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सब संस्कारों की बात है

लेखिका -कविता वर्मा    

Mother’s Day 2022: ममता की कीमत- भाग 3

आप जब तक नहीं आएंगी तब तक हम बच्ची के पैदा होने की खबर किसी को नहीं देंगे.’ मेरे पास अब कोई रास्ता नहीं बचा, इसलिए मैं पति के साथ अस्पताल गई. अस्पताल के जनरल वार्ड में लेटी हुई थी रोशनी. उस के चेहरे पर थकान साफ नजर आई. मुझे देख कर रोशनी ने उठने की कोशिश की और मैं ने उसे मना कर दिया. ‘आइए आंटी, अंकल, दादी, बच्ची को ले कर आंटी को दीजिए,’ अपने हाथों को जोड़ कर उस ने भावुक हो कर कहा, ‘अगर यह नन्ही सी जान इस दुनिया में सहीसलामत पहुंची है तो इस का श्रेय सिर्फ आप को जाता है. आप का एहसान हम कभी नहीं भूलेंगे.’ यह सुन कर मैं मुसकराई.

5 दिनों के बाद रोशनी अस्पताल से घर वापस लौटी. उस के बाद मेरी इजाजत के बगैर वह मेरे फ्लैट में आने लगी. खुद ही अपने बारे में सबकुछ बताने लगी. अपने अंतर्जातीय विवाह के बारे में, कैसे वे और मनोहर सब से छिप कर मुंबई आए और मजबूरी से इस बड़े फ्लैट को किराए पर लेना पड़ा, यह सब उसी ने बताया. बातोंबातों में यह भी कहा कि उन की मदद के लिए कोई नहीं है और वे दोनों बिलकुल अकेले हैं.

अचानक उस ने एक दिन मुझ से कहा, ‘आंटी, आप को मैं ने अपने मन में मां का दरजा दिया है, इसलिए आप ही मेरी बेटी का नामकरण करेंगी.’ पहले मैं ने मना किया मगर उन दोनों की जिद के आगे मुझे उसे स्वीकार करना पड़ा.

मैं ने उस बच्ची के लिए साबुन, पाउडर, फ्रौक, सोने की चेन, चूड़ी खरीद कर शाम को उस के फ्लैट में अपने पति के साथ गई. बच्ची को अपनी गोद में बिठा कर चेन और चूड़ी पहना कर बच्ची का नाम श्वेतांबरी रखा. रोशनी ने मुझे गले लगा कर कहा, ‘आप सच में मेरी मां ही हैं. आप जैसा विशाल हृदय हर किसी के पास नहीं होता.’

उस दिन के बाद श्वेता ज्यादा समय हमारे फ्लैट में ही रहती थी. मैं उसे प्यार से सोना ही पुकारती थी. बच्ची को नहलाने का काम मुझे सौंप दिया था रोशनी ने, इसलिए उस के लिए साबुन, तौलिया और पाउडर आदि हर महीने मैं ही खरीदती थी. उस के अलावा श्वेता के लिए मैं ने बहुत सारे खिलौने और तरहतरह की फ्रौक खरीदीं. संक्षेप में कहें तो श्वेता को ले कर एक पैसा भी खर्चा नहीं किया रोशनी ने. श्वेता के आने से मेरी जिंदगी पूरी तरह से बदल गई. मैं हमेशा उस के साथ ही व्यस्त रहने लगी.

अगर मैं एक दिन कहीं बाहर जाती तो मेरे वापस आने पर रोशनी आ कर मुझ से कहती, ‘क्या आंटी, आप अपनी सोना को छोड़ कर चली गईं और आप को पता है आप की सोना आप को ढूंढ़ कर बहुत रोने लगी, मैं ने उसे बहुत मुश्किल से अब तक संभाला. अब लीजिए अपनी सोना को.’ यह सब सुन मैं मन ही मन हंसती थी, क्योंकि एकडेढ़ साल की बच्ची क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती, इसे जानने तक का दिमाग नहीं है क्या मेरे पास.

हर महीने लगभग 5 हजार रुपए मैं सोना के लिए खर्च कर रही थी. और रोशनी जब भी मुंह खोलती, एक ही बात कहती थी, ‘आंटी हमारे पास पैसे नहीं हैं.’ श्वेता के पैदा होते समय जो 10 हजार रुपए हम ने दिए थे, उसे वापस देने के बारे में उस ने सोचा तक नहीं. इस के अलावा हम से कभीकभी रुपया कर्ज कह कर लेती पर उसे भी कभी वापस नहीं किया.

इसी बीच, एक दिन रोशनी ने आ कर कहा, ‘हम ने अपने घर का किराया 2 महीनों से नहीं दिया, इसलिए हमें मकान मालिक ने हम से घर खाली करने को कहा है.’ ऐसा कह कर उस ने मेरी ओर गौर से देखा. मैं ने तुरंत जवाब दिया, ‘तो अपनी हैसियत के अनुसार एक छोटा सा घर किराए पर ले लो.’ यह सुन कर रोशनी ने बिना कोई झिझक के कहा, ‘आंटी, अगर हम यह घर छोड़ कर चले जाएं तो आप अपनी सोना को देखे बिना कैसे रह सकती हैं?’ अब मुझे पता चला कि रोशनी क्या चाहती है. 2 महीनों का किराया ही नहीं, हर महीने का किराया वह मुझ से मांगने की उम्मीद ले कर आ गई है. मैं चुप रही.

अगली सुबह ही रोशनी अपना थोड़ा सा सामान बांध कर चलने के लिए तैयार हो गई. श्वेता को मेरे पास ले आई रोशनी. मैं ने अपने गरदन से 5 तोले की चेन उतार कर श्वेता के गले में डाल दी. वे चले गए और मैं अंदर आ गई.

मेरे पति ने मेरे चेहरे पर मन की सच्ची भावनाओं को समझने की कोशिश की. मैं उन के पास जा कर बैठी और अपने सिर को उन के कंधे पर रखा. ऐसा कर के मुझे भावनात्मक सुरक्षा महसूस हुई. ‘‘अनु, मैं तुम्हें समझ नहीं पाया. मैं जानता हूं तुम उस बच्ची से कितना प्यार करती हो. अगर तुम चाहो तो 3 महीनों का किराया दे कर हम उन्हें रोक सकते हैं. जरूरत पड़े तो हम हर महीने किराया दे सकते हैं. अगर उस बच्ची से तुम्हारे मन को सुकून मिलता है?’’

