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चिनम्मा- भाग 1: चिन्नू का गेट पर कौन इंतजार कर रहा था?

एक सीमित सी दुनिया थी चिनम्मा की. गरीबी में पलीबढ़ी वह, फिर भी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी लेकिन उस के अप्पा की मंशा तो कुछ और ही थी…

पढ़तेपढ़ते बीच में ही चिनम्मा दीवार पर टंगे छोटे से आईने के सामने खड़े हो ढिबरी की मद्धिम रोशनी में अपना चेहरा फिर से बड़े गौर से देखने लगी. आज उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल नहीं लग रहा था. शाम से ले कर अब तक न जाने कितनी बार आईने के सामने खड़ी हो वह खुद को निहार चुकी थी. बड़ीबड़ी कजरारी आंखें, खड़ी नाक, सांवला पर दमकता रंग और मासूमियतभरा अंडाकार चेहरा. तभी हवा का एक ?ोंका आया और काली घुंघराली लटों ने उस के आधे चेहरे को ढक कर उस की खूबसूरती में चारचांद लगा दिए. एक मधुर, मंद मुसकान उस 18 वर्षीया नवयुवती के चेहरे पर फैल गई. उसे अपनेआप पर नाज हो रहा था. हो भी क्यों न. किसी ने आज उस की तारीफ करते हुए कहा था, ‘चिनम्मा ही है न तू, क्या चंदा के माफिक चमकने लगी इन 3 सालों में, पहचान में ही नहीं आ रही तू तो.’

तभी अप्पा की कर्कश आवाज आई, ‘‘अरे चिन्नू, रातभर ढिबरी जलाए रखेगी क्या? क्या तेल खर्च नहीं हो रहा है?’’ तेल क्या तेरा मामा भरवाएगा. चल ढिबरी बुझा और सो जा चुपचाप. अप्पा की आवाज सुन कर वह डर गई और ?ाट से ढिबरी बु?ा कर जमीन पर बिछी नारियल की चटाई पर लेट गई. अप्पा शराब के नशे में टुन्न था. चिनम्मा को पता था कि ढिबरी बु?ाने में जरा सी भी देर हो जाती तो वह मारकूट कर उस की हालत खराब कर देता. अगर अम्मा बीचबचाव करने आती, तो उसे भी चुनचुन कर ऐसी गालियां देता कि गिनना मुश्किल हो जाता. पर आज उसे नींद भी नहीं आ रही थी. रहरह कर साई की आवाज उस के कानों को ?ांकृत कर रही थी.

चिनम्मा एक गरीब मछुआरे की इकलौती बेटी है. उस के आगेपीछे कई भाईबहन आए, पर जिंदा नहीं बच पाए. अम्मा व अप्पा और गांववालों को विश्वास है कि ऐसा समुद्र देवता के कोप के कारण हुआ है. चूंकि समुद्र के साथ मछुआरों का नाता अटूट होता है, इसलिए अपनी जिंदगी में घटित होने वाले सारे सुखोंदुखों को वे समुद्र से जोड़ कर ही देखते हैं. अप्पा चिनम्मा को प्यार करता है पर जब ज्यादा पी लेता है तो बेटा नहीं होने की भड़ास भी कभीकभी मांबेटी पर निकालता रहता है.

लंबेलंबे नारियल और ताड़ के वृक्षों से आच्छादित चिनम्मा का छोटा सा गांव यारडा, विशाखापट्टनम के डौल्फिन पहाड़ी की तलहटी में स्थित है, जिस का दूसरा हिस्सा बंगाल की खाड़ी की ऊंची हिलोरें मारती लहरों से जुड़ा हुआ है. आसपास का दृश्य काफी लुभावना है. लोग दूरदूर से यारडा बीच (समुद्र तट) घूमने आते हैं. प्राकृतिक सौंदर्य से यह गांव व इस के आसपास का इलाका जितना संपन्न है आर्थिक रूप से उतना ही विपन्न.

गांव के अधिकांश निवासी गरीब मछुआरे हैं. मछली पकड़ कर जीवननिर्वाह करना ही उन का मुख्य व्यवसाय है. 30-35 घरों वाले इस गांव में 5-6 पक्के मकान हैं जो बड़े और संपन्न मछुआरों के हैं. बाकी सब ?ोंपडि़यां ईटपत्थर और मिट्टी की बनी हैं, जिन पर टीन और नारियल के छप्पर हैं. गांव में 2 सरकारी नल हैं, जहां सुबहशाम पानी लेने वालों की भीड़ लगी रहती है. नजर बचा कर एकदूसरे के मटके को आगेपीछे करने के चक्कर में लगभग रोज वहां महाभारत छिड़ा रहता है. कभीकभी तो हाथापाई की नौबत भी आ जाती है.

गांव से करीब एक किलोमीटर पर 12वीं कक्षा तक का सरकारी विद्यालय है जहां आसपास के कई गांव के बच्चे पढ़ने जाते हैं. कहने को तो वे बच्चे विद्यालय जाते हैं पढ़ने, पर पढ़ने वाले इक्कादुक्का ही हैं, बाकी सब टीवी, सिनेमा, फैशन, फिल्मी गाने और सैक्स आदि की बातें ही करते हैं. उन्हें पता है कि बड़े हो कर मछली पकड़ने का अपना पुश्तैनी धंधा ही करना है तो फिर इन पुस्तकों को पढ़ने से क्या फायदा?

पर चिनम्मा इन से थोड़ी अलग है. वह बहुत ध्यान से पढ़ाई करती है. उसे बिलकुल पसंद नहीं है मछुआरों की अभावभरी जिंदगी, जहां लगभग रोज ही मर्र्द शराब के नशे में औरतों, बच्चों से गालीगलौज और मारपीट करते हैं. ये औरतें भी कुछ कम नहीं. जब मर्द अकेला पीता है तो उन्हें बरदाश्त नहीं होता, अगर हाथ में कुछ पैसे आ जाएं तो ये भी पी कर मदहोश हो जाती हैं.

गांव में सरकारी बिजली की सुविधा भी है. फलस्वरूप हर ?ोंपड़ी में चाहे खाने को कुछ न भी हो पर सैकंडहैंड टीवी जरूर है. हां, यह बात अलग है कि समुद्री चक्रवात आने या तेज समुद्री हवा चलने के कारण अकसर इस इलाके में बिजली 8-10 दिनों के लिए गुल हो जाती है. अभी 3 दिनों पहले आए समुद्री हवा के तेज ?ोंके से बिजली फिर गुल हो गई है गांव में. शायद 2-4 दिन और लगें टूटे तारों को ठीक होने और बिजली आने में. तब तक तो ढिबरी से ही काम चलाना पड़ेगा पूरे गांव वालों को.

आज अम्मा जब काम से लौटी तो शाम होने वाली थी, ज्यादा थकी होने के कारण उस ने चिन्नू (चिनम्मा) को रामुलु अन्ना से उधार में केरोसिन तेल लाने भेजा था. अन्ना ने उधार के नाम पर तेल देने से मना कर दिया क्योंकि पहले का ही काफी पैसा बाकी था उस का. पर चिन्नु कहां मानने वाली थी, मिन्नतें करने लगी, ‘‘अन्ना तेल दे दो वरना अंधेरे में खाना कैसे बनाऊंगी आज मैं? अम्मा ने कहा है, अभी अप्पा पैसे ले कर आने वाला है. अप्पा जैसे ही पैसे ले कर आएगा, मैं दौड़ कर तुम्हें दे जाऊंगी.’’

Crime Story: आखिर अपराधी पुलिस को फिंगरप्रिंट देने से इतनी आनाकानी क्यों करते हैं?

जी,हाँ बड़े अपराधियों को तो छोड़िये, छोटा से छोटा अपराधी भी आराम से पुलिस को अपने फिंगरप्रिंट नहीं लेने देता. जबकि पुलिस हमेशा अपराधियों के फिंगरप्रिंट पाने के फिराक में रहती है. यही वजह है कि जब भी पुलिस किसी अपराध के मौका-ए-वारदात में पहुंचती है, तो सबसे पहले फोरेंसिक एक्सपर्ट वहां अपराधियों के फिंगरप्रिंट तलाशते हैं. यह कवायद इसलिए होती है; क्योंकि अगर अपराधी के फिंगरप्रिंट मिल गये तो उसकी पहचान अकाट्य रूपसे आसान हो जाती है. फिंगरप्रिंट का मिलान हो जाने पर कोई अपराधी पुलिस को चकमा नहीं दे सकता.

