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शुभारंभ-भाग 2 : राधिका ने जिंदगी के आखिरी पड़ाव में अभिरूप को क्यों चुना

और फिर जब अभिरूप आशाभरी नजरों से उन का उत्तर सुनने के लिए आए तो उन्होंने कहा था, ‘आप ठीक कह रहे हैं. जब सभी अपने सुखों में जी रहे हैं तो हम भी क्यों न जिएं,’ और उन की आंखों ने किसी झरने का रूप ले लिया था.

आखिरकार, बहुत सोचविचार कर पिछले हफ्ते ही दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली थी. विनय और अवनि ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी इस बात पर. विनय बहुत ही गंभीर मुद्रा में बैठा रह गया था.

अनुज ने बस इतना कहा था, ‘मां, जैसा आप ठीक समझें, आप का अकेलापन महसूस होता है मुझे. मुझे किसी बात से परेशानी नहीं है,’ उस ने अभिरूप से फोन पर ठीक तरह से बात भी की थी. अभिरूप और राधिका को विनय और अवनि के साथ रहने के बजाय राधिका के ही घर में रहना ठीक लगा था. वे राधिका के ही घर में शिफ्ट हो गए थे और आज दोनों हिमाचल घूमने जा रहे थे.

मुंबई से उन की चंडीगढ़ की फ्लाइट थी. चंडीगढ़ से उन्हें आगे जाना था. स्नैक्स सर्व होने की घोषणा हुई तो राधिका की तंद्रा भंग हुई. अभिरूप ने भी चौंक कर आंखें खोलीं, बोले, ‘‘अरे, बैठते ही शायद मेरी आंख लग गई थी, तुम भी सो गई थीं?’’

‘‘नहीं, मेरी आंख कभी नहीं लगती सफर में.’’

‘‘फिर क्या सोचती रहीं?’’

‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही.’’

‘‘मैं जानता हूं तुम क्या सोच रही थीं.’’

‘‘क्या, बताओ?’’

‘‘हम दोनों हनीमून पर जा रहे हैं, यही सोच रही थीं न?’’

राधिका बुरी तरह शरमाती हुई संकोच से भर उठीं, ‘‘नहींनहीं, ऐसा तो कुछ नहीं.’’

अभिरूप हंस दिए, ‘‘तुम तो मजाक पर घबरा गईं. वैसे, तुम्हें विनय, अवनि, रिमझिम कैसे लगे?’’

‘‘अच्छे हैं सब, पर पता नहीं मुझे कब अपनाएंगे, यही सोचती हूं. उन का भी तो दोष नहीं है. अचानक मुझे कैसे अपनी मां मान सकते हैं, समय तो लगेगा.’’

‘‘हां, बच्चे हमारे दोस्तों की तरह यही सोच कर तो खुश नहीं हो सकते न कि हम दोनों को एकदूसरे की जरूरत है. उन का अपना ढंग है सोचने का. मैं जानता हूं अपने बच्चों को. विनय को कुछ समय लगेगा फिर सब ठीक हो जाएगा.’’

राधिका कुछ नहीं बोलीं, इस बात से कुछ उदास तो मन था ही.

चंडीगढ़ पहुंच कर दोनों सनबीम होटल पहुंचे. अभिरूप ने 8 दिन का प्रोग्राम योजनाबद्ध किया था. हर जगह बुकिंग थी. 1 बज रहा था. दोनों फ्रैश हुए. लंच किया. तब तक टैक्सी आ गई. पहले रौकगार्डन गए, फिर सुखना लेक और फिर रोजगार्डन. राधिका को अपने अंदर एक नई औरत जन्म लेती दिख रही थी. रौकगार्डन में भूलभुलैया जैसे रास्तों पर अभिरूप उसे परेशान करने के लिए छिप गए, राधिका सहमी सी इधरउधर देख रही थीं. अभिरूप ने राधिका की कितनी ही फोटो लीं, फिर अचानक राधिका के पास जा कर उन्हें डराया तो राधिका का चेहरा देख अभिरूप हंस पड़े. राधिका उन के पास से आती मनमोहक खुशबू में खो सी गई थीं.

सुखना लेक में दोनों ने बोटिंग की, आसपास के लोगों को कैमरा दे कर अभिरूप ने राधिका के कंधे पर हाथ रखते हुए, कभी उन का हाथ पकड़ कर, कई फोटो खिंचवाईं, फोटोग्राफी के शौकीन अभिरूप का उत्साह देख कर राधिका को अच्छा लग रहा

था. रोजगार्डन में जा कर तो राधिका जैसे एक तरुण युवती बन गईं. लगभग 850 किस्म के गुलाबों के करीब 35 हजार पौधे थे. हर तरफ गुलाब ही गुलाब, बेहद खूबसूरत और साफसुथरा गार्डन था. एक जगह फौआरे के पास दोनों थोड़ी देर बैठ गए. वहां पर बहुत ही सुंदर लाल और पीले फूलों वाले व्यवस्थित पेड़ थे. पूरे गार्डन का चक्कर लगातेलगाते 8 बज रहे थे, दोनों डिनर कर के वापस होटल पहुंच गए.

एक हफ्ते से दोनों एकसाथ ही रह रहे थे लेकिन संकोचवश दोनों ने शारीरिक रूप से एक दूरी बना रखी थी. आज दोनों कपड़े बदल कर जब लेटे, राधिका ने कहा, ‘‘आज तो हम बहुत घूमे, अब थकान लग रही है.’’

‘‘हां, कुछ थकान तो है लेकिन तुम्हारे साथ ने मुझे दिनभर एक अलग स्फूर्ति से भर दिया था.’’

राधिका कुछ नहीं बोलीं, चुपचाप बैड के एक कोने में लेटी रहीं. अभिरूप ने आज पहली बार उन की कमर पर हाथ रखा. राधिका सिहर उठीं. पता नहीं कितने सालों से तनमन में दबा कुछ पिघलने लगा. वे सोचने लगीं, क्या उन्हें उस के शरीर से भी उम्मीदें होंगी. अभिरूप धीरेधीरे उन्हें सपनों की दुनिया में जैसे ले जा रहे थे, अब उन्हें महसूस हुआ शरीर की भी कुछ इच्छाएं, आकांक्षाएं थीं, उन्हें भी किसी के स्निग्धस्पर्श की कामना थी. राधिका के मन में बहुत कुछ चल रहा था. सोच रही थीं, सुना तो है कि पुरुष का पौरुष हमेशा सलामत रहता है पर स्त्री को ले कर पता नहीं क्यों हमेशा नकारात्मक भ्रांतियां ही पाली जाती हैं. क्या कभी किसी ने कहा है कि उम्रदराज औरत भी अपने शरीर का आनंद ले सकती है. फिर उस के मन के सारे संदेह, शंकाएं, तर्कवितर्क सब पता नहीं कहां विलुप्त होने लगे.

कुछ समय बाद दोनों की मनोदशा एक सी थी. दोनों को किसी के प्यार, किसी की चाहत ने जैसे एक नया जीवन दे दिया था. अब जैसे दोनों नया जीवन पूरी तरह जीने के लिए तैयार थे.

सुबह उठे तो दोनों कुछ देर तो एकदूसरे से नजरें चुराते रहे, फिर एकदूसरे को देख कर मुसकरा पड़े. आंखों में अब प्यार ही प्यार था. दोनों एकदूसरे से चिपक गए.

आज दोनों टैक्सी से नारकंडा के लिए निकल गए. थकान के बावजूद दोनों दिनभर कुछ अलग नए खयालों में खोए रहे. शाम को होटल पहुंचे, फ्रैश हुए, डिनर किया. फिर वही समय आ गया जिस की दिनभर उन्हें दिल ही दिल में प्रतीक्षा थी. एकदूसरे के सामीप्य से दोनों का रोमरोम पुलकित हो उठा था.

