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जासूसी कांड: पैगासस कांड- जांच कमेटी से निकलेगा सच?

पैगासस जासूसी मामले में केंद्र सरकार कोई स्पष्ट जवाब देने को न तो संसद में तैयार है और न ही सुप्रीम कोर्ट में. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जस्टिस आर वी रवींद्रन की अध्यक्षता में गठित जांच कमेटी को इस मामले में कब तक और किस हद तक सफलता मिलेगी, कहना मुश्किल है. भारत में पैगासस जासूसी मामले को ले कर सुप्रीम कोर्ट ने एक एक्सपर्ट जांच कमेटी का गठन किया है. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस आर वी रवींद्रन इस के अध्यक्ष बनाए गए हैं. गौरतलब है कि पैगासस स्पाईवेयर के उपयोग की बात केंद्र सरकार ने आज तक न मानी है और न ही इस से इनकार किया है.

सरकार ने अब तक यह साफ नहीं किया है कि उस ने पैगासस खरीदा और इस का उपयोग किया या नहीं. वह कोर्ट के सामने बारबार केवल उन प्रक्रियाओं का हवाला दे रही है, जिस के जरिए देश में संदिग्ध लोगों के फोन टेप किए जा सकते हैं और इंटरनैट आधारित सेवाओं पर नजर रखी जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार के इस बर्ताव को देखते हुए जांच का आदेश दिया है. इस के साथ ही शीर्ष कोर्ट ने इस से आम नागरिकों के भी प्रभावित होने की आशंका पर चिंता व्यक्त की है. पैगासस जासूसी कांड के आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जांच कमेटी के बाद भी कई प्रश्न अनुत्तरित हैं. मसलन, क्या सरकार नागरिकों की जासूसी कर सकती है? क्या इस के लिए कानून है? यह इंटरसैप्शन क्या है, जिसे पारंपरिक तौर पर पहले से करने की बात सरकार कह रही है? दरअसल ऐसे व्यक्तियों या समूहों जिन पर गैरकानूनी या देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने का संदेह हो, उन के इलैक्ट्रौनिक उपकरणों को इंटरसैप्ट करने की अनुमति सरकार को कानूनी तौर पर हासिल है.

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इस के लिए 10 एजेंसियां अधिकृत हैं. आईटी कानून, 2000 की धारा 69 केंद्र या राज्य सरकार को किसी भी कंप्यूटर या मोबाइल डिवाइस में सृजित, स्टोर, प्रसारित और उस डिवाइस तक पहुंचे संदेश की निगरानी, उसे इंटरसैप्ट और डिक्रिप्ट करने का अधिकार देती है. ऐसा देश की संप्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, अन्य देशों से दोस्ताना संबंध व जन व्यवस्था और संज्ञेय अपराधों को रोकने के लिए किया जाता है. बिना अनुमति नहीं कर सकते इंटरसैप्शन आईटी कानून के अनुसार इंटरसैप्शन के लिए एजेंसियों को तय प्रक्रिया के तहत अनुमति लेनी होती है. यह अनुमति हर मामले के अनुसार अलगअलग ली जाती है, पहले से व्यापक निगरानी की अनुमति नहीं होती. केंद्रीय स्तर पर कैबिनेट सचिव और राज्य स्तर पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बनी कमेटी यह अनुमति देती है. अनुमति 2 महीने के लिए होती है, लेकिन जरूरत होने पर अवधि बढ़ाई जा सकती है, पर यह 6 महीने से ज्यादा नहीं होती है.

जासूसी नहीं कर सकती सरकार आईटी कानून की यह शक्ति सिर्फ इंटरसैप्ट करने की है. अगर किसी के खिलाफ अपराध या गैरकानूनी गतिविधियों का शक हो तो पूर्व अनुमति से सरकारी जांच एजेंसियां उस के सूचना माध्यमों को इंटरसैप्ट कर सकती हैं. सरकार किसी के फोन में स्पाइवेयर डलवा कर जासूसी नहीं करवा सकती. जबकि पैगासस जासूसी में लोगों के फोन व अन्य डिवाइस में स्पाईवेयर डालने के आरोप हैं. अगर केंद्र सरकार यह कहती है कि उस ने किसी भी नागरिक के फोन में पैगासस स्पाइवेयर नहीं डाला तो यह नई चिंता की बात है कि फिर ऐसा किस ने किया? गौरतलब है कि 50 हजार नंबरों के एक बड़े डेटा बेस के लीक की पड़ताल ‘द गार्डियन’, ‘वाशिंगटन पोस्ट’, ‘द वायर’, ‘फ्रंटलाइन’, ‘रेडियो फ्रांस’ जैसे 16 मीडिया संस्थानों के पत्रकारों ने की थी. इस मामले में बड़े नेता, केंद्रीय जांच एजेंसियों के अफसर, वित्त व्यवस्था से जुड़े अधिकारी, मंत्री, जज, वकील और पत्रकारों के मोबाइल फोन हैक कर के उन की जासूसी के गंभीर आरोप हैं. यदि यह काम विदेशी शक्तियों द्वारा किया जा रहा है तो इस से राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को बड़ा खतरा है.

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ऐसे में खुद केंद्र सरकार को बेतहाशा चिंतित नजर आना चाहिए था, जो कि वह कभी नहीं दिखी. आईटी कानून के अनुसार ऐसे मामले तो साइबर आतंकवाद अपराध के दायरे में आते हैं. मगर मोदी सरकार जिस तरीके से पूरे मामले को शुरू से ही हलके में ले रही है उस से उस की नीयत और कथनीकरनी पर शक ही उत्पन्न होता है. विपक्ष सरकार पर हावी विपक्ष लंबे समय से इस मुद्दे पर बहस और जांच की मांग कर रहा है और उस ने सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा है कि क्या पैगासस सौफ्टवेयर सरकार ने खरीदा था? पैगासस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक बार फिर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रैस कौंफ्रैंस कर केंद्र सरकार को निशाने पर लिया है. राहुल ने केंद्र सरकार से सवाल पूछा कि वह बताए कि इस का डेटा किसकिस के पास गया है. गौरतलब है कि कांग्रेस ने पिछले संसद सत्र में भी यह मामला उठाया था. उस ने पूछा था कि इसे किस ने खरीदा था, किसकिस के फोन टैप किए गए थे और किनकिन पर इस का इस्तेमाल हुआ? क्या इस का डाटा प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को मिल रहा था? राहुल गांधी ने कहा, ‘‘सरकार ने कुछ न कुछ गलत काम जरूर किया है, अन्यथा सरकार को इन सवालों का जवाब देना चाहिए.

अगर जवाब नहीं दे रहे हैं तो इस का मतलब है कि कुछ न कुछ छिपाया जा रहा है. हमें खुशी है कि सुप्रीम कोर्ट ने पैगासस मामले का संज्ञान लिया है. हमें उम्मीद है कि सच अब सामने आएगा. हम इस मामले को दोबारा संसद में उठाएंगे. हमारी कोशिश इस पर संसद में बहस कराने की होगी.’’ कमेटी के लिए राह कठिन पैगासस मामले में कमेटी गठित होने के आठ हफ्ते के बाद इस मामले की सुप्रीम कोर्ट में फिर सुनवाई होगी. 8 हफ्ते में कमेटी सुप्रीम कोर्ट को अपनी अंतरिम रिपोर्ट सौंपेगी. कमेटी के सामने जांच के दौरान सब से अहम सवाल यह होगा कि केंद्र या किसी राज्य सरकार ने पैगासस सौफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है या नहीं? सरकार इस मामले पर कोई स्पष्ट जवाब देने को न तो संसद में तैयार है और न ही सुप्रीम कोर्ट में तो ऐसे में कमेटी को यह स्पष्ट जानकारी सरकार से कैसे मिलेगी? जांच कमेटी के पास भी सिर्फ बयान दर्ज करने और रिपोर्ट देने का ही अधिकार है.

यह बात गौर करने वाली है कि इजराइल के भारत के साथ बहुत नजदीकी संबंध हैं, खासकर 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से. इजराइल ने भारत के पुलिसकर्मियों और सुरक्षा एजेंटों को ट्रेनिंग भी दी है. साथ ही दोनों देश खुफिया जानकारियां भी सा?ा करते हैं. भारत इजराइल की रक्षा तकनीक का बड़ा खरीदार भी है. वहां की रक्षा कंपनियां भारत में उत्पादन भी कर रही हैं. इजराइल की तकनीक का भारत में सुरक्षा व्यवस्था में इस्तेमाल किया जाता है, ऐसे में बहुत संभव है कि इस में से कुछ तकनीक का देश के भीतर भी इस्तेमाल हो रहा है. मगर सवाल यह है कि क्या सरकार, खुफिया एजेंसियां और गृह मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जांच कमेटी को सहयोग करेगा और किस हद तक जानकारियां मुहैया कराएगा या राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल का हवाला दे कर जानकारियां छिपा ली जाएंगी.

सुप्रीम कोर्ट की बनाई गई जांच कमेटी को अपनी अंतिम रिपोर्ट देने के लिए कोई तय समय सीमा नहीं दी गई है, 8 हफ्तों में सुनवाई होगी लेकिन कमेटी के लिए किसी नतीजे पर इतनी जल्दी पहुंचना मुमकिन नहीं होगा. बहुत समय के बाद अगर कोई लंबीचौड़ी रिपोर्ट आती है, तब तक यह मामला बेमानी हो जाएगा. पिछली कमेटियों के उदाहरण सामने हैं गौरतलब है कि समयसमय पर गंभीर मामलों की पड़ताल के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कई कमेटियां बनाईं, मगर कोई भी नतीजे तक नहीं पहुंच पाई. जिन कुछ कमेटियों ने अपनी रिपोर्ट और सिफारिशें दीं भी तो वे सिफारिशें कभी लागू नहीं हुईं. याद होगा कि सीबीआई डायरैक्टर के विवाद के समय सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल उठे थे. तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने न्यायिक व्यवस्था को खतरे में डालने के आपराधिक साजिश की जांच के लिए पूर्व जज पटनायक कमेटी का गठन किया था, जो आज तक किसी तर्कसंगत नतीजे पर नहीं पहुंची है.

कृषि कानून के बारे में भी सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है. आंध्र प्रदेश में बलात्कार के अभियुक्तों की पुलिस एनकाउंटर में मौत के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की जांच कमेटी का कार्यकाल कई बार बढ़ाया जा चुका है. इस पृष्ठभूमि में पैगासस जांच कमेटी से सार्थक निष्कर्ष की उम्मीद कैसे की जा सकती है? अन्य देशों में भी जारी है जांच उल्लेखनीय है कि पैगासस और दूसरे जासूसी सौफ्टवेयर से जुड़ी जांचें मैक्सिको, फ्रांस और खुद इजराइल में भी चल रही हैं, लेकिन वहां भी अब तक इन जांचों का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है. दरअसल जासूसी सौफ्टवेयर की जांच बेहद जटिल है. इस में जांचकर्ताओं को यह साबित करना होगा कि सरकार की एजेंसी ने सौफ्टवेयर खरीदा और उस का आम नागरिकों के खिलाफ गैरजरूरी इस्तेमाल किया गया. इस में कई चुनौतियां हैं. मैक्सिको में मामला ठप्प 2016 में सब से पहले मैक्सिको में पैगासस की जांच शुरू हुई थी.

वहां इस पर करीब 16 करोड़ डालर की राशि अब तक खर्च हो चुकी है, लेकिन यह साफ नहीं हो सका है कि देश में किस पैमाने पर जासूसी हुई और कुल कितना पैसा इस पर खर्च हुआ. जांच के 4 साल बाद भी न तो कोई गिरफ्तारी हुई है और न ही किसी को पद गंवाना पड़ा है. इस को ले कर मैक्सिको को जांच में इजराइल की तरफ से भी कोई सहयोग नहीं मिला. मैक्सिको की जांच दिशाहीन हो गई और बीते 4 सालों में कुछ हासिल नहीं कर सकी. जानकारों का कहना है कि इजराइल किसी भी जांच में सहयोग नहीं करेगा. न ही भारत में शुरू हुई जांच में और न ही किसी और देश में चल रही जांच में. इजराइल ने अपने इतिहास में सिर्फ एक बार 1980 के दशक में अमेरिका के साथ ईरान-कोंट्रा स्कैंडल की जांच में ही सहयोग किया है.

