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किसान आंदोलनों का डेरा

लेखक-रोहित और शाहनवाज

 “सरकार सोचती है,धोती पहने, गमछा ओढ़े वे अनपढ़ किसान आएंगे जिन की चपल्लें फटी होंगी, बनियान में 4 छेद होंगे. जिन को, मोटीमोटी दीवारों के सरकारी बंगले में बैठा कोई भी ऐरागैर अफसर आ कर धमका दे या बहलाफुसला दे तो शांत हो जाएंगे. पर साहब वो पुराना ज़माना गया. आज का नया किसान जींसकमीज पहनता है, हल की जगह ट्रेक्टर चलाता है.पढ़ता भी है और चीजों को समझता भी है. उसे अपने अच्छेबुरे का पता है. उसे जुमलेबाजी से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता.” यह कहना हैसिंधु बोर्डरमें किसान आंदोलन में शामिल हुए खुशवंत सिंह का.

52 वर्षीय खुशवंत सिंह पंजाब के गुरदासपुर में छोटे किसान हैं. उन के पास खेती के लिए मात्र5-6 एकड़ जमीन है. वे लगभग 440 किलोमीटर की दूरी तय कर यहां तक पहुंचे हैं. और अब मानते हैं कि सब्र इतना कर लिया है कि बिना मांगो के पूरा हुए वापस जाना, आगे का जीवन बर्बाद होते हुए देखने जैसा है.

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देश की संसद से 38 किलोमीटर दूर दिल्ली हरियाणा का बोर्डर इन दिनों देश के किसानों के लिए ठीक वैसा ही बन गया है जैसा पिछले साल की सर्दियों में शाहीन बाग बना हुआ था.दोनों में समानता यही कि संसद के प्राचीर से ऐसे काले विवादित बिल पास हुए, जिस के बाद जन आंदोलनों काशैलाब उमड़ पड़ा.यह आंदोलन सरकार की नजरों में खटके तो आंदोलनों को कुचलने के लिए सरकार ने हर भरसक तरीके से दमनकारी चक्र चलाया, जिस से पूरी दुनिया वाकिफ रही है.

सिंधु बोर्डर जाने से पहले हम बुराड़ी में स्थित निरंकारी मैदान में गए, जहां सरकार ने पिछले ही दिन 27 नवंबर को, भारी मशक्कत के बाद किसान प्रदर्शनकारियों को दिल्ली में प्रदर्शन करने की इजाजतदी थी. लेकिन वहां जाकर देखा तो किसान उतनी संख्या में पहुंचे ही नहीं. सरकार ने यह इजाजत किसानों पर इतने दमन के बाद दिया कि पंजाब और हरियाणा के किसान इस से खिन्न हो गए थे और वे बुराड़ी मैदान में आए ही नहीं. जिस कारण वहां देश के अन्य राज्यों के किसानों का जमावड़ा कुछ देर के लिए तो लगा लेकिन वे भी धीरेधीरे सिंधु बोर्डर या बाकी बोर्डरों की तरफ शिफ्ट होते गए.

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चंडीगढ़ के लंदुडी गांव के 28 वर्षीय हरपिंदर सिंह पेशे से किसान हैं, वे कहते हैं, “आखिर हम किसानों का क्या कसूर है? क्या हम अपनी दिल्ली में नहीं आ सकते? हम तो लगते ही नहीं कि इस देश के वासी हैं. सुबहसुबह 6 बजे हमारे ऊपर टीयर गेस और वाटर केनन चलाया गया. अनाज उगाने के बदले हमारे ऊपर यह कैसा सुलूक है?हम किसान भाइयों और हमारी यूनियनों ने एप्लीकेशन के द्वारा सरकार से रामलीला मैदान या जंतरमंतर के लिए जगह मांगी थी लेकिन इन्होने दी नहीं, और अब बिना एप्लीकेशन के बुराड़ी में जगह दे रहे हैं. हम पुरे देश को खिलाते हैं यहसरकार हमें क्या जगह देगी, हम ने अपने हक की जगह छीनी है. अब हम चाहें तो वहां जाएं या ना जाएं, वह अब हमारी जगह है.”

यूं तो देश के कई जगहों जैसेयूपी, राजस्थान, महाराष्ट्र इत्यादि में इस समय किसान आंदोलन चल रहे हैं, किंतु इन आंदोलनों की धुरी इस समय सिंधु बोर्डर का किसान आंदोलन बन चुका है. सिंधु बोर्डर वह जगह है, जहां से दिल्ली और हरियाणा का डिवीज़न होता है. इस बोर्डर का रास्ता हरियाणा के रास्ते होते हुए सीधे पंजाब में घुसता है. यही कारण है कि ‘चलो दिल्ली’ के आह्वान पर पंजाब और हरियाणा से आने वाले हजारों की संख्या में किसानों ने इसी बोर्डर पर ‘डेरा’ डाल रखा है. और यह ‘डेरा’ डाला भी ऐसा गया है कि दिल्ली के लगभग 2 किलोमीटर इस छोर से ले कर बोर्डर क्रोस करते हुए 6-7 किलोमीटर उस छोर,सोनीपत (हरियाणा), तक ट्रकों, ट्रेक्टरों, गाड़ियों इत्यादि से हाईवे सनी पड़ी है.

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तेरा बोर्डर – मेरा बोर्डर

सिंधु बोर्डर का नजारा दो तरफा एंगल से देखा जा सकता है. एक, बोर्डर के इस तरफ दिल्ली के छोर पर साजोसमान से लैस सैकड़ों की संख्या में तैनात सुरक्षा बल ऐसा तनाव प्रतीत करातेहैं जैसे यह दिल्ली-हरियाणा का बोर्डर नहीं बल्कि बाघा बोर्डर सरीखे हो और किसान इस देश के निवासी नहीं बल्कि पड़ोसी देशों से खदेड़े गए मायग्रंट्स हों. प्रदर्शन स्थल पर कई लेयर की बेरिकेटिंग की गई हैं. जिस में भारीभरकम रोड डिवाइडर, वाटर कैनन, और लोहे की बेरिकेटों के ऊपर बिछाई गई ‘कटीली तारें’ हैं. जिसे देख कर ऐसा लगा, जैसे समय के अनुकूल अब भारत देश का जम्मू कश्मीर हो जाना ही बाकी रह गया है. इस में कंटीले तारों से किसानों को रोकने का यह नायब प्रयोग सरकार की मंशा सामने ला देता है.

वहीँ बोर्डर के दूसरे छोर पर, कई सो किलोमीटर का रास्ता माप चुके किसान ट्रकों-ट्रेक्टरों में गैस सिलेंडर, खाना, कंबल और जरूरत का सामान साथ में लाए हैं. इन की आंखों में भले ही थकावट है लेकिन अपनी मांगों के पूरा होने की भारी उम्मीद भी है, जो इन्हें हमेशा जोश से भर कर रखती है. प्रदर्शन का माहौल पूरा मेलामई है. दूरदूर तक जहां नजर जाती है, वहां ट्रक ही ट्रक खड़े हैं. आंदोलन में शामिल किसान उल्लास से भरे हुए हैं, मानों वें, सरकार द्वारा सदन में पास कराए कथित काले बिलों की नाराजगी से ज्यादा अब इस बात से खुश हैं कि सच में दिल्ली अब दूर नहीं और किसान भाई सब साथ में हैं.

आमतौर पर भाजपा सरकार और सरकार के चाटुकारों द्वारा लगातार यह कहा जा रहा है कि इस आंदोलन में सिर्फ पंजाब के ही किसान शामिल हैं, क्योंकि उन्हें वहां के सीएम अमरिंदर सिंह बरगला रहे हैं. भाजपा प्रायोजित आईटी सेल और ओनेपाने नेताओं द्वारा किसानों को यहां तक कहा जा रहा है कि ये किसान नहीं बल्कि खालिस्तानी उग्रवादी हैं, देशद्रोही हैं. लेकिन इन सभी आरोपों की धज्जियां तभी उड़ जाती हैं, जब देश के कई अलगअलग राज्यों में भी ऐसे किसान आंदोलन बनने लगे हैं. इस में खुद भाजपा शासित राज्य यूपी और हरियाणा के किसान भी शामिल हो रहे हैं. सिंधु बोर्डर के पास आंदोलन में न सिर्फ पंजाब बल्कि, हरियाणा से आए हुए किसानों की अच्छी खासी संख्या है.

प्रशाशन का दमन

हरियाणा में भारतीय किसान यूनियन के जिला कुरुक्षेत्र के 6 में से एक सलालाबाद ब्लाक के अध्यक्ष साहब सिंह, शांति नगर कुर्डी गांव में रहते हैं. वे कहते हैं, “हमें यहां तक पहुंचने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. हमारे सीएम खट्टर ने हमें रोकने की भरषक कोशिशें की. हमें यहां तक पहुंचने के लिए 5 मोर्चों को तोड़ना पड़ा. मोढ़ा, त्योव्ड़ा, करनाल, सोनीपत और फिर सिंधु बोर्डर पर, दिल्ली आने की जीत. खट्टर सरकार ने कभी 9-9 फुट रोड़ पर खड्डे खुदवा दिए तो, कभी लाठी चार्ज, आंसू गेस के गोले और पानी के फुन्वारो से हमारे बुजुर्ग किसानों पर हमला किया.जिस से काफी बुजुर्गों को चोट आईं. ऐसे में अब देश का कोई व्यक्ति यदि भाजपा की गलत नीतियों के खिलाफ बोलता है तो क्या वह उग्रवादी हो जाएगा?”

वे आगे कहते हैं,“सरकार, किसानों के इस देशव्यापी आंदोलन को बदनाम करने के लिए जानबूझ कर इसे पंजाब तक ही सीमित कर रही है, जब कि हम हरियाणा में पिछले 6 महीनों से, जब से बिल संसद में पास हुआ, तब से आंदोलन कर रहे हैं. कभी रोड़ रोकी,कभी पटरी पर बैठे, कभी भवनों के चक्कर काट रहे हैं. लेकिन आंदोलन को सिर्फ बदनाम करने के लिए मीडिया और सरकार इसे छुपा रही है.”

साहब सिंह कहते हैं, “यह तीनों बिल हम छोटे किसानों के लिए बहुत खतरनाक है. शहरी लोग सोचते होंगे कि इस बिल के पास होने के बाद ‘वाह क्या आजादी मिल रही है किसानों को’, लेकिन यह हमीं जानते हैं कि हम निचले दर्जे के किसान अब अपाहिज हो जाएंगे.” आगे की रणनीति पर वे कहते हैं कि फिलहाल सभी किसान यूनियनों जिस में देश भर से लगभग 350 यूनियनें इस आन्दोलन में शामिल हैं, का दिल्ली के बोर्डरों को डेरा बनाने की योजना है. और वे सिंधु बोर्डर पर ही डेट रहेंगे.”

संगरूर से 27 वर्षीय मंजीत बताते हैं, “अकेले पंजाब से इस समय 31 जत्थेबंदी किसान यूनियन यहां मौजूद हैं.जो पंजाब के सभी हिस्सों से यहां पहुंचे हैं.” रास्ते में हरियाणा सरकार की बर्बर कार्यवाही पर वे बताते हैं, “26 तारिख कोहम सभी जत्थे में निकले थे. जैसे ही गुल्ला चीका बोर्डर पर आए तो उन्होंने (पुलिस) पत्थर, कांटों की तारों को बढ़ा बना कर, वाटर कैनन से हमला किया. इस के चलते कई लोगों को चोटे आईं. कई बुजुर्गों की पगड़ी खुल गईं. जो सरकार के लिए शर्मनाक है.”

काले कानून का विवाद

किसान आंदोलनों के भड़कने का बड़ा कारण, भाजपा सरकार द्वारा लौकडाउन के समय आननफानन में बिना नियमित चर्चा के किसानों से जुड़े 3 बिलों को दोनों सदनों में पास करवाना था. यह 3 बिल- फार्मर्स प्रोड्युसड ट्रेड एंड कामर्स, फार्मर अग्रीमेंट और प्राइस एस्युरेंस और फार्म्स सर्विसेज एंड असेंशियल कमोडिटी हैं. जिसे लेकर किसानों के भीतर तभी से रोष पैदा हो गया था. शुरू में किसान अपने जिले और राज्य स्तर पर आंदोलित रहे लेकिन इस 26 तारिख को लगभग 350 किसान यूनियनों संयुक्त मोर्चा बनाकर दिल्लीमें चढ़ाई की योजना बनाई.

54 वर्षीय गुरदीप सिंह फतहपुर साहब के रहने वाले हैं. उन का अभी जौइंट परिवार है तो भाइयों के बीच जमीन के पट्टे का बंटवारा नहीं किया गया है. पुरे परिवार के पास खेती के लिए जमीन लगभग 20 एकड़ है जिसे साथ में मिल कर बोते हैं. इसी के सहारे पुरे परिवार का पेट पलता है.

वे बताते हैं, “यह कानून हमारी मंडियों को ख़त्म करेगा. भारत की मंडियों में कई बुराइयां ही सही पर वही हमारे लिए रीढ़ की तरह काम करते है. सरकार कहती है अब किसान आजाद हैं कहीं भी अपना सामान बेचने के लिए, मैं कहता हूं इस के लिए हम गुलाम ही कब थे? हमारे पास ना तो भंडार गृह हैं, ना ही अपनी फसल को किसी दुसरे राज्य में बेचने की औकात. फिर क्या लानेलेजाने का खर्च सरकार देगी? इन्ही मंडियों से कर्जा भी मिल जाता है.”