जलयोद्धा जिस के प्रयासों से बदल रही देश की तस्वीर

उत्तर प्रदेश का बांदा एक ऐसा जिला है, जिस की पहचान केवल सूखाग्रस्त जिले की ही नहीं है, बल्कि इस सूखे से उपजे हालात से जिले को अपराध, बेरोजगारी और पलायन के लिए भी जाना जाता है.बांदा को इन हालात से उबारने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों ने स्पैशल पैकेज दे कर हालात सुधारने के काफी प्रयास किए हैं, लेकिन उस का असर जमीन पर दिखाई नहीं दिया.
लेकिन सरकारी प्रयासों से अलग हट कर जनपद बांदा के एक आदमी उमाशंकर पांडेय के प्रयासों से न केवल बांदा में जल संरक्षण की मिसाल कायम हुई है, बल्कि यहां की बंजर जमीन हरीभरी फसलों से लहलहा रही है.
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ऐसे पड़ी नींव
सूखे से जू? रहे बांदा में बरबाद हो चुकी खेती और उस से उपजे हालात से पलायन, बेरोजगारी और अपराध की वजह पानी की कमी और सूखे को माना गया.उमाशंकर पांडेय ने पानी से जुड़ी जनपद की इस बड़ी समस्या पर सोचाविचारी की. इस के चलते उन्होंने जनपद में पानी की समस्या कम करने और जल संरक्षण को बढ़ावा देने की दिशा में जनजागरूकता की एक बड़ी मुहिम छेड़ने का प्रयास शुरू किया. लेकिन उन्हें कोई ठोस उपाय नहीं मिल रहा था, जिस से वे लोगों को पानी बचाने के लिए जागरूक कर पाते.
इसी बीच नई दिल्ली में पानी पर होने वाले एक सम्मेलन में उमाशंकर पांडेय की मुलाकात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र से हुई और उन से हुई मुलाकात में उन्होंने बांदा में पानी बचाने के उपायों पर चर्चा की. इस दौरान उन से किए गए विचारविमर्श के बाद जब उमाशंकर पांडेय वापस आए, तो उन के चेहरे पर एक नई सुबह की आस थी.
ऐसे बदली सूरत
15 साल पहले दिल्ली जल सम्मेलन से वापसी के बाद सर्वोदय विचारधारा वाले उमाशंकर पांडेय ने सब से पहले जल संरक्षण मुहिम की शुरुआत अपने गांव से करने की ठानी. इस के लिए उन को अपने जैसे विचारधारा वाले कुछ लोगों की जरूरत थी. फिर उन्होंने कुछ लोगों को साथ ले कर सर्वोदय आदर्श जल ग्राम स्वराज अभियान समिति का गठन किया और इस के बाद उन्होंने लोगों के साथ मिल कर वर्षा जल संरक्षण की दिशा में प्रयास शुरू किया, जिस के तहत उन्होंने खेत में मेंड़ बना कर पानी रोकने की पारंपरिक विधि को अपनाए जाने पर जोर दिया.
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इस प्रकार एक नई मुहिम खेत पर मेंड़ और मेंड़ पर पेड़ की शुरुआत हुई. इस के तहत खेतों में बनने वाली मेंड़ों पर पौधारोपण का काम भी शुरू किया गया.इस मुहिम की शुरुआत का ही परिणाम था कि एक साल के भीतर ही 2,552 बीघा वाले इस गांव के 33 कुओं, 25 हैंडपंपों व 6 तालाब पानी से लबालब भर गए. पानी बचाए जाने का ही परिणाम है कि जो कुएं सूख गए थे और जहां पानी का भूमिगत लैवल सैकड़ों फुट नीचे चला गया था, उन कुओं में पानी का लैवल 20 फुट तक आ गया है.
जखनी से जखनी जलग्राम
खेत पर मेंड़ और मेंड़ पर पेड़ के अभियान का परिणाम यह रहा कि गरमियों में जब पूरा बांदा जनपद सूखे से कराह रहा होता है, तब भी जखनी गांव के तालाब, कुएं और नल पानी से लबालब भरे रहते हैं.
जखनी में आई इस जलक्रांति ने जखनी गांव की तसवीर ही बदल दी और जखनी की पहचान जखनी जलग्राम के नाम से होने लगी.इस का परिणाम यह रहा कि इंटरनैट पर भी जलग्राम मौडल की धूम मच गई. जल संरक्षण के इस मौडल को सम?ाने के लिए देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के कोनेकोने से लोग यहां आने लगे और इस मौडल को देश के दूसरे सूखाग्रस्त इलाकों में लागू करने की पहल शुरू होने लगी.
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 बूंदबूंद पानी का उपयोग  
उमाशंकर पांडेय की इस जल संरक्षण मुहिम का परिणाम ही है कि आज जखनी समेत सैकड़ों गांवों के तालाब, कुएं गरमियों के दिनों में भी पानी से लबालब भरे दिखाई पड़ते हैं, जिन का उपयोग सब्जियों की खेती सहित प्याज, धान, गेहूं की फसल की सिंचाई के लिए किया जाता है.इस का परिणाम है कि हर समय सूखे रहने वाले खेतों में लहलहाती फसल और हर तरफ हरियाली दिखाई पड़ती है.
वापस आने लगे लोग
उमाशंकर पांडेय द्वारा अपने साथियों के साथ मिल कर शुरू की गई जखनी जलग्राम योजना में धीरेधीरे आसपास के गांवों के लोग भी साथी बनते गए और दूसरे गांवों में भी लोगों ने अपने खेतों में मेंड़बंदी कर उस पर पेड़ लगा कर वर्षा जल को बचाने की मुहिम शुरू की. इस से बंजर हो चुकी जमीन में लोगों ने फिर से खेती करने की शुरुआत कर दी, जिस से लोगों की आय बढ़ने लगी और धीरेधीरे पलायन कर चुके लोग फिर से गांवों में लौट कर खेती करने लगे. इसी के साथ तालाब खोद कर उन में मछलीपालन की शुरुआत भी की गई. जखनी जलग्राम मौडल का ही कमाल है कि बांदा में न केवल पलायन पर रोक लगी है, बल्कि पलायन कर चुके लोग वापस आ कर खेती से अपनी तरक्की की कहानियां लिख रहे हैं.
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मुहिम को बढ़ाया आगे
पानी बचाने से हुए जखनी सहित दूसरे गांवों के कायाकल्प की कहानी धीरेधीरे जब स्थानीय मीडिया से राष्ट्रीय लैवल के मीडिया घरानों ने पानी रिपोर्टों के जरीए छापनी और दिखानी शुरू की, तो इस की भनक  स्थानीय जिला प्रशासन तक भी पहुंची. इस के बाद उस समय के जिलाधिकारी हीरालाल ने भ्रमण किया, तो वे अचंभित हुए बिना नहीं रह सके, क्योंकि जनपद में सूखे की इस बड़ी समस्या का निदान खेत पर मेंड़ और मेंड़  पर पेड़ के जरीए उमाशंकर पांडेय की  अगुआई में यहां के स्थानीय लोगों ने कर दिखाया था.
जिलाधिकारी हीरालाल ने तय किया कि वे जखनी जलग्राम मौडल को बांदा के समस्त गांवों में लागू करेंगे, जिस से वर्षा जल संरक्षण के साथ ही पौधारोपण को बढ़ावा मिलेगा और जनपद के सूखे की समस्या का काफी हद तक निदान हो जाएगा. इस के बाद उन्होंने जखनी जलग्राम मौडल को पूरे जनपद में लागू कर दिया. इस के बाद जनपद से सूखे का कहर कम हो गया.
उमाशंकर द्वारा शुरू किए गए इस अभियान की सफलता का परिणाम यह रहा कि इस की हनक राज्य और केंद्र सरकार तक भी पहुंच गई और इस गांव में पानी बचाने के मौडल को सम?ाने के लिए भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय के सचिव यूपी सिंह व नीति आयोग के जल भूमि विकास सलाहकार अविनाश मिश्रा, उपनिदेशक नियोजन विभाग उत्तर प्रदेश सरकार एसएन त्रिपाठी सहित मंडलायुक्त बांदा एल. वेंकटेश्वरलू, कृषि विश्वविद्यालय, बांदा के कुलपति डा. यूएस गौतम सहित कई अधिकारियों ने यहां का दौरा कर के इस मौडल को देश के दूसरे सूखाग्रस्त हिस्सों में लागू किए जाने की पहल शुरू की.
सब ने सराहा
जखनी जलग्राम के दौरे से वापस लौटे भारत सरकार के अधिकारियों और जिला लैवल से मिली रिपोर्ट के आधार पर उमाशंकर पांडेय के खेत पर मेंड़ और मेंड़ पर पेड़ मौडल के आधार पर भारत नीति आयोग ने साल 2019 के वाटर मैनेजमैंट इंडैक्स में ऐक्सीलैंट परंपरागत मौडल विलेज मानते हुए इसे जखनी जलग्राम की संज्ञा दी है. इस रिपोर्ट को आधार मान कर भारत सरकार द्वारा देश के सूखे से जू?ा रहे विभिन्न प्रदेशों में भी 1,050 जलग्राम स्थापित किए जाने का लक्ष्य रखा है.
देशव्यापी बन गई मुहिम
जहां एक ओर मेंड़बंदी के परंपरागत जल संरक्षण के मौडल को बांदा के तब के जिलाधिकारी हीरालाल ने जखनी जल संरक्षण मौडल के नाम से जिले की 470 ग्राम पंचायतों में लागू किया, वहीं दूसरी ओर नीति आयोग, भारत सरकार ने जखनी जलग्राम के मौडल को परंपरागत जल संरक्षण मौडल, जिस में न तो किसी मशीन का इस्तेमाल किया गया, न ही किसी नवीन विधि का, देश के लिए ऐक्सीलैंट मौडल माना.
जल शक्ति मंत्रालय, भारत सरकार ने ग्राम जखनी की जल संरक्षण विधि खेत पर मेंड़ और मेंड़ पर पेड़ को संपूर्ण देश के लिए उपयोगी माना है.
ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने मनरेगा योजना के अंतर्गत देश के सूखा प्रभावित राज्यों में सब से अधिक प्राथमिकता के आधार पर मेंड़बंदी के माध्यम से रोजगार देने की बात कही है. वहीं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधानों को लिखे पत्र में सर्वप्रथम मेंड़बंदी के माध्यम से जल रोकने की बात कही है. जखनी जल संरक्षण  की परंपरागत विधि बगैर प्रचारप्रसार के देश के 1 लाख, 50 हजार से अधिक गांवों में पहुंच चुकी है.
बासमती की हुई खेती
कुछ साल पहले जिस बांदा जिले की खेती सूखे की वजह से पूरी तरह बरबाद हो चुकी थी, उस बांदा जनपद में जखनी गांव से निकली पानी बचाने की मुहिम का ही कमाल है कि बांदा जनपद के इतिहास में पहली बार हजारों हेक्टेयर भूमि पर धान की खेती लहलहा रही है. वहां धान की सब से सुगंधित व महंगे रेट पर बिकने वाली प्रजाति बासमती की खेती हो रही है. आप सोच सकते हैं कि खाद्यान्न फसलों में सब से ज्यादा पानी की जरूरत धान की फसल को ही होती है. इस जिले में धान की खेती अपनी सुगंध बिखेरने लगी है.
पिछले साल 10 लाख क्विंटल से अधिक बासमती धान केवल बांदा में पैदा किया गया था, जबकि दूसरे जिलों में भी धान की बंपर पैदावार हुई है. बुंदेलखंड में बासमती लाने का श्रेय भी जखनी गांव के किसानों को जाता है. वहां के किसान अकेले 20,000 क्विंटल से अधिक बासमती धान पैदा करते हैं. जखनी जलग्राम के बाशिंदे मामून रशीद ने बताया कि वे बेरोजगारी के चलते 10 साल पहले तक नोएडा में रहते थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि जखनी में पानी बचा कर  खेती शुरू की गई है, तो वे भी गांव वापस आए और उन्होंने अपने ढालू खेतों में मेंड़बंदी कर उस पर पेड़ लगाए. वर्षा जल कासंरक्षण शुरू किया और उस से बासमती की खेती शुरू की. साथ ही, खेती से बचने वाले पानी को तालाब खोद कर उस में इकट्ठा किया, जिस में वे मछलीपालन करते हैं.
आज के दौर में वे बासमती धान  की 80 बीघा खेती करते हैं जिस से 500 क्विंटल धान का उत्पादन करते हैं. इस से वे हर साल 10 लाख रुपए तक की आमदनी हासिल करते हैं. इस के अलावा वे गेहूं और चने से भी कई लाख रुपए की आमदनी प्राप्त करते हैं. इसी गांव के बाशिंदे अली मुहम्मद भी गांव से पलायन कर चुके थे, लेकिन वे गांव में वापस आ कर जल संरक्षण मुहिम का हिस्सा बने और आज के दौर में धान और दूसरी फसलों से कई लाख रुपए की कमाई करते हैं.
इसी तरह बासमती की खेती करने वाले अशोक अवस्थी सहित हजारों किसान हैं, जो लाखों रुपए के धान की पैदावार करते हैं. मछलीपालन, पशुपालन सहित दूसरी खाद्यान्न फसलों की खेती में भी अव्वल बांदा के इलाकों में पानी बचाए जाने से केवल धान ही नहीं, बल्कि मछलीपालन, पशुपालन सहित गेहूं, प्याज, चना, अरहर, दलहन फसलों के साथ ही एग्रोफोरैस्ट्री को भी बढ़ावा मिल रहा है. इस के अलावा यहां परवल, भिंडी, बैगन, तुरई, प्याज, टमाटर, मिर्च आदि के खेती के रकबे में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है.
 बनाया गया एफपीओ  
जखनी सहित कई गांवों के किसानों ने अपने कृषि उत्पादों से अधिक लाभ कमाने के लिए फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी बनाई है, जिस से वे बासमती सहित दूसरी फसलों की प्रोसैसिंग, ब्रांडिंग, मार्केटिंग का काम खुद करने की तैयारी में हैं. इस से जुड़े किसानों का मानना है कि इस से किसानों की सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत मिलेगी, क्योंकि इस में बिचौलियों का काम नहीं होगा और किसान सीधे उपभोक्ताओं तक अपनी उपज बेच कर ज्यादा मुनाफा कमा पाएंगे.
मेंड़बंदी से खुली तरक्की की राह
बगैर प्रचारप्रसार के जलयोद्धा उमाशंकर पांडेय ने 25 साल के अपने जल संरक्षण अभियान में सरकार से किसी प्रकार का कोई अनुदान नहीं लिया और न ही किसी पुरस्कार के लिए आवेदन किया. उन्होंने समुदाय के आधार पर बगैर सरकारी सहायता के देश को 1050 जलग्राम देने का काम किया. वे अनजान नायक की तरह पुरुषार्थ से परमार्थ कर रहे हैं. देश के सूखे बुंदेलखंड के जिलों में जहां पानी का संकट था, वहीं आज महोबा, चित्रकूट, दतिया, छतरपुर, बांदा में सरकारी धान खरीद सैंटर बनाए गए हैं.
जखनी मौडल पर शोध  
उमाशंकर पांडेय के खेत पर मेंड़ और मेंड़ पर पेड़ मौडल के साथ ही जखनी जलग्राम मौडल पर कई शोध भी हो रहे हैं. अभी तक इस मौडल को देखने और शोध के इरादे से इजरायल, नेपाल सहित देश के तेलंगाना, महाराष्ट्र और बाकी कई हिस्सों के लोग आ चुके हैं. बांदा में स्थित कृषि विश्वविद्यालय  के छात्र इस सफल मौडल पर शोध कर रहे हैं, जिस से दूसरे लोगों को भी इस का लाभ  मिल सकेगा.उत्तर प्रदेश के माइनर इरीगेशन डिपार्टमैंट की रिपोर्ट के अनुसार, इतिहास में पहली  बार बांदा जनपद का भूजल स्तर 1 मीटर,  34 सैंटीमीटर ऊपर आया है. कृषि विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, किसानों के बोने का रकबा एरिया पिछले  5 सालों में बुंदेलखंड के जिलों में 3 लाख हेक्टेयर से अधिक बढ़ा है. मेंड़बंदी के कारण रुके जल से सरकारी रिपोर्ट के अनुसार किसानों का उत्पादन कोरोना काल में भी बढ़ा है. जखनी से निकली जल संरक्षण की परंपरागत विधि खेत के ऊपर मेंड़ और मेंड़ के ऊपर पेड़ संपूर्ण भारत में स्वीकार की जाने लगी है. राज, समाज और सरकार तीनों ने इस विधि का स्वागत किया है. प्रयास भले ही छोटा हो, लेकिन परिणाम राष्ट्रव्यापी है. यह सफलता किसानों के जरीए मिली है, जिस ने बांदा, बुंदेलखंड और दूसरे हिस्सों के खेत और गांव को पानीदार बनाने का रास्ता खोल दिया है.उमाशंकर पांडेय के चलते देश की बड़ी समस्या के समाधान के लिए उन्हें जल शक्ति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय जलयोद्धा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.

क्या कहते हैं लोग
खेत पर मेंड़ और मेंड़ पर पेड़ के जरीए पानी के बचत की शुरुआत करने वाले उमाशंकर पांडेय ने बताया कि देश में बांदा की तसवीर बदल रही है. आज वह बांदा नहीं रहा, जहां दिल्ली से ट्रेनों में पानी भर कर लाया जाता था. आज बांदा पानी की दिशा में आत्मनिर्भर होने की ओर अग्रसर है. यह सब सिर्फ सामूहिक प्रयासों के चलते ही संभव हुआ है.
बांदा के जिलाधिकारी रहे हीरालाल ने बताया कि बिना किसी सरकारी योजना व सरकारी मदद के जनपद के गांवों में तालाबों और नालों में एकत्र किया गया पानी किसान समुदाय की मेहनत का नतीजा है, जिस से यहां का भूजल लैवल ऊपर आ गया है.
हीलालाल ने बताया कि आज के दौर में जलग्राम जखनी सहित दूसरे गांवों के नौजवान प्राइवेट नौकरियां छोड़ कर गांवों में वापस आ रहे हैं. इन लोगों ने बचाए गए पानी से बासमती धान की खेती के साथ ही दूसरे अनाजों की सफल खेती शुरू की है. यहां के लोग अब जान गए हैं कि बांदा में सूखे से निबटने में मेंड़बंदी और पौधरोपण ही बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.
नीति आयोग के जल भूमि विकास सलाहकार अविनाश मिश्रा ने कहा कि जखनी ने जल संरक्षण की दिशा में जो परंपरागत प्रयोग किया है, जैसे मेंड़ का पानी खेत में, गांव का पानी तालाब में, बगैर सरकारी सहायता के पलायन, पानी और किसानी संरक्षण, साथ ही बिना मशीन, विज्ञान और तकनीकी के अपने श्रम के जरीए परंपरागत मौडल को अपना कर सूखे से निबटने का यह मौडल सब से सफल प्रयोगों में से एक है.

गांव जखनी के बाशिंदे और सहकारी  संघ पूर्ति भंडार के पूर्व प्रशासक गजेंद्र प्रसाद त्रिपाठी ने कहा कि खेत पर मेंड़ और मेेंड़  पर पेड़ के जरीए हमें आशा ही नहीं थी कि बांदा पानीदार हो जाएगा. लेकिन इस मुहिम ने न केवल बांदा, बल्कि देश के तमाम सूखाग्रस्त हिस्सों में पानी बचाने के रास्ते  खोल दिए हैं.

रिश्ते का सम्मान- राशि दौलत के कौन से फैसले को मानकर पछता रही थी?

दौलत और राशि को आदर्श पतिपत्नी का खिताब महल्ले में ही नहीं, उस के रिश्तेदारों और मित्रों से भी प्राप्त है. 3 साल पहले रुचि के पैदा होने पर डाक्टर ने साफ शब्दों में बता दिया था कि आगे राशि मां तो बन सकती है पर उसे और उस के गर्भस्थ शिशु दोनों को जीवन का खतरा रहेगा, इसलिए अच्छा हो कि वे अब संतान की इच्छा त्याग दें.

माहवारी समय से न आने पर कहीं गर्भ न ठहर जाए यह सोच कर राशि सशंकित हो चली कि आदर्श पतिपत्नी से आखिर चूक हो ही गई. अपनी शंका राशि ने दौलत के सामने रखी तो वह भी सशंकित हुए बिना नहीं रहा. झट से राशि को डाक्टर के पास ले जा कर दौलत ने अपना भय बता दिया, ‘‘डाक्टर साहब, आप तो जानते ही हैं कि राशि के गर्भवती होने से मांबच्चा दोनों को खतरा है, आप की सलाह के खिलाफ हम से चूक हो गई. इस खतरे को अभी क्यों न खत्म कर दिया जाए?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं? 10 दिन बाद आ जाना,’’ डाक्टर ने समझाते हुए कहा.

