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सांझ पड़े घर आना- भाग 2 : नीलिमा की बौस क्यों रोने लगी

वह धीरे से अपनी सीट से उठी और मेरी साड़ी के पल्लू से मेरे आंसू पोंछने लगी. फिर सामने पड़े गिलास से मुझे पानी पिलाया और मेरी पीठ पर स्नेह भरा हाथ रख दिया. बहुत देर तक वह यों ही खड़ी रही. अचानक गमगीन होते माहौल को सामान्य करने के लिए मैं ने 2-3 लंबी सांसें लीं और फिर अपनी थर्मस से चाय ले कर 2 कपों में डाल दी.

उस ने चाय का घूंट भरते हुए धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘मैम, मैं तो आप से बहुत छोटी हूं. मैं आप के बारे में न कुछ जानती हूं और न ही जानना चाहती हूं. पर इतना जरूर कह सकती हूं कि कुछ गलतियां आप की भी रही होंगी… पर हमें अपनी गलती का एहसास नहीं होता. हमारा अहं जो सामने आ जाता है. हो सकता है आप को तलाक मिल भी जाए… आप स्वतंत्रता चाहती हैं, वह भी मिल जाएगी, पर फिर क्या करेंगी आप?’’ ‘‘सुकून तो मिलेगा न… जिंदगी अपने ढंग से जिऊंगी.’’

‘‘अपने ढंग से जिंदगी तो आज भी जी रही हैं आप… इंडिपैंडैंट हैं अपना काम करने के लिए… एक प्रतिष्ठित कंपनी की बौस हैं… फिर…’’ कह कर वह चुप हो गई. उस की भाषा तल्ख पर शिष्ट थी. मैं एकदम सकपका गई. वह बेबाक बोलती जा रही थी. मैं ने झल्ला कर तेज स्वर में पूछा, ‘‘मैं समझ नहीं पा रही हूं तुम मेरी वकालत कर रही हो, मुझ से तर्कवितर्क कर रही हो, मेरा हौंसला बढ़ा रही हो या पुन: नर्क में धकेल रही हो.’’

‘‘मैम,’’ वह धीरे से पुन: शिष्ट भाषा में बोली, ‘‘एक अकेली औरत के लिए, वह भी तलाकशुदा के लिए अकेले जिंदगी काटना कितना मुश्किल होता है, यह कैसे बताऊं आप को…’’ ‘‘पहले आप के पास पति से खुशियां बांटने का मकसद रहा होगा, फिर बेटी और उस की पढ़ाई का मकसद. फिर लड़ कर अलग होने का मकसद और अब जब सब झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी तो क्या मकसद रह जाएगा? आगे एक अकेली वीरान जिंदगी रह जाएगी…’’ कह कर वह चुप हो गई और प्रश्नसूचक निगाहों से मुझे देखती रही. फिर बोली, ‘‘मैम, आप कल सुबह यह सोच कर उठना कि आप स्वतंत्र हो गई हैं पर आप के आसपास कोई नहीं है. न सुख बांटने को न दुख बांटने को. न कोई लड़ने के लिए न झगड़ने के लिए. फिर आप देखना सब सुखसुविधाओं के बाद भी आप अपनेआप को अकेला ही पाएंगी.’’

मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहना चाहती है. मेरे चेहरे पर कई रंग आ रहे थे, परंतु एक बात तो ठीक थी कि तलाक के बाद अगला कदम क्या होगा. यह मैं ने कभी ठीक से सोचा न था. ‘‘मैम, मैं अब चलती हूं. बाहर कई लोग मेरा इंतजार कर रहे हैं… जाने से पहले एक बार फिर से सलाह दूंगी कि इस तलाक को बचा लीजिए,’’ कह वह वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद पुन: उस की बातों ने सोचने पर मजबूर कर दिया. मेरी सोच का दायरा अभी तक केवल तलाक तक सीमित था…उस के बाद व्हाट नैक्स्ट? उस पूरी रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. सुबहसुबह कामवाली बालकनी में चाय रख कर चली गई. मैं ने सामने वाली कुरसी खींच कर टांगें पसारीं और फिर भूत के गर्भ में चली गई. किसी ने ठीक ही कहा था कि या तो हम भूत में जीते हैं या फिर भविष्य में. वर्तमान में जीने के लिए मैं तब घर वालों से लड़ती रही और आज उस से अलग होने के लिए. पापा को मनाने के लिए इस के बारे में झूठसच का सहारा लेती रही, उस की जौब और शिक्षा के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करती रही और आज उस पर उलटेसीधे लांछन लगा कर तलाक ले रही हूं.

तब उस का तेजतर्रार स्वभाव और खुल कर बोलना मुझे प्रभावित करता था और अब वही चुभने लगा है. तब उस का साधारण कपड़े पहनना और सादगी से रहना मेरे मन को भाता था और अब वही सब मेरी सोसाइटी में मुझे नीचा दिखाने की चाल नजर आता है. तब भी उस की जौब और वेतन मुझ से कम थी और आज भी है. ‘‘ऐसा भी नहीं है कि पिछले 25 साल हमने लड़तेझगड़ते गुजारे हों. कुछ सुकून और प्यारभरे पल भी साथसाथ जरूर गुजारे होंगे. पहाड़ों, नदियों और समुद्री किनारों के बीच हम ने गृहस्थ की नींव भी रखी होगी. अपनी बेटी को बड़े होते भी देखा होगा और उस के भविष्य के सपने भी संजोए होंगे. फिर आखिर गलती हुई कहां?’’ मैं सोचती रही गई.

अपनी भूलीबिसरी यादों के अंधेरे गलियारों में मुझे इस तनाव का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. जहां तक मुझे याद आता है मैं बेटी को 12वीं कक्षा के बाद यूके भेजना चाहती थी और मेरे पति यहीं भारत में पढ़ाना चाहते थे. शायद उन की यह मंशा थी कि बेटी नजरों के सामने रहेगी. मगर मैं उस का भविष्य विदेशी धरती पर खोज रही थी? और अंतत: मैं ने उसे अपने पैसों और रुतबे के दम पर बाहर भेज दिया. बेटी का मन भी बाहर जाने का नहीं था. पर मैं जो ठान लेती करती. इस से मेरे पति को कहीं भीतर तक चोट लगी और वह और भी उग्र हो गए. फिर कई दिनों तक हमारे बीच अबोला पसर गया. हमारे बीच की खाई फैलती गई. कभी वह देर से आता तो कभी नहीं भी आता. मैं ने कभी इस बात की परवाह नहीं की और अंत में वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. बेटी विदेश क्या गई बस वहीं की हो गई. फिर वहीं पर एक विदेशी लड़के से शादी कर ली. कोई इजाजत नहीं बस निर्णय… मेरी तरह.

Crime Story: प्यार में चाल

सौजन्या- सत्यकथा

बिल्हौर मार्ग पर एक कस्बा है ककवन. इसी कस्बे से सटा एक गांव है नदीहा धामू. यहीं पर रामदयाल गौतम अपने परिवार के साथ रहता था. उस के परिवार में पत्नी कुसुमा के अलावा 2 बेटे सर्वेश, उमेश तथा 2 बेटियां राधा व सुधा थीं.रामदयाल गांव का संपन्न किसान था. उस का बेटा सर्वेश गांव में डेयरी चलाता था. संपन्न होने के कारण जातिबिरादरी में रामदयाल की हनक थी.

रामदयाल की छोटी बेटी सुधा 10वीं कक्षा में पढ़ रही थी, जबकि बड़ी बेटी ने 12वीं पास कर के पढ़ाई छोड़ दी थी. रामदयाल उसे पढ़ालिखा कर मास्टर बनाना चाहता था, लेकिन राधा के पढ़ाई छोड़ देने से उस का यह सपना पूरा नहीं हो सका. पढ़ाई छोड़ कर वह मां के साथ घरेलू काम में मदद करने लगी थी.

गांव के हिसाब से राधा कुछ ज्यादा ही सुंदर थी. जवानी में कदम रखा तो उस की सुंदरता में और निखार आ गया. उस का गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें और कंधों तक लहराते बाल, हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे. अपनी इस खूबसूरती पर राधा को भी नाज था.

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यही वजह थी कि जब कोई लड़का उसे चाहत भरी नजरों से देखता तो वह इस तरह घूरती मानो खा जाएगी. उस की इन खा जाने वाली नजरों से ही लड़के डर जाते थे.लेकिन आलोक राजपूत राधा की इन नजरों से जरा भी नहीं डरा था. वह राधा के घर से कुछ ही दूरी पर रहता था. आलोक के पिता राजकुमार राजपूत प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे. लेकिन रिटायर हो चुके थे. उन की एक बेटी तथा एक बेटा आलोक था. बेटी का वह विवाह कर चुके थे.

पिता के रिटायर हो जाने के बाद घरपरिवार की जिम्मेदारी आलोक पर आ गई थी. बीए करने के बाद वह नौकरी की तलाश में था. लेकिन जब नौकरी नहीं मिली तो उस ने अपनी खेती संभाल ली थी. इस के अलावा उस ने घर में किराने की दुकान भी खोल ली थी. इस से उसे अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी.

राधा के भाई सर्वेश की आलोक से खूब पटती थी. आसपड़ोस में रहने की वजह से दोनों का एकदूसरे के घर भी आनाजाना था. आलोक जब भी सर्वेश के घर आता था, राधा उसे घर के कार्यों में लगी नजर आती थी. वैसे तो वह उसे बचपन से देखता आया था, लेकिन पहले वाली राधा में और अब की राधा में काफी फर्क आ गया था.

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पहले जहां वह बच्ची लगती थी, अब वही जवान होने पर ऐसी हो गई थी कि उस पर से नजर हटाने का मन ही नहीं होता था.एक दिन आलोक राधा के घर पहुंचा तो सामने वही पड़ गई. उस ने पूछा, ‘‘सर्वेश कहां है?’ ‘‘मम्मी और भैया तो कस्बे में गए हैं. कोई काम था क्या?’’ राधा बोली.

‘‘नहीं, कोेई खास काम नहीं था. बस ऐसे ही आ गया था. सर्वेश आए तो बता देना कि मैं आया था.’’‘‘बैठो, भैया आते ही होंगे.’’ राधा ने कहा तो आलोक वहीं पड़ी चारपाई पर बैठ गया.  आलोक बैठा तो राधा रसोई की ओर बढ़ी. उसे रसोई की ओर जाते देख आलोक ने कहा, ‘‘राधा, चाय बनाने की जरूरत नहीं है. मैं चाय पी कर आया हूं.’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं ने अपने लिए चाय भी चढ़ा रखी है. उसी में थोड़ा दूध और डाल देती हूं.’’ कह कर राधा रसोेई में चली गई.थोड़ी देर बाद वह 2 गिलासों में चाय ले आई. एक गिलास उस ने आलोक को थमा दिया, तो दूसरा खुद ले कर बैठ गई. चाय पीते हुए आलोक ने कहा, ‘‘राधा, बुरा न मानो तो मैं एक बात कहूं.’’

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‘‘कहो.’’ उत्सुक नजरों से देखते हुए राधा बोली.‘‘अगर तुम जैसी खूबसूरत और ढंग से घर का काम करने वाली पत्नी मुझे मिल जाए तो मेरी किस्मत ही खुल जाए.’’ आलोक ने कहा.आलोक की इस बात का जवाब देने के बजाय राधा उठी और रसोई में चली गई. उसे इस तरह जाते देख आलोक को लगा, वह उस से नाराज हो गई है, इसलिए उस ने कहा, ‘‘राधा लगता है मेरी बात तुम्हें बुरी लग गई. मेरी बात का कोई गलत अर्थ मत लगाना. मैं ने तो यूं ही कह दिया था.’’

