Download App

Online Hindi Story : सूनापन – ऋतु को जिंदगी में क्या अफसोस रह गया था

Online Hindi Story : सुबह से ही ऋतु उदास थीं. वे बारबार घड़ी की तरफ देखतीं.  उन्हें ऐसा महसूस होता कि घड़ी की सूइयां आगे खिसकने का नाम ही नहीं ले रहीं. मानो घर की दीवारें भी घूरघूर कर देख रही हों और फर्श नाक चढ़ा कर चिढ़ाता हुआ कह रहा हो, ‘देखो, हूं न बिलकुल साफसुथरा, चमक रहा हूं न आईने की तरह और तुम देख लो अपना चेहरा मुझ में, शायद तुम्हारे चेहरे के तनाव से बनी झुर्रियां इस में साफ नजर आएं.’ और वे ज्यादा देर घर की काटने को दौड़ती हुई दीवारों के बीच न बैठ पाईं.

वे एक किताब ले कर बाहर लौन में आ कर बैठ गईं. बाहर चलती हवाएं बालों को जैसे सहला रही थीं किंतु मन था कि पुस्तक से बारबार विचलित हो जाता. वे लगीं शून्य में ताकने और पहुंच गईं 20 वर्ष पीछे. सबकुछ उन की नजरों के सामने घूम रहा था.

बेटा 10 वर्ष और बिटिया मात्र 7 वर्ष की थी उस वक्त. छुट्टी का दिन था और वे चीख रही थीं अपने छोटेछोटे 2 बच्चों पर, सारा घर फैला पड़ा था, इधर खिलौने, उधर किताबें, गीला तौलिया बिस्तर पर और जूते शू रैक से बाहर फर्श पर. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे घर में अलमारियों से बाहर निकल कर सामान की सूनामी आ गई हो. वे थीं बहुत सफाईपसंद. सो, वह दृश्य देख उन से रहा न गया और चीख पड़ीं अपने बच्चों पर, ‘घर है या कूड़ेदान? कहां कदम रख कर चलूं, कुछ समझ नहीं आ रहा. न जाने बच्चे हैं कि शैतान…’

दोनों बच्चे बेचारे उन की चीख सुन कर सहम गए और ‘सौरी मम्मा, सौरी मम्मा’ कह रहे थे. फिर भी वे उन्हें डांट रही थीं, कह रही थीं, ‘क्या मैं तुम्हारी नौकरानी हूं? तुम लोग अपना सामान जगह पर क्यों नहीं रखते?’ बेटी मिन्ना डर कर झटझट सामान जगह पर रखने लगी थी और बेटा अपनी कहानियों की किताबें जमा रहा था.

हां, उन के पति अनूप जरूर नाराज हो गए थे उन के चीखने से. वे कहने लगे थे, ‘ऋतु, यह घर है, होटल नहीं. घर में 4 लोग रहेंगे तो थोड़ा तो बिखरेगा ही. यह सुन कर ऋतु और भी ज्यादा नाराज हो गईं और अपने पति को टोकते हुए कह रही थीं, ‘तुम्हारी स्वयं की ही आदत है घर को फैलाने की. वरना, क्या तुम बच्चों को न टोकते’

अनूप ने धड़ से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था और ऋतु ने छुट्टी का पूरा दिन अलमारियां और बच्चों के खिलौने व किताबें जमाने में बिता दिया था. वे लाख सोचतीं कि छुट्टी के दिन बच्चों को कुछ न कहूंगी, घर बिखरा पड़ा रहे मेरी बला से, किंतु सफाई की आदत से मजबूर हो उन से रहा ही न जाता और अब यह हर छुट्टी के दिन का रूटीन बन गया था. बच्चे भी सुनसुन कर शायद ढीठ हो गए थे और बड़े होते जा रहे थे.

अनूप कभी कहते कि तुम अपना ध्यान कहीं दूसरी जगह भी लगाओ, बच्चों को करने दो वे जो करना चाहें. किंतु ऋतु को तो घर में हर चीज अपनी जगह पर चाहिए थी और पूरी तरह से व्यवस्थित भी. सो, लगी रहतीं अकेली वे उसी में और अंदर ही अंदर कुढ़ती भी रहतीं. एक तरफ से उन का कहना भी सही था कि हम महंगेमहंगे सामान घर में लाते हैं इसीलिए न कि घर अच्छा लगे, न कि कूड़ेदान सा. किंतु हर बात की एक अपनी सीमा होती है. सो, अनूप चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते.

ऋतु अपना दिल मानो घर में ही लगा बैठी थीं. विवाह के बाद एक ही साल में बेटे का जन्म हो गया और ऋतु ने अपना पूरा ध्यान बेटे की परवरिश व गृहस्थी को संभालने में लगा दिया था. उम्र बढ़ती जा रही थी, साथ ही साथ, बच्चे भी. घर पहले की अपेक्षा व्यवस्थित रहने लगा था.

वक्त मानो पंख लगा उड़ता जा रहा था और ऋतु के चेहरे की झुर्रियों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और साथ ही मन में बढ़ती कड़वाहट भी. उन्होंने अपना पूरा ध्यान सिर्फ घर को सजाने, बच्चों को पढ़ाने, उन्हें अच्छे संस्कार देने व अनुशासित करने में ही लगा दिया. इन सब के चलते शायद वे यह भी भूल गईं कि खुशी भी एक शब्द होता है और कई बार हमें दूसरों की खुशियों के लिए अपनी आदतों को छोड़ आपस में सामंजस्य बैठाना पड़ता है.

खैर, जिंदगी ठीक ही चल रही थी. बिलकुल साफसुथरा एवं व्यवस्थित घर, अनुशासित बच्चे और रोज रूटीन से काम करते घर के सभी सदस्य. जब घर में मेहमान आते तो तारीफ किए बिना न रहते उन के घर की व बच्चों की. बस, ऋतु को तो वह तारीफ एक अवार्ड के समान लगती. उन के जाने के बाद वे फूली न समातीं और कहती न थकतीं, ‘देखो, सारा दिन टोकती हूं और लगी रहती हूं घर में, तभी तो सभी तारीफ करते हैं.’

वक्त बीतता गया. बच्चे और बड़े हो गए. बेटा मैडिकल की पढ़ाई पूरी कर अमेरिका चला गया और बेटी विवाह कर विदा हो गई. अब ऋतु रह गईं बिलकुल अकेली. कामवाली एक बार सुबह आ कर घर साफ कर देती तो पूरा दिन वह साफ ही रहता. कोई न बिखेरने वाला, न ही घर की व्यवस्था बिगाड़ने वाला.

सूना घर ऋतु को काटने को दौड़ता. अनूप रिटायर हो गए. वे अपनी किताबों में ही मस्त रहते. ऋतु रह गईं नितांत अकेली. मन भी न लगता, किताबों में अपना ध्यान लगाने की कोशिश करतीं किंतु शांत होते ही एक ही सवाल आता मन में. ‘अब कोई नहीं, घर बिखेरने वाला, क्यों न मैं खेली अपने बच्चों के साथ जब उन्हें मेरी जरूरत थी, क्यों न पढ़ीं कहानियां उन के लिए, घर बिखरा था तो क्यों न रहने दिया, कौन से रोज ही मेहमान आते थे जिन की चिंता में अपने बच्चों के साथ खुशनुमा माहौल न रहने दिया घर का?’

अब घर में तो चिडि़या भी पर नहीं मारती, क्या करूं इस घर का? कभीकभी परेशान हो अपनी बेटी मिन्ना को फोन करतीं, किंतु वह भी हांहूं में ही बात करती. वह तो खुद अपने बच्चों में व्यस्त होती. बेटा अपनी रिसर्च में व्यस्त होता. ऋतु अपने जिस घर को देख कर फूली न समाती थीं, उसी की सूनी दीवारें उन्हें कोसती थीं और कहतीं, ‘लो, बिता लो हमारे साथ वक्त.’

ये सारी बातें याद कर ऋतु उदास थीं. अब, उन्हें अपनी भूल का एहसास हो रहा था. अब वे छोटे बच्चों की माओं से मिलतीं तो कहतीं, ‘‘वक्त बिताओ अपने बच्चों के साथ, उन्हें कहानियां सुनाओ, बच्चे बन जाओ उन के साथ, आप इस के लिए तैयार रहो कि बच्चों का घर है तो बिखरा ही रहेगा. घर को गंदा भी न रखो, किंतु उसी घर में ही न लगे रहो. घर तो हम बच्चों के बड़े होने पर भी मेंटेन कर सकते हैं किंतु बच्चे एक बार बड़े हो गए तो उन के बचपन का वक्त वापस न आएगा, और रह जाओगी मेरे ही तरह उन कड़वी यादों के साथ, जिन से शायद तुम खुद ही डरोगी.’’ ऋतु अब कहती हैं कि बच्चों को तो बड़े हो कर चिडि़या के बच्चों की तरह उड़ ही जाना है, किंतु उन के साथ बिताए पलों की यादों को तो हम संजो कर खुश हो सकते हैं जो नहीं हैं मेरे पास अब, मुझे काटने को आता है यह सूनापन.

Hindi Kahani : लाल कमल – दलाल को चैत्र पूर्णिमा की रात अच्छी क्यों लग रही थी

Hindi Kahani : आईएएस यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा में आने के बाद आनंद अभी बेंगलुरु में एक ऊंचे प्रशासनिक पद पर काम कर रहा है. महात्मा गांधी की पुकार पर साल 1942 के आंदोलन में स्कूल छोड़ कर देश की आजादी के लिए कूद पड़ने वाले करमना गांव के आदित्य गुरुजी के पोते आनंद को देश और समाज के प्रति सेवा करने की लगन विरासत में मिली है.

आनंद बचपन से ही अपने तेज दिमाग, बड़ेबुजुर्गों के प्रति आदर और हमउम्र व बच्चों के बीच मेलजोल के साथ पढ़नेलिखने व खेलनेकूदने में भाग लेने के चलते बहुत लोकप्रिय था.

गांवसमाज के हर तीजत्योहार, शादीब्याह, रीतिरिवाज में आनंद को उमंग के साथ हिस्सा लेने में बहुत खुशी होती थी. केवल छात्र जीवन में ही नहीं, बल्कि प्रशासनिक सेवा में आने के बाद भी होलीदशहरा में वह गांव आने का मौका निकाल ही लेता था.

इस बार मार्च महीने में दफ्तर के कुछ काम से उसे पटना जाना था. पटना आने के बाद आनंद ने एक दिन गांव जाने का प्रोग्राम बनाया. आनंद को गांव आ कर काफी अच्छा लगता है, पर अब यहां बहुतकुछ बदल गया है.

यह बात आज के बच्चे सोच भी नहीं सकते कि जहां पहले कभी कच्ची सड़क पर बैलगाड़ी और टमटम के अलावा कोई दूसरी सवारी नहीं हुआ करती थी, वहां अब पक्की रोड पर बसें और आटोरिकशा 12 किलोमीटर दूर रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए हर 15 मिनट पर तैयार मिल जाते हैं.

यहां तक कि पटना से निकलने वाले सभी अखबार अब इस गांव में आते हैं और हौकर इन्हें घरघर तक पहुंचा जाता है. साथ ही, टैलीविजन पर भी अब हर छोटीबड़ी खबर और मनोरंजन के तमाम कार्यक्रमों समेत नईपुरानी फिल्में भी देखने को मिल जाती हैं.

अब आनंद के बाबूजी तो रहे नहीं, पर चाचा और चाची रहते हैं. उसे देखते ही उन के चेहरे पर खुशी की चमक आंखों में नमी लिए पसर गई. आनंद ने चाचा के पैर छुए. उन्होंने उस के सिर को दोनों हाथों में ले कर चूमते हुए ढेर सारा आशीर्वाद दिया.

चाची दोनों की बातें सुनते हुए अंदर से बाहर आ गई थीं. आनंद ने उन के भी पैर छुए.

चाची ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हम कह रहे थे कि आनंद हम को देखे बिना जा ही नहीं सकता.’’

‘‘कैसे हैं आप लोग?’’ आंखों में भर आए आंसुओं को रूमाल से पोंछते हुए आनंद ने पूछा.

‘‘तुम्हारे जैसे बेटे के रहते हमें क्या हो सकता है? हम भलेचंगे हैं. लो, कुछ चायनाश्ता कर के थोड़ा आराम कर लो, तब तक मैं खाना तैयार कर लेती हूं,’’ कह कर चाची अंदर चल पड़ीं.

‘‘बहुत परेशान न होइएगा चाची. सादा खाना ही ठीक रहेगा,’’ आनंद ने कहा और चायनाश्ता करते हुए चाचा से अपने खेतखलिहान के साथ ही साफ बागबगीचे, गांवसमाज की बातें करने लगा.

चाची के हाथ का बना खाना खाते हुए आनंद को बरबस ही बचपन की यादें ताजा हो आईं.

खाना खाने के बाद आनंद ने कुछ देर आराम किया. शाम को चाचा ने फागू को बुलाया. उन्होंने सरसों के सूखे डंठलों को खलिहान से मंगवा कर परिवार के सदस्यों की संख्या के हिसाब से एक ज्यादा होल्लरी यानी लुकाठी बनवाई.

होलिका दहन के लिए गांव की तय जगह पर लोग समय पर इकट्ठा हो गए थे. आनंद भी चाचा के जोर देने पर वहां पहुंच गया था.

वैसे, होली के इस मौके पर होने वाली हुल्लड़बाजी और नशे के असर से सहीगलत न समझ पाने वाले नौजवानों की हरकतों को आनंद बचपन से ही नापसंद करता रहा है.

आनंद को यह बात तो अच्छी लगती कि होलिका दहन में गांवमहल्ले की बहुत सी गंदगी, बेकार की चीजें, जो सही माने में बुराई की प्रतीक हैं, जला कर आबोहवा को कुछ हद तक साफ करने में मदद मिलती है. परंतु वह यह भी मानता है कि होलिका दहन के ढेर से उठती आग की लपटों से कभीकभार आसपास के हरेभरे पेड़ों और मकानों को पहुंचने वाले नुकसान से इस को मनाने के सही ढंग पर नए सिरे से सोचना चाहिए.

आनंद को देख कर गांव के बहुत से नौजवान लड़के उस के पास आ गए. उन सभी लड़कों ने अपने मातापिता से आनंद के बारे में पहले ही बहुतकुछ सुन रखा था. वे अपने बच्चों को आनंद जैसा बनने की सीख देते थे.

आनंद को भी उन से मिल कर बहुत अच्छा लगा. आनंद ने उन नौजवानों से दोस्त की तरह कई बातें कीं, फिर होलिका दहन के बारे में भी अपने मन की बातें उन से साझा कीं. वे सभी आनंद जैसे एक बड़े ओहदे वाले शख्स की इतनी अपनेपन भरी बातों से बहुत ज्यादा प्रभावित थे.

एक लड़के सुंदर ने आगे आते हुए कहा, ‘‘आनंद अंकल, हम आप से वादा करते हैं कि आगे से सावधान रहेंगे और किसी भी दुर्घटना की नौबत नहीं आने देंगे.’’

सुधीर ने भी भरोसा दिलाते हुए कहा, ‘‘अंकल, आज होली के नाम पर न तो कोई गंदे गाने गाएगा और न ही गंदी हरकत करेगा.’’

और सच में ही उस शाम के होलिका दहन को बड़ी सादगी से मनाया गया.

आनंद ने सभी को होली की मिठाई खिलाई. उस के बाद वह अपने चाचा के साथ घर लौट आया.

चैत्र पूर्णिमा की रात थी. दालान में चारपाई पर लेटे आनंद को चांदनी में नहाई रात काफी अच्छी लग रही थी. नींद की गहराई में धीरेधीरे उतरते हुए भी आनंद के कानों में होली के गीत सुनाई पड़ रहे थे.

अचानक ही तभी कुत्तों के भूंकने की आवाजों को बीच गांव के लोगों की घबराहट भरी आवाजों का शोर जोर पकड़ता हुआ सुनाई पड़ा.

‘‘मालिक, गोलीबंदूक के साथ बसहा गांव वाले फसल लगे खेतों की सीमा पर आ कर लड़नेमरने को तैयार खड़े हैं,’’ दीनू को अपने चाचा से यह कहते हुए सुन कर चौंकता हुआ आनंद झटके से उठ बैठा.

आनंद ने अपने मोबाइल फोन से कुछ संबंधित बड़े पुलिस अफसरों से बात करने की कोशिश की.

रास्ते में दीनू ने बताया कि आधी रात के बाद गांव के कुछ अंधविश्वासी लोग देवी मां के मंदिर में जमा हुए थे.

तांत्रिक इच्छा भगत ने पहले देवी मूर्ति की लाल उड़हुल के फूलों, रोली, अबीरगुलाल से पूजा की थी, उस के बाद एक तगड़ा काला कुत्ता भैरों के रूप में वहां लाया गया.

वहां जुटे लोगों ने खुद शराब पीने के साथसाथ उस कुत्ते को भी शराब पिलाई और फूलमाला से पूजा की गई.

नए साल में अपने गांव की खुशहाली और पुराने साल आई मुसीबतों को हमेशा के लिए भगाने के लिए उन्होंने करायल, अरंडी का तेल, पीली सरसों, लाल मिर्च, सिंदूर, चावल वगैरह को एक छोटे मिट्टी के बरतन में ढक कर भैरों कहे जाने वाले कुत्ते की गरदन में बांध दिया.

तांत्रिक इच्छा भगत ने मंदिर से एक जलता हुआ दीया उठा कर कुत्ते की गरदन में सामान समेत बंधे मिट्टी के बरतन में सावधानीपूर्वक रख दिया. फिर दीए की गरमी से परेशान कुत्ता भूंकता हुआ बसहा गांव की तरफ दौड़ पड़ा.

इच्छा भगत और कुछ लोग इस बात को पक्का करना चाहते थे कि वह कुत्ता वापस उन के अपने गांव में न लौटे.

उधर खेतों की रखवाली कर रहे बसहा गांव के कुछ किसानों ने दूसरे छोर पर आग की लपटों के साथ कुत्ते की गुर्राहट भरी आवाज सुनी. कुछ ही देर में पकने को तैयार गेहूं की फसल लपटों में झुलसने लगी थी.

रखवाली कर रहे किसानों को पूरा माजरा समझने में ज्यादा समय नहीं लगा. उन्होंने दौड़ कर तमाम गांव वालों को बुला लिया. ट्यूबवैल चला कर पानी से आग बुझाने के साथसाथ कुछ लोग गोलीबंदूक के साथ इस घटना के पीछे रहे करमना गांव को सबक सिखाने को ललकारने लगे थे. हवा में गोलियों की आवाजें गूंजने लगी थीं.

इस से पहले कि करमना गांव के कुछ अंधविश्वासी और नासमझ तत्त्वों की शरारत के कारण पड़ोसी गांव वालों की होली की खुशी खूनखराबे और मातम की भेंट चढ़ जाती, आनंद अपने साथ जिला मजिस्ट्रेट और एसपी की टीम मौके पर ले कर पहुंच गया. उस ने गुस्साए लोगों को समझाबुझा कर शांत किया.

अंधविश्वास में ‘भैरव टोटका’ करने वाले इच्छा भगत व दूसरे लोगों को पुलिस पकड़ कर वहां थोड़ी ही देर में पहुंच गई.

आनंद के कहने पर उन लोगों ने बसहा गांव के लोगों से अपने गलत अंधविश्वास के चलते किए गए काम के लिए माफी मांगी.

‘‘हम आप के पैर पकड़ते हैं भैया, हमें माफ कर दीजिए. हम शपथ लेते हैं कि आगे से नासमझी और अंधविश्वास से भरा कोई काम नहीं करेंगे.’’

तब तक आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की टीम भी वहां आ चुकी थी.

तेजी से किए गए बचाव काम से आग को ज्यादा फैलने के पहले ही बुझाने में कामयाबी मिल गई थी.