रास्ते में राशि ने दौलत से कहा, ‘‘सुनो, यह बेटा भी तो हो सकता है…तो क्यों न खतरे भरे इस जुए में एक पांसा फेंक कर देखा जाए? संभव है कि दैहिक परिवर्तनों के चलते शारीरिक कमियों की भरपाई हो जाए और हम खतरे से बच जाएं.’’

‘‘तुम पागल हो गई हो,’’ दौलत बोला, ‘‘सोचो कि…एक लालच में कितना बड़ा खतरा उठाना पड़ सकता है. नहीं, मैं तुम्हारी बात नहीं मान सकता. इतना बड़ा जोखिम…नहीं, तुम्हें खो कर मैं अधूरा जीवन नहीं जी सकता.’’

राशि चुप रह गई. वह नहीं चाहती थी कि पति की बात को ठुकरा कर उसे नाराज करे या कोई जोखिम ले कर पति को दुख पहुंचाए.

10 दिन बाद दौलत ने राशि को डाक्टर के पास चलने को कहा तो उस ने अपनी असहमति के साथ कहा, ‘‘गर्भपात तो 3 माह तक भी हो जाता है. 3 माह तक हम यह तो समझ सकते हैं कि कोई परेशानी होती है या नहीं. जरा सी भी परेशानी होगी तो मैं तुम्हारी बात नहीं टालूंगी.’’

‘‘जाने दो, मैं भी छोटी सी बात भूल गया था कि यह गर्भ और खतरे तुम्हारी देह में हैं, तुम्हारे लिए हैं. मैं कौन होता हूं तुम्हारी देह के भीतर के फैसलों में हस्तक्षेप करने वाला?’’ निराश मन से कहता हुआ वह कार्यालय चला गया.

शाम को कार्यालय से दौलत घर जल्दी पहुंच गया और बिना कुछ बोले सोफे में धंस कर बैठ गया. यह देख राशि बगल में बैठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारा मन ठीक नहीं है. नाहक परेशान हो. अभी डेढ़दो माह तुम्हें गंवारा नहीं है तो चलो, सफाई करवा लेती हूं. बस…अब तो खुश हो जाओ प्यारे…यह तुच्छ बात क्या, मैं तो आप के एक इशारे पर जान देने को तैयार हूं,’’ कहते हुए राशि ने दौलत की गोदी में सिर औंधा कर उस की कमर में बांहें डाल कर उसे कस लिया.

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दौलत को लगा कि राशि उसे अनमना नहीं देख सकती, इसीलिए वह उस के फैसले को महत्त्व दे रही है. वह आपादमस्तक न्योछावर है तो उस के प्रति कुछ अहम दायित्व उस के भी बनते हैं और ऐसे दायित्वों की राशि सस्नेह उस से उम्मीद भी करती होगी. कहते भी हैं कि एक कदम पत्नी चले तो पति को दो कदम चलना चाहिए. मतलब यह कि राशि की सहमति पर अपनी ‘हां’ का ठप्पा लगा कर खतरे की प्रतीक्षा करे. पर वह किस विश्वास पर एक डाक्टर की जांच को हाशिए में डाल कर भाग्यवादी बन जाए? मस्तिष्क में एक के बाद एक सवाल पानी के बुलबुले की तरह बनते व बिगड़ते रहे. अंत में विचारों के मंथन के बाद दौलत ने पत्नी की प्रार्थना मान ली और दोनों एकदूसरे में सिमट गए.

आखिर डाक्टर की देखरेख में गर्भस्थ शिशु का 9वां महीना चल रहा था. राशि को किसी की मदद की आवश्यकता महसूस हुई तो उस ने अपनी मौसेरी बहन माला को बुलवाने के लिए कहा. फोन पर बात की, मौसी मान ही नहीं गईं, माला को राशि के हाथ सौंप कर वापस भी चली गईं.

दिन करीब आते देख राशि और दौलत एकदेह नहीं हो सकते थे. देहाग्नि दौलत को जैसे राख किए जा रही थी. बारबार ‘जीजाजी’ कह कर दौलत से सट कर माला का उठनाबैठना राशि को इस बात का संकेत दे रहा था कि कहीं वह नादान लड़की बहक गई तो? या फिर दौलत बहक गया तो?

राशि का संदेह तब मजबूत हो चला जब अगली सुबह माला न तो समय से उठी, न ही उस ने चायनाश्ते का ध्यान रखा. राशि ने दौलत को अपने बिस्तर पर नहीं देखा तो वह माला के कमरे में गई जो अकेली सो रही थी. रसोई में देखा तो दौलत टोस्ट और चाय तैयार कर रहा था.

आहट पा कर दौलत अधबुझी राशि को देख चौंक कर बोला, ‘‘अरे, तुम ने ब्रश किया कि नहीं?’’ उस के गाल पर चुंबन की छाप छोड़ते हुए फिर बोला, ‘‘मैं ने सोचा, आज मैं ही कुछ बना कर देखूं. पहले हम दोनों मिल कर सबकुछ बना लेते थे पर अब मेरी आदत छूट गई है. तुम्हारी वजह से मैं पक्का आलसी हो गया हूं. जाओ, कुल्ला करो और मैं चाय ले कर आता हूं.’’

‘‘मैं तो यह देख रही थी कि रुचि स्कूल के लिए लेट हो रही है और घर में आज सभी घोड़े बेच कर सो रहे हैं. आज रुचि को जगाया नहीं गया,’’ मन का वहम छिपा कर राशि रुचि के स्कूल की बात कह बैठी.

‘‘कल रात को तो बताया था कि आज उस की छुट्टी है, मेरी भुलक्कड़ रानी. कहीं मुझे न भूल जाना. वैसे भी आजकल मुझे बहुत तड़पा रही हो,’’ कहते हुए दौलत राशि को अपनी बांहों में भींच कर लिपट गया.

प्यार करने के लिए लिपटे पतिपत्नी को पता नहीं था कि रसोई में आती माला ने उन्हें लिपटे हुए देख लिया है…वह बाधा डालते हुए बोली थी, ‘‘दीदी, तुम क्यों रसोई में आ गईं? मैं छुट्टी की वजह से आज लेट हो गई.’’

चौंक कर दौलत राशि से अलग छिटक गया और खौल रही चाय में व्यस्त हो कर बोला, ‘‘साली साहिबा, मैं ने सोचा कि आज सभी को बढि़या सी चाय पिलाऊं. चाय तैयार हो तब तक आप रुचि को जगा कर नाश्ते के लिए तैयार कीजिए.’’

माला रुचि को जगाने में लग गई.

सब से पहले चाय माला ने पी और पहली चुस्की के साथ ही ताली बजा कर हंस पड़ी…दौलत झेंप गया. उसे लगा कि कहीं चाय में चीनी की जगह नमक तो नहीं पड़ गया? उस को हंसते देख कर राशि ने चाय का प्याला उठाया और मुंह से लगा कर टेबल पर रखते हुए हंस कर बोली, ‘‘बहुत अच्छी चाय बनी है. रुचि… जरा देख तो चाय पी कर.’’

रुचि ने चाय का स्वाद लिया और वह भी मौसी से चिपट कर हंस पड़ी. बरबस दौलत ने चाय का स्वाद लिया तो बोल पड़ा, ‘‘धत् तेरे की, यह दौलत का बच्चा भी किसी काम का नहीं. इतनी मीठी चाय…’’ उस ने सभी कप उठाए और रसोई की ओर चल दिया.

पीछे से माला रसोई में पहुंची, ‘‘हटिए, जीजाजी, आप जैसी हरीभरी चाय मैं तो फिलहाल नहीं बना पाऊंगी, पर नीरस चाय ही सही, मैं ही बनाती हूं,’’ कह कर माला हंस पड़ी.

दौलत ने सोचा था कि सभी को नाश्ता तैयार कर के सरप्राइज दे. पर पांसे उलटे ही पड़ गए लेकिन जो हुआ अच्छा हुआ. काफी दिनों बाद शक में जी रही राशि आज जी भर कर हंसी तो…

पेट में दर्द के चलते दौलत ने राशि को अस्पताल में भरती करवाया और माला को अस्पताल में रातदिन रुकना पड़ा. दूसरे दिन मौसी आ गई थीं, सो यह काम उन्होंने ले लिया और माला को घर भेज दिया. घर में भोजन की व्यवस्था करतेकरते माला को दौलत के करीब आने व बहकने के मौके मिले. जवान लड़की घर में हो…संगसाथ, एकदूसरे को कुछकुछ छूना और छूने की हद पार कर जाना, फिर अच्छेबुरे से बेपरवाह एक कदम और…बस…एक और कदम ही दौलत और माला के करीब लाया.

दौलत ने और करीब आ कर माला को अपनी बांहों में भींच कर गाल पर चुंबन जड़ दिया. माला लाज से सिहर उठी साथ ही भीतर से दहक गई. दौलत ने भी माला की सिहरन व दहक महसूस की.

दौलत एक बार तो तड़प उठा पर… ‘‘सौरी, मालाजी,’’ कह कर झटके से दूर हो चुका था और कान पकड़ कर माफी मांगने लगा, ‘‘सौरी, अब कभी नहीं. किसी हालत में नहीं. मैं भूल गया था कि हमारे बीच में क्या रिश्ता है,’’ और फिर नजर झुका कर वह बाहर चला गया था.

मर्द का स्पर्श पा कर देह के भीतर स्वर्गिक एहसास से माला तड़प गई थी, शायद कुछ अधूरा रह गया था जो अब पूरा न हुआ तो वह बराबर छटपटाती रहेगी. काश, यह अधूरापन समाप्त हो जाए. काश, एक कदम और…

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उस एक कदम और…के परिणाम अब माला की सोच के बाहर थे. उस को दुनियादारी की चिंता नहीं रही. उसे सुधबुध थी तो सिर्फ यह कि यह अधूरापन अब वह नहीं सह पाएगी. अब उसे हर कीमत पर दौलत का स्पर्श चाहिए. भले ही उसे कई मौत मरना पड़े. वह तकिए को वक्ष के नीचे भींच कर पलंग पर औंधी पड़ी छटपटाती रही.

अस्पताल की कैंटीन में मौसी को लंच करवा कर दौलत काफी देर रुका. डाक्टर ने तो सब सामान्य बताया, इसलिए उस की खुशी का ठिकाना न था. अगले दिन आपरेशन की तारीख थी. आपरेशन को ले कर दौलत व राशि संदेहजनक स्थिति से गुजर रहे थे.

रात को घर आ कर दौलत रुचि और माला के साथ खाना खा कर अपने कमरे में सोने की कोशिश कर रहा था और माला अपने कमरे में. दौलत सोच रहा था कि माला ने आपत्ति नहीं जताई तो क्या…पर अब वह उस के लिए सम्माननीय व्यक्ति नहीं रहा. अपने ही घर में उसे माला जैसी मेहमान की इज्जत के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए थी. हर अगले कदम के भलेबुरे के बारे में उसे अवश्य सोच लेना चाहिए.

मुश्किल से दौलत को उनींदी हालत में रात काटनी पड़ी. पुरुष हो कर इतना भलाबुरा सोच ले तो वह वाकई पुरुष है. बहक कर संभल चुके पुरुष को चट्टान समझ कर उलटे पांव वापस लौट जाए वही समझदार स्त्री है. जमीर सभी का सच बोलता है, परंतु उस जमीर के सच को सुनने वाले दौलत जैसे पुरुष विरले ही होते हैं.

माला तो करवटें बदलबदल कर अपने गदराए यौवन को दौलत के हाथ सौंपना चाहती थी पर कैसे? क्या यह संभव था? दौलत माफी मांग कर माला से नजदीकी समाप्त कर चुका है. परंतु माला में एक ही चाहत पल रही थी कि वह अपना सबकुछ दौलत को सौंप दे.

माला अब अपनी देह की दास थी. छटपटा कर वह कब उठ कर कमरे से निकली और कब दौलत की चादर में धीरे से घुस कर लेट गई, उसे पता ही नहीं चला. पर आहट पाते ही दौलत उठ कर बैड के नीचे उतर कर धीमे स्वर में बोल पड़ा, ‘‘माला, मैं ने तुम से माफी मांगी है. इस माफी का सम्मान करो. मैं तुम्हारे, राशि, रुचि, इस घरौंदे के भविष्य को धोखा नहीं दे सकता. देखो, भूल जब समझ में आ जाए, त्याग देनी चाहिए. तुम जानती हो कि जिस इच्छापूर्ति के लिए तुम पहल कर रही हो, इस से कितनी जिंदगियां बरबाद हो सकती हैं…जिन में एक जिंदगी तुम्हारी भी है? मौसीजी जानेंगी, तब क्या होगा? और राशि जानेगी तो पता है?…वह मर जाएगी जिस की जिम्मेदार तुम भी बनोगी. चलो, अब अपने कमरे में जाओ और मेरी साली साहिबा की तरह बरताव करो. तुम अपनी इस देह को और अपने स्त्रीत्व को अपनी सुहागरात के लिए बचा कर रखो. ऐसी जल्दी न करो कि अपने पति के लिए यह तोहफा गंवा कर अंतिम सांस तक आत्मग्लानि के बोझ से दब कर आनंद न पा सको और न ही पति को दे सको.

‘‘हमारे बीच जीजासाली का रिश्ता है, इस रिश्ते का सम्मान करो. मैं गलत हूं, मैं ने अपना कदम पीछे हटाया तो तुम भी अपने को गलत मान कर अपने कदम पीछे हटा लो. सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहा जाता. मैं भूल कर लौट आया. इसी तरह तुम भी लौट जाओ और अपनी जिंदगी के साथ तमाम जिंदगियों को तबाह होने से बचाओ.’’

माला चुप नहीं रह सकी, वह बोल पड़ी, ‘‘जीजाजी, रिश्तों का मैं क्या करूं? अहम बात तो यह है कि मेरे शरीर में आग आप ने लगाई है, इसे बुझाने के लिए कहां जाऊं? किस घाटी में कूद जाऊं?’’

दौलत ने माला की मंशा को स्पष्ट किया, ‘‘तुम गलत हो, माला.’’

माला जिद कर बोली, ‘‘मैं गलतसही की बात नहीं करती. मैं तो सिर्फ जानती हूं कि आप मुझे मेरी ही देहाग्नि से जला कर राख कर देना चाहते हो. मैं अपनी इस देहाग्नि को बरबाद नहीं होने दूंगी और न ही इसे और ज्यादा छटपटाने दूंगी.’’

