लेखक : डा. अवनीश चंद्र

भारत में हर छठा व्यक्ति मनोरोगी है. उसे उपचार की आवश्यकता है. कर्नाटक राज्य में 8 फीसदी व्यक्ति इस रोग से ग्रस्त हैं. आंकड़े बताते हैं कि आमतौर से 30 से 49 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में मनोरोग के लक्षण होते हैं. गांवों की अपेक्षा शहरों में मानसिक रोगी अधिक पाए जाते हैं. अधिकतर इस का कारण गरीबी होता है.

वैसे तो 30 से 49 वर्ष की आयु के बीच रोगियों में मनोरोगों का पाया जाना सामान्य बात है परंतु इन के लक्षण किसी भी आयु के व्यक्ति में हो सकते हैं. डाक्टरी उपचार का मकसद रोगी को समाज व कार्यालय में पुनर्स्थापित करना होता है. दवाएं जीवनभर चलती हैं. दवा के सेवन में कोताही नहीं बरतनी चाहिए. उपचार को बंद करने से रोग की पुनरावृत्ति हो जाती है. दवाएं मनोरोग विशेषज्ञ की सलाह से ही घटानी अथवा बढ़ानी चाहिए.

विशेषज्ञों की मानें तो अधिकतर मामलों में रोगी के परिजन उसे तभी अस्पताल लाते हैं जब पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता है. आखिर हम मानसिक परेशानियों को नकारने की कोशिश क्यों करते हैं? क्या दिमाग हमारे शरीर का हिस्सा नहीं है? यदि रोगियों को शुरुआती दौर में लक्षण पहचान कर अस्पताल लाया जाए तो कम तीव्रता वाली सस्ती दवाओं से ही गुजारा संभव होता है. इस से मरीज पर दवाओं के कम साइड इफैक्ट्स पड़ते हैं.

मानसिक रोगियों के परिजनों का सुखचैन, खानापीना सब हराम हो जाता है. अगर बीमारियां गंभीर हैं, मसलन किसी को अजीबोगरीब आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, व्यक्ति कुछ ऐसा देख या सुन रहा है जो दूसरे नहीं या अगर वह खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है तो ऐसे में परिवार और दोस्तों की जिम्मेदारी है कि वे उसे डाक्टर के पास ले जाएं क्योंकि ऐसी हालत में मरीज कभी खुद स्वीकार नहीं करेगा कि वह बीमार है.

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