पश्चिमी बंगाल ही नहीं, तमिलनाडू और करेल में भी भारतीय जनता पार्टी की हार से यह साबित हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी का ऊंचनीच और भेदभाव वाला खेल कम से कम कुछ राज्यों में तो नहीं चलेगा. पश्चिमी बंगाल जिस तरह से छोटी सी, अकेली सी, कमजोर सी ममता बैनर्जी भारतीय जनता पार्टी के खातेपीते दिखते लोगों की धन्ना सेठों की बरात का मुकाबला किया यह काबिले तारीफ था. 214 सीटें जीत कर उस ने भाजपा का इस बार 200 से घर का सपना धराशाई कर डाला.

तमिलनाडू और केरल में भारतीय जनता पार्टी इतनी बेचैन भी नहीं थी. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दिल्ली में कामधाम छोड़छाड़ कर पश्चिमी बंगाल में दिन में 3-3, 4-4 रैलियां करते फिरे जिन में दिखने को सारी भीड़ थी. कुछ ने बताया भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने करीब 100,000 लोग वेतन पर 4 साल से बंगाल में हर जिले में फैला रखे थे जो रैलियों में भीड़ बढ़ाते थे. अब भीड़ में क्या पता चलता है कि यह बाहरी है या बंगाल का.

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ममता की खासियत रही कि उस ने हिम्मत नहीं हारी, वह रोई गिड़गिड़ाई नहीं. वह दूसरी पाॢटयों के पीछे भी नहीं भागी. उस ने अपने विधायकों और सांसदों की ब्लैकमेल के जरिए चोरी को सीना तानकर सहा, उस की पार्टी ने सीबीई और एनफौर्समैंट डिपाईवैंट का कहर झेला, उस ने चुनाव आयोग का साफ दिखता एकतरफा केंद्र सरकार की जी हजूरी देखी. पर यह बंगाल की जनता भी देख रही थी.

बंगाल को समझ आ गया था कि भाजपा का मकसद तो पूजापाठी लोगों को सत्ता में बैठना है. जो जमींदारी पहले अंग्रेजों ने थोपी थी, वह अब मंदिरों सरकारी दफ्तरों, सरकार के तलूए चाटते धन्ना सेठों को सौंपनी है. ममता छोटे मकान में खुश है, नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने लिए राजपत्र को तुड़वा कर विशाल बंगले जिन में गुफाएं भी होंगी बनवा रहे हैं. बंगाल की भूखी जनता को मालूम था कि ये लोग देने, बांटने नहीं लेने व छीनने आ रहे हैं.

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