गुरदीप सिंह कहते हैं, “यह पंजाब को भी अब बिहार असम और बाकि राज्यों की तरह बना देना चाहते हैं. आज बिहार का किसान मजबूर है हमारे यहां अपनी फसल बेचने को. क्योंकि हमारे यहां एमएसपी है. फिक्स दाम है. चाहे भाव बढ़े या घटे. इन राज्यों की मंडियों पर सरकार का रोल ही ना के बराबर है. वहां कोई एमएसपी लागू नहीं. अब यहां (पंजाब) भी ये यही करना चाहते हैं. सारी फसल कॉर्पोरेट के हाथों करना चाहते हैं. अब कॉर्पोरेट तो अपना मुनाफा ही देखता है.” जब उन से कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी और कृषि मंत्री एमएसपी को बनाए रहने की बात कह रहे हैं, तो उन्होंने झट से कहा, “इस की कोई गारंटी दे रहे हैं क्या?”

सिंधु बोर्डर से 450 किलोमीटर दूर मोंगा जिला से आए दीपक (28) पंजाब यूनिवर्सिटी के छात्र रहे हैं और साथ ही अभी थिएटर एक्टिविस्ट हैं. वे किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं, उन का कहना है, “यह कानून किसानों को बंधवा बना देगा. किसानों को आजादी नहीं होगी कि वे अपने खेत में क्या उगाएं. उन्हें कारपोरेटों के अनुसार ही फसल उगानी पड़ेगी. जो वो कहेंगे वही करना पड़ेगा. सरकार छोटे किसानों को आपसी सहयोग से खेती करने की बात तो कह रही है, जो ठीक है लेकिन मुनाफा कौरपोरेटों, बिसनेसमेन, पूंजीपतियों केहाथों क्यों?”

वे आगे कहते हैं, “आज हालत यह है कि देश का किसान, जिस कीमत पर अपनी फसल बेचता है उस से कई गुना कीमत पर बाजार में लोगों को मिलता है. जिसे लोग महंगाई कहते हैं. इस की वजह क्या है? यही कौर्पोरेट लोग हैं जो अपने निजी मुनाफे के लिए मार्किट को अपने अनुसार चलाते हैं. ऐसे में अगर पूरा एग्रीकल्चरल सेक्टर इन्ही के हाथों सोंप दिया जाए तो हस्र पुरे देश की जनता भुगतेगी.”

राजनीतिक पार्टियों का नहीं चाहिए साथ

यह अच्छी बात है कि आंदोलित किसान हर बात को ले कर सजग हैं. किसी भी मीडिया के घुसने से पहले किसानों के चेहरे पर संदेह की सुईं लटकी है. घटनास्थल पर लटकता पोस्टर जिसमें कुछ विशेष गोदी मीडिया के चैनलों को आन्दोलन से दूर रहने की सलाह दी गई है. यहां तक कि जितने लोगों से भी वहां हमारी बात हुई उन्होंने भी जांच पड़ताल के साथ ही अपनी बात कही. यह दिखाता है कि मीडिया की एक धड़े की खराब रिपोर्टिंग को ले कर किसानों में भारीरोष है.

वैसे तो भले ही तमाम विपक्षी पार्टियां ट्विटर ट्विटर खेल कर किसानों की हिमायती होने का दिखावा कर रही हों, लेकिन यह हकीकत है कि किसान भी अब तमाम पार्टियों के नेताओं से खिन्न हो चुकी है. मौजूदा समय में भाजपा इस बिल के चलते किसानों के निशाने पर जरूर है लेकिन कांग्रेस ने भी देश में मंडी व्यवस्था और एमएसपी के छप्पर पर छेद करने और कई जगह तो पूरा छप्पर गायब करने में कोरकसर नहीं छोड़ी. हांलाकि पंजाब सरकार और हरियाणा में हूडा ने भी किसानों को खुला समर्थन की बात कही है. लेकिन यह सिर्फ सिर्फ मीडिया के ख़बरों तक सीमित है. वहीँ लेफ्ट भी इस मसले पर शहरी युवाओं को लामबंद नहीं कर पा रहा है. तो दिल्ली की सत्ता में बैठे केज्रिवार भी बस धरनास्थल के फीते काटने और स्टेटमेंट देने तक ही सीमित हैं.

हरियाणा में भाजपा सहयोगी दुष्यंत चौटाला की जेजेपी पार्टी खुद को किसान पार्टी घोषित करती है लेकिन किसान आन्दोलन पर ऐसे मूक बनी हुई है जैसे उसे सांप सूंघ गया हो. यह ध्यान रखने वाली बात है कि यह वही दुष्यंत हैं जिसने इन तीनों बिलों पर भाजपा के साथ थी.

सिंधु बोर्डर के धरनास्थल पर ना तो कोई जानापहचाना नेता दिखा है ना ही पार्टी होंर्डिंग के झंडे डंडे. यह दिखाता है कि यह शुद्धतम किसानों का आन्दोलन है, जिसे ना तो किसी पार्टी के झंडों की जरूरत हैं और न ही उन के होर्डिंग और आश्वासन की. हांलाकि, आन्दोलन को अलगअलग किसान यूनियन नेतृत्व दे रहे हैं.जिस में भारतीय किसान यूनियन, अखिल भारतीय किसान यूनियन, एआईकेएस, जय किसान आन्दोलन इत्यादि हैं.

धरना स्थल पर दिक्कतें और बढ़ते जरुरत मंद हाथ

किसानों के आंदोलन को समर्थन देने के लिए सिंधु बोर्डर पर पंजाब हरियाणा के छात्र ढपली पर थाप देते और गाना गा कर, किसानों का मनोरंजन करते हुए नजर आए हैं, जिन का कहना है कि वे भी इन्ही परिवारों का हिस्सा हैं, इन काली नीतिओं से कहीं ना कहीं उन पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा.वे तब तक यहां रहेंगे जब तक मांगे नहीं मान ली जाती.दिल्ली से कुछ छात्र व्यक्तिगत स्तर पर पानी और बिस्कुट जैसी सामग्री पहुंचाने का भी काम कर रहे हैं.

वहीँ हर बार की तरह गुरुद्वारा कमिटी ने भी आन्दोलनकारियों के पक्ष में मदद का हाथ बढ़ाया है. रमिंदर सिंह, जो इस समय दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधन कमिटी के एलेक्टेड सदस्य है और एक्स चेयरमेन रह चुके हैं. वे कहते हैं, “जब तक प्रोटेस्ट है खाने की कमी नहीं रहेगी.  किसान भी इसी देश का हिस्सा हैं. सरकार से गुजारिश है कि अब भी सुधर जाएं. किसान इतने किलोमीटर तय कर के आए हैं. इन की मांग जायज है, जो पूरी होनी चाहिए.”

जाहिर है किसानों ने सिंधु बोर्डर पर ही नया शाहीन बाग बनाने का फैसला कर लिया है. घर सेही अपना राशन, कंबल रजाई से भरे उन के ट्रेक्टर साफ़ दिखाते हैं कि वे सरकार के सामने झुकने को तैयार नहीं हैं.किंतु धरना स्थल में सामने आ रही समस्या यह कि हरियाणा सरकार और केंद्र पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को पीटने का बंदोबस्त तो पूरा कर रखा है लेकिन एमबुलेंस के नाम पर मात्र दो गाड़ियां ही दिखने में आई हैं. गौरतलब है कि आन्दोलन में शामिल हुए दो किसानों की तथाकथित तौर से रास्ते में दुर्घटना से मौत भी हुई थी.

वहीँ सोचालय के लिए किसानों को या तो खुले में जाना पड़ रहा है या लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर एकमात्र पेट्रोल पम्प की तरफ. ऐसे में पुरुष तो हो यहांवहां हो आते हैं लेकिन महिलाओं के लिए खासा समस्या पैदा हो सकती है. हांलाकि सिंधु बोर्डर में महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले फिलहाल बहुत कम है. जो चिंता का विषय है कि भारत में कृषि क्षेत्र में महिलाओं का बड़ा योगदान रहा है.

खैर, देखना यह है कि भाजपा सरकार और किसान के बीच यह रार कहां तक चलेगी. फिलहाल सरकार ने 3 तारीख तक की बात का आश्वासन दिया है और अमित शाह ने बुराड़ी में आने की बात कही है लेकिन देख के लगता है कि किसानों को अब सरकार परभरोसा नहीं रह गया है.

अगर आप भी जाना चाहते हैं रोड ट्रीप पर तो इन नियमों का करें पालन

यात्रा पर लगा प्रतिबंध पर अब कम कर दिया गया है. अगर आप ड्राइव पर जाना चाहते हैं तो यह आपके लिए अच्छा समय है. ऐसे वक्त में आप कहीं बाहर जानें का प्लान बना सकते हैं. लेकिन इससे पहले आपके लिए कुछ नियम बनाए गए हैं. जिसका आपको खास ख्याल रखना होगा.

तीन लोगों से ज्यादा बनती है भीड़ :

अपने कार में  तीन लोगों से ज्यादा के साथ ही ट्रीप प्लान न करें क्योंकि तीन से ज्यादा लोग भीड़ बना देते हैं. इससे आप भी यात्रा के दौरान नियमों का सही से पालन कर पाएंगे. कार में इतना ही स्पेस होता है कि आप तीन लोगों में सोशल डिस्टेंश को अच्छे से मेंटन कर सकते हैं. हमें खुद से इमानदार रहना पड़ेगा क्योंकि सोशल डिस्टेंसिंग अभी जरूरी है. यह हमारी जिम्मेदारी है कि संक्रमण के खतरों को कम करें न सिर्फ अपने लिए बल्कि दूसरों के लिए भी और यह तभी संभव है जब हम जरुरी नियमों का पालन करें. ही किस और के लिए लेकिन औरों के लिए भी.

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अगर आप नेक्सट रोड ट्रीप प्लान करते हैं तो आप सारे नियमों का पालन जरूर करें. इससे आपको यात्रा में किसी तरह की परेशानी नहीं आएगी इससे आप अपने आप को दूसरों को संक्रमित होने से बचाएंगे #BeThe Better Guy.

 

संयुक्त खाता – भाटिया अंकल के साथ क्या हुआ था

लेखिका-रंजना भारिज

दोपहर का समय था. मैं औफिस में खाना खत्म कर के जल्दीजल्दी अपनी फाइलें इकट्ठी कर रही थी.

बस 15 मिनट में एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी. इतने में ही फोन की घंटी बजी.

‘‘उफ्फ… अब यह किस का फोन आ गया?‘‘ परेशान हो कर मैं ने फोन उठाया, तो उधर से कमला आंटी की आवाज सुनाई पड़ी.

कमला आंटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उन के पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.

आंटी की आवाज से मेरा माथा ठनका. आंटी कुछ उदास सी लग रही थीं और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज को भरसक मुलायम बना कर मैं ने कहा, ‘‘हां आंटी, बताइए कैसी हैं आप?‘‘

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‘‘बेटा, मैं तो ठीक हूं, पर तुम्हारे अंकल की तबीयत काफी खराब है. हम लोग पिछले 10 दिन से अस्पताल में ही हैं,‘‘ बोलतेबोलते उन का गला भर्रा गया, तो मुझे भी चिंता हो गई.

‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?‘‘

‘‘सीरियस ही है बेटा. उन को एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब… अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डाक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं,‘‘ कहते हुए उन का गला रुंध गया.

‘‘आंटी, आप फिक्र मत कीजिए. अंकल ठीक हो जाएंगे. आप हिम्मत रखिए. मैं शाम को आती हूं आप से मिलने,‘‘ एक तरफ मैं उन्हें दिलासा दिला रही थी, वहीं दूसरी तरफ अपनी घड़ी देख रही थी.

मीटिंग का समय होने वाला था और मेरे बौस देर से आने वालों की तो बखिया ही उधेड़ देते थे. किसी तरह भागतेभागते मीटिंग में पहुंची, पर मेरा दिमाग कमला आंटी और भाटिया अंकल की तरफ ही लगा रहा.

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मीटिंग समाप्त होतेहोते शाम हो गई. मैं ने सोचा, घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूं. वहां जा कर देखा, तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डाक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था. अस्पताल से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘आंटी, किसी चीज की जरूरत हो तो बताइए.‘‘

कमला आंटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं, पर फिर बोलीं, ‘‘बेटा, एक हफ्ते से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुम से क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज में खर्च हो गया है. इन के अकाउंट में तो पैसा है, परंतु निकालें कैसे? यह तो चेक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन भी बस इन्हें ही पता है. इन का खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इन की पासबुक और चेकबुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?‘‘ कहते हुए आंटी ने पासबुक और चेकबुक दोनों मेरे हाथ में रख दी. आंटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूं.

‘‘आंटी, आप का भी अंकल के साथ जौइंट अकाउंट तो होगा ना? आप चेक साइन कर दीजिए, मैं कल बैंक खुलते ही आप के पास पैसे भिजवा दूंगी.‘‘

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‘‘नहीं बेटा, नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हें तो पता ही है, मैं तो इन के कामों में कभी दखल नहीं देती. इन्होंने कभी कहा नहीं और न ही मुझे कभी जरूरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो अंकल खुद ही करते थे. पर पैसे तो इन के इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह पैसा बैंक से निकलवा दोगी ना?‘‘ आंटी ने इतनी मासूमियत भरी उम्मीद से मेरी ओर देखा, तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या करूं. बस चेक ले कर सोचती हुई घर आ गई.

घर जा कर चेक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, ‘‘कोई बात नहीं. मैं भाटिया साहब को अच्छी तरह जानता हूं. उन के सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद भाटिया साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उन के दस्तखत करवा कर पैसे उन के पास भिजवा दूंगा. आप बिलकुल फिक्र मत कीजिए.‘‘

बैंक के निर्देशों के अनुसार यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उस का अंगूठा लगवा कर उस के खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है. वह मैनेजर इन निर्देशों से भलीभांति अवगत था, और भाटिया अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गई.

