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Love Story : अधूरा प्यार – जुबेदा ने अशोक के सामने कैसी शर्त रखी

Love Story : मैं हैदराबाद में रहता था, पर उन दिनों लंदन घूमने गया था. वहां विश्वविख्यात मैडम तुसाद म्यूजियम देखने भी गया. यहां दुनिया भर की नामीगिरामी हस्तियों की मोम की मूर्तियां बनी हैं. हमारे देश के महात्मा गांधी, अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन की भी मोम की मूर्तियां थीं. मैं ने गांधीजी की मूर्ति को प्रणाम किया. फिर मैं दूसरी ओर बनी बच्चन और उन्हीं की बगल में बनी ऐश्वर्या की मूर्ति की ओर गया. उस समय तक वे उन की बहू नहीं बनी थीं. मैं उन दोनों की मूर्तियों से हाथ मिलाते हुए फोटो लेना चाहता था.

मैं ने देखा कि एक खूबसूरत लड़की भी लगभग मेरे साथसाथ चल रही है. वह भारतीय मूल की नहीं थी, पर एशियाईर् जरूर लग रही

थी. मैं ने साहस कर उस से अंगरेजी में कहा, ‘‘क्या आप इन 2 मूर्तियों के साथ मेरा फोटो खींच देंगी?’’

उस ने कहा, ‘‘श्योर, क्यों नहीं? पर इस के बाद आप को भी इन दोनों के साथ मेरा फोटो खींचना होगा.’’

‘‘श्योर. पर आप तो भारतीय नहीं लगतीं?’’

‘‘तो क्या हुआ. मेरा नाम जुबेदा है और मैं दुबई से हूं,’’ उस ने कहा.

‘‘और मेरा नाम अशोक है. मैं हैदराबाद से हूं,’’ कह मैं ने अपना सैल फोन उसे फोटो खींचने दे दिया.

मेरा फोटो खींचने के बाद उस ने भी अपना सैल फोन मुझे

दे दिया. मैं ने भी उस का फोटो बिग बी और ऐश्वर्या राय के साथ खींच कर फोन उसे दे दिया.

जुबेदा ने कहा, ‘‘व्हाट ए सरप्राइज. मेरा जन्म भी हैदराबाद में ही हुआ था. उन दिनों दुबई में उतने अच्छे अस्पताल नहीं थे. अत: पिताजी ने मां की डिलीवरी वहीं कराई थी. इतना ही नहीं, एक बार बचपन में मैं बीमार पड़ी थी तो करीब 2 हफ्ते उसी अस्पताल में ऐडमिट रही थी जहां मेरा जन्म हुआ था.’’

‘‘व्हाट ए प्लीजैंट सरप्राइज,’’ मैं ने कहा.

अब तक हम दोनों थोड़ा सहज हो चुके थे. इस के बाद हम दोनों मर्लिन मुनरो की मूर्ति के पास गए. मैं ने जुबेदा को एक फोटो मर्लिन के साथ लेने को कहा तो वह बोली, ‘‘यह लड़की तो इंडियन नहीं है? फिर तुम क्यों इस के साथ फोटो लेना चाहते हो?’’

इस पर हम दोनों हंस पड़े. फिर उस ने कहा, ‘‘क्यों न इस के सामने हम दोनों एक सैल्फी ले लें?’’

उस ने अपने ही फोन से सैल्फी ले कर मेरे फोन पर भेज दी.

मैडम तुसाद म्यूजियम से निकल कर मैं ने पूछा, ‘‘अब आगे का क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘क्यों न हम लंदन व्हील पर बैठ कर लंदन का नजारा देखें?’’ वह बोली.

मैं भी उस की बात से सहमत था. इस पर बैठ कर पूरे लंदन शहर की खूबसूरती का मजा लेंगे. दरअसल, यह थेम्स नदी के ऊपर बना एक बड़ा सा व्हील है. यह इतना धीरेधीरे घूमता है कि इस पर बैठने पर यह एहसास ही नहीं होता कि घूम रहा है. नीचे थेम्स नदी पर दर्जनों क्रूज चलते रहते हैं. फिर हम दोनों ने टिकट से कर व्हील पर बैठ कर पूरे लंदन शहर को देखा. व्हील की सैर पूरी कर जब हम नीचे उतरे तब जुबेदा ने कहा, ‘‘अब जोर से भूख लगी है…पहले पेट पूजा करनी होगी.’’

मैं ने उस से पूछा कि उसे कौन सा खाना चाहिए तो उस ने कहा, ‘‘बेशक इंडियन,’’ और फिर हंस पड़ी.

मैं ने फोन पर इंटरनैट से सब से नजदीक के इंडियन होटल का पता लगाया. फिर टैक्सी कर सीधे वहां जा पहुंचे और दोनों ने पेट भर कर खाना खाया. अब तक शाम के 5 बज गए थे. दोनों ही काफी थक चुके थे. और घूमना आज संभव नहीं था तो दोनों ने तय किया कि अपनेअपने होटल लौट जाएं.

मैं ने जुबेदा से जब पूछा कि वह कहां रुकी है तो वह बोली, ‘‘मैं तो हाइड पार्क के पास वेस्मिंस्टर होटल में रुकी हूं. और तुम?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘जुबेदा, आज तो तुम एक के बाद एक सरप्राइज दिए जा रही हो.’’

‘‘वह कैसे?’’ ‘‘मैं भी वहीं रुका हूं,’’ मैं ने कहा.

जुबेदा बोली ‘‘अशोक, इतना सब महज इत्तफाक ही है… और क्या कहा जा सकता इसे?’’

‘‘इत्तफाक भी हो सकता है या कुछ और भी.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘नहीं. बस ऐसे ही. कोई खास मतलब नहीं… चलो टैक्सी ले कर होटल ही चलते हैं,’’ मैं बोला. इस से आगे चाह कर भी नहीं बोल सका था, क्योंकि मैं जानता था कि यह जिस देश की है वहां के लोग कंजर्वेटिव होते हैं.

हम दोनों होटल लौट आए थे. थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं ने स्नान किया. कुछ देर टीवी देख कर फिर मैं नीचे होटल के डिनर रूम में गया. मैं ने देखा कि जुबेदा एक कोने में टेबल पर अकेले ही बैठी है. मुझे देख कर उस ने मुझे अपनी टेबल पर ही आने का इशारा किया. मुझे भी अच्छा लगा कि उस का साथ एक बार फिर मिल गया. डिनर के बाद चलने लगे तो उस ने अपने ही कमरे में चलने को कहा. भला मुझे क्यों आपत्ति होती.

कमरे में जा कर उस ने 2 कप कौफी और्डर की. थोड़ी देर में कौफी भी आ गई. कौफी पीते हुए कहा ‘‘यू नो, मैं तो 4 सालों से आयरलैंड में पढ़ रही थी. कभी लंदन ठीक से घूम नहीं सकी थी. अब दुबई लौट रही हूं तो सोचा जाने से पहले लंदन देख लूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘आयरलैंड कैसे पहुंच गई तुम?’’

उस ने बताया कि उस के पिता मैक एक आयरिश हैं. जुबेदा के नाना का एक तेल का कुआं हैं, जिस में वे काम करते थे. उस कुएं से बहुत कम तेल निकल रहा था, नानाजी ने खास कर जुबेदा के पिताजी को इस का कारण जानने के लिए बुलवाया था. उन्होंने जांच की तो पता चला कि नानाजी के कुएं से जमीन के नीचे से एक दूसरा शेख तेल को अपने कुएं में पंप कर लेता है.

मैक ने इस तेल की चोरी को रोका. ऊपर से जुबेदा के नाना को मुआवजे में भारीभरकम रकम भी मिली थी. तब खुश हो कर उन्होंने मैक को दुबई से ही अच्छी सैलरी दे कर रख लिया. इतना ही नहीं, उन्हें लाभ का 10 प्रतिशत बोनस भी मिलता था.

जुबेदा के नानाजी और मैक में अच्छी दोस्ती हो गई थी. अकसर घर पर आनाजाना होता था. धीरेधीरे जुबेदा की मां से मैक को प्यार हो गया. पर शादी के लिए उन्हें इसलाम धर्म कबूल करना पड़ा था. इस के बाद से मैक दुबई में ही रह गया. पर मैक की मां आयरलैंड में ही थीं. अत: जुबेदा वहीं दादी के साथ रह कर पढ़ी थी.

अपने बारे में इतना बताने के बाद जुबेदा ने कहा, ‘‘मैं तो कल शाम ऐमिरेट्स की फ्लाइट से दुबई जा रही हूं…तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

मैं ने कहा ‘‘मैं भी ऐमिरेट्स की फ्लाइट से हैदराबाद जाऊंगा, पर कल नहीं, परसों. इस के पहले तक तो इत्तफाक से हम मिलते रहे थे, पर अब इत्तफाक से बिछड़ रहे हैं. फिर भी जितनी देर का साथ रहा बड़ा ही सुखद रहा.’’

जुबेदा बोली, ‘‘नैवर माइंड. इत्तफाक हुआ तो हम फिर मिलेंगे. वैसे तुम कभी दुबई आए हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां, एक बार औफिस के काम से 2 दिनों के लिए गया था. मेरी कंपनी के लोग दुबई आतेजाते रहते हैं. हो सकता है मुझे फिर वहां जाने का मौका मिले.’’

‘‘यह तो अच्छा रहेगा. जब कभी आओ मुझ से जरूर मिलना,’’ जुबेदा ने कहा और फिर अपना एक कार्ड मेरे हाथ पर रखते हुए मेरे हाथ को चूमते हुए कहा, ‘‘तुम काफी अच्छे लड़के हो.’’

‘‘बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?’’

‘‘बिना संकोच पूछो. मुझे पूरी उम्मीद हैं कि तुम कोई ऐसीवैसी बात नहीं करोगे जिस से मुझे तकलीफ हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं करूंगा. बस मैं सोच रहा था कि तुम लोग तो काफी परदे में रहते हो, पर तुम्हें देख कर ऐसा कुछ नहीं लगता.’’

वह हंस पड़ी. बोली, ‘‘तुम ठीक सोचते हो दुबई पहुंच कर मुझे वहां के अनुसार परदे में ही रहना होगा. फिर भी मेरा परिवार थोड़ा मौडरेट सोच रखता है. ओके, गुड नाइट. कल सुबह ब्रेकफास्ट पर मिलते हैं.’’

अगली सुबह हम दोनों ने साथ ब्रेकफास्ट किया. उस के बाद जुबेदा मेरे ही

रूम में आ गई. हम  लोगों ने एकदूसरे की पसंदनापसंद, रुचि और परिवार के बारे में बाते कीं. फिर शाम को मैं उसे विदा करने हीथ्रो ऐयरपोर्ट तक गया. जातेजाते उस ने मुझ से हाथ मिलाया. मेरा हाथ चूमा और कहा, ‘‘दुबई जरूर आना और मुझ से मिलना.’’

मैं ने भी उसे अपना एक कार्ड दे दिया. फिर वह ‘बाय’ बोली और हाथ हिलाते हुए ऐयरपोर्ट के अंदर चली गई. मैं भी अगले दिन अपने देश लौट आया. जुबेदा से मेरा संपर्क फेसबुक या स्काइप पर कभीकभी हो जाता था.

एक बार तो उस ने अपने मातापिता से भी स्काइप पर वीडियो चैटिंग कराई. उन्होंने कहा कि जुबेदा ने मेरी काफी तारीफ की थी उन से. मुझे तो वह बहुत अच्छी लगती थी. देखने में अति सुंदर. मगर मेरे  एकतरफा चाहने से कोई फायदा नहीं था.

1 साल से कुछ ज्यादा समय बीत चुका था. तब जा कर मुझे दुबई जाने का मौका मिला. मेरी कंपनी को एक प्रोडक्ट अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लौंच करना था. इसी सिलसिले में मुझे 5 दिन रविवार से गुरुवार तक दुबई में रहना था.

अगले हफ्ते शनिवार शाम को मैं दुबई पहुंचा. वहां ऐेयरपोर्ट पर जुबेदा भी आई थी. पर शुरू में मैं उसे पहचान नहीं सका, क्योंकि वह बुरके में थी. उसी ने मुझे पहचाना. उस ने बताया कि उस के नाना का एक होटल भी है. उसी में मुझे उन का मेहमान बन कर रहना है. फिर उस ने एक टैक्सी बुला कर मुझे होटल छोड़ने को कहा. हालांकि वह स्वयं अपनी कार से आई थी.

जुबेदा पहले से ही होटल पहुंच कर मेरा इंतजार कर रही थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी कार में भी तो आ सकता था?’’

वह बोली, ‘‘नहीं, अगर तुम्हारे साथ कोई औरत होती तब मैं तुम्हें अपने साथ ला सकती थी. औनली जैंट्स, नौट पौसिबल हियर. अच्छा जिस होटल में तुम्हारे औफिस का प्रोग्राम है. वह यहां से 5 मिनट की वाक पर है. तुम कहो तो मैं ड्राइवर को कार ले कर भेज दूंगी.’’

‘‘नो थैंक्स. पैदल चलना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है,’’ मैं ने कहा.

जुबेदा अपने घर लौट गई थी और मैं अपने रूम में आ गया था. अगली सुबह रविवार से गुरुवार तक मुझे कंपनी का काम करना था. जुबेदा बीचबीच में फोन पर बात कर लेती थी. गुरुवार शाम तक मेरा काम पूरा हो गया था. जुबेदा ने शुक्रवार को खाने पर बुलाया था. मुझे इस की उम्मीद भी थी.

मैं इंडिया से उस के पूरे परिवार के लिए उपहार ले आया था- संगमरमर का बड़ा सा ताजमहल, अजमेर शरीफ के फोटो, कपड़े, इंडियन स्वीट्स और हैदराबाद की मशहूर कराची बेकरी के बिस्कुट व स्नैक्स आदि.

सब ने बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया और स्वादिष्ठ शाकाहारी भोजन कराया. लगभग शाम को जब चलने लगा तो उस की मां ने मुझे एक छोटा सा सुंदर पैकेट दिया. मैं उसे यों ही हाथ में लिए अपने होटल लौट आया. जुबेदा का ड्राइवर छोड़ गया था.

अभी मैं होटल पहुंचा ही था कि जुबेदा का फोन आया, ‘‘गिफ्ट कैसा लगा?’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी तो खोल कर देखा

भी नहीं.’’

जुबेदा, ‘‘यह तो हमारे तोहफे की तौहीन होगी.’’

‘‘सौरी, अभी तुम लाइन पर रहो. 1 मिनट में पैकेट खोल कर बताता हूं,’’ कह मैं ने जब पैकेट खोला तो उस में बेहद खूबसूरत और बेशकीमती हीरे की अंगूठी थी. मैं तो कुछ पल आश्चर्य से आंखें फाड़े उसे देखता रहा.

तब तक फिर जुबेदा ने ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, कुछ बोलते क्यों नहीं?’’

‘‘यह क्या किया तुम ने? मुझ से कुछ कहते नहीं बन रहा है.’’

‘‘पसंद नहीं आया?’’ जुबेदा ने पूछा.

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रही हो… इतना महंगा गिफ्ट मेरी हैसियत से बाहर की बात है.’’

जुबेदा बोली, ‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है. यह तो पर्सनली तुम्हारे लिए है. मां ने कहा है कि जाने से पहले तुम्हारे भाई और बहन के लिए भी कुछ देना है…तुम्हें गिफ्ट पसंद आया या नहीं?’’

मैं ने कहा, ‘‘पसंद न आने का सवाल ही नहीं है. इतने सुंदर और कौस्टली गिफ्ट की तो मैं सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता हूं.’’

‘‘खैर, बातें न बनाओ. मां ने कल दुबई मौल में मिलने को कहा है. मैं भी रहूंगी. गाड़ी भेज दूंगी, आ जाना.’’

अगले दिन शनिवार को जुबेदा ने गाड़ी भेज दी. मैं दुबई मौल में जुबेदा और उस की मां के साथ बैठा था. उस की मां ने मेरे पूरे परिवार के बारे में पूछा. फिर मौल से ही मेरे भाईबहन के लिए गिफ्ट खरीद कर देते हुए कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छे लड़के हो. जुबेदा भी तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकती है. अभी तो तुम्हारी शादी नहीं हुई है. अगर तुम्हें दुबई में अच्छी नौकरी मिले तो क्या यहां सैटल होना चाहोगे?’’

उन का अंतिम वाक्य मुझे कुछ अजीब सा लगा. मैं ने कहा, ‘‘दुबई बेशक बहुत अच्छी

जगह है, पर मेरे अपने लोग तो इंडिया में ही हैं. फिर भी वहां लौट कर सोचूंगा.’’

जुबेदा मेरी ओर प्रश्नभरी आंखों से देख रही थी. मानो कुछ कहना चाहती हो पर बोल नहीं पा रही थी. मौल से निकलने से पहले एक मिनट के लिए मुझ से अकेले में कहा कि उसे मेरे दुबई में सैटल होने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. खैर अगले दिन रविवार को मैं इंडिया लौट गया.

मेरे इंडिया पहुंचने के कुछ घंटों के अंदर ही जुबेदा ने मेरे कुशल पहुंचने की जानकारी ली. कुछ दिनों के अंदर ही फिर जुबेदा का फोन आया, बोली, ‘‘अशोक, तुम ने क्या फैसला लिया दुबई में सैटल होने के बारे में?’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी तक कुछ नहीं सोचा… इतनी जल्दी यह सोचना आसान नहीं है.’’

‘‘अशोक, यह बात तो अब तक तुम भी समझ गए हो कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूं. यहां तक कि मेरे मातापिता भी यह समझ रहे हैं. अच्छा, तुम साफसाफ बताओ कि क्या तुम मुझे नहीं चाहते?’’ जुबेदा बोली.

मैं ने कहा, ‘‘हां, मैं भी तुम्हें चाहता हूं. पर हर वह चीज जिसे हम चाहते हैं, मिल ही जाए जरूरी तो नहीं?’’

‘‘पर प्रयास तो करना चाहिए अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए,’’ जुबेदा बोली.

‘‘मुझे क्या करना होगा तुम्हारे मुताबिक?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम्हें मुझ से निकाह करना होगा. इस के लिए तुम्हें सिर्फ एक काम करना होगा. यानी इसलाम कबूल करना होगा. बाकी सब यहां हम लोग संभाल लेंगे. और हां, चाहो तो अपने भाई को भी यहां बुला लेना. बाद में उसे भी अच्छी नौकरी दिला देंगे.’’

‘‘इस्लाम कबूल करना जरूरी है क्या? बिना इस के नहीं हो सकता है निकाह?’’

‘‘नहीं बिना इसलाम धर्म अपनाए यहां तुम मुझ से शादी नहीं कर सकते हो. तुम ने देखा है न कि मां के लिए मेरे पिता को भी हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ा था. उन को यहां आ कर काफी फायदा भी हुआ. प्यार में कंप्रोमाइज करना बुरा नहीं.’’

‘‘सिर्फ फायदे के लिए ही सब काम नहीं किया जाता है और प्यार में कंप्रोमाइज से बेहतर सैक्रिफाइस होता है. मैं दुबई आ सकता हूं, तुम से शादी भी कर सकता हूं, पर मैं भी मजबूर हूं, अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं… मैं एक विकल्प दे सकता हूं… तुम इंडिया आ सकती हो… यहां शादी कर सैटल हो सकती हो. मैं तुम्हें धर्म बदलने को मजबूर नहीं करूंगा. धर्म की दीवार हमारे बीच नहीं होगी.’’