इस के अलावा वह कभी भी किसी विदेशी जांच में शामिल नहीं हुआ. फ्रांस भी फिसड्डी साबित हुआ फ्रांस में इमैनुएल मैक्रों सरकार के 5 मंत्रियों के अलावा कई पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता भी पैगासस सौफ्टवेयर के निशाने पर थे. उन के फोन में पैगासस मिलने की बात सामने आने के बाद इजराइल और फ्रांस के बीच राजनयिक संकट पैदा हो गया था. फ्रांस में इन्वैस्टिगेटिव जर्नलिज्म करने वाली संस्था मीडियापार के फाउंडर एडवी प्लेनेल और उन की सहयोगी पत्रकार लीनाग ब्रेडा के नाम भी पैगासस के निशाने पर थे. उन की शिकायत पर फ्रांस में पैगासस जासूसी की आपराधिक जांच शुरू हुई. उल्लेखनीय है कि मीडियापार ने ही भारत के साथ हुए रफाल विमान सम?ाते में कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था. फ्रांस में जांच तो शुरू हो गई, लेकिन अभी तक एजेंसियां किस हद तक पहुंची हैं,

वहां के नागरिकों को इस का कुछ पता नहीं चल रहा है. दूसरी तरफ पता चला है कि फ्रांस सरकार इजराइल के साथ कुछ गुप्त सम?ातों में उल?ा हुई है. कहा जा रहा है कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के एक शीर्ष सलाहकार ने इजराइली सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से पैगासस को ले कर गुप्त बातचीत की है. जिस के बाद फ्रांस और इजराइल के बीच एक सम?ाता हुआ है और यह तय हुआ है कि फ्रांस के मोबाइल नंबरों को इजराइल में निर्मित जासूसी सौफ्टवेयर से टारगेट नहीं किया जाएगा. हालांकि यह बात सामने आने के बाद विपक्ष वहां सरकार पर हमलावर है. विपक्ष का आरोप है कि फ्रांस के राष्ट्रपति निगरानी की समस्या के समाधान के बजाय इजराइल की सरकार से सम?ाता करने में लगे हैं. जबकि फ्रांस की जनता चाहती है कि इजराइल यह गारंटी दे कि एनएसओ सिस्टम फ्रांस के नंबरों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. लेकिन इजराइल ऐसी कोई गारंटी देने को तैयार नहीं है. सरकार के साथ हुआ उस का गुप्त सम?ाता क्या है और किस के लिए है, यह अभी तक जनता के सामने नहीं आया है.

कानून के सहारे भेदभाव

अपनी ही सरकार पर अंकुश लगाने वाले अपने ही कानूनों के सहारे अपना प्रभुत्व दूसरों पर थोपने की कला कूटनीति में कोई नई नहीं है. चीन ने अभी 62 धाराओं वाले 7 चैप्टरों के एक कानून को अपनी संसद से अनुमोदित कराया है जिस में सरकार से कहा गया है कि पीपल्स रिपब्लिक औफ चाइना अपनी सार्वभौमिकता और सीमाओं की पूरी रक्षा करेगी और सरकार को इस के लिए किसी भी तरह का कदम उठाने का अधिकार है.

यह कानून चीन की लंबी सीमाओं, जिन में भारत के लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक की सीमा भी शामिल है, पर लागू होता है. सीमा में हो रही घुसपैठ को ले कर जो बातचीत सैनिक स्तर पर हो रही है उस में चीनी सैनिक अधिकारी अब नए कानून का हवाला दे कर मुंह बंद करने की कोशिश करेंगे. अपना कानून बना कर दूसरे देश के मामले या सीमा में दखल देना सभी देश करते रहते हैं.

भारत के नागरिकता संशोधन कानून में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश था. इस में नाम ले कर कहा गया है कि वहां सताए गए अल्पसंख्यक हिंदुओं को भारत नागरिकता तुरंत प्रदान कर सकता है. इस का अर्थ यह है कि भारत इन देशों में अल्पसंख्यकों से भेदभाव किए जाने का कानून के जरिए आरोप लगा रहा है. नेपाल ने अपने संविधान में संशोधन कर के कुछ भारतीय हिस्सा नेपाल का माना है. भारत सरकार इस से बहुत नाराज है.

यह कूटनीति का हिस्सा है कि पहले एक देश दूसरे देशों का फर्क डालने वाला कानून या नीति घोषित कर दे, फिर उस का सहारा ले कर दूसरे से झगड़ा करे. एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने नीति बनाई कि अमेरिका संयुक्त राज्य अमेरिका के अलावा भौगोलिक स्तर पर दक्षिण अमेरिका में भी कहीं भी विदेशी फौजों के दखल को अमेरिका पर आक्रमण समझेगा. मानो सिद्धांत के नाम से जाने गए इस कानून का हवाला दे कर अमेरिका रूस से क्यूबा में रूस द्वारा आणविक प्रक्षेपास्त्र लगाने को ले कर किसी भी तरह का युद्ध करने को जौन कैनेडी के समय तैयार हो गया.

अपने कानून का सहारा ले कर दूसरे देश की सीमा या उस की सरकार को धमकाना ताकतवर देशों का एक पुराना हथियार बन गया है. दुनियाभर में बीसियों बड़े युद्ध इसी को ले कर हुए हैं.

कूटनीति में ही नहीं, पारिवारिक मामलों में भी इस तरह की दखलंदाजी को थोपा जाता है. मल्टीस्टोरी भवनों में रहने वाले अकसर अपनी बिल्डिंग में किसी और धर्म, जाति, भाषा के रंग के लोगों के रहने आने पर आपत्ति करने लगते हैं कि उस से उन की कौमन सर्विसेज की शुद्धता खराब होगी, निकट में उन को उन के साथ चलना होगा, वे अपने खाने की गंध सारी बिल्डिंग में फैलाएंगे.

जहां व्हाट्सऐप, फेसबुक व गूगल की टैक्नोलौजी लोगों को एकदूसरे का संपर्क करने का पूरा अवसर दे रही है वहां चीनी कानून की तरह की सोच दुनिया और समाज को विभाजित कर रही है. यह अफ़सोस की बात है कि जब कोविड के ज़माने में देशों को अपनी रियायों के विभाजन को भूल कर सब साथ रहने की कला सीखनी चाहिए, हम पुराने सिद्धांतों से चिपके हुए हैं. यही नहीं, हर देश इन विभाजनों को पूरी तरह का समर्थन दे रहा है क्योंकि इन के बहाने सरकार अपनी ही जनता को बहका कर बांट सकती है या निरर्थक दूसरे के प्रति दुश्मनी का रवैया अपनाने का बहाना ढूंढ सकती है.

टैक्नोलौजी दुनिया को एक कर रही है. लेकिन इसी को अपनी जनता पर थोप कर सरकारें कानून बनाबना कर उसे अलगथलग कर रही हैं. चीनी कानून बेहद खतरनाक है मगर हम (भारत) कौन सा कम हैं जो इस तरह के कानून बनाने में चीन पर उंगली उठा सकें.

वृत्त – भाग 2 : अनिल में अचानक परिवर्तन के क्या कारण थे

लेखिका- काव्या कटारे

मेरे बूढ़े हाथों में अब इतनी ताकत नहीं कि हर बार टूट कर खुद को फिर से समझ सकूं. वह भले ही अपने आंसू छिपा ले पर उस का पिता हूं मैं, उस की नसनस से वाकिफ हूं. इस से तो पहले ही अच्छा था मेरा बेटा, कम से कम अपने पिता से गले लग कर रो तो लिया करता था.

अब बड़ा हो गया है न वह. मैं एक पल के लिए सोच में डूब गया, यह कैसी परिस्थिति है जहां एक पिता और पुत्र अपनेअपने आंसू रोके हुए एकदूसरे के सामने खड़े हैं पर एकदूसरे को गले लगा कर रो नहीं सकते. मैं यह सब सोच ही रहा था कि तभी अनिल ने कहा, “पापा, आप यहां? कुछ चाहिए था आप को ?” मैं एकदम चौक गया, “हूं, हममम्… खाना बन गया है, आ कर खा लो.” मैं ने लड़खड़ाती जबान से कहा और वहां से चला आया. अगर थोड़ी देर और रुकता तो रो पड़ता.

आखिर कौन सा पिता अपने बेटे को अवसाद के दलदल में फंसा हुआ देख सकता है. मैं तो केवल उस तक रस्सी पहुंचा कर उसे इस दलदल से बाहर निकालने का प्रयत्न कर सकता हूं, पर बाहर निकलना उसे है. उसे उस रस्सी को पकड़ना होगा. पर शायद अब वह खुद से हार चुका है. वह उस रस्सी को पकड़ना ही नहीं चाहता. यह सोचतेसोचते मैं कब नीचे आ गया, पता ही न लगा.

मेरे कदमों की आवाज से सुमन रसोई से बाहर आ गईं. उन की उम्मीदभरी निगाहें मुझे और ज्यादा परेशान कर रही थीं. इसलिए, मैं चुपचाप अपनी झुकी हुई निगाहें ले कर खाने की मेज पर बैठ गया. एक मां अपना उदास चेहरा ले वापस रसोई में सब के पेट भरने का इंतजाम करने लगी. पर अभी भी उन की उम्मीद उन के साथ थी. वे इस उम्मीद में थीं कि कम से कम आज तो उन का बेटा अपने मनपसंद समोसों को मेज़ पर सजा देख पेट भर कर खाना खा लेगा.

पर जिस अनिल को मैं ऊपर देख कर आया था उस का खाना खाने का कोई इरादा नहीं लग रहा था. मेरे सामने एक मां थी जो अपने बेटे के लिए मेज़ पर समोसों को सजा रही थी पर उन थालियों में केवल समोसे नहीं थे, थे उस के जज्बात, उस के बूढ़े हाथों की मेहनत, उस का प्यार और शायद उस की आखिरी उम्मीद. पर मैं तो यह भी यकीन के साथ नहीं कह सकता था कि आज उस का बेटा खाना खाने आएगा भी या नहीं.

मेरी सारी उम्मीदें तो पहले ही टूट चुकी थीं पर मैं नहीं चाहता था कि एक मां की उम्मीदें टूटें क्योंकि मैं जानता हूं कि कितना दुख होता है उम्मीद टूटने पर. पर इन सब की जड़ एक शब्द है मेरे बेटे का अवसाद में जाना, मेरी पत्नी की आंखों में दुख का समाना, मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फिर जाना आदि सब एक शब्द की वजह से हैं- ‘नौकरी’.

मेरा बेटा करीब 32 साल का होने को आया है पर उस की आज तक सरकारी नौकरी नहीं लगी. पर मेरे बेटे को दुख न होता और न ही मुझे होता, अगर वह पढ़ाई न करता, अच्छे से तैयारी न करता. उस ने तो जीजान लगा दी थी. उस का कमरा ही पुस्तकालय बन चुका था और केवल नाम का ही नहीं, उस में हर एक किताब मिल जाती थी जो भी चाहिए. वह रात को 2-2, 3-3 बजे तक न सोता था. बस, पढ़ता रहता था. उस की लगन व मेहनत आज उस के किसी काम नहीं आ रही है.

यह सब उस दिन शुरू हुआ था जब उस का पीएससी का परिणाम आने वाला था. उस दिन हम सब अपने हंसतेखेलते अनिल के साथ इसी मेज पर बैठ कर उस की परीक्षा के परिणाम के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे. पूरे घर में शांति थी. अनिल ने हम से बड़े आत्मविश्वास से कहा था, ‘देखना मम्मी, देखना पापा, इस बार तो मेरा चयन हो कर ही रहेगा.’ उस समय उस की वाणी में जो जोश व उत्साह था उस ने हमें भी यकीन दिला दिया कि हां, लगातार 3 बार असफलता का मुंह देखने के बाद इस बार मेरा बेटा जरूर सफल होगा. हम ने बहुत उम्मीदें जोड़ ली थीं उस परिणाम से. परंतु जैसे ही उस के परिणाम सामने आए, मेरा बेटा बहुत उदास हो गया.

उस दिन पहली बार उस ने अवसाद के दलदल में अपना पहला कदम रखा था. वह उस रात कुछ भी न बोला. उस दिन मुझे भी बहुत बड़ा झटका लगा था. उस दिन घर में 3 लोग थे. पर मेरा घर किसी खंडर की भांति लग रहा था. सब निराश थे. पर हम में से कोई भी इस बात का जिम्मेदार अनिल को नहीं मान रहा था. पर उस दिन जातेजाते उस ने मुझ से एक बात बोली थी, ‘मुझे माफ कर दो, पापा. मैं आप के लिए कुछ भी न कर सका.’ उस के बाद हम ने अपने पहले वाले अनिल को खो दिया.

उसे लगता है कि उस ने हमारी उम्मीद तोड़ी है, वह हमारे लिए कुछ नहीं कर सका. पर मैं उसे कैसे बताऊं कि… एक बार फिर जब मैं ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्दों को तलाशा तो मैं ने अपना शब्दकोश खाली पाया. मैं अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकता. इतना कहूंगा कि मेरा दर्द वही माली समझ सकता है जिस ने बड़े प्यार से अपने बाग को फूलों से सजाया पर उस ने अपनी आंखों से अपने फूलों को मुरझाते हुए देखा हो. पर मुझे अपनेआप पर पूरा भरोसा है कि मैं ने अपने बेटे को इतना काबिल बनाया है कि उसे जीवनयापन करने के लिए दूसरों का सहारा न लेना पड़े. मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी अनिल नीचे आ गया.

