ा की गालियों के रूप में बौछार करता रहता है.

मैं विचारों की इन्हीं भुलभुलैयों में खोई हुई थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो,’’ मैं ने रिसीवर उठाया.

‘‘हाय प्रीत,’’ उधर से चहक भरी आवाज आई, ‘‘क्या कर रही हो…वैसे मैं जानती हूं कि तू क्या कर रही होगी. तू जरूर अपनी स्टडी मेज पर बैठी किसी कथा का अंश या कोई शब्दचित्र बना रही होगी. क्यों, ठीक  कहा न?’’

‘‘जब तू इतना जानती है तो फिर मुझे खिझाने के लिए पूछा क्यों?’’ मैं ने गुस्से में उत्तर दिया.

‘‘तुझे चिढ़ाने के लिए,’’ यह कह कर हंसती हुई वह फिर बोली, ‘‘मेरे पास बहुत ही मजेदार किस्सा है, सुनेगी?’’

मेरी कमजोरी वह जान गई थी कि मुझे किस्सेकहानियां सुनने का बहुत शौक है.

‘‘फिर सुना न,’’ मैं सुनने को ललच गई.

‘‘नहीं, पहले एक शर्त है कि तू मेरे साथ पिक्चर चलेगी.’’

‘‘बिलकुल नहीं. मुझे तेरी शर्त मंजूर नहीं. रहने दे किस्साविस्सा. मुझे नहीं सुनना कुछ और न ही कोई बकवास फिल्म देखने जाना.’’

‘‘अच्छा सुन, अब अगर कुछ देखने को मन करे तो वही देखने जाना पड़ेगा न जो बन रहा है.’’

‘‘मेरा तो कुछ भी देखने का मन नहीं है.’’

‘‘पर मेरा मन तो है न. नई फिल्म आई है ‘बेंड इट लाइक बैखम.’ सुना है स्पोर्ट वाली फिल्म है. तू भी पसंद करेगी, थोड़ा खेल, थोड़ा फन, थोड़ी बेटियों को मां की डांट. मजा आएगा यार. मैं ने टिकटें भी ले ली हैं.’’

‘‘आ कर मम्मी से पूछ ले फिर,’’ मैं ने डोर ढीली छोड़ दी.

मैं ने मन में सोचा. सहेली भी तो ऐसीवैसी नहीं कि उसे टाल दूं. फोन करने के थोड़ी देर बाद वह दनदनाती हुई पहुंच जाएगी. आते ही सीधे मेरे पास नहीं आएगी बल्कि मम्मी के पास जाएगी. उन्हें बटर लगाएगी. रसोई से आ रही खुशबू से अंदाजा लगाएगी कि आंटी ने क्या पकाया होगा. फिर मांग कर खाने बैठ जाएगी. तब आएगी असली मुद्दे पर.

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‘आंटी, आज हम पिक्चर जाएंगे. मैं प्रीति को लेने आई हूं.’

‘सप्ताह में एक दिन तो घर बैठ कर आराम कर लिया करो. रोजरोज थकती नहीं बसट्रेनों के धक्के खाते,’ मम्मी टालने के लिए यही कहती हैं.

‘थकती क्यों नहीं पर एक दिन भी आउटिंग न करें तो हमारी जिंदगी बस, एक मशीन बन कर रह जाए. आज तो बस, पिक्चर जाना है और कहीं नहीं. शाम को सीधे घर. रविवार तो है ही हमारे लिए पूरा दिन रेस्ट करने का.’

‘अच्छा, बाबा जाओ. बिना गए थोड़े मानोगी,’ मम्मी भी हथियार डाल देती हैं.

फिर पिक्चर हाल में दीप्ति एकएक सीन को बड़ा आनंद लेले कर देखती और मैं बैठी बोर होती रहती. पिक्चर खत्म होने पर उसे उम्मीद होती कि मैं पिक्चर के बारे में अपनी कुछ राय दूं. पर अच्छी लगे तब तो कुछ कहूं. मुझे तो लगता कि मैं अपना टाइम वेस्ट कर रही हूं.

जब से हम इस कसबे में आए हैं पड़ोसियों के नाम पर अजीब से लोगों का साथ मिला है. हर रोज उन की आपसी लड़ाई को हमें बरदाश्त करना पड़ता है. कब्र में पैर लटकाए बैठे ये वृद्ध दंपती पता नहीं किस बात की खींचातानी में जुटे रहते हैं. बैक गार्डेन से देखें तो अकसर ये बड़े प्यार से बातें करते हुए एकदूसरे की मदद करते नजर आते हैं. यही नहीं ये एकदूसरे को बड़े प्यार से बुलाते भी हैं और पूछ कर नाश्ता तैयार करते हैं. तब इन के चेहरे पर रात की लड़ाई का कोई नामोनिशान देखने को नहीं मिलता है.

हर रोज दिन की शुरुआत के साथ वृद्धा बाहर जाने के लिए तैयार होने लगतीं. माथे पर बड़ी गोल सी बिंदी, बालों में लाल रिबन, चमचमाता सूट, जैकट और एक हाथ में कबूतरों को डालने के लिए दाने वाला बैग तथा दूसरे हाथ में छड़़ी. धीरेधीरे कदम रखते हुए बाहर निकलती हैं.

2-3 घंटे बाद जब वृद्धा की वापसी होती तो एक बैग की जगह उन के हाथों में 3-4 बैग होते. बस स्टाप से उन का घर ज्यादा दूर नहीं है. अत: वह किसी न किसी को सामान घर तक छोड़ने के लिए मना लेतीं. शायद उन का यही काम उन के पति के क्रोध में घी का काम करता और शाम ढलतेढलते उन पर शुरू होती पति की गालियों की बौछार. गालियां भी इतनी अश्लील कि आजकल अनपढ़ भी उस तरह की गाली देने से परहेज करते हैं. यह नित्य का नियम था उन का, हमारी आंखों देखा, कानों सुना.

हम जब भी शाम को खाना खाने बैठते तो उधर से भी शुरू हो जाता उन का कार्यक्रम. दीवार की दूसरी ओर से पुरुष वजनदार अश्लील गालियों का विशेषण जोड़ कर पत्नी को कुछ कहता, जिस का दूसरी ओर से कोई उत्तर न आता.

मम्मी बहुत दुखी स्वर में कहतीं, ‘‘छीछी, ये कितने असभ्य लोग हैं. इतना भी नहीं जानते कि दीवारों के भी कान होते हैं. दूसरी तरफ कोई सुनेगा तो क्या सोचेगा.’’

मम्मी चाहती थीं कि हम भाईबहनों के कानों में उन के अश्लील शब्द न पड़ें. इसलिए वह टेलीविजन की आवाज ऊंची कर देतीं.

खाने के बाद जब मम्मी रसोई साफ करतीं और मैं कपड़ा ले कर बरतन सुखा कर अलमारी में सजाने लगती तो मेरे लिए यही समय होता था उन से बात करने का. मैं पूछती, ‘‘मम्मी, आप तो दिन भर घर में ही रहती हैं. कभी पड़ोस वाली आंटी से मुलाकात नहीं हुई?’’

‘‘तुम्हें तो पता ही है, इस देश में हम भारतीय भी गोरों की तरह कितने रिजर्व हो गए हैं,’’ मम्मी उत्तर देतीं, ‘‘मुझे तो ऐसा लगता है कि दोनों डिप्रेशन के शिकार हैं. बोलते समय वे अपना होश गंवा बैठते हैं.’’

‘‘कहते हैं न मम्मी, कहनेसुनने से मन का बोझ हलका होता है,’’ मैं अपना ज्ञान बघारती.

कुछ दिन बाद दीप्ति के यहां प्रीति- भोज का आयोजन था और वह मुझे व मम्मी को बुलाने आई पर मम्मी को कहीं जाना था इसीलिए वह नहीं जा सकीं.

