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सैक्स बिफोर मैरिज एंजौय करना नहीं इतना आसान

आज की जनरेशन, जिसे जूमर्स या पोस्टमिलेनियल्स के नाम से भी जाना जाता है, के लिए सैक्स सब से पहले है.

एक अध्ययन के अनुसार, भारत में प्रीमैरिटल सैक्स में जबरदस्त उछाल देखने में आ रहा है. ‘लव विल फौलो: व्हाई द इंडियन मैरिज इज बर्निंग’ की राइटर ने अपनी किताब में लिखा है कि एक अनुमान के मुताबिक, अर्बन इंडिया में 18 से 24 वर्ष के एज ब्रैकेट में 75 फ़ीसदी लोगों ने शादी से पूर्व सैक्स का अनुभव किया है.

वर्तमान में गर्लफ्रैंडबौयफ्रैंड के बीच शादी से पहले सैक्स करना कोई हैरानी की बात नहीं है. आंकड़ों की मानें तो भारत में 75 फीसदी लोग शादी से पहले संबंध बना चुके होते हैं और इस में भी पुरुषों की संख्या अधिक है.

चूंकि आज के समय में शादी की उम्र दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, इसलिए लड़कालड़की के प्रीमैरिटल सैक्स करने की संभावना भी बढ़ जाती है.

प्रीमैरिटल सैक्स के हैं अपने रिस्क

मौडर्न होते जमाने में युवाओं के बीच कैजुअल सैक्स एक आम बात हो गई है. लेकिन इस के अपने रिस्क हैं. यही वजह है कि हर कोई इस से दूरी बनाए रहने की सलाह देता है. उन के लिए प्रीमैरिटल सैक्स करना आसान भी नहीं है. लड़के और लड़की को अनेक चैलेंजेस का सामना करना पड़ता है.

प्री मैरिटल सैक्स की राह नहीं आसान

• प्रीमैरिटल सैक्स करने वालों को परिवार और जानने वालों से बच कर व छिप कर सैक्स करने के लिए सेफ और सही जगह की तलाश करना भी एक टेढ़ा काम होता है.

• प्रीमैरिटल सैक्स में जब 2 लोगों को एकदूसरे की आदत हो जाती है और अगर उन के बीच किसी वजह से ब्रेकअप हो जाए तो ब्रेकअप के बाद मूवऔन करना मुश्किल हो जाता है और किसी और के साथ रिलेशन बनाने में परेशानी होती है.

• प्रीमैरिटल सैक्स करने वालों को अकसर इस बात का भी डर सताता रहता है कि कहीं सामने वाला उन्हें धोखा न दे.

• कोई भी कंट्रासैप्टिव मैथड 100 फीसदी सेफ नहीं होता. कई बार लड़के और लड़की के बीच प्रीमैरिटल सैक्स के दौरान कंडोम भी प्रैग्नैंसी के केस में 100 फीसदी प्रोटैक्टशन की गारंटी नहीं होते. ऐसे में लड़कियों को इस बात का हमेशा डर बना रहता है कि कहीं वे प्रैग्नैंट न हो जाएं और प्रैग्नैंट होने का मतलब होता है लाइफ में भूचाल का आ जाना. यानी, प्रैग्नैंसी से बचने के लिए उलटीसीधी पिल्स खाना, गाइनी के पास चक्कर लगाना, अबौर्शन की मुसीबत.

वैसे भी, लड़कियां कंडोम के यूज पर तभी ज़्यादा अड़ती हैं जब वे एक ही बौयफ्रैंड के साथ रैगुलर सैक्स संबंध बनाती हैं क्योंकि तब उन के पास प्लानिंग करने का टाइम होता है. लेकिन जब वे अचानक किसी कैजुअल पार्टनर के साथ सैक्स करती हैं तो इस बात की बहुत ज़्यादा संभावना होती है कि वे कंडोम का इस्तेमाल न करें. ऐसे में अनसेफ सैक्स की आशंका बहुत बढ़ जाती है.

• प्रीमैरिटल सैक्स को ले कर सोसाइटी भी अपने डबल स्टैंडर्ड दिखाने से पीछे नहीं हटती है. लड़कों के प्रीमैरिटल रिलेशनशिप्स को सोसाइटी उस नज़र से नहीं देखती जिन नज़रों से वह लड़कियों को देखती है. सोसाइटी की सोच के मुताबिक इन सब से लड़कों को कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन वही सोसाइटी एक लड़की की जिंदगीभर की इज़्ज़त को उस की वर्जिनिटी से जोड़ कर देखती है इसलिए अगर शादी से पहले पता चल जाए कि लड़की प्री मैरिटल सैक्स में इन्वौल्व थी तो सोसाइटी की नज़रों में उस लड़की से ज़्यादा बेशर्म कोई नहीं होता है. लड़की के ऊपर लांछन लगाया जाता है कि लड़की ने बेचारे लड़के को अपने ‘जाल’ में ‘फंसा’ लिया. इस तरह लड़की का ही चरित्रहनन होता है.

• अगर किसी लड़के या लड़की के कईयों के साथ प्रीमैरिटल सैक्शुअल रिलेशन हैं तो उस का सब से बड़ा नुकसान यह हो सकता है कि उन्हें सैक्शुअली ट्रांसमिटेड डीसीज हो जाए.

• कई बार कुछ लोगों को जो शादी से पहले किसी के साथ सैक्शुअल रिलेशन बना लेते हैं और फिर उस से शादी नहीं कर पाते तो उन्हें जीवनभर डर रहता है कि कहीं पति को शादी से पहले के संबंधों के बारे में पता न चल जाए. कुछ केसेज में कई बार लड़कियों को अपने पति से पहली बार संबंध बनाते समय मन में गिल्टी फीलिंग भी आ सकती है.

• भारतीय समाज शादी से पहले संबंध बनाने वालों को गलत नज़रों से देखता है और उन से घृणा करता है. अगर सोसाइटी में यह बात पता चल जाए कि लड़की ने शादी से पहले प्रीमैरिटल सैक्स किया है तो उस की शादी में अड़चनें आ सकती हैं. भारतीय समाज और परिवारों में प्रीमैरिटल सैक्स अभी भी वह लक्ष्मणरेखा है जिसे पार करते ही कोई भी, खासकर लड़की, फैमिली के नाम पर बेलिहाज़, बदनुमा दाग में तबदील हो जाता है.

• कई केसेज में प्रीमैरिटल सैक्स करने वाले में से किसी एक को बाद में दूसरे से ब्लैकमेलिंग का सामना भी करना पड़ सकता है.

• अगर कोई 2 लोग लंबे समय से एकदूसरे को डेट कर रहे हैं और शादी से पहले सैक्स कर रहे हों तो एक समय के बाद उन की सैक्सलाइफ बोरियत भरी हो जाती है.

• प्रीमैरिटल सैक्स के चक्कर में अपनी एजुकेशन पर ध्यान न दे पाने के कारण उस का असर कैरियर पर भी पड़ सकता है.

• कई बार एक बार हुए कैजुअल सैक्स में लड़के या लड़की द्वारा उसे जारी रखने का अनकहा प्रैशर शुरू हो सकता है.

कुलमिला कर प्रीमैरिटल सैक्स यूथ की पर्सनल चौइस है लेकिन इस के अपने फायदेनुकसान हैं. हर चीज की कीमत तो अदा करनी ही पड़ती है. कुछ चीज़ों का फायदानुकसान फौरन नजर आ जाता है, तो कुछ का भविष्य में नजर आ जाता है.

धर्म की दुकानदारी और राजनीति का ही हिस्सा है प्रसाद पर फसाद

देश भर के शराबी शराब पीने से पहले शराब में अंगुलिया डुबो कर उस की कुछ बूंदें जमीन पर छिड़कते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं यह उन्हें भी नहीं मालूम. कुछ मदिरा प्रेमी श्रुति और स्मृति की बिना पर जो बता पाते हैं उस का सार यही निकलता है कि यह रिवाज सदियों से चला आ रहा है जिस के पीछे मूल भावना तेरा तुझ को अर्पण वाली है. यानी यह एक रूढ़ि है जिस का पालन शराब पीने में भी ईमानदारी से किया जाता है. ऐसा करने से वे सीधे भगवान से जुड़ जाते हैं.

हालांकि देश के कुछ मंदिरों में शराब प्रसाद की शक्ल में भी चढ़ाई जाती है. इन में उज्जैन का काल भैरव और असम का कामख्या देवी का मंदिर प्रमुख है जहां शराब का प्रसाद चढ़ाने के भक्त बाकायदा इस प्रसाद को ग्रहण भी करते हैं. कामख्या देवी के मंदिर में तो शाकाहारी के साथ मांसाहारी प्रसाद जैसे मछली और बकरी का मांस चढ़ाए जाने का भी रिवाज है. यानी भगवान का प्रसाद चाहे मांस हो या मदिरा हो या लड्डू हों पवित्र माना जा कर खायापिया जाता है.

इस से किसी सनातनी की भावनाएं आहत नहीं होतीं और न ही किसी को किसी तरह का पाप लगता है. शराब को धरती माता को अर्पित की जाने वाली बूंदों की तरह ही प्रसाद का रिवाज है जिस के बारे में मोटे तौर पर लोग यही जानते और मानते हैं कि इस से भगवान प्रसन्न होते हैं और मनोकामनाएं पूरी करते हैं. वे फिर यह नहीं देखते कि भक्त ने क्या चढ़ाया है. भगवान भाव का भूखा होता है प्रसाद का नहीं, यह बात इन उदहारणों से साबित भी होती है गीता में ( अध्याय 9 श्लोक 26 ) जरुर एक जगह श्रीकृष्ण ने कहा है कि – ‘जो भक्त मुझे पत्र पुष्प फल और जल आदि वस्तु भक्तिपूर्वक देता है उस भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किए हुए वे पत्र पुष्पादि मैं स्वयं ग्रहण करता हूं.’

साफ जाहिर है कि कृष्ण शुद्ध अंतःकरण पर जोर देते हैं, खाध साम्रगी पर नहीं फिर भगवान को अन्न, मिष्ठान और धन वगैरह चढ़ाने की रूढ़ि या परंपरा कहां से शुरू हुई और किस ने की यह किसी को नहीं मालूम. लगता ऐसा है कि यह पंडेपुजारियों ने ही शुरू की होगी जिस से उन्हें फोकट में पकवान खाने को मिलते रहें और पैसा बरसता रहे जिस के लिए वे मंदिर में बैठते हैं.

ओशो यानी रजनीश ने कहा भी है कि अगर भक्त मंदिर में सिर्फ फूल ले कर जाएंगे तो वहां पुजारी भी नहीं टिकेगा. यानी भक्त श्रुति और स्मृति की आधार पर ही प्रसाद चढ़ाए जा रहे हैं. धर्म की इस भेड़चाल का ही नतीजा है हालिया तिरुपति का प्रसादम विवाद जिस में कथित रूप से लड्डुओं में चर्बी मछली वगैरह पाए गए.

मीडिया कोई भी हो गागा कर बता रहा है कि तिरुपति के लड्डुओं में चर्बी का पाया जाना हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ है जिस की सजा दोषियों को मिलनी ही चाहिए. सोशल मीडिया के जरिये बहुत से विवरण के साथ लोगों को यह ज्ञान भी प्राप्त हो गया है कि यह सब पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी का किया धरा है जो इसाई हैं. उन्होंने देवस्थानम बोर्ड में पहले अपने चहेतों को ठूंसा और फिर चर्बी वाले टेंडर पास हो गए नहीं तो आजकल कल के ज़माने में कहां 300 – 350 रुपए किलो शुद्ध घी मिलता है.

यहां इन बातों के कोई ख़ास माने नहीं कि पहले कौन सी कम्पनी घी सप्लाई कर रही थी और अब कौन सी कर रही है और कैसे इस कथित साजिश का खुलासा हुआ. माने सिर्फ इतने हैं कि भाजपा के सहयोगी मौजूदा मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू की पहल और तत्परता के चलते इस साजिश का भांडाफोड़ हो पाया नहीं तो इस खानदानी इसाई मुख्यमंत्री ने तो हमारा धर्म भृष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

दूसरी तरफ रेड्डी भी नायडू पर आरोप लगा रहे हैं कि वे सरासर झूठ बोल रहे हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इस प्रसाद कांड की जांच की मांग भी की है. आंध्र प्रदेश के उप मुख्यमंत्री दुखी हो कर 11 दिन के प्रायश्चित पर बैठ गए हैं लेकिन यह किसी को समझ नहीं आ रहा कि जब यह पाप उन्होंने नहीं किया तो वे प्रायश्चित किस बात का या किस के हिस्से का कर रहे हैं.

देश भर के सनातनियों की भावनाएं चर्बी वाले प्रसाद से ज्यादा इस बात से आहत हैं कि इसाई भी हमारा धर्म नष्ट भ्रष्ट करना चाहते हैं. मुसलमान तो यदाकदा खानेपीने की चीजों में थूकते और पेशाब भर करते हैं लेकिन इस बंदे ने तो थोक में करोड़ों को चर्बी खिलवा दी. यह विवाद गणेश के दूध पीने की अफवाह की तरह फैल भी सकता है. ताज़ी खबर यह है कि मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर के प्रसाद में भी चूहों की मिलावट होती है.

प्रसाद पर फसाद मचाने में धर्म गुरुओं का रोल और स्वार्थ भी अहम है. आर्ट औफ लिविंग वाले श्रीश्री रविशंकर ने कहा है कि यह ऐसी चीज है जिसे माफ नहीं किया जा सकता. यह दुर्भावनापूर्ण है और इस प्रक्रिया में शामिल लोगों के लालच की पराकाष्ठा है. इसलिए उन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए. उन की सारी सम्पत्ति जब्त कर लेनी चाहिए और दोषियों को जेल में डाल देना चाहिए. इस के बाद उन्होंने मुद्दे की बात यह कही कि सरकार और प्रशासन नहीं भक्तगण मंदिरों का संचालन करें. उन्होंने 1857 के विद्रोह का भी हवाला दिया. मंदिर प्रबंधन में साधु संतों की एक कमेटी होनी चाहिए जो इस पर निगरानी रख सके.

बात कैसे प्रसाद से मुड़ कर मंदिरों के मैनेजमेंट और मालिकाना हक झटकने पर आ रही है इसे एक और नामी वैष्णव संत रामभद्राचार्य के बयान से भी समझा जा सकता है जिन्होंने रविशंकर की हां में हां मिलाते कहा है कि 1857 में जो स्थिति मंगल पांडे की थी वही स्थिति हमारी है. अब हम किसी न किसी परिणाम पर पहुंचेंगे. इसलिए हम कह रहे हैं कि मंदिरों का सरकारी अधिग्रहण नहीं होना चाहिए सरकार हमारा अधिग्रहण बंद करे.

छोटेबड़े सभी साधु संत लट्ठ ले कर पीछे पड़ गए हैं कि मंदिर हमे सौंप दो जिस से हम बैठे बिठाए करोड़ों अरबों खरबों के मालिक बन जाएं. प्रसाद मिलावट से भगवान के इन दलालों का सरोकार क्रमश कम होता जा रहा है.

कब से तिरुपति के प्रसाद में यह कथित मिलावट की जा रही थी यह तो सीबीआई जांच के बाद ही उजागर होगा लेकिन इस मियाद में जिन हिंदूओं का धर्म भ्रष्ट हो चुका है उन का क्या होगा? क्या वे अब हिंदू नहीं रहे? क्या उन का शुद्धिकरण भी तिरुपति के मंदिर की तरह किया जाएगा?

इन सवालों पर सभी साधुसंत खामोश हैं सिवाय एक शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्द के जिन्होंने अयोध्या से कहा कि भक्त पंचगव्य का प्राशन करें इस से शरीर के भीतर छिपा हुआ पाप नष्ट हो जाता है. उन्होंने भक्तों को यह भी कहा कि अनजाने में ऐसा हो जाए जैसा कि हुआ तो भी पाप नहीं लगता है. इसलिए हिंदू किसी अपराधबोध से ग्रस्त न हों. उन्हें किसी प्रायश्चित की जरूरत नहीं. फिर भी जिन्हें ज्यादा गिल्ट फील हो रहा है वे पंचगव्य का सेवन कर लें. गौरतलब है कि अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के वक्त तिरुपति से आए कोई एक लाख लड्डू भक्तों को बांटे गए थे.

कम ही लोग समझ पा रहे हैं कि तिरुपति प्रसाद मुद्दे पर साधु संत एक बार फिर दो फाड़ ( शैव और वैष्णव ) हो गए हैं. अविमुक्तेश्वरानन्द अयोध्या तो गए लेकिन उन्होंने रामलला की मूर्ति के दर्शन नहीं किए. उन के मुताबिक यह मंदिर दोषपूर्ण तरीके से बना है और सरकार गायों की हिफाजत के बजाय गौमांस का कारोबार कर रही है. वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी जम कर बरसे कि उन्हें सनातन धर्म से ज्यादा कुर्सी से प्रेम है. इतना ही नहीं उन्होंने असुद्दीन ओबेसी को भी वोट देने की बात कह डाली. बकौल अविमुक्तेश्वरानन्द जो लोग सब से ज्यादा गौरक्षा की बात करते थे वही गौमांस का निर्यात कर रहे हैं.

गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा दिलाने के लिए यात्रा पर निकले इन शंकराचार्य ने वैष्णव संतों की तरह मंदिरों पर नियंत्रण की बात नहीं की लेकिन प्रसाद में मिलावट के आरोपियों को सजा दिलाने का राग वे भी अलापते रहे. जाहिर है आरोपियों को सजा भगवान नहीं बल्कि कानून देगा क्योंकि मूर्तियां प्रसाद या कुछ और भी नहीं खातीपीतीं इसलिए यह कथित अपराध भी भगवान के बजाय भक्तों के प्रति है.

मुद्दे की बात जगन मोहन रेड्डी का इसाई होना है, इसलिए हिंदू उन्हें ही एडवांस में दोषी मान चुके हैं ( गौरतलब है कि कोई दलित आदिवासी या ओबीसी हिंदू इस पर आपत्ति नहीं कर रहा क्योंकि तिरुपति, अयोध्या, वैष्णोदेवी, रामेश्वरम जैसे बड़े मंदिरों में जाने की उस की न तो हैसियत है और न ही उसे इस की इजाजत है). जबकि यह मामला बड़ा रहस्मय है जिस पर राजनीति भी जम कर हो रही है, न हो रही होती तो जरुर लगता कि यह भारत की ही बात है या कहीं और की है.

अगर रेड्डी की जगह कोई हिंदू मुख्यमंत्री होता तो क्या हिंदुओं की भावनाएं आहत नहीं होतीं? इस सवाल का जवाब यही मिलता कि तो भी होतीं फिर इसाई होने पर ही एतराज क्यों और अविमुक्तेश्वरानन्द के बीफ के सरकारी कारोबार के आरोप पर चुप्पी क्यों? क्या हिंदू इस बात पर सहमत हैं कि ऐसा अपराध फिर चाहे वह प्रसाद में मांस की मिलावट का हो या गौमांस के कारोबार का अगर वह हिंदूवादी सरकार करे तो यह जुर्म माफ़ी के काबिल है.

और वैसे भी धार्मिक भावनाएं होने का फसाद कुछ धार्मिक और राजनीतिक दुकानदार ही कर रहे हैं नहीं तो मामला उजागर होने के बाद भी 4 दिन में 14 लाख रुपए के लड्डू तिरुपति मंदिर में बिकना यह बताता है कि इस का कोई असर भक्तों या उन की भावनाओं पर नहीं पड़ा है. ठीक वैसे ही जैसे मिलावट के रोजमर्राई मामलों से नहीं पड़ता है. मिलावट को लोगों ने सहज स्वीकार लिया है और तिरुपति में विवाद के बाद भी रिकौर्ड लड्डुओं को बिक्री यह बताती है कि लोग डरते तभी जब इन्हें खा कर कोई बीमार पड़ा होता या लोग मरे होते. इस से इन भक्तों की भावना और आस्था ही प्रगट होती है कि आप लाख हल्ला मचा लो, प्रसाद चढ़ाने की परंपरा को कोस लो कि इस से गंद फैलती है, इन में तरहतरह की मिलावट होती है और यह बेवजह पैसों की बरबादी है उन की अन्धास्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता. और जब तक यह अंधी आस्था है तब तक शराब की बूंदों की तरह प्रसाद चढ़ता रहेगा.

प्यार की मिसाल : शादी से 4 दिन पहले प्रेमी संग फरार प्रेमिका

रचना और नीरज बचपन से ही एकदूसरे को प्यार करते थे. उन का प्यार शारीरिक आकर्षण नहीं बल्कि प्लैटोनिक था, जिस में इसे नादानी और कम उम्र के प्यार का नतीजा कहना रचना और नीरज के साथ ज्यादती ही कहा जाएगा. दरअसल, यह दुखद हादसा सच्चे और निश्छल प्यार का उदाहरण है. जरूरत इस प्यार को समझने और समझाने की है, जिस से फिर कभी प्यार करने वालों की लाशें किसी पेड़ से लटकती हुई न मिलें.

विश्वप्रसिद्ध पर्यटनस्थल खजुराहो से महज 8 किलोमीटर दूर एक गांव है बमीठा, जहां अधिकांशत: पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं. खजुराहो आने वाले पर्यटकों का बमीठा में देखा जाना आम बात है, इन में से भी अधिकतर विदेशी ही होते हैं. बमीठा से सटा गांव बाहरपुरा भी पर्यटकों की चहलपहल से अछूता नहीं रहता. लेकिन इस गांव में लोगों पर विदेशियों की आवाजाही का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वे इस के आदी हो गए हैं.

भैरो पटेल बाहरपुर के नामी इज्जतदार और खातेपीते किसान हैं. कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी 18 वर्षीय बेटी रचना की शादी नजदीक के गांव हीरापुर में अपनी बराबरी की हैसियत वाले परिवार में तय कर दी थी. शादी 11 फरवरी को होनी तय हुई थी, इसलिए भैरो पटेल शादी की तारीख तय होने के बाद से ही व्यस्त थे.

गांव में लड़की की शादी अभी भी किसी चुनौती से कम नहीं होती. शादी के हफ्ते भर पहले से ही रस्मोरिवाजों का जो सिलसिला शुरू होता है, वह शादी के हफ्ते भर बाद तक चलता है. ऐसी ही एक रस्म आती है छई माटी, जिस में महिलाएं खेत की मिट्टी खोद कर लाती हैं. बुंदेलखंड इलाके में इस दिन महिलाएं गीत गाती हुई खेत पर जाती हैं और पूजापाठ करती हैं.

यह रस्म रचना की शादी के 4 दिन पहले यानी 7 फरवरी को हुई थी. हालांकि फरवरी का महीना लग चुका था, लेकिन ठंड कम नहीं हुई थी. भैरो पटेल उत्साहपूर्वक आसपास के गांवों में जा कर बेटी की शादी के कार्ड बांट रहे थे. कड़कड़ाती सर्दी में वे मोटरसाइकिल ले कर अलसुबह निकलते थे तो देर रात तक वापस आते थे.

7 फरवरी को भी वे कार्ड बांट कर बाहरपुर की तरफ वापस लौट रहे थे कि तभी उन की पत्नी का फोन आ गया. मोटरसाइकिल किनारे खड़ी कर उन्होंने पत्नी से बात की तो उन के पैरों तले से जमीन खिसक गई. पत्नी ने घबराहट में बताया कि जब वह छई माटी की रस्म पूरी कर के घर आई तो रचना घर में नहीं मिली. वह सारे गांव में बेटी को ढूंढ चुकी है. पत्नी की बात सुन कर उन्होंने बेसब्री से पूछा, ‘‘और नीरज…’’

‘‘वह भी घर पर नहीं है,’’ पत्नी का यह जवाब सुन कर उन के हाथपैर सुन्न पड़ने लगे. जिस का डर था, वही बात हो गई थी.

20 वर्षीय नीरज उन्हीं के गांव का लड़का था. उस के पिता सेवापाल से उन के पीढि़यों के संबंध थे. लेकिन बीते कुछ दिनों से ये संबंध दरकने लगे थे, जिस की अपनी वजह भी थी.

इस वजह पर गौर करते भैरो पटेल ने फिर मोटरसाइकिल स्टार्ट की और तेजी से गांव की तरफ चल पड़े. रचना और नीरज का एक साथ गायब होना उन के लिए चिंता और तनाव की बात थी. 4 दिन बाद बारात आने वाली थी. आसपास के गांवों की रिश्तेदारी और समाज में बेटी की शादी का ढिंढोरा पिट चुका था.

यह सवाल रहरह कर उन के दिमाग को मथ रहा था कि कहीं रचना नीरज के साथ तो नहीं भाग गई. अगर ऐसा हुआ तो वे और उन की इज्जत दोनों कहीं के नहीं रहेंगे. ‘फिर क्या होगा’ यह सोचते ही शरीर से छूटते पसीने ने कड़ाके के जाड़े का भी लिहाज नहीं किया.

गांव पहुंचे तो यह मनहूस खबर आम हो चुकी थी कि आखिरकार रचना और नीरज भाग ही गए. काफी ढूंढने के बाद भी उन का कोई पता नहीं चल पा रहा था. घर आ कर उन्होंने नजदीकी लोगों से सलाहमशविरा किया और रात 10 बजे के लगभग चंद्रपुर पुलिस चौकी जा कर बेटी की गुमशुदगी की सूचना दर्ज करा दी. उन्होंने नीरज पर रचना के अपहरण का शक भी जताया. थाना इंचार्ज डी.डी. शाक्य ने सूचना दर्ज की और काररवाई में जुट गए.

बुंदेलखंड इलाके में नाक सब से बड़ी चीज होती है. एक जवान लड़की, जिस की शादी 4 दिन बाद होनी हो, अगर दुलहन बनने से पहले गांव के ही किसी लड़के के साथ भाग जाए और यह बात सभी को मालूम हो तो लट्ठफरसे और गोलियां चलते भी देर नहीं लगती.

इसलिए पुलिस वालों ने फुरती दिखाई और रचना और नीरज की ढुंढाई शुरू कर दी. डी.डी. शाक्य ने तुरंत इस बात की खबर बमीठा थाने के इंचार्ज जसवंत सिंह राजपूत को दी. वह भी बिना वक्त गंवाए चंद्रपुर चौकी पहुंच गए.

पुलिस अधिकारियों ने अपनी संक्षिप्त मीटिंग में तय किया कि दोनों अभी ज्यादा दूर नहीं भागे होंगे, इसलिए तुरंत छतरपुर बस स्टैंड और खजुराहो रेलवे स्टेशन की तरफ टीमें दौड़ा दी गईं. रचना और नीरज कहीं भी जाते, उन्हें जाना इन्हीं दोनों रास्तों से पड़ता.

पुलिस ने खजुराहो रेलवे स्टेशन और छतरपुर बस स्टैंड सहित आसपास के गांवों में खाक छानी, लेकिन रचना और नीरज को नहीं मिलना था सो वे नहीं मिले. आधी रात हो चली थी, इसलिए अब सुबह देखेंगे सोच कर बात टाल दी गई.

इधर बाहरपुर में भी मीटिंगों के दौर चलते रहे, जिन में नीरज और रचना के परिवारजनों को बच्चों के भागने से ज्यादा चिंता अपनी इज्जत की थी, खासतौर से भैरो सिंह को, क्योंकि वे लड़की वाले थे. ऐसे मामलों में छीछालेदर लड़की वाले की ही ज्यादा होती है.

बस एक बार रचना मिल जाए तो सब संभाल लूंगा जैसी हजार बातें सोचते भैरो सिंह बारबार कसमसा उठते थे. अंत में उन्होंने भी हालात के आगे हथियार डाल दिए कि अब सुबह देखेंगे कि क्या करना है.

सुबह सूरज उगने से पहले ही नीरज की मां रोज की तरह उठ कर मवेशियों को चारा डालने गांव के बाहर अपने खेतों की तरफ गईं तो आम के पेड़ को देख चौंक गईं. रोशनी पूरी तरह नहीं हुई थी, इसलिए वे एकदम से समझ नहीं पाईं कि पेड़ पर यह क्या लटक रहा है.

जिज्ञासावश वह पेड़ के नजदीक पहुंचीं, तो ऊपर का नजारा देख उन की चीख निकल गई. पेड़ पर रचना और नीरज की लाशें झूल रही थीं. वह चिल्लाते हुए गांव की तरफ भागीं.

देखते ही देखते बाहरपुर में हाहाकार मच गया. अलसाए लोग खेत की तरफ दौड़ने लगे. कुछ डर और कुछ हैरानी से सकते में आए लोग अपने ही गांव के बच्चों की एक और प्रेम कहानी का यह अंजाम देख रहे थे. भीड़ में से ही किसी ने मोबाइल फोन पर पुलिस चौकी में खबर कर दी.

पुलिस आती, इस के पहले ही लव स्टोरी पूरी तरह लोगों की जुबान पर आ गई. इस छोटे से गांव में सभी एकदूसरे को जानते हैं. गांव में एक ही मिडिल स्कूल है, इस के बाद की पढ़ाई के लिए बच्चों को चंद्रपुर जाना पड़ता है.

नीरज की रचना से बचपन से ही दोस्ती थी. आठवीं के बाद उन्हें भी चंद्रपुर जाना पड़ा. सभी बच्चे एक साथ जाते थे और एक साथ वापस आते थे. सब से समझदार और जिम्मेदार होने के चलते आनेजाने का जिम्मा नीरज पर था. बच्चे खेलतेकूदते मस्ताते आतेजाते थे. यहीं से इन दोनों के दिलों में प्यार का बीज अंकुरित होना शुरू हुआ.

दोनों जवानी की दहलीज पर पहला कदम रख रहे थे. बचपना जा रहा था और दोनों में शारीरिक बदलाव भी आ रहे थे. साथ आतेजाते रचना और नीरज में नजदीकियां बढ़ने लगीं और कब दोनों को प्यार हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला. हालत यह हो गई थी कि दोनों एकदूसरे को देखे बगैर नहीं रह पाते थे.

यह प्यार प्लैटोनिक था, जिस में शारीरिक आकर्षण कम एक रोमांटिक अनुभूति ज्यादा थी. बाहरपुर से ले कर चंद्रपुर तक दोनों तरहतरह की बातें करते जाते थे तो रास्ता छोटा लगता था. रचना को लगता था कि यूं ही नीरज के साथ चलती रहे और रास्ता कभी खत्म ही न हो. यही हालत नीरज की भी थी. उस का मन होता कि रचना की बातें सुनता रहे, उस के खूबसूरत सांवले चेहरे को निहारता रहे और उसे निहारता देख रचना शर्म से सर झुकाए तो वह बात बदल दे.

दुनियादारी, समाज, धर्म और जाति की बंदिशों और उसूलों से परे यह प्रेमी जोड़ा अपनी एक अलग दुनिया बसा बैठा था. अब दोनों आने वाली जिंदगी के सपने बुनने लगे थे. ख्वाबों में एकदूसरे को देखने लगे थे.

अब तक घर और गांव वाले इन्हें बच्चा ही समझ रहे थे. इधर इन ‘बच्चों’ की हालत यह थी कि दिन में कई दफा एकदूसरे को ‘आई लव यू’ बोले बगैर इन का खाना नहीं पचता था. दोनों एकदूसरे की पसंद का खास खयाल रखते थे, यहां तक कि टिफिन में खाना भी एकदूसरे की पसंद का ले जाते थे और साथ बैठ कर खाते थे.

प्यार का यह रूप कोई देखता तो निहाल हो उठता, लेकिन सच्चे और आदर्श वाले प्यार को नजर जल्द लगती है यह बात भी सौ फीसदी सच है. रचना तो नीरज के प्यार में ऐसी खोई कि कौपीकिताबों में भी उसे प्रेमी का चेहरा नजर आता था. नतीजतन 9वीं क्लास में वह फेल हो गई. इस पर घर वालों ने स्कूल से उस का नाम कटा दिया.

लेकिन उस के दिलोदिमाग में नीरज का नाम कुछ इस तरह लिखा था कि दुनिया की कोई ताकत उसे मिटा नहीं सकती थी. स्कूल जाना बंद हुआ तो वह बिना नीरज के और बिना उस के नीरज छटपटाने लगा. दिन भर घर में पड़ी रचना मन ही मन नीरज के नाम की माला जपती रहती थी और नीरज दिन भर उस की याद में खोया रहता था.

सुबह जैसे ही स्कूल जाने का वक्त होता था तो रचना हिरणी की तरह कुलांचे मारते सड़क पर आ जाती थी. दोनों कुछ देर बातें करते और फिर शाम का इंतजार करते रहते. जैसे ही आने का वक्त होता था तो रचना गांव के छोर पर पहुंच जाती.

दोनों का दिल से अख्तियार हटने लगा था. कुछ ही दिनों बाद जैसे ही नीरज बच्चों के साथ वापस आता तो दोनों खेतों में गुम हो जाते थे और सूरज ढलने तक अकेले में बैठे एकदूसरे की बांहों में समाए दुनियाजहान की बातें करते रहते.

बात छिपने वाली नहीं थी. साथ के बच्चों ने जब उन्हें इस हालत में देखा तो बात उन से हो कर बड़ों तक पहुंची. भैरो सिंह को जब यह बात पता चली तो उन्होंने वही गलती की जो आमतौर पर ऐसी हालत में एक पिता करता है.

गलती यह कि रचना पर न केवल बंदिशें लगाईं बल्कि आननफानन में उस की शादी भी तय कर दी. उन का इरादा जल्दी से जल्दी बेटी को विदा कर देना था, ताकि कोई ऐसा हादसा न हो जिस की वजह से उन की मूंछें झुक जाएं.