सवाल है,ऐसा इसलिए होता है ? ऐसा इसलिए होता है,क्योंकि धरती का हर इंसान अपनी ही तरह के एक खास फिंगरप्रिंट के साथ पैदा होता है और दुनिया के किन्हीं भी दो मनुष्यों के फिंगरप्रिंट एक जैसे नहीं होते. यहां तक कि साथ साथ पैदा हुए दो जुड़वां बच्चों के भी फिंगरप्रिंट एक दूसरे से भिन्न होते हैं. कोई अपराधी कितनी भी चालाकी कर ले, लेकिन वह अपने फिंगरप्रिंट नहीं बदल सकता. हद तो यह है कि फिंगरप्रिंट इंसान के मरने के बाद भी तब तक ज्यों के त्यों रहते हैं, जब तक अंगुलियों में त्वचा बरकरार रहती है.

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फिंगरप्रिंट के संबंध में एक अद्भुत किस्सा सुनिये . अमरीका के हेंस गलासी ने वेक बोर्डिग के दौरान हुई एक दुर्घटना में अपनी कई अंगुलियां गंवा दी थीं . इनमें से एक उंगली एक मछली के पेट में मिली. अब आप कह सकते हैं, ये कैसे पता कि वह अंगुली हेंस गलासी की ही थी, तो जनाब इसका पता यूं चला कि मछली के पेट में मिली उंगली के फिंगरप्रिंट हेंस के फिंगरप्रिंट से हूबहू मिल गये. चूंकि दुनिया में किन्हीं भी दो इंसानों के फिंगरप्रिंट एक से नहीं होते,इसलिए वह उंगली हेंस गलासी की हुई. फिंगरप्रिंट को लेकर यह सवाल भी उठता है कि आखिर उंगली में निशान कब तक रहते हैं? वैज्ञानिकों का मानना है कि इंसान के मरने के बाद भी जब तक फिंगर बची रहती है, यानी उँगलियों में त्वचा बनी रहती है तब तक फिंगरप्रिंट ज्यों का त्यों रहते हैं.

मतलब यह कि इंसान की अंगुलियों के निशान कभी नहीं मिटते. एक और बात जान लीजिए कि अंगुलियों के ये विशेष निशान सिर्फ हाथ की उँगलियों तक ही सीमित नहीं होते बल्कि हथेली और पैर के तलवों में भी ऐसे ही अद्वितीय निशान या प्रिंट होते हैं. हाथ चोटिल हो जाय, लगातार बर्तन धोयें, ईंट भट्टों में ईंट बनाने का काम करने,इस सबसे त्वचा काफी खराब हो जाती है,जिस कारण अंगुलियों के निशान यानी फिंगरप्रिंट तात्कालिक तौरपर धुंधले पड़ जाते हैं या मिट भी जाते हैं. लेकिन जैसे ही हम इस तरह की गतिविधियों से बाहर आते हैं, अंगुलियों के निशान फिर वैसे के वैसे हो जाते हैं, जैसे मां के पेट से पैदा होने के समय थे.

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हद तो यह है कि पिछली सदी के 1930 के दशक में एक अमरीकी गैंग्स्टर जॉन डिलिंजर ने अपने फिंगरप्रिंट छुपाने के लिए हाथों को तेजाब से जला लिया. लेकिन तेजाब से जली हुई त्वचा जैसे ही ठीक हुई, डिलिंजर की अंगुलियों में फिर वैसे ही निशान आ गये, जैसे पहले थे. कहने का मतलब यह कि हाथ की अंगुलियों के निशान अजर अमर हैं. इन्हें किसी साजिश के तहत कुछ समय के लिए तो हटाया जा सकता है. लेकिन हमेशा के लिए तभी ये हट सकते हैं, यदि हाथ काट दिये जाएं. एक और अपराधी रोबर्ट फिलिप्स ने तो अंगुलियों के निशान से छुटकारा पाने के लिए अपनी अंगुलियों पर सीने की त्वचा की सर्जरी करवा ली थी, लेकिन यह होशियारी भी बेकार गई; क्योंकि अंगुलियों की त्वचा जल्द ही फिर से पहले जैसे हो गई.

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सवाल है ऐसा कैसे होता है? ब्रिटेन की पुलिस के लिए मैन्युअल तैयार करने वाले फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट ऐलन बायली के मुताबिक ऐसा फ्रिक्शन रिजेश यानी भारी घर्षण बल के कारण होता है. जब तक इंसान की त्वचा सड़कर नष्ट नहीं हो जाती, तब तक अंगुलियों के निशान मिट नहीं सकते. लब्बोलुआब यह कि जब तक इंसान की अंगुलियों  में त्वचा है, तब तक अंगुलियों के निशान अजर अमर हैं .

बिग बॉस 14: एजाज खान ने जान कुमार सानू का हाथ डलवाए टॉयलेट में तो लोगों ने किया ये कमेंट

बिग बॉस के घर में कब क्या हो जाए किसी को कुछ नहं पता होता है. ऐसे में आएं दिन कुछ न कुछ ड्रामा होता रहता है. ऐसे में कब किसके साथ क्या हो जाए कुछ नहीं जानता है. नॉमिनेशन टास्क में एजाज खान ने जैसे पवित्रा पुनिया को धोखा दिया था.

ये बात जान कुमार सानू के गले से नीचे नहीं उतरी थी. वहीं जान कुमार सानू के हालात को देखते हुए एजाज खान ने अपनी भड़ास को निकालने के लिए खरीखोटी सुनाने लगे.

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वहीं बिग बॉस 14 के अपकमिंग टास्क में लग्जरी बजट टास्क दिया जाएगा. एक टीम फरिश्ता का रिश्ता निभाते नजर आएगा तो वहीं दूसरा टीम शैतानों की भूमिका में नजर आएगी.

शैतानों की टीम समय-समय पर नया कार्य देती रहेंगी. इस टास्क के लिए घरवालों को दो टमों में बांटा जाएगा. अगर कोई टीम कार्य करने से मना करेगा तो उस टीम को बाहर निकाल दिया जाएगा. इस टीम के टास्क को पूरा करने के लिए एजाज खान अपनी सारी हदें पार करते नजर आएंगे.

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एजाज खान जान कुमार सानू के टॉयलेट में हाथ डालने को कहेंगे जिसके बाद से वह हाथ को चाटने के लिए भी बोलेंगे. एजाज खान की इस घटिया हरकत के बाद घर के कई सारे लोग उनसे नफरत करना शुरु कर देंगे.

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एजाज खान इस हरकत के बाद घरवालों की नजरों में और भी ज्यादा गिर जाएंगे . अब देखना यह है कि एजाज खान  के साथ घरवाले किस तरह के वर्ताव करते हैं. क्या एजाज खान को लोग पसंद कर पाएंगे. या फिर आगे तक एजाज खान घर में रुक पाएंगे या नहीं.

ये रिश्ता क्या कहलाता है: आखिर क्यों कायरव ,वंश और कृष को किडनैप करने की कोशिश करेगा आदित्या

ये रिश्ता क्या कहलाता है में आए दिन कुछ न कुछ नया ड्रामा देखने को मिलता है. पिछले दिनों दिखा था कि नायरा कायरव को बोर्डिंग को स्कूल भेजने की तैयारी कर रही है. इन सब के बावजूद भी  मुसीबत कम होने का नाम नहीं ले रही है.

दरअसल, नायरा कार्तिक की वजह से कृष्णा और कायरव में दोस्ती अच्छी हो गई है. इससे पहले कैरव कृष्णा से बात भी नहीं करना चाहता था. वहीं अब कृष और वंश भी कृष्णा को अपनी बड़ी बहन मानने को तैयार हो गए है.

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खैर एक बार फिर इस सीरियल को देखने वाले लोगों को झटका लगने वाला है. नायरा और कार्तिक के खिलाफ एक बार फिर आदित्या अपना अलग दाव खेलता नजर आएगा.