‘‘आप सच कहते हैं. मैं उस बच्ची से बहुत प्यार करती हूं और उस से प्यार जता कर ममता का अनुभव किया है मैं ने. मगर आप को मालूम है कि रोशनी ने श्वेता को मेरे पास क्यों छोड़ा था? रुपयों के लिए. अगर मैं उस की हर मांग पूरी न करती तो वह अपनी बच्ची मुझे दिखाती भी नहीं. सोना के जरिए बहुत बड़ी रकम हम से ऐंठने की योजना थी उस के मन में. आप को मालूम है सड़क पर तमाशा करने वाली बंजारन अपने नन्हे से बच्चे को लोगों की हमदर्दी पाने के लिए तमाशा करवाती है. ठीक उसी तरह रोशनी अपनी बच्ची का इस्तेमाल करती आई. मैं इस गलत काम में उस का साथ देना नहीं चाहती. सही किया न मैं ने.’’ पति ने मुझे गले लगाया. इस बंधन से जो प्यार मिलता है उस की कोई कीमत नहीं है.

फिल्म ‘रिक्शावाला’ का विश्व प्रीमियर ओटीटी प्लेटफार्म ‘बिगबैंग एम्यूजमेंट’ पर होगा

लेखक व निर्देशक राम कमल मुखर्जी की बीस से अधिकराष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी फिल्म ‘रिक्शावाला ’ का विश्व प्रीमियर बहुत जल्द ओटीटी प्लेटफार्म ‘बिगबैंग एम्यूजमेंट’पर होने वाला है. कस्तूरी चक्रबर्ती और अविनाश द्विवेदी के अभिनय से सजी फिल्म ‘ रिक्शावाला’ में कोलकता की सड़कों पर हाथ से रिक्शा  खींचने वालों की मार्मिक दास्तान है. अविनाश द्विवेदी ने रिक्शावाला की शीर्ष भूमिका निभायी है.फिल्म के संवाद भोजपुरी और बंगला भाषा में हैं.

अपनी फिल्म ‘रिक्शावाला’ के ओटीटी प्लेटफार्म पर आने पर खुशी जाहिर करते हुए लेखक व निर्देशक रामकमल मुखर्जी कहते हैं-‘‘फिल्म ‘रिक्शावाला’ एक विशेष मोड़ के साथ एक अनोखी प्रेम कहानी है.यह फिल्म वास्तव में मेरे दिल के करीब है.इसके पात्रों की मानवता और यथार्थ वाद इसे प्रासंगिक बनाती है. मैं भी इस तरह की सकारात्मक वैश्विक प्रतिक्रिया से अभिभूत हूं और यह सभी पुरस्कार और प्रशंसा वास्तव में उत्साह जनक हैंऔर मैं यथार्थवाद और सापेक्षता के साथ कई और कहानियां बताने का प्रयास करता हूं.’’

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रामकमल आगे कहते हैं- ‘‘अविनाश  द्विवेदी औ कस्तूरी चक्रवर्ती जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों के साथ काम करना एक अद्भुत अनुभव था,जिन्होंने अपने किरदारों को जीवंत बनाने के लिए अपना पसीना और खून बहाया.मैं अविनाश को जुहू में एक जन्मदिन की पार्टी में मिला था.जब कि कस्तूरी एक प्रसिद्ध टेलीविजन अदाकारा हैं.मैं वास्तव में ओटीटी बिगबैंग एम्यूजमेंट’के साथ जुड़कर उत्साहित हूं.’’
जबकि ‘बिगबैंग एम्यूजमेंट’’ के संस्थापक और सीईओ सुदीप मुखर्जी ने कहा-“हम बिगबैंग एम्यूजमेंट के उद्देश्य से अपने दर्शकों की मदद करने के लिए उन्हें किसी भी समय और कहीं भी भरोसेमंद और सार्थक कहानियां लाकर देते हैं.हम अपने दर्शकों  के लिए अंग्रेजी के साथ साथ दूसरी अलग-अलग भाषाओं और शैलियों की फिल्में व वेब सीरीज तलाशते रहते हैं. हमें रामकमलमुखर्जी और ‘एसोर्टेडमोशन पिक्चर्स जैसे प्रतिभाशाली निर्माता के साथ जुड़ने पर गर्व है कि हम अपनी सामग्री स्लेट पर पहली लघु-फिल्मका निर्माण कर सकें.

हम पुरस्कार विजेता ‘रिक्शावाला’;जैसी फिल्मों के साथ अपने प्लेटफार्म को लोकप्रिय बनाने की ख्वाहिश रखते हैं.’’मैड्रिड और स्पेन में आयोजित इमेजिन इंडिया उत्सव के लिए राइविंग शॉर्ट-फिल्म ने भी अपनी जगह बनाई और 13 वें अयोध्या अंतर्राष्ट्रीय  फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी प्राप्त किया.

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ठपपहह इंद हम नोरंजन जल्द ही लॉन्च करने के लिए तैयार है और दुनियाभर में अपने दर्शकों के मनोरंजन, प्रेरणादायक और मनोरंजक बनाने के उद्देश्य से एक प्रतिस्पर्धी और असमान सामग्रीस्लेट के साथ तैयार है.  प्रीमियरपर अपने विचार साझा करते हुए, अविनाश द्विवेदी कहते हैं-‘‘हमारी फिल्म ‘रिक्शावाला’ निश्चित रूप सेमेरे लिए एक मील का पत्थर है.इस फिल्म ने मुझे 13 वें अयोध्या अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार के अलावा कार्डिफ और मेलबर्न में पुरस्कारों से नवाजा व एक अभिनेता के रूप में बढ़ावा.दादा (राम कमलमुखर्जी)  से कथा सुनकर मैं इस फिल्म में काम करने को लेकर उत्साहित था. उनसे मिलने से पहले मैं उनकी वरिष्ठता को लेकर थोड़ा घबराया हुआ था, लेकिन उनसे मिलने के बाद,उन्होंने मुझे बहुत सहज महसूस कराया और हम एक पल में दोस्त बन गए.फिल्मका हर पहलू प्रासंगिक और मार्मिक है.

