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धीरेधीरे घर के भीतर फुसफुसाहट होने लगी. मम्मी ने पापाजी से कहा, ‘‘दिवाकर की शादी कर देनी चाहिए. अब वह सयाना हो गया है.’’

पापा ने कहा था,‘‘हां, तू ठीक कहती है. मैं बीमार रहने लगा हूं. जिंदगी का क्या भरोसा? पर बेरोजगार को एकदम लड़की कहां मिलती है? कोशिश करनी पड़ेगी.’’

इस कार्य में देरी होती गई. मम्मी बेचैन हो उठीं. एक दिन उन्होंने पापा से कह ही दिया, ‘‘तुम तो आंखें बंद किए रहते हो. घर में क्या हो रहा है, तुम्हें पता भी है?’’ आज मम्मी का मूड बहुत खराब था.

‘‘आखिर क्या हो रहा है हमें भी तो पता चले,’’ पापा ने जिज्ञासा से पूछा.

मम्मी को तनिक संकोच सा हुआ, फिर बोल ही पड़ीं, ‘‘अरे तुम्हारा लाड़ला जब देखो बच्ची के बहाने अपनी भाभी के कमरे में ही पड़ा रहता है. उसे मैं ने डांटा भी है. पर बेशर्म को फर्क पड़े, तब न. तभी तो मैं तुम से उस की जल्दी शादी कर देने की बात कह रही हूं.’’ मम्मी गुस्से में थीं.

‘‘अरे भई, भाभी है उस की, जाता है तो इस में बुराई क्या है?’’ पापा ने सामान्य ढंग से उत्तर दिया.

‘‘इतने में ही बात होती तो मैं तुम से क्यों कहती? वह तो बेशर्म उस की पलंग पर भी देरदेर तक बैठने लगा है. कल कुछ ऊंचनीच हो जाए तो हम मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे,’’ मम्मी खीझ कर बोली थीं.

‘‘ओह, यह तो अच्छी बात नहीं,’’ फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘एक बात बता, ये दोनों एकदूसरे को चाहते हैं?’’

‘‘जब चाहते होंगे तभी तो बेशर्मी की हद पार कर रहे हैं,’’ मम्मी बोलीं.

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