इतना कह आलोक वहां से चला गया. लेकिन इस के बाद वह जब भी सर्वेश के घर जाता, मौका मिलने पर राधा से 2-4 बातें जरूर करता. उन की इस बातचीत पर घरवालों को कोई ऐतराज भी न था. क्योंकि मोहल्ले के नाते रिश्ते में दोनों भाईबहन लगते थे. गांवों में तो वैसे भी रिश्तों को काफी अहमियत दी जाती है.

लेकिन आलोक और राधा रिश्तों की मर्यादा निभा नहीं पाए. मेलमुलाकात और बातचीत से आलोक के दिलोदिमाग पर राधा की खूबसूरती और बातव्यवहार का ऐसा असर हुआ कि वह उसे अपनी जीवनसंगिनी बनाने के सपने देखने लगा. लेकिन अपने मन की बात वह राधा से कह नहीं पाता था.

वह सोचता था कि कहीं राधा बुरा मान गई और उस ने यह बात घर वालों से बता दी तो वह मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएगा. लेकिन यह उस का भ्रम था. राधा के मन में भी वही सब था, जो उस के मन में था.जब दोनों ओर ही चाहत के दीए जल रहे हों तो मौका मिलने पर उस का इजहार भी हो जाता है. ऐसा ही राधा और आलोक के साथ भी हुआ. फिर एक दिन उन्होंने अपने मन की बात जाहिर भी कर दी.

दोनों के बीच प्यार का इजहार हो गया तो उन का प्यार परवान चढ़ने लगा. आए दिन होने वाली मुलाकातों ने दोनों को जल्द ही करीब ला दिया. वे भूल गए कि उन का रिश्ता नाजुक है. आलोक राधा के प्यार के गाने गाने लगा. इस तरह दोनों मोहब्बत की नाव में सवार हो कर काफी आगे निकल गए.

राधा और आलोक के बीच नजदीकियां बढ़ीं तो मनों में शारीरिक सुख पाने की कामना भी पैदा होने लगी. इस के बाद मौका मिला तो दोनों सारी मर्यादाएं तोड़ कर एकदूसरे की बांहों में समा गए. इस के बाद तो उन्हें जब भी मौका मिलता, अपनी हसरतें पूरी कर लेते.

इस का नतीजा यह निकला कि कुछ दिनों बाद ही दोनों गांव वालों की नजरों में आ गए. उन के प्यार के चर्चे पूरे गांव में होने लगे. उड़तेउड़ते यह खबर राधा के पिता रामदयाल के कानों में पड़ी तो सुन कर उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. उसे एकाएक विश्वास नहीं हुआ कि आलोक उस की इज्जत पर हाथ डाल सकता है. वह तो उसे अपने बेटों की तरह मानता था.यह सब जान कर उस ने राधा पर तो पाबंदी लगा ही दी, साथ ही आलोक से भी कह दिया कि वह उस के घर न आया करे.

बात इज्जत की थी, इसलिए राधा के भाई सर्वेश को दोस्त की यह हरकत अच्छी नहीं लगी. उस ने आलोक को समझाया ही नहीं, धमकी भी दी कि अगर उस ने अब उस की बहन पर नजर डाली तो वह भूल जाएगा कि वह उस का दोस्त है. इज्जत के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है.

इस के बाद उस ने राधा की पिटाई भी की और उसे समझाया कि उस की वजह से गांव में सिर उठा कर चलना दूभर हो गया है. वह ठीक से रहे अन्यथा अनर्थ हो जाएगा.

रामदयाल जानता था कि बात बढ़ाने पर उसी की बदनामी होगी, इसलिए बात बढ़ाने के बजाय वह पत्नी व बेटों से सलाह कर के राधा के लिए लड़के की तलाश करने लगा. इस बात की जानकारी राधा को हुई तो वह बेचैन हो उठी.

एक शाम वह मौका निकाल कर आलोक से मिली और रोते हुए बोली, ‘‘घर वाले मेरे लिए लड़का ढूंढ रहे हैं. जबकि मैं तुम्हारे अलावा किसी और से शादी नहीं करना चाहती.’’ ‘‘इस में रोने की क्या बात है? हमारा प्यार सच्चा है, इसलिए दुनिया की कोई ताकत हमें जुदा नहीं कर सकती.’’ राधा को रोते देख आलोक भावुक हो उठा. वह राधा के आंसू पोंछ उस का चेहरा हथेलियों में ले कर उसे विश्वास दिलाते हुए बोला, ‘‘तुम मुझ पर भरोसा करो, मैं तुम्हारे साथ हूं. मेरे रोमरोम में तुम्हारा प्यार रचा बसा है. तुम्हें क्या लगता है कि तुम से अलग हो कर मैं जी पाऊंगा, बिलकुल नहीं.’’

उस की आंखों में आंखें डाल कर राधा बोली, ‘‘मुझे पता है कि हमारा प्यार सच्चा है, तुम दगा नहीं दोगे. फिर भी न जाने क्यों मेरा दिल घबरा रहा है. अच्छा, अब मैं चलती हूं. कोई खोजते हुए कहीं आ न जाए.’’

‘‘ठीक है, मैं कोई योजना बना कर तुम्हें बताता हूं.’’ कह कर आलोक अपने घर की तरफ चल पड़ा तो मुसकराती हुई राधा भी अपने घर चली गई.रामदयाल राधा के लिए लड़का ढूंढढूंढ कर थक गया, लेकिन कहीं उपयुक्त लड़का नहीं मिला. इस से राधा के घर वाले परेशान थे, वहीं राधा और आलोक खुश थे. इस बीच घर वाले थोड़ा लापरवाह हो गए तो वे फिर से चोरीछिपे मिलने लगे थे.

एक दिन सर्वेश ने खेतों पर राधा और आलोक को हंसीमजाक करते देख लिया तो उस ने राधा की ही नहीं, आलोक की भी पिटाई की. इसी के साथ धमकी भी दी कि अगर फिर कभी उस ने दोनों को इस तरह देख लिया तो अंजाम अच्छा न होगा.सर्वेश ने आलोक की शिकायत उस के घर वालों से की तो घर वालों ने उसे भरोसा दिया कि वे आलोक को समझाएंगे. इस के बाद सर्वेश घर आ गया. इधर शाम को आलोक घर पहुंचा तो पिता राजकुमार ने टोका, ‘‘सर्वेश उलाहना देने आया था. तुम्हारी शिकायत कर रहा था कि तुम उस की बहन के पीछे पड़े हो. सच्चाई क्या है?’’

‘पिताजी, मैं और राधा एकदूसरे से प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं.’  ‘‘तुम्हारा दिमाग फिर गया है क्या? जो उस लड़की से शादी करना चाहते हो. क्या तुम्हें मालूम नहीं कि राधा दूसरी जाति की है और हम राजपूत हैं. यदि तुम ने उस से ब्याह रचाया तो समाज में हम मुंह दिखाने लायक नहीं बचेंगे. बिरादरी के लोग हमारा हुक्कापानी बंद कर देंगे. इसलिए कान खोल कर सुन लो, उस लड़की से तुम्हारा रिश्ता हरगिज नहीं हो सकता. भूल जाओ उसे.’’ राजकुमार ने कहा.

पिता की फटकार और स्पष्ट चेतावनी से आलोक परेशान हो उठा. उस का एक दोस्त छोटू उर्फ नीलू था. उस ने इस बारे में छोटू से बात की तो उस ने उस के पिता की बात को जायज ठहराया और राधा से संबंध तोड़ लेने का सुझाव दिया.आलोक ने अपनी मां का दिल टटोला तो उस ने भी साफ कह दिया कि जिस दिन राधा की डोली उस के घर आएगी, उसी दिन उस की अर्थी उठेगी.

मां की इस धमकी से आलोक कांप उठा. उस पर सवार राधा के प्यार का भूत उतरने लगा. मातापिता और दोस्त की नसीहत उसे भली लगने लगी. अत: उस ने निश्चय किया कि वह राधा से दूरी बनाएगा और प्यारमोहब्बत की बात नहीं करेगा. अब उस ने राधा से ब्याह रचाने की बात दिमाग से निकाल दी.

इस के बाद जब कभी आलोक का सामना राधा से होता, तो वह उस से बेमन से मिलता. बेरुखी से बात करता. न होंठों पर मुसकराहट, न चेहरे पर दमक होती. राधा नजदीकियां बढ़ाने की पहल करती, तो वह मना कर देता.फोन पर भी उस ने बात करना एक तरह से बंद ही कर दिया था. राधा दस बार फोन करती तो वह मुश्किल से एक बार रिसीव करता, उस पर भी ज्यादा बात न करता और फोन कट कर देता.

आलोक के इस रूखे व्यवहार से राधा परेशान हो उठी. उसे शक होने लगा कि आलोक किसी दूसरी लड़की के चक्कर में तो नहीं पड़ गया. अत: वह आलोक पर शादी के लिए दबाव डालने लगी. वह जब भी मिलती या फोन पर बात करती तो शादी की ही बात करती. इधर कुछ समय से राधा आलोक को धमकाने भी लगी थी कि यदि उस ने शादी नहीं की तो वह पुलिस में उस की शिकायत कर देगी, तब उसे जेल भी हो सकती है.

24 अगस्त, 2020 की शाम 4 बजे राधा घर से गायब हो गई. वह देर शाम तक घर वापस नहीं लौटी तो रामदयाल को चिंता हुई. उस ने अपने बेटे सर्वेश व उमेश को साथ लिया और रात भर उस की खोज करता रहा.

लेकिन राधा का कुछ भी पता न चला. रामदयाल को शक हुआ कि कहीं आलोक उसे भगा तो नहीं ले गया. वह आलोक के घर पहुंचा, तो आलोक घर पर ही मिला.26 अगस्त की सुबह गांव का ही किसान विमल अपने खेत पर पानी लगाने पहुंचा तो उस ने अपने खेत की मेड़ के पास पीपल के पेड़ के नीचे राधा का शव देखा. उस ने खबर राधा के घर वालों को दी. उस के बाद तो रामदयाल के घर में रोनापीटना शुरू हो गया.

घर के सभी लोग घटनास्थल पहुंच गए. लाश मिलते ही आलोक का परिवार घर से गुपचुप तरीके से फरार हो गया.रामदयाल गौतम ने थाना ककवन पुलिस को सूचना दी तो थानाप्रभारी अमित कुमार मिश्रा पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. उन की सूचना पर एसपी केशव कुमार चौधरी तथा एएसपी अनूप कुमार आ गए.

पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया. उस के गले में दुपट्टा था. इस से अंदाजा लगाया गया कि राधा की हत्या दुपट्टे से गला घोंट कर की गई होगी. उस की उम्र 19 वर्ष के आसपास थी.

घटनास्थल पर मृतका का पिता रामदयाल तथा भाई सर्वेश मौजूद थे. पुलिस अधिकारियों ने उन दोनों से पूछताछ की तो सर्वेश ने उन्हें बताया कि उस की बहन की हत्या गांव के आलोक व उस के दोस्त छोटू ने की है.

पूछताछ के बाद पुलिस अधिकारियों ने राधा के शव को पोेस्टमार्टम हेतु माती स्थित अस्पताल भिजवा दिया तथा थानाप्रभारी अमित मिश्रा को आदेश दिया कि वह मुकदमा दर्ज कर आरोपियों को शीघ्र गिरफ्तार करें.