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एक रिपोर्ट के अनुसार कृष, वंश और कायरव को आदित्या बहलाते फुसलाते नजर आएगा. आदित्या तीनों को किडनैप करने की कोशिश करना चाहेगा. फिर गोयनका परिवार से मांग करते नजर आएगा. वहीं कृष, वंश और कैरव जल्द ही उनके इरादे को भांप लेंगे. लेकिन बच्चें जल्द ही उसके इरादे को पहचान लेंगे.

अपनी प्लानिंग के अनुसार कृष, वंश और कायरव आदित्या की बहुत ज्यादा पिटा करते नजर आएंगे. जैसे ही तीनों घर पहुंचकर परिवार वाले को सारी बात बताएंगे सभी लोग हैरान हो जाएंगे. वहीं नायरा और कार्तिक के होश उड़ जाएंगे.

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घर वाले सारे बातों को जानने के बाद पुलिस को केस दर्ज करवाने के बारे में सोचेंगे. जिसके बाद आदित्या की सच्चाई सामने आ जाएगी.

वहीं सीरियल के मेकर्स लगातार इसकी टीआरपी  लाने के लिए कोशिश कर रहे हैं. लेकिन सीरियल की टीआरपी पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. अब देखना यह है कि आगे सीरियल में होता क्या है.

Diwali Special: मालपुआ कम समय में कैसे बनाएं, जानें यहां

मालपुआ एक पारंपरिक डिश है जो लगभग हर घर में बनाया जाता है. इसे हर जगह- अलग-अलग तरीके से बनाया जाता है आइए जानते हैं मालपुआ बनाने का आसान तरीका.

समाग्री

1 कप मैदा छना हुआ,

1 कप दूध, 1 चम्मच सौंफ,

डेढ़ कप शक्कर,

1 चम्मच नीबू रस,

घी (तलने और मोयन के लिए),

डेकोरेशन के लिए मेवे की कतरन,

1 चम्मच इलायची पावडर

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विधि

-पहले मैदे में दो बड़े चम्मच घी का मोयन डालें, तत्पश्चात दूध और सौंफ मिलाएं और घोल तैयार कर लें. एक मोटे पेंदे के बर्तन में शक्कर, नीबू रस और तीन कप पानी डालकर चाशनी तैयार कर लें.

-एक कड़ाही में घी गर्म करके एक बड़े चम्मच से घोल डालते जाएं और करारा फ्राई होने तक तले . फिर चाशनी में डुबोएं और एक अलग बर्तन में रखते जाएं.

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-इस तरह सभी मालपुआ तैयार कर लें और ऊपर से मेवे की कतरन और इलायची बुरका कर अमावस्या पर शंकरजी को मालपूए का भोग लगाएं.

Short Story: लौकडाउन के बाद का एक दिन

लेखिका- सुनीता चंद्र

“अरे मिस्टर गुप्ता सुनो ना, प्लीज, आज आप वैसी सब्जी बनाओ ना, जैसे आप ने लौकडाउन में सीखी थी. मुझे बहुत अछी लगी थी. मैं ने आप से तब भी कहा था कि परफेक्ट बनी है. याद है न आप को,” सौम्या बोली.

नहींनहीं, आज नहीं, आज छुट्टी का आखिरी दिन है. कल से तो औफिस खुल जाएगा. आज तो बिलकुल नहीं बनाऊंगा, फिर कभी…

“ओके, मैं जरा मार्केट तक जा रहा हूं. कूरियर करना है,” राजेश ने कहा और बाहर निकल गया.

और इधर सौम्या सिर्फ मुसकरा कर कह रही थी, “अच्छा बच्चू अभी से नखरे… और मैं जो इतने दिनों से खाना बना रही हूं उस का क्या. मैं ने भी आज आप से खाना न बनवाया, तो मेरा नाम भी सौम्या नहीं,” ऐसा कह कर सौम्या ने जा कर लेपटाप बंद किया और बाकी काम करने में जुट गई. एक घंटा हो गया, राजेश अभी तक नहीं आए थे, सोचने लगी, चलो, मैं ही कुछ बना देती हूं हलकाफुलका सा, अभी डिनर भी है. हो सकता है कि तब पकड़ मे आ जाएं.

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ऐसा सोच कर फ्रिज खोला तो लौकी देखी और वह लौकी को छीलने लगी.

“अरे कहां हो? खाना लगाओ. मुझे बड़ी भूख लगी है,” राजेश ने आते ही कहा.

“मिस्टर गुप्ता, अभी तो खाना बना ही नहीं है, तो कहां से लगा दूं,” सौम्या बोली.

“क्यों…? अभी तक क्यों नहीं बना? इतने बजे तक तो तुम हमेशा बना लेती थीं. आज क्या हो गया.”

“हुआ तो कुछ नहीं. बस आज आप के हाथ का खाना खाने का मन था, तो इसलिए… बाकी कुछ नहीं. अभी बना रही हूं.”

“लौकी… लौकी,” उस ने कुछ लंबा खींच कर कहा.

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“क्या…? मुझे नहीं खानी है लौकी,” राजेश बोला.

“फिर क्या खाओगे? अब इतनी जल्दी में इस से ज्यादा कुछ नहीं बन सकता है मिस्टर गुप्ता,” उस ने बड़े भोलेपन से कहा.

“अच्छा, पहले तुम मेरे पास आओ. मुझे कुछ पूछना है.”

“पूछिए, क्या पूछना है?”

“ये तुम मुझे मिस्टर गुप्ता क्यों कहती हो, राजेश नहीं कह सकती हो.”

“क्यों? आप को अच्छा नहीं लगता मेरा ये कहना.”

“नहींनहीं, ये बात नहीं है.”

“फिर क्या बात है मिस्टर गुप्ता…” उस ने राजेश का गाल खींचते हुए कहा.

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“जब तुम मिस्टर गुप्ता कहती हो तो ना जाने क्यों मुझे लगता है कि इस शब्द में तुम ने मुझे अपना पूरा प्यार समेट कर मुझे पुकारा या मेरा नाम लिया है.”

“सो तो है मिस्टर गुप्ता,
हमारी शादी को 3 महीने हो गए, और हम साथसाथ हैं जब से हमारी शादी हुई है, हम घर पर ही हैं, अब औफिस खुलने वाले हैं तो हम दोनों को ही औफिस जाना है, फिर कैसे मैनेज करेंगे?”

“तुम चिंता मत करो स्वीट हार्ट… मै हूँ न. मैं ने काफीकुछ सीख लिया है. इस पिछले 3 महीने में, खाना भी बनाना सीख लिया है.”

“क्या फायदा सीखने का, जब आप बनाओगे ही नहीं.”

“अरे, क्यों नहीं बनाऊंगा.”

“अभी मना किया है न आप ने.”

“हां, आज मूड नहीं है, फिर कभी बनाऊंगा.”

“ठीक है, मै चली किचन में…”

इतने में सौम्या के फोन की घंटी बजी. देखा तो सासू मां का फोन है. नंबर देख कर फिर उस के दिमाग में प्लान आया और फोन उठाया.

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“चरण स्पर्श मांजी,” बड़े प्यार से उस ने अपनी सासू मां को बोला.

ये देख कर राजेश हैरान रह गया. सोचने लगा, ‘क्या सौम्या रोज ही ऐसे बात करती है मां से. मैं ने क्यों नहीं ध्यान नहीं दिया आज तक.’

इधर सौम्या बड़े अपनेपन से हंसहंस कर बात कर रही थी, और सासू मां भी सोच रही होंगी कि क्या खजाना मिल गया बहू को.

इधर राजेश ने सौम्या को देखा, फिर मन में आया कि ‘सौम्या कितनी अच्छी है. सब का कितना ध्यान रखती है, मेरा भी और मेरे घर वालों का भी. घर का काम भी खुद करती है.