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सुबह दफ्तर जाने की जगह मैं ने कार अस्पताल की ओर मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई, जब 9 बजते ही बैंक का मैनेजर भी वहां पहुंच गया. उस के हाथ में विड्राल फार्म था, जामुनी स्याही वाला इंकपैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उस ने भाटिया अंकल से खूब गर्मजोशी से नमस्ते की, तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे. फिर मैनेजर ने कहा, ‘‘भाटिया साहब, आप के अकाउंट से 25,000 रुपए निकाल कर आप की मैडम को दे दूं?‘‘

जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया, तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गए.

उस ने फिर कहा, ‘‘भाटिया साहब, आप के इलाज के लिए आप की मैडम को पैसा चाहिए. आप के अकाउंट से पैसे निकाल कर दे दूं?‘‘ जवाब फिर नकारात्मक था.

बेचारे मैनेजर ने 3-4 बार प्रयास किया, पर हर बार भाटिया अंकल ने सिर हिला कर साफ मना कर दिया. उस ने हार न मानी और फिर कहा, ‘‘भाटिया साहब, आप को पता है कि यह पैसा आप के इलाज के लिए ही चाहिए?‘‘

भाटिया अंकल ने अब सकारात्मक सिर हिलाया, परंतु पैसे देने के नाम पर जवाब में फिर ना ही मिला.

हालांकि यह अकाउंट भाटिया अंकल के अपने अकेले के नाम में ही था, उन्होंने उस पर कोई नौमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आखिरी कोशिश की, ‘‘भाटिया साहब, आप की मैडम को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूं?‘‘ जवाब अब भी नकारात्मक था.

‘‘आप का अकाउंट कमलाजी के साथ जौइंट कर दूं?‘‘ जवाब में फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह कि भाटिया अंकल, जो कल तक न कुछ बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सिर हिला कर साफ जवाब दे रहे थे.

मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गए. खाते से पैसे निकालने में मैनेजर ने अपनी मजबूरी जाहिर कर दी, ‘‘मैडम, अच्छा हुआ, आप यहां आ गईं, नहीं तो शायद आप मेरा भी विश्वास नहीं करतीं. आप ने खुद अपनी आंखों से देखा है. भाटिया साहब तो साफ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उन के अकाउंट से पैसे निकालने की अनुमति कैसे दे सकता है?‘‘

मैनेजर की बात तो सोलह आने खरी थी. बैंक मैनेजर तो वापस बैंक चला गया और मैं अंदर जा कर कमला आंटी को उस की लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी.

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अस्पताल से लौटते समय मैं उन्हें अपने पास से 10,000 रुपए दे आई. साथ ही, आश्वासन भी कि जितने रुपए चाहिए, आप मुझे बता दीजिएगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है.

शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आंटी के पास फिर गई. वे अभी भी दुखी थीं. मैं ने भी उन से पूछ ही लिया, ‘‘आंटी, आप ने कभी अंकल को अकाउंट जौइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?‘‘

‘‘कहा था बेटा. कई बार कहा था, पर वह मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूं? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पेंशन अकाउंट है, जौइंट नहीं हो सकता है.‘‘

‘‘नहींनहीं आंटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अभी तो पेंशन अकाउंट भी जौइंट हो सकता है. चलो, अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उन का और आप का अकाउंट जौइंट करवा देंगे और नौमिनेशन भी करवा देंगे,‘‘ कह कर मैं घर आ गई.

रास्तेभर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि भाटिया अंकल वैसे तो आंटी का इतना खयाल रखते हैं, पर इतनी महत्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?

कुछ दिन और निकल गए. भाटिया अंकल की तबीयत और बिगड़ती गई. आखिरकार, लगभग 10 दिन बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आंटी को रोताबिलखता छोड़ परलोक सिधार गए.

पति के जाने के अकथनीय दुख के साथसाथ आंटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उन का अंतिम संस्कार होने तक आंटी के ऊपर कर्जा काफी बढ़ गया था.

घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज ही उन के पास जा रही थी और मैं ने जो पहला काम किया, वह यह कि भाटिया अंकल के सभी खाते बंद करवा के उन्हें कमला आंटी के नाम करवाया. इन कामों में बहुत से फार्म पूरे करने पड़ते हैं, पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब की जानकारी थी. आंटी को सिर्फ इन्डेमिनिटी बांड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे, जो मुझ में पूरा भरोसा होने के कारण वे करती चली गईं और रिकौर्ड टाइम में मैं ने भाटिया अंकल के सभी खाते आंटी के नाम में करवा दिए. आंटी ने चैन की सांस ली और सारे कर्जों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नौमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूच्यूअल फंड्स आदि का भी यही हाल था.

सब को ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा, पर मुझे यह सब काम पूरा कर के बहुत ही संतोष मिला.

भाटिया अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आंटी की फैमिली पेंशन भी आनी शुरू हो गई थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चेक जमा करना और पासबुक में एंट्री कराना भी सीख लिया था. सार यह कि उन का जीवन एक ढर्रे पर चल निकला था.

इस बात को कई महीने निकल गए, पर एक बात मेरे दिल को बारबार कचोटती रही. ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिए. फिर एक बार मौका निकाल कर मैं ने आंटी से पूछ ही लिया.

यह सुन कर आंटी सकपका कर चुपचाप जमीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था, पर कुछ क्षण पश्चात आंटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटा, क्या बताऊं? पैसा चीज ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था.‘‘

मैं चुपचाप आंटी की ओर देखती रही. मेरी उत्सुकता और अधिक जानने के लिए बढ़ गई थी.

आंटी आगे बोलीं, ‘‘जब तुम्हारे अंकल मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उन के पिता यानी मेरे ससुरजी बहुत बीमार थे. पैसों की जरूरत पड़ती रहती थी. इसलिए उन्होंने अपनी चेकबुक ब्लैंक साइन कर के रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वो चेकबुक पड़ गई और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. ना ससुरजी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इन की पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसेपैसे के लिए मोहताज हो गईं. फिर अपने अपने जेवर बेच कर उन्होंने इन की मैडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास नहीं करना, अपनी बीवी पर भी नहीं.

“तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी जिंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी मां की सीख को भी. इसीलिए वह अपने पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उन के अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा.“

अब सबकुछ शीशे की तरह साफ था, पर आंटी तनाव में लग रही थीं. मैं ने बात बदली, ‘‘चलिए छोड़िए आंटी, मैं आप को चाय बना कर पिलाती हूं.‘‘

समय बीतता गया, कमला आंटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गई थी और अपने काम संभालने से उन में एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आंटी पढ़ीलिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी, परंतु पिछले 40 सालों में केवल घरबार में ही विलीन रहने से उन का जो आत्मविश्वास खो सा गया था, धीरेधीरे वापस आने लगा था.

मैं जब भी उन से मिलने जाती, मुझे यही खयाल बारबार सताता था कि हरेक व्यक्ति भलीभांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोडो, जिंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रियजनों की आर्थिक सुरक्षा के बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटीछोटी चीजें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जौइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूच्यूअल फंड आदि में नौमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही, अपनी वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण काम है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं? अब कमला आंटी को ही ले लीजिए. उन बिचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फैमिली पेंशन की हकदार हैं, अंकल के पीपीओ वगैरह की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग जिंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना खयाल रखते हैं, परंतु कभी यह नहीं सोचते कि मेरे मरने के बाद उन का क्या होगा?

धीरेधीरे समय निकलता गया और कमला आंटी के जीवन में सबकुछ सामान्य सा हो गया. उन के घर मेरा आनाजाना भी कम हो गया, पर अचानक एक दिन आंटी का फोन आया, ‘‘बेटा, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?‘‘

‘‘हां… हां, जरूर आंटी. कोई खास बात है क्या?‘‘

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं, पर शाम को आना जरूर,‘‘ आवाज से आंटी खुश लग रही थीं.

शाम को जब मैं उन के घर पहुंची, तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुसकान थी.

‘‘लड्डू किस खुशी में आंटी?‘‘ मैं ने कौतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुसकान उन के चेहरे पर फैल गई.

‘‘पहले लड्डू खाओ बेटा,‘‘ बहुत दिन बाद कमला आंटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा.

लड्डू बहुत स्वादिष्ठ थे. एक के बाद मैं ने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आंटी अंदर के कमरे में गईं और लौट कर सरिता मैगजीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.

‘‘यह देखो, तुम्हारी आंटी अब लेखिका बन गई है. मेरी पहली कहानी इस में छपी है.‘‘

‘‘आप की कहानी…? वाह आंटी, वाह. बधाई हो.‘‘

‘‘हां, कहानी क्या, आपबीती ही समझ लो. मैं ने सोचा कि क्यों न सब लोगों को बताऊं कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है? और संयुक्त खाता न खोलने से उस को कितनी परेशानी हो सकती है. वैसे ही कोरोना वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किस का नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती, तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, ऐसा किसी के साथ न हो,‘‘ कहतेकहते कमला आंटी की आंखें नम हो चली थीं और साथ में मेरी भी.

डूबते किनारे- सौम्या और रेवती के बच कौन आ गया था

दुनिया कितनी छोटी है, इस का अंदाजा महाबलेश्वर में तब हुआ, जब बारिश में भीगने से बचने के लिए दुकान की टप्परों के नीचे शरण लेती रेवती को देखा. जयपुर में वह और रेवती एक ही औफिस में काम करते थे.आज काफी समय बाद पर्यटन स्थल की अनजान जगह पर रेवती से मिलना एक बड़ा इत्तिफाक और रोमांचकारी था. खुशी से बौराती सौम्या रेवती के गले लगते हुए बोली, “कहां रही इतने दिन…? कितना फोन लगाया तुझ को, लगता ही नहीं था… कैसी हो तुम?”

“मैं बिलकुल ठीक हूं… हां, इधर बहुत व्यस्त रही… बेटी रिया की शादी में अपना होश ही नहीं था.”“बड़ी खराब हो… बेटी की शादी में निमंत्रण तक नहीं भेजा…” सौम्या की शिकायत पर वह मुसकरा दी.“आप लोग बातें करो. मैं गरमागरम भुट्टे ले आता हूं…” सौम्या के पति सलिल ने भुट्टे के बहाने दोनों सहेलियों को अकेले छोड़ना बेहतर समझा.

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“हाय, कित्ते दिन बाद मिले हैं… समझ नहीं आ रहा, कहां से बातें शुरू करूं… यहां कब तक हो और कैसे आई हो…”“आज ही निकलना है… मैं कैब का इंतजार कर रही हूं… दरअसल, यहां एक रिश्तेदार के पास आई थी… फंक्शन था…”“अकेले…” सौम्या ने आश्चर्य से पूछा.

“और क्या, इन के पास समय कहां है, जब देखो बिजनैस… अब बेटे ने संभाल लिया है, तो इन्हें कुछ आराम है.”“सुन न रेवती, मेरे होटल चलते हैं, गप्पें मारेंगे…”नहीं यार सौम्या, बिलकुल समय नहीं है….” कहते हुए वह मोबाइल पर अपने कैब की लोकेशन देखने लगी और हड़बड़ा कर बोली, “कैब आ गई…” रेवती मोबाइल से कैब वाले को अपनी लोकेशन बताने लगी.

“हां भैया, लोकेशन पर ही हूं. हां… हां… बस थोड़ा सा आगे आइए, मैं आप को देख रही हूं…” रेवती को अपने कैब ड्राइवर को दिशानिर्देश देते हुए सौम्या ने उसे अजीब नजरों से देखा.सौम्या की ओर देखे बगैर ही रेवती ने बैग में अपने मोबाइल को सरकाते हुए कहा, “यहां की चाय ले जाना और स्ट्राबेरी भी… वैसे, कहांकहां घूमी हो. छोटी सी तो जगह है… बरसात में तो लगता है हम बादलों में हैं…” कह कर वह कैब की ओर देखने लगी.

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सौम्या उस से ढेर सारी बातें करना चाहती थी, पर दोनों सहेलियों के बीच वो कैब ड्राइवर किसी खलनायक सा आ गया.कैब ड्राइवर के आते ही रेवती उस के कंधे पर हाथ रखती हुई, “चलो, फिर मिलते हैं.” कह कर चलती बनी.अरसे बाद मिलने पर क्या कैब छोड़ी नहीं जा सकती थी, यह क्षोभ मिलने की खुशी पर भारी पड़ गया.

“अरे, तुम अकेली खड़ी हो, तुम्हारी सहेली कहां गई…” दोनों हाथों में भुट्टा पकड़े सलिल पूछ रहे थे, “चली गई, उसे कुछ ज्यादा ही जल्दी थी…”“चलो, तुम दोनों भुट्टे खा लो…” कहते हुए सलिल ने उसे भुट्टा पकडाया.

बारिश थम चुकी थी. सलिल आसपास के खूबसूरत नजारों में खो गए. पर, सौम्या का व्यथित मन रेवती के उदासीन व्यवहार का आकलन करने में लगा हुआ था. संपर्क सूत्र का आदानप्रदान हुए बगैर कब मिलेंगे, कैसे मिलेंगे? जैसे अनुत्तरित प्रश्न उस के पाले में डाल कर यों हड़बड़ी में निकल जाना उसे बड़ा अजीब लगा. लगा ही नहीं, कभी दोनों में घनिष्ठता थी. न कुछ जानने की ललक… न बताने की उत्सुकता… रेवती का अतिऔपचारिक व्यवहार सौम्या को अच्छा नहीं लगा.

जयपुर से दिल्ली शिफ्ट होने के बाद वह जब भी रेवती को फोन करती, वह पूरे उत्साह के साथ अपने सुखदुख उस से साझा करती… फोन पर लंबीलंबी बेतकल्लुफ बातचीत में जहां सौम्या दिल्ली जैसी नई जगह पर मन न लगने का रोना रोती, वहीं रेवती अपनी नौकरी की व्यस्तता की भागादौड़ी के बारे में बताती.