मैं वास्तव में फिल्म में अपने किरदार से जुड़ सकता था.यह रिक्षावाला ऐसा व्यक्ति है,जो अपने परिवार के लिए कुछ भी करेगा और वास्तव में अपने पेशे से प्यार करेगा.फिल्म आपको सोचने पर मजबूर कर देगी और आपको उन तरीकों से स्पर्श करेगी, जिन्हें आप भूल नहीं पाए हैं.मैं भोजपुरी संवादों के साथ सहज था,पर बंगाली भाषा से मैं बहुत परिचित नहीं था.फिर भी मैेन मेहनत की और मैने स्वयं भोजपुरी और बंगाली संवाद डब किए.’’

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अभिनेत्री  कस्तूरी चक्रवर्ती कहती हैं-‘‘रामदा की फिल्म ‘रिक्शावाला’ का हिस्सा बनना समृद्ध और प्रेरणादायक था.यह उन लोगों के जीवन पर एक कठोर नजर रखता है,जो कुछ पाने के लिए अपने तरीके से संघर्ष करते हैं.मेरे चरित्र के मामले में, वह दिल टूटने की मीठी यातना से गुजरती हैजो कुछ ऐसा है जिसे मैंने व्यक्तिगत रूप से गहराई से महसूस किया है.

रामदा ने उस यात्रा को अपने पात्र के जीवन में उतारने के लिए प्रोत्साहित किया. मुझे  लगता है कि यह फिल्म में लोगों की वास्तविकता और उनकी दृष्टिका अन फिल्टर्ड चित्रण है,जिसने इसे विश्वस्तर पर सभी प्रशंसा के योग्य बनाया.यह बहुत अच्छी बात है कि अब यह फिल्म विश्वभर के सभी सिनेमा प्रेमियों के लिए बिगबैंग एम्यूजमेंट’पर उपलब्ध होगी.’’

सुशांत सिंह राजपूत के इस दोस्त को हुआ कोरोना, क्वारंटाइन में हुआ बुरा हाल

कोरोना वायरस से इस वक्त हमारा पूरा देश परेशान चल रहा है. हर दिन लगभग 3 लाख से ज्यादा केस आ रहे हैं. वहीं ज्यादातर लोगों कि मौत ऑक्सीजन और बेड की कमी के कारण हो रही है. इस वायरस का शिकार आम आदमी से लेकर सेलेब्स तक हो रहे हैं.

अब इस लिस्ट में बॉलीवुड के दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के करीबी मित्र महेश शेट्टी का नाम भी अब शामिल हो गया है. महेश को माइल्ड कोरोना है. कुछ वकत् पहले वह कोरोना के मरीजों कि देखभाल कर रहे थें, इस दौरान वह भी चपेट में आ गए हैं.

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रिपोर्ट्स कि माने तो अभिनेता इस वक्त अपने घर पर क्वारेंटाइन हैं और घर पर ही रहकर डॉक्टर के सलाह से अपना इलाज ले रहे हैं. सोशल मीडिया अकाउंट के जरिए उन्होंने लोगों से मदद कि अपील की है.

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इतना ही नहीं महेश ने पीएम केयर फंड में भी अपने हैसियत के मुताबिक पैसा डाला है. महेश शेट्टी टीवी जगत के लोकप्रिय कलाकारों में से एक हैं. उन्होंने सीरियल ‘किस देश में है मेरा दिल ‘  से अपने कैरियर की शुरुआत की थी. जहां पर लोगों ने उन्हें खूब पसंद भी किया था.

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इस सीरियल के बाद महेश को सुशांत अंकिता के सीरियल ‘पवित्र रिश्ता ‘  में देखा गया था. इसके अलावा भी वह कई सीरियल्स में नजर आ चुके हैं. महेश जल्द सोनाक्षी सिन्हा के साथ भी नजर आने वाले हैं उनकी अपकमिंग फिल्म में.

भाई के निधन के बाद माता पिता को लेकर परेशान हुईं बिग बॉस 14 फेम निक्की तम्बोली, कर रही हैं ये दुआ

कोरोना वायरस  ने कई लोगों के अपनों से उन्हें दूर कर दिया है. कई टीवी सितारों ने भी अपनों को खो दिया जिसमें एक नाम निक्की तम्बोली का भी है. हाल ही में उन्होंने  अपने छोेटे भाई को खोया है. जिसके बाद से वह काफी ज्यादा दुखी हैं.

निक्की तम्बोली के भाई जतिन तम्बोली कोरोना से संक्रमित थें. जिसके बाद उनका देहांत हो गया है. निक्की के भाई की हालात खराब होने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया, जिसके बाग लाख इलाज करवाने के बाद भी उन्होंने कोरोना से दम तोड़ दिया.

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भाई के जाने के बाद से निक्की तम्बोली बुरी तरह से टूट गई हैं. निक्की को अब अपने माता- पिता कि चिंता सताने लगी है. निक्की के माता- पिता को भी कोविड है इसलिए वह बहुत ज्यादा डरी हुईं हैं.  वहीं निक्की तम्बोली हर दिन भगवान से एक ही प्रार्थना कर रही हैं कि भगवान उन्हें शक्ति दें कि उनके माता- पिता इस सदमें को बर्दाश्त कर सकें.

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कुछ वक्त पहले ही निक्की ने अपने माता-पिता की तस्वीर शेयर करते हुए लिखा है कि हे भगवान हमें शक्ति दें मैं और मेरे माता पिता इस सदमें से बाहर आ जाएं और मैं एक दिन अपने माता-पिता का नाम रौशन करुंगी.

 

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मैं उनके चेहरे पर खुशी लाने की पूरी कोशिश कर रही हूं मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मेरे माता-पिता इस सदमें को कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं. मेरे माता -पिता ने एक ही परिवार में दो लोगों को खोया है 14 दिन पहले मेरी दादी गुजर गई और उसके बाद भाई चला गया. मैं दुआ करती हूं कि भगवान मेरे मां बाप को इस दुख को झेलने की शक्ति दें.

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निक्की के इस ट्विट के बाद से लगातार उनके फैंस उन्हें सांत्वना दें रहे हैं. उन्हें समझा रहे हैं कि निक्की हिम्मत रखों.

मदर्स डे स्पेशल : अनमोल उपहार -भाग 1

दीवार का सहारा ले कर खड़ी दादीमां थरथर कांप रही थीं. उन का चेहरा आंसुओं से भीगता जा रहा था. तभी वह बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘बस, यही दिन देखना बाकी रह गया था उफ, अब मैं क्या करूं? कैसे विश्वनाथ की नजरों का सामना करूं?’’