यह रचना और नीरज के लिए परेशानियों भरा दौर था. दोनों के घर वालों ने साफतौर पर चेतावनी दे दी थी कि उन की शादी नहीं हो सकती, लिहाजा दोनों एकदूसरे को भूल जाओ.

शादी तय हुई और तैयारियां भी शुरू हो गईं तो दोनों हताश हो उठे. दोनों जवानी में पहला पांव रखते ही साथ जीनेमरने की कसमें खा चुके थे, लेकिन घर वालों से डरते और उन का लिहाज करते थे. इसी समय उन्हें समाज की ताकत और अपनी बेबसी का अहसास हुआ. यह भी वे सोचा करते थे कि आखिर उन की शादी पर घर वालों को ऐतराज क्यों है.

प्रेम प्रसंग आम हो चुका था, इसलिए दोनों का मिलनाजुलना कम हो गया था. शादी की रस्में शुरू हुईं तो रचना को लगा कि वह बगैर नीरज के नहीं रह पाएगी. फिर भी वह खामोशी से वह सब करती जा रही थी जो घर वाले चाहते थे.

रचना अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ी थी, जहां से कोई रास्ता नीरज की तरफ नहीं जाता था. घर वालों के खिलाफ भी वह नहीं जा पा रही थी और नीरज को भी नहीं भूल पा रही थी. उसे लगने लगा था कि वह बेवफा है.

ऐसे में जब मंगेतर देवेंद्र का फोन आया तो वह और भी घबरा उठी. क्योंकि इन सब बातों से अंजान देवेंद्र भी प्यार जताते हुए यह कहता रहता था कि हम दोनों अपनी सुहागरात 11 फरवरी को नहीं बल्कि 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे पर मनाएंगे.

नीरज के अलावा कोई और शरीर को छुए, यह सोच कर ही रचना की रूह कांप उठती थी. लिहाजा उस ने जी कड़ा कर एक सख्त फैसला ले लिया और नीरज को भी बता दिया. जिंदगी से हताश हो चले नीरज को भी लगा कि जब घर वाले साथ जीने का मौका नहीं दे रहे तो न सही, रचना के साथ मरने का हक तो नहीं छीन सकते.

7 फरवरी की दोपहर जब मां दूसरी महिलाओं के साथ छई माटी की रस्म के लिए खेतों पर गई तो रचना घर से भाग निकली. नीरज उस का इंतजार कर ही रहा था. दोनों ने आत्महत्या करने से पहले पेड़ के नीचे सुहागरात मनाई और नीरज ने रचना की मांग में सिंदूर भी भरा, फिर दोनों एकदूसरे को गले लगा कर फंदे पर झूल गए.

दोनों के शव जब पेड़ से उतारे गए तो गांव वाले गमगीन थे. जिन्होंने अभी अपनी जिंदगी जीनी शुरू भी नहीं की थी, वे बेवक्त मारे गए थे. दोनों के पास से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला था. पोस्टमार्टम के बाद शव घर वालों को सौंप दिए गए और दोनों का एक ही श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार हुआ.

प्रेमियों का इस तरह एक साथ या अलगअलग खुदकुशी कर लेना कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस मामले से यह तो साफ हो गया कि सच्चा प्यार मर जाना पसंद करता है, जुदा होना नहीं.

ऐसे प्रेमी जब परंपराएं, धर्म, जाति वगैरह की दीवारें तोड़ने में खुद को असमर्थ पाते हैं, तो उन के पास सिवाय आत्महत्या के कोई भी रास्ता नहीं रह जाता, जिन की मंशा घर वालों और समाज को उन की गलती का अहसास कराने की भी होती है.

भैरो सिंह और सेवापाल जैसे पिता अगर वाकई बच्चों को प्यार करते होते तो उन की इच्छा और अरमानों का सम्मान करते, उन्हें पूरा करते लेकिन इन्हें औलाद से ज्यादा अपने उसूल प्यारे थे तो क्यों न इन्हें ही दोषी माना जाए.

डिजिटल दुनिया के चमत्कारी बाबा

आप ने ‘डिजिटल अरैस्ट’ की कई घटनाएं हालफिलहाल में सुनी होंगी. मतलब अब डिजिटल तांत्रिक भी चर्चा में आने लगे हैं. हालांकि, ‘डिजिटल तांत्रिक’ के बारे में आप ने शायद ही सुना हो, लेकिन इस से जुड़ा एक हैरान करने वाला मामला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से आया है, जहां एक डिजिटल तांत्रिक ने काले जादू का डर दिखा कर एक शेयर कारोबारी से 65 लाख रुपए हड़प लिए. इस मामले में एफआईआर दर्ज की गई है.

जानकारी के मुताबिक, हेमंत कुमार राय नाम के एक व्यापारी ने नुकसान का सामाधान तलाशने के लिए एक तांत्रिक से औनलाइन बात की.

इंटरनैट पर तलाशने पर प्रिया बाबा के बारे में जानकारी मिली, जिस पर चैटिंग होने के बाद प्रिया बाबा ने हेमंत कुमार राय को बताया कि उस पर काला जादू का साया है, जिस के लिए कुछ क्रियाएं करानी पड़ेंगी.

हेमंत कुमार राय के मुताबिक, क्रिया के नाम पर शुरुआत में तकरीबन 11,000 रुपए तांत्रिक को दिए गए. पर प्रिया बाबा के सुझाई गई क्रियाओं से हेमंत को कोई फायदा नहीं हुआ. बाबा ने कभी उन की ग्रह दशा को खराब तो कभी किसी और वजह को उन की दिक्कतों की वजह बताया.

साथ ही, तांत्रिक ने पीड़ित को बताया कि तंत्र क्रियाओं को पूरा होने तक नहीं छोड़ना है. अगर बीच मे तंत्र बंद हुआ, तो इस का उलटा असर दिखना शुरू हो जाएगा.

परेशानी से उबारने के लिए बताए गए उपायों को पूरा करने के लिए हेमंत कुमार राय ने तांत्रिक प्रिया बाबा को समयसमय पर रुपए दिए. आरोप है कि धीरेधीरे कर के साइबर तांत्रिक ठग ने 65 लाख रुपए समाधान की आड़ में ले लिए. इस के बाद भी जब वह रुपयों की मांग करता रहा, तब परेशान हो कर पीड़ित ने हजरतगंज कोतवाली में मुकदमा दर्ज कराया.

इस से पहले भी लखनऊ से साइबर ठगी के मामले सामने आ चुके हैं. हाल ही में ठगों ने एक डाक्टर को अपना शिकार बनाया था. अलीगंज के रहने वाले डाक्टर अशोक सोलंकी का विकास नगर में अपना क्लिनिक है. साइबर ठगों ने 20 और 21 अगस्त, 2025 को उन के घर पर डेढ़ दिन तक उन्हें डिजिटल अरैस्ट कर के 48 लाख रुपए ठग लिए. इन में से एक ने खुद को कूरियर सर्विस का मुलाजिम और दूसरे ने खुद को मुंबई का डीजीपी बताया था.

क्या है डिजिटल अरैस्ट

दरअसल, ‘डिजिटल अरैस्ट’ कानून की भाषा का कोई शब्द नहीं है, बल्कि साइबर अपराधियों के ठगी करने का नया तरीका है. साइबर अपराधियों का सब से बड़ा हथियार डर और लालच होता है. साइबर ठग लोगों को वीडियो काल करते हैं. वे डरा कर या लालच दे कर वीडियो काल पर अपने शिकार को जोड़ लेते हैं. हफ्तों या कुछ घंटे तक आप को डर या लालच दिखा कर कैमरे के सामने रखते हैं.

‘डिजिटल अरैस्ट’ के मामले में स्कैमर्स एक वर्चुअल लौकअप भी बना देते हैं और अरैस्ट मैमो पर दस्तखत भी डिजिटल कराया जाता है.

‘डिजिटल अरैस्ट’ में ये फेक फार्म (फर्जी फार्म) भी भरवाते हैं. सबकुछ डिजिटल होता है, लेकिन ये इतनाडरा देते हैं कि पीड़ित घर के बाहर तक नहीं निकलता. जालसाज डर या किसी न किसी बहाने तब तक वीडियो काल पर जोड़े रखते हैं, जब तक आप उन की डिमांड पूरी करते रहते हैं. इस के लिए स्कैमर्स बड़ी एजेंसियों और अफसरों के शामिल होने, सालों जेल में रहने जैसी बातों से डराते हैं.

कैसे अंजाम देते हैं

आरोपी खुद को या तो सभी परेशानियों से मुक्त करने वाला बाबा बताते हैं या फिर खुद को पुलिस या इनकम टैक्स अफसर बताते हैं, ताकि शिकार को यकीन हो जाए. इस के लिए वे वरदी पहन कर काल करते हैं. बैकग्राउंड भी ऐसा रखते हैं, जिस से लगे है कि काल करने वाला शख्स किसी दफ्तर में बैठा है और और सही बोल रहा है. आरोपी अपने शिकार को धमकाते हैं कि उन के पैनकार्ड और आधारकार्ड का इस्तेमाल गैरकानूनी काम में किया गया है. इतना नहीं नहीं, आरोपी इस दौरान पूरी नजर रखते हैं. शिकार को किसी से बात तक नहीं करने देते. इस के बाद उसे डराधमका कर रुपए ट्रांसफर करा लेते हैं.

लेकिन अगर आप बाबा के चुंगल में फंसे हैं तो आप खुद ही वहां बैठे रहेंगे, यह सो चकर कि बस अभी चमत्कार हुआ और आप की सब परेशानी दूर हो जाएंगी या फिर आप अमीर हो जाएंगे. इसी चमत्कार की आस में आप खुद ही ‘डिजिटल अरैस्ट’ हो जाते हैं और जब सामने वाला आप से पैसा लूट लेता है और कोई चमत्कार नहीं होता, तब अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत ही सच होती नजर आती हैं.

क्या वाकई आप को लगता है कि इस में सारी गलती लूट बाबा की है? क्या बाबा आप के घर आए थे आप को लूटने? खुद आप ने संपर्क किया बाबा से तो फिर उन्हें कुसूरवार उन्हें क्यों ठहराना?

आप ने खुद उन्हें ढूंढ़ा अपना माल लुटाने के लिए. अच्छे पढ़ेलेखे लोग यहां तक कि इंजीनियर और डाक्टर तक ऐसी घटनाओं को शिकार हो रहे हैं. सवाल यह उठता है कि जब ऐसी चीजों में ही फंसना है, तो इतनी महंगी डिगरियां लेने का क्या फायदा? फिर आप ने किस बात की डाक्टरी या इंजीनियरिंग की है? अगर जादूटोना पर ही यकीन करना था, तो बेकार है आप की इतनी महंगी तालीम.

कैसे बचें इन से

अगर कोई आप को बोलता है कि आप का फोन नंबर, आधारकार्ड या पैनकार्ड गैरकानूनी रूप से इस्तेमाल हो रहा है तो उस पर यकीन न करें. या फिर वह आप को कहे कि आप का कोई जानपहचान का, आप का बेटाबेटी, पतिपत्नी या कोई रिश्तेदार किसी केस में फंस गया है, तो उस पर भी यकीन न करें. जब तक कि उन के मोबाइल नंबर से आप को खुद काल कर के यह सब न बताया जाए.

जब कोई आप को काल पर आप से पैसों के लेनदेन की बात करे, तो आप बिलकुल भी न करें. अपनी निजी जानकारी बिलकुल भी शेयर न करें. किसी भी अनजाने मैसेज पर क्लिक न करें. उस लिंक को कभी न खोलें. अपने फोन में या कहीं लैपटौप वगैरह में कभी भी थर्ड पार्टी एप डाउनलोड न करें. अपने बैंकिंग एप्स और फाइनैंशियल ट्रांजैक्शन अकाउंट एप पर मजबूत सिक्योरिटी पासवर्ड लगाएं.

जांच एजेंसी या पुलिस आप को काल कर के धमकी नहीं देती है. जांच एजेंसी या पुलिस कानूनी प्रक्रिया के तहत कार्यवाही करती है. अगर आप को भी डरानेधमकाने के लिए इस तरह के फोन आते हैं तो आप तुरंत इस की सूचना स्थानीय पुलिस को दें या फिर 1930 नैशनल साइबर क्राइम हैल्पलाइन पर काल कर के शिकायत दर्ज कराएं.

इस के आलावा ढोंगी बाबा के जाल में भी न फंसे..पाखंडी बाबा सिर्फ अपनी जेब भरने वाले होते हैं. इन की करनी और कथनी में अंतर होता है.

भाई और जीजा से करवाया लिव-इन पार्टनर का कत्ल

9 सितंबर, 2019 को अनीता अपनी सहेली से मिलने ग्रेटर नोएडा गई थी. अगले दिन अपराह्न 2 बजे जब वह दिल्ली के लाजपत नगर में स्थित अपने फ्लैट में पहुंची तो वहां का खौफनाक मंजर देखते ही उस के मुंह से चीख निकल गई. उस के पैर दरवाजे पर ही ठिठक गए.

उस के लिवइन पार्टनर सुनील तमांग की लहूलुहान लाश फर्श पर पड़ी थी. उस की गरदन से खून निकल कर पूरे फर्श पर फैल चुका था, जो अब जम चुका था. अनीता ने सब से पहले अपने फ्लैट के मालिक ए.के. दत्ता को फोन कर इस घटना की जानकारी दी. ए.के. दत्ता पास की ही एक दूसरी कालोनी में रहते थे. लिहाजा कुछ देर में वह अपने लाजपत नगर वाले फ्लैट पर पहुंचे, जहां बुरी तरह घबराई अनीता उन का इंतजार कर रही थी.

सुनील की खून से सनी लाश देखने के बाद उन्होंने घटना की जानकारी दिल्ली पुलिस के कंट्रोल रूम को दी तो कुछ ही देर के बाद थाना अमर कालोनी के थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन पुलिस टीम के साथ मौके पर पहुंच गए और घटनास्थल की जांच में जुट गए. उन्होंने डौग स्क्वायड और फोरैंसिक टीम को भी बुला लिया.

घटनास्थल की फोटोग्राफी और वहां पर मौजूद खून के धब्बों के नमूने एकत्र करने के बाद थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन ने तहकीकात शुरू की. मृतक सुनील की गरदन पर पीछे की तरफ से किसी तेज धारदार हथियार से जोरदार वार किया गया था, जिस से ढेर सारा खून निकल कर फर्श पर फैल गया था.

कमरे के सभी कीमती सामान अपनी जगह मौजूद थे, जिसे देख कर लगता था कि यह हत्या लूटपाट के लिए नहीं बल्कि रंजिशन की गई होगी. उन्होंने अनीता से पूछताछ की तो उस ने बताया कि वह और सुनील पिछले एक साल से इस फ्लैट में लिवइन पार्टनर के रूप में रह रहे थे. वह एक ब्यूटीपार्लर में काम करती थी, जबकि सुनील एक रेस्टोरेंट में कुक था. लेकिन कई महीने पहले किसी वजह से उस की नौकरी छूट गई थी.

कल रात साढ़े 11 बजे किसी जरूरी काम से वह अपनी सहेली से मिलने ग्रेटर नोएडा गई थी. रात को वह वहीं रुक गई थी. रात में उस ने फोन पर काफी देर तक सुनील से बातें की थीं.

आज दोपहर को वह यहां पहुंची तो देखा फ्लैट का दरवाजा खुला था और अंदर प्रवेश करते ही उस की नजर सुनील की लाश पर पड़ी थी. इस के बाद उस ने अपने मकान मालिक को फोन कर इस घटना के बारे में बताया तो उन्होंने यहां पहुंचने के बाद इस घटना की सूचना पुलिस को दी.

थानाप्रभारी ने मकान मालिक ए.के. दत्ता से भी पूछताछ की तो उन्होंने भी वही बातें बताईं जो अनीता ने बताई थीं.

सारी काररवाई से निपटने के बाद थानाप्रभारी ने लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी और थाने लौट कर सुनील की हत्या का मामला दर्ज कर लिया.

इस केस की गुत्थी सुलझाने के लिए दक्षिणपूर्वी दिल्ली के डीसीपी चिन्मय बिस्वाल ने कालकाजी के एसीपी गोविंद शर्मा की देखरेख में एक टीम का गठन किया, जिस में थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन, एसआई अभिषेक शर्मा, ईश्वर, आर.एस. डागर, एएसआई जगदीश, कांस्टेबल राजेश राय, मनोज, सज्जन आदि शामिल थे.

विरोधाभासी बयानों से हुआ शक 

अगले दिन थानाप्रभारी ने घटनास्थल के आसपास लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज निकलवाई, ताकि वारदात की रात फ्लैट के आसपास घटने वाली सभी गतिविधियों की बारीकी से जांच की जा सके. साथ ही मृतक सुनील तमांग और अनीता के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स निकलवाई.

