कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

न जाने जीवन में कभी कुछ इतना अप्रत्याशित व असामयिक क्यों घट जाता है कि जिंदगी की जो गाड़ी अच्छीखासी अपनी पटरी पर चल रही होती है वह एक झटके से धमाके के साथ उलटपलट जाती है. जिस गाड़ी में बैठ कर हम आनंदपूर्वक सफर कर रहे होते हैं, वही हमें व हमारे अरमानों को कुचल कर कितना असहाय व लंगड़ा बना देती है. ऐसा ही कुछ उस दिन घटा था जब पापा की बस दिल्लीकानपुर मार्ग पर एक पेड़ से टकरा गई थी और इधर हमारे पूरे 5 प्राणियों की जीवनरूपी गाड़ी अंधड़ों व तूफानों से टकराने के लिए शेष रह गई थी. पापा थे, तो यही सफर कितना आनंददायक लगता था. उन की मृत्यु के बाद लगने लगा था कि जिस गाड़ी में हम बैठे हैं उस का चालक नहीं है और टेढे़मेढे़ रास्तों से गुजरती हुई यह गाड़ी हमें खींचे ले जा रही है.

समाचार पाते ही सब नातेरिश्तेदार इकट्ठे हो गए थे. सभी ओर दार्शनिकताभरे दिलासों की भरमार थी, ‘जिंदगी का कोई भरोसा नहीं. बेचारे अच्छेखासे गए थे, क्या मालूम था लौटेंगे ही नहीं आदि.’ जो कोई भी घर में आता, हम बच्चों को छाती से चिपका कर रो उठता. घर की दीवारों को भी चीरने वाला कं्रदन कई दिनों तक घर में छाया रहा.

लेकिन दीदी को न तो किसी ने छाती से लगाया, न ही वे दहाडें़ मार कर रोईं. उन का विकसित यौवन, गदराई देह और मांसल मांसपेशियां उन्हें छाती से चिपकाने के लिए प्रत्येक परिचितजनों को कुछ देर सोचने को विवश कर देतीं और छाती से दीदी को चिपकाने के लिए उठे उन के हाथ सहसा ही

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...