वृत्त – भाग 1 : अनिल में अचानक परिवर्तन के क्या कारण थे

लेखिका- काव्या कटारे

“अरे सुमन जी, आज तो आप ने पूरे घर को ही खुशबू की चाशनी में डूबो दिया है. हम से तो रहा न गया, इसलिए चले आए आप की जादुई दुनिया में. वैसे, अब बता भी दीजिए कि हम्म… तो अपने लाल की ख्वाहिश पूरी की जा रही है, समोसे बनाए जा रहे हैं. वही तो हम कहें कि इतनी सुगंध किस पकवान की है जिस ने हमारी नाक को अपने जाल में फंसा लिया है.”

“अच्छाअच्छा, ठीक है, बहुत मस्का लगा लिया. मैं जानती हूं यह सब आप मुझे खुश करने के लिए कह रहे हैं. वैसे भी, इन बूढ़े हाथों में अब वह बात नहीं जो सालों पहले हुआ करती थी, वरना जिस खुशबू ने दूसरे कमरे में जा कर आप की नाक को बंदी बना लिया है वह मेरे करीब तक न आई. अब तो इन हाथों में बस इतनी ही जान बची है कि वे मैदा को बेल कर, उस में आलू डाल कर तेल में तल सकें, स्वाद मिलाने का काम तो बहुत पहले ही बंद हो गया.”

मेरी पत्नी ने मेरी बातों का जवाब देते हुए उपरोक्त बात कही. उन की बातों में ऐसी मासूमियत थी कि मैं उन जवाब दिए बिना रह न पाया, “देखिए मिसेज सुमन चतुर्वेदी, आप को मेरी पत्नी की बुराई करने का कोई हक नहीं है. बेहतर यह होगा कि आप मेरे और मेरी पत्नी के बीच में न आएं. मैं ने अपनी पत्नी की बुराई करने का हक जब खुद को नहीं दिया तो आप को कैसे दे दूं.”

मेरी बात सुन वे फूलों की तरह खिलखिला उठीं और मुसकराते हुए कहा, “वैसे मिस्टर चतुर्वेदी, आप की जानकारी के लिए बता दूं कि मिसेज चतुर्वेदी आप की पत्नी है और मैं ही मिसेज चतुर्वेदी हूं.” यह कह कर वे और जोरजोर से हंसने लगीं.

आज बहुत दिनों बाद मैं ने अपनी पत्नी को इतना खुश देखा था. और तभी मैं ने कहा, “वैसे, आप को एक बात बता दूं, आप के हाथ भले ही समय के साथ बूढ़े हो गए हों पर आप के हाथों का स्वाद और भी जवान हो गया है.” मेरा इतना कहते ही वे शरमा गईं और दूसरी ओर मुंह फेर लिया. तभी मुझे खुराफात सूझी और मैं ने व्यंग्य करते हुए कहा, “वैसे, झुर्रियों वाले चेहरे को मैं ने पहली बार शरमाते हुए देखा है.”

मेरे यह कहते ही वे गुस्से में मेरी और मुड़ीं, “यह सही नहीं है चतुर्वेदी जी, पहले अंतरिक्ष की सैर करा दो, फिर जमीन पर धम्म से गिरा दो.””और जो आप अपने मुंह से अपनी झूठी बुराई कर के मेरे मुंह से अपनी तारीफ करवाती हो, वह सही है?” मैं ने उन्हें शक की निगाहों से देखते हुए कहा. वे मंदमंद मुसकाने लगीं. तभी मैं ने उन से शिकायत करते हुए कहा, “भई, यह बढ़िया है, बेटे को बना दो राजा, दिनरात उस की सेवा करो. और तो और, साहबजादे के लिए समोसे भी बनाए जा रहे हैं. हम पर तो कोई ध्यान ही नहीं देता. हम इतने दिनों से महरी बनाने को कह रहे हैं पर वह नहीं बनाई गई. बेटे ने जो एक बार समोसे बनाने को कह दिया, तो वह तो उसी दिन बनाए जाएंगे.”

“अरे, नहींनहीं, उस ने बनाने को नहीं बोला. वह तो मेरा मन हुआ, तो उस के लिए बना दिए,” पत्नी जी ने ने कहा.”तो यह तो और भी शिकायत करने की बात है. यहां हम बोलबोल कर थक गए और उसे बिना बोले ही समोसे मिल गए. वाह… वैसे, यह बताने की कृपा करेंगी कि उस की इतनी देखभाल क्यों की जा रही है.” मेरे ये शब्द उन के दिल में तीर की भांति चुभ गए और उन्होंने आंसूभरी आंखों से मुझे देखा. उन की आंख में दर्द साफ झलक रहा था. मैं सब समझ गया और मैं ने नजरें झुका लीं.

उन्होंने कहा, “वे अनिल को खाने के लिए बुलाने जा रही और वहां से जाने लगीं, तभी मैं ने उन्हें रोका और कहा, “मैं अनिल को खाने के लिए बुलाने जा रहा हूं.”मैं जैसे ही जीने चढ़ने के लिए मुड़ा, उन्होंने अपनी साड़ी से आंसू पोंछ लिए. मैं आहिस्ताआहिस्ता अपने कमजोर पैरों से जीने चढ़ने लगा. मुझे डर लग रहा था पर इस बात का नहीं कि मेरे पैर मेरा वजन न सह पाएंगे और मैं गिर पडूंगा बल्कि इस बात से जरूर डरा हुआ था कि मैं अपने बेटे के उदास चेहरे का सामना कैसे करूंगा. अपने हंसतेखेलते अनिल को यों गुमसुम पड़ा कैसे देखूंगा. यह सब सोचसोच कर मेरा दिल बैठा जा रहा था. फिर भी मैं साहस जुटा कर जीने चढ़ने लगा. जैसे ही मैं ऊपर पहुंचा, मैं ने अपने आंसू पोंछ लिए और उस के कमरे की ओर बढ़ने लगा. उस के कमरे के नजदीक पहुंचा, तो मेरा दिल एक बार फिर उदास हो गया.

कमरे से रोशनी की एक किरण तक नहीं आ रही थी. उन चारदीवारों में कुछ भी देखना बहुत मुश्किल प्रतीत हो रहा था. इसलिए जैसे ही मैं अंदर पहुंचा, मैं ने कमरे की लाइट जला दी. मुझे देख वह चौंक गया. वह जल्दी से उठा और अपनी आंखों पर ताले लगाने लगा ताकि उस का एक भी आंसू मेरे सामने न निकल पड़े. मैं एक बार फिर से टूट गया.

असफलता को स्वीकारें, सफलता शीघ्र मिलेगी

लेखक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने बारबार असफल होने के बावजूद सफलता को हासिल किया है और पूरी दुनिया के लिए मिसाल बने हैं. आइए जानते हैं ऐसा क्या खास उन्होंने खुद में बदलाव किया. जै?क मा दुनिया के सब से अमीर व्यक्तियों में से एक हैं. अलीबाबा कंपनी इन्हीं के नाम से जानी जाती है. पहलेपहल उन्हें लगता था कि बिल गेट्स और स्टीव जोब्स ने सभी अवसर खत्म कर दिए हैं. अब वे कुछ नहीं कर सकते. इस स्थिति को उन्होंने जल्दी स्वीकार कर लिया. यह मानसिक असफलता का प्रथम दौर था. तभी उन के दिमाग में दूसरी बिजली कौंधी. अवसर कभी खत्म नहीं होते हैं.

यदि ऐसा होता तो दुनिया में आविष्कार और खोज कब की रुक गई होती. बस, यह स्वीकार करते ही उन के दिमाग में अवसर खोजने की चुनौती आ गई. आज वे दुनिया के सब से सफलतम व अमीर व्यक्तियों में से एक हैं. चुनौतियों को स्वीकार कीजिए :चुनौतियां स्वीकार करते ही दिमाग काम करने लगता है. इस से हमारे अंदर एक चिंतनमनन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. यही चिंतनमनन की प्रक्रिया हमें चुनौती का समाधान खोजने में मदद करती है. इसी मदद के द्वारा हम में चुनौतियों का सामना करने का हौसला पैदा होता है. इसी की वजह से हम बाधाओं से लड़ने व उन्हें पार पाने में सक्षम होते हैं. सफलता के लिए सहयोग स्वीकार करें : हमेशा आप का ज्ञान काम नहीं आता है. आप का विचार सफलता का एक नक्शा होता है. उस नक्शे पर सफलता का भवन खड़ा होता है.

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इस के लिए सहयोगरूपी कच्ची सामग्री की आवश्यकता होती है. तभी सफलतारूपी भवन खड़ा होता है. टेस्ला की सफलता उस के मालिक के विचार पर फलीभूत हुई है. मगर उस विचार को सफलतारूपी भवन खड़ा करने में हजारों सहयोगियों की मेहनत व धैर्यरूपी वैचारिक सामग्री लगी हुई है. जिन के सहयोग के बिना यह सफलता हरगिज नहीं मिलती. असफलता को स्वीकार करना सीखिए : हर असफलता हमें कोई न कोई नई बात सिखा कर जाती है. यह नई बात उस गलती को दोबारा न दोहराने की प्रेरणा देती है. जो असफलता को स्वीकार कर लेते हैं वे उस से सीख ले लेते हैं. भविष्य में उसे दोहराने से बचते हैं. तभी सफलतारूपी लक्ष्य उन के हाथ लगता है. बल्ब के आविष्कारक थामस अल्वा एडिसन ने 9999 बार असफलता का स्वाद चखा था. तभी वे बल्ब का आविष्कार करने में सफल हुए. असफलता स्वीकार करने से नए विकल्प खुल जाते हैं. इस से दुख के बजाय खुशी का एहसास ज्यादा होता है. मैं ने कोई तो नई चीज सीखी है. यह एहसास आनंद भरता है. तभी उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नई ऊर्जा, नई प्रेरणा और नई राह सुझाई देती है.

हमेशा नया सोचने को तैयार रहें : यह तभी संभव होगा जब आप हमेशा कल के लिए तैयार रहें. कल क्या नया किया जाना है, इस पर चिंतनमनन व दिशानिर्देश कर के दिमाग में बैठा लें. उसी के लिए तैयार रहें. आप कल क्या नया करेंगे, जो आप के जीवन में बदलाव लाएगा. वह विचार स्वयं अपने, अपने परिवार के लिए और समाज के लिए लाभदायक होगा. यह सोचते रहें. तभी आप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पाएंगे. आज की हर असफलता कल की सफलता की गारंटी होती है. इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए. कई आविष्कारक अपने सफल आविष्कार के पहले अधिक बार असफल हुए हैं. उन्होंने कई बार असफल प्रयास किए हैं. तभी वे सफल आविष्कार करने में सफल हुए हैं. राइट बंधु अपने आरंभिक असफलता से निराश हो जाते तो आज हम हवाई जहाज में उड़ान नहीं भर रहे होते.

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चुनौतियों में अवसर खोजते रहें : यदि जीवन में सफल होना है तो इस मंत्र को अपनाना होगा. आप को जिस चीज या चुनौती से डर लगता है, उसे स्वीकार करें. उस का सामना करने को तैयार रहें. उस से कैसे निबटें, इस पर विचार करें. फिर देखें, आप को चुनौतियां आकर्षित करना शुरू कर देंगी. यह आकर्षण आप को चुनौती से पार पहुंचाने का जज्बा पैदा करेगा. तब वह दिन दूर नहीं होगा जब आप उस चुनौती पर विजय प्राप्त कर लेंगे. इतिहास में ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं जिन्होंने चुनौतियों का सामना कर के सफलता पाई है. यदि वे चुनौतियों से भागने लगते तो वे सफलता की सीढि़यां चढ़ न पाते. मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम बहुत गरीब घर में पैदा हुए थे. वे अपना खर्चा चलाने के लिए अखबार बेचते थे. मगर उन के सामने आकाश में उड़ते पंछी सब से बड़ी चुनौती थे.

वे उसी के सपने देखते थे. उसी सपने को साकार करने के लिए अकसर खोज करते रहे. उस से मिली चुनौतियों का सामना करते रहें. बस, केवल उसी पथ पर डटे रहे, तभी जा कर उन की चुनौती व उस से जुड़ा सपना साकार हुआ. उन्हीं की वजह से भारत अंतरिक्ष में सफलता के झंडे गाड़ने में सफल हुआ है. यदि आप भी सफल होना चाहते हैं तो उक्त पांचों बातों को जीवन में उतार लें. चुनौतियों को स्वीकार करें. सफलता के लिए सहयोग करें. असफलता को स्वीकार करें. हमेशा नया सोचते रहें और चुनौतियों में अवसर खोजते रहें. फिर देखिए, सफलता आप के कदम चूमती जाएगी.