‘‘मुझे पता नहीं था कि तुम इतनी जिद्दी और महत्त्वाकांक्षी हो कि अपना तो अपना, सारे परिवार, समाज की हदें पार करने पर तुल जाओगी. क्या तुम्हें समझ में नहीं आ रहा है कि जो तुम करने वाली हो वह कितना बुरा है?’’ दौलत ने समझाने की कोशिश की और उस की बांह पकड़ कर बच्चों की तरह खींच कर उस के कमरे में ले गया और बोला, ‘‘कुछ लाज हो तो यह नादानी छोड़ दो और अच्छी औरत की तरह पेश आओ. जो तुम चाहती हो वह पति के साथ किया जाता है.’’

बात टल गई…पर माला रात भर नहीं सोई. आंखें सूज कर लाल हो गईं और उस के चेहरे पर रंगत की जगह अधूरेपन की बेचैनी झलक रही थी जैसे वह कुछ भी कर सकती है.

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अगले दिन आपरेशन की वजह से दौलत अस्पताल में रहा और दोपहर बाद माला भी पहुंच गई. आपरेशन सफलतापूर्वक हो गया और बेहोश राशि बाहर आ गई. कुछ घंटों बाद दौलत बेटे को देख कर खुशी से उछल पड़ा था. इस अवसर पर माला भी नवजात बहनौते को गोदी में ले कर राशि के चेहरे पर तब तक नजर गड़ाए रही जब तक कि उसे यह समझ में नहीं आ गया कि राशि और उस के नवजात शिशु का मासूम चेहरा उस से किस तरह प्यार के हकदार हैं. कुछ पल सोचने के बाद पिछली रात तक उस के मन पर पला ज्वार आंखों के रास्ते बह चला. आंखों में रोशनी लौटी तो माला ने अपने आंसू पोंछ कर नवजात बहनौते को इस प्रकार से चूमा जैसे कह रही हो कि अरे, फूल की पंखुड़ी से बच्चे आज तुझे देख कर मेरा मन भी फूल सा हलका हो गया है.

आर.पी. शंखवार

Crime Story: सिंघम चाची

सौजन्य- मनोहर कहानियां

घटना मध्य प्रदेश के भोपाल जिले की है. शाम के 7 साढ़े 7 का समय था. भोपाल के चूना भट्ठी थाने की ट्रेनी एसडीपीओ रिचा जैन अपने चैंबर में किसी केस की फाइल देख रही थीं, तभी उन्हें कोलार सोसायटी में किसी महिला का कत्ल कर दिए जाने की सूचना मिली.

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महिला की हत्या का मामला गंभीर होने से एसडीपीओ रिचा जैन सीएसपी भूपेंद्र सिंह को ले कर तुरंत मौके पर पहुंच गईं. कोलार सोसायटी की एक संकरी गली में लगभग 45-50 साल की एक महिला का खून से सना शव पड़ा हुआ था. उक्त महिला के कपड़े और पहने हुए जेवरों से साफ लग रहा था कि महिला का संबंध किसी अच्छे परिवार से है.

महिला के जेवर देख कर एसडीपीओ जैन ने अंदाजा लगाया कि हत्या लूट की गरज से नहीं की गई है. वहां मौजूद लोगों से पूछताछ की गई तो पता चला कि मृतका का नाम राधा यादव है, जो करोद क्षेत्र की रहने वाली है.

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यह जानकारी भी मिली कि राधा ने कोलार कालोनी की गरीब बस्ती में रहने वाले सैकड़ों लोगों को कर्ज दे रखा था, वह अपने कर्ज व ब्याज की वसूली के लिए अकसर वहां आतीजाती रहती थीं.

सीएसपी भूपेंद्र सिंह ने अनुमान लगा लिया कि राधा के कत्ल के पीछे लेनदेन का मामला हो सकता है. यह बात 18 मार्च, 2020 की है.

लाश को पोस्टमार्टम के लिए भिजवाने के बाद एसडीपीओ ने एक टीम को कालोनी में रहने वाले राधा के कर्जदारों की सूची बनाने के काम में लगा दिया. जिस से अगले ही दिन यह बात सामने आई कि लगभग पूरी बस्ती राधा की कर्जदार थी.

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राधा यादव ने यहां 20 लाख रुपए से अधिक की रकम ब्याज पर दे रखी थी. साथ ही यह भी पता चला कि राधा काफी दबंग किस्म की महिला थी. वह अपना पैसा वसूलने के लिए कर्जदार की सार्वजनिक बेइज्जती करने से भी पीछे नहीं रहती थी, जबकि अधिकांश लोगों का कहना था कि कितना भी चुकाओ मगर राधा का कर्ज बढ़ता ही जाता था.

इन बातों के सामने आने से यह बात लगभग तय हो गई थी कि राधा की हत्या लेनदेन के विवाद में ही हुई थी, इसलिए राधा के मोबाइल फोन के रिकौर्ड के आधार पर पुलिस ने उन लोगों से पूछताछ शुरू कर दी, जिन्होंने घटना वाले दिन राधा से फोन पर बात की थी.

लेकिन इस से पुलिस के सामने कोई खास जानकारी नहीं आई. हां, यह जरूर पता चला कि राधा की हत्या में 2 युवक शामिल थे, जो घटना के बाद अलगअलग दिशा में भागे थे. इन में से एक बदमाश का स्थानीय लोगों ने पीछा भी किया था, मगर वह चारइमली की तरफ भागते समय एकांत पार्क के पास बहने वाले नाले में कूद कर फरार हो गया था.

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पुलिस की जांच चल ही रही थी कि इसी बीच 21 मार्च, 2020 को जनता कर्फ्यू लगा दिया गया. जबकि लौकडाउन से ठीक पहले 23 मार्च को कबाड़ का व्यापार करने वाले एक व्यक्ति ने हबीबगंज पुलिस को एकांत पार्क के पास नाले में लाश पड़ी होने की

खबर दी.

एकांत पार्क के पास बहने वाला नाला चूना भट्ठी और हबीबगंज थाने की सीमा को बांटता है. ऐसे में हबीबगंज पुलिस ने जा कर नाले से लाश बरामद की, जिस के पास एक मोबाइल फोन भी मिला. लाश कीचड़ में सनी हुई थी और वह लगभग सड़ने की स्थिति में आ चुकी थी. इसलिए जब पुलिस ने उस के मोबाइल में पड़ी सिम के आधार पर पहचान करने की कोशिश की तो उस की पहचान अभिषेक के रूप में हो गई.

बाबानगर शाहपुरा का रहने वाला अभिषेक हिस्ट्रीशीटर था, इसलिए पुलिस को लगा कि उस की हत्या की गई होगी. शव की कलाई पर धारदार हथियार की चोट के निशान भी थे. साथ ही जहां लाश मिली थी, वहां नाले की दीवार के पास चूनाभट्ठी थाने की सीमा में खून भी गिरा मिला था.

इस से पुलिस ने अनुमान लगाया कि नाले में अभिषेक चूनाभट्ठी की तरफ से गिरा है. इसलिए जब चूनाभट्ठी थाने से संपर्क किया गया तो एसडीपीओ रिचा जैन को 18 मार्च की वह घटना याद आ गई, जिस में लोगों ने बताया था कि राधा यादव का एक हत्यारा पीछा कर रही भीड़ से बचने के लिए नाले में कूद गया था.

कहीं अभिषेक कौशल ही तो राधा का हत्यारा नहीं, सोच कर सीएसपी भूपेंद्र सिंह ने नाले के पास मिले खून के नमूनों को घटनास्थल के पास गली में मिले खून से मिलान के लिए भेज दिया. जिस में पता चला कि गली में मिला खून और नाले के पास गिरा खून एक ही व्यक्ति का था.

इस से साफ हो गया कि 18 मार्च की रात राधा यादव की हत्या कर फरार होने के लिए नाले में कूदने वाला बदमाश कोई और नहीं, बल्कि अभिषेक ही था जो दलदल में फंस कर मर गया था. इसलिए पुलिस ने अभिषेक के मोबाइल की कालडिटेल्स निकाली, जिस में पता चला कि घटना वाले दिन कोलार कालोनी निवासी अजय निरगुडे से उस की कई बार बात हुई थी.

यही नहीं, घटना के समय अजय और अभिषेक दोनों के फोन की लोकेशन भी एक साथ उसी स्थान की थी, जहां राधा यादव का कत्ल हुआ था.

 

अजय की तलाश की गई तो पता चला कि अजय 18 मार्च, 2020 से लापता है. 18 मार्च को ही राधा की हत्या हुई थी. इस से पुलिस को पूरा भरोसा हो गया कि अजय ही अभिषेक के साथ राधा की हत्या में शामिल था.

चूंकि घटना के 4 दिन बाद से ही देश में लौकडाउन लग गया था, इस से पुलिस का काम थोड़ा मुश्किल हो गया. लेकिन एसपी (साउथ) साई कृष्णा के निर्देश पर चूनाभट्ठी पुलिस दूसरी जिम्मेदारियों के साथ अजय की तलाश में जुटी रही.

क्योंकि उसे भरोसा था कि जब तक नाले में अभिषेक की लाश बरामद नहीं हुई थी, तब तक अजय ने भोपाल से भागने की कोई जरूरत नहीं समझी होगी. फिर अभिषेक की लाश मिलने के साथ ही देश में ट्रेन बस सब बंद हो गई थीं, इसलिए अजय कहीं बाहर नहीं गया होगा, वह भोपाल के आसपास ही कहीं छिपा होगा.

उस का पता लगाने के लिए पुलिस ने मुखबिरों को भी लगा दिया. इस कवायद का नतीजा यह निकला कि 7 मई, 2020 को पुलिस को खबर मिली कि अजय ईदगाह हिल्स पर अपनी ससुराल पक्ष के एक रिश्तेदार के घर पर छिपा है.

पुलिस टीम ने वहां छापा मार कर सो रहे अजय को गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ में अजय पहले तो इस मामले में कुछ भी जानने से इनकार करता रहा लेकिन जब पुलिस ने थोड़ी सख्ती दिखाई तो उस ने सुपारी ले कर राधा की हत्या करने की बात कबूल कर ली. उस ने बताया कि 4 महिलाओं रेखा हरियाले, सुनीता प्रजापति, गुलाबबाई प्रजापति और सुलोचना ने राधा की हत्या के लिए उसे एक लाख 80 हजार रुपए की सुपारी देने के साथ 20 हजार रुपए एडवांस में भी दिए थे.

उस ने बताया कि कोलार कालोनी में राधा के एजेंट के तौर पर काम करने वाला ताराचंद मेहरा और उस का भतीजा मनोज भी शामिल था, सो पुलिस ने उसी दिन छापा मार कर उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया. हत्या की सुपारी देने वाली रेखा हरियाले, सुनीता प्रजापति, गुलाब बाई और सुलोचना भी पकड़ी गईं. जिस के बाद राधा हत्याकांड की कहानी इस प्रकार सामने आई.

 

पंचवटी कालोनी करोंद निवासी राधा यादव कई साल से भोपाल की गरीब बस्तियों में ब्याज पर पैसा देने का काम करती थी. उस का पति राजेंद्र उर्फ राजन एलआईसी में नौकरी करता था. लेकिन किसी वजह से उस की नौकरी छूट गई थी, वह खाली था.

राधा के 2 बेटे हैं, जिन की उम्र 16 और 18 साल है. राधा का पति शराबी था, जिस की वजह से पति का उस से झगड़ा होता रहता था. फिर एक दिन ऐसा आया कि राजन उसे छोड़ कर कहीं चला गया जो वापस नहीं लौटा.

एकलौते बेटे के घर छोड़ कर चले जाने पर राजेंद्र के पिता ताराचंद को गहरा सदमा लगा जिस से उन की मृत्यु हो गई. ससुर ताराचंद की मृत्यु के बाद राधा ने उन की खेती की 10-12 बीघा जमीन बेच कर ब्याज पर पैसे देने शुरू कर दिए.

लोगों की मानें तो राधा का पूरे भोपाल में 50 लाख से अधिक और अकेली कोलार कालोनी में 20 लाख से अधिक रुपया ब्याज पर चल रहा था. इलाके के लोग राधा को सिंघम चाची कहते थे.

राधा उधार दिए पैसों पर मोटा ब्याज वसूलती थी. उसे अपना पैसा वसूल करना अच्छी तरह आता था. लोगों का कहना है कि जो एक बार राधा का कर्जदार हो गया, वह फिर उस कर्ज से उबर नहीं पाया. कर्ज वसूलने का उस का अपना हिसाब था, जिस की वजह से आदमी का कर्ज कभी पूरा नहीं हो पाता था. इस पर कोई अगर उस का विरोध करता तो राधा गुंडई करने में भी पीछे नहीं रहती थी.

कर्जदार की कार, आटो भी वह खड़ेखड़े नीलाम कर देती थी और कोई उस का कुछ नहीं कर पाता था.

 

पकड़े गए आरोपियों में से ताराचंद मेहरा कोलार कालोनी में राधा के एजेंट के तौर पर काम करता था. जानकारी के अनुसार राधा ने अकेले उस के माध्यम से ही इस कालोनी में 8 लाख से ज्यादा का कर्ज बांट रखा था. बाकी सभी आरोपी राधा के कर्जदार हैं, जो उस के हाथ कई बार जलील भी किए जा चुके थे.

आरोपी महिलाओं ने बताया कि उन्होंने राधा से जितना पैसा कर्ज लिया था, उस का कई गुना अधिक वे ब्याज के तौर पर वापस कर चुकी थीं. लेकिन इस के बाद भी वह आए दिन पैसे वसूलने उन के दरवाजे पर आ कर गालीगलौज करती थी.

इस से वे तंग आ चुकी थीं. जब तक राधा जिंदा है, तब तक वे उस का कर्ज कभी नहीं चुका सकतीं. यही सोच कर उन्होंने राधा की हत्या करवाने की सोच कर अजय से बात की थी.

शाहपुरा का नामी बदमाश अभिषेक अजय निरगुड़े का मुंहबोला साला था. अजय ने अभिषेक से बात की और एक लाख 80 हजार रुपए में राधा की हत्या का सौदा तय कर दिया. इस काम में राधा का एजेंट ताराचंद और उस का भतीजा मनोज भी साथ देने को राजी हो गए.