‘मैं तो कभीकभी हाथ बंटा देता हूं. अब तो औफिस भी जाया करेगी तो कैसे करेगी मैनेज? घर और औफिस, नहींनहीं, मैं इस को परेशान नहीं देख सकता. कितनी अच्छी है सौम्या, मेरी जिंदगी संवार रही है और एक मैं हूं कि खाना बनाने के लिए भी…

‘चलो, इतने में ये बात कर रही है, मैं उस दिन वाली सब्जी बना देता हूं. बेचारी ने कितने मन से कहा था और मैं…’ ये सोचतेसोचते राजेश किचन में पहुंच चुका था.

सौम्या ने देखा कि राजेश किचन में चला गया है, तो उस के होंठों पर हंसी आ गई. अब आप की कमजोर नस मेरे हाथ लग गई है मिस्टर गुप्ता. मां सच ही कहती हैं कि पति के घर वालों का ध्यान रखो, तो पति तो खुद ही खुश रहेगा.

उस ने जल्दी से सासू मां को प्रणाम किया और दौड़ कर किचन में आई, और राजेश को देख कर बोली, “मिस्टर गुप्ता, आप क्या कर रहे हो, हटिए, मैं बनाती हूं खाना.”

राजेश ने सौम्या के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले कर कहा, “सौम्या, तुम बैठो या फिर और कुछ कर लो. खाना मैं बनाता हूं.”

“नहींनहीं मिस्टर गुप्ता, मैं ही बनाती हूं.”

“अरे सौम्या, मानो भी मैं ही बनाता हूं.”

“अच्छा चलो, साथ मिल कर बनाते हैं,” सौम्या बोली. फिर दोनों ही लंच तैयार करने मे जुट गए. वाकई सब्जी लाजवाब बनाई थी राजेश ने. बरतन उठाते हुए सौम्या बोली, “आप चलो, बाकी मैं करती हूं. बरतन साफ कर के कौफी बना कर लाती हूं, आराम से लौन मे झूले पर बैठ कर पिएंगे.”

“ठीक है, पर जल्दी आना,” राजेश ने कहा.

“जी मिस्टर गुप्ता,” कह कर उस ने अपनी एक आंख दबा दी.

सौम्या मन ही मन बहुत खुश थी कि आज मैं ने खाना आखिर बनवा ही लिया. अब आगे क्या, मुझे भी औफिस जाना होगा, तब कैसे संभालूंगी? नौकरानी रख नहीं सकते. ‘कोई बात नहीं मिस्टर गुप्ता, हम कोई हल निकाल ही लेंगे,’ सोचतेसोचते कौफी ले कर राजेश के पास आ कर बैठ गई. इधर राजेश तो जैसे उसी का इंतजार कर रहा था.

‘सौम्या कितनी देर कर दी तुम ने आने में,” राजेश बोला.

“देर कर दी… भई किचन समेट कर बरतन धो कर कौफी बना कर लाई हूं, कुछ वक्त तो लगता ही है मिस्टर गुप्ता,” सौम्या ने अपने लहजे में कहा.

“अच्छा ठीक है, मैं क्या सोच रहा था कि जब तुम औफिस जाने लगोगी, तो तब ये सब कैसे मैनेज करोगी?” राजेश ने कुछ चिंतित हो कर कहा.

“हां, मैं भी यही सोच रही हूं,” सौम्या ने भोला सा चेहरा बना कर कहा और राजेश के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

“सौम्या, मैं सोच रहा हूं कि अब औफिस खुल गए हैं और घर और औफिस का काम एकसाथ करना मुश्किल हो जाएगा, तो हम फुलटाइम एक मेड रख लेते हैं.”

“नहींनहीं मिस्टर गुप्ता, ये मुमकिन नहीं हैं, हमारा बजट इतना नहीं हैं कि हम अभी ये फालतू खर्च कर सकें. अपना घर हो जाएगा तो फिर सोचेंगे.

“अच्छा ऐसा करते हैं कि हम मम्मीजी को यहां ले आते हैं, थोड़ा हमें सहारा भी हो जाएगा और वो भी खुश हो जाएंगी हमारे साथ रह कर,” सौम्या ने सुझाव दिया.

“तो क्या वो काम करने आएंगी हमारे यहां?” राजेश ने तल्खी से कहा.

“नहींनहीं मिस्टर गुप्ता, ऐसा नहीं हैं. घर की साफसफाई और कपड़ों के लिए तो मैं ने मिसेज शर्मा को बोल दिया है कि वे अपनी बाई को मेरे यहां भी भेज दें और उन्होंने हां भी भर दी है. बस थोड़ा खाना बनाने में मदद मिल जाएगी और कुछ नहीं. और हमें अच्छा भी लगेगा,” सौम्या ने कुछ मुंह लटका कर कहा.

“अरे, तुम मायूस क्यों होती हो? मैं हूं ना, मैं भी हेल्प करूंगा. मां को क्यों परेशान करना, जब मेरी और तुम्हारी वेकेशन होगी तब मां को बुलाएंगे,” राजेश ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा.

“ठीक है, अब जरा हंसो मिस्टर गुप्ता. आप ऐसे ही मुझे उल्लू बना लेते हो,” सौम्या बोली.

अब अगले दिन सुबह उठ कर देखा तो 6 बजे थे. इतने ही में घंटी बजी, तो बाई सामने खड़ी थी. सौम्या खुश हो गई. घंटी की आवाज सुन कर राजेश भी उठ कर आ गया था. अरे वाह सौम्या, तुम ने तो बाई का भी इंतजाम कर लिया और टाइम भी परफेक्ट चुना.

सौम्या मुसकराई और जल्दीजल्दी बाई को काम समझाने लगी और बोली, “देखो, मैं खाना बनाने जा रही हूं. तुम 9 बजे तक सारा काम निबटा लेना.”

“ठीक है,” बाई ने गरदन हिला कर कहा.

रसोई में जा कर सौम्या जल्दीजल्दी खाना बनाने में लग गई. अभी 15 मिनट ही हुए थे कि राजेश रसोई में आया और बोला, “चलो, मैं सब्जी काट देता हूं और तुम बना लेना, मैं आटा गूंथ दूंगा, तुम रोटी बना देना. फिर ब्रेकफास्ट की तैयारी भी ऐसे ही मिलजुल कर कर लेंगे.”

“क्या बात हैं मिस्टर गुप्ता, आप तो एक दिन में ही बदल गए,” सौम्या ने राजेश के गले में बांहें डाल कर आंखों में आंखें डाल कर कहा.

“देखो सौम्या, अब तुम खुद भी लेट होओगी और मुझे भी काराओगी,” राजेश बोला.

“अरे मिस्टर गुप्ता, मैं न आप को लेट करूंगी और न ही खुद लेट हुआ करूंगी,” सौम्या बोली.

“वो कैसे भला?” राजेश ने पूछा.

“क्योंकि मैं अब आप के साथ ही औफिस जाया करूंगी और आप के साथ ही आया करूंगी,” सौम्या ने बताया.

“नहींनहीं, ये नहीं हो सकता, तुम्हारा औफिस पूरब में है और मेरा पश्चिम में, हम दोनों साथसाथ कैसे जा सकते हैं?” राजेश बोला.

“मैं जानती हूं बाबा, पर तुम नहीं जानते कि मेरा आज से पश्चिम वाली ब्रांच में ट्रांसफर हो गया है,” सौम्या ने बताया.

इतना सुन कर राजेश ने सौम्या को गोद में उठाया और गोलगोल घुमाना शुरू कर दिया, और बोला, “अरे वाह, पत्नी हो तो ऐसी, जो सब मैनेजे कर ले.”

“मैं ने तो सब मैनेज कर दिया मिस्टर गुप्ता, अब आप की बारी है,” सौम्या बोली.

“हां सौम्या, मैं भी पीछे नहीं रहूंगा, तुम्हारा पूरापूरा साथ दूंगा. बस तुम ऐसी ही रहना,” कह कर राजेश ने उस के माथे पर किस कर दिया. सौम्या लजा कर उस के गले लग गई और मन ही मन सोचने लगी कि सच में पति को खुश करना बड़ा ही आसान है. फिर दोनों ने मिल कर ब्रेकफास्ट और टिफिन तैयार किया और तैयार हो कर साथसाथ ऑफिस जाने लगे. अब ये राजेश का नियम बन गया था कि वो सौम्या की हर तरह से मदद करता और सौम्या भी खुशहाल जिंदगी में खोने लगी थी.