काल डिटेल्स और सीसीटीवी फुटेज की बारीकी से जांचपड़ताल करने के बाद थानाप्रभारी ने गौर किया कि अनीता के बयान विरोधाभासी थे. इसलिए अनीता को पुन: पूछताछ के लिए अमर कालोनी थाने बुलाया गया. उस से सघन पूछताछ की गई तो अनीता यही कहती रही कि वह रात साढ़े 11 बजे अपनी सहेली से मिलने ग्रेटर नोएडा गई थी, लेकिन वह वहां देर रात को क्यों गई, इस की वजह नहीं बता पाई.

पुलिस को लग रहा था कि वह झूठ पर झूठ बोल रही है. उस ने उस रात जिनजिन नंबरों पर बात की थी, उन के बारे में भी वह संतोषजनक जवाब नहीं दे सकी. लिहाजा उस से सख्ती से पूछताछ की गई तो वह टूट गई और सुनील तमांग की हत्या में खुद के शामिल होने का जुर्म स्वीकार कर लिया.

उस ने बताया कि इस हत्याकांड में उस का भाई विजय छेत्री तथा जीजा राजेंद्र छेत्री भी शामिल थे. ये दोनों पश्चिम बंगाल के कालिंपोंग शहर के रहने वाले थे. अनीता द्वारा अपने लिवइन पार्टनर की हत्या में शामिल होने की बात स्वीकार करने के बाद पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया.

बाकी आरोपियों विजय छेत्री और राजेंद्र छेत्री को गिरफ्तार करने के लिए थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन ने एसआई अभिषेक शर्मा के नेतृत्व में एक टीम गठित की. यह टीम 13 सितंबर, 2019 को वेस्ट बंगाल के कालिंपोंग शहर पहुंच गई. स्थानीय पुलिस के सहयोग से दिल्ली पुलिस ने विजय छेत्री और राजेंद्र छेत्री को उन के घर से गिरफ्तार कर लिया.

दोनों से जब सुनील तमांग की हत्या के बारे में पूछताछ की गई तो उन दोनों ने पुलिस को बरगलाने की काफी कोशिश की लेकिन बाद में जब उन्हें बताया गया कि अनीता गिरफ्तार हो चुकी है और उस ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है, तो उन दोनों ने भी अपना जुर्म स्वीकार कर लिया.

वेस्ट बंगाल की स्थानीय कोर्ट में पेश करने के बाद दिल्ली पुलिस दोनों आरोपियों को ट्रांजिट रिमांड पर ले कर दिल्ली लौट आई.

अनीता, विजय और राजेंद्र से की गई पूछताछ तथा पुलिस की जांच के आधार पर इस हत्याकांड के पीछे की जो कहानी उभर कर सामने आई, वह इस प्रकार है—

अनीता मूलरूप से पश्चिम बंगाल के कालिंपोंग की रहने वाली थी. करीब 5 साल पहले वह अपने पति से अनबन होने पर उसे छोड़ कर अपने सपनों को पंख लगाने के मकसद से दिल्ली आ गई थी. यहां उस की एक सहेली थी, जो बहुत शानोशौकत से रहती थी. वह सहेली जरूरत पड़ने पर उस की मदद भी कर दिया करती थी.

दरअसल, अनीता स्कूली दिनों से ही खुले विचारों वाली एक बिंदास लड़की थी. वह जिंदगी को अपनी ही शर्तों पर जीना चाहती थी, जबकि उस का पति एक सीधासादा युवक था. उसे अनीता का ज्यादा फैशनेबल होना तथा लड़कों से ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं था.

विपरीत स्वभाव होने के कारण शादी के थोड़े दिनों बाद ही वे एकदूसरे को नापसंद करने लगे थे. बाद में जब बात काफी बढ़ गई तो एक दिन अनीता ने पति को छोड़ दिया और वापस अपने मायके चली आई. कुछ दिन तो वह मायके में रही, फिर बाद में उस ने अपने पैरों पर खडे़ होने का फैसला कर लिया. और वह दिल्ली आ गई.

वह ज्यादा पढ़ीलिखी तो नहीं थी, महज 8वीं पास थी. छोटे शहर की होने और कम शिक्षित होने के बावजूद उस का रहने का स्टाइल ऐसा था, जिसे देख कर लगता था कि वह काफी मौडर्न है.

दिल्ली पहुंचने के बाद अनीता ने अपनी उसी सहेली की मदद से ब्यूटीशियन की ट्रेनिंग ली. इस के बाद वह एक ब्यूटीपार्लर में नौकरी करने लगी. नौकरी करने से उस की माली हालत अच्छी हो गई और जिंदगी पटरी पर आ गई.

इसी दौरान एक दिन उस की मुलाकात सुनील तमांग नाम के युवक से हुई जो नेपाल का रहने वाला था. उस की मां कुल्लू हिमाचल प्रदेश की थी. 28 वर्षीय सुनील दक्षिणी दिल्ली के साकेत में स्थित एक रेस्टोरेंट में कुक था.

दोनों एकदूसरे को चाहने लगे 

कुछ दिनों तक दोस्ती के बाद वह सुनील को अपना दिल दे बैठी. सुनील अनीता की खूबसूरती पर पहले से ही फिदा था. एक दिन सुनील ने अनीता को अपने दिल की बात बता दी और कहा कि वह उसे दिलोजान से प्यार करता है. इतना ही नहीं, वह उस से शादी रचाना चाहता है.

अनीता उस के दिल की बात जान कर खुशी से झूम उठी. उस ने सुनील से कहा कि पहले कुछ दिनों तक हम लोग साथ रह लेते हैं. फिर घर वालों की रजामंदी से शादी कर लेंगे. इस की एक वजह यह भी थी कि अभी पहले पति से अनीता का तलाक नहीं हुआ था. तलाक के बाद ही दूसरी शादी संभव हो सकती थी.

कोई 4 साल पहले अनीता ने सुनील तमांग के साथ चिराग दिल्ली में किराए का मकान ले कर रहना शुरू कर दिया. दोनों एकदूसरे को पा कर बेहद खुश थे. सुनील अनीता का काफी खयाल रखता था. अनीता भी सुनील के साथ लिवइन में रह कर खुद को भाग्यशाली समझती थी.

सुनील न केवल देखने में स्मार्ट था, बल्कि एक अच्छे पार्टनर की तरह उस की प्रत्येक छोटीछोटी बात का विशेष ध्यान रखता था. अनीता भी सुनील की खुशियों का खूब खयाल रखती थी. वह अपनी तरफ से कोई ऐसा काम नहीं करती थी, जिस से सुनील की कोई भावना आहत हो.

अनीता और सुनील 3 सालों तक चिराग दिल्ली स्थित इस मकान में रहे. इस बीच जब अनीता की पगार अच्छी हो गई तो वह चिराग दिल्ली से लाजपत नगर आ गई. यहां वह ए.के. दत्ता के फ्लैट में किराए पर रहने लगी. यहां उस का फ्लैट तीसरी मंजिल पर था.

इतने दिनों तक लिवइन रिलेशन में रहने के कारण दोनों के परिवार वाले भी उन के संबंधों से परिचित हो गए थे. अनीता का भाई विजय छेत्री जबतब कालिंपोंग से दिल्ली में उस के पास आता रहता था. उसे सुनील का व्यवहार पसंद नहीं था.

विजय ने अनीता की पसंद पर ऐतराज तो नहीं जताया लेकिन एक दिन उस ने सुनील की गैरमौजूदगी में अपने मन की बात अनीता को बता दी. चूंकि अनीता सुनील से प्यार करती थी, इसलिए उस ने भाई से सुनील का पक्ष लेते हुए कहा कि सुनील दिल का बुरा नहीं है लेकिन फिर भी अगर सुनील की कोई बात उसे अच्छी नहीं लगती है तो वह उसे कह कर इस में सुधार लाने का प्रयास करेगी.

विजय ने जब देखा कि उस की बहन ने उस की बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी है तो उस ने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी. सुनील और अनीता को विजय की बातों से जरा भी फर्क नहीं पड़ा था.

लेकिन कहते हैं कि हर आदमी का वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता है. सुनील तमांग के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. किसी बात को ले कर सुनील की रेस्टोरेंट से नौकरी छूट गई. नौकरी छूट जाने की वजह से वह परेशान तो हुआ लेकिन अनीता अच्छा कमा रही थी, इसलिए घर का खर्च आराम से चल जाता था.

हालांकि कुछ दिन बाद अनीता सुनील को समझाबुझा कर जल्दी कहीं नौकरी खोजने का दबाव बना रही थी, मगर 6 महीने तक सुनील को उस के मनमुताबिक नौकरी नहीं मिली.

धीरेधीरे अनीता को ऐसा लगने लगा जैसे सुनील जानबूझ कर नौकरी नहीं करना चाहता है और अब वह उस के ही पैसों पर मौज करना चाहता है. ऐसा विचार मन में आते ही उस ने एक दिन तीखे स्वर में सुनील से कहा, ‘‘सुनील, या तो तुम जल्दी कहीं पर नौकरी ढूंढ लो अन्यथा मेरा साथ छोड़ कर यहां से कहीं और चले जाओ.’’

हालांकि अनीता ने यह बात सुनील को समझाने के लिए कही थी, लेकिन उस दिन के बाद सुनील के तेवर बदल गए. उस ने अनीता से कहा कि वह उसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा और फिर भी अगर वह उसे जबरन खुद से दूर करने की कोशिश करेगी तो उस के पास अंतरंग क्षणों के कई फोटो मोबाइल पर पड़े हैं, जिन्हें वह उस के सगेसंबंधियों के मोबाइल पर भेज देगा, जिस के बाद वह कहीं भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगी.

रुपयों की तंगी तथा सुनील की धमकी को सुन कर अनीता कांप उठी. इस घटना के कुछ दिनों बाद तक अनीता ने सुनील को नौकरी ढूंढने पर जोर देती रही, लेकिन सुनील पर इस का कोई फर्क नहीं पड़ा.

अंत में अनीता ने कालिंपोंग स्थित अपने भाई विजय को अपनी मुसीबत के बारे में बताया तो विजय गुस्से से भर उठा. उस ने अनीता से कहा कि वह जल्द ही सुनील नाम के इस कांटे को उस की जिंदगी से निकाल फेंकेगा.

भाई ने बनाया हत्या का प्लान 

भाई की बात सुन कर अनीता को राहत महसूस हुई. विजय को सुनील पहले से नापसंद था. अब जब अनीता खुद ही उस से छुटकारा पाना चाहती थी तो उस ने अपने रिश्ते के बहनोई राजेंद्र के साथ मिल कर सुनील को मौत की नींद सुलाने की योजना तैयार कर ली. इस के बाद उस ने अनीता को अपनी योजना के बारे में बताया तो अनीता ने दोनों को दिल्ली पहुंचने के लिए कह दिया.

7 सितंबर, 2019 को विजय छेत्री और राजेंद्र छेत्री पश्चिम बंगाल के कालिंपोंग से नई दिल्ली पहुंचे और पहाड़गंज के एक होटल में रुके. अनीता फोन से बराबर भाई के संपर्क में थी. लेकिन सुनील अनीता और विजय के षडयंत्र से अनजान था. उसे सपने में भी गुमान नहीं था कि अनीता उस की ज्यादतियों से तंग आ कर उस का कत्ल भी करवा सकती है.

9 सितंबर को विजय छेत्री और राजेंद्र छेत्री पूर्वनियोजित योजना के अनुसार रात के 10 बजे अनीता के फ्लैट पर पहुंचे. अनीता दोनों से ऐसे मिली जैसे उन्हें पहली बार देखा हो. सुनील भी उन से घुलमिल कर बातें करने लगा.

साढ़े 11 बजे उस ने अचानक सब को बताया कि उसे अभी इसी वक्त अपनी सहेली से मिलने ग्रेटर नोएडा जाना है. इस के बाद वह तैयार हो कर फ्लैट से बाहर निकल गई.  रात में अनीता सुनील के मोबाइल पर काल कर के उस से 2-3 घंटे तक मीठीमीठी बातें करती रही.

तड़के करीब 4 बजे जैसे ही सुनील सोया, तभी विजय ने राजेंद्र के साथ मिल कर उस की गरदन पर चाकू से वार किया. थोड़ी देर तड़पने के बाद जब उस का शरीर ठंडा पड़ गया तो दोनों वहां से आनंद विहार के लिए निकल गए, क्योंकि वहां से उन्हें कालिंपोंग के लिए ट्रेन पकड़नी थी.

आनंद विहार जाने के दौरान रास्ते में विजय ने खून से सना चाकू एक सुनसान जगह पर फेंक दिया. आनंद विहार स्टेशन से रेलगाड़ी द्वारा वे कालिंपोंग पहुंच गए.

इन से विस्तार से पूछताछ करने के बाद अगले दिन 16 सितंबर, 2019 को थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन ने सुनील तमांग की हत्या के आरोप में उस की लिवइन पार्टनर अनीता, विजय छेत्री तथा राजेंद्र छेत्री को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया, जहां से तीनों को तिहाड़ जेल भेज दिया गया. मामले की जांच थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन कर रहे थे.

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किस के बेटे ने मूंछें मुंड़वा लीं, किस की बीवी झगड़ कर मायके चली गई, किस के घर में क्या पका है, किस की बकरी दूसरे का खेत चर गई… हर तरह की खबरें बगैर किसी फीस के  न कोई इंटरनैट और न ही कोई टैलीविजन या रेडियो, पर खबरें बिलकुल टैलीविजन के जैसी मसालेदार.

सब से मजेदार बात तो यह है कि वहां पर पुरानी से पुरानी खबरें सुनाने वाले भी आप को हमेशा मिल जाएंगे, भले ही वे आप के जन्म से पहले की ही क्यों न हों, जैसे कि वे उन के मैमोरी कार्ड में सेव हों.

इन्हीं खबरीलाल में से एक हैं बादो चाचा. उन के पास तो समय ही समय है. कोई भी घटना वे ऐसे सुनाते हैं मानो आंखों देखी बता रहे हों.

गांव के हर गलीनुक्कड़, चौकचौराहे पर मिल जाएंगे. आप उन से इस नुक्कड़ पर मिल कर जाएं और अगले नुक्कड़ पर आप से पहले वे पहुंचे रहते हैं. वे किस रास्ते से जाते हैं आज तक कोई नहीं जान पाया.

इमरान ने जब से होश संभाला है तब से उन्हें वैसा का वैसा ही देख रहा है. बाल तो उन के 20 साल पहले ही पक चुके थे, पर उन की शारीरिक बनावट में आज भी कोई बदलाव या बुढ़ापेपन की झलक नहीं दिखती है, मानो उन के लिए समय रुक गया हो. कोई कह नहीं सकता कि वे नातीपोते वाले हैं.

सुबहसुबह रघु चाचा की चाय की दुकान पर चाय प्रेमियों का जमावड़ा लगना शुरू हो गया. यह ठीक उसी तरह होता है जिस तरह शहर के किसी रैस्टौरैंट में. वहां व्यंजन पसंद करने में कम से कम आधा घंटा लगता है, और्डर को सर्व होने में कम से कम आधा घंटा लगेगा, यह तो मेनू कार्ड में खुद लिखा होता है और फिर उस के बाद कोई समय सीमा नहीं. आप जब तक खाएं और जब तक बैठें आप की मरजी. खाएं या न खाएं, पर सैल्फी ले कर लोगों को बताएं जरूर कि सोनू विद मोनू ऐंड थर्टी फाइव अदर्स एट ओस्मानी रैस्टौरैंट.

यहां भी कुछ ऐसा ही नजारा रहता है. 5 रुपए की चाय पी कर लोग साढ़े 3 रुपए का अखबार पढ़ते हैं और फिर देशदुनिया के साथ पूरे गांव और आसपास के गांवों की कहानियां चलती हैं बगैर किसी समय सीमा के. सब को पता होता है कि घर के बुजुर्ग चाय की दुकान पर मिल जाएंगे, विद अदर्स.

हमेशा की तरह बादो चाचा की आकाशवाणी जारी थी, ‘‘यह हरी को भी क्या हो गया है, बड़ीबड़ी बच्चियों को पढ़ने के लिए ट्रेन से भेजता है. वे अभी साइकिल से स्टेशन जाएंगी और फिर वहां से लड़कों की तरह ट्रेन पकड़ कर बाजार…

‘‘पढ़लिख कर क्या करेंगी? कलक्टर बनेंगी क्या? कुछ तो गांव की मानमर्यादा का खयाल रखता. मैट्रिक कर ली, अब कोई आसान सा विषय दे कर घर से पढ़ा लेता.’’

इसी के साथ शुरू हो गई गरमागरम चाय के साथ ताजा विषय पर परिचर्चा. सब लोगों ने एकसाथ हरी चाचा पर ताने मारने में हिस्सा लिया.

कोई कहता कि खुद तो अंगूठाछाप है, अब चला है भैया बेटियों को पढ़ाने, तो कोई कहता कि पढ़ कर वही चूल्हाचौका ही संभालेंगी, इंदिरा गांधी थोड़े न बन जाएंगी.