आनंद ने गांव वालों की ओर से हुई गलती के लिए माफी मांगते हुए कहा, ‘‘रघुवीर, मैं तुम्हारे जज्बात को अच्छी तरह समझ सकता हूं… अपनी जिस फसल को खूनपसीना बहा कर तुम ने तैयार किया है, उस के खेत में इस तरह जल जाने के चलते हुए दिल के घाव को भरना किसी के लिए मुमकिन नहीं है. फिर भी करमना गांव के लोगों की ओर से मैं खुद जिम्मेदारी लेता हूं कि तुम्हें जो भी नुकसान हुआ है, उसे हमारे द्वारा कल ही पूरा किया जाएगा.’’

अपने खेत की तैयार फसल के जलने से नाराज रघुवीर कुसूरवारों को सबक सिखाने पर आमादा था, पर अपने स्कूल के दिनों में सही बात से आगे बढ़़ने की प्रेरणा देने वाले आदित्य गुरुजी जैसे आनंद के रूप में अभी वहां आ खड़े हो गए थे, इसलिए वह अपने गुस्से पर काबू कर गया.

रघुवीर आनंद के पैरों पर झुकता हुआ बोला, ‘‘माफ करें सर. आप की हर बात मेरे सिरआंखों पर.’’

आनंद ने रघुवीर को गले लगाते हुए कहा, ‘‘उठो रघुवीर, अब बसहापुर गांव और करमना गांव आपस में मिल कर एकदूसरे की मुसीबतों को मिटाते हुए खुशियां लाने के लिए हमेशा तैयार रहेंगे. तुम बिलकुल चिंता मत करो.

‘‘इस बार गांव के स्कूल वाले मैदान में करमना और बसहा दोनों गांव मिल कर एकसाथ होली मनाएंगे.’’

वहां जमा दोनों गांवों के लोगों के चेहरे पर खुशी की लाली चमक उठी. ‘हांहां’ के साथ ‘होली है होली है’ की आवाजें चिडि़यों की चहचहाहट भरे माहौल में गूंज उठीं.

उसी समय गांव के पूर्वी आकाश में सूरज एक लाल कमल की तरह खिलता नजर आ रहा था.

Love Story : गुच्चूपानी – राहुल क्यों मायूस हो गया?

Love Story : एकसाथ 3 दिन की छुट्टी देखते हुए पापा ने मसूरी घूमने का प्रोग्राम जब राहुल को बताया तो वह फूला न समाया. पहाड़ों की रानी मसूरी में चारों तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़, उन पर बने छोटेछोटे घर, चारों ओर फैली हरियाली की कल्पना से ही उस का मन रोमांचित हो उठा.

राहुल की बहन कमला भी पापा द्वारा बनाए गए प्रोग्राम से बहुत खुश थी. पापा की हिदायत थी कि वे इन 3 दिन का भरपूर इस्तेमाल कर ऐजौंय करेंगे. एक मिनट भी बेकार न जाने देंगे, जितनी ज्यादा जगह घूम सकेंगे, घूमेंगे.

निश्चित समय पर तैयार हो कर वे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए. सुबह पौने 7 बजे शताब्दी ऐक्सप्रैस में बैठे तो राहुल काफी रोमांचित महसूस कर रहा था, उस ने स्मार्टफोन उठाया और साथ की सीट पर बैठी कमला के साथ सैल्फी क्लिक की.

तभी पापा ने बताया कि वे रास्ते में हरिद्वार में उतरेंगे और वहां घूमते हुए रात को देहरादून पहुंच जाएंगे. फिर वहां रात में औफिस के गैस्ट हाउस में रुकेंगे और सुबह मसूरी के लिए रवाना होंगे.

यह सुन कर राहुल मायूस हो गया. हरिद्वार का नाम सुनते ही जैसे उसे सांप सूंघ गया. उसे लग रहा था सारा ट्रिप अंधविश्वास की भेंट चढ़ जाएगा. यह सुनते ही वह कमला से बोला, ‘‘शिट् यार, लगता है हम घूमने नहीं तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं.’’

‘‘हां, पापा आप भी न….’’ कमला ने कुछ कहना चाहा लेकिन कुछ सोच कर रुक गई.

लगभग 12 बजे हरिद्वार पहुंच कर उन्होंने टैक्सी ली, जो उन्हें 2-3 जगह घुमाती हुई शाम को गंगा घाट उतारती और फिर वहां से देहरादून उन के गैस्ट हाउस छोड़ देती.

राहुल ट्रिप के मजे में खलल से आहत चुपचाप चला जा रहा था. शाम को हरिद्वार में गंगा घाट पर घूमते हुए प्राकृतिक आनंद आया, लेकिन गंगा के घाट असल में उसे लूटखसोट के अड्डे ज्यादा लगे. जगहजगह धर्म व गंगा के प्रति श्रद्धा के नाम पर पैसा ऐंठा जा रहा था. उसे तब और अचंभा हुआ जब निशुल्क जूतेचप्पल रखने का बोर्ड लगाए उस दुकानदार ने उन से जूते रखने के 100 रुपए ऐंठ लिए. इस सब से उस के मन का रोमांच काफूर हो गया. फिर भी वह चुपचाप चला जा रहा था.

रात को वे टैक्सी से देहरादून पहुंचे और गैस्टहाउस में ठहरे. पापा ने गैस्टहाउस के रसोइए के जरिए मसूरी के लिए टैक्सी बुक करवा ली. टैक्सी सुबह 8 बजे आनी थी. अत: वे जल्दी खाना खा कर सो गए ताकि सुबह समय से उठ कर तैयार हो पाएं.

वे सफर के कारण थके हुए थे, सो जल्दी ही गहरी नींद में सो गए और सुबह गैस्टहाउस के रसोइए के जगाने पर ही जगे. तैयार हो कर अभी वे खाना खा ही रहे थे कि टैक्सी आ गई. राहुल अब भी चुप था. उसे यात्रा में कुछ रोमांच नजर नहीं आ रहा था.

टैक्सी में बैठते ही पापा ने स्वभावानुसार ड्राइवर को हिदायत दी, ‘‘भई, हमें कम समय में ज्यादा जगह घूमना है इसलिए भले ही दोचार सौ रुपए फालतू ले लेना, लेकिन देहरादून में भी हर जगह घुमाते हुए ले चलना.’’

ज्यादा पैसे मिलने की बात सुन ड्राइवर खुश हुआ और बोला, ‘‘सर, उत्तराखंड में तो सारा का सारा प्राकृतिक सौंदर्य भरा पड़ा है, आप जहां कहें मैं वहां घुमा दूं, लेकिन आप को दोपहर तक मसूरी पहुंचना है इसलिए एकाध जगह ही घुमा सकता हूं. आप ही बताइए कहां जाना चाहेंगे?’’

पापा ने मम्मी से सलाह की और बोले, ‘‘ऐसा करो, टपकेश्वर मंदिर ले चलो. फिर वहां से साईंबाबा मंदिर होते हुए मसूरी कूच कर लेना.’’‘‘क्या पापा, आप भी न. हम से भी पूछ लेते, सिर्फ मम्मी से सलाह कर ली… और हम क्या तीर्थयात्रा पर हैं, जो मंदिर घुमाएंगे,’’ कमला बोली.

तभी नाराज होता हुआ राहुल बोल पड़ा, ‘‘क्या करते हैं आप पापा, सारे ट्रिप की वाट लगा दी. बेकार हो गया हमारा आना. अभी ड्राइवर अंकल ने बताया कि उत्तराखंड प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा है और एक आप हैं कि देखने को सूझे तो सिर्फ मंदिर, जहां सिर्फ ठगे जाते हैं. आप की सोच दकियानूसी ही रहेगी.’’

पापा कुछ कहते इस से पहले ही ड्राइवर बोल पड़ा, ‘‘आप का बेटा ठीक कह रहा है सर, घूमनेफिरने आने वाले ज्यादातर लोग इसी तरह मंदिर आदि देख कर यात्रा की इतिश्री कर लेते हैं और असली यात्रा के रोमांच से वंचित रह जाते हैं. तिस पर अपनी सोच भी बच्चों पर थोपना सही नहीं. तभी तो आज की किशोर पीढ़ी उग्र स्वभाव की होती जा रही है. हमें इन की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.

‘‘यहां प्राकृतिक नजारों की कमी नहीं. आप कहें तो आप को ऐसी जगह ले चलता हूं जहां के प्राकृतिक नजारे देख आप रोमांचित हुए बिना नहीं रहेंगे. इस समय हम देहरादून के सैंटर में हैं. यहां से महज 8 किलोमीटर दूर अनार वाला गांव के पास स्थित एक पर्यटन स्थल है, ‘गुच्चूपानी,’ जिसे रौबर्स केव यानी डाकुओं की गुफा भी कहा जाता है.

‘‘गुच्चूपानी एक प्राकृतिक पिकनिक स्थल है जहां प्रकृति का अनूठा अनुपम सौंदर्य बिखरा पड़ा है. दोनों ओर ऊंचीऊंची पहाडि़यों के मध्य गुफानुमा स्थल में बीचोंबीच बहता पानी यहां के सौंदर्य में चारचांद लगा देता है. दोनों पहाडि़यां जो मिलती नहीं, पर गुफा का रूप लेती प्रतीत होती हैं.

‘‘यहां पहुंच कर आत्मिक शांति मिलती है. प्रकृति की गोद में बसे गुच्चूपानी के लिए यह कहना गलत न होगा कि यह प्रेम, शांति और सौंदर्य का अद्भुत प्राकृतिक तोहफा है.

‘‘गुच्चूपानी यानी रौबर्स केव लगभग 600 मीटर लंबी है. इस के मध्य में पहुंच कर तब अद्भुत नजारे का दीदार होता है जब 10 मीटर ऊंचाई से गिरते झरने नजर आते हैं. यह मनमोहक नजारा है. इस के मध्य भाग में किले की दीवार का ढांचा भी है जो अब क्षतविक्षत हो चुका है.’’

‘‘गुच्चूपानी…’’ नाम से ही अचंभित हो राहुल एकदम रोमांचित होता हुआ बोला, ‘‘यह गुच्चूपानी क्या नाम हुआ?’’

तभी साथ बैठी कमला भी बोल पड़ी, ‘‘और ड्राइवर अंकल, इस का नाम रौबर्स केव क्यों पड़ा?’’

मुसकराते हुए ड्राइवर ने बताया, ‘‘दरअसल, गुच्चूपानी इस का लोकल नाम है. अंगरेजों के जमाने में इसे ‘डकैतों की गुफा’  के नाम से जाना जाता था. ऐसा माना जाता है कि उस समय डाकू डाका डालने के बाद छिपने के लिए इसी गुफा का इस्तेमाल करते थे. सो, अंगरेजों ने इस का नाम रौबर्स केव रख दिया.’’

‘‘तो क्या अब भी वहां डाकू रहते हैं. वहां जाने में कोई खतरा तो नहीं है?’’ कमला ने पूछा.

‘‘नहींनहीं, अब वहां ऐसी कोई बात नहीं बल्कि इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर दिया गया है. अब इस का रखरखाव उत्तराखंड सरकार द्वारा किया जाता है,’’ ड्राइवर ने बताया, फिर वह हंसते हुए बोला, ‘‘हां, एक डर है, पैरों के नीचे बहती नदी का पानी. दरअसल, पिछले साल जनवरी में भारी बरसात के कारण अचानक इस नदी का जलस्तर बढ़ गया था, जिस से यहां अफरातफरी मच गई थी. यहां कई पर्यटक फंस गए थे, जिस से काफी शोरशराबा मचा.

‘‘फिर मौके पर पहुंची एनडीआरएफ की टीमों ने पर्यटकों को सकुशल बाहर निकाला था. इस में महिलाएं और बच्चे भी थे. इसलिए जरा संभल कर जाइएगा.’’

‘‘अंकल आप भी न, डराइए मत, बस पहुंचाइए, ऐसी अद्भुत प्राकृतिक जगह पर,’’ राहुल रोमांचित होता हुआ बोला.

‘‘पहुंचाइए नहीं, पहुंच गए बेटा,’’ कहते हुए ड्राइवर ने टैक्सी रोकी और इशारा कर बताया कि उस ओर जाएं. जाने से पहले अपने जूते उतार लें व यहां से किराए पर चप्पलें ले लें.’’

राहुल और कमला भागते हुए आगे बढ़े और वहां बैठे चप्पल वाले से किराए की चप्पलें लीं. इन चप्पलों को पहन कर वे पहुंच गए गुच्चूपानी के गेट पर. यहां 25 रुपए प्रति व्यक्ति टिकट था. पापा ने सब के टिकट लिए और सब ने पानी में जाने के लिए अपनीअपनी पैंट फोल्ड की व ऐंट्री ली.

चारों ओर फैले ऊंचे पहाड़ों के बीच बसा यह क्षेत्र अद्भुत सौंदर्य से भरा था. पानी में घुसते ही दिखने वाला वह 2 पहाडि़यों के बीच का गुफानुमा रास्ता और मध्य में बहती नदी के बीच चलना, जैसा ड्राइवर अंकल ने बताया था, उस से भी अधिक रोमांचित करने वाला था.

मम्मीपापा भी यह नजारा देख स्तब्ध रह गए थे. पहाड़ों के बीच बहते पानी में चलना उन्हें किसी हौरर फिल्म के रौंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य की भांति लगा, जैसे अभी वहां छिपे डाकू निकलेंगे और उन्हें लूट लेंगे.

अत्यंत रोमांचक इस मंजर ने उन्हें तब और रोमांचित कर दिया जब बिलकुल मध्य में पहुंचने पर ऊपर से गिरते झरने ने उन का स्वागत किया. राहुल तो पानी में ऐसे खेल रहा था मानो उसे कोई खजाना मिल गया हो. सामने खड़ी किले की क्षतविक्षत दीवार के अवशेष उन्हें काफी भा रहे थे. इस मनोरम दृश्य को देख किस का मन अभिभूत नहीं होगा.

इस पूरे नजारे की उन्होंने कई सैल्फी लीं. एकदूसरे के फोटो खींचे और वीडियो क्लिप भी बनाई. पानी में उठखेलियां करते जब वे बाहर आ रहे थे तो पापा भी कह उठे, ‘‘अमेजिंग राहुल, वाकई तुम ने हमारी आंखें खोल दीं. हम तो सिर्फ मंदिर आदि देख कर ही लौट जाते. प्रकृति का असली आनंद व यात्रा की पूर्णता तो वाकई ऐसे नजारे देखने में है.’’

फिर बाहर आ कर उन्होंने ड्राइवर का भी धन्यवाद किया ऐसी अनूठी जगह का दीदार करवाने के लिए. साथ ही हिदायत दी कि मसूरी में भी धार्मिक स्थलों पर आस्था के नाम पर लूट का शिकार होने के बजाय ऐसे स्थान देखेंगे. इस पर जब राहुल ने ठहाका लगाया तो पापा बोले, ‘‘बेटा, हमें मसूरी के ऐसे अद्भुत स्थल ही देखने चाहिए. जल्दी चलो, कहीं समय की कमी के कारण कोई नजारा छूट न जाए.’’

अब टैक्सी मसूरी की ओर रवाना हो गई थी. टैक्सी की पिछली सीट पर बैठे राहुल और कमला रहरह कर गुच्चूपानी में ली गईं सैल्फी, फोटोज और वीडियोज में वहां के अद्भुत दृश्य देख कर रोमांचित हो रहे थे, इस आशा के साथ कि मसूरी यानी पहाड़ों की रानी में भी ऐसा ही रोमांच मिलेगा.

Best Hindi Story : उसकी रोशनी में – जब सालों बाद सामने आया पहला प्यार

Best Hindi Story : पूस का महीना था, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. रात 10 बजे सूरत में हाईवे के किसी होटल पर यात्रियों के भोजन के लिए बस आधे घंटे के लिए रुकी थी. मैं ने भी भोजन किया और फिर बस में सवार हो गया. मुझे उस शहर जाना है, जो पहाडि़यों की तलहटी में बसा है और अपने में गजब का सौंदर्य समेटे हुए है. जहां कभी 2 जवां दिल धड़के, सुलगे थे. और उसी की स्मृति मात्र से छलक जाती हैं आंसुओं की बूंदें, पलकों की कोर पर.

बस ने थोड़ी सी ही दूरी तय की होगी कि मेरी आंख लग गई. रतनपुर बौर्डर पर ऐंट्री करते ही रोड ऊबड़खाबड़ थी, जिस कारण बस हिचकोले खाती हुई चल रही थी. मेरा सिर बस की खिड़की के कांच से टकराया, तो नींद में व्यवधान पड़ा. आंखें मसलीं, घड़ी देखी तो सुबह होने में थोड़ी देर थी. बाहर एकदम सन्नाटा छाया हुआ था. बस सर्द गुबार को चीरती हुई भागी जा रही थी. सुबह के 8 बजे थे. सूरज की किरणें धरती को स्पर्श कर चुकी थीं. उदयापोल सर्कल पर बस से उतरा ही था कि रिकशा वाला सामने आ खड़ा हुआ. मेरे पास लगेज था. मैं बस से नीचे उतर आया. मैं यहां अपने प्रिय मित्र पीयूष की शादी में शरीक होने आया था. उस ने शादी के निमंत्रणपत्र में साफ लिखा था कि यदि तू शादी में नहीं आया तो फिर देखना.

हालांकि सफर बहुत लंबा था. तकरीबन 800 किलोमीटर का. जाने का मन तो नहीं था, लेकिन 2 बातें थीं. एक तो इस ‘देखना’ शब्द का दबाव जो मुझ से सहन नहीं हो रहा था, दूसरा इस शहर से जुड़ी यादें, जिन्हें खुद से अलग नहीं कर पाया. मैं ने आंखें मूंद कर भीतर झांकने की कोशिश की, एक सलोनी छवि आज भी मेरे हृदय में विद्यमान है. उस के होने मात्र से ही मेरे भीतर का आषाढ़ भीगने लगता था और मन हमेशा हिरण की तरह कुलांचें भरने लगता था. उसे गाने का बहुत शौक था. वह रातभर मुझे अपनी मधुर आवाज में अलगअलग रागों से परिचित करवाती थी, पर अब तो मन की चित्रशाला में रागरंग रहा ही नहीं, वहां मात्र यादों के चित्र शेष रह गए हैं.

‘‘किधर चलना है साहब?’’ औटो वाले ने पूछा.

‘‘मीरा गर्ल्स कालेज के सामने वाली गली में.’’

‘‘आइए बैठिए,’’ कहते हुए उस ने मेरा लगेज रिकशा में रख दिया.

‘‘अरे, तुम ने बताया नहीं, कितना चार्ज लगेगा?’’

‘‘क्या साहब, सुबह का समय है, शुरुआत आप के हाथ से होनी है, 50 रुपया लगते हैं, जो भी जी आए, दे देना.’’

रिकशा में बैठा मैं उस की ‘जो भी जी में आए, दे देना’ वाली बात पर गौर कर रहा था. सोच रहा था, सुबह का वक्त भी है, 50 रुपए से कम देना भी ठीक नहीं होगा. मैं भी उसे अपनी तरफ से कहां निराश करने वाला था. रास्ते में सिगनल पर रिकशा थोड़ी देर लालबत्ती के हरा होने के इंतजार में खड़ा रहा. यह चेटक सर्कल था. मैं ने नजर दौड़ाई. सिगनल के दाईं ओर चेटक सिनेमा हुआ करता था. अब वह नहीं रहा, उसे तोड़ कर शायद कौंप्लैक्स बनाया जा रहा है. 5 साल में बहुत कुछ बदल गया था. सिनेमा वाली जगह दिखी तो मन अतीत की स्मृतियों को कुरेदने लगा.

यादों का सिरा पकड़े मैं आज तक उस की रोशनी के कतरे तलाश रहा हूं, यादें उस के आसपास भटक कर आंसुओं में बह जाती हैं. 10 साल मैं इसी शहर में रहा था. इस शहर को अंदरबाहर से समझने में मुझे ज्यादा समय नहीं लगा. हां, तब यहां इतनी चकाचौंध भी नहीं थी. समय के चक्र के साथ इस शहर ने विश्वपटल पर अपनी रेखाएं खींच दी हैं. उन दिनों यहां मात्र यही एक टौकीज हुआ करता था. यहीं पर मैं ने सुरभि के साथ पहली फिल्म देखी थी बालकनी में बैठ कर. फिल्म थी, ‘प्रिंस.’ वह शायद दिसंबर का कोई शनिवार था. वह होस्टल में रहती थी. होस्टल की चीफ वार्डन लड़कियों को अधिक समय तक बाहर नहीं रहने देती थी. उन्हें 8 बजे तक किसी भी हालत में होस्टल में पहुंच जाना होता था. शनिवार को उस ने वार्डन से कह दिया कि आज वह घर जा रही है, सोमवार तक लौट आएगी. शाम के 5 बजे वह अपना बैग उठा कर मेरे कमरे पर आ गई थी.

