Property Distribution :  यह वह दौर है जब पेरैंट्स की सेवा न करने वाली संतानों की अदालतें तक खिंचाई कर रही हैं लेकिन मांबाप की दिल से सेवा करने वाली संतान के लिए जायदाद में ज्यादा हिस्सा देने पर वे भी अचकचा जाती हैं क्योंकि कानून में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है. क्या यह ज्यादती नहीं?

लक्ष्मीचंद थे तो गल्ला व्यापारी के यहां मुनीम लेकिन आमदनी उन की ठीकठाक थी. उन्होंने न केवल 3 बेटियों की शादी कर दी थी बल्कि दोनों बेटों की कालेज की पढ़ाई भी पूरी करवा दी थी. चूंकि सूद पर पैसा चलाने का साइड बिजनैस भी वे करते थे इसलिए अपने छोटे से कसबे के नजदीक 5 एकड़ का खेत भी उन्होंने जुगाड़तुगाड़ कर खरीद लिया था. खेती से भी आमदनी होने लगी तो उन्होंने पुश्तैनी कच्चा मकान पक्का करवा लिया, एक मंजिल ऊपर भी बनवा ली जिस से दोनों बेटे आराम से रह सकें. उन की बड़ी इच्छा थी कि दोनों बेटे सरकारी नौकरी से लग जाएं.

लेकिन 65 साला जिंदगी की यही इकलौती हसरत थी जो अधूरी रह गई. बड़ा बेटा तो एक सरकारी महकमे में 50 हजार रुपए की घूस की कृपा से क्लर्क हो गया लेकिन छोटे बेटे के बड़े होतेहोते उन्हें लकवा मार गया. छोटे बेटे ने बिना सोचेसमझे श्रवण कुमार की तरह अपना फर्ज निभाया और तनमन व धन से बूढ़े अपाहिज पिता की सेवा की यहां तक कि बीकौम की अपनी पढ़ाई भी वह किस्तों में जैसेतैसे ही पूरी कर पाया.

बड़े ने भी शुरूशुरू में दूसरे शहर में नौकरी करते जितना हो सकता था हाथ बंटाया. लेकिन शादी के बाद उस की जिम्मेदारियां बढ़ीं और पत्नी के आने के बाद उसे सहज ज्ञान भी प्राप्त हो गया कि खेतीकिसानी से ठीकठाक आमदनी हो जाती है. ऊपरी मंजिल जो उस के लिए बनाई गई थी उस से भी किराया आ जाता है और छोटे की महल्ले में खोली गई छोटी सी किराने की दुकान भी चल निकली है. लिहाजा, अब घर पैसे देने की जरूरत नहीं क्योंकि उसे न तो खेतीकिसानी का पैसा मिलता है और न ही किराए से. इसलिए इसी को घर में अपना आर्थिक योगदान मानते उस ने हाथ खींच लिया.

लक्ष्मीचंद की जिंदगी तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा. वक्त रहते छोटे की भी शादी और बच्चे हो गए थे. लेकिन फसाद उठ खड़ा हुआ उन की मौत के 2-3 महीने बाद जब बड़ा बेटा जमीन और मकान में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा और हिसाबकिताब भी मांगने लगा. जो एक तरह से जमीनजायदाद के बंटवारे का एलान, मांग और आगाज था. इस पर छोटे के कान खड़े होने लगे.

बिना पत्नी के ज्ञान दिए उसे समझ आने लगा कि पिता की सेवा की अघोषित जिम्मेदारी लेने से उसे फायदे कम, नुकसान ज्यादा हुए हैं और अब भी यही हो रहा है कि बूढ़ी अम्मा की तीमारदारी में उसे और पत्नी को ही खटना पड़ता है. उन के इलाज और दवा के खर्च में बड़े भैया का कोई योगदान नहीं होता. शुरूशुरू में वे थोड़ाबहुत पैसा देते थे लेकिन पिता की मौत के बाद वह भी देना बंद कर दिया. उलटे, अब मांगने लगे हैं जो कि ज्यादती है. लगता है उन की नीयत खराब हो गई है.

जिंदगीभर मांबाप की जिम्मेदारी और नातेरिश्तेदारी उस ने ही निभाई है. बहनों के यहां हर अच्छेबुरे मौके पर वही गया है. उन की ससुरालों में नेगदस्तूर उस ने ही निभाए हैं जिस में काफी पैसा खर्च हुआ है लेकिन अब उन का कोई रोल जायदाद में नहीं. तीनों ने दोटूक कह दिया है कि तुम दोनों जानो, हमें इस से कोई लेनादेना नहीं. दुकान के साथसाथ खेत भी उस ने ही संभाले हैं. इस के अलावा जो भी कियादिया है, सबकुछ उस ने ही किया है.

