हवा जैसी है जो दिख नहीं रही लेकिन महसूस सभी को हो रही है. आम लोग परेशान हैं क्योंकि हर चीज के दाम बढ़ गए हैं. लेकिन महंगाई को ले कर सब की उदासीनता व सब का सम?ातावादी नजरिया हैरान कर देने वाला है. कोई भी सरकार से यह पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रहा कि वह टैक्स में मिले पैसों का क्या कर रही है. महंगाई ऐसी यातना है जो आम लोगों को उस से ज्यादा दी जा सकती है जितनी कि वे बरदाश्त कर सकते हैं. इन दिनों देश में हो यही रहा है कि लोग बढ़ती महंगाई बरदाश्त करते जैसेतैसे गुजर कर रहे हैं लेकिन इस की आंच बड़े पैमाने पर अंदर ही अंदर सुलग रही है जिस के विस्फोट में तबदील होने से रोकने के लिए केंद्र सरकार ने दीवाली के ठीक पहले पैट्रोल और डीजल के दाम कुछ कम कर दिए थे. यह हमदर्दी या दरियादिली ठीक वैसी ही थी जैसे 20 कोड़ों की सजा 19 कोड़ों में बदल दी गई हो.

एक कोड़ा कम खाने से 19 कोड़ों की मार का दर्द कम हो जाएगा, ऐसा सोचने की कोई वजह नहीं. महंगाई की कोई तयशुदा परिभाषा नहीं होती. आम लोगों के लिए तो रोजमर्रा की चीजों के बढ़ते दाम और खुद की घटती क्रय क्षमता ही महंगाई होती है. इस तबके को अर्थशास्त्र के भारीभरकम शब्दों, आंकड़ों और सिद्धांतों से कोई सरोकार नहीं होता. 140 करोड़ की आबादी वाले देश में 132 करोड़ लोग ऐसे हैं जो बढ़ते दामों तले कराह रहे हैं. यह जमीन से जुड़ा वह तबका है जो रहता भी जमीन पर ही है. बाकी 8 करोड़ इस की पीठ पर सवार हैं ठीक पिरामिड की तरह जिस के निचले हिस्से में सब से ज्यादा जगह होती है जो ऊपर जाते संकरी होती जाती है. पिरामिड की सब से बड़ी खासीयत यही होती है कि इस के भार का ज्यादातर हिस्सा जमीन के आसपास ही होता है. इसी तर्ज पर 8 करोड़ लोगों को इस जमीनी यातना का एहसास ही नहीं है जिन में से आधे यानी 4 करोड़ के लगभग सरकारी कर्मचारी हैं जिन्हें बिना नागा महंगाई भत्ता और इन्क्रीमैंट वगैरह मिलते रहते हैं और बाकी आधे बड़ी प्राइवेट कंपनियों के ऊंचे पदों पर विराजमान हैं.

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पिरामिड के ऊपरी और संकरे हिस्से यानी 132 करोड़ लोगों की पीठ पर बैठे इन लोगों के लिए महंगाई एक दिलचस्प विषय बहस के लिए है जिस का कोई आदिअंत नहीं. ये वे लोग हैं जो यह पूछने पर कि महंगाई का आम लोगों पर क्या और कैसा फर्क पड़ता है के जबाब में बढ़ती महंगाई की वजहें गिनाना शुरू कर देते हैं. महंगाई के असर से बेअसर इन लोगों, जिन्हें भक्त कहना ज्यादा बेहतर होगा, को अक्ल का अजीर्ण इतना है कि ये महंगाई को एक सतत, शाश्वत और जरूरी प्रक्रिया मानते हैं. इन की नजर में यही विकास है. बकौल इन के, एक अगुवा केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान कहते हैं, ‘‘खर्च बढ़ा है, इसलिए महंगाई बढ़ी है.’’ ये मंत्रीजी कई बार साफतौर पर कह चुके हैं कि पैट्रोल और डीजल के बढ़ते दामों से हुई आमदनी से करोड़ों लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाई गई है. इस पर बात नहीं बनी तो वे बोले कि, दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ईंधन के दाम बढ़े हैं. फिर बोले कि कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ने से तेल के दाम बढ़े हैं, सरकार एक साल में टीकाकरण पर 3.5 लाख करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है.