 

आदेश पाते ही अमित कुमार मिश्रा ने मृतका के भाई सर्वेश की तहरीर पर भादंवि की धारा 302/201 के तहत आलोक व छोटू के खिलाफ रिपोेर्ट दर्ज कर ली और उन्हें गिरफ्तार करने में जुट गए. इस के लिए उन्होंने मुखबिरों को भी लगा दिया.

29 अगस्त, 2020 की रात 10 बजे अमित कुमार मिश्रा ने मुखबिर की सूचना पर आलोक व छोटू को ककवन मोड़ से गिरफ्तार कर लिया. उन्हें थाना ककवन लाया गया. थाने पर जब दोनों से पूछताछ की गई तो उन्होंने राधा की हत्या का जुर्म कबूल कर लिया.

 

पूछताछ में आलोक ने बताया कि राधा उस पर शादी का दबाव बना रही थी, जबकि वह राधा से शादी नहीं करना चाहता था. उस ने जब पुलिस में शिकायत दर्ज करने की धमकी दी, तो उस ने राधा को ही मिटाने की योजना बनाई. इस में उस ने अपने दोस्त छोटू को शामिल कर लिया.

योजना के तहत उस ने 24 अगस्त की शाम 4 बजे राधा को खेतों पर बुलाया फिर उसी के दुपट्टे से उस का गला घोंट दिया.

30 सितंबर, 2020 को पुलिस ने अभियुक्त आलोक राजपूत व छोटू को कानपुर देहात की माती कोर्ट में पेश किया, जहां से दोनों को जिला जेल भेज दिया गया.

यंत्रीकरण से पाई उन्नति की राह

बस्ती जिले के विकास खंड बहादुरपुर के गांव भेलवल के रहने वाले युवा किसान अरविंद सिंह कुछ सालों पहले खेती में बढ़ती लागत और बढ़ती मजदूरी की वजह से लगातार घाटे में चल रहे थे. उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि वे घाटे में चल रही खेती को मुनाफे की तरफ कैसे मोड़ें, इसलिए वे अपनी खेती को?छोड़ कर कोई दूसरा कामधंधा अपनाने की सोच रहे थे. उन्होंने एक दिन अपने मन की बात एक प्रगतिशील किसान को बताई, तो उस किसान ने बताया कि अगर खेती को मुनाफे का सौदा बनाना है, तो इस के लिए उन्हें खेती में उन्नत तकनीक को अपनाते हुए उन्नतशील बीज, खाद, उर्वरक व यंत्रीकरण का सहारा लेना होगा. वे अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिकों से खेती को फायदेमंद बनाने के तरीके जान सकते हैं. इस युवा किसान अरविंद ने अपनी खेती की डूबती नैया को पार लगाने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र का सहारा लेने का मन बनाया और एक दिन अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से संपर्क कर के अपनी घाटे से जूझ रही खेती को उबारने की सलाह मांगी.

वैज्ञानिकों ने उन्हें सलाह दी कि वे अपनी खेती की लागत में कमी लाने व समय प्रबंधन के लिए यंत्रीकरण को बढ़ावा दें. इस से न केवल लागत में कमी आएगी, बल्कि जोखिम घटने के साथसाथ उत्पादन में भी बढ़ोतरी होगी. कृषि वैज्ञानिकों ने अरविंद को यह यकीन दिलाया कि खेती में किसी भी तरह की परेशानी आने पर वे खुद खेत में आ कर उस का समाधान बताएंगे. अरविंद सिंह ने कृषि वैज्ञानिकों के बताए अनुसार अपनी खेती को फिर से नए तरीके से करने की कोशिश करनी शुरू कर दी. इस के लिए उन्हें जरूरत थी फसलों के अच्छे बीज और जुताई व मड़ाई के यंत्रों की. इस के लिए उन के पास पूंजी की कमी आड़े आ रही थी. उन्होंने फिर से कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क किया, तो कृषि वैज्ञानिकों ने सलाह दी कि सरकार व बैंकों द्वारा खेती व कृषि यंत्रों की खरीदारी के लिए सब्सिडी के साथ कर्ज दिया जाता है, जिस के लिए वे आवेदन कर सकते हैं.

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अरविंद ने पहली बार बैंक से कर्ज ले कर ट्रैक्टर व जुताई के यंत्रों की खरीदारी कर के खेती की शुरुआत की. इस से उन की खेती में कुछ हद तक लागत की कमी तो आई, लेकिन फसल की मड़ाई व रोपाई में अब भी लागत ज्यादा आ रही थी. उन्होंने फिर से कृषि वैज्ञानिकों से गेहूं, आलू वगैरह की बोआई के लिए काम आने वाले यंत्रों की जानकारी हासिल की और उस के बाद उन्होंने पहली बार कृषि विभाग से अनुदान पर जीरोटिल सीडड्रिल को खरीद कर लाइन से लाइन की बोआई की. इस से न केवल खाद, उर्वरक व बीज की मात्रा में कमी आई, बल्कि उन्हें कई बार की जुताई पर होने वाले खर्च से भी छुटकारा मिल गया. अरविंद को अब पता चल चुका था कि उन्नत बीज व उन्नत कृषि यंत्रों का इस्तेमाल कर के न केवल लागत में कमी लाई जा सकती है, बल्कि समय के साथसाथ उच्च उत्पादन भी हासिल किया जा सकता है. इस से खेती से होने वाला मुनाफा कई गुना बढ़ सकता है.

अरविंद सिंह को यह पता चल चुका था कि खेती में कृषि यंत्रों का इस्तेमाल खेती के लिए वरदान साबित हो सकता है. इसलिए उन्होंने खरीफ व रबी की फसलों में लगने वाले मजदूरों में कमी लाने के लिए कृषि यंत्रों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना शुरू किया. उन्हें पता चला कि उन के द्वारा ली जाने वाली आलू की फसल की बोआई व खुदाई पर आने वाले समय व पैसे के खर्च में कमी लाने के लिए पोटैटो प्लांटर व पोटैटो डिगर आसानी से इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं. उन्होंने अपने नजदीकी बैंक से इन कृषि यंत्रों के खरीदारी के लिए कर्ज लिया. उन्होंने इस से पहले ट्रैक्टर के कर्ज को समय से चुकता कर दिया था, जिस की वजह से उन्हें नई मशीनों की खरीदारी के लिए बैंकों द्वारा आसानी से कर्ज दे दिया गया. अरविंद के द्वारा खेती में अपनाई जाने वाली मशीनें इस प्रकार हैं:

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धान पैडी प्लांटर?: अरविंद सिंह धान की रोपाई पर होने वाले खर्च व मजदूरी की अधिकता के चलते धान की खेती में कम लागत के उपाय अपनाते रहे हैं. इसी के तहत वे स्वचालित धान रोपाई यंत्र यानी धान पैडी प्लांटर (जिसे उन्होंने केरल से 4 लाख, 10 हजार रुपए में मंगाया) से रोपाई का काम करते हैं. इस स्वचालित धान रोपाई मशीन के इस्तेमाल से बीजों की मात्रा में 30 फीसदी की कमी आई, वहीं लागत व समय में 70 फीसदी की कमी आई. सीड ड्रिल व जीरो सीड ड्रिल : गेहूं की बोआई के लिए अरविंद ने सीड ड्रिल का इस्तेमाल कर के बीज, जुताई, उर्वरक व सिंचाई वगैरह की लागत में कमी लाने में सफलता पाई. जीरो सीड ड्रिल से गेहूं की बोआई में जहां खेत की जुताई नहीं करनी पड़ती, वहीं खाद, उर्वरक व बीज की मात्रा भी कम लगती है. पोटैटो प्लांटर व पोटैटो डिगर : अरविंद ने आलू की बोआई पर आने वाली लागत में कमी लाने के लिए पोटैटो प्लांटर मशीन की खरीदारी कर के उस का इस्तेमाल करना शुरू किया, जिस में मात्र 3 लोगों की जरूरत पड़ती है. वहीं पोटैटो डिगर से आलू की खुदाई के नुकसान में 95 फीसदी तक की कमी आई. दलहन बोआई मशीन : अरविंद ने दलहनी फसलों की लाइन से लाइन की बोआई के लिए स्वयं एक बोआई मशीन का निर्माण किया है, जो ट्रैक्टर के पीछे लगा कर चलाई जाती?है. इस के द्वारा वे अरहर, मटर, चना, मसूर, मूंग वगैरह फसलों की बोआई करते?हैं, जिस से फसल में बीज की मात्रा और जुताई, बोआई, सिंचाई वगैरह की लागत में 50 फीसदी तक की कमी लाने में सफल रहे?हैं.

पावर ट्रिलर व पावर बीडर?: सब्जियों व अन्य फसलों की निराईगुड़ाई के लिए अरविंद पावर ट्रिलर व पावर बीडर का इस्तेमाल करते?हैं. इस से कम समय में अधिक रकबे में खेत की निराई व गुड़ाई हो जाती है.

लेजर लैंड लेवरर : जमीन को समतल बनाने के लिए उन्होंने तकरीबन 4 लाख रुपए की लागत से लेजर लैंड लेवरर की खरीदारी की. इस के द्वारा वे अपने ऊबड़खाबड़ खेतों को समतल बनाने में कामयाब रहे हैं. लेजर लैंड लेवरर के द्वारा वे खेत की सिंचाई में होने वाले पानी के खर्च व लागत में भी बचत करने में कामयाब रहे हैं. मजदूरी में कमी, सिंचाई की लागत में कमी, खादबीज व उर्वरक की मात्रा में कमी लाने वाले यंत्रों के साथसाथ अरविंद तमाम आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल अपनी खेती में करते?हैं, जिस से न केवल उन के उत्पादन में इजाफा हुआ है, बल्कि लागत में 50 फीसदी तक की कमी आई है. इन यंत्रों के अलावा उन के पास जैरोवेटर, पावर स्प्रेयर, ड्रम सीडर, बैट्री चालित स्प्रेयर व सोलर पंप वगैरह तमाम यंत्र?हैं, जिन के द्वारा वे लगातार कृषि लागत में कमी लाने में कामयाबी हासिल करते जा रहे हैं. मशीनरी बैंक से छोटे किसानों को सस्ते में मुहैया कराते हैं कृषि यंत्र : अरविंद सिंह खुद तो खेती में यंत्रीकरण को बढ़ावा दे ही रहे हैं, इस के साथ ही वे छोटे व मझोले किसानों को भी खेती में यंत्रीकरण अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं. इस के लिए उन्होंने कृषि विभाग के सहयोग से मशीनरी बैंक बनाया है, जहां से किसानों को समय से सस्ती दर पर ट्रैक्टर, जुताई यंत्र, स्प्रेयर, ट्रांसप्लांटर, ड्रम सीडर वगैरह मशीनें मिल जाती हैं. ऐसे में किसान समय से फसल की जुताई, बोआई, सिंचाई करने में सफल रहते?हैं. फसल मड़ाई यंत्रों की वजह से दूसरे किसान भी मौसम से होने वाले नुकसान से बच जाते हैं.