यह पहला मौका था कि मैं दीप्ति के घर गई थी. उस का बड़ा सा घर देख कर मन खुश हो गया. मेरे अढ़ाई कमरे के घर की तुलना में उस का 4 डबल बेडरूम का घर मुझे बहुत बड़ा लगा. मैं इस आश्चर्य से अभी उभर भी नहीं पाई थी कि एक और आश्चर्य मेरी प्रतीक्षा कर रहा था.

अचानक मेरी नजर ड्राइंगरूम में कोने में बैठी अपनी पड़ोसिन पर चली गई. मैं अपनी जिज्ञासा रोक न पाई और दीप्ति के पास जा कर पूछ बैठी, ‘‘वह वृद्ध महिला जो उधर कोने में बैठी हैं, तुम्हारी कोई रिश्तेदार हैं?’’

‘‘नहीं, पापा के किसी दोस्त की पत्नी हैं. इन की बेटी ने जिस लड़के से शादी की है वह हमारी जाति का है. इन का दिमाग कुछ ठीक नहीं रहता. इस कारण बेचारे अंकलजी बड़े परेशान रहते हैं. पर तू क्यों जानना चाहती है?’’

‘‘मेरी पड़ोसिन जो हैं,’’ इन का दिमाग ठीक क्यों नहीं रहता? इसी गुत्थी को तो मैं इतने दिनों से सुलझाने की कोशिश कर रही थी, अत: दोबारा पूछा, ‘‘बता न, क्या परेशानी है इन्हें?’’

अपनी बड़ीबड़ी आंखों को और बड़ा कर के दीप्ति बोली, ‘‘अभी…पागल है क्या? पहले मेहमानों को तो निबटा लें फिर आराम से बैठ कर बातें करेंगे.’’

2-3 घंटे बाद दीप्ति को फुरसत मिली. मौका देख कर मैं ने अधूरी बात का सूत्र पकड़ते हुए फिर पूछा, ‘‘तो क्या परेशानी है उन दंपती को?’’

‘‘अरे, वही जो घरघर की कहानी है,’’ दीप्ति ने बताना शुरू किया, ‘‘हमारे भारतीय समाज को पहले जो बातें मरने या मार डालने को मजबूर करती थीं और जिन बातों के चलते वे बिरादरी में मुंह दिखाने लायक नहीं रहते थे, उन्हीं बातों को ये अभी तक सीने से लगाए घूम रहे हैं.’’

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‘‘आजकल तो समय बहुत बदल गया है. लोग ऐसी बातों को नजरअंदाज करने लगे हैं,’’ मैं ने अपना ज्ञान बघारा.

‘‘तू ठीक कहती है. नईपुरानी पीढ़ी का आपस में तालमेल हमेशा से कोई उत्साहजनक नहीं रहा. फिर भी हमें जमाने के साथ कुछ तो चलना पड़ेगा वरना तो हम हीनभावना से पीडि़त हो जाएंगे,’’ कह कर दीप्ति सांस लेने के लिए रुकी.

मैं ने बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘जब हम भारतीय विदेश में आए तो बस, धन कमाने के सपने देखने में लग गए. बच्चे पढ़लिख कर अच्छी डिगरियां लेंगे. अच्छी नौकरियां हासिल करेंगे. अच्छे घरों से उन के रिश्ते आएंगे. हम यह भूल ही गए कि यहां का माहौल हमारे बच्चों पर कितना असर डालेगा.’’

प्रतिभा के सदुपयोग से जीवन सार्थक

धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के आरोप में आईएएस जैसे पदाधिकारी भी आएदिन अखबारों की सुर्खियां बनते हैं. पर हर आईएएस अफसर ऐसा नहीं होता है. कुछ ऐसे भी आईएएस अफसर होते हैं जो न सिर्फ पद की प्रतिष्ठा बनाए रखते हैं, बल्कि ईमानदारी का भी उदाहरण पेश करते हैं.

आज ऐसी स्थिति देखसुन कर कि अनेक आईएएस अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित हो रहे हैं, मैं ने दांतों तले उंगली दबा ली. मु झे आश्चर्य होता है कि ऐसी बुद्धि के मालिक कि उन का चयन आईएएस जैसे मुश्किल व सम्माननीय पद के लिए हो जाता है, तो फिर उन की प्रतिभा को काठ क्यों मार जाता है. वे न केवल गलत कदम उठाने की सोचते हैं, बल्कि बढ़ा भी डालते हैं. इस वजह से मात्र उन की प्रतिष्ठा ही मटियामेट नहीं होती, बल्कि नौकरी से हाथ धोने की नौबत तक आ जाती है.

आईएएस अधिकारियों की ऐसी गलत सोच देखसुन कर मु झे अचानक 1968 के बैच के आईएएस डा. गिरीश चंद्र श्रीवास्तव और उन के कुछ बाद ही आईएएस बनीं उन की धर्मपत्नी रोली श्रीवास्तव का सम्मान के साथ स्मरण हो आया.

रोली अपने पति से कुछ जूनियर रहीं. जब से गिरीश चंद्र और रोली ने अपनाअपना पदभार संभाला, बहुत ही ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा से सरकार की सेवा करते रहे. इस से पहले कि उन के बारे में कुछ विशेष लिखूं, संक्षिप्त में उन का परिचय देना जरूरी है.

गिरीश का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में 1942 में हुआ था. संयोग से उस समय बस्ती के जिलाधिकारी कोई गिरीश चंद्र थे. उन की मां ने उन्हीं के नाम पर अपने बेटे का नाम गिरीश चंद्र रख दिया, यह सोच कर कि मेरा बेटा भी एक दिन आईएएस बनेगा, जो भविष्य में सत्य हो कर सामने आया भी. गिरीश बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के रहे. हाईस्कूल से ही एमएससी टौपर और स्कौलरशिप होल्डर रहे. 18 वर्ष की आयु में उन्होंने एमएससी जियोफिजिक्स बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से किया था. आईएएस में बैठने की अभी आयु न होने के कारण वे जियोलौजिकल सर्वे औफ इंडिया में 4 वर्ष फर्स्टक्लास गजटेड औफिसर के पद पर कार्यरत रहे. 22 वर्ष की आयु होने पर वे यूपीएससी एग्जाम में अपने पहले ही प्रयास में सफल हो गए.

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कुछ समय बाद ही वे रोली श्रीवास्तव, आईएएस, के साथ परिणयसूत्र में बंधे. दोनों पतिपत्नी की नियुक्ति अधिकतर अलगअलग स्थानों पर ही होती रही. जैसे, जब गिरीश की नियुक्ति मिजोरम में हुई तब रोली शिलौंग में रहीं. गिरीश स्थानांतरित हो कर दिल्ली आए, तो रोली को नागपुर जाना पड़ा. लगभग पूरी सर्विस में अलगअलग स्थानों पर रहते हुए दोनों पतिपत्नी अपनेअपने विभागों का कार्य अत्यंत सत्यनिष्ठा से संभालते रहे.

हां, एक स्थान पर उन को साथ रहने का सुअवसर जरूर प्राप्त हुआ. वह था गोवा. गोवा में गिरीश चंद्र चीफ सैक्रेटरी औफ गोवा के सम्माननीय पद पर नियुक्त किए गए. रोली ने भी वहां पर चीफ कमिश्नर औफ इनकमटैक्स के पद का भार संभाला. वहां पर पतिपत्नी अपनेअपने विभाग का कार्य अत्यंत सत्यनिष्ठा और ईमानदारी का परिचय देते हुए करते रहे. हर व्यक्ति जो उन के संपर्क में आता, उन की प्रशंसा किए बिना नहीं रहता. उन को किसी प्रकार का प्रलोभन दे कर विचलित करने का साहस कोई नहीं कर सकता था. लगभग 3 वर्ष वे दोनों गोवा में रहे.