बयान बदलने में माहिर इन मंत्रीजी ने इसी साल जून में अहमदाबाद में माना था कि सरकार के खर्च बढ़ रहे हैं, इसलिए महंगाई बढ़ रही है. शुक्र तो इस बात का है कि उन्होंने अभी तक यह नहीं कहा कि महंगाई बढ़ ही नहीं रही है, यह तो सरकार के खिलाफ देशद्रोहियों का दुष्प्रचार है. अलबत्ता उन की मंशा का खुलासा करते मध्य प्रदेश के एक मंत्री महेंद्र सिसिदिया ने यह इशारा जरूर किया कि लोगों को थोड़ीबहुत महंगाई स्वीकार करनी चाहिए. देश की जनता को मुफ्त टीका लगा तो जनता का पैसा उस के ही काम आया. महंगाई, ईंधन और वैक्सीन महंगाई को ले कर सरकार और उस के नुमाइंदे कितने गड़बड़ाए और लड़खड़ाए हुए हैं, यह उन के ऊलजलूल बयानों से जाहिर होता रहा है लेकिन सरकार ने पहले यह कभी नहीं कहा था कि वह मुफ्त वैक्सीन की कीमत पैट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा कर वसूलेगी.

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और अब वसूल रही है तो फिर वैक्सीन मुफ्त कहां रह गई. इस धूर्तता को सम?ाने के पहले एक छोटी सी अहम बात बहुत संक्षेप में यह सम?ाना जरूरी है कि पूरी दुनिया में ईंधन पर सब से ज्यादा टैक्स, 69 फीसदी, भारत में वसूला जाता है. सब से अमीर देश अमेरिका में यह टैक्स महज 19 फीसदी है. यह टैक्स राज्यों के मुताबिक कमज्यादा होता रहता है लेकिन इस की मार आम लोगों पर पड़ती ही है. अगर आप 100 रुपए का पैट्रोल खरीदते हैं तो उस में से 33 रुपए केंद्र सरकार को और औसतन 23 रुपए राज्य सरकार को बतौर टैक्स दे रहे होते हैं. इस तरह 56 रुपए सरकारें ले लेती हैं जबकि पैट्रोल की वास्तविक कीमत 40 रुपए प्रतिलिटर होती है. बाकी 4 रुपए डीलर के पास जाते हैं.

यहां यह दिलचस्प बात भी सम?ानी जरूरी है कि मनमोहन सरकार के आखिरी वक्त में पैट्रोल 71.41 रुपए प्रतिलिटर था जिस में केंद्र सरकार महज 16 फीसदी टैक्स ले रही थी. राज्य सरकारों का औसत टैक्स 18 फीसदी था और डीलर्स का कमीशन 3 फीसदी था. यानी तब पैट्रोल की असल कीमत का 63 फीसदी आम लोग अदा कर रहे थे. मार्च 2021 में खुद पैट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में स्वीकार किया था कि डीजल और पैट्रोल पर टैक्स कलैक्शन 459 फीसदी तक बढ़ा है. जाहिर सी बात है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में महंगाई अनापशनाप बढ़ी है. इस का एक बेहतर उदाहरण गैस सिलैंडर है जिस की कीमत अक्तूबर 2021 में 900 रुपए थी जबकि मार्च 2014 में यही सिलैंडर 410 रुपए में मिल रहा था. सरकार ने मई 2020 में गैस सिलैंडर पर सब्सिडी खत्म कर दी थी.

अब चुनिंदा तथाकथित लोग यह कहें और इफरात से प्रचार भी करें कि पैट्रोल के बढ़ते दामों से महंगाई बढ़ रही है तो उन की अक्ल पर तरस ही खाया जा सकता है क्योंकि वे यह बात छिपाते हैं कि दरअसल, सरकार अपने खर्चों और धार्मिक समारोहों के लिए टैक्स बेतहाशा बढ़ाती जा रही है, इसलिए महंगाई बढ़ रही है. महंगाई के होहल्ले में आम आदमी भी यह स्वीकारने लगा है कि ईंधन के बढ़ते दामों से ट्रांसपोर्ट महंगा हुआ है, इसलिए हर चीज के भाव बढ़े हैं. इन लोगों को यह सम?ाने वाला कोई नहीं कि दाम नहीं, टैक्स बढ़ा है, इसलिए पैट्रोल, डीजल में आग लगी है जिस के चलते महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है और इस की जिम्मेदार और कुसूरवार सिर्फ और सिर्फ सरकार ही है.