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व्यावसायिक खेती को बढ़ावा : अरविंद व्यावसायिक व नकदी फसलों की खेती करते हैं. उन का मानना?है कि किसानों को ऐसी फसलों की खेती करनी चाहिए, जिन से लागत के मुकाबले 4 से 5 गुना ज्यादा लाभ हासिल हो. उन के अनुसार नकदी फसलों की मार्केटिंग में किसानों को किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है, वहीं नकदी फसलों को कम समय में उगा कर 1 साल में कई फसलें ली जा सकती हैं. नकदी फसलों की खेती में वे आलू, सुगंधित धान, मसालों व जड़ीबूटियों की खेती पर जोर देते हैं. इस से उन्हें अच्छी आमदनी हासिल होती है. बस्ती जिले में वे अकेले ऐसे किसान हैं, जो सोयाबीन की खेती करते हैं, इसलिए स्थानीय दुकानदारों द्वारा उन्हें अच्छा दाम मिल जाता है.

बागबानी फसलों से ज्यादा मुनाफा : वे नकदी फसलों के साथसाथ बागबानी फसलों की भी खेती करते हैं, जिन में केला व आम खास हैं. वे स्थानीय मंडी में इन फसलों को बेच कर ज्यादा लाभ कमा लेते हैं.

अरविंद ने खेती में तकनीकी व उन्नत जानकारी का इस्तेमाल कर के यह साबित कर दिया है कि खेती में घाटे का रोना रोने वाले किसान अगर वैज्ञानिक तरीके से खेती करें तो न केवल खेती लाभ का सौदा साबित होगी, बल्कि इस से दूसरों को भी रोजगार मिलने में आसानी होगी. जहां एक तरफ किसान दलहनी व तिलहनी फसलों से दूरी बना रहे हैं, वहीं अरविंद ने तिल, अरहर, मटर, चना, मसूर, सोयाबीन, मूंग, उड़द वगैरह फसलों की खेती कर के यह साबित कर दिया?है कि हालात कैसे भी हों, अगर किसान फसलों को उगाने की ठान ले तो किसी तरह की फसल उगाना कठिन नहीं होता. अरविंद सिंह धान की मामूली प्रजातियों से हट कर ऊंचे दामों पर बिकने वाली काला नमक जैसी प्रजातियों की खेती करते हैं. वे सुगंधित फसलों की भी खेती करते हैं. सभी सुगंधित फसलें कम समय व कम लागत में तैयार होती हैं, जिस से वे ज्यादा मुनाफा ले पाते हैं.

खेती में यंत्रीकरण व तकनीकी जानकारी के लिए अरविंद सिंह के मोबाइल व वाट्सअप नंबर 9838669367 पर संपर्क किया जा सकता है.

घबराना क्या : ताऊजी का जिंदगी के प्रति क्या था फलसफा

‘‘देखो बेटा, यह जीवन इतना लचीला भी नहीं है कि हम जिधर चाहें इसे मोड़ लें और यह मुड़ भी जाए. कुछ ऐसा है जिसे मोड़ा जा सकता है और कुछ ऐसा भी है जिसे मोड़ा नहीं जा सकता. मोड़ना क्या मोड़ने के बारे में सोचना ही सब से बड़ा भुलावा देने जैसा है, क्योंकि हमारे हाथ ही कुछ नहीं है. हम सोच सकते हैं कि कल यह करेंगे पर कर भी पाएंगे इस की कोई गारंटी नहीं है.

‘‘कल क्या होगा हम नहीं जानते मगर कल हम क्या करना चाहेंगे यह कार्यक्रम बनाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए जो हाथ में है उसे कर लो, जो नहीं है उस की तरफ से आंखें मूंद लो. जब जो होगा देखा जाएगा.

‘‘कुछ भी निश्चित नहीं होता तो कल का सोचना भी क्यों?

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‘‘यह भी तो निश्चित नहीं है न कि जो सोचोगे वह नहीं ही होगा. वह हो भी  सकता है और नहीं भी. पूरी लगन और फ र्ज मेहनत से अपना कर्म निभाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए साफ नीयत और ईमानदारी से काम करते रहो. अगर समय ने कोई राह आप को देनी है तो मिलेगी जरूर. और एक दूसरा सत्य याद रखो कि प्रकृति ईमानदार और सच्चे इनसान का साथ हमेशा देती है. अगर तुम्हारा मन साफ है तो संयोग ऐसा ही बनेगा जिस में तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं होगा. मुसीबतें भी इनसान पर ही आती हैं और हर मुसीबत के बाद आप को लगता है आप पहले से ज्यादा मजबूत हो गए हैं. इसलिए बेटा, घबरा कर अपना दिमाग खराब मत करो.’’

ताऊजी की ये बातें मेरा दिमाग खराब कर देने को काफी लग रही थीं कि कल क्या होगा इस की चिंता मत करो, आज क्या है उस के बारे में सोचो.

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कल मेरा इंटरव्यू है. उस के बारे में कैसे न सोचूं. कल का न सोचूं तो आज उस की तैयारी भी नहीं न कर पाऊंगा. परेशान हूं मैं, हाथपैर फूल रहे हैं मेरे. ताऊजी के जमाने में इतनी परेशानियां कहां थीं. उन के जमाने में इतनी स्पर्धा कहां थी.

आज का सच यह है कि ठंडे दिमाग से पढ़ाई करो. मन में कोई दुविधा मत पालो. अपनेआप पर भरोसा रखो उसी में तुम्हारा कल्याण होगा.

‘‘क्या कल्याण होगा? नौकरी किसी और को मिल जाएगी,’’ स्वत: मेरे होंठों से निकल गया.

‘‘तुम्हें कैसे पता कि नौकरी किसी और को मिल जाएगी. तुम अंतरयामी कब से हो गए.

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‘‘किसे क्या मिलने वाला है उसी में क्यों उलझे पड़े हो. अपना समय और ताकत इस तरह बरबाद मत करो, पढ़ने में समय क्यों नहीं खर्च कर रहे?’’

इतना कहते हुए ताऊजी ने एक हलकी सी चपत मेरे सिर पर लगा दी.

‘‘कब से यही कथा दोहरा रहे हो. मिल जाएगी किसी और को नौकरी तो मिल जाए. क्या उस से दुनिया में आग लग जाएगी और सबकुछ भस्म हो जाएगा. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, कुछ भी तो नहीं. यही दुनिया होगी और यही हम होंगे. संसार इसी तरह चलेगा. किसी दूसरी नौकरी का मौका मिलेगा. यहां नहीं तो कहीं और सही.’’

‘‘आप इतनी आसानी से ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं, ताऊजी. अगर मैं कल सफल न हो पाया तो…’’

‘‘तो क्या होगा? वही तो समझा रहा हूं. जीवन का अंत तो नहीं हो जाएगा, दो हाथ तुम्हारे पास हैं. हिम्मत और ईमानदारी से अगर तुम ओतप्रोत हो तो क्या फर्क पड़ता है. मनचाहा अवश्य मिल जाएगा.’’

‘‘क्या सचमुच?’’

क्षण भर को लगा, कितना आसान है सब. ताऊजी जैसा कह रहे हैं वैसा ही अगर सच में जीवन का फलसफा हो तो वास्तव में दुविधा कैसी, कैसी परेशानी. जो हमारा है वह हम से कोई छीन नहीं सकता.

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मेहनती हूं, ईमानदार हूं. मेरे पास अपनी योग्यता प्रमाणित करने का एक यही तो रास्ता है न कि मैं पूरी तरह इंटरव्यू की तैयारी करूं. जो मैं कर सकता हूं उसी को पूरा जोर लगा कर कर डालूं, न कि इस दुविधा में समय बरबाद कर डालूं कि अगर किसी और को नौकरी मिल गई तो मेरा क्या होगा? ताऊजी की बातें मुझे अब शीशे की तरह पारदर्शी लगने लगीं.

दूसरी शाम आ गई. 24 घंटे बीत चुके और मेरा इंटरव्यू हो गया. अपनी तरफ से मैं ने सब किया जो भी मेरी क्षमता में था. मेरे मन में कहीं कोई मलाल न था कि अगर इस से भी अच्छा हो पाता तो ज्यादा अच्छा होता.

गरमी की शाम जब उमस गहरा गई तो सभी बाहर बालकनी में  आ बैठे. ताऊजी ने पुन: चुसकी ली :

‘‘हमारे जमाने में आंगन हुआ करते थे. आज आंगन की जगह बालकनी ने ले ली है. हर दौर की समस्या अलगअलग होती है. हर दौर का समाधान भी अलगअलग होता है. ऐसा नहीं कि हमारे जमाने में हमारा जीवन आसान था. अपनी मां से पूछो जब मिट्टी के तेल का स्टोव जलाने में कितना समय लगता था. आज चुटकी बजाते ही गैस का चूल्हा जला लो. मसाला चुटकी में पीस लो आज. हमारी पत्नी पत्थर की कूंडी और डंडे से मसाला पीसा करती थी. अकसर मसाले की छींट आंख में चली जाती थी…क्यों राघव, याद है न.’’

ताऊजी ने मेरे पापा से पूछा और दोनों हंसने लगे. चाय परोसती मां ने भी नजरें झुका ली थीं.

‘‘क्यों शोभा, तुम ने क्या अपने बेटे को बताया नहीं कि उस के मांबाप को किस ने मिलाया था. अरे, इसी डंडेकूंडे ने. मसाले की छींट तुम्हारी मां की आंख में चली गई थी और तुम्हारा बाप पानी का गिलास लिए पीछे भागा था.’’

‘‘मेरी मां आप के घर कैसे चली आई थीं?’’

‘‘तुम्हारी बूआ की सहेली थीं न. दोनों कपड़े बदलबदल कर पहना करती थीं. कदकाठी भी एक जैसी थी. राघव नौकरी पर रहता था. काफी समय बाद घर आया और अभी आंगन में पैर ही रखा था कि तुम्हारी मां को आंख पर हाथ रख कर भागते देखा. समझ गया, मसाला आंख में चला गया होगा. सो तुम्हारी बूआ समझ झट से पानी ले कर पीछे भागा. मुंह धुलाया, तौलिया ला कर मुंह पोंछा और जब शक्ल देखी तो हक्काबक्का. तभी सामने तुम्हारी बूआ को भी देख लिया. गलती हो गई है समझ तो गया पर क्या करता.’’

‘‘फिर?’’ सहसा पूछा मैं ने.

ताऊजी हंसने लगे थे. पापा भी मुसकरा रहे थे और मेरी मां भी.

‘‘फिर क्या बेटा, कभीकभी गलती हो जाना बड़ा सुखद होता है. राघव बेचारा परेशान. जानबूझ कर तो इस की बांह नहीं पकड़ी थी न और न ही गरदन पकड़ कर जबरदस्ती जो मुंह पोंछा था उस में इस का कोई दोष था. तुम्हारी मां अब तक यही समझ रही थी कि तुम्हारी बूआ उस की आंखें धुला रही है.’’

हंसने लगे पापा भी.

‘‘यह भी सोचने लगी थी कि एकाएक उस के हाथ इतने सख्त कैसे हो गए हैं. बारबार कहने लगी, ‘इतनी जोर से क्यों पकड़ रही है. धीरेधीरे पानी डाल,’ और मैं सोचूं कि मेरी बहन की आवाज बदलीबदली सी क्यों है?’’

पहली बार अपने मातापिता के मिलन के बारे में जान पाया मैं उस दिन. आज भी मेरे पिता का स्वभाव बड़ा स्नेहमयी है. किसी की पीड़ा उन से देखी नहीं जाती. बूआ से आज भी बहुत प्यार करते हैं. बूआ की आंख में मसाले की छींट का पड़ जाना उन्हें पीड़ा पहुंचा गया होगा. बस, हाथ का सामान फेंक उन की ओर लपके होंगे. ताऊजी से आगे की कहानी जाननी चाही तो बड़ी गहरी सी मुसकान लिए मेरी मां को ताकने लगे.

‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी तुम्हारी मां. इसी एक घटना ने ऐसी डोरी बांधी कि बस, सभी इन दोनों को जोड़ने की सोचने लगे.’’

‘‘आप दोनों की दोस्ती हो गई थी क्या उस के बाद?’’

सहज सवाल था मेरा जिस पर पापा ने गरदन हिला दी.

‘‘नहीं तो, दोस्ती जैसा कुछ नहीं था. कभी नजर आ जाती तो नमस्ते, रामराम हो जाती थी.’’

‘‘आप के जमाने में इतना धीरे क्यों था सब?’’

‘‘धीरे था तो गहरा भी था. जरा सी घटना अगर घट जाती थी तो वह रुक कर सोचने का समय तो देती थी. आज तुम्हारे जमाने में क्या किसी के पास रुक कर सोचने का  समय है? इतनी गहरी कोई भावना जाती ही कब है जिसे निकाल बाहर करना तुम्हें मुश्किल लगे. रिश्तों में इतनी आत्मीयता अब है कहां?’’

पुराना जमाना था. लोग घर के बर्तनों से भी उतना ही मोह पाल लेते थे. हमारी दादी मरती मर गईं पर उन्होंने अपने दहेज की पीतल की टूटी सुराही नहीं फेंकी. आज डिस्पोजेबल बर्तन लाओ, खाना खाओ, कूड़ा बाहर फेंक दो. वही हाल दोस्ती में है भई, जल्दी से ‘हां’ करो नहीं तो और भी हैं लाइन में. तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही.

‘‘जेट का जमाना है. इनसान जल्दी- जल्दी सब जी लेना चाहता है और इसी जल्दी में वह जीना ही भूल गया है. न उसे खुश रहना याद रहा है और न ही उसे यही याद रहता है कि उस ने किस पल किस से क्या नाता बांधा था. रिश्तों में गहराई नहीं रही. स्वार्थ रिश्तों पर हावी होता जा रहा है. जहां आप का काम बन गया वहीं आप ने वह संबंध कूड़ेदान में फेंक दिया.’’

ताऊजी ने बात शुरू की तो कहते ही चले गए, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि दादी की तरह घर को कूड़ेदान ही बना दो, जहां घर अजायबघर ही लगने लगे. पुरानी चीजों को बदल कर नई चीजों को जगह देनी चाहिए. जीवन में एक उचित संतुलन होना चाहिए. नई चीजों को स्वीकारो, पुरानी का भी सम्मान करो. इतना तेज भी मत भागो कि पीछे क्याक्या छूट गया याद ही न रहे और इतना धीरे भी मत चलो कि सभी साथ छोड़ कर आगे निकल जाएं. इतने बेचैन भी मत हो जाओ कि ऐसा लगे जो करना है आज ही कर लो कल का क्या भरोसा आए न आए और निकम्मे हो कर भी इतना न पसर जाओ कि कल किस ने देखा है कौन कल के लिए आज सोचे.

‘‘तुम्हारे पापा की शादी हुई. शोभा हमारे घर चली आई. इस ने भी कोई ज्यादा सुख नहीं पाया. हमारी मां बीमार थीं, दमा की मरीज थीं और उसी साल मेरी पत्नी को ऐसा भयानक पीलिया हुआ कि एक ही साल में दोनों चली गईं. इस जरा सी बच्ची पर पूरा घर ही आश्रित हो गया.

‘‘इस से पूछो, इस ने कैसेकैसे सब संभाला होगा. जरा सोचो इस ने अपना चाहा कब जिया. जैसेजैसे हालात मुड़ते गए यह बेचारी भी मुड़ती गई. मेरी छोटी भाभी है न यह, पर कभी लगा ही नहीं. सदा मेरी मां बन कर रही यह बच्ची. जरा सी उम्र में इस ने कब कैसे सभी को संभालना सीखा होगा, पूछो इस से.

‘‘मेरे दोनों बच्चे कब इसे अपनी मां समझने लगे मुझे पता ही नहीं चला. तुम्हारे दादा और हम तीनों बापबेटे इसे कभी कहीं जाने ही नहीं देते थे क्योंकि हम अंधे हो जाते थे इस के बिना. इस का भी मन होता होगा न अपनी मां के घर जाने का. 18-20 साल की बच्ची क्या इतनी सयानी हो जाती है कि हर मौजमस्ती से कट जाए.’’

ताऊजी कहतेकहते रो पड़े. मेरे पापा और मां गरदन झुकाए चुपचाप बैठे रहे. सहसा हंसने लगे ताऊजी. एक फीकी हंसी, ‘‘आज याद आता है तो बहुत आत्मग्लानि होती है. पूरे 10 साल यह दोनों पतिपत्नी मेरे परिवार को पालते रहे. अपनी संतान का तब सोचा जब मेरे दोनों बच्चे 15-15 साल के हो गए. कबकब अपना मन मारा होगा इन्होंने, सोच सकते हो तुम?’’

मन भर आया मेरा भी. ताऊजी चश्मा उतार आंखें पोंछने लगे. ताऊजी के दोनों बेटे आज बच्चों वाले हैं. मुझ से बहुत स्नेह करते हैं और मां को तो सिरआंखों पर बिठाते हैं. बहुत मान करते हैं मेरी मां का.

‘‘क्या जीवन वास्तव में आसान होता है, बताना मुझे. नहीं होता न. मुश्किलें तो सब के साथ लगी हैं. प्रकृति ने सब का हिस्सा निश्चित कर रखा है. हमारा हिस्सा हमें मिलेगा जरूर. नौकरी के इंटरव्यू पर ही तुम इतना घबरा रहे थे. कल पहाड़ जैसे जीवन का सामना कैसे करोगे?’’

सुनता रहा मैं सब. सच ही कह रहे हैं ताऊजी. मेरा बचपन तो सरलसुगम है और जवानी आराम से भरपूर. क्या स्वस्थ तरीके से बिना घबराए, ठंडे मन से मैं अपनी नौकरी के अलगअलग साक्षात्कार की तैयारी नहीं कर सकता? आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल का कल देखा जाएगा पर ऐसी भी क्या बेचैनी कि जो सुखसुविधा आज मेरे पास है उस का सुख भी नकार कर सिर्फ कल की ही चिंता में घुलता रहूं. क्यों जीना ही भूल जाऊं? जो मेरा है वह मुझे मिलेगा जरूर. मैं ईमानदार हूं, मेहनती हूं प्रकृति मेरा साथ अवश्य देगी. सच कहते हैं ताऊजी, आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल क्या होगा देख लेंगे न. हम हैं तो, कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे.

नथ : नाक की नथ कैसे मुन्नी की शादी में कुहराम की वजह बन गई

उस दिन बैंक से नोटिस आया कि बैंक की शाखा का स्थानांतरण हो रहा है. जिन ग्राहकों के लौकर हैं वे उसे खाली कर दें. सो पतिदेव लौकर से सारा सामान उठा कर घर ले आए. जैसे वेतनयाफ्ता, पेंशनप्राप्ता 60-70 वर्षीय बूढ़े के लौकर में कुछ फिक्स डिपौजिट के कागज तथा 2 बेटियों के विवाह उपरांत कुछ बचेखुचे गहनों के नाम पर टूटे कंगन, कान का एक बुंदा या फिर चांदी के सिक्के, इतना ही पड़ा था. उन दिनों, टिन के बने टौफी के डब्बे आया करते थे और वे बड़े उपयोगी सिद्ध होते थे, हमारे पिताजी तथा जेठ आदि सब की शेविंग का सामान उन्हीं डब्बों में सदियों रखा जाता रहा है, आज भी जंग लगे उन डब्बों से बिछुड़ना उन्हें पीड़ा पहुंचा जाता है, और उन्हीं डब्बों में सुरक्षित रखे जाते थे गहनेजेवर. वैसा ही डब्बा, जिस में सफेद रुई, जो अब पीली पड़ गई थी और लाल पतंगी कागज (फटा हुआ), ‘गुदड़ी में लाल’ मुहावरे को चरितार्थ करता हुआ, घर लाया गया तो हम ने अपनी जायदाद के मनोहारी दर्शन किए. एक गले की हंसली, जिस में सोना कम पीतल ज्यादा थी, सुनार ने बेईमानी की थी, कान के 2 झुमके अलगअलग भांति के, एकआध चूड़ी, दोचार अजीबोगरीब दिखने वाली अंगूठियां और अचानक दिखी 9 नगीनों जडि़त नाक की समूची नथ.

‘‘अरे, यह तो वही नथ है जोे रश्मि भाभी ने मेरी शादी पर पहनी थी,’’ अपनी हथेली पर उस को बड़े दुलार से लिटाया, उस का सौंदर्य निहारा. अनुपम रूपमति नथ. उस डब्बे की एकमात्र शोभा. अचानक यादों की बरात हमारी अपनी बरात के साथ, बैंडबाजे के साथ, मानस पर उमड़ पड़ी. याद आया वह दिन जब हमें दुलहन बनाया जा रहा था, नातेरिश्तेदारों से घर भरा था. दादीजी तो रही नहीं थीं, सो घर की सब से बड़ी या यों कहिए चौधराहट छांटने वाली बड़ी ताईजी, पुरखों के गांव से स्पैशली बुलाई गई थीं क्योंकि उन की सब से छोटी देवरानी यानी कि हमारी अम्मा को तो शादीब्याह करने की अक्ल नहीं थी. 7 बच्चों को जन्म देने वाली, उन्हें उच्चतम शिक्षा से पारंगत करने की क्षमता तो अम्मा कर सकती थीं किंतु शादीब्याह में ऊंचनीच का उन्हें क्या ज्ञान धरा था भला? रस्मों की भरमार, दिनभर में पच्चीसों रस्में, उन रस्मों में तो जैसे ताईजी ने पीएचडी कर रखी थी और मजाल कि उन की बात कोई टाल दे. अच्छेभले शिक्षित पिताजी, जो भौतिक शास्त्र के प्रोफैसर थे, न कोई देवीदेवता को मानते थे न किसी प्रपंच में पड़ते थे किंतु उस समय बेटी के ब्याह पर जैसा ताईजी ने कहा उन्होंने भी वैसा ही किया, शायद शिष्टतावश. लेकिन 21 वर्षीय, अंगरेजी में एमए पास मौडर्न कन्या को ताईजी की कोई बात फूटी आंख नहीं सुहाती थी.

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गौर पूजा के समय ताईजी ने हुक्म दिया, ‘सिर धो कर नहाओ और सीधा बिना किसी को छुए, आंगन में बनी वेदी के पटरे पर बैठ जाओ.’ कन्या यानी मैं ने विद्रोह किया, शोर मचाया, ‘कल ही सिर धोया था.’  परंतु ताईजी ने एक नहीं सुनी, अम्मा सिर पर पल्ला रखे मुझे घूर रही थीं, मानो कह रही हों – मेरी इज्जत का फालूदा मत बना. झक मार कर मुझे दोबारा सिर धोना पड़ा और सफेद तौलिया बालों में लपेट कर आज्ञाकारी पुत्री का सा रोल अदा करने आंगन में बिछे पटरे पर बैठने का उपक्रम करने लगी. अभी आधी ही बैठी थी कि ताईजी ने झपट कर मेरे सिर पर बंधा तौलिया खींच कर खोल दिया, ‘अरे, घोर अपशुगन, सिर पर सफेद कपड़ा बांध कर क्यों बैठ गई?’ काटो तो खून नहीं, क्रोध से भुनभुनाती हुई कन्या वेदी से उठ खड़ी हुई,  ‘नहीं करनी मुझे ऐसी शादी, यह भी कोई तरीका है, कोई मैनर्स नहीं है? एक हजार टोनेटोटके लगा रखे हैं, तंग कर दिया.’