घटना उस समय की है जब गिरीश दिल्ली में थे. गिरीश की मां हमेशा उन्हीं के साथ रहती थीं. अचानक वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गईं. उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ा. अकेले रहने के कारण गिरीश को मां को अस्पताल में देखने और औफिस का भी काम करने में कुछ दिक्कत आ रही थी. यहां यह बताना जरूरी है कि उन दिनों गिरीश को औफिस के अन्य कार्यों के साथ इंजीनियरों की भरती करने का भी काम देखना पड़ता था.

सो, उन के अंडर कार्य करते दोएक इंजीनियरों ने उन से अनुरोध किया कि ‘सर, आप निश्चिंत हो कर औफिस का कार्य करें, हम लोग अस्पताल में मांजी की देखभाल कर लेंगे.’

लेकिन गिरीश ने स्पष्ट मना करते हुए कहा, ‘नहीं, मां की देखभाल का इतना बड़ा एहसान मैं किसी का नहीं ले सकता. मैं ने अपने भाइयों को बुला लिया है. वे लोग यथासंभव शीघ्र आ जाएंगे, आप लोगों को परेशान होने की जरूरत नहीं है.’

गिरीश ने बाद में बताया, ‘‘मां की सेवा का इतना बड़ा ऋण मैं कैसे ले सकता था. आज वे हमें अपना ऋणी बना कर कल कहते कि फलां इंजीनियर की नियुक्ति कर दीजिए तो मेरा ऋणी मन क्या जवाब देता? मां की सेवा के प्रतिदान में मैं गलत काम करने के लिए विवश हो जाता, जो मु झे कतई स्वीकार नहीं होता.’’ इतनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की भावना से परिपूर्ण रहे गिरीश.

एक अन्य छोटी सी घटना में भी उन का बड़प्पन  झांकता नजर आता है. एक औफिस में वे मुआयना करने के लिए गए थे. भीषण गरमी थी. उन्होंने पीने के लिए पानी मंगाया. तुरंत ही ट्रे में कोल्डड्रिंक और शिकंजी ले कर लोग सामने आ गए. गिरीश ने देखा तो नाराज होते हुए कहा, ‘यह क्या? मैं ने पानी मांगा था, जितना कहा जाए, बस, उतना ही किया करिए.’ अधिकारीगण  झेंप से गए, फिर केवल पानी ही ले कर सामने आने का साहस कर सके.

रोली भी अपने पति के नक्शेकदम पर चलती रहीं. किसी की मजाल भी नहीं थी कि किसी गलत काम के लिए कोई उन से कहने की हिम्मत कर सके. बहरहाल, इसी तरह समय सरकता रहा.

सरकते समय के साथ 2004 का आगमन हुआ और डा. गिरीश चंद्र श्रीवास्तव ने नौकरी से अवकाश ग्रहण कर लिया. अपने पति से कुछ जूनियर रहीं रोली की अभी 4 वर्ष नौकरी शेष थी. सो, उन्होंने कोशिश कर के शेष समय अपने होम डिस्ट्रिक्ट इलाहाबाद के लिए नियुक्ति ले ली. ऐडमिनिस्ट्रेशन सर्विस में यह छूट देने का नियम है कि अवकाश ग्रहण करने से 3-4 वर्ष शेष रहने पर यदि चाहें तो होम डिस्ट्रिक्ट मिल सकता है.

रोली की इलाहाबाद नियुक्ति मिलना गिरीश को भी अच्छा प्रतीत हुआ. वे अभी दिल्ली में ही थे. जौब जौइन करने के लिए रोली इलाहाबाद आ गईं, अपनी मां के पास.

गिरीश अपना वांछनीय सामान समेट कर प्रयागराज ट्रेन से इलाहाबाद के लिए निकल पड़े. उन्होंने अपने पहुंचने की सूचना भी भेज दी. यात्रा के दौरान रात्रि में फोन पर रोली की मां ने बात कर के बताया कि रोली को बुखार आ गया है, लेकिन चिंता की बात नहीं है, डाक्टर को बुला कर दिखा दिया है.

लेकिन अनहोनी उन के सुखद दिनों को लील लेने के लिए करीब ही खड़ी थी. सुबह 4 बजे रोली ने उठ कर पानी पिया और अपनी मां से मंद आवाज में बोलीं, ‘‘मां, सुबह जीसी आ रहे हैं, उन का ध्यान रखना.’’ वे गिरीश को जीसी ही कह कर संबोधित करती थीं.

बेटी की बात सुन कर मां ने कहा, ‘‘तुम को चिंता करने की जरूरत नहीं है, तुम आराम करो.’’

रोली को जैसे अपने अनंतपथ पर जाने का पूर्वाभास हो गया था, अत्यंत क्षीण आवाज में बोलीं, ‘‘मां, मु झे भय लग रहा है कि कहीं ट्रेन लेट न हो.’’

मां ने हलकी  िझड़की लगाई, ‘‘बिना मतलब मन में शंका करने की जरूरत नहीं है, आराम से सो जाओ.’’

मां की डांट से रोली दूसरी तरफ करवट बदल कर सो गईं, कभी न उठने के लिए.

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घर पहुंच कर गिरीश को गहरा आघात लगा, जैसे क्षणभर में सबकुछ खत्म हो गया हो, आंखों से खून टपक पड़ा. जीवनसाथी का साथ पलभर में छूट गया था, साथ रहने का सुनहरा महल ढह गया था. कुदरत की इस निष्ठुरता पर वे हाथ मल कर रह गए, किसी से कुछ कहतेसुनते नहीं बना.

आजकल गिरीश चंद्र श्रीवास्तव दिल्ली में ही अपनी बेटी पुण्य सलीला के साथ रहते हैं. वे भी आईएएस हैं और गृह मंत्रालय में कार्यरत हैं. कुछ समय तो गिरीश आईएएस और पीसीएस परीक्षाओं में उत्तीर्ण उम्मीदवारों का साक्षात्कार भी लेते रहे, लेकिन अब नहीं लेते.

देख कर व सम झ कर अफसोस होता है कि ऐसे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी अब देखने व सुनने को कम मिलते हैं.

ब्रेकअप तेरे कितने रूप

ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग …

फोन की घंटी बजते ही रसिका की मम्मी उपमा ने जल्दी से उठाया, जाने कितनी देर से उन की सांसें अटकी हुई थीं. दरअसल, रसिका, जो बेंगलुरु में नौकरी

करती है, आज एक लड़के से मिलने एक रैस्टोरैंट में गई थी. इस सजातीय लड़के के बारे में उस के पापामम्मी को औनलाइन मैट्रिमोनियल साइट से पता चला था.

‘‘हैलो, रसिका. मिल आई उदित से? कैसा लगा?’’ मम्मी की उत्कंठा छिपाए नहीं छिप रही थी. एक चुप्पी के बाद रसिका ने उखड़ेउखड़े स्वर में कहा, ‘‘नहीं मम्मी, बिलकुल भी इंप्रैसिव व्यक्तित्व नहीं है. यह ठीक है कि  वह टौप कालेज से पढ़ा हुआ है, पर थोड़ा तो अच्छा दिखना ही चाहिए. केवल डिगरी से क्या होता है, मुझे तो बहुत डम्ब लगा, मैं नहीं करने वाली इस से शादी. तुम अब दूसरा खोजो.’’ यह कहते हुए रसिका ने फोन काट दिया.

उस की मम्मी सोचती रह गईं. अब तक कुल 7 लड़कों से रसिका मिल चुकी थी. लड़के क्या कहते, उस से पहले ही यह कोई नुक्स निकाल मम्मी को मना कर देती. पिछली बार इसे शिकायत थी कि लड़के ने अच्छे कालेज से पढ़ाई नहीं की है. कितनी मशक्कत के बाद उदित के प्रोफाइल को छांटा गया था. उसे भी उस ने एक झटके में नकार दिया.