वृत्त

सरकार की देन महंगाई

हवा जैसी है जो दिख नहीं रही लेकिन महसूस सभी को हो रही है. आम लोग परेशान हैं क्योंकि हर चीज के दाम बढ़ गए हैं. लेकिन महंगाई को ले कर सब की उदासीनता व सब का सम?ातावादी नजरिया हैरान कर देने वाला है. कोई भी सरकार से यह पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रहा कि वह टैक्स में मिले पैसों का क्या कर रही है. महंगाई ऐसी यातना है जो आम लोगों को उस से ज्यादा दी जा सकती है जितनी कि वे बरदाश्त कर सकते हैं. इन दिनों देश में हो यही रहा है कि लोग बढ़ती महंगाई बरदाश्त करते जैसेतैसे गुजर कर रहे हैं लेकिन इस की आंच बड़े पैमाने पर अंदर ही अंदर सुलग रही है जिस के विस्फोट में तबदील होने से रोकने के लिए केंद्र सरकार ने दीवाली के ठीक पहले पैट्रोल और डीजल के दाम कुछ कम कर दिए थे. यह हमदर्दी या दरियादिली ठीक वैसी ही थी जैसे 20 कोड़ों की सजा 19 कोड़ों में बदल दी गई हो.

एक कोड़ा कम खाने से 19 कोड़ों की मार का दर्द कम हो जाएगा, ऐसा सोचने की कोई वजह नहीं. महंगाई की कोई तयशुदा परिभाषा नहीं होती. आम लोगों के लिए तो रोजमर्रा की चीजों के बढ़ते दाम और खुद की घटती क्रय क्षमता ही महंगाई होती है. इस तबके को अर्थशास्त्र के भारीभरकम शब्दों, आंकड़ों और सिद्धांतों से कोई सरोकार नहीं होता. 140 करोड़ की आबादी वाले देश में 132 करोड़ लोग ऐसे हैं जो बढ़ते दामों तले कराह रहे हैं. यह जमीन से जुड़ा वह तबका है जो रहता भी जमीन पर ही है. बाकी 8 करोड़ इस की पीठ पर सवार हैं ठीक पिरामिड की तरह जिस के निचले हिस्से में सब से ज्यादा जगह होती है जो ऊपर जाते संकरी होती जाती है. पिरामिड की सब से बड़ी खासीयत यही होती है कि इस के भार का ज्यादातर हिस्सा जमीन के आसपास ही होता है. इसी तर्ज पर 8 करोड़ लोगों को इस जमीनी यातना का एहसास ही नहीं है जिन में से आधे यानी 4 करोड़ के लगभग सरकारी कर्मचारी हैं जिन्हें बिना नागा महंगाई भत्ता और इन्क्रीमैंट वगैरह मिलते रहते हैं और बाकी आधे बड़ी प्राइवेट कंपनियों के ऊंचे पदों पर विराजमान हैं.

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पिरामिड के ऊपरी और संकरे हिस्से यानी 132 करोड़ लोगों की पीठ पर बैठे इन लोगों के लिए महंगाई एक दिलचस्प विषय बहस के लिए है जिस का कोई आदिअंत नहीं. ये वे लोग हैं जो यह पूछने पर कि महंगाई का आम लोगों पर क्या और कैसा फर्क पड़ता है के जबाब में बढ़ती महंगाई की वजहें गिनाना शुरू कर देते हैं. महंगाई के असर से बेअसर इन लोगों, जिन्हें भक्त कहना ज्यादा बेहतर होगा, को अक्ल का अजीर्ण इतना है कि ये महंगाई को एक सतत, शाश्वत और जरूरी प्रक्रिया मानते हैं. इन की नजर में यही विकास है. बकौल इन के, एक अगुवा केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान कहते हैं, ‘‘खर्च बढ़ा है, इसलिए महंगाई बढ़ी है.’’ ये मंत्रीजी कई बार साफतौर पर कह चुके हैं कि पैट्रोल और डीजल के बढ़ते दामों से हुई आमदनी से करोड़ों लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाई गई है. इस पर बात नहीं बनी तो वे बोले कि, दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ईंधन के दाम बढ़े हैं. फिर बोले कि कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ने से तेल के दाम बढ़े हैं, सरकार एक साल में टीकाकरण पर 3.5 लाख करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है.

बयान बदलने में माहिर इन मंत्रीजी ने इसी साल जून में अहमदाबाद में माना था कि सरकार के खर्च बढ़ रहे हैं, इसलिए महंगाई बढ़ रही है. शुक्र तो इस बात का है कि उन्होंने अभी तक यह नहीं कहा कि महंगाई बढ़ ही नहीं रही है, यह तो सरकार के खिलाफ देशद्रोहियों का दुष्प्रचार है. अलबत्ता उन की मंशा का खुलासा करते मध्य प्रदेश के एक मंत्री महेंद्र सिसिदिया ने यह इशारा जरूर किया कि लोगों को थोड़ीबहुत महंगाई स्वीकार करनी चाहिए. देश की जनता को मुफ्त टीका लगा तो जनता का पैसा उस के ही काम आया. महंगाई, ईंधन और वैक्सीन महंगाई को ले कर सरकार और उस के नुमाइंदे कितने गड़बड़ाए और लड़खड़ाए हुए हैं, यह उन के ऊलजलूल बयानों से जाहिर होता रहा है लेकिन सरकार ने पहले यह कभी नहीं कहा था कि वह मुफ्त वैक्सीन की कीमत पैट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा कर वसूलेगी.

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और अब वसूल रही है तो फिर वैक्सीन मुफ्त कहां रह गई. इस धूर्तता को सम?ाने के पहले एक छोटी सी अहम बात बहुत संक्षेप में यह सम?ाना जरूरी है कि पूरी दुनिया में ईंधन पर सब से ज्यादा टैक्स, 69 फीसदी, भारत में वसूला जाता है. सब से अमीर देश अमेरिका में यह टैक्स महज 19 फीसदी है. यह टैक्स राज्यों के मुताबिक कमज्यादा होता रहता है लेकिन इस की मार आम लोगों पर पड़ती ही है. अगर आप 100 रुपए का पैट्रोल खरीदते हैं तो उस में से 33 रुपए केंद्र सरकार को और औसतन 23 रुपए राज्य सरकार को बतौर टैक्स दे रहे होते हैं. इस तरह 56 रुपए सरकारें ले लेती हैं जबकि पैट्रोल की वास्तविक कीमत 40 रुपए प्रतिलिटर होती है. बाकी 4 रुपए डीलर के पास जाते हैं.

यहां यह दिलचस्प बात भी सम?ानी जरूरी है कि मनमोहन सरकार के आखिरी वक्त में पैट्रोल 71.41 रुपए प्रतिलिटर था जिस में केंद्र सरकार महज 16 फीसदी टैक्स ले रही थी. राज्य सरकारों का औसत टैक्स 18 फीसदी था और डीलर्स का कमीशन 3 फीसदी था. यानी तब पैट्रोल की असल कीमत का 63 फीसदी आम लोग अदा कर रहे थे. मार्च 2021 में खुद पैट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में स्वीकार किया था कि डीजल और पैट्रोल पर टैक्स कलैक्शन 459 फीसदी तक बढ़ा है. जाहिर सी बात है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में महंगाई अनापशनाप बढ़ी है. इस का एक बेहतर उदाहरण गैस सिलैंडर है जिस की कीमत अक्तूबर 2021 में 900 रुपए थी जबकि मार्च 2014 में यही सिलैंडर 410 रुपए में मिल रहा था. सरकार ने मई 2020 में गैस सिलैंडर पर सब्सिडी खत्म कर दी थी.

अब चुनिंदा तथाकथित लोग यह कहें और इफरात से प्रचार भी करें कि पैट्रोल के बढ़ते दामों से महंगाई बढ़ रही है तो उन की अक्ल पर तरस ही खाया जा सकता है क्योंकि वे यह बात छिपाते हैं कि दरअसल, सरकार अपने खर्चों और धार्मिक समारोहों के लिए टैक्स बेतहाशा बढ़ाती जा रही है, इसलिए महंगाई बढ़ रही है. महंगाई के होहल्ले में आम आदमी भी यह स्वीकारने लगा है कि ईंधन के बढ़ते दामों से ट्रांसपोर्ट महंगा हुआ है, इसलिए हर चीज के भाव बढ़े हैं. इन लोगों को यह सम?ाने वाला कोई नहीं कि दाम नहीं, टैक्स बढ़ा है, इसलिए पैट्रोल, डीजल में आग लगी है जिस के चलते महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है और इस की जिम्मेदार और कुसूरवार सिर्फ और सिर्फ सरकार ही है.

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अगर सरकार इनकम टैक्स बढ़ाती तो पिरामिड के दूसरेतीसरे माले और टौप फ्लोर पर बैठे कुलीन लोग तिलमिला जाते क्योंकि टीकाकरण का तथाकथित सारा भार उन के कंधों पर ही आता. उन्हें बचाने के वास्ते सरकार ने पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस चुने जिन्हें सभी लोग इसे रोज इस्तेमाल करते हैं. सो, इस का सीधा भार नीचे पड़े कम आमदनी और आमदनी न बढ़ने वाले लोगों पर ज्यादा पड़ा जिन की खाली जेब भी सरकार चूहे की तरह कुतर रही है. तेल के इस खेल का खुलासा करते हुए भोपाल पैट्रोल पंप एसोसिएशन के अध्यक्ष अजय सिंह बताते हैं कि अगर टैक्स 2014 के स्तर पर रहते तो आज एक लिटर पैट्रोल की कीमत 66 रुपए होती.

एक मिडिल क्लास फैमिली एक महीने में 30 लिटर पैट्रोल का इस्तेमाल करती है जिस की कीमत 3 हजार रुपए होती है. 4 सदस्यों के परिवार को 250 रुपए प्रति सदस्य के हिसाब से वैक्सीन मुहैया कराई जाती तो उस का खर्च एक हजार रुपए बैठता. ऐसे में सरकार अगर यह पूछती कि आप कौन सा प्लान पसंद करेंगे- अनिश्चितकाल तक 3 हजार रुपए महीने वाला या वनटाइम एक हजार रुपए वाला- तो तय है लोग दूसरा विकल्प ही चुनते, क्योंकि सालभर में वे 360 लिटर पैट्रोल इस्तेमाल करते और इस से उन्हें भारी बचत होती. इस से दूसरा फायदा यह होता कि आटा, दाल जैसे रोजमर्राई आइटम न महंगे होते, न खाने का तेल 200 रुपए किलो तक पहुंचता, न सब्जियां महंगी होतीं और न मसाले रुलाते. कोरोना के कहर के चलते स्वास्थ्य सेवाएं, इलाज और दवाइयां भी जेब की सेहत बिगाड़ रही हैं.

जिस वैक्सीन की आड़ सरकार ले रही है उस की बहुत बड़ी कीमत लोग चुका रहे हैं और मुमकिन है कुछ दिनों बाद वे यह कहते नजर आएं कि महंगाई से तिलतिल कर मरने से तो बेहतर है कि हम कोरोना से ही मर जाते. 132 करोड़ की भीड़ भी यही कहती कि आप तो 250 रुपए ले कर टीका लगा दो क्योंकि अब तो हमें रोज 250 रुपए देने पड़ रहे हैं. ग्वालियर से भोपाल रोजगार की तलाश में आई कमला बाई और उस का पति रोज जैसेतैसे 600 रुपए कमा लेते हैं. 4 सदस्यों वाले इस परिवार का दैनिक खर्च, जो दो वक्त की रोटी में सिमट गया है, कमाई के बराबर ही है. दिक्कत उस वक्त खड़ी होती है जिस दिन पति को काम नहीं मिलता या घर में कोई बीमार पड़ जाता है. ऐसे में या तो उधार लेना पड़ता है जो आमतौर पर आसानी से नहीं मिलता और अगर मिल भी जाए तो चुकाने में पसीने छूट जाते हैं.

