मालिक के पास स्कूल के अलावा शराब की भट्ठी थी. वे प्रौपर्टी का भी काम करते थे. सरकारी अधिकारियों विशेषरूप से स्कूल से जुड़े लोगों के क्या चोंचले होते हैं, उन्हें कुछ पता नहीं था. लिहाजा उन की आवभगत करने व बातचीत कर के मामला सुलझाने के लिए एक स्कूल का ही आदमी नियुक्त कर दिया गया था. इसे विडंबना ही कहेंगे कि शिक्षा का एबीसी न जानने वाला शिक्षा व्यवसाय से जुड़ा था. व्यवसाय भी ऐसा जिस में कोई रिस्क नहीं, सिवा लाभ के. हर साल बच्चे पैदा किए जा रहे हैं इस लालच में कि पढ़ते ही उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएगी. शिक्षा का मकसद क्या है, यह कोई समझना नहीं चाहता और न ही इस पर चर्चा करता है कि शिक्षा का स्तर क्या होना चाहिए. येनकेनप्रकारेण उसे अच्छे अंक चाहिए. ताकि इन अंकों के बल पर सरकारी नौकरी मिल जाए. यही मकसद अभिभावकों और बच्चों का हो गया है. तभी तो स्कूल मालिकों ने सख्त निर्देश दे रखा है कि कोई बच्चा फेल न हो. नंबर खुल कर दिए जाने चाहिए ताकि अभिभावकों को तर्कवितर्क करने का मौका न मिले. नंबर कम मिलने पर ही तो अभिभावक स्कूल के प्रधानाचार्यों और अध्यापकों से किचकिच करते हैं तथा फीस देने में हीलाहवाली करते हैं.
मुआयने के 4 दिन पहले अध्यापकों से कहा गया था कि वे अपनी कक्षा में उस दिन 40 से ज्यादा बच्चे न रखें. यह अब उन्हें तय करना था कि किस बच्चे को हटाएं, किस की छुट्टी कर दें. अध्यापकों ने भरसक कोशिश की उन्हीं बच्चों को बुलाने की जो पढ़ने में ठीक थे. उन्हीं को उस रोज आगे की बैंच पर बैठाने का मन बनाया. सारे अध्यापकों को एक फर्जी उपस्थिति पंजिका दी गई. जिस में उन्हें अप्रैल से ले कर अब तक उन बच्चों के नाम भरने थे जो उस रोज आने थे. बड़ा ही दुरूह काम था. अध्यापक मन ही मन कुढ़ रहे थे. ‘‘अब पढ़ाने लिखाने के अलावा यह भी काम करें. निजी स्कूलों में अध्यापकों की स्थिति लेबरों से भी गईगुजरी होती है,’’ विपिन सर बोले.
‘‘प्रधानाचार्यजी कहते हैं कि जो तेज बच्चे हैं उन का नाम जरूर रजिस्टर पर दर्ज करिएगा. कमजोर बच्चों को उस रोज मत बुलाइगा,’’ अशोक सर हंसते हुए बोले. एक मैडम इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उसी लहजे में बोलीं, ‘‘सर, यहां तो 75 प्रतिशत कमजोर ही हैं.’’ सब हंस पड़ते हैं.
‘‘4 हजार रुपए में हम कमजोर बच्चे ही तो पैदा करेंगे. क्या सोचते हैं कि दो दूनी चार पढ़ाएंगे, हरगिज नहीं. दो दूनी छह ही पढ़ाएंगे?’’ मनोरमा मैम चिढ़ कर बोलीं. हालांकि उन्हें अफसोस भी हुआ कि उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था. इस में बच्चों का क्या दोष? बहरहाल, सख्त निर्देश दिया गया कि उपस्थिति पंजिका पर कोई काटकूट न हो. रविवार और त्योहार का सहीसही उल्लेख हो. जिस का डर था, वही हुआ. एक अध्यापिका ने जल्दी व लापरवाही के चक्कर में रविवार में भी बच्चों की उपस्थिति बना दी. वह तो एक अध्यापिका का ध्यान उस पर पड़ गया वरना लेने के देने पड़ सकते थे. होता कुछ नहीं, हां, बोर्ड के अधिकारियों को कमाने का एक बहाना और मिल जाता. एक अध्यापक ने पुरानी उपस्थिति पंजिका का जिक्र प्रधानाचार्य महोदय से किया तो वे बोले, ‘‘फिलहाल उस रोज उसे रद्दी के गोदाम में डाल दिया जाएगा. बोर्ड के अधिकारियों की नजर उस पर नहीं पड़नी चाहिए.’’