सहसा नेहा उठ कर उन के पास चली आई और बोली, ‘‘दादीमां, जो होना था हो गया. आप हिम्मत हार दोगी तो मेरा और विपुल का क्या होगा?’’

दादीमां ने अपने बेटे विश्वनाथ की ओर देखा. वह कुरसी पर चुपचाप बैठा एकटक सामने जमीन पर पड़ी अपनी पत्नी गायत्री के मृत शरीर को देख रहा था.

आज सुबह ही तो इस घर में जैसे भूचाल आ गया था. रात को अच्छीभली सोई गायत्री सुबह बिस्तर पर मृत पाई गई थी. डाक्टर ने बताया कि दिल का दौरा पड़ा था जिस में उस की मौत हो गई. यह सुनने के बाद तो पूरे परिवार पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी.

दादीमां तो जैसे संज्ञाशून्य सी हो गईं. इस उम्र में भी वह स्वस्थ हैं और उन की बहू महज 40 साल की उम्र में इस दुनिया से नाता तोड़ गई? पीड़ा से उन का दिल टुकड़ेटुकड़े हो रहा था.

नेहा और विपुल को सीने से सटाए दादीमां सोच रही थीं कि काश, विश्वनाथ भी उन की गोद में सिर रख कर अपनी पीड़ा का भार कुछ कम कर लेता. आखिर, वह उस की मां हैं.

सुबह के 11 बज रहे थे. पूरा घर लोगों से खचाखच भरा था. वह साफ देख रही थीं कि गायत्री को देख कर हर आने वाले की नजर उन्हीं के चेहरे पर अटक कर रह जाती है. और उन्हें लगता है जैसे सैकड़ों तीर एकसाथ उन की छाती में उतर गए हों.

‘‘बेचारी अम्मां, जीवन भर तो दुख ही भोगती आई हैं. अब बेटी जैसी बहू भी सामने से उठ गई,’’ पड़ोस की विमला चाची ने कहा.

विपुल की मामी दबे स्वर में बोलीं, ‘‘न जाने अम्मां कितनी उम्र ले कर आई हैं? इस उम्र में ऐसा स्वास्थ्य? एक हमारी दीदी थीं, ऐसे अचानक चली जाएंगी कभी सपने में भी हम ने नहीं सोचा था.’’

‘‘इतने दुख झेल कर भी अब तक अम्मां जीवित कैसे हैं, यही आश्चर्य है,’’ नेहा की छोटी मौसी निर्मला ने कहा. वह पास के ही महल्ले में रहती थीं. बहन की मौत की खबर सुन कर भागी चली आई थीं.

दादीमां आंखें बंद किए सब खामोशी से सुनती रहीं पर पास बैठी नेहा यह सबकुछ सुन कर खिन्न हो उठी और अपनी मौसी को टोकते हुए बोली, ‘‘आप लोग यह क्या कह रही हैं? क्या हक है आप लोगों को दादीमां को बेचारी और अभागी कहने का? उन्हें इस समय जितनी पीड़ा है, आप में से किसी को नहीं होगी.’’

‘‘नेहा, अभी ऐसी बातें करने का समय नहीं है. चुप रहो…’’ तभी विश्वनाथ का भारी स्वर कमरे में गूंज उठा.

गायत्री के क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार चले गए तो सारा घर खाली हो गया. गायत्री थी तो पता ही नहीं चलता था कि कैसे घर के सारे काम सही समय पर हो जाते हैं. उस के असमय चले जाने के बाद एक खालीपन का एहसास हर कोई मन में महसूस कर रहा था.

एक दिन सुबह नेहा चाय ले कर दादीमां के कमरे में आई तो देखा वे सो रही हैं.

‘‘दादीमां, उठिए, आज आप इतनी देर तक सोती रहीं?’’ नेहा ने उन के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘बस, उठ ही रही थी बिटिया,’’ और वह उठने का उपक्रम करने लगीं.

‘‘पर आप को तो तेज बुखार है. आप लेटे रहिए. मैं विपुल से दवा मंगवाती हूं,’’ कहती हुई नेहा कमरे से बाहर चली गई.

दादीमां यानी सरस्वती देवी की आंखें रहरह कर भर उठती थीं. बहू की मौत का सदमा उन्हें भीतर तक तोड़ गया था. गायत्री की वजह से ही तो उन्हें अपना बेटा, अपना परिवार वापस मिला था. जीवन भर अपनों से उपेक्षा की पीड़ा झेलने वाली सरस्वती देवी को आदर और प्रेम का स्नेहिल स्पर्श देने वाली उन की बहू गायत्री ही तो थी.

 

अमीर हो या गरीब, सब पर पड़ी कोरोना की मार

इस बार माहमारी ने अमीरों को भी डसा है. कोविड ने लगता है कि अमीरों को ज्यादा बिमार किया है जो वायरस से मुकाबला करना नहीं जानते. जो पहले से गंदे मकानों, गंदी सडक़ों, गंदे पाखानों, गंदे कपड़ों के आदी है. उन्हें यह रोग या तो पकड़ नहीं पाया या फिर बिना पहचान कराए वे बिमार पड़े, मरे या ठीक हो गए पर अस्पताल नहीं गए, सरकारी नंबरों में शामिल नहीं हुए.

कोविड ने गरीबों को बेकारी से ज्यादा मारा है. पिछले मार्चअप्रैल 2020 में जब कारखाने बंद हुए और इस बार फिर जब दोबारा बंद होने लगे तो लाखों की नौकरियां या धंधे चौपट हो गए. फर्क तो अमीरों को भी पड़ा जिन की बचत खत्म हो गई पर वे सह सकते थे. उन्हें भी दर्द झेलना पड़ा क्योंकि वे इस के आदी नहीं थे. आम गरीब के लिए तो यह रोज की बात है.

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यह गनीमत है कि देश में जगहजगह अस्पताल बन चुके हैं. 2014 के बाद तो मंदिर ही बने रहे है पर पहले धड़ाधड़ स्कूल और क्लिनिक बने थे. गांवों कस्बों में स्कूलों को अस्पतालों की तरह इस्तेमाल करा जा रहा है और जो भी दबा मिल रही है वह ले कर बचने की कोशिश हो रही है. यह पक्का है कि दिल्ली में बैठी नरेंद्र मोदी की सरकार ने जिस हल्के से इस बिमारी का गरीबों पर पडऩे वाले असर को लिया, वह बेहद खलता है.