रिश्तेदारों में फुसफुसाहट शुरू हो गई, ‘हाय कैसी बेहया लड़की है,’  चाची, बूआ, पड़ोसिनों में यह ‘बे्रकिंग न्यूज’ की भांति करंट सी दौड़ गई. बड़ी मुश्किल से मौसी ने समझाबुझा कर गौरी पूजा की रस्म करवाई, सिर के गीले बालों पर गुलाबी दुपट्टा डाल कर. ऐसा लग रहा था जैसे सफेद तौलिया बांधने मात्र से मैं विधवा हो जाऊंगी. रीतिरिवाज, विवाहित जीवन में मंगल लाने वाली ‘इंश्योरैंस कंपनियों’ जैसी हैं कि प्रीमियम नहीं भरा तो विवाह टूट जाएगा. 33 करोड़ देवीदेवताओं को मनाना क्या इतना सरल होता है? कभी चंद्रमा को प्रसन्न किया जाता, कभी पुरखों को, कभी दीवार पर थापे, कभी गेहूं, हल्दी, चावल की शामत आती, शुभअशुभ नेग. पता नहीं कौन सी किताबों में ये सब लिखा था. और ताईजी को इतना याद कैसे रहता था? गांव से ताईजी बड़ेबडे पतीले, कड़ाही, ढेरों बरतनों के साथ रिकशा पर लद कर आई थीं.

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मिसरानीजी, जिन का काम रसोई में चूल्हा मैनेज करना था और दूसरा उन का परमप्रिय काम था जब कोई शगुन का समय आया वे बेसुरी ढोलक बजाने बैठ जातीं. वे अपनी सफेद किनारी वाली धोती का पल्ला मुंह में दबा कर इतना बेसुरा गातीं कि उपस्थित श्रोता हंसी नहीं दबा पाते  मिसरानीजी से मजा लेने के लिए लड़केलड़कियां मनोरंजन करने की खातिर उन से फरमाइश करते. ‘मिसरानीजी, वह वाला गीत गाना.’ ले दे कर उन्हें एक ही तो ‘बन्नी’ आती थी और वे बड़ी खुश हो कर राग अलापने लगतीं. ‘पटरे पे बैठी लाड़ो भजन करे…’ और सब का हंसहंस कर बुरा हाल हो जाता. आखिर ‘लाड़ो’ अपनी शादी पर भजन क्यों कर रही होगी? कोई सोचे क्या संन्यास लेने जा रही थी? आखिर बरात आने का समय हुआ. दुलहन का इंस्पैक्शन करने ताईजी तथा पूरा प्रपंची स्त्री समाज नख से शिख तक बारीकी से जांच करने कमरे में आया. बड़े यत्न से मेरी प्रिय सखी ने मेरा शृंगार किया था. उस ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी थी किंतु उसे क्या पता कि कमी किस कोने से टपक पड़ेगी.

देखते ही ताईजी गरजीं, ‘नथ कहां है? नाक सूनी क्यों है? मामा के यहां से नथ आनी चाहिए थी?’ अब तो मानो कोहराम मच गया, एक बार फिर खुसुरफुसुर होने लगी, ‘हाय, नथ नहीं आई भात में?’ अम्मा के पीहर वालों को नीचा दिखाने का इस से बढि़या मौका और क्या हो सकता था. बेचारी अम्मा का चेहरा फक पड़ गया. अपनी सास को संकट में देख कर, रश्मि भाभी भाग कर अपनी नथ ले आईं और दुलहन को यानी मुझे पहना दी. सब ने राहत की सांस ली. उधर बैंडबाजे की आवाज कानों में पड़ते ही सब के सब बरात देखने भाग खड़े हुए. जैसेतैसे ब्याह पूर्ण हुआ और विदाई के गमगीन वातावरण के चलते जिसे देखो वही टसुए बहा रहा था. हमारे यहां लोगों को झूठमूठ का रोना खूब आता है. क्षणभर में रोने लगते हैं, क्षणभर में हंसने. विदा होती कन्या ने भी कुछ आंसू ताईजी के डर के मारे अपने नेत्रों से टपकाए. सोचा, रोना तो पड़ेगा वरना ताईजी कहेंगी, कैसी बेशर्म है. विदाई की तमाम रस्में खत्म हो चुकीं और मेरे पैर घर की दहलीज पार करने ही वाले थे कि एक क्षीण सी आवाज में किसी ने टोका, ‘रश्मि की नाक की नथ तो निकाल लो.’ यह सुनते ही ताईजी एकदम मैदानेजंग में आ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘इस नथ में मुन्नी की भांवर पड़ गई है, अब यह इस की नाक से नहीं उतारी जा सकती.’

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किस में इतना दमखम था कि हिटलरी ताईजी की अवज्ञा कर सकता. सो, मुन्नी यानी मेरी विदाई उसी नथ में हो गई. आज नथ को देखते ही मुन्नी को पूरी दास्तान-ए-नथ याद हो आई. व्यंग्य करते हुए मैं ने पति से कहा, ‘‘वाह रे ताईजी, वाह, आप का तर्क. इसी नथ में तो रश्मि भाभी के भी फेरे हुए होंगे, तब उसे पहनाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई?’’ पति उवाच, ‘‘होती भी क्यों? रश्मि भाभी तो बहू ठहरीं. बहू का जेवर बेटी को पहनाने में उन्हें क्यों और कैसे एतराज होता?’’ मुझे अपने पर क्रोध आया. क्या मैं भी इन दकियानूसी अंधविश्वासों से ग्रसित थी? मैं ने तब क्यों विरोध नहीं किया था और अब तक क्यों नहीं नथ वापस की? ढेरों प्रश्न मुझे विचलित करने लगे. मेरे विवाह को आज 47 वर्ष हो गए हैं, आज उस नथ का खयाल आया? आज मैं चेती हूं? अपने को धिक्कारते हुए मैं ने निश्चय किया कि अगली बार जब भी रश्मि भाभी से मिलूंगी तो उन की नथ उन्हें लौटा दूंगी. कथा का समापन पतिदेव ने यों कह कर किया कि पिछले 47 वर्षों से रश्मि भाभी का और तुम्हारा, ‘सुहाग’ बैंक के घटाटोप छोटे से लौकर में बंद पड़ा रहा.

Winter Special: क्यों होते हैं मुंह में छाले? जानें कारण और बचाव का तरीका

महल्ले की मीता वशिष्ठ अकसर अपनी स्वास्थ्य समस्याएं ले कर मेरे क्लीनिक पर आती हैं. कुछ समय पहले वे अधिकतर मुंह के छालों को ले कर परेशान रहती थीं. ऐसा कोई भी महीना नहीं बीतता था जब उन्हें मुंह के छाले न होते हों. कभीकभी तो छालों से उन का मुंह इस तरह से भर जाता था कि उन का खानापीना तक दूभर हो जाता था. उन के छाले ठीक होने में लगभग 1 सप्ताह तो लग ही जाता था. जाहिर है वे इस समस्या को ले कर बहुत परेशान थीं और वे इस का स्थायी हल चाहती थीं.

मीता की समस्या ऐसी जटिल भी नहीं थी, इसलिए जब समस्या की जड़ में जा कर उन का उपचार किया गया तो उन को मुंह के छालों से स्थायी मुक्ति मिल गई. एक मीता ही नहीं, बल्कि न जाने कितने लोग मुंह के छालों से परेशान रहते हैं और उचित उपचार न मिलने के कारण इधरउधर भटकते रहते हैं.

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क्यों होते हैं मुंह में छाले

मुंह में छाले होने का कोई निश्चित कारण नहीं है. कई बार तो हमारे खानपान की लापरवाही ही इन छालों के होने का कारण बन जाती है. पाचन संबंधी समस्याओं के कारण भी अकसर छाले हो जाते हैं. आमतौर पर मुंह में छाले होने के ये कारण हो सकते हैं.

–       अधिक गरम भोजन करने या बहुत अधिक गरम चाय, कौफी या सूप पीने से.

–       दिनभर मुख में सुपारी या तंबाकू भरे रहने से, खैनी व पान के साथ अधिक मात्रा में चूने के सेवन से.

–       मुंह व दांतों की ठीक ढंग से सफाई न करने पर, दांतों का संक्रमण होने पर.

–       भोजन में पोषक तत्त्वों की कमी होने से.

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–       विटामिन बी एवं सी की कमी से.

–       लगातार कब्ज बने रहने से.

–       जरूरत से कम तरल पदार्थ का सेवन करने से.

–       किसी दवा से एलर्जी होने पर.

–       विशेष तरह के वायरस, बैक्टीरिया या फंगल के संक्रमण के चलते.

तकलीफदेह हैं लक्षण

मुंह में होने वाले छालों को मुखपाक या मुखव्रण या माउथ अल्सर के नाम से भी जाना जाता है. आम बोलचाल की भाषा में इसे मुंह आना भी कहते हैं. इस रोग में मुख की अंतरीय झिल्ली सूज जाती है और उस पर घाव भी हो जाते हैं. छालों में अकसर पीला सा पस पड़ जाता है. इस स्थिति में छाले बहुत तकलीफदेह हो जाते हैं.

फंगल इन्फैक्शन से होने वाले छाले कैंडिडा अल्बीकन नामक फंगल से होते हैं. इसे थ्रश कहते हैं. ये अकसर छोटे बच्चों में अधिक देखने को मिलते हैं. ठीक से दूध की बोतल धुली न होना, बच्चों का मुख ठीक से साफ न होना, बच्चों की पाचनशक्ति कमजोर होना, विटामिन व पोषक तत्वों का अभाव होना एवं अंधेरे, सीलनभरे कमरे में रहना जहां पर्याप्त मात्रा में धूप व रोशनी न पहुंच पाती हो आदि इस के कारण होते हैं.

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फंगल इन्फैक्शन से होने वाले मुख के संक्रमण में रोगी बच्चा अस्वस्थ व चिड़चिड़ा हो जाता है. उस का मुंह व जीभ अत्यधिक शुष्क हो जाती है, होंठ, गाल का भीतरी भाग, तालू, जीभ आदि पर छोटेछोटे घाव हो जाते हैं. जीभ, तालू आदि में सफेदसफेद दही के समान तह जम जाती है.

फंगल इन्फैक्शन से होने वाले छाले बड़े व्यक्तियों में भी हो सकते हैं. अधिक दिनों तक एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन करने वाले एवं मधुमेह से पीडि़त व्यक्ति को फंगल इन्फैक्शन अधिक होता है.

वायरस जनित मुखपाक एक प्रकार के फिल्ट्रैबल वायरस द्वारा होता है. यह वायरस आंतों के रोग, लंबे समय तक अजीर्ण से पीडि़त रहने, पाचन संबंधी अनियमितताओं एवं दूसरों के साथ एक ही थाली में खाने आदि से पनप सकता है. वायरस जनित मुखपाक में होंठ, गाल या जीभ पर वेदना युक्त छाले हो जाते हैं जो बाद में व्रण का रूप ले लेते हैं और तब खानेपीने में कठिनाई होती है व लार अधिक मात्रा में निकलती है.

कारणों की करें पहचान

छाले होने का सहीसही कारण जाने बिना उन से नजात पाना संभव नहीं है. बिना सही कारण जाने, अंधाधुंध एंटीबायोटिक के प्रयोग से फायदे की जगह नुकसान भी हो सकता है. इस से फंगल इन्फैक्शन बढ़ने का जोखिम भी रहता है.

