उत्तर प्रदेश के संतकबीर नगर जिले की रहने वाली 65 वर्षीया उमलिया देवी का 7 कमरों का मकान है. लेकिन, वे बस्ती जिले में सरकार द्वारा संचालित एक वृद्धाश्रम में जीवन गुजारने को मजबूर हैं.
वृद्धाश्रम में जीवन गुजार रहीं उमलिया देवी से वृद्धाश्रम में जीवन गुजारने का कारण पूछा, तो उन्होंने बताया कि उन के पति गन्ना महकमे में अधिकारी थे. अचानक उन की मौत हो गई तो उन्होंने ने परिवार संभाला और महकमे से मिले पैसों से उन्होंने बेटे व बहू के लिए 7 कमरों का मकान बनवा दिया. कुछ दिनों बाद बहू ने उन के पति की मौत के बाद महकमे से मिले पैसे अपने बैंकखाते में ट्रांसफर करवा लिए. और फिर बहू ने उन के साथ दुर्व्यवहार करना शुरू कर दिया.
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बहू न तो उमलिया देवी को खाना देती थी और न ही सही से बात करती थी. इसी बीच, उन के बेटे की मौत हो गई. बेटे की मौत के बाद उमालिया देवी की बहू और पोतों ने उन्हें घर से निकाल दिया.
बुढ़ापे में घर से निकाले जाने के बाद उमलिया ने कुछ दिन सड़कों पर गुजारे. कई रातें भूखे पेट काटी. फिर एक दिन किसी ने उन्हें वृद्धाश्रम में ला कर छोड़ दिया. तब से वे वहीं की हो कर रह गई हैं. बुढ़ापे में जब उमलिया को अपनों के प्यार और देखभाल की ज्यादा जरूरत थी तो उन्हीं लोगों ने उन्हें सड़क पर छोड़ दिया.
अपनों के दिए इस दर्द को बतातेबताते उमलिया की आंखों में आंसू आ जाते हैं.
वृद्धाश्रमों में जीवन गुजार रहे ज्यादातर लोगों की कहानी उमलिया जैसी ही है. वे अपने बेटे, बहू और बेटियों के दुत्कार के चलते अपना अंतिम समय वृद्धाश्रमों में काटने को मजबूर हैं.
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एकल परिवार बन रहे हैं वजह
जिन बुजुर्गों को बुढ़ापे में सहारे की ज्यादा जरूरत होती है उन्हीं बुजुर्गों को उन के अपने इसलिए वृद्धाश्रमों में छोड़ रहे हैं क्योंकी उन की उपस्थिति परिवार में खटकने लगी है. इस का एक कारण एकल परिवारों की बढ़ती संख्या है. इन परिवारों में बेटेबहू मांबाप के सवालों और देखभाल से दूर भाग रहे हैं. जबकि बेटेबहुओं को यह पता होता है जिस तरह का व्यवहार वे अपने मांबाप के साथ कर रहे हैं, एक दिन वे भी बुढ़ापे का शिकार होंगे और उन्हें भी इसी तरह घर की बेकार चीज समझ कर दरकिनार कर दिया जाएगा.
जिस ने मजदूरी कर पाला उन से ही किनारा
मांबाप अपने बच्चों को दिनरात मेहनतमजदूरी कर अच्छी से अच्छी शिक्षा व देखभाल देने की कोशिश करते हैं. यही बच्चे पढ़लिख कर जब किसी लायक हो जाते हैं तो बूढ़े हो चले मांबाप उन पर भार लगने लगते हैं. बातबात में बहुओं की जलीकटी बातें सुननी पड़ती हैं. बारबार शर्मिंदा होने के बजाय ये लोग वृद्धाश्रमों में रहना ज्यादा पसंद करते हैं.
एक वृद्धाश्रम में जीवन काट रहे राधेश्याम तिवारी और राम सुमेर ने बताया कि उन्होंने अपनी जवानी में बच्चों को पालपोस कर काबिल बनाया और जब उन्हें बच्चों की ज्यादा जरूरत थी तो उन्हें घर से दूर वृद्धाश्रम में अपना जीवन काटना पड़ रहा है.