हारी बिमारी किसी को भी हो सकती है और इसलिए यह सरकार को मुफ्त देनी होगी. मुफ्त का मतलब सिर्फ इतना है कि सब थोड़ाथोड़ा पैसा टैक्स की शक्ल में देंगे. हर गांव कस्बे में एंबूलेंस और अस्पताल होने चाहिए चाहे केंद्र सरकार के हों, राज्य सरकार के या पंचायक के. जब थाने हर जगह बन सकते हैं तो हस्पताल क्यों नहीं. शायद इसलिए कि थानों के जरिए लोगों पर राज किया जाता है और अस्पताल में सेवा करनी हाोती है. सरकार के दिमाग में कहीं यह कीड़ा बैठा है कि वे राज करने के लिए हैं, लूटने के लिए, मंदिरों की तरह लेने के लिए हैं, किसी को कुछ देने के लिए नहीं.

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अस्पताल खोलो तो नेताओं की मुसीबत आती है. शिकायतें शुरू हो जाती हैं कि डाक्टर समय पर नहीं आते, सफाई नहीं होती, दवाएं चोरी हो रही हैं, जगह कम है. थाना खोलो तो कोई शिकायत नहीं. पुलिस वालों का डंडा सबको ठीक कर देता है.

नरेंद्र मोदी की सरकार वैसे भी उस पौराणिक सोच पर चलती है कि एक बड़े हिस्से का काम सेवा करना है. कुछ पाना नहीं. हमारे पुराण कहीं भी गरीबों को दान देने की बात करते नजर नहीं आते. फिर कोविड जैसी बिमारी के लिए बेकारी के लिए या बिमारी के लिए दान की उम्मीद करना ही बेकार है. देश भर में गरीब यह मांग कर भी नहीं रहे. शहरी लोग ही औक्सीजन, वैंटीलेटर, बैड, रेमेडिसिवर को हल्ला मचा रहे हैं.

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लेकिन यह न भूलें कि कोविड ने देश को 10-15 साल पीछे धकेल दिया है. सरकार टैक्स चाहे ज्यादा वसूल ले पर आम जनता गरीब हो गई है और गरीब और गरीब हो गया है. वह कोविड से चाहे मरे या न मरे खराब खाने और बेरोजगारी से जरूर मरेगा.

अनमोल उपहार

मदर्स डे स्पेशल : काश, मेरी बेटी होती-भाग 2

दूसरे दिन जयंति सुबह से बेटी की फरमाइश पूरी करने में लग गई. घर भी ठीक कर दिया. बेटी ने बाकी घर पर ध्यान भी नहीं दिया. सिर्फ अपना कमरा ठीक किया. ठीक 11 बजे घंटी बजी. दरवाजा खोला तो जयंति गिरतेगिरते बची. आगंतुकों में 4 लड़के थे और 3 लड़कियां. जिन लड़कों को वह थोड़ी देर भी नहीं पचा पाती थी, उन्हें उस दिन उस ने पूरा दिन  झेला और वह भी बेटी के कमरे में. आठों बच्चों ने वहीं खायापिया, वहीं हंगामा किया और खापी कर बरतन बाहर खिसका दिए. जयंति थक कर पस्त हो गई.

बेटी फोन पर जब खिलखिला कर चमकती आंखों से लंबीलंबी बातें करती तो जयंति का दिल करता उस के हाथ से फोन छीन कर जमीन पर पटक दे. फोन से तो उसे सख्त नफरत हो गई थी. मोबाइल फोन के आविष्कारक मार्टिन कूपर को तो वह सपने में न जाने कितनी बार गोली मार चुकी थी. सारे  झगड़े की जड़ है यह मोबाइल फोन.

बेटी कभी अपने दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाती तो कभी लौंगड्राइव पर. हां, इन मस्तियों के साथ एक बात जो उन सभी युवाओं में वह स्पष्ट रूप से देखती, वह थी अपने भविष्य के प्रति सजगता. लड़के तो थे ही, पर लड़कियां उन से अधिक थीं. अपना कैरियर बनाने के लिए उन्मुख उन लड़कियों के सामने उन की मंजिल स्पष्ट थी और वे उस के लिए प्रयासरत थीं. घरगृहस्थी के काम, विवाह आदि के बारे में तो वे बात भी न करतीं, न उन्हें कोई दिलचस्पी थी.

जयंति जब इन युवा लड़कियों की तुलना अपने समय की लड़कियों से करती तो पसोपेश में पड़ जाती. उस का जमाना भी तो कोई बहुत अधिक पुराना नहीं था पर कितना बदल गया है. लड़कियों की जिंदगी का उद्देश्य ही बदल गया. कभी लगता उस का खुद का जमाना ठीक था, कभी लगता इन का जमाना अधिक सही है. लड़केलड़कियों की सहज दोस्ती के कारण इस उम्र में आए स्वाभाविक संवेगआवेग इसी उम्र में खत्म हो जाते हैं और बच्चे उन की पीढ़ी की अपेक्षा अधिक प्रैक्टिकल हो जाते हैं.

पर फिर दिमागधारा दूसरी तरफ मुड़ जाती और वह शोभा व रक्षा के सामने अपनी बेटी को ले कर अपना रोना रोती रहती, उस के भविष्य को ले कर निराधार काल्पनिक आशंकाएं जताती रहती.

उधर, रक्षा की बहू भी तो कोई पुरानी फिल्मों की नायिका न थी. आखिर जयंति की बेटी जैसी ही एक लड़की रक्षा की बहू बन कर घर आ गई थी. अभी एक ही साल हुआ था विवाह हुए, इसलिए गृहस्थी के कार्य में वह बिलकुल अनगढ़ थी. हां, बेटाबहू दोनों एकदूसरे के प्यार में डूबे रहते. सुबह देर से उठते. बेटा भागदौड़ कर तैयार होता, मां का बनाया नाश्ता करता और औफिस की तरफ दौड़ लगा देता. थोड़ी देर बाद बहू भी चेहरे पर मीठी मुसकान लिए तैयार हो कर बाहर आती और रक्षा उसे भी नाश्ते की प्लेट पकड़ा देती. बहू के चेहरे पर दूरदूर तक कोई अपराधबोध न होता कि उसे थोड़ा जल्दी उठ कर काम में सास का हाथ बंटाना चाहिए था. इतना तो उस के दिमाग में भी न आता.