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रिटायरमेंट का समय नजदीक आने पर लोग जहां भविष्य की चिंता में डूबते हैं, वहीं रेवती खुश थी कि रिटायरमेंट के बाद खूब आराम करेगी… रिटायरमेंट के पलों को सुकून से जिएगी और अपने पति आकाश के साथ खूब घूमेगी. इधर कुछ सालों से रेवती से उस का संपर्क टूट गया. जो नंबर उस के पास था, उस से उस का फोन नहीं लगता था.

सौम्या को पुराने दिन याद आए. उस के और रेवती के बीच कितनी अच्छी मित्रता थी. दोनों एकदूसरे के सुखदुख की साझीदार थीं.जब सलिल का ट्रांसफर दिल्ली हुआ, तो वह बहुत दुखी हुई. उस वक्त रेवती ने उसे समझाया, “परिस्थितियोंवश हमें कोई निर्णय लेना हो, तो उस के पीछे खुश होने के कारण ढूंढ़ लेने चाहिए.

‘‘अब देखो न, आकाश मेरे घर में खाली बैठने के खिलाफ हैं. उन का मानना है कि काम सिर्फ पैसों के लिए नहीं किया जाता. काम करने से क्रियाशीलता बनी रहती है.

“आकाश औरत की आजादी के पक्ष में हैं. क्या इतना मेरे लिए काफी नहीं… उन की सकारात्मक सोच के चलते मैं अलवर से जयपुर अपडाउन कर पाती हूं.

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“मैं खुश हूं कि आकाश खुले विचारों के हैं. वहीं दूसरी ओर तुझे नौकरी छोड़नी पड़ रही है, क्योंकि सलिल को दूसरे शहर में तबादले पर जाना है. इस समझौते के पीछे सकारात्मक सोच यह होनी चाहिए कि सलिल और तुम्हें टुकड़ोंटुकड़ों में जीवन जीने को नहीं मिलेगा.”

“तुम कुछ भी कहो, मैं तो खालिस समझौता ही कहूंगी… एक मिनट को मेरी बात छोड़ दो… उधर आकाश क्या चाहते हैं, ये भी छोड़ दो. बस दिल से कहो, अपने लिए तुम्हारा अपना मन क्या कहता है,” सौम्या की बात सुन कर रेवती फीकी हंसी हंस कर बोली, “इस भागदौड़ में क्या रखा है… कहने को आजाद हूं. आकाश जैसी खुली विस्तृत सोच वाला पति मिला है, फिर भी जीवन आसान कहां है. 60-65 किलोमीटर रोज के आनेजाने में कब दिन शुरू होता है, कब खत्म, कुछ पता ही नहीं चलता.

“कभीकभी मन में कसक उठती है कि कब वो दिन आएगा, जब मैं रिटायरमेंट के बाद उन्मुक्त जीवन जिऊंगी. चिड़ियों की चहचहाहट सुनूंगी, चाय के कप से धीमेधीमे चुसकियां भरूंगी. बरसती बूंदों की टपटप सुनूंगी.

‘‘अपने जानपहचान के लोगों से संपर्क बढ़ाऊंगी. कुछ छूटा हुआ समेटूंगी. कुछ बेवजह यों ही छोड़ दूंगी. ऐसे में जब बच्चे हायर स्टडीज के लिए बाहर हैं… आकाश के साथ बिना प्लानिंग कहीं निकल जाऊंगी… एकदूसरे का अकेलापन दूर करते हुए सुकून से जिऊंगी.

‘‘आकाश का बस चले, तो रिटायरमेंट के बाद भी मुझे व्यस्त रखें… जबकि मैं सुकून चाहती हूं. अब तो उस दिन का इंतजार है, जब मेरा फेयरवेल होगा…” कह कर रेवती अपने फुरसती दिनों की कल्पना में डूब गई.

“क्या हुआ…? तुम इतनी चुपचुप सी क्यों हो…” सलिल के टोकने पर मन का पंक्षी अतीत से वर्तमान में फुदक कर आ गया.

“थकान सी हो रही है सलिल, होटल चल कर आराम करते हैं…” सौम्या के कहने पर सलिल उस के साथ वापस होटल में आ गए.

रात को डिनर के लिए डाइनिंग एरिया की ओर जाते समय सहसा ही सलिल के मुंह से निकला, “अरे, आज तो वाकई इत्तिफाक का दिन है.”

सलिल के इशारे पर सौम्या की नजरें उठीं, तो बुरी तरह चौंक गई… कौरीडोर में रेवती अपने रूम का लौक खोलती दिखी. पीठ उन की तरफ होने से रेवती सौम्या और सलिल को देख नहीं पाई…

सलिल उस की बेचैनी देख कर बोले, “अगर तुम्हें लगता है कि वह तुम्हें एवौइड कर रही है, तो समझदारी इसी में है कि तुम उन की भावनाओं का खयाल करते हुए उन्हें शर्मिंदा न करो…”

पर, सौम्या को चैन कहां था. रात 9 बजे वह रेवती के कमरे का दरवाजा खटखटा आई.

दरवाजा खुलते ही विस्मय, शर्मिंदगी और हड़बड़ाहट भरे भाव लिए खड़ी रेवती को परे धकेलती वह बेधड़क अंदर आ गई और नाराजगी भरे भाव में व्यंग्यात्मक स्वर में बोली, “तू तो अपने रिश्तेदार के यहां आई है. वहां जगह नहीं होगी, तभी शायद होटल में रुकी है. वह भी उस होटल में, जिस में हम ठहरे हैं. शायद वे… तू तो आज निकलने वाली थी न…”

“तू क्या लेगी, चाय बनाऊं…” रेवती के कहने पर सौम्या उस का हाथ पकड़ कर कहने लगी, “इतने दिनों बाद मुझ से मिली है. क्या मन नहीं करता बातें करने का… जान सकती हूं, वजह क्या है मुझे एवौइड करने की…”

वह सकपकाते हुए बोली, “ऐसी कोई बात नहीं है यार… क्यों एवौइड करूंगी तुझे? रिश्तेदार से मिलने जरूर आई थी, पर रुकी होटल में हूं. इस में कौन सी बड़ी बात है.”

यह सुन कर दो पल के लिए सौम्या रेवती को घूरती रही, फिर सहसा ही उस का हाथ पकड़ कर बोली, “क्या हुआ है तुझे, सब ठीक तो है न…”

“हां… हां, बिलकुल ठीक है…”

“सच बता, अकेले आई है क्या?”

“हां, बिलकुल…”

“बच्चे और पति कहां हैं?”

“बताया तो… बेटी रिया की शादी हो गई और बेटा रोहन एमबीए कर के फैमिली बिजनैस में है.

“और पति आकाश…”

“बिलकुल बढ़िया हैं आकाश…”

उस के बाद कुछ पल के लिए चुप्पी छा गई, एक अनावश्यक सी चुप्पी… सौम्या उस के चेहरे को ध्यान से देखने लगी. दोपहर बाद की चंद पलों की मुलाकात में वह हंसी तो थी, पर उस की हंसी आंखों तक नहीं पहुंची थी.
अजीब सी गंभीरता ओढ़े, मुरझाया चेहरा और सूखी भावहीन आंखें, औपचारिकता में लिपटा रूखासूखा व्यवहार देख कर वह फुसफुसाई, “चेहरा कैसा मुरझा गया है. कहां गया तेरा सुकून वाला फंडा… मैं समझती हूं कि एक बार काम करने की आदत पड़ जाए न, तो घर बैठना बिलकुल नहीं सुहाता… आकाशजी अपने बिजनैस में व्यस्त होंगे और तू खालीपन सा महसूस करती होगी…”

यह सब सुन कर रेवती मुसकराती रही… उसे ध्यान से देख कर सौम्या बोली, “मत मुसकरा इतना… कुछ चल रहा है तेरे दिल में तो बता दे…”

इतना सुन मुसकराती रेवती के भीतर जमा दर्द सखी के स्नेहिल स्पर्श से झरझर आंसू छलकने लगे. सौम्या उसे रोते देख हैरान रह गई, फिर बिना पूछे ही उसे सीने से लगा लिया.

कुछ देर तक दोनों सहेलियां मौन रहीं. फिर कुछ देर बाद रेवती बोली, “क्या कहूं तुझ से, और कह के भी क्या फायदा…”

“मन हलका होगा और क्या…” सौम्या के कहते ही जब दर्द का गुबार निकला, तो वह सन्न रह गई, लगा जैसे पैरों के नीचे से धरती सरक गई…

रेवती अतीत के अवांछित प्रसंग को उस के साथ साझा कर रही थी…

रेवती के औफिस का आखिरी दिन था… वह बड़े उमंगों से भरी घर से निकली. औफिस पहुंचने पर उस का जोरदार स्वागत हुआ.

भावभीनी विदाई की पार्टी के बाद तकरीबन 12 बजे बौस ने कहा, “मुझे अलवर में कुछ काम है. तुम चाहो तो मैं तुम्हें घर छोड़ सकता हूं, लेकिन तुम को अभी निकलना होगा…’’

फूलों के हार, बुके और गिफ्ट को देखते हुए उसे बौस के साथ जाने में ही समझदारी लगी… आखिरी दिन उस को जल्दी घर जाने की छूट मिलना कौम्प्लीमैंट्री था. उस ने झट से हां कर दी.

वह जल्दी घर पहुंच कर आकाश को सरप्राइज करना चाहती थी. पर, खुद सरप्राइज हो गई, जब बड़ी देर तक घंटी बजाने के बाद आकाश ने दरवाजा खोला. शाम के साढ़े 6 और 7 बजे के बीच आने वाली पत्नी को 2 बजे दरवाजे पर देख कर उस के बोल नहीं फूटे…

रेवती घर के भीतर गई, तो बेडरूम में अपने ही बिस्तर पर अपनी कालोनी की एक औरत को देख गुस्से से पागल हो गई… आकाश और उस औरत के अस्तव्यस्त कपड़े और हुलिए को देखने के बाद किसी सफाई की कोई आवश्यकता नहीं रह गई थी.

आकाश का यह रूप और राज जान कर उस का वह ‘अस्तित्व’ हिल गया, जिसे सुरक्षित रखने के लिए आकाश उसे नौकरी करने के लिए प्रेरित करता था. नौकरी की प्रेरणा के पीछे इतना घिनौना उद्देश्य जान कर वह विक्षिप्त सी हो गई… जिस आकाश को देख कर वह जीती थी, उस आकाश ने उसे जीतेजी मार दिया था. नौकरी करने वह जाती थी और आजादी आकाश को मिलती थी ऐयाशियां करने की.

रेवती को फूटफूट कर रोते देख सौम्या ने उस के कंधे को पकड़ कर जोर से हिला कर पूछा, “तू ने इतना घिनौना सच जानने के बाद भी उस के साथ रहने का निर्णय क्यों लिया…

“मैं ने उस का चुनाव नहीं किया सौम्या, मैं ने उस पद प्रतिष्ठा और बच्चों की शांति के लिए उन के भविष्य का चुनाव किया है, जिस को कमाने में मेरी पूरी उम्र लग गई. दुनिया के सामने वह मेरे आदर्श पति थे और आज भी हैं… जबकि हम एक घर में दो अजनबी हैं. हम दोनों एकदूसरे का इस्तेमाल सामाजिक प्रतिष्ठा के चलते ही करते हैं.”

“क्या उसे अपनी गलती का एहसास है?”

“पकड़े जाने के बाद गलती का एहसास किसे नहीं होगा… उसे भी वही डर है, जो मुझे है कि ये बात बाहर आई तो समाज में क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी? इसलिए वह अपनी गलती मान कर माफी मांग रहा है, पर मैं कैसे मान लूं कि जिस पति पर आंख मूंद कर मैं ने भरोसा किया, उस ने मेरी पीठ पर छुरा भोंका है… मेरे साथ विश्वासघात किया है… अपने दिल में उस के दिए नागफनी के कांटे ले कर मैं जगहजगह सुकून की तलाश में भटक रही हूं, पर सुकून नहीं मिलता है.
सोतेजागते उस का छल, उस के कुचक्र के कांटे मेरे दिल को घायल कर देते हैं. जिन सुकून के दो शब्द उस से बतियाने को तरसती थी, वो अब ख्वाब बन गए…

मैं ने अपने फोन के सिम को तोड़ कर फेंक दिया था इस भय से कि कहीं किसी जानने वाले का फोन न आ जाए… कहीं वह मेरी आवाज से मेरे मन के भीतर चल रहे तूफान को भांप न जाए… कहीं भावावेश में मैं वो सब न उगल दूं, जिसे छिपाने के लिए हम जद्दोजेहद कर रहे हैं.
मेरे स्वाभाविक स्वभाव के विपरीत उपजते कसैलेपन को भांप कर आज लोग यहां तक कि मेरे अपने बच्चे बढ़ती उम्र की देन मानने लगे हैं.

रेवती की आपबीती सुन कर वाकई सौम्या का दिल भर आया था. वह उस के हाथों को सहलाती हुई बोली, “खुद को शांत रखना अपने हाथों में है. जब साथ रह ही रहे हो, तो जो हो गया उसे भूलने की कोशिश करो.”

“कहना आसान है. आदत के अनुरूप उस के प्रति अपनत्व कभी उभरता भी है, तो अतीत की कंटीली झाड़ियां मुझे लहूलुहान कर देती हैं. मैं दूसरों के सामने हंसतीमुसकराती जरूर हूं, पर सच यह है कि मैं जहां भी रहूं, कुछ भी करूं, नागफनी के दंशों की पीड़ा से मुक्ति नहीं पाती हूं… जब भी उस से बात होती है तब… क्यों, कब, कैसे जैसे प्रश्नों में उलझ कर रह जाती हूं. हम जब भी बात करते हैं, अतीत में उलझ कर रह जाते हैं और कड़वा अतीत नासूर बन कर रिसता है,” रेवती की मनोदशा देख कर सौम्या ने बात बदलने की चेष्टा करते हुए पूछा, “अच्छा, ये तो बता कि तुम महाबलेश्वर कैसे आई हो? कोई है क्या यहां…?”