लौट जाओ सुमित्रा- भाग 3 : आखिर क्यों छटपटा रही थी सुमित्रा

‘‘यह कैसा भ्रम है सुमित्रा?’’ उन के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी. ‘‘यह कटु सत्य है,’’ उस की वाणी में तटस्थता थी. झिझक खुल जाना ही अहम होता है. फिर डर नहीं रहता.

‘‘कितने वर्ष हो गए हैं विवाह को?’’ ‘‘यही कोई 12.’’

‘‘जिस इंसान के साथ तुम 12 वर्षों से रह रही हो, उस से प्यार नहीं करतीं. बात कुछ निरर्थक प्रतीत होती है?’’ ‘‘यही सच है. मैं ने अपने पति से एक दिन भी प्यार नहीं किया. वास्तविकता तो यह है कि मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वे मेरे पति हैं. एक पत्नी होेने का स्वामित्व, अधिकार दिया ही कहां मुझे.’’ हर जगह एक तरलता व्याप्त हो गई थी.

‘‘यह क्या कह रही हो, पति का पति होना महसूस न हुआ हो. रिश्ते इतने क्षीण धागे से तो नहीं बंधे होते हैं. परस्परता तो साथ रहतेरहते भी आ जाती है. एहसासों की गंध तो इतनी तीव्र होती है कि मात्र स्पर्श से ही सर्वत्र फैल जाती है. तुम तो 12 वर्षों से साथ जी रही हो, पलपल का सान्निध्य, साहचर्य क्या निकटता नहीं उपजा सका? मुझे यह बात नहीं जंचती,’’ स्वर में रोष के साथ आश्चर्य भी था. सुमित्रा पर गहरा रोष था कि क्यों न वह प्यार कर सकी और अपने ऊपर ग्लानि. अपनी शिष्या, जो बाल्यावस्था से ही उन की सब से स्नेही शिष्या रही है, को न समझ पाने की ग्लानि. कहां चूक हो गई उन से संस्कारों की धरोहर सौंपने में. उन्हें ज्यादा दुख तो इस बात का था कि अब तक वे उस के भीतर जमे लावे को देख नहीं पाए थे. कैसे गुरु हैं वे, अगर सुमित्रा आज भी गुफाओं के द्वार नहीं खोलती तो कभी भी वे उन अंधेरों को नहीं देख पाते.

‘‘आप को क्या, किसी को भी यह बात अजीब लग सकती है. सुखसंसाधनों से घिरी नारी क्योंकर ऐसा सोच सकती है. यही तो मानसिकता होती है सब की. असल में समृद्धि और ऐश्वर्य ऐसे छलावे हैं कि बाहर से देखने वालों की नजरें उन के भौतिक गुणों को ही देख पाती हैं, गहरे समुद्र में कितनी सीपियां घोंघों में बंद हैं, यह तो सोचना भी उन के लिए असंभव होता है.’’ ‘‘मुझे लगता है कि सुमित्रा, तुम परिवार को दार्शनिकता के पलड़े में रख कर तोलती हो, तभी सामंजस्य की स्थिति से अवगत नहीं. सिर्फ कोरी भावुकता, निरे आदर्शों से परिवार नहीं चलता, न ही बनता है.’’

‘‘मैं किन्हीं आदर्शों या भावुकता के साथ घर नहीं चला रही हूं,’’ सुमित्रा भड़क उठी थी, ‘‘आप समझते क्यों नहीं, न जाने क्यों मान बैठे हैं कि मैं ही गलत हूं. जिस घर की आप बात कर रहे हैं, वह मुझे अपना लगता ही कहां है. आप ने उच्चशिक्षा के साथ पल्लू में यही बांधा कि पति का घर ही अपना होता है, लेकिन मैं तो अपनी मरजी से उस की एक ईंट भी इधरउधर नहीं कर सकती.’’

फफक उठी थी वह. रहस्यों को खोलना भी कितना पीड़ादायक होता है, अपनी ही हार को स्वीकार करना. 12 वर्षों से वह जिस तूफान को समेटे हुई थी यह सोच कर कि कभी तो उसे पत्नी होने का स्वामित्व मिलेगा, उसे आज यों बहती हवा के साथ निकल जाने दिया था. उपहास उड़ाएगा सारा संसार इस सत्य को जान कर जिसे उस ने बड़ी कुशलता से आवरणों की असंख्य तहों के नीचे छिपा कर रखा था ताकि कोई उस के घर की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश न करे. सुमित्रा बोले जा रही थी, ‘‘मैं अपने मन के संवेगों को उन के साथ नहीं बांट सकती. शेयर करना भी कुछ होता है. बहुतकुछ अनकहा रह जाता है जो काई की तरह मेरे हृदय में जमा हुआ है. इतनी फिसलन हो गई है कि अब स्वयं से डरने लगी हूं कि कहीं पग धरते ही गिर न जाऊं.

‘‘पतिपत्नी का रिश्ता क्या ऐसा होता है जिस में भावनाओं को दबा कर रखना पड़ता है. मैं थक गई हूं. मेरा मन थक गया है. सब शून्य है, फिर कहां से जन्म लेगा प्यार का जज्बा?’’ सुमित्रा बेकाबू हो गई थी. ‘‘ऐसा भी तो हो सकता है कि वह तुम्हें बुद्धिजीवी मानने के कारण छोटीछोटी बातों से दूर रखना चाहता हो. तुम्हें ऊंचा मानता हो और तुम नाहक रिश्तों में काई जमा कर जी रही हो. तुम्हारे अध्ययन, तुम्हारे सार्थक विचारों से अभिभूत हो कर वह तुम्हारी इज्जत करता है और तुम ने नाहक ही थोथे अहं को पाल रखा है.’’ स्वर इतना संयमित था कि एकबारगी तो वह भी हिल गई. तटस्थता जबतब सहमा देती है.

‘‘लेकिन विवाद के बाद मैं ने तो जानबूझ कर अपने अंदर की प्रतिभा को दफना दिया ताकि दोनों के अहं का टकराव न हो और पुरुषत्व हीनभावना का शिकार न हो जाए. अकसर पढ़ीलिखी बीवी की कामयाबी पति को चुभती है.’’ ‘‘सही कह रही हो, ऐसा हो सकता है पर सब के साथ एक ही पैमाना लागू नहीं होता है. वह तुम्हें कामयाब देखना चाहता था, इसलिए छोटीछोटी अड़चनों से तुम्हें दूर रखना चाहा होगा और तुम स्वामित्व व अधिकार में ऐसी उलझी कि न सिर्फ अपनों से दूर होती चली गईं बल्कि यह भी मान लिया कि तुम्हारी वहां कोई जरूरत नहीं है. भूल तेरी ही है.’’

‘‘लेकिन संवेदनाओं को साझा करना क्या स्वामित्व के दायरे में आता है?’’ ‘‘नहीं, वह तो जीवन का हिस्सा है, पर शायद शुरुआत ही कहीं से गलत हुई है. एक बार फिर शुरू कर के देख, तू तो कभी इतने उल्लास से भरी थी, फिर जीने की कोशिश कर.’’ समझाने की प्रक्रिया जारी थी.

‘‘कोशिशकोशिश, पर कब तक?’’ सुमित्रा त्रस्त हो उठी थी. ‘‘तू ने कभी कोशिश की?’’

‘‘बहुत की, तभी तो पराजय का अनुभव होता है.’’ सुमित्रा का मन हो रहा था कि वह झ्ंिझोड़ डाले उन्हें, क्यों बारबार उसी से समस्त उम्मीदें रखीं उन्होंने. ‘‘वह तो होगा ही, जब तब प्यार नहीं करती अपने पति से.’’

