टैक्सी दरवाजे पर आ खड़ी हुई. सारा सामान बंधा हुआ तैयार रखा था. निशांत अपने कमरे में खड़ा उस चिरपरिचित महक को अपने अंदर समेट रहा था जो उस के बचपन की अनमोल निधि थी.
निशांत के 4 वर्षीय बेटे सौरभ ने इसी कमरे में घुटनों के बल चल कर खड़े होना और फिर अपनी दादी की उंगली पकड़ कर पूरे घर में घूमना सीखा. निशांत की पत्नी माया एक विदेशी कंपनी में काम करती थी. वह सुबह 9 बजे निकलती तो शाम को 6 बजे ही वापस लौटती. ऐसे में सौरभ अपनी दादी के हाथों ही पलाबढ़ा था. नौकर टिक्कू के साथ उस की खूब पटती थी, जो उसे कभी कंधे पर बिठा कर तो कभी उस को 3 पहियों वाली साइकिल पर बिठा कर सैर कराता. अकसर शाम को जब माया लौटती तो सौरभ घर में ही न होता और माया बेचैनी से उस का इंतजार करती. किंतु जब टिक्कू के कंधे पर चढ़ा सौरभ घर लौटता तो नीचे कूद कर सीधे दादी की गोद में जा बैठता और तब माया का पारा चढ़ जाता. दादी के कहने पर सौरभ माया के पास जाता तो जरूर किंतु कुछ इस तरह मानो अपनी मां पर एहसान कर रहा हो. ऐसे में माया और भी चिढ़ जाती, मन ही मन इसे अपनी सास की एक चाल समझती.
लगभग 7 वर्ष पूर्व जब माया इस घर में बहू बन कर आई थी तो जगमगाते सपनों से उस का आंचल भरा था. पति के हृदय पर उस का एकछत्र साम्राज्य होगा, हर स्त्री की तरह उस का भी यही सपना था. किंतु उस के पति निशांत के हृदय के किसी कोने में उस की मां की मूर्ति भी विराजमान थी, जिसे लाख प्रयत्न करने पर भी माया वहां से निकाल कर फेंक न सकी. माया के हृदय की कुढ़न ने घर में छोटेमोटे झगड़ों को जन्म देना शुरू कर दिया, जिन्होंने बढ़तेबढ़ते लगभग गृहकलह का रूप ले लिया. इस सारे झगड़ेझंझटों के बीच में पिस रहा था निशांत, जो सीधासादा इंसान था. वह आपसी रिश्तों को शालीनता से निभाने में विश्वास रखता था. अकसर वह माया को समझाता कि ‘मां भावुक प्रकृति की हैं, केवल थोड़े मान, प्यार से ही संतुष्ट हो जाएंगी.’