“अरे, कोई नहीं है यहां… मैं अकसर यहां की शांत वादियों में अपने अशांत मन को सुकून पहुंचाने की कोशिश में आ जाती हूं… आकाश भी चाहते हैं कि मेरा मन शांत हो, मैं फिर से पहले वाली हो जाऊं…

‘‘उन्होंने मुझे विश्वास दिलाने की पूरी कोशिश की कि मेरी जगह उन के दिल में वही है, जो पहले थी. तू बता कि मैं इस छलावे को कैसे सच मान लूं.

“जो मैं वाकई उस के दिल में होती, तो वो मेरे लिए अपने बहकते कदमों को रोक लेता, पर मेरी नौकरी में उस ने सुविधा ढूंढ़ कर मेरे साथ छल किया.

“तू बता, उस के लंबे समय तक चले आ रहे सोचेसमझे छल को कैसे भूल जाऊं…”
रहरह कर रेवती के मन के घाव रिसते रहे. विगत के दोहराव से छाई मनहूसियत दूर करने के लिए सौम्या ने रेवती के दोनों बच्चो की बातें आरंभ कीं, तो उस के चेहरे पर रौनक आ गई.

सौम्या को अच्छा लगा कि उस के मन का एक हिस्सा अभी भी जिंदा है. शायद इस हिस्से के भरोसे जीवन बीत जाए. एकदूसरे को अपनीअपनी कहसुन लेने के बाद अब दोनों शांत थीं.
रेवती कौफी बनाने लगी, तो सौम्या की नजर दीवार पर लगी पेंटिंग पर टिक गई. पेंटिंग में उफनती लहरों के बीच एक स्त्री अकेली नाव खे रही थी… उस पेंटिंग में नदी के किनारे नहीं दिख रहे थे.

उसे लगा, मानो नाव में रेवती हो और वह अपने जीवन की नैया को किनारे लगाने में पूरी शक्ति झोंक रही हो… किनारा देखते ही उस के चेहरे पर खुशी की झलक आई, थकावट से भरे मनमस्तिष्क, शरीर विश्राम करने को बेकल हो गए, पर नाव का किनारों पर पहुंचना उस की किस्मत में शायद नहीं था. नाव किनारे लगती, उस से पहले ही किनारों ने डूबना आरंभ कर दिया था. उस स्त्री की विडंबना देख सौम्या की आंखों में न चाहते हुए भी आंसू भरते चले गए.

दीदी -भाग 3: दीपा की खुशी के लिए क्यों हार गई दीदी

दीपा दीदी की आजादी दीदी के जाने के बाद प्रतिदिन बढ़ती गई और सारे घर के कार्य का बोझ मुझ पर ही लाद दिया गया. रागिनी दीदी के डांस प्रोग्राम घर पर ही होते थे. उन में हम सब की प्रसन्नता सम्मिलित थी. पर दीपा दीदी तो अधिकतर बाहर ही रहतीं. एक कार्यक्रम समाप्त होता तो दूसरे में जुट जातीं. उन्हें खूब पुरस्कार मिलते तो मां उन की प्रशंसा के पुल बांध देतीं. मुझे प्रोत्साहित करने वाला घर में कोई न था. नाचगाने से मेरा संबंध छूट कर केवल रसोईघर से रह गया. बस, कभी विवश हो जाती तो दीदी को याद कर के रोती. मन हलका हो जाता. बाद के 5 वर्षों में मेरे लिए कुछ सहारा था तो दीदी से फोन पर बात करना. कितनी तसल्ली होती थी जब दीदी प्यार से फोन पर मुझ से बात करतीं. एक बार उन्होंने मुझ से फोन कर के कहा, ‘सुधी, मैं जानती हूं कि तू मेरे बिना कैसी जिंदगी जी रही होगी, परंतु तू धैर्य मत खोना, जिंदगी में हर स्थिति का सामना करना ही पड़ता है. उस से भागना कायरता है. मैं यह कभी सुनना नहीं चाहूंगी कि सुधी कायर है.’

सच पूछो तो दीदी का जीवन ही मेरे लिए प्रेरणास्रोत था. सब से अधिक प्रेरणा तो मुझे तब मिली जब मुझे यह पता चला कि विवाह के बाद भी दीदी अपनी पढ़ाई कर रही थीं. जीजाजी के रूप में उन्हें ऐसा जीवनसाथी मिला जो केवल पति नहीं था, बल्कि पापा की भांति उन्होेंने दीदी को संरक्षण दे कर पापा के सपने को साकार करना चाहा था. इंटर तक दीदी के पास साइंस तो थी ही, उन्होंने मैडिकल प्रवेश परीक्षा पास कर ली और उन्हें आगरा के मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया और वे अपनी प्रतिभा के कारण हर वर्ष एकएक सीढ़ी चढ़ती चली गईं. जीजाजी इंडियन एयरलाइंस में पायलट के पद पर कार्यरत थे. अकसर कईकई दिनों तक वे बाहर चले जाते. दीदी का समय अपनी पढ़ाई व कालेज में बीतता. कितने सुचारु ढंग से चल रहा था दीदी का जीवन.

डाक्टर बन कर दीदी कालेज से निकलीं तो जीजाजी ने उस खुशी में एक बड़ी पार्टी का आयोजन किया था. उस दिन जीजाजी खुशी के कारण अपने होशोहवास भी खो बैठे थे. सब के बीच दीदी को बांहों में भर कर उठा लिया था, ‘आज मुझे लग रहा है, मैं खुशी से पागल हो जाऊंगा. इसलिए नहीं कि हमारी श्रीमतीजी डाक्टर बनी हैं, बल्कि इसलिए कि हमारे दिवंगत ससुरजी की इच्छा पूर्ण हो गई है. उन की बेटी डाक्टर बन गई है. वे रागिनी को डाक्टर बनाना चाहते थे.’ सभी लोगों ने उन के हृदय की सद्भावना को देख कर तालियां बजाई थीं. दीदी लाज के मारे दोहरी हुई जा रही थीं. उस समय जीजाजी ने अमर व हम दोनों बहनों को भी बुलाया था. कितने ही ढेर सारे उपहार लिए हम प्रसन्नतापूर्वक लौट आए थे.

फिर एक घटना और घटी, कितनी अनचाही, कितनी अवांछित. जीजाजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो कर आग की लपटों में समां गया था, साथ ही, सभी यात्री और जीजाजी की कंचन काया भी. जिस ने भी सुना वही जड़ हो गया. अम्मा ने माथा पीट लिया. हम सब बहनभाई एकदूसरे को ताकते भर रह गए, एकदम जड़ और शून्य हो कर. दीदी अपना वैधव्य बोझ लिए फिर घर लौट आईं. वैधव्य दुख हृदय में होने पर भी अब की बार दीदी के चेहरे पर एक गहन आत्मविश्वास का भाव था, क्योंकि अब वे घर का बोझ बन कर नहीं, घर के बोझ को हलका करने की शक्ति हाथों में लिए आई थीं.

जीजाजी के पैसों से दीदी ने अपना क्लिनिक बनवाना आरंभ कर दिया. साथ ही, एक दुकान किराए पर ले कर महिलाओं व बच्चों का इलाज भी करने लगीं. गृहस्थी की जो गाड़ी हिचकोले खाती चल रही थी, वह फिर से सुचारु रूप से चलने लगी. पापा की जगह दीदी ने संभाल ली. हर कार्य दीदी की सलाह से होने लगा. दीदी के प्रति मां के बरताव में धीरेधीरे अंतर आने लगा. वे उन्हें अपने बड़े लड़के की उपाधि देने लगीं. सभी खुश थे, परंतु मझली दीदी अपना स्थान छिन जाने के कारण रुष्ट सी रहतीं, यद्यपि रागिनी दीदी ने अपने अधिकार का दुरुपयोग कभी नहीं किया. हम सब की खुशी को ही उन्होंने अपनी खुशी समझा था. दीपा दीदी के ढेर सारे पुरस्कारों को देख कर उन्होंने खुशी से कहा था, ‘‘अरे, दीपा, तूने तो कमाल कर दिया. इतने पुरस्कार जीत लिए. तू तो वास्तव में ही छिपी रुस्तम निकली.’’

‘‘सच पूछो तो दीदी, इस का श्रेय अमित को है. जानती हो वह आजकल अच्छेअच्छे ड्रामों का निर्देशक है. पुणे से कोर्स कर के आया है. उसी के सही निर्देशन में मैं ने ये ढेर सारे पुरस्कार …’’ बीच में ही दीदी ने दीपा दीदी को अपने अंक में भर लिया था, ‘‘मैं तो पहले ही जानती थी कि अमित के लिए उस की कला केवल शौक ही नहीं, नशा है. कितनी प्रसन्नता की बात है कि वही अमित तुझे साथ ले कर चला है.’’

अमित तब अकसर घर आने लगा था. जब भी किसी ड्रामे या प्रोग्राम की तैयारी करनी होती वह दीपा दीदी को लेने आ पहुंचता और फिर छोड़ जाता. सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी में रात को कभी एक बजा होता तो कभी इस से भी अधिक देर हो जाती. महल्लेभर में दीपा दीदी और अमित के बारे में बातें होने लगी थीं. एक दिन मां ने ही रागिनी दीदी से कहा, ‘‘बहुत दिनों से सुनती आ रही हूं, रागिनी ये सब बातें. लोग ठीक ही तो कहते हैं, जवान लड़की है, इतनी रात गए तक वह इसे छोड़ने आता है. सोचती हूं, अब दीपा के हाथ भी पीले कर देने चाहिए.’’

दीदी ने लापरवाही से एक हंसी के साथ कहा था, ‘‘मां, लोग जिस ढंग से सोचते हैं न, एक कलाकार उस ढंग से नहीं सोच सकता, क्योंकि उसे तो केवल अपनी कला की ही धुन होती है. अमित को मैं अच्छी तरह जानती हूं, रात को दीपा यदि उस के संरक्षण में घर लौटती है तो ठीक ही करती है.’’ ‘‘तू तो अपने बाप से भी दो अंगुल बढ़ कर है. उन्होंने क्या कभी सुनी थी मेरी, जो तू सुनेगी?’’ मां ने खीझ कर कहा था.

‘‘पापा ने भी तो कभी गलत नहीं सोचा था. जो कुछ भी वे सोचते थे, कितना सही होता था.’’ दीदी के उत्तर से मां निरुत्तर हो गई थीं. एक दिन पापा की ही तरह उन्होंने मुझ से और दीपा से डांस प्रोग्राम करने का अनुरोध किया. वे मेरी छूटी हुई कला को मुझ से फिर जोड़ना चाहती थीं. दूसरे अमित व दीपा के डांस के समय पारस्परिक हावभाव कैसे रहते हैं, इस का अंदाजा भी करना चाहती थीं.

दीपा दीदी ने अमित से दीदी की इच्छा बताई तो वह पूर्ण उत्साह से तैयारी में जुट गया. एक छोटे से ड्रामे की तैयारी भी साथ ही होने लगी. महल्लेभर में खुशी की लहर दौड़ गई.

हीरोइन थी दीपा दीदी. उन के मेकअप के लिए अमित के वही सुझाव. दीपा दीदी के मुख पर विजयभरी मुसकान दौड़ जाती. उधर मेरी आंखों के आगे रागिनी दीदी का लाज से सकुचाया वही चेहरा घूम जाता, जब वे स्वयं दीपा दीदी के स्थान पर होती थीं. मैं कई बार सोच कर रह जाती, ‘रागिनी दीदी चाहें तो अब भी अमित को पा सकती हैं.’ परंतु दीदी को अपने से ज्यादा चिंता हम सब की थी, इसलिए उन्होंने उस ओर कभी सोचा ही नहीं. कभी सोचा भी होगा तो दीपा की खुशी उन्हें अपनी खुशी से भी अधिक प्यारी लगी होगी. अपने को भुला कर वे सादी सी सफेद साड़ी में, हाथ में स्टेथोस्कोप लिए घर से क्लिनिक और क्लिनिक से घर भागती रहतीं. केवल कुछ क्षणों का विश्राम. रात को भी पूरी नींद नहीं सोतीं, कभी कोई डिलिवरी केस अटैंड कर रही हैं तो कभी कोई सीरियस केस.

हमारा सब का जीवन पटरी पर लौट आया था. वही सब पुराने ठाटबाट. घर में नौकरचाकरों की व्यवस्था, मां के लिए अच्छी से अच्छी खुराक व दवाई का प्रबंध, मेरी व अमर की पढ़ाई फिर से सुचारु रूप से चालू हो गई थी. घर में ट्यूशन का प्रबंध हो गया. दीपा दीदी की प्रतिदिन की नईनई पोशाकों व शृंगार प्रसाधनों की मांग की पूर्ति हो जाती, परंतु रागिनी दीदी? उन्हें एक दिन अमित के साथ कहीं बाहर जाते देखा था. मरीजों से जबरदस्ती छुट्टी पा कर वे अमित के साथ उस की गाड़ी में गई थीं और कुछ ही घंटों बाद लौट भी आई थीं. तब दीपा दीदी को बहुत बुरा लगा था, ‘‘मैं तो कार्यवश उस के साथ जाती हूं. इन्हें भला दुनिया क्या कहेगी कि विधवा हो कर एक कुंआरे लड़के के साथ…’’ उस दिन मां का गुस्से से कांपता हाथ दीपा दीदी के गाल पर चटाख से पड़ा था, ‘‘ऐसी बातें कहती है बेशर्म उस के लिए? तू अभी भी समझ नहीं पाई है उसे. मैं जानती हूं वह क्यों गई है.’’