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संपत्ति की लालच भी एक वजह
बस्ती जिले के एक वृद्धाश्रम में रह रहीं हरिशांति देवी एक बड़े व्यवसायी परिवार से हैं. इन के पास लाखों रुपए की संपत्ति थी. उस के बावजूद वे वृद्धाश्रम में जीवन गुजारने को मजबूर हैं. इन के सगेसंबंधियों ने इन की संपत्ति पर कब्जा कर इन्हें घर से निकाल दिया. घर से निकाले जाने के बाद कुछ दिनों तक इन्होंने इधरउधर अपनी रातें किसी तरह से काटीं. आखिर इन्हें किसी ने वृद्धाश्रम में जाने की सलाह दी. तब से ये इसी वृद्धाश्रम में जीवन के दिन गिन रही हैं. यही हाल तारामती देवी का भी है. तारामती बस्ती के सुर्तीहट्टा महल्ले की रहने वाली हैं. वे एक बड़े व्यवसायी कृष्ण दयाल की पत्नी हैं. पति की मौत के बाद उन की करोड़ों की संपत्ति पर उन के भाई व भतीजों ने कब्जा कर उन्हें घर से निकाल दिया. आज वे वृद्धाश्रम में अपने जीवन की अंतिम घड़ियां गिन रही हैं.
देश में बढ़ रही है वृद्धाश्रमों संख्या
देश में जिस तेजी से वृद्धाश्रमों की संख्या में इजाफा हुआ है वह बेहद चिंताजनक है. अगर अकेले उत्तर प्रदेश की बात करें, तो लगभग सभी 75 जिलों में सरकार द्वारा वृद्धाश्रम संचालित किए जा रहे हैं. जबकि कई निजी वृद्धाश्रम भी हैं. कभी बड़े शहरों में संचालित होने वाले वृद्धाश्रमों ने छोटे शहरों में भी पांव पसार लिया है. इस से एक बात साफ है कि इन वृद्धाश्रमों की उपयोगिता बढ़ रही है. परिवार में बुजुर्गों के सम्मान के गिरते ग्राफ का ही परिणाम है कि वृद्धाश्रमों में क्षमता से अधिक लोग निवास कर रहे हैं. इन की बढ़ती संख्या, इन की बढ़ती उपयोगिता यह बताने के लिए काफी है कि घर में बुजुर्ग मांबाप की क्या हैसियत रह गई है.
बुजुर्गों की बच्चों से दूरी बन रही घातक
हम अपने दादादादी और नानानानी के किस्से सुनते रहे हैं. लेकिन देश में बढ़ रही वृद्धाश्रम संस्कृति ने इस पर ग्रहण लगाना शुरू कर दिया है. लोग अपने घरों के बुजुर्गों के पास अपने बच्चों को जाने से रोकते हैं. जबकि, वास्तविकता यह है कि इन बड़ेबुजुर्गों के लिए इन के पोतीपोते जीवन का आधार होते हैं. इन के सान्निध्य में आ कर बड़ेबुजुर्ग अपने सारे दुखदर्द भूल जाते हैं. वहीं, छोटे बच्चों के लिए बुजुर्गों का सान्निध्य बहुत जरूरी है. इन के पास रह कर बच्चे न केवल संस्कार सीखते हैं बल्कि इन में मानवीय संवेदनाओं के विकास के साथ ही बुजुर्गों के प्रति सम्मान भी बढ़ता है. ऐसे में ये बच्चे बड़े हो कर अपने मांबाप के बुढ़ापे का सहारा भी बनते हैं. इसलिए हमें अपने बच्चों को दादादादी के प्यार से महरूम होने से रोकना होगा. और यह तभी संभव है जब हम उन्हें घर में उचित सम्मान देंगे.
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बुजुर्गों की देखभाल पर बनीं नीतियां फेल
अपनों द्वारा बुजुर्गों की की जा रही उपेक्षा को देखते हुए सरकार द्वारा नीतियां और कानून बनाए गए हैं. लेकिन ये प्रभावी होते नहीं दिख रहे. क्योंकि जब इन बजुर्गों के साथ ऐसी परिस्थितियां पैदा होती हैं तब ये बुजुर्ग कोर्टकचहरियों के चक्कर लगाने की स्थिति में नहीं होते हैं. ऐसे में सरकार को नीतियों में संशोधन कर उन्हें प्रभावी बनाने की आवश्यकता है.