उथलपुथल सी मच गई उस के भीतर. कहीं यही तो ठीक नहीं है, पति को प्यार नहीं करती पर उस ने बेहद कोशिश की थी पूर्ण समर्पण करने की. बस, एक बार उसे यह एहसास करा दिया जाता कि वह घर की छोटीछोटी बातों का निर्णय ले सकती है. उसे चाबी का वह गुच्छा थमा दिया जाता जो हर पत्नी का अधिकार होता है तो वह उस आत्मसंतोष की तृप्ति से परिपूर्ण हो खुद ही प्यार कर बैठती. पर उसे उस तृप्ति से वंचित रखा गया जो मन को कांतिमय कर एक दीप्ति से भर देती है चेहरे को. शरीर की तृप्ति ही काफी होती है, क्या, बस. वहीं तक होता है पत्नी का दायरा, उस के आगे और कुछ नहीं. फिर वह तो बलात्कार हुआ. इच्छा, अनिच्छा का प्रश्न कब उस के समक्ष रखा गया है. प्यार कोई निर्जीव वस्तु तो नहीं जिसे एक जगह से उठा कर दूसरी जगह फिट कर दिया जाए.

‘‘मैं ने बहुत कोशिश की और साथ रहतेरहते एक लगाव भी उत्पन्न हो जाता है, पर दूसरा इंसान अगर दूरी बनाए रखे तो कैसे पनपेगा प्यार?’’ ‘‘फिर बच्चे?’’ उन्होंने तय कर लिया था कि चाहे आज सारी रात बीत जाए पर वे सुमित्रा के मन की सारी गांठें खोल कर ही दम लेंगे, चाहे उन के ध्यान का समय भी क्यों न बीत जाए.

यह कैसा प्रश्न पूछा? स्वयं इतने ज्ञानी होते हुए भी नहीं जानते कि बच्चे पैदा करने के लिए शारीरिक सान्निध्य की जरूरत होती है, प्यार की नहीं. उस के लिए मन मिलना जरूरी नहीं होता. क्या बलात्कार से बच्चे पैदा नहीं होते? मन का मिलाप न हो तो अग्नि के समक्ष लिए हुए फेरे भी बेमानी हो जाते हैं. गठजोड़ पल्लू बांधने से नहीं होता. दोनों प्राणियों को ही बराबर से प्रयास कर मेल करना होता है. एक ज्यादा करे, दूसरा कम, ऐसा नहीं होता. फिर विवाह सामंजस्य न हो कर बोझ बन जाता है जिसे मजबूरी में हम ढोते रहते हैं.

बस, बहुत हो चुका, अब चली जाएगी यहां से वह. कितना उघाड़ेगी वह अपनेआप को. नग्नता उसे लज्जित कर रही है और वे अनजान बने हुए हैं. उसे क्या पता था कि जिन से वह मुक्ति का मार्ग पूछने आई है, वे उन्हें हराने पर तुले हुए हैं. ‘‘मैं जानती हूं कि बड़ा व्यर्थ सा लगेगा यह सुनना कि मेरा पति मुझे रसोई तक का स्वामित्व नहीं देता, वहां भी उस का दखल है, दीवारों से ले कर फर्नीचर के समक्ष मैं बौनी हूं. दीवारें जब मैली हो जाती हैं तो नए रंगरोशन की इच्छा करती हैं, फर्नीचर टूट जाता है तो उसे मरम्मत की जरूरत पड़ती है, पर मैं तो उन निर्जीव वस्तुओं से भी बेकार हूं. मुझे केवल दायित्व निभाने हैं, अधिकार की मांग मेरे लिए अवांछनीय है. हैं न ये छोटीछोटी व नगण्य बातें?’’

‘‘हूं.’’ वे गहन सोच में डूब गए. ‘समस्या साफ है कि वह स्वामित्व की भूखी है ताकि घर को अपनी तरह से परिभाषित कर उसे अपना कह सके. हर किसी को अपनी छोटी सी उपलब्धि की चाह होती है. चाहे स्त्री कितनी ही सुरक्षित व आधुनिक क्यों न हो, वह भी छोटेछोटे सुख और उन से प्राप्त संतोष से युक्त साधारण जिंदगी की अपेक्षा करती है, चाहे वह दूसरों को बाहर से देखने पर कितनी ही सामान्य क्यों न लगे.’ ‘‘फिर भी बेटी…’’ इतने लंबे संवाद के बाद अब उन्होंने इस संबोधन का प्रयोग किया था. वे तो समझ रहे थे कि बेकार ही घबरा कर यह पलायन करने निकल पड़ी है वरना सुखसाधनों के जिस अंबार पर वह बैठी है, वहां आत्मसंतुष्टि की कैसी कमी…सुशिक्षित, विवेकी पति, आचरण भी मर्यादित है…फिर दुख का सवाल कहां उठता है.

‘‘लौटना तो तुझे होगा ही, धैर्य रख और अपने आत्मविश्वास को बल दे. किसी रचनात्मक कार्य को आधार बना ले. ध्यान बंटा नहीं कि सबकुछ सहज हो जाएगा. तूने भी खुद को केंचुल में बंद कर के रखा हुआ है. अध्ययन, अध्यापन सब चुक गए हैं तेरे. उन्हें फिर आत्मसात कर,’’ कहते हुए शब्दों में कुछ अवरोध सा था. पश्चात्ताप तो नहीं कहीं…

चलो बेटी तो कहा, यह सोच कर सुमित्रा थोड़ी आश्वस्त हुई. ‘‘मैं चाहती हूं आप एक बार फिर पिता बन कर देखें, तभी पुत्री की मनोव्यथा का आभास होगा. ज्ञानी, महात्मा का चोला कुछ क्षणों के लिए उतार फेंकें, बाबूजी,’’ सुमित्रा समुद्र में पत्थर मार उफान लाने की कोशिश कर रही थी, ‘‘ध्यान मग्न हो सबकुछ भुला बैठे, पलायन तो आप ने किया है, बाबूजी. माना मैं ही एकमात्र आप की जिम्मेदारी थी जिसे ब्याह कर आप अपने को मुक्त मान संसार से खुद को काट बैठे थे.

‘‘12 वर्षों तक आप ने सुध भी न ली यह सोच कर कि धनसंपत्ति के जिस अथाह भंडार पर आप ने अपनी बेटी को बैठा दिया है, उसे पाने के बाद दुख कैसा. ज्ञानी होते हुए भी यह कैसे मान लिया कि आप ने सुखों का भंडार भी बेटी को सौंप दिया है. यह निश्चितता भ्रमित करने वाली है, बाबूजी.’’ सुमित्रा का स्वर बीतती रात की भयावहता को निगलने को आतुर था. बवंडर सा मचा है. हाहाकार, सिर्फ हाहाकार. ‘‘अब इतने सालों बाद क्यों चली आई हो मेरी तपस्या भंग करने, क्या मुझे दोषी ठहराने के लिए…मैं नियति को आधार बना दोषमुक्त नहीं होना चाहता. हो भी नहीं सकता कोई पिता, जिस की बेटी संताप लिए उस के पास आई हो. लौट जाओ सुमित्रा और संचित करो अपनेआप को, अपने भीतर छिपे बुद्धिजीवी से मिलो, जिसे तुम ने 12 सालों से कैद कर के रखा है. वापस अध्यापन कार्य शुरू करो. पर दायित्व निभाते रहना, अधिकार तुम से कोई नहीं छीन पाएगा. समय लग सकता है. उस के लिए तुम्हें अपने प्रति निष्ठावान होना पड़ेगा.

‘‘संबल अंदरूनी इच्छाओं से पनपता है. यहांवहां ढूंढ़ने से नहीं. तुम्हें लौटना ही होगा, सुमित्रा. अपने घर को मंजिल समझना ही उचित है वरना कहीं और पड़ाव नहीं मिलता. तुम कहोगी कि बाबूजी आप भी घर छोड़ आए, लेकिन मेरे पीछे कोई नहीं था, सो, चिंतन करने को एकांत में आ बसा. ध्यान कर अकेलेपन से लड़ना सहज हो जाता है. संघर्ष कर हम एक तरह से स्वयं को टूटने से बचाते हैं, तभी तो रचनाक्रम में जुटते हैं, इसी से गतिशीलता बनी रहती है.’’ एक ताकत, एक आत्मविश्वास कहां से उपज आए हैं सुमित्रा के अंदर. लौटने को उठे पांवों में न अब डगमगाहट है न ही विरोध. क्षमताएं जीवंत हो उठें तो असंतोष बाहर कर संतोष की सुगंध से सुवासित कर देती हैं मनप्राणों को.