‘आज तुम आ गई हो तो अपने हाथ से खाना भी बना कर खिला दो.’

‘क्या? खाना, मुझे कौन सा खाना बनाना आता है.’

‘फिर तुम्हें आता क्या है? यदि हमारी शादी हुई तो मुझे खाना बना कर कौन खिलाएगा?’

‘कौन खिलाएगा का क्या मतलब, बाहर से मंगवाएंगे.’

‘क्या पुरुष शादी इसलिए करते हैं कि घर में पत्नी के होते हुए उन्हें खाना बाहर से मंगवाना पड़े.’

‘पुरुषों की तो पुरुष जानें, मैं तो अपनी बात कर रही हूं.’

उस की बातें सुन कर एक पल मुझे अपनी मां की याद आ गई. वे घर का कितना सारा काम करती हैं और एक यह है आधुनिक भारतीय नारी, जिसे काम तो क्या, खाना तक बनाना नहीं आता.

‘अरे, महाशय, कहां खो गए? मैं तो यों ही मजाक कर रही थी. खाना बाद में खाना, पहले मैं तुम्हारे लिए एक कप चाय तैयार कर देती हूं.’

उस दिन पहली बार उस के हाथ की चाय पी कर मन को कल्पना के पंख लग गए थे.

‘मैं खाना भी स्वादिष्ठ बनाती हूं, पर आज नहीं. आज तो मूवी देखने चलना है.’

‘ओह, मैं तो भूल ही गया था, 5 मिनट में तैयार हो जाता हूं.’

हम जल्दी से सिनेमा देखने पहुंच गए. अब मल्टीप्लैक्स का जमाना आ गया था. सिनेमाघर के बाहर मुख्यद्वार के ऊपर रंगीन परदा लगा था, जिस पर फिल्म के नायकनायिका का चित्र बना था. अभिनेत्री अल्प वस्त्रों में थी, जिस से पोस्टर पर बोल्ड वातावरण अंगड़ाइयां ले रहा था. मैं टिकट विंडो पर जाता, उस से पहले ही उस ने मना कर दिया, पोस्टर इतना गंदा है तो फिल्म कैसी होगी? चलो, फतेहसागर घूमने चलते हैं.

‘अरे, क्या फतेहसागर चलते हैं? किस ने कहा कि फिल्म गंदी है?’

‘तुम तो पागल हो, पोस्टर नहीं दिखता क्या, कितना खराब सीन दिया है.’

‘ओह, कितनी भोली हो तुम. फिल्म वाले इस तरह का पोस्टर बाहर नहीं लगाएंगे तो लोग फिल्म की ओर कैसे आकर्षित होंगे? वैसे फिल्म में ऐसा कुछ है नहीं, जैसा तुम सोच रही हो. टीवी पर कई दिन से इस का ऐड भी आ रहा था. रिव्यू में भी इसे अच्छा बताया गया है.’ वह मूवी देखने में थोड़ा असहज महसूस कर रही थी, लेकिन जैसेतैसे उसे मना लिया. उस के चेहरे पर अचानक मुसकान थिरकी और वह मान गई. सिनेमा हौल की बालकनी तो जैसे हमारे लिए ही सुरक्षित थी. पूरे हौल में एकाध सिर इधरउधर बिखरे नजर आ रहे थे. फिल्म थोड़ी ही चली थी कि गीत आ गया. गीत आया जो आया, मेरे लिए मुसीबत की घंटी बजा गया. नायकनायिका दोनों आलिंगनबद्ध शांत धड़कनों में उत्तेजना का संचार करता दृश्य, अचानक उस ने मेरी आंखों पर अपनी हथेली रख दी.

‘आप यह सीन नहीं देख सकते,’ उस ने कहा.

जब तक फिल्म खत्म नहीं हुई, मेरे साथ यही चलता रहा. उस दिन तो मैं वह मूवी आधीअधूरी ही देख पाया, फिर एक दिन अपने दोस्तों के साथ जा कर अच्छी तरह देखी. यह फिल्म सुरभि के साथ मेरी पहली और आखिरी फिल्म थी. छोटी सी तकरार को ले कर उस ने मुंह क्या मोड़ा, दोस्ती के गहरे और मजबूत रिश्ते को भी तारतार कर दिया. वह मुहब्बत की मिसाल थी पर उस ने वापस कभी मेरी ओर झांक कर नहीं देखा. इस बात को 5 वर्ष बीत गए. पता नहीं, वह कहां होगी, पर मैं हूं कि आज भी मुझे उस के साए तक का इंतजार है. कभी सोचता हूं कि यह भी क्या कोई जिंदगी है जो उस के बिना गुजारनी पड़े.

‘‘साहब, कौन से मकान के बाहर रोकना है, बता देना?’’ रिकशा वाले ने कहा.

‘‘उस सामने वाले घर के बगल में ही रोक देना.’’

पीयूष मुझे देखते ही सामने दौड़ा आया और बांहों में जकड़ लिया.

‘‘मुझे पता था, तुम अवश्य आओगे. मेरे लिए न सही, पर किसी खास वजह के लिए. और हां, तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है.’’

‘‘और वह क्या खबर है?’’

‘‘शाम को तुम्हें अपनेआप पता चल जाएगा. थके हुए हो, अभी तुम आराम करो.’’

‘‘अच्छा, एक बात बता यार, कभी सुरभि दिखाई दी क्या, मेरे जाने के बाद?’’

‘‘हां… मिली थी, तुम्हारे लिए कोई संदेश दिया था. शाम को रिसैप्शन के समय बताऊंगा.’’ अब मेरे लिए यह दिन निकालना भारी पड़ेगा. मन तो करता है कि अभी दिन ढल जाए और रिसैप्शन शुरू हो जाए. ‘काश, वह आज भी मेरा इंतजार कर रही होगी. उस का हृदय इतना पाषाण नहीं हो सकता. फिर उस ने मुझ से मिलने की कोशिश क्यों नहीं की. पीयूष को क्या बताया होगा उस ने. यह भी कितना नालायक है, बात अभी क्यों नहीं बताई मुझे.’’ मैं बेसब्री से रिसैप्शन शुरू होने का इंतजार कर रहा था. आखिर दिन ढल भी गया और रिसैप्शन में मेरी आंखों ने वह देखा जो पीयूष मुझे दिन में बता नहीं पाया था. सुरभि शादी में आई थी. उस के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. उस के साथ तकरीबन 2 साल का सुंदर बच्चा भी था. वह बिलकुल सुरभि पर गया था. मैं उस से आंखें बचा रहा था, पर शायद उसे मेरी उपस्थिति का पहले से अंदाजा था. यह बच्चा किस का है. कहीं सुरभि ने…

पीयूष से मुझे पता चला कि सुरभि जब मुझ से रूठ कर गई, तब घर वालों के दबाव में उस ने शहर के एक रईस युवक से शादी कर ली थी, पर शादी के एक साल में ही उन के रिश्ते में दरार पड़ गई और वह गुमनाम सी बन कर रह गई. मैं ने उसे कितना समझाया था? हरदम उसे अपना समझा. उसे खरोंच तक नहीं लगने दी, पर वह मुझे नीचा दिखा गई. मैं उस के दिल और दोस्ती की आज भी कद्र करता हूं और हमेशा करूंगा. साथ ही कभीकभी एक अपराधबोध भी मेरे अंदर जागृत होता है, जिस का एहसास मुझे हमेशा सालता रहेगा. पर हैरानी है कि वह मुझे अकेला और तनहा छोड़ गई. लगता नहीं कि अब किसी और के साथ निबाह हो सकेगा. उसे नहीं पता कि आज भी मैं उसे कितना प्यार करता हूं, पर आज मेरे कदम उस की ओर उठ नहीं पा रहे हैं और होंठ भी खामोश हैं. आंखों में जलधारा लिए मैं ने भी नजरें घुमा लीं.

Romantic Story : बेईमान बनाया प्रेम ने

Romantic Story : अगर पत्नी पसंद न हो तो आज के जमाने में उस से छुटकारा पाना आसान नहीं है. क्योंकि दुनिया इतनी तरक्की कर चुकी है कि आज पत्नी को आसानी से तलाक भी नहीं दिया जा सकता. अगर आप सोच रहे हैं कि हत्या कर के छुटाकारा पाया जा सकता है तो हत्या करना तो आसान है, लेकिन लाश को ठिकाने लगाना आसान नहीं है. इस के बावजूद दुनिया में ऐसे मर्दों की कमी नहीं है, जो पत्नी को मार कर उस की लाश को आसानी से ठिकाने लगा देते हैं. ऐसे भी लोग हैं जो जरूरत पड़ने पर तलाक दे कर भी पत्नी से छुटकारा पा लेते हैं. लेकिन यह सब वही लोग करते हैं, जो हिम्मत वाले होते हैं. हिम्मत वाला तो पुष्पक भी था, लेकिन उस के लिए समस्या यह थी कि पारिवारिक और भावनात्मक लगाव की वजह से वह पत्नी को तलाक नहीं देना चाहता था. पुष्पक सरकारी बैंक में कैशियर था. उस ने स्वाति के साथ वैवाहिक जीवन के 10 साल गुजारे थे. अगर मालिनी उस की धड़कनों में न समा गई होती तो शायद बाकी का जीवन भी वह स्वाति के ही साथ बिता देता.

उसे स्वाति से कोई शिकायत भी नहीं थी. उस ने उस के साथ दांपत्य के जो 10 साल बिताए थे, उन्हें भुलाना भी उस के लिए आसान नहीं था. लेकिन इधर स्वाति में कई ऐसी खामियां नजर आने लगी थीं, जिन से पुष्पक बेचैन रहने लगा था. जब किसी मर्द को पत्नी में खामियां नजर आने लगती हैं तो वह उस से छुटकारा पाने की तरकीबें सोचने लगता है. इस के बाद उसे दूसरी औरतों में खूबियां ही खूबियां नजर आने लगती हैं. पुष्पक भी अब इस स्थिति में पहुंच गया था. उसे जो वेतन मिलता था, उस में वह स्वाति के साथ आराम से जीवन बिता रहा था, लेकिन जब से मालिनी उस के जीवन में आई, तब से उस के खर्च अनायास बढ़ गए थे. इसी वजह से वह पैसों के लिए परेशान रहने लगा था. उसे मिलने वाले वेतन से 2 औरतों के खर्च पूरे नहीं हो सकते थे. यही वजह थी कि वह दोनों में से किसी एक से छुटकारा पाना चाहता था. जब उस ने मालिनी से छुटकारा पाने के बारे में सोचा तो उसे लगा कि वह उसे जीवन के एक नए आनंद से परिचय करा कर यह सिद्ध कर रही है. जबकि स्वाति में वह बात नहीं है, वह हमेशा ऐसा बर्ताव करती है जैसे वह बहुत बड़े अभाव में जी रही है. लेकिन उसे वह वादा याद आ गया, जो उस ने उस के बाप से किया था कि वह जीवन की अंतिम सांसों तक उसे जान से भी ज्यादा प्यार करता रहेगा.

पुष्पक इस बारे में जितना सोचता रहा, उतना ही उलझता गया. अंत में वह इस निर्णय पर पहुंचा कि वह मालिनी से नहीं, स्वाति से छुटकारा पाएगा. वह उसे न तो मारेगा, न ही तलाक देगा. वह उसे छोड़ कर मालिनी के साथ कहीं भाग जाएगा.

यह एक ऐसा उपाय था, जिसे अपना कर वह आराम से मालिनी के साथ सुख से रह सकता था. इस उपाय में उसे स्वाति की हत्या करने के बजाय अपनी हत्या करनी थी. सच में नहीं, बल्कि इस तरह कि उसे मरा हुआ मान लिया जाए. इस के बाद वह मालिनी के साथ कहीं सुख से रह सकता था. उस ने मालिनी को अपनी परेशानी बता कर विश्वास में लिया. इस के बाद दोनों इस बात पर विचार करने लगे कि वह किस तरह आत्महत्या का नाटक करे कि उस की साजिश सफल रहे. अंत में तय हुआ कि वह समुद्र तट पर जा कर खुद को लहरों के हवाले कर देगा. तट की ओर आने वाली समुद्री लहरें उस की जैकेट को किनारे ले आएंगी. जब उस जैकेट की तलाशी ली जाएगी तो उस में मिलने वाले पहचानपत्र से पता चलेगा कि पुष्पक मर चुका है.

उसे पता था कि समुद्र में डूब कर मरने वालों की लाशें जल्दी नहीं मिलतीं, क्योंकि बहुत कम लाशें ही बाहर आ पाती हैं. ज्यादातर लाशों को समुद्री जीव चट कर जाते हैं. जब उस की लाश नहीं मिलेगी तो यह सोच कर मामला रफादफा कर दिया जाएगा कि वह मर चुका है. इस के बाद देश के किसी महानगर में पहचान छिपा कर वह आराम से मालिनी के साथ बाकी का जीवन गुजारेगा.

लेकिन इस के लिए काफी रुपयों की जरूरत थी. उस के हाथों में रुपए तो बहुत होते थे, लेकिन उस के अपने नहीं. इस की वजह यह थी कि वह बैंक में कैशियर था. लेकिन उस ने आत्महत्या क्यों की, यह दिखाने के लिए उसे खुद को लोगों की नजरों में कंगाल दिखाना जरूरी था. योजना बना कर उस ने यह काम शुरू भी कर दिया. कुछ ही दिनों में उस के साथियों को पता चला गया कि वह एकदम कंगाल हो चुका है. बैंक कर्मचारी को जितने कर्ज मिल सकते थे, उस ने सारे के सारे ले लिए थे. उन कर्जों की किस्तें जमा करने से उस का वेतन काफी कम हो गया था. वह साथियों से अकसर तंगी का रोना रोता रहता था. इस हालत से गुजरने वाला कोई भी आदमी कभी भी आत्महत्या कर सकता था.

पुष्पक का दिल और दिमाग अपनी इस योजना को ले कर पूरी तरह संतुष्ट था. चिंता थी तो बस यह कि उस के बाद स्वाति कैसे जीवन बिताएगी? वह जिस मकान में रहता था, उसे उस ने भले ही बैंक से कर्ज ले कर बनवाया था. लेकिन उस के रहने की कोई चिंता नहीं थी. शादी के 10 सालों बाद भी स्वाति को कोई बच्चा नहीं हुआ था. अभी वह जवान थी, इसलिए किसी से भी विवाह कर के आगे की जिंदगी सुख और शांति से बिता सकती थी. यह सोच कर वह उस की ओर से संतुष्ट हो गया था.

बैंक से वह मोटी रकम उड़ा सकता था, क्योंकि वह बैंक का हैड कैशियर था. सारे कैशियर बैंक में आई रकम उसी के पास जमा कराते थे. वही उसे गिन कर तिजोरी में रखता था. उसे इसी रकम को हथियाना था. उस रकम में कमी का पता अगले दिन बैंक खुलने पर चलता. इस बीच उस के पास इतना समय रहता कि वह देश के किसी दूसरे महानगर में जा कर आसानी से छिप सके. लेकिन बैंक की रकम में हेरफेर करने में परेशानी यह थी कि ज्यादातर रकम छोटे नोटों में होती थी. वह छोटे नोटों को साथ ले जाने की गलती नहीं कर सकता था, इसलिए उस ने सोचा कि जिस दिन उसे रकम का हेरफेर करना होगा, उस दिन वह बड़े नोट किसी को नहीं देगा. इस के बाद वह उतने ही बड़े नोट साथ ले जाएगा, जितने जेबों और बैग में आसानी से जा सके. पुष्पक का सोचना था कि अगर वह 20 लाख रुपए भी ले कर निकल गया तो उन्हीं से कोई छोटामोटा कारोबार कर के मालिनी के साथ नया जीवन शुरू करेगा. 20 लाख की रकम इस महंगाई के दौर में कोई ज्यादा बड़ी रकम तो नहीं है, लेकिन वह मेहनत से काम कर के इस रकम को कई गुना बढ़ा सकता है. जिस दिन उस ने पैसे ले कर भागने की तैयारी की थी, उस दिन रास्ते में एक हैरान करने वाली घटना घट गई. जिस बस से वह बैंक जा रहा था, उस का कंडक्टर एक सवारी से लड़ रहा था. सवारी का कहना था कि उस के पास पैसे नहीं हैं, एक लौटरी का टिकट है. अगर वह उसे खरीद ले तो उस के पास पैसे आ जाएंगे, तब वह टिकट ले लेगा. लेकिन कंडक्टर मना कर रहा था.

पुष्पक ने झगड़ा खत्म करने के लिए वह टिकट 50 रुपए में खरीद लिया. उस टिकट को उस ने जैकेट की जेब में रख लिया. आत्महत्या के नाटक को अंजाम तक पहुंचाने के बाद वह फोर्ट पहुंचा और वहां से कुछ जरूरी चीजें खरीद कर एक रेस्टोरैंट में बैठ गया. चाय पीते हुए वह अपनी योजना पर मुसकरा रहा था. तभी अचानक उसे एक बात याद आई. उस ने आत्महत्या का नाटक करने के लिए अपनी जो जैकेट लहरों के हवाले की थी, उस में रखे सारे रुपए तो निकाल लिए थे, लेकिन लौटरी का वह टिकट उसी में रह गया था. उसे बहुत दुख हुआ. घड़ी पर नजर डाली तो उस समय रात के 10 बज रहे थे. अब उसे तुरंत स्टेशन के लिए निकलना था. उस ने सोचा, जरूरी नहीं कि उस टिकट में इनाम निकल ही आए इसलिए उस के बारे में सोच कर उसे परेशान नहीं होना चाहिए. ट्रेन में बैठने के बाद पुष्पक मालिनी की बड़ीबड़ी कालीकाली आंखों की मस्ती में डूब कर अपने भाग्य पर इतरा रहा था. उस के सारे काम बिना व्यवधान के पूरे हो गए थे, इसलिए वह काफी खुश था.

फर्स्ट क्लास के उस कूपे में 2 ही बर्थ थीं, इसलिए उन के अलावा वहां कोई और नहीं था. उस ने मालिनी को पूरी बात बताई तो वह एक लंबी सांस ले कर मुसकराते हुए बोली, ‘‘जो भी हुआ, ठीक हुआ. अब हमें पीछे की नहीं, आगे की जिंदगी के बारे में सोचना चाहिए.’’

पुष्पक ने ठंडी आह भरी और मुसकरा कर रह गया. ट्रेन तेज गति से महाराष्ट्र के पठारी इलाके से गुजर रही थी. सुबह होतेहोते वह महाराष्ट्र की सीमा पार कर चुकी थी. उस रात पुष्पक पल भर नहीं सोया था, उस ने मालिनी से बातचीत भी नहीं की थी. दोनों अपनीअपनी सोचों में डूबे थे. भूत और भविष्य, दोनों के अंदेशे उन्हें विचलित कर रहे थे. दूर क्षितिज पर लाललाल सूरज दिखाई देने लगा था. नींद के बोझ से पलकें बोझिल होने लगी थीं. तभी मालिनी अपनी सीट से उठी और उस के सीने पर सिर रख कर उसी की बगल में बैठ गई. पुष्पक ने आंखें खोल कर देखा तो ट्रेन शोलापुर स्टेशन पर खड़ी थी. मालिनी को उस हालत में देख कर उस के होंठों पर मुसकराहट तैर गई. हैदराबाद के होटल के एक कमरे में वे पतिपत्नी की हैसियत से ठहरे थे. वहां उन का यह दूसरा दिन था. पुष्पक जानना चाहता था कि मुंबई से उस के भागने के बाद क्या स्थिति है. वह लैपटौप खोल कर मुंबई से निकलने वाले अखबारों को देखने लगा.

