शहरभर में दुख पसर गया था. तमाम धार्मिक सस्थाओं के प्रमुख, मंदिरों के पंडितपुजारी और पुरोहित, एनजीओज़ के प्रमुख, तमाम सरकारी महकमों के अफसर, लोगलुगाईं, श्रद्धालुगण और आचार्यजी के आश्रम से जुड़े अनुयायियों आदि का आश्रम में तांता लगा हुआ था…अंतिम दर्शन हेतु.

बड़े हौल में झक्क सफेद चादरें बिछाई गई थीं और किनारों पर कुरसियां लगाई गई थीं. वीआईपी लोगों के लिए सोफों की व्यवस्था की गई थी.

सारे इंतजामात करतेकरते मेरा थक कर बुरा हाल हो गया था और एक ही बात हज़ार बार हज़ार लोगों को बतातेबताते मुझे लगा कहीं मैं पागल न हो जाऊं. उधर मीडिया वाले मेरे मुंह में अपने हैंडमाइक घुसेड़े डाल रहे थे और बड़े अजीबोगरीब सवाल पूछे जा रहे थे.

‘डैथ के पहले क्या बोले? डैथ कैसे हुई? किसी तरह की कोई साजिश तो नहीं? डैथ के पहले किस ने क्या खिलायापिलाया? सोतेसोते कैसे चले गए कहीं ज़हरखुरानी तो नहीं हुई?’ एक तरफ आचार्यजी के अंतिम संस्कार की व्यवस्था तो दूसरी ओर इन के ये सवाल, मेरा सिर चकराने लगा था.

वे पूछते भी किस से? अब आश्रम का चार्ज मेरे पास आ गया था और मेरी पदवी गुरुजी से प्रोन्नत हो कर आचार्य की हो गई थी. रामराम करते चिता सजाई गई और आचार्यजी का सुपुत्र, जो कंप्यूटर इंजीनियर था, ने मुखाग्नि दी और आचार्यजी का पार्थिव शरीर अंनत में विलीन हो गया.

शोकसभा आयोजित करनी थी और लाखों सवाल खड़े हो गए मेरे सामने. आश्रम में बिछायत कितनी बड़ी लगेगी, कितने लोगों की व्यवस्था करनी है, वीआईपी सोफे कितने लगेंगे, फ्लौवर रीथ कितने लाने हैं, पंखुड़ियां कितने किलो, वक्ता कितने, कौन पहले और कौन बाद में, कितना समय प्रतिवक्ता देना है, डीएम-कमिश्नर-डीआईजी-एसएसपी-सीडीओ सब एकसाथ तो बैठते ही नहीं, भक्त कितने आएंगे और अंधभक्त कितने? किसे ज़रूर बोलना है और किसे किसी भी हालत में माइक नहीं देना है…

आश्रम का पूरा चार्ज अब मेरे पास था. चार्ज, मतलब, पैसे से ही होता है, बाकी के कामों के लिए दोचार गुरुजी टाइप लड़के रखे थे मासिक तनख्वाह पर. उन्हें महादेव, मारुति, गुरुदेव, मातारानी और शनिदेव का पूजन आता था, श्लोक व स्त्रोत्र भी आते थे उतने कि भक्त पूजन से प्रसन्न हो जाएं. ईश्वर तो बड़े दयालु हैं भक्तों के पूजन मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं.

इन्हीं गुरुजनों को मैं ने सारे कार्य बांट दिए व कौन सी चीज किस के यहां से आएगी, सुस्पष्ट कर दिया था. अब शहर के इतने बड़े आश्रम के आचार्य का निधन हुआ था, उन,की शोकसभा में आने वाली चीजों का भी कोई पैसे लेगा क्या, मुला बाज़ार के रेट की रसीदें वे मुझे ज़रूर देंगे. मुझे भगतान में दिखानी भी तो हैं, भूखे भजन न होइ गोपाला.

रसीद देंगे काहे नाही, कल से इन का पल्ला तो मुझ से ही पड़ना है.