‘‘नहीं, मेरे मातापिता इस की इजाजत नहीं देंगे. मेरी मां भी और मैं भी अपने मातापिता की एकलौती संतान हैं. हमारे यहां बड़ा बिजनैस और प्रौपर्टी है. फिर वैसे भी मुझे दूसरे धर्म के लड़के से शादी करने की न तो इजाजत मिलेगी और न ही इस की हिम्मत है मुझ में,’’ जुबेदा बोली.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे औफर में किसी को धर्म बदलने की आवश्यकता नहीं होगी. मैं तुम्हें इंडिया में सारी खुशियां दूंगा. मेरा देश बहुत उदार है. यहां सभी धर्मों के लोग अमनचैन से रह सकते हैं, कुछ सैक्रिफाइस तुम करो, कुछ मैं करता हूं पर मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं.’’

‘‘तो यह तुम्हारा अंतिम फैसला है?’’

‘‘सौरी. मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं. मैं सोच रहा हूं कि जब अगली बार दुबई आऊंगा तुम्हारी हीरे की अंगूठी वापस कर दूंगा. इतनी कीमती चीज मुझ पर कर्ज है.’’

‘‘अशोक, प्लीज बुरा न मानो. इस अंगूठी को बीच में न लाओ. हमारी शादी का इस से कोई लेनादेना नहीं है. डायमंड आर फौर एवर, यू हैव टु कीप इट फौरएवर. इसे हमारे अधूरे प्यार की निशानी समझ कर हमेशा अपने साथ रखना. बाय टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’

‘‘तुम भी सदा खुश रहो… यू टू टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’

‘‘थैंक्स,’’ इतना कह कर जुबेदा ने फोन काट दिया. यह जुबेदा से मेरी आखिरी बात थी. उस की दी हुई हीरे की अंगूठी अभी तक मेरे पास है. यह हमारे अधूरे प्यार की अनमोल निशानी है.

Romantic Story : पिया बावरी – किसकी दीवानी थी आरती

Romantic Story : अजय औफिस के लिए निकला तो आरती भी उसे कार तक छोड़ने नीचे उस के साथ ही उतर आई. यह उस का रोज का नियम था.

ऐसा दृश्य कहीं और देखने को नहीं मिलता था कि मुंबई की सुबह की भागदौड़ के बीच कोई पत्नी रोज अपने पति को छोड़ने कार तक आए.

आरती का बनाया टिफिन और अपना लैपटाप बैग पीछे की सीट पर रख आरती को मुसकरा कर बाय बोलते हुए अजय कार के अंदर बैठ गए.

आरती ने भी हाथ हिला कर बाय किया और अपने रूटीन के अनुसार सैर के लिए निकलने लगी तो कुछ ही दूर उस की नेक्स्ट डोर पड़ोसन अंजलि भी औफिस के लिए भागती सी चली जा रही थी.

अंजलि ने आरती पर नजर डाली और कुछ घमंड भरी आवाज में कहा, “हैलो आरती, भाई सच कहो, सब को औफिस के लिए निकलते देख दिल में कुछ तो होता ही होगा कि सबकुछ कर रहे हैं. काश, मैं भी कोई जौब करती. मन तो करता होगा सुबह तैयार हो कर निकलने का. यहां तो लगभग सभी जौब करती हैं.”

आरती खुल कर हंसी,” न, बाबा, तुम लोगों को औफिस जाना मुबारक. हम तो अभी सैर से आ कर न्यूजपेपर पढेंगे, आराम करेंगे, फिर बच्चों को कालेज भेजने की तैयारी.’’

”सच बताओ आरती, कभी दिल नहीं  करता कामकाजी स्त्री होने का?”

”न भाई, बिलकुल नहीं. कमाने के लिए पति है मेरे पास,” आरती हंस दी, फिर कहा,” तुम थकती नहीं हो इस सवाल से? मैं कितनी बार पूछ चुकी हो तुम से?”

”फिर तुम किसलिए हो?” कुछ कड़वे से लहजे में अंजलि ने पूछा, तो उस के साथ तेज चलती हुई आरती ने कहा,” अपने पति को प्यार करने के लिए, लो, तुम्हारी बस आ गई,” आरती उसे बाय कह कर सैर के लिए निकल गई.

बस में बैठ कर अंजलि ने बाहर झांका, आरती तेजतेज कदमों से सैर कर रही थी. रोज की तरह पौन घंटे की सैर कर के जब तक आरती आई, पीहू और यश कालेज जाने के लिए तैयार थे. फ्रेश हो कर बच्चों के साथ ही उस ने नाश्ता किया, फिर दोनों को भेज न्यूजपेपर पढ़ने लगी. उस के बाद मेड के आने पर रोज के काम शुरू हो गए.

आरती एक पढ़ीलिखी हाउस वाइफ थी. नौकरी न करने का फैसला उस का खुद का था. वह घरपरिवार की जिम्मेदारियां बहुत संतोष और खुशी से निभा कर अपनी लाइफ में बहुत खुश थी. वह आराम से रहती, खूब हंसमुख स्वभाव था, न किसी से शिकायतें करने की आदत थी, न किसी से फालतू उम्मीदें. वह वर्किंग महिलाओं का सम्मान करती थी, समझती थी कि इस महानगर की भागदौड़ में घर से निकलना आसान काम नहीं होता, पर उसे यह बात हमेशा अजीब लगती कि वह वर्किंग महिलाओं का सम्मान करती है, तो आसपास की  वर्किंग महिलाएं अंजलि, मीनू और रीता उस के हाउस वाइफ होने का मजाक क्यों बनाती हैं, उसे नीचे क्यों दिखाती हैं.

उसे याद है, जब वह शुरूशुरू में इस सोसाइटी में रहने आई, तो अंजलि ने पूछा था, ”कुछ काम नहीं करतीं आप? बस घर में  रहती हो?”

उस के पूछने के इस ढंग पर आरती को हंसी आ गई थी. उस ने अपने स्वभाव के अनुसार हंस कर जवाब दिया था, ”भाई, घर में भी जो काम होते हैं, उन्हें करती हूं, अपना हाउस वाइफ होना ऐंजौय करती हूं.‘’

”तुम्हारे पति तुम्हें कहते नहीं कि कुछ काम करो बाहर जा कर?”

”नहीं, वे इस में खुश रहते हैं कि जब वे औफिस से लौटें तो मैं उन्हें खूब टाइम दूं, उन्हें भी घर लौटने पर मेरे साथ समय बिताना अच्छा लगता है.‘’

”कमाल है.‘’

इस पर आरती हंस दी थी. पर उसे यह समझ आ गया था कि इन लोगों को आसपास की हाउस वाइफ की लाइफ बिलकुल खराब लगती है. यहां तो मेड भी आ कर उत्साह से पहला सवाल यही पूछती है कि “मैडम, काम पर जाती हो क्या?”

उस के आसपास वर्किंग महिलाएं ही ज्यादा थीं, जो पूरा दिन घर में रहने वाली महिलाओं को किसी काम का न समझतीं.

अजय और आरती ने प्रेमविवाह किया था. आज भी इतने सालों बाद भी दोनों समय मिलते ही एकदूसरे के साथ होना ऐंजौय करते, दोनों को एकदूसरे का साथ प्यारा लगता, कभी रूठना होता भी तो मानमनौव्वल के बाद और करीब आ जाते.

आरती के कोई जौब न करने का फैसला अजय को ठीक लगा था. इस में उसे कोई भी परेशानी नहीं थी. अंजलि, मीनू, रीता के पति भी एकदूसरे को अच्छी तरह जानते थे. वह तो किसी पार्टी में किसी के दोस्त के यह पूछने पर कि भाभीजी क्या करती हैं, तो आरती को निहारता हुआ अजय हंस कर कह देता, “उस का काम है मुझे प्यार करना. और वह बखूबी इस काम को अंजाम देती है.‘’

आसपास खड़ी हो कर यह बात सुन रही अंजलि, मीनू और रीता इस बात पर एकदूसरे को देखती और इशारे करती कि ये देखो, ये भी अजीब ही है.‘’

ऐसी ही एक पार्टी में मीनू के पति ने बात छेड़ दी, ”आरतीजी, आप बोर नहीं होती घर में रह कर? मीनू तो घर में रहने पर बहुत जल्दी बोर हो जाती है, यह तो बहुत ऐंजौय करती है अपने पैरों पर खड़ी होना. हर काम अपनी मरजी से करने में एक अलग ही खुशी होती है. आप तो काफी एजुकेटेड हैं, आप क्यों कोई जौब नहीं करतीं?”

आरती ने खुशदिली से कहा, ”मुझे तो शांति से घर में रहना पसंद है. मैं ने तो शादी से पहले ही अजय से कह दिया था कि मैं कोई जौब नहीं करूंगी. मैं बस घर में रह कर अपनी जिम्मेदारियां उठाऊंगी.”

फिर आरती ने और मस्ती से कहा, ”मैं क्यों करूं कोई काम. मेरा पति है काम करने के लिए, वह कमाता है, मैं खर्च करती हूं मजे से.

“और मजे की बातें आज बता ही देती हूं, मैं अपने मन में अजय को आज भी पति नहीं, प्रेमी ही समझती हूं अपना, जो मेरे आसपास रहे तो मुझे अच्छा लगता है. मैं नहीं चाहती कि मैं कोई जौब करूं और वह मुझ से पहले आ कर घर में मेरा इंतजार करे, किसी भी मेड के हाथ का बना खाना खा कर मेरे पति और बच्चों की हेल्थ खराब हो. मुझे तो अजय के हर काम अपने हाथों से करने अच्छे लगते हैं.

“आप लोगों को पता है कि मैं लाइफ की किन चीजों को आज भी ऐंजौय करती हूं. अजय जब नहा कर निकलें तो मैं उन का टावल उन के हाथ से ले कर तार पर टांग दूं, उन का टिफिन कोई बोझ समझ कर नहीं, मोहब्बत से पैक करूं, और बदले में पता है मुझे क्या मिलता है,” आरती बताते हुए ही शरमा गई, ”अपने लिए ढेर सी फिक्र और प्यार, असल में आप लोग घर पर रहना जितनी बुरी चीज समझने लगे हैं, उतनी बुरी बात ये है नहीं. मैं हैरान हूं, जब मैं वर्किंग लेडीज की रेस्पेक्ट कर सकती हूं तो आप लोग एक हाउस वाइफ के कामों की वैल्यू नहीं समझते तो अजीब सी बात लगती है.

“कल हमारी पीहू भी अपने पैरों पर खड़ी होगी, जौब करेगी, यह उस की चौइस ही होगी कि उसे क्या पसंद है. हां, वह किसी हाउस वाइफ का मजाक कभी नहीं उड़ाएगी, यह भी जानती हूं मैं.’’

सब चुप से हो गए थे. आरती के सभ्य शब्दों में कही बात का असर जरूर हुआ था. सब इधरउधर हुए, तो रीता ने कहा, ‘’आरती, मुझे तुम को थैंक्स भी बोलना था. उस दिन जब घर पर रिमी अकेली थी. हम दोनों को औफिस से आने में देरी हो गई थी, तो तुम ने उसे बुला कर पीहू के साथ डिनर करवाया, हमें बहुत अच्छा लगा.‘’

”अरे, यह कोई बड़ी बात नहीं है. बच्चे तो बच्चे हैं. पीहू ने बताया कि रिमी अब तक अकेली है, तो मैं ने उसे अपने पास बुला लिया था.”

मीनू आरती के ऊपर वाले फ्लैट में रहती थी. उस ने पूछ लिया, ”आरती, तुम ने जो अजय को औफिस में कल करेले की सब्जी दी थी, उस की रेसिपी देना, अमित ने भी टेस्ट की थी, बोल रहे थे कि बहुत बढ़िया बनी थी. ऐसी सब्जी उन्होंने कभी नहीं खाई थी, और पता है, अमित बता रहे थे कि अजय तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं.”

अमित और अजय एक ही औफिस में थे. आरती हंस पड़ी, ”अजय का बस चले तो वे रोज करेले बनवाएं, रेसिपी भी बता दूंगी और जब भी कभी बनाऊंगी, भेज भी दूंगी.‘’

थोड़े दिन आराम से बीते, काफी दिन से कोई आपस में मिला नहीं था. तभी कोरोना वायरस का प्रकोप शुरू हो गया था. सब वर्क फ्रोम होम कर रहे थे. अब अंजलि, मीनू, रीता की हालत खराब थी. न घर में रहने का शौक, न आदत. सब घर में बंद. लौकडाउन ने सब की लाइफ ही बदल कर रख दी थी. न कोई मेड आ रही थी, न कोई घर के काम संभाल पा रहा था. अब सब आपस में बस कभीकभी फोन ही करते. एक आरती थी, जिस ने कोई भी शिकायत किसी से नहीं की. जितना काम होता, उस में किसी की थोड़ी हेल्प ले लेती. अजय तो अब और हैरान था कि जहां उस का हर दोस्त फोन करते ही शुरू हो जाता कि ‘यार, कहां फंस गए, औफिस के काम करो, फिर घर के. लड़ाई भी होने लगी है ज्यादा,’ वहीं वह आरती को धैर्य से सब काम संभालता देखता. वह भी थोड़ेबहुत काम सब से करवा लेती, पर ऐसे नहीं  कि घर में जैसे कोई तूफान आया है. आराम से जब बच्चे औनलाइन पढ़ते, वह खुद औफिस के कामों में बिजी होता. आरती सब शांति से करती रहती. इस दौरान तो उस ने आरती के और गुण भी देख लिए. वह उस पर और फिदा था.

अमित परेशान था, घर से काम करने पर तो औफिस के काम ज्यादा रहने लगे थे, ऊपर से उसे अपने बड़े बालों पर बहुत गुस्सा आता रहता, सारे सैलूंस बंद थे. कहने लगा, ”एक तो इतनी जरूरी वीडियो काल है आज. औफिस के कितने लोग होंगे और मेरे बाल देखो, शक्ल ही बदल गई है घर में रहतेरहते, क्या हाल हो गया है बालों का.”

उस की चिढ़चिढ़ देख मीनू बोली, “इतना चिढ़चिढ़ क्यों कर रहे हो? सब का यही हाल होगा, बाकियों ने कहां कटवा रखे होंगे बाल. सब ही परेशानी में हैं आजकल.”

अमित को बहुत देर झुंझलाहट होती रही. उस दिन की मीटिंग शुरू हुई, तो सभी के बाल बढ़े हुए थे. पहले तो सब कलीग्स इस बात पर हंसे, फिर अचानक अजय के बहुत ही फाइन हेयर कट पर सब की नजर गई तो सब बुरी तरह चौंके.

एक कलीग ने कहा, ”ये तुम्हारा हेयरकट कहां हो गया? इतना बढ़िया… कहां हम सब जंगली लग रहे हैं, और तुम तो जैसे अभीअभी किसी सैलून से निकले हो.”

अजय ने मुसकराते हुए कहा, ”आरती ने किया है. और मेरा ही नहीं, बच्चों का भी. वे भी इतना खुश हैं.”

सभी उस के खास दोस्त आरती की तारीफ करने लगे थे.

अमित अपने लुक पर बहुत  ध्यान देता था. जब वह काम से फ्री हुआ तो उस ने एक ठंडी सांस ली, उठ कर फ्रेश हुआ और शीशे के सामने खड़े हो कर खुद को देखने लगा. मीनू भी लैपटाप पर वहीं कुछ काम कर रही थी, पूछा, ”क्या निहार रहे हो?”

”अपने बाल…’’

”क्या…? कोई और काम नहीं है क्या तुम्हें? हो गई न मीटिंग? सब के ऐसे ही बढ़े हुए थे न…?”

”अजय का हेयरकट बहुत जबरदस्त था.‘’

”क्या…?” चौंकी मीनू.

”हां, आरती ने अजय और  बच्चों का बहुत शानदार हेयरकट कर दिया है. चेहरा चमक रहा था अजय का. ये औरत है, क्या है?”

मीनू ने ठंडी सांस ले कर कहा, “ये पिया बावरी है.”

यह सुन कर अमित को हंसी आ गई, ”डियर, कभी तुम भी बन जाओ पिया बावरी.”

मीनू ने हाथ जोड़ दिए और मुसकराते हुए कहा, ”आसान नहीं है.‘’

Hindi Kahani : मोह के धागे – क्या मानव वृंदा को फिर से मना पाया   

Hindi Kahani : दरवाजे की घंटी बजी तो वृंदा ने सोचा कौन होगा इस वक्त? घड़ी में 8 बज रहे थे. पैरों में जल्दी से चप्पलें फंसा कर चलतेचलते पहनने की कोशिश करते हुए दरवाजा खोला तो सामने मानव खड़ा था.

‘‘ओह, तुम?’’ धीरे से कह कर रास्ता छोड़ दिया.

अचानक कमरे में गहरा सन्नाटा पसर गया था. टेबल पर रखे गिलास में पानी भरते हुए पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘‘वह… मां का देहांत हो गया… आज… मैं ने सोचा… शायद… तुम घर आना चाहो.’’

वृंदा के हाथ थमे से रह गए, ‘‘ओह, आई एम सौरी,’’ कह कर पलकें झुका लीं. आंखों में आंसू भर आए थे. फिर से एक लंबी चुप्पी पसर गई थी.

‘‘तो… कल मैं… इंतजार करूंगा,’’ कह कर मानव उठा और दरवाजे तक पहुंच कर फिर मुड़ा, ‘‘आई विल वेट फौर यू.’’

वृंदा ने हामी में सिर हिलाते हुए नजरें झुका लीं. मानव के सीढि़यां उतरने की आवाज धीरेधीरे दूर हो गई तो वृंदा ने दरवाजा बंद कर लिया और आ कर सोफे पर ही लेट गई. उस की आंखें अब भी नम थीं. 9 वर्ष बीत गए… वृंदा ने गहरी सांस ली…

खाने का वक्त हो गया, मगर भूख न जानें कहां चली गई थी. अपार्टमैंट की बत्तियां बुझा धीमी रोशनी में बालकनी में आ खड़ी हुई. तेज रफ्तार से दौड़ती गाडि़यां मानो एकदूसरे का पीछा कर रही हों.

वृंदा का मन बोझिल सा हो गया था. कपड़े बदले, पानी पीया और बिस्तर में लेट गई. आंखें बंद कीं तो आवाजें कानों में गूंजने लगीं…

‘‘वृंदा, मां को खाना दे दो.’’

‘‘हां, बस बन गया है.’’

मानव थाली निकाल मां का खाना ले कर उन के कमरे की तरफ चल दिया.

‘‘सुनो, मैं दे रही हूं.’’

‘‘रहने दो,’’ कह कर, मानव चला गया.

‘‘वृंदा, देखो मां क्यों खांस रही हैं.’’

‘‘अरे, ऐसे ही आ गई होगी.’’

मानव ने दवा निकाली और मां के कमरे में चला गया.

वृंदा सुबह भागभाग कर काम निबटा रही थी. मानव के औफिस का वक्त हो रहा था.

‘‘वृंदा, मेरा नाश्ता? उफ, ये सब तुम बाद में भी कर सकती हो,’’ मुंह बना कर मुड़ गया.

मां के कपड़े धोना, प्रैस करना, उन का खाना, नाश्ता, दूध, फ्रूट काटना, जूस देना और भी कई छोटेछोटे काम करते वृंदा थक जाती.

शाम को मानव घर लौटा,

तुम मां का खयाल नहीं रखतीं… बूढ़ी हैं वे… सब कामवाली पर छोड़ रखा है.’’

सुन कर वृंदा अवाक रह गई. गुस्सा आने लगा था उसे. मानव और उस के बीच जो मीठा सा प्रेम था वह मर सा गया था. क्या यह वही आदमी है जो जरा सा रूठते ही मनाने लगता था. मेरी छोटीछोटी बातों का भी ध्यान रखता था. अब मां के सिवा उसे कुछ नजर ही नहीं आता. मां पर भी गुस्सा आने लगा था कि इतना करने के बावजूद कभी कोई आशीर्वाद या तारीफ का शब्द उन के मुंह से न निकलता.