इंजीनियरिंग, फिर एमबीए करतेकरते ही रसिका की इतनी उम्र निकल गई, तिस पर लड़कों को इतना छांटना. वे चिंतित हो उठीं. उन्हें याद हो आया रसिका का इंजीनियरिंग कालेज का वह दोस्त जो दोस्त से कुछ अधिक समझ आता था, स्वप्निल. उपमा को रसिका उस के बारे में खूब बताती थी. इन 4 वर्षों में उपमा समझ गई थी कि स्वप्निल ही उन का भावी दामाद है. फिर रसिका एमबीए करने लगी और स्वयं ही उस की बातों से स्वप्निल गुम होता चला गया. कभी खोदखोद कर उपमा ने बेटी से पूछना भी चाहा तो पता लगता कि दोनों का संपर्क सूत्र ही टूटा हुआ है. अब जोरशोर से रसिका की शादी का सोचा जा रहा है पर उसे कोई लड़का जंच ही नहीं रहा है.

कालेजों में आजकल बहुत आम है लड़केलड़कियों का दोस्ती से बढ़ कर कुछ और होना. ये प्यार, ये लगाव, स्कूली बच्चों की तुलना में परिपक्व होते हैं और बहुत सारी ऐसी दोस्तियां सुखद शादी में तबदील भी हो जाती हैं. वहीं, कुछ जोड़ों को जातिपांति और धर्म के चलते अलग हो जाना होता है, जब परिवार वाले उन के दोस्त को दामाद या बहू के रूप में स्वीकारने से इनकार कर देते हैं. पर हमेशा परिवार या मातापिता ही कारण नहीं होते हैं ब्रेकअप के लिए, बल्कि आजकल के समझदार मातापिता राहत ही महसूस करते हैं कि उन के बच्चों को अपना मनपसंद जीवनसाथी मिल रहा है.

ब्रेकअप के कई कारण होते हैं, जिन में जोड़े खुद आपसी सहमति से अलग हो जाते हैं, पर उस टूटन की टीस शायद रह जाती है हमेशा के लिए. अंतर्मन में उस पार्टनर की प्रतिछाया बसी रह जाती है जिसे वह अपने संभावित पार्टनर में खोजता रहता है.

रूही और उत्सव बचपन के मित्र थे. बाद में उन्होंने साथ ही कालेज की पढ़ाई भी की. उत्सव जहां बेहद शांत, सौम्य और मितभाषी था वहीं रूही चुलबुली सी खूब बातें करने वाली लड़की थी. दोनों की आपस में खूब पटती भी थी. दोनों ने विदेश जा कर आगे पढ़ने का प्लान सोचा हुआ था और उस से पहले शादी. इस बीच घटनाक्रम काफी तेजी से घटित हुआ. उत्सव के पिताजी का देहांत हो गया और उसे जो पहली नौकरी मिली उसे करना शुरू कर दिया. आगे विदेश जा कर पढ़ने का प्लान धरा रह गया.

रूही अपने मातापिता को उत्सव के बारे में बता चुकी थी और वे उत्सव से अपनी बेटी की शादी करने के लिए तैयार भी थे. पर उत्सव जिम्मेदारियों के बोझ तले ऐसा दबता चला गया कि अपनी जिंदगी के विषय में सोचना ही छोड़ दिया. रूही कुछ वर्षों तक उसे मनाती रही, उसे आगे बढ़ने व पढ़ने के लिए भी प्रेरित करती रही. पर उत्सव पीछे हटता चला गया और रूही से खुद को विलग कर लिया. हार कर रूही अकेली ही विदेश गई आगे पढ़ने. उस के पिता दुखी मन से उस के लिए नए वर की तलाश में लग गए.

वहीं बहुत उदाहरण ऐसे भी मिलते हैं जब लड़के और लड़कियां दोनों मजे के लिए कैंपस में प्रेमीप्रेमिका बन घूमते हैं. मातापिता को छोड़ पूरी दुनिया भले उन की अंतरंगता को जान रही हो, कैंपस से निकलते ही दोनों अपनेअपने रास्ते चल देते हैं.

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समृद्धि हैरान रह गई जब उसे सुम्मी की शादी का कार्ड मिला क्योंकि उस पर किसी और लड़के का नाम था. समृद्धि को कैंपस के वे दिन याद आ गए जब सुम्मी राकेश के साथ बाइक के पीछ बैठी घूमती रहती थी. कैंटीन हो या क्लासरूम दोनों हमेशा साथसाथ ही दिखते थे. उस की शादी में मौका देख समृद्धि ने धीरे से पूछ ही लिया कि राकेश से क्यों नहीं हो सकी शादी, तो सुम्मी ने हंसते हुए कहा, ‘‘हम तो सिर्फ दोस्त थे.’’

समृद्धि की आंखों के सामने कैंपस के उन दोनों के बहुतेरे सीन घूम गए. वह सोच में पड़ गई कि क्या वे वास्तव में सिर्फ दोस्त ही थे.

बदलते वक्त के साथ शादी के प्रति युवाओं का नजरिया भी बेहद बदला है. पहले अधिकांश लड़कियां सिर्फ शादी करने के लिए ही पढ़ाई करती थीं और शादी के बाद ज्यादा न सोचते हुए अपना घर, बच्चे इत्यादि संभालने में लग जाती थीं. पर अब वक्त के साथ यह अवधारणा बदल चुकी है.

लड़कियों की शादी की औसत उम्र बढ़ती जा रही है. अब पढ़ाई, कैरियर और सपनों को पूरा करने के बाद ही शादीब्याह का नंबर आ पाता है. पर इस चक्कर में स्वभाव और व्यवहार का वह लचीलापन खत्म होने लगता है. अपनी पसंद या नापसंदगी के प्रति दृढ़ता का भाव जागृत होने लगता है जो बढ़ती उम्र के साथ एकदूसरे के संग सामंजस्य बैठाने में बाधक बनता है. अब लड़कियां भी जोरदार तरीके से अपनी शादी पर राय जाहिर करती हैं. यह बात आज कितनों को चुभ भी जाती है.

रजत और झिलमिल की दोस्ती कई सालों से चल रही थी. दोनों एकदूसरे के घर भी आतेजाते थे. एक दिन अचानक रजत ने अपनी मम्मी के सामने दिल खोल दिया, ‘‘मम्मी झिलमिल में वाइफ मैटीरियल का अभाव है.’’

‘‘मतलब क्या है तुम्हारा? इतने दिनों तक साथ घूमने के बाद यह खयाल नहीं आना चाहिए, उस के प्रति अन्याय हो जाएगा.’’ रजत की मम्मी ने चौंकते हुए कहा.

‘‘मैं सच कह रहा हूं, वह सिर्फ दोस्त के रूप में अच्छी है पर एक पत्नी के रूप में मुझे वह ठीक नहीं लगती है. तुम ने कभी पापा की किसी बात को काटा है? कैसे दौड़दौड़ कर तुम उन की सेवा करती हो. क्या कभी झिलमिल से मैं ऐसी आशा कर सकता हूं? हर बात पर वह बहस करने लगेगी या बेतुके नारीवादी तर्क देने लगेगी.’’

रजत की बात सुन उस की मम्मी अचंभित रह गईं. वे उसे समझाने की कोशिश करने लगीं कि वक्त बदल गया है. वे नौकरी नहीं करती थीं और पतिसेवा उन का धर्म है की सोच के साथ उन की परवरिश हुई थी. झिलमिल आज की पढ़ीलिखी, बाहर की दुनिया से तालमेल रख कर चलने वाली लड़की है. उस की सोच परिपक्व है और वह उस के लिए बेहतर जीवनसाथी साबित होगी. परंतु रजत के दिमाग में जो पत्नी का खाका बना हुआ था, उस में अब झिलमिल फिट नहीं बैठती थी.