योजनानुसार घटना वाले दिन रेखा ने राधा को फोन कर चाय पीने के लिए अपने घर बुलाया. राधा लगभग रोज ही ब्याज की वसूली करने के लिए कालोनी में आती थी, सो रेखा से बात होने के बाद वह उस के घर पहुंच गई, जहां चाय पीने के दौरान ताराचंद ने रेखा को फोन कर ब्याज का पैसा लेने के लिए बुलाया. इसलिए रेखा के घर से उठ कर राधा ताराचंद के घर की तरफ जाने लगी.

आरोपियों को मालूम था कि राधा, रेखा के घर से ताराचंद के घर जाने के लिए संकरी गलियों से हो कर गुजरेगी. इसलिए रास्ते में अजय और अभिषेक घात लगा कर बैठ गए और रेखा के वहां आते ही दोनों ने मिल कर चाकू से गोद कर उस की हत्या कर दी.

रेखा की चीखपुकार सुन कर कालोनी के लोग बाहर निकल आए, लेकिन गलियों से परिचित होने के कारण अजय तो आसानी से मौके से फरार हो गया, जबकि अभिषेक को पकड़ने के लिए भीड़ उस के पीछे पड़ गई.

भीड़ ने अभिषेक को पकड़ लिया. भीड़ में मौजूद किसी व्यक्ति ने उस पर धारदार हथियार से हमला किया, जिस से उस की कलाई कट गई. उसी दौरान किसी तरह अभिषेक भीड़ से बच कर भाग गया और नाले के पास एक पेड़ के पीछे छिप गया.

जब भीड़ उस की तरफ आई तो वह पकड़े जाने से बचने के लिए नाले में कूद गया, जहां नाले की दलदल मे फंस कर उस की मौत हो गई. बाद में पुलिस को मिली अभिषेक की लाश ही राधा यादव के हत्यारों तक पहुंचने की सीढ़ी बनी.

सब से बड़ा सुख-भाग 3: रीतेश के मन में किस बात का डर था

अल्पना राजेश और नेहा के पास आ गई थीं. लगा, बेटी की तरह गले लगने में कुछ हिचक सी महसूस कर रही थी नेहा पर उस हिचकिचाहट को उन्होंने समाप्त कर दिया. बहू को गले लगाकर स्नेहचुंबन माथे पर अंकित कर दिया उन्होंने.

घर पहुंच कर कितनी देर तक सब बतियाते रहे थे. कुछ यहांवहां की बातें कर के आखिर बात फिर मुख्य मुद्दे पर अटक गई. राजेश बारबार पिता को वहां रहने का आग्रह करता और वे मन ही मन डर जातीं कि कहीं पति कमजोर न पड़ जाएं. लेकिन रीतेश ने बड़ी ही समझदारी से बेटे की बात टाल दी थी. वे बोले, ‘‘बांद्रा से कोलाबा काफी दूर है बेटा. इतनी लंबी ड्राइविंग से थक जाऊंगा मैं.’’

अल्पना ने चैन की सांस ली और राजेश निरुत्तर हो गया था. काफी चहलपहल थी. सभी बातों में मशगूल थे. नेहा चाय बनाने गई तो उन्होंने क्षितिजा को बहू के पीछेपीछे भेज दिया था और खुद उठ कर थैले से उपहार निकाल लाई थीं. नेहा ने बहुत खुश हो कर साड़ी स्वीकार की थी. हां, क्षितिजा कभी रंग पर अटक जाती तो कभी पिं्रट पर. हमेशा से ही ऐसी है नकचढ़ी. क्या मजाल जो कुछ भा जाए उसे.

रीतेश को बच्चों ने घोड़ा बना दिया था और नेहा और क्षितिजा बंबई की समस्याओं के बारे में बता रही थीं. रात्रि का भोजन खा कर क्षितिजा और निखिल  जब चले गए तो रीतेश तो सोफे पर ही अधलेटे से हो गए थे. उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा था. बहू साथ बैठने में कुछ कतरा रही थी. पति को कुरतापजामा पकड़ा कर खुद भी वे सोने की तैयारी करने लगी थीं. दिल्ली में देर रात तक टीवी देखने की आदत थी उन्हें, पर यहां तो मृदुल को स्कूल जाना था दूसरे दिन अगर वह भी उन के साथ बैठा रहा तो दूसरे दिन उठ नहीं पाएगा.

दूसरे दिन सुबहसुबह उन्हें रसोई से खटरपटर की आवाज सुनाई दी. शायद बहू होगी चौके में, सोच कर करवट बदल ली थी उन्होंने. पर नहीं, बात कुछ और ही थी. उठ कर देखा तो बिल्ली दूध का भगौना चाट रही थी. शायद बहू दूध फ्रिज में रखना भूल गई थी. अब चाय कैसे बनेगी? पति सुबह सैर को जा ही रहे थे. उन्होंने दूध की 2 थैलियां उन्हें लाने को कह दिया था.

राजेश उठा और जब उसे सारा माजरा समझ में आया तो बीबी को आड़े हाथों लिया था. उस ने न जाने कितने पुराने किस्से बीवी की लापरवाही के बखान कर दिए उन के सामने. नेहा अपमान का घूंट पी कर रह गई थी.

बरसों पुराना वह दृश्य अब तक उन के मानसपटल पर अंकित था, जब रीतेश ने अम्माजी के सामने दाल में नमक ज्यादा पड़ने पर उन्हें कैसे अपमानित किया था, और अम्मा नेता के समान खड़ी हो कर तमाशा देख रही थीं. अब अगर बीचबचाव करूं और यह आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी नेहा न बरदाश्त कर पाए तो उन के हस्तक्षेप का फिर क्या होगा?

पचाप अपने कमरे में लौट आई थीं वे और सोच रही थीं, ‘ये पुरुष हमेशा अपनी मां को देख कर शेर क्यों बन जाते हैं?’ उस दिन पितापुचुत्र के दफ्तर जाने के बाद उन्होंने घर की माई से पूछ कर कुछ दुकानों का पता किया और फल, सब्जी, दूध, बिस्कुट ले आई थीं. किसी भी मेहमान के घर आने पर खर्चा बढ़ता है, यह वे जानती थीं. फिर सब कुछ इन्हीं बच्चों का ही है, तो क्यों न इन्हें थोड़ा सहारा दिया जाए.

शाम को राजेश घर लौटा तो उन्होंने उस से बात नहीं की. दोएक दिन के लिए अबोला सा ठहर गया था मांबेटे में. नेहा भी मां को देख रही थी पर चुप्पी का कारण नहीं जान पा रही थी. ऐसा नहीं था कि उन्होंने बेटे की अवहेलना की हो. रसोई में जाती तो उन्हें लगता, बहू के हाथ सधे हुए नहीं हैं. बेचारी से कभी रोटी टेढ़ी हो जाती तो कभी सब्जी काटते समय हाथ कट जाता. अकेले रहते होंगे तो काम कुछ कम होता होगा. बराबर वह रसोई में उस के साथ लगी रहतीं.

राजेश मां के खाने की प्रशंसा करता तो वे उसे ऐसे घूरतीं जैसे कोई अपराध किया हो उस ने. आंखों के इशारों से उन्होंने समझाया था उसे कि पत्नी के सामने मां की प्रशंसा करने की जरूरत नहीं है. और न ही मां के सामने पत्नी का अपमान करने की. ऐसे में अनजाने ही ईर्ष्या की नागफनी फैल जाएगी गृहस्थी के इर्दगिर्द.

यहां आए उन्हें एक सप्ताह बीत गया था. इस बीच कम से कम 4 बार क्षितिजा आ चुकी थी. अगर नहीं आती तो फोन पर बात करती. उन्हें लगा, यों ननद का रोजरोज चले आना बहू को अच्छा लगे या न लगे.

फिर बेटी का अपना भी तो परिवार है. मां आ गईं तो क्या रोज चल पडे़गी मायके? फोन पर भी बेटी खोदखोद कर घर की बातें पूछती तो उन्हें लगता, उन की शिक्षा में कहीं कुछ कसर रह गई है. इसीलिए तो वह शाम को इस इमारत के लौन में नहीं जाती थीं. बड़ीबूढि़यां बहुओं के बुराई पुराण ले कर बैठतीं तो उन का दम घुटता था. परोक्ष रूप से बेटी को समझा दिया था अपना मंतव्य उन्होंने.

पूरा दिन काटे नहीं कटता था. अपने घर में तो काम होते थे उन के पास, नहीं होते तो ढूंढ़ लेती थीं. अनुशासनहीनता और अकर्मण्यता का उन के जीवन में कोई स्थान न था. कभीकभी रीतेश के साथ अपने फ्लैट पर चली जातीं, लकड़ी का काम हो रहा था वहां.

कभीकभी उन्हें लगता, यहां भी बहुत कुछ है करने को. परदे के हुक यों ही लटके पड़े थे. गमलों के पौधे सूखे हुए थे. पीतल के शोपीस काले हो रहे थे. नेहा हर काम माई से करवाती थी. खराब होता तो मियांबीवी की नोकझोंक शुरू हो जाती. बैठेबैठे उन्होंने राजेश का बिखरा घर समेट दिया था. फिर आशंका जागी थी मन में. पड़ोस की शीला की बहू इसीलिए घर छोड़ कर भाग गई थी क्योंकि शीला हर काम बहू से अधिक सलीके से करती थी. कहीं नेहा को बुरा लगा तो? शाम को राजेश ने ज्यों ही प्रशंसा के दो बोल बोलने चाहे, उन्होंने नेहा को सामने कर दिया था. मालूम नहीं, उसे कैसा लगा लेकिन उस के बाद से उसे इन कामों में दिलचस्पी सी होने लगी थी.

अब चुप रहने वाली अंतर्मुखी नेहा उन के पास आ कर बैठती थी. कभीकभी अपनी समस्याएं भी उन्हें सुनाती जिस में अधिक परेशानी आर्थिक थी, ऐसा उन्हें लगा था. राजेश जैसा स्वाभिमानी युवक मातापिता से कोई सहायता कभी नहीं लेगा, यह वे भलीभांति जानती थीं, बहू ने विश्वास में ले कर उन्हें अपनी समस्या सुनाई थी तो उन्होंने भी उसे समझाया, ‘‘नेहा, तुम पढ़ीलिखी हो. घर में बैठ कर ट्यूशन शुरू कर दो. तुम तो मृदुल को भी ट्यूशन पढ़ने भेजती हो, चार पैसे भी हाथ में आएंगे और आत्मविश्वास भी बढ़ेगा.’’

‘‘घर का काम कैसे होगा, मां?’’

‘‘घर का काम है ही कितना? और जब तक मैं हूं, तुम्हें सहायता मिल ही जाएगी.’’

उन्हें अपने दिन याद आए थे. एक आय में सब कुछ निपटाना सरल नहीं था, उन के लिए भी. और ये बच्चे? अभावों में पले ही कब हैं जो थोड़ी भी कोरकसर बरदाश्त करें? उन्हें भी अच्छा लग रहा था यहां. सब कुछ सुचारु रूप से तो चल ही रहा था. कभीकभी नेहा नए व्यंजनों और पकवानों के विषय में पूछती तो उन्हें लगता कहीं आडंबर तो नहीं कर रही. उस की आंखों में झांक कर देखा, कहीं भी मनमुटाव, दुराव, छल व प्रवंचना के भाव नहीं दिखे थे उन्हें.

राखी का त्योहार था उस दिन. क्षितिजा सुबह से ही आना चाह रही थी. इधर नेहा को बुखार था. राजेश भी उसी दिन दौरे से लौटा था. रीतेश के साथ जा कर वे पूरा सामान बाजार से ले आई थीं, यहां तक कि उपहार की साड़ी भी. नेहा का भाई भी राखी बंधवाने घर ही आने वाला था. समयसमय पर बहू की दवा, रसोई की देखभाल, घर की सजावट ने उन्हें शिथिल कर दिया था. काफी थक गई थीं. इतना काम करने की उन की भी तो आदत छूट गई थी.

बेटी आई तो उस की गुडि़या और मृदुल की नोंकझोंक शुरू हो गई थी. सिर बुरी तरह फटने लगा था. क्षितिजा की बिटिया है भी तो तूफान और क्षितिजा, चाहे अपनी बेटी ही सही, कुछ तो कहे अपनी बेटी को. अनायास ही उन के मुंह से निकल गया था, ‘‘जैसी मां वैसी बेटी.’’

बस, क्षितिजा का मुंह फूल गया था. तभी नेहा ने उसे समझाया, ‘‘मां मजाक कर रही हैं, क्षितिजा. तुम बुरा क्यों मान गईं? हर बात दिल से मत लगाया करो.’’

अल्पना को प्यार उमड़ आया था बहू पर. अगर यही बरताव बहू ने किया होता तो कैसा लगता उन्हें? शायद बहुत बुरा. किसे बहू कहें, किसे बेटी?

नेहा उठ कर मेज वगैरह ठीक करने लगी थी. उन्हें लगा, क्षितिजा भी कुछ मदद कर देती भाभी की तो ठीक रहता, लेकिन उस का तो मूड ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था. उधर नेहा का भाई भी आ गया था राखी बंधवाने.

राखी बांधने, खानेपीने के बाद विदाई की बेला आई तो वे रसोई से सुपारी लेने चली गई थीं. अचानक बहू के शब्द उन के कर्णपटल से टकराए, ‘‘क्षितिजा को उपहार क्या दोगे?’’

‘‘मैं तो बाजार जा ही नहीं पाया, पैसे भी नहीं हैं. बैंक भी बंद है आज.’’

‘‘तुम भी अजीब हो, मैं बाबूजी से मांग लेती हूं.’’

यह सुन कर धक्का सा लगा था उन्हें. यह सच है कि जमाना बदल गया पर क्या नैतिक मूल्य भी बदल गए? समधियों से पैसे ले कर घर की बेटी को दिए जाएंगे? मन में आया, कोई तो इन का मार्गदर्शन करे. यदि पिता से पैसे लेगी तो जगहंसाई से कौन बचाएगा इन्हें? अपने थैले में से सिल्क की साड़ी निकाल कर राजेश के हाथ में पकड़ाई उन्होंने.

‘‘यह क्या, मां?’’ अवाक् सा वह मां का चेहरा निहारने लगा था. उधर मां का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि वह ‘न’ भी नहीं कर पाया था. लेकिन इतना समझ गया था, ‘यह त्योहार औपचारिकताएं निभाने के लिए बने हैं. प्यारविश्वास का अटूट बंधन है रक्षाबंधन. भविष्य में फिर ऐसी लापरवाही नहीं होनी चाहिए.’