फिर भी मानव पर प्यार आ जाता बारबार. शायद वृंदा का प्रेम मोह में बदल गया था. खुद पर गुस्सा आ रहा था. चाह कर भी मानव को समझा नहीं पा रही थी कि वह भी मां की परवाह करती है, प्यार करती है, देखभाल करती है… जाने कैसा चक्र सा बन गया था. मानव मां की ओर झुकता जाता. वृंदा को गुस्सा आता तो कुछ भी बोल देती. बाद में अफसोस होता. मगर मानव उन शब्दों को ही सही मान कर मां के लिए और परेशान रहता.

वृंदा को लगता मानव कहीं दूर चला गया है. अजनबी सा बन गया था. वृंदा उठ कर बिस्तर में बैठ गई. एसी चलने के बावजूद पसीना आ रहा था. पानी पीया और फिर लेट गई.

रोज झगड़ा होने लगा. वृंदा इंसिक्योर होती गई. धीरेधीरे डिप्रैशन में जाने लगी. मानव बेखबर रहा. मां भी मूकदर्शक बनी रही. तनाव सा रहने लगा घर में.

एक दिन वृंदा ने मां को मानव से कुछ कहते सुना.

वृंदा सामने आ गई,  ‘‘मां… मेरे ही घर में मेरे खिलाफ बातें?’’

मानव बोला, ‘‘मां हैं मेरी इज्जत करो… बूढ़ी हैं,’’

वृंदा बूढ़ी हैं… बूढ़ी हैं सुनसुन कर तंग आ चुकी थी. बोली, ‘‘जानती हूं मैं,’’ चीखने लगी थी वह, ‘‘मैं किस के लिए हूं… अगर मैं ही प्रौब्लम हूं तो मैं ही चली जाती हूं.’’

‘‘जाना है तो जाओ… निकलो,’’ मानव ने कहा.

वृंदा ने घर छोड़ दिया. मानव ने कोई खबर न ली. वृंदा ने भी गिरतेपड़ते राह खोज ली. आंसू भर आए थे. जख्म फिर हरे हो गए थे. वृंदा फफकफफक कर रो पड़ी थी.

सुबह मानव के घर में मां का क्रियाकर्म चलता रहा. मानव सफेद कुरतापाजामा पहने नजरों के सामने से गुजरता रहा. कितना जानापहचाना सा था सबकुछ. वृंदा भी हाथ बंटाती रही.

15 दिन बीत गए. मानव एक बार फिर उस के दरवाजे पर खड़ा था, ‘‘वृंदा… घर लौट आओ… अब तो मां नहीं रही.’’

वृंदा ने मानव की ओर देखा, ‘‘मानव, तुम आज तक समझ ही नहीं पाए… इट वाज नैवर अबाउट योर मदर… मैं तुम से उम्मीद करती थी कि तुम मेरी भावनाओं को समझोगे… जिस के लिए मैं अपना सब कुछ छोड़ आई थी… कितनी आसानी से उस घर से निकलने को कह दिया… मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. तुम्हारा प्यार पाना चाहती थी… मां के सामने तुम मुझे देख ही नहीं पाए… मैं ने खुद को तुम्हारे प्रेम में खो दिया था. अच्छा किया जो तुम ने मुझे बेसहारा छोड़ दिया. मैं ने अपने पैरों पर खड़ा होना सीख लिया. अपना आत्मविश्वास पा लिया. अब जो पाया है उसे फिर नहीं खोना चाहती. अच्छा होगा तुम फिर यहां न आओ.’’

मानव धीरे से उठा और बोझिल कदमों से चलता हुआ दरवाजे से निकल गया. वृंदा ने दरवाजा बंद किया और बंद हो गईं वे आवाजें जो उस का पीछा करती रहीं… वे मोह के धागे जो उसे बांधे हुए थे और कमजोर बना रहे थे आज तोड़ दिए थे और एक नए अध्याय की शुरुआत की थी.

Hindi Story : सुखमन का मोड़ा – क्या सुखमन अपने मोड़े को ऊंची तालीम दे सकी?

Hindi Story : ट्रेन में परचा बांट रही सुखमन ने उस समय मेरे मन के भावों में देख पैसे नहीं लिए, पर एक दिन रास्ते में जब वह मुझे मिली तो अपनी दास्तां सुनाने लगी. कुछ सोच कर उसे स्कूल में चपरासी पद पर रख लिया गया और उस के बेटे को भी उसी स्कूल में एडमिशन करा दिया. बाद में उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया और खर्चा मैं देता रहा. प्रिंसिपल पद से मैं रिटायर  हो गया. लेकिन क्या सुखमन अपने मोड़े को ऊंची तालीम दे सकी? क्या सुखमन ने उसे हकीकत बता दी?

उस ने अपना परिचय यही दिया था.

‘‘जी, मैं सुखमन का मोड़ा हूं…’’ मैं ने उसे उपर से नीचे तक देखा. वह सूटबूट पहने था और व्यक्तित्व भी प्रभावशाली लग रहा था. एक गनमैन उस के ठीक पीछे खड़ा था. उस से कुछ दूरी पर कुछ और लगे खड़े थे. वह शायद उसी कार से उतरा था, जिस पर ‘‘कलक्टर’’ लिखा था. मैं हड़बड़ा गया था.

‘‘सुखमन… ओह… याद आया. वो जाबांज महिला… अच्छा… अच्छा. ’’

मेरी आंखों के सामने सुखमन का चेहरा कौंध गया था. एक दुबलीपतली काया मेरी आंखों के सामने कौंध गई. सुखमन से मैं रेल यात्रा के दौरान मिला था. एक जवान महिला अपने बांए कांधे में एक बालक को रखे सारे कंपार्टमैंट में एक परचा बांट रही थी. उस ने एक परचा मुझे भी दिया था. एक सांस में पढ़ता चला गया था सारे परचे को.

‘‘भीख मांगने का नया नाटक,’’ मैं ने अपना चेहरा ही घुमा लिया था. रेल के कंपार्टमैंट में अकसर ऐसे भीख मांगने के तरीके आजमाए जाते हैं. कभी कोई झाड़ू हाथ में ले कर कंपार्टमैंट झाड़ने लगता है, तो कभी कोई अंधाबहरा बन कर भीख मांगता है.

‘‘भिखारियों के कंपार्टमैंट में घुसने पर प्रतिबंध लगना चाहिए,’’ अकसर में ऐसा कह कर अपनी भड़ास निकाल देता. परचा बांट कर भीख मांगने का यह तरीका नया नहीं था. परचे पर एक ही इबारत होती थी,

‘‘मैं विधवा हूं. मेरा एक छोटा बच्चा है. मुझे कुछ रुपयों की जरूरत है. आप दान दे कर पुण्य लाभ प्राप्त करें.’’

मैं ने तो परचा भी नहीं लिया था और बड़ी हिकारत के साथ उस महिला के हाथों में एक का सिक्का डाल दिया था. उस महिला ने मेरे चेहरे को पढ़ लिया था, शायद इसीलिए उस ने एक सिक्का वापस मेरे हाथ में रखते हुए कहा था, ‘‘बाबूजी, आप रहने दें,’’ कह कर वह बगैर पलट कर देखे चली गई थी. उस का यों मेरा पैसा लौटाना मुझे बेइज्जती सी महसूस हुई थी. मैं ने उस सिक्के को सीट पर ही छोड़ दिया था.

मेरा प्रमोशन हुआ था. इस वजह से मुझे स्थानांतरित हो कर दूसरे शहर जाना पड़ा था. मैं ने इस शहर के उत्कृष्ट विद्यालय के प्राचार्य का पदभार ग्रहण किया था. एक दिन सुबहसुबह मुझे वही औरत रास्ते में मिल गई थी. मैं ने उसे अनदेखा किया था, पर वह चिहुंक कर मेेरे पास आ कर खड़ी हो गई थी.

‘‘पहचाना साब… मैं उस दिन ट्रेन में…’’

‘‘हां… हां, ठीक है,’’ कह कर मैं ने वहां से जाने के लिए  कदम बढ़ा दिए थे. मैं यों बीच सड़क पर उस से ज्यादा बात नहीं करना चाह रहा था. मुझे यों कदम बढ़ाते देख वह ठीक मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई थी.

‘‘आप नाराज हैं मुझ से…?’ उस के चेहरे पर परेशानी के भाव उभर आए थे.

‘‘तुम से क्यों नाराज होऊंगा… तुम कोई पहचान वाली हो क्या मेरी…?’’

मैं ने अपने कदम आगे बढ़ा दिए थे. वह मेरे साथ चलने लगी थी. मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था. मैं उस से पीछा छुड़ाना चाहता था. मैं ने उसे गुस्से में देखा भी, पर उस ने अनदेखा कर दिया था.

‘‘उस दिन मैं ने आप के दिए पैसे आप को बेइज्जत करने के लिए नहीं लौटाए थे, बल्कि मुझे स्वंय ही खराब लग रहा था.’’

मैं मौन था.

‘‘उस दिन के बाद से मैं ने ट्रेन में भीख मांगना बंद कर दिया है साब.’’

उसे लगा था कि मैं उस की इस बात को सुन कर उसे शाबाशी दूंगा.

वैसे, मुझे यह शाबाशी देनी चाहिए थी, पर अनजान शहर में प्राचार्य जैसे पद पर रहते हुए एक अनजान महिला से सड़क पर बातचीत करना मुझे नागवार गुजर रहा था. उस ने पीछा नहीं छोड़ा था. वह मेरे साथ चलतेचलते स्कूल तक आ पहुंची थी. चपरासी ने उसे गेट पर ही रोकना चाहा था, पर मैं ने हाथ के इशारे से उसे ऐसा करने से रोक दिया था. उस की बातों ने उस के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ा दी थी. स्कूल लगने में अभी समय था. इस कारण मैं ने उस की पूरी बातें सुनने का निर्णय कर लिया था. अपनी कुरसी पर आराम से बैठ कर मैं ने उस को उस की पूरी बात बताने की कह दिया था. वह धाराप्रवाह बोलती जा रही थी मानो सारा कुछ उस के दिमाग में पहले से ही रिकौर्ड कर लिया गया हो…

‘‘साबजी, मेरे पति स्कूल में टीचर थे. वे रोज साइकिल से स्कूल आतेजाते थे. एक दिन उन का एक्सीडेंट हो गया… और वे अपंग हो गए… फिर एक दिन वे चल बसे,’’ कह कर वह सुबक उठी थी.

मैं ने उसे चुप कराने का कोई प्रयास नहीं किया था.

‘‘एक लड़का है. तब एक साल का था… किसी ने कोई मदद नहीं की. मैं  क्या करती… साबजी… उन के इलाज में भी पैसा खर्च हो चुका था और पेट भरने में भी… मेरे पास भीख मांगने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था… शहर में भीख मांगने में शर्म आती थी, क्योंकि मैं एक टीचर की पत्नी थी, इसलिए ट्रेन में भीख मांगना शुरू किया था…’’

‘‘क्यों तुम को सरकारी सहायता नहीं मिली…?’’

‘‘मिली थी साबजी… पर, उन के इलाज में खर्चा हो गया…’’ कहतेकहते उस की आंखों से आंसुओं की धार बह निकली थी. मैं उसे चुप भी नहीं करा सका.

‘‘पर, अब घर का खर्चा कैसे चलता है?’’ मेरा यह प्रश्न स्वाभाविक ही था. पर वह चुप रही. मैं ने पर्स से 500 रुपए का नोट निकाला और उस की ओर बढ़ा दिया.

‘‘अब मैं ने भीख लेना बंद कर दिया है साबजी,’’ कहती हुई वह बगैर कुछ बोले चली गई.

मैं बहुत देर तक अपने हाथ में रखे नोट को देखता रहा था. सच तो यह है कि अब मैं सुखमन के बारे में ही सोच रहा था. मैं जानता था कि भूखे पेट को भरने की पीड़ा क्या होती है. यह तब और भी कठिन हो जाती है, जब एक संतान भी हो.

कुछ दिन बाद सुखमन मुझे फिर रास्ते में ही मिली.

‘‘तुम स्कूल आना.’’ मैं ने चलतेचलते इतना ही कहा.

स्कूल में अपनी कुरसी पर बैठते हुए मैं ने उस से सीधा सा प्रस्ताव रख दिया था,

‘‘मेरे स्कूल में चपरासी का पद खाली है. तुम कल से काम पर आ जाना.’’

मैं जानता था कि यदि मैं उस पर अहसान बता कर मदद करूंगा, तो वह स्वीकार नहीं करेगी. चूंकि मैं प्राचार्य था, इस कारण मुझे उसे काम पर रखने में कोई परेशानी भी नहीं थी. वह काम करेगी तो वेतन मिलेगा, जिस की उसे बहुत जरूरत थी.

‘‘जी,’’ उस ने नीचे सिर किए ही बोला था.

‘‘और… हां, बालक को भी ले कर आना स्कूल में. उस का दाखिला करा देंगे.’’

‘‘ जी…’’ उस का सिर अभी भी जमीन को ही देख रहा था.

सुखमन के काम से सारा स्कूल स्टाफ प्रसन्न था. सारा स्टाफ और विशेषकर महिला शिक्षक उस की तारीफ करती थीं. वह सुबह जल्दी आ जाती. बालक को स्कूल छोड़ देती और फिर दिनभर स्कूल में भागदौड़ करती रहती. शाम को जब उस का बालक स्कूल से आ जाता, तो उसे ले कर वह अपने घर लौट जाती. स्कूल का स्टाफ उस की मदद करता रहता, पर उसे अहसास न हो इस रूप में.

सुखमन की दिनचर्या बदल चुकी थी. धीरेधीरे उस के चेहरे से उदासी भी खत्म होती जा रही थी. उस का बालक पढ़ने में होशियार था. इस कारण उस ने जल्दी ही पुरानी कक्षाओं के कोर्स को पूरा कर लिया था. उस के शिक्षक उस से प्रसन्न थे और वे उस पर पर्याप्त ध्यान भी दे रहे थे.

‘‘सर, इस बालक को यदि बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाया जाए, तो यह बहुत ऊंचाइयों  पर पहुंच सकता है.’’

उस के स्कूल के एक शिक्षक ने एक दिन मुझ से कहा था. पर मैं जानता था कि सुखमन उस का खर्चा नहीं उठा पाएगी. पर प्रश्न बालक के भविष्य का था.

‘‘कितना खर्चा आएगा उसे बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाने में…?’’ जिज्ञासा के साथ ही साथ उस बालक के भविष्य के दृष्टिकोण से भी मैं ने पूछा था.

‘‘वर्षभर में तकरीबन एक लाख रुपया,’’ उन की वाणी में संकोच साफ झलक रहा था.

‘‘ओह…’’ इतनी बड़ी रकम सुन कर खामोश मैं भी हो गया था. पर मेरा अंतर्मन नहीं मान रहा था.

‘‘देखो, उस का एडमिशन उस स्कूल में करा ही दो… खर्चा मैं दे दूंगा, पर तुम किसी को इस बारे में कुछ नहीं बताना… खासकर सुखमन को…’’

‘‘क्यों सर…?’’

‘‘अरे, तुम उसे नहीं जानते… वह इस के लिए कभी तैयार नहीं होगी.’’

‘‘हां… ये तो है.’’

‘‘तुम बताना कि स्कूल की तरफ से ही उसे भेजा जा रहा है… समझ गए न…’’ मैं ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि उस बालक की पढ़ाई मैं ही कराऊंगा.

सुखमन को बालक को बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाने के लिए राजी करने में पसीना आ गया. मुझे नाराज होने का भी प्रहसन करना पड़ा और अंत में उसे बच्चे के भविष्य का स्वप्न दिखा कर राजी कर ही लिया.

मेरी सेवानिवृति तक वह बालक कक्षा 12वीं तक पहुंच चुका था. मैं ने वहां से आने के पहले उस की आगामी पढ़ाई के लिए भी राशि स्कूल में जमा करा दी थी. 5-6 साल की लंबी समयावधि गुजर गई थी. इस बीच मुझे सुखमन की खबर तो मिलती रहती थी, पर बालक की खबर नहीं लग पा रही थी. उसी बालक को एकाएक सामने देख मैं हतप्रभ था. उस ने पूरी श्रद्धा के साथ मेरे पैरों पर अपना सिर रखा हुआ था.

उसे अपने गले से लगाते हुए मुझे आत्मिक संतोष मिल रहा था. वह बहुत देर तक किसी छोटे बच्चे की भांति मेरे सीने से चिपका रहा. उस की आंखों से गिरे आंसुओं से मेरे कपड़े गीले हो रहे थे और मेरी आंखों से गिरे आंसुओं से उस का सूट नम हुआ जा रहा था. अलग होने में बहुत देर लगी.

‘‘तुम्हारी मां कैसी हैं…?’’

‘’अब इस दुनिया में नहीं हैं. कुछ दिन पहले ही उन का स्वर्गवास हुआ है,’’ उस की आंखें एक बार फिर भर आई थीं.

सुन कर मुझे भी दुख हुआ था. कुछ देर तक वातारण बोझिल बना रहा.

‘‘मां ने कहा था कि आप ने मेरी पढ़ाई में बहुत पैसा खर्च किया है. इस अहसान को कभी भूलना नहीं…’’

‘‘यह अहसान नहीं था बेटा.’’

‘‘मैं आईएएस में चयनित हुआ हूं और मेरे सौभाग्य से मेरी प्रथम नियुक्ति इसी जिले में कलक्टर के रूप में हुई है, आप का आषीर्वाद लेने आया हूं.’’

मैं चुप रहा आया. कुछ देर बाद उस ने एक अटैची मेरी ओर बढ़ाई.

‘‘सर, मैं आप का कर्ज तो कभी नहीं चुका सकता… पर, यह कुछ रुपए हैं…’’ यह देख मैं अवाक था.

‘‘तुम मुझे रुपए दे कर मेरा कर्ज चुकाना चाहते हो…’’ मैं वाकई नाराज हो गया था. मुझे यह अच्छा नहीं लगा था. वह मेरे पैरों पर गिर गया.

‘‘सर, ऐसा मैं कभी नहीं कर सकता… पर, मां ने कहा था… इसलिए…’’

मैं मौन था, पर उस के हाथ से सूटकेस नहीं लिया था.

‘‘बेटा, यदि तुम वाकई मेरा कर्ज चुकाना चाहते हो, तो मेरे सामने अपनी मां को याद करते हुए संकल्प लो कि तुम भ्रष्टाचार नहीं करोगे, गरीबों की मदद करोगे. और… अपने पद की गरिमा बनाए रखोगे.’’

वह मेरे सीने से लग गया,

‘‘सर, ऐसा ही होगा. आप आशीर्वाद दें…’’

उस के जाने के बाद मैं बहुत देर तक यों ही निःशब्द बैठा रहा था. रहरह कर मेरे सामने सुखमन का चेहरा घूम जाता था मानो कह रही हो, ‘‘जैसे आप ने मेरा जीवन बदल दिया, वैसे ही अब इस का भी ध्यान रखना.’’

Best Hindi Story : गहरी चाल – आखिर सुनयना क्यों डरी हुई थी?

Best Hindi Story : सुनयना दोनों हाथों में पोटली लिए खेत में काम कर रहे पति और देवर को खाना देने जा रही थी. उसे जब भी समय मिलता, तो वह पति और देवर के साथ खेत के काम में जुट जाती थी. अपनी धुन में वह पगडंडी पर तेज कदमों से चली जा रही थी, तभी सामने से आ रहे सरपंच के लड़के अवधू और मुनीम गंगादीन पर उस की नजर पड़ी. वह ठिठक कर पगडंडी से उतर कर खेत में खड़ी हो गई और उन दोनों को जाने का रास्ता दे दिया.