रक्षा सोचती, ‘‘चलो सुबह न सही, अब लंच और डिनर में बहू कुछ मदद कर देगी. पर नाश्ते के बाद बहू आराम से लैपटौप सामने खींचती और डाइनिंग टेबल पर बैठ कर नैट पर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने में व्यस्त हो जाती. वह अपनी लगीलगाई नौकरी छोड़ कर आई थी, इसलिए अब यहां पर नौकरी ढूंढ़ रही थी.

पायल छनकाती बहू का ख्वाब देखने वाली रक्षा का वह सपना तो ढेर हो चुका था. बहू के वैस्टर्न कपड़े पचाने बहुत भारी पड़ते थे. शुरूशुरू में आसपड़ोस की चिंता रहती थी, पर किसी ने कुछ न कहा. सभी अधेड़ तो इस दौर से गुजर रहे थे. वे इस नई पीढ़ी को अपनी पुरानी नजरों से देखपरख रहे थे. बेटा शाम को औफिस से आता तो रक्षा सोचती कि बहू उन के लिए न सही, अपने पति के लिए ही चाय बना दे. पर बेटा जो कमरे में घुसता, तो गायब हो जाता. कभी दोनों तैयार हो कर बाहर आते, ‘मम्मी, हम बाहर जा रहे हैं. खाना खा कर आएंगे.’ उस के उत्तर का इंतजार किए बिना वे निकल जाते और रक्षा इतनी देर से मेहनत कर बनाए खाने को घूरती रह जाती, ‘पहले नहीं बता सकते थे.’’

बेटे के विवाह के बाद उस का काम बहुत बढ़ गया था. आई तो एक बहू ही थी पर उस के साथ एक नया रिश्ता आया था, रिश्तेदार आए थे. जिन को सहेजने में उस की ऐसी की तैसी हो जाती थी. बेटेबहू के अनियमित व अचानक बने प्रोग्रामों की वजह से उस की खुद की दिनचर्या अनियमित हो रही थी. अच्छी मां व सास बनने के चक्कर में वह पिस रही थी. बच्चों की हमेशा बेसिरपैर की दिनचर्या देख कर उस ने बच्चों को घर की एक चाबी ही पकड़ा दी कि वे जब भी कहीं जाएं तो चाबी साथ ले कर जाएं. क्योंकि उन की वजह से वे दोनों कहीं नहीं जा पाते. रसोई में मदद के लिए एक कामवाली का इंतजाम किया. तब जा कर थोड़ी समस्या सुल झी. अब बहू को नौकरी मिल गई थी. सो, वह भी बेटे के साथ घर से निकल जाती और उस से थोड़ी देर पहले ही घर आती व सीधे अपने कमरे में घुस कर आराम करती.

रक्षा सोचती, ‘मजे हैं आजकल की लड़कियों के. शादी से पहले भी अपनी मरजी की जिंदगी जीती हैं और बाद में भी. एक उस की पीढ़ी थी, पहले मांबाप का डर, बाद में सासससुर और पति का डर और अब बेटेबहू का डर. आखिर अपनी जिंदगी कब जी हमारी पीढ़ी ने?’ रक्षा की सोच भी जयंति की तरह नईपुरानी पीढ़ी के बीच  झूलती रहती. कभी अपनी पीढ़ी सही लगती, कभी आज की.

उन की खुद की पीढ़ी ने तो विवाह से पहले मातापिता की भी मौका पड़ने पर जरूरत पूरी की. संस्कारी बहू रही तो ससुराल में सासससुर के अलावा बाकी परिवार की भी साजसंभाल की और अब बहूबेटों के लिए भी कर रहे हैं. कल इन के बच्चे भी पालने पड़ेंगे.

शिक्षित रक्षा सोचती, आखिर महिला सशक्तीकरण का युग इसी पीढ़ी के हिस्से आया है. पर उन की पीढ़ी की महिलाएं कब इस सशक्तीकरण का हिस्सा बनेंगी जिन पर पति नाम के जीव ने भी पूरा शासन किया, रुपए भी गिन कर दिए, जबकि, खुद ने अच्छाखासा कमा लाने लायक शिक्षा अर्जित की थी.

 

मदर्स डे स्पेशल : अनमोल उपहार -भाग 3

धूमधाम से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. सरस्वती का भी जी चाहता था कि वह बहू के लिए गहनेकपड़े का चुनाव करने ननद के साथ बाजार जाए. पड़ोस की औरतों के साथ बैठ कर विवाह के मंगल गीत गाए. पर मन की साध अधूरी ही रह गई.

धूमधाम से शादी हुई और गायत्री ने दुलहन के रूप में इस घर में प्रवेश किया.

गायत्री एक सुलझे विचारों वाली लड़की थी. 2-3 दिन में ही उसे महसूस हो गया कि उस की विधवा सास अपने ही घर में उपेक्षित जीवन जी रही हैं. घर में बूआ का राज चलता है. और उस की सास एक मूकदर्शक की तरह सबकुछ देखती रहती हैं.

उसे लगा कि उस का पति भी अपनी मां के साथ सहज व्यवहार नहीं करता. मांबेटे के बीच एक दूरी है, जो नहीं होनी चाहिए. एक शाम वह चाय ले कर सास के कमरे में गई तो देखा, वह बिस्तर पर बैठी न जाने किन खयालों में गुम थीं.

‘अम्मांजी, चाय पी लीजिए,’ गायत्री ने कहा तो सरस्वती चौंक पड़ी.

‘आओ, बहू, यहां बैठो मेरे पास,’ बहू को स्नेह से अपने पास बिठा कर सरस्वती ने पलंग के नीचे रखा संदूक खोला. लाल मखमल के डब्बे से एक जड़ाऊ हार निकाल कर बहू के हाथ में देते हुए बोली, ‘यह हार मेरे पिता ने मुझे दिया था. मुंह दिखाई के दिन नहीं दे पाई. आज रख लो बेटी.’

गायत्री ने सास के हाथ से हार ले कर गले में पहनना चाहा. तभी बूआ कमरे में चली आईं. बहू के हाथ से हार ले कर उसे वापस डब्बे में रखते हुए बोलीं, ‘तुम्हारी मत मारी गई है क्या भाभी? जिस हार को साल भर भी तुम पहन नहीं पाईं, उसे बहू को दे रही हो? इसे क्या गहनों की कमी है?’