क्षितिजा गई तो वे टूट सी गई थीं. रहरह कर चक्कर आ रहे थे उन्हें. ऐसे मौकों पर रीतेश हमेशा घबरा जाते हैं. उच्च रक्तचाप की शिकायत है अल्पना को, जानते थे वे. राजेश भाग कर डाक्टर ले आया था. नेहा सास के सिरहाने बैठ कर उन का सिर दबा रही थी.

3 दिन 3 रात तक वे नीमबेहोशी की हालत में रही थीं. नेहा को लग रहा था, उस का घर बिखर रहा है. बारबार राजेश को अच्छे से अच्छे डाक्टर से परामर्श करने को कह रही थी.

6 दिन की बेहोशी, बच्चों की सेवासुश्रूषा के बाद जब वे उठीं तो अपने चारों ओर अपने बच्चों को देख कर उन का मन भर आया था. कैसी निस्वार्थ सेवा है इन बच्चों की? दिल्ली में एक बार जब रीतेश को टायफाइड हुआ था तो कितने एहसान से पड़ोसी मदद करते थे.

आत्मग्लानि से उन का मन भर गया था. लोगों के कड़वे अनुभव सुन कर पढ़ कर, आने वाले भविष्य की कल्पना से डर कर, अपने बच्चों के लिए मन में व्यर्थ शंका पाल ली थी उन्होंने, किसी अप्रत्याशित की कल्पना में अपना वर्तमान खोने को तत्पर हो उठी थीं वे.

उधर फ्लैट लगभग तैयार हो चुका था. रीतेश ने बताया, कभी भी रह सकते थे वे लोग वहां पर. अल्पना का मन छोटा होने लगा था. मोहलगाव रहरह कर उठ रहे थे. मन चाह रहा था कुछ कहें पर जबान तालू से चिपकी हुई थी.

शाम की चाय ले कर नेहा कुरसी खींच कर उन के पास बैठ गई थी. सहसा उन्हें उस का आर्द्र स्वर सुनाई दिया, ‘‘मां, हम से कोई भूल हो गई जो आप हमारे साथ नहीं रहना चाह रही हैं?’’

उस के सपाट प्रश्न पर हैरान रह गई थीं वे. क्या कहतीं? उन की तरफ से तो कुछ भी कमी नहीं थी. उन का ही मन कलुषित था. एक ओर एक अज्ञात डर की कल्पना थी तो दूसरी तरफ बच्चों का साथ.

उन्हें लगा, संवेदनाएं, भावनाएं मान्यताएं इतनी नहीं बदली हैं जितना हम सोचते हैं. जीवन की इस तेज दौड़ में हम एकदूसरे को समझ नहीं पा रहे हैं. हम भूल गए हैं कि ये हमारे बच्चे हैं. जिन्हें हम ने अपने प्यार से सिंचित, पोषित किया है. कमा कर पत्नी ले आए तो हमारी अपेक्षाएं बदल जाती हैं शायद. जीवन का सब से बड़ा सुख वे आशंकाओं के जाल में फंस कर खोने नहीं देंगी.

उन्होंने रीतेश को फ्लैट वापस करने को कहा तो उन का खिलाखिला सा परिवार उन के पास सिमट आया था. उन्हें लगा, कोई अमूल्य धन मिल गया हो जैसे

सब से बड़ा सुख-भाग 1: रीतेश के मन में किस बात का डर था

जब रीतेश ने बंबई में अपना तबादला होने का समाचार अल्पना को सुनाया, वे अनमनी सी हो उठीं. ऐसा नहीं कि तबादला कोई पहली बार हुआ हो. पति के 20 वर्ष के कार्यकाल में न जाने कितनी बार उन्होंने सामान बांधा था, नई गृहस्थी जमाई थी, दरवाजों के परदे खिड़की पर छोटे कर के टांगे थे और खिड़कियों के परदे जोड़ कर दरवाजों पर.

अब तो यह सब करने की भी आवश्यकता नहीं थी. रीतेश मुख्य निदेशक थे अपनी कंपनी के. सभी सुखसुविधाएं मुहैया कराना अब कंपनी के जिम्मे था. फिर तो कोई खास परेशानी ही नहीं थी. बस एक प्रकार का डर था जिस ने उन के मनमस्तिष्क को बुरी तरह घेर रखा था, वह था बेटे राजेश और वधू नेहा के साथ रहने का.

वैसे अपने बच्चों के साथ रहने की परिकल्पना अपनेआप में कितनी सुखदायक है, विशेषकर उन मातापिता के लिए जिन्होंने अपने जीवन का हर पल अपने बच्चों और परिवार के प्रति समर्पित किया हो. लेकिन नई दुनिया के नए अनुभवों ने उन्हें चिंताग्रस्त कर दिया था. आज के भौतिकवादी युग में उन के भावुक हृदय ने एक बात महसूस की थी कि रिश्तों की खुशबूभरी परंपरा लगभग समाप्त हो गई है.

दो ही बच्चे थे उन के. बेटी क्षितिजा, जिस के पति डाक्टर हैं और बेटा राजेश, जो एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर है. कितना संघर्ष और परिश्रम किया था उन्होंने उसे पढ़ानेलिखाने और सुसंस्कृत बनाने में. सुबह 5 बजे से ले कर रात 11 बजे तक का मशीनी जीवन बच्चों के टिफिन तैयार करने, स्कूल की पोशाक पर इस्तिरी करने, सुबह बस स्टौप ले जाने और दोपहर बस स्टौप से वापस लिवा लाने में वक्त कब और कैसे सरक गया, कुछ पता ही न चला.

कभीकभी उन का मलिन मुख देख कर रीतेश उन्हें समझाते, ‘‘दो पल चैन से लेट जाया करो, कुछ देर सुस्ताने से थकावट कम हो जाती है.’’ पर वह समय भी वे बच्चों के बस्ते टटोलने और गृहकार्य देखने में बितातीं. फिर शाम को दूध के गिलास के साथ मधुर मुसकान बिखेर कर अपना पूरा ममत्व उन पर न्योछावर कर देतीं.

बचपन बीता. बच्चों ने कालेज में दाखिला लिया तो उन का शारीरिक श्रम भी कम हो गया. बच्चे अपनेआप पढ़ते थे, यानी आत्मनिर्भर हो गए थे. उधर रीतेश पदोन्नति के साथसाथ अपने कार्यक्षेत्र में व्यस्त होते चले गए थे. अब उन्हें खालीपन सा महसूस होता.

समय काटना जब मुश्किल हो गया तो उन्होंने बंगले में फल, तरकारी की क्यारियां बना ली थीं. पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था. लेकिन एक आसरा तो था कि दिनभर एक सूनापन रात को खाने की मेज पर समाप्त हो जाएगा. सभी दिनभर के अपनेअपने अनुभव सुनाते, कुछ समय टीवी देखते.

राजेश शुरू से अल्पभाषी था, पर बिटिया क्षितिजा हवा के झोंके की तरह चंचल. कितनी बड़ी हो गई पर चुलबुलापन नहीं गया. कभी उस की नोंकझोंक से राजेश परेशान हो जाता तो चिढ़ कर कहता ‘मां,मेहरबानी कर के अपनी लाड़ली से कहो कि चुप हो जाए.’

तब वह उसे झिड़क देतीं, ‘दो दिन की मेहमान है यह. कल को ससुराल चली गई तो मुंह देखने को तरस जाओगे.’

‘मां, कब से सुन रहा हूं दो दिन. ये दो दिन कब खत्म होंगे?’ और क्षितिजा रूठ कर अपने कमरे में चली जाती. हारमनुहार, रूठमनौअल में कब वे सुनहरे दिन बीत गए, पता ही नहीं चला.

अब तो दोनों बंबई में अपनीअपनी गृहस्थी में सुखी हैं, राजेश के पास नन्हा मृदुल है और क्षितिजा के पास नन्ही गुडि़या. रह गई हैं वे अकेली, नितांत अकेली. इतना बड़ा घर काटता है उन्हें. पूरी दोपहरी करवटें बदलने में बीत जाती है. काम कुछ भी नहीं है, न खानेपकाने का, न सफाई का. कभीकभी तो ऐसा लगता है कि रसोई में जूसर, टोस्टर का ही साम्राज्य हो गया है.

वह कितनी बार रोती थीं बच्चों को याद कर के. कुछ भी बच्चों की पसंद का पकातीं तो खुद कहां खा पाती थीं. निवाला हलक में अटक जाता था. रीतेश को देखतीं, कभी भी आंखें नम नहीं होती थीं उन की, अल्पना की तरह. क्या बच्चों की याद इन्हें नहीं सताती होगी? मां और पिता की सोच में इतना फर्क क्यों होता है? क्या मां की भावुकता उसे अधिक चिंताएं बख्शती है? कभी उन का मन रखने के लिए इतना जरूर कहते थे वे, ‘कुछ दिन घूम आओ बच्चों के पास या उन्हें ही कुछ दिनों के लिए बुला लो यहां, मन लग जाएगा तुम्हारा.’

वे सोचतीं, वह बात तो नहीं बन पाएगी न जो हमेशा साथ रहने में होती और अब समय आया है साथ रहने का तो डर कैसा? उन के साथ कुछ घटा हो, ऐसा भी तो नहीं है. खुद ही तो अपनी पसंद की नेहा को अपनी बहू बनाया था उन्होंने. वैसे तो राजेशक्षितिजा को पूरी छूट दी थी जीवनसाथी का चयन करने की क्योंकि इस युग में जीवनसाथी के बीच ऐसी अदृश्य सी रेखा खिंची हुई पाती थीं तो मन कांप सा जाता था.

अब उन का समय तो रहा नहीं  जब ‘विवाह’ शब्द से जुड़ी भावनाओं का अर्थ होता था मात्र दो व्यक्तियों का नहीं दो कुटुंबों का सम्मिलन. जब अर्पणसमर्पण की सारी प्रतिज्ञाएं इस शब्द में सम्मिलित रहती थीं. एक नहीं दोदो कुलों की मर्यादा का संवहन हर बेटी, हर बहू करती थी. अब तो मियांबीवी का रिश्ता ही कच्ची डोर में बंधा दिखता है. कौन जाने कब अदालत का दरवाजा खटखटा दें.

सब से बड़ा सुख-भाग 2: रीतेश के मन में किस बात का डर था

पर दोनों बच्चों ने उन पर यह दायित्व छोड़ दिया था. काफी कठिन काम था यह. बेटी के लिए उन्होंने डाक्टर निखिल को चुना था. पर राजेश के लिए वधू का चयन काफी मुश्किल था. विदेश में उच्च शिक्षा के लिए गए उन के बेटे को न जाने पत्नी के लिए कैसी उम्मीदें थीं, यह भी तो नहीं जानती थीं वे. अल्पभाषी राजेश कुछ कहता भी तो नहीं था. पर मां होने के नाते इतना तो वे जानती थीं कि उच्च शिक्षित, सुसंस्कृत कन्या ही राजेश की परिणीता बनेगी जो समयअसमय उसे बौद्धिक व आर्थिक रूप से संबल प्रदान कर सके. इसी तलाशबीन के दौरान डा. अमरीश की बेटी नेहा उन्हें पसंद आई थी. दानदहेज तो अच्छा दिया था उन्होंने, पर सब से ज्यादा वे इस बात से भी खुश थीं कि उस ने कई ऐसे कोर्स भी किए थे जिन से घर बैठ कर कुछ आमदनी कर सके.

नेहा को पा कर राजेश के चेहरे पर संतोष की झलक देख वे भी संतुष्ट हुई थीं. भीड़भड़क्के, नातेरिश्तेदारों की भीड़ के नुकीले संवादों, आक्षेपों से उन्होंने बहू को बखूबी बचाया था. लखनऊ वाली ननद तो हमेशा तरकश से जहरीले बाण ही चलाती थीं. बोलीं, ‘‘दहेज तो दिखाओ भाभी, बहू का. हम कोई छीनझपट कर थोड़े ले जाएंगे.’’

वे चिढ़ गई थीं. दहेज न हुआ, नुमाइश हुई. इन औरतों की छींटाकशी से बेखबर नहीं थीं वे जो इतनी बचकानी हरकत करतीं. आज तक अपना अपमान नहीं भूल पाई थीं वे, जो उन का दहेज देखने पर इनऔरतों ने किया था. बड़ी जीजी नाराज थीं कि बहू के हाथ का भोजन नहीं चखा था उन्होंने अब तक. वैसे यह भी कुछ बेकार का आरोप था.

वे तो मन ही मन डर रही थीं कि कालेज से निकली लड़की रसोई में जा कर दो पल खड़ी न हो सकी तो? खुद उन की बिटिया ही कितना कर पाती है? पूरी रसोई कभी संभाली हो, याद नहीं पड़ता उन्हें. इसी चखचख से बचने और बहू को बचाने के लिए उन्हें हनीमून पर भेज दिया था उन्होंने. वापस लौटे तो राजेश को बंबई जाना था.

मन में इच्छा हुई कि बहू को अपने पास रख लें कुछ दिन. पर फिर सोचा, नयानया ब्याह हुआ है उन का, खेलनेखाने के दिन हैं. एक बार जिम्मेदारी बढ़ी तो इंसान पिंजरे में कैद पक्षी के समान हो जाता है. अगर फड़फड़ाना भी चाहे तो पिंजरे की तारें उसे आहत करती हैं.

बहू और बेटे ने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया तो फिर अकेलापन सालने लगा था. अगर यहीं होते मेरे पास तो कितना अच्छा होता. लेकिन फिर सोचतीं, अच्छा ही है कि दूर है, कम से कम प्यार तो है, अपनत्व तो है, वरना एक ही घर में रहते हुए भी लोगों के मुंह इधरउधर ही रहते हैं. किसी की बहू घर छोड़ कर चली गई, कहीं सास ने आत्महत्या कर ली, यही तो घरघर की कहानी है जिसे उन्हें दोहराने से डर लग रहा था.

उस दिन दफ्तर से रीतेश लौट कर आए तो चाय की चुस्की लेते हुए बोले,  ‘‘अल्पना, कल से सामान बांधना शुरू कर दो. और देखो, कुछ भारीभरकम ले जाने की जरूरत नहीं. राजेश के घर में किसी भी चीज की कमी नहीं है. जरूरत भर का सामान ले लेंगे. 3 साल बाद वापस दिल्ली लौटना ही है.’’