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अगर सरकार इनकम टैक्स बढ़ाती तो पिरामिड के दूसरेतीसरे माले और टौप फ्लोर पर बैठे कुलीन लोग तिलमिला जाते क्योंकि टीकाकरण का तथाकथित सारा भार उन के कंधों पर ही आता. उन्हें बचाने के वास्ते सरकार ने पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस चुने जिन्हें सभी लोग इसे रोज इस्तेमाल करते हैं. सो, इस का सीधा भार नीचे पड़े कम आमदनी और आमदनी न बढ़ने वाले लोगों पर ज्यादा पड़ा जिन की खाली जेब भी सरकार चूहे की तरह कुतर रही है. तेल के इस खेल का खुलासा करते हुए भोपाल पैट्रोल पंप एसोसिएशन के अध्यक्ष अजय सिंह बताते हैं कि अगर टैक्स 2014 के स्तर पर रहते तो आज एक लिटर पैट्रोल की कीमत 66 रुपए होती.

एक मिडिल क्लास फैमिली एक महीने में 30 लिटर पैट्रोल का इस्तेमाल करती है जिस की कीमत 3 हजार रुपए होती है. 4 सदस्यों के परिवार को 250 रुपए प्रति सदस्य के हिसाब से वैक्सीन मुहैया कराई जाती तो उस का खर्च एक हजार रुपए बैठता. ऐसे में सरकार अगर यह पूछती कि आप कौन सा प्लान पसंद करेंगे- अनिश्चितकाल तक 3 हजार रुपए महीने वाला या वनटाइम एक हजार रुपए वाला- तो तय है लोग दूसरा विकल्प ही चुनते, क्योंकि सालभर में वे 360 लिटर पैट्रोल इस्तेमाल करते और इस से उन्हें भारी बचत होती. इस से दूसरा फायदा यह होता कि आटा, दाल जैसे रोजमर्राई आइटम न महंगे होते, न खाने का तेल 200 रुपए किलो तक पहुंचता, न सब्जियां महंगी होतीं और न मसाले रुलाते. कोरोना के कहर के चलते स्वास्थ्य सेवाएं, इलाज और दवाइयां भी जेब की सेहत बिगाड़ रही हैं.

जिस वैक्सीन की आड़ सरकार ले रही है उस की बहुत बड़ी कीमत लोग चुका रहे हैं और मुमकिन है कुछ दिनों बाद वे यह कहते नजर आएं कि महंगाई से तिलतिल कर मरने से तो बेहतर है कि हम कोरोना से ही मर जाते. 132 करोड़ की भीड़ भी यही कहती कि आप तो 250 रुपए ले कर टीका लगा दो क्योंकि अब तो हमें रोज 250 रुपए देने पड़ रहे हैं. ग्वालियर से भोपाल रोजगार की तलाश में आई कमला बाई और उस का पति रोज जैसेतैसे 600 रुपए कमा लेते हैं. 4 सदस्यों वाले इस परिवार का दैनिक खर्च, जो दो वक्त की रोटी में सिमट गया है, कमाई के बराबर ही है. दिक्कत उस वक्त खड़ी होती है जिस दिन पति को काम नहीं मिलता या घर में कोई बीमार पड़ जाता है. ऐसे में या तो उधार लेना पड़ता है जो आमतौर पर आसानी से नहीं मिलता और अगर मिल भी जाए तो चुकाने में पसीने छूट जाते हैं.

औरतों पर पड़ती है मार कमला भोपाल के शिवाजी नगर इलाके में जिन बेला मुखर्जी के यहां ?ाड़ूपोंछे का काम करती है उन के पति की आमदनी 60 हजार रुपए महीना है. बेला हिसाब लगाते हुए बताती हैं कि अब घर खर्च चलाने में परेशानी होने लगी है. 4 महीने में खर्च 25 फीसदी बढ़ा है. यह कहानी हर घर की है लेकिन मध्यवर्गीयों की हालत अभी ऐसी नहीं हुई है कि उन्हें यहांवहां से पैसों का इंतजाम करना पड़े. हालांकि यह वर्ग भी अब महंगाई से त्रस्त हो चला है लेकिन अभी खामोश है. बेला कहती हैं, ‘‘अब रसोई गैस के 300 रुपए ज्यादा देने पड़ रहे हैं और किचन के खर्चे में बढ़ोतरी हुई है. पहले किराने का जो सामान 4 हजार रुपए में आ जाता था वह अब 5 हजार रुपए में आ रहा है, इसलिए बचत खत्म हो गई है.’’ खत्म होती इस बचत को आंकड़ों में देखें तो डेली नीड्स और कौस्मैटिक के आइटम्स में सिर्फ एक महीने में 8 फीसदी, फर्नीचर पर 6 फीसदी, मनोरंजन के साधनों, मसलन डिश टीवी, केबल और डिश एंटीना आदि पर 7 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.