अगले दिन बादो चाचा चाय की दुकान पर नहीं दिखे, पता चला कि पोती को जो स्कूल में सरकारी साइकिल के पैसे मिलने वाले हैं, उसी की रसीद लाने गए हैं.

इमरान को कल हरी चाचा पर मारे गए ताने याद आ गए. जब वह बचपन में साइकिल चलाना सीखता था तो उस समय उस की ही उम्र की कुछ लड़कियां भी साइकिल चलाना सीखती थीं और यही बादो चाचा और गांव के कुछ दूसरे बुजुर्ग उन पर ताने मारते नहीं थकते थे और आज वे अपनी ही पोती के लिए साइकिल के पैसे के लिए रसीद लाने गए हैं.

अगले दिन इमरान ने पूछा, ‘‘कल आप आए नहीं बादो चाचा?’’

वे कहने लगे, ‘‘क्या बताऊं बेटा, जगमला… मेरी पोती 9वीं जमात में चली गई है. उसी को साइकिल मिलने वाली है. उसी की रसीद लाने गया था. परेशान हो गया बेटा. कोई साइकिल का दुकानदार रसीद देने को तैयार ही नहीं था. सब को कमीशन चाहिए. पहले ही अगर चैक मिल जाए तो इतनी परेशानी न हो.

‘‘यह सरकार भी न, पहले रसीद स्कूल में जमा करो, फिर जा कर आप को चैक मिलेगा. जब साइकिल के पैसे देने ही हैं तो दे दो, रसीद क्यों मांगते हो? उन पैसों का कोई भोज थोड़े न कर लेगा, साइकिल ही लाएगा. आजकल के बच्चेबच्चियों को भी पता है कि सरकार उन्हें पैसे देती है वे खरीदवा कर ही दम लेते हैं, चैन से थोड़े न रहने देते हैं.’’

‘‘हां चाचा, पर जगमला तो लड़की है. वह साइकिल चलाए, यह शोभा थोड़े न देगा,’’ इमरान ने ताना मारा.

‘‘अरे नहीं बेटा, उस का स्कूल बहुत दूर है. नन्ही सी जान कितना पैदल चलेगी. स्कूलट्यूशन सब करना पड़ता है, साइकिल रहने से थोड़ी आसानी होगी. और देखो, आजकल जमाना कहां से कहां पहुंच गया है. पढ़ेगी नहीं तो अच्छे रिश्ते भी नहीं मिलेंगे.’’

‘‘पर, आप ही तो कल हरी चाचा की बेटी के बारे में कह रहे थे कि पढ़ कर कलक्टर बनेगी क्या?’’ इमराने ने फिर ताना मारा. इस बार बादो चाचा ने कोई जवाब नहीं दिया.

इमरान ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चाचा, जैसा आप अपनी पोती के बारे में सोचते हो, वैसा ही दूसरों की बेटियों के बारे में भी सोचा करो. याद है, मेरे बचपन में आप ताने मारते थे जब मेरे साथ गांव की कुछ लड़कियां भी साइकिल चलाना सीखती थीं और आज खुद अपनी पोती की साइकिल खरीदने के लिए इतनी मेहनत कर रहे हो.

‘‘समय बदल रहा है चाचा, अपनी सोच भी बदलो. गांव में अगर साधन हों तो बच्चियां ट्रेन से पढ़ने क्यों जाएंगी? मजबूरी है तभी तो जा रही हैं. अभी ताने मारते हो और भविष्य में जब खुद पर आएगी तो उसी को फिर सराहोगे.

‘‘क्या पता हरी चाचा की बेटी सच में कलक्टर बन जाए. और नहीं तो कम से कम गांव में ही कोचिंग सैंटर खोल ले, तब शायद आप की जगमला को इस तरह बाजार न जाना पड़े…’’

तभी बीच में सत्तो चाचा कहने लगे, ‘‘लड़कियों की पढ़ाईलिखाई तो सिर्फ इसलिए है बेटा कि शादी के लिए कोई अच्छा सा रिश्ता मिल जाए, हमें कौन सा डाक्टरइंजीनियर बनाना है या नौकरी करवानी है.

‘‘आजकल जिस को देखो, अपनी बहूबेटियों को मास्टर बनाने में लगा हुआ है. उस के लिए आसानआसान तरीके ढूंढ़ रहा है. नौकरी करेंगी, मर्दों के साथ उठनाबैठना होगा, घर का सारा संस्कार स्वाहा हो जाएगा. यह सब लड़कियों को शोभा नहीं देता.’’

इमरान ने कहा, ‘‘चाचा, अगर सब आप की तरह सोचने लगे तो अपनी बहूबेटियों के लिए जो लेडीज डाक्टर ढूंढ़ते हो, वे कहां से लाओगे? घर की औरतें खेतों में जा कर मजदूरी करें, बकरियां चराएं, चारा लाएं, जलावनचुन कर लाएं, यह शोभा देता है आप को…

‘‘ऐसी औरतें आप लोगों की नजरों में एकदम मेहनती और आज्ञाकारी होती हैं पर पढ़ीलिखी, डाक्टरइंजीनियर या नौकरी करने वाली लड़कियां संस्कारहीन हैं.

‘‘क्या खेतखलिहानों में सिर्फ औरतें ही काम करती हैं? वहां भी तो मर्द रहते हैं. बचपन से देख रहा हूं कि चाची ही चाय की दुकान संभालती हैं. रघु चाचा की तो रात वाली उतरी भी नहीं होगी अभी तक. यहां भी तो सिर्फ मर्द ही रहते हैं और यहां पर कितनी संस्कार की बातें होती हैं, यह तो आप सब भी जानते हो.’’

यह सुन कर सब चुप. किसी ने कोई सवालजवाब नहीं किया. इमरान वहां से चला गया.

2 दिन बाद जब इमरान सुबहसुबह ट्रेन पकड़ने जा रहा था तो उस ने देखा कि स्टेशन जाने के रास्ते में जो मैदान पड़ता था वहां बादो चाचा अपनी पोती को साइकिल चलाना सिखा रहे थे.

चाचा की नजरें इमरान से मिलीं और वे मुसकरा दिए. चाय की दुकान पर कही गई इमरान की बातें उन पर असर कर गई थीं.

मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं अपनी युवा बेटी को पीरियड्स के बारे में कैसे बताऊं

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी शादी को कुछ ही साल हुए थे जब मेरी पत्नी अचानक चल बसी. मेरी एक बेटी है जिसे मैं ने अपनी पत्नी के जाने के बाद बहुत प्यार से पाला है. मैं ने उस की हर फरमाइश पूरी करने की कोशिश की है और उसे अपनी मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. जैसेजैसे मेरी बेटी की उम्र बढ़ रही है, वैसेवैसे मेरी चिंता भी बढ़ती जा रही है. कभीकभी तो मैं पूरी रात बस यही सोचता रहता हूं कि मैं अपनी बेटी का अकेले कैसे खयाल रखूंगा क्योंकि मां अपनी बेटियों के साथ फ्रैंक होती हैं और बेटियां भी अपनी मां से हर तरह की बातें कर लेती हैं. तो ऐसे में मेरी बेटी मुझ से अपनी परेशानियों के बारे में कैसे बात कर पाएगी जोकि अब बङी हो चुकी है? मैं उसे पीरियड्स के बारे में भी कैसे बताऊं? आप ही कुछ सलाह दीजिए?

जवाब –

एक पिता अपनी बेटी से हर वह बात नहीं कर सकता जो उस की मां कर सकती है और बेटियां भी अपने पिता से ऐसी बातें करने में शरमाती हैं जो कि बिलकुल गलत नहीं है. हमारे देश में बेटियां बाप की इज्जत करना अच्छी तरह जानती हैं और शुरुआत से ही बेटियों के मन में पिता के लिए एक डर और शर्म होती है। उन्हें अपनी मां से बात करना ज्यादा पसंद होता है.

जैसाकि आप ने बताया कि आप की पत्नी का देहांत हो चुका है और काफी समय से आपने ही अपनी बेटी को मांबाप दोनों का प्यार दिया है तो ऐसे में यह जिम्मेदारी भी आप की ही बनती है कि आप अपनी बेटी को हर तरह की जानकारी दें जोकि उस के लिए जरूरी है. आप अपनी बेटी के पिता के साथसाथ एक अच्छे दोस्त बन कर रहें.

अपनी बेटी के मन से अपने लिए डर या संकोच बिलकुल खत्म कर दें और अपनी बेटी को इस बात का विश्वास दिलाएं कि वे आप से हर तरह की बात कर सकती है और अपनी हर परेशानी आप के साथ शेयर कर सकती है.

आप उस की परेशानियों को हमेशा समझें और उस के साथ कदम से कदम मिला कर चलें. अपनी बेटी को समझाएं कि आप के होते उस को किसी बात की परेशानी नहीं होगी.

रही पीरियड्स की बात, तो पीरियड्स के बारे में बात करना कोई गलत बात नहीं है. पहले के जमाने में लोग पीरियड्स के बारे में बात करने से शरमाते थे पर इस आधुनिक जमाने में लोग पीरियड्स के बारे में खुल कर बात करते हैं और अपने बच्चों को इस की जानकारी भी देते हैं.

आप भी अपनी बेटी से बिना हिचक पीरियड्स के बारे में बताएं और पीरियड्स की जानकारी देने वाली वीडियोज भी दिखाएं. अपनी बेटी को बताएं कि पीरियड्स प्राकृतिक है, इस से घबराएं नहीं.

हां, आप चाहें तो इस के लिए अपनी बहन, मौसी, ताई या फिर घर की बुजुर्ग औरतों से भी मदद ले सकते हैं. वे आप की बेटी को समयसमय पर समझाती रहेंगी.

कुछ समय बाद बेटी खुद समझदार हो जाएगी और महिला संबंधी इन परेशानियों से खुद ही अपनी दोस्तों, परिजनों से पूछ कर समाधान कर लेगी.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

मैं सत्यवती नहीं बनूंगी

पुराने समय से लोग कुंडली ही मिलाते आए हैं शादी के लिए. लेकिन कुंडली से ज्यादा जरूरी है विचार मिलना और वैचारिक स्तर पर दोनों (लड़का लड़की) में ट्‌यू‌निंग होना, तभी शादियां सफल हो सकती हैं. रही बात रुपएपैसे की, आर्थिक संपन्नता की, तो मेरा विचार है, पैसा सबकुछ नहीं होता है, बहुतकुछ हो सकता है लेकिन सबकुछ नहीं. रुपयों का पहाड़ हो घर में और रिश्तों में धोखा हो, मनमरजी हो, कपट हो तो ऐसे रिश्ते सिर्फ ढोए जा सकते हैं, निभाए नहीं. हमारे देश की कानून व्यवस्था लचर है, तलाक लेना भी चाहें तो बरसोंबरस लग जाते हैं.

आसानी से तलाक नहीं मिलता. जरूरत है कानून व्यवस्था भी सुधारी जाए. जहां रिश्ते बोझ बनने लगे वहां तलाक आसानी से मिले.

साथियो, कोई पति, पत्नी नहीं चाहते रिश्तों को खत्म करना लेकिन जब रिश्तों में दम घुटने लगे, व्यक्ति सांस भी न ले पाए तो तलाक बेहतर होगा.

चूंकि तलाक की प्रक्रिया बहुत ही जटिल और लंबी होती है, इसलिए वर्तमान पीढ़ी ने ‘लिवइन’ का जो रास्ता चुना है उस का मैं समर्थन करती हूं. लेकिन सोचसमझकर इस रिश्ते को चुनें, जिस से कि आप सुरक्षित रह सकें और जीवन अच्छे से बिता सकें. धन्यवाद. और मंजरी मंच से नीचे उतर गई.

तालियों का शोर, वाओ.

डिबेट कंपीटिशन में मंजरी विजेता घोषित कर दी गई. कालेज के डिबेट कंपीटिशन का विषय था, ‘लिवइन रिलेशनशिप समाज व संस्कृति के लिए घातक है.’ इस के पक्ष में मंजरी का भाषण था.

विपक्ष में जिसे विजेता घोषित किया गया था वह था मानस, जिस ने संस्कृति और समाज पर लिवइन के नुकसान बताए थे. इस से हमारे समाज पर बुरा प्रभाव पड़ेगा. समाज में स्वच्छंदता का वातावरण होगा, बच्चे अपनी संस्कृति को भूलेंगे, समाज का पतन होगा.

मंजरी के लिए प्रथम आना बड़ी बात नहीं थी. उस की स्पीच, तर्क, बोलने का ढंग इतना शानदार होता था कि कालेज के स्टूडैंट मंत्रमुग्ध हो कर सुनते थे. यों कहें तो वह कालेज की हीरोइन थी. मंजरी बीए औनर्स की सैकंड ईयर की स्टूडैंट थी. मानस सांइस का स्टूडैंट था. मानस और मंजरी का कोई तालमेल नहीं था. दोनों के विचार विपरीत थे.

मंजरी को बधाई देने वालों की भीड़ सी लग गई थी. शायद इसी बहाने से मंजरी से फ्रैंडशिप हो जाए. बधाई देने वालों की भीड़ जब छंटी तो मानस सामने था. उस ने भी हाथ बढ़ाया.

“थैंक्यू मानस,” कहती हुई मंजरी आगे निकलने लगी.

“मंजरी, क्या हम कौफी पी सकते हैं कालेज की कैंटीन में?” मानस ने पूछा.

“क्यो नहीं, श्योर,” मंजरी बोली. उस ने सोचा पहली बार मानस ने कहा है. कालेज आतेजाते, कालेज के गार्डन मे अनेक बार टकराए हैं लेकिन हैलोहाय से ज्यादा कभी बात नहीं की.

मंजरी अपनी फ्रैंड्स के साथ रहती थी. मानस भी अपने फ्रैंड्स के साथ.

डिबेट कंपीटिशन संडे को रखा गया था लेकिन कैंटीन खुली थी. पूरा कालेज रेशमी एहसास से भरा था. हंसतीखिलखिलाती लड़कियांलड़के, दूसरे कालेजों के स्टूडेंट भी थे जो डिबेट कंपीटिशन को सुनने आए थे.

सब्जैक्ट ने सब को अपनी ओर खींचा था- ‘लिवइन…’ ने. कैंटीन में खासी भीड़ थी.

सभी लिवइन पर ही चर्चा कर रहे थे. मंजरी को जैसे ही देखा, कुछ स्टूडैंट मंजरी को घेर कर खड़े हो गए.

“क्यों मंजरी, तुम लिवइन के फेवर में हो तो शादी करोगी या फिर किसी के साथ लिवइन में रहने का मूड बना रखा है?” और जोरदार ठहाकाहंसी की आवाजें.

“वैसे, मंजरी बहुत सुंदर बोलती हो,” एक स्टूडैंट बोली.

“अब कौफी पी लें, इस टौपिक पर फिर कभी बात कर लेंगे,” मंजरी बोली और मानस के साथ कूपन काउंटर की ओर बढ़ गई.

मानस कौफी के साथ सैंडविच भी लाया था. कौफी की भाप दोनों के बीच चिलमन का काम कर रही थी. दोनों आज पहली बार इतनी करीब से एकदूसरे को देख रहे थे.

उन्नीस वर्षीय मंजरी को गोरा नहीं कहा जा सकता था, उसे बादामी रंगत वाला कह सकते हैं. ऊंचा कद, बादामी रंगत, खुले बाल, जींस पर कमर तक टौप और हंसते समय दोनों गालों पर पड़ने वाले डिम्पल उस की सुंदरता में जादू जगाते थे. बस, उस दिन से मानस गालों के इन डिंपलों में उलझने लगा था. उस को दिल पहली बार धड़कता हुआ महसूस होने लगा था. लड़‌कियों के बीच मानस असहज नहीं होता था पर आज उस को कंफर्टेबल फील नहीं कर पा रहा था-

मंजरी की हंसी, बालों का रेश्मीपन, दांए हाथ में पहना गोल्ड ब्रेसलेट जिसे मंजरी रहरह कर छू रही थी.

मानस को कोई टौपिक नहीं सूझ रहा था, मंजरी से क्या बात करे. तभी उसे ब्रेसलेट दिख गया. उस ने पूछा, “मंजरी, ब्रेसलेट बहुत प्यारा है, कहां से खरीदा है? देख सकता हूं?”

“क्यों नहीं. देखो,” कहते हुए मंजरी ने ब्रेसलेट हाथ से उतार कर मानस के हाथ में दे दिया.

मानस बड़ी देर तक उस की डिजायन, खूबसूरती को देखता रहा. फिर जैसे ही ब्रेसलेट देने के लिए उस ने हाथ आगे बढ़ाया, मंजरी ने हाथ आगे कर दिया.

मानस ने मंजरी की कलाई में ब्रेसलेट पहना दिया. उस की उंगलियां मंजरी की कलई को स्पर्श कर गईं. एक रेशमी छुअन का एहसास.

कौफी खत्म हो रही थी.

