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शिक्षा माफिया : भाग 3- निजी स्कूलों में शिक्षकों की स्थित लेबर से भी बदतर क्यों थी

मालिक के पास स्कूल के अलावा शराब की भट्ठी थी. वे प्रौपर्टी का भी काम करते थे. सरकारी अधिकारियों विशेषरूप से स्कूल से जुड़े लोगों के क्या चोंचले होते हैं, उन्हें कुछ पता नहीं था. लिहाजा उन की आवभगत करने व बातचीत कर के मामला सुलझाने के लिए एक स्कूल का ही आदमी नियुक्त कर दिया गया था. इसे विडंबना ही कहेंगे कि शिक्षा का एबीसी न जानने वाला शिक्षा व्यवसाय से जुड़ा था. व्यवसाय भी ऐसा जिस में कोई रिस्क नहीं, सिवा लाभ के. हर साल बच्चे पैदा किए जा रहे हैं इस लालच में कि पढ़ते ही उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएगी. शिक्षा का मकसद क्या है, यह कोई समझना नहीं चाहता और न ही इस पर चर्चा करता है कि शिक्षा का स्तर क्या होना चाहिए. येनकेनप्रकारेण उसे अच्छे अंक चाहिए. ताकि इन अंकों के बल पर सरकारी नौकरी मिल जाए. यही मकसद अभिभावकों और बच्चों का हो गया है. तभी तो स्कूल मालिकों ने सख्त निर्देश दे रखा है कि कोई बच्चा फेल न हो. नंबर खुल कर दिए जाने चाहिए ताकि अभिभावकों को तर्कवितर्क करने का मौका न मिले. नंबर कम मिलने पर ही तो अभिभावक स्कूल के प्रधानाचार्यों और अध्यापकों से किचकिच करते हैं तथा फीस देने में हीलाहवाली करते हैं.

मुआयने के 4 दिन पहले अध्यापकों से कहा गया था कि वे अपनी कक्षा में उस दिन 40 से ज्यादा बच्चे न रखें. यह अब उन्हें तय करना था कि किस बच्चे को हटाएं, किस की छुट्टी कर दें. अध्यापकों ने भरसक कोशिश की उन्हीं बच्चों को बुलाने की जो पढ़ने में ठीक थे. उन्हीं को उस रोज आगे की बैंच पर बैठाने का मन बनाया. सारे अध्यापकों को एक फर्जी उपस्थिति पंजिका दी गई. जिस में उन्हें अप्रैल से ले कर अब तक उन बच्चों के नाम भरने थे जो उस रोज आने थे. बड़ा ही दुरूह काम था. अध्यापक मन ही मन कुढ़ रहे थे. ‘‘अब पढ़ाने लिखाने के अलावा यह भी काम करें. निजी स्कूलों में अध्यापकों की स्थिति लेबरों से भी गईगुजरी होती है,’’ विपिन सर बोले.

‘‘प्रधानाचार्यजी कहते हैं कि जो तेज बच्चे हैं उन का नाम जरूर रजिस्टर पर दर्ज करिएगा. कमजोर बच्चों को उस रोज मत बुलाइगा,’’ अशोक सर हंसते हुए बोले. एक मैडम इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उसी लहजे में बोलीं, ‘‘सर, यहां तो 75 प्रतिशत कमजोर ही हैं.’’ सब हंस पड़ते हैं.

‘‘4 हजार रुपए में हम कमजोर बच्चे ही तो पैदा करेंगे. क्या सोचते हैं कि दो दूनी चार पढ़ाएंगे, हरगिज नहीं. दो दूनी छह ही पढ़ाएंगे?’’ मनोरमा मैम चिढ़ कर बोलीं. हालांकि उन्हें अफसोस भी हुआ कि उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था. इस में बच्चों का क्या दोष? बहरहाल, सख्त निर्देश दिया गया कि उपस्थिति पंजिका पर कोई काटकूट न हो. रविवार और त्योहार का सहीसही उल्लेख हो. जिस का डर था, वही हुआ. एक अध्यापिका ने जल्दी व लापरवाही के चक्कर में रविवार में भी बच्चों की उपस्थिति बना दी. वह तो एक अध्यापिका का ध्यान उस पर पड़ गया वरना लेने के देने पड़ सकते थे. होता कुछ नहीं, हां, बोर्ड के अधिकारियों को कमाने का एक बहाना और मिल जाता. एक अध्यापक ने पुरानी उपस्थिति पंजिका का जिक्र प्रधानाचार्य महोदय से किया तो वे बोले, ‘‘फिलहाल उस रोज उसे रद्दी के गोदाम में डाल दिया जाएगा. बोर्ड के अधिकारियों की नजर उस पर नहीं पड़नी चाहिए.’’

‘‘क्या वे असलियत नहीं जानते होंगे?’’

‘‘जानते होंगे मगर हमें तो सतर्क रहना होगा. वरना जितनी खामी उतना चढ़ावा,’’ वे मुसकरा कर चले गए.

‘‘इतना नाटक करने की क्या जरूरत है,’’ उक्त अध्यापक महोदय दूसरे अध्यापक से बोले.

‘‘करने की है, आप क्या समझते हैं कि ऐसे ही मान्यता मिल जाएगी. बाकायदा वीडियोग्राफी होगी. उस की एक कौपी बोर्ड को भेजी जाएगी,’’ दूसरे अध्यापक ने खुलासा किया.

सारी कक्षाओं की सफाई हुई. अनावश्यक बैंचों को हटा दिया गया. करीने से बैंचों को सजाया गया. बच्चों को सख्त हिदायत दी गई कि उस रोज वे साफसुथरी ड्रैस में आएंगे तथा जिन को मना किया गया, वे न आएं. बच्चों में जिज्ञासा जगी. वे एकदूसरे से पूछताछ करने लगे. अध्यापकों से पूछा तो उन्होंने इतना ही बताया कि सरकारी अधिकारी आ रहे हैं. वे अच्छे बच्चों को इनाम देंगे. मगर क्या बच्चे इतने मूर्ख होते हैं जितना अध्यापक समझते हैं. वे जान ही गए कि स्कूल को मान्यता मिलने वाली है. मुआयने वाले दिन एलकेजी तथा यूकेजी को बर्खास्त रखा गया था. जिस कक्षा के सामने एलकेजी तथा यूकेजी का नाम लिखा गया था उसे तत्काल मिटा कर कक्षा 1 और 2 लिखा गया. 12वीं की भी पढ़ाई सस्पैंड रखी गई थी. जिस कमरे में रोजाना अध्यापकगण बैठ कर खाली पीरियड में सुकून की सांस लेते व खाना खाते थे, उस को उस रोज कबाड़खाना बना दिया. उन सारे डौक्यूमैंट, जिन्हें बोर्ड के अधिकारियों के सामने नहीं लाने थे, को उसी में एक दिन के लिए दफन कर दिया गया था.

अध्यापकगण परेशान कि उस रोज खाना कहां खाएंगे. तब प्रधानाचार्य ने उन्हें नया कमरा दिखलाया. हाल में निर्मित उस कमरे में बड़े ही व्यवस्थित ढंग से बैंचें और कुरसियां लगाई गई थीं. हाथ धोने के लिए बेसिन भी लगाया गया था. एक तौलिए की भी व्यवस्था की गई. उसे देख कर अध्यापकों को अपनेआप से रश्क होने लगा. उन्हें अपना वह कमरा भी याद आने लगा जो किसी गोशाले के तबेले से कम नहीं था. एक बड़ी सी खिड़की मगर बिना दरवाजे की. गरमी में जब लू बहती तो उस की गरम हवाएं उन के चेहरे को झुलसा जातीं. मालिक से लाख कहा गया कि कम से कम एक दरवाजा तो लगवा दें ताकि मौसम के हिसाब से उस का इस्तेमाल किया जा सके. मगर नहीं, उलटे, उन का जवाब होता, नौकरी करनी हो तो करो. हमारे पास आदमियों की कोई कमी नहीं है. अभी 5 हजार रुपए दे रहा हूं. नई भरती करूंगा तो लोग 4 हजार रुपए पर ही काम के लिए मारामारी करने लगेंगे. अध्यापक सुन कर सन्न रह जाते. हो न हो, निकाल ही देंगे तो तत्काल कहां जाएंगे.

न संगीत कक्ष था न ही कोई लाइबे्ररी. मगर मुआयने वाले दिन अधिकारियों को तो दिखाना ही था कि हमारे यहां सब सुविधाएं आप के नियमों के अनुसार उपलब्ध हैं. उपेक्षित से पड़े एक कमरे को संगीतकक्ष बनाया गया. किराए पर तबला, हारमोनियम और सितार मंगवाए गए. एक महिला अध्यापिका, जिन का संगीत से सिर्फ इतना ही नाता था कि तान के नाम पर बहुत हुआ फिल्मी गाना गा दिया और नाचने के नाम पर उस गाने पर कमर मटका दी, बस इतना ही वे जानती थी, को संगीत अध्यापिका बना दिया गया. इस तरह सारी तैयारियां लगभग पूरी कर ली गईं.