सप्ताहभर बाद ही जब रागिनी दीदी ने घर में यह घोषणा की कि वे दीपा का विवाह अमित से करेंगी तो मझली दीदी का चेहरा आत्मग्लानि से स्याह पड़ गया था.

दीदी ने बड़े चाव और उत्साह से दीपा दीदी के साथ जा कर एकएक चीज उस की पसंद की खरीदी. अम्मा व हम सब देखते रहते. दीदी कभी बाजार जा रही हैं तो कभी क्लिनिक, कभी इधर भाग रही हैं तो कभी उधर. उन के थके चेहरे को देख कर अम्मा बोली थीं, ‘‘ऐसे तो तू चारपाई पकड़ लेगी. इतना क्यों थकती है? दीपा तो अपना सामान स्वयं खरीद कर ला सकती है.’’ ‘‘उस के लिए यह दिन फिर कभी नहीं आने वाला है, मां. वह लाएगी तो ऐसे ही लोभ कर के सस्ता सामान उठा लाएगी, मैं जानती हूं इस कंजूस को.’’ दीपा दीदी के सब से अधिक फुजूलखर्च होते हुए भी दीदी ने ठीक पिताजी वाले अंदाज से कंजूस बना दिया था.

मेहमानों से घर भर गया. चारों ओर चहलपहल थी. दीदी ने सब इंतजाम कर दिए थे. सभी रिश्तेदार दीदी की प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे, ‘ऐसी बेटी के सामने तो अच्छेअच्छे लड़के भी नहीं ठहर पाएंगे.’ ‘कौन लड़का करता है आजकल मां व बहनभाइयों की इतनी परवाह?’ चारों ओर यही चर्चा.

विवाह संपूर्ण रीतिरिवाजों के साथ संपन्न हो गया. विदाई का समय हो गया है. दीपा दीदी कार में अमित के पास बैठीं तो उन्होंने एक विजयभरी मुसकान लिए दीदी की आंखों में झांका. उस मुसकान से दीदी का चेहरा एक अद्भुत प्रसन्नता से खिल उठा, जिसे दीपा दीदी आजीवन समझ न पाएंगी. वह प्रसन्नता एक ऐसे खिलाड़ी की प्रसन्नता थी जो अपने साथी की जीत को खुशी प्रदान करने के लिए स्वयं अपनी हार स्वीकार कर लेता है, परंतु अपने साथी को यह विदित भी नहीं होने देता कि वह जानबूझ कर हारा है.

दीदी -भाग 2: दीपा की खुशी के लिए क्यों हार गई दीदी

सतत ही तो थी पापा की वह खुशी. संतान जब गुणवान हो तो किसे प्रसन्नता नहीं होती? रागिनी दीदी को तो न जाने किन हाथों से रचा गया था कि किसी भी गुण से अछूती नहीं हैं. वे देखने में सुंदर, पढ़ाई में निपुण व कलाओं में प्रवीण, क्या घर क्या बाहर, सब जगह ही दीदी की धाक रहती.

पापा अकसर डांस प्रोग्राम करवाते, जिस में रागिनी दीदी स्टार डांसर होती थीं. उन के साथ दीपा दीदी व महल्ले की अन्य लड़कियां भी डांस प्रस्तुत करती थीं. हमारे पड़ोसी डा. दीपक का सब से बड़ा बेटा अमित इस प्रोग्राम में विशेष रुचि लेने लगा था. धीरेधीरे अमित दीदी को स्वयं सुझाव देता. ‘यह रंग तुम पर अधिक सूट नहीं करेगा. कोई सोबर कलर पहनो. इस साड़ी के साथ यह ब्लाउज मैच करेगा. ऊंह, लिपस्टिक ठीक नहीं लगी, जरा और डार्क कलर यूज करो. काजल की रेखा जरा और लंबी होनी चाहिए. बाल ऐसे नहीं, ऐसे बनने चाहिए.’ प्रोग्राम के समय भी अमित की आंखें दीदी के चेहरे पर ही टिकी रहतीं, और यदि दीदी की नजरें कभी अकस्मात उस की नजर से टकरा जातीं तो उन के चेहरे पर हजारों गुलाबों की लाली छा जाती.

यह सब किसी से छिप सकता था भला? बस, मझली दीदी कुछ तो यह ईर्ष्या दीदी के प्रति पाले हुए थीं कि अमित उन की ओर ध्यान न दे कर रागिनी दीदी को ही आकर्षण का प्रमुख केंद्र बनाए रहता है. दूसरे, मां की आंखों में अपनेआप को ऊंचा उठाने का अवसर भी वे कभी अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती थीं. उन्होंने दीदी के विरुद्ध अम्मा के कान भरने आरंभ कर दिए. मां को एक दिन पापा के कान में कहते सुना था, ‘इस लड़की को आप इतनी छूट दे रहे हैं, फिर वह लड़का भी तो अपनी जातबिरादरी का नहीं है.’

‘अरे, बच्चे हैं, उन के हंसनेखेलने के दिन हैं. हर बात को गलत तरीके से नहीं लेते,’ पापा इतनी लापरवाही से कह रहे थे जैसे उन्होंने कुछ देखा ही न हो. सचमुच पापा की मृत्यु के बाद ही दीदी ने भी अमित के प्रति ऐसा रुख अपनाया था जैसे कि कभी कुछ हुआ ही न हो. एकदम उस से तटस्थ, अमित कभी घर में आता तो दीदी को उस के सामने तक आते नहीं देखा.

दिल में आता उन्हें पकड़ कर झकझोर दूं. ‘क्या हो गया है दीदी, तुम्हें? तुम्हारे अंदर की हंसने, नाचने व गाने वाली रागिनी कहां मर गई है, पापा के साथ ही?’ विश्वास ही नहीं होता था कि यह वही दीदी हैं.

अमित के आने में जरा सी देर हो जाती तो वे बेचैन हो उठतीं. तब वे मुझे प्यार से दुलारतीं, फुसलातीं, ‘सुधी, जा जरा अमित को तो देख क्या कर रहे हैं?’ मैं मुंह मटका कर, नाक चढ़ा कर उन्हें चिढ़ाती, ‘ऊंह, मैं नहीं जाती. कोई जरूरी थोड़े ही है कि अमित डांस देखें.’ ‘देख सुधी, बड़ी अच्छी है न तू, जा चली जा मेरे कहने से. मेरी प्यारी सी, नन्ही सी बहन है न तू.’

वे खुशामद पर उतर आतीं तो मैं अमित के घर दौड़ जाती. वहीं दीदी अमित से तटस्थ रह कर चाचाजी द्वारा भेजे गए लड़कों की तसवीरों को बड़े चाव से परखतीं और अपनी सलाह देतीं. मेरे मस्तिष्क में 2 विपरीत विचारों का संघर्ष चलता रहता. क्या दीदी विवश हो कर ऐसा कर रही हैं या फिर पापा के मरते ही उन्हें इतनी समझ आ गई कि अपना जीवनसाथी चुनने के उचित अवसर पर यदि वे जरा सी भी नादानी दिखा बैठीं तो उन का पूरा जीवन बरबाद हो सकता है? एक दिन उन के हृदय की थाह लेने के लिए मैं कह ही बैठी, ‘दीदी, क्या इन तसवीरों में अमित का चित्र भी ला कर रख दूं?’

उन्होंने अत्यंत संयत मन से मेरे गाल थपथपा दिए थे, ‘सुधी, हंसीखेल अलग वस्तु होती है और जीवनसाथी चुनने का उत्तरदायित्व अलग होता है. अमित अभी मेरा भार वहन करने योग्य नहीं है.’ तब मैं समझ पाई थी कि दीदी ने अपने बोझ से हम सब को मुक्त करने के लिए, उन के बोझ को वहन न कर सकने योग्य अमित की तसवीर को अपने मानसपटल से पोंछ दिया था.

उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से ऐसे योग्य, स्वस्थ, सुंदर व कमाऊ पति का चुनाव किया था कि सभी ने उन की रुचि की प्रशंसा की थी. दुलहन बनी दीदी जिस समय जीजाजी के साथ अपना जीवनरूपी सफर तय करने को कार में बैठीं, उन के चेहरे पर कहीं भी कोई ऐसा भाव नहीं था, जिस से किंचित मात्र भी प्रकट होता कि वे विवश हो कर उन की दुलहन बनी हैं.

उन के विदा होते ही अम्मा के घुटे निश्वासों को स्वतंत्रता मिल गई थी, ‘‘यही तो अंतर है लड़का लड़की में. बाप की सारी कमाई खर्च करवा कर चली गई. इस की जगह लड़का होता तो कुछ ही वर्षों में सहारे योग्य हो जाता.’’ उधर, दीपा दीदी का पार्ट घर में प्रमुख हो गया. पापा ने वास्तव में ही कहीं गड़बड़ की तो दोनों दीदियों के नाम रखने में. दीपा तो बड़ी दीदी का नाम होना चाहिए था जो आज भी घर के लिए प्रकाशस्तंभ हैं. दीपा दीदी तो अपने नाम का विरोधाभास हैं. उन के मन में तो अंधकार ही रहता है.

रागिनी दीदी घर से क्या गईं, मेरे लिए तो सबकुछ अंधकारमय हो गया था. अम्मा ने तो बचपन से ही मुझे प्यार नहीं दिया. अमर भैया के बाद वे मेरी जगह एक और लड़के की आशा लगाए बैठी थीं. उधर, मझली दीदी उन्हें इसलिए प्यारी थीं कि वे अमर भैया को आसमान से धरती पर हमारे घर में खींच लाई थीं. मझली दीदी समय की बलवान समझी जाती थीं, इसलिए उन्हें दीपा नाम भी दिया गया. अम्मा द्वारा रखा गया मेरा नाम ‘अपशकुनी’ है.

दीदी -भाग 1: दीपा की खुशी के लिए क्यों हार गई दीदी

न जाने जीवन में कभी कुछ इतना अप्रत्याशित व असामयिक क्यों घट जाता है कि जिंदगी की जो गाड़ी अच्छीखासी अपनी पटरी पर चल रही होती है वह एक झटके से धमाके के साथ उलटपलट जाती है. जिस गाड़ी में बैठ कर हम आनंदपूर्वक सफर कर रहे होते हैं, वही हमें व हमारे अरमानों को कुचल कर कितना असहाय व लंगड़ा बना देती है. ऐसा ही कुछ उस दिन घटा था जब पापा की बस दिल्लीकानपुर मार्ग पर एक पेड़ से टकरा गई थी और इधर हमारे पूरे 5 प्राणियों की जीवनरूपी गाड़ी अंधड़ों व तूफानों से टकराने के लिए शेष रह गई थी. पापा थे, तो यही सफर कितना आनंददायक लगता था. उन की मृत्यु के बाद लगने लगा था कि जिस गाड़ी में हम बैठे हैं उस का चालक नहीं है और टेढे़मेढे़ रास्तों से गुजरती हुई यह गाड़ी हमें खींचे ले जा रही है.

समाचार पाते ही सब नातेरिश्तेदार इकट्ठे हो गए थे. सभी ओर दार्शनिकताभरे दिलासों की भरमार थी, ‘जिंदगी का कोई भरोसा नहीं. बेचारे अच्छेखासे गए थे, क्या मालूम था लौटेंगे ही नहीं आदि.’ जो कोई भी घर में आता, हम बच्चों को छाती से चिपका कर रो उठता. घर की दीवारों को भी चीरने वाला कं्रदन कई दिनों तक घर में छाया रहा.

लेकिन दीदी को न तो किसी ने छाती से लगाया, न ही वे दहाडें़ मार कर रोईं. उन का विकसित यौवन, गदराई देह और मांसल मांसपेशियां उन्हें छाती से चिपकाने के लिए प्रत्येक परिचितजनों को कुछ देर सोचने को विवश कर देतीं और छाती से दीदी को चिपकाने के लिए उठे उन के हाथ सहसा ही

पीछे हट जाते. न तो दीदी को किसी ने दुलरायाचिपकाया, न ही वे दहाड़ें मारमार कर रो सकीं, सूनीसूनी आंखें, उदास व भावहीन चेहरा लिए वे जहां बैठी होतीं, वहीं बैठी रहतीं.

जिस किसी की भी नजर उन पर पड़ती, उन्हें देख कर कुछ चिंतित सा हो उठता. किसी दूसरे के कान में जा कर कुछ फुसफुसाता. दीदी के कानों में यद्यपि कुछ न पड़ता पर उस फुसफुसाहट की अस्पष्ट भाषा वे अच्छी तरह समझ लेतीं. उन्हें लगने लगा था जैसे कि अपने घर की चारदीवारी में वही सब से अधिक पराई हो गई हैं. तेरहवीं तक यह फुसफुसाहट कुछ गुमसुम सी भाषा में रही, पर 14वें दिन में ही वह स्पष्ट शब्दों में सुनाई देने लगी, ‘जवान लड़की है, इस के हाथ पीले हो जाते तो सरला का एक भारी बोझ उतर जाता.’ तब निश्चय ही दीदी के अकेलेपन को घर के सदस्यों के बीच पैदा होते हुए मैं ने देखा था. पापा के बिना दीदी एकदम अकेली पड़ गई थीं. मां को तसल्ली देने वाले बहुत थे पर उन का सहयोग कभी भी दीदी को नहीं मिल पाया था.

पापा के जाते ही मां की आंखों में घर के आंगन के बीच दीदी एक बड़ा भारी पत्थर बन गई थीं. लगता था, दीदी के भार का गम मां के लिए पापा की मृत्यु के भार से भी अधिक असहनीय हो गया था. यही कारण था कि दीदी के लिए सबकुछ अचानक ही पराया हो गया था, शायद दूसरों पर अपने बोझ का एहसास भी वे स्वयं करने लगी थीं.