“मानस चलें, लेट हो रहा है,” कहती हुई मंजरी उठ खड़ी हुई.

“चलो पार्किंग तक साथ चलते हैं,” मानस बोला.

“चलो,” मंजरी बोली.

कैंटीन से पार्किंग तक का रास्ता खामोशी से निकला. मंजरी ने अपनी एक्टिवा निकाली. मानस ने अपनी कार.

कार स्टार्ट करतेकरते मानसम बोला, “बाय मंजरी, कल मिलते हैं.”

“बाय मानस,” कहते हुए मंजरी ने एक्टिवा स्टार्ट कर दी थी.

मंजरी का घर जौनपुर की एक पौश कालोनी में था. मंजरी एक उच्चमध्यवर्गीय परिवार की लड़की थी. पिता डाक्टर थे. मां एक सच्ची, सफल गृहिणी थी. परिवार में मंजरी के अलावा 2 भाई थे- एक की शादी हो चुकी थी, वह दुबई में रहता था. एक भाई 12वीं में था. मंजरी का परिवार खुले माहौल का पक्षधर था.

डा. विश्वास खुल कर बात करने में विश्वास रखते थे. परिवार किसी भी प्रकार के अंधविश्वास और रूढ़ियों से दूर रहता था. मंजरी को भी यह सजगता, साहस अपने परिवार से मिला था.

जब मंजरी अपनी ट्रौफी, मैडल लिए घर पहुंची तो भाई अतुल इंतजार कर रहा था.

“अरे वाह, मंजरी, आज तो पार्टी पक्की रही,” अतुल ने जल्दी से ट्रौफी-मैडल हाथ में लिया और उस के साथ सैल्फी लेने लगा.

मंजरी हंसती हुई अपने रूम में गई. कपड़े चेंज कर के आ गई. मां ने नाश्ता तैयार कर लिया था.

“मम्मी, नाश्ता नहीं करूंगी, मानस के साथ कैंटीन में कौफी और सैंडविंच खा लिया था.”

“मानस तेरी क्लास में है?” मां ने सवाल किया.

“नहीं, मम्मी, वो बधाई देने वालों में था. मानस साइंस का स्टूडैंट है.”

“मंजर, आज तुम कंपीटिशन में जीती हो, आज तो डिनर बाहर बनता है,” अतुल बोला,

“हां, क्यों नहीं, पहले पापा को आने दे फिर,” कह कर मंजरी आज वाले पिक्स सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगी. देखतेदेखते लाइक्स, कमैंटस आने चालू हो गए.

डा. विश्वास किसी पेशेंट को देखने गए थे, इसलिए उन को फोन करना भी उचित नहीं था. लगभग घंटेभर बाद डा. विश्वास आ गए थे. सब से पहले मंजरी को ढेर सारी बधाई दीं. “यों ही आगे बढ़ती रहो, विजेता बनती रहो.”

मंजरी पापा के लाड़ मे इतराते हुए बोली, “पापा, डिनर बाहर करेंगे.”

“बस, इतनी सी बात, जरूर करेंगे. ठीक है,” कह कर डा. विश्वास वापस क्लिनिक में चले गए. घर के ठीक बाहर क्लीनिक था. कोई पेशेंट घर बुलाता था, तो वहां भी जाते थे.

जब रात के लगभग साढ़े 9 बजे डा. विश्वास पेशेंट से फ्री हो कर घर के अंदर आए तो डिनर के लिए सभी तैयार थे.

“पापा, जल्दी से चेंज कर लीजिए,” मंजरी बोली.

“बस, दस मिनट में रेडी हो कर आता हूं.” कुछ ही देर में डा. विश्वास तैयार हो कर घर से निकल गए.

जौनपुर का वह प्रसिद्द होटल सुपर सत्यम रैस्टोरैंट था.

कार पार्किंग में रोक कर जब सब वहां पहुंचे तो मंजरी बहुत खुश थी. रहरह कर उस की आंखों के सामने मानस का चेहरा घूम जाता था. उस के हाथों की छुअन उसे याद आ रही थी.

सब जा कर टेबल पर जम गए. मंजरी को यह होटल और यहां का डिनर पसंद था.

पानी की बोतलें रखने के बाद वेटर मीनू रख गया था. रैस्टोरैंट की खूबसूरती देखते बनती थी.

मंजरी मीनू देखने में व्यस्त थी.

“अरे, मंजरी, आज का दिन बहुत लकी है. आप से दोबारा मुलाकात होगी, सोचा भी न था.”

मंजरी ने नजर उठाई, तो सामने मानस खड़ा था.

“अरे, मानस, तुम भी यहां,” मंजरी बोली.

डा. विश्वास दोनों को देख रहे थे, बोले, “मंजरी, तुम जानती हो इन्हें?”

“हां पापा, यह मानस है, मेरे कालेज में साइंस का स्टुडैंट है.”

“अरे वाह, यह तो अच्छी बात है,” डा. विश्वास बोले.

“नमस्ते अंकलजी,” कहते हुए मानस ने डा. विश्वास के पैर छू लिए.

“जीते रहो बेटा, जीते रहो,” विश्वास खुश हो गए, “ऐसे अच्छे संस्कार, कैसे आए? दोस्तों के साथ?” डा. विश्वास ने सवाल किया.

“मम्मीपापा के साथ, छोटी सिस्टर भी साथ है,” मानस बोला.

“बेटा, तुम्हें दिक्कत न हो, साथ में डिनर कर लें,” डा. विश्वास बेटी मंजरी के चेहरे पे छाई खुशी की लालिमा को महसूस कर रहे थे.

उन की बातचीत होते देख कर मानस के मम्मीपापा भी नजदीक आ गए थे. दोनों परिवारों का आपस में परिचय हुआ.

मानस का परिवार भी संपन्न था. शहर में कई शोरूम थे और प्रौपर्टी का भी बिजनैस था. मानस की छोटी बहन हिमानी 10वीं की स्टूडैंट थी. खूब सैल्फियों का दौर चला.

डिनर भी सब की मिलीजुली पसंद का मंगवाया गया- सब्जी, कोरमा, मशरूम, मसाला, मखनी पनीर, बिरियानी, स्टफ्ड नौन, मिक्स वैजिटेबल सलाद.

मानस के परिवार को मंजरी का परिवार पसंद आया था. इस मुलाकात के बाद मानस मंजरी की बातें बढ़ने लगीं, बाहर मुलाकातें भी होने लगीं.

जौनपुर के किले की कभी सैर की जाती, तो कभी कौफीहाउस के गुलाबी अंधेरे भले लगते. कभी कोई मूवी देखने जाते तो कभी फ्लौवर एक्जीबिशन में.

कालेज में भी ढेरो बातें होतीं. घंटों साथ रहना और कभी घंटों साथ रहते तो भी कोई बात न होती, सिर्फ खामोशी पसरी रहती दोनों के बीच. न जाने कौन सी भाषा होती जिस से बातें होतीं दोनों की खामोशी से. त‌भी किसी ने कहा है, शायद, मोहब्बत की जबां नहीं होती.

मानस एक दिन बोला, “मंजरी, तुम स्टेज पर कितना अच्छा बोलती हो, हर विषय पर कितनी पकड़ है तुम्हारी लेकिन मुझ से तुम ज्यादा बात नहीं करती हो. बस, जी अच्छा, हां या न के अलावा कुछ नहीं बोलती हो.”

“अच्छा,” मंजरी मुसकरा कर बोली.

“मैं परेशान हो उठता हूं तुम्हारी खामोशी से,” मानस बोला.

मंजरी खिलखिला कर हंस दी. मानस देखता रह गया उस की हंसी को जैसे छोटेछोटे घुंघरू बज उठे हों. वह देखता रहा एकटक.

“क्या देख रहे हो?” मंजरी ने मानस का हाथ अपने हाथ में लिया.

मानस के पूरे शरीर मे बिजली दौड़ गई. उस ने मंजरी के हाथ को पकड़ कर उस पर अपनी प्रेममोहर लगा दी. फिर अचानक से हाथ छोड़ दिया कहीं कोई देख तो नहीं रहा.

ऐसे ही खुशबूभरे दिन उड़ते रहे. कहते हैं सुख के दिन पंख लगा कर आते हैं, जल्दी ही उड़ भी जाते हैं जबकि दुख की एक रात भी बहुत लंबी होती है.

मानस को पढाई सिर्फ डिग्री के लिए करनी थी. वह जानता था कि उस के पापा के साथ उसे बिजनैस ही देखना था. यों भी, वह नौकरी के पक्ष में बिलकुल नहीं था. एक बंधीबंधाई रकम के बजाय उसे तो रुपयों का ढेर पंसद था, जो उस के पास था ही, इसलिए उसे इस की ज्यादा परवा नहीं थी. उस की दौलत से प्रभावित कई युवतियां मानस के करीब जाने की कोशिश कर चुकी थीं. पर मानस मंजरी के गालों के भंवर में डूब चुका था. मानस को दौलत का नशा भी था. उसे लगता था, उसूल,चरित्र, सत्य नैतिकता, आदर्श, सिद्धांत सब किताबी बाते हैं.

मंजरी को पढ़ने में रुचि थी. वह प्रोफैसर बनना चाहती थी. इस के लिए उस ने मानस को बताया हुआ भी था. मानस को यह विश्वास था, मंजरी जब उस से शादी करेगी, प्रोफैसर बनना, पढ़नालिखना सब भूल जाएगी.

हुआ भी वही जो मानस ने सोचा था. कालेज में मंजरी का अंतिम वर्ष था. दोनों का मिलनाजुलना, प्रेम पूरे कालेज में फेमस हो गया था. सब को पता था दोनों ही संपन्न परिवार के हैं. कोई अड़चन नहीं आएगी. ऐसा ही हो भी गया. मंजरी का रिजल्ट आने से पहले ही मानस अपनी मम्मीपापा को ले कर मंजरी के घर पहुंच गया.

डा. विश्वास की विशाल कोठी, अंदर से उस की भव्यता देख मानस की मां बड़ी खुश हुई.

चाय, कौफी के साथ भुने काज़ुओं, गरम पकौड़ों के साथ चर्चा शुरु हुई. डा. विश्वास ने कहा, “मंजरी को तो प्रोफैसर बनना है. यह मंजरी का सपना है. बाकी का डिसीजन तो मंजरी को लेना है.”

“डा. साहब, पढ़ाई तो वहां भी कर सकती है, प्रोफैसर ही तो बनना है. आप तो मंजरी को हमें दे दो. दोनों बच्चे एकदूसरे को पसंद भी करते हैं.”

“मंजरी बेटे,” डा. विश्वास ने पुकारा.

मंजरी वहां नहीं थी. घर के गार्डन में मंजरी मानस के साथ गुलाबों को निहार रही थी. दोनों साथ ही अंदर पहुंचे.

“मंजरी बेटा, तुम्हारा क्या फैसला है शादी का?” डा. विश्वास ने पूछा.

मंजरी शरमा कर पापा के गले लग गई.

डा. विश्वास को जवाब मिल गया था.

दोनों परिवारों ने शादी की तैयारियां शुरू कर दी थीं. मानस के परिवार को यकीन था, ढेर सारा दहेज मिलेगा, डाक्टर की लड़की है.

रिसैप्शन में शहर के जानेमाने डाक्टर और धनी लोग थे. भव्य फाइवस्टार होटल ‘प्लाज़ा’ में रिसैप्शन था. डा. विश्वास ने दहेज के नाम पर कुछ भी नहीं दिया था. मंजरी का परिवार इन बातों के खिलाफ़ था.

शादी के कुछ दिनों बाद ही मानस, मंजरी सिंगापुर चले जाते हैं. जौनपुर से वाराणसी टैक्सी से, फिर वाराणसी से सिंगापुर फ्लाइट से.

हनीमून के समय ही मंजरी को यह भी मालूम पड़ा कि मानस की बहुत सी महिला मित्र हैं. लेकिन आज के युग मैं यह सब सामान्य था. मंजरी के भी कई लड़के मित्र कभीकभी हालचाल ले लिया करते थे. शादी में मंजरी व मानस के लगभग सभी फ्रैंड्स आए थे. लड़कियों को तो मंजरी से जलन भी थी. शानदार जोड़ी की सभी ने तारीफ की थी.

हनीमून की खुमारी में दोनों ही एकदूसरे में डूबे हुए थे. मानस के मोबाइल में मधुर आवाज ने दोनों को खुमारी से जगा दिया. मानस ने देखा, मां की कौल थी.

“हां मां,” मानस ने मंजरी के बालों को सहलाते हुए कहा.

“बेटा, वापसी कब की है? करवाचौथ आ रहा है, बहू का पहला करवाचौथ है. व्रत करना है,” मां बोली.

“मां कब करवाचौथ है?” मानस ने पूछा.

“बेटा, 25 अक्टूबर को है,: मां बोली.

“23 की फ्लाइट है, हम 24 तक पहुंच जाएंगे,” मानस बोला.

मंजरी चुपचाप सुन रही थी.

“जानू, मां को करवाचौथ की चिंता लगी हुई है,” मानस बोला. मंजरी फिलहाल बहस नहीं करना चाहती थी, चुप रही.

वे दोनों जब घर पहुंचे तो देखा, बहुत जी महिलाएं आई हुई हैं. ब्यूटीपार्लर वाली भी आई हुई है अपनी 2 असिस्टैंट के साथ. मेहंदी लगाई जा रही है, कपड़े, ज्वैलरी की चर्चा चल रही है.

“बहू, मेहंदी वाली शाम तक यहीं है. तुम आराम कर लो, शाम को मेहंदी लगवा लेना.”

“मां, मुझे यह पसंद नहीं है,” मंजरी सीधी भाषा में प्यार से बोली.

“बेटा, कल पहला करवाचौथ है तुम्हारा, कैसी बातें करती हो?” मानस की मां आश्चर्य से बोली. बाकी सब महिलाएं देखने लगीं.

“मां, तुम मेहंदी लगाओ, मैं बाद में बात करूंगा,” कह कर मानस मंजरी को अपने कमरे में ले कर आ गया.

मानस ने कहा फ्रैश हो जाओ, रैस्ट करो,” कह कर खुद भी फ्रैश होने चला गया.

मंजरी खुश हो गई कि मानस समझता है. मंजरी फ्रैश होने के बाद कपड़े चेंज कर कौफी पी कर सो गई.

शाम होने पर दोनों उठे. मानस बोला, “मंजरी, जाओ मेहंदी लगवा लो. अब तो थकान भी दूर हो गई होगी.”

“क्या?” मंजरी ने आश्चर्य से कहा.

“कल करवाचौथ की तैयारी नहीं करोगी, मेरे लिए व्रत नहीं रखोगी?” मानस उसे गले लगा कर बोला,

“अरे नहीं, मैं ये बेसिरपैर के व्रत पसंद नहीं करती,” मंजूरी ने अपने से उसे दूर करते हुए कहा.

“बेसिरपैर, मतलब? यह व्रत मेरे जीवन से जुड़ा है,” मानस बोला.

“देखो मानस, व्रत रखा जाए तो दिल से रखा जाए, जहां व्रत में श्रद्धाविश्वास हो वही व्रत रखना चाहिए. मेरा विश्वास नहीं है व्रत में,” मंजरी ने एक बार दोबारा कोशिश की.

“मैं कुछ नहीं जानता, तुम को व्रत रखना चाहिए बस,” इतना कह कर वह गुस्से में दरवाज़े से बाहर चला गया.

मंजरी चुपचाप बैठी रही अपने कमरे में.

बहुत देर तक मंजरी बाहर नहीं आई, तो उस की सास और रिश्ते की कुछ महिलाएं मंजरी के पास उस के कमरे में गईं.

“मंजरी बेटे, मेहंदी लगवा लो. सभी ने लगा ली है, तुम ही रह गई हो,” एक महिला बोली.

“मुझे मेहंदी लगवाने में कोई दिक्कत नहीं. लेकिन में व्रत नहीं रखूंगी,”

मंजरी साफ शब्दों में बोली.

“प्रौब्लम क्या है, मंजरी?” मानस अंदर आतेआते बोला.

“एक के व्रत रखने से दूसरे की उम्र नहीं बढ़ती. यह कथा तथ्यहीन है, कहीं सत्यवती नाम है, कहीं करवा बताया गया है? तीसरी बात, पति की डैडबौडी पत्नी ने सालभर सुरक्षित रखी, सालभर बाद व्रत रखने से पति जीवित हो गया. इस पर तुम को कैसे यकीन होता है? मानस, तुम तो एजुकेटेड हो,” मंजरी ने पूछा.

“देखो, मैं नहीं जानता ये सब, व्रत तो तुम्हें करना पड़ेगा वरना मुश्किल है तुम्हारीहमारी निभनी.”

“मुझे कोई दिक्कत नहीं, लेकिन इन ढकोसलों में विश्वास नहीं है मेरा,” मंजरी बोली.

“तो क्या मुझ से प्रेम नहीं करतीं?” मानस बोला.