 

 

संपादकीय

देश में सरकार के खिलाफ हर बात कहने वाले के साथ अब यही सलूक हो रहा है जो हमारी पौराणिक कहानियों में बारबार दोहराया गया है. हर ऋ षिमुनि इन कहानियों में जो भी एक बार कह डालता, वह तो होगा ही विश्वामित्र को यज्ञ में रखवा देने वाले राक्षसों को मरवाना था तो दशरथ के राज दरबार में गुहार लगाई कि रामलक्ष्मण को भेज दो. दशरथ ने खूब बिनती की कि दोनों बच्चे हैं, नौसिखिए हैं पर विश्वमित्र ने कह दिया तो कह दिया. वह नहीं माने.

कुंती को बरदान मिला कि वह जब चाहे जिस देवता को बुला सकती है. सूर्य को याद किया तो आ गए पर कुंती ने लाख कहा कि वह बिना शादीशुदा है और बच्चा नहीं कर सकती पर सूर्य देवता नहीं माने और कर्ण नहीं माने और उसे जन्म के बाद पानी में छोडऩा पड़ा और उसे गंगा में बहा दिया.

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अब चाहे पश्चिमी बंगाल हो, कश्मीर का मुद्दा हो, किसानों के कानून हों, जजों की नियुक्ति हो, लौकडाउन हो, नोटबंदी हो, जीएसटी हो, सरकार के महाॢषयों ने एक बार कह दिया तो कह दिया. अब तीर वापिस नहीं आएगा. कोविड के दिनों में तय था कि वैक्सीन बनी तो देश को 80 करोड डोज चाहिए होंगी पर नरेंद्र मोदी को नाम कमाना था पर लाखों जज भारतीयों को न दे कर 150 देशों में भेज दी गई जिन में से 82 देशों को तो मुक्त दी गई है. भारत में लोग मर रहे हैं, वैक्सीन एक आस है पर फैसला न लिया तो ले लिया.

यह हर मामले में हो रहा है. पैट्रोल, डीजल, घरेलू गैस के दाम बढ़ रहे हैं तो कोई सुन नहीं रहा. चुनाव तो ङ्क्षहदूमुसलिम कर के जीत लिए जाएंगे. नहीं जीते तो विधायकों को खरीद लेंगे जैसे कर्नाटक, असम, मध्यप्रदेश में किया.

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जनता की न सुनना हमारे धर्मग्रंथों में साफसाफ लिखा है. राजा सिर्फ गुरुओं की सुनेगा चाहे इस की वजह से सीता का परित्याग हो, …… का वध हो, ……का अंगूठा बच्चा हो, जनता बीच में कहीं नहीं आती. यह पाठ असल में हमारे प्रवचन करने वाले शहरों में ही नहीं गांवों में भी इतनी बार दोहराते हैं कि लोग समझते हैं कि राज करने का यही सही तरीका है. भाजपा ही नहीं कांग्रेस भी ऐसे ही राज करती रही है, ममता बैनर्जी भी ऐसे ही करती हैं, उद्धव ठाकरे भी.

यह हमारी रगरग में बस गया है कि किसी की न सुनो. हमारा हर नेता, हर अफसर अपने क्षेत्र में अपनी चलाता है चाहे सही हो या गलत. यह तो है कि जब 10 फैसले लोगे तो 5 सही ही होंगे. पर 5 जो खराब हैं, गलत हैं, दुखदायी हैं, जनता को पसंद नहीं है. तो दुर्वास्त मुनि की तरह जम कर बैठ जाने का क्या मतलब? आज सरककार लोकतंत्र की देन है, संविधान की देन है पुराणों की नहीं. पौराणिक सोच हमें नीचे और पीछे ङ्क्षखच रही है. हर जना आज परेशान है, आज धन्ना सेठों को छोड़ कर हर किसान, मजदूर, व्यापारी परेशान है पर वह भी यही सोचता है कि राजा का फैसला तो मानना ही होगा. उस के गले से आवाज नहीं निकलती.

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यह हर गरीब को ले डूबेंगी. गरीब हजारों सालों से गरीब रहा क्योंकि वह बोला नहीं. उस ने पढ़ा नहीं, समझा नहीं, जाना नहीं, इंदिरा गांधी ने इस का फायदा उठाया. आज मोदी उठा रहे हैं. जिस अच्छे दिन की उम्मीद लगा रखी थी वह आएगा तो तब जब अच्छा होता क्या है यह कहने का हक होगा और सुनने वाला सुनेगा.

शिक्षा माफिया : भाग 2- निजी स्कूलों में शिक्षकों की स्थित लेबर से भी बदतर क्यों थी

‘‘नहीं मैम, आप सब को बोर्ड से तय सैलरी ही मिलेगी.’’ विपिन सर के चेहरे की मुसकान बता रही थी कि वे अपने कथन को ले कर गंभीर नहीं हैं यानी कोरी बकवास. फिर भी दिल बहलाने में क्या जाता है. मुआयने के 3 रोज पहले सभी अध्यापकों से कहा गया कि वे अपनेअपने मूल अंक प्रमाणपत्र औफिस में जमा करवा दें. मुआयने के बाद उसे लौटा दिया जाएगा. एक सैलरीशीट बनी. जिस पर क्लर्क को साढ़े 9 हजार रुपए तो अध्यापक को उस की योग्यता के अनुसार 15 से ले कर 20 हजार रुपए तक की सैलरी दर्शाई गई. सभी को यह फर्जी नियुक्तिपत्र दिया गया. स्कूल वालों ने दस्तखत करवा के एक अपने पास रखा, दूसरा अध्यापकों को दिया.

प्रधानाचार्य रामविलास चौबे ने स्वयं एक गोपनीय दौरा सभी कक्षाओं में कर के अध्यापकों से पूछा कि क्या उन के पास कोई और प्रोफैशनल डिगरी है? संयोग से एक अध्यापिका के पास बीएड के अलावा बीलिब की भी डिगरी थी. प्रधानाचार्य ने तत्काल उसे फर्जी लाइबे्ररी का इंचार्ज बना दिया. जबकि वह अध्यापिका का काम कर रही थी. ऐसे ही एक अध्यापक मुकुलचंद्र, जो 20 साल से अध्यापन का काम कर रहे थे, को एक दिन का प्रधानाचार्य बना दिया गया क्योंकि उन के पास बीएड की डिगरी थी. वर्तमान प्रधानाचार्य, जो मालिक की चापलूसी कर के प्रधानाचार्य बने थे, के पास सिर्फ मास्टर डिगरी थी. चूंकि बोर्ड को कागजी खानापूर्ति मुकम्मल चाहिए थी, सो मुकुलचंद्र प्रधानाचार्य बना दिए गए. एक दिन के लिए ही सही, वे फूले नहीं समा रहे थे. वे रामविलास से खुन्नस खाए हुए बैठे थे. इसी बहाने वे उसे नीचा दिखा तो सकेंगे.

स्कूल के प्रबंधक व अमीन चिरौरी लाल को कुछ समय के लिए अमीनी से हटा कर दूसरे जरूरी काम में लगा दिया गया, जैसे हर कक्षा की लंबाईचौड़ाई नाप कर लिखना. बाथरूम भी इस में शामिल था. खेल के मैदान की दीवारों पर राष्ट्रीय स्तर के खेलों की तसवीरें उकेरी गईं. ताकि बोर्ड के सदस्यों को लगे कि यहां खेलकूद की अच्छी व्यवस्था है. जबकि असलियत यह थी कि सिवा वौलीबौल के यहां कोई खेल नहीं होता था. खेल के पीरियड में बहुत हुआ तो एक बौल थमा दी गई बच्चों को. उसी से 10 बच्चे अपनी खेल की प्यास बुझाते. वह भी इंटर के विद्यार्थी. छोटी कक्षा के बच्चों को कुछ नहीं दिया जाता था. वे सिर्फ परंपरागत खेल खोखो, कबड्डी ही खेलते या फिर छिपाछिपी खेल कर अपना समय गुजारते. मालिक सिर्फ स्कूल की बिल्ंिडग और हिसाब लेने आते, जैसे कितनी सीमेंट लगी कितनी ईंट. आज फीस कम क्यों आई. बकाया की कितनी वसूली हुई. नहीं हुई तो चिरौरी लाल को डांटफटकार की कि तुम कुछ नहीं करते हो. हराम की सैलरी लेने की तुम लोगों की आदत हो गई है. 2 महीने सैलरी किसी को नहीं दूंगा तो दिमाग ठिकाने आ जाएंगे.

बेकुसूर होने के बावजूद चिरौरी लाल के पास भीगी बिल्ली बने रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. अब क्या वह गार्जियन का गला पकड़ कर फीस वसूले. कितनी बार स्कूल से घर भिजवा दिया बच्चों को. क्लास से निकाल कर मैदान में खड़ा करवा दिया. गार्जियन इतने बेहया थे कि फीस देने में उन की नानी याद आ जाती. एक दिन चिरौरी लाल बड़ा दुखी था, कहने लगा, ‘मालिक को सिर्फ रुपयों से मतलब है. बात तक नहीं करते जब तक की पर्याप्त वसूली नहीं हो जाती. पिछले साल 40 लाख रुपए का बकाया था. 15 दिनों का समय दिया. इस बीच कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे. कैसेकैसे हथकंडे अपना कर 30 लाख रुपए की वसूली करवाई, तब कहीं जा कर उन का मुंह सीधा हुआ.’ चिरौरी लाल की नौकरी सूली पर चढ़ने जैसी थी. वह छोड़ भी नहीं सकता था. कहने लगा, ‘‘व्यापार किया था. मुश्किल से 2 हजार रुपए भी नहीं मुनाफा कमा पाता था. इतनी प्रतिस्पर्धा थी. सो, आजिज आ कर नौकरी करने लगा.’