औरतों पर पड़ती है मार कमला भोपाल के शिवाजी नगर इलाके में जिन बेला मुखर्जी के यहां ?ाड़ूपोंछे का काम करती है उन के पति की आमदनी 60 हजार रुपए महीना है. बेला हिसाब लगाते हुए बताती हैं कि अब घर खर्च चलाने में परेशानी होने लगी है. 4 महीने में खर्च 25 फीसदी बढ़ा है. यह कहानी हर घर की है लेकिन मध्यवर्गीयों की हालत अभी ऐसी नहीं हुई है कि उन्हें यहांवहां से पैसों का इंतजाम करना पड़े. हालांकि यह वर्ग भी अब महंगाई से त्रस्त हो चला है लेकिन अभी खामोश है. बेला कहती हैं, ‘‘अब रसोई गैस के 300 रुपए ज्यादा देने पड़ रहे हैं और किचन के खर्चे में बढ़ोतरी हुई है. पहले किराने का जो सामान 4 हजार रुपए में आ जाता था वह अब 5 हजार रुपए में आ रहा है, इसलिए बचत खत्म हो गई है.’’ खत्म होती इस बचत को आंकड़ों में देखें तो डेली नीड्स और कौस्मैटिक के आइटम्स में सिर्फ एक महीने में 8 फीसदी, फर्नीचर पर 6 फीसदी, मनोरंजन के साधनों, मसलन डिश टीवी, केबल और डिश एंटीना आदि पर 7 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.

खाने के तेल में कोई 35 फीसदी की बढ़ोतरी तो पैट्रोल की तरह चर्चा और बहस का विषय है ही जिस में एक महीने में ही 25 फीसदी बढ़ोतरी हुई. दालें 10 फीसदी तक महंगी हुई हैं. इन बढ़ते दामों का खमियाजा महिलाओं को ज्यादा भुगतना पड़ता है जो घर खर्च मैनेज करती हैं. उन्हें सू?ा नहीं रहा है कि कटौती कहांकहां करें क्योंकि हर चीज तो जरूरत की है. भोपाल के हमीदिया कालेज की अर्थशास्त्र की प्रोफैसर दीप्ति बिस्वास की मानें तो हर गृहिणी रोज महंगाई की यातना भुगत रही है. हैरानी तो इस बात की है कि मौजूदा महंगाई अर्थशास्त्र के इस सामान्य प्रचलित नियम को भी नकार रही है कि जब बाजार में मांग होती है तब महंगाई बढ़ती है.

अब तो मांग न बढ़ने के बाद भी कीमतें बढ़ रही हैं. ऐसे में यह साफ है कि सिस्टम यानी सरकारी व्यवस्था में कहीं खामी है. दरअसल, खोट सरकार की नीयत में है जो हर कभी महंगाई दर कम होने की बात करती है लेकिन हकीकत में महंगाई दर कम होने का यह मतलब कतई नहीं होता कि वस्तुओं के दाम कम हो रहे हैं. लोगों को गफलत में डालने का यह टोटका ज्यादा वक्त तक कारगर होगा, ऐसा लग नहीं रहा. क्या दिखता है क्या नहीं दिखता इतनी महंगाई अगर है तो उस का असर इतना क्यों नहीं हो रहा कि लोग सड़कों पर आ कर विरोध करें. इस सवाल का जवाब पिरामिड की ज्यामितीय संरचना में ही कहीं छिपा है. बेला मुखर्जी अभी और बरदाश्त कर सकती हैं,

इसलिए खामोश हैं और कमला को नहीं मालूम कि विरोध कैसे व कहां दर्ज कराना है और उस से भी अहम बात यह कि विरोध से हासिल क्या होगा और उस की सुनेगा कौन. रोजरोज कुआं खोद कर प्यास बु?ाने वाले इस तबके में विरोध करने लायक हिम्मत ही नहीं बची है. दीवाली पर बाजार गुलजार रहे थे और आंकड़ों के जरिए मीडिया ने बढ़चढ़ कर बताया था कि इतने खरब का कारोबार हुआ. लोगों ने खूब सोना खरीदा, इफरात से वाहन और इलैक्ट्रौनिक्स के आइटम बिके, हर शहर में मकानों में हुई रजिस्ट्रियों की तादाद गिनाई गई. लेकिन यह सच का 10वां हिस्सा भी नहीं है. यह पैसा केवल संकरे हिस्से में बैठे 8 करोड़ लोगों ने खर्च किया, बाकी 132 करोड़ ने तो औसतन 400-500 रुपए की ही खरीदारी की. बाजारों में भीड़ इन्हीं लोगों की रही लेकिन हमेशा की तरह दिखे वे लोग जो आलीशान शोरूमों में बैठे अपनी सफेद और काली लक्ष्मी का विनिमय कर रहे थे.

वे दरअसल, कुछ खरीद नहीं रहे थे बल्कि अधिकतर लोग कहीं न कहीं अपना पैसा निवेश कर रहे थे. बकौल दीप्ति बिस्वास, कोरोना के चलते लोग पिछले साल दीवाली पर खरीदारी नहीं कर पाए थे. इस साल उन लोगों, जिन के पास पैसा था, ने डबल खरीदारी की. लगभग यही तर्क हर कभी दिया जाता है कि महंगाई है कहां, कारें खूब बिक रही हैं. लोग, जाहिर है उन में महंगा पैट्रोल भी भरवा रहे हैं, होटलों में खाना खा रहे हैं, सैरसपाटा कर रहे हैं, सिनेमा देख रहे हैं और मौल्स में भीड़ है. बात सच है कि इन्हीं लोगों के लिए महंगाई नहीं है जो दिखते और दिखाए जाते हैं. असल महंगाई तो वे लोग भुगत रहे हैं जो पलायन कर रोजीरोटी के लिए एक से दूसरे राज्य में भाग रहे हैं.

इन्हीं मेहनती और जमीनी लोगों से फैक्ट्रियांकारखाने सहित कंपनियां चल रही हैं. ये वे लोग हैं जो ‘न भूतों न भविष्यति’ के दर्शन वाली जिंदगी जानेअनजाने में जी रहे हैं. शहरों की भीड़ बढ़ाते और उन्हें आबाद करने वाले ये लोग किसी को नजर नहीं आते क्योंकि ये पैदा ही भार ढोने को हुए हैं. अब इन के भिखारी होने की स्थिति को ही भक्तगण गरीबी मानें तो इसे धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह नहीं तो और क्या माना जाए? जरूरी चीजों के भाव बढ़ने पर ये लोग सरकार को नहीं, बल्कि दुकानदार को कोसते हैं. अगर नमक 5 रुपए प्रतिकिलो भी बढ़ता है तो यह वर्ग इस का जिम्मेदार बेचने वाले को ठहरा कर अपनी भड़ास निकाल लेता है. बेचने वाला लाला या बनिया इन की निगाह में हमेशा से ही बदमाश और लुटेरा रहा है. लेकिन मौल्स में ऐसा कुछ नहीं होता, वहां के ग्राहक बिल के टोटल पर एक सरसरी निगाह डालते हैं और फिर जेब से क्रैडिट या डैबिट कार्ड निकाल कर भुगतान कर चलते बनते हैं.

एक और वर्ग जो पिरामिड के टौप फ्लोर पर बैठा है उस के लिए महंगाई उत्सुकता और जिज्ञासा का विषय ही हो सकती है. यह रईसों का वह वर्ग है जो सितारा होटलों में 600 रुपए की पावभाजी और इतने के ही डोसाइडली खाता है. इन होटलों में एक रोटी की कीमत ही 100 रुपए होती है. इतने में तो गरीब का पूरा घर एक वक्त का खाना खा लेता है. शहर के ढाबों पर रोटी 5 रुपए में मिलती है और पावभाजी 30 रुपए में जिन्हें खाने व खरीदने में आम लोगों को सौ बार सोचना पड़ता है. भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर के होटलों के आसपास तो सैकड़ों लोग इन्हें खरीदते भी नहीं, बल्कि होटल बंद होने के बाद बीन कर खाते हैं. महंगाई की मार से ब्रैंडेड मंदिर भी अछूते रहते हैं जिन में हर साल अरबों का चढ़ावा आता है. तिरुपति, शिर्डी और वैष्णो देवी जैसे मंदिरों में इफरात से आती दक्षिणा का सच बताता है कि हम एक अमीर देश में रहते हैं जहां गरीबी पिछले और इस जन्म के पापों का फल है.

अब महंगाई गरीबों की तादाद और बढ़ा रही है तो इस के लिए सरकार और उस की नीतियों को दोष देना फुजूल की बात है. इसे एक दैवीय व्यवस्था मान लेने में ही सब की भलाई है. हकीकत में देश अंबानी-अडानी और रामदेव बाबा जैसे कोई 2 दर्जन अर्थदेवता चला रहे हैं जिन के कहने पर आर्थिक नीतियां बनती और बिगड़ती हैं. ये पूंजीपति अब कोई उत्पादक या रचनात्मक काम नहीं करते. ये सिर्फ अपनी पूंजी बढ़ा रहे हैं. जाहिर है इस के लिए कुछ त्याग तो न केवल आम लोगों को बल्कि मध्यवर्गीयों को भी करना पड़ेगा, नहीं तो 40-45 लाख रुपए की घड़ी और 15 लाख रुपए का सूट कौन पहनेगा? एक लाख का पेन कौन अपने कोट के ऊपर की जेब में खोंसेगा? महंगाई से त्रस्त लोगों को इन और ऐसी दर्जनों बातों से कोई मतलब नहीं होना चाहिए जिन में धन का प्रदर्शन कर बताया जाता है कि महंगाई एक मिथ्या धारणा व परिकल्पना भर है.

जाहिर सी बात है अगर आप महंगाई को ले कर गंभीर हैं तो पहले आप को साबित करना पड़ेगा कि वाकई में महंगाई है और यह साबित करने का अर्थशास्त्रीय पैमाना है मुद्रा स्फीति जो धर्मग्रंथों के संस्कृत के न सम?ा आने वाले श्लोकों और मंत्रों सरीखी होती है जिसे चंद पंडित ही बांच पाते हैं और उसे सरल भाषा में अपनी सहूलियत व सरकार की मरजी के मुताबिक आम लोगों को परोस देते हैं. इस की ताजी व्याख्या 12 अक्तूबर को यह आई थी कि महंगाई दर यानी इन्फ्लेशन रेट जो पहले 6.3 फीसदी था, वह सितंबर में 4.35 फीसदी हो चुका था जो यह साबित करने को पर्याप्त है कि महंगाई बढ़ नहीं रही, बल्कि घट रही है. अब यहां यह पूछने वाले कम ही हैं और जो पूछ सकते हैं,

वे खामोश ही रहते हैं कि महंगाई दर में मध्यवर्गीयों के एक बड़े हिस्से के खर्चों को शामिल क्यों नहीं किया जाता और अगर रिटेल महंगाई घट रही है तो वह दुकानों में नजर क्यों नहीं आती? महंगाई को ले कर भ्रम फैलाने वाले ये लोग खुद भी इस से त्रस्त हैं लेकिन इन्हें लग रहा है कि एक नई आर्थिक वर्णव्यवस्था आकार ले रही है जो उन्हें तो गरीब नहीं करेगी पर गरीबों को जरूर और गरीब कर देगी जिस से उन की संघर्ष क्षमता खत्म हो जाएगी और फिर वे धीरेधीरे सुस्त पड़ कर उन के गुलाम हो जाएंगे. यह वर्ग दरअसल, खुद के पांवों पर कुल्हाड़ी मार रहा है क्योंकि मजदूरी महंगी होती जा रही है और मेहनती लोग निकम्मे होते जा रहे हैं, उन के पास सिवा मेहनत के खोने और असहयोग करने के कुछ और है ही नहीं.

सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की 12 अक्तूबर की रिपोर्ट के मुताबिक, घरेलू नौकरों की सैलरी में औसतन फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. और मचेगा बवाल अंदेशा है कि यह आंकड़ा अभी और बढ़ेगा और हर तरह के नौकर ज्यादा से ज्यादा पैसा मांगेंगे क्योंकि केंद्र सरकार ने दीवाली के ठीक बाद 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की स्कीम बंद करने का ऐलान कर दिया है. जाहिर है इस से नीचे दबे लोगों में बेचैनी, अस्वस्थता और असुरक्षा बढ़ेगी, क्योंकि मुफ्त के सरकारी अनाज को ये अपना हक सम?ाने लगे थे और इसी के भरोसे महंगाई की मार भी ?ोल रहे थे. अब ये लोग यही उम्मीद अपने मालिक या नियोक्ता से रखेंगे कि वे इन्हें ज्यादा से ज्यादा पैसे दें.