कुछ भी कहिए, आचार्यजी ने मुझे आश्रम चलाने की बारीकियां और गुरों की शिक्षा ख़ूब अच्छे से प्रदान की थीं. आज वे मेरे साथ होते तो यही सब करते पर वे तो बैकुंठवासी हो कर मुझे देख रहे होंगे कि सारे इंतजामात मैं कायदे से कर रहा हूं अथवा नहीं. पैसे की फुजूलखर्ची वे भी बिना परची के उन्हें निहायत नापसंद थी. पैसा भले ही खर्च न हो पर खर्चे की परची बनना बहुत ज़रूरी होता है ताकि परची को दिन के वाउचर के साथ लगा कर आश्रम के खर्चे में दर्ज किया जा सके.

मैं ने सैकंड डिवीजन से बीकौम पास किया था जो मेरे बहुत काम आया. आश्रम चलाने के लिए सीए की नहीं, बीए की ज़रूरत होती है. आचार्यजी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मुझे बताते थे… सही ही कहते थे. खरचे के 5 रजिस्टर थे, जिन्हें गुरुजी पांच पांडव कहते थे. पहला बिजलीपानी खर्चा, दूसरा पूजन सामग्री खर्चा, तीसरा बिछायत गद्दातकियाकुरसीमेज इत्यादि खर्चा, चौथा भंडारा मद का खर्चा और 5वां था मिसलेनियस यानी फुटकर खर्चा रजिस्टर.

मिसलेनियस मतलब जो खर्चा किसी मद में फिट न हो उसे इस रजिस्टर में दर्ज कर दिया जाता, मसलन कागज़, पेन, कौपी, फोटोकौपी, रिपेयरिंग, चायपानी, पैट्रोल, टैक्सी आदि का खर्चा. बिना परची के किसी ख़रचे का पेमैंट न होता था. आश्रम की रोज की कैशबुक भी लिखी जाती थी. आचार्यजी ने ही सिखाया था कि वक़्त पलटते देर नहीं लगती, इसलिए आश्रम का हिसाबकिताब, कच्चा ही सही पर, लिखा हुआ होना चाहिए.

इसी तरह आश्रम में पैसे की आवक भी लिखी जाती थी जिस में पहला रजिस्टर था दानपात्र का, दूसरा था दान का जो भक्तगण चैक अथवा नकद दे जाते थे. नकद का रजिस्टर नहीं बल्कि एक डायरी थी पर चैक द्वारा दान का पक्का रजिस्टर था जो कोई भी देख सकता था. डायरी की लिखापढ़ी आचार्य स्वयं अपने करकमलों द्वारा करते थे.

वे ऐसा क्यों करते थे, जानने के लिए मुझे कुछ वर्षों तक रुकना था. और मैं रुका.

समस्त कर्मकांड विधिविधान से संपन्न हुए और मुझे ज़रा फुरसत मिली. आचार्यजी के फूलों से सजे वृहत भित्तिचित्र को मैं ने मनोपूर्वक नमन किया और आंखों के सामने पिछले अनेक वर्ष रील की तरह चल निकले…जब मैं गुरुजी मतलब इन्हीं आचार्यजी से मिला तो आश्रम एक जाग्रत मंदिर मात्र था. गुरुजी ने मुझे बिन पगार के साथ लगा लिया व मेरी बुद्धिमत्ता से प्रभावित हो कर मुझे अपने प्रिय शिष्यों के फोल्ड में ले लिया.आचार्यजी की तीव्र व तीक्ष बुद्धि के साए में मुझ मूर्ख बालक को सालों तक उन की सेवा करने का अवसर मिला. कभी चपरासी बना तो कभी माली, कभी हरकारा तो कभी बाबूगीरी करते हुए मेरा सफर उन के खातों का लेखाजोखा रखने तक आ गया.

तब जा कर मुझे समझ आया कि गुरुजी तो लखपति थे पर दुनिया के लिए थे दालरोटी, गमछा वाले मामूली एक मंदिर के पुजारी मात्र.

धीरेधीरे उन की हैसियत और खुद की औकात मुझे अच्छी तरह समझ आने लगी. गुरुजी पुरोहित नहीं पुजारी अवश्य थे. मैं मुंह बंद रखता औऱ सारा ध्यान गुरुजी के आदेशों का पालन करने व खातों को चाकचौबंद रखने में लगाता. यही मेरा गुण गुरुजी को बेहद पसंद था.

गुरुजी का परिवार भी था पर वह मंदिर व उस की देखरेख और लेनदेन से दूर रहता. सफाचट पंडितजी ने लंबी दाढ़ीमूंछें बढ़ा लीं और देखादेखी मैं ने भी. कुरता, लुंगी, गमछा ड्रैसकोड हो गया और अब वे कहलाने लगे आचार्य और मैं गुरुजी.

आचार्यजी के पास डरपोक लोगों का आनाजाना बढ़ गया और वे समस्या देख कोई न कोई उपाय बताने लगे थे- ये जाप करो वो पाठ करो, इस की नित्य पूजा उस की रोज़ आराधना, ये सुबहसवेरे यह संध्याकाल में…

डीआईजी से ले कर दारोगा और कमिश्नर से ले कर एसडीएम तक सारे अधिकारियों से आचार्यजी की पहचान हो गई थी. उसी के साथ समाज के विभिन्न अंगों के लोग भी आचार्यजी के यहां चढ़ावा ले कर आने लगे.

व्यवसाई, सराफा, बिसाती, बरतन व्यापारी, आढ़ती से ले कर लोहे और टाइल्स से ले कर टायर और कृषि यंत्रों, खादबीज व्यापारी से ले कर मैडिकल दवादारू और फल विक्रेता संघ से ले कर कृषि मंडी के पदाधिकारी, व्यापारियों के शिष्टमंडल मंदिर, जिस का नया नामकरण आश्रम हो चला था, में भक्तिभाव से पधारने लगे.

आश्रम में 2 खाते रखे जाते थे. पहला चैक वाला, दूसरा नकद वाला. चैक वाले खाते को संभालने लगा एक और विश्वासु जिसे संस्थान प्रबंधक की पदवी मिली और नकद रोकड़ा का प्रबंधन मैं यानी गुरु ही संभालता.

अब मेरा काम हलका हो चला था था. दिनभर का कैश कलैक्शन देने वाले खाते जोड़ कुल रकम आचार्यजी को रात को दे देना, बस.

आचार्यजी जमा करने वालों की लिस्ट पर नज़र फेरते हुए कहीं लाल, कहीं हरी सियाही के निशान लगाते और नोटों की गड्डियां जेब में रख कर मुसकरा देते. मूड में होते तो एकाध गड्डी मेरी ओर भी उछाल देते और ज़ोर से जयकारा लगाते. मैं भी गड्डी के रंग और मोटाई के हिसाब से प्रतिउत्तर देता.

नकद जमा वाली डायरी को आचार्यजी ने मुझ से एक दिन ले ही ली.

मुझे समझते देर न लगी कि मेरा विभाग कमाई का था और प्रबंधक का विभाग खर्चे वाला था जहां सारे पेमैंट चैक से होते. बिजली, पानी, पंडाल, खानापीना, फूलमाला, सजावट, पूजा के बरतन, सामग्री भंडारों का खर्चा आदि का भुगतान चैकों से ही होता था.

नकद दानदक्षिणा मिलती थी बेहद नपीतुली, इसलिए कागज़ों पर आश्रम सदा या तो घाटे में चलता या नो प्रौफिट नो लौस पर यानी लेनादेना बराबर.

आचार्यजी का नारा भी था- ‘तेरे पाप मेरा तर्पण, तेरा तुझ को अर्पण और सबकुछ है तेरा, क्या लागे मेरा.’ आचार्यजी की तिजोरी की चाबी कभी मेरे पास होती थी पर कुछ सालों से उन्हीं के जनेऊ में जा बंधी. मैं निश्चिंत हो गया था, क्या लागे मेरा.

एकाध साल से भक्तिनों की संख्या में इजाफा होता जा रहा था और उन का लेखाजोखा भी आचार्य स्वयं देखते थे. शहर, कसबों, गांवों की मांबहनों के भगिनी व महिला मंडल आश्रम से जुड़ते जा रहे थे. उन की सचिवों, अध्यक्षों का आनाजाना भी आचार्यजी के पास बढ़ता जा रहा था जिन से चर्चा एकांत में ही होती.