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वैसे भी अधिक एंटीबायोटिक आंत में पाए जाने वाले स्वाभाविक व लाभदायक बैक्टीरिया को नष्ट कर देते हैं. इस के अधिक प्रयोग से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी घटती है. छालों का इलाज न कर के यदि उस के होने वाले कारण का उपचार किया जाए तो रोगी को जल्दी राहत मिलती है. वैसे भी जब तक स्थिति गंभीर न हो, हमें दवाइयों की अपेक्षा नैसर्गिक उपचार को ही प्राथमिकता देनी चाहिए.

मुंह की रखें साफसफाई

छालों से छुटकारा पाने के लिए मुंह की ठीक से साफसफाई करें. कभीकभी इतना कर लेने भर से ही हमें छालों से राहत मिल जाती है. मुंह की साफसफाई रखने से वहां पर बैक्टीरिया, फंगस एवं वायरस नहीं पनप पाते हैं, जिस से उन से होने वाले छालों से नजात मिल जाती है. हर मुख्य भोजन के बाद ठीक से दांतों की सफाई एवं कुल्ले करने से भी मुंह साफसुथरा रहता है. इस से मुंह की बदबू व सांस की दुर्गंध से भी छुटकारा मिल जाता है.

कब्ज का करें निवारण

कब्ज बने रहना मुंह के छालों का एक चिरपरिचित सा कारण है. लगातार कब्ज बने रहना हमारी खराब पाचनशक्ति का परिचायक है. इस से पेट में गैस बन सकती है और खट्टी डकारें आती हैं. एसिडिटी की शिकायत बनी रहती है, जिस से पेट के ऊपरी हिस्से से ले कर गले तक जलन हो सकती है. अधिक दिनों तक ऐसा बने रहने से मुंह में छाले होने की संभावना बढ़ जाती है. जिस का सही उपचार कब्ज का निराकरण ही है.

बदलें खानपान की आदतें

छालों से नजात पाने के लिए कभीकभी हमें अपने खानपान की आदतों को भी बदलना पड़ सकता है. अधिक तला व मसालेदार खाना हमारी पाचनक्रिया को प्रभावित करता है. सिगरेटबीड़ी पीने से, दिनभर तंबाकू या सुपारी चबाने से, शराब आदि का सेवन करने से भी मुख में घाव बन जाते हैं. सो, ऐसी चीजों का सेवन न करना ही उचित है.

करें रोकथाम

छालों का उपचार करने की अपेक्षा उन की रोकथाम करना अच्छा विकल्प है. छाले न हों, इस के लिए हमेशा ताजा व कम मिर्चमसालेदार भोजन करें. हरी व पत्तेदार सब्जियां, सलाद, फल आदि अपने भोजन में अवश्य शामिल करें. चोकरयुक्त आटे की रोटियां व अंकुरित अनाज खाएं. इस सब से मुंह के छालों के साथसाथ कब्ज भी दूर होगा, जो कि छालों का एक मुख्य कारण है.

सुबह उठ कर ढंग से मुंह व दांत साफ कर के 1-2 गिलास पानी पिएं और कुछ देर तक खुली छत पर टहलें. इस से भी कब्ज का निवारण होगा. सुबह की चाय की जगह एक गिलास पानी में आधा नीबू निचोड़ कर पिएं. नीबू विटामिन सी से भरपूर होता है और छालों में राहत देता है. सुबह खाली पेट थोड़ा व्यायाम कर लेना सोने पर सुहागे की तरह है. इस से पाचनक्रिया दुरुस्त बनी रहती है और शरीर में चुस्तीफुरती रहती है.

उपचार है जरूरी

यों तो खानपान में परहेज व मुंह की ठीक ढंग से साफसफाई रखनेभर से ही छाले 6-7 दिनों में खुदबखुद ठीक हो जाते हैं और अकसर हमें किसी भी तरह के उपचार की आवश्यकता नहीं पड़ती है. पर कभीकभी किसी खास तरह के संक्रमण के कारण छाले बहुत अधिक बढ़ कर कष्टदायक हो जाते हैं और उन में पस पड़ जाने के कारण सैकंडरी संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है. ऐसी स्थिति में उन का उपचार किया जाना आवश्यक हो जाता है. सही उपचार से जल्द ही आराम मिल जाता है.

–       यदि मुंह के छालों का कोई विशेष कारण न हो तो हाइड्रोजन पेरौक्साइड में बराबर मात्रा में पानी मिला कर कुल्ले करने से राहत मिलती है.

–       आयोडीन या सिल्वर नाइट्रैट का 20 प्रतिशत घोल छालों पर लगाने से बहुत राहत मिलती है.

–       हाइड्रोकौर्टिसोन का 1 प्रतिशत मलहम घावों पर लगाने से वे शीघ्रता से भरते हैं. पर इस का उपयोग अधिक दिनों तक नहीं करना चाहिए.

–       छालों में पस पड़ जाने पर एंटीबायोटिक दवाएं देनी चाहिए.

–       फंगल इन्फैक्शन होने पर एंटीफंगल दवा खाने और लगाने के लिए लेनी चाहिए.

–       उचित मात्रा में मल्टीविटामिन व मल्टीमिनरल्स लेने चाहिए.

शोधपूर्ण किताबें लिखने के लिए मेहनत ही नहीं पैसा भी चाहिए

दुनिया की सबसे मशहूर और बिक्री के मामले में भी टाॅप-20 में अपनी जगह रखने वाली डोमनिक लापियर और लैरी काॅलिंस की किताब ‘फ्रीडम एट मिड नाइट’ बहुत परिश्रम के बाद लिखी गई थी. सिर्फ परिश्रम ही नहीं अगर इस किताब की रचना प्रक्रिया के संबंध में विभिन्न पत्रिकाओं में छपे लेखक द्वय की बातों पर यकीन करें तो उन्होंने इस किताब के लिखने के लिए 50 के दशक में 3 लाख डाॅलर खर्च करके शोध सामग्री जुटायी थी. अगर आज के विनमय मूल्य के हिसाब से देखें तो दोनो लेखकों ने उस जमाने में आज के हिसाब से करीब 2 करोड़ 10 लाख रुपये से ज्यादा रिसर्च में खर्च किये थे. यही नहीं इस किताब को लिखने में उन्हें करीब-करीब 27 साल लगे थे. 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद से ही दोनो लेखकों ने इतिहास और साहित्य के इस मिश्रित प्रोजेक्ट पर काम करना शुरु कर दिया था और किताब के रूप में उनका यह काम 1975 में दुनिया के सामने आया था.

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यह महज अकेला उदाहरण नहीं है कि दुनिया की महान किताबें कितने परिश्रम से लिखी जाती हैं. साथ ही कई बार इस परिश्रम में अच्छा खासा धन भी शामिल होता है. हालांकि धन के खर्च वाली बात महज 10 फीसदी किताबों के मामले में ही होता है, जिनके लेखक अपनी लेखनशैली से ज्यादा तथ्यों पर यकीन करते हैं. यह तो नहीं कहा जा सकता कि डोमनिक लापियर और लैरी काॅलिंस को अपनी लेखनशैली पर भरोसा नहीं था, लेकिन वह किताब को ज्यादा से ज्यादा वास्तविकता के नजदीक रखने के लिए जो जबरदस्त शोध कार्य किया था,

उसमें उन्हें बहुत ज्यादा श्रम तो करना ही पड़ा था, साथ ही अच्छी खासी रकम भी खर्च करनी पड़ी थी. यह अलग बात है कि जब किताब छपकर आयी तो उन्हें उनके खर्च से कई गुना ज्यादा दे गई. एक तरह से देखें तो इस किताब ने ही इन दोनो लेखकों को अच्छा खासा अमीर बना दिया था. लेकिन अमीर होने के बाद भी उन्होंने अपनी मशहूर किताबों में परिश्रम और खर्च के जज्बे को कम नहीं होने दिया. इतिहास के तथ्यों और साहित्य की चाशनी से बनी उनकी मशहूर किताबों में ‘पेरिस इज बर्निंग’ (1965), ‘फाॅल ऑफ़ ग्रेस’ (1968), ‘ओ जेरूसलम’ (1972), ‘मेज’ (1989), ‘ब्लैक ईगल्स’ (1993), ‘टुमारो बिलांग्स टु अस’ (1998) और ‘इज न्यूयार्क बर्निंग’ (2004) शामिल हैं.

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यह श्रम और खर्च की बात सिर्फ डोमनिक लापियर और लैरी काॅलिंस तक ही सीमित नहीं है बल्कि दुनिया की जितनी भी मशहूर किताबें हैं, आमतौर पर ज्यादातर में इतनी की मेहनत और काफी कुछ खर्च किया गया शामिल है. हां, विशुद्ध रूप से फिक्शन की बात अलग है. लेकिन मेहनत करके डाॅक्यू ड्रामा शैली की जो किताबें लिखी गई हैं,उनमें किसी हद तक ऐसी ही मेहनत और ऐसा ही खर्च शामिल है. हिंदी के मशहूर लेखक विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ लिखने में 14 साल लगाए थे और इन 14 साल में उन्होंने करीब-करीब पूरा बंगाल और दो तिहाई बिहार और एक बड़ा हिस्सा बर्मा (म्यामार) का छान मारा था. प्रभाकर जी ने यह हैरान कर देने वाली मेहनत तब की थी, जबकि उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, उन्होंने खुद चतुर्थ श्रेणी की नौकरी की जिसमें उन्हें एक महीने का वेतन महज 18 रुपये मिलता था. यह अलग बात है कि 1929 में उन्होंने डीएवी काॅलेज हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी और उसके बाद पंजाब विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करने के साथ-साथ, यहीं से भूषण, प्राज्ञ, विशारद और प्रभाकर जैसी हिंदी, संस्कृत परीक्षाएं भी उत्तीर्ण की थीं. बाद में उन्होंने अपनी ‘प्रभाकर’ सर्टिफिकेट को अपने सरनेम की तरह इस्तेमाल किया था.

हालांकि उन्होंने आवारा मसीहा के अलावा भी सैकड़ों किताबें लिखी हैं, लेकिन आवारा मसीहा उनकी एक ऐसी कालजयी कृति है, जो बाद में विश्वसनीय आत्मकथाओं का पैमाना बन गई. लेकिन डोमनिक लापियर और लैरी काॅलिंस की तरह उन्हें अपनी इस मशहूर कृति में श्रम तो बहुत ज्यादा करना पड़ा, लेकिन उन्हें अपनी इस लोकप्रिय किताब से वह आर्थिक संबल हासिल नहीं हुआ, जो संबल फ्रीडम एट मिड नाइट के लेखकों को हासिल हुआ था. लेकिन जब भी बहुत श्रम से लिखी गई किसी बहुत ही मशहूर किताब का जिक्र होता है तो उसमें आवारा मसीहा का नाम भी शामिल होता है. भारतीय लेखकों की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों में आवारा मसीहा को गिना जाता है. इसी क्रम में अगर हम नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक सर विदियाधर सूरजप्रसाद नायपाॅल की बात करें तो उनका भी काम करने का इतना ही श्रमपूर्ण तरीका था. नायपाॅल ने अपनी तमाम किताबों की विश्वसनीयता के लिए ऐसी ही मेहनत की थी.
नायपाॅल की एक बहुत मशहूर किताब है ‘अमंग द बिलीवर्स’ यह किताब लिखने के लिए उन्होंने कई महीने ईरान, पाकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया की खाक छानी थी.