भैया तो शान और इत्मीनान से अपनी सरकारी नौकरी करते रहे हैं. रिश्तेदार भी उन्हीं का गुण गाते हैं कि देखो, लक्ष्मीचंद का नाम उन के बड़े बेटे ने ऊंचा किया है जो अब बाबू से साहब बन गया है. अब तो ऊपरी कमाई से उन्होंने शहर में अपना मकान भी बना लिया है और, सस्ती ही सही, अपनी कार भी ले ली है. उन के बच्चे मेरे बच्चों के मुकाबले शान से रहते हैं, बढि़या खातेपीते हैं, महंगे कपड़े पहनते हैं. इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे अपने इकलौते बेटे को तो उन्होंने बुलेट भी दिला दी है जो दोढाई लाख रुपए से कम की तो नहीं होगी.

जैसेजैसे वह इस बारे में सोचता जाता था वैसेवैसे मकान और जमीन के प्रति उस का मोह और बढ़ता जाता था. साथ ही, एक डर और असुरक्षा भी मन में आती जा रही थी कि अगर बंटवारा हुआ तो मानो उस का एक हाथ कट जाएगा. चूंकि पिताजी कोई वसीयत नहीं छोड़ गए हैं इसलिए उन की जमीनजायदाद पर आधा हक तो भैया का कानूनन बनता ही है जिसे आज नहीं तो कल वे मांगेंगे ही. अब तो बस सीधे कहनेभर की देर रह गई है.

लेकिन इस जमीन और मकान को बनाए व बचाए रखने में उसे कितने और कैसे पापड़ बेलने पड़े, यह कोई नहीं देखेगा. न रिश्तेदार, न समाज और न ही कानून. एक बार जब लगातार 2 साल फसल चौपट हो गई थी तो अम्मा के कंगन बेचने पड़ गए थे जिन्हें वे उस की पत्नी को देने की बात अकसर कहती रहती थीं. उस से बचे पैसे में से पिताजी ने भागवत कराने की अपनी इच्छा पूरी कर परलोक सुधार लिया था. कोई देखेगा तो यह भी नहीं कि कितनी बार उसे यारदोस्तों से पैसा उधार लेने की शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी. तीन बार तो उस से भी ज्यादा ब्याज पर पैसा उठाना पड़ा था जितने पर पिताजी दिया करते थे. शादी के 15 साल हो जाने के बाद भी पत्नी को रत्तीभर सोना नहीं दिला पाया जबकि भाभी हर दीवाली एकदो तोला सोना खरीदती हैं.

ऐसी कई बातें सोचसोच कर उस का सिर भन्नाने लगता है. मसलन, भैया को तो रिटायरमैंट के बाद खासी पैंशन भी मिलेगी. लेकिन उस का क्या, अगर आज पिता की तरह लकवा मार जाए तो उस के बेटों का तो कोई कैरियर ही नहीं रह जाएगा. उन्हें भी मजबूरी में दुकान पर सामान तोलना पड़ेगा और भैया का बेटा या तो उन्हीं की तरह सरकारी नौकरी में लग जाएगा या किसी बड़ी कंपनी में इंजीनियर बन दिल्ली, मुंबई, पुणे या बेंगलुरु चला जाएगा और यह सब इसलिए कि भैया मांबाप के प्रति अपनी जिम्मेदारी उस के भरोसे छोड़ नौकरी करने चले गए थे. उसे तो नौकरी करने के लिए सोचने का भी वक्त नहीं मिला.

पिता की सेवा में जनून की हद तक ऐसा डूबा कि खुद की जिंदगी का खयाल ही नहीं आया. इस इच्छा का भी त्याग करना पड़ा कि एमकौम करने के बाद बैंक की नौकरी करना है जो उस दौर में आसानी से मिल जाती थी क्योंकि कोई एंट्रैंस एग्जाम नहीं होता था. मैरिट के बिहाफ पर सीधी भरती होती थी. खेतीकिसानी से साल के 2-3 लाख रुपए ही आते हैं. इतनी ही आमदनी दुकान से होती है. सारा पैसा घरखर्च और बच्चों की पढ़ाईलिखाई में खर्च हो जाता है जिस के चलते हाथ तंग ही बना रहता है. कई बार यह बेहूदा खयाल उस के मन में आता है कि काश, पिताजी की बीमारी और कमजोरी के दिनों में उन से जमीनजायदाद अपने नाम करा लेता लेकिन जल्द ही वह इस को जेहन से झटक भी देता है.