“प्रेम अपनी जगह है,” मंजरी बोली.

“अगर प्रेम करती हो तो प्रेम की खातिर व्रत भी करो, समझीं,”

मानस बोला.

“मानस, मुझे भेड़चाल में चलना पसंद नहीं.”

“देखो, फिर करवाचौथ तुम अपने घर में मना लो इस बार. करवाचौथ के बाद वापस ससुराल आ जाना,” मानस ने फैसला सुनाते हुए कहा. साथ ही, उस ने मंजरी के पापा को फोन कर दिया. फिर घर से बाहर निकल गया.

मंजरी के पापा डा. विश्वास ने आ कर समस्या सुनी. उन्होंने मंजरी की सास से कहा, “हम किस युग में हैं, यह तो देखिए.”

“युग बदलने से क्या संस्कार-रीतिरिवाज बदल दें, समधीजी? कैसी बात करते हो आप?”

“लेकिन आप सोचिए, क्या यह संभव है? कब तक ढोते रहेंगे हम सड़ेगले रिवाजों को?” डा. विश्वास बोले.

“समधीजी, आप भी महिलाओं के मामले में उलझ गए,” अपने कमरे से मंजरी के ससुर आतेआते बोले.”

“सवाल महिलाओं के मामले का नहीं है, समधी जी, सवाल विश्वास और श्रद्धा का है. अगर मंजरी को इस पर भरोसा नहीं तो प्रैशर क्यों बनाया जाए?” डा. विश्वास बोले.

“समधीजी, सावित्री सत्यवान के प्राण यमराज से वापस ले आई थी. सत्यवती ने पति को सालभर बाद जीवित कर दिया, यह क्या गलत है? हम अपनी संस्कृति भूल जाएं?

“फिर आप खुद सोचिए, मंजरी और मानस हनीमून से अभी वापस लौटे हैं, महीनाभर भी नहीं हुआ शादी को, समाज क्या कहेगा?” मंजरी की सास बोली.

“मानस कहा है? मंजरी उन्हें बुलाओ”, डा. विश्वास बोले.

“पापा, वे गुस्से में बाहर निकल गए आप को फोन कर के,” मंजरी बोली.

“समधीजी, मानस गुस्से में बाहर चला गया है, मूड सही होगा तो आएगा. कुछ दिनों के लिए मंजरी को ले जाइए,” ससुर बोले.

“ले जाने से पहले एक बार जरूर सोचिए, मंजरी को दाग लग गया है शादीशुदा होने का. घर ले जाने से बदनामी होगी आप की,” सास बोली.

“शरीर के 2 इंच हिस्से से पवित्रअपवित्र कुछ नहीं होता. आप की सोच है, मेरी नहीं,” डा. विश्वास बोले.

“एक बार फिर सोचिए, पति को खुश करने के लिए व्रत रख भी लिया तो क्या हुआ?” ससुर बोले.

“आगे भी सालभर ये सब चलता रहेगा, क्या गलत बोल रहा हूं मैं?” डा. विश्वास ने पूछा, हमारे संस्कार हैं, सालभर व्रतत्योहार चलते भी हैं तो बुरा क्या है?” ससुर बोले.

“ठीक है. मंजरी, अब तुम ही बोलो, क्या फैसला है तुम्हारा,” डा. विश्वास ने मंजरी को देखा.

“पापा, मैं सत्यवती नहीं बनूंगी.”

मंजरी ने पापा का हाथ पकड़ा और घर के बाहर आ गई.

मैं झूठ नहीं बोलती : लेकिन सच बोल कर बुरा कौन बनना चाहता है

जब से होश संभाला, यही शिक्षा मिली कि सदैव सच बोलो. हमारी बुद्धि में यह बात स्थायी रूप से बैठ जाए इसलिए मास्टरजी अकसर ही  उस बालक की कहानी सुनाते, जो हर रोज झूठमूठ का भेडि़या आया भेडि़या आया चिल्ला कर मजमा लगा लेता और एक दिन जब सचमुच भेडि़या आ गया तो अकेला खड़ा रह गया.

मां डराने के लिए ‘झूठ बोले कौआ काटे’ की लोकोक्ति का सहारा लेतीं और उपदेशक लोग हर उपदेश के अंत में नारा लगवाते ‘सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला.’ भेडि़ये से तो खैर मुझे भी बहुत डर लगता है बाकी दोनों स्थितियां भी अप्रिय और भयावह थीं. विकल्प एक ही बचा था कि झूठ बोला ही न जाए.

बचपन बीता. थोड़ी व्यावहारिकता आने लगी तो मां और मास्टरजी की नसीहतें धुंधलाने लगीं. दुनिया जहान का सामना करना पड़ा तो महसूस हुआ कि आज के युग में सत्य बोलना कितना कठिन काम है और समझदार बनने लगे हम. आप ही बताओ मेरी कोई सहकर्मी एकदम आधुनिक डे्रस पहन कर आफिस आ गई है, जो न तो उस के डीलडौल के अनुरूप है न ही व्यक्तित्व के. मन तो मेरा जोर मार रहा है यह कहने को कि ‘कितनी फूहड़ लग रही हो तुम.’ चुप भी नहीं रह सकती क्योंकि सामने खड़ी वह मुसकरा कर पूछे जा रही है, ‘‘कैसी लग रही हूं मैं?’’

‘अब कहो, सच बोल दूं क्या?’

विडंबना ही तो है कि सभ्यता के साथसाथ झूठ बोलने की जरूरत बढ़ती ही गई है. जब हम शिष्टाचार की बात करते हैं तो अनेक बार आवश्यक हो जाता है कि मन की बात छिपाई जाए. आप चाह कर भी सत्य नहीं बोलते. बोल ही नहीं पाते यही शिष्टता का तकाजा है.

आप किसी के घर आमंत्रित हैं. गृहिणी ने प्रेम से आप के लिए पकवान बनाए हैं. केक खा कर आप ने सोचा शायद मीठी रोटी बनाई है. बस, शेप फर्क कर दी है और लड्डू ऐसे कि हथौड़े की जरूरत. खाना मुश्किल लग रहा है पर आप खा रहे हैं और खाते हुए मुसकरा भी रहे हैं. जब गृहिणी मनुहार से दोबारा परोसना चाहती है तो आप सीधे ही झूठ पर उतर आते हैं.

‘‘बहुत स्वादिष्ठ बना है सबकुछ, पर पेट खराब होने के कारण अधिक नहीं खा पा रहे हैं.’’ मतलब यह कि वह झूठ भी सच मान लिया जाए, जो किसी का दिल तोड़ने से बचा ले.

‘शारीरिक भाषा झूठ नहीं बोलती,’ ऐसा हमारे मनोवैज्ञानिक कहते हैं. मुख से चाहे आप झूठ बोल भी रहे हों आप की आवाज, हावभाव सत्य उजागर कर ही देते हैं. समझाने के लिए वह यों उदाहरण देते हैं, ‘बच्चे जब झूठ बोलते हैं तो अपना एक हाथ मुख पर धर लेते हैं. बड़े होने पर पूरा हाथ नहीं तो एक उंगली मुख या नाक पर रखने लगते हैं अथवा अपना हाथ एक बार मुंह पर फिरा अवश्य लेते हैं,’ ऐसा सोचते हैं ये मनोवैज्ञानिक लोग. पर आखिर अभिनय भी तो कोई चीज है और हमारे फिल्मी कलाकार इसी अभिनय के बल पर न सिर्फ चिकनीचुपड़ी खाते हैं हजारों दिलों पर राज भी करते हैं.

वैसे एक अंदर की बात बताऊं तो यह बात भी झूठ ही है, क्योंकि अपनी जीरो फिगर बनाए रखने के चक्कर में प्राय: ही तो भूखे पेट रहते हैं बेचारे. बड़ा सत्य तो यह है कि सभ्य होने के साथसाथ हम सब थोड़ाबहुत अभिनय सीख ही गए हैं. कुछ लोग तो इस कला में माहिर होते हैं, वे इतनी कुशलता से झूठ बोल जाते हैं कि बड़ेबड़े धोखा खा जाएं. मतलब यह कि आप जितने कुशल अभिनेता होंगे, आप का झूठ चलने की उतनी अच्छी संभावना है और यदि आप को अभिनय करना नहीं आता तो एक सरल उपाय है. अगली बार जब झूठ बोलने की जरूरत पड़े तो अपने एक हाथ को गोदी में रख दूसरे हाथ से कस कर पकड़े रखिए आप का झूठ चल जाएगा.

हमारे राजनेता तो अभिनेताओं से भी अधिक पारंगत हैं झूठ बोलने का अभिनय करने में. जब वह किसी विपदाग्रस्त की हमदर्दी में घडि़याली आंसू बहा रहे होते हैं, सहायता का वचन दे रहे होते हैं तो दरअसल, वह मन ही मन यह हिसाब लगा रहे होते हैं कि इस में मेरा कितना मुनाफा होगा. वोटों की गिनती में और सहायता कोश में से भी. इन नेताओं से हम अदना जन तो क्या अपने को अभिनय सम्राट मानने वाले फिल्मी कलाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं.

विशेषज्ञों ने एक राज की बात और भी बताई है. वह कहते हैं कि सौंदर्य आकर्षित तो करता ही है, सुंदर लोगों का झूठ भी आसानी से चल जाता है. अर्थात सुंदर होने का यह अतिरिक्त लाभ है. मतलब यह भी हुआ कि यदि आप सुंदर हैं, अभिनय कुशल हैं तो धड़ल्ले से झूठ बोलते रहिए कोई नहीं पकड़ पाएगा. अफसोस सुंदर होना न होना अपने वश की बात नहीं.

गांधीजी के 3 बंदर याद हैं. गलत बोलना, सुनना और देखना नहीं है. अत: अपने हाथों से आंख, कान और मुंह ढके रहते थे पर समय के साथ इन के अर्थ बदल गए हैं. आज का दर्शन यह कहता है कि आप के आसपास कितना जुल्म होता रहे, बलात्कार हो रहा हो अथवा चोट खाया कोई मरने की अवस्था में सड़क पर पड़ा हो, आप अपने आंख, कान बंद रख मस्त रहिए और अपनी राह चलिए. किसी असहाय पर होते अत्याचार को देख आप को अपना मुंह खोलने की जरूरत नहीं.

ऐसा भी नहीं है कि झूठ बोलने की अनिवार्यता सिर्फ हमें ही पड़ती हो. अमेरिका जैसे सुखीसंपन्न देश के लोगों को भी जीने के लिए कम झूठ नहीं बोलना पड़ता. रोजमर्रा की परेशानियों से बचे होने के कारण उन के पास हर फालतू विषय पर रिसर्च करने का समय और साधन हैं. जेम्स पैटरसन ने 2 हजार अमेरिकियों का सर्वे किया तो 91 प्रतिशत लोगों ने झूठ बोलना स्वीकार किया.

फील्डमैन की रिसर्च बताती है कि 62 प्रतिशत व्यक्ति 10 मिनट के भीतर 2 या 3 बार झूठ बोल जाते हैं. उन की खोज यह भी बताती है कि पुरुषों के बजाय स्त्रियां झूठ बोलने में अधिक माहिर होती हैं जबकि पुरुषों का छोटा सा झूठ भी जल्दी पकड़ा जाता है. स्त्रियां लंबाचौड़ा झूठ बहुत सफलता से बोल जाती हैं. हमारे नेता लोग गौर करें और अधिक से अधिक स्त्रियों को अपनी पार्टी में शामिल करें. इस में उन्हीं का लाभ है.

बिना किसी रिसर्च एवं सर्वे के हम जानते हैं कि झूठ 3 तरह का होता है. पहला झूठ वह जो किसी मजबूरीवश बोला जाए. आप की भतीजी का विवाह है और भाई बीमार रहते हैं. अत: सारा बंदोबस्त आप को ही करना है. आप को 15 दिन की छुट्टी तो चाहिए ही. पर जानते हैं कि आप का तंगदिल बौस हर्गिज इतनी छुट्टी नहीं देगा. चाह कर भी आप उसे सत्य नहीं बताते और कोई व्यथाकथा सुना कर छुट्टी मंजूर करवाते हैं.

दूसरा झूठ वह होता है, जो किसी लाभवश बोला जाए. बीच सड़क पर कोई आप को अपने बच्चे के बीमार होने और दवा के भी पैसे न होने की दर्दभरी पर एकदम झूठी दास्तान सुना कर पैसे ऐंठ ले जाता है. साधारण भिखारी को आप रुपयाअठन्नी दे कर चलता करते हैं पर ऐसे भिखारी को आप 100-100 के बड़े नोट पकड़ा देते हैं. यह और बात है कि आप के आगे बढ़ते ही वह दूसरे व्यक्ति को वही दास्तान सुनाने लगता है और शाम तक यों वह छोटामोटा खजाना जमा कर लेता है.

कुछ लोग आदतन भी झूठ बोलते हैं और यही होते हैं झूठ बोलने में माहिर तीसरे किस्म के लोग. इस में न कोई उन की मजबूरी होती है न लाभ. एक हमारी आंटी हैं, उन की बातों का हर वाक्य ‘रब झूठ न बुलवाए’ से शुरू होता है पर पिछले 40 साल में मैं ने तो उन्हें कभी सच बोलते नहीं सुना. सामान्य बच्चों को जैसे शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है शायद उन्हें घुट्टी में यही पिलाया गया था कि ‘बच्चे सच कभी मत बोलना.’  बाल सफेद होने को आए वह अभी तक अपने उसी उसूल पर टिकी हुई हैं. रब झूठ न बुलवाए, इस में उन की न तो कोई मजबूरी होती है न ही लाभ.

सदैव सत्य ही बोलूंगा जैसा प्रण ले कर धर्मसंकट में भी पड़ा जा सकता है. एक बार हुआ यों कि एक मशहूर अपराधी की मौत हो गई और परंपरा है कि मृतक की तारीफ में दो शब्द बोले जाएं. यह तो कह नहीं सकते कि चलो, अच्छा हुआ जान छूटी. यहां समस्या और भी घनी थी. उस गांव का ऐसा नियम था कि बिना यह परंपरा निभाए दाह संस्कार नहीं हो सकता. पर कोई आगे बढ़ कर मृतक की तारीफ में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं. अंत में एक वृद्ध सज्जन ने स्थिति संभाली.

‘‘अपने भाई की तुलना में यह व्यक्ति देवता था,’’ उस ने कहा, ‘‘सच भी था. भाई के नाम तो कत्ल और बलात्कार के कई मुकदमे दर्ज थे. अपने भाई से कई गुना बढ़ कर. अब उस की मृत्यु पर क्या कहेंगे यह वृद्ध सज्जन. यह उन की समस्या है पर कभीकभी झूठ को सच की तरह पेश करने के लिए उसे कई घुमावदार गलियों से ले जाना पड़ता है यह हम ने उन से सीखा.

मुश्किल यह है कि हम ने अपने बच्चों को नैतिक पाठ तो पढ़ा दिए पर वैसा माहौल नहीं दे पाए. आज के घोर अनैतिक युग में यदि वे सत्य वचन की ही ठान लेंगे तो जीवन भर संघर्ष ही करते रह जाएंगे. फिल्म ‘सत्यकाम’ देखी थी आप ने? वह भी अब बीते कल की बात लगती है. हमारे नैतिक मूल्य तब से घटे ही हैं सुधरे नहीं. आज के झूठ और भ्रष्टाचार के युग में नैतिक उपदेशों की कितनी प्रासंगिकता है ऐसे में क्या हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना छोड़ दें. संस्कार सब दफन कर डालें? प्रश्न कड़वा जरूर है पर पूछना आवश्यक. बच्चों को वह शिक्षा दें, जो व्यावहारिक हो जिस का निर्वाह किया जा सके. उस से बड़ी शर्त यह कि जिस का हम स्वयं पालन करते हों.

सब से बड़ा झूठ तो यही कहना, सोचना है कि हम झूठ बोलते नहीं. कभी हम शिष्टाचारवश झूठ बोलते हैं तो कभी समाज में बने रहने के लिए. कभी मातहत से काम करवाने के लिए झूठ बोलते हैं तो कभी बौस से छुट्टी मांगने के लिए. सामने वाले का दिल न दुखे इस कारण झूठ का सहारा लेना पड़ता है तो कभी सजा अथवा शर्मिंदगी से बचने के लिए. कभी टैक्स बचाने के लिए, कभी किरायाभाड़ा कम करने के लिए. चमचागीरी तो पूरी ही झूठ पर टिकी है. मतलब कभी हित साधन और कभी मजबूरी से. तो फिर हम सत्य कब बोलते हैं?

शीर्षक तो मैं ने रखा था कि ‘मैं झूठ नहीं बोलती’ पर लगता है गलत हो गया. इस लेख का शीर्षक तो होना चाहिए था,  ‘मैं कभी सत्य नहीं बोलती.’ क्या कहते हैं आप?