खाने के तेल में कोई 35 फीसदी की बढ़ोतरी तो पैट्रोल की तरह चर्चा और बहस का विषय है ही जिस में एक महीने में ही 25 फीसदी बढ़ोतरी हुई. दालें 10 फीसदी तक महंगी हुई हैं. इन बढ़ते दामों का खमियाजा महिलाओं को ज्यादा भुगतना पड़ता है जो घर खर्च मैनेज करती हैं. उन्हें सू?ा नहीं रहा है कि कटौती कहांकहां करें क्योंकि हर चीज तो जरूरत की है. भोपाल के हमीदिया कालेज की अर्थशास्त्र की प्रोफैसर दीप्ति बिस्वास की मानें तो हर गृहिणी रोज महंगाई की यातना भुगत रही है. हैरानी तो इस बात की है कि मौजूदा महंगाई अर्थशास्त्र के इस सामान्य प्रचलित नियम को भी नकार रही है कि जब बाजार में मांग होती है तब महंगाई बढ़ती है.

अब तो मांग न बढ़ने के बाद भी कीमतें बढ़ रही हैं. ऐसे में यह साफ है कि सिस्टम यानी सरकारी व्यवस्था में कहीं खामी है. दरअसल, खोट सरकार की नीयत में है जो हर कभी महंगाई दर कम होने की बात करती है लेकिन हकीकत में महंगाई दर कम होने का यह मतलब कतई नहीं होता कि वस्तुओं के दाम कम हो रहे हैं. लोगों को गफलत में डालने का यह टोटका ज्यादा वक्त तक कारगर होगा, ऐसा लग नहीं रहा. क्या दिखता है क्या नहीं दिखता इतनी महंगाई अगर है तो उस का असर इतना क्यों नहीं हो रहा कि लोग सड़कों पर आ कर विरोध करें. इस सवाल का जवाब पिरामिड की ज्यामितीय संरचना में ही कहीं छिपा है. बेला मुखर्जी अभी और बरदाश्त कर सकती हैं,

इसलिए खामोश हैं और कमला को नहीं मालूम कि विरोध कैसे व कहां दर्ज कराना है और उस से भी अहम बात यह कि विरोध से हासिल क्या होगा और उस की सुनेगा कौन. रोजरोज कुआं खोद कर प्यास बु?ाने वाले इस तबके में विरोध करने लायक हिम्मत ही नहीं बची है. दीवाली पर बाजार गुलजार रहे थे और आंकड़ों के जरिए मीडिया ने बढ़चढ़ कर बताया था कि इतने खरब का कारोबार हुआ. लोगों ने खूब सोना खरीदा, इफरात से वाहन और इलैक्ट्रौनिक्स के आइटम बिके, हर शहर में मकानों में हुई रजिस्ट्रियों की तादाद गिनाई गई. लेकिन यह सच का 10वां हिस्सा भी नहीं है. यह पैसा केवल संकरे हिस्से में बैठे 8 करोड़ लोगों ने खर्च किया, बाकी 132 करोड़ ने तो औसतन 400-500 रुपए की ही खरीदारी की. बाजारों में भीड़ इन्हीं लोगों की रही लेकिन हमेशा की तरह दिखे वे लोग जो आलीशान शोरूमों में बैठे अपनी सफेद और काली लक्ष्मी का विनिमय कर रहे थे.