आखिर भैया को किस चीज की कमी है और उन्हें जो मिला है उस में उस का सब से ज्यादा योगदान है. ये वही भैया हैं जो बचपन में अपना जेबखर्च उस पर लुटा दिया करते थे, मेले में ले जा कर चाटपकौड़े, जलेबी खिलाया करते थे और उस के लिए हर किसी से भिड़ जाया करते थे. नौकरी पर जाते वक्त उन्होंने सीने से लगा कर रुंधे गले से कहा भी था कि, ‘मैं तो नाम का बड़ा हूं, घर की सारी जिम्मेदारियां तो तू ही निभाता है.’ यह बात कई सालों बाद तक वे कहते रहे थे जिस से लगता था कि यह मेरे किए का बदला है. आभार है न केवल शब्दों के रूप में बल्कि उस पैसे की शक्ल में भी जो खर्च में उन का हिस्सा होता.

पर कोई बात नही, वह सोचता था जो मैं ने किया वह मेरी जिम्मेदारी थी. भैया इस का एहसान मानते हैं, यही मेरा इनाम है. लेकिन अब जो वे मांगने लगे हैं वह उन का हक ही सही लेकिन हकीकत में उन की खुदगर्जी और लालच है. और फिर एक दिन एक बेहद नजदीकी रिश्तेदार ने आ कर कहा कि वे पुश्तैनी जायदाद में से अपना हिस्सा चाहते हैं तो छोटा फट पड़ा और अपना किया गिनाने लगा. वह रिश्तेदार उम्रदराज और तजरबेकार था, इसलिए बोला वह सब तो ठीक है लेकिन इसे बड़े का हक छीनने का जरिया या हथियार नहीं माना जा सकता. उन का हिस्सा देना तो पड़ेगा. सीधेसीधे नहीं तो अदालत में देना पड़ेगा. लेकिन इस में दोनों का नुकसान है. अच्छाखासा रिश्ता, प्यार और परिवार खत्म हो जाएगा. बंटबारा हर घर में होता है उस में थोड़ाबहुत कमज्यादा हिस्सा चलता है. तुम ने जो पिता और घर के लिए किया उस के एवज में तुम ज्यादा मांग सकते हो. लेकिन अदालत और मुकदमेबाजी बहुत बुरी चीज होती है. इस से किसी को कुछ हासिल नहीं होता.

इस तरह की ऊंचनीच और नफानुकसान बता कर वे तो अपना रिश्तेदारी धर्म निभा कर चले गए लेकिन छोटे को एक सनाके और सदमे में छोड़ गए जो कई रात सलीके से सो नहीं पाया. उदास, गुमसुम और भड़ास से भरा वह जाने क्याक्या सोचता रहा कि क्या यही होता है भाईपना, आखिर दिखा ही दी भैया ने अपनी असलियत.

दुनिया वाले गलत नहीं कहते कि झगड़े की जड़ तीन जर, जोरू और जमीन. गुस्से और लगभग प्रतिशोध की आग थोड़ी ठंडी या कमजोर पड़ती तो अतीत सिर उठाने लगता. जिसे याद कर वह यह तय नहीं कर पाता कि एक आदमी के कितने रूप हो सकते हैं.

ये वही भैया हैं जिन की नौकरी लगने के बाद पहली बार जब वह 2 दिन के लिए शहर गया था तो बसस्टैंड पर ही उस से पागलों की तरह लिपट पड़े थे. 2 दिन उन के पांव जमीन पर नहीं पड़े थे. रात को सिनेमा दिखाने ले गए. उस से पहले शहर के सब से अच्छे होटल में खाना खिलाया था.

ऐसा लगता था मानो वे मुद्दत से खामोश थे और अभी सारी बातें कर लेना चाहते हैं. अम्मापिताजी कैसे हैं, घर में कोई दिक्कत तो नहीं, दूधकिराना वगैरह बराबर आ रहा है या नहीं और ये कैसा, वह कैसा है जैसी बातें लगातार वे करते रहे और अपने एक कमरे वाले किराए के घर में एक बिस्तर पर दोनों सोए. तब भी वे बेचैन से थे. कुछ भावुक हो कर बोले, ‘सोचता हूं थोड़ा पैसा इकट्ठा हो जाए तो तुम लोगों को भी यहीं ले आऊं. पिताजी का इलाज किसी अच्छे डाक्टर से करवाएंगे, बड़ा मकान ले लेंगे, तू यहीं दुकान खोल लेना.’