एक अध्यापिका ने सिर्फ मालिक से इतना जानना चाहा कि सर, सैलरी बढ़ाने का क्या मापदंड है तो जनाब हत्थे से उखड़ गए, ‘इस बार 200 रुपए बढ़ा दिए अगली बार वह भी नहीं बढ़ाऊंगा. काम करना है तो करिए.’ बेचारी का मुंह लटक गया. उन्हें मालिक से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी. ये वही अनुराधा मैम थीं जो मस्का लगाने की नीयत के साथ मालिक से बोलीं, ‘सर, आप बीचबीच में आ जाते हैं तो बड़ा अच्छा लगता है.’ कितना अच्छा लगता है वह तो अनुराधा मैम जानें. वैसे, मालिक के लिए एक अनुराधा मैम ही नहीं थीं. लहाजा, मालिक बोले, ‘मैडम, मैं यहां अच्छा दिखने के लिए नहीं आता हूं, स्कूल की बिल्डिंग देखने आता हूं कि कितना काम हुआ. कितना नहीं. वैसे भी, टीचरों से मुझे कोई मतलब नहीं. मुझे जो कुछ जानकारी लेनी होती है वह विलासजी से लेता हूं. आप भी उन्हीं से संपर्क किया करें.’ बहरहाल, वे 5 सालों से स्कूल में जमी पड़ी हैं.

 

अमेरिका और मास शूटिंग

अमेरिका में मास ( सामूहिक ) गन शूटिंग कोई नई घटना नहीं है . वाशिंगटन पोस्ट के 8 जून 2015 के एक रिपोर्ट के अनुसार 1982 से उस समय तक लगभग 61 मास शूटिंग हो चुके थे .गन वायलेंस आर्काइव के अनुसार अकेले 2019 में 417 मास शूटिंग हुए यानि प्रति दिन एक शूटिंग से ज्यादा .

मास शूटिंग क्या है –

अमेरिकी नियम के अनुसार किसी व्यक्ति के द्वारा शूटिंग में चार या इससे ज्यादा मृत्यु होने ( शूटर को छोड़ कर ) पर यह मास शूटिंग कहलाता है . इसमें गैंगवार , घरेलू हिंसा , आतंकवादी घटनाएं शामिल नहीं हैं . विडम्बना यह है पिछले कुछ वर्षों में आम नागरिकों में गन धारकों की संख्या घटी है पर मास शूटिंग या शूटिंग में बढ़त हुई है . एक आंकड़े के अनुसार सन 2000 – 2013 के प्रथम सात वर्षों में औसतन 6 .4 प्रति वर्ष मास शूटिंग के मुकाबले अगले सात वर्षों में यह बढ़कर 16 .4 प्रति वर्ष हो गयी थी .

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विगत पांच वर्षों में प्रमुख मास शूटिंग – ( मृतकों की संख्या )

2015 में चार्ल्सटन , साउथ कैरोलिना ( 9 ) , रोज़बर्ग , ऑरेगन ( 9 ) , सैन बर्नार्डिनो , कैलिफ़ोर्निया ( 14 ) ; 2016 में ऑर्लैंडो , फ्लोरिडा ( 49 ) , 2017 में लॉस वेगास , कैलिफ़ोर्निया ( 58 ) , सदरलैंड स्प्रिंग , टेक्सास ( 26 ) ; 2018 में पार्कलैंड फ्लोरिडा ( 17 ) , सैंटा फे टेक्सास ( 9 ) , ट्री ऑफ़ लाइफ ( 11 ) , थाउजेंड ओक्स कैलिफ़ोर्निया ( 12 ) ; 2019 में वर्जिनिआ बीच ( 12 ) , डेटन ऑहियो ( 9 ) , एल पैसो टेक्सास ( 22 ) , इलेनॉइस ( 45 ) , 2020 में मिल्वौकी , विस्कॉन्सिन ( 5 ) , ग्रीनविले साउथ कैरोलिना ( 10 );

नवीनतम मास शूटिंग – लेख लिखते समय ही आज 2 अप्रैल प्रातः अमेरिका की राजधानी में कैपिटल हिल ( अमेरिकी संसद ) के पास फायरिंग की घटना हुई . हालांकि यह मास शूटिंग की घटना नहीं थी फिर भी अमेरिका के संवेदनशील एरिया में गन फायरिंग की घटना थी .
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2021 मार्च में – 16 मार्च को एटलांटा , जॉर्जिया में ( 8 ) ; 22 मार्च को बोल्डर , कोलराडो में ( 12 ) और 31 मार्च की शाम को ऑरेंज कैलिफ़ोर्निया में ( 4 )

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2021 अप्रैल में – नवीनतम मास शूटिंग की घटना में 15 अप्रैल 2021 अमेरिका के इंडियाना प्रान्त में इंडिआनापलिस में फ़ेडेक्स शो रूम के निकट एक शूटर ने 8 व्यक्तिओं को अंधाधुन गोलियों से भून डाला . इसके अतिरिक्त कुछ लोग घायल भी हुए हैं . शूटर ने स्वयं को भी गोली मार ली है .

राष्ट्रपति बाइडेन ने इस घटना से अत्यंत दुखी हो कर वाइट हाउस पर झंडा हाफ मास्ट करने का आदेश दिया है . उन्होंने अमेरिकी मास शूटिंग को एक महामारी जैसा कहा है .

मास शूटिंग में मरने वालों के अतिरिक्त अनेक लोग घायल भी होते हैं .

मास शूटिंग के प्रमुख कारण –

ज़्यदातर शूटिंग व्यक्तिगत कारणों से होते हैं . हाल में कुछ नस्लवाद की घटनाएं देखने को मिली हैं . अक्सर शूट करने वाला खुद को भी मार लेता है , नहीं तो पुलिस की कारवाई में मारा जाता है या कभी पकड़ा जाता है .

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अमेरिकी गन पालिसी –

अमेरिका के संविधान में द्वितीय संशोधन के बाद हर नागरिक को फायर आर्म रखने का अधिकार है . ज्यादातर लोग इसे मूल और निजी अधिकार मानते हैं और इसमें आसानी से बदलाव के पक्ष में नहीं रहते हैं . दूसरी ओर गन रिलेटेड हिंसा और मास शूटिंग की बढ़ती घटनाएं संघ और राज्य सरकारों के लिए चिंता का विषय भी है . गन रिलेटेड हिंसा और मास शूटिंग के चलते अकेले 2017 में 40,000 लोगों की मौत हुई थी .

विगत कुछ वर्षों में और विशेषकर पिछले कुछ माह में जो मास शूटिंग की घटनाएँ हुई हैं उससे अमेरिका की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है .एक अनुमान के अनुसार अमेरिका में करीब 42 प्रतिशत घरों में गन मौजूद है .अलग राज्यों के अलग गन पॉलिसी है , हर राज्य के अपने नियम हैं और जरूरी नहीं कि अगर आपने एक राज्य के नियमानुसार गन रखी हो तो दूसरे राज्य में भी वही नियम लागू हो . . ज्यादातर राज्यों में कोई भी नागरिक अपनी सुरक्षा , शिकार , शूटिंग स्पोर्ट्स के लिए गन बिना लाइसेंस या रजिस्ट्रेशन के रख सकता है .

अमेरिकी संविधान का द्वितीय संशोधन – अमेरिका ने 1776 में ब्रिटिश शासन से आज़ादी की घोषणा की थी . अमेरिका का संविधान 1788 में बना और 1791 में द्वितीय संशोधन पास हुआ . उस समय तक संयुक्त राज्य में सिर्फ 14 राज्य शामिल हुए थे और शेष राज्य अभी भी ब्रिटिश उपनिवेश थे हालांकि आज़ादी के लिए संघर्ष जारी था . द्वितीय संशोधन के अंतर्गत बिल ऑफ़ राइट था जिसमें नागरिक को 10 मूल अधिकार दिए गए और इस राइट यानि अधिकार में गन पॉलिसी भी था. इसके अनुसार प्रत्येक नागरिक को अपनी , अपनी संपत्ति और अपने राज्य की रक्षा के लिए बंदूक रखने का अधिकार मिला . यह अधिकार भी समकालीन ब्रिटिश बिल ऑफ़ राइट के समान ही था . इस संशोधन के अनुसार “ एक अच्छी तरह से नियमित मिलिशिया ( लोगों की सेना ),

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एक स्वतंत्र राज्य की सुरक्षा के लिए , आवश्यक होने के नाते लोगों को गन रखने और धारण करने का अधिकार है . हथियारों का उल्लंघन नहीं किया जायेगा . “

यह मनुष्य का स्वभाव है कि एक बार अपने लाभ के लिए जो अधिकार मिल गया उसे लोग छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं . हालांकि इस अधिकार के दुरुपयोग से बहुत बार बेक़सूर लोगों की जान जाती है . इसके अलावे इसका एक राजनीतिक पहलू भी है . 1871 में अमेरिका के बंदूक धारियों ने अपना एक यूनियन बनाया जिसे NRA ( नेशनल राइफल एसोसिएशन ) के नाम जाना जाता है . इनके साथ बंदूक और बंदूक की गोली निर्माता
कंपनियां और बिक्रेता बंदूक के मालिकाना हक़ छीनने या उसे और कठोर बनाने के प्रयासों का विरोध करती आयी हैं . ये लोग चुनाव में राजनीतिक दलों को भारी रकम फण्ड में देते है . एक अनुमान के अनुसार 1998 से 2017 तक इन लोगों ने पार्टी को 20 करोड़ 30 लाख डॉलर ( आज 1 डॉलर 75 रुपये से भी ज्यादा ) दिए हैं . ऐसे में किसी कठोर गन पॉलिसी का होना आसान नहीं है .