सरस्वती जड़वत बैठी रह गई, पर गायत्री से रहा नहीं गया. उस ने टोकते हुए कहा, ‘बूआजी, अम्मां ने कितने प्यार से मुझे यह हार दिया है. मैं इसे जरूर पहनूंगी.’

सामने रखे डब्बे से हार निकाल कर गायत्री ने पहन लिया और सास के पांव छूते हुए बोली, ‘मैं कैसी लगती हूं, अम्मां?’

‘बहुत सुंदर बहू, जुगजुग जीयो, सदा खुश रहो,’ सरस्वती का कंठ भावातिरेक से भर आया था. पहली बार वह ननद के सामने सिर उठा पाई थी.

गायत्री ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपनी सास को पूरा आदर और प्रेम देगी. इसीलिए वह साए की तरह उन के साथ लगी रहती थी. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया, विश्वनाथ की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. जिस दिन दोनों को रामनगर लौटना था उस सुबह गायत्री ने पति से कहा, ‘अम्मां भी हमारे साथ चलेंगी.’

‘क्या तुम ने अम्मां से पूछा है?’ विश्वनाथ ने पूछा तो गायत्री दृढ़ता भरे स्वर में बोली, ‘पूछना क्या है. क्या हमारा फर्ज नहीं कि हम अम्मां की सेवा करें?’

‘अभी तुम्हारे खेलनेखाने के दिन हैं, बहू. हमारी चिंता छोड़ो. हम यहीं ठीक हैं. बाद में कभी अम्मां को ले जाना,’ बूआ ने टोका था.

‘बूआजी, मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है,’ गायत्री बोली, ‘अम्मां की सेवा करूंगी, तो मन को अच्छा लगेगा.’

आखिर गायत्री के आगे बूआ की एक न चली और सरस्वती बेटेबहू के साथ रामनगर आ गई थी.

कुछ दिन बेहद ऊहापोह में बीते. जिस बेटे को बचपन से अपनी आंखों से दूर पाया था, उसे हर पल नजरों के सामने पा कर सरस्वती की ममता उद्वेलित हो उठती, पर मांबेटे के बीच बात नाममात्र को होती.

गायत्री मांबेटे के बीच फैली लंबी दूरी को कम करने का भरपूर प्रयास कर रही थी. एक सुबह नाश्ते की मेज पर अपनी मनपसंद भरवां कचौडि़यां देख कर विश्वनाथ खुश हो गया. एक टुकड़ा खा कर बोला, ‘सच, तुम्हारे हाथों में तो जादू है, गायत्री.’

‘यह जादू मां के हाथों का है. उन्होंने बड़े प्यार से आप के लिए बनाई है. जानते हैं, मैं तो मां के गुणों की कायल हो गई हूं. जितना शांत स्वभाव, उतने ही अच्छे विचार. मुझे तो ऐसा लगता है जैसे मेरी सगी मां लौट आई हों.’

धीरेधीरे विश्वनाथ का मौन टूटने लगा  अब वह यदाकदा मां और पत्नी के साथ बातचीत में भी शामिल होने लगा था. सरस्वती को लगने लगा कि जैसे उस की दुनिया वापस उस की मुट्ठी में लौटने लगी है.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. वैसे भी जब खुशियों के मधुर एहसास से मन भरा हुआ होता है तो समय हथेली पर रखी कपूर की टिकिया की तरह तेजी से उड़ जाता है. जिस दिन गायत्री ने लजाते हुए एक नए मेहमान के आने की सूचना दी, उस दिन सरस्वती की खुशी की इंतहा नहीं थी.

‘बेटी, तू ने तो मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’

‘अभी कहां, अम्मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन वास्तव में आप की मुराद पूरी होगी.’

गायत्री ने स्नेह से सास का हाथ दबाते हुए कहा तो सरस्वती की आंखें छलक आईं.

गायत्री ने कहा, ‘मन के बुरे नहीं हैं. न ही आप के प्रति गलत धारणा रखते हैं. पर बचपन से जो बातें कूटकूट कर उन के दिमाग में भर दी गई हैं उन का असर धीरेधीरे ही खत्म होगा न? बूआ का प्रभाव उन के मन पर बचपन से हावी रहा है. आज उन्हें इस बात का एहसास है कि उन्होंने आप का दिल दुखाया है.’

गायत्री के मुंह से यह सुन कर सरस्वती का चेहरा एक अनोखी आभा से चमक उठा था.

गायत्री की गोदभराई के दिन घर सारे नातेरिश्तेदारों से भरा हुआ था. गहनों और बनारसी साड़ी में सजी गायत्री बहुत सुंदर लग रही थी.

‘चलो, बहू, अपना आंचल फैलाओ. मैं तुम्हारी गोद भर दूं,’ बूआ ने मिठाई और फलों से भरा थाल संभालते हुए कहा.

‘रुकिए, बूआजी, बुरा मत मानिएगा. पर मेरी गोद सब से पहले अम्मां ही भरेंगी.’

‘यह तुम क्या कह रही हो, बहू? ये काम सुहागन औरतों को ही शोभा देता है और तुम्हारी सास तो…’ पड़ोस की विमला चाची ने टोका, तो कमला बूआ जोर से बोलीं, ‘रहने दो बहन, 4 अक्षर पढ़ कर आज की बहुएं ज्यादा बुद्धिमान हो गई हैं. अब शास्त्र व पुराण की बातें कौन मानता है?’

‘जो शास्त्र व पुराण यह सिखाते हों कि एक स्त्री की अस्मिता कुछ भी नहीं और एक विधवा स्त्री मिट्टी के ढेले से ज्यादा अहमियत नहीं रखती, मैं ऐसे शास्त्रों और पुराणों को नहीं मानती. आइए, अम्मांजी, मेरी गोद भरिए.’

गायत्री का आत्मविश्वास से भरा स्वर कमरे में गूंज उठा. सरस्वती जैसे नींद से जागी. मन में एक अनजाना भय फिर दस्तक देने लगा.

‘नहीं बहू, बूआ ठीक कहती हैं,’ उस का कमजोर स्वर उभरा.

‘आइए, अम्मां, मेरी गोद पहले आप भरेंगी फिर कोई और.’

बहू की गोद भरते हुए सरस्वती की आंखें मानो पहाड़ से फूटते झरने का पर्याय बन गई थीं. रोमरोम से बहू के लिए आसीस का एहसास फूट रहा था.