अवधू और मुनीम गंगादीन की नजर सुनयना की इस हरकत और उस के गदराए जिस्म के उतारचढ़ावों पर पड़ी. वे दोनों उसे गिद्ध की तरह ताकते हुए आगे बढ़ गए. कुछ दूर जाने के बाद अवधू ने गंगादीन से पूछा, ‘‘क्यों मुनीमजी, यह ‘सोनचिरैया’ किस के घर की है?’’ ‘‘यह तो सुखिया की बहू है. जा रही होगी खेत पर अपने पति को खाना पहुंचाने. सुखिया अभी 2 महीने पहले ही तो मरा था. 3 साल पहले उस ने सरपंचजी से 8 हजार रुपए उधार लिए थे. अब तक तो ब्याज जोड़ कर 17 हजार रुपए हो गए होंगे,’’ अवधू की आदतों से परिचित मुनीम गंगादीन ने मसकेबाजी करते हुए कहा.

‘लाखों का हीरा, फिर भी इतना कर्ज. आखिर हीरे की परख तो जौहरी ही कर सकता है न,’ अवधू ने कुछ सोचते हुए पूछा, ‘‘और मुनीमजी, कैसी है तुम्हारी वसूली?’’

‘तकाजा चालू है बेटा. जब तक सरपंचजी तीर्थयात्रा से वापस नहीं आते, तब तक इस हीरे से थोड़ीबहुत वसूली आप को ही करा देते हैं.’’

‘‘मुनीमजी, जब हमें फायदा होगा, तभी तो आप की तरक्की होगी.’’

दूसरे दिन मुनीम गंगादीन सुबहसुबह ही सुनयना के घर जा पहुंचा. उस समय सुखिया के दोनों लड़के श्यामू और हरिया दालान में बैठे चाय पी रहे थे.

गंगादीन को सामने देख श्यामू ने चाय छोड़ कर दालान में रखे तख्त पर चादर बिछाते हुए कहा, ‘‘रामराम मुनीमजी… बैठो. मैं चाय ले कर आता हूं.’’

‘‘चाय तो लूंगा ही, लेकिन बेटा श्यामू, धीरेधीरे आजकल पर टालते हुए 8 हजार के 17 हजार रुपए हो गए. तू ने महीनेभर की मुहलत मांगी थी, वह भी पूरी हो गई. मूल तो मूल, तू तो ब्याज तक नहीं देता.’’

‘‘मुनीमजी, आप तो घर की हालत देख ही रहे हैं. कुछ ही दिनों पहले हरिया का घर बसाया है और अभीअभी पिताजी भी गुजरे हैं,’’ श्यामू की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘मैं तो समझ रहा हूं, लेकिन जब वह समझे, जिस की पूंजी फंसी है, तब न. वैसे, तू ने महीनेभर की मुहलत लेने के बाद भी फूटी कौड़ी तक नहीं लौटाई,’’ मुनीम गंगादीन ने कहा.

तब तक सुनयना गंगादीन के लिए चाय ले कर आ गई. गंगादीन उस की नाजुक उंगलियों को छूता हुआ चाय ले कर सुड़कने लगा और हरिया चुपचाप बुत बना सामने खड़ा रहा.

‘‘देख हरिया, मुझ से जितना बन सका, उतनी मुहलत दिलाता गया. अब मुझ से कुछ मत कहना. वैसे भी सरपंचजी तुझ से कितना नाराज हुए थे. मुझे एक रास्ता और नजर आ रहा है, अगर तू कहे तो…’’ कह कर गंगादीन रुक गया.

‘कौन सा रास्ता?’ श्यामू व हरिया ने एकसाथ पूछा.

‘‘तुम्हें तो मालूम ही है कि इन दिनों सरपंचजी तीर्थयात्रा करने चले गए हैं. आजकल उन का कामकाज उन का बेटा अवधू ही देखता है.

‘‘वह बहुत ही सज्जन और सुलझे विचारों वाला है. तुम उस से मिल लो. मैं सिफारिश कर दूंगा.

‘‘वैसे, तेरे वहां जाने से अच्छा है कि तू अपनी बीवी को भेज दे. औरतों का असर उन पर जल्दी पड़ता है. किसी बात की चिंता न करना. मैं वहां रहूंगा ही. आखिर इस घर से भी मेरा पुराना नाता है,’’ मुनीम गंगादीन ने चाय पीतेपीते श्यामू व हरिया को भरोसे में लेते हुए कहा.

सुनयना ने दरवाजे की ओट से मुनीम की सारी बातें सुन ली थीं. श्यामू सुनयना को अवधू की कोठी पर अकेली नहीं भेजना चाहता था. पर सुनयना सोच रही थी कि कैसे भी हो, वह अपने परिवार के सिर से सरपंच का कर्ज उतार फेंके.

दूसरे दिन सुनयना सरपंच की कोठी के दरवाजे पर जा पहुंची. उसे देख कर मुनीफ गंगादीन ने कहा, ‘‘बेटी, अंदर आ जाओ.’’

सुनयना वहां जाते समय मन ही मन डर रही थी, लेकिन बेटी जैसे शब्द को सुन कर उस का डर जाता रहा. वह अंदर चली गई.

‘‘मालिक, यह है सुखिया की बहू. 3 साल पहले इस के ससुर ने हम से 8 हजार रुपए कर्ज लिए थे, जो अब ब्याज समेत 17 हजार रुपए हो गए हैं. बेचारी कुछ और मुहलत चाहती है,’’ मुनीम गंगादीन ने सुनयना की ओर इशारा करते हुए अवधू से कहा.

‘‘जब 3 साल में कुछ भी नहीं चुका पाया, तो और कितना समय दिया जाए? नहींनहीं, अब और कोई मुहलत नहीं मिलेगी,’’ अवधू अपनी कुरसी से उठते हुए बोला.

‘‘देख, ऐसा कर. ये कान के बुंदे बेच कर कुछ पैसा चुका दे,’’ अवधू सुनयना के गालों और कानों को छूते हुए बोला.

‘‘और हां, तेरा यह मंगलसूत्र भी तो सोने का है,’’ अवधू उस के उभारों को छूता हुआ मंगलसूत्र को हाथ में पकड़ कर बोला.

सुनयना इस छुअन से अंदर तक सहम गई, फिर भी हिम्मत बटोर कर उस ने कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हो छोटे ठाकुर?’’

‘‘तुम्हारे गहनों का वजन देख रहा हूं. तुम्हारे इन गहनों से शायद मेरे ब्याज का एक हिस्सा भी न पूरा हो,’’ कह कर अवधू ने सुनयना की दोनों बाजुओं को पकड़ कर हिला दिया.

‘‘अगर पूरा कर्ज उतारना है, तो कुछ और गहने ले कर थोड़ी देर के लिए मेरी कोठी पर चली आना…’’ अवधू ने बड़ी बेशर्मी से कहा, ‘‘हां, फैसला जल्दी से कर लेना कि तुझे कर्ज उतारना है या नहीं. कहीं ऐसा न हो कि तेरे ससुर के हाथों लिखा कर्ज का कागज कोर्ट में पहुंच जाए.

‘‘फिर भेजना अपने पति को जेल. खेतघर सब नीलाम करा कर सरकार मेरी रकम मुझे वापस कर देगी और तू सड़क पर आ जाएगी.’’

सुनयना इसी उधेड़बुन में डूबी पगडंडियों पर चली जा रही थी. अगर वह छोटे ठाकुर की बात मानती है, तो पति के साथ विश्वासघात होगा. अगर वह उस की बात नहीं मानती, तो पूरे परिवार को दरदर की ठोकरें मिलेंगी.

कुछ दिनों बाद मुनीम गंगादीन फिर सुनयना के घर जा पहुंचा और बोला, ‘‘बेटी सुनयना, कर लिया फैसला? क्या अपने गहने दे कर ठाकुर का कर्ज चुकाएगी?’’

‘‘हां, मैं ने फैसला कर लिया है. बोल देना छोटे ठाकुर को कि मैं जल्दी ही अपने कुछ और गहने ले कर आ जाऊंगी कर्जा उतारने. उस से यह भी कह देना कि पहले कर्ज का कागज लूंगी, फिर गहने दूंगी.’’

‘‘ठीक है, वैसे भी छोटे ठाकुर सौदे में बेईमानी नहीं करते. पहले अपना कागज ले लेना, फिर…’’

वहीं खड़े सुनयना के पति और देवर यही सोच रहे थे कि शायद सुनयना ने अपने सोने और चांदी के गहनों के बदले पूरा कर्ज चुकता करने के लिए छोटे ठाकुर को राजी कर लिया है. उन्हें इस बात का जरा भी गुमान न हुआ कि सोनेचांदी के गहनों की आड़ में वह अपनी इज्जत को दांव पर लगा कर के परिवार को कर्ज से छुटकारा दिलाने जा रही है.

‘‘और देख गंगादीन, अब मुझे बेटीबेटी न कहा कर. तुझे बेटी और बाप का रिश्ता नहीं मालूम है. बाप अपनी बेटी को सोनेचांदी के गहनों से लादता है, उस के गहने को उतरवाता नहीं है,’’ सुनयना की आवाज में गुस्सा था.

दूसरे दिन सुनयना एक रूमाल में कुछ गहने बांध कर अवधू की कोठी पर पहुंच गई. ‘‘आज अंदर कमरे में तेरा कागज निकाल कर इंतजार कर रहे हैं छोटे ठाकुर,’’ सुनयना को देखते ही मुनीम गंगादीन बोला. सुनयना झटपट कमरे में जा पहुंची और बोली, ‘‘देख लो छोटे ठाकुर, ये हैं मेरे गहने. लेकिन पहले कर्ज का कागज मुझे दे दो.’’

‘‘ठीक है, यह लो अपना कागज,’’ अवधू ने कहा. सुनयना ने उस कागज पर सरसरी निगाह डाली और उसे अपने ब्लाउज के अंदर रख लिया. ‘‘ये गहने तो लोगों की आंखों में परदा डालने के लिए हैं. तेरे पास तो ऐसा गहना है, जिसे तू जब चाहे मुझे दे कर और जितनी चाहे रकम ले ले,’’ अवधू कुटिल मुसकान लाते हुए बोला.

‘‘यह क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर?’’ सुनयना की आवाज में शेरनी जैसी दहाड़ थी. अवधू को इस की जरा भी उम्मीद नहीं थी. सुनयना बिजली की रफ्तार से अहाते में चली गई. तब तक गांव की कुछ औरतें और आदमी भी कोठी के सामने आ कर खड़े हो गए थे. वहां से अहाते के भीतर का नजारा साफ दिखाई दे रहा था. लोगों को देख कर नौकरों की भी हिम्मत जाती रही कि वे सुनयना को भीतर कर के दरवाजा बंद कर लें. अवधू और गंगादीन भी समझ रहे थे कि अब वे दिन नहीं रहे, जब बड़ी जाति वाले नीची जाति वालों से खुलेआम जबरदस्ती कर लेते थे.

सुनयना बाहर आ कर बोली, ‘‘छोटे ठाकुर और गंगादीन, देख लो पूरे गहने हैं पोटली में. उतर गया न मेरे परिवार का सारा कर्ज. सब के सामने कह दो.’’ ‘‘हांहां, ठीक है,’’ अवधू ने घायल सांप की तरह फुंफकार कर कहा.

सभी लोगों के जाने के बाद अवधू और गंगादीन ने जब पोटली खोल कर देखी, तो वे हारे हुए जुआरी की तरह बैठ गए. उस में सुनयना के गहनों के साथसाथ गंगादीन की बेटी के भी कुछ गहने थे, जो सुनयना की अच्छी सहेलियों में से एक थी.‘अब मैं अपनी बेटी के सामने कौन सा मुंह ले कर जाऊंगा. क्या सुनयना उस से मेरी सब करतूतें बता कर ये गहने ले आई है?’ सोच कर गंगादीन का सिर घूम रहा था. अवधू और गंगादीन दोनों समझ गए कि सुनयना एक माहिर खिलाड़ी की तरह बहुत अच्छा खेल खिला कर गई है.

Online Hindi Story : भरापूरा परिवार – क्या अकेलेपन से उबर पाएं मनमोहनजी

Online Hindi Story : मोना ने जिन भी अकेले वृद्धों की देखभाल की उन से पारिवारिक रिश्ते बन गए. सभी सुबह अपनेअपने जरूरी काम निबटा कर उस के घर आ जाते और आपस में खूब हंसीमजाक, बातें कर के पूरा दिन बिता कर शाम को खाना खा कर चले जाते.

मनमोहनजी गंभीर बीमार हुए. विदेश में रह रहे बेटाबहू अपनी व्यस्तताओं के कारण देखरेख के लिए आ न सके तो वहीं से देखभाल के लिए नर्स का इंतजाम कर दिया. नर्स मोना 32 वर्ष की सुशील, सभ्य और स्नेही महिला थी. वह सुबह 7 बजे आती और शाम को 7 बजे चली जाती. बेहद विनम्र और जिंदादिल महिला. पति कुछ वर्षों पहले सड़क दुर्घटना में देहांत हो चुका था. घर में केवल बुजुर्ग सासससुर और एक 10 साल की बेटी थी.

मनमोहनजी मोना के मृदु व्यवहार के कायल हो गए. ऐसा लगता था मानो क्रोध पर विजय पाई हो उस ने. मोना की स्नेहभरी देखभाल और दवाइयों के असर से मनमोहनजी की तबीयत में सुधार होने लगा था. बेटा प्रतिदिन शाम को वीडियोकौल कर उन के हालचाल जान अपने उत्तरदायित्व की इतिश्री कर लेता था. जैसेजैसे मनमोहनजी की तन की तबीयत में सुधार आ रहा था, मन की तबीयत उदास होती जा रही थी. वजह थी स्वस्थ हो जाने के पश्चात उसी अकेलेपन को झेलना.
पिछले एक महीने से मोना ऐसे हिलमिल गई थी जैसे उन की अपनी ही बेटी हो. इतवार के दिन वह अपनी बेटी साध्वी को भी साथ ले आती थी. उस की प्यारी व भोली बातों से रविवार बड़ा सुकूनभरा कटता था.

मनमोहनजी चाहते थे मोना यहीं रह जाए लेकिन वह होममेड नहीं, नर्स थी. उस के जाने के खयालभर से बुढ़ापे का अकेलापन उन की बेचैनी बढ़ा देता. जब तक मोना घर में रहती, यह बड़ी सी इमारत घर लगने लगती. शाम को उस के जाने के बाद यही घर सुनसान बंगला बन डराने को दौड़ता.
खैर, चाहने से क्या होता है?
वह दिन भी आ गया जिस दिन मोना का बंगले में अंतिम दिन था. मनमोहनजी पूरी तरह स्वस्थ हो चुके थे. देखभाल के खर्च और मोना के कार्य का भुगतान उन का बेटा औनलाइन कर चुका था.
सुबह से ही मनमोहनजी का दिल बड़ा भारी था. ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अपनी ही बेटी को विदा कर रहे हों.
इतवार था, सो, साध्वी भी आई थी साथ.
शनिवार को साध्वी के लिए लाई ड्रैस, चप्पल, खिलौने, मिठाई बड़े प्यार से उस का दुलार करते हुए मनमोहनजी ने उसे थमाईं. साध्वी यह सब लेने के लिए झिझकी और अपनी मम्मी की तरफ देखा. मम्मी की नजरों की अनुमति मिलते ही उस ने सब उत्साह से लपक कर अपनी छोटी सी गोद में समेट लिया.
उसे यों चहकता देख मनमोहनजी बड़े खुश हुए, फिर मोना की ओर देख कर एक थैला उस के हाथों में भी थमा दिया.
‘‘इस में क्या है अंकलजी?’’ मोना ने अपनी उसी चिरपरिचित कोमल आवाज में पूछा.
‘‘तुम्हारे लिए सूट,’’ मनमोहनजी ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘लेकिन अंकलजी, इस की क्या जरूरत थी?
‘‘साध्वी के लिए कितना कुछ ले आए आप और मैं अपने काम के पैसे भी ले चुकी,’’ मोना ने प्रेमभरे शिकायती लहजे में कहा.
‘‘जरूरत नहीं थी बेटा. यह तो बस, एक बूढ़े पिता का अपनी बेटी के लिए स्नेह समझ, तुम,’’ कहते हुए मनमोहनजी ने आशीर्वादभरा हाथ मोना के सिर पर फेरा.
यह देख कर मोना की पलकें भारी हो आईं.
सब सामान उठा दोनों मांबेटी जाने को तैयार हुईं तो अचानक मोना ठहरी और मुड़ कर मनमोहनजी को देखा. उन की आंखों में आंसू थे.
5 मिनट दोनों तरफ बिछोह की पीड़ा रिसती रही.
मोना चल कर मनमोहनजी के पास आई और उन के गले लग गई.
यह देख साध्वी भी खुद को रोक न सकी और दौड़ कर उन दोनों को अपनी नन्ही आगोश में लपेट लिया.
यह शायद संसार का सर्वोत्तम सुंदर दृश्य था.
जब आंसू बहने से थक गए तो मोना ने अपने पर्स से अपना कार्ड निकाला और मनमोहनजी को देते हुए कहा, ‘‘अंकलजी, बीमार वृद्धों की देखभाल करना मेरा जौब है. किसी हौस्पिटल में नौकरी करने के बजाय अमीर अकेले बुजुर्गों की देखभाल कर अधिक पैसे कमा लेती हूं मैं.
‘‘इस नौकरी से मुझे 2 फायदे हुए हैं- एक तो पति के जाने के बाद मजबूत आर्थिक संबल मिला और दूसरा, आप जैसे बड़ों का भरभर के आशीर्वाद व प्रेम.

‘‘मेरे दामन में इतने आशीर्वाद हैं कि कभीकभी खुद पर नाज होने लगता है. जिन भी अकेले वृद्धों की मैं ने देखभाल की है उन से पारिवारिक रिश्ते बन गए हैं. सभी सुबह अपनेअपने जरूरी काम निबटा कर मेरे घर आ जाते हैं और आपस में खूब हंसीमजाक, बातें कर के पूरा दिन बिता कर शाम को खाना खा कर चले जाते हैं. इस से मेरे बुजुर्ग हो चुके सासससुर को भी साथ मिल जाता है. सुबह मेरी ड्यूटी और साध्वी के स्कूल चले जाने के बाद वे भी अकेले रह जाते हैं, इस तरह सभी अकेले बुजुर्ग आपस में अपने सुखदुख बांट कर अपना परिवार बनाए हुए हैं.
‘‘क्या आप भी इस परिवार का हिस्सा बनना चाहेंगे?’’
मनमोहनजी ने कार्ड हाथ में लिया और फिर मोना को जीभर आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘तुम कितनी नेकदिल इंसान हो, बेटी.
‘‘तुम्हें जन्म देने वाले धन्य हैं जिन्होंने सचमुच एक मनुष्य को जन्म दिया है. जरूर बनूंगा तुम्हारे परिवार का हिस्सा, जरूर,’’ कहतेकहते मनमोहनजी का गला रुंध गया.
‘‘तुम्हारे नहीं, हमारे परिवार का हिस्सा बोलो. दद्दू और मम्मी तो रोजाना शाम को आते हैं लेकिन मैं जल्दी आ जाती हूं. अटैंडैंस मैं ही लेती हूं सब की,’’ साध्वी बोली थी.
साध्वी की इस बालसुलभ बात ने तीनों के चेहरों पर प्यारी सी मुसकान ला दी और तीनों फिर से गले लग गए.
यह सचमुच संसार का सब से सुंदर पल था.
कुछ नेह से अधूरे लोग अपने स्नेह से एकदूसरे के जीवन में प्रेम खुशियों को भर रहे थे.
यह सचमुच एक पूरा, भरापूरा परिवार था.