लौट जाओ सुमित्रा- भाग 2 : आखिर क्यों छटपटा रही थी सुमित्रा

‘‘मैं लौटना नहीं चाहती. अगर ऐसा होता तो निकलती ही क्यों. मैं ने बहुत चाहा कि अपने भीतर के कोलाहल को हृदय के कपाटों से बंद कर दूं पर शायद कमजोर थी, इसलिए ऐसा न कर सकी. तभी तो फट पड़ा है कोलाहल. अब कैसे शांत करूं उसे? कोई रास्ता नहीं दिखा, तभी तो भागी चली आई मुक्ति की तलाश में.’’ ‘‘पलायन कौन से कोलाहल को शांत कर सकता है, बल्कि और हलचल ही मचा देता है. कोरी शून्यता है जो तुम्हें लगता है कि भर जाएगी. रिक्तता की पूर्ति कैसे होगी? इस पूर्णता की प्राप्ति के लिए तुम कहां भागोगी? कोई दिशा निर्धारित की है क्या तुम ने?’’

‘‘मुझे कुछ सुझाई नहीं दे रहा है. अगर रोशनी की हलकी सी कौंध भी देख पाती तो यों आप के पास दौड़ी चली नहीं आती उत्तर पाने, समाधान ढूंढ़ने.’’

सुमित्रा की कातरता बढ़ती ही जा रही थी और रात की नीरवता भी.

संध्या तक जो हवा कोमल लग रही थी वही अब कंपकंपाने लगी थी. फरवरी की शामें चाहे गुनगुनी हों पर रातें अभी भी ठंडी थीं. रात का मौन और नींदों में प्रवेश होने के बाद बंद कपाटों से उत्पन्न सन्नाटा लीलने को आतुर था. कभीकभी कोलाहल से त्रस्त हो इंसान सिर्फ सन्नाटे की अपेक्षा करता है, उसे ढूंढ़ने के लिए स्थान खोजता है और कभी वही सन्नाटा उसे खंजर से भी अधिक नुकीला महसूस होता है. तब वही आतुर निगाहों से अपने आसपास किसी को देखने की चाह करने लगता है. सुमित्रा क्या इन दोनों ही स्थितियों से परे है या फिर वह अनजान बन रही है ताकि किसी तरह कमजोर या लक्ष्यहीन न महसूस करे. तभी अपने आसपास के वातावरण के प्रति कितनी तटस्थ लग रही है. इसीलिए तो मात्र एक साड़ी में लिपटे होने पर भी ठंड उसे कंपा नहीं रही थी.

कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के अंदर ही कहीं एक ज्वालामुखी धधक रहा था जिस की तपिश ठंड के वेग को छूने भी नहीं दे रही थी, लेकिन उस की देह को दग्ध रखा हुआ था. सुमित्रा अपनी बात जारी रखे हुए थी, ‘‘पहले अपनेआप से ही संघर्ष किया जाता है, अपने को मथा जाता है और मैं तो इस हद तक अपने से लड़ी हूं कि टूट कर बिखरने की स्थिति में पहुंच गई हूं. सारे समीकरण ही गलत हैं. विकल्प नहीं था और हारने से पहले ही दिशा पाना चाहती थी, इसीलिए चली आई आप के पास. जब पांव के नीचे की सारी मिट्टी ही गीली पड़ जाए तो पुख्ता जमीन की तलाश अनिवार्य होती है न?’’ इस बार सुमित्रा ने प्रश्न किया था. आखिर क्यों नहीं समझ पा रहे हैं वे उस को?

‘‘ठीक कहती हो तुम, पर मिट्टी कोे ज्यादा गीला करने से पहले अनुमान लगाना तुम्हारा काम था कि कितना पानी चाहिए. फिर तलाश खुदबखुद बेमानी हो जाती है. हर क्रिया की कोई प्रतिक्रिया हो, यह निश्चित है. बस, अब की बार कोशिश करना कि मिट्टी न ज्यादा सख्त होने पाए और न ही ज्यादा नम. यही तो संतुलन है.’’ ‘‘बहुत आसान है आप के लिए सब परिभाषित करना. लेकिन याद रहे कि संतुलन 2 पलड़ों से संभव है, एक से नहीं,’’ सुमित्रा के स्वर में तीव्रता थी और कटाक्ष भी. क्यों वे उस के सब्र का इम्तिहान ले रहे हैं.

‘‘ठीक कह रही हो, पर क्या तुम्हारा वाला पलड़ा संतुलित है? तुम्हारी नैराश्यपूर्ण बातें सुन कर लगता है कि तुम स्वयं स्थिर नहीं हो. लड़खड़ाहट तुम्हारे कदमों से दिख रही है, सच है न?’’

जब उत्साह खत्म हो जाता है तो परास्त होने का खयाल ही इंसान को निराश कर देता है. सुमित्रा को लग रहा था कि उस की व्यथा आज चरमसीमा पर पहुंच जाएगी. सभी के जीवन में ऐसे मोड़ आते हैं जब लगता है कि सब चुक गया है. पर संभलना जरूरी होता है, वरना प्रकृति क्रम में व्यवधान पड़ सकता है. टूटनाबिखरना…चक्र चलता रहता है. लेकिन यह सब इसलिए होता है ताकि हम फिर खड़े हो जाएं चुनौतियां का सामना करने के लिए, जुट जाएं जीवनरूपी नैया खेने के लिए. ‘‘कहना जितना सरल है, करना उतना सहज नहीं है,’’ सुमित्रा अड़ गई थी. वह किसी तरह परास्त नहीं होना चाहती थी. उसे लग रहा था कि वह बेकार ही यहां आई. कौन समझ पाया है किसी की पीड़ा.

‘‘मैं सब समझ रहा हूं पर जान लो कि संघर्ष कर के ही हम स्वयं को बिखरने से बचाते हैं. भर लो उल्लास, वही गतिशीलता है.’’ ‘‘जब बातबात पर अपमान हो, छल हो, तब कैसी गतिशीलता,’’ आंखें लाल हो उठी थीं क्रोध से पर बेचैनी दिख रही थी.

‘‘मान, अपमान, छल सब बेकार की बातें हैं. इन के चक्कर में पड़ोगी तो हाथ कुछ नहीं आएगा. मन के द्वार खोलो. फिर कुंठा, भय, अज्ञानता सब बह जाएगी. सबकुछ साफ लगने लगेगा. बस, स्वयं को थोड़ा लचीला करना होगा.’’ बोलने वाले के स्वर में एक ओज था और चेहरे पर तेज भी. अनुभव का संकेत दे रहा था उन का हर कथन. बस, इसी जतन में वे लगे थे कि सुमित्रा समझ जाए.

रात का समय उन्हें बाध्य कर रहा था कि वे अपने ध्यान में प्रवेश करें पर सुमित्रा तो वहां से हिलना ही नहीं चाहती थी. चाहते तो उसे जाने के लिए कह सकते थे पर जिस मनोव्यथा से वह गुजर रही थी उस हालत में बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे उसे जाने देना ठीक नहीं था. भटकता मन भ्रमित हो अपना अच्छाबुरा सोचना छोड़ देता है. ‘‘मैं अपने पति से प्यार नहीं करती,’’ सुमित्रा ने सब से छिपी परत आखिर उघाड़ ही दी. कब तक घुमाफिरा कर वह तर्कों में उलझती और उलझाती रहती.

लौट जाओ सुमित्रा- भाग 1 : आखिर क्यों छटपटा रही थी सुमित्रा

‘‘मैं मुक्ति चाहती हूं.’’ ‘‘किस से?’’

‘‘सब से.’’ ‘‘मनुष्यों से, अपने परिवेश से या भौतिक वस्तुओं से?’’

‘‘अपने परिवेश से, उस में रहने वाले लोगों से.’’ ‘‘यानी सुखसुविधाएं नहीं छोड़ना चाहती, केवल लोगों का त्याग करना चाहती हो. इस के पीछे तुम्हारा क्या कोई खास मकसद है?’’