इन समितियों द्वारा चलाए जा रहे महिला सहायता समूहों स्त्री आधार व सशक्तीकरण केंद्रों हेतु आचार्यजी की धनकृपा चैकों के माध्यम से बांटी जा रही थी. इन महिला समूहों ने आचार्यजी की ख्याति गांवों, कसबों के घरघर में पहुंचा दी.

इसी के साथ शहर का ज्ञानीध्यानी, उपासक, पुरोहित समाज भी आचार्य का आशीर्वाद लिए रहता. सभी सरकारी भवनों, इमारतों, पुलिया और पुलों के निर्माण के भूमिपूजन

हेतु डीएम के कारकुन आचार्यजी से ही संपर्क साधते और आचार्यजी अपने भक्त पुरोहितों में से किसी एक कि ड्यूटी लगवा कर प्राप्त दक्षिणा का हिसाब मेरे माध्यम से कर लेते.

विभिन्न धार्मिक आयोजनों में प्राप्त ब्राह्मणदक्षिणा के डिस्पोजल हेतु एक ‘इच्छा पूरन पूजा सामग्री केंद्र’ आश्रम के बाहर खोल दिया गया जिस में नारियल, चावल, गेहूं, अनाज, अंगवस्त्र, धोती, सिंदूर, फलफूल आदि भक्तजनों के क्रय हेतु सुलभता से उपलब्ध होने लगा. आचार्यजी के दूर के एक बेरोजगार रिश्तेदार को उस केंद्र पर मासिक तनख्वाह पर तिलक, गोपी, चंदन आदि लगवा कर बैठा दिया गया जो ज़ाहिर था मुझे रिपोर्ट करता था.

लगभग हर सप्ताह आश्रम में कोई न कोई बड़ा धार्मिक आयोजन हो ही जाता जिस का खर्चा आचार्यजी भक्त या आयोजनकर्ता से दानस्वरूप नकद एडवांस में ले लेते.

आश्रम बहुत बड़ा ग्राहक होने से बिजली की झालर, सजावट व प्लास्टिक के फूल, बेलपत्ती वाले लोग आचार्यजी को डिस्काउंट देते. हर बड़े आयोजन में दोतीन लाख रुपया खरचा हो ही जाता था और यदि भंडारा हो, तो राशि पांच लाख के ऊपर चली जाती.

बहुत ही कम लोगों को मालूम था कि आचार्यजी ने लेनदेन का पांसा पलट दिया था.

आश्रम ने सैकड़ों मीटर लंबी बिजली की झालरें, प्लास्टिक के फूलों की लड़ियां, गुलदस्ते, फूलपत्तियों की बेलें आदि थोक के भाव से खरीद ली थीं और अब शहर के सजावट करने वाले व्यापारी यह सब माल आश्रम से ही दिहाड़ी पर किराए पर ले जाते थे वह भी नकद.

आश्रम का दानपात्र रोज खुलता जिस में बमुश्किल हज़ारपांच सौ की राशि निकलती जिसे पूरी ईमानदारी से संस्थापक विभाग खाते में दर्ज कर लेता.

सही माने में यही तो उस आश्रम की आमदनी थी.‘सारा संसार पाखंडियों और कंजूसों से भरा है. लोगबाग ईश्वर के नाम पर आश्रम को दोचार सिक्के या पांचदस के नोट दे कर हाथ जोड़ लेते हैं. हे ईश्वर, इन पापियों को सदबुद्धि दे.’

आचार्यजी का यह रोज रात का वाक्य सुन कर मेरे कान पक जाते और होंठ मुसकरा देते. दुनिया में असंख्य पापी हैं, तभी तो हम जैसे गिनेचुने लोग उन की पापमुक्ति के लिए आश्रम में दिनरात श्रम कर रहे हैं.

लोगबाग ज़ोरशोर से मुझे आश्रम का नया आचार्य बनाने हेतु घेराबंदी कर रहे हैं क्योंकि जिस के पास तिजोरी की चाबी, वही करे असली रखवाली.

आज मैं बड़ी शान से आचार्यजी द्वारा निर्मित बड़े से सोफे, जिसे हम लोग तख्तेताउस बोलते थे, पर अपनी तशरीफ़ रखता हूं. और अपने पास डायरी अवश्य रखता हूं, आचार्यजी वाली डायरी.

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