ट्रेन में परचा बांट रही सुखमन ने उस समय मेरे मन के भावों में देख पैसे नहीं लिए, पर एक दिन रास्ते में जब वह मुझे मिली तो अपनी दास्तां सुनाने लगी. कुछ सोच कर उसे स्कूल में चपरासी पद पर रख लिया गया और उस के बेटे को भी उसी स्कूल में एडमिशन करा दिया. बाद में उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया और खर्चा मैं देता रहा. प्रिंसिपल पद से मैं रिटायर  हो गया. लेकिन क्या सुखमन अपने मोड़े को ऊंची तालीम दे सकी? क्या सुखमन ने उसे हकीकत बता दी?

उस ने अपना परिचय यही दिया था.

‘‘जी, मैं सुखमन का मोड़ा हूं...’’ मैं ने उसे उपर से नीचे तक देखा. वह सूटबूट पहने था और व्यक्तित्व भी प्रभावशाली लग रहा था. एक गनमैन उस के ठीक पीछे खड़ा था. उस से कुछ दूरी पर कुछ और लगे खड़े थे. वह शायद उसी कार से उतरा था, जिस पर ‘‘कलक्टर’’ लिखा था. मैं हड़बड़ा गया था.

‘‘सुखमन... ओह... याद आया. वो जाबांज महिला... अच्छा... अच्छा. ’’

मेरी आंखों के सामने सुखमन का चेहरा कौंध गया था. एक दुबलीपतली काया मेरी आंखों के सामने कौंध गई. सुखमन से मैं रेल यात्रा के दौरान मिला था. एक जवान महिला अपने बांए कांधे में एक बालक को रखे सारे कंपार्टमैंट में एक परचा बांट रही थी. उस ने एक परचा मुझे भी दिया था. एक सांस में पढ़ता चला गया था सारे परचे को.

‘‘भीख मांगने का नया नाटक,’’ मैं ने अपना चेहरा ही घुमा लिया था. रेल के कंपार्टमैंट में अकसर ऐसे भीख मांगने के तरीके आजमाए जाते हैं. कभी कोई झाड़ू हाथ में ले कर कंपार्टमैंट झाड़ने लगता है, तो कभी कोई अंधाबहरा बन कर भीख मांगता है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...