पति के आदेश पर वह जैसे यथार्थ में लौट आई थीं. तो क्या रीतेश ने निश्चय कर लिया है बेटे के साथ रहने का? कुछ असमंजस, कुछ ऊहापोह की स्थिति में वह चुपचाप बैठी रहीं. फिर साहस बटोर कर पति से पूछा,  ‘‘सुनो, कंपनी की तरफ से तुम्हें कार और फ्लैट तो मिलेगा? है न?’’

‘‘हांहां, हमारी कंपनी के कुछ फ्लैट कोलाबा में हैं.’’

‘‘तो क्यों न हम वही चल कर रहें?’’

‘‘कैसी बातें करती हो? राजेश के वहां रहते हुए हम अलग कैसे रह सकते हैं? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘तो इस में बुरा क्या है? वैसे भी एकाध साल में अलग रहने की नौबत तो आ ही जाती है. क्यों न पहले से सावधानी बरतें?’’

‘‘यह मां का दिल कह रहा है या स्वयं का अहं और स्वाभिमान?’’

‘‘तुम चाहे कुछ भी समझो, पर बात को नकारा नहीं जा सकता. आजकल सामंजस्य स्थापित कितने घरों में हो रहा है?’’ वे बोलीं.

रीतेश ने उन्हें समझाना चाहा, ‘‘देखो, जब सासबहू अनपढ़ हों तो बात अलग है किंतु जब तुम दोनों ही शिक्षित हो फिर यह समस्या क्यों आएगी ?’’

‘‘विचारों का विरोधाभास, पीढ़ी का अंतराल, व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधा आदि कई ऐसे प्रश्न हैं जिन पर इन संबंधों की इमारत खड़ी है.’’

‘‘तुम स्वयं को सास नहीं, नेहा की मां समझना अल्पना, और बेटे से अपेक्षाएं कम रखना तो…’’

‘‘और अगर वह मेरी बेटी न बनना चाहे तो?’’  उन की बात बीच में काट कर अल्पना बोलीं तो रीतेश निरुत्तर हो गए थे. यों दुनिया के रंग को कोई बंद आंखों से नहीं देखते थे वे भी. फिर भी अपने बच्चों से दूर रहना उन्हें तर्कसंगत भी नहीं लग रहा था.

कुछ देर और भी वादविवाद चला पर सब अकारथ ही गया. रीतेश कंपनी के फ्लैट में रहने को तैयार हो गए थे. लेकिन अभी कुछ दिनों तक वहां नहीं रहा जा सकता था क्योंकि जो मुख्य प्रबंधक वहां रह रहे थे, बच्चों की परीक्षा के कारण उसे खाली कर पाने में असमर्थ थे. अत: उस समय तक अल्पना बहूबेटे के साथ रहने को सहर्ष तैयार हो गई थीं.

अल्पना ने अपनी गृहस्थी समेटनी शुरू कर दी थी. कुछ ही दिन रह गए बंबई जाने में. बाजार जा कर बेटी और बहू के लिए कांजीवरम की साडि़यां ले आई थीं. और भी कई प्रकार के उपहार व दुर्लभ वस्तुएं जो बंबई में नहीं मिलतीं, ले कर आई थीं वे. मन में असीम उत्साह था पर आशंकित भी थीं. बेटेबहू के साथ रह कर जिस रिश्ते को रेशमी धागे में पिरोए मोती की लडि़यों की तरह उन्होंने सहेज कर रखा था अब तक, कहीं उलझ न जाए. क्योंकि प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो उस में गांठ तो पड़ ही जाती है.

हवाईजहाज ने सांताक्रूज हवाई अड्डे को छुआ तो उन की व्याकुल नजरें अपने बच्चों को ढूंढ़ रही थीं. कुछ औपचारिकताएं निभाने के बाद वे बाहर आ गए थे. दूर से ही नटखट क्षितिजा का चेहरा दिखा तो पिता ने गले से लगा लिया था बिटिया को.

स्मृतियों का जाल : लाख प्रयास के बावजूद भी वह अपने अतीत को नहीं भूला पा रही थी

वह अच्छी तरह जानती है कि गाड़ी चलाते समय पूरी सावधानी रखनी चाहिए. तमाम प्रयासों के बावजूद उस का मन एकाग्र नहीं रह पाता, भटकता ही रहता है. उस के मन को तो जैसे पंख ही लगे हैं. कहीं भी हो, बस दौड़ता ही रहता है.

वह अपनेआप से बतियाती है. वह चाहती है कि वह जानती है उसे सब जानें. लेकिन वह खुद ही सब से छिपाती है. बस, सबकुछ अपनेआप से दोहराती रहती है. वह सिर को झटकती है. विचारों को गाड़ी के शीशे से बाहर फेंकना चाहती है. पर वह और उस की कहानी दोनों साथसाथ चलते हैं. अब तो उसे अपने विचारों के साथसाथ चलने की आदत हो गई है. उस के अंतर्मन और बाहरी दुनिया दोनों के बीच अच्छा तारतम्य बैठ गया है.

उस की स्मृतियों में भटकते रहते हैं उस के जीवन के वे दिन जो खून के साथ उस की नसों में दौड़ते रहते हैं. वह खेल रही है रेत में मिट्टी, धूल से सनी हुई. उस की गुडि़या भी उस के साथ रहती है. वह घूम रही है खेतों में, गांव के धूलभरे रास्तों में. दादादादी और कई लोग हैं जो उस के साथ हैं. वह भीग रही है. दौड़ रही है.

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घर में मिट्टी के बरतनों में खाने के सामान रखे हैं. बरामदे की अलमारियों में उस की पसंद की मिठाइयां रखी रहती हैं. बाबा रोज स्कूल से आने पर उस से पाठ सुनते हैं. दादी जहां जाती वह उन के साथ जाती, उन के संगसंग घूमती है. ईंधन, चूल्हा, खेतखलिहान, गायभैंस, कुआं, गूलर का पेड़ कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो उस की यादों से कणभर भी धूमिल हुआ हो. पर इन सब स्मृतियों में उस के जन्मदाता कहां हैं? उन की यादों को वह अपने अंतर्मन पर पलटना भी नहीं चाहती. उस की स्मृतियों में उन का स्थान इतना धूमिल सा क्यों है?

दृश्य बदल रहा है. गांव छूट गया है. ममता का घना वृक्ष, जिस की छाया में उस का बचपन सुरक्षित था, वहीं रह गया. अब वह शहर आ गई है. यहां कोई छांव नहीं है. बस, कड़ी धूप है. धूप इतनी तेज थी कि उस का बचपन भी झुलस कर रह गया और उस झुलसन के निशान उस के मन पर छोड़ता गया. अब तो, बस, लड़ाई ही लड़ाई थी – अस्तित्व की लड़ाई, अस्मिता की लड़ाई, अपनेआप को जीवित रखने, मरने न देने की लड़ाई.

उस ने भी इस लड़ाई को जारी रखा. लड़ती रही. उस ने किताबों से दोस्ती कर ली. किताबों के पाठों, कविताओं, कहानियों में खुद को ढूंढ़ती रहती. अपने अंदर बसे हुए डर का सामना करती. वह चलती रही. सब से अलग, अकेली अपनी दुनिया के साथ जीती रही.

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स्मृतियां हमारा पीछा नहीं छोड़तीं. अतीत अगर साथसाथ न चलता तो व्यक्ति का जीवन कैसा होता? क्या तब वह ज्यादा सुखी होता? क्या पता? यह तो तब होता जब व्यक्ति आगे बढ़ता जाता और पिछला भूलता जाता. परंतु ऐसा होता कहां है? बीता हुआ बीतता कब है. वह तो जमा होता रहता है और गीली लकड़ी सा सुलगता रहता है.

बचपन से ले कर अब तक कितने ही साल तक वह सपनों में भी डरती रही. लोगों की उलाहनाएं, दुत्कार उस के मन को दुख और घृणा से भर देते. आत्मविश्वास से हीन, डरपोक वह. हीनभावना उस के दिल पर इस कदर हावी हो गई थी कि उस का अस्तित्व भी लोगों को नजर नहीं आता था. तपती धूप उसे जलाती. जितना वह आगे बढ़ने की कोशिश करती, दिखावटी आवरणों से ढके लोग उसे पीछे ढकेलने में लग जाते अपने पूरे सामर्थ्य के साथ. किंतु अपने सारे डरों के साथ भी वह चलती रही. जितनी ज्यादा ठोकरें लगतीं, उस का हौसला उतना ही मजबूत होता जाता. हालांकि बाहर से वह डरी हुई, घबराई हुई दिखती किंतु उस का आत्मबल, दृढ़ता इतनी पर्याप्त थी कि वह कभी अपने रास्ते से डिगी नहीं.

जीवन चल रहा है, आज वह दुनिया के सामने सफल है. उस के पास अच्छी जौब है, घर है, गाड़ी है, पैसा है. वह मां है, पत्नी है. कुछ भी ऐसा नहीं दिखता जो नहीं है. पर क्या है जो नहीं है? जो नहीं है वह कभी मिलेगा भी नहीं. क्योंकि वह तो कभी था ही नहीं. व्यक्ति जो महसूस करता है, जिस संसार में जीता है, कई बार उस का बाहरी संसार से कोई सरोकार नहीं होता. यहां तो दौड़ है. दूसरे को ढकेल कर खुद आगे निकलने की दौड़. ऐसे में कौन होगा जो उसे समझना चाहेगा, उस की भावनाओं को अहमियत देगा. नहीं, उसे किसी से कुछ नहीं कहना. सबकुछ अपने भीतर ही समेट कर रखना है.

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सबकुछ अपने अंदर ही जब्त करतेकरते उस की उम्र ही गुजर गई. अब वह उम्रदराज हो गई है. पर उस के मन की उम्र नहीं बढ़ी. अभी भी वह अपने आधेअधूरे सपनों की दुनिया में ही जीती है.

पर अब उसे घुटन होने लगी है. अपनेआप को सीमाओं में बांधे रहने की अपनी प्रकृति से उसे खीझ होती. कब तक वह इसी तरह जिएगी. अब वह सब छोड़ देना चाहती है. भाग जाना चाहती है. उसे अपना अस्तित्व एक पिंजरे में कैद पंछी जैसा लगता. हर आकर्षण, हर इच्छा को वह सब अपने अंदर ही अंदर जीती है और धीरेधीरे उसे खत्म कर देती है. उसे अपना जिस्म, अपना मन सब बंधे हुए महसूस होते. दायरे, सीमाएं, विवेक सब बंधन हैं जो मनुष्य के जीवन को गुलाम बना लेते हैं. इस गुलामी की बेडि़यां इतनी मजबूत होती हैं कि मनुष्य चाह कर भी उन्हें तोड़ नहीं पाता.

उसे अब किसी से भी द्वेष नहीं होता. अपने जन्मदाताओं से भी नहीं जिन्होंने उसे जीवन की दौड़ में अकेला छोड़ दिया. उन्होंने अपनाअपना जीवन जी लिया. अगर वे भी बंधे रहते तो क्या पता उन का जीवन भी उसी के जैसा हो जाता, घुटन भरा.

वह अब स्वप्न देख रही है. वह उड़ रही है. मुक्त आकाश में विचरण कर रही है. हंस रही है. वर्षों से जमा मैल साफ हो गया है. असंभव अब संभव हो गया है. बेडि़यों को झटक कर अब वह आजाद हो गई है.

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मैं झेलम ऐक्सप्रैस से पुणे से जम्मू जा रही थी. मैं सैकंड एसी में थी. मेरी ऊपर की सीट पर एक युवक बैठा हुआ था. उस की सीट से 2 बार सामान नीचे गिरा, तो मुझे अच्छा नहीं लगा.

मैं ने उसे झिड़क कर कहा, ‘‘ठीक से क्यों नहीं बैठते?’’

उस ने ‘सौरी’ कहा और फिर कान में इयरफोन लगा कर गाने सुनने  में मस्त हो गया.

इस बार तो मैं नियंत्रण नहीं रख पाई जब उस का पानी से भरा गिलास ही नीचे गिर गया और मेरा कंबल भीग गया. मैं ने कंबल झटका और खड़ी हो कर गुस्से से बोली, ‘‘तुम्हें सफर करने की तमीज नहीं? तुम्हें नीचे की सीट पर बैठने वाले का कोई खयाल नहीं.’’

मेरे आगबबूला होने पर भी वह जब चुपचाप रहा, तब कुछ अटपटा सा लगा और उस ने जब बिना उंगलियों वाले अपने हाथ दिखाए तो मैं अवाक रह गई. अब मैं ने सौरी कहा और चुपचाप लेट गई. मुझे अपने व्यवहार पर शर्मिंदगी हो रही थी.

अचानक रात को एसी के चलते ठंड लगने से मुझे तेज कंपकंपी आई और शरीर तपने लगा. मैं ने बराबर की सीट पर लेटी महिला से कहा, ‘‘क्या आप मेरी मदद कर सकती हैं, यह चाबी ले लीजिए और मेरे ब्रीफकेस को खोल दें. इस में पैरासिटामोल है, मैं ले लूंगी. और अटैंडैंट से कह कर एक कंबल दिलवा दीजिए.’’

उस महिला ने पता नहीं सुना या नहीं, वह करवट ले कर लेट गई. मैं कांप रही थी, तभी मुझे एहसास हुआ, कोई मुझे जगा रहा है. देखा, तो वह ऊपर वाला लड़का एक गिलास में पानी और दवाई की एक स्ट्रिप लिए खड़ा था. शायद उस ने अटैंडैंट से भी कह दिया होगा. तभी वह 2 कंबल ले आया.

वह लड़का बोला, ‘‘आंटीजी, पैरासिटामौल है, आप डेट चैक कर लीजिए और ले लीजिए. एक कंबल नीचे बिछा लीजिए. मैं आप की हैल्प करता हूं.’’ उस का ही सहारा ले कर मैं खड़ी हुई, कंबल बिछाया और दवाई ली. सुबह मेरी तबीयत ठीक थी. मैं ने आंखें खोलीं, तो देखा वह चाय वाले से कह रहा था, ‘‘आंटीजी को भी एक चाय दे दो.’’

मुझ में अब उस लड़के को धन्यवाद कहने की भी हिम्मत नहीं थी.

चिंता-लता के मन में अचानक सुशील के लिए प्यार क्यों आने लगा था

बलदेवसिंह महरोक

लता के पति घर से क्या गए, उस का मन दुश्चिताओं से भर गया. क्या वह दुर्घटना के शिकार हो गए? क्या किसी ने उन का सबकुछ छीन लिया?