इस बात को 2 वर्र्ष होने को आए, शादी के प्रति रजत की अरुचि भांप झिलमिल खुद ही उस से कटने लगी और कुछ ही महीनों के अंदर उस ने अपने पापा के  द्वारा खोजे एक लड़के संग ब्याह कर घर बसा लिया. रजत आज तक वैसी लड़की खोज रहा है जो पढ़ीलिखी और स्मार्ट हो, झिलमिल की तरह, पर घर में उस की मम्मी की तरह की पत्नी बन कर रहे. हो सकता है कभी मिल भी जाए पर अब तक उस के मातापिता का बुरा हाल है, उन्हें छोटे बेटे की भी शादी करनी है.

आजकल समझदार मातापिता अपने पढ़ेलिखे बच्चों की पसंद का सम्मान और विश्वास करते हुए ज्यादा अड़चनें नहीं खड़ी करते हैं, क्योंकि वे देख रहे हैं समाज में आजकल सिर्फ लड़कियों की ही नहीं, लड़कों की शादी में भी दिक्कतें आ रही हैं. अपेक्षाओं का आसमान इतना वृहद, इतना विस्तृत होता है भावी जीवनसाथी से कि उस मापदंड पर खरा मिलनाखोजना असंभव सा हो जाता है. अपनी पसंद की शादियों में कुछ ऊंचनीच बच्चे बरदाश्त कर लेते हैं पर जब मातापिता को खोजने की जिम्मेदारी देते हैं तो साथ में अपनी पसंदनापसंद की फेहरिस्त थमा देते हैं वे.

रूबीना और आकर्ष की जोड़ी एक आदर्श जोड़ी है. एक सी सोच और मानसिकता से ही वे एकदूसरे के करीब आए थे. परंतु दोनों के घर वालों ने इस शादी के लिए इनकार कर दिया तो दोनों ही मान गए. लेकिन उन्हें बिलकुल उन्हीं गुणों से पूर्ण जीवनसाथी खोजने की जिम्मेदारी दे दी जो वे एकदूजे में पंसद करते थे. फिलहाल ब्रेकअप वाली स्थिति से दोनों गुजर रहे हैं और इंतजार कर रहे हैं कब उन का मनपसंद जीवनसाथी मिलेगा. जीवन की सुनहरी घडि़यां गुजर रही हैं और मातापिता नाकाम साबित हो रहे हैं परफैक्ट वरवधू की तलाश में क्योंकि रूबीना और आकर्ष को तो बिलकुल एकदूसरे जैसे ही साथी चाहिए.

आनंद और रश्मि एक ही औफिस में काम करते थे. पर रश्मि ने तेजी से तरक्की कर ली. उसे आनंद से ज्यादा बोनस मिला और एक प्रमोशन भी. जहां पहले दोनों एकदूसरे से बात करने व मिलने के बहाने ढूंढ़ते थे, अब एकदूसरे से कन्नी काटने लगे हैं.

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अवंतिका को इसी तरह समर्थ की अवहेलना और नजरअंदाजी जब नागवार गुजरने लगी तो उस ने एक दिन विभिन्न सूत्रों से पता करवाया. समर्थ को पिछले साल6 महीनों के लिए विदेश भेजा गया था, वहीं वह किसी दूसरी लड़की से दोस्ती कर उस के प्रति समर्पित हो गया था. पर अपनी 4 साल पुरानी गर्लफ्रैंड अवंतिका को वह बता नहीं पा रहा था कि अब उस की रुचि उस में नहीं है. ब्रेकअप तो हुआ पर उस का निशान शायद अवंतिका के दिल पर सदा के लिए अंकित हो गया.

जितनी आसानी से आजकल दोस्ती होती है उतनी ही तेजी से टूटती भी दिखती है. कुछ जोड़े सफलतापूर्वक दोस्ती, डेटिंग की अवस्था पार कर जीवनसाथी बन एक सफल खुशहाल जिंदगी जीते हैं, तो वहीं कई जोड़े शादी के बंधन में बंधने से पूर्व ही किन्हीं कारणों से जुदा हो जाते हैं. ऐसा नहीं है कि मातापिता हमेशा खुश ही होते हैं, जब उन के बेटे या बेटी का ब्रेकअप होता है. बल्कि ज्यादातर मांबाप दुखी होते हैं, अपने बच्चे के लिए क्योंकि वे जानते हैं कि अगले रिश्ते में भी वह पिछले का ही अक्स खोजेगा.

आसान नहीं है ब्रेकअप से उबरना. चाहे लड़का हो या लड़की, दोनों के दिल टूटते हैं. लंबे समय की डेटिंग के बाद दोनों को एकदूसरे की आदत हो जाती है. एक समय ऐसा था जब वे प्रेम में थे, तब दूसरा कोई नजर तक न आता था. तो प्रेम से विलग होने के पश्चात भी फिर कहीं और किसी से जुड़ने में बहुत वक्त भी लगता है क्योंकि आड़े आती हैं वे यादें जो दोनों ने साथसाथ जी थीं. परंतु जिंदगी रुकती नहीं है, किसी ब्रेकअप के बाद भी. शादी कर कड़वाहटभरी जिंदगी जीने से तो बेहतर है कि पहले ही अलग हो जाएं. कई बार युवा डिप्रैशन की अवस्था तक पहुंच जाते हैं, रिश्तों से विश्वास तक उठ जाता है परंतु यह कोई हल नहीं है. प्यार होना या टूटना जीवन की अवस्थाएं हैं, न कि जिंदगी.

मजबूत हो आगे की सोचनी ही होगी. ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले.’

प्यार का आधा-अधूरा सफर : भाग 2

प्यार का आधा-अधूरा सफर : भाग 1

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शिवांगी खूबसूरत थी. जब उस ने 16वां बसंत पार किया तो उस के सौंदर्य और भी निखार आ गया. उसे जो भी देखता, उस की खूबसूरती की तारीफ करता. शिवांगी पढ़नेलिखने में भी तेज थी. उस ने हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी. वह आगे भी अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी, लेकिन उस के पिता ने उस की आगे की पढ़ाई बंद कर दी थी.

शिवांगी की सहेली आरती उस से 3 साल बड़ी थी, जो उस के पड़ोस में ही रहती थी. दोनों पक्की सहेलियां थीं. जब आरती का विवाह हुआ तो शादी के समारोह में शिवांगी की उपस्थिति जरूरी थी.

शादी समारोह के बाद नागेंद्र को अपने घर लौट आना चाहिए था, लेकिन शिवांगी के प्यार ने उस के पैरों में जैसे जंजीर डाल दी थी. वह बुआ के घर ही रुका रहा. नागेंद्र को जब शिवांगी के करीब जाने की तड़प सताने लगी तो वह उस के घर के चक्कर लगाने लगा. शिवांगी दिख जाती तो वह उस से हंसनेबतियाने की कोशिश करता.

नागेंद्र की आंखों में अपने प्रति चाहत देख कर शिवांगी का भी मन विचलित हो उठा. अब वह भी नागेंद्र से मिलने को आतुर रहने लगी. चाहत दोनों तरफ थी, लेकिन प्यार का इजहार करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा था.

नागेंद्र ऐसे मौके की तलाश में रहने लगा, जब वह अपने दिल की बात शिवांगी से कह सके. चाह को राह मिल ही जाती है. एक दिन नागेंद्र को मौका मिल ही गया. शिवांगी को घर में अकेली देख नागेंद्र ने कहा, ‘‘शिवांगी, अगर तुम बुरा न मानो तो मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

‘‘बात ही तो कहनी है तो कह दो, इस में बुरा मानने वाली कौन सी बात है.’’ शिवांगी ने झिझकते हुए कहा. शायद उसे पता था कि नागेंद्र क्या कहने वाला है.

‘‘शिवांगी, तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. मुझे तुम से प्यार हो गया है. जब तक मैं तुम्हारा चेहरा न देख लूं, मुझे चैन नहीं पड़ता.’’ नागेंद्र ने मन की बात कह दी.