वे दरअसल, कुछ खरीद नहीं रहे थे बल्कि अधिकतर लोग कहीं न कहीं अपना पैसा निवेश कर रहे थे. बकौल दीप्ति बिस्वास, कोरोना के चलते लोग पिछले साल दीवाली पर खरीदारी नहीं कर पाए थे. इस साल उन लोगों, जिन के पास पैसा था, ने डबल खरीदारी की. लगभग यही तर्क हर कभी दिया जाता है कि महंगाई है कहां, कारें खूब बिक रही हैं. लोग, जाहिर है उन में महंगा पैट्रोल भी भरवा रहे हैं, होटलों में खाना खा रहे हैं, सैरसपाटा कर रहे हैं, सिनेमा देख रहे हैं और मौल्स में भीड़ है. बात सच है कि इन्हीं लोगों के लिए महंगाई नहीं है जो दिखते और दिखाए जाते हैं. असल महंगाई तो वे लोग भुगत रहे हैं जो पलायन कर रोजीरोटी के लिए एक से दूसरे राज्य में भाग रहे हैं.

इन्हीं मेहनती और जमीनी लोगों से फैक्ट्रियांकारखाने सहित कंपनियां चल रही हैं. ये वे लोग हैं जो ‘न भूतों न भविष्यति’ के दर्शन वाली जिंदगी जानेअनजाने में जी रहे हैं. शहरों की भीड़ बढ़ाते और उन्हें आबाद करने वाले ये लोग किसी को नजर नहीं आते क्योंकि ये पैदा ही भार ढोने को हुए हैं. अब इन के भिखारी होने की स्थिति को ही भक्तगण गरीबी मानें तो इसे धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह नहीं तो और क्या माना जाए? जरूरी चीजों के भाव बढ़ने पर ये लोग सरकार को नहीं, बल्कि दुकानदार को कोसते हैं. अगर नमक 5 रुपए प्रतिकिलो भी बढ़ता है तो यह वर्ग इस का जिम्मेदार बेचने वाले को ठहरा कर अपनी भड़ास निकाल लेता है. बेचने वाला लाला या बनिया इन की निगाह में हमेशा से ही बदमाश और लुटेरा रहा है. लेकिन मौल्स में ऐसा कुछ नहीं होता, वहां के ग्राहक बिल के टोटल पर एक सरसरी निगाह डालते हैं और फिर जेब से क्रैडिट या डैबिट कार्ड निकाल कर भुगतान कर चलते बनते हैं.

एक और वर्ग जो पिरामिड के टौप फ्लोर पर बैठा है उस के लिए महंगाई उत्सुकता और जिज्ञासा का विषय ही हो सकती है. यह रईसों का वह वर्ग है जो सितारा होटलों में 600 रुपए की पावभाजी और इतने के ही डोसाइडली खाता है. इन होटलों में एक रोटी की कीमत ही 100 रुपए होती है. इतने में तो गरीब का पूरा घर एक वक्त का खाना खा लेता है. शहर के ढाबों पर रोटी 5 रुपए में मिलती है और पावभाजी 30 रुपए में जिन्हें खाने व खरीदने में आम लोगों को सौ बार सोचना पड़ता है. भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर के होटलों के आसपास तो सैकड़ों लोग इन्हें खरीदते भी नहीं, बल्कि होटल बंद होने के बाद बीन कर खाते हैं. महंगाई की मार से ब्रैंडेड मंदिर भी अछूते रहते हैं जिन में हर साल अरबों का चढ़ावा आता है. तिरुपति, शिर्डी और वैष्णो देवी जैसे मंदिरों में इफरात से आती दक्षिणा का सच बताता है कि हम एक अमीर देश में रहते हैं जहां गरीबी पिछले और इस जन्म के पापों का फल है.

अब महंगाई गरीबों की तादाद और बढ़ा रही है तो इस के लिए सरकार और उस की नीतियों को दोष देना फुजूल की बात है. इसे एक दैवीय व्यवस्था मान लेने में ही सब की भलाई है. हकीकत में देश अंबानी-अडानी और रामदेव बाबा जैसे कोई 2 दर्जन अर्थदेवता चला रहे हैं जिन के कहने पर आर्थिक नीतियां बनती और बिगड़ती हैं. ये पूंजीपति अब कोई उत्पादक या रचनात्मक काम नहीं करते. ये सिर्फ अपनी पूंजी बढ़ा रहे हैं. जाहिर है इस के लिए कुछ त्याग तो न केवल आम लोगों को बल्कि मध्यवर्गीयों को भी करना पड़ेगा, नहीं तो 40-45 लाख रुपए की घड़ी और 15 लाख रुपए का सूट कौन पहनेगा? एक लाख का पेन कौन अपने कोट के ऊपर की जेब में खोंसेगा? महंगाई से त्रस्त लोगों को इन और ऐसी दर्जनों बातों से कोई मतलब नहीं होना चाहिए जिन में धन का प्रदर्शन कर बताया जाता है कि महंगाई एक मिथ्या धारणा व परिकल्पना भर है.