बुधवार को दिन भर लता अपने पत  के लौटने की प्रतीक्षा करती रही. घर के मुख्यद्वार पर जरा सी आहट होने पर उस की निगाहें खुद ब खुद बाहर की ओर उठ जाती थीं. एक बार तो उसे लगा जैसे कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा हो. आशा भरे मन से उस ने दरवाजा खोला. देखा तो एक पिल्ला दरवाजे से अंदर घुसने का व्यर्थ प्रयास कर रहा था, जिस के कारण खटखट की आवाज हो रही थी. देख कर लता के होंठों पर मुसकराहट तैर गईर्. अगले ही पल निराश हो कर वह फिर लौट आईर्.

पिछले शनिवार को उस के पति इलाहाबाद गए थे. उस दिन अचानक उन्हें अपने मुख्य अधिकारी की ओर से इलाहाबाद जाने का आदेश प्राप्त हुआ था. कुछ गोपनीय कागजात सुबह तक वहां जरूरी पहुंचाए जाने थे, इसलिए वह रात की गाड़ी से ही रवाना हो गए थे. लता को यह बता कर गए थे कि एकदो दिन का ही काम है, मंगलवार को वह हर हालत में वापस लौट आएंगे.

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मंगलवार की शाम तक तो लता को अधिक फिक्र नहीं थी परंतु जब बुधवार की शाम तक भी उस के पति नहीं लौटे तो उसे चिंता सताने लगी. उसे लगा, जैसे उन्हें घर से गए महीनों बीत गए हों. जब देर रात गए तक भी पति महोदय नहीं आए तो उस के मन में बुरेबुरे विचार आने लगे. वह सोने का असफल प्रयास करने लगी. कभी एक ओर करवट लेती तो कभी दूसरी ओर, पर नींद जैसे उस से कोसों दूर थी.

‘कहां रुक सकते हैं वह,’ लता सोचने लगी, ‘कहीं गाड़ी न छूट गई हो. लेकिन अगर गाड़ी छूट गई होती तो अगली गाड़ी भी पकड़ सकते थे. कल न सही, आज तो आ ही सकते थे.

‘हो सकता है उन की जेब कट गई हो और सभी पैसे निकल गए हों. ऐसे में उन्हें बड़ी मुश्किल हो गई होगी. वापसी पर टिकट लेने के लिए उन के सामने विकट समस्या खड़ी हो गई होगी.’

पर दूसरे ही क्षण लता उस का समाधान भी खोजने लगी, ‘इस के बावजूद तो कई उपाय थे. वहां स्थित अपने कार्यालय के शाखा अधिकारी को अपनी समस्या बता कर पैसे उधार मांग सकते थे. वहां के शाखा अधिकारी यहीं से तो स्थानांतरित हो कर गए हैं और उन के अच्छे दोस्त भी हैं. हां, उन की कलाई पर घड़ी भी तो बंधी है, उसे बेच सकते हैं. नहीं, उन की जेब नहीं कटी होगी. अब तक न आ सकने का कोई और ही कारण रहा होगा.

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‘हो सकता है स्टेशन पर उन का सामान चुरा लिया गया हो. तब तो वह बड़ी मुसीबत में फंस गए होंगे. उन के ब्रीफकेस में तो दफ्तर के बहुत सारे महत्त्वपूर्ण कागज थे. यदि ऐसा हो गया तो अनर्थ हो जाएगा. फिर तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा. अपनी नौकरी के बचाव के लिए अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाना पड़ेगा. कैसी भयावह स्थिति होगी वह?’

यह सोच कर लता की आंखों के सामने कई प्रकार के भयानक दृश्य घूमने लगे.

‘नौकरी छूट गई तो दरदर भटकना पड़ेगा. आजकल दूसरी नौकरी कहां मिलती है? हर महीने मिलने वाला वेतन एकदम बंद हो जाएगा. तनख्वाह के बिना गुजारा कैसे चलेगा? मकान का किराया कहां से देंगे? बच्चों की फीस, किताबें, घर का अन्य खर्च, इतना सबकुछ. कटकटा कर उन्हें हर माह 2,200 रुपए तनख्वाह मिलती है. सब का सब घर के अंदर व्यय हो जाता है. लेकिन अगर यह पैसा भी मिलना बंद हो गया तो कहां से करेंगे ये सब खर्च?

‘यदि ऐसी नौबत आ गई तो कोई अन्य उपाय करना होगा…हां, अपने मायके से कुछ मदद लेनी होगी. पर वह भी आखिर कब तक हमारी सहायता करेंगे? बाबूजी, मां, भैया, भाभी और उन के छोटेछोटे बच्चे…उन का भी भरापूरा परिवार है. उन के अपने भी तो बहुत सारे खर्चे हैं. अंत में तो उन्हें खुद ही कुछ न कुछ अपनी आमदनी का उपाय करना होगा.

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‘हां, एक बात हो सकती है,’ लता को उपाय सूझा, ‘मैं अपने पिताजी से कहसुन कर उन्हें कोई छोटीमोटी दुकान खुलवा दूंगी. कितने कष्टदायक दिन होंगे वे भी. क्या हमारे लिए दूसरों का मोहताज बनने की नौबत आ जाएगी.’

लता सोचतेसोचते एक बार फिर वर्तमान में लौट आईर्. दोनों बच्चे चारपाई पर हर बात से बेखबर गहरी नींद सो रहे थे. वह सोचने लगी, ‘काश, वह खुद भी एक बच्ची होती.’

बाहर घुप अंधेरा छाया हुआ था. दूर कहीं से कुत्ते भूंकने की आवाज रात के सन्नाटे को तोड़ रही थी. उस ने अनुमान लगाया कि रात के 12 बज चुके होंगे. उस ने सिर को झटका दिया, ‘मैं तो यों ही जाने क्याक्या सोचने लगी हूं. बाहर जाने वाले को किसी कारण ज्यादा दिन भी तो लग सकते हैं.’

लता ने अपने मन को समझाने की पूरीपूरी कोशिश की. दुश्ंिचताएं उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं. न चाहते हुए भी उसे तरहतरह के खयाल सताने लगते थे.

‘नहीं, उन का सामान चोरी नहीं हुआ होगा. तो फिर वह अभी तक लौटे क्यों नहीं थे? कल तो उन्हें जरूर आ जाना चाहिए,’ और तब लता को पति पर रहरह कर गुस्सा आने लगा, अगर ज्यादा ही दिन लगाने थे तो कम से कम तार द्वारा तो सूचना दे ही सकते थे. फोन पर भी बता सकते थे कि वह अभी नहीं आ सकेंगे…आ जाएं एक बार, खूब खबर लूंगी उन की. आएंगे तो दरवाजा ही नहीं खोलूंगी. पर दरवाजा तो खोलना ही होगा. मैं उन से बात ही नहीं करूंगी. बेशक, जितना जी चाहे मनाते रहें. खूब तंग करूंगी. चाय तक के लिए नहीं पूछूंगी. वह समझते क्या हैं अपनेआप को. पता नहीं, जनाब वहां क्या गुलछर्रे उड़ा रहे होंगे. उन्हें क्या पता यहां उन की चिंता  में कोई दिनरात घुले जा रहा है.’

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अगले क्षण उसे किसी अज्ञात भय ने घेर लिया, ‘कहीं वह किसी औरत वगैरह के चक्कर में न पड़ गए हों. आजकल बड़ेबडे़ शहरों में कई पेशेवर औरतें केवल अजनबी व्यक्तियों को फंसाने के चक्कर में रहती हैं. जरूर ऐसा ही हुआ होगा. उन्हें फंसा कर उन का सब कुछ लूट लिया होगा. पर ऐसा नहीं हो सकता. वह आसानी से किसी के चंगुल में फंसने वाले नहीं हैं. जरूर कोई अन्य कारण रहा होगा.’ लता के दिलोदिमाग में अजीब तर्कवितर्क चल रहे थे.

ऐसी कौन सी वजह हो सकती है जो वह अभी तक नहीं लौटे. कहीं कोई दुर्घटना वगैरह तो नहीं हो गई? नहीं, नहीं…लता एक बार तो भीतर तक कांप उठी.

‘रिकशा से स्टेशन आते समय कोई दुर्घटना…नहीं, नहीं…बस दुर्घटना या रेलगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई हो. अगर चोट लगी होगी तो किसी अस्पताल में पड़े कराह रहे होंगे…नहीं, नहीं, उन्हें कुछ नहीं हो सकता.’ लता मन ही मन पति की सलामती के लिए कामना करने लगी.

‘अगर ऐसी कोई दुर्घटना हुई होती तो अब तक अखबार, रेडियो या टेलीविजन पर खबर आ जाती.’

लता चारपाई से उठी और अलमारी में से पिछले 3-4 दिन के समाचारपत्र ढूंढ़ कर ले आई. उस ने अखबारों के सभी पन्ने उलटपलट कर एकएक खबर देख डाली. इलाहाबाद की किसी भी दुर्घटना की खबर नहीं थी.

‘यह मैं क्या उलटासीधा सोचने लगी. कितनी मूर्ख हूं मैं,’ लता ने अपनेआप को चिंता के भंवर से मुक्त करना चाहा. पर उस का व्याकुल मन उसे घेरघार कर फिर वहीं ले आता. उसे लगता, जैसे उस के पति अस्पताल में पड़े मौत से जूझ रहे हों.

‘वहां तो उन की देखभाल करने वाला कोई भी नहीं होगा. बेहोशी की हालत में वह अपना अतापता भी नहीं बता पाए होंगे. कहीं वह वहीं पर दम न तोड़ गए हों. नहीं, नहीं, उन का लावारिस शव…यह सोच कर वह अंदर तक सिहर उठी. उस ने पाया कि उस की आंखें गीली हो गई हैं और आंसुओं की बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं. अपनी नादान सोच पर उसे हंसी भी आई और गुस्सा भी.

‘यह मुझे क्या होता जा रहा है. जागते हुए भी मुझे कैसेकैसे बुरे सपने आने लगे हैं.’ लता कल्पना की आंखों से देख रही थी कि कुछ लोग उस के पति के शव को गाड़ी पर लाद कर ले आए हैं. घर पर भीड़ जमा हो गई है. चारों ओर हंगामा मचा हुआ है. लोग उस से सहानुभूति जता रहे हैं.’

उस ने एक बार फिर उन विचारों को अपने दुखी मन से झटक देना चाहा, पर विचारों की उड़ान पर किस का वश चलता है.

‘उन के मरने के बाद मेरा क्या होगा? उन के अभाव में यह पहाड़ सी जिंदगी कैसे कटेगी,’ लता के विचारों की शृंखला लंबी होती जा रही थी.

‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. ऐसे में दूसरी शादी…नहीं, नहीं, किस से शादी करूंगी मैं? इस उम्र में कौन थामेगा मेरा हाथ. क्या कोई व्यक्ति उस के दोनों बच्चों को अपनाने के लिए राजी हो जाएगा. कौन करेगा इतना त्याग, पर मैं अभी इतनी बूढ़ी तो नहीं हो गई हूं कि कोई मुझे पसंद न करे. 24 वर्ष की उम्र ही क्या होती है. 2 बच्चों को जन्म देने के बाद भी मैं सुंदर व अल्हड़ युवती सी दिखाई देती हूं. उस दिन पड़ोस वाली कमला चाची कह रही थीं, ‘लता, लगता ही नहीं तुम 2 बच्चों की मां हो. अगर साथ में बच्चे न हों और मांग में सिंदूर न हो तो कोई पहचान ही नहीं सकता कि तुम विवाहिता हो.’

फिर एकाएक लता को सुशील का ध्यान हो आया, ‘सुशील अविवाहित है. कई बार मैं ने सुशील को प्यार भरी नजरों से अपनी ओर निहारते पाया है. वह अकसर मेरे बनाए खाने की तारीफ किया करता है. मुझे खुद भी तो सुशील बहुत अच्छा लगता है. सुशील सुदर्शन है, सभ्य है, मनमोहक व्यक्तित्व वाला है. वह उन का दोस्त भी है. यहां घर पर आताजाता रहता है. मैं किसी के माध्यम से उस के दिल को टोहने का प्रयास करूंगी. यदि वह मान गया तो उस के साथ मेरा जीवन खूब सुखमय रहेगा. वह उन से ऊंचे पद पर भी है. आय भी अच्छी है. उस के पास कार, बंगला सबकुछ है. वह जरूर मुझ से विवाह कर लेगा,’ लता अनायास मन ही मन खुद को सुशील के साथ जोड़ने लगी.

‘मैं सुशील के साथ हनीमून भी मनाने जाऊंगी. वह मुझे कश्मीर ले जाने के लिए कहेगा. मैं ने कभी कश्मीर नहीं देखा है. उन्होंने कभी मुझे कश्मीर नहीं दिखाया. कितनी बार उन से अनुरोध किया कि कभी कश्मीर घुमा लाओ, पर वह हमेशा टालते रहे हैं. पर मुन्ना और मुन्नी? उन को मैं यहीं उन के नानानानी के पास छोड़ जाऊंगी.’

सुशील के साथ प्रेम क्रीड़ा, छेड़छाड़ इत्यादि क्षण भर में ही लता कई बातें अनर्गल सोच गईर्.

कश्मीर का काल्पनिक दृश्य, तसवीरों में देखी डल झील, शिकारे, हाउस बोट, निशात बाग, शालीमार बाग, गुलमर्ग इत्यादि के बारे में सोच कर उस का मन रोमांचित हो उठा.

एकाएक उस की तंद्रा भंग हो गई. बाहर दरवाजे पर दस्तक हो रही थी. लता कल्पनाओं के संसार से मुक्त हो कर एकाएक वास्तविकता के धरातल पर लौट आईर्. अपने ऊटपटांग विचारों को स्मरण कर के वह ग्लानि से भर गई, ‘कितने नीच विचार हैं मेरे. क्या मैं इतना गिर गई हूं? क्या इतनी ही पतिव्रता हूं मैं?’ लता को लगा जैसे अभीअभी उस ने कोई भयंकर सपना देखा हो.

बाहर कोई अब भी दरवाजा खटखटा रहा था. ‘इतनी रात गए कौन हो सकता है?’ लता सोचती हुई उठी और आंगन में आ गईर्. दरवाजा खोला, देखा तो उस के पति ब्रीफकेस हाथ में लिए सामने खड़े मुसकरा रहे थे. वह दौड़ कर उन से लिपट गई.

प्रसन्नता के मारे उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

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