‘‘कोई खास खबर?’’ मालिनी ने पूछा.

‘‘अभी देखता हूं.’’ पुष्पक ने हंस कर कहा.

मालिनी भी लैपटौप पर झुक गई. दोनों अपने भागने से जुड़ी खबर खोज रहे थे. अचानक एक जगह पुष्पक की नजरें जम कर रह गईं. उस से सटी बैठी मालिनी को लगा कि पुष्पक का शरीर अकड़ सा गया है. उस ने हैरानी से पूछा, ‘‘क्या बात है डियर?’’

पुष्पक ने गूंगों की तरह अंगुली से लैपटौप की स्क्रीन पर एक खबर की ओर इशारा किया. समाचार पढ़ कर मालिनी भी जड़ हो गई. वह होठों ही होठों में बड़बड़ाई, ‘‘समय और संयोग. संयोग से कोई नहीं जीत सका.’’

‘‘हां संयोग ही है,’’ वह मुंह सिकोड़ कर बोला, ‘‘जो हुआ, अच्छा ही हुआ. मेरी जैकेट पुलिस के हाथ लगी, जिस पुलिस वाले को मेरी जैकेट मिली, वह ईमानदार था, वरना मेरी आत्महत्या का मामला ही गड़बड़ा जाता. चलो मेरी आत्महत्या वाली बात सच हो गई.’’

इतना कह कर पुष्पक ने एक ठंडी आह भरी और खामोश हो गया.

मालिनी खबर पढ़ने लगी, ‘आर्थिक परेशानियों से तंग आ कर आत्महत्या करने वाले बैंक कैशियर का दुर्भाग्य.’ इस हैडिंग के नीचे पुष्पक की आर्थिक परेशानी का हवाला देते हुए आत्महत्या और बैंक के कैश से 20 लाख की रकम कम होने की बात लिखते हुए लिखा था—‘इंसान परिस्थिति से परेशान हो कर हौसला हार जाता है और मौत को गले लगा लेता है. लेकिन वह नहीं जानता कि प्रकृति उस के लिए और भी तमाम दरवाजे खोल देती है. पुष्पक ने 20 लाख बैंक से चुराए और रात को जुए में लगा दिए कि सुबह पैसे मिलेंगे तो वह उस में से बैंक में जमा कर देगा. लेकिन वह सारे रुपए हार गया. इस के बाद उस के पास आत्महत्या करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा, जबकि उस के जैकेट की जेब में एक लौटरी का टिकट था, जिस का आज ही परिणाम आया है. उसे 2 करोड़ रुपए का पहला इनाम मिला है. सच है, समय और संयोग को किसी ने नहीं देखा है.’

Government Jobs : सरकारी एग्जाम, सालों तपस्या, जीरो नौकरी

Government Jobs : भजभज मंडली सरकार छात्रों से चाहती है कि वे नौकरी की चिंता किए बिना तपस्या किए जाएं. पुराणों में इस तरह के तमाम उदाहरण हैं जिन में सैकड़ों साल बाद भी तपस्या का फल नहीं मिलता है.

आज देश में सरकारी नौकरी पाने के लिए छात्रों को आवेदनपत्र भरने से ले कर परीक्षा देने, रिजल्ट आने और नौकरी पाने तक 6 माह से 6 साल तक का समय लग जाता है. इस तरह सरकारी व्यवस्था छात्रों की जिंदगी के 6 साल बरबाद कर देती है. मौजूदा सरकार दरअसल युवाओं को नौकरी देने में पौराणिक व्यवस्था की याद दिला रही है. पौराणिक युग में तपस्या का फल सैकड़ोंहजारों साल बाद भी नहीं मिलता था. पुराणों में इस तरह के उदाहरण मौजूद हैं. पार्वती ने शिव को पाने के लिए 12 हजार साल तक तपस्या की. पुराणों में पार्वती की तपस्या को सब से कठिन बताया गया है.

‘अस तपु काहुं न कीन्ह भवानी, भए अनेक धीर मुनि ग्यानी’. तुलसीदास की रामचरितमानस की एक चौपाई की इन पंक्तियों का मतलब यह है कि पार्वती ने दूसरे तपस्वियों से कठिन तपस्या की थी. शिव व पार्वती की कहानी इस पूरे संसार की सब से कठिन तपस्या का रूप पेश करती है.

पार्वती ने शिव को पति के रूप में पाने के लिए बहुत मेहनत की. कई कथावाचक इस कहानी के जरिए युवाओं और महिलाओं को सम?ाते हैं कि आज के समय में लोग एक महीने तक भी इंतजार नहीं करते. पार्वती की तपस्या में कोई ज्ञान पाना नहीं था, पढ़ना नहीं था, कोई परीक्षा नहीं देनी थी, कोई हुनर नहीं पाना था लेकिन हमारा आज का समाज पार्वती के गुणगान गाता है और युवाओं को परीक्षाओं में झोंकता है.

भगवान को पाने से कम नहीं सरकारी नौकरी

पौराणिक कथाओं के अनुसार पार्वती ने 1000 वर्ष तक कंद और मूल का सेवन किया. इस के बाद 100 वर्ष केवल शाक का आहार किया. कुछ दिनों तक पानी और हवा का आहार किया. कुछ दिन इन सब को भी त्याग कर कठिन उपवास किया. इस के बाद वृक्ष से गिरी हुई बेल की सूखी पत्तियां खा कर 3000 वर्ष बिताए. जब पार्वती ने सूखी पत्तियों का सेवन बंद कर दिया तो उन का नाम अपर्णा पड़ गया और तब कहीं जा कर तपस्या का फल मिला.

पार्वती की तपस्या का फल मिलने में 12 हजार साल का समय लगा. आज के शासकों को लगता है कि छात्रों को आवेदन से रिजल्ट तक 6 साल का समय लगता है तो कौन सा पहाड़ टूट रहा है.

गीता में कहा गया है- ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’. इस का अर्थ है कि इंसान को कर्म करना चाहिए, लेकिन फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए. कर्म के फल को अपना उद्देश्य मत बनाओ, न ही अकर्म में तुम्हारी आसक्ति हो.

गीता में कर्म के 2 प्रकार बताए गए हैं- साकाम कर्म और निष्काम कर्म. फल की इच्छा से किए गए कर्म को साकाम कर्म कहा जाता है. बिना फल की इच्छा से किए गए कर्म को निष्काम कर्म कहा जाता है.

कर्मफल की इच्छा से मुक्त हो कर कर्म करने से मनुष्य का काम सफल होता है. मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे फल उसी के मुताबिक मिलता है. व्यक्ति को अच्छे कर्म करने चाहिए. बद्रीनाथ में एक दिन की तपस्या का फल 1,000 साल की तपस्या के समान माना जाता है. यहां विष्णु ने नर और नारायण रूप में तपस्या की थी. दुर्द्धम्भ राक्षस के वध के लिए विष्णु ने यहां 100 दिन तक तपस्या की थी.

सालों बाद सफल होती तपस्या

उत्तर प्रदेश के परिषदीय स्कूलों में 72,825 शिक्षकों की भरती प्रक्रिया नवंबर 2011 में शुरू हुई थी. 11 साल के बाद 2021 तक अभ्यर्थियों को नौकरी नहीं मिल पाई थी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही नौकरी मिल सकी. यानी 12 साल से अधिक का समय नौकरी मिलने में लग गया. इस तरह से छात्रों को भी उन की तपस्या का फल मिलने में लंबा समय लग जाता है.

इस तरह का दूसरा मसला 69 हजार शिक्षकों की भरती से जुड़ा हुआ है. यूपी सरकार ने अक्तूबर 2017 में 69 हजार शिक्षकों की भरती के लिए आवेदन मांगे थे. दिसंबर 2018 में भरती प्रक्रिया शुरू की. जनवरी 2019 में परीक्षा कराई गई थी. इस में 4.10 लाख अभ्यर्थियों ने हिस्सा लिया था. करीब 1.40 लाख अभ्यर्थी सफल हुए और मैरिट लिस्ट जारी कर दी गई. मैरिट लिस्ट आते ही विवाद सामने आ गया, क्योंकि आरक्षण के चलते जिन अभ्यर्थियों का चयन तय माना जा रहा था, उन के नाम लिस्ट में नहीं थे. लिहाजा, कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया.

69 हजार शिक्षकों की भरती में आरक्षण अनियमितता का मामला हाईकोर्ट में लंबित था. शिक्षक भरती में 19 हजार सीटों के आरक्षण को ले कर अनियमितता के आरोप लगे थे. इस में विसंगतियों का आरोप लगाते हुए कई लोग कोर्ट गए थे. हाईकोर्ट ने 69 हजार सहायक शिक्षकों की मौजूदा सूची को गलत मानते हुए मैरिट सूची को रद कर दिया. कोर्ट ने प्रदेश सरकार को 3 महीने के अंदर नई मैरिट लिस्ट तैयार करने का आदेश दिया. इस के लिए आरक्षण के नियमों और बेसिक शिक्षा नियमावली के तहत लिस्ट बनाने का आदेश दिया गया है.

अब बेसिक शिक्षा विभाग को 3 महीने में नई चयन सूची जारी करनी होगी. इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस आदेश से यूपी सरकार को बड़ा झटका लगा है. नई चयन सूची तैयार होने से पिछले 4 सालों से नौकरी कर रहे हजारों शिक्षकों की नौकरी खत्म हो जाएगी. अभ्यर्थियों ने पूरी भरती प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठाए थे. इस में 19 हजार पदों को ले कर आरक्षण में गड़बड़ी के आरोप लगाए गए थे. अब यह मसला सुप्रीम कोर्ट में है. छात्र 2017 से नौकरी का इंतजार कर रहे हैं.

चपरासी की नौकरी के लिए पीएचडीधारक

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में सरकार ने चपरासी की नौकरी के लिए जगह निकाली थी. कुल 368 पदों के लिए 23 लाख से अधिक छात्रों ने आवेदन किया. इन में ग्रेजुएट से ले कर बीटैक और पीएचडी डिग्रीधारकों ने भी फौर्म भरा था. इस के अलावा एमएससी, एमकौम, बीएससी, बीकौम और एमए पास लोगों ने भी इस के लिए अप्लाई किया था. नौकरी के लिए सीधे इंटरव्यू होना था.

इतने लोगों का इंटरव्यू होने में ही 4 साल का समय लग जाना था. छात्रों का कहना है कि बेरोजगारी बढ़ने की वजह से अधिक पढ़ेलिखे लोग भी कमतर योग्यता वाली नौकरी करने को तैयार हैं. जब नौकरी ही नहीं मिल रही है तो चपरासी की नौकरी ही सही. चपरासी की नौकरी के लिए 5वीं पास और साइकिल चलाने की योग्यता ही थी. आवेदन करने वालों में सिर्फ 53 हजार लोग ही 5वीं पास थे. 20 लाख अभ्यर्थी 6ठी से 12वीं पास थे.

इस का आवेदन औनलाइन मांगा गया था. 23 लाख से अधिक लोगों ने कम से कम कंप्यूटर केंद्र को 50 रुपए दे कर आवेदन किया होगा. ऐसे में 11 करोड़ 50 लाख रुपए छात्रों की जेब से निकल गए जबकि भरती प्रक्रिया निरस्त कर दी गई. लोगों ने चपरासी की नौकरी इसलिए लेनी चाही होगी कि चपरासी को भी पक्की नौकरी में खासी सैलरी मिल जाती है और रिश्वत के अपार अवसर रहते हैं.

भ्रष्टाचार की भेंट भरती परीक्षा

मध्य प्रदेश के पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रदीप जैन कहते हैं, ‘बेरोजगारी का आलम यह है कि चपरासी की पोस्ट के लिए पीएचडी और एमबीए पास युवा आवेदन कर रहे हैं. मध्य प्रदेश में 40 लाख से अधिक बेरोजगार रजिस्टर्ड हैं. एक करोड़ से अधिक युवा बेरोजगार हैं. गरीब परिवार अपने बेटों को फौर्म भरने के लिए पैसे देते हैं. लेकिन भरती प्रक्र्रिया भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है. नोट अफसरों और नेताओं की जेबों में जाते हैं. मध्य प्रदेश में व्यापमं घोटाले से ले कर पटवारी तक के घोटाले हुए. युवाओं का भविष्य चक्रव्यूह की तरह उलझ गया.

‘दतिया, निवाड़ी, टीकमगढ़ के युवा पीएचडी, एमबीए करने के बाद भी दुकानों पर काम कर रहे हैं. 17 हजार से अधिक युवाओं ने मध्य प्रदेश में नौकरी नहीं मिलने की वजह से आत्महत्या कर ली. 18 साल से सरकार ने नियुक्ति नहीं की. गृह विभाग से ले कर सभी विभागों में पद खाली हैं.’

परीक्षा से कठिन फौर्म भरना

परीक्षा की तपस्या से कठिन है परीक्षा का फौर्म भरना. अगर इस फौर्म को भरने में एक छोटी सी भी चूक होती है तो पूरी परीक्षा निष्काम साबित हो सकती है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि परीक्षा फौर्म को भरते समय अगर छोटी सी भी गलती हो जाए तो उस में सुधार के अवसर सीमित होते हैं.

परीक्षा फौर्म को भरना काफी कठिन कर दिया गया है. ऐसे में नौकरी के लैवल तक पहुंचने में सालों लग जाते हैं. अच्छेखासे पढ़ेलिखे छात्र भी परीक्षा फौर्म भरने में दूसरे जानकार लोगों की मदद लेने को मजबूर होते हैं. कई बार हिंदी के ऐसे शब्द लिखे होते हैं जिन को सम?ाने के लिए इंग्लिश में ट्रांसलेशन करना पड़ता है.

परीक्षा फौर्म भरने के लिए अब कंप्यूटर और हाईपावर इंटरनैट का होना भी जरूरी होता है. मोबाइल से फौर्म नहीं भरा जा सकता. ऐेसे में पहली जरूरत लैपटौप या कंप्यूटर हो गई है. दूसरी जरूरत, जानकार व्यक्ति, जो सही तरह से फौर्म भरवा सके.

इन दोनों के लिए भी छात्रों को पैसा खर्च करना पड़ता है. परीक्षा फौर्म भरवाने के लिए कंप्यूटर सैंटर खुल गए हैं. कई बार परीक्षा फौर्म भरने में गलती कंप्यूटर सैंटर वाले करते हैं और उस का खमियाजा छात्रों को भुगतना पड़ता है.

आज भी बहुत सारे ऐसे छात्र हैं जिन के पास लैपटौप या कंप्यूटर नहीं है. ये बिना किसी मदद के औनलाइन फौर्म नहीं भर सकते. सरकार का कहना है कि यह सब छात्रों के भले के लिए किया गया है, जिस से परीक्षा में गड़बड़ी न हो, परीक्षा का परिणाम समय पर आए और छात्रों को जल्द नौकरी मिल सके. सचाई सरकारी कथन के पूरी तरह उलट है. आज परीक्षाओं में गड़बड़ी बड़े स्तर पर हो रही है. नकल और परचा आउट होना आम बात है. परीक्षा के परिणाम सालोंसाल लेट हो रहे हैं. सरकारी नौकरी के इंतजार में आधी उम्र निकल जा रही है.

109 पेज के निर्देशों वाला फौर्म कैसे भरें 12वीं पास छात्र

संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी ने एनडीए (नैशनल डिफैंस एकैडेमी) और नेवल एकैडेमी एग्जाम 2024 के लिए नोटिस जारी की. एग्जाम नोटिस नबर 3 /2025-एनडीए-1 में परीक्षा के बारे में 109 पेज में निर्देश थे.

इस में परीक्षा कैसे दें, कितने नंबर के सवाल हैं जैसी तमाम चर्चाएं की गई थीं. 109 पेज पढ़ कर उस को परीक्षा का फौर्म भरना था. 12वीं पास छात्र इतना बड़ा फौर्म देख कर ही चकरा जाता है.

फौर्म भरना कठिन कार्य है. यह बात एनटीए यानी नैशनल टैस्टिंग एजेंसी जानती है, जो इस परीक्षा को आयोजित करती है. एनटीए की स्थापना 2017 में हुई थी. यह मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन आती है. एनटीए का मुख्य काम उच्च शिक्षा और विभिन्न सरकारी संस्थानों में प्रवेश के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कुशल, पारदर्शी और अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप परीक्षाएं आयोजित करना है. कहने के लिए यह स्वायत्त संस्था है पर असल में केंद्र सरकार का विभाग है.

एनटीए अपनी परीक्षा में फेल

नीट 2024 की परीक्षा में एनटीए की आलोचना पूरे देश में हो चुकी है. नीट में धांधली का मुद्दा पिछले साल संसद से ले कर सड़क तक छाया रहा. इस के बाद भी नीट बेशर्मों की तरह काम कर रही है. उस ने पिछली गलती से कोई सबक नहीं लिया है. जीतेंद्र कुमार मंडल, अंडर सैक्रेटरी, यूपीएससी की तरफ से जारी निर्देशों में पहले 9 पेज तक निर्देश देने के बाद पेज नंबर 10 पर लिखा है कि ‘अप्लाई कैसे करें?’

यह परीक्षा 12वीं पास छात्र देते हैं. ऐसे में उन की समझ कम होती है. उन के अनुकूल किसी भी तरह से यह फौर्म नहीं बना है. पेज नंबर 20 से छात्रों को समझाने के लिए परीक्षा का प्रश्नपत्र दिया गया है.

पेज नंबर 32 पर मैडिकल के बारे में बताया गया है कि किस तरह से छात्रों का मैडिकल परीक्षण किया जाएगा. पूरे फौर्म को देखने से पता चलता है कि जैसे यह परीक्षा फौर्म नहीं, मानो परीक्षा पास कर के नौकरी जौइन करने का फौर्म है. परीक्षा फौर्म भरने से ले कर सवालों के जवाब भरने तक एक लंबी प्रक्रिया होती है. इस में तमाम ऐसी जानकारियां मांगने के कौलम हैं जो गैरजरूरी हैं और इन को नौकरी देते समय मांगा जा सकता है. कठिन होते फौर्म के चलते गड़बड़ी होने की संभावना बढ़ जाती है. इस में सुधार के अवसर भी सीमित होते हैं. उस का भी निर्धारत समय होता है.

नहीं होती सुधार की गुंजाइश

काउंसिल औफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च यानी सीएसआईआर यूजीसी नैट दिसंबर 2024 परीक्षा का आयोजन 16 से 28 फरवरी, 2025 तक आयोजित होगी. यह परीक्षा देशभर के विभिन्न परीक्षा केंद्रों पर होगी. यह एग्जाम 180 मिनट का होगा. परीक्षा का माध्यम हिंदी और इंग्लिश दोनों होगा. परीक्षा का फौर्म आधिकारिक वैबसाइट पर भरा जाएगा. 2 जनवरी तक परीक्षा के लिए आवेदन फौर्म भरे गए थे. 3 जनवरी तक परीक्षा के लिए निर्धारित फीस भरी गई थी. 4 जनवरी से परीक्षा के लिए करैक्शन विंडो ओपन हो गई.

परीक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन करने वाले कैंडिडेट्स 4 जनवरी से अपने एप्लीकेशन फौर्म में हुई गलती को सुधार सकते थे. इस के लिए अभ्यर्थियों को औफिशियल वैबसाइट पर जा कर लौगइन करना था. परीक्षा फौर्म में करैक्शन करने के लिए अभ्यर्थियों को 5 जनवरी तक ही समय दिया गया था. कैंडिडेट्स को केवल एक दिन के भीतर ही अपने आवेदनपत्र में सुधार करना था. इस के बाद कोई भी सुधार स्वीकार नहीं किया जाना था.

सुधार में भी शर्तें लागू थीं. परीक्षा फौर्म में सुधार के इच्छुक ऐसे कैंडिडेट्स जिन्होंने करैक्शन करने के लिए आधारकार्ड यूज नहीं किया है, वे डेट औफ बर्थ, जैंडर, पिता का नाम, माता का नाम सैक्शन में बदलाव कर सकते थे. आधारकार्ड यूज करने वाले कैंडिडेट्स को भी इसी सैक्शन में बदलाव की अनुमति दी गई थी. अभ्यर्थियों को उम्मीदवार का नाम, लिंग, फोटो, हस्ताक्षर, मोबाइल नंबर, ईमेल पता, एड्रैस एवं पत्राचार पता, परीक्षा शहर को बदलने की अनुमति नहीं थी.