मझली दीदी भी तो थीं. पापा तो उन के भी चले गए थे, मेरे भी और अमर के भी. हम सब के पापा नहीं थे तो घरआंगन तो वही था. पर दीदी के लिए तो घरआंगन भी पराए हो गए थे, इसीलिए कुछ ही दिनों में दीदी अपनी सारी चंचलता खो कर जड़ हो गई थीं. परंतु जड़ होने का मतलब दीदी के लिए जीवन के प्रति निष्क्रिय होना नहीं था. यह बात दूसरी थी कि वे अपने बोझ को मां के सिर से उतारने की चिंता में अपनी उम्र से कहीं अधिक समझदार व परिपक्व हो गई थीं, इसीलिए घर में चर्चा किए जाने वाले किसी भी सुझाव का विरोध उस समय उन्होंने नहीं किया. ताऊजी बैठते, चाचाजी भी साथ देते, चाची व ताई भी राय देतीं, मां गुमसुम उन की हां में हां मिलातीं.

‘‘इंश्योरैंस कितना है?’’ ‘‘पीएफ?’’

‘‘बैंक बैलेंस कुछ है?’’ आदि प्रश्न पूछे जाते. ‘‘सब जोड़ कर 20 लाख रुपए होते थे. यह तो अच्छा है कि सिर छिपाने को बापदादा का बनाया यह पुराना मकान है. अब इन 20 लाख रुपयों में से खींचतान कर के भले घर का कोई लड़का देख कर रागिनी के हाथ पीले कर ही दो. एक की नैया तो पार लगे. जवान लड़की है, तुम कहां तक देखभाल करोगी? दीपा तो अभी 4-5 साल तक ठहर सकती है, सुधी के वक्त तक अमर संभाल ही लेगा,’’ ताऊजी इन शब्दों के साथ ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते.

मां केवल गरदन हिला कर स्वीकृति दे देतीं. मेरे अंदर बोलने को कुछ कुलबुलाता, परंतु इतने बुजुर्गों के सम्मुख हिम्मत न होती. ‘आज क्या दीदी ही सब से बड़ा बोझ बन गई हैं, केवल 17 साल की उम्र में ही? क्या होगा उन के उन सपनों का जो पापा ने उन्हें दिखाए थे?’ पापा थे, तो दीदी का अस्तित्व ही घर में सर्वोपरि था. क्याक्या नहीं सोच डालते थे पापा दीदी को ले कर, ‘अपनी बेटी को डाक्टर बनाऊंगा, फिर लंदन भेजूंगा, वहां से स्पैशलिस्ट बन कर आएगी. खूब औपरेशन किया करेगी. महिलाओं की भीड़ से घिरी रहेगी मेरी बिटिया. एक शानदार प्राइवेट अस्पताल बनाएगी अपने लिए. बस, फिर यह सभी को संभाल लेगी. एक से बढ़ कर एक होंगे मेरे बच्चे.’

‘रहने भी दो, किस दूसरी दुनिया में घूमते रहते हैं आप भी, क्यों भूल जाते हैं कि बेटी तो पराया धन होती है.’ ‘ऊंह, मैं अपनी रागिनी को कहीं नहीं भेजूंगा. जिसे गरज होगी वही शादी करेगा इस से. मैं थोड़े ही किसी की खुशामद करने वाला हूं. फिर वह रहेगा भी यहीं, इसी के साथ.’ वे दीदी को झटक कर अपनी गोद में बैठा लेते और उन के बाल सहलाने लगते. तब दीदी रही होंगी यही 12-13 वर्ष की. तब पापा के चेहरे से लगता उन की हर खुशी वही थीं. इतने संतुष्ट और प्रसन्न दिखाई देते जैसे कि उस खुशी से परे उन्हें कुछ और चाहिए ही नहीं था.

मूंग की आधुनिक विधि से खेती

हरे मोतियों जैसी मूंग भारत व दक्षिणपूर्व एशिया की एक खास फसल है. इस में प्रोटीन बहुत मात्रा में पाया जाता है. इस के अलावा इस में कार्बोहाइड्रेट, खनिज तत्त्व व विटामिन भी होते हैं. कम समय में ही पकने के कारण इसे बहुफसली चक्र में आसानी से रखा जा सकता है. मूंग की फसल से फलियों की तोड़ाई के बाद पौधों को खेत में मिट्टी पलटने वाले हल से पलट कर मिट्टी में दबा देने से यह हरी खाद का काम करती है. मूंग की खेती करने से मिट्टी की ताकत में भी इजाफा होता है.

मूंग को खरीफ, रबी व जायद तीनों मौसमों में आसानी से उगाया जा सकता है. उत्तरी भारत में इसे बारिश व गरमी के मौसम में उगाते हैं. दक्षिणी भारत में मूंग को रबी मौसम में उगाते हैं. इस फसल के लिए ज्यादा बारिश नुकसानदायक होती है. ऐसे इलाके, जहां पर 60 से 75 सेंटीमीटर तक सालाना बारिश होती है, मूंग की खेती के लिए मुनासिब हैं. मूूंग की फसल के लिए गरम जलवायु की जरूरत पड़ती है. इस की खेती समुद्र तल से 2000 मीटर की ऊंचाई तक की जा सकती है. पौधों पर फलियां लगते समय और फलियां पकते समय सूखा मौसम व ऊंचा तापमान बहुत ज्यादा फायदेमंद होता है.

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मिट्टी : मूंग एक दाल वाली फसल है, जो कम समय में पक कर तैयार हो जाती है. सिंचाई व बिना सिंचाई दोनों रकबों में इस की खेती आसानी से की जा सकती है. इस की सफलतापूर्वक खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली बलुई दोमट जमीन सब से मुनासिब मानी गई है. उत्तरी भारत में अच्छी जल निकासी वाली दोमट मटियार मिट्टी और दक्षिणी भारत के लिए लाल मिट्टी मुनासिब है.

खेत की तैयारी : बारिश शुरू होने के बाद खेत में 1 बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर के 2 से 3 बार कल्टीवेटर या देशी हल से जुताई करनी चाहिए और पाटा चला कर खेत को बराबर बना लेना चाहिए. खेत से खरपतवार व पुरानी फसल के ठूठों को बाहर निकाल देना चाहिए. आखिरी जुताई के समय खेत में गोबर या कंपोस्ट खाद 50 क्विंटल प्रति हेक्टयर की दर से मिट्टी में मिला देनी चाहिए. दीमक से बचाव के लिए क्लोरोपायरीफास 15 फीसदी चूर्ण 20 किलोग्राम प्रति हेक्टयर की दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलाना फायदेमंद होगा.

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मूंग की प्रजातियों का चयन : उम्दा प्रजातियों का चुनाव करने से उत्पादन में हर हाल में इजाफा होगा. मौसम के मुताबिक मुनासिब  प्रजातियां नीचे दी गई?हैं:

रबी मौसम के लिए : टाइप 1, पंत मूंग 3, एचयूएम 16, सुनैना और जवाहर मूंग 70.

खरीफ मौसम के लिए : पूसा विशाल, मालवीय ज्योति, एमएल 5, जवाहर मूंग 45, अमृत, पीडीएम 11 और टाइप 51.

रबी व खरीफ दोनों मौसमों के लिए : टाइप 44, पीएस 16, पंत मूंग 1, पूसा विशाल, के 851 और शालीमार मूंग 2.

बीज की मात्रा : खरीफ मौसम में 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टयर की दर से डालना फायदेमंद होगा और बोआई कतारों में 30 से 40 सेंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए. रबी व गरमी के मौसम में मूंग के लिए बीज दर 20 किलोग्राम प्रति हेक्टयर रखनी चाहिए और बोआई कतारों में 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए.

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खाद व उर्वरक : मूंग एक दाल वाली फसल है, इसलिए इस में ज्यादा नाइट्रोजन की जरूरत नहीं पड़ती है, फिर भी 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश की मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से बोआई के समय देना फायदेमंद होगा. गंधक की कमी वाले रकबों में गंधकयुक्त उर्वरक 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना चाहिए. सभी चारों तरह के उर्वरकों की पूरी मात्रा बोआई से पहले या बोआई के समय ही देनी चाहिए. यदि संभव हो तो हर तीसरे साल में 1 बार 10 से 15 क्विंटल अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद आखिरी जुताई के समय प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालनी चाहिए.

सिंचाई व जल निकास : खरीफ में मूंग की फसल को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है, लेकिन फूल आने की दशा में सिंचाई करने से उपज में काफी इजाफा होता है. अधिक बारिश की दशा में खेत से पानी निकालना बेहद जरूरी होता है. पानी न निकालने  से पद्गलन रोग हो जाता है, जिस से फसल को भारी नुकसान होता है. गरमी में मूंग की फसल में खरीफ की तुलना में पानी की ज्यादा जरूरत होती है. गरमी के मौसम में 10 से 15 दिनों के अंतर पर 4 से 6 सिंचाई करनी चाहिए. ज्यादा गरमी होने पर सिंचाई का अंतर 8 से 10 दिनों का रखना चाहिए.

निराईगुडाई व खरपतवार नियंत्रण : बोआई के 15 से 20 दिनों बाद पहली और 40 से 45 दिनों बाद दूसरी निराई करनी चाहिए. घास व चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को रासायनिक विधि द्वारा खत्म करने के लिए फ्लूक्लोरिलिन 45 ईसी की 2 लीटर मात्रा 800 से 1000 लीटर पानी में घोल कर बोआई से पहले खेत में छिड़काव करें. बोआई के बाद बीज जमने से पहले पेंडिमेथिलीन 30 ईसी की 3.3 लीटर मात्रा 800 से 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

बोआई का समय व तरीका : जायद मूंग की बोआई जहां सिंचाई की सुविधा हो वहां फरवरी में ही कर देनी चाहिए. खरीफ मौसम में मूंग की बोआई मानसून आने पर जून के दूसरे पखवाडे़ से जुलाई के पहले पखवाडे़ के बीच करनी चाहिए. उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, बिहार व पश्चिम बंगाल में मूंग की खेती गरमी के मौसम में की जाती है. इन राज्यों में मूंग को गन्ना गेहूं, आलू आदि की कटाई के बाद बोते हैं. मूंग की बोआई कतारों में करनी चाहिए. 2 कतारों के बीच की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. बीजों को 4 से 5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए. मूंग के बीजों को

पहले कार्बेंडाजिम से उपचारित करने के बाद ही बोना चाहिए.

मूंग के खास कीड़े

काला लाही माहूं : नए पौधे से फली निकलने की दशा में इस कीट के शिशु व वयस्क पौधों की पत्तियों पर पाए जाते हैं. ये बसंतकालीन फसल की मुलायम टहनियों, फूलों व कच्ची फलियों से रस चूसते हैं.

रोकथाम : माहूं का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, ताकि माहूं ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं. परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर के 50000-100000 अंडे या सूंडि़यां प्रति हेक्टयर की दर से छोडे़ं. नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें. बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. इस के बावजूद रोकथाम न हो तो मेटासिस्टाक्स 25 ईसी या डाइमेथोएट 30 ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या थायोमेक्जाम 25 ईसी 1 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़कें.

हरा फुदका (जैसिड) : फसल की शुरुआती दशा से ले कर पौधों की पत्तियां व फलियां निकलने तक इस के शिशु व वयस्क हमला कर के रस चूसते हैं. रोगी पौधों की

बढ़वार सामान्य से काफी कम हो जाती है.

रोकथाम : अकेली फसल की बजाय मिश्रित खेती करनी चाहिए. खासकर ज्यादा लंबाई वाली फसलों जैसे गन्ना, ज्वार व सूरजमुखी वगैरह में से किसी एक को मूंग के साथ 6:1 या 6:2 के अनुपात में लगाना चाहिए. इस से रोशनी पसंद करने वाले हरा फुदका जैसे कीड़ों की संख्या पर बहुत हद तक नियंत्रण हो जाता है. इस के बाद भी रोकथाम न हो तो मेटासिस्टाक्स 25 ईसी या डाइमेथोएट 30 ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या थायोमेक्जाम 25 ईसी 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़कें.

सफेद मक्खी : इस इस कीट के द्वारा फसल को कई तरह से नुकसान पहुंचाया जाता है. यह पौधों से रस चूसती है और पत्तियों पर स्रावित मधु छोड़ती है. द्रव पर काला चूर्णी फफूंदी (शूटी मोल्ड) के पनपने व फैलने से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में रुकावट होती?है और पीला चितकबरा रोग (पीला मोजैक) के विषाणु तेजी से फैलते हैं. रोगी फसल पूरी तरह से बरबाद हो जाती है.

रोकथाम : सफेद मक्खी से बचाव के लिए बोआई से 24 घंटे पहले डायमेथोएट 30 ईसी कीटनाशी रसायन से 8.0 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए. शुद्ध फसल के बजाय मिश्रित खेती करना ज्यादा लाभप्रद है. खासकर ज्यादा लंबाई वाली फसलों जैसे गन्ना, ज्वार व सूरजमुखी वगैरह में से किसी 1 को मूंग के साथ 6:1 या 6:2 अनुपात से लगाने से रोशनी पसंद करने वाले सफेद मक्खी जैसे कीड़ों की संख्या पर बहुत हद तक नियंत्रण हो पाता है.

पीला मोजैक रोग के विषाणु को फैलाने वाली सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए मिथाइल डेमीटान (मेटासिस्टाक्स) 25 ईसी का 625 मिलीलीटर या मैलाथियान 50 ईसी या डायमेथोएट 30 ईसी का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरत के मुताबिक छिड़काव करना चाहिए.

थ्रिप्स : मूंग की फसल पर फूल की दशा में गरमी में मुलायम कलियों पर थ्रिप्स कीटों का हमला होता है. ये फूलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं.