नागेंद्र की बात सुन कर शिवांगी के दिल में गुदगुदी होने लगी. वह शरमाते हुए वह बोली, ‘‘नागेंद्र, मेरा भी यही हाल है.’’

‘‘सचऽऽ’’ कहते हुए नागेंद्र ने शिवांगी को अपनी बांहों में भर कर कहा, ‘‘मैं यही बात सुनने को कब से इंतजार कर रहा हूं.’’

उस दिन के बाद दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. मिलनामिलाना भी होने लगा. दोनों का प्यार इतना गहरा हो गया कि वे जीनेमरने की कसमें खाने लगे. नागेंद्र लगभग 10 दिनों तक बूढ़ादाना में रहा और शिवांगी से प्यार की पींगें बढ़ाता रहा.

इस के बाद वह कानपुर लौट आया. हालांकि बुआ के घर अधिक दिनों तक रुकने को ले कर पिता ने उसे डांटाफटकारा, लेकिन नागेंद्र ने बहाना बना कर पिता का गुस्सा शांत कर दिया था.

नागेंद्र चला गया तो शिवांगी को एक अजीब सी बेचैनी ने घेर लिया. उस के जेहन में नागेंद्र का हंसतामुसकराता चेहरा घूमता रहता था. वह हर समय नागेंद्र के खयालों में डूबी रहती.

एक दिन शिवांगी नागेंद्र के खयालों में डूबी हुई थी कि मोबाइल की घंटी बजी. उस ने स्क्रीन पर नजर डाली तो उस का दिल तेजी से धड़क उठा. क्योंकि वह काल उस के प्रेमी नागेंद्र की थी. काल रिसीव करते ही नागेंद्र बोला, ‘‘तुम्हारे गांव से लौटने के बाद यहां मेरा मन नहीं लग रहा.’’

‘‘मेरा भी यही हाल है नागेंद्र.’’ दोनों के बीच अभी बातों की शुरुआत हुई ही थी कि शिवांगी का भाई आ गया तो शिवांगी ने यह कहते हुए मोबाइल बंद कर दिया कि बाद में काल करती हूं.

भाई के चले जाने के बाद शिवांगी ने नागेंद्र को फोन मिलाया और काफी देर तक बातें कीं. इस के बाद दोनों की मोबाइल पर अकसर रोजाना बातें होने लगीं. बिना बात किए न नागेंद्र को चैन मिलता था, न ही शिवांगी के दिल को तसल्ली होती थी. इस तरह हंसतेबतियाते 3 माह का समय बीत गया.

शिवांगी ने लाख कोशिश की कि उस के प्रेम संबंधों की जानकारी किसी को न होने पाए, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. एक दिन देर शाम शिवांगी मोबाइल पर नागेंद्र से बतिया रही थी, तभी उस की बातें उस के भाई विकास ने सुन लीं. उस ने यह बात अपने पिता को बता दी.

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शिवांगी की हरकत का पता चलने पर कन्हैयालाल गौतम सन्न रह गए. उन्होंने उसे कमरे में ले जा कर समझाया, ‘‘शिवांगी, तुझ पर तो मैं बहुत भरोसा करता था. लेकिन तू मेरे भरोसे को तोड़ रही है. आशा के भतीजे नागेंद्र से तेरा क्या चक्कर है?’’

‘‘पापा, मेरा किसी से कोई चक्कर नहीं है.’’ शिवांगी ने दबी आवाज में कहा.

‘‘तू क्या सोचती है कि तेरी बातों पर मुझे विश्वास हो जाएगा. जो बात मैं कह रहा हूं उसे कान खोल कर सुन ले. आज के बाद तू नागेंद्र से मोबाइल पर बात नहीं करेगी. मना करने के बावजूद अगर तूने हरकत की तो मैं तुझे जिंदा जमीन में गाड़ दूंगा. भले ही मुझे फांसी की सजा क्यों न हो जाए.’’ कन्हैयालाल ने धमकी दी.

पिता ने जो कहा था वह सच था, इसलिए शिवांगी ने कोई जवाब नहीं दिया. वह पिता की चेतावनी से डर गई थी. डर की वजह से शिवांगी ने कुछ दिन नागेंद्र से बात नहीं की, जिस से नागेंद्र परेशान हो उठा. वह जान गया कि कोई बात जरूर है, जिस से शिवांगी उस से बात नहीं कर रही है और उस का फोन भी रिसीव नहीं कर रही है.

लेकिन प्रेम दीवानी शिवांगी को पिता की नसीहत रास नहीं आई. वह तो नागेंद्र के प्यार में इस कदर डूब गई थी जहां से निकलना मुमकिन नहीं था. जब शिवांगी को लगा कि घर वालों का विरोध बढ़ रहा है तो उस ने मोबाइल पर अपने प्रेमी नागेंद्र से बात की, ‘‘नागेंद्र, मैं बहुत परेशान हूं. घर वालों को हमारे प्यार की जानकारी हो गई है. पापा तुम से दूर रहने की धमकी दे चुके हैं. लेकिन मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती. कोई उपाय ढूंढो.’’

‘‘शिवांगी, मैं तुम्हारी परेशानी समझता हूं. तुम्हारे पापा पुराने खयालों के हैं. वह हम दोनों को कभी एक नहीं होने देंगे. अब तुम उपाय खोजने की बात कर रही हो तो फिर एक ही उपाय है कि हम दोनों घर छोड़ दें और कहीं और जा कर दुनिया बसा लें.’’ नागेंद्र बोला.

‘‘शायद तुम ठीक कह रहे हो. मैं तुम्हारे साथ घर छोड़ने को राजी हूं.’’ शिवांगी ने सहमति जताई.

‘‘तो ठीक है, तुम 30 अगस्त 2019 की दोपहर मुझे दिबियापुर (फफूंद) रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर एक पर मिलो. वहीं से हम दोनों आगे का सफर तय करेंगे.’’ नागेंद्र ने कहा.

नागेंद्र से बात करने के बाद शिवांगी घर छोड़ने की तैयारी में जुट गई. उस ने कुछ आवश्यक सामान व कपड़े एक बैग में रख लिए. 30 अगस्त की सुबह कन्हैयालाल काम पर चला गया और विकास अपने स्कूल चला गया.

उस के बाद शिवांगी मुख्य दरवाजे पर बाहर से कुंडी लगा कर बैग ले कर घर से निकली और दिबियापुर रेलवे स्टेशन जा पहुंची. वहां एक नंबर प्लेटफार्म पर नागेंद्र पहले से ही मौजूद था. कुछ देर बाद दोनों ट्रेन पर सवार हो कर वहां से रवाना हो गए.

शाम को विकास तथा उस का पिता कन्हैयालाल वापस घर आए तो मुख्य दरवाजे पर कुंडी लगी थी और शिवांगी का कुछ पता नहीं था. पितापुत्र ने पहले पासपड़ोस, फिर गांव में शिवांगी की खोज की. लेकिन शिवांगी का कुछ पता नहीं चला.

कन्हैयालाल गौतम समझ गए कि शिवांगी पीठ में इज्जत का छुरा घोंप कर नागेंद्र के साथ भाग गई है. उन्होंने इस बाबत अपनी पड़ोसन नागेंद्र की बुआ आशा देवी को जानकारी दी तो वह अवाक रह गई. हालांकि उस ने सच्चाई को नकार दिया.

कन्हैयालाल रात भर उलझन में रहे. इस बीच उन्होंने कई बार शिवांगी का फोन मिलाया, लेकिन उस से संपर्क नहीं हो सका. कारण उस का मोबाइल फोन बंद था. सुबह 10 बजे कन्हैयालाल थाना दिबियापुर पहुंचे और नागेंद्र व उस के पिता जितेंद्र यादव के खिलाफ बेटी के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करा दी. उन्होंने पुलिस से अनुरोध किया कि उन की बेटी शिवांगी को जल्द से जल्द बरामद किया जाए. साथ ही उसे बहलाफुसला कर भगा ले जाने वालों के खिलाफ सख्त काररवाई की जाए.