निर्धारित समय पर विपुल का जन्म हुआ तो सरस्वती उसे गोद में समेट अतीत के सारे दुखों को भूल गई. विपुल में नन्हे विश्वनाथ की छवि देख कर वह प्रसन्नता से फूली नहीं समाती थी.

अपने बेटे के लिए जोजो अरमान संजोए थे, वह सारे अरमान पोते के लालनपालन में फलनेफूलने लगे. फिर 2 साल के बाद नेहा गायत्री की गोद में आ गई. सरस्वती की झोली खुशियों की असीम सौगात से भर उठी थी. गायत्री जैसी बहू पा कर वह निहाल हो उठी थी. विश्वनाथ और उस के बीच में तनी अदृश्य दीवार गायत्री के प्रयास से टूटने लगी थी. बेटे और मां के बीच का संकोच मिटने लगा था.

अब विश्वनाथ खुल कर मां के बनाए खाने की प्रशंसा करता. कभीकभी मनुहारपूर्वक कोई पकवान बनाने की जिद भी कर बैठता, तो सरस्वती की आंखें गायत्री को स्नेह से निहार, बरस पड़तीं. कौन से पुण्य किए थे जो ऐसी सुघड़ बहू मिली. अगर इस ने मेरा साथ नहीं दिया होता तो गांव के उसी अकेले कमरे में बेहद कष्टमय बुढ़ापा गुजारने पर मैं विवश हो जाती.

समय अपनी गति से बीतता रहा. 3 वर्ष पहले कमला बूआ की मृत्यु हो गई. विपुल ने इसी साल मैट्रिक की परीक्षा दी थी. और नेहा 8वीं कक्षा की होनहार छात्रा थी. दोनों बच्चों के प्राण तो बस, अपनी दादी में ही बसते थे.

गायत्री ने उन का दामन जमाने भर की खुशियों से भर दिया था और वही गायत्री इस तरह, अचानक उन्हें छोड़ गई? उन की सोच को एक झटका सा लगा.

‘‘दादीमां, दवा ले लीजिए,’’ पोती नेहा की आवाज से वह वर्तमान में लौटीं. उठने की कोशिश की पर बेहोशी की गर्त में समाती चली गईं.

नेहा की चीख सुन कर सब कमरे में भागे चले आए. विपुल दौड़ कर डाक्टर को बुला लाया. मां के सिरहाने बैठे विश्वनाथ की आंखें रहरह कर भीग उठती थीं.

‘‘इन्हें बहुत गहरा सदमा पहुंचा है, विश्वनाथ बाबू. इस उम्र में ऐसे सदमे से उबरना बहुत मुश्किल होता है. मैं कुछ दवाएं दे रहा हूं. देखिए, क्या होता है?’’

डाक्टर ने कहा तो विपुल और नेहा जोरजोर से रोने लगे.

‘‘दादीमां, तुम हमें छोड़ कर नहीं जा सकतीं. मां तुम्हारे ही भरोसे हमें छोड़ कर गई हैं,’’ नेहा के रुदन से सब की आंखें नम हो गई थीं.

4 दिन तक दादीमां नीम बेहोशी की हालत में पड़ी रहीं. 5वें दिन सुबह अचानक उन्हें होश आया. आंखें खोलीं और करवट बदलने का प्रयास किया तो हाथ किसी के सिर को छू गया. दादीमां ने चौंक कर देखा. उन के पलंग की पाटी से सिर टिकाए उन का बेटा गहरी नींद में सो रहा था. कुरसी पर अधलेटे विश्वनाथ का सिर मां के पैरों के पास था.

तभी नेहा कमरे में आ गई. दादी की आंखें खुली देख वह खुशी से चीख पड़ी, ‘‘पापा, दादीमां को होश आ गया.’’ विश्वनाथ चौंक कर उठ बैठे.

बेटे से नजर मिलते ही दादीमां का दिल फिर से धकधक करने लगा. मन की पीड़ा अधरों से फूट पड़ी.

‘‘मैं सच में आभागी हूं, बेटा. मनहूस हूं, तभी तो सोने जैसी बहू सामने से चली गई और मुझे देख, मैं फिर भी जिंदा बच गई. मेरे जैसे मनहूस लोगों को तो मौत भी नहीं आती.’’

‘‘नहीं मां, ऐसा मत कहो. तुम ऐसा कहोगी तो गायत्री की आत्मा को तकलीफ होगी. कोई इनसान मनहूस नहीं होता. मनहूस तो होती हैं वे रूढि़यां, सड़ीगली परंपराएं और शास्त्रपुराणों की थोथी अवधारणाएं जो स्त्री और पुरुष में भेद पैदा कर समाज में विष का पौधा बोती हैं. अब मुझे ही देख लो, गायत्री की मृत्यु के बाद किसी ने मुझे अभागा या बेचारा नहीं कहा.

‘‘अगर गायत्री की जगह मेरी मृत्यु हुई होती तो समाज उसे अभागी और बेचारी कह कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता.’’

दादीमां आंखें फाड़े अपने बेटे का यह नया रूप देख रही थीं. गायत्री जैसे पारस के स्पर्श से उन के बेटे की सोच भी कुंदन हो उठी थी.

विश्वनाथ अपनी रौ में कहे जा रहा था, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां. बचपन से ही मैं तुम्हारा प्यार पाने में असमर्थ रहा. अब तुम्हें हमारे लिए जीना होगा. मेरे लिए, विपुल के लिए और नेहा के लिए.’’

‘‘बेटा, आज मैं बहुत खुश हूं. अब अगर मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.’’

‘‘नहीं मां, अभी तुम्हें बहुत से काम करने हैं. विपुल और नेहा को बड़ा करना है, उन की शादियां करनी हैं और मुझे वह सारा प्यार देना है जिस से मैं वंचित रहा हूं,’’ विश्वनाथ बच्चे की तरह मां की गोद में सिर रख कर बोला.

सरस्वती देवी के कानों में बहू के कहे शब्द गूंज उठे थे.

‘मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन आप के मन की मुराद पूरी होगी. आप के प्रति उन का पछतावे से भरा एहसास जल्दी ही असीम स्नेह और आदर में बदल जाएगा, देखिएगा.’

सरस्वती देवी ने स्नेह से बेटे को अपने अंक में समेट लिया. बहू द्वारा दिए गए इस अनमोल उपहार ने उन की शेष जिंदगी को प्राणवान कर दिया था.

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