मूंग की फलियों पर भी थ्रिप्स कीटों का प्रकोप होता है और उन में दाने विकसित नहीं हो पाते. सभी रस चूसक कीटों में थ्रिप्स सब से ज्यादा हानिकारक है.

रोकथाम : थ्रिप्स की रोकथाम करने के लिए फूल खिलने से पहले ही डायमेथोएट 30 ईसी या मैलाथियान 50 ईसी का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या मेटासिस्टाक्स 25 ईसी का 700 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

नीली तितली : फूल व फली की दशा में इस के पिल्लू मुलायम कलियों व फूलों

पर हमला करते हैं. ये फलियों में छेद बनाकर घुस जाते हैं व अंदर के ऊतक को खाते हैं. ये फलियों के अंदर विकसित हो रहे दानों को विशेष रूप से नुकसान पहुंचाते हैं.

रोकथाम : फली बेधक नीली तितली की रोकथाम के लिए निबौली (सूखा हुआ नीम बीज) के चूर्ण को पानी में घोल (5.0 फीसदी) कर फूल निकलने के साथ छिड़काव करना चाहिए. यदि फली बेधक तितली की संख्या काफी अधिक हो जाए तो फली बनने की शुरुआती अवस्था में मैलाथियान 50 ईसी का 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

मूंग के खास रोग

पीली चितेरी रोग (येलो मोजेक) : मूंग का पीला चितेरी रोग विषाणु द्वारा पैदा होने वाला सब से खतरनाक रोग है. यह विषाणु बीज व छूने से फैलता है. पीली चितेरी रोग सफेद मक्खी (बेमिसिया टैबेसाई) जो एक रस चूसक कीट है के द्वारा फैलता है. रोग से प्रभावित पौधे देर से पनपते हैं. इन पौधों में फूल और फलियां स्वस्थ पौधों के मुकाबले बहुत ही कम लगती हैं.

रोकथाम : बोआई के लिए रोग रोधी व उन्नत प्रजातियों एसएमएल 668, नरेंद्र मूंग 1, पीडीएम 11, पीडीएम 84-139 (सम्राट), पीडीएम 84-143 (बसंती), पीडीएम 54 (मोती), मेहा, पूसा विशाल, एचयूएम 16 आदि का चयन करें. सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए मेटासिस्टाक्स या मैलाथियान या डामेथोएट या मोनोक्रोटोफास (0.04 फीसदी) का छिड़काव करना चाहिए.

झुर्रीदार पत्ती रोग (लीफ क्रिंकल) : यह रोग ‘उर्द बीन लीफ क्रिंकल विषाणु’ द्वारा होता है. रोग का फैलाव पौधे के रस (सैप) व बीज से होता है. यह खेत में लाही (माहूं) व अन्य कीटों द्वारा भी फैलता है. इस विषाणु के संक्रमण से फूल कलिकाओं में पराग कण बांझ हो जाते हैं, जिस से रोगी पौधों में फलियां कम लगती हैं.

फसल पकने के समय तक भी रोगी पौधे हरे ही रहते हैं. इस रोग के साथसाथ पौधे पीली चितेरी रोग से भी संक्रमित हो सकते हैं.

रोकथाम : बोआई के लिए रोग रोधी व उन्नत प्रजातियों का चयन करना चाहिए. सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए फसल पर मेटासिस्टाक्स या मैलाथियान या डामेथोएट या मोनोक्रोटोफास (0.04 फीसदी) का छिड़काव करना चाहिए.

सर्कोस्पोरा पत्र बुंदकी रोग : यह ‘सर्कोस्पोरा’ नामक प्रजातियों द्वारा होता है. इस रोग के लक्षण पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं. धब्बों का बाहरी भाग भूरे रंग का होता है. ये धब्बे पौधों की शाखाओं व फलियों पर भी बन जाते हैं. अनुकूल वातावरण में ये धब्बे बड़े आकार के हो जाते हैं. फूल आने व फलियां बनने के समय रोगी पत्तियां गिर जाती हैं. रोग पैदा करने वाले कवक बीज व रोग ग्रसित पौधों के मलवे पर भूमि में जीवित रहते हैं.

रोकथाम : बोआई से पहले बीजों को कवकनाशी कार्बाडेंजिम 2 ग्राम या थीरम 2-5 ग्राम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करना चाहिए.

फसल पर रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही कार्बेंडाजीम (0.1 फीसदी) या मैंकोजेब (0.2 फीसदी) कवकनाशी के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

चूर्णी फफूंदी रोग : यह रोग इरीसिफी पोलीगोनाई नामक कवक द्वारा होता है. गरम व सूखे वातावरण में यह रोग तेजी से फैलता है. इस रोग में पौधों की पत्तियों, तनों व फलियों पर सफेद चूर्णी धब्बे दिखाई देते हैं. ये धब्बे बाद में मटमैले रंग के हो जाते हैं. रोग के ज्यादा होने से पत्तियां पूरी बनने से पहले सूख जाती हैं. रोगजनक क्लीस्टोथीसिया पौधों के अवशेष पर जीवित रहता है.

रोकथाम : फसल पर रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही कार्बेंडाजीम की 1 ग्राम या सल्फेक्स 3 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

कटाईमड़ाई : फसल की कटाई मूंग की किस्म पर निर्भर करती है. एक ही समय में पकने वाली प्रजाति में जब फसल 80 फीसदी तक पक जाती है, तो उसे जड़ से उखाड़ लेते हैं या काट लेते हैं. उस के बाद धूप में सुखा कर ट्रैक्टर या लकड़ी के डंडे से गहाई कर लेते हैं. सही समय पर फसल की कटाई करने के बाद गहाई कर के भंडारण करें. मूंग की फलियां गुच्छों में लगती हैं.

पूरी फसल में फलियों को 2 से 3 बार में तोड़ लिया जाता है. आमतौर पर खरीफ की फसल में कुछ फलियां अंत तक बनती रहती

हैं. ऐसी दशा में पकी फलियों को तोड़ना सही होता है.

करीब 80 फीसदी फलियां पकने पर फसल की कटाई कर सकते हैं. पकी फसल पर बारिश होने की स्थिति में फलियों के अंदर दाने अंकुरित होने लगते हैं, लिहाजा मौसम को ध्यान में रखते हुए फसल की कटाई व फलियों की तोड़ाई करना सही होता?है.

उपज : मूंग की औसत उपज 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टयर होती है. नए तरीके से खेती करने पर इस की पैदावार 15 क्विंटल प्रति हेक्टयर तक ली जा सकती है.

सफलता के लिए पढ़ना जरूरी है

लेखिका- तपेश भौमिक

“रीडिंग इज़ टू द माइंड ह्वाट एकसरसाइज इज़ टु द बॉडी” –जोसफ़ एडिसन (1672-1719] एक प्रख्यात अंग्रेज़ साहित्यकार-संपादक, ने आज से तक़रीबन तीन सौ वर्ष पहले यह बात कही थी, यानी पढ़ाई दिमाग के लिए उतना ही जरूरी है, जितना शारीरिक स्वास्थ्य के लिए व्यायाम. उनकी यह बात कई वैज्ञानिक शोधों के द्वारा एक प्रमाणित सत्य भी है. व्यायाम जिस प्रकार हमारे शरीर को स्वस्थ और सुडौल बनाता है,, ठीक उसी प्रकार हम किताबें पढ़कर अपने मन-मस्तिष्क को स्वस्थ एवं आनंदमय बना सकते हैं. एक अच्छी किताब मनुष्य की मन की आँखों को जिस प्रकार खोल देती है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान और बुद्धि को भी प्रसारित कर अंतस्तल को रौश्नी से भर देती हैं.

किताबें मनुष्य की महानतम सम्पदा हुआ करती हैं. इनके साथ पार्थिव अन्य किसी भी वस्तु की तुलना नहीं की जा सकती. उदाहरण के लिए आप अगर एक प्रयोग से गुजरते हैं कि एक ही दिन में कुछ मन-पसंद पुस्तकें और सामान खरीद कर लाते हैं और अपने सम्मुख किसी मेज़ पर उन्हें रखकर ध्यान लगाकर उलट-पुलट कर देखते हैं तो ऐसा निश्चित अनुभव होगा कि किताबें खरीद कर आपने अपने आप को अधिकतम समृद्ध किया है. साथ ही यह भी अनुभव कर सकते हैं कि आपने अपने आनेवाले वंशज के लिए भी एक धरोहर तैयार करना शुरू कर दिया है. अंततः उन्हें इस बात का गुमान होगा कि उनके पूर्वजों ने उनके लिए धन के साथ-साथ विद्या भी रख छोड़ी है.

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दस लोग केवल यह कहेंगे कि उनके पूर्वजों ने उनके लिए इतनी प्रापर्टी रख छोड़ा था, जबकि आपके वंशज यह तो कहेंगे कि उनके पूर्वजों ने धन के साथ-साथ विद्या भी रख छोड़ी है. जिस घर में किताबों से भरी अलमारियाँ होतीं हैं, उस घर में प्रवेश करके देखिए कि कुछ अलग अनुभव होता है या नहीं? भी जब होश सम्हालते ही घर में पुस्तक और पढ़ाई का माहौल देखते हैं तो उनमें पढ़ने-लिखने का संस्कार अपने-आप आ जाता है.

आम तौर पर हम या तो अपने चुनिन्दा विषय की किताबें पढ़ते हैं, नहीं तो मनोजगत को मनोरंजन देने के लिए साहित्य का अध्ययन करते हैं. हम जब नियमित ढंग से पुस्तकों का अध्ययन करते हैं, तब हमारा मन-मस्तिष्क विकसित होने लगता है. हमें ऐसा लगता है कि हमने अब तक जितनी भी किताबें पढ़ कर परीक्षाएँ दी है और सर्टिफिकेट हासिल किया है, उस पढ़ाई को ही हम सम्मानित कर रहें हैं यानी अपनी शैक्षिक योग्यता को और ऊंचा दर्जा दे रहे हैं.

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बहरहाल यह भी अनुभव कर सकते हैं कि जितनी पढ़ाई करके हमने विद्या रूपी दुल्हन को घर लाया है, उसे ही अब पुस्तकें पढ़ कर अलंकारों से सजा रहें हैं, यानी कामिनी-कंचन का योग. इस संसार में ऐसे उदाहरण अनेक मिलेंगे कि जितने लोग अपने-अपने क्षेत्र में बड़ी सफलताएँ पाईं हैं उनमें पढ़ाई की एक बड़ी भूमिका अवश्य ही रही है. चाहे वे राजनीतिज्ञ रहें हों या वैज्ञानिक या समाज-सुधारक या अन्य, हर एक की सफलता का राज उनके अध्ययनशील होने में ही छिपा है. साथ ही उन्होंने अपने वर्तमान व्यस्त जीवन में भी पढ़ाई नहीं छोड़ी है. ऐसे लोगों के लिए पढ़ाई उनकी मौलिक अवश्यकता बन गई.
बिल गेट्स प्रत्येक वर्ष लगभग पचास पुस्तकें पढ़ लेते हैं. मार्क कुबिन प्रतिदिन तीन घंटे से अधिक पुस्तकें पढ़ते हैं. एलोन मास्क ने रॉकेट-साइंस की विद्या किताबें पढ़कर ही अर्जित की है. फलतः यह कहा जा सकता है कि एक किताब केवल हमे जानकारियों से ही नहीं समृद्ध करती बल्कि वह नई सोच, नए सवाल भी हमारे मन में पैदा करती है.

पुस्तकें पढ़ने के कुछ लाभों को हम इस प्रकार सूचिवद्ध कर सकते हैं। क. पुस्तकें पढ़ने से अपनी जानकारी और सोच में उत्तरोत्तर वृद्धि होती हैं, भले ही वे कथा-कहानियाँ या ज्ञान-विज्ञान ही क्यों न हो, या अपने पेशे से जुड़ी किताबें ही हों, वे निश्चय ही लाभकारी हुआ करती हैं. ख. पुस्तकें पढ़ना उद्दीपन भाव के प्रेरक होते हैं. शोधों के दौरान देखा गया है कि जिन्हें पुस्तकें पढ़ने का शौक है, उनमें Dementia और Alzheimer नमक दोनों रोगों को प्रतिरोध करने की क्षमता बहुलांश में आ जाती है.

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ग. दिमागी तनाव को कम करने के लिए पुस्तकों का पढ़ना लाभकारी है. 2009 में यू.के. के सेसेक्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ‘हॉर्ट-रेट’ और ‘मसल-टेंसन’ मॉनिटरिंग के माध्यम से जांच करके पाया कि पुस्तकों के पठन-पाठन से स्ट्रेस-लेबल घट जाता है. पुस्तकों की दुनिया दुनियावी मोह-माया,क्रोध,आदि से उबारने में भी सहायक सिद्ध होती हैं. घ. लेखक जब पुस्तकें लिखता है, तब वह जाने-अनजाने में अपने भोगे हुए यथार्थ को भी अंकित करता जाता है.

वह अपनी साधारण बातें नहीं वरन असाधारण बातों से अपने पाठकों को रु-ब-रु कराता जाता है. उन्हें पढ़कर लेखकीय विचारों से आकर्षित होता जाता है. वह प्रायः उन विचारों को अपना आदर्श बना लेता है. लेखक वर्षों के मेहनत के बाद एक पुस्तक लिखने में कामयाबी हासिल करता है, लेकिन पाठक उसे कुछ ही घंटे पढ़कर अपने ‘नॉलेज-बैंक’ का ‘बैंक-बैलेंस’ बढ़ा लेता है. ङ. पुस्तकों की पढ़ाई हमारी कल्पना शक्ति में अभी-वृद्धि करती है. वह कुछ समय के लिए उसके मायावी जगत में सैर कराने ले जाती है, जिनमें सैर करने के लिए नसेड़ी नशीली वस्तुओं का सेवन करते है.

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