गन रखना कितना आसान है –

फ़ेडरल नियम के अनुसार लाइसेंस प्राप्त डीलर से गन खरीदने के लिए बैकग्राउंड चेक अनिवार्य है . पर यह चेक फोन व कंप्यूटर द्वारा मिनटों में हो जाता है .आपको एक फार्म भर के देना है जिसमें कुछ प्रश्न व्यक्तिगत विवरण के अतिरिक्त पूछा जाता है जैसे कि आप किसी अपराध में दो या अधिक वर्ष की सजा पाएँ हैं या किसी मानसिक रोग के शिकार रहे हैं .गन स्टोर वाला F B . I . को फोन करता है और वे NICS ( नेशनल इंस्टेंट क्राइम बैक ग्राउंड ) के डाटाबेस पर चेक कर तुरंत अनुमति दे देता है . इसमें अस्वीकार होने की संभावना बहुत ही कम है . हालांकि F . B .I . को कुछ और जानकारी लेनी हो तो इसके लिए कभी तीन दिन तक का समय ले सकता है .गर तीन दिन के बाद भी FBI से कोई जवाब नहीं मिलता है तो व्यक्ति गन खरीदने के लिए स्वतंत्र है .

बहुतेरे राज्यों में गन प्राइवेट बिक्रेता से सीधे ख़रीदा जा सकता है जैसे किसी पड़ोसी , रिश्तेदार . किसी गन शो जो अक्सर सप्ताहांत में होते रहते हैं , या फिर इंटरनेट से खरीद सकते हैं, इसके लिए कोई चेकिंग नहीं होती है .और इस तरह से ख़रीदे जाने से गन के गलत हाथों में जाने की संभावना अधिक होती है . घातक सेमिऑटोमैटिक असॉल्ट राइफल भी ख़रीदे जा सकते हैं .एक समय तो वालमार्ट स्टोर में स्वचालित ऑटोमैटिक

राइफल भी आसानी से उपलब्द्ध थे जिसे ग्रोसरी करते हुए कोई भी खरीद सकता था .न्यू यॉर्क टाइम्स के 26 अगस्त 2015 के रिपोर्ट के अनुसार जनता के दबाव के चलते वालमार्ट ने राइफल रखना बंद कर दिया है .

अमेरिका में कितने प्राइवेट गन – अमेरिका की जनसंख्या करीब 33 करोड़ है जबकि प्राइवेट गन की संस्ख्या करीब 40 करोड़ से कुछ ही कम है , जिसमें सभी व्यक्ति बच्चे बूढ़े शामिल हैं यानि प्रति व्यक्ति एक से ज्यादा गन . अमेरिका की आबादी विश्व की आबादी का करीब 4 % है जबकि वैश्विक स्तर पर यहाँ करीब 46 % प्राइवेट गन हैं .

कठोर गन पॉलिसी के लिए विरोध

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आजकल के मास शूटिंग को देखते हुए कुछ लोग कठोर गन पॉलिसी की माँग कर रहे हैं . अमेरिका में गन पालिसी एक विवादास्पद विषय है . यहाँ के प्राइवेट गन धारक दो खेमों में बटें हैं , एक खेमा जो गन कंट्रोल का है ” कठोर गन पालिसी ( किन्तु बैन नहीं )” जबकि दूसरा खेमा गन राइट का है , जो इसको मूल अधिकार मान कर बदलाव नहीं चाहता है . सुप्रीम कोर्ट भी इसे नागरिक का अधिकार बताता है .

अमेरिका की गन पालिसी विश्व में सबसे उदार और लचीली है , कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी .अगर ऐसा नहीं होता तो मास शूटिंग इतना आसान न था . आतंकी के लिए भी अमेरिकन नियम के अंतर्गत गन खरीदना कठिन नहीं है .दूसरा पहलू यह भी है कि अमेरिकन वीसा नियमों के अनुसार ब्रिटेन , फ्रांस , बेल्जियम आदि 38 देश के नागरिकों को अमेरिका आने के लिए वीसा की आवश्यकता नहीं है ..अभी भी लगभग 50 प्रतिशत प्राइवेट गन धारक कठोर गन पॉलिसी के पक्ष में नहीं हैं .रास्ता आसान नहीं है पर अमेरिका की जनता और नेताओं को इस तरह की मास शूटिंग रोकने की दिशा में कठोर कदम लेने चाहिए .नहीं तो अमेरिका ही नहीं इसका दुष्प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ने का खतरा है .

मास शूटिंग रोकने के कुछ संभावित उपाय –

संघीय स्तर पर कठोर गन पॉलिसी के लिए दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में भी विरोधाभास है .संघीय सरकार कुछ मानक रख सकती है पर राज्यों के अलग अधिकार और नियम हैं , कहीं कुछ अच्छे नियम भी हैं तो कहीं कुछ खतरनाक भी . फ्लोरिडा राज्य में सर्वप्रथम “ शूट फर्स्ट लॉ “ बना , इसके बाद अनेक राज्यों ( करीब 35 ) में “ शूट फर्स्ट “ लॉ या इसके समकक्ष “ स्टैंड योर ग्राउंड “ लॉ है . इसके अंतर्गत अपने घर या दफ्तर में मात्र संदेह की स्थिति में नागरिक आत्मरक्षा के लिए किसी को शूट कर सकता है .

1 . “ शूट फर्स्ट “ लॉ या “ स्टैंड योर ग्राउंड “ लॉ को निरस्त करना

2 . गन खरीदने की न्यूनतम आयु बढ़ाना – संघीय कानून के अंतर्गत 18 वर्ष की आयु का व्यक्ति भी सेमिअसाल्ट राइफल रख सकता है जबकि हैंडगन के लिए यह आयु 21 वर्ष है. कुछ राज्यों में खास तरह की गन रखने की आयु 21 वर्ष है .सभी राज्य सभी प्रकार के गन के लिए आयु बढ़ा कर 21 करें तो कुछ कंट्रोल होगा .

3 . सेना के अस्त्र को राज्यों को बेचने पर नियंत्रण – सेना के सरप्लस आर्म्स पुलिस और राज्यों को बेचने का प्रावधान है . इस पर कठोर नियंत्रण रख सकते हैं .

4 गन रखने के लिए रजिस्ट्रेशन और लाइसेंस जरूरी बनायें .

5 गन को गैर जिम्मेदार या मंदबुद्धि व्यक्ति के लिए वर्जित करना – ऐसे व्यक्ति खुद और दूसरों के लिए खतरा हैं .
6 प्रतीक्षा की अवधि बढ़ाना – गन खरीदने के लिए 9 राज्यों में वेटिंग पीरियड है .अन्य राज्य भी इसे रखंश या इसे और बढ़ाएं ताकि खरीदार को दुबारा सोचने का मौका मिले कि क्या बंदूक की उसे जरूरत है .

7 असॉल्ट राइफल और अधिक क्षमता वाले मैगज़ीन पर बैन – ऐसे आर्म्स की जरूरत आम नागरिक को नहीं है . ये सैनिकों द्वारा इस्तेमाल के लिए होते हैं ताकि कम समय में ज्यादा से ज्यादा गोलियां दाग कर दुश्मनों का खात्मा करें या उन्हें रोक सकें .

8 कठोर बैक ग्राउंड चेक – संघ द्वारा लाइसेंस प्राप्त गन विक्रेताओं के लिए खरीदारों के बैकग्राउंड चेक करना अनिवार्य है , जैसे पुलिस वेरिफिकेशन द्वारा उनकी आपराधिक रिकॉर्ड आदि .पर करीब 40 % गन प्राइवेट मार्केट में बिकते हैं – गन शो , फ्ली मार्किट , ऑनलाइन और दो व्यक्तियों के बीच आपसी क्रय विक्रय . फ़िलहाल कुछ ही राज्यों में बैक ग्राउंड चेक का प्रावधान है .