सरकार का थिंकटैंक अभी इस खतरे से अनजान है जिस की सलाह पर सरकार नीतियां और नियम बनाती है. मेहनत महंगी होगी तो एक बड़ी दिक्कत उन निठल्लों को भी होगी जो धर्म के नाम पर मुफ्त की मलाई खा रहे हैं. अब उन के हिस्से का पैसा मध्यवर्गीय घरेलू नौकरों को देने को मजबूर हो जाएंगे. यह फर्क एकदम से नहीं दिखेगा लेकिन जब महसूस होगा तब 8 करोड़ लोग फिर सरकार को कोस रहे होंगे कि उस ने मुफ्त अनाज देने की योजना बंद कर उस का भार भी हमारी पीठ पर लाद दिया है. ये लोग सरकार को अभी तक भी इस बाबत कोसते रहे थे कि मुफ्त की योजनाओं का पैसा वह हम से ही टैक्स की शक्ल में वसूल रही थी. यानी हम से पैसा ले कर उसे गरीबों में बांट कर उन्हें निकम्मा और बेगैरत बना रही थी.

लाख टके का सवाल, जिस का जवाब खुद को बुद्धिजीवी सम?ाने वाले इस वर्ग के पास भी नहीं, वह यह है कि आखिर सरकार टैक्स से जुटाए पैसे खर्च करती कहां है? अगर वह पूरा पैसा गरीबों पर खर्च करती तो अब तक न गरीब होते और न गरीबी होती. यह ठीक वैसी ही बात है कि वैक्सीन के नाम पर जो पैसा वसूला गया है उस से, भारत तो दूर की बात है, पूरी दुनिया के लोगों को 2 बार वैक्सीन लग चुकी होती. इसे आसानी से सम?ाने के लिए मान लीजिए कि आप सौ रुपए कमाते हैं और उस में से 20 रुपए सरकार को टैक्स में दे देते हैं. 80 रुपए में आप का काम और जिंदगी ठीक चल रही है और सरकार भी 20-20 रुपए इकट्ठा कर ठीकठाक चल रही है. किसी को किसी से कोई शिकायत या तकलीफ नहीं है लेकिन दिक्कत उस वक्त उठ खड़ी होती है जब सरकार आप से 5 रुपए और वसूलने लगती है.

ये 5 रुपए कहां जाते हैं और सरकार उन्हें कहां व कैसे खर्च करती है, यह जानना आप का अधिकार है, लेकिन आप या कोई और इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं करता. चुपचाप 5 रुपए दे कर तंगी की जिंदगी जीने लगता है, महंगाई को ?ांकता है और फिर डरने लगता है कि कहीं और 5 रुपए न देने पड़ जाएं, इसलिए खामोश रहो. यही खामोशी महंगाई बढ़ने की अहम वजह होती है. सरकार के पैसे खर्च करने के तौरतरीके पर हम ने देशभर के चुनिंदा पाठकों से उन की राय मांगी थी जो यहां प्रकाशित की जा रही हैं. यहां फुंकता है पैसा महंगाई की बड़ी वजह जनता के पैसों का बेजा इस्तेमाल है जिसे सरकार मनमाने ढंग से करती है. सरकार कितना पैसा कहां खर्च करती है, यह कोई नहीं जानता. लेकिन 8 में से 4 करोड़ लोग इस बात से खुश हैं कि मोदी सरकार धर्म पर दरियादिली से खर्च करती है जो धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए जरूरी भी है,

जिस के लिए सरकार आंतरिक सुरक्षा पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दे रही है और इस बाबत उस ने गृह मंत्रालय को 1 लाख 66 करोड़ 547 रुपए की भारीभरकम राशि दी है. आंतरिक सुरक्षा के नाम पर देश में हर दिन हिंदू-मुसलिम होता रहता है. कट्टरवादियों ने तो कल्पनाओं और पौराणिक किस्सेकहानियों की तर्ज पर साबित कर दिया है कि आंतरिक सुरक्षा का इकलौता खतरा मुसलमान हैं. आंदोलन कर रहे किसानों से भी देश को खतरा था और है, इसलिए हजारों जवान उन की निगरानी के लिए तैनात हैं. इन पर दोहरा खर्च हो रहा है क्योंकि सरकार ने ठान लिया है कि कुछ भी हो जाए,

किसानों की नहीं सुननी है फिर चाहे भले ही मिलिट्री भी लगानी पड़े. भले ही करोड़ों लोग भूखे सोएं और महंगाई की मार ?ोलते रहें, कट्टरवादियों को इस से कोई मतलब नहीं. 4 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ में 400 करोड़ रुपए की परियोजनाओं का शिलान्यास किया था. यह पैसा किसी और विकास के लिए नहीं, बल्कि धार्मिक विकास के लिए था, जिस से धार्मिक स्थल चमकाए जाएंगे. यही वे 5 रुपए हैं जो सरकार लोगों से वसूल रही है क्योंकि उसे हिंदू राष्ट्र का ?ांसा जिंदा रखना है, वर्णव्यवस्था कायम करवानी है और पंडेपुजारियों को मुफ्त की मलाई चटवाना है. नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ में सनातन धर्म के प्रचारक आदि शंकराचार्य की मूर्ति का अनावरण किया और बहुत देर तक मूर्ति के सामने बैठ कर आराधना करते रहे. उन्होंने शिव अभिषेक भी किया.

उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्होंने देवों के देव से यह गुहार लगाई होगी कि ‘हे शंभू, मेरी प्रजा महंगाई से त्रस्त है उसे इस से नजात दिलाओ.’ शंकराचार्य की सब से बड़ी और भव्य इस मूर्ति पर कितना खर्च हुआ, यह सरकार नहीं बता रही लेकिन इस में कोई शक नहीं कि यह सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति से कुछ सस्ती ही होगी जो 3 साल पहले गुजरात के नर्मदा जिले में लगाई गई थी. वह मूर्ति महज 3,000 करोड़ रुपए मूल्य की थी जिस के प्रचारप्रसार में भी इस के अतिरिक्त करोड़ों रुपए खर्च हुए. आदि शंकराचार्य की केदारनाथ वाली मूर्ति 2013 की तबाही में नष्ट सी हो गई थी तब नरेंद्र मोदी ने इसे दोबारा स्थापित करने का प्रण लिया था जो पूरा हो गया है लेकिन सत्ता में आते महंगाई और एक साल में बेरोजगारी दूर करने की भीष्म प्रतिज्ञा वे अभी तक पूरी नहीं कर पाए. इस पर भी हैरानी की बात यह कि भक्तों को उन से कोई गिलाशिकवा नहीं क्योंकि धार्मिक कार्यों में पैसा फूंकने की जो खुशी उन्हें होती है वह पैट्रोल के 10 रुपए लिटर होने के चमत्कार पर भी नहीं होगी गोया कि महंगाई मिथ्या है, मूर्तियां और पूजापाठ शाश्वत है जो पिछले 7 वर्षों से हो रहा है.

साल 2019 के प्रयागराज अर्धकुंभ में भी सरकार ने मुक्त हस्त से पैसा खर्च किया था. उत्तर प्रदेश सरकार ने इस सब से बड़े धार्मिक आयोजन पर कुल 4236 करोड़ रुपए खर्च किए थे. यह फंड साल 2013 में 1300 करोड़ रुपए था लेकिन धर्मप्रेमी सरकार ने इसे तिगुना कर दिया था. राममंदिर निर्माण पर भी अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं और इस दीवाली भी अयोध्या की दीवाली को ब्रैंड बनाने के लिए सरकार ने करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया. ये नजारे देख यह कहने को दिल ही नहीं करता कि देश में महंगाई है. धर्म के अलावा सरकार अपने विज्ञापनों पर भी खूब खर्च करती है. सरकारी आंकड़ों के ही मुताबिक, साल 2014 से ले कर 2019 तक सरकार ने कुल 5,200 करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च किए थे. मोदी सरकार के पहले साल में यह खर्च 989.78 करोड़ रुपए था जो 2019 तक सालदरसाल बढ़ता ही गया और अभी भी महंगाई की तरह बढ़ ही रहा है. अब हाल यह है कि सरकार अपने विज्ञापनों पर रोज औसतन 2 करोड़ रुपए फूंक रही है जिस के जरिए मोदीजी को ब्रैंड मोदी बना दिया गया है.

पिछले साल अक्तूबर तक सरकारी इश्तिहारों पर कुल 713.20 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे. इन में से इलैक्ट्रौनिक मीडिया पर 317.05 करोड़ रुपए, प्रिंट मीडिया पर 295.05 करोड़ रुपए और आउटडोर मीडिया पर 101.10 करोड़ रुपए की भारीभरकम राशि खर्च की गई. मुंबई के एक आरटीआई एक्टिविस्ट जतिन देसाई द्वारा मांगी गई जानकारी में यह खुलासा हुआ था लेकिन सरकार यह छिपा गई थी कि विदेशी मीडिया में प्रचार के लिए कितना पैसा खर्च किया गया. यह और धार्मिक कार्यों में फूंका गया करदाताओं का पैसा अगर उत्पादक या जनहित के कामों में लगाया गया होता तो महंगाई की मार उतनी न पड़ती जितनी कि पड़ रही है. बढ़ती महंगाई के नुकसानों में से एक बड़ा नुकसान यह है कि आम लोगों की जीवन गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हो रही है. लोग जिंदगी जी नहीं रहे, बल्कि जिंदगी ढो रहे हैं और भगवा गैंग भारत के विश्वगुरु बनने का दावा कर रहा है.

उसे एक बार अर्थव्यवस्था पर नजर जरूर डाल लेनी चाहिए कि 132 करोड़ लोग महंगाई के पिरामिड, जो चक्रव्यूह में तबदील होता जा रहा है, में अभिमन्यू की तरह फंसे पड़े हैं. हाल ही में देश के पूर्व आरबीआई गवर्नर व अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी औफ ला के एक कार्यक्रम को वीडियो कौन्फ्रैंस के जरिए संबोधित करते हुए कहा, ‘‘हाल के वर्षों में हमारा आत्मविश्वास थोड़ा डिगा है. आर्थिक भविष्य में हमारा विश्वास कम हो गया है. महामारी के आंकड़ों ने हमारे आत्मविश्वास को और भी कम कर दिया है, जबकि मध्यवर्ग के कई लोग गरीबी में चले गए हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘‘घरेलू शेयर बाजार तेजी से बढ़ रहा है पर यह वास्तविकता को नहीं दर्शाता कि कई भारतीय गहरे संकट में हैं.’’ जाहिर सी बात है राजन ने यह बात हवा में नहीं की है. मौजूदा समय में आमजन अजीब विडंबना से गुजर रहा है, लोगों की यह हालत मौजूदा सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का परिणाम है, जिसे भुगतने को वे मजबूर हैं.

22 नवंबर, 2013 को नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की एक सभा में मनमोहन सिंह सरकार पर हमलावर होते पूछा था कि अगर महंगाई बढ़ती गई तो गरीब क्या खाएगा. अब अपने ही इस सवाल का जवाब देने की बारी उन की है लेकिन वे जवाब देंगे नहीं, इसलिए नहीं कि इस का कोई जवाब नहीं, बल्कि इसलिए कि जवाब या किसी भी तरह का स्पष्टीकरण देना उन की शान के खिलाफ है. -भारत भूषण श्रीवास्तव के साथ रोहित इन्होंने जो कहा सरकार अपने खर्चे कम नहीं करना चाहती है. विस्टा प्रोजैक्ट से ले कर ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां मोदी सरकार फुजूलखर्ची कर रही है. जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने फुजूलखर्ची, लालबत्ती कल्चर रोकने और नेताओं को सादगी से रहने की नसीहत दी थी. धीरेधीरे यह सब खत्म हो गया. आज सरकार जनता के पैसे को मनमाने तौर पर खर्च कर रही है. अनिता मिश्रा (महिला उद्यमी) महंगाई के नाम पर सरकार तमाशा कर रही है.