चूंकि मामला लड़की के अपहरण का था, इसलिए दिबियापुर पुलिस सक्रिय हो गई और शिवांगी को बरामद करने के लिए नागेंद्र के गांव बाला का पुरवा (खागा) में छापा मारा, लेकिन घर पर न तो नागेंद्र शिवांगी थे और न ही नागेंद्र का पिता जितेंद्र. घर पर नागेंद्र की मां माया देवी और चाचा राजेंद्र थे. उन को पुलिस से ही जानकारी मिली कि नागेंद्र शिवांगी को बहलाफुसला कर ले गया है.

राजेंद्र ने अपने बड़े भाई जितेंद्र से मोबाइल पर बात की तो पता चला कि वह ट्रक ले कर कोलकाता आए हैं. राजेंद्र ने उन्हें नागेंद्र की नादानी तथा घर पर पुलिस आने की जानकारी दी तो वह घबरा गए. पुलिस भी पूछताछ कर के वापस चली गई.

जितेंद्र यादव ने मोबाइल पर नागेंद्र से बात की तो पता चला कि वह कानपुर में गडरियनपुरवा स्थित अपने कमरे में है. जितेंद्र ने उसे उस की हरकत पर जम कर लताड़ा, साथ ही बताया कि शिवांगी के पिता ने उन दोनों के खिलाफ दिबियापुर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी है. इसलिए वह शिवांगी को उस के घर छोड़ आए.

थाने में रिपोर्ट दर्ज होने की जानकारी नागेंद्र व शिवांगी को मिली तो दोनों घबरा गए. लेकिन पिता के कहने के बावजूद नागेंद्र शिवांगी को उस के घर छोड़ने नहीं गया.

नागेंद्र को डर सताने लगा कि शिवांगी और उस की तलाश में पुलिस कानपुर में उस के कमरे पर भी आ सकती है. इसलिए वह 4 सितंबर को अपने कमरे में ताला लगा कर शिवांगी के साथ वैष्णो देवी दर्शन के लिए कटरा के लिए रवाना हो गया. वैष्णो देवी पहुंच कर दोनों ने देवी के दर्शन किए और दोनों ने साथसाथ जीनेमरने की कसम खाई.

दर्शन के बाद दोनों ने देवी की चुनरी के साथ फोटो खिंचवाई. नागेंद्र ने शिवांगी की मांग में सिंदूर भर कर उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया. शिवांगी ने बाजार से चूड़ी, बिंदी व अन्य सामान खरीदा. वापस लौट कर दोनों कटरा के एक होटल में रुके. इस होटल में वे मात्र एक दिन रुके. उस के बाद वापस कानपुर के लिए रवाना हो गए.

11 सितंबर, 2019 की रात नागेंद्र और शिवांगी वाया लखनऊ कानपुर सेंट्रल स्टेशन पहुंचे. वहां नागेंद्र ने सोचा कि गांव जा कर मां का आशीर्वाद ले आए. यही सोच कर दोनों रामादेवी चौराहा पहुंच गए. यहां से उन्हें खागा के लिए बस पकड़नी थी.

नागेंद्र अभी बस का इंतजार कर ही रहा था कि उस के मोबाइल की घंटी बजी. काल उस के पिता जितेंद्र की थी. नागेंद्र ने काल रिसीव की तो जितेंद्र बोला, ‘‘नागेंद्र, क्या तू मुझे जेल भिजवा कर ही मानेगा. पुलिस घर पर बारबार दबिश दे रही है. तेरी नादानी ने हम सब को मुश्किल में डाल दिया है. समझ में नहीं आता क्या करूं.’’

फोन पर पिता की बात सुन कर नागेंद्र गहरी सोच में डूब गया. उस की हालत देख कर शिवांगी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, तुम सोच में क्यों डूब गए? किस का फोन था?’’

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‘‘पिताजी का फोन था. शिवांगी समझ में नहीं आता कि क्या करूं. घर जाता हूं तो पुलिस पकड़ लेगी. तुम्हें

तुम्हारे घर छोड़ता हूं तब भी मैं पकड़ा जाऊंगा. तुम तो पिता के घर होगी, लेकिन मैं जेल की सलाखों के पीछे दिन गुजारूंगा.’’ वह बोला.

‘‘नहीं नागेंद्र, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊंगी. मैं तुम्हें जेल नहीं जाने दूंगी.’’ शिवांगी भावुक हो कर बोली.

‘‘तब तो एक ही उपाय है शिवांगी.’’ उस ने कहा.

‘‘वह क्या?’’ शिवांगी ने पूछा.

‘‘हम एक साथ जी नहीं सकते तो एक साथ मर तो सकते हैं. इस जनम हमारा मिलना नहीं हो सका तो अगले जनम में जरूर होगा.’’ नागेंद्र मायूस हो कर बोला.

‘‘तुम ठीक कहते हो.’’

न बातों के बाद दोनों ने रेल पटरी की ओर कदम बढ़ा दिए. वे रामादेवी

ओवरब्रिज के नीचे रेल पटरी पर पहुंचे ही थे कि हावड़ा की ओर जाने वाली राजधानी एक्सप्रैस आ गई. ड्राइवर ने दोनों को हाथ डाले देखा तो सीटी बजाई लेकिन वे दोनों नहीं हटे.

रेलगाड़ी उन्हें रौंदती हुई निकल गई. हालांकि ड्राइवर ने आकस्मिक ब्रेक लगाए और गाड़ी भी रुकी लेकिन तब तक दोनों के शरीर टुकड़ों में बंट चुके थे.

12 सितंबर की सुबह लोगों ने रेल पटरी  के किनारे 2 शव पड़े देखे. इस के बाद सूचना पा कर थाना चकेरी पुलिस घटनास्थल पहुंची और शवों को कब्जे में ले कर जांच शुरू की.

नागेंद्र व शिवांगी द्वारा आत्महत्या कर लेने की जानकारी जब दिबियापुर पुलिस को लगी तो उस ने चकेरी पुलिस से संपर्क किया. फिर जांच के बाद पुलिस ने उस मुकदमे को खारिज कर दिया, जिस में नागेंद्र व उस के पिता को आरोपी बनाया गया था. थाना चकेरी पुलिस ने भी प्रेमी युगल आत्महत्या प्रकरण को अपने रिकौर्ड में दर्ज किया था लेकिन बाद में फाइल बंद कर दी.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

हनीमून- भाग 1: क्या था मुग्धा का दूसरा हनीमून प्लैन

सुधाकरजी और उन की पत्नी मीरा एकाकी व नीरसता भरा जीवन व्यतीत कर रहे थे. इकलौती बेटी मुग्धा की वे शादी कर चुके  थे. परंतु जिद्दी बेटी ने जरा सी बात पर नाराज हो कर पिता से रिश्ता तोड़ लिया था. इस कारण पतिपत्नी के बीच भी तनाव रहता था. इसी गम ने उन्हें असमय बूढ़ा कर दिया था. आज सुबह लगभग 4 बजे सपने में बेटी को रोता देख कर उन की आंख खुल गई थी.

उन को भ्रम था कि सुबह का सपना सच होता है. इसलिए अनिष्ट की आशंका से उन की नींद उड़ गई थी. वे पत्नी से बेटी को फोन करने के लिए भी नहीं कह सकते थे क्योंकि यह उन के अहं के आड़े आता. बेटी के जिद्दी और अडि़यल स्वभाव के कारण वे डरे हुए रहते थे कि एक दिन अवश्य ही वह तलाक का निर्णय कर के लुटीपिटी  यहां आ कर खड़ी हो जाएगी.