YRKKH Updated: कार्तिक-सीरत से यूं मिलेगा रणवीर, वायरल हुईं फोटोज

सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में एक बार फिर से आपको ड्रामा देखने को मिलेगा, सीरत, कार्तिक और रणवीर एक-दूसरे से टकराएंगे और फिर शुरू होगा असली ड्रामा. हाल ही में सीरियल के सेट से मोहसिन खान, शिंवांगी जोशी और करण कुंद्रा कि तस्वीर लीक हुई है.

इस तस्वीर को लोग सोशल मीडिया पर खूब पसंद कर रहे हैं. सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है कि पूरी टीम सीरियल के अपकमिंग एपिसोड़ की शूटिंग में जुटी हुई है. लेकिन खबर यह भी है कि सीरियल का पूरा सेट कोरोना वायरस और लॉकडाउन की वजह से किसी और शहर में भी पगुंच सकता है.

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‘ये रिश्ता...’ के सेट पर मोहसिन खान (Mohsin Khan) और करण कुंद्रा (Karan Kundrra) ने मारा पोज

इन दिनों सेट पर भी बहुत ज्यादा सावधानी के साथ शूटिंग हो रही है. सेट से लिक हुई तस्वीर यह गवाही दे रही है कि सीरियल्स के आने वाला एपिसोड़ बहुत ज्यादा धमाकेदार होने वाला है.

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अलग हो जाएंगे सीरत और कार्तिक

वहीं करण कुंद्रा और मोहसिन खान सीरियल्स के सेट पर जमकर पोज देते नजर आ रहे हैं. जिसे लोगों ने ढ़ेर सारा प्यार दिया है. तो वहीं शिवांगी जोशी भारतीय परिधान में नजर आ रही हैं. लोग उन्हें भी खूब सारा प्यार दे रहे हैं. इस सीरियल्स को देखने के बाद फैंस आगे के एपिसोड़ के लिए कयास लगा रहे हैं कि बहुत शानदार होने वाला है.

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‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ (Yeh Rishta Kya Kehlata Hai) में जल्द टकराएंगे रणवीर (Ranveer) और कार्तिक (Kartik)

इसके साथ ही मुंबई में अभी हालात बहुत ज्यादा नाजुक है इसलिए लोग हालात पर काबू पाने के लिए लॉकडाउन लगा दी गई है.

सीरत और कार्तिक मिलकर करेंगे गणगौर पूजा

मुंबई: लॉकडाउन लगते ही बदली इन शोज की शूटिंग लोकेशन, कोई हैदराबाद तो कोई पहुंचा गोवा

महाराष्ट्र में कोरोना इस कदर बढ़ रहा है कि सभी लोग वहां रहने वाले परेशान हो गए हैं. कोरोना को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने 15 दिन के लिए लॉकडाउन लगा दिया है. वहां कोरोना गाइड लाइन्स पर सख्ती बरती जा  रही है.

जिसे देखते हुए कुछ सीरियल्स के निर्मातोओं ने ये फैसला लिया है कि वह अपने सीरियल्स की शूटिंग के लिए शहर से बाहर जा चुके हैं.दरअसल, महाराष्ट्र के कई राज्यों में धारा 144 लागू कर दिया गया है. ऐसे में कोई भी इमरजेंसी के बिना घर से बाहर नहीं निकलेगा.

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सीरियल्स के निर्माताओं ने अपनी नई तरकीब निकाली है और वह अपने काम को पूरा करने के लिए सीरियल्स की शूटिंग दूसरे शहर में जाकर करेंगे. एक रिपोर्ट से जानकारी मिली है कि अगले 15 दिन तक बहुत सारे सीरियल्स वाले अपने सीरियल्स की शूटिंग हैदराबाद, गोवा और राजस्थान में जाकर करेंगे.

वहीं सीरियल, गुम है किसी के प्यार में और ईमली की पूरी टीम अपनी आगे कि शूटिंग के लिए हैदराबाद पहुंच चुकी है. सभी लोग कोरोना से जंग लड़ रहे हैं. ऐसे में लोगो को अपना ख्याल रखते हुए अपने काम को भी पूरा करना होगा.

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टीवी सीरियल्स के प्रॉड्यूसर जेडी माठिया ने कहा है कि यह वक्त ऐसा है कि हमें उद्धव ठाकरे सरकार की मदद करनी होगी. और कोरोना जैसे जंग से लड़कर आगे बढ़ना होगा. राज्य सरकार के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चलना होगा.

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ऐसे में सभी लोग सचेत होकर अपने काम को पूरा करने कि कोशिश में लगे हुए हैं. सभी को अपने- अपने काम को पूरा करने के लिए टारगेट दे दिया गया है. 15 दिन बाद इस लॉकडाउन को हटा दिया जाएगा. देखते हैं आगे मुंबई में हालात क्या होता है. वैसे सरकार निर्णय लेगी.

कुछ तो लोग कहेंगे : भाग 4

धीरेधीरे घर के भीतर फुसफुसाहट होने लगी. मम्मी ने पापाजी से कहा, ‘‘दिवाकर की शादी कर देनी चाहिए. अब वह सयाना हो गया है.’’

पापा ने कहा था,‘‘हां, तू ठीक कहती है. मैं बीमार रहने लगा हूं. जिंदगी का क्या भरोसा? पर बेरोजगार को एकदम लड़की कहां मिलती है? कोशिश करनी पड़ेगी.’’

इस कार्य में देरी होती गई. मम्मी बेचैन हो उठीं. एक दिन उन्होंने पापा से कह ही दिया, ‘‘तुम तो आंखें बंद किए रहते हो. घर में क्या हो रहा है, तुम्हें पता भी है?’’ आज मम्मी का मूड बहुत खराब था.

‘‘आखिर क्या हो रहा है हमें भी तो पता चले,’’ पापा ने जिज्ञासा से पूछा.

मम्मी को तनिक संकोच सा हुआ, फिर बोल ही पड़ीं, ‘‘अरे तुम्हारा लाड़ला जब देखो बच्ची के बहाने अपनी भाभी के कमरे में ही पड़ा रहता है. उसे मैं ने डांटा भी है. पर बेशर्म को फर्क पड़े, तब न. तभी तो मैं तुम से उस की जल्दी शादी कर देने की बात कह रही हूं.’’ मम्मी गुस्से में थीं.

‘‘अरे भई, भाभी है उस की, जाता है तो इस में बुराई क्या है?’’ पापा ने सामान्य ढंग से उत्तर दिया.

‘‘इतने में ही बात होती तो मैं तुम से क्यों कहती? वह तो बेशर्म उस की पलंग पर भी देरदेर तक बैठने लगा है. कल कुछ ऊंचनीच हो जाए तो हम मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे,’’ मम्मी खीझ कर बोली थीं.

‘‘ओह, यह तो अच्छी बात नहीं,’’ फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘एक बात बता, ये दोनों एकदूसरे को चाहते हैं?’’

‘‘जब चाहते होंगे तभी तो बेशर्मी की हद पार कर रहे हैं,’’ मम्मी बोलीं.

पापा कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘शिवानी, मैं तुम्हारी राय लेना चाहता हूं. अगर तुम ठीक समझा तो…?’’

‘‘हां, कहो, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘भई, अगर बात इतनी आगे बढ़ गई है तो क्यों न हम इन दोनों की शादी कर दें. बहू की जिंदगी भी संवर जाएगी और दिवाकर की इच्छा भी पूरी हो जाएगी. घर की जायदाद भी बंटने से बची रहेगी,’’ पापा ने मम्मी से कह दिया.

‘‘यह क्या कह रहे हो तुम? दिमाग तो ठीक है? अरे, दुनिया क्या कहेगी? एक तो पहले ही पंडित की लड़की ला कर खूब खिल्ली उड़ी थी, अब फिर…?’’ मम्मी तिक्त स्वर में बोलीं.

‘‘देख, तू पहले इन दोनों का मन टटोल ले. दिवाकर से कहना कि तेरे लिए तेरे पापा किसी लड़की वालों से बात कर रहे हैं. 2-4 दिन में खबर मिल जाएगी,’’ पापा ने राय दी.

‘‘अगर अतुल की तरह वह भी नहीं माने तो…?’’ मम्मी सशंकित बोलीं.

‘‘तब हमारे लिए लाचारी होगी. बहू अच्छी लड़की है. घर का घर में ही निबट जाए, तो ठीक ही है. जहां तक बाहर वालों की टीकाटिप्पणी की बात है, वह तो पहले भी हुई थी. फिर सब शांत हो गया. यहां भी लोग आलोचना करेंगे. फिर वे समय पर शांत हो जाएंगे,’’ पापा ने कहा था.

‘‘ठीक है, देखती हूं. क्या कहते हैं…?’’ मम्मी ने बुझे मन से कहा.

शाम को मम्मी ने दिवाकर से लड़की देखने की बात कही. दिवाकर ने अनमनाते हुए मना कर दिया. फिर मुझ से पूछा, ‘‘बहू, तू क्या चाहती है इस के लिए लड़की ढूंढ़ें?’’

