‘मैं ने पहले ही कहा था, चुनाव मत लड़ो, मत लड़ो, लेकिन आप मानते कहां हैं. आप ने तो सलाह नहीं मानने की कसम खा रखी है. 5 लाख रुपए पानी में बह गए. रुपया कीमती होता जा रहा है. भले ही डौलर के मुकाबले उस की साख गिरतीबढ़ती जा रही है. इसे देश का वित्तमंत्री जाने. हमारे लिए तो रुपए की
साख बनी हुई है. इतने रुपयों में बेटी के लिए अच्छेखासे गहने आ जाते.

ऊपर छत पर गुड्डा के लिए एक कमरा निकल आता. उस की पढ़ाई के लिए अलग से व्यवस्था होती. बाउंड्रीवाल की मरम्मत हो जाती. अबतब गिरने को है. चीन की दीवार तो है नहीं जो राष्ट्रीय धरोहर बन जाए. एक नई कार आ कर दरवाजे पर खड़ी हो जाती. पुरानी की बिदाई कर देते. ऐसा कुछ नहीं हो सका. आप के ऊपर चुनाव लड़ने का भूत सवार था. भभूत लगा कर बन गए दीवाने. इज्जत गई सो अलग. 5 लाख में 5 हजार भी नहीं बटोर सके. पूरा घरपरिवार हलकान रहा सो अलग.’ इतना कह कर वह शांत नहीं हुई. कौलबेल की घंटी बजी. वह दरवाजे की ओर बढ़ चली. दूध वाला आया था. मुझे राहत मिली. अब कुछ बोलने की मेरी पारी थी.

मैं ने बचाव की मुद्रा में कहा, ‘5 हजार में 55 कम थे. इस से क्या फर्क पड़ता है. चुनाव लड़ कर हमारी इज्जत बढ़ी है. हमारे लोकतंत्र को 65 वर्ष पूरे हो गए. 1952 से लगातार चुनाव हो रहे हैं. हमारे और तुम्हारे खानदान को मिला कर, मैं पहला व्यक्ति हूं जिस ने चुनाव लड़ा. खानदान में पहली

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बार चुनाव लड़ने का मजा कुछ और ही है. मेरा नाम तो सुर्खियों में है. हारे हुए और जीते हुए उम्मीदवार के बीच मेरी चर्चा लगातार हो रही है. यह भी एक बड़ी उपलब्धि है. तमाम अखबारों में मेरा जिक्र है. वरना हारे हुए कैंडिटेट को पूछता कौन है. वह तो हारते ही रद्दी की टोकरी में चला जाता है.’
पत्नी ध्यान से सुनती रही. मेरी बात खत्म होते ही वह खिलखिला कर हंसी. फिर सीरियस हो कर बोली, ‘हारने वाले की इतनी चर्चा क्यों है?’

मैं ने कहा, ‘जीतने वाला सिर्फ 1500 वोटों से जीता. हर चक्र में आगेपीछे का खेल चलता रहा. उम्मीदवारों के हृदय की धड़कन कमज्यादा होती रही. पीएम इन वेटिंग का जादू भी नहीं चला. 1000 वोट नोटा में चले गए. इस प्रकार मेरे वोट निर्णायक सिद्ध हुए. कोई कहता है मैं ने हारने वाले के वोट काटे. मैं चुनाव नहीं लड़ता तो हारने वाले को जीत मिलती. उस की जीत भी गई और मंत्री बनने की लालसा अधूरी रह गई. लालबत्ती का सुख दरवाजे तक आ कर लौट गया. जीतने वाला प्रत्याशी तो मेरा मुंह मीठा कर गया. अब समझीं, मेरी भूमिका कैसे निर्णायक रही. इसीलिए अखबारों की चर्चा में मैं बराबर बना हुआ हूं. मुझे मिले वोटों ने कमाल किया है, कमाल.’

पत्नी मेरे तर्कों से संतुष्ट नहीं हुई. चेहरे पर गुस्से के हावभाव दिख रहे थे. तुनक कर बोली, ‘आग लगे आप की ऐसी भूमिका और चर्चा को. जिस के लिए 5 लाख गंवाने पड़े. लाख दो लाख चले जाते तो कोई और बात होती. कमरतोड़ महंगाई के जमाने में इतनी बड़ी रकम खर्च कर अखबारों में बने रहना मुझे पसंद नहीं आया. मेरे भाइयों को बुलवा लिया. वे दोनों अपनाअपना कारोबार छोड़ कर दौड़े चले आए. पिताजी भी दामाद की मदद के लिए आ धमके. मैं कहती रह गई. आप की तबीयत ठीक नहीं. लेकिन मेरी कहां चलती है. कहने लगे, दामाद चुनाव लड़ रहा है. मैं यहां कैसे रह सकता हूं. दुनिया क्या कहेगी. जितना बन पड़ेगा, मदद करूंगा. मेरी सेहत अभी जनसंपर्क के लायक बनी हुई है.