Best Hindi Story : गुजर जाते हैं जो मुकाम – अकेले पुरुष की तन्हाइयां

Best Hindi Story : मानसी के जाने के बाद रजनीश मानो सदमे में चला गया था. दुखदर्द और समस्याओं के आने से जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा जाता. उस ने बहनों की शादी की, विधवा मां का बराबर ध्यान रखा, पर उन के कहने पर भी दोबारा शादी नहीं की क्योंकि वह दोबारा धोखा नहीं खाना चाहता था.

यह 50 बरस की उम्र भी बड़ी अजीब होती है, न तो व्यक्ति ठीक से जवान रह पाता है और न बूढ़ों में ही गिनती होती है.

आज रजनीश ने अपना 50वां जन्मदिन का केक काटा है. केक शुगरफ्री था क्योंकि रजनीश को डायबिटीज है. केक को खाने वाला वह और उस का इकलौता दोस्त डाक्टर नवीन ही तो हैं, इसलिए उस ने केक को शुगरफ्री बनवाया.

पिछले 10 वर्षों से अकेला है रजनीश, फिर भी वह अपना जन्मदिन सैलिब्रेट करना नहीं भूलता. रजनीश केक काट कर उस का एक टुकड़ा खाने के बाद बाकी का केक फ्रिज में रख कर नीचे उतर आया. आगे के मोड़ से मुड़ कर वह पार्क में आ गया और पार्क के अंदर उगाई हुई घास में टहलने लगा. उस की नजर वहां घूम रहे युवाओं व बच्चों पर पड़ी. वे सभी लोग अपनी गरदन झुकाए अपने मोबाइलों में व्यस्त थे.

‘हुंह, सब लोग कहते हैं कि मोबाइल ने हम से बहुतकुछ छीन लिया है पर फिर भी सब लोग मोबाइल में ही मस्त और व्यस्त हैं,’ उस की बुदबुदाहट में क्रोध और हताशा का मिश्रण था.

लगभग रोज ही रजनीश इस पार्क में आता है, कुछ और लोग भी आते हैं और पार्क में आने वाले लोगों में बिना एकदूसरे से बोले ही एक आपसी जानपहचान भी पनप जाती है. यदि उन लोगों में से कोई कुछ दिन न दिखाई दे तो मन खुद ही उस व्यक्ति को याद कर उठता है. रजनीश को भी 70 साल की उन अम्मा की याद आई जो अपनी 20 साल की पोती के साथ पार्क में आ कर बैंच पर बैठती हैं और उन के बैठते ही उन की पोती उन्हें अपने साथ लाया हुआ एक रेडियो दे देती जिसे वे अपने कान से सटा लेती हैं. फिर धीरेधीरे उन की आंखों में कोई नई रोशनी सी जाग जाती है जो उन के गालों से होते हुए उन के होंठों पर मुसकराहट बन कर थिरक जाती है. और फिर, जैसे उन्हें दीनदुनिया से कोई मतलब नहीं रह जाता. शायद वे कोई फिल्मी गीत या गीतों वाला कोई प्रोग्राम सुन रही होंगी पर अब रेडियो पर भला कितने ऐसे प्रोग्राम आते होंगे जो लोगों का तनाव दूर कर दें और उन्हें मुसकराने पर विवश कर दें.

इस बात का तो रजनीश को भी नहीं पता, भले ही रजनीश और रेडियो का पुराना नाता है. यह नाता तब शुरू हुआ था जब अपनी बीए की पढ़ाई खत्म करने के बाद उस ने अपना वौयस टैस्ट लखनऊ के आकाशवाणी केंद्र में दिया था और उस की गहराई ली हुई आवाज और उस के भारीपन व साफ उच्चारण के कारण उसे उद्घोषक की नौकरी मिल गई थी.

हालांकि अभी उसे स्थायी तौर पर नियुक्तिपत्र नहीं मिला था, एक तरह से उस की नौकरी संविदा पर ही थी लेकिन सैलरी ठीकठाक थी. और फिर, समाज में तो आकाशवाणी में जौब करने वाले व्यक्ति को बड़ी अच्छी दृष्टि से देखा जाता है, इसलिए रजनीश संतुष्ट था.

रजनीश ने अपनी आवाज, अद्भुत प्रतिभा और कल्पनाशीलता भरे प्रोग्राम्स के जरिए जल्दी ही लोकप्रियता हासिल कर ली. यह उस की कल्पनाशीलता ही थी कि रजनीश ने अपने श्रोताओं के लिए ‘मुझ से बातें करोगे’ नामक एक ऐसा प्रोग्राम लौंच किया जिस में रेडियो सुनने वाले लोग आकाशवाणी के बताए गए फोन नंबर पर डायरैक्ट फोन कर के रेडियो उद्घोषक यानी रजनीश से बातें शेयर कर सकते थे.

इस दौरान रजनीश और श्रोताओं के बीच बहुत सी चुटकीली बातें होतीं तो कहीं कुछ लोग अपनी व्यक्तिगत समस्याएं भी बताते और ये सब औन एयर चल रहा होता. स्पष्ट है कि इस प्रोग्राम में रजनीश को अपनी वाकपटुता द्वारा कार्यक्रम के संचालन में रुचि बनाए रखनी होती थी. रजनीश बहुत ही सुंदरता के साथ अपनी आवाज का जादू जगाता और लोगों के साथ बहुत आत्मीयता से जुड़ता, साथ ही, श्रोताओं की पसंद के गीतों को भी बजाया जाता. आकाशवाणी की कम होती लोकप्रियता एक बार फिर से बढ़ने लगी थी और लोग अपनी कार व दुकानों पर रेडियो सुनने लगे थे. उन सब का पसंदीदा उद्घोषक था रजनीश.

‘मुझ से बातें करोगे’ नामक प्रोग्राम में मानसी नाम की एक लड़की का फोन कई बार आता और वह रजनीश से बड़े ही खुलेपन व खुलेमन से बात करती थी. उस का बिंदास होना मानसी को और लड़कियों से अलग बनाता था तभी तो रजनीश भी उस की हैलो सुन कर ही बिंदास मानसी को पहचान जाता और बिंदास होना शायद उस की चरित्रगत विशेषता थी. तभी तो औन एयर उस ने रजनीश से कहा था कि उस की आवाज से मानसी को प्यार हो गया है और वह ऐसी ही मखमली आवाज वाले व्यक्ति से शादी करना चाहेगी.

उस दिन तो गजब ही हो गया जब कार्यक्रम खत्म होने के बाद मानसी रजनीश से मिलने के लिए आकाशवाणी भवन के बाहर पहुंच गई थी. रजनीश को बातोंबातों में हजरतगंज चल कर कौफी पीने के लिए मना भी लिया. मानसी की हाजिरजवाबी व बातबात पर उन्मुक्त हो कर हंसना रजनीश को भी अच्छा लगा.

बातें बढ़ीं तो मुलाकातों के दौर भी बढ़ गए. कौफी से बात शुरू हुई थी तो अब इन का संबंध टौकीज में जा कर एकदूसरे का हाथ थाम कर रोमांटिक मूवी देखने तक पहुंच गया था. हालांकि रजनीश को अपने व्यस्त शेड्यूल से घूमनेफिरने का समय निकाल पाना बहुत मुश्किल होता था पर मानसी के प्यार में इतनी गर्मजोशी थी कि उसे यह सब करना पड़ता था.

प्रेमभरे दिन तेजी से बीतते हैं और दिन बीतने के साथ वह दिन भी आ गया जब मानसी ने खुद ही रजनीश के सामने उन दोनों की शादी का प्रस्ताव रख दिया. ‘प्यारव्यार तो ठीक है पर शादी करना जरा पेचीदा मामला है और फिर तुम मेरे परिवार के बारे में जानती ही क्या हो?’ रजनीश का लहजा थोड़ा तल्ख हो चला था.

पर उस के इस सवाल के जवाब में जो मानसी ने कहा उसे सुन कर रजनीश की सारी कठोरता जाती रही. ‘सबकुछ जानती हूं तुम्हारे बारे में, यही न कि तुम एक सामान्य परिवार से हो और तुम पर विधवा मां और 2 कुंआरी बहनों की जिम्मेदारी है.’ मानसी की आवाज में प्यारभरी बेचैनी साफ झलक रही थी.
रजनीश ने अपने निम्नमध्यवर्गीय होने से ले कर अपनी हर जिम्मेदारी के बारे में मानसी को बता दिया था पर मानसी का रजनीश के लिए प्रेम किसी उफनते सागर की लहरों की तरह उमड़ रहा था.
मानसी ने रजनीश की मां और उस की बहनों से मुलाकात की और अपने व रजनीश के प्रेम के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया. रजनीश के घरवालों को मानसी का यह खुला और जल्दबाजीभरा व्यवहार थोड़ा अजीब तो लगा पर इस में भी एक अपनापन ?ालक रहा था. मानसी का रजनीश के घरवालों के साथ भी अच्छा संबंध बन गया था.
‘शादी तो करनी ही है, अच्छा होगा कि तू उस लड़की से शादी कर जो तु?ा से प्रेम करती है.’ हालांकि अभी रजनीश को शादी करने की जल्दी नहीं थी फिर भी मानसी की तरफ से लगातार मनुहार किए जाने के कारण मां ने भी हरी झंडी दे दी थी और रजनीश व मानसी शादी के बंधन में बंध गए थे.

एक साल तक तो मानसी ने किसी कुशल बहू की तरह सब का ध्यान रखा और शादी का दूसरा साल लगतेलगते वह एक बेटी की मां बन गई. घर में खुशियों का माहौल था. कुछ महीनों बाद मानसी की रेलवे परीक्षा का परिणाम आया और उस की भरती रेलवे सीतापुर में क्लर्क के पद पर हो गई.

मानसी अपनी नौकरी को ले कर बहुत उत्साहित थी. रजनीश ने सीतापुर जा कर उस की जौइनिंग से ले कर उस के रहने का प्रबंध करवा दिया और छोटी बच्ची का ध्यान रखने के लिए अपनी छोटी बहन को उस के साथ भेज दिया.

हर सप्ताहांत में रजनीश मानसी के पास डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर तय कर के आता और मानसी के साथ समय बिताता. लेकिन उस का जीवन जैसे 2 जगह बंट गया था. इसलिए मानसी ने अपना ट्रांसफर लखनऊ कराने के लिए प्रयास करना शुरू कर दिया. इतनी जल्दी ट्रांसफर होना कठिन था पर इस काम में मानसी की सहायता उस के एक सीनियर अधिकारी तेज वर्मा ने की जो मानसी से उम्र में तीनचार साल बड़े थे.

मानसी बच्ची को ले कर वापस लखनऊ शिफ्ट तो हो गई पर पिछले कुछ दिनों से मानसी से मिलने पर रजनीश को मानसी में बदलाव दिखा. उस के स्वभाव में परिवर्तन आ गया था जो चिड़चिड़ेपन और पारिवारिक मनमुटाव के रूप में बाहर आ रहा था. रजनीश ने कारण जानना चाहा तो मानसी ने सच बता दिया कि सीतापुर में पोस्टिंग के दौरान मानसी और तेज वर्मा के बीच प्रेम पनप गया है और उसे लगता है कि तेज वर्मा रजनीश से अच्छा जीवनसाथी साबित होगा.

रजनीश अवाक था. उसे अपने सुने पर भरोसा नहीं हो रहा था. कोई लड़की ऐसा कैसे कर सकती है और क्या उस का पति कोई ‘चौइस’ है जिसे वह बदलना चाह रही है. पर, मानसी ऐसी ही थी. उस का प्यार एक बुलबुले की तरह था जिसे उठने की जितनी जल्दी होती है तो फूट जाने का उतावलापन भी उतना ही रहता है.

कैसे कोई शादीशुदा और छोटे बच्चे वाली स्त्री ऐसा कर सकती है और फिर रजनीश तो निम्न मध्यवर्गीय परिवार से था, उस के परिवारों में तो शादी को सात जन्मों का बंधन माना जाता है और तलाक को एक बदनुमा दाग. दिमाग नहीं चल रहा था रजनीश का, इसलिए उस ने अपने इकलौते दोस्त डाक्टर नवीन को सारी बातें बताईं व इस मसले पर उस की राय मांगी.

डाक्टर नवीन ने उसे मानसी को तलाक दे देने की बात कही, ‘इतना ही कम है क्या कि मानसी ने तुम्हें सब सच बता दिया. अगर वह चाहती तो बड़े आराम से दो नावों पर पैर रख सकती थी.’
नवीन द्वारा मानसी को क्लीन चिट दिया जाना रजनीश को अखर रहा था. बहस और तर्क का समय नहीं था और वैसे भी मानसी द्वारा अपने प्रेम को स्वीकार कर लेने के बाद तो रजनीश के पास उसे तलाक देने के अलावा कोई चारा ही नहीं था. दोनों ने आपसी सहमति से कोर्ट में जा कर तलाक ले लिया पर आश्चर्यजनक रूप से बेटी को मानसी ने अपने पास रखा, लेकिन उस के जीवनयापन के लिए रजनीश से पैसे लेने के लिए अतिरिक्त दबाव नहीं बनाया.

मानसी के जाने के बाद रजनीश मानो सदमे में चला गया था. मानसी ने खुद ही उस से शादी की पहल की थी और परिवार को भी आगे बढ़ाया. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि उस का मन किसी परपुरुष के साथ लग गया और वह अपने पति को तलाक तक देने को राजी हो गई. अपनेआप से बहुत सवाल करने के बाद इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सका रजनीश को.
रजनीश की मनोव्यथा इतनी बढ़ गई थी कि वह दोबारा आकाशवाणी के माइक पर बोल नहीं सका और उद्घोषक का कार्य छोड़ कर औफिस की क्रिएटिव टीम का हिस्सा बन कर काम करने लगा. साथियों ने उसे इस सदमे की हालत से निकालने का बहुत प्रयास किया पर वे सफल नहीं हुए और फिर रजनीश का मन आकाशवाणी में लग भी तो नहीं रहा था. सो, रजनीश ने वहां से त्यागपत्र दे दिया.

दुखदर्द और समस्याओं के आने से अपनी जिम्मेदारियों से तो मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. रजनीश ने अपनी दोनों बहनों की शादी कर दी और अपनी विधवा मां का उन के जीवित रहने तक बराबर ध्यान रखा. शायद रजनीश दोबारा शादी करने की मां की जिद मान लेता तो मां और जी जाती पर रजनीश एक बार धोखा खाने के बाद दोबारा धोखा नहीं खाना चाहता था.

पिछले 20 सालों में लखनऊ में काफीकुछ बदल गया था. इन वर्षों में मानसी कहां गई थी और किस हाल में रही, उस की बेटी कैसी है और क्या उसे अपने पापा की याद नहीं आती है? ये सब जानने की कोशिश तक नहीं की थी रजनीश ने और खुद को भी इतना मजबूत रखा था कि उसे भी अपनी बेटी की याद न आए.

आज पार्क में उस अम्मा को निहार रहा था, तभी रजनीश ने मोबाइल पर एक अनजाना नंबर देख कर अनमने मन से फोन उठाया. ‘‘हां जी, कहिए.’’ पर रजनीश को उत्तर नहीं मिला. उस ने फिर हैलो किया पर उत्तर नदारद था. फोन करने वाला जी भर कर रजनीश की आवाज सुन लेना चाहता था. उकता कर रजनीश ने फोन काट दिया.
पर फोन फौरन फिर बज उठा और जब रजनीश ने हैलो किया तब उधर से एक महिला का स्वर था. चूंकि 20 साल में चेहरा बदलने के साथसाथ आवाज भी बदल जाती है, इसलिए महिला ने खुद अपना नाम बता दिया.
‘‘देखो रजनीश, प्लीज फोन मत काटना. मैं बोल रही हूं तुम्हारी मानसी.’’
रजनीश मौन था, उसे क्या बोलना है, यह समझ भी नहीं आ रहा था उसे. मानसी उसे फोन कर रही है पर उस ने तो सालों पहले ही अपना रास्ता अलग कर लिया था और फिर, अब क्यों?
‘‘दरअसल मैं तुम से मिलना चाहती हूं, बस. इस के अलावा कुछ नहीं चाहिए मुझे और मैं जानती हूं कि तुम मुझ से बहुत नफरत करते होगे पर एक बार मिल लो,’’ मानसी के स्वर में याचना का भाव लग रहा था और उस की आवाज में बहुत थकावट सी भी लग रही थी.
रजनीश बारबार फोन को काट देना चाहता था. वह मानसी पर चिल्लाना भी चाहता था पर यह सब कर न सका और कुछ न बोल सका. ‘पर इतने सालों बाद, अब, मिलनेमिलाने में क्या सार है?’ रजनीश बुदबुदाया.
लेकिन मानसी 20 साल पहले की तरह ही उतावली लग रही थी.
आखिरकार, रजनीश ने बेमन से मिलने के लिए हां कर ही दी.
दोनों ने परिवर्तन चौक के पास शहादत अली के मकबरे पर मिलना तय किया. रिश्ता खत्म हुए 20 साल हो गए थे, इसलिए उन लोगों को मकबरे की शांति ज्यादा सुहा रही थी.

रजनीश जब पहुंचा तब मानसी वहां पहले से ही थी. दोनों की नजरें टकराईं तो रजनीश के मन में एक विषाद सा पैदा हो गया, उस ने देखा कि मानसी की सुंदर और छरहरी काया अब थोड़ी सी स्थूलकाय हो चली थी और बाल कनपटी के पास से सफेद होने लगे थे व चेहरे में कसावट की जगह थोड़ा ढीलापन आने लगा था. मानसी ने भी रजनीश के चेहरे पर ढीलापन देखा था.
रजनीश ने मानसी के चेहरे से नजरें हटा लीं और उस के बोलने का इंतजार करने लगा. कुछ मिनटों तक खामोशी ही छाई रही थी.
‘‘तुम ने तो कभी मेरा हाल जानने की कोशिश ही नहीं की,’’ मानसी की हलक से बड़ी मुश्किल से शब्द निकल रहे थे.
‘‘तुम ने कोई संबंध ही कहां रखा था,’’ रूखे स्वर में रजनीश ने कहा.
टूटे हुए रिश्ते आज आमनेसामने थे और दोनों के बीच एक खाई सी थी जो अब भर नहीं सकती थी. मानसी ने हिम्मत कर के बोलना शुरू किया और रजनीश को बताया कि तेज वर्मा के साथ शादी कर लेने का उस का निर्णय किस तरह से गलत निकला था.

तेज वर्मा की फितरत ही औरतों को धोखा देने वाली थी. उस का अफेयर किसी फैशन मौडल से हुआ तो उस ने मानसी को छोड़ दिया तब मानसी को एहसास हुआ कि अपने साथी द्वारा छोड़ा जाना कितनी पीड़ा पहुंचाता है. उस के बाद मानसी ने अपनी बेटी की परवरिश अकेले ही की. भले ही उस के पास सरकारी नौकरी थी पर फिर भी वह अपनी बेटी को पिता का प्यार, अनुशासन नहीं दे पाई थी.

नतीजा यह निकला कि वह मात्र 20 साल की थी व गलत संगत में पड़ गई है और नशे का शिकार हो गई है. रातरातभर वह घर नहीं आती, न तो उसे पढ़ाईलिखाई की चिंता है और न ही कैरियर बनाने का शौक.