जाहिर सी बात है अगर आप महंगाई को ले कर गंभीर हैं तो पहले आप को साबित करना पड़ेगा कि वाकई में महंगाई है और यह साबित करने का अर्थशास्त्रीय पैमाना है मुद्रा स्फीति जो धर्मग्रंथों के संस्कृत के न सम?ा आने वाले श्लोकों और मंत्रों सरीखी होती है जिसे चंद पंडित ही बांच पाते हैं और उसे सरल भाषा में अपनी सहूलियत व सरकार की मरजी के मुताबिक आम लोगों को परोस देते हैं. इस की ताजी व्याख्या 12 अक्तूबर को यह आई थी कि महंगाई दर यानी इन्फ्लेशन रेट जो पहले 6.3 फीसदी था, वह सितंबर में 4.35 फीसदी हो चुका था जो यह साबित करने को पर्याप्त है कि महंगाई बढ़ नहीं रही, बल्कि घट रही है. अब यहां यह पूछने वाले कम ही हैं और जो पूछ सकते हैं,

वे खामोश ही रहते हैं कि महंगाई दर में मध्यवर्गीयों के एक बड़े हिस्से के खर्चों को शामिल क्यों नहीं किया जाता और अगर रिटेल महंगाई घट रही है तो वह दुकानों में नजर क्यों नहीं आती? महंगाई को ले कर भ्रम फैलाने वाले ये लोग खुद भी इस से त्रस्त हैं लेकिन इन्हें लग रहा है कि एक नई आर्थिक वर्णव्यवस्था आकार ले रही है जो उन्हें तो गरीब नहीं करेगी पर गरीबों को जरूर और गरीब कर देगी जिस से उन की संघर्ष क्षमता खत्म हो जाएगी और फिर वे धीरेधीरे सुस्त पड़ कर उन के गुलाम हो जाएंगे. यह वर्ग दरअसल, खुद के पांवों पर कुल्हाड़ी मार रहा है क्योंकि मजदूरी महंगी होती जा रही है और मेहनती लोग निकम्मे होते जा रहे हैं, उन के पास सिवा मेहनत के खोने और असहयोग करने के कुछ और है ही नहीं.

सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की 12 अक्तूबर की रिपोर्ट के मुताबिक, घरेलू नौकरों की सैलरी में औसतन फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. और मचेगा बवाल अंदेशा है कि यह आंकड़ा अभी और बढ़ेगा और हर तरह के नौकर ज्यादा से ज्यादा पैसा मांगेंगे क्योंकि केंद्र सरकार ने दीवाली के ठीक बाद 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की स्कीम बंद करने का ऐलान कर दिया है. जाहिर है इस से नीचे दबे लोगों में बेचैनी, अस्वस्थता और असुरक्षा बढ़ेगी, क्योंकि मुफ्त के सरकारी अनाज को ये अपना हक सम?ाने लगे थे और इसी के भरोसे महंगाई की मार भी ?ोल रहे थे. अब ये लोग यही उम्मीद अपने मालिक या नियोक्ता से रखेंगे कि वे इन्हें ज्यादा से ज्यादा पैसे दें.

सरकार का थिंकटैंक अभी इस खतरे से अनजान है जिस की सलाह पर सरकार नीतियां और नियम बनाती है. मेहनत महंगी होगी तो एक बड़ी दिक्कत उन निठल्लों को भी होगी जो धर्म के नाम पर मुफ्त की मलाई खा रहे हैं. अब उन के हिस्से का पैसा मध्यवर्गीय घरेलू नौकरों को देने को मजबूर हो जाएंगे. यह फर्क एकदम से नहीं दिखेगा लेकिन जब महसूस होगा तब 8 करोड़ लोग फिर सरकार को कोस रहे होंगे कि उस ने मुफ्त अनाज देने की योजना बंद कर उस का भार भी हमारी पीठ पर लाद दिया है. ये लोग सरकार को अभी तक भी इस बाबत कोसते रहे थे कि मुफ्त की योजनाओं का पैसा वह हम से ही टैक्स की शक्ल में वसूल रही थी. यानी हम से पैसा ले कर उसे गरीबों में बांट कर उन्हें निकम्मा और बेगैरत बना रही थी.