‘‘क्या वे असलियत नहीं जानते होंगे?’’
‘‘जानते होंगे मगर हमें तो सतर्क रहना होगा. वरना जितनी खामी उतना चढ़ावा,’’ वे मुसकरा कर चले गए.
‘‘इतना नाटक करने की क्या जरूरत है,’’ उक्त अध्यापक महोदय दूसरे अध्यापक से बोले.
‘‘करने की है, आप क्या समझते हैं कि ऐसे ही मान्यता मिल जाएगी. बाकायदा वीडियोग्राफी होगी. उस की एक कौपी बोर्ड को भेजी जाएगी,’’ दूसरे अध्यापक ने खुलासा किया.
सारी कक्षाओं की सफाई हुई. अनावश्यक बैंचों को हटा दिया गया. करीने से बैंचों को सजाया गया. बच्चों को सख्त हिदायत दी गई कि उस रोज वे साफसुथरी ड्रैस में आएंगे तथा जिन को मना किया गया, वे न आएं. बच्चों में जिज्ञासा जगी. वे एकदूसरे से पूछताछ करने लगे. अध्यापकों से पूछा तो उन्होंने इतना ही बताया कि सरकारी अधिकारी आ रहे हैं. वे अच्छे बच्चों को इनाम देंगे. मगर क्या बच्चे इतने मूर्ख होते हैं जितना अध्यापक समझते हैं. वे जान ही गए कि स्कूल को मान्यता मिलने वाली है. मुआयने वाले दिन एलकेजी तथा यूकेजी को बर्खास्त रखा गया था. जिस कक्षा के सामने एलकेजी तथा यूकेजी का नाम लिखा गया था उसे तत्काल मिटा कर कक्षा 1 और 2 लिखा गया. 12वीं की भी पढ़ाई सस्पैंड रखी गई थी. जिस कमरे में रोजाना अध्यापकगण बैठ कर खाली पीरियड में सुकून की सांस लेते व खाना खाते थे, उस को उस रोज कबाड़खाना बना दिया. उन सारे डौक्यूमैंट, जिन्हें बोर्ड के अधिकारियों के सामने नहीं लाने थे, को उसी में एक दिन के लिए दफन कर दिया गया था.
अध्यापकगण परेशान कि उस रोज खाना कहां खाएंगे. तब प्रधानाचार्य ने उन्हें नया कमरा दिखलाया. हाल में निर्मित उस कमरे में बड़े ही व्यवस्थित ढंग से बैंचें और कुरसियां लगाई गई थीं. हाथ धोने के लिए बेसिन भी लगाया गया था. एक तौलिए की भी व्यवस्था की गई. उसे देख कर अध्यापकों को अपनेआप से रश्क होने लगा. उन्हें अपना वह कमरा भी याद आने लगा जो किसी गोशाले के तबेले से कम नहीं था. एक बड़ी सी खिड़की मगर बिना दरवाजे की. गरमी में जब लू बहती तो उस की गरम हवाएं उन के चेहरे को झुलसा जातीं. मालिक से लाख कहा गया कि कम से कम एक दरवाजा तो लगवा दें ताकि मौसम के हिसाब से उस का इस्तेमाल किया जा सके. मगर नहीं, उलटे, उन का जवाब होता, नौकरी करनी हो तो करो. हमारे पास आदमियों की कोई कमी नहीं है. अभी 5 हजार रुपए दे रहा हूं. नई भरती करूंगा तो लोग 4 हजार रुपए पर ही काम के लिए मारामारी करने लगेंगे. अध्यापक सुन कर सन्न रह जाते. हो न हो, निकाल ही देंगे तो तत्काल कहां जाएंगे.
न संगीत कक्ष था न ही कोई लाइबे्ररी. मगर मुआयने वाले दिन अधिकारियों को तो दिखाना ही था कि हमारे यहां सब सुविधाएं आप के नियमों के अनुसार उपलब्ध हैं. उपेक्षित से पड़े एक कमरे को संगीतकक्ष बनाया गया. किराए पर तबला, हारमोनियम और सितार मंगवाए गए. एक महिला अध्यापिका, जिन का संगीत से सिर्फ इतना ही नाता था कि तान के नाम पर बहुत हुआ फिल्मी गाना गा दिया और नाचने के नाम पर उस गाने पर कमर मटका दी, बस इतना ही वे जानती थी, को संगीत अध्यापिका बना दिया गया. इस तरह सारी तैयारियां लगभग पूरी कर ली गईं.