दूसरे दिन उस के उठने से पहले ही वे समोसे और जलेबी ले आए थे और स्टोव पर चाय बना रहे थे. नहानेधोने के बाद उसे दफ्तर ले गए. वहां सभी से यह कहते मिलवाया कि है तो छोटा भाई लेकिन काम बड़े के कर रहा है. घर की सारी जिम्मेदारी इसी के कंधों पर डाल कर आया हूं. यह सुन छोटे की छाती चौड़ी हो जाती थी, यह सोच कर कि हर किसी को ऐसा भाई नहीं मिलता.

दूसरे दिन शाम को जब वह चलने को हुआ तो कपड़े की दुकान पर उसे महंगे कपड़े दिलाए, बस का टिकट ले कर तो दिया ही लेकिन उस के हाथ में भी 200 रुपए पकड़ा दिए. जैसे ही बस चलने को हुई तो उन की आंखें फिर नम हो गईं, रुंधे गले से बोले, ‘अपना, अम्मा का और पिताजी का खयाल रखना. कोई चिंता मत करना. मैं छुट्टी मिलते ही आऊंगा.’

उन्हें लगभग रोता देख छोटे को भी रोना आ गया. रो तो वह आज भी रहा है लेकिन भाई का यह रूप देख कर कि अब जायदाद के बंटवारे के लिए रिश्तेदारों को भेजने लगे हैं. हर कभी व्हाट्सऐप पर मैसेज कर हिसाब मांगते रहते हैं. जाएं कोर्ट में तो जाएं, मैं भी छोड़ने वाला नहीं. सारा हिसाब गिना दूंगा और सुप्रीम कोर्ट तक नहीं छोड़ूंगा. मेरे दिल में अगर कोई खोट या बेईमानी होती तो पिताजी से अपने हक में कभी की वसीयत करवा लेता. घर व जमीन का नामांतरण अम्मा के बजाय खुद के नाम करा लेता या पिताजी के इलाज के लिए उन की इच्छा के मुताबिक ही औनेपौने में खेत बेच देता तो आज वे क्या मांगते. खेत के दाम अब एक करोड़ छू रहे हैं, इसलिए उन की जीभ लपलपा रही है. उसे बचाया तो मैं ने ही है. रहा मकान, तो वे आ कर रहें लेकिन ऊपरी मंजिल में, लेकिन उस का किराया नहीं लेने दूंगा. अम्मा के इलाज और दवा में ही महीने का 8-10 हजार रुपया खर्च हो जाता है. पहले 8 साल का आधा खर्च वे भी ब्याज समेत दें तब हक की बात करें. जब बराबरी से इलाज और घरखर्च में आधा देना था तब तो बीवी को लटकाए नैनीताल, शिमला और तिरुपति, शिर्डी घूमते रहते थे.

घरघर की कहानी

यह पूरी तरह काल्पनिक कहानी नहीं है बल्कि देश के हर दूसरेतीसरे घर की हकीकत है जो मुकदमे की शक्ल में सैशन से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक में रोज सुनी और सुनाई जाती है. महाभारत का तो प्लौट यही है लेकिन अब फैसला किसी कुरुक्षेत्र में युद्ध से नहीं बल्कि अदालतों में कानून से होता है. इस के बाद भी अपवादस्वरूप जायदाद को ले कर सिर फोड़ने की खबरें रोज की बात है. भाईभाई ही नहीं, बल्कि अब तो बहनभाई के बीच भी विवाद और मुकदमेबाजी होने लगी है क्योंकि कानूनन उन का भी हक पैतृक संपत्ति पर होने लगा है.

जमीनजायदाद का बंटवारा शाश्वत सत्य है लेकिन इस में फसाद तब खड़े होते हैं जब कोई एक देना नहीं चाहता. जमीन व जायदाद को ले कर ?ागड़ा हमारे संस्कारों और डीएनए में है. आजकल आमतौर से पुश्तैनी जायदाद उसी पक्ष के कब्जे में होती है जो वहां रह रहा होता है.