‘‘मैं उन्हें त्यागना नहीं चाहती. न इसे छोड़ना कह सकते हैं. केवल मुक्ति चाहती हूं ताकि छू सकूं, उन्मुक्त आकाश को.’’ ‘‘इस के लिए किसी का त्याग करना आवश्यक नहीं है, साथ रहतेरहते भी खुली हवा को भीतर समेटा जा सकता है. कौन रोकता है तुम्हें आकाश छूने से. शायद तुम्हारी सोच में ही जंग लग गया है या तुम मुक्ति की परिभाषा से अपरिचित हो.’’

‘‘नहीं, यह सच नहीं है. उन्मुक्त आकाश को छूने के लिए अपने ही पैरों की जरूरत होती है, किसी सहारे या बैसाखी की नहीं. इसलिए मुझे मुक्ति चाहिए. संबंधों की तटस्थता या घुटन नहीं.’’ ‘‘यह तो पलायन होगा.’’

‘‘हां, हो भी सकता है, और नहीं भी.’’ ‘‘यानी?’’

‘‘मुक्ति मार्ग भी तो है, दिशा भी तो है. फिर पलायन कैसा?’’ निस्पृहता का गुंजन उस की आवाज में निहित था. ‘‘फिर घरपरिवार, पति, बच्चे, समाज का क्या होगा, उन के प्रति क्या तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है?’’

‘‘जिम्मेदारी अशक्त व बेसहारों की होती है. वे सक्षम हैं, अपनी जरूरतें स्वयं पूरी कर सकते हैं.’’ ‘‘क्या तुम्हें उन की जरूरत नहीं?’’

‘‘कभी महसूस होती थी, पर अब नहीं. सब अपनाअपना जीवन जीना चाहते थे. कोई अतिक्रमण, न व्यवधान अपेक्षित है. फिर निरर्थक ही क्यों अपनी उपस्थिति को ले कर जीऊं.’’ ‘‘निरर्थकता कैसी, जगह स्थापित करनी पड़ती है, अपनी उपस्थिति का बोध कराना पड़ता है, वही तो संबल होती है. पलायन करने से क्या निरर्थकता का बोध कम हो जाएगा? नहीं, बल्कि और बढ़ेगा ही. पीछे भागने के बजाय अपने को पुख्ता कर सब में आत्मविश्वास बांटो, फिर देखना तुम कैसे महत्त्वपूर्ण हो जाओगी.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होता. यह मात्र स्वयं को छलने का प्रयास है. अपने ही अस्तित्व का बोध कराने के लिए अगर संघर्ष करना पड़े तो उस की क्या महत्ता रह जाएगी.’’ ‘‘यह छल नहीं है, बल्कि तुम्हारे भीतर का कोई भटकाव है वरना जीवन के प्रति इतनी घोर निराशा संभव नहीं है. क्या पाना चाहती हो?’’ प्रश्नकर्ता विचलित मन को भांप गया था. विचलित मन में ही ऐसे निरर्थक, दिशाहीन भावों का वास होता है. उफनती लहरें ही उद्वेग का प्रतीक होती हैं. जब तक इन में कोई कंकड़ न फेंके या तूफान न आए, वे शांत बनी रहती हैं.

‘‘मैं ने कहा न, मुझे मुक्ति चाहिए अपनेआप से.’’ ‘‘वह तो मृत्यु पर ही संभव है.’’

‘‘फिर?’’ प्रश्नदरप्रश्न, वरना समाधान कैसे संभव होगा. भीतर तक टटोलना हो तो शब्दों से भेदना अनिवार्य होता है. संवादहीनता की स्थिति जड़ बना देती है, भटकाव बढ़ता जाता है. मन के भीतरबाहर न जाने कितनी गुफाएं होती हैं, सब के अंधेरे चीर कर वहां तक रोशनी पहुंचाना तो संभव नहीं. लेकिन जब निश्चित कर लिया है कि दिशाभ्रमित इंसान को राह सुझानी है तो फिर पीछे क्या हटना.

‘‘यानी एक अंतहीन दौड़ पर निकलना चाहती हो? रुकोगी कहां, कुछ निश्चित किया है?’’ ‘‘दौड़ कैसी, यह तो विराम होगा. उस के लिए कुछ भी निश्चित करना अनिवार्य नहीं है.’’

‘‘नहीं, तुम भ्रमित हो, अपने को तोड़मरोड़ कर अपनी जिम्मेदारियों से भाग कर तुम विराम की घोषणा कर रही हो? दौड़ तो इस के बाद ही यात्रा है- दिशाहीन, उद्देश्यहीन दौड़. घरपरिवार, समाज, नातेरिश्तों को तोड़ कर आखिर किस की खातिर जीना चाहती हो? अपनी?’’ ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, अपने से मोह कतई नहीं है. मैं तो मर जाना चाहती हूं.’’

‘‘यानी फिर पलायन? डर कर, घबरा कर भागना ही पलायन है. मुक्ति तो उद्देश्यों की पूर्ति से मिलती है. पहले अपने मन को शांत व नियंत्रित करो.’’ ‘‘लेकिन?’’

विस्मित है वह कैसे समझाए कि मन के उद्वेग तो कब के कुचले पड़े हैं. मन को नियंत्रित करतेकरते ही तो घबरा गई है वह. कुचली हुई भावनाएं सिर उठाने लगी हैं, तभी तो वह परेशान है. चली जाना चाहती है सारी उलझनों से बच कर. जब पाने की राह अवरुद्ध हो तो खोने की राह तलाशने में कैसी झिझक. ‘‘उत्तर तुम्हें स्वयं ही ढूंढ़ना होगा. खुद को इस तरह समेटने का अर्थ है स्वयं को आत्मकेंद्रित करना.’’

‘‘उत्तर मिलता तो यों नैराश्य न आ जकड़ती. जड़ता सहभागिता न होने लगती. अपने को झिंझोड़ कर थक गई हूं.’’ स्वर भीग गया था जैसे बड़े जतन से संभाला रुदन बहने को आतुर है.

कब तक कोई बांध सकता है संवेगों को. ज्वालामुखी तक फट जाता है, तब मानवीय संवेदना तो उस के सामने बहुत क्षीण है. वह तो जरा से दुख से ही भरभरा कर ढहने लगती है.

‘‘लौट जाओ सुमित्रा. जाओ और खोजो उस उत्तर को वह तुम्हारे भीतर ही मिलेगा लेकिन अपने अंतर्द्वद्वों से लड़ना होगा. अपने मनोभावों से तुम्हें संघर्ष करना होगा. उस के लिए अपने परिवेश में लौटना अत्यंत आवश्यक है. सब से जुड़ कर ही तलाश संभव है, एकांत में तुम किस जिजीविषा को शांत करने निकली हो?’’ धीरेधीरे शाम होने लगी थी. हवा के झोंके सुखद एहसास से भर रहे थे. पक्षी भी अपने घोंसलों में लौटने को तैयार थे. बीतता हर पल अपने साथ सब को घरों में लौटा रहा था. संध्या की बेला भी अजीब है. पहरेदार की तरह आ खड़ी होती है सब को भीतर खदड़ने के लिए. कोई चतुराई दिखा उसे धोखा देने का प्रयत्न करता है तो वह रात को बिखरा देती है. अंधेरे से भला किसे डर नहीं लगता. सारे प्रपंच धरे रह जाते हैं और हर ओर सन्नाटा फैल जाता है. भयानक खामोशी के आगे सारी चहलपहल ध्वस्त हो जाती है.

लेकिन सुमित्रा क्यों नहीं लौट पा रही है? क्या उसे सन्नाटे से भय नहीं लगता या उस के भीतर और गहरा सन्नाटा है जो व्याप्त खामोशी को चोट देने को आकुल है, तभी तो शायद वह निकली है उस अनदेखी, अनजानी मुक्ति की तलाश में जिस का ओरछोर स्वयं उसे मालूम नहीं है. घोर पीड़ा का उद्भव सदा एक रहस्य ही रहा है. अनुभूति तो स्पष्ट होती है क्योंकि वह भीतरबाहर सब जगह बजती रहती है किसी दुखद आवाज की तरह, किंतु उस के अंकुर के फूटने का आभास तभी हो सकता है जब हम सतर्क हों. पीड़ा सामान्य स्थिति की द्योतक नहीं है, वही तो है जो सारी विमुखता प्रियजनों से विमुखता, अपने कर्मकर्तव्यों से विमुखता, की उत्तरदायी है.

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