परीक्षा फौर्म में करैक्शन करने के लिए सब से पहले उम्मीदवारों को आधिकारिक वैबसाइट पर जाना था. होमपेज पर सीएसआईआर नैट दिसंबर 2024 आवेदन सुधार लिंक पर क्लिक करना था. यहां लौगइन कर के बदलाव करना था. इस के बाद किसी भी तरह के बदलाव को मान्य नहीं किया जाना था.

इस का मतलब यह है कि पूरे परीक्षा फौर्म में की गई गलती स्वीकार नहीं थी. केवल चुनी गई जानकारी में ही बदलाव किया जा सकता था. सवाल उठता है कि गलती सुधारने के लिए छात्रों को सीमित वक्त क्यों दिया गया? अगर पूरे फौर्म में किसी गलती को सुधारना हो तो उसे मान्य क्यों नहीं किया गया? फौर्म भरने, परीक्षा आयोजित करने, उस के बाद नौकरी देने में सालोंसाल का समय सरकार लगा देती है, इस का कोई तय समय क्यों नहीं है? जब उस का तय समय नहीं है तो छात्रों को फौर्म में सुधार करने के लिए सीमित समय क्यों दिया जाता है?

परीक्षा केंद्र दूर व अव्यवस्थित

तकरीबन हर परीक्षा में लाखोंलाख छात्र बैठते हैं. ऐसे में परीक्षा आयोजन के लिए बने केंद्र काफी दूरदूर होते हैं. परीक्षा का फौर्म भरते समय छात्र से पूछा जाता है कि वे अपनी पसंद के शहर का नाम बताएं. उसे क्रमवार 3 से 5 शहरों के नाम बताने होते हैं.

परीक्षा आयोजन करने वाले संस्थान कोशिश करते हैं कि छात्र की पसंद का शहर मिल जाए. आमतौर पर पसंद का शहर मिल जाता है. हर शहर में कई सैंटर ऐसे होते हैं जो काफी दूर होते हैं. ऐसे में सुबह 8 बजे परीक्षा सैंटर पर पहुंचना कठिन होता है. छात्र रात में ही रेलवे स्टेशन या बस स्टौप या फिर किसी पार्क में रात गुजारते हैं. इन में लड़केलड़कियां सभी होते हैं. परीक्षा केंद्र पहुंच कर परीक्षा देने में 3 से 5 हजार रुपए छात्र के खर्च हो जाते हैं.

कई परीक्षा केंद्र ऐसे स्थानों पर होते हैं जहां संकरी गलियां होती हैं. उन में 1 से 2 हजार छात्र पहुंच जाते हैं तो अव्यवस्था हो जाती है. 22 दिसंबर, 2024 को एआईबीसी यानी औल इंडिया बार काउंसिल की परीक्षा थी. लखनऊ के ब्राइट कौन्वैंट कालेज और गर्ल्स कालेज में सैंटर थे. ये दोनों कालेज ठाकुरगंज में संकरी सड़कों पर बने थे. ऐसे में कुछ छात्र अपने वाहनों से आए थे. सड़क जाम हो गई. छात्रों का सैंटर तक पहुंचना मुश्किल हो गया. कालेज के सामने वाली रोड मुश्किल से 12 फुट चौड़ी थी, जिस में छात्र और उन के पेरैंट्स का चलना मुश्किल था. ऐसे में अगर कोई हादसा हो जाता तो लेने के देने पड़ जाते.

परीक्षा में शामिल होने के लिए छात्रों से फीस के तौर पर खासी रकम वसूल की जाती है. इस के बाद भी उन को पर्याप्त सुविधाएं नहीं दी जातीं. इस से छात्रों में नाराजगी रहती है. कई बार यह नाराजगी बड़ी परेशानी बन जाती है. कुछ दिनों पहले नीट परीक्षा में धांधली का मुद्दा लोकसभा और सुप्रीम कोर्ट तक गया. इस के बाद भी छात्र संतुष्ट नहीं हैं. उन को लगता है कि उन के साथ चीटिंग हुई है.

शरारतन एडमिट कार्ड पर ऐक्ट्रैस कैटरीना की फोटो

बिहार के दरभंगा स्थित ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी (एलएनएमयू) के कर्मचारियों ने छात्रछात्राओं के एडमिट कार्ड पर नरेंद्र मोदी, क्रिकेटर महेंद्र सिंह धौनी, ऐक्ट्रैस कैटरीना कैफ जैसी हस्तियों के फोटो छाप दिए. छात्र संगठन इसे यूनिवर्सिटी की गलती बता कर धरनाप्रदर्शन और आंदोलन करने लगे. एडमिट कार्ड के लिए छात्रों को अपनी फोटो और जरूरी डिटेल्स दर्ज करानी होती है. इस के बाद एडमिट कार्ड बनाया जाता है. एडमिट कार्ड औनलाइन जारी किए जाते हैं. शरारतन कुछ एडमिट कार्ड पर फोटो गलत छप गईं.

इस से पहले भी बिहार में एडमिट कार्ड पर ऐक्टर इमरान हाशमी और पोर्न स्टार सनी लियोनी के नाम छपने का मामला सामने आया था. मुजफ्फरपुर में छात्रों के मातापिता के नाम के सामने इन दोनों फिल्म स्टार के नाम लिखे थे. औनलाइन फौर्म भरते समय मांगी गई सभी डिटेल्स पर ध्यान दिया जाना चाहिए. किसी साइबर कैफे के भरोसे फौर्म भरने से बचना चाहिए. दलाल के चक्कर में पड़ कर फंसना नहीं चाहिए क्योंकि ऐसी गलती यहीं से फौर्म भरने के दौरान ही होती है. जब परीक्षा का फौर्म भरना सरल नहीं होगा तो छात्रों को साइबर कैफे की मदद लेनी ही पड़ेगी, सो, इस तरह की परेशानी संभव है.

इस तरह की परेशानियों से बचने का एक ही उपाय है कि फौर्म भरना सरल किया जाए. छात्र खुद से भर सकें. उन के पास अगर कंप्यूटर और लैपटौप न भी हो तो भी वे अपने मोबाइल से फौर्म भर सकें. परीक्षाफौर्म में सीमित जानकारी ही भरने को कहा जाए. जब छात्र परीक्षा पास कर ले और नौकरी देने का समय आए तो उस से सारा विवरण लिया जाए. ऐसे में छात्र परेशानी से बच सकेंगे.

एक गलती से फौर्म रिजैक्ट

हर परीक्षा के अपनेअपने नियम होते हैं. ये इतने कठिन और समय लेने वाले होते हैं कि इन को समझना आसान नहीं होता. फौर्म भरने की प्रक्रिया औनलाइन होने की वजह से यह और कठिन हो जाती है. कई छात्र ग्रामीण इलाके से आते हैं. उन के लिए यह और कठिन हो जाता है. इस कारण ही सैकड़ों छात्रों के फौर्म रिजैक्ट हो जाते हैं और उन की जमा कराई गई फीस बेकार चली जाती है.

परीक्षा फौर्म के जटिल होने से कोचिंग संस्थाओं, फौर्म भरवाने वाले कंप्यूटर सैंटर्स की चांदी हो जाती है. वे इस के बदले अपना चार्ज वसूलते हैं. सो, पूरी व्यवस्था ऐसे हाथों में चली जाती है जो इंटरनैट ऐप्स के जानकार होते हैं. सरकार इन ऐप्स को सुविधा के नाम पर प्रयोग करती है. सचाई यह होती है कि परीक्षा फौर्मों को औनलाइन भरना मुसीबत हो गया है. यह परीक्षा देने से भी कठिन हो गया है.

प्रमाणपत्रों की आड़ में गोरखधंधा

अलगअलग नौकरियों में कई तरह के प्रमाणपत्र मांगे जाते हैं जबकि फौर्म में पहले से वोटर आईडी या आधारकार्ड का नंबर मांगा जाता है. इस के बाद भी कुछ नौकरियों में डोमिसाइल प्रमाणपत्र मांगा जाता है, जो यह बताता है कि आप किस प्रदेश के रहने वाले हैं.

इस के बाद आय प्रमाणपत्र सवर्ण वर्ग के उन छात्रों को लगाना पड़ता है जो 10 फीसदी पिछड़े सवर्णों के आरक्षण का लाभ लेना चाहते हैं. यह आरक्षण उन छात्रों को ही मिलेगा जिन की वार्षिक आय 8 लाख रुपए से कम होगी. इस के लाभ को लेने के लिए आय प्रमाण बनवाना होता है.

अकसर आय के साथ ही साथ निवास और जाति प्रमाणपत्र भी मांगा जाता है. ये सभी प्रमाणपत्र पाने के लिए औनलाइन आवेदन किए जाते हैं. इन को तहसील स्तर पर बनाया जाता है. डीएम और एसडीएम जैसे पदों के अधिकारी इन को जारी करते हैं.

इन में रिपोर्ट लगाने का काम लेखपाल और कानूनगो जैसे राजस्व विभाग के इंस्पैक्टर करते हैं. इन की रिपोर्ट के बाद भी प्रमाणपत्र बनते हैं. यहां भी धांधली खूब चलती है. आवेदन भरना छात्र के बस का नहीं होता है. उसे तहसील में मौजूद कंप्यूटर केंद्रों पर भरवाना पड़ता है.

कई वकील भी इस काम को करते हैं. इस तरह से प्रमाणपत्र बनवाने में 500 से एक हजार रुपए लग जाते हैं. जब तक लेखपाल पैसा नहीं ले लेता तब तक वह अपनी रिपोर्ट नहीं लगाता. जब तक लेखपाल रिपोर्ट नहीं लगाएगा, ये प्रमाणपत्र नहीं बनेंगे.

आय प्रमाणपत्र हर साल नया बनवाना पड़ता है. ओबीसी जाति प्रमाणपत्र 3 साल में दोबारा बनवाना पड़ता है.
एससी प्रमाणपत्र हर नौकरी में आवेदन करते समय नया बनवाना पड़ता है. औनलाइन परीक्षा फौर्म भरने में प्रमाणपत्र का नंबर लिखने से काम चल जाता है. औफलाइन फौर्म भरने में इस की मूल कौपी लगानी पड़ती है.

जो लोग विकलांग कोटे का लाभ लेना चाहते हैं उन को विकलांग प्रमाणपत्र भी देना पड़ता है. इन को समाज कल्याण विभाग और स्वास्थ्य विभाग में संपर्क करना पड़ता है. स्वास्थ्य विभाग में सीएमओ यानी मुख्य चिकित्सा अधिकारी विकलांग प्रमाणपत्र देता है.

इन प्रमाणपत्रों में किस तरह से धांधली होती है, इस का एक उदाहरण पूजा खेडकर का है. पूजा 2023 बैच की आईएएस थीं. उन को यूपीएससी 2022 में 841वीं रैंक मिली थी. जून 2024 से ट्रेनिंग कर रही थीं. ट्रेनिंग के दौरान गलत व्यवहार के कारण वे चर्चा में आईं.

पूजा खेडकर से खुली पोल

इस के पहले यूपीएससी पता नहीं कर पाई कि पूजा खेडकर ने आरक्षण का लाभ लेने के लिए गलत जानकारी दी थी. इस कारण ही उन को न केवल चुना गया बल्कि नौकरी पर भी भेज कर ट्रेनिंग दी जाने लगी.

विवादों में घिरने के बाद यूपीएससी ने जांच में पूजा खेडकर को गलत पाया तो नौकरी से निकाल दिया. पूजा खेडकर पर उम्र, मातापिता की गलत जानकारी, पहचान बदल कर तय सीमा से ज्यादा बार सिविल सर्विसेज का एग्जाम देने के आरोप थे.

पूजा ने दिल्ली हाईकोर्ट में कहा था कि यूपीएससी के पास उन के खिलाफ कार्रवाई करने का कोई अधिकार नहीं है. मेरे सारे डौक्यूमैंट्स को 26 मई, 2022 को पर्सनैलिटी टैस्ट में आयोग ने वैरिफाई किया था. यूपीएससी ने पूजा द्वारा जमा कराए गए 2 डिसेबिलिटी सर्टिफिकेट में से एक के फर्जी होने की बात कही है. पूजा ने कहा कि पहले यूपीएससी ने मेरे ऊपर अपना नाम बदल कर एग्जाम देने का आरोप लगाया था, अब वे कह रहे हैं कि मेरी विकलांगता पर भी संदेह है.

मजेदार बात यह है कि यूपीएससी ने एक बार नहीं, 3 बार पूजा का पर्सनैलिटी टैस्ट 2019, 2021 और 2022 में लिया था. पर्सनैलिटी टैस्ट के दौरान कलैक्ट किए बायोमीट्रिक डेटा (सिर और उंगलियों के निशान) के जरिए उस की पहचान वैरिफाई की थी. सवाल उठता है कि 3 बार यूपीएससी ने कैसे जांच की थी? हो सकता है इस तरह के प्रमाणपत्र वाले और भी लोग हों जिन की जांच नहीं हो पा रही हो.

एनटीए में नहीं हो रहा सुधार

जिस तरह से पूजा खेडकर मसले में यूपीएससी अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है उसी तरह से एनटीए भी परीक्षाओं में गड़बड़ी की बात को स्वीकार नहीं करती है. नीट में अपनी भद्द पिटवा चुकी एनटीए ने अपने काम करने का तरीका नहीं बदला. जिस कारण ही बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन में 1,957 पदों के लिए हुई परीक्षा में बवाल मचा है. इस परीक्षा में भी नौर्मलाइजेशन को ले कर छात्रों ने धरना शुरू कर दिया. छात्रों का कहना है कि सरकार नौकरी देने में अभ्यर्थियों का समय बर्बाद करती है. इस के लिए ही परीक्षा फौर्म इतना जटिल बनाया जा रहा कि कुछकुछ गड़बड़ी हो जाए जिस से परीक्षा रद कर दी जाए.

नौकरी न देने के लिए परीक्षाओं का ऐसा जाल बुना जा रहा कि छात्र नौकरी तक पंहुच ही न पाएं. नौकरी के नियम वैसे बदले जा रहे हैं जैसे कुंडली में ग्रह बदलते हैं. नियम बदलने से भी छात्र नौकरी पाने से वंचित रह जाते हैं.

बीपीएससी छात्रों का आंदोलन

बिहार में 70वीं संयुक्त प्रारंभिक परीक्षा का आयोजन बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन (बीपीएससी) ने किया. इस के तहत 1,957 पदों को भरा जाना था. इस के लिए 5 लाख से अधिक छात्रों ने अप्लाई किया. पहले आवेदन की लास्ट डेट 18 अक्तूबर थी.

परीक्षा से पहले ही नौर्मलाइजेशन को ले कर फैली अफवाह, छात्रों के प्रदर्शन और आवेदन में सामने आई कुछ तकनीकी समस्याओं के कारण आखिरी डेट बढ़ा कर 4 नवंबर कर दी गई. 5 लाख आवेदनों में से 4 लाख 80 हजार छात्रों ने परीक्षा दे दी.

इस परीक्षा के तहत डिप्टी एसपी, डिप्टी कलैक्टर, सीनियर डिप्टी कलैक्टर और राजस्व अधिकारी जैसे कई पद भरे जाने थे. कैंडीडेट का सैलैक्शन प्रीलिम्स, मेंस और पर्सनैल्टी टैस्ट के आधार पर किया जाता है. परीक्षा के लिए नोटिफिकेशन जारी होने के बाद नौर्मलाइजेशन को ले कर सब से पहला विवाद सामने आया. इस को ले कर छात्र प्रदर्शन करने लगे.

इस के बाद बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन को सफाई देनी पड़ी कि इस परीक्षा में नौर्मलाइजेशन लागू नहीं किया गया है. छात्रों ने प्रदेश की राजधानी पटना शहर में स्थित बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन के औफिस के बाहर धरना देना शुरू किया.

धरने में मशहूर कोचिंग टीचर खान सर भी शामिल हुए. प्रशासन और पुलिस ने कोचिंग संस्थानों पर छात्रों को भड़काने का आरोप लगाया. 13 दिसंबर को एग्जाम हो जाने के बाद पेपर आउट होने का आरोप भी लगा.

छात्रों ने परीक्षा में गड़बड़ी, प्रश्नपत्र में असमानता का आरोप लगाते हुए पूरी परीक्षा रद्द करने की मांग की. पेपर लीक के आरोप पर हंगामा बढ़ने पर आयोग ने बापू परीक्षा केंद्र की परीक्षा रद्द कर उसे 4 जनवरी, 2025 को उसी सैंटर पर फिर से आयोजित कराया. छात्र नौर्मलाइजेशन से नाराज थे.

क्या होता है नौर्मलाइजेशन

अगर कोई परीक्षा एक ही शिफ्ट में होती है तो एक ही प्रश्नपत्र सभी छात्रों के लिए होता है. इस को ही नौर्मलाइजेशन कहते हैं. मगर कोई परीक्षा एक से ज्यादा शिफ्ट में होती है तो विभिन्न शिफ्टों में परीक्षा देने वाले छात्रों को अलगअलग प्रश्नपत्र दिए जाते हैं.

नौर्मलाइजेशन सिस्टम द्वारा यह अनुमान लगाया जाता है कि कोई पेपर कितना आसान और कितना मुश्किल होता है. इस के अनुसार ही मार्क्स तय किए जाते हैं. अगर एक शिफ्ट में छात्रों का औसतन स्कोर 100 में से 95 है और दूसरी शिफ्ट में 85 है और पाया जाता है कि दूसरी शिफ्ट का पेपर कुछ मुश्किल था तो नौर्मलाइजेशन स्कोर फार्मूला में दोनों ग्रुपों के छात्रों को बराबर 90-90 स्कोर दिया जा सकता है. इस को ले कर छात्र विरोध कर रहे थे.

परीक्षा दर परीक्षा गड़बडि़यां सामने आ रही हैं. केंद्र सरकार किस को बचाने के लिए एनटीए के खिलाफ कड़े कदम नहीं उठा पा रही है? मोदी सरकार न तो साफसुथरी परीक्षा करा पा रही है और न ही छात्रों के सरलता से परीक्षा फौर्म भरने की व्यवस्था कर पा रही है. बहुत सारे प्रमाणपत्र लगाने के बाद भी पूजा खेडकर गलत प्रमाणपत्र लगा कर नौकरी पा जा रही है.

नीट जैसा आंदोलन बिहार के छात्र बीपीएससी परीक्षा को ले कर कर रहे हैं. इस के बाद भी केंद्र सरकार यूपीएससी और एनटीए को जिम्मेदार नहीं मान रही. परीक्षाओं में सुधार का कोई कदम नहीं उठाया जा रहा. परीक्षा फौर्म भरने से ले कर नौकरी पाने तक छात्र बूढ़े हो जा रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेडियो पर ‘मन की बात’ में परीक्षा विषय पर मोटिवेशनल बातें करते हैं. उन की सरकार की नाक के नीचे परीक्षाओं में हो रही धांधली पर वे मौन धारण किए रहते हैं.

असल में भाजपा की यह सरकार पौराणिक कथाओं पर भरोसा करती है. ऐसे में वह परीक्षा फौर्म भरने से परीक्षा और नौकरी तक के क्रम में सालोंसाल लगा देती है जिस से कि सरकारी एग्जाम निष्काम तपस्या जैसे बना रहे.

……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

फौर्म भरना कठिन प्रक्रिया

एनडीए का फौर्म भरना एक कठिन प्रक्रिया है. इस को समझने में 109 पेज की बुकलेट जारी की जाती है. इस के बाद भी फौर्म भरना बेहद कठिन होता है. कुछ पौइंट देखिए तो बात समझ आ जाएगी. जरूरत है कि परीक्षा के फौर्म आसान हों जिन्हें छात्र आसानी से भर सकें. उन को कंप्यूटर सेवा केंद्रों या कोचिंग संस्थानों की मदद न लेनी पड़े.