मैं ने कह दिया, ‘‘इन से ही पूछो, ये क्या चाहते हैं?’’ फिर मम्मी सीधे असली बात पर आ गईं. दोनों को आमनेसामने बुला कर बोलीं, ‘‘क्या तुम दोनों एकदूसरे को चाहते हो? हां या न में उत्तर दो. वरना पापा अभी लड़की वालों से बात करने वाले हैं.’’ मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर दिवाकर ने ‘हां’ में जवाब दिया.

‘‘तो तुम दोनों शादी के लिए तैयार हो? हां या न में जवाब दो,’’ मम्मी का मूड खराब हो चला था.

कुछ देर मौन रहने के बाद दिवाकर बोले, ‘‘हां, मैं शादी करने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘और बहू तुम…?’’

‘‘मम्मीजी, दिवाकर जैसा चाहेंगे, मैं उन के साथ हूं,’’ मैं ने अपनी बात सामने रख दी. मैं जानती थी अगर अब चूकी तो फिर आगे पछताना पड़ेगा.

मम्मी सुन कर चली गईं. उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था. 10-15 दिनों बाद हम दोनों का विवाह संपन्न हो गया. अगले दिन शाम को प्रीतिभोज की पार्टी की गई. अधिकांश समझदार पढे़लिखे पुरुष विधवा विवाह, वह भी घर ही घर में किए जाने पर मेरे ससुरजी को बधाई दे रहे थे और खुशी जाहिर कर रहे थे. यह सारा कार्यक्रम निबट जाने से मेरी और दिवाकर की खुशी का ठिकाना नहीं था. यह तो मैं जानती थी, पुरुषवर्ग इस तरह के सामाजिक कार्यों में संतोष ही जाहिर करते हैं. उन्हें किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं होती. पर कुछ महिलाएं विधवा विवाह, पुनर्विवाह या अपने ही घर में देवर से विवाह कर लेना पचा नहीं पातीं. यही वे महिलाएं हैं जो स्वयं के विवाह में या अपनों के विवाह में दहेज की भरपूर लोलुप भी होती हैं. कम दहेज आने का मलाल उन में बना रहता है, जो आगे दुलहन के साथ कलह का कारण बना रहता है.

खैर, मेरा अपने ही घर में अपने देवर से पुनर्विवाह हो गया. लोगों का कहा भलाबुरा सब सहन कर लूंगी. जब घर वालों को कोई एतराज नहीं, तो बाहर वालों की क्या चिंता करनी. अगले दिन सुबहसुबह मम्मी ने मुझे और मेरी ननद तनुजा को पासपड़ोस व बिरादरी में पैंणा यानी शादी का लड्डू वगैरा देने के लिए भेज दिया. जब हम अपने चचिया ससुर मानवेंद्र सिंह के घर की बाउंडरी के पास पहुंचे तो हमें कई औरतों के जोरजोर से बतियाने की आवाज सुनाई पड़ी. बातें हमारे परिवार व शादी को ले कर ही हो रही थी. हमारे पैर थम गए. एक औरत की चिरपरिचित आवाज आ रही थी. ‘‘अरी, ये पंडिताइन तो उन के बड़े लड़के को तो खा गई, अब लगता है दूसरे की बारी है. सीधेसीदे बच्चों को न जाने किस की नजर लग गई?’’

दूसरी सयानी औरत कह रही थी, ‘‘बुढि़या को भी तो तनक समझ होनी थी. उस ने क्या उन के रंगढंग नहीं देखे होंगे. पता नहीं, उस ने न जाने कब से उसे फांस रखा होगा.’’ अगली आवाज मिर्चमसाला लगा कर आ रही थी, ‘‘उस घर में तो डायन आई है, डायन. एक को तो खा गई, अभी न जाने कितनों को और खा जाएगी.’’ कई औरतें हां में हां मिला रही थीं. मैं आगे सुन न सकी. मुझे रुलाई आने लगी. मैं ने धोती के छोर को मुंह में डाल लिया और वहीं से वापस लौट गई. भरे मन से मेरी ननद भी मेरे पीछेपीछे लौट आई.

मेरी रुलाई रोके नहीं रुक रही थी. बारबार वही शब्द कानों में गूंज रहे थे, ‘बड़े लड़के को खा गई, अब लगता है दूसरे की बारी है. न जाने कब से फांस रखा है. उस घर में डायन आई है, डायन. खा जाएगी.’ मैं अपने कमरे का दरवाजा बंद कर फूटफूट कर रोने लगी. उस पूरे दिन मैं अपने कमरे में बंद रही. किसी से नहीं बोली और न कुछ खायापिया ही. ननद ने सारी बात मम्मी से कह दी होगी. सो, उन्होंने मुझ पर अधिक दबाव नहीं डाला. मन हलका होने के लिए छोड़ दिया. मेरी बेटी दिवाकर के पास थी. कभीकभी उन्हीं के पास सो जाती थी. मैं ने भी उसे अपने पास नहीं मंगाया.

मेरे लिए यह सब बरदाश्त के बाहर होता जा रहा था. मैं अपनेआप से ही सवालजवाब करने लगी थी. मैं ने किस का क्या बिगाड़ा था? प्यार करना क्या गुनाह है? हम ने तो जातिवाद का बंधन तोड़ा था. इस में हम दोनों की रजामंदी थी. विदेश या दूरदराज के शहरों में जाति कौन देखता है. गुणयोग्यता देखी जाती है. फिर यहां यह ढकोसला क्यों? बाद में दिवाकर की इच्छा को मैं टाल नहीं सकी. दिवाकर में मुझे अपने अतुल का प्रतिबिंब नजर आता था. सो, मैं भी उस की ओर झुकती चली गई. मैं विधवा विवाह के लिए राजी हो गई. वह भी अपने ही घर में. इस में क्या बुराई थी. अतुल तो एक हादसे के शिकार हो गए. उन के साथ गजेंद्र बाबू भी तो मारे गए. क्या वे भी मेरे ही कारण मृत्यु को प्राप्त हुए?

क्या उन्हें भी मैं ही खा गई. दुनिया तो अब एडवांस हो गई. पर हमारे गांवों की महिलाओं की रूढि़वादी सोच, अंधविश्वास कब समाप्त होगा? उन के हिसाब से मैं दिवाकर को भी खा जाऊंगी. समझ नहीं आता, मैं क्या करूं? कहीं, कभी सचमुच दिवाकर को भी कुछ हो जाए तो मैं सचमुच गांवभर की डायन कही जाऊंगी. लोग मुझे ढेले, पत्थर मारेंगे. मैं कल्पना मात्र से ही सिहर उठी. ये सब लांछन मेरी बरदाश्त के बाहर थे. इन उलाहनों, पाखंड व दोगलेपन की बातें सुन कर मन ही मन एक दृश्य आकार  लेने लगा-

कल सुबह मेरा शव आंगन में उगे बूढ़े नीम के पेड़ में लटका है, साथ में जातिवाद, विधवा विवाह तथा अंधविश्वास पर मेरा सूसाइड नोट भी है. मैं ने इन उलाहनों से बचने के लिए कायरता का रास्ता अपनाया है. अचानक विचारों की डरावनी लडि़यां टूट गईं. वर्तमान में मौजूद मन में एक ऊर्जा स्फुटित होने लगी. मैं खुद से कह रही थी कि जब अतुल को खो कर मैं ने हार नहीं मानी. जिंदगी का डट कर सामना कर, समाज की खोखली रस्मों व रिवाजों की दीवारें लांघ कर दिवाकर सरीखा जीवनसाथी पा लिया तब किनारे में आ कर डूबने की बेवकूफी आखिर क्यों? मुझे अभी जीना है. अपने लिए. अपनी बच्ची के लिए और दिवाकर के लिए भी. समाज व लोगों का क्या है? कुछ तो लोग कहेंगे…

कुछ तो लोग कहेंगे : भाग 3

आखिर जब ठाकुर साहब को दोएक बार हार्टअटैक पड़े तो उन की पत्नी शिवानी ने चिंतित हो कर उन से आग्रह किया, ‘अब अपनी जिद छोड़ दो. लड़की मेरी देखीभाली है, ठीक है. अपनी जाति की जिद में लड़के को भी खो दोगे. वह उस से ही शादी करना चाहता है, अन्यथा कहीं नहीं करना चाहता. देखो, तुम हार्टपेशेंट हो, इस से तुम्हें और धक्का लगेगा. तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी? उस की बात मान लो.’

आखिर ठाकुर साहब मान गए. उन्होंने मेरे पिताजी को अपने घर बुलवाया. संयम व शालीनता के साथ हमारी बात सामने रख कर शादी का प्रस्ताव रखा. मेरे पिताजी एक निर्धन परिवार के किसान थे. उन्हें क्या आपत्ति थी? अच्छे माकूल घर में लड़की को देने में उन्हें कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. शादी संपन्न हो गई. ठाकुर साहब ने महिला संगीत व प्रीतिभोज की पार्टी एकसाथ निबटा दी. कुछ दिन तक गांव तथा समाज में अच्छी व बुरी प्रतिक्रियाएं होती रहीं. फिर लोगों ने इसे भुला सा दिया. अब सब सामान्य सा हो गया. इधर, हमारा दांपत्य जीवन सुखकर बीत रहा था. घर के लोग मेरे अच्छे व्यवहार व काम से संतुष्ट थे. मुझे परिवार में ऐडजस्ट होने में अधिक समय नहीं लगा. शादी से पूर्व के विवाद पर न घर वाले बात करते और न हम.