‘दौड़धूप के बाद बीमार पड़ गए. अब मैं उन की सेवाचाकरी में हूं. आप को अखबारों की सुर्खियों से फुरसत नहीं,’ भड़ास निकालने के बाद पत्नी स्थिर हुई. आहिस्ते से बोली, ‘हमारे पास बेईमानी की कमाई तो है नहीं. मुझे तो रातदिन 5 लाख के सपने आते हैं. अभी भले लोगों के चुनाव लड़ने का समय नहीं आया है. मेरी समझ में तो यह भी नहीं आता कि अखबारी चर्चा से आप को क्या फायदा होने वाला है?’
मैं ने शतरंज के माहिर खिलाड़ी की तरह राजा को मात देने वाली मुद्रा में कहा, ‘अखबारी चर्चा के फायदे इतनी आसानी से समझ में आने वाले नहीं हैं. यह दूर की कौड़ी है. चुनाव लड़ने से मुझे जो लोकप्रियता मिली है, वह तो 20 साल से दुकानदारी करते हुए भी नहीं मिली. अभी तक मैं महल्ले का था. अब पूरा शहर जान गया है. यह जानपहचान मेरे कारोबार में काम आएगी. हो सकता है, इसी पहचान के सहारे मैं अपनी दुकानदारी बढ़ा सकूं. अब तो यह तय हो चुका है कि मैं खास दम रखता हूं. तभी तो कहावत बनी है, ‘दमादम मस्त कलंदर.’ मेरी हैसियत पांचहजारी तो हो चुकी है. तुम्हें मालूम है, आज कई ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने अपनी राजनीति पार्षद बन कर शुरू की. कोई पार्षद से मेयर बना, कोई विधायक बना, फिर मंत्री और एक दिन मुख्यमंत्री. शायद मेरी किस्मत में भी ऐसा ही योग हो.’

पत्नी बड़े ही मनोयोग से सुन रही थी. उसे सुनाने के लिए यह अनुकूल समय था.

मैं ने आगे कहा, ‘1 साल बाद नगर पालिका के चुनाव होने वाले हैं. संभव है, कोई पार्टी टिकट दे कर मुझे अपना उम्मीदवार बना दे. सफर की शुरुआत ऐसे ही होती है. गुमनाम उम्मीदवार चुनाव जीत रहा है. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के चुनाव में तहलका मचा दिया है. शायद राजनीति में ईमानदारी का सिक्का चलन में लौट आया है. समझ लो, मेरे लिए यह चुनाव आने वाले कल की तैयारी थी,’ इतना कह कर मैं पत्नी की प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक हो उठा.

पत्नी जवाब देने के लिए अपने भीतर से तैयार बैठी थी. वह तुरंत बोली, ‘आप ने तो भाषण देने की अभी से अच्छी प्रैक्टिस कर ली है. मुझे सुनने की प्रैक्टिस करनी होगी. तभी बात बनेगी. आप के विचार अच्छे हैं. अच्छे लोगों को घर से बाहर निकल कर राजनीति में आना चाहिए. लेकिन राजनीति में बेईमानी का बोलबाला जरूरत से ज्यादा है. झूठ पर सच का मुलम्मा चढ़ाया जाता है. तब आप अपनी ईमानदारी के बल पर, कैसे आगे बढ़ोगे और टिके रहोगे, यही तो यक्ष प्रश्न है.’

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इतना कह कर पत्नी मुसकराए बिना नहीं रह सकी.
मैं तुरंत मुसकरा नहीं सका. अपनी ईमानदारी पर हमला होते देख रहा था.
मुझे कबीरदास याद आए, जिन्होंने सैकड़ों साल पहले कहा था :
कबिरा कलियुग कठिन है,
साधु न मानै कोय.
कामी, क्रोधी मसखरा,
तिन को आदर होय.
समय अभी भी नहीं बदला है.

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