योग्यता क्या है?

यदि आप 12वीं कक्षा में हैं या 12वीं कक्षा उत्तीर्ण हैं और आप की जन्मतिथि तय तिथि के बीच है.

कितनी आयु हो?

अधिकतम आयुसीमा 19.5 वर्ष है और यह जौइनिंग के समय की अधिकतम आयुसीमा है न कि फौर्म भरने की आयुसीमा.

फौर्म कैसे भरें?

भरने के लिए संबंधित साइट पर जाना होगा.

क्या भरना है?

व्यक्तिगत विवरण, जाति प्रमाणपत्र, शैक्षिक योग्यता, पता संबंधी विवरण, फोटो.

कौन सी जाति चुनें?

यदि आप सामान्य जाति से हैं तो एनडीए फौर्म में कोई छूट लागू नहीं होगी. यदि आप ओबीसी से हैं तो वे आप से पूछेंगे कि आप क्रीमी लेयर से हैं या नहीं और बाद में वे आप से प्रमाणपत्र संख्या, प्रमाणपत्र जारी करने की तिथि और प्रमाणपत्र जारी करने वाले प्राधिकारी के बारे में पूछेंगे. एनडीए फौर्म में एससी और एसटी जाति श्रेणी के लिए समान विवरण पूछेंगे. फीस माफी पाने के लिए उचित जाति का चयन करना पड़ता है.

कौन सी योग्यता चुनें?

यदि आप ने कौमर्स या आर्ट्स से 12वीं कक्षा पास की है तो विकल्प 1 चुनें. यदि साइंस से है तो विकल्प 2 चुनें. यदि आप कौमर्स या आर्ट्स से 12वीं कक्षा दे रहे हैं तो विकल्प 3 चुनें. यदि आप साइंस से 12वीं कक्षा दे रहे हैं तो विकल्प 4 चुनें.

एनडीए फौर्म में आर्मी, नेवी, एयरफोर्स और नेवल अकादमी के लिए क्या प्राथमिकता चुनें?

जिस प्रविष्टि के लिए आवेदन करना चाहते हैं उस के आधार पर आप आर्मी, नेवी, एयरफोर्स और नेवल अकादमी को प्रविष्टि के फौन्ट में बौक्स में 1, 2, 3 या 4 के रूप में वरीयता दे सकते हैं और जिस प्रविष्टि को आप वरीयता नहीं देना चाहते हैं उस के सामने अपने एनडीए फौर्म में 0 (शून्य) के रूप में चिह्नित करें.

भारतीय नौसेना अकादमी और नौसेना अकादमी के बीच अंतर?

आप भारतीय नौसेना अकादमी चुनते हैं तो आप 3 साल के लिए पुणे में प्रशिक्षण लेंगे और फिर आप भारतीय नौसेना अकादमी में अंतिम वर्ष के प्रशिक्षण के लिए जाएंगे. यदि आप नौसेना अकादमी चुनते हैं तो आप सीधे 4 साल के प्रशिक्षण के लिए भारतीय नौसेना अकादमी जाते हैं.

कौन सा केंद्र चुनें?

अपने निकटतम परीक्षा केंद्र का चयन करें. अपने निवास स्थान के नजदीक परीक्षा केंद्र पाने के लिए जल्द से जल्द फौर्म भरना जरूरी है खासकर बड़े शहरों के लिए. पहले फौर्म न भरने से परीक्षा केंद्र दूर और खराब जगहों पर मिलता है.

फोटो और हस्ताक्षर अपलोड कैसे करें?

सौफ्टवेयर का उपयोग कर के छवियों का आकार बदलना चाहिए. यह काफी कठिन कार्य होता है. छवि पर राइट क्लिक करें और पेंट के साथ खोलें, फिर छवि के आवश्यक भाग को क्रौप करें और फिर आकार बदलने पर क्लिक करें और पिक्सेल विकल्प चुनें, फिर नीचे दिए गए आयामों का उपयोग करें और उस के अनुसार आकार बदलें.

……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

Relationship Tips : सास बदली लेकिन नजरिया नहीं

Relationship Tips : सास और बहू को एकदूसरे की भूमिका को स्वीकार करना चाहिए. सास पुरानी परंपराओं का पालन करते हुए बहू को सिखा सकती है और बहू नई सोच व नए दृष्टिकोण से घर को बेहतर बना सकती है.

‘‘बहूरानी तो बढि़या ही है. दीवाली पर आई तो रंगोली बनाई, घर भी सजाया, लेकिन क्या बताएं इन आजकल की लड़कियों को. एक दिन बाजार गए थे तो पीछे से मेरी ननद आ गई. बताइए भला, किचन में जा कर चाय तक न बनी इन से. घर पहुंचे तो देखा कि नाश्ता, चाय सब बाजार से आया और मेरी ननद जो जिंदगीभर ताने मारती रहीं, कहती हैं, भाभी कुछ भी कहो, खुशनसीब हो. ऐसी बहू तो नसीब वालों को मिलती है. पति भी प्रसन्न कि उन की बहन तारीफ झांके जा रही है. अब क्या ही कहते कि हम जो किचन में जान देते रहे तब तो तारीफ करने में शब्द ही खो गए.’’ करुणा भले ही अपनी सखियों को अपना दुखड़ा सुना रही थी लेकिन उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे दुख बहू के काम न आने का है या फिर उस की तारीफ से वह जल रही है.

यही दुख संगीता का भी है कि बहू वैसे तो बहुत अच्छी है, आगेपीछे डोलती है लेकिन जैसे ही किचन का कोई काम होता है, गायब हो जाती है. ‘‘उसे क्यों नहीं दिखता कि सास काम कर रही है तो उसे भी मदद के लिए खड़ा होना चाहिए. इतना अपनापन तो होना ही चाहिए. वह यह भी कहना नहीं भूलती कि हम ने अपनी सासजेठानियों को इतना आराम दिया लेकिन मेरी किस्मत में आराम कहां?’’

कुछ यही हाल नीलिमा का भी है. पूरी जिंदगी नौकरी की. पूरा घर एक ढर्रे पर चलाया. पति को भी हाथ में कपड़े पकड़ाए, कभी चाय तक नहीं बनाने दी लेकिन तब कुछ दरकता नजर आया जब पुणे में काम करने वाली बहू त्योहार पर घर आई. हर काम के लिए बेटे को साथ में जुटाए रखती. वह कहती है, ‘‘जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो बेटे को बोला तो उस ने जवाब पकड़ा दिया कि मम्मी आप को तो खुश होना चाहिए. कभी पापा ने आप की मदद नहीं की, जबकि आप बीमार तक हो जाती थीं. मैं ऐसा नहीं कर सकता. आप खुश क्यों नहीं हो रहीं इस बात से?’’

बची है सास में उम्मीद

गलती किस की है? कहां है? पिछले 20 सालों में जमाना इतना बदला कि उस की आंधी में सबकुछ बदल गया. सासबहू के रिश्ते, अपेक्षाएं, घरों के समीकरण और रिश्तों के तानेबाने के साथ भी बहुतकुछ. लेकिन बहुतकुछ बदलने के बीच सास में उम्मीदों की कुछ लडि़यां बची रह गई हैं. औरतों ने सास बनने के बाद अपनी बहुओं से किचन संभालने की उम्मीद तो छोड़ दी लेकिन वह किचन में साथ में खड़ी हों, यह उम्मीद लगा ली.

पूरे घर का न सही, लेकिन अपने कमरे में साजसंभाल कर लें, ये उम्मीद भी अभी जिंदा है. अपने लिए वे मौडर्न हैं क्योंकि वह ये नहीं चाहतीं कि बहू अकेले 5 लोगों का खाना बना ले या फिर हाउसहैल्प न आए तो पूरे घर का झाड़ूपोंछा कर ले, पति के कपड़े निकाल कर दे लेकिन ऐसा भी क्या कि किचन में खड़े होने में पसीने छूटने लगे, 10 लोगों की चाय बनाए तो पति को पीछेपीछे लगाए रखे.

रागिनी कहती है, ‘‘जिस पति ने कभी मेरी मदद तक नहीं की आज जब बहू के बारे में कहो तो कहते हैं कि आखिर वह भी तो बेटे के बराबर नौकरी करती है तो क्यों बेटे के मदद करने पर तुम चिहुंक जाती हो?’’ अब कौन पूछे कि जब मैं अकेले 10 लोगों का खानापीना कर रही थी तब तो आप ने मदद नहीं की? मैं भी नौकरी करती थी, तो बोलते हैं, ‘‘वह कौर्पोरेट की नौकरी थोड़े थी. टीचरी करने में कौन मेहनत?’’ कहतेकहते रागिनी की आंखों के कोरों से पानी छलक जाता है.

अब किचन सिर्फ औरतों की प्रौपर्टी नहीं

इसे समझने के लिए थोड़ा मनोविज्ञान समझाना पड़ेगा. आजकल मौडर्न परिवारों में लड़कियों की परवरिश में किचन गायब है. कई घरों में गृहस्वामिनियों को ही किचन से मुक्ति मिली हुई है तो बेटियां क्यों किचन में जाएं? जब वे गई ही नहीं तो उन की दिलचस्पी भी नहीं है. दूसरे, जैंडर इक्वैलिटी की बातों में लड़कियों की डिक्शनरी से किचन शब्द गायब कर दिया गया है. किचन पर किसी एक जैंडर का अधिकार नहीं. लेकिन सासों की डिक्शनरी में अब भी औरतों और किचन का संबंध है. बेटियां अपनी जगह सही हैं कि वे बरसों की बनीबनाई व्यवस्था के विरोध में किचन में घुसना नहीं चाहतीं और जब वे जाती हैं तो पति को भी ले जाती हैं.

दिव्यानी कहती है, ‘‘जिस बेटे को मैं ने हाथ में पानी दिया, प्लेट दी वह अब खाने की टेबल लगाता है. बीवी की मदद के लिए आगेपीछे घूमता है. मुझे तो कभी मदद नहीं की. पता नहीं क्यों बेटे यह नहीं समझ पाते कि मांएं भी उतना ही थकती हैं जितना बीवियां?’’

हालांकि वह या उन की जैसी मांएं भूल जाती हैं कि उन्होंने कभी मदद मांगी भी नहीं क्योंकि उन की जो रूल बुक थी उस में बेटे या लड़के घर के कामों से बरी थे या उन्होंने काम किया भी तो उन का तरीका समझ में नहीं आया या फिर कभी मदद चाही भी होगी तो सास ने सुना दिया तो मन की मन में ही रह गई लेकिन अब जब वे बहुओं के साथ जुटे बेटों को देख रही हैं तो एक खलिश भी मन में है कि मुझे ऐसा क्यों नहीं मिला.

जमाने के साथ बदलते रहिए

मनोवैज्ञानिक आंचल कहती हैं कि औरतों को हमेशा से दबाया गया है. अभी जो जनरेशन सास बन रही है उस में नौकरीशुदा महिलाएं भी हैं लेकिन उन्होंने घर संभाला है क्योंकि आज से 30-40 साल पहले समाज ने औरतों को घर से निकलने की इजाजत दी तो शर्त यह ही थी कि घर के कामों में कोई ढील नहीं दी जाएगी. चूंकि संघर्ष इतने ज्यादा थे तो औरतों ने इस शर्त को मजबूरी में माना कि कम से कम घर से निकलने को तो मिलेगा. लेकिन बीते वर्षों में एकल परिवार बढ़े, लड़कियों के अधिकारों की बातें बुलंद हुईं, लड़कों ने भी इसे समझ और नतीजा सब के सामने है.

काम को अब जैंडर के नजरिए से यह पीढ़ी अब नहीं देखती. जब लड़कियों को किचन में जाने को कहा जाता है तो वह पति को ले जा कर यह संदेश देना चाहती हैं कि सिर्फ मैं ही क्यों? दूसरे, बेटे ने आप की तकलीफों को समझना चाहा लेकिन मांओं ने कुछ प्यार तो कुछ सामाजिक तानेबाने की वजह से उन्हें घर के कामों विशेषकर किचन से दूर रखा. लेकिन उस की पत्नी भी इसी तरह के माहौल से आई है. उसे भी घर के काम करना नहीं आता. ऐसे में वे अपने पति को साथ रखती हैं. काम को एंजौय करने का यह उन का नजरिया भी हो सकता है. साथ ही ससुराल में उन्हें जज होने का खतरा भी दिखता है, ऐसे में उन का पति उन की ढाल बनता है.

अब ऐसे में सास क्या करें? मनोवैज्ञानिक की सलाह है कि चुप रहें, मुसकराती रहें और अगली बार चाय बनानी हो तो बहू के बजाय बेटे को बोलें. बहू को पूरी मोहब्बत दें. जो महिलाएं यह कहती हैं कि उन्होंने अपनी सास या जेठानियों के लिए बहुत किया, अपने दिल को टटोले और पूछे कि क्या वे उन को प्यार करती हैं या फिर उन के दिल में सिर्फ कड़वी यादें हैं? ज्यादातर बताएंगी कि कड़वी यादें हैं तो फिर याद रखिए कि काम करने और अपना समझने का कोई रिश्ता नहीं.

क्यों नहीं आप मोहब्बत के साथ बहू को अपना समझने की कोशिश शुरू करें, न कि काम करने की अपेक्षा कर के. जिस काम के लिए आप बहू के लिए मन में मैल पाल रही हैं वह काम कोई भी कर देगा. लेकिन आप उसे मोहब्ब्त से अपनाएंगी तो फिर रिजल्ट दूसरे ही होंगे. वहीं बेटों की मांएं अपने बेटों को किचन की ट्रेनिंग दें ताकि जब वह अपनी बीवी के साथ खड़ा नजर आए तो दिल में दर्द न हो.

लेखिका : रुचिदा राज

Coaching Institutes : महंगी कोचिंग के लिए सरकार कितनी जिम्मेदार?

Coaching Institutes : ज्यादातर मातापिताओं को लगता है कि अगर किसी अच्छे कोचिंग में बच्चों को दाखिला दिला दिया तो टौप कालेज मिल जाएगा और फ्यूचर सिक्योर हो जाएगा. लेकिन सवाल यह है कि आखिर स्कूलकालेजों की पढ़ाई ऐसी क्यों नहीं होती कि स्टूडैंट्स को कोचिंग का सहारा लेना ही न पड़े?

“वे तुम्हें सबकुछ फ्री में देंगे लेकिन शिक्षा नहीं देंगे क्योंकि वे जानते हैं कि शिक्षा ही सवालों को जन्म देती है.”

बाबासाहेब अंबेडकर के इस कथन में सरकार की मंशा का सार छिपा है. हम विश्व की सब से बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली होने का दावा करते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि अधिकतर छात्रों को मनपसंद कालेज या कोर्स में एडमिशन नहीं मिल पाता है. कालेज में सीटें कम हैं और अभ्यर्थियों की संख्या अधिक, एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति में कोचिंग सैंटरों ने कमान संभाली और समय के साथ यह हर छात्र की जरूरत व मातापिता के लिए जी का जंजाल बन गए.

आज के समय में 9वीं कक्षा से ही आईआईटी और नीट के लिए कोर्स शुरू हो जाते हैं. कोचिंग संस्थानों में बच्चों के एक साल रहने का खर्चा लगभग 2-3 लाख रुपए के आसपास आता है. कोचिंग संस्थानों की फीस भी एक से डेढ़ लाख रुपया वार्षिक होती है. इस के अलावा दूसरे भी तमाम खर्च होते हैं. पिछले दोतीन दशकों में कोचिंग के क्षेत्र में उबाल आया है.

इन कोचिंग संस्थानों के तले अनगिनत मातापिता के ख्वाब पलते हैं क्योंकि ख्वाब बच्चों के नहीं बल्कि मातापिता के होते हैं, जिन्हें अंजाम तक पहुंचाने का माध्यम बच्चे होते हैं. कोई जमीन बेच, कोई घर बेच कर बच्चों को कोचिंग में भेज रहा है लेकिन परिणाम क्या?

आखिरकार कोचिंग की जरूरत क्यों पड़ गई? पूरी शिक्षा प्रणाली पर ही बदलाव में एक बार फिर विचार करना बहुत जरूरी है. चीन, अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों में छात्रों के मूल्यांकन और आकलन के पैमाने हम से बहुत अधिक अलग हैं.

हमारी शिक्षा प्रणाली में इतनी प्रतिस्पर्धा है कि यह छात्रों के लिए तनाव पैदा कर देती है. वर्षों से चली आ रही क्लासरूम की संस्कृति बच्चों को जीवन की वास्तविकता से दूर कर देती है. अधिकतर समय टेबल में सिर झुकाए किताबों को उलटनेपलटने से व्यावहारिक ज्ञान नहीं मिलता.

पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले छात्र पहाड़ सी दुरूहता का सामना करते हैं. छोटी कक्षाओं से ही कईकई किलोमीटर पैदल चल कर स्कूल आनाजाना इन की नियति बन जाती है. उच्च शिक्षा केंद्र छोटे शहरों और कसबों में न के बराबर हैं या छात्रों की जरूरत पूरी करने में असमर्थ हैं. इंटरनैट कनैक्शन का अभाव, प्रतियोगिता के लिए उपयोगी समाचारपत्रों का न मिल पाना आदि कई कारण हैं जो छात्रों को बड़े शहरों की ओर रुख करना पड़ता है.

‘द हिंदू’ समाचारपत्र ही पर्वतीय क्षेत्रों में बहुत ही मुश्किल से दूसरेतीसरे दिन मिलता है वह भी एडवांस बुकिंग के बाद. विज्ञान ने इतनी तरक्की तो कर ली है कि औनलाइन पेपर पढ़ने का विकल्प मौजूद है लेकिन तकनीकी व्यवधान यहां भी हैं क्योंकि नैटवर्क गायब रहता है, टावरों की कमी है, जो मकसद को कामयाब नहीं होने देती.

सरकार कोचिंग संस्थानों के लिए सख्त नियम बनाने से गुरेज करती है क्योंकि इन के माध्यम से जीएसटी राजस्व प्राप्त होता है. आंकड़े बताते हैं कि 2023-24 में कोचिंग संस्थानों से कुल 5,517.45 करोड़ रुपए का राजस्व हासिल हुआ. कोचिंग संस्थानों के भ्रामक विज्ञापनों के लिए उन को मात्र नोटिस दे कर छोड़ दिया जाता है. सब से बड़ी बात, सरकार को नए स्कूल, कालेज नहीं खोलने पड़ते और योग्य शिक्षकों की भरती भी नहीं करनी पड़ती है क्योंकि मजबूरी में बच्चे कोचिंग जौइन करने को विवश हो जाते हैं.

यहां भी सरकार का राजस्व बचता है. अगर सरकार प्राथमिक स्तर से ही अच्छे स्कूल खुलवा कर योग्य शिक्षकों की भरती करे तो बच्चों की नींव मजबूत हो जाएगी और शायद महंगी कोचिंग की जरूरत न पड़े.