एक तरफ वह ‘लोकल फौर वोकल’ की बात करती है, दूसरी तरफ विदेशी मल्टीनैशनल कंपनियों को भारत आने का न्यौता दे रही है. डिजिटल के नाम पर गांव के लोगों का पारंपरिक काम छूट गया है. अब सरकारी नौकरी मिलना और भी मुश्किल हो गया है. सरोज बाला (जम्मू) कोरोना जैसी महामारी के मद्देनजर सरकार को राजस्व के एक बड़े हिस्से को नई सुविधाओं वाले अस्पताल बनाने, नएनए रोजगार शुरू करने और बिगड़ती शिक्षा प्रणाली को सुधारने में लगाना चाहिए, लेकिन उस की तरफ से ऐसा नहीं किया जा रहा है. सरकार मूर्तियों, धार्मिक योजनाओं पर अंधाधुंध पैसा खर्च कर रही है, जो मेरी नजर में राजस्व की बरबादी है. यह कुछ ऐसा है कि घर में खाने को पैसे न हों पर पड़ोसी को दिखाने के लिए घर की सजावट कर्जे लेले कर की जाए. एस्ट्रो शैलजा (फरीदाबाद) जो धन देश की उन्नति में लगना चाहिए था, वह धार्मिक जगह, मूर्ति और हवाई जहाज खरीदने में लगाया गया. हौस्पिटल और शिक्षण संस्थानों पर धन खर्च नहीं किया गया. यह अफसोस की बात है कि अब सरकार कांवडि़यों पर हैलिकौप्टर से फूलों की वर्षा करवाने लगी है और तीर्थयात्राओं पर भी हर राज्य सरकार जनता की गाड़ी कमाई फूंक रही है. नीलेश जैन (व्यापारी, देवरी, मध्य प्रदेश) हैरानी इस बात की है कि आज देश में कुछ लोगों की बुद्धि इतनी शून्य हो गई है कि वे बढ़ती महंगाई पर भी सरकार के बचाव में कुतर्क दे रहे हैं. हालत सब की खराब है. गरीब बुरी तरह पिस रहा है. सम?ा नहीं आ रहा है कि देश में महंगाई ज्यादा बड़ी दिक्कत है या महंगाई का बचाव करने वाले लोग दिक्कतों को बढ़ावा दे रहे हैं. श्रुति गौतम (शिक्षक, दिल्ली विश्वविद्यालय) महंगाई तो निश्चितरूप से बढ़ी है. अब गैस सिलैंडर और पैट्रोल के दाम ही देख लीजिए, लगातार बढ़ रहे हैं. सरकार ने तो अपनी तरफ से उज्ज्वला योजना शुरू की थी, लेकिन जब सिलैंडर इतना महंगा है, तो न्यूनतम आय वाला व्यक्ति इसे कैसे खरीदेगा? बात अगर पैट्रोल की करें, यदि पैट्रोल के दाम बढ़ रहे हैं तो हर छोटी से छोटी चीज का दाम बढ़ना निश्चित है. हम जो टैक्स भर रहे हैं, सरकार उस का ठीक से इस्तेमाल नहीं कर रही है. इस के लिए रोड टैक्स का उदाहरण ही काफी है कि एक भी सड़क बिना गड्ढों के नहीं मिलेगी. दीप्ति गुप्ता (भोपाल) देश में महंगाई से लोग भूखों मर रहे हैं और सरकार हमारे पैसे से मजे कर रही है. सरकार राममंदिर और विस्टा प्रोजैक्ट को पूरा कर अपना नाम लिखवाने में व्यस्त है. खानपान की वस्तुओं की बढ़ी कीमतों से जनता परेशान है. पति तापस बिस्वास मार्केट जा कर 500 रुपए में थोड़ी सब्जी ही ला पाते हैं, जिस से 4 जनों का परिवार पलता है. अभी डीजल और पैट्रोल के दाम बढ़ा कर थोड़ा सा कम करना एक दिखावा है, क्योंकि जिस सामान का मूल्य एक बार बढ़ जाता है,

उस में कमी होते मैं ने नहीं देखा. काकली बिस्वास (गृहिणी, कोलकाता) जो जरूरी है, उस पर सरकार का ध्यान नहीं है. मसलन, बच्चों के लिए सही स्कूल, कालेज, सरकारी अच्छे अस्पताल आदि हैं ही नहीं. सरकार नारा लगा रही है कि विकास हो रहा है पर विकास है कहां? कोविड में लाखों लोग बिना इलाज के मर गए, चारों तरफ त्राहित्राहि मच गई. सही माने में भूखों को रोटी, पढ़ेलिखों को रोजगार और आधारभूत चीजें अगर जनता तक सरकार पहुंचा पाती है तो उसे विकास कहा जाता है. मंदिर के विरोधी नहीं, पर भूखे पेट राममंदिर किस काम का? स्वाति जैन (होममेकर, मुंबई )

शराब से कंगाली और बदहाली

शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी और दूसरी बुनियादी जरूरतों पर वाहवाही व लोकप्रियता बटोरने वाली दिल्ली की केजरीवाल सरकार शराब के मुद्दे पर लड़खड़ा क्यों रही है. हर कोई इस का जवाब यही देगा कि राजस्व के लिए, क्योंकि किसी भी राज्य को जीएसटी के बाद सब से ज्यादा आमदनी शराब की बिक्री से ही होती है जो कि राज्य और कल्याणकारी योजनाएं चलाने के लिए जरूरी भी है. यह बेहद खोखला तर्क है क्योंकि अगर शराब से ही सरकार चलनी है तो इसे और सुलभ कर देना चाहिए. इस से राज्यों की आमदनी और बढ़ेगी और विकास भी धड़ाधड़ होगा.

हकीकत में शराब धर्म के बाद आदमी की सब से बड़ी दुश्मन है, जो उसे हर तरह से खोखला और बरबाद कर देती है. लेकिन कई सर्वेक्षणों में लोकप्रियता में नंबर वन की हैसियत हासिल करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पीनेपिलाने के मसले पर जरूरत से ज्यादा दरियादिली दिखा रहे हैं. इसी साल जून में दिल्ली सरकार ने शराब की औनलाइन बिक्री और होम डिलीवरी का फैसला लिया था जिस पर अदालत में मुकदमा भी चल रहा है. भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा की ओर से दायर एक जनहित याचिका में सवाल यह नहीं उठाया गया है कि शराब की औनलाइन बिक्री से शराब को और प्रोत्साहन मिलेगा बल्कि पूछा यह गया है कि सरकार यह कैसे तय करेगी कि शराब और्डर करने वाला बालिग है या नहीं. उन्हें एतराज इस बात पर है कि शराब की होम डिलीवरी योजना में उम्र की निगरानी की कोई प्रक्रिया नहीं है. इस से कम उम्र लोगों को भी शराब मुहैया कराई जा सकती है.

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यह डर अपनी जगह जायज और सही है जिस पर दिल्ली सरकार के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने बड़ी मासूम दलील यह दी कि शराब की होम डिलीवरी की व्यवस्था किसी न किसी रूप में पिछले 25-30 सालों से है और इस से घर के बच्चों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा. हाईकोर्ट ने भी दिल्ली सरकार से पूछा है कि वह उम्र की निगरानी और सत्यापन की बाबत क्या इंतजाम करेगी, इस का जवाब 18 नवंबर तक दे.

इस पर दिल्ली सरकार के एक और नामी अधिवक्ता राहुल मेहरा ने चुटकियों में समस्या यह कहते हल कर दी कि फिलहाल यह सिर्फ मौजूदा नियम में संशोधन है और अभी प्रभाव में नहीं आया है और जब भी यह प्रभाव में आएगा तो उम्र के सत्यापन के लिए ग्राहक से आधार कार्ड या दूसरा कोई प्रमाण लिया जाएगा जिस से उस की उम्र का पता चल सके. गौरतलब है कि अब दिल्ली में शराब पीने की वैधानिक उम्र 21 साल कर दी गई है. अब अदालत जो भी फैसला ले लेकिन यह साफ दिख रहा है कि न तो प्रवेश वर्मा को शराब के नुकसानों से कोई मतलब है और न ही दिल्ली सरकार इस बारे में कुछ सोच रही जिस ने जरा सी बात के लिए 2 वकील खड़े कर दिए, जबकि मालूम सब को है कि यह सब बचकाना और निरर्थक है और ठीक वैसा ही है कि 18 साल से कम उम्र वालों को तंबाकू, गुटखा और सिगरेट नहीं बेचे जाएंगे लेकिन बेचे धड़ल्ले से जाते हैं.

रही बात दिल्ली सरकार की उदारता की तो अब वह महिलाओं के लिए अलग शराब की दुकानें भी खोलने जा रही है जिस से वे सुकून से पी सकें और शराबी पुरुषों के जैसे नुकसान ?ोलने को तैयार रहें. ऐसे होते हैं नुकसान शराब के नुकसान गिनाना बाढ़ की तबाही और उस के दिखते हुए नुकसान गिनाने जैसी बात है जिस में डूबने और बहने वालों को भगवान अगर कहीं होता तो भी न बचा पाता क्योंकि शराब देवताओं का भी प्रिय पेय रहा है, बस, नाम उस का सोमरस था. इधर आम लोगों की बात और है जो अपनी गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा इस रंगीन पानी पर फूंक देते हैं, फिर कुछ सालों बाद लिवर, किडनी और फेफड़ों के मरीज हो कर अस्पतालों व डाक्टरों के चक्कर लगाते बचा पैसा कुछ और सांसों के एवज में उन्हें चढ़ा देते हैं और फिर एक दिन तड़पतड़प कर दुनिया से विदा हो जाते हैं. पीछे छोड़ जाते हैं रोताबिलखता अपना परिवार, पत्नी, बच्चे और बूढ़े मांबाप.

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नशामुक्त भारत यात्रा आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक डा. सुनीलम की मानें तो देश में हर साल शराब के सेवन से कोई 10 लाख लोग मर जाते हैं. युवा वर्ग दूसरे मादक पदार्थों सहित शराब का आदी होता जा रहा है. शराब की बिक्री से ज्यादा फायदा राजनेताओं, पुलिस और शराब माफिया को होता है. इसलिए पूरे देश में शराबबंदी लागू की जाए. कभी किसान नेता के रूप में चर्चित और लोकप्रिय रहे सुनीलम बैतूल की मुलताई विधानसभा से विधायक रह चुके हैं और अब बतौर समाजसेवी राष्ट्रीय शराबबंदी चाहते हैं. सुनीलम कभी सुर्खियों में नहीं रहते और न ही उन्हें किसी न्यूज चैनल के प्राइम टाइम में जगह मिलती है क्योंकि वे गांधीवादी हैं और गांधी के साबरमती आश्रम के कौर्पोरेटीरण के खिलाफ आश्रम बचाने को भी प्रतिबद्ध हैं. गुजरात सरकार ने साबरमती आश्रम के संचालकों को निकम्मा करार देते एक ट्रस्ट बना कर उस में अपनों को ठूंस दिया है. इस का विरोध करने वाले सुनीलम को हर समय धमकियां मिलती रहती हैं.

बतौर किसान नेता तो सुनीलम खूब हिट हुए थे पर बतौर शराबविरोधी सामाजिक कार्यकर्ता उन की बात कोई नहीं सुन रहा है. रही बात शराब के नुकसानों की तो वे किसी सुबूत के मुहताज नहीं जिन से पहले जेब खाली होती है, फिर इज्जत जाती है और फिर शराबी ही चला जाता है. यह कैसे होता है और इस से कितने लोग जीतेजी मर जाते हैं, इस बात को भोपाल की एक मराठी समुदाय की गृहिणी की जबानी सम?ों तो सम?ा आएगा कि शराब की हकीकत क्या है. इस महिला के पति एक मलाईदार विभाग में सरकारी अधिकारी थे. रिश्वत खूब मिलती थी, सो पीने की लत लग गई. ज्यादा काम वे इसलिए नहीं करते थे कि इस से आम लोगों का भला हो बल्कि इसलिए करते थे कि घूस ज्यादा मिले, जिस से वे ज्यादा से ज्यादा शराब पी सकें. 2 वर्षों में हालत ऐसी हो गई कि वे सुबह चाय की जगह भी शराब पीने लगे. पत्नी ने बहुत रोका, दोनों छोटी बच्चियों की दुहाई दी लेकिन इस का असर हो इस स्टेज को वे पार कर चुके थे और चौबीसों घंटे धुत्त रहने लगे थे.

एक दिन उलटियां हुईं तो भागेभागे डाक्टर के पास गए जिस ने स्पष्ट कहा कि शराब छोड़ दो तो ही बच पाओगे क्योंकि सारे और्गन ढंग से काम नहीं कर रहे हैं. अब वह आदतन शराबी भी क्या जो डाक्टर की सलाह मान ले. 3 दिनों में थोड़ा आराम लगा तो अस्पताल से घर जाते वक्त सब से पहले शराब की दुकान पर रुके और अपने पसंदीदा ब्रैंड की 3 बोतलें खरीदीं और घर आ कर 3 दिनों का कोटा पूरा कर सो गए. सो तो गए, पर सुबह उठे नहीं. वे तो अब जिंदा नहीं, वहीं उन के आश्रित ये तीनों कहने को ही जिंदा हैं. उन का छोड़ा पैसा धीरेधीरे खत्म हो रहा है. इस घटना के 2 वर्षों बाद एक दिन पत्नी कुछ कागजों की खानापूर्ति के लिए उन के औफिस गई तो बाहर निकलते वक्त ये शब्द कानों में पड़े, ‘वह जा रही है बेवड़े की बीवी.