मानसी अपनी कहानी आगे भी सुनाना चाहती थी पर रजनीश ने खीझाते हुए उसे रोक दिया, ‘‘मुझ से चाहती क्या हो? और फिर, आज यह कहानी सुनाने का क्या फायदा, तुम पहले भी तो आ सकती थी मेरे पास?’’
‘‘बस, हिम्मत नहीं कर पाई और किस मुंह से आती पर अब लगता है कि मैं ने तुम्हारे साथ गलत किया. बस, एक बार माफ कर दो मुझ और कुछ नहीं चाहिए तुम से,’’ मानसी गिड़गिड़ा रही थी.
मानसी के चरित्र में उतावलापन था. बहुत जल्दी ही अपने सारे निर्णयों को वह सही मान कर आगे बढ़ जाती थी. जिस तरह से उस ने रजनीश से शादी करने में जिद दिखाई उसी तरह की जिद तेज वर्मा के साथ घर बसाने में की और क्या पता आज भी वह किसी जल्दबाजी में ये सब बात कर रही हो.

रजनीश कुछ बोल नहीं पा रहा था. फिर भी उस ने इतना कहा, ‘‘माफ करने के लिए
मेरे तुम्हारे बीच में कोई रिश्ता तो होना चाहिए. तुम ने वही नहीं रखा तो अब क्या
जरूरत है इस सब नाटक की. तुम ने मुझे जो दंश दिया उस के कारण पूरी स्त्री जाति से मेरा भरोसा उठ गया है. इस का परिणाम यह रहा कि मैं ने आज तक दोबारा शादी नहीं की.’’
माफी और पश्चात्ताप की सारी बातों को पूरी तरह खत्म कर दिया था रजनीश ने. मानसी अकेली मकबरे के लौन में खड़ी थी. उस के आंसू भी उस की आंखों का साथ छोड़ रहे थे.
इस बात को हुए तीनचार दिन बीत गए. दरवाजे पर दस्तक हुई तो रजनीश ने दरवाजा खोला, देखा, सामने डाक्टर नवीन खड़ा था. दोनों बैठने के बजाय सीधा किचन में गए जहां नवीन चाय बनाने लगा. हमेशा नवीन ही चाय बनाता था क्योंकि रजनीश को अच्छी चाय बनानी नहीं आती थी.

‘‘माफ क्यों नहीं कर देते मानसी को,’’ नवीन अचानक से बोल उठा था.
नवीन के मुंह से आज इतने सालों बाद मानसी का नाम सुन कर रजनीश हैरान था. उस ने सवालिया नजरों से नवीन को देखा. आंखों के सवालों को सम?ा कर नवीन ने सोफे पर बैठे हुए, चाय की चुस्की के साथ उत्तर देना शुरू कर दिया
‘‘इतना ही कम है क्या कि 20 साल बाद ही सही पर उसे अपने अपराध का बोध हुआ और वह तुम से माफी मांग रही है. अगर न भी मांगे तो क्या?’’ एक लंबी सांस छोड़ी थी नवीन ने और आगे कहना शुरू किया.
उस ने बताया कि पिछले दिनों मानसी नवीन के अस्पताल में ही अपनी बेटी दिया को ले कर आई थी. दिया ने एक नशीली दवा का ओवरडोज ले लिया था. दिया को ठीक करने में डाक्टर नवीन ने पूरी जान लगा दी थी क्योंकि मानसी और नवीन एकदूसरे को पहचान गए थे. दिया की तबीयत ठीक हुई तो मानसी ने नवीन को अपने बीते सालों के बारे में बताया कि उसे कैसे अपने किए पर पछतावा है और नवीन से ही मानसी ने रजनीश का नंबर लिया था.

‘‘पर इतने दिनों बाद भला मेरी जरूरत क्यों?’’ रजनीश का धैर्य जवाब दे चुका था.
‘‘तुम्हारी जरूरत उसे अपने लिए नहीं बल्कि अपनी बेटी के लिए है क्योंकि मानसी को लास्ट स्टेज का कैंसर है और वह अधिक दिन जीवित नहीं रहेगी. इसलिए मरने से पहले वह अपनी बेटी को तुम्हारे सेफ हाथों में सौंप जाना चाहती है.’’ एक ही सांस में सब कह गया था डाक्टर नवीन.
सन्न रह गया था रजनीश. भले ही मानसी से उस का कोई रिश्ता नहीं रह गया था पर उस की बेटी में तो रजनीश का ही खून था. इतने वर्षों अलग रहने के बाद ममता दब सी गई थी जो अब जागती सी मालूम हुई पर मानसी के बारे में सुन कर रजनीश को जरूर दुख हुआ. लेकिन यह मानसी ही तो थी जिस के कारण उस का जीवन, उस का कैरियर सब बरबाद हुआ. इसलिए फिर भी नवीन को वह कोई उत्तर न दे सका.

आज इन सब बातों को 15 दिन बीत चुके हैं. रजनीश शाम को पार्क में पहुंचा और अपनी पसंदीदा बैंच पर बैठ गया. सामने अम्मा वाली बैंच आज खाली थी, सिर्फ उन की पोती ही अकेले बैठी थी और उस के पास वही रेडियो रखा था. उस की बेटी दिया इतनी बड़ी ही होगी, रजनीश उस लड़की के पास पहुंचा.
‘‘आज आप की दादी नहीं आईं?’’ रजनीश ने सवाल किया तो वह लड़की फफक कर रो पड़ी और रोतेरोते उस ने बताया कि दादी को कैंसर था, उन की मृत्यु हो गई है.
‘‘कैंसर…’’ रजनीश के होंठ हिल रहे थे. उस ने सुना कि रेडियो पर धीमी आवाज में एक गीत बज रहा था जिस के बोल थे-
‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते…’
रजनीश वहां खड़ा न रह सका. वह नवीन के फ्लैट की तरफ बढ़ चला और कांपते हाथों से उस ने मानसी का नंबर डायल कर दिया था.

Best Short Story : अनमोल गिफ्ट – पतिपत्नी के बीच का अनकहा प्यार बयां करती कहानी

Best Short Story : देर से घर आने पर पत्नी उस से नाराज होगी, इस बात से वह डर रहा था लेकिन पत्नी को मुसकराते हुए स्वागत करता देख वह हैरान रह गया.

वह मेरे पसीने में भीगे कपड़ों को देख कर ऐसे नाकभौं सिकोड़ रहा था जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह का प्राणी हूं. शायद उसे मेरे पसीने की दुर्गंध आ रही थी, पर मैं क्या करता दिनभर धूप में जीतोड़ मेहनत कर रहा था. कभी इधर तो कभी उधर सामान ले कर जाना पड़ रहा था, उस पर साहब का गुस्सा. जैसेतैसे मैं अपना काम निबटा कर औफिस से जल्दी घर निकलना चाहता था, क्योंकि सुबह ही पत्नी से वादा किया था कि 20वीं सालगिरह है, आज किसी रैस्टोरेंट चलेंगे डिनर करने.

काम की वजह से आज भी भागदौड़ रोज की तरह बनी रही. 7 बजे फ्री होते ही मैट्रो पकड़ी और घर को चल दिया. मेरे बगल में सूटबूट पहने एक व्यक्ति मुझे पसीने में देख अजीब सी नजरों से घूरे जा रहा था. मैं भी अपनी जगहजगह से घिस चुकी कमीज को उस की नजरों से बचाता संकोचवश अपनेआप को सिकोड़े गेट के पास खड़ा शर्मिंदगी महसूस कर रहा था.

कश्मीरी गेट मैट्रो स्टेशन से बाहर निकला तो ताजा हवा में थोड़ा सुकून मिला. देर होने के कारण मार्केट बंद हो गई थी और मैं पत्नी के लिए कोई गिफ्ट न ले सका. अनमने मन से जल्दी में औटो पकड़ घर की ओर चल दिया. घर पहुंचतेपहुंचते रात के 10 बज चुके थे और पत्नी दरवाजे पर खड़ी बेसब्री से मेरी राह ताक रही थी.

“सौरी यार, मैं काम की वजह से तुम्हारे लिए कोई गिफ्ट नहीं ला सका,” मैं बहुत ही अजीब महसूस कर रहा था.

उस ने जैसे कुछ सुना ही नहीं. वह मुझ से लिपट गई,”यह जरूरी है क्या कि हर बार तुम ही मुझे गिफ्ट दो,” मुझे एक पैकेट पकड़ाते हुए मैरिज ऐनिवर्सरी की उस ने बधाई दी.

मैं ने पैकेट खोल कर देखा तो दंग रह गया. उस में खूबसूरत पिंक शर्ट और ब्लैक पेंट थे.

“सही कहती हो, तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है,” मैं ने कहा.

“सो तो है, तुम्हें जो पसंद किया है,” वह मुसकराते हुए बोली.

दरअसल, पत्नी को मालूम था कि पसीने की खुशबू क्या होती है.

लेखक : संजय कुमार गिरी

Emotional Story : कशमकश – बच्चे को तरसते पतिपत्नी

Emotional Story : कमल लगातार सुधा पर अपनी बात मनवाने का दबाव डाल रहा था कि जो हो चुका है उसे बदला नहीं जा सकता. भावनाओं में बह कर गलत निर्णय मत लो और किशोर को भी समझाओ. क्या मेरे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं? लेकिन सुधा और किशोर निर्णय ले चुके थे कि अब अपनी खुशियों के आड़े वे किसी को नहीं आने देंगे.

‘‘एक बार फिर से सोच लो, किशोर. इस उम्र में छोटी सी बच्ची को गोद लेना
कहां की समझदारी है? मुझे लगता है कि तुम्हें यह विचार त्याग देना
चाहिए,’’ कमल ने चाय की प्याली को मेज पर रखते हुए कहा.
‘‘मैं ने यह निर्णय सोचविचार करने के बाद ही लिया है, कमल. मैं और सुधा अभी इतने बूढ़े नहीं हुए हैं कि एक बच्ची की परवरिश न कर सकें. मैं अच्छा कमाता हूं. रिटायरमैंट होने में अभी कुछ वर्ष बाकी हैं और उस के बाद भी मैं इतना सक्षम रहूंगा कि बच्ची की देखभाल अच्छी तरह से कर सकूं,’’ किशोर ने उत्तर दिया.
‘‘मैं रुपएपैसे की बात नहीं कर रहा हूं, किशोर. उस के अलावा भी सौ बातों को दिमाग में रख कर सोचना पड़ता है. तुम्हारे परिवार वाले और रिश्तेदार तुम्हारे इस निर्णय के खिलाफ हैं और समाज का क्या, तुम ने कभी सोचा है कि लोग क्या कहेंगे? देखो किशोर, मैं केवल सुधा का बड़ा भाई ही नहीं हूं बल्कि तुम्हारा बहुत अच्छा दोस्त भी हूं. इसी नाते तुम्हें समझ रहा हूं. मेरी बात को समझने का प्रयास करो,’’ कमल ने किशोर पर दबाव बनाते हुए कहा.
‘‘लोग क्या सोचेंगे, समाज क्या कहेगा, मैं ने इस की परवा करनी छोड़ दी है और जहां तक परिवार व रिश्तेदारों का प्रश्न है, अगर उन्हें हमारी परवा होती तो वे आगे बढ़ कर इस निर्णय में हमारा साथ देते. इस तरह तुम्हें अपना वकील बना कर हमारे पास न भेजते,’’ किशोर अब क्रोधित होने लगे थे.
‘‘तुम से तो बात करना बेकार है. तुम बात को समझना ही नहीं चाहते हो.’’
कमल ने अपनी बहन सुधा की ओर देखा जो चुपचाप अपने पति किशोर के पीछे हाथ बांधे खड़ी थी.
‘‘सुधा, कम से कम तुम तो समझदारी से काम लो. इस उम्र में बच्ची को गोद लोगी तो समाज में तरहतरह की बातें होंगी. लोगों के तानों का सामना कर पाओगी तुम?’’
‘‘भाईसाहब, आप मुझ से यह पूछ रहे हैं कि मैं लोगों के ताने सुन पाऊंगी या नहीं, शादी के 26 साल बाद भी मेरी गोद सूनी है. आप को क्या लगता है कि मैं ने समाज के ताने नहीं सुने हैं. जिस तरह आज तक सुनती आई हूं, आगे भी सुन लूंगी.’’
‘‘देखो सुधा, जो हो चुका है उसे बदला नहीं जा सकता है. उसे प्रकृति की मरजी समझ कर स्वीकार करो. भावनाओं में बह कर गलत निर्णय मत लो और किशोर को भी समझने का प्रयास करो. रही बात बच्चों की तो क्या मेरे बच्चे मेघा और शुभम तुम्हारे बच्चे नहीं हैं?’’ कमल ने सुधा पर दबाव बनाने की कोशिश की.
‘‘भाईसाहब, आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिए. अगर मेघा और शुभम मेरे बच्चे होते तो क्या भाभी मुझे बांझ होने का ताना देतीं?’’ सुधा ने कमल से प्रश्न किया तो उन की नजरें शर्म से नीचे झुक गईं.
अब सुधा ने हाथ जोड़ कर आगे कहा, ‘‘मैं बरसों से इस सुख से वंचित रही हूं, भाईसाहब. आज 26 सालों के बाद मेरी गोद में मेरी बच्ची आने वाली है. उसे गोद लेना हम दोनों का साझा निर्णय है. मेरी आप से विनती है कि हमारी खुशी में हमारा साथ दीजिए.’’
‘‘खैर, अब तुम दोनों ने निर्णय ले ही लिया है तो फिर मैं कर भी क्या सकता हूं. आज तुम दोनों किसी की बात नहीं सुन रहे हो. लेकिन याद रखना, अगर भविष्य में तुम्हें अपने इस निर्णय पर पछताना पड़ा तो इस के जिम्मेदार तुम खुद होगे.’’
इतना कहने के बाद कमल भी बाकी रिश्तेदारों की तरह हथियार डाल कर वहां से चले गए.
कमल के वहां से जाने के बाद सुधा की हिम्मत जवाब दे गई. वह धम्म से सोफे पर बैठ गई व उस की आंखों से आंसुओं की धार बह निकली. अपनी पत्नी को कमजोर पड़ते देख कर किशोर भावुक हो उठे. उन्होंने अपने जज्बातों पर काबू पाते हुए सुधा के कंधे को थपथपा कर उसे हिम्मत देने का प्रयास किया.
‘‘ये लोग क्यों नहीं समझ रहे हैं, किशोर? आज इतने सालों बाद समय हम पर मेहरबान हुआ है. हमें हमारी औलाद मिलने जा रही है. ये लोग क्यों हम से हमारी खुशी छीनने का प्रयास कर रहे हैं,’’ सुधा ने बेबसी से किशोर की ओर देखते हुए कहा.

किशोर सुधा की पीड़ा से अपरिचित नहीं थे. अच्छे से अच्छे डाक्टरी इलाज और हर जगह सिर झुकाने के बावजूद उस की गोद नहीं भर पाई थी. वे सालों से उसे भीतर से खोखला होते देख रहे थे. मगर चाह कर भी उस के लिए कभी कुछ कर नहीं सके. ऐसा नहीं है कि पहले कभी उन्होंने बच्चा गोद लेने के बारे में नहीं सोचा. उन्होंने कई बार अपनी अम्मा से दबे शब्दों में इस बात का जिक्र किया था. एक बार हिम्मत जुटा कर अम्मा से इस बारे में सीधे बात करने की कोशिश भी की थी. लेकिन अम्मा ने कई दिनों तक घर में ऐसा कुहराम मचाया कि वे घबरा कर पीछे हट गए.
उस के बाद उन की इस बारे में जिक्र करने तक की हिम्मत नहीं हुई. उन की इस बुजदिली का खमियाजा उन की सुधा को आज तक भुगतना पड़ रहा था. सालों से वह सब के ताने सुनती आ रही थी. समाज के लोग तो दूर, अपने खुद के परिवार के लोग उस के निसंतान होने के कारण न जाने कैसेकैसे अंधविश्वास के चलते उस का अपमान कर बैठते थे. परिवार ने तो उन पर दूसरा विवाह करने का दबाव भी बनाया था. लेकिन वे अपनी सुधा से असीम प्रेम करते थे. उन्होंने करारा जवाब दे कर सब का मुंह बंद कर दिया था.
सुधा आज तक उन की खातिर कितनाकुछ सहन करती आ रही थी. अपना पूरा जीवन निस्वार्थ उन पर न्योछावर किया था उस ने. अब उस के लिए कुछ करने की बारी उन की थी. जो खुशी वे उसे आज तक नहीं दे पाए थे, वह अब देने जा रहे थे.
समय भी जैसे उन के इस निर्णय में उन का साथ दे रहा था. यह संयोग था कि थोड़ी ही तलाश के बाद उन्हें एक ऐसी महिला मिली जो अपनी संतान को गोद देने के लिए एक भले दंपती की तलाश में थी. पति की अकस्मात मृत्यु के बाद विमला पर बूढ़े, बीमार सासससुर व 3 छोटे बच्चों की जिम्मेदारी आ गई थी. ऐसे में उस के लिए गरीबी की मार सहते हुए अपनी नवजात बच्ची का लालनपालन कर पाना संभव नहीं था. पहले वह उन के बारे में जान कर थोड़ा हिचक रही थी. लेकिन उन से मिलने के बाद उस की सारी शंकाएं दूर हो गईं.
सुधा से इस बात का जिक्र करने से पहले किशोर ने गोद लेने की प्रक्रिया के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थी. सुधा के मन में कोई भी उम्मीद की किरण जगाने से पहले वे खुद पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहते थे. पूरी तसल्ली करने के बाद ही उन्होंने सुधा को यह बात बता कर विमला व उस की नवजात बच्ची से उस का परिचय करवाया. पहलेपहल तो सुधा को यकीन ही नहीं हुआ कि उस के जीवन में कुछ ऐसा घटित होने जा रहा है. फिर उसे आशंकाओं ने घेर लिया पर आखिर में किशोर की बात समझ कर जब उस ने उस नवजात बच्ची को अपनी गोद में लिया तो उस की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा. जल्दी ही बच्ची को गोद लेने की प्रक्रिया शुरू हो गई. धीरेधीरे सुधा के मुरझाए चेहरे पर रौनक लौटने लगी थी.
दोनों पक्षों की रजामंदी थी, इसलिए प्रक्रिया में कोई अड़चन तो नहीं थी लेकिन ऐसे कामों में थोड़ा वक्त तो लगता ही है. प्रक्रिया शुरू होने के बाद सब से कठिन कार्य था अपने परिवारों को यह खबर देना. किशोर व सुधा दोनों ने अपनेअपने परिजनों को फोन कर के सूचित कर दिया. किशोर को जिस बात का अंदेशा था, ठीक वैसा ही हुआ. दोनों ओर से विरोध के स्वर उठने शुरू हो गए. पहले सब फोन करकर के ही उन्हें रोकने का प्रयत्न कर रहे थे. अपनी कोशिशें नाकामयाब होने के बाद उन्होंने आज सुधा के बड़े भाई व किशोर के परम मित्र कमल बाबू को अपना प्रतिनिधि बना कर उन के घर भेजा था.