……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

 पांव पसारते कोचिंग संस्थान
महंगी कोचिंग के लिए ज्यादा हद तक सरकार जिम्मेदार है. कारण, आज सरकारी स्कूल से ले कर महाविद्यालयों में शिक्षकों का स्तर बहुत ही गिरा हुआ है. पढ़ाई के नाम पर वे खुद की प्रौपर गाइड नहीं करते. लगता है ‘ट्वेंटी क्वेश्चन’ से पढ़ कर आते हैं. छात्रों की जिज्ञासा का समाधान वे नहीं कर पाते. इस वजह से ट्यूशन का व्यापार फलफूल रहा है.
दूसरे, आजकल युवा से ले कर पेरैंट्स भी भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं. किसी का बच्चा इंजीनियर, डाक्टर, साइंटिस्ट बन रहा है, यह हजम नहीं होता, मेरा बच्चा भी बनना चाहिए. इस होड़ में अपनी चादर से बाहर पैर पसार कर वे अपने बच्चों को शहर से बाहर कोचिंग के सुपुर्द कर देते हैं. फिर भले ही उस बच्चे का मन उस क्षेत्र में हो या न.
यही बच्चे स्वतंत्र होते ही शहरी रंग में रंग जाते हैं. कईयों की नैया पार लगती है तो कई अधबीच डूब जाते हैं. आज के युवा अपने जीवन को उतनी गंभीरता से नहीं लेते.
सरकार यदि स्तरीय शिक्षक रखे तो कोचिंग की आवश्यकता ही न पड़े. परीक्षा भी नौकरी के लिए जरूरत के अनुसार होनी चाहिए. लाइनमैन की नौकरी के लिए ‘1772 में किस राजा ने क्या किया’ जैसे निरर्थक सवाल न पूछे जाएं. परीक्षा का परिणाम तुरंत आना चाहिए.
युवा अपनी हद को पहचान कर जो साधन है उसी में संभावना खोजें तो भी बेहतर परिणाम आ सकते हैं और युवा रिश्तों की गंभीरता, भावनाओं को समझें तो खुद ही अपने कैरियर को ले कर गंभीर होंगे.
……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

Property Distribution : किस संतान को मिले संपत्ति पर ज्यादा हक

Property Distribution :  यह वह दौर है जब पेरैंट्स की सेवा न करने वाली संतानों की अदालतें तक खिंचाई कर रही हैं लेकिन मांबाप की दिल से सेवा करने वाली संतान के लिए जायदाद में ज्यादा हिस्सा देने पर वे भी अचकचा जाती हैं क्योंकि कानून में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है. क्या यह ज्यादती नहीं?

लक्ष्मीचंद थे तो गल्ला व्यापारी के यहां मुनीम लेकिन आमदनी उन की ठीकठाक थी. उन्होंने न केवल 3 बेटियों की शादी कर दी थी बल्कि दोनों बेटों की कालेज की पढ़ाई भी पूरी करवा दी थी. चूंकि सूद पर पैसा चलाने का साइड बिजनैस भी वे करते थे इसलिए अपने छोटे से कसबे के नजदीक 5 एकड़ का खेत भी उन्होंने जुगाड़तुगाड़ कर खरीद लिया था. खेती से भी आमदनी होने लगी तो उन्होंने पुश्तैनी कच्चा मकान पक्का करवा लिया, एक मंजिल ऊपर भी बनवा ली जिस से दोनों बेटे आराम से रह सकें. उन की बड़ी इच्छा थी कि दोनों बेटे सरकारी नौकरी से लग जाएं.

लेकिन 65 साला जिंदगी की यही इकलौती हसरत थी जो अधूरी रह गई. बड़ा बेटा तो एक सरकारी महकमे में 50 हजार रुपए की घूस की कृपा से क्लर्क हो गया लेकिन छोटे बेटे के बड़े होतेहोते उन्हें लकवा मार गया. छोटे बेटे ने बिना सोचेसमझे श्रवण कुमार की तरह अपना फर्ज निभाया और तनमन व धन से बूढ़े अपाहिज पिता की सेवा की यहां तक कि बीकौम की अपनी पढ़ाई भी वह किस्तों में जैसेतैसे ही पूरी कर पाया.

बड़े ने भी शुरूशुरू में दूसरे शहर में नौकरी करते जितना हो सकता था हाथ बंटाया. लेकिन शादी के बाद उस की जिम्मेदारियां बढ़ीं और पत्नी के आने के बाद उसे सहज ज्ञान भी प्राप्त हो गया कि खेतीकिसानी से ठीकठाक आमदनी हो जाती है. ऊपरी मंजिल जो उस के लिए बनाई गई थी उस से भी किराया आ जाता है और छोटे की महल्ले में खोली गई छोटी सी किराने की दुकान भी चल निकली है. लिहाजा, अब घर पैसे देने की जरूरत नहीं क्योंकि उसे न तो खेतीकिसानी का पैसा मिलता है और न ही किराए से. इसलिए इसी को घर में अपना आर्थिक योगदान मानते उस ने हाथ खींच लिया.

लक्ष्मीचंद की जिंदगी तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा. वक्त रहते छोटे की भी शादी और बच्चे हो गए थे. लेकिन फसाद उठ खड़ा हुआ उन की मौत के 2-3 महीने बाद जब बड़ा बेटा जमीन और मकान में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा और हिसाबकिताब भी मांगने लगा. जो एक तरह से जमीनजायदाद के बंटवारे का एलान, मांग और आगाज था. इस पर छोटे के कान खड़े होने लगे.

बिना पत्नी के ज्ञान दिए उसे समझ आने लगा कि पिता की सेवा की अघोषित जिम्मेदारी लेने से उसे फायदे कम, नुकसान ज्यादा हुए हैं और अब भी यही हो रहा है कि बूढ़ी अम्मा की तीमारदारी में उसे और पत्नी को ही खटना पड़ता है. उन के इलाज और दवा के खर्च में बड़े भैया का कोई योगदान नहीं होता. शुरूशुरू में वे थोड़ाबहुत पैसा देते थे लेकिन पिता की मौत के बाद वह भी देना बंद कर दिया. उलटे, अब मांगने लगे हैं जो कि ज्यादती है. लगता है उन की नीयत खराब हो गई है.

जिंदगीभर मांबाप की जिम्मेदारी और नातेरिश्तेदारी उस ने ही निभाई है. बहनों के यहां हर अच्छेबुरे मौके पर वही गया है. उन की ससुरालों में नेगदस्तूर उस ने ही निभाए हैं जिस में काफी पैसा खर्च हुआ है लेकिन अब उन का कोई रोल जायदाद में नहीं. तीनों ने दोटूक कह दिया है कि तुम दोनों जानो, हमें इस से कोई लेनादेना नहीं. दुकान के साथसाथ खेत भी उस ने ही संभाले हैं. इस के अलावा जो भी कियादिया है, सबकुछ उस ने ही किया है.

भैया तो शान और इत्मीनान से अपनी सरकारी नौकरी करते रहे हैं. रिश्तेदार भी उन्हीं का गुण गाते हैं कि देखो, लक्ष्मीचंद का नाम उन के बड़े बेटे ने ऊंचा किया है जो अब बाबू से साहब बन गया है. अब तो ऊपरी कमाई से उन्होंने शहर में अपना मकान भी बना लिया है और, सस्ती ही सही, अपनी कार भी ले ली है. उन के बच्चे मेरे बच्चों के मुकाबले शान से रहते हैं, बढि़या खातेपीते हैं, महंगे कपड़े पहनते हैं. इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे अपने इकलौते बेटे को तो उन्होंने बुलेट भी दिला दी है जो दोढाई लाख रुपए से कम की तो नहीं होगी.

जैसेजैसे वह इस बारे में सोचता जाता था वैसेवैसे मकान और जमीन के प्रति उस का मोह और बढ़ता जाता था. साथ ही, एक डर और असुरक्षा भी मन में आती जा रही थी कि अगर बंटवारा हुआ तो मानो उस का एक हाथ कट जाएगा. चूंकि पिताजी कोई वसीयत नहीं छोड़ गए हैं इसलिए उन की जमीनजायदाद पर आधा हक तो भैया का कानूनन बनता ही है जिसे आज नहीं तो कल वे मांगेंगे ही. अब तो बस सीधे कहनेभर की देर रह गई है.

लेकिन इस जमीन और मकान को बनाए व बचाए रखने में उसे कितने और कैसे पापड़ बेलने पड़े, यह कोई नहीं देखेगा. न रिश्तेदार, न समाज और न ही कानून. एक बार जब लगातार 2 साल फसल चौपट हो गई थी तो अम्मा के कंगन बेचने पड़ गए थे जिन्हें वे उस की पत्नी को देने की बात अकसर कहती रहती थीं. उस से बचे पैसे में से पिताजी ने भागवत कराने की अपनी इच्छा पूरी कर परलोक सुधार लिया था. कोई देखेगा तो यह भी नहीं कि कितनी बार उसे यारदोस्तों से पैसा उधार लेने की शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी. तीन बार तो उस से भी ज्यादा ब्याज पर पैसा उठाना पड़ा था जितने पर पिताजी दिया करते थे. शादी के 15 साल हो जाने के बाद भी पत्नी को रत्तीभर सोना नहीं दिला पाया जबकि भाभी हर दीवाली एकदो तोला सोना खरीदती हैं.

ऐसी कई बातें सोचसोच कर उस का सिर भन्नाने लगता है. मसलन, भैया को तो रिटायरमैंट के बाद खासी पैंशन भी मिलेगी. लेकिन उस का क्या, अगर आज पिता की तरह लकवा मार जाए तो उस के बेटों का तो कोई कैरियर ही नहीं रह जाएगा. उन्हें भी मजबूरी में दुकान पर सामान तोलना पड़ेगा और भैया का बेटा या तो उन्हीं की तरह सरकारी नौकरी में लग जाएगा या किसी बड़ी कंपनी में इंजीनियर बन दिल्ली, मुंबई, पुणे या बेंगलुरु चला जाएगा और यह सब इसलिए कि भैया मांबाप के प्रति अपनी जिम्मेदारी उस के भरोसे छोड़ नौकरी करने चले गए थे. उसे तो नौकरी करने के लिए सोचने का भी वक्त नहीं मिला.

पिता की सेवा में जनून की हद तक ऐसा डूबा कि खुद की जिंदगी का खयाल ही नहीं आया. इस इच्छा का भी त्याग करना पड़ा कि एमकौम करने के बाद बैंक की नौकरी करना है जो उस दौर में आसानी से मिल जाती थी क्योंकि कोई एंट्रैंस एग्जाम नहीं होता था. मैरिट के बिहाफ पर सीधी भरती होती थी. खेतीकिसानी से साल के 2-3 लाख रुपए ही आते हैं. इतनी ही आमदनी दुकान से होती है. सारा पैसा घरखर्च और बच्चों की पढ़ाईलिखाई में खर्च हो जाता है जिस के चलते हाथ तंग ही बना रहता है. कई बार यह बेहूदा खयाल उस के मन में आता है कि काश, पिताजी की बीमारी और कमजोरी के दिनों में उन से जमीनजायदाद अपने नाम करा लेता लेकिन जल्द ही वह इस को जेहन से झटक भी देता है.

आखिर भैया को किस चीज की कमी है और उन्हें जो मिला है उस में उस का सब से ज्यादा योगदान है. ये वही भैया हैं जो बचपन में अपना जेबखर्च उस पर लुटा दिया करते थे, मेले में ले जा कर चाटपकौड़े, जलेबी खिलाया करते थे और उस के लिए हर किसी से भिड़ जाया करते थे. नौकरी पर जाते वक्त उन्होंने सीने से लगा कर रुंधे गले से कहा भी था कि, ‘मैं तो नाम का बड़ा हूं, घर की सारी जिम्मेदारियां तो तू ही निभाता है.’ यह बात कई सालों बाद तक वे कहते रहे थे जिस से लगता था कि यह मेरे किए का बदला है. आभार है न केवल शब्दों के रूप में बल्कि उस पैसे की शक्ल में भी जो खर्च में उन का हिस्सा होता.

पर कोई बात नही, वह सोचता था जो मैं ने किया वह मेरी जिम्मेदारी थी. भैया इस का एहसान मानते हैं, यही मेरा इनाम है. लेकिन अब जो वे मांगने लगे हैं वह उन का हक ही सही लेकिन हकीकत में उन की खुदगर्जी और लालच है. और फिर एक दिन एक बेहद नजदीकी रिश्तेदार ने आ कर कहा कि वे पुश्तैनी जायदाद में से अपना हिस्सा चाहते हैं तो छोटा फट पड़ा और अपना किया गिनाने लगा. वह रिश्तेदार उम्रदराज और तजरबेकार था, इसलिए बोला वह सब तो ठीक है लेकिन इसे बड़े का हक छीनने का जरिया या हथियार नहीं माना जा सकता. उन का हिस्सा देना तो पड़ेगा. सीधेसीधे नहीं तो अदालत में देना पड़ेगा. लेकिन इस में दोनों का नुकसान है. अच्छाखासा रिश्ता, प्यार और परिवार खत्म हो जाएगा. बंटबारा हर घर में होता है उस में थोड़ाबहुत कमज्यादा हिस्सा चलता है. तुम ने जो पिता और घर के लिए किया उस के एवज में तुम ज्यादा मांग सकते हो. लेकिन अदालत और मुकदमेबाजी बहुत बुरी चीज होती है. इस से किसी को कुछ हासिल नहीं होता.

इस तरह की ऊंचनीच और नफानुकसान बता कर वे तो अपना रिश्तेदारी धर्म निभा कर चले गए लेकिन छोटे को एक सनाके और सदमे में छोड़ गए जो कई रात सलीके से सो नहीं पाया. उदास, गुमसुम और भड़ास से भरा वह जाने क्याक्या सोचता रहा कि क्या यही होता है भाईपना, आखिर दिखा ही दी भैया ने अपनी असलियत.

दुनिया वाले गलत नहीं कहते कि झगड़े की जड़ तीन जर, जोरू और जमीन. गुस्से और लगभग प्रतिशोध की आग थोड़ी ठंडी या कमजोर पड़ती तो अतीत सिर उठाने लगता. जिसे याद कर वह यह तय नहीं कर पाता कि एक आदमी के कितने रूप हो सकते हैं.

ये वही भैया हैं जिन की नौकरी लगने के बाद पहली बार जब वह 2 दिन के लिए शहर गया था तो बसस्टैंड पर ही उस से पागलों की तरह लिपट पड़े थे. 2 दिन उन के पांव जमीन पर नहीं पड़े थे. रात को सिनेमा दिखाने ले गए. उस से पहले शहर के सब से अच्छे होटल में खाना खिलाया था.

ऐसा लगता था मानो वे मुद्दत से खामोश थे और अभी सारी बातें कर लेना चाहते हैं. अम्मापिताजी कैसे हैं, घर में कोई दिक्कत तो नहीं, दूधकिराना वगैरह बराबर आ रहा है या नहीं और ये कैसा, वह कैसा है जैसी बातें लगातार वे करते रहे और अपने एक कमरे वाले किराए के घर में एक बिस्तर पर दोनों सोए. तब भी वे बेचैन से थे. कुछ भावुक हो कर बोले, ‘सोचता हूं थोड़ा पैसा इकट्ठा हो जाए तो तुम लोगों को भी यहीं ले आऊं. पिताजी का इलाज किसी अच्छे डाक्टर से करवाएंगे, बड़ा मकान ले लेंगे, तू यहीं दुकान खोल लेना.’

दूसरे दिन उस के उठने से पहले ही वे समोसे और जलेबी ले आए थे और स्टोव पर चाय बना रहे थे. नहानेधोने के बाद उसे दफ्तर ले गए. वहां सभी से यह कहते मिलवाया कि है तो छोटा भाई लेकिन काम बड़े के कर रहा है. घर की सारी जिम्मेदारी इसी के कंधों पर डाल कर आया हूं. यह सुन छोटे की छाती चौड़ी हो जाती थी, यह सोच कर कि हर किसी को ऐसा भाई नहीं मिलता.

दूसरे दिन शाम को जब वह चलने को हुआ तो कपड़े की दुकान पर उसे महंगे कपड़े दिलाए, बस का टिकट ले कर तो दिया ही लेकिन उस के हाथ में भी 200 रुपए पकड़ा दिए. जैसे ही बस चलने को हुई तो उन की आंखें फिर नम हो गईं, रुंधे गले से बोले, ‘अपना, अम्मा का और पिताजी का खयाल रखना. कोई चिंता मत करना. मैं छुट्टी मिलते ही आऊंगा.’

उन्हें लगभग रोता देख छोटे को भी रोना आ गया. रो तो वह आज भी रहा है लेकिन भाई का यह रूप देख कर कि अब जायदाद के बंटवारे के लिए रिश्तेदारों को भेजने लगे हैं. हर कभी व्हाट्सऐप पर मैसेज कर हिसाब मांगते रहते हैं. जाएं कोर्ट में तो जाएं, मैं भी छोड़ने वाला नहीं. सारा हिसाब गिना दूंगा और सुप्रीम कोर्ट तक नहीं छोड़ूंगा. मेरे दिल में अगर कोई खोट या बेईमानी होती तो पिताजी से अपने हक में कभी की वसीयत करवा लेता. घर व जमीन का नामांतरण अम्मा के बजाय खुद के नाम करा लेता या पिताजी के इलाज के लिए उन की इच्छा के मुताबिक ही औनेपौने में खेत बेच देता तो आज वे क्या मांगते. खेत के दाम अब एक करोड़ छू रहे हैं, इसलिए उन की जीभ लपलपा रही है. उसे बचाया तो मैं ने ही है. रहा मकान, तो वे आ कर रहें लेकिन ऊपरी मंजिल में, लेकिन उस का किराया नहीं लेने दूंगा. अम्मा के इलाज और दवा में ही महीने का 8-10 हजार रुपया खर्च हो जाता है. पहले 8 साल का आधा खर्च वे भी ब्याज समेत दें तब हक की बात करें. जब बराबरी से इलाज और घरखर्च में आधा देना था तब तो बीवी को लटकाए नैनीताल, शिमला और तिरुपति, शिर्डी घूमते रहते थे.

घरघर की कहानी

यह पूरी तरह काल्पनिक कहानी नहीं है बल्कि देश के हर दूसरेतीसरे घर की हकीकत है जो मुकदमे की शक्ल में सैशन से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक में रोज सुनी और सुनाई जाती है. महाभारत का तो प्लौट यही है लेकिन अब फैसला किसी कुरुक्षेत्र में युद्ध से नहीं बल्कि अदालतों में कानून से होता है. इस के बाद भी अपवादस्वरूप जायदाद को ले कर सिर फोड़ने की खबरें रोज की बात है. भाईभाई ही नहीं, बल्कि अब तो बहनभाई के बीच भी विवाद और मुकदमेबाजी होने लगी है क्योंकि कानूनन उन का भी हक पैतृक संपत्ति पर होने लगा है.

जमीनजायदाद का बंटवारा शाश्वत सत्य है लेकिन इस में फसाद तब खड़े होते हैं जब कोई एक देना नहीं चाहता. जमीन व जायदाद को ले कर ?ागड़ा हमारे संस्कारों और डीएनए में है. आजकल आमतौर से पुश्तैनी जायदाद उसी पक्ष के कब्जे में होती है जो वहां रह रहा होता है.

ऊपर बताई हकीकत पर गौर करें तो छोटा बहुत ज्यादा गलत नहीं है जिस ने यह मान लिया था कि बड़े भाई की सरकारी नौकरी लग गई है, इसलिए वह अपना हिस्सा नहीं मांगेगा. क्योंकि देखभाल मैं ने की है और उसे यहां के पैसों की क्या जरूरत. उधर बड़े के पास गिनाने को कानूनी अधिकार बहुत ज्यादा कुछ नहीं.

फिर ऐसे झगड़ों का हल क्या, क्या बड़े को या घर से दूर रहने वाले को अपना हिस्सा छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह छोटे के मुकाबले घर और पेरैंट्स के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर पाया था. कर्तव्य पूरे नहीं किए तो क्या अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता? और अगर वह भी नौकरी न कर घर पर ही रह जाता तो क्या होता? तय है बंटवारा तो तब भी होता लेकिन शायद बात इतनी बिगड़ती नहीं. लक्ष्मीचंद समझदार आदमी थे लेकिन वसीयत न करने की चूक कर ही गए. मुमकिन है उन्हें बेटों की समझ पर भरोसा रहा हो. मुमकिन यह भी है कि बीमारी के चलते वे ऐसा न कर पाए हों.

एक फैसला सुप्रीम कोर्ट का

लक्ष्मीचंद के दोनों बेटों से मिलतेजुलते एक मुकदमे का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 13 सितंबर, 2019 को सुनाया था. दिलचस्प बात यह है कि यह मुकदमा साल 1970 में दायर हुआ था. फर्क इतना भर था कि इस में पिता ने वसीयत की थी और ऊपर बताई कहानी में इसे फिट करें तो छोटे को ज्यादा हिस्सा दिया गया था जो एक तरह से उस की सेवाओं का स्वाभाविक पुरस्कार था. लेकिन दूसरे पक्ष ने आशंका जाहिर की थी कि वसीयत में फर्जीवाड़ा हुआ हो, ऐसा हो सकता है.