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अपनी इस किताब के लिए सामग्री जुटाने के क्रम में सर विदियाधर ने करीब 500 लोगों से बात की थी, जिनमें लेखकों, डाॅक्टरों, कारोबारियों, अध्यापकों, मोटर मैकनिकों से लेकर मजदूर तक शामिल थे. अपनी इस किताब को लिखने के लिए तमाम सामग्री जुटाने के क्रम में नायपाॅल ने कई लाख डाॅलर खर्च किये थे. हालांकि उन्हें इसके लिए किसी को पैसा नहीं देना पड़ा था, मगर महीनों अलग अलग देशों में किताब के लिए सामग्री जुटाते हुए नायपाॅल ने अपने रहने, खाने और घूमने में जो खर्च किया था, वह बहुत ज्यादा था.

यह तो तय बात है कि किताबें सिर्फ परिश्रम से जुटायी गई शोध सामग्री की बदौलत ही नहीं लिखी जा सकतीं. अगर महज शोध सामग्री के जरिये किताबें लिखना संभव होता तो दुनिया में सबसे ज्यादा किताबें पत्रकारों के खाते में होतीं, क्योंकि किसी भी घटना के तह में जाने के लिए सबसे ज्यादा परिश्रम पत्रकार ही करते हैं. निश्चित रूप से किताब लिखने के लिए विश्वसनीय सामग्री जुटाने के इतर आपमें और भी बहुत सारी चीजों की जरूरत होती है, इनमें सबसे महत्वपूर्ण चीज है रचनात्मकता. लेकिन यह भी तय बात है कि रचनात्मकता के सहारे बेहद उम्दा फिक्शन तो लिखे जा सकते हैं, लेकिन जब भी हम डाॅक्यू ड्रामा पर काम करते हैं, उन्हें अपने लिखने का महत्वपूर्ण जरिया बनाते हैं, तब इस तरह के परिश्रम से तैयार सामग्री की जरूरत महसूस होती है. जो न सिर्फ बहुत श्रम से हासिल होती है बल्कि इसके लिए कई बार अच्छा खास खर्च भी करना पड़ता है.

कंगना रनौत और हिंमाशी खुराना में किसान बिल को लेकर बहस, ट्वीट हुआ वायरल

देश भर में नए किसान बिल के विरोध में प्रर्दशऩ जारी है. किसान बिल प्रर्दशन सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है. इस समर्थन में कई किसान उतर आएं हैं. वहीं कुछ लोग इसे विपक्ष की साजिश करार दे रहे हैं. वहीं बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत भी इसे विपक्ष की साजिश करार दे रही हैं.

तो वहीं पंजाब की जानी मानी सिंगर और एक्टर हिंमाशी खुराना किसानों के समर्थन में बोल रही हैं. बीते दिनों कंगना ने एक ट्वीट को रिट्वीट करते हुए लिखा शर्मनाक किसानों के नाम पर हर कोई रोटियां सेक रहा है. उम्मीद है सरकार किसी एंटीनशनलीस्ट को फायदा नहीं उठाने देगी.

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कंगना रनौत के ट्वीट पर हिमांशी खुराना ने जवाब देते हुए लिखा चलो अब फर्क नहीं रहा आप में और बॉलीवुड में अगर आपके साथ ऐसा होता तो शायद कनेक्ट कर पाती किसान चाहे गलत हो या सही ये सब डिक्टेटरशिप तका हिस्सा नहीं है.

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हिमांशा खुराना के अलावा देश के कई बड़े सितारे किसान बिल का खुलकर सपोर्ट कर रहे हैं. बता दें  कि हिमांशी खुराना शुरुआती दिनों से ही किसानों के समर्थन में रही हैं. बीते दिनों अदाराका किसान रैली का हिस्सा बनी थीं जिसके बाद वह कोविड 19 की शिकार भी हुई थी.

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जिसके बाद हिमांशी भीड़ में जाना बंद कर दिया और कोरेंटाइन हो गई. हाल ही में उन्होंने अपना जन्मदिन बेहद धूमदाम से मनाया है.

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जिसमें उनके कई दोस्त शामिल थें. साथ ही उनके करीबा रिश्तेदार भी शामिल हुए थें.

आदित्य नारायण और श्वेता अग्रवाल की तिलक सेरेमनी की फोटो वायरल, शादी की रस्मों की हुई शुरुआत

इंडियन आइडल 12 के होस्ट अपने जिंदगी में नए सफर की शुरुआत करने जा रहे हैं. आदित्या नारायण अपनी गर्लफ्रेंड श्वेता अग्रवाल के साथ जल्द शादी के बंधन में बंधने जा रहे है.

बता दें कि आदित्या और श्वेता 1 दिसूबर के दिन शादी  करने जा रहे हैं. इस शादी में महज कुछ दोस्त और रिश्तेदार हीशामिल होंगे. ऐसे में अभी से आदित्या नारायण की शादी से पहली की रस्मों को परिवार वाले निभाने शुरू कर दिए है.

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कल आदित्य नारायण और श्वेता अग्रवाल के तिलक सेरेमनी का आयोजन किया गया था. जिसमें दोनों को परिवार वाले बहुत ज्यादा खुश लग रहे थें. वही आदित्य की गर्लफ्रेंड श्वेता बला की खूबसूरत लग रही थी. दोनों को एक साथ देखकर दोनों परिवार वाले बेहद खुश नजर आ रहे थें.

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तिलक सेरेमनी के दौरान आदित्य नारायण परिवार वालों के संग जश्न मनाते नजर आ रहे थें. वहीं एक वीडियो में आदित्य और श्वता एक साथ बैठे नजर आ रहे हैं.

श्वेता अग्रवाल वीडियो में आरेंज कलर के ऑउटफिट में नजर आ रही हैं. तो आदित्य नारायण ग्रीन कलर के कुर्ता में नजर आ रहे हैं. दोनों बड़े प्यारे लग रहे हैं साथ में.

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हालांकि वीडियो को देखने के बाद अंदाजा लगा सकते हैं कि तिलक की थीम ऑरेंज रखी गई थी. समारोहमें हर कोई ऑरेंज आउटफिट में नजर आ रहा हैं. अगर दूसरी वीडियो की बात करें तो परिवार वालों संग डांस फ्लोर पर डांस करते नजर आ रहे हैं. दोनों साथ में बहुत क्यूट कपल लग रहे हैं.

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आदित्या नारायण के साथ उनकी मम्मी भी डांस फ्लोर पर पहुंची जहां सभी साथ में मस्ती करते देखे जा रहे हैं. इसके अलावा आदित्या नारायण पूरे परिवार के साथ पोज देते नजर आ रहे हैं.

कृषि सुधार कानून में गड़बड़झाला: कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के नाम पर किसानों से ठगी? 

केंद्र की मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि सुधार कानूनों में एक कानून Contract Farming से जुड़ा हुआ है. इसी contract farming का फायदा कुछ शातिर कम्पनियों ने उठाने की कोशिशें शुरू भी कर दी हैं. जिस का असर भी देखा जाने लगा है. राजस्थान के जैसलमेर, बाडमेर, बीकानेर जिले में हजारों एकड़ जमीन पर कई कम्पनियों ने contract farming शुरू की है. जिले के किसान अनपढ़ और भोले है जो थोड़े से लालच में कंपनियों से एग्रीमेंट कर रहे हैं लेकिन एग्रीमेंट के नियम इतने सख्त और अपारदर्शी हैं कि किसान चाह कर अपनी जमीन वापस नहीं ले सकेंगे.
 हैरानी की बात हैं कि एग्रीमेंट केवल इंग्लिश भाषा में हैै, जो कि किसानो की समझ से बाहर है. कंपनियों ने अपने कुछ दलाल किसानो को बहलाने फुसलाने के लिए रखे हुए है जो गांव दर गांव जा कर लोगो को बहलाफुसला रहें हैं. ऐसे में भूमि मालिक खेती में ज्यादा फायदा न देखते हुए जमीनों को लीज पर दे रहे हैं. जिले के ग्रामीण क्षेत्रों के भूमि मालिक एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर तो कर रहे हैं लेकिन उन्हें यह नहीं पता है कि एग्रीमेंट में क्याक्या शर्तें हैं.
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 पूरा एग्रीमेंट इंग्लिश में है और यहां के लोगों को समझ ही नहीं आ रहा है. Contract Farming में कई तरह की शर्ते (clause) है जिस से कानूनी कार्रवाई के दौरान कंपनी को ही फायदा होगा. किसान को पूरे तौर पर नुकसान उठाना पड़ सकता है. जैसलमेर में ज्यादातर सोलर एनर्जी के लिए  जमीन लीज पर ली जा रही है. ये एग्रीमेंट 29 साल और 11 माह के लिए किए जा रहे हैं. पहली और अजीब शर्त ये है कि भूमि मालिक यानी किसान चाह कर भी एग्रीमेंट को रद्द नहीं कर सकता, किसान के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है. कंपनी जब चाहे तो तब एग्रीमेंट रद्द कर सकती है. इस से सीधे तौर पर किसान को नुकसान है.
एग्रीमेंट के मुताबिक, जो कंपनी किसान से जमीन ले रही है और वह बैंक लोन लेने के लिए उस जमीन को किसी को भी  गिरवी रख सकती है. और ऐसा करने के लिए जरूरी एनओसी देने के लिए किसान बाध्य होंगे. इस नियम के तहत यदि कंपनी किसी किसान की जमीन को गिरवी रख कर लोन लेती है और बाद में लोन ना चुका पाने पर कंपनी का कुछ नहीं जाएगा, जब कि किसान की जमीन बैंक अथवा फाइनेंस कंपनी नीलाम कर सकती है. इस एग्रीमेंट में यह नियम भी है कि किसान एग्रीमेंट हो जाने के बाद जमीन पर लोन नहीं ले सकते.
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किसान के साथ कंपनी का समझौता (एग्रीमेंट) यदि समय से पहले खत्म होता है तो किसान को 6 महीने तक इंतजार करना पड़ेगा. फिर वो अपनी जमीन का इस्तेमाल कर सकता है. इस के अलावा एग्रीमेंट में एक और अजीबोगरीब Clause यह भी है कि यदि कंपनी 90 दिन तक किसान को किराया नहीं देती है तो उस के बाद किसान पहले केवल 120 दिन का नोटिस दे सकता है. अगर नोटिस पीरियड के बाद भी पैसा नहीं देता तो फिर कानूनी प्रक्रिया शुरू होगी. साथ ही अगर फाइनेंस कंपनी में जमीन गिरवी है तो उसे भी नोटिस देना होगा. इस के बाद ही किसान को जमीन वापस मिलेगी. लेकिन यह कार्रवाई को पूरी करने का Procedure 7 महीने का है. इस के अलावा किसान के पास कोई अधिकार नहीं होगा.
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एग्रीमेंट की शर्तों में एक यह भी जिक्र है कि यदि समझौते के अनुसार बैंक को भुगतान करने में कंपनी फेल हो जाए तो भूमि मालिक को 12 प्रतिशत ब्याज चुकाना पड़ेगा. यह शर्त समझ से परे है कि जब कंपनी कीे ओर से भुगतान देने में देरी होगी तो भूमि मालिक ब्याज क्यों चुकाएगा? जानकारों की मानें तो एग्रीमेंट में इस तरह के नियम जानबूझकर शामिल किए गए है, जिस का खामियाजा किसान को ही भुगतना पडेगा.
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