सिध सिरी जोग लिखी कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

लेखिका – नीलू शेखावत

कल प्रांशु ने पूछा- चिट्ठी क्या होती है? क्यों लिखी जाती है? संयोग से मैं ने कुछ खाली पोस्टकार्ड्स और लिफाफे संभाल कर रखे थे वरना अब तो पोस्टऔफिस का भी अस्तित्व नहीं, पोस्टकार्ड कहां से मिलते? मैं ने उन्हें पोस्टकार्ड्स तो दिखा दिए पर इस सब के लिए लिखना और पढ़ना भी तो जरूरी है.

बच्चे हंस रहे थे कि जो काम मैसेज या कौल से हो सकता है वह पत्र से क्यों? पर अब उन्हें आनंद आ रहा है. पत्र की भाषा मैं भी भूल रही हूं पर यत्नपूर्वक याद किया तो बचपन की स्मृतियां तैर गईं. मेरे सारे भाईबहन टैलीफोन पीढ़ी हैं, उन्होंने न कभी किसी को पत्र लिखा, न ही पढ़ा. मैं छुटपन में ननिहाल में रही जहां से मैं ने अपनी मां और मौसियों को खूब पत्र लिखे.

उस समय पत्र लिखना भी एक कला थी और यकीन मानिए, मैं ने इस में बहुत कम उम्र में निपुणता प्राप्त कर ली थी. हालांकि इस कार्य हेतु नियत एक कुशल व्यक्तित्व विद्यमान था जिन से हमारी कोई बराबरी नहीं थी. घर की दीवान-ए-इंशा हमारी मुरधर मौसी थी जिस के पास आसमानी रंग वाले खूब सारे अंतर्देशीय पत्र और सुंदरसुंदर पैन होते थे. किंतु मुझे उन्हें छूनेछेड़ने की इजाजत नहीं थी.

मेरे पिताजी जब भी असम से आते, मौसी के लिए चाइना पैन (एक महंगा पैन जिसे हम इसी नाम से जानते थे) लाते. यह पैन कमाल का होता था, एक बार दवात में मुंह डालता तो बकरी की तरह पूरा पेट भर कर ही बाहर निकलता. लिखते समय मजाल है कि स्याही का एक छींटा भी कहीं लग जाए? निप (निब) इतनी बारीक कि डोरे जैसे अक्षर छपते. जब उंगलियों के बीच फंसता तो शब्ददरशब्द ऐसा सरपट फिसलता कि हाथ को पता ही न चलता कि कब तीनचार पेज भर गए.

एक हमारा वक्त, मोटी निप वाला पैन जिस में स्याही डालनी हो तो पूरी दवात को उन्धाओ. पैन में चार बूंद और कपड़ों पर पूरी स्याही. नीचे कौपीकिताब होती तो वह भी हरहर गंगे! इस दौरान जुल्फें झूल रही हों और उन को चेहरे से हटाना हो तो चेहरा भी स्याह. लिखने बैठो तो निप दोफाड़. कुछ लिखने के बजाय कागज ही खुरच डालती. मगर पोस्टकार्ड इस लिहाज से ठीक था. चिकना व मोटा पुट्ठा जल्दी खुरचता नहीं और न ही दूसरी ओर छपता जैसा अकसर कौपियों में होता. एक तरफ का लेख दूसरी तरफ भी छप जाता. दूसरी तरफ लिखने पर राख-राबड़ी सब एक. इस के साथ टूटा हुआ निब वमन भी करता. इसलिए हर दूसरे पेज पर कोई न कोई स्याही-नक्शा बना ही रहता.

तब बौलपैन भी चलते थे पर वे भी अतिसार से त्रस्त रहते. लाल, नीले, काले, हरे धब्बेदार चेहरे उन दिनों हमारे लिए आम थे. कम से कम 5वीं कक्षा तक के बच्चे तो अपने होंठ रंगीन ही पाते काहे कि जब पैन चलता नहीं तो उसे मुंह में ले कर हवा खींचने का रिवाज था. इस से बीचबीच में बना गतिरोध टूट जाता है और स्याही निब की ओर खिंची चली आती है. यह नुस्खा काम तो करता पर इतना ज्यादा कर जाता कि जोरदार प्रैशर के साथ गुल्ली तो निकल जाती मगर पूरी स्याही मुंह में आ कर गोल मेज कर बैठती. हम कुल्ले थूकते, कभी लाल, कभी हरा, कभी नीला तो कभी काला. स्याही का रंग कुछ छूटता, कुछ रह जाता. खुशबूदार स्याही वाले पैन उन दिनों बड़े अच्छे लगते थे. लाइट वाले पैन भी याद हैं जिन से अंधेरे में भी लिखा जा सकता था पर यह काफी दिनों के बाद की बात है. पत्र लिखने वाले दिनों में ढंग का पैन शायद ही मिला हो.

मुझे अंतर्देशीय पत्र लिखने की अनुमति तभी मिलती जब मेरी पत्रलेखा मौसी घर में गैरहाजिर होती या वह स्वयं अनुमति देती. ऐसी स्थिति में मुझे एक गंभीर पत्रलेखन करना होता जिस की भाषा मेरी भाभू (नानी) की होती. ‘सिध सिरी जोग लिखी…’ और ‘अत्र कुशलम् तत्रास्तु…’ वाला पत्र तो मैं ने कभी नहीं लिखा पर तब भी कुछ विरुदावलीयुक्त वाक्य स्थायी होते थे जिन्हें हर पत्र के फौर्मेट में लिखना होता. आज भरसक प्रयत्न के बाद भी वह फौर्मेट याद न आया जो कभी मुंहजबानी याद था.

सब से पहले सब बड़ों को पांवां धोक और छोटों को प्रेम. फिर अपनी राजीखुशी (कुशलक्षेम) बतानी और अगले की पूछनी. सब से जरूरी ‘जमाना’ और ‘धीणा’. आप के वहां जमाना कैसा है और हमारे इधर जमाना ऐसा है. जमाने का अर्थ हुआ- मेह, पानी और खेतीबाड़ी. धीणे से आशय दुधारू पशुधन यानी कितनी गाय-भैंस दुहा रही हैं. ये दोनों दुरुस्त हैं तो आप समृद्ध हैं, मौज में हैं. दोनों में से एक ठीक हो तब भी बाबा भला करे. प्रत्येक वाक्य के अंत में ‘सा’ लिखना भी अनिवार्य था और शब्दावली लच्छेदार. जैसे, आप को हमारा पांव धोक अरज होवे सा. जब अंतर्देशीय लिखा जाता तो घर के एकएक बुजुर्ग को पूछा जाता कि आप को क्या सम्चार (समाचार) लिखवाना है. वे बताते- ‘आजकल पेट में आफरा रहता है, रोटी पचती नहीं, फलांने को पैसे उधार दिए थे, राख उड़े ने अब तक नहीं लौटाए. आंखों की कारी (औपरेशन) करवाने की सोच रहे हैं पर अभी ठंड (मौसम) नहीं हो रही, पड़ोस में पीहर आई फलांनी बाई का टाबर तीनचार दिनों से दूध नहीं चूंक रहा आदिआदि.’

अब यह लिखने वाले के विवेक पर निर्भर था कि वह इन समाचारों को कैसे लिखे. बड़ा और समझदार व्यक्ति इन्हें फिल्टर कर के तरीके से लिखता और मेरे जैसे लोग हूबहू.

कला पत्र लिखने की नई पीढ़ी हिंदी में पत्र लिखने लगी थी पर पुराने लोग अपनी बोली में लिखते. जैसे ढूंढाड के रिश्तेदार अपनी बोली में और उस का उत्तर मारवाड़ वाले अपनी बोली में देते. मेरे समय तक राजस्थानी भाषा गंवारपने का तमगा प्राप्त कर चुकी थी, इसलिए किसी को राजस्थानी में पत्र लिखते हुए न देखा, न ऐसा कोई पत्र पढ़ा. पत्र लिखना अपनेआप में बहुत बड़ी कला थी जिस पर हर किसी का अधिकार नहीं होता था. सधे शब्दों से कम जगह में अधिक से अधिक लिख देना कलाकारी थी.

सुंदर लिखावट भी बड़ा फैक्टर था. कई बार सामने वाले लोग पूछते थे- आप के पत्र की लिखावट बड़ी सुंदर थी सा, जिस ने देखा थुथकी डाली. जवाबी पत्र में लेखक का पूरा ब्योरा दिया जाता कि वह पढ़नेलिखने में कितना होशियार है.

मैं ने अधिसंख्य पोस्टकार्ड्स ही लिखे जिन में लिखने लायक सम्चार मेरे पास होते ही थे, फिर भी मुझे आंगन में बैठ कर मुनादी करनी ही होती थी कि फलांने को कागज लिख रही हूं, किसी को कुछ लिखवाना हो तो लिखवा दो. बड़े लोग चलतेफिरते एकदो वाक्य फेंक देते और मैं हाथोंहाथ झोल कर पत्र में चेप देती. मौसी पत्र लिखतीं तो बड़ी तहजीब से लिखतीं. आंगन में दरी बिछती. माचे पर दादोसा, पीढे पर दासा और घूंघट में भाभू अपूठी बैठ कर पत्र लिखवाते. मैं माचे पर बैठ कर पैर हिलाती जाती और कुछकुछ सम्चार याद दिलाती जाती. हालांकि उन्हें वैटेज कम ही मिलता मगर फूंदा बीचबीच में पूरा रंगती.

पत्र पूरा लिख चुकने के बाद मुझे सुपुर्द किया जाता तब पत्रों पर सूखा गोंद चिपका हुआ नहीं आता था और घर में गोंद रखते नहीं थे, ऐसे में आकड़े का दूध काम आता. बाड़ में कहीं भी आकड़ा उगा मिल जाता, कच्ची टहनी तोड़ो और उसे पत्र के किनारे से रगड़ कर चिपका दो. ऐसा चिपकता कि प्राप्तकर्ता को वह सिरा फाड़ना ही पड़ता, तब जा कर पत्र खुलता.

चिपकाने से ले कर पोस्टबौक्स में डालने तक का जिम्मा मेरा था. मैं जब भी उस लालकाले चिरमी जैसे डब्बे में पत्र डालती, अपना छोटा हाथ आगे ले जाती इस उम्मीद में कि कोई पोस्टकार्ड मेरे हाथ लगे और मैं उस में लिखे सारे सम्चार पढ़ लूं पर ऐसा कभी नहीं हो पाया. यह डब्बा सिर्फ निगलना जानता था, उगलना नहीं. डाकिया खुद ही खिड़की खोलता और पत्र निकाल कर फिर मोटा सा ताला जड़ देता.

डाकिया आया डाक लाया

खाकी कपड़े, खाकी गांधी टोपी और साइकिल की ट्रिनट्रिन करता डाकिया वैसे किताबी चित्रों और टीवी में ही देखा. हमारा डाकिया साधारण कपड़ों में, मोटे कपड़े का चेनदार थैला कंधे पर झलाते हुए आता था. उसे दूर गुवाड़ से आते देख कर मैं भांप लेती थी कि वह हमारे घर ही आएगा. बाहर के फाटक से ही पत्र लपकती, जोरजोर से प्रेषक का पता पढ़ती और सब के बीच बैठ कर बांचती.

जिन शब्दों का उच्चारण या आशय गलत बांचती तो बड़े लोग ठीक करते. पत्र में बहुत अच्छा सम्चार होता तो छोटीमोटी बधाई भी मिलती. फिर पत्र पढ़ने में भी एक प्रकार का रस था जिसे पढ़ने वाला ही जानता है.

ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै.

सुनने वाले भावविभोर हो कर सुनते. मेरी मां और बड़े मासीसा शादी के शुरुआती दिनों में जब अपने घर पत्र भेजते तो दादोसा डाकिए से उसे ले कर ऐसे दौड़ते मानो बूढ़े, पतले और कमजोर पांवों में सहसा पंख लग गए हों. कहते हैं- जब तक पत्र पढ़ा जाता, वे ?ार?ार रोते. मैं ने यह दृश्य कम देखा. हां, एक बार किसी इराक वाले (जीविका के लिए विदेश में रहने वाले) के कागज पढ़ने के दौरान उस की मां को रोते हुए देखा. उस ने लिखा था, दीवाली पर आप लोगों ने तो सब के साथ चावल-लापसी खाई होगी. यहां दूर देश में कैसी होली, कैसी दीवाली? मां, न मां का जाया, देश पराया.

कुछ लोग कैसेट भी भेजा करते थे क्योंकि पत्र में इतना कुछ लिखा नहीं जा सकता जितना एक घंटे की टेप में रिकौर्ड किया जा सकता था. गांव में दोचार ही टेप रिकौर्डर होते थे जो इराक वालों के घर में ही मिलते. इन्हें सुनने के लिए आसपड़ोस की भीड़ जुटती. कैसेट में उन सब का भी जिक्र होता.

मुझे याद है, हमारी जो सहेलियां स्कूल छोड़ कर चली जाती थीं वे भी पीछे पत्र लिखा करतीं. ये पत्र स्कूल और क्लास के पते पर आते. दूसरी कक्षाओं की लड़कियां वे पत्र औत्सुक्य से सुनतींपढ़तीं.

खास सहेलियों में ‘हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा’ वाली भागमभाग मचती. हर कोई सुनने को उत्सुक रहती कि पत्र में उन के लिए क्या लिखा गया है. पत्र में नाम आना प्रतिष्ठा का विषय था. ‘देखा, मैं उसे अब भी याद हूं.’ फिर वह पत्र मैडमें भी पढ़तीं और चारपांच सौ लड़कियों के स्कूल में मैडम अपना नाम बोले तो अहोभाग्य!

जब मैं ननिहाल छोड़ कर गांव में रहने लगी तो मैं ने भी कुछ दिन अपनी सहेलियों को पत्र लिखे. मैं ने कभी उन्हें अपने गांव का सही नाम नहीं बताया क्योंकि यह नाम जब भी कोई सुनता तो पहले ठहाका लगाता. कांकरा भी भला कोई नाम हुआ! मैं किसी को अपना गांव जोधपुर बताती तो किसी को जयपुर. मौज आई तो दिल्ली की फान्फ भी टेक देती. जब पत्र लिखने की बारी आई तो यह आठ दिक देने लगा. पत्र पर जयपुर, जोधपुर लिखती तो शायद डाकिया ही पढ़ कर वापस कर देता. इसलिए अपना पता ही न लिखती या तो गंतव्य तक पहुंच जाए या बीच में ही रुक जाए पर पत्र वापस न आए.

गांव के नाम के साथ ही सहेलियों के नाम भी इज्जत का सवाल बनते. छोटी, चिमनी, बिदामी जैसे नामों के बजाय प्रीति, कीर्ति, श्रुति जैसे नाम प्रभावशाली लगते. मैं जीभर कर इन पत्रों में गप हांकती. चूंकि यह गप किसी के आगे प्रकट नहीं की जा सकती थी, इसलिए पत्रलेखन के लिए नितांत एकांत ढूंढ़ा जाता. हालांकि उस समय बच्चों के लिए एकांत दूर की कौड़ी थी. एक पोस्टकार्ड कईकई दिनों में पूरा होता, तब तक उसे छिपा कर रखना भी कम जोखिम का काम न था. फिर किसी रोज चुपके से पोस्टबौक्स के हवाले करने के बाद मैं राहत की सांस लेती.

बचपन की अपनी दुनिया है, कितनी सारी विचित्रताएं. अच्छी शक्ल और बुरी शक्ल, बहुत पैसा-कम पैसा, ऊंची जात-नीची जात, बढि़या घर-घटिया घर, हलके नाम-भारी नाम जैसे पूर्वाग्रह उन्हीं दिनों में पलते हैं पर बच्चा यह सब अपने साथ तो नहीं लाता, बस, ठीक से बड़ों का निरीक्षण करता है और काफीकुछ समाज का अनुकरण भी. फिर जीवनभर उसे ही ढोता रहता है.

खैर, वे झठेसच्चे पत्र सहेलियों तक पहुंचते. वे भी मेरी तरह खुश होतीं और जवाबी पत्र लिखतीं. जब घर में मेरे लिए पत्र आते तो सब लोग खूब हंसते क्योंकि इस घर में कई वर्षों से टैलीफोन का उपयोग हो रहा था. पिताजी का बाकायदा औफिस था जिस में दिनभर फोन की घंटियां टनटनातीं. बच्चे फोन उठाने के लिए दौड़ते. कौन कैसे ‘हैलो’ बोलता है, इस पर रोस्ंिटग चलती. धीरेधीरे मैं भी इस एडवांस दुनिया का हिस्सा बन गई और आज उस पुरानी पत्रलेखन की दुनिया से इतनी दूर पहुंच गई कि प्रांशु को लिखवाते समय कितने ही वाक्य बारबार लिखनेमिटाने पड़े पर फिर भी वैसा पत्र न लिखवा पाई. एक वक्त था जब मु?ो कितने ही रिश्तेदारों के पते और पिनकोड उंगलियों पर याद हुआ करते थे मगर अब ‘ओ बख्त बेह गया!’

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