‘‘मीरा, मेरा सिर भारी हो रहा है, एक कप चाय बना दो.’’

‘‘अभी तो सुबह के 6 ही बजे हैं.’’

‘‘तुम्हारी लाड़ली को सपने में रोते हुए देखा है, तभी से मन खराब है.’’

‘‘आप ने उस के लिए कभी कुछ अच्छा सोचा है जो आज सोचेंगे, हमेशा नकारात्मक बातें ही सोचते हैं. इसी वजह से ऐसा सपना दिखा होगा.’’

‘‘तुम्हारी नजरों में तो हमेशा से मैं गलत ही रहता हूं.’’

‘‘आप की वजह से ही, न तो वह अब यहां आती है और न ही आप से बात करती है. तब भी आप उस के लिए बुरा सपना ही देख रहे हैं.’’

‘‘तुम ने मेरे मन की पीड़ा को कभी नहीं समझा.’’

उदास मन से वे उठे और सुबह की सैर को बाहर चले गए. तभी मीरा का मोबाइल बज उठा था. उधर से बेटी की चहकती हुई आवाज सुन कर वे बोलीं, ‘‘इस एनिवर्सरी पर आशीष ने कुछ खास गिफ्ट दिया है क्या? बड़ी खुश लग रही हो.’’

‘‘नहीं मां, वे तो मुझे हमेशा गिफ्ट देते रहते हैं. इस बार का गिफ्ट तो उन्हें मेरी तरफ से है,’’ वह शरमाते हुए बोली थी, ‘‘मां, हम दोनों इस बार एनिवर्सरी पर सैकंड हनीमून के लिए मौरीशस जा रहे हैं.’’

तभी नैटवर्क चला गया था, इसलिए फोन डिसकनैक्ट हो गया था. मीरा के दिल को ठंडक मिली थी. उन के मन को खुशी हुई थी कि देर से ही सही परंतु अब बेटी ने पति को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है. पति से बेटी के हनीमून पर जाने की बात वे बताना चाह रहीं थीं लेकिन वे अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त हो गईं.

रात के लगभग साढ़े 10 बजे थे. सुधाकर उनींदे से हो गए थे. तभी उन का मोबाइल घनघना कर बज उठा था. दामाद आशीष का नंबर देख वे चौंक उठे थे. लेकिन मोबाइल पर आशीष का मित्र अंकुर की आवाज सुनाई दी, ‘‘अंकल, आशीष का सीरियस ऐक्सिडैंट हो गया है. उस की हालत गंभीर है. उसे अस्पताल में भरत करा दिया है. आप तुरंत आ जाइए.’’ उन के हाथ से मोबाइल छूट गया था. सुधाकर के सफेद पड़े हुए चेहरे को देखते ही मीरा को समझ में आ गया था कि जरूर कुछ अप्रिय घटा है.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘आशीष की गाड़ी का ऐक्सिडैंट हो गया है. हम लोगों को तुरंत मुंबई के लिए निकलना है.’’

‘‘आशीष ठीक तो हैं?’’

‘‘पता नहीं. तुम्हारी बेटी के लिए तो यह खुशी का क्षण होगा. जब से शादी हुई है उस ने उन्हें एक दिन भी चैन से नहीं रहने दिया. सुबह जब वे औफिस के लिए निकले होंगे तो तुम्हारी बेटी ने अवश्य उन से झगड़ा किया होगा. वे तनाव में गाड़ी चला रहे होंगे. बस, हो गया होगा ऐक्सिडैंट.

‘‘तुम से मैं ने कितनी बार कहा था कि अपनी बेटी को समझाओ कि पति की इज्जत करे. गोरेकाले में कुछ नहीं रखा है. लेकिन तुम भी अपनी लाड़ली का पक्ष ले कर मुझे ही समझाती रहीं कि धैर्य रखो, आशीषजी की अच्छाइयों के समक्ष वह शीघ्र ही समर्पण कर देगी.’’

‘‘मुग्धा कैसी होगी?’’

‘‘उस का नाम मेरे सामने मत लो. आज तो वह बहुत खुश होगी कि आशीष घायल क्यों हुए, मर जाते तो उसे उस काले आदमी से सदा के लिए छुटकारा मिल जाता.’’

‘‘ऐसा मत सोचिए. पहले मुग्धा को फोन कर के पूरा हाल तो पता कर लीजिए.’’

‘‘क्या मुझे उस ने फोन किया है?’’

उन्होंने अपने मित्र संजय से अस्पताल पहुंचने के लिए कहा और अपने पहुंचने की सूचना दी. मीरा आखिर मां थीं, उन की ममता व्याकुल हो उठी थी. उन के कान में उस के चहकते हुए शब्द ‘सैकंड हनीमून’ गूंज रहे थे. उन्होंने बेटी को फोन लगा कर आशीष के ऐक्सिडैंट के बारे में पूछा. वह रोतेरोते बुझे स्वर में बोली थी, ‘‘उन की हालत गंभीर है. उन्हें इंसैटिव केयर यूनिट में रखा गया है. खून बहुत बह गया है. इसलिए उन के ब्लड ग्रुप के खून की तलाश हो रही है.’’ गुमसुम, असहाय मीरा अतीत में खो गई थी. उन की शादी के कई वर्षों बाद बड़ी कोशिशों के बाद उन्होंने इस बेटी का मुंह देखा था. सुंदर इतनी की छूते ही मैली हो जाए. लाड़प्यार के कारण बचपन से ही वह जिद्दी हो गई थी. लेकिन चूंकि पढ़ने में बहुत तेज थी, इसलिए सुधाकर ने उसे पूरी आजादी दे रखी थी.

मुग्धा के मन में अपनी सुंदरता और गोरे रंग को ले कर बड़ा घमंड था. बचपन से ही वह काले रंग के लोगों का मजाक बनाती और उन्हें अपने से हीन समझती. उस के मन में अपने लिए श्रेष्ठता का अभिमान था. जिस की वजह से उन्होंने उसे कई बार डांट भी लगाई थी और सजा भी दी थी. समय को तो पंख लगे होते हैं. वह बीटैक पूरा कर के आ गई थी. वे मन ही मन उस की शादी के सपने बुन रही थीं. परंतु बेटी मुग्धा एमबीए करना चाह रही थी. इस के लिए सुधाकर तो तैयार भी हो गए थे. परंतु मीरा उस से पहले उस की शादी करने के पक्ष में थीं. उस की इच्छा को देखते हुए एमबीए कर लेने के बाद ही शादी पर विचार करने का अंतिम निर्णय ले लिया गया था.

परंतु वे कुछ दिन से देख रही थीं कि उस की चंचल और शोख बेटी चुपचुप रहती थी. उस के चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव दिख रहे थे. वह फोन पर किसी से देर तक बातें किया करती थी. एक दिन उन्होंने उस से प्यार से पूछने की कोशिश की थी, ‘क्या बात है, बेटी? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है. कोई समस्या हो तो बताओ?’ ‘नो मौम, कोई समस्या नहीं है. औल इज वैल.’

मुग्धा के चेहरे से स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था कि वह सफेद झूठ बोल रही है. मीरा के मन में शक का कीड़ा बैठ गया था क्योंकि मुग्धा अपने फोन को एक क्षण के लिए भी अपने से अलग नहीं करती थी और उन के छूते ही वह चिल्ला पड़ती थी. एक रात जब वह गहरी नींद में सो रही थी तो चुपके से उन्होंने उस के फोन को उठा कर देखा तो उसी फोन ने उन के सामने सारी हकीकत बयां कर दी.एहसान माई लाइफ, उस के साथ सैल्फी, फोटोग्राफ, ढेरों मैसेज देख वे घबरा उठी थीं. अंतरंग क्षणों की भी तसवीरें मोबाइल में कैद थीं. प्यार में दीवानी बेटी धर्मपरिवर्तन कर के उस के साथ शीघ्र ही निकाह करने वाली थी.

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