नतीजा यह हुआ कि उन के यहां आने के बाद सुधा कमजोर पड़ने लगी थी. किशोर ने सुधा को तो समझाबुझा कर सुला दिया था लेकिन उन की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वे यह जानते थे कि कमल बाबू आखिरी व्यक्ति नहीं थे जो उन्हें रोकने का प्रयास करने के लिए घर आए थे. यह तो तूफान की शुरुआत भर थी.
3 दिन किसी का फोन आए बगैर सुकून से गुजर गए. जिंदगी अपनी सामान्य रफ्तार से चलती रही. सुधा भी अब शांत थी. चौथे दिन किशोर दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोलने पर अपने छोटे भाई सतीश व उस के परिवार को सामने पा कर किशोर यह समझ गए थे कि कमल बाबू की वकालत फेल होने के बाद सतीश ने केस की कमान अपने हाथों में ले ली है. वैसे तो उन के और सुधा के परिजनों की आपस में कभी नहीं बनी. वे सभी पारिवारिक समारोहों और उत्सवों में किसी तरह एकदूसरे को बरदाश्त कर लेते थे. लेकिन आज जब उन के और सुधा के निर्णय के खिलाफ खड़े होने की बारी आई तो वे सब अचानक ही एकता की शक्ति को पहचान गए थे.
किशोर ने न चाहते हुए भी मुसकरा कर सब का स्वागत किया. उन्होंने सुधा का चिंतित चेहरा देखते ही दफ्तर में फोन कर के छुट्टी ले ली. वे सतीश की तेजतर्रार पत्नी मीना के स्वभाव से भलीभांति परिचित थे. उन्हें मालूम था कि मीना मौका देख कर बच्ची को गोद लेने वाली बात का बतंगड़ जरूर बनाएगी. अब देखना यह था कि उसे यह मौका किस वक्त मिलेगा. शाम तक का वक्त तो शांति से गुजर गया.
शाम के समय किशोर व सतीश साथ बैठ कर बातें कर रहे थे. मीना सुधा के साथ रसोई में चली गई थी. उन के बच्चे पूजा और यश टीवी देखने में मग्न थे. सुधा रसोई से उन चारों के लिए चाय की ट्रे ले कर आई और पीछेपीछे मीना पकौड़े ले कर आ गई. सुधा बच्चों को पकौड़े व कैचअप देने में व्यस्त थी. तभी किशोर ने देखा कि मीना आंखों से सतीश को कुछ इशारा कर रही थी.
वे कुछ समझ पाते, इस से पहले ही सतीश बोल पड़ा, ‘‘भाईसाहब, मुझे आप से कुछ बात करनी है.’’
यह तो किशोर भी जानते थे कि उन के छोटे भाई को उन से क्या बात करनी थी. फिर भी उन्होंने अनजान बनते हुए कहा, ‘‘हां, बोलो सतीश, किस बारे में बात करनी है?’’

सतीश अपनी पत्नी मीना की भांति तेजतर्रार नहीं था. उस ने गोलमोल बातें करनी शुरू कर दीं, ‘‘वह भाईसाहब, आप को पता तो होगा कि घर वाले आप से नाराज हैं. रिश्तेदारों के बीच में भी यही चर्चा चल रही है. दीदी का फोन आया था, वे भी बहुत चिंतित लग रही थीं. आप सम?ा रहे हो न कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूं?’’
किशोर ने धैर्यपूर्वक कहा, ‘‘नहीं सतीश, मैं कुछ नहीं समझ पा रहा हूं. इस प्रकार घुमाफिरा कर बात मत करो. जो कहना चाहते हो, साफसाफ कहो.’’
सतीश ने मीना की ओर देखा जो उसे गुस्से में खा जाने वाली नजरों से घूर रही थी. फिर उस ने किशोर की ओर देख कर कहा, ‘‘भाईसाहब, आप और भाभी एक बच्ची को गोद लेना चाहते हैं न. इस में हम में से किसी की भी सहमति नहीं है. रिश्तेदार और परिवार सभी आप से नाराज हैं, इसलिए आप यह विचार त्याग दीजिए.’’
किशोर ने शांत भाव से पकौड़ा खाया और कहा, ‘‘किसी की सहमति नहीं है, से तुम्हारा क्या मतलब है, सतीश? मैं ने तुम्हारी या किसी और की आज्ञा मांगी ही कब थी?’’
सतीश से इस का कोई उत्तर न देते बना तो उस ने सहायता के लिए मीना की ओर देखा.
मीना ने पति की हालत देख कर बिना देर किए बातचीत की कमान खुद संभाल ली.
‘‘भाईसाहब, इन के कहने का मतलब था कि पूरी उम्र तो आप ने बच्चा गोद लेने के बारे में सोचा नहीं. अब कहां इस उम्र में आप छोटी सी बच्ची की जिम्मेदारी उठाएंगे और अगर आप को बच्चों की कमी इतनी ही खल रही है तो पूजा और यश हैं न. आप अपने सारे अरमान इन के जरिए पूरे कीजिए. ये दोनों भी तो आप ही की संतान हैं. मैं ठीक कह रही हूं न, भाभीजी.’’ इतना कह कर मीना ने सुधा की ओर देखा, जिस का पूरा ध्यान अब मीना और सतीश की बातों पर था.
किशोर ने मीना से मुसकरा कर कहा, ‘‘मीना, यह विचार तो मेरे मन में बरसों पहले ही आ गया था. लेकिन अगर उस वक्त मैं ने अम्मा के आगे न झुक कर थोड़ी हिम्मत से काम लिया होता तो आज हमारी संतान भी यश की उम्र की होती और जहां तक पूजा और यश को अपनी संतान मानने की बात है तो ये दोनों भी हमारे ही बच्चे हैं. हम ने सदा इन्हें अपना ही माना है. मगर मुझे यह बताओ कि यह बात तुम ने उस वक्त क्यों नहीं कही जब यश के जन्मदिन पर तुम्हारी माताजी ने सुधा को बांझ कह कर उसे यश को केक खिलाने से रोक दिया था?’’ इतना सुनते ही मीना के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं.

वह बात को संभालते हुए बोली, ‘‘भाईसाहब, आप तो जानते हैं कि मेरी मां पढ़ीलिखी नहीं हैं. वे गांव में रहती हैं और कई बार बड़ेबूढ़े लोग ऐसी दकियानूसी बातों में विश्वास कर के कुछ भी बोल देते हैं. मगर मेरा विश्वास कीजिए, मेरे मन में ऐसी कोई बात नहीं है. मैं ने पार्टी के बाद मां से इसी बात को ले कर झगड़ा भी किया था.’’
किशोर ने कहा, ‘‘चलो ठीक है, मैं ने मान लिया कि तुम्हारे मन में ऐसी कोई बात नहीं है मगर अब इन सब बातों को दोहराने का कोई फायदा नहीं है. हमारी बच्ची को गोद लेने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. हम दोनों पूजा और यश से बहुत प्यार करते हैं. लेकिन अब हम किसी की खातिर अपना निर्णय नहीं बदलेंगे.’’
सतीश के हावभाव देख कर किशोर समझ गए थे कि वह हार मान चुका है. मगर मीना अब गुस्से से तिलमिला रही थी. उस ने आखिरी बार अपने पति की ओर देखा जिस ने कंधे उचका कर न में सिर हिला दिया. अपनी दाल न गलते देख कर मीना भड़क उठी, ‘‘अरे, ऐसे कैसे बुढ़ापे में बच्ची गोद ले लेंगे. अगर बच्चे पालने का इतना ही शौक है तो मेरे पूजा और यश को अपने पास रख लो. जब घर में बच्चे मौजूद हैं तो उन के होते हुए कैसे किसी पराए खून को आप अपना सबकुछ उठा कर दे देंगे. इन सब पर तो पूजा और यश का हक बनता है.’’
किशोर मुसकरा उठे, ‘‘चलो अच्छा हुआ, मीना. आखिर तुम्हारे मन की बात तुम्हारी जबान पर तो आई.’’ यह सुन कर मीना झेंप गई. उस ने सहायता के लिए सतीश की ओर देखा जो खुद उसे अब अवाक हो कर देख रहा था. पूजा और यश भी अपनी मां को हैरानी से देख रहे थे.
मीना ने अपना बचाव करते हुए कहा, ‘‘भाईसाहब, आप मुझे गलत समझ रहे हैं. मेरे कहने का वह मतलब नहीं था. मैं तो बस इस बात की फिक्र कर रही हूं कि कहीं कोई आप के सीधेपन का फायदा उठाते हुए बच्ची गोद देने का लालच दिखा कर आप को ठग न ले. आजकल रुपए के लालच में लोग किसी भी हद तक गिर जाते हैं.’’
‘‘वह तो मैं देख ही रहा हूं, मीना. मैं अच्छी तरह से समझ भी रहा हूं कि तुम्हारी किस बात का क्या मतलब था.’’
इतना कह कर किशोर ने सुधा की ओर देखा. सुधा चुपचाप उन के समीप आ कर खड़ी हो गई. फिर किशोर ने सतीश और मीना से कहा, ‘‘माफ करना, हम दोनों के पास आप को देने के लिए पर्याप्त समय नहीं है. हम अपनी बच्ची को घर लाने की तैयारियों में आजकल बहुत व्यस्त रहते हैं. सतीश तुम्हें अपनी दुकान संभालनी है और बच्चों की पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा होगा तो आप लोग अधिक समय तक यहां रुकेंगे भी नहीं. वापसी का टिकट करा लिया है या मैं बुक करा दूं?’’

सतीश और उस का परिवार अगली सुबह ही अपने घर के लिए रवाना हो गए. जातेजाते मीना उन्हें चेतावनी देना नहीं भूली कि अब बाला दीदी ही उन दोनों से बात करेंगी. सुधा मीना के स्वभाव से तो परिचित थी, मगर उसे उस के इस रूप का तनिक भी अंदाजा नहीं था. अब उसे इस बात का डर सताने लगा कि कहीं उस की ननद बाला के हस्तक्षेप के बाद किशोर अपना निर्णय बदलने पर मजबूर न हो जाएं क्योंकि बाला दीदी किशोर के जीवन में सब से अहम स्थान रखती थीं. उन्होंने ही किशोर को उच्चशिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया. उन्हें कानपुर से दिल्ली लाने में भी बाला दीदी का ही योगदान था. किशोर ने आज तक अपनी मां समान बड़ी बहन की कोई बात नहीं टाली थी. जब सुधा ने अपनी चिंता का कारण किशोर को बताया तो उन्होंने उसे भरोसा दिलाते हुए कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है.
किशोर सुधा को तो तसल्ली दे रहे थे लेकिन उन के मन के भीतर भी तूफान आया हुआ था. दिनरात बाला दीदी के फोन का इंतजार कर के चिंता में घुलने से भी क्या लाभ होता. किशोर ने सुधा से कहा कि अब जबकि उन की बच्ची जल्दी ही घर आने वाली है तो उन्हें उस के लिए थोड़ी खरीदारी शुरू कर देनी चाहिए.
किशोर का प्रयोग सफल साबित हुआ. बच्ची के लिए कपड़े, खिलौने व उस की जरूरतों के अन्य सामान की सूची बनातेबनाते ही सुधा का ध्यान बाला दीदी की ओर से हट गया. जब एक सप्ताह शांतिपूर्वक बीत गया तो किशोर को लगा कि शायद बाला दीदी चुप रह कर उन्हें अपना समर्थन दे रही हैं. लेकिन व्यक्ति अपनी मरजी से कोई बड़ा कार्य करने चले और उस में व्यवधान न आए, ऐसा असंभव है.
एक शाम जब वे दोनों खरीदारी कर के घर लौटे तो किशोर के मोबाइल की घंटी बजने लगी. स्क्रीन पर बाला दीदी का नाम देखते ही किशोर समझ गए कि दीदी की चुप्पी उन का समर्थन नहीं था. असल में वह तूफान के पहले की खामोशी थी. उन्होंने सुधा की ओर देखा जो डरतेडरते उन्हें फोन उठाने के लिए कह रही थी.
फोन उठाते ही दीदी ने नमस्ते के उत्तर में पूछ डाला कि उसे परिवार के सम्मान और प्रतिष्ठा की तनिक भी परवा है या नहीं. किशोर बहुत संभलसंभल कर उत्तर देने का प्रयास कर रहे थे क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं दीदी उन के जवाब को अपना अपमान सम?ा कर उन से नाराज न हो जाएं. उन्हें पता था कि बाला दीदी किसी को आसानी से क्षमा करने वालों में से नहीं हैं फिर चाहे वह उन का प्रिय छोटा भाई ही क्यों न हो. दीदी किशोर को अपना निर्णय बदलने के लिए कहती रहीं और वे दीदी को समझाबुझा कर उन्हें स्थिति को अपने दृष्टिकोण से देखने की प्रार्थना करते रहे.
आखिरकार दीदी ने कह ही दिया, ‘‘तुम्हें पता भी है कि उस बच्ची के मातापिता कौन हैं? उस का धर्म क्या है? वह किस जाति, किस खानदान की है? किसी ऐरेगैरे के बच्चे को घर ला कर क्यों अपने खानदान का नाम डुबोने पर तुले हो? क्या तुम्हें अपने पिता और परिवार के नाम व मानसम्मान की तनिक भी चिंता नहीं है?’’
किशोर को उन की बात सुन कर झटका लगा. अब बाला दीदी भी अम्मा की भाषा बोलने लगी थीं. यह सोच कर उन्होंने बाला दीदी को वही उत्तर दिया जो कभी वे अम्मा को देना चाहते थे, मगर दे नहीं पाए थे.

उन्होंने कहा, ‘‘हां दीदी, मैं जानता हूं कि उस के मांबाप कौन हैं और वह किस खानदान की है. उस के परिवार वाले बहुत ही शरीफ और खुद्दार लोग हैं. उस की मां अपनी मजबूरियों के चलते उसे हमें गोद दे रही है. रही बात जाति और धर्म की तो इन सब बातों में क्या रखा है. पैदा तो वह इंसान की बच्ची बन कर हुई है और आप ही तो कहती थीं कि बच्चे गीली मिट्टी की तरह होते हैं. उन्हें जिस सांचे में ढालो, वे उसी सांचे में ढल जाते हैं. आप बिलकुल फिक्र मत कीजिए, दीदी. आप की भतीजी की परवरिश उसी तरह से होगी जिस तरह आप चाहती हैं.’’
‘‘बातों के जाल मुझ पर मत फेंको, किशोर. तुम अच्छी तरह से जानते हो कि आज अगर अम्मा हमारे बीच में होतीं तो वे भी यही कहतीं. आज तुम बहुत बड़ीबड़ी बातें कर रहे हो. आदर्शवादी होने का विचार तो बहुत अच्छा है पर असल जिंदगी में इस विचार का कोई स्थान नहीं है. याद रखना, एक दिन तुम अपने इस निर्णय पर बहुत पछताओगे. मैं ने आज तक हर बात में तुम्हारा साथ दिया है. यहां तक कि सुधा को दिल्ली ले कर आने के निर्णय में भी मैं ने अम्मा के खिलाफ जा कर तुम्हारी मदद की थी. लेकिन आज तुम्हारे इस फैसले में मैं तुम्हारे साथ नहीं हूं. याद रखना, अगर तुम इस बच्ची को घर लाओगे तो आज के बाद मेरा और तुम्हारा कोई संबंध नहीं होगा. यह मेरा अंतिम निर्णय है.’’
इतना कह कर बाला दीदी खामोश हो गईं, लेकिन उन्होंने फोन का रिसीवर नहीं रखा था.
किशोर की आंखें नम हो गईं. वे बाला दीदी का बहुत सम्मान करते थे लेकिन वे अपनी पत्नी सुधा से भी बहुत प्यार करते थे. वे खुद को इस वक्त 2 हिस्सों में बंटा हुआ महसूस कर रहे थे. उन्होंने भी मन ही मन निर्णय ले लिया था कि उन्हें क्या करना है. वे अपनी सुधा के साथ अब और अन्याय नहीं कर सकते थे.
उन्होंने गहरी सांस भरते हुए कहा, ‘‘दीदी, आप मेरे लिए सिर्फ मेरी बड़ी बहन नहीं हैं बल्कि मेरी मां से भी बढ़ कर हैं. मैं चाहता हूं कि आप की भतीजी आप की नाराजगी नहीं, आप के आशीर्वाद के साथ अपने घर में प्रवेश करे. उस का नाम भी आप ही को रखना है. आप के बिना हमारी खुशियां अधूरी रहेंगी. हम सब आप के घर आने का इंतजार करेंगे. आप का छोटा भाई आप की नन्ही भतीजी के साथ आप का इंतजार करेगा.’’

उस रात किशोर सो न सके. वे पूरी रात बेचैनी से करवटें बदलते रहे. सुधा चिंतित हो कर उन्हें जागते हुए देखती रही. सुबह उन का उतरा हुआ चेहरा देख कर उस से रहा न गया. वह किशोर को चाय का कप दे कर उन के पास ही बैठ गई और बहुत ध्यान से उन का चेहरा देखने लगी.
किशोर ने उस की ओर बिना देखे पूछ लिया, ‘‘कुछ कहना चाहती हो, सुधा?’’
सुधा बस उन के इसी प्रश्न का इंतजार कर रही थी.
वह रोंआसी हो उठी, ‘‘आप जानते हैं न कि मेरे लिए इस संसार में आप से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है. औलाद भी नहीं और मैं भी अच्छी तरह से जानती हूं कि आप के जीवन में बाला दीदी का क्या स्थान है. आप उन्हें मना लीजिए. मुझे बच्ची नहीं चाहिए. क्या मैं पहले संतान के बगैर नहीं जी रही थी जो आगे नहीं जी पाऊंगी. मैं सोच लूंगी कि मेरे जीवन में संतान का सुख ही नहीं था. मैं आप को इस तरह परेशान होते हुए नहीं देख सकती. आप पूरी रात एक मिनट के लिए भी नहीं सोए हैं. दफ्तर में सारा दिन कैसे बिताएंगे? इस तरह तो आप की तबीयत खराब हो जाएगी. आप बाला दीदी को फोन कर के कह दीजिए कि हम बच्ची को गोद नहीं ले रहे हैं.’’
अपने प्रति सुधा का यह प्रेम और समर्पण देख कर किशोर मन ही मन मुसकरा उठे. सुधा के एक कथन ने उन के मन में चल रही कशमकश को खत्म कर दिया था. अब उन्हें पहले से भी कहीं अधिक विश्वास हो गया था कि उन का निर्णय बिलकुल सही है.
उन्होंने सुधा का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘मुझे एक रात जागते देख कर तुम्हें इतनी तकलीफ हुई है. मैं ने तो तुम्हें इतने वर्षों में अनगिनत रातें रोरो कर काटते हुए देखा है. जरा सोचो सुधा, मुझे तुम्हें इस तरह देख कर कितनी तकलीफ हुई होगी.’’
सुधा उन्हें आश्चर्यचकित हो कर देखने लगी.
फिर किशोर ने आगे कहा, ‘‘तुम कितना भी चाहो लेकिन मुझ से अपने आंसू और दर्द नहीं छिपा सकती हो, सुधा. पिछले 26 सालों में तुम ने बिना कोई सवाल किए मेरी हर बात मानी है. मेरे हर सुखदुख में मेरा साथ दिया है. मेरे और मेरे परिवार के प्रति अपने सारे कर्तव्य अपनी क्षमता से बढ़ कर निभाए हैं और बदले में मुझ से कभी कोई उम्मीद नहीं की. अब मेरी बारी है, सुधा. तुम्हारे प्रति मेरे इस कर्तव्य को निभाने से मुझे संसार की कोई शक्ति नहीं रोक पाएगी. जहां तक बाला दीदी का प्रश्न है तो मैं जीवनभर उन्हें मनाने का प्रयास करता रहूंगा और मैं जानता हूं कि एक न एक दिन वे जरूर मान जाएंगी. लेकिन अब मैं इतना आगे बढ़ने के बाद अपने कदम पीछे नहीं हटाऊंगा.’’
उन की बातें सुन कर सुधा की आंखों से आंसू बह निकले. किशोर ने उन्हें अपने हाथों से पोंछते हुए कहा, ‘‘अच्छा बाबा, अब ज्यादा भावुक होने की जरूरत नहीं है. जरा यह तो बताओ कि तुम हमारी बिटिया को प्यार से क्या कह कर बुलाओगी?’’
सुधा ने सिसकते हुए कहा, ‘‘बिट्टो.’’
‘‘मुझ पर यकीन रखो, सुधा. बहुत जल्दी हमारी बिट्टो घर आएगी.’’
उस दिन के बाद किशोर या सुधा, किसी के घर वालों ने उन से संपर्क करने की कोशिश नहीं की. बच्ची के घर आने से एक सप्ताह पूर्व तक उन के रिश्तेदारों के साथसाथ, मित्रों व पड़ोसियों को भी उस के आने की खबर मिल गई थी. कुछ चुनिंदा लोगों ने उन के इस कदम की सराहना की. लेकिन कटाक्ष व आलोचना करने वालों की संख्या अधिक थी. किशोर व सुधा ने किसी की बातों पर ध्यान नहीं दिया. वे अपने घर को अपनी बच्ची के हिसाब से व्यवस्थित करने में व्यस्त रहे.
दोनों ने साथ मिल कर अपनी बिट्टो का कमरा सजाया था. सुधा दिन में कईकई बार जा कर सारा कमरा देखती कि कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई है. घर के सारे नुकीले कोनों वाले सामान व फर्नीचर को बदल दिया गया. उन के घर में अब उन की जरूरत से ज्यादा उन की बच्ची की जरूरत का सामान था.