बदली सोच बुजुर्गों पर पड़ रही भारी
बस्ती और संतकबीर नगर जिलों में वृद्धाश्रम संचालन से जुड़े शुभम प्रसाद शुक्ल बताते हैं कि जो लोग बहूबेटों की उपेक्षा के चलते वृद्धाश्रमों में जीवन गुजार रहे हैं उन्हीं मांबाप ने बचपन में बड़े नाज से इन बच्चों को पाला और अपनी उंगली का सहारा दे कर चलना सिखाया, कंधे पर बिठा कर दुनिया दिखाई, जब भी बच्चे बीमार हुए, सिरहाने बैठ कर पूरी रात बिता दी. लेकिन वक्त बदलने के साथ जब यही बच्चे जवान होते हैं और मांबाप बूढ़े, तो ये बच्चे उन्हे सहारा देने के बजाय उन्हें बेगाना समझ कर घर से दूर वृद्धाश्रमों में सिसकने के लिए छोड़ जाते हैं.
वृद्धाश्रमों में जीवन काट रहे लोगों के सवाल पर शुभम प्रसाद शुक्ल का कहना है कि जो बुजुर्ग यहां रहने को आते हैं उन में से ज्यादातर बेटेबहू के तिरस्कार के शिकार होते हैं. इन बुजुर्गों को परिवार में बेकार की वस्तु समझ कर एक कोने में घुटघुट कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. न तो परिवार के इन बुजुर्गों को समय से खाना दिया जाता है और न ही बीमारियों आदि की दशा में दवाएं दी जाती हैं.
ऐसे में अकसर लोग वृद्धाश्रमों में शरण ले रहे हैं. वृद्धाश्रमों में न केवल बुजुर्गों की सही से देखभाल की जाती है बल्कि उन्हें समय से चाय, नाश्ता और भोजन भी दिया जाता है. वृद्धाश्रमों में जीवन गुजार रहे लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए नियमित डाक्टर भी नियुक्त किए जाते हैं, जिस से बीमार पड़ने की दशा में बुजुर्गों को समय पर इलाज मिल जाता है.
वृद्धाश्रमों में जीवन काट रहे जितने भी वृद्धों से बात की गई, तकरीबन सभी का कहना है कि उन्हें घर में कबाड़ से भी बदतर समझा जाता है. जब तक शरीर में दम होता है तब तक परिवार में इज्जत मिलती है. जैसे ही शरीर काम करना बंद कर देता है उन्हें घर की खूबसूरती में दाग समझा जाने लगता है.
भारी बजट के बावजूद अव्यवस्था से जूझ रहे वृद्धाश्रम
वृद्धों के कल्याण के मुद्दे पर काम करने वाली गैरसरकारी संस्था हेल्पएज इंडिया के अनुसार, देश में करीब 1500 वृद्धाश्रम हैं, जिन में करीब 70 हजार से भी अधिक वृद्ध रहते हैं. इन में से ज्यादातर वृद्धाश्रम साल 2007 में लागू वृद्धजन भरणपोषण एक्ट के तहत केंद्र व राज्य सरकारों के साझे उपक्रम के तहत भारीभरकम आर्थिक सहयोग से एनजीओ से संचालित कराए जा रहे हैं. इस के तहत एक वृद्धाश्रम में 150 वृद्धों के रखने की क्षमता पर लगभग 75 लाख से 1 करोड़ रुपए का बजट सरकार द्वारा दिया जाता है. वहां वृद्धों को निशुल्क रहने की व्यवस्था के साथसाथ हर रोज अलगअलग मीनू के हिसाब से खाना, साफ़सुथरे बिस्तर, हर 4 लोगों पर एक शौचालय, कूलर, पंखे, बिजली जनरेटर व इनवर्टर के साथ ही सभी के लिए खाने के बरतन का सैट व बक्से, टीवी, फ्रिज, आरओ, वाशिंग मशीन, कंप्यूटर, टेलीफोन सहित मनोरंजन के सभी साजोसामान होना जरूरी है.
इस के अलावा, वृद्धों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए एमबीबीएस डाक्टर व मनोविज्ञानी को रखने का प्रावधान किया गया है. लेकिन सरकार द्वारा संचालित ज्यादातर वृद्धाश्रमों की हालत बदतर है. सरकार द्वारा लाखों रुपए एनजीओ को दिए जाते हैं. लेकिन इन वृद्धाश्रमों में न ही मीनू के हिसाब से खाना दिया जाता है और न ही साफ़सफाई की पर्याप्त व्यवस्था की जाती है.