अतुल एक मशहूर कंपनी में फील्ड का काम देखते थे. उन्हें अधिकांश दूरदराज जिलों में सामान की सप्लाई करना व खराब मशीनों की रिपेयरिंग करने का जिम्मा सौंपा गया था. इसी काम से उस दिन वे मसूरी से लौट रहे थे कि रास्ते में…

अतीत की यादें घबराहट में ठहर गईं. मैं ने घड़ी की ओर देखा, रात्रि के 2 बज रहे थे. लेकिन अस्पताल से न कोई आया और न ही कोई खबर आई.

कुरसी डाल कर मैं बरामदे में बैठ गई. बाहर से चैनलगेट बंद था. बिजली का प्रकाश दूरदूर तक फैला था.

तभी मुझे किसी बाइक की आवाज सुनाई दी. रात के सन्नाटे में यह आवाज डरावनी सी लग रही थी. मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. बाइक आ कर गेट पर रुक गई. बाइक से 2 लोग उतरे थे. वे उतर कर कुछ बातें कर रहे थे. उन की नजरें उस

सड़क को ताक रही थीं जिस से वे आए थे. शायद किसी का इंतजार था. वे रुके क्यों, सीधे घर क्यों नहीं आए, या कहीं उन की…?

मेरे मन में तरहतरह के विचार कौंधने लगे. मैं बरामदे में खड़ी हो गई. मैं ने चैनल जोर से जकड़ कर पकड़ लिया था. मेरे पैर कांप रहे थे. मुझे अस्पताल के उस वार्डबौय के हाथ के ऐक्शन का बारबार ध्यान आ जाता था. वह हथेली को नकारात्मक ढंग से हिलाता सुस्त चाल में चला जा रहा था. उस के हावभाव से मुझे लगा जैसे वह अपने असली होशहवास में नहीं था या उस ने कुछ गलत देखा था, जिस का प्रभाव उस के दिलोदिमाग में घूम रहा था.

मेरे विचारों की शृंखला फिर से तब टूटी जब मैं ने कुछ कारों और मोटरसाइकिलों की आवाजें सुनीं. उन का प्रकाश भी दूर सड़क तक फैल रहा था. कुछ ही क्षणों में तमाम कारें व मोटरसाइकिलें मुख्य रोड से लिंक रोड को मुड़ गईं. प्रांगण का गेट खुला था. वे सब कारें घर के प्रांगण में प्रवेश कर गईं. मैं ने बरामदे का चैनल खोल दिया था और जिज्ञासावश मैं बाहर आ गई. तभी कारों से महिलाएं व पुरुष बाहर निकले. महिलाओं की ओर से घुटीघुटी रोने की आवाजें आ रही थीं. ससुरजी ने भारी गले से आज्ञा दी, ‘‘अतुल को गाड़ी से बाहर निकालो.’’

सफेद कपड़े में लिपटी अतुल की बौडी को बाहर निकाल कर पोर्च के नीचे लिटा दिया गया. मैं ने देखा और पछाड़ खा कर बौडी पर गिर गई. औरतें भी जोरजोर से रोने लगीं. गांव वाले आवाज सुन कर आने लगे थे.

लोग चर्चा कर रहे थे, ‘वह तो उसी समय खत्म हो गया था जब नर्स और वार्डबौय बाहर आए थे. उस समय 6-7 बजे का समय रहा होगा. अस्पताल वालों ने एक दिन का मैडिकल बिल बढ़ाने के लिए बौडी को रोके रखा था.’

मेरा सबकुछ समाप्त हो गया. विधवा नारी का जीवन भी क्या जीवन होता है. वह अनूठा प्यार जिस की खातिर हम ने सालोंसाल संघर्ष किया. लोगों के ताने सुने. घर की फटकार सुनी. समाज में फैली जातिप्रथा का सामना किया. बड़ी मुश्किल से विजय हासिल की. पर यह हमारी विजय कहां थी, यह तो जीवन की भयानक हार साबित हुई. अब मेरा क्या होगा? इस पहाड़ से जीवन को कैसे ढो पाऊंगी? कितने प्यारे थे. सब के दुलारे थे. अब क्या होगा मेरा?

ठाकुर साहब का इलाके भर में मान था. सो, दाहसंस्कार तथा पीपलपानी में भारी संख्या में लोग उपस्थित थे. सब की सहानुभूति उन के परिवार के साथ थी. धीरेधीरे परिवार का दुख कम होता गया. पर मैं उन्हें कैसे भूल पाती. उन की निशानी दिनप्रतिदिन मेरे गर्भ में बढ़ती चली जा रही थी. आखिर एक दिन उन का प्रतिरूप कन्या बन कर इस धरातल पर उतर आया. घर में बच्ची के रुदन व किलकारी का स्वर सब को आनंदविभोर करने लगा. ऐसा लगा जैसे घर का सूनापन बच्ची की स्वरलहरी में कहीं बहने लगा हो. उदासी का घना बादल छंट रहा हो. बच्ची बहुत सुंदर थी. सो, वह सब के हाथोंहाथ रहती थी. खाली समय में दिवाकर ही उसे अपनी गोद में बैठा कर घुमाया करते थे.

दिवाकर नौकरी के लिए दिल्ली जाने की सोच रहे थे. पर घर में दुर्घटना के बाद ठाकुर साहब ने उन्हें नौकरी करने के लिए मना कर दिया. वे स्वयं भी बूढ़े हो चले थे. फिर बड़े लड़के के निधन ने उन की कमर ही तोड़ दी थी. सो, वे चाहते थे कि छोटा लड़का दिवाकर ही उन के सारे कामकाज को देखे.

घर में रहने और अधिकतर बच्ची को अपने साथ घुमाने से दिवाकर का लगाव मेरी ओर भी होने लगा. यह लगाव बच्ची के कारण था या मेरी टूट कर बिखर चुकी जिंदगी के प्रति दयाभाव का था. यह भी हो सकता है कि भरीपूरी जवानी का उन्माद पिघल कर मेरी ओर पसर रहा हो. ऐसा नहीं कि यह उन्माद का ज्वार मात्र दिवाकर की ओर से ही पनप रहा हो. स्वयं मुझे भी न जाने क्या होता जा रहा था कि मैं उन में अपने पति अतुल का प्रतिबिंब देख रही थी. उन का वही दबे पांव चलना, मुसकराना, अनोखी महक, स्पर्श करना मुझे, अतुल की ही भांति, मदहोश सा कर जाता था. कभीकभी मैं उन्हें अर्द्घचेतनावस्था में अतुल ही समझ बैठती थी. यही खिंचाव मुझे बेचैन कर जाता था. मैं कोशिश करती दिवाकर मेरे पास न आए. अगर घर वालों को उन की मंशा की भनक तनिक भी लग जाएगी तो अनर्थ हो जाएगा. पर वे बच्ची के बहाने बारबार मेरे पास आ जाते. मैं मना करती, पर वे मानते तब न.

 

कुछ तो लोग कहेंगे : भाग 2

मकान के पिछवाड़े बनी झोंपडि़यों में नौकर व बटाइदारों के परिवार रहते हैं. घर में मालिक लोगों के आने की खबर पा कर एक नौकर की बीवी अपने घर से ही दूध गरम कर लाई थी. वह बोली, ‘‘बीबीजी, दूध लाई हूं. पी लीजिए, बच्चे की खातिर आप के पेट में कुछ न कुछ जाना आवश्यक है.’’ वह दूघ का गिलास मेज पर रख कर कुछ दूर खड़ी हो कर बोली, ‘‘मालिक लोगों के आने में समय लगेगा. मैं यहीं हूं. आप को जो भी कुछ चाहिएगा, बतला दें. बाहर जानवरों का सारा काम हम ने कर दिया है. लाइट वगैरा भी हम जला देंगे. आप चिंता न करें. पानी की मोटर हम चालू कर देते हैं,’’ कह कर नौकरानी बरामदे के बिजली के स्विच की ओर बढ़ गई.

अपने घर का भी कुछ कामकाज निबटा कर नौकरानी फिर से हमारे मकान में आ गई. आवाज दे कर बोली, ‘‘बीबीजी, दूध पिया कि नहीं…?’’ दूध वैसे ही पड़ा देख कर दुखित मन से बोली, ‘‘बीबीजी, यह तो अच्छी बात नहीं. बच्चे को बचाने के लिए आप को कुछ न कुछ खानापीना तो होगा ही. बच्चा भूखा होगा.’’ उस ने जिद कर दूध का गिलास मुझे पकड़ा दिया. बोली, ‘‘बीबीजी, मालकिन को पता चलेगा कि हम ने आप को कुछ भी खानेपीने को नहीं दिया तो वे बहुत नाराज होंगी. हम क्या जवाब देंगे?’’ मैं ने ठंडा हो गया दूध पी लिया. वह ठीक ही कहती थी. बच्चे की खातिर मुझे कुछ न कुछ लेना ही था. वह पानी का जग और गिलास रख गई थी.