कानून के अनुसार सेवा का कोई मूल्य नहीं है और सभी बच्चों को संपत्ति के मालिक की मृत्यु के बाद बराबर का हिस्सा मिलेगा. 2005 के हिंदू विरासत कानून की धारा 6 में अतिरिक्त प्रावधान के बाद लड़कियों का पैतृक संपत्ति में स्वाभाविक अधिकार जन्म से ही हो गया है और उसे हटाया या देने से इनकार नहीं किया जा सकता.

वसीयत के असली या फर्जी होने के विवाद को छोड़ दें तो लगता है कि अदालतों के सामने भी धर्मसंकट यही था कि छोटा गलत क्या बोल रहा है. लेकिन निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट भी कानून के खिलाफ जा कर फैसला नहीं दे सकती थी, इसलिए यह मुकदमा 50 साल चला था. जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि बुजुर्ग केयरिंग चिल्ड्रन यानी देखभाल करने वाली संतान को दूसरे भाईबहनों की तुलना में संपत्ति का बड़ा हिस्सा दे सकते हैं. लेकिन इसे जिम्मेदारी के तौर पर नहीं देख सकते. एक व्यक्ति ने महज जायदाद के बड़े हिस्से के लिए पेरैंट्स की देखभाल की, ऐसा नहीं कहा जा सकता. प्रतिदिन बुजुर्ग मातापिता की देखभाल के बदले संपत्ति में अधिक हिस्से के कारण कमतर कर के नहीं आंका जा सकता.

छोटेबड़े के विवाद के मद्देनजर देखें, तो भी छोटा ज्यादा का हकदार है. 50 साल चले मुकदमे में बड़ा भाई यह साबित नहीं कर पाया था कि छोटे ने धोखे से वसीयत अपने नाम करा ली. उक्त मामले में तो वसीयत ही नहीं है, तब क्या हो? इस पर निष्कर्ष निकाला जाना मुश्किल है. लेकिन सहानुभूति छोटे के हक में जाती है.

अब बात लक्ष्मीचंद की कि उन्होंने वसीयत क्यों नहीं की होगी जबकि वे मुनीम होने के नाते इस की अहमियत बेहतर जानते थे. हो सकता है वे छोटे को ज्यादा हिस्सा देना चाह रहे हों लेकिन बड़े के साथ उन्हें इस में ज्यादती लग रही हो. छोटा दिनरात उन के साथ उन की सेवा में था, इसलिए वह तिलमिलाया हुआ है कि अब जायदाद में क्यों बात बराबरी की हो रही है.

Online Hindi Story : तबादला – माया ने सास के साथ कैसा बर्ताव किया

Online Hindi Story : टैक्सी दरवाजे पर आ खड़ी हुई. सारा सामान बंधा हुआ तैयार रखा था. निशांत अपने कमरे में खड़ा उस चिरपरिचित महक को अपने अंदर समेट रहा था जो उस के बचपन  की अनमोल निधि थी.

निशांत के 4 वर्षीय बेटे सौरभ ने इसी कमरे में घुटनों के बल चल कर खड़े होना और फिर अपनी दादी की उंगली पकड़ कर पूरे घर में घूमना सीखा. निशांत की पत्नी माया एक विदेशी कंपनी में काम करती थी. वह सुबह 9 बजे निकलती तो शाम को 6 बजे ही वापस लौटती. ऐसे में सौरभ अपनी दादी के हाथों ही पलाबढ़ा था.  नौकर टिक्कू के साथ उस की खूब पटती थी, जो उसे कभी कंधे पर बिठा कर तो कभी उस को 3 पहियों वाली साइकिल पर बिठा कर सैर कराता. अकसर शाम को जब माया लौटती तो सौरभ घर में ही न होता और माया बेचैनी से उस का इंतजार करती. किंतु जब टिक्कू के कंधे पर चढ़ा सौरभ घर लौटता तो नीचे कूद कर सीधे दादी की गोद में जा बैठता और तब माया का पारा चढ़ जाता. दादी के कहने पर सौरभ माया के पास जाता तो जरूर किंतु कुछ इस तरह मानो अपनी मां पर एहसान कर रहा हो. ऐसे में माया और भी चिढ़ जाती, मन ही मन इसे अपनी सास की एक चाल समझती.

लगभग 7 वर्ष पूर्व जब माया इस घर में बहू बन कर आई थी तो जगमगाते सपनों से उस का आंचल भरा था. पति के हृदय पर उस का एकछत्र साम्राज्य होगा, हर स्त्री की तरह उस का भी यही सपना था. किंतु उस के पति निशांत के हृदय के किसी कोने में उस की मां की मूर्ति भी विराजमान थी, जिसे लाख प्रयत्न करने पर भी माया वहां से निकाल कर फेंक न सकी. माया के हृदय की कुढ़न ने घर में छोटेमोटे झगड़ों को जन्म देना शुरू कर दिया, जिन्होंने बढ़तेबढ़ते लगभग गृहकलह का रूप ले लिया. इस सारे झगड़ेझंझटों के बीच में पिस रहा था निशांत, जो सीधासादा इंसान था. वह आपसी रिश्तों को शालीनता से निभाने में विश्वास रखता था. अकसर वह माया को समझाता कि ‘मां भावुक प्रकृति की हैं, केवल थोड़े मान, प्यार से ही संतुष्ट हो जाएंगी.’

किंतु माया ने सास को अपनी मां के रूप में नहीं, प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्वीकारा. इन 7 वर्षों ने निशांत की मां को एक हंसतेबोलते इंसान से एक मूर्ति में परिवर्तित कर दिया. अपने चारों ओर मौन का एक कवच सा लपेटे मां टिक्कू की मदद से सारे घर की साजसंभाल करतीं. उन के हृदय के किसी कोने में आशा का एक नन्हा दीप अभी भी जल रहा था कि शायद कभी माया के नारी हृदय में छिपी बेटी की ममता जाग उठे और वह उन के गले लग जाए.

किंतु माया की बेरुखी मां के हृदय पर नित्य कोई न कोई नया प्रहार कर जाती  और वे आंतरिक पीड़ा से तिलमिला कर अपने कमरे में चली जातीं. भरी आंखें छलकें और बेटा उन्हें देख ले, इस से पहले ही वे उन्हें पोंछ डालतीं और एक गंभीर मुखौटा चेहरे पर चढ़ा लेतीं. समय इसी तरह बीत रहा था कि एक दिन निशांत को स्थानांतरण का आदेश मिला. शाम को मां के पास बैठ उन के दोनों हाथ अपने हाथों में थाम उस ने खिले चेहरे से मां को बताया, ‘‘मां, मेरी तरक्की हुई है और तबादला भी हो गया है.’’

मां चौंक उठीं, ‘‘बदली भी हो गई है?’’

‘‘हां,’’ निशांत उत्साह से भर कर बोला,  ‘‘मुंबई जाना होगा. दफ्तर की तरफ से मकान भी मिलेगा और गाड़ी भी. तुम खुश हो न, मां?’’

‘‘हां, बहुत खुश हूं,’’ निशांत के सिर पर मां ने हाथ फेरा. आंखें मानो वात्सल्य से छलक उठीं और निशांत संतुष्ट हो कर उठ गया. किंतु शाम को जब माया लौटी तो यह खबर सुन कर झुंझला उठी, ‘‘क्या जरूरत थी यह प्रस्ताव स्वीकार करने की? हमें यहां क्या परेशानी है…मेरी नौकरी अच्छीभली चल रही है, वह  छोड़नी पड़ेगी. तुम्हारी तनख्वाह जितनी बढ़ेगी, उस से कहीं ज्यादा नुकसान मेरी नौकरी छूटने का होगा. फिर मुंबई नया शहर है, आसानी से वहां नौकर नहीं मिलेगा. टिक्कू हमारे साथ जा नहीं सकेगा क्योंकि दिल्ली में उस के मांबाप हैं. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं, कैसे उलटेसीधे फैसले कर के बैठ जाते हैं आप.’’

पर्स वहीं मेज पर पटक परेशान सी माया सोफे पर ही पसर गई. थोड़ी देर बाद टिक्कू चाय ले आया.

‘‘मां को चाय दी?’’ निशांत के पूछने पर टिक्कू बोला, ‘‘जी, साहब. मांजी अपनी चाय कमरे में ले गईं.’’

‘‘सुन टिक्कू,’’ माया बोल उठी, ‘‘साहब की बदली मुंबई हो गई है, तू चलेगा न हमारे साथ? सौरभ तेरे बिना नहीं रहेगा.’’

‘‘साहब मुंबई जा रहे हैं?’’ टिक्कू का चेहरा उतर गया, ‘‘फिर मैं क्या करूंगा? मेरा बाप मुझे इतनी दूर नहीं भेजेगा.’’

‘‘तेरी पगार बढ़ा देंगे,’’ माया त्योरी चढ़ा कर बोली, ‘‘फिर तो भेजेगा न तेरा बाप?’’

‘‘नहीं बीबीजी, पगार की बात नहीं, मेरी मां भी बीमार रहती है.’’

‘‘तो ऐसा कह, कि तू ही जाना नहीं चाहता,’’ माया गुस्से से भरी वहां से उठ गई.

फिर अगले कुछ दिन बड़ी व्यस्तता के बीते. निशांत को 1 महीने बाद ही मुंबई पहुंचना था. सो, यह तय हुआ कि माया 1 महीने का जरूरी नोटिस दे कर नौकरी से इस्तीफा दे दे और निशांत के साथ ही चली जाए, जिस से दोबारा आनेजाने का चक्कर न रहे. निशांत ने पत्नी को समझाया, ‘‘सौरभ अभी छोटा ही है, वहां किसी स्कूल में दाखिला मिल जाएगा. मांजी तो साथ होंगी ही, जैसे यहां सबकुछ संभालती हैं, वहां भी संभाल लेंगी. बाद में कोई नौकर भी ढूंढ़ लेंगे, जिस से कि मां पर ही सारे काम का बोझ न पड़े.’

इन्हीं सारे फैसलों के साथ दिन गुजरते गए. घर में सामान की पैकिंग का काम शुरू हो गया. निशांत के औफिस की ओर से एक पैकिंग कंपनी को आदेश दिया गया था कि वे लोग सारा सामान पैक कर के ट्रक द्वारा मुंबई भेजेंगे. घर की जरूरतों का लगभग सारा सामान पैक हो चुका था. फर्नीचर, डबलबैड, रसोई का सामान, फ्रिज, टीवी आदि बड़ेबड़े लकड़ी के बक्सों में बंद हो कर ट्रक में लादा जा रहा था. अब बचा था तो केवल अपनी निजी जरूरत कासामान, जैसे पहनने के कपड़े आदि, जो उन्हें अपने साथ ही ले जाने थे. कुछ ऐसा सामान भी था जो अब उन के काम का नहीं था, जैसे मिट्टी के तेल का स्टोव, लकड़ी का तख्त, कुछ पुराने बरतन आदि. इन्हें वे टिक्कू के लिए छोड़े जा रहे थे. गृहस्थी में चाहेअनचाहे न जाने ऐसा कितना सामान इकट्ठा हो जाता है, जो इस्तेमाल न किए जाने पर भी फेंकने योग्य नहीं होता. ऐसा सारा सामान वे टिक्कू को दे रहे थे. आखिर 6 साल से वह उन की सेवा कर रहा था, उस का इतना हक तो बनता ही था.

माया की इच्छा थी कि मकान किराए पर चढ़ा दिया जाए. किंतु निशांत ने मना कर दिया, ‘‘दिल्ली में मकान किराए पर चढ़ा कर किराएदार से वापस लेना कितना कठिन होता है, मैं अच्छी तरह समझता हूं. इसीलिए अपने एक मित्र के भतीजे को एक कमरा अस्थायी तौर पर रहने के लिए दे रहा हूं, जिस से मकान की देखभाल होती रहे.’’ उस लड़के का नाम विपिन था, भला सा लड़का था. 2 महीने पहले ही पढ़ाई के लिए दिल्ली आया था. बेचारा रहने की जगह ढूंढ़ रहा था, साफसुथरा कमरा पा कर खुश हो गया. इन सब झंझटों से छुट्टी पा कर निशांत मां के कमरे में गया और बोला, ‘‘लाओ मां, तुम्हारा सामान मैं पैक करता हूं.’’ किंतु मां किसी मूर्ति की तरह गंभीर बैठी थीं, शांत स्वर में बोलीं, ‘‘मैं नहीं जाऊंगी, बेटा.’’

‘‘क्या?’’ निशांत मानो आसमान से गिरा, ‘‘क्या कहती हो मां? हम तुम्हें यहां अकेला छोड़ कर जाएंगे भला?’’

‘‘अकेली कहां हूं बेटा,’’ मां भरेगले से बोलीं, ‘‘टिक्कू है, विपिन है.’’

‘‘लेकिन, वे सब तो गैर हैं. अपने तो हम हैं, जिन्हें तुम्हारी देखभाल करनी है. हम तुम्हें कैसे अकेला छोड़ दें?’’

‘‘अपना क्या और पराया क्या?’’ मां की आवाज मानो हृदय की गहराइयों से फूट रही थी, ‘‘जो प्यार करे, वही अपना, जो न करे, वह पराया.’’

‘‘नितांत सादगी से कहे गए मां के इस वाक्य की मार से निशांत मानो तिलमिला उठा. वह बोझिल हृदय से बोला, ‘‘माया के दोषों की सजा मुझे दे रही हो, मां?’’

‘‘नहीं रे, ऐसा क्यों सोचता है? मैं तो तेरे सुख की राह तलाश रही हूं.’’

‘‘तुम्हारे बिना कैसा सुख, मां?’’ और निशांत कमरे से बाहर निकल गया. माया को जब यह पता चला तो अपने चिरपरिचित व्यंग्यपूर्ण अंदाज में बोली, ‘‘अब यह आप का कौन सा नया नाटक शुरू हो गया?’’

‘‘किस बात का नाटक?’’ मां का स्वर दृढ़ था, ‘‘सीधी सी बात है, मैं नहीं जाना चाहती.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘क्या मेरी इच्छा का कोई मूल्य नहीं?’’

‘‘यह इच्छा की बात नहीं है, मुझे परेशान करने की आप की एक और चाल है. आप खूब समझती हैं कि टिक्कू साथ जा नहीं रहा, सौरभ आप के बिना रहता नहीं. उस नई जगह में मुझे अकेले सब संभालने में कितनी परेशानी होगी, इसीलिए आप मुझ से बदला ले रही हैं.’’

‘‘बदला तो मैं गैरों से भी नहीं लेती माया, फिर तुम तो मेरी अपनी हो, बेटी हो मेरी. जिस दिन तुम्हारी समझ में यह बात आ जाए, मुझे लेने आना. तब चलूंगी तुम्हारे साथ,’’ इतना कह कर मां कमरे से बाहर चली गईं. रात को निशांत के कमरे से माया की ऊंची आवाज बाहर तक सुनाई दे रही थी, ‘‘सारी दुनिया को दिखाना है कि हम उन को साथ नहीं ले जा रहे…हमारी बदनामी होगी, इस का भी खयाल नहीं.’’ माया का व्यवहार अब निशांत की सहनशक्ति की सीमाएं तोड़ रहा था. आखिर उस ने साफ बात कह ही डाली, ‘‘दरअसल, तुम्हें चिंता मां की नहीं, बल्कि इस बात की है कि वहां नौकर भी नहीं होगा और मां भी नहीं. फिर घर का सारा काम तुम कैसे संभालोगी. तुम्हारी सारी परेशानी इसी एक बात को ले कर है.’’

अंत में तय यह हुआ कि अगले दिन सुबह जब सौरभ सो कर उठे तो उसे समझाया जाए कि दादी को साथ चलने के लिए राजी करे. उन की उड़ान का समय शाम 5 बज कर 40 मिनट का था और मां के सामान की पैकिंग के लिए इतना समय काफी था. दूसरे दिन सुबह होते ही अपनी उनींदी आंखें मलतामलता सौरभ दादी की गोद में जा बैठा, ‘‘दादीमां, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘तैयार हो जाऊं, भला क्यों?’’ सौरभ के दोनों गाल चूमचूम कर मां निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हें मुंबई ले जाऊंगा.’’ मां की समझ में सारी बात आ गई. धीरे से सौरभ को गोद से नीचे उतार कर बोलीं, ‘‘पहले जा कर मंजन करो और दूध पियो.’’ सौरभ उछलताकूदता कमरे से बाहर भाग गया. थोड़ीथोड़ी देर में निशांत व माया किसी न किसी बहाने से मां के कमरे में यह देखने के लिए आतेजाते रहे कि वे अपना सामान पैक कर रही हैं या नहीं. किंतु मां के कमरे में सबकुछ शांत था. वे तो रसोई में मिट्टी के तेल वाले स्टोव पर उन लोगों के लिए दोपहर का खाना बनाने में व्यस्त थीं. वे निशांत और सौरभ की पसंद की चीजें टिक्कू की मदद से तैयार कर रही थीं. जो थोड़ेबहुत पुराने बरतन उन लोगों ने छोड़े थे, उन्हीं से वे अपना काम चला रही थीं. मां को पता भी न चला कि कितनी देर से निशांत रसोई के दरवाजे पर खड़ा उन्हें देख रहा है. माया भी उसी के पीछे खड़ी थी. सहसा मां की दृष्टि उन पर पड़ी और एक पल को मानो उन का उदास चेहरा खिल उठा.

‘‘ऐसे क्यों खड़े हो तुम दोनों?’’ मां पूछ बैठीं.

‘‘क्या आप माया को माफ नहीं कर सकतीं? ’’ बुझे स्वर में निशांत ने पूछा.

‘‘आज तक और किया ही क्या है, बेटा?’’ मां बोलीं, ‘‘लेकिन बिना किसी प्रयत्न के अनायास मिला प्यार मूल्यहीन हो जाता है. इस तथ्य को समझो बेटा. तुम्हारे और सौरभ के बिना रहना मेरे लिए भी आसान नहीं है, लेकिन इस समय शायद इसी में हम सब की भलाई है. अकेले घर संभालने में माया को परेशानी तो होगी, लेकिन धीरेधीरे सीख जाएगी.’’ टिक्कू के हाथ में खाने की प्लेटें दे कर मां रसोई से बाहर आईं. हाथ धो कर उन्होंने अपने कमरे में बिछे लकड़ी के तख्त पर खाना लगा दिया. आलू, पूरी देखते ही सौरभ खुश हो गया. मीठे में मां ने सेवइयां बनाई थीं, जो निशांत और माया दोनों को पसंद थीं. सब लोग एकसाथ खाना खाने बैठे. मां के हाथ का खाना अब न जाने कब मिले, यह ध्यान आते ही मानो निशांत के गले में पूरी का कौर अटकने लगा. किसी तरह 2-4 कौर खा कर वह पानी का गिलास ले कर उठ गया.

टैक्सी में सामान रखा जा रहा था. मां निर्विकार भाव से मूर्ति बनी बैठी थीं. उन के पैरों के पास टिक्कू बैठा हुआ था. कभी वह अपने साहब को देखता और कभी मांजी को, मानो समझना चाह रहा हो कि जो कुछ भी हो रहा है, वह अच्छा है या बुरा. मां के पांव छूते समय निशांत के हृदय की पीड़ा उस के चेहरे पर साफ उभर आई. वह भरे गले से बोला, ‘‘मैं हर महीने आऊंगा मां, चाहे एक ही दिन के लिए आऊं.’’ मां ने उस के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘तुम्हारा घर है बेटा, जब जी चाहे आओ, लेकिन मेरी चिंता मत करना.’’

‘‘क्या आप सचमुच ऐसा सोचती हैं कि यह संभव है?’’ कहतेकहते निशांत का स्वर भर्रा उठा.

मां के पैरों के पास बैठा टिक्कू उठ कर निशांत के सामने आ गया और दोनों हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘आप मांजी की चिंता न करें साहब, मैं हूं न, सब संभाल लूंगा. आप हर महीने खुद ही आ कर देख लेना.’’ एक भरपूर नजर टिक्कू पर डाल सहसा निशांत ने उसे अपने से चिपटा लिया. उस पल, उस घड़ी माया उस की दृष्टि में नगण्य हो उठी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें