Social Story In Hindi : स्त्री को कमजोर समझ कामलोलुप पुरुष ऐसे रीतिरिवाज बनाता है कि स्त्री बेबस हो जाती है इन रिवाजों के आगे. लेकिन मुक्ता तैयार नहीं थी भोग्या बनने के लिए अपनी आई की तरह.

‘‘आई, आखिर क्या कमी है मुझ में, मैं देखने में उन लड़कियों से सुंदर हूं. मैं ने कपड़े भी अच्छे पहने हैं. बुद्धि भी तो मेरी अच्छी है. देख, मैं जोड़ कर सकती हूं,’’ कहते हुए वह उंगली पर 2 और 2 अंक जोड़ कर आई को दिखाने लगी, फिर बोली, ‘‘मैं शब्द भी लिख सकती हूं.’’ और उस ने पास ही पड़े ईंट के टुकड़े से जमीन पर आई लिखना शुरू कर दिया.
‘‘अब बता, फिर क्यों उन को इतना सम्मान और मेरा अपमान?’’ मुक्ता आज बाहर अपने हमउम्र साथियों से उपेक्षित हो कर आई थी, इसलिए कलपती हुई अपनी आई से सवाल कर बैठी. जवाब में इतना ही कह पाई सकू कि ‘‘बेटी, यह हमारा प्रारब्ध है.’’
‘‘आई, मैं प्रारब्ध-वारब्ध कुछ नहीं जानती, मुझे पढ़ना है, उन जैसा बनना है, बस,’’ मुक्ता ने अपना फरमान सुना दिया.

सकू भी चाहती थी कि उस की बेटी साक्षर बने, इसलिए उस ने बेटी की इच्छा का मान रखते हुए घर पर ही एक मास्टर उसे पढ़ाने के लिए रखा. भला इंसान था, सो घर आ कर मुक्ता को कुछ सिखा जाया करता था.
एक दिन मुक्ता ने अपनी आई से सवाल किया, ‘‘सब के घर पिता हैं, दादादादी हैं, भाईबहन हैं, हम अकेले क्यों हैं?’’
समझ न पाई सकू अपनी बेटी को, क्या समझाए, ‘‘पोर (बेटी), हम देवदासियां हैं, देवता ही हमारा परिवार है.’’
‘‘देवता हमारा परिवार कैसे हुआ, आई?’’
‘‘क्योंकि तेरी आई का ब्याह देवता से हुआ है और जब एक बार कोई लड़की देवता को ब्याह दी जाती है तो बाकी समाज से उस का नाता टूट जाता है. फिर हम सांसारिक लोगों से ब्याह नहीं कर सकते.’’
‘‘ऐसा क्यों, आई?’’
‘‘क्योंकि हमारी मांग में देवता के नाम का सिंदूर जो भर जाता है. सो, हम इस समाज से संबंध नहीं रख सकते,’’ सकू ने मुक्ता को बहलाने के उद्देश्य से कहा.
‘‘अच्छा, जब देवता से ब्याह हुआ है तो देवता का परिवार हमारा परिवार हुआ न. कहां है वह परिवार?’’ मुक्ता ने जिरह शुरू कर दी.
‘‘मंदिर में रखी पत्थर की मूर्तियां ही हमारा परिवार है, बेटी. और तुम्हें तो पता है, पत्थर की मूर्तियां बोला नहीं करतीं.’’
‘‘अगर ये पत्थर की मूर्तियां हमारा परिवार हैं तो फिर पुजारी का यहां क्या काम, यह क्यों रहता हैं यहां और तू क्यों इस की इतनी सेवा करती है?’’
‘‘क्योंकि देवता के बाद ये ही हमारे पालनहार हैं,’’ सकू का स्वर कुछ लड़खड़ा सा गया.
‘‘वाह, यह क्या बात हुई, सिंदूर देवता के नाम का, उसे भोगने वाला उस देव का उपासक?’’
सकू को समझ नहीं आ रहा था कि बेटी को कैसे समझाए कि हमारा जीवन भी, बिना स्वामी के हम एक खुली शराब की बोतल बन कर रह जाती हैं, जो चाहे उसे उठा कर गले उतार ले. कुछ गलत नहीं कह रही मुक्ता, आखिर यह कैसा पतिदेव है, कहने को सर्वशक्तिमान है, जिस से हम ने सच्चे मन से प्यार तो किया मगर वह अपनी दासी के अस्तित्व की रक्षा भी नहीं कर पाता? जिस की मरजी हो, देव के नाम पर वधू के रूप में उसे भोग कर आनंद की प्राप्ति कर लेता है.

सकू ने कभी नहीं चाहा कि उस की बेटी भी कभी देवदासी बने. वह तो चाहती थी नगर के सेठ, साहूकारों की तरह उस की बेटी पढ़े, कमाने की ऊंचनीच समझे, किसी अच्छे कुल की शोभा बने मगर इस समाज का क्या करें. यह यों तो खुद के लिए बहुत बदलाव दिखाता है लेकिन जब देवदासियों से जुड़े मुद्दे आते हैं तो पुराणपंथी बन जाता है. आखिर, क्या कमी है मुक्ता में?

रूपरंग तो मुक्ता ने सकू का ही पाया है. सौंदर्य में नगर की कोई बेटी उस के बराबर नहीं लेकिन समय उन बेटियों सा कहां पाया उस बेचारी ने. आखिर मुक्ता कहलाएगी तो देवदासी की ही कन्या न, भले ही उस में लहू बीजापुर के साहूकार का है. यह सब जानते भी हैं लेकिन मानता कोई नहीं. उस की छाया बेटी के लिए काल बनी हुई है.

देवदासी पुत्री होने के चलते समाज की पाबंदियां थीं मुक्ता पर कि किसी भी संभ्रांत परिवार की बेटी उस की सखी नहीं बनती. उसे हेय दृष्टि से देखा जाता, कई स्थलों पर उस के प्रवेश की पाबंदी होती. उसे पाठशाला जाने पर अपमानित कर भगा दिया जाता. तब मुक्ता के सवालों की बौछार आई पर हो जाती.

सकू फरियाद करे तो किस से? समाज के उच्च वर्गों से वह मुक्ता के लिए कोई सहयोग नहीं चाहती थी. कारण, उन की नियत जो जानती है वह. देख रही है इधर कुछ समय से सेठसाहूकारों का मुक्ता के प्रति कुछ अधिक उदार भाव है. सकू समझ रही थी, उम्र का लावण्य मुक्ता पर छा रहा है.

गांव के वे समृद्ध सेठसाहूकार जो अब तक सकू की देह के प्यासे थे, अब उन की नजर में सकू का यौवन ढलते सूरज सा लगने लगा है. उन्हें अब सकू में कोई आकर्षण दिखाई नहीं देता. कारण, मुक्ता का अछूता कौमार्य जो सामने नजर आता. उन की भूखी आंखें अब मुक्ता पर बिछने लगीं. ‘गरीब की भौजाई गांवभर की लुगाई’ कहावत इन्हीं लोगों के आचरण से निर्मित हुई होगी.
असमंजस की स्थिति में थी सकू, तभी मुक्ता बोली, ‘‘आई, क्या कोई नहीं है हमारा अपना इस दुनिया में?’’
‘‘यों तो कहने को रक्त संबंध हैं लेकिन न के समान. लेकिन हां, एक है जिसे हम अपना कह सकते हैं,’’ कहतेकहते अचानक आगे के शब्द मानो उस के मुंह में ही घुल कर रह गए, मुक्ता के कानों तक नहीं पहुंच पाए. वहीं, सकू अपने अतीत के गलियारे में जा खड़ी हुई.

जब से उस ने होश संभाला, उसे बस इतना याद है कि वह अपनी आई के साथ जागरणों में तो कभी रईसों के दरबारों में जा कर उन का मनोरंजन करती, उन के लिए नाचती. 6 बरस की सकू भी अपनी आई के साथ जाया करती थी. आई खूब श्रृंगार कर जब ठुमके लगाती तो साहूकारों की पोटलियां खुल जातीं, खूब सिक्के, रुपए आई की ओर उछलते. उस समय सकू नहीं जानती थी इन सिक्कों या रुपयों की गरिमा क्या है. उस वक्त उसे यह चमकदमक भाती थी.

जब वह अपने आई, बाबा और मंडली के साथ जा कर जगहजगह जागरणों में नाच करती तो उस पर से कितनी चिल्लर उछाली जाती, सिक्कों की खनखनाहट से उस के पैर और भी ऊर्जा से भर नाचने लगते. अच्छा पहनने को मिलता और जहां आयोजन में बुलाया जाता तो वहां जितने भी दिन आयोजन होता, अच्छा भोजन खाने को मिलता. फिर भले ही घर आ कर भाकरी-चटनी नसीब होती. मगर, उतने दिन जिंदगी, जिंदगी सी लगती थी. उन दिनों के बारे में सोचते हुए सकू के चेहरे पर अनायास मुसकान उभर आई.

‘‘क्या सोच रही है, आई, जो तुझे हंसी आ रही है?’’ मुक्ता ने उस के कंधे को झिंझोड़ते हुए कहा तो सकू की तंद्रा भंग हुई.
‘‘कुछ नहीं बेटी, बस यही सोच रही हूं कि काश, बीता वक्त हम लौटा पाते तो कई पीड़ाओं, कई झंझटों से बच जाते.’’
‘‘ऐसा क्या था तेरे अतीत में, आई, जो तू उस में लौटना चाहती है? मैं ने तो जब से होश संभाला है, तुझे इसी हाल में देखा है.’’
‘‘मेरा अतीत आज से कहीं अच्छा था, मेरी बच्ची. यों भी अतीत सदैव वर्तमान से ज्यादा सुखकर लगता है, मगर वर्तमान रहने तक नहीं. तब तो हम, बस, उस की उपेक्षा कर उसे कोसते रहते हैं.’’ सकू की बातों से मुक्ता की जिज्ञासा बढ़ रही थी.
‘‘बता न आई, क्या था तेरा अतीत?’’
‘‘हां बताऊंगी, मेरी बच्ची. सबकुछ बताऊंगी तुझे. अब तू समझदार हो गई है, इसलिए तुझे बतानी ही होगी सच्चाई.’’
‘‘क्या अतीत, कैसी सच्चाई, आई?’’
‘‘बेटी, सब की तरह मेरा भी एक परिवार था, आई और बाबा थे, भाईबहन थे. हम लोग भले ही गरीबी में दिन गुजार रहे थे मगर खुश थे. अधिक ख्वाहिशें नहीं थीं.’’
‘‘फिर अब क्यों नहीं है, आई, वह परिवार? क्या सब मर गए?’’
‘‘नहीं, मेरी बच्ची. हां, उम्र के साथ आई और बाबा तो दुनिया से चले गए लेकिन तेरी मौसी और मामा हैं अभी?’’
‘‘तो वह कभी मिलने क्यों नहीं आए हम से?’’
‘‘क्योंकि अब हम उन के परिवार के सदस्य नहीं रहे न.’’
‘‘परिवार के सदस्य नहीं रहे, मतलब?’’
‘‘मतलब, अब हम देवदासी परिवार से हैं, जिस से संबंध रखना सब के लिए अपमान का विषय है. लोगों को पता चलेगा तो वे क्या कहेंगे?’’
‘‘आई, क्या देवदासी होना इतना बुरा है, तो तू क्यों बनी देवदासी?’’
‘‘कौन स्त्री अपनी मरजी से देवदासी बनना चाहेगी, बेटी. हम जबरन बना दी जाती हैं.’’
‘‘जबरन, क्या किसी को यह अधिकार है कि किसी स्त्री को जबरन देवदासी बना दे. यदि है तो किस ने दिया उन्हें यह अधिकार?’’
‘‘किसी ने नहीं दिया अधिकार, इस पुरुष समाज ने स्वयं अपनी कामना तृप्ति के लिए ले लिया है यह अधिकार.’’
‘‘किस ने की तेरे साथ जबरदस्ती, आई. क्या तेरे आई और बाबा ने नहीं रोका उन्हें?’’

सकू खामोश निगाहों से बेटी की ओर देखने लगी. उसे लगा, बेटी के रूप में एक सखी मिली है उसे आज. कह डाल मन की सारी व्यथा आज. बहुत लाड़ आ रहा था सकू को अपनी बेटी पर. वह मंत्रमुग्ध सी उसे देखे जा रही थी.
‘‘चुप क्यों है, आई, बोल न तेरे आई और बाबा ने क्यों नहीं रोका?’’
‘‘कहते हैं न कुम्हार का बेटा कुम्हार, मास्टर का बेटा मास्टर. यही हुआ मेरे साथ. तेरी नानी जागरणों में नृत्य करती, सो मैं भी उस के पदचिह्नों पर चल पड़ी. जब कभी आई को कुछ पल विश्राम करना होता तो मंडली ने मुझे उन की भरपाई के रूप में मंच पर उतारना शुरू कर दिया. नयानया जोश था, बहुत भाता था तब ये सजनासंवरना, अच्छेअच्छे कपड़े पहन कर नाचना. उम्र की बेल तेजी से बढ़ रही थी, उस पर मेरा निखार ऐसा कि जो देखे वही आकर्षण में बंध जाए. बला की खूबसूरत दिखने लगी थी मैं, जवानी का रंग जो चढ़ा था.

‘‘14-15 बरस की उम्र में लोग मेरी खूबसूरती की दाद देते तो मुझे भी खुद पर अभिमान हो आता. इस प्रशंसा ने मेरी अदाओं को और भी चंचल बना दिया. अब नृत्य की मुद्राओं के साथ मेरी आंखें, भवें, होंठ, छाती, कमर सभी लटकेझटके की भाषा बोलते. लोग खुल कर मेरी अदाओं पर पैसा लुटाते. आई, भाई और बाबा बलिहारी जाते बेटी की इन भावभंगिमा पर. बस, फिर क्या था मेरे सौंदर्य और लटकोंझटकों की चर्चा दूरदूर तक फैलने लगी.

‘‘एक बार बीजापुर के साहूकार की ओर से आमंत्रण आया.
तब तक यों ही आसपास रात जागरण करते और अपना पेट भरते थे. उस दिन बतौर कलाकार के रूप में आमंत्रण आया, बीजापुर के साहूकार बड़े मालदार थे. आई और बाबा बड़ी खुशी महसूस कर रहे थे. आई ने कहा, ‘सुनोजी, ऐसा नहीं लगता कि सकू के रूप में हमारे यहां साक्षात देवी अलकनंदा आई है?’

‘‘हां, तुम ठीक कहती हो. आज सकू की बदौलत ही हम ने यह दिन देखा है.’ सब मेरी मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहे थे. मैं भी वहां के वैभव की कल्पना कर अपने समय को सराह रही थी. अब तक केवल सुनती ही थी कि काफी खातिरदारी होती है. इस का प्रमाण पहली बार देखा.

साहूकार ने सजीधजी छकड़ी (बैलगाड़ी), साथ में राजसी वस्त्र और आभूषण मेरे लिए भिजवाए जिन्हें पहन कर ही मुझे बीजापुर की धरती पर कदम रखना था. मुझे तो बहुत शौक था बननेसंवरने का और किस युवती को नहीं होगा आखिर श्रृंगार तो नारी का अधिकार है. उस दिन मेरी मां ने खुद मेरी विशेष सज्जा की, सारे आभूषण पहनाए.
‘‘सजेधजे बैलों वाली छकड़ी में बैलों की घंटियों की आवाज के साथ मानो मेरा डोला आगे बढ़ा रहा था. तब आई और बाबा ने बताया कि मेरे जन्म के समय पंडितों ने ठीक ही भविष्यवाणी की थी कि सकू सुख व वैभव में जीवनयापन करेगी. उस का आरंभ हो चुका था.
‘‘मंडली के सदस्य प्रसन्न मन से बाबा को बधाई दे रहे थे- ‘बधाई हो मनु भाई, अपनी सकू रानी लग रही है. देखो, किसी शाही सवारी से कम नहीं लग रही. कितना सम्मान पाया है सकू ने.’

‘सच कहते हो भाई, मेरे मन में भी ठीक यही बात चल रही है कि जिस तरह विवाह होने पर बेटी डोली में बैठ ससुराल जाती है ठीक वैसे ही हमारी सकू लग रही है आज.’ कहते हैं, कभी कोई पल ऐसा होता है कि आप की जबान पर सरस्वती का वास होता है. बाबा ने मेरे ससुराल जाने की बात कल्पना में कही थी मगर क्या पता था कि आज मेरा डोला वाकई इस घर से विदा हो रहा है. आई बारबार नजर उतार रही थी. आगेआगे सकू की छकड़ी तो पीछेपीछे मंडल के सारे कारिंदों की गाड़ी चल रही थी. ऐसा लग रहा था कोई महारानी विश्व विजय कर के आ रही है.’’
‘‘आई, तू तो नृत्य के लिए गई थी न वहां, फिर यह देवदासी, क्या हुआ बीजापुर में, उस बारे में बता न?’’ मुक्ता ने पूछा.
‘‘उस रोज काफिला साहूकार की हवेली पहुंचा तो केवड़े का इत्र छिड़क कर मंडली का भव्य स्वागत किया गया. थकान मिटाने के लिए गुलाब का शरबत पेश किया गया. मैं अपने मातापिता के चेहरे पर आई प्रसन्नता देख कर खुश थी. गरीबी से जूझते अपने परिवार को मैं अगर थोड़ी सा सुख दे पाई तो बड़ा अच्छा महसूस कर रही थी.
‘‘मैं ने पूछा था, ‘कस वाटतय आई, बाबा (कैसा लग रहा है आई, बाबा)’
‘रे देवादेवा, कुदृष्टि ने वाच्वा मा?या लेकरु ला (हे प्रकृति, बुरी नजर से बचाना मेरी बेटी को)’, आई ने मुझ पर से मुट्ठी उसारते हुए कहा था.
‘‘साहूकार के यहां भव्य आयोजन हुआ. दूरदराज से आए श्रीमंतों ने तनमन से आनंद उठाया. खूब पैसे उड़ाए. मैं ने भी अदाओं से सब का मन मोह लिया. उस पूरे आयोजन की नायिका ही मैं थी. सभी मेरे दीवाने हो गए.

‘‘समापन की बेला पर हर अतिथि सकू को अपने साथ ले जाना चाहता था. परिणामतया, उन के बीच विवाद की स्थिति बन गई. मारकाट की स्थिति आ गई. खूनखराबा हो, इस से बेहतर बीजापुर के साहूकार ने सब से ज्यादा दाम दे कर ऐलान कर दिया कि, ‘सकू बीजापुर में ही रहेगी.’ और विवाद खत्म. चूंकि बीजापुर के नगर पति थे साहूकार, इसलिए मुझ पर साहूकार का अधिकार हो गया. देवता तो केवल नाम के पति रहे, साहूकार ही मेरे पति हो गए.

‘‘साहूकार मुझे अपने साथ ले आए. अब उन्हें मेरे आई और बाबा व उन की मंडली की कोई आवश्यकता न थी, सो, मोटी रकम दे कर उन्होंने सब को विदा किया और मुझे अपनी हवेली में ठाट से रहने को घर दिया. माना, मैं साहूकारनी नहीं, न सही, मगर उस से कम रुतबा न था मेरा वहां. बहुत चाहते थे साहूकार मुझे, अपनी ब्याहता से अधिक. हां, उम्र में वे मुझ से काफी बड़े थे.’’
‘‘बड़े थे, तो तू इनकार कर देती न?’’ मुक्ता ने कहा.
‘‘कैसे कर देती, आई ने कहा था, ‘बेटी, घोड़ा और मर्द कभी बूढ़ा नहीं होता. फिर, क्या कमी है तुझे वहां, ऐसे सुख पर उम्र कुर्बान.’ बहुत गरीबी देखी थी, सो इनकार न कर सकी. आखिर, मेरे परिवार के भविष्य का सवाल था.’’
‘‘जब सबकुछ इतना अच्छा था तो फिर आज तू यहां इस हाल में, मां?’’ मुक्ता ने सवाल किया.
‘‘समय, बेटी समय अपनी कोठरी में क्या राज छिपाए रखता है, भला कौन जान सकता है. सच, किसी की कुदृष्टि ही लगी मुझे कि ढाई बरस ही हुए थे मुझे साहूकार के साथ रहते, इस बीच साहूकार का अंश यानी ‘तुम’ गर्भ में आ गईं. अपने समय पर खुद ही बलिहारी जाती मैं, नादान थी तब नहीं जानती थी कि मांग के सिंदूर का क्या महत्त्व होता है. मांग में बिन सिंदूर भरे मां बनना न केवल मां बल्कि बेटी के जीवन को भी नरक कर देता है. यह बात तब नहीं सम?ा पाई. पढ़ीलिखी नहीं थी न. बस, साहूकार के दिए प्यार और सुख व वैभव को ही अपनी गृहस्थी मान बैठी जबकि वह तो डाका था किसी की गृहस्थी में मेरा.’’
‘‘क्या साहूकार ने कभी मेरे प्रति कोई चिंता नहीं दिखाई?’’ मुक्ता का सवाल था.
‘‘दिखाते तो तब, जब वे तुझे देख पाते.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘मतलब, समय कब क्या खेल खेल जाए, कौन जानता है. तेरा जन्म होने से पहले ही दिल का दौरा पड़ने से साहूकार चल बसे. साहूकार के जाते ही मानो मेरी दुनिया ही बदल गई. साहूकार के परिवार ने मुझे हवेली से ही नहीं, गांव से भी बेइज्जत कर बेदखल कर दिया. पेट का गर्भ लिए मैं गांव के बाहर मंदिर में पड़ी रही, जहां मैं ने तुझे जन्म दिया.’’
‘‘तो तू अपने आई और बाबा के पास क्यों नहीं चली गई?’’

‘‘खबर भेजी थी. मगर कोई नहीं आया सिवा केशव के. वह बोला, ‘चल सकू, हम फिर से अपनी मंडली सजाएंगे.’ मगर मेरा मन नहीं था तब नाचगाने का.’’ मैं मंदिर में रहती, यहीं अपना मन लगाती. इसी बीच गांव में अचानक रोग फैला, लोग मरने लगे. गांव वालों ने इस का दोष मेरे माथे मढ़ दिया. उन के अनुसार, बिन ब्याहता मां के मंदिर में रहने से यह दैवीय प्रकोप हुआ है.’’
‘‘फिर, क्या सच में ऐसा होता है मां?’’
‘‘नहीं जानती, क्या सच है.’’
‘‘तो क्या किया उन्होंने तेरे साथ?’’
‘‘वही जो आज मैं हूं.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘वही बीजापुरवासी, जिन्होंने साहूकार के जाते ही मुझे बदचलन कह कर गांव से बाहर निकाला था, मेरी देह के प्यासे हो गए और गांव में फैली बीमारी को दैवीय प्रकोप बता कर यह ढोंग रचा कि प्रकृति की इच्छा है कि सकू देवदासी के रूप में रहे. मैं तब देवदासी क्या होती है, नहीं जानती थी. बीजापुर के मंदिर में मुझे देवदासी बनाने की रस्म पूरी हुई. ठाटबाट से मेरा ब्याह देव के साथ कराया गया. कहने को देवदासी बना दिया मुझे लेकिन मैं गांवभर की ‘नगरवधू’ बन कर रह गई. साहूकार के न रहने पर नगर का हर इंसान नगरपति बन गया और मैं उन की भोग्या.’’
‘‘आई, इस से तो अच्छा होता तू किसी से शादी कर के घर बसा लेती?’’
‘‘अपना चाहा कब होता है, बेटी. वही न होता है जो समय चाहता/करता है.’’
‘‘सचसच बताना, आई, क्या तुझे अपने जीवन में कभी किसी के प्रति अनुराग नहीं हुआ?’’
‘‘हुआ नहीं, होतेहोते रह गया.’’
‘‘यह क्या बात हुई?’’
‘‘यह भी एक अलग कहानी है.’’
‘‘कौन था वह, आई और तू ने क्यों उस के साथ घर नहीं बसाया? बसा लेती तो आज…’’

‘‘वह हमारी ही मंडली का एक अनाथ लड़का था, केशव, जो ढोलकी बजाता था. मैं भी उस की ढोलकी पर जम कर नाचती. हम दोनों की जात में अंतर था लेकिन संगीत की ताल पर हम दोनों एक हो जाते थे. केशव बचपन से मंडली के साथ ही पलाबढ़ा क्योंकि उस के पिता शर्नप्पा इसी मंडली में तबला बजाते थे. छोटा था केशव जब उस के पिता की मृत्यु हो गई. धीरेधीरे उम्र के पड़ाव के साथ केशव के मन में मेरे प्रति कुछ अतिरिक्त भाव जागृत होने लगे, इस का मु?ो एहसास हो रहा था क्योंकि यह अवस्था ही ऐसी होती है, धड़कनों की भाषा सुनाई दे ही जाती है लेकिन बात कुछ आकार ले पाती, उसी बीच यह बीजापुर का आमंत्रण आ गया और मेरी जिंदगी ने दूसरी करवट ले ली.’’
‘‘आई, तुझे केशव के साथ चले जाना चाहिए था वह आया था न तुझे लेने?’’
‘‘हां, शायद तू सही कहती है लेकिन उस का निश्च्छल प्रेम और मैं एक भोगी हुई स्त्री, कैसे खुद के पापबोध से उबर पाती. बस, इसी तरह गुजर हो रही थी. मैं मंदिर में नृत्य करती, मंदिर में सेवा करती, तथाकथित भगवान के तथाकथित भक्त मेरा भोग लगाते. इसी तरह जीवन व्यतीत हो रहा था. बस, एक तू थी जिसे देख कुछ खुशी मिलती. बहुत थोड़ा सुख का समय देखा था साहूकार के साथ. नगरभर की चहेती पल में नगरसेविका बन गई.’’
‘‘आई, क्या तू देवदासी होने में विश्वास रखती है? क्या सच में देवता किसी का पति हो सकता है?’’
‘‘पता नहीं, पोर समाज ने यह परंपरा बनाई है तो कुछ होगा ही.’’
‘‘नहीं, आई. इस के पीछे समाज की घिनौनी सोच के अलावा कुछ नहीं. यह पुरुष की कामवासना पूर्ति की चाल है. अगर ऐसा होता तो क्यों किसी सेठ, साहूकार या पुजारी ने अपने घर की बहूबेटियों को कभी देवदासी नहीं बनाया? सोच, पति जो होता है उस का फर्ज क्या होता है, अपनी पत्नी की देखभाल करना, उस के सुखदुख का ध्यान रखना, संकट में उस की रक्षा करना, यही न?’’

सकू अपनी बेटी पर बलिहारी जा रही थी, कितनी समझदार हो गई है उस की बेटी. आक्षरज्ञान दे कर मास्टरजी ने उस की बेटी में आत्मविश्वास जगा दिया है. वह मन ही मन नजर उतार रही थी मुक्ता की.
‘‘बोल न, मैं ने तुझ से प्रश्न किया है, क्या तेरे देवता पति ने तुझे समाज के इन भेडि़यों से बचाया?’’
‘‘शायद तू ठीक कहती है, मुक्ता. एक देवदासी की अपनी पीड़ा कौन समझे जिस का पति अमूर्त, न जिस से मन की बात कर पाती, न जज्बात ही निकाल पाती, कड़वे दिन थे मगर काटने तो थे.’’
‘‘तुझे सख्ती से मना कर देना चाहिए था कि नहीं बनना देवदासी, तुम कौन होते हो मुझे देवदासी बनाने वाले?’’

‘‘शायद कह भी देती बेटी मगर नहीं जानती थी देवदासी के नाम पर मैं नगरवधू बन कर रह जाऊंगी. शुरू में तो मुझे बताया गया था कि मेरा काम है देवताओं का श्रृंगार करना और उन को खुश करने के लिए मंदिर में नृत्य करना, क्योंकि वे स्वर्ग में रहने के आदी हैं जहां अप्सराएं उन का इसी तरह नृत्य कर मनोरंजन करती हैं. नृत्य चूंकि मेरा शौक था, इसलिए मुझे कोई आपत्ति नहीं हुई.’’
‘‘सोच आई, तो क्या अप्सराएं मनोरंजन की वस्तु हैं?’’
‘‘नहीं जानती बेटी मगर शुरू से यही देखती आ रही हूं.’’
‘‘क्या?’’

‘‘ये लोग 10-11 साल की मासूम लड़कियों को देवदासी के नाम पर यहां ला कर, उन्हें देवता को प्रसन्न करने के बहाने निर्वस्त्र कर देते हैं, फिर 80-90 किलो के पुजारियों को छोड़ दिया जाता है उन पर भूखेभेडि़यों की भांति.’’
‘‘तो आप ने स्वीकार क्यों किया भूखे भेडि़यों का शिकार बनना, आई?’’
‘‘कैसे न करती बेटी, यही प्रथा जो चली आ रही है सदियों से, किस के दम पर न कहती. इस में अकेले मेरे मना करने की गुंजाइश कहां. उलटे, हाथी जैसे पुजारी को अपने ऊपर पा कर जब दर्द और भय से चीखी तो पुजारी ने यह कह कर मेरे होंठ सी दिए कि, ‘आज मैं तेरा ईश्वर से मिलन करवा रहा हूं, इस तरह हंगामा करेगी तो ईश्वरमिलन में बाधा होगी.’ सो, चुपचाप होने दे, जो हो रहा है.’
‘‘लेकिन आई इतना सब हो कर भी इन पुजारियों की छवि समाज में इतनी पाकसाफ क्यों है, कोई इन का नकाब क्यों नहीं उतारता?’’
‘‘कौन उतारे, यह पुरुष समाज है, अपनी बारी आने पर सब एक स्वर में गुर्राने लगते हैं. लोग दिखावे के लिए ब्रह्मचर्य धारण किए हुए हैं लेकिन अपनी हवस मिटाने के लिए हमारे शरीर का भोग लगाते हैं. एक तरह से मुफ्त में यौन आनंद प्राप्त करना इन का स्वभाव बन गया है, फिर धीरेधीरे यही परंपरा बन गई.
‘‘कुछ लोग हमारी देह के बदले खुश हो हमें कुछ रकम दे देते, तो पुजारियों द्वारा वह भी हम से यह कह कर ले ली जाती कि यह रकम मंदिर की व्यवस्था और रखरखाव के लिए खर्च की जाएगी.’’
‘‘यह तो सरासर अन्याय है, आई?’’
‘‘समझती हैं हम, इतना ही नहीं, अपना शरीर सौंप कर हम ने कई मंदिरों को समृद्धशाली बनाया है. मगर हमारा नाम कोई नहीं लेता, बल्कि घृणा करते हैं हम से.’’
‘‘आई, क्या कभी ग्लानि या लज्जा का अनुभव नहीं होता तुझे?’’
‘‘होता है बेटी, विशेषकर तेरे सामने. काश, साहूकार जीवित होते तो तुझे अपना खून समझ कुछ तो कृपा करते. मगर क्या रास्ता है मेरे सामने, समाज में कौन हमें अपनाएगा. हमारे पेट की भूख को तो हम नहीं मार सकते न. फिर देवदासियों को इस काम के लिए सामाजिक स्वीकृति मिली होती है, इसलिए कोई अपराधबोध नहीं पाला मैं ने.’’

‘‘मुझे किसी की कृपा नहीं चाहिए. एक बात बता, अब तो यह देवदासी परंपरा बंद हो गई न, आई. फिर क्यों अब ये सब लोग मुझे ले तुम्हें बाध्य कर रहे हैं?’’
‘‘बेटी, बंद हुई है लेकिन ठीक वैसे ही जैसे कहने को दहेजप्रथा बंद हुई है मगर समाज में यह आज और भी विकराल रूप में जीवित है. दहेज को ले कर आज बेटियां प्रताडि़त की जा रही हैं. इसलिए हम ने भी कहीं और ठोकरें खाने से वेश्यावृत्ति को ही अपना लिया.’’
‘‘आई, तू कुछ और काम भी तो कर सकती थी?’’
‘‘जैसे?’’
‘‘जैसे, तू रसोई अच्छी बनाती है, खानावल ही खोल लेती?’’
‘‘खानावल, क्या तू नहीं जानती कि हमारे हाथ का खाना वर्जित है समाज के इन तथाकथित सभ्य लोगों को, कौन आता हमारे खानावल में, चोरउचक्के, दारूकुट्टे न?’’
‘‘फिर भी आई, वह जीवन इस से बेहतर होता. अपना कहने को अपना रोजगार तो होता जहां इज्जत से रहते?’’
‘‘तुझे लगता है बेटी, तू जानती नहीं, हर धंधे में चिकल्लस होती है. हां, कभीकभी सोचती हूं कि क्या मिला साहूकार से मुझे. महज ढाई बरस का सहवास और कोख में एक संतान जिस का भविष्य भी तय नहीं. फिर पल में सब छिन गया. ऐसा लगा जिंदगी के सारे रंग ही चले गए. जिंदगी का कैनवास फिर से श्वेतश्याम हो गया. अक्षरों का ज्ञान न सही मुझे लेकिन वक्त की ठोकरों ने इतना तो समझा ही दिया कि देवदासी के नाम पर मेरे जीवन से केवल खिलवाड़ ही हुआ है. गांव वालों के मन में बसी कलुषता मैं भलीभांति जान गई हूं कि सब ने मुझे जीभर भोगा. अब पेट भर गया तो उन की नजर तुझ पर है.’’

समझ रही थी सकू कि समाज के ये तथाकथित ठेकेदार चाहते हैं कि देवदासी की परंपरा बरकरार रहे ताकि उन के दैहिक ताप का समाधान बना रहे लेकिन अपनी बेटी की खातिर उस ने विरोध किया तो गांव के पंच प्रधान से ले कर पंडितपुजारी तक एक ही थाली के चट्टेबट्टे निकले, जिन के आगे एक मां की ममता कमजोर पड़ रही थी. वह क्या करे क्या न करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था. फिर समय ने अपना खेल दिखाया, गांव में फिर प्रकृति का प्रकोप हुआ.

गांव के पशु अचानक मरने लगे, पाला पड़ा और खेतों में फसल बैठ गई. सब ने मिल कर इस का दोषी सकू को ठहराया कि इस गांव में प्रथा है देवदासी की, यह सदियों से चली आ रही है, यह देवता का इशारा है कि मुक्ता को देवदासी बनाया जाए. सकू ने विरोध किया इसलिए देव नाराज हो गए और उन्होंने यह दंड गांव वालों को दिया है.

सकू डर गई. वह किसी भी तरह अपनी बच्ची का भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाह रही थी. क्या करे क्या न करे, देवदासी की पीड़ा क्या होती है, उस से बेहतर कौन जान सकता था. एक देवदासी के बिस्तर को सजाने को कई मिल जाते हैं लेकिन उस के मन को सजानेसंवारने को कोई नहीं मिलता. कोई ऐसा कंधा नहीं जिस पर सिर रख कर वह अपने मन का बो?ा हलका कर सके. वह तो एक वस्तु बन कर रह जाती है जिसे केवल भोगा जा सकता है. सकू नहीं चाहती थी कि मुक्ता को भी इसी दौर से गुजरना पड़े. सारी रात वह असमंजस में रही क्योंकि गांव के साहूकार की ओर से आदेश जारी हो गया था कि इस पूर्णिमा को मुक्ता का ब्याह देव से होगा.

ओह, तो क्या पूर्णिमा पर मुक्ता देवदासी बन जाएगी, उस का मन रो रहा था. वह प्रेम से मुक्ता के बालों पर तेल लगा रही थी, मालिश कर रही थी. बेटी को मन भर निहार रही थी. वह जानती थी कि आज उस की बेटी के चेहरे पर जो मुसकराहट दिखाई दे रही है वह चंद दिनों की मेहमान है. उसे मेरी ही तरह इस नरक से गुजरना होगा.

मुक्ता चाहे उम्र में 14 बरस की ही क्यों न हो लेकिन उस ने अक्षर का ज्ञान पाया था. अपनी आई की संवेदना को वह भलीभांति समझ रही थी. बालों में घूमती आई की उंगलियों से वह अंदाजा लगा रही थी कि उन के मन में क्या चल रहा है, बोली, ‘‘आई, वास्तव में यह देवदासी क्या होता है?’’
‘‘बेटी, देवदासी यानी देवताओं की दासी, जिस में एक लड़की का ब्याह देवता से हो जाता है और वह देवता की सेवा में लग जाती है.’’
‘‘ठीक से बताना, आई. देवता से भला ब्याह कैसे हो सकता है, वह तो निर्विकार है. अगर हुआ तो फिर तो देवता ही एकमात्र उस का मालिक यानी पति हुआ न?’’
‘‘हां.’’
‘‘अगर तेरा ब्याह देवता से हुआ तो वह तेरा पति हुआ, ठीक न?’’
‘‘हओ बेटी, अगर मेरा ब्याह देवता से हुआ तो इस नाते देवता मेरा पति ही होगा न.’’
‘‘फिर, मैं तेरी कौन हूं?’’
‘‘कैसी बात कर रही है, मुक्ता. तू पोर (बेटी) है मेरी.’’
‘‘अगर मैं तेरी पोर हूं तो फिर मैं रिश्ते में देवता की क्या हुई?’’
‘‘मैं देवता की पत्नी हूं, वह मेरा पति है, इस नाते तू उन की भी बेटी हुई न?’’
‘‘अच्छा, अगर मैं देवता की बेटी हुई तो वह मेरा पिता हुआ न?’’
‘‘हां, री, तू क्यों इतना पूछ रही है?’’
‘‘फिर अभी तू कह रही थी कि मेरा ब्याह देवता के साथ होगा और अभी तू कह रही है देवता मेरा बाप है, आई. अगर मैं उस की बेटी हूं तो एक बेटी का ब्याह पिता से कैसे हो सकता है?’’ सकू की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.
‘‘बोल न आई, चुप क्यों हो गई, ऐसी प्रथा तो कभी देखी न सुनी?’’
‘‘बेटी, सदियों से यही प्रथा चली आ रही है. अगर इस का पालन नहीं किया तो वे लोग कहते हैं देवता क्रोधित हो जाएंगे. पहले भी ऐसा ही प्रकोप हुआ था और अब भी,’’ सकू असमंजस में बोली.
‘‘आई, अभी तू ने कहा कि देवता तेरा पति और मेरा पिता है तो वह अपनी पत्नी और बेटी पर क्रोधित कैसे हो सकता है?’’
सकू खामोश नजरों से एकटक अपनी बेटी को देखे जा रही थी .

आज अतीत का चलचित्र बहुत तेजी से घूम रहा था सकू के आगे, उस में एक चेहरा उस की आंखों के आगे आ कर ठहर गया. साहूकार द्वारा मु?ो देवदासी बनाने पर अगर कुछ टूटा था तो केशव का दिल, आई और बाबा को तो साहूकार ने मनचाहा पैसा दे दिया था लेकिन केशव अपनी पूंजी हार गया था. आज सकू को उसी बालसखा केशव की याद आई.

अभी 2 दिन थे पूर्णिमा को. उस ने फौरन अपने एक विश्वासपात्र के हाथों एक पत्र दे कर केशव के पास भेजा. निश्च्छल प्रेम में कभी दूरियां नहीं आतीं चाहे उस के बीच समय का कितना ही अंतराल क्यों न आ जाए. परिणामतया, केशव आज सकू बाई के सामने खड़ा था.

सकू बाई ने बेटी को बहुत मन से तैयार किया जैसा उस की आई ने उसे बीजापुर के साहूकार के आमंत्रण हेतु तैयार किया था. वस्त्र-आभूषण पहनाए. मंदिर में मंडप सजवाया. पुजारी वेदी के साथ तैयार था.

सारे गांव वाले आने शुरू हो गए. सकू का आमंत्रण था सब को. सभी उत्सुक थे कि क्यों बुलाया है सकू ने. तब एक मां ने सब के सामने ऐलान कर दिया कि वह मुक्ता का ब्याह आज इसी मंडप में केशव के बेटे वेंकटेश से करने जा रही है.

लेखिका : डा. लता अग्रवाल ‘तुलजा’

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