ऊपर बताई हकीकत पर गौर करें तो छोटा बहुत ज्यादा गलत नहीं है जिस ने यह मान लिया था कि बड़े भाई की सरकारी नौकरी लग गई है, इसलिए वह अपना हिस्सा नहीं मांगेगा. क्योंकि देखभाल मैं ने की है और उसे यहां के पैसों की क्या जरूरत. उधर बड़े के पास गिनाने को कानूनी अधिकार बहुत ज्यादा कुछ नहीं.

फिर ऐसे झगड़ों का हल क्या, क्या बड़े को या घर से दूर रहने वाले को अपना हिस्सा छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह छोटे के मुकाबले घर और पेरैंट्स के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर पाया था. कर्तव्य पूरे नहीं किए तो क्या अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता? और अगर वह भी नौकरी न कर घर पर ही रह जाता तो क्या होता? तय है बंटवारा तो तब भी होता लेकिन शायद बात इतनी बिगड़ती नहीं. लक्ष्मीचंद समझदार आदमी थे लेकिन वसीयत न करने की चूक कर ही गए. मुमकिन है उन्हें बेटों की समझ पर भरोसा रहा हो. मुमकिन यह भी है कि बीमारी के चलते वे ऐसा न कर पाए हों.

एक फैसला सुप्रीम कोर्ट का

लक्ष्मीचंद के दोनों बेटों से मिलतेजुलते एक मुकदमे का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 13 सितंबर, 2019 को सुनाया था. दिलचस्प बात यह है कि यह मुकदमा साल 1970 में दायर हुआ था. फर्क इतना भर था कि इस में पिता ने वसीयत की थी और ऊपर बताई कहानी में इसे फिट करें तो छोटे को ज्यादा हिस्सा दिया गया था जो एक तरह से उस की सेवाओं का स्वाभाविक पुरस्कार था. लेकिन दूसरे पक्ष ने आशंका जाहिर की थी कि वसीयत में फर्जीवाड़ा हुआ हो, ऐसा हो सकता है.

कानून के अनुसार सेवा का कोई मूल्य नहीं है और सभी बच्चों को संपत्ति के मालिक की मृत्यु के बाद बराबर का हिस्सा मिलेगा. 2005 के हिंदू विरासत कानून की धारा 6 में अतिरिक्त प्रावधान के बाद लड़कियों का पैतृक संपत्ति में स्वाभाविक अधिकार जन्म से ही हो गया है और उसे हटाया या देने से इनकार नहीं किया जा सकता.

वसीयत के असली या फर्जी होने के विवाद को छोड़ दें तो लगता है कि अदालतों के सामने भी धर्मसंकट यही था कि छोटा गलत क्या बोल रहा है. लेकिन निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट भी कानून के खिलाफ जा कर फैसला नहीं दे सकती थी, इसलिए यह मुकदमा 50 साल चला था. जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि बुजुर्ग केयरिंग चिल्ड्रन यानी देखभाल करने वाली संतान को दूसरे भाईबहनों की तुलना में संपत्ति का बड़ा हिस्सा दे सकते हैं. लेकिन इसे जिम्मेदारी के तौर पर नहीं देख सकते. एक व्यक्ति ने महज जायदाद के बड़े हिस्से के लिए पेरैंट्स की देखभाल की, ऐसा नहीं कहा जा सकता. प्रतिदिन बुजुर्ग मातापिता की देखभाल के बदले संपत्ति में अधिक हिस्से के कारण कमतर कर के नहीं आंका जा सकता.

छोटेबड़े के विवाद के मद्देनजर देखें, तो भी छोटा ज्यादा का हकदार है. 50 साल चले मुकदमे में बड़ा भाई यह साबित नहीं कर पाया था कि छोटे ने धोखे से वसीयत अपने नाम करा ली. उक्त मामले में तो वसीयत ही नहीं है, तब क्या हो? इस पर निष्कर्ष निकाला जाना मुश्किल है. लेकिन सहानुभूति छोटे के हक में जाती है.

अब बात लक्ष्मीचंद की कि उन्होंने वसीयत क्यों नहीं की होगी जबकि वे मुनीम होने के नाते इस की अहमियत बेहतर जानते थे. हो सकता है वे छोटे को ज्यादा हिस्सा देना चाह रहे हों लेकिन बड़े के साथ उन्हें इस में ज्यादती लग रही हो. छोटा दिनरात उन के साथ उन की सेवा में था, इसलिए वह तिलमिलाया हुआ है कि अब जायदाद में क्यों बात बराबरी की हो रही है.

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