साला खुद तो चला गया, इन्हें ठोकरें खाने के लिए छोड़ गया.’ शब्दों का चयन गलत था, लेकिन बात सही थी. यह पत्नी पति के जीतेजी कभी सुकून से नहीं रही क्योंकि पति आएदिन शराब के नशे में धुत्त रहता था और रोकनेटोकने पर मारपीट पर भी उतारू हो आता था. यही हाल हरेक शराबी का है जिसे अपनी जिम्मेदारियों से कोई वास्ता नहीं, जो चंद घंटों के नशे को ही जिंदगी का इकलौता सुख मान चुका है. वे हकीकत में जिंदगी की असली खुशियों से भागे हुए लोग हैं. असली खुशी घरपरिवार के साथ होशोहवास में मिलती है, जिंदगी की दुश्वारियों से लड़ने में मिलती है, घर के सदस्यों को सुखसुविधाएं मुहैया कराने में मिलती है, अपने हिस्से का काम मेहनत और ईमानदारी से पूरा करने में मिलती है. गम दूर होने की गलतफहमी लेकिन इन बहके हुए लोगों पर इन नसीहतों का कोई असर नहीं होता क्योंकि ये पलायनवादी एक भ्रम और वहम में जीते हैं.

इन्होंने सदियों से प्रचलित एक मंत्र को अपना लिया है कि शराब पीने से गम दूर होते हैं. अगर ऐसा होता तो दुनिया में कोई गम ही नहीं होता, सभी लोग धुत्त ?हो कर नालेनालियों में पड़े होते. गम के इन मारों की तेजी से बढ़ती तादाद बेहद चिंताजनक है. एम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में कोई 16 करोड़ लोग शराब पीते हैं. इन में से भी 5 करोड़ 57 लाख वे हैं जो बिना शराब के रह ही नहीं पाते, यानी आदतन शराबी हैं. खपत के लिहाज से देखें तो हर साल लगभग 600 करोड़ लिटर शराब लोग गटक जाते हैं. डब्लूएचओ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में प्रतिव्यक्ति शराब की खपत साल 2005 (प्रतिव्यक्ति 2.4 लिटर) के मुकाबले 2016 में दोगुनी (5.7 लिटर) हो चुकी थी जो और तेज रफ्तार से बढ़ रही है.

2 वर्षों पहले आई एक सरकारी रिपोर्ट में आसान भाषा में बताया गया था कि भारत में हर 5 में से एक आदमी शराब पीता है. यह बिलाशक अच्छी स्थिति नहीं है. इस के लिए सरकार की नीतियों को भी कम दोषी नहीं ठहराया जा सकता. यह ठीक है कि कोई सरकार आ कर लोगों के मुंह में पैग बना कर नहीं डालती पर दिल्ली और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में कोशिश यही की जा रही है कि यह आसानी से लोगों को सुलभ हो. इधर लोग भी कम नहीं हैं जो मौकेबेमौके पीनेपिलाने के बहाने ढूंढ़ते रहते हैं. घर में कोई पार्टी हो तो शराब, होली हो तो शराब, दीवाली हो तो शराब. ये और इस के जैसे दूसरे बहाने न हों तो भी शराब की महफिल जमाने के शौक ने शराब के चलन को खूब बढ़ावा दिया है. हर मौके पर दलील यही दी जाती है कि आखिर हर्ज क्या है थोड़ी सी पीने में. 4 दिन की जिंदगी है, उस में भी गमों का ढेर है. पी लेंगे तो जी लेंगे. शराब पर शेरोशायरी की भरमार है जिन में इस के नुकसान कम, फायदे ज्यादा बताए गए हैं. फिल्मों ने भी शराब को खूब बढ़ावा दिया है.

अधिकतर फिल्मों में हीरो मतलबबेमतलब शराब पीता रहता है. प्रेमिका की बेवफाई पर वह बार या ठेके पर ?ामता दिखता है. विलेन ने बहन का बलात्कार कर दिया या मांबाप की हत्या कर दी तो वह सीधे शराब के अड्डे पर जा कर बोतल गटकता नजर आता है. ये तमाम बातें और दृश्य लोग सीधेसीधे अपनी जिंदगी में उतार लेते हैं क्योंकि परदे का हीरो उन का रोल मौडल होता है. वे यह भूल जाते हैं कि वह फिल्म थी लेकिन हकीकत में जिंदगी की दुश्वारियां शराब पीने से और बढ़ती हैं. कोई 200 तरह की बीमारियां शराब से होती हैं जिन में कैंसर और डायबिटीज भी शामिल हैं. यानी शराब पीने से दुख और बढ़ता है, कम होने की तो कोई वजह ही नहीं.

जेब पर भारी स्टेटस सिंबल और सोसाइटी ड्रिंक बनती जा रही शराब कितनों को कंगाल कर चुकी है और कर रही है, इस का आंकड़ा किसी के पास नहीं. हां, घरों में ?ांक कर देखें तो महीने में 50 हजार से ज्यादा कमाने वाले लोग शराब पर औसतन 300 रुपए रोज खर्च करते हैं और 500 रुपए रोज कमाने वाले 60 रुपए रोज खर्च करते हैं. इस के लिए जाहिर है उन्हें घर के लोगों से आर्थिक ज्यादती करनी पड़ती है. इतने रुपयों में वे क्याक्या कर सकते हैं, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. पैसों की तंगी घरों में आएदिन की कलह की वजह बनती है जिस से जिंदगी का लुत्फ खत्म होता जाता है. पैसे के साथसाथ इज्जत भी जाती है. खुद शराबी भी इस बात को सम?ाते हैं.

लेकिन शाम होते ही तलब उन के सोचनेसम?ाने की ताकत खत्म कर देती है. अधिकांश शराबी या तो उधारी में जीते हैं या फिर कर्ज की दलदल में गलेगले तक डूबे रहते हैं. रिश्तेदारी और समाज में लोग इन से कतराते हैं. ऐसे कई नुकसानों के बाद भी लोग नहीं संभलते तो उन की अक्ल पर तरस ही खाया जा सकता है. औरतों को तो बख्शो यह ठीक है कि पूर्ण शराबबंदी मुमकिन नहीं, लेकिन सरकारी स्तर पर शराब को प्रोत्साहन एक निंदनीय कृत्य है जिस की निंदा कोई नहीं करता. दिल्ली और मध्य प्रदेश में महिलाओं के लिए अलग शराब की दुकानें खोलने की सुगबुगाहट सरकारों की बदनीयती और उन्हें पिछड़ा रखने की साजिश के तौर पर ही देखी जानी चाहिए. महिलाओं में भी तेजी से शराब का चलन बढ़ रहा है खासतौर से युवतियों में जो खुद कमा रही हैं. लेकिन पैसा गंवाने में वे अगर पुरुषों से इस तरह होड़ करेंगी तो उन के आगे बढ़ने के रास्ते में गड्ढे ही गड्ढे होंगे.

शराब को आधुनिकता का पैमाना, पुरुषों की बराबरी और फैशन सम?ाने की भूल महिलाएं कर रही हैं, यह बात इस से भी साबित होती है कि वे सरकार की इस पहल पर खामोश हैं जो आगे चल कर उन्हें काफी महंगी साबित होगी. इस के अलावा यह उन की इमेज पर भी ग्रहण लगाने वाली बात है. औनलाइन शराब डिलीवरी के जरिए, दरअसल, सरकारें उन्हें ही फांसने की साजिश कर रही हैं जिस का वक्त रहते विरोध नहीं हुआ तो वे अपना आत्मविश्वास खोने लगेंगी. महिलाओं में ब्रैस्ट कैंसर की एक अहम वजह शराब भी है. यह कई अध्ययनों से साबित होता रहा है.

इस के अतिरिक्त मां बनने में भी शराब का सेवन एक बड़ी बाधा है. अपने दौर की मशहूर फिल्म ऐक्ट्रैस मीना कुमारी शराब की लत के कारण तनहा रह गई थीं और तड़पतड़प कर मरी थीं. आज सभ्य और अभिजात्य महिलाओं को इस से सबक लेने की जरूरत है कि शराब से हासिल तो कुछ नहीं होता पर जो छिनता है उस की भरपाई असंभव है.

ऐसे करें आलू की आधुनिक खेती

लेखक- राजीव कुमार सिंह, वैज्ञानिक, उद्यान, कृषि विज्ञान केंद्र, बक्शा, जौनपुर

आलू को सब्जियों का राजा कहा जाता है. भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोईघर होगा, जहां पर आलू न दिखे. इस की मसालेदार तरकारी, पकौड़ी, चाट, पापड़, चिप्स जैसे स्वादिष्ठ पकवानों के अलावा चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर जवां के मन को भा रहे हैं. इस में प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन के और सी के अलावा आलू में एमीनो एसिड जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाए जाते हैं, जो शरीर के विकास के लिए जरूरी हैं. आलू भारत की सब से अहम फसल है. तमिलनाडु और केरल को छोड़ कर आलू सारे देश में उगाया जाता है.

किसान आज से तकरीबन 7,000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं. जलवायु आलू के लिए छोटे दिनों की अवस्था जरूरी होती है. भारत के विभिन्न भागों में उचित जलवायु की उपलब्धता के मुताबिक किसी न किसी भाग में पूरे साल आलू की खेती की जाती है. बढ़वार के समय आलू को मध्यम शीत की जरूरत होती है. मैदानी क्षेत्रों में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती प्रचलित है. आलू की वृद्धि व विकास के लिए तापमान 15-25 डिगरी सैल्सियस के बीच होना चाहिए. इस के अंकुरण के लिए 25 डिगरी सैल्सियस, संवर्धन के लिए 20 डिगरी सैल्सियस और कंद विकास के लिए 17 से 19 डिगरी सैल्सियस तापमान की जरूरत होती है, उच्चतर तापमान 30 डिगरी सैल्सियस होने पर आलू विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है. अक्तूबर से मार्च महीने तक लंबी रात और चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते हैं.

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बदली भरे दिन, वर्षा व उच्च आर्द्रता का मौसम आलू की फसल में फफूंद व बैक्टीरियाजनित रोगों को फैलाने के लिए अनुकूल दशाएं हैं. भूमि आलू को क्षारीय मिट्टी के अलावा सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है, लेकिन जीवांशयुक्त रेतीली दोमट या सिल्टी दोमट भूमि इस की खेती के लिए सर्वोत्तम है. वहीं दूसरी ओर भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध बहुत जरूरी है. इतना ही नहीं, मिट्टी का पीएच मान 5.2 से 6.5 बहुत सही पाया गया है. जैसेजैसे यह पीएच मान ऊपर बढ़ता जाता है, दशाएं अच्छी उपज के लिए उलट हो जाती हैं. आलू के कंद मिट्टी के अंदर तैयार होते हैं, इसलिए मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरा बना लेना बहुत जरूरी है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें.

दूसरी और तीसरी जुताई देसी हल या हैरो से करनी चाहिए. यदि खेत में धेले हों, तो पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए. बोआई के समय भूमि में सही नमी का होना जरूरी है. यदि खेत में नमी की कमी हो, तो खेत में पलेवा कर के जुताई करनी चाहिए. केंद्रीय आलू अनुसंधान शिमला द्वारा विकसित किस्में कुफरी चंद्रमुखी : यह किस्म 80-90 दिन में तैयार होती है और उपज तकरीबन 200-250 क्विंटल है. कुफरी अलंकार : इस किस्म का आलू 70 दिन में तैयार हो जाता है. यह किस्म पछेती अंगमारी रोग के लिए कुछ हद तक प्रतिरोधी है. यह किस्म प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल उपज देती है. कुफरी बहार (3792 श्व) : 90-110 दिन में लंबे दिन वाली दशा में यह किस्म तकरीबन 100-135 दिन में तैयार होती है.

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कुफरी नवताल (त्र 2524) : इस किस्म का आलू 75-85 दिन में तैयार हो जाता है और उपज भी 200-250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. कुफरी ज्योति : इस किस्म का आलू 80-120 दिन में तैयार हो जाता है. उपज 150-250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

कुफरी शीत मान : 100-130 दिन में इस किस्म की फसल तैयार हो जाती है, जबकि उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है. कुफरी बादशाह : यह एक ऐसी किस्म है, जो 100-120 दिन में तैयार हो जाती है और उपज 250-275 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

कुफरी सिंदूरी : 120 से 140 दिन में यह किस्म पक कर तैयार हो जाती है, जबकि उपज 300-400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

कुफरी देवा : यह किस्म 120-125 दिन में तैयार हो जाती है और उपज 300-400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

कुफरी लालिमा : यह जल्दी तैयार होने वाली किस्म है, जो 90-100 दिन में तैयार हो जाती है. इस के कंद गोल, आंखें कुछ गहरी और छिलका गुलाबी रंग का होता है. यह अगेती ?ालसा के लिए मध्यम अवरोधी है.

कुफरी लवकर : यह किस्म 100-120 दिन में तैयार होती है और उपज 300-400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

कुफरी स्वर्ण : यह किस्म 110 में दिन में पक कर तैयार हो जाती है. उपज भी 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

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