किशोर इस बात को ले कर अकसर सुधा को छेड़ते और सुधा मुसकरा कर कह उठती, ‘‘अभी मैं ने अपनी बिट्टो के लिए कुछ खरीदा ही कहां है. एक बार उसे घर आने दो, फिर देखना पता नहीं किसकिस चीज की जरूरत पड़ेगी. मैं उसे कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने दूंगी.’’
सुधा का खिला हुआ चेहरा देख कर किशोर मन ही मन खुश हो जाते थे.
और फिर वह दिन भी जल्दी ही आ गया जिस के लिए सुधा ने पूरे 26 सालों तक इंतजार किया था. उन दोनों ने सब से पहले अपनी बच्ची को ले डाक्टर से उस की जांच करवाई. बच्ची बिलकुल स्वस्थ थी. उस के बाद ही वे उसे घर ले कर आए. सुधा की खुशी का तो जैसे कोई ठिकाना ही नहीं था. उस की नजरें एक पल के लिए भी अपनी बेटी के चेहरे से नहीं हट रही थीं.
वह बारबार उसे चूमती व उस की बलाएं लेती. बच्ची के रोने पर भी वह खुशी से हंसती हुई बावरी हुई जा रही थी. बस, एक ही समस्या थी. बच्ची अभी उन्हें पहचानती नहीं थी. वह उन्हें ध्यान से देखती, फिर अनजान चेहरों को सामने पा कर हिलकहिलक कर रोती. लाख चुप कराने पर भी वह सुबकती रहती. फिर थकहार कर, दूध पी कर सो जाती.
यह सब देख कर सुधा बहुत चिंतित हो गई.
किशोर ने उसे समझाने का प्रयास किया, ‘‘देखो सुधा, हमारी बेटी अभी बहुत छोटी है. उसे हमें पहचानने व अपनाने में थोड़ा समय लगेगा. अगर हमें अपना घर छोड़ कर, अपनों से दूर जा कर रहना पड़े तो हम भी बेचैन हो जाएंगे. फिर यह तो कुछ माह की अबोध बच्ची है. थोड़ा समय दो और धीरज रखो. इस में परेशान होने वाली कोई बात नहीं है.’’
शुरूशुरू में सुधा बच्ची के रोने व चिड़चिड़ाने पर परेशान हो जाती थी. लेकिन फिर किशोर की सलाह पर उस ने थोड़ा संयम से काम लिया. इस बीच उन के घर में मित्रों व परिचितों का आनाजाना लगा रहा.

सुधा व किशोर को अपने धैर्य का पुरस्कार उस दिन मिला जब उन के एक मित्र
दंपती घर पर आए. वे उन की बच्ची को गोद में ले कर दुलार कर रहे थे. मित्र
की पत्नी के मुंह से ‘मां’ शब्द निकलते ही बिट्टो ने सुधा की ओर अपनी नन्ही उंगली से इशारा किया. सुधा ने यह देखा और फिर से उन्हें ऐसा ही कहने के लिए कहा.
मां शब्द सुनते ही बिट्टो ने फिर से सुधा की ओर इशारा किया. सुधा ने मुसकरा कर प्यार से बिट्टो कह कर पुकारा तो उस ने किलकारी भरते हुए सुधा की ओर हाथ बढ़ा दिए मानो कह रही हो, ‘मां, मुझे अपनी गोद में ले लो.’
बेटी की बात समझाते हुए सुधा ने उसे अपनी गोद में ले लिया, उस का माथा चूमा. सभी हतप्रभ हो कर दोनों मांबेटी का मिलाप देख रहे थे. सुधा किशोर की ओर देख कर चहक उठी जो पहले से ही उन दोनों को नम आंखों से देखते हुए मुसकरा रहे थे.
उस के बाद तो जैसे उन दोनों की दुनिया ही बदल गई. किशोर ने कुछ दिनों के लिए दफ्तर से छुट्टी ले ली थी. वे अपना सारा समय अपनी पत्नी और नन्ही बिटिया के साथ बिताना चाहते थे. सुधा अपनी बिट्टो को रोज नईनई, रंगबिरंगी, सुंदर फ्रौक पहनाती. बिट्टो अपने खिलौनों को देख कर ताली बजाती और उन से अपनी भाषा में बात करती.
वह किशोर की पैंट खींच कर उन से खुद को गोद में लेने के लिए कहती. लेकिन सुधा के कमरे में आते ही उस की गोद में चली जाती. फिर किशोर ?ाठमूठ रूठने का नाटक करते और दोनों मांबेटी मिल कर उन पर हंसतीं. बिट्टो ने उन के सूने, अंधेरे जीवन में खुशियों का उजाला भर दिया था. अब वह उन्हें अपने मातापिता के रूप में पहचानने लगी थी. इस से बढ़ कर खुशी की बात उन के लिए हो ही नहीं सकती थी.
सबकुछ अच्छा चल रहा था. अब, बस, एक ही कमी थी. वे दोनों चाहते थे कि उन के परिवार के सभी सदस्य भी उन की बच्ची को स्वीकार कर लें. बिट्टो उन की बेटी थी. इस सत्य को अब उन्हें भी सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए था.
किशोर ने कई बार बाला दीदी को फोन किया था, लेकिन उन्होंने नंबर देख कर फोन नहीं उठाया. उन्होंने घर के फोन पर कौल किया तो बाला दीदी ने नौकर से कहलवा दिया कि वे घर पर नहीं हैं. इसी दौरान उन्हें एक रिश्तेदार से पता चला कि बाला दीदी की बेटी गौरी की शादी अगले माह होना तय हुई है. उन्हें छोड़ कर बाकी सभी को निमंत्रण भेजा गया है. किशोर को यह सुन कर धक्का लगा. वे जानते थे कि बाला दीदी उन से नाराज हैं. मगर इतनी भी क्या नाराजगी कि इकलौती भांजी की शादी में मामा को न बुलाया जाए. सुधा ने मायूस हो कर कहा कि अब उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए कि परिवार ने उन से सारे नाते तोड़ लिए हैं.
किशोर ने दृढ़ विश्वास के साथ कहा, ‘‘कोई कुछ भी कह ले मगर मैं जानता हूं कि मेरी दीदी मुझे न्योता देने जरूर आएंगी. वे भले ही मुझ से कितनी भी नाराज क्यों न हों, मगर वे मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकती हैं और अगर उन्होंने मुझे नहीं भी बुलाया तो क्या हुआ, मैं उन का छोटा भाई हूं और गौरी का मामा हूं. वे मुझे बुलाएं या न, मैं अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए वहां जरूर जाऊंगा.’’
सुधा भलीभांति जानती थी कि किशोर का मन बहुत व्याकुल है. लेकिन वह उन की पीड़ा बांटने के अलावा और कर भी क्या सकती थी. सो वही करती रही.
सुधा के लगातार समझने पर किशोर अपना पूरा ध्यान अपने काम व बेटी में लगाने की कोशिश करते रहे. जैसेजैसे गौरी की शादी की तारीख निकट आती गई, किशोर की उम्मीद की डोर भी कमजोर होती चली गई. शादी से 8 दिनों पहले उन्होंने सुधा के सामने यह स्वीकार भी कर लिया कि वे हार गए हैं और मानते हैं कि अब दीदी उन्हें अपने जीवन व हृदय से पूरी तरह निकाल चुकी हैं. अपने पति को इस तरह टूटता देख कर सुधा का हृदय भी तड़प उठा. वह उन के आंसू पोंछने ही वाली थी कि तभी उस से पहले बिट्टो ने हाथ बढ़ा कर किशोर के आंसू पोंछ दिए व उन की गोद में जा कर उन्हें प्यार करने लगी. अपनी मासूम बच्ची का प्रेम देख कर किशोर ने उसे कस कर अपने सीने से लगा लिया.

अगली शाम सुधा ने उन से पार्क में चलने का आग्रह किया. पहले तो वे मना करने लगे पर जब बिट्टो ने उन का हाथ पकड़ कर दरवाजे की ओर इशारा किया तो वे जाने के लिए मान गए. दोनों ने थोड़ी देर बिट्टो को पार्क में घुमाया, फिर बैंच पर जा कर बैठ गए. बिट्टो अब सोसाइटी के बच्चों को भी अच्छी तरह से पहचानने लगी थी. बच्चे उसे उस के नाम से पुकारते और उसे दिखादिखा कर गेंद को हवा में ऊंचा उछालते. बिट्टो गेंद को देख कर जोरजोर से ताली बजाती व किलकारी भरती. बिट्टो को इस प्रकार चहकता देख कर किशोर भी खुश हो रहे थे और उन दोनों को खुश देख कर सुधा खुश थी.
किशोर का ध्यान बिट्टो से तब हटा जब उन के कानों में एक परिचित स्वर पड़ा, ‘‘मामाजी.’’
उन्होंने पलट कर देखा तो वहां गौरी खड़ी थी.
किशोर ने चौंक कर कहा, ‘‘गौरी, तुम यहां?’’ और इधरउधर देखने लगे.
‘‘मामाजी, आप मां को ढूंढ़ रहे हैं न?’’
किशोर के कोई उत्तर न देने पर गौरी ने सुधा की ओर देख कर कहा, ‘‘मामीजी, यह मेरी छोटी बहन है न? लाइए इसे मेरी गोद में दीजिए.’’
गौरी ने बिट्टो को गोद में ले कर प्यार किया और फिर किशोर की ओर देखा जो अभी भी उसे अचंभित हो कर देख रहे थे.
‘‘कितनी अजीब बात है न, मामाजी. हम सभी आदर्शवाद की बड़ीबड़ी बातें तो करते हैं लेकिन यदि हमारा कोई अपना उन बातों पर अमल करता है तो हम ही सब से पहले उस के खिलाफ खड़े हो कर उस का विरोध करते हैं. हमारा झुठा अहंकार हमें उन का साथ देने की या सही और गलत में फर्क कर के फैसला करने की इजाजत नहीं देता. समाज के इन खोखले कायदेकानूनों को मानने के चक्कर में हम खुद को अपनों से दूर कर बैठते हैं.
‘‘मां ने भी यही गलती की है. सब की बातों में आ कर उन्होंने आप से रिश्ता तोड़ने की बात कह दी. यहां तक कि आप को मेरी शादी में आने का निमंत्रण भी नहीं दिया. यहां आप परेशान हैं और वहां वे खुद कब से आप से मिलने और बात करने के लिए तड़प रही हैं. लेकिन अपने मन में पनपी कशमकश के चलते वे ऐसा नहीं कर पा रही थीं. कल रात जब मैं ने उन्हें आप के लिए छिपछिप कर रोते देखा तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने उन्हें गाड़ी में बिठाया और सीधे यहां ले आई. अब उन्हें यह डर सता रहा है कि पता नहीं आप उन्हें माफ करेंगे या नहीं. उन से बात भी करेंगे या नहीं.’’
‘‘क्या, दीदी यहां आई हैं?’’ किशोर ने चौंक कर पूछा.

फिर गौरी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना सुधा की ओर देख कर कहा, ‘‘देखा सुधा, मैं ने तुम से पहले ही कहा था न कि दीदी मुझ से अधिक देर तक नाराज नहीं रह सकती हैं, वे जरूर आएंगी.’’
फिर सुधा की बात सुने बिना पार्क से बाहर की ओर जाते हुए कहने लगे, ‘‘मैं अभी अपनी दीदी को घर ले कर आता हूं.’’
‘‘अरे मामाजी, आप कहां भागे जा रहे हैं, बिट्टो को तो साथ लेते जाइए. मां आप से पहले अपनी भतीजी से मिलना चाहती हैं. बिट्टो के बिना मेरी शादी में आने की सोचिएगा भी मत,’’ गौरी ने किशोर का उतावलापन देख कर हंसते हुए कहा.
किशोर ने जल्दी से वापस आ कर बिट्टो को अपनी गोद में लिया व उस का माथा चूम कर आंखों में चमक लिए सुधा की ओर देख कर कहा, ‘‘देखा सुधा, बिट्टो को घर लाने का मेरा निर्णय बिलकुल सही था.’’
फिर बेटी को गुदगुदी करते हुए कहा, ‘‘चल बिट्टो, तेरी बूआ को घर ले कर आते हैं.’’
नन्ही बिट्टो को भला क्या समझ आता. वह किलकारी भरते हुए अपने पिता के साथ चली गई. गौरी उन्हें बहुत गंभीर हो कर देख रही थी.
उसे ध्यानमग्न देख कर सुधा ने उस से पूछा, ‘‘क्या सोच रही हो, गौरी?’’
गौरी ने हलकी सी मुसकान के साथ उत्तर दिया, ‘‘बिट्टो को घर ला कर आप ने बहुत अच्छा किया है, मामीजी. मुझे आप दोनों पर गर्व है.’’
उस की बात सुन कर सुधा ने उसे गले से लगा लिया और धीरे से उस के कान में कहा, ‘‘थैंक्यू गौरी.’’
अब उस के दिल में किसी तरह की कोई उलझन या कशमकश नहीं थी. वह आंखों में गर्व और तृप्ति की चमक लिए अपने पति व बेटी को पार्क से बाहर जाते हुए देख रही थी.

Smartphones : सरकार थोप रही मोबाइल

Smartphones : सरकार द्वारा कई स्कीमों को चलाया जा रहा है. बिना एडवांस मोबाइल फोन और इंटरनैट सेवा की इन स्कीमों का फायदा उठाना असंभव है. ऐसा अनावश्यक जोर क्या सही है?

बढ़ते मोबाइल अर्थात ईगवर्नेंस के प्रभाव से हम सभ्यता का आखिर कौन सा मानदंड अगली पीढि़यों को सौंपने जा रहे हैं. आजकल बहुत सभ्य समाज के असभ्य आचरण पर हम रोजाना पढ़ते भी हैं और रोते तो बहुत हैं. आज के अत्यधिक डिजिटलाइज्ड युग में सवाल उठता है कि हम किस गिरफ्त में फंसने को विवश हैं?
सरकार द्वारा प्रस्तावित सेवाएं जरूरी हैं, इसलिए सभी को इन्हें मानना होगा. लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कहीं यह दिखावा या अत्यधिक नियंत्रण हमारे और आने वाली पीढि़यों के लिए नुकसानदायक न साबित हो.

ईशासन और समाज में मोबाइल की बढ़ती स्वीकार्यता को देखते हुए भारत सरकार ने न केवल नागरिक सेवाओं, बल्कि कई अन्य महत्त्वपूर्ण सेवाओं को भी मोबाइल के जरिए लोगों तक पहुंचाने का निर्णय लिया है. इस के लिए सरकार विभिन्न साझेदारों के साथ मिल कर इस योजना को साकार करने की कोशिश कर रही है.
सरकारी विभागों और एजेंसियों की वैबसाइटों को निर्देशित किया गया है कि ‘वन वैब’ दृष्टिकोण के अंतर्गत मोबाइल कंप्लाइंट का विकास किया जाए पर क्या यह इतना जरूरी हो गया कि इस के बिना काम नहीं हो सकता?

यह सवाल तृप्ति के मन में आया जब वह एक वाकए से गुजरी. हुआ यह कि वह 2 साल बाद अपने शहर पटना गई. कार का पौल्यूशन सर्टिफिकेट एक्सपायर हो गया तो नया बनाना था. नियम बदल गए थे, पहले कार चैक कर के शुल्क का भुगतान कर सर्टिफिकेट मिल जाता था पर इस बार 3 चक्कर लग गए और वजह फोन नंबर आधार से अपडेट करना था. आधार नंबर पर दर्ज फोन नंबर चूंकि पुराना बंद हो चुका था सो पौल्यूशन सर्टिफिकेट नहीं बन पाया.

दूसरे दिन सर्वर डाउन, तीसरे दिन दूसरा नंबर अपडेटेड हुआ, चौथे दिन काम हो पाया. मन में सवाल उठते रहे जब गाड़ी की आरसी संबंधित सभी जानकारी विभाग के पास है तो आधार नंबर, मोबाइल नंबर की बाध्यता क्यों? सरकार मोबाइल के उपयोग पर अनावश्यक क्यों जोर दे रही है?

हम किस के गुलाम हो रहे हैं

पुलिस, पावर, अथौरिटी को पावरफुल बनाने के लिए यह आम नागरिकों के लिए षड्यंत्र ही है. कहीं टैक्नोलौजी का विस्तार निजता का हनन न बन जाए.
इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में मोबाइल आधारित सेवाओं, जैसे एसएमएस (लघु संदेश सेवा), यूएसएसडी (असंरचित पूरक सेवा डेटा), आईवीआरएस (इंटरएक्टिव वौयस रिस्पौंस सिस्टम), सीबीएस (सेल ब्रौडकास्टिंग सर्विस), एलबीएस (स्थान आधारित सेवाएं) आदि के लिए जनरल इंटरफेस उपलब्ध होगा पर इस के दूसरे पहलुओं पर जैसे कि इस की सेवा की लागत अधिक हो सकती है, सुरक्षात्मक मामले, जोखिमों और गोपनीयता संबंधी चिंताओं से फोन और फोन नंबर की अनिवार्यता बोझ बन सकती है.

विरोधाभास

क्यूट परीक्षा में मोबाइल नंबर को आवश्यक रूप में दिखाया गया है. 12वीं के छात्रों के लिए सरकार ने मोबाइल कंपल्सरी किया है. सवाल यह कि कहीं हम नई तकनीक में आगे जाने की होड़ में किसी मेधावी कम आयवर्ग के बच्चे को दूर तो नहीं कर रहे.

यह सही है कि डिजिटल माध्यमों के सुविधाजनक होने के कारण वे औपचारिक शिक्षा व्यवस्था का एक हिस्सा बन गए हैं. हम चाहें या नहीं, आजकल छात्रों के लिए स्कूल में इंटरनैट और सोशल मीडिया का उपयोग जरूरी हो गया है.

यह जरूरी है कि शिक्षा व्यवस्था में मोबाइल आधारित शिक्षा से दूर रहें. मानसिक स्वास्थ्य और हमारे वातावरण के साथ संतुलित व्यवहार की भावना बहुत जरूरी है. आत्मनिर्भर व्यक्तित्व का विकास इसी रास्ते से संभव है. सरकार की बिना सोचसमझ के लागू की गई नीतियां समस्या का कारण बन रही हैं. यह हैरानी की बात है कि इस मुद्दे पर विपक्ष चुप है.

हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकार गरीब छात्रों व लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी ले और ये सेवाएं उन्हें मुफ्त में उपलब्ध कराए, न कि मोबाइल जैसी जरूरी सेवाओं के नाम पर उन्हें और अधिक आर्थिक बोझ में दबाए.

लेखिका : पम्मी सिंह ‘तृप्ति’

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