मैं तकिये को सीने में दबाए फिर लेट गई. मेरा ध्यान अस्पताल की ओर ही था. आशानिराशा के भंवर में मेरा मन डोल रहा था. कभीकभी ऐसा लगता जैसे आंधीतूफान के तेज झोंके में मेरी नौका बच न सकेगी, कईकई मीटर उछलती लहरों में सदा के लिए डूब जाएगी.

चिंतातुर मैं बारबार करवट बदल रही थी. मुझे किसी भी प्रकार से चैन नहीं आ रहा था. विचार बारबार मन में कौंध रहे थे कि कहीं वे नहीं बचे तो…मेरा जीवन… नहींनहीं, ऐसा नहीं होगा. कोई उन्हें बचा लो. मैं ने घुमड़ आए अपने आंसुओं को तकिये से पोंछा. जब मन कुछ हलका हुआ, स्मृतिपटल पर अतीत की सुखद यादें उभरने लगीं और कुछकुछ ऊहापोह में लिपटी भयभीत कर देने वाली यादें तड़प पैदा करने लगीं.

हमारा संगसाथ कालेज के दिनों से ही अठखेलियां खेलता चला आ रहा था. तब मैं इंटर फर्स्ट ईयर में थी और अतुल इंटर फाइनल में थे. हम पैदल ही कालेज आतेजाते थे. पर इधर कुछ महीनों से अनजाने में एकदूसरे का इंतजार करने लगे. सिलसिला चलता रहा. बोर्ड की परीक्षा आ गई. इंटर क्लास को फर्स्ट ईयर वालों ने विदाई दी. उस दिन हम दोनों ही उदास थे. हमें पता हीं नहीं चला कि हमें कब एकदूसरे से प्रेम हो गया. वे इंटर पास हो कर बड़े कालेज जाने लगे थे. रास्ता मेरे घर के पास से ही जाता था. मैं इंतजार करती, वे मुसकरा कर आगे बढ़ जाते थे. कहते हैं इश्क, मुश्क, खांसी और खुशी छिपाए नहीं छिपते. कभी न कभी उजागर हो ही जाते हैं. गांव के लड़केलड़कियों को कभी इस की भनक लग गई थी. पर ठाकुर दिंगबर से भी दुकान में किसी परिचित ने बात छेड़ दी. ठाकुर साहब को यकीन हुआ ही नहीं. बात टालते हुए सशंकित, भारी मन से वे घर लौट आए.

ठाकुर साहब बचपन से ही जातिवाद के कठोर हिमायती थे. उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों से कोई शिकायत नहीं थी. पर वे ब्राह्मणों से खार खाते थे. कभी किसी पंडित ने उन के सीधेसाधे पिता को ठगा था. एक पुरोहित ने शादी में दूसरे पक्ष के पुरोहित से मिल कर दोनों जजमानों की खूब लूटखसोट मचाई थी. ऐसी ही कई बातों के कारण उन के मन में ब्राह्मणों के प्रति नफरत भर गई. हर कोई इस बात को जानता था कि ठाकुर साहब ब्राह्मणों के नाम से नाकभौं सिकोड़ते हैं. पर जब दुकानों, महफिलों में ठाकुर साहब के लड़के अतुल और सुखदानंदजी की लड़की दिव्या के प्रेमप्रसंग का जिक्र आता तो वे लोग मुंह दबा कर हंसते.

शाम के वक्त घर पहुंच कर ठाकुर साहब ने बाहर से ही अतुल को आवाज दे कर बाहर बुलाया. वे गुस्से में थे, दहाड़ कर बोले, ‘क्यों रे अतुवा, यह मैं क्या सुन रहा हूं. तू क्या ब्राह्मण सुखदिया की लड़की के चक्कर में पड़ा है?’ अतुल इस अकस्मात आक्रमण से सन्न रह गया. उस के मुंह से आवाज नहीं निकली. ‘तुझे शरम नहीं आई एक ठाकुर हो कर ब्राह्मण की ही लड़की तुझे पसंद आई. कुछ तो शरम करता.’

अतुल अंदर अपने कमरे में चला गया. पापा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. अब वह यही कोशिश करता कि वह अपने पापा के सामने न आए.

कुछ समय बाद ठाकुर साहब ने उस का विवाह करने की सोची. दोएक जगहों से लड़कियों के फोटो भी उपलब्ध किए. अतुल की मां ने उसे फोटो दिखाते हुए शादी की बात की तो अतुल ने फोटो देखने से इनकार कर दिया. उस ने कह दिया, ‘मुझे शादी नहीं करनी है.’ इसी तरह समय निकलता गया. महीना व साल गुजर गया. अब हम दोनों का मिलनाजुलना तो कम हो गया पर दिल में आकर्षण बना रहा. मेरे पिताजी को भी मेरी शादी की चिंता सताने लगी. उन्हें भी पता हो गया था हम दोनों के प्रेमप्रसंग का. उन्होंने मुझे डांट लगाई थी कि मैं आइंदा अतुल से न मिलूं. वे जानते थे कि ठाकुर साहब कट्टर ठाकुरवादी हैं. सो, शादी के लिए तैयार नहीं होंगे. वे स्वयं तो सवर्ण में शादी करने के विरोधी नहीं थे. अपने बच्चों के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे.

मैं ने ही अपनी मां से कहा, ‘मांजी, अगर अतुल कहीं और शादी कर लेते हैं तो तब मुझे कहीं भी शादी करने से कोई एतराज नहीं होगा. पर अभी मेरी शादी तय नहीं करें तो अच्छा होगा.’

 

संपादकीय

अदालतों को विरोध बंद कराने के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. उस का उदाहरण दिल्ली के एक अतिरिक्त जिला ऐशन जज के फैसले से स्पष्ट है. फरवरी 20 में हुए उत्तर पूर्व दिल्ली में ङ्क्षहदूमुस्लिम दंगों में पकड़े गए लोगों की जमानत को देना इंकार करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि अगर एक सरकार विरोधी मोर्चे में कुछ दंगा होता है तो केवल दंगे करने वाले नहीं, हर जना जो उस मोर्चे में शामिल था, बराबर का अपराधी है.

अदालत का तर्क है कि दंगाइयों की भीड़ में हर व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिए कि उन में से एक की भी गलत हरकत सब को अपराधी बना सकती है. मोहम्मद बिलाई को जमानत देने से इंकार करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि यह सफाई कि वह तो एक अन्य किसी भीड़ में शामिल व्यक्ति के बयान पर पकड़ा गया था और दंगों में उस का कोई हाथ नहीं था, काफी नहीं है.

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पुलिस के पास न तो उस के मोबाइल का रिकार्ड था कि वह कहां था न सीसीटीवी कैमरों के फुटेज जिस में वह दिख रहा हो फिर भी उसे दंगाई मान लिया गया और जमानत देने से इंकार कर दिया गया.

जनतंत्र में विरोध करने का हक हरेक को है और एक भीड़ में शामिल हो कर किसी मुद्दे पर विरोध करना मौलिक अधिकार है. इस मौलिक अधिकार पर कानून भी बनाए जा रहे हैं और अदालतों से सकरार के मनमाफिक फैसले भी लिए जा रहे हैं. जेलों में ठूंस कर एक तरह से जनतंत्र की हत्या खुली तौर पर हो रही है और अब बचने के लिए बहुत मोटा पैसा और सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ रहा है.

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अफसोस यह है कि निम्न न्यायालय आमतौर पर सर्वोच्च न्यायालयों के निर्णयों का संज्ञान तक नहीं लेते. जब तक कोई व्यक्ति अपराधी सिद्ध न हो जाए उसे निर्दोष मान लिया जाए जैसे न्यायिक सिद्धांत अब केवल किताबों के पन्नों पर रह गए हैं क्योंकि पुलिस और अदालत इस पूर्वाग्रह पर चल रहे हैं कि किसी को संदेह में पकड़ा गया है तो वह अपराधी ही है चाहे शिकायत पुलिस ने की हो या किसी आम नागरिक ने.

लोकतंत्र की जान ट्रायल कोर्ट होती है जिसे क्रूर ब्रिटीश सरकार के कानूनों में भी बहुत अधिकार थे. आज अधिकांश अधिकार न्यायाधीशों ने पुलिस की मर्जी पर छोड़ दिए हैं जो अपने तरीके से जमानत देने की अर्जी पर सहमति दे या न दे. पुलिस अधिकार हाल के सालों में बेहद बढ़ गए हैं और जनता के अधिकार कम हो गए हैं. जो फैसला दिल्ली के जिला अतिरिक्त न्यायाधीश ने दिया है वह लगभग सारे देश में सरकार विरोधी आंदोलनों में ही नहीं घरेलू ङ्क्षहसा, साधारण मारपीट, चोरी आदि पर भी लागू होने लगे हैं. लोगों को अदालतों पर भरोसा है पर अदालतों के भरासा दिलाना होगा कि वह सरकार व पुलिस बनाम जनता के मामले में जनता के साथ है.

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