वृद्धाश्रमों में जीवन काट रहे बुजुर्गों को गरमी में टूटेफूटे पंखों के बीच रखा जा रहा है. इन के बिस्तर पर बिछाई जाने वाली चादर हफ्तों तक न ही बदली जाती है और न ही साफ़ की जाती है. वृद्धाश्रमों में रह रहे तमाम ऐसे लोगों, जो अपने जीवन की अंतिम घड़ियां गिन रहे हैं, को भी अपने जूठे बरतन खुद ही धुलने को मजबूर किया जाता है.
इन वृद्धाश्रमों में रहे लोगों में से जब कोई बीमार पड़ता है तो उस का स्थानीय लैवल पर किसी झोलाछाप डाक्टर से इलाज करा दिया जाता है. जिस से एमबीबीएस डाक्टर के ऊपर आने वाले मासिक खर्चे को एनजीओ संचालक पूरी तरह से डकार जाते हैं. वृद्धाश्रमों में लोग इसलिए आते हैं कि वहां अपने बेटेबहू के तानों से उन्हें नजात मिलेगी, लेकिन यहां भी उन्हें नारकीय जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है.
जब कभी सरकारी महकमे से जुड़ा कोई अधिकारी यहां जांच के लिए आता है तो उस दिन मानक पूरा करने के लिए ज्यादातर चीजें किराए पर मंगा ली जाती हैं. अगर अधिकारी वृद्धाश्रमों में कमियां पकड़ता भी है तो रिश्वत दे कर उस का मुंह बंद कर दिया जाता है.
दान और चंदे से चलता है वृद्धाश्रम, सरकारी धन तो संचालक खाते हैं
वृद्धाश्रम संचालन से जुड़े एक कर्मचारी ने अपना नाम न छापने की शर्त पर बताया कि वृद्धाश्रमों के संचालन के लिए सरकार द्वारा मिलने वाले धन को एनजीओ संचालक खा जाते हैं. क्योंकि इन वृद्धाश्रमों में आएदिन कोई न कोई अपना जन्म दिन मनाने या दान करने आ ही जाता है. इस तरह वृद्धाश्रमों को इन से नकद रुपए के साथ ही साजोसामान, खानेपीने की वस्तुएं आदि फ्री में मिल जाती हैं.
ऐसे दान का वृद्धाश्रमों द्वारा कोई रिकौर्ड नहीं रखा जाता है. इस के अलावा वृद्धों के घर वालों की तरफ से भी नकद धन दान में मिलता रहता है.
वृद्धाश्रमों को इतना दान मिलता है कि उस से भी अच्छीखासी रकम की बचत हो जाती है. ऐसे में संचालन के लिए मिलने वाले धन से सिर्फ कर्मचारियों को सैलरी ही दी जाती है, बाकी धन संचालक खुद खा जाते हैं.
पेशे से चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता डा. नवीन सिंह का कहना है, “बुजुर्गों को बेटेबहुओं द्वारा सताया जा रहा है. ऐसे में हिंसा और तिरस्कार सहने के बजाय ये बुजुर्ग वृद्धाश्रमों में रहना बेहतर समझते हैं. वहां इन वृद्धों की तरह सताए अपने जैसे ही तमाम लोग मिल जाते हैं. वहां ये लोग अपने दुखदर्द आपस में साझा करते हैं और हंसतेगाते हैं. ऐसे में इन का दर्द काफी हद तक कम हो जाता है.” डा. नवीन आगे कहते हैं कि लोगों को आधुनिकता की अंधी दौड़ से बाहर निकलना होगा और जिन बुजुर्गों ने हमें काबिल बनाया है, उन का सम्मान करना सीखना होगा. बुढ़ापे के दौरान उन के साथ बैठ कर प्यारभरी बातें करनी होंगो. उन को समय से खानादवा आदि देने का ध्यान रखना होगा. हम कोशिश करें कि बुजुर्गों को कभी भी अकेलेपन का एहसास न होने दें, तभी हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती तादाद पर रोक लगा पाएंगे.