लाख टके का सवाल, जिस का जवाब खुद को बुद्धिजीवी सम?ाने वाले इस वर्ग के पास भी नहीं, वह यह है कि आखिर सरकार टैक्स से जुटाए पैसे खर्च करती कहां है? अगर वह पूरा पैसा गरीबों पर खर्च करती तो अब तक न गरीब होते और न गरीबी होती. यह ठीक वैसी ही बात है कि वैक्सीन के नाम पर जो पैसा वसूला गया है उस से, भारत तो दूर की बात है, पूरी दुनिया के लोगों को 2 बार वैक्सीन लग चुकी होती. इसे आसानी से सम?ाने के लिए मान लीजिए कि आप सौ रुपए कमाते हैं और उस में से 20 रुपए सरकार को टैक्स में दे देते हैं. 80 रुपए में आप का काम और जिंदगी ठीक चल रही है और सरकार भी 20-20 रुपए इकट्ठा कर ठीकठाक चल रही है. किसी को किसी से कोई शिकायत या तकलीफ नहीं है लेकिन दिक्कत उस वक्त उठ खड़ी होती है जब सरकार आप से 5 रुपए और वसूलने लगती है.

ये 5 रुपए कहां जाते हैं और सरकार उन्हें कहां व कैसे खर्च करती है, यह जानना आप का अधिकार है, लेकिन आप या कोई और इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं करता. चुपचाप 5 रुपए दे कर तंगी की जिंदगी जीने लगता है, महंगाई को ?ांकता है और फिर डरने लगता है कि कहीं और 5 रुपए न देने पड़ जाएं, इसलिए खामोश रहो. यही खामोशी महंगाई बढ़ने की अहम वजह होती है. सरकार के पैसे खर्च करने के तौरतरीके पर हम ने देशभर के चुनिंदा पाठकों से उन की राय मांगी थी जो यहां प्रकाशित की जा रही हैं. यहां फुंकता है पैसा महंगाई की बड़ी वजह जनता के पैसों का बेजा इस्तेमाल है जिसे सरकार मनमाने ढंग से करती है. सरकार कितना पैसा कहां खर्च करती है, यह कोई नहीं जानता. लेकिन 8 में से 4 करोड़ लोग इस बात से खुश हैं कि मोदी सरकार धर्म पर दरियादिली से खर्च करती है जो धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए जरूरी भी है,

जिस के लिए सरकार आंतरिक सुरक्षा पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दे रही है और इस बाबत उस ने गृह मंत्रालय को 1 लाख 66 करोड़ 547 रुपए की भारीभरकम राशि दी है. आंतरिक सुरक्षा के नाम पर देश में हर दिन हिंदू-मुसलिम होता रहता है. कट्टरवादियों ने तो कल्पनाओं और पौराणिक किस्सेकहानियों की तर्ज पर साबित कर दिया है कि आंतरिक सुरक्षा का इकलौता खतरा मुसलमान हैं. आंदोलन कर रहे किसानों से भी देश को खतरा था और है, इसलिए हजारों जवान उन की निगरानी के लिए तैनात हैं. इन पर दोहरा खर्च हो रहा है क्योंकि सरकार ने ठान लिया है कि कुछ भी हो जाए,

किसानों की नहीं सुननी है फिर चाहे भले ही मिलिट्री भी लगानी पड़े. भले ही करोड़ों लोग भूखे सोएं और महंगाई की मार ?ोलते रहें, कट्टरवादियों को इस से कोई मतलब नहीं. 4 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ में 400 करोड़ रुपए की परियोजनाओं का शिलान्यास किया था. यह पैसा किसी और विकास के लिए नहीं, बल्कि धार्मिक विकास के लिए था, जिस से धार्मिक स्थल चमकाए जाएंगे. यही वे 5 रुपए हैं जो सरकार लोगों से वसूल रही है क्योंकि उसे हिंदू राष्ट्र का ?ांसा जिंदा रखना है, वर्णव्यवस्था कायम करवानी है और पंडेपुजारियों को मुफ्त की मलाई चटवाना है. नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ में सनातन धर्म के प्रचारक आदि शंकराचार्य की मूर्ति का अनावरण किया और बहुत देर तक मूर्ति के सामने बैठ कर आराधना करते रहे. उन्होंने शिव अभिषेक भी किया.

उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्होंने देवों के देव से यह गुहार लगाई होगी कि ‘हे शंभू, मेरी प्रजा महंगाई से त्रस्त है उसे इस से नजात दिलाओ.’ शंकराचार्य की सब से बड़ी और भव्य इस मूर्ति पर कितना खर्च हुआ, यह सरकार नहीं बता रही लेकिन इस में कोई शक नहीं कि यह सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति से कुछ सस्ती ही होगी जो 3 साल पहले गुजरात के नर्मदा जिले में लगाई गई थी. वह मूर्ति महज 3,000 करोड़ रुपए मूल्य की थी जिस के प्रचारप्रसार में भी इस के अतिरिक्त करोड़ों रुपए खर्च हुए. आदि शंकराचार्य की केदारनाथ वाली मूर्ति 2013 की तबाही में नष्ट सी हो गई थी तब नरेंद्र मोदी ने इसे दोबारा स्थापित करने का प्रण लिया था जो पूरा हो गया है लेकिन सत्ता में आते महंगाई और एक साल में बेरोजगारी दूर करने की भीष्म प्रतिज्ञा वे अभी तक पूरी नहीं कर पाए. इस पर भी हैरानी की बात यह कि भक्तों को उन से कोई गिलाशिकवा नहीं क्योंकि धार्मिक कार्यों में पैसा फूंकने की जो खुशी उन्हें होती है वह पैट्रोल के 10 रुपए लिटर होने के चमत्कार पर भी नहीं होगी गोया कि महंगाई मिथ्या है, मूर्तियां और पूजापाठ शाश्वत है जो पिछले 7 वर्षों से हो रहा है.

साल 2019 के प्रयागराज अर्धकुंभ में भी सरकार ने मुक्त हस्त से पैसा खर्च किया था. उत्तर प्रदेश सरकार ने इस सब से बड़े धार्मिक आयोजन पर कुल 4236 करोड़ रुपए खर्च किए थे. यह फंड साल 2013 में 1300 करोड़ रुपए था लेकिन धर्मप्रेमी सरकार ने इसे तिगुना कर दिया था. राममंदिर निर्माण पर भी अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं और इस दीवाली भी अयोध्या की दीवाली को ब्रैंड बनाने के लिए सरकार ने करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया. ये नजारे देख यह कहने को दिल ही नहीं करता कि देश में महंगाई है. धर्म के अलावा सरकार अपने विज्ञापनों पर भी खूब खर्च करती है. सरकारी आंकड़ों के ही मुताबिक, साल 2014 से ले कर 2019 तक सरकार ने कुल 5,200 करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च किए थे. मोदी सरकार के पहले साल में यह खर्च 989.78 करोड़ रुपए था जो 2019 तक सालदरसाल बढ़ता ही गया और अभी भी महंगाई की तरह बढ़ ही रहा है. अब हाल यह है कि सरकार अपने विज्ञापनों पर रोज औसतन 2 करोड़ रुपए फूंक रही है जिस के जरिए मोदीजी को ब्रैंड मोदी बना दिया गया है.

पिछले साल अक्तूबर तक सरकारी इश्तिहारों पर कुल 713.20 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे. इन में से इलैक्ट्रौनिक मीडिया पर 317.05 करोड़ रुपए, प्रिंट मीडिया पर 295.05 करोड़ रुपए और आउटडोर मीडिया पर 101.10 करोड़ रुपए की भारीभरकम राशि खर्च की गई. मुंबई के एक आरटीआई एक्टिविस्ट जतिन देसाई द्वारा मांगी गई जानकारी में यह खुलासा हुआ था लेकिन सरकार यह छिपा गई थी कि विदेशी मीडिया में प्रचार के लिए कितना पैसा खर्च किया गया. यह और धार्मिक कार्यों में फूंका गया करदाताओं का पैसा अगर उत्पादक या जनहित के कामों में लगाया गया होता तो महंगाई की मार उतनी न पड़ती जितनी कि पड़ रही है. बढ़ती महंगाई के नुकसानों में से एक बड़ा नुकसान यह है कि आम लोगों की जीवन गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हो रही है. लोग जिंदगी जी नहीं रहे, बल्कि जिंदगी ढो रहे हैं और भगवा गैंग भारत के विश्वगुरु बनने का दावा कर रहा है.

उसे एक बार अर्थव्यवस्था पर नजर जरूर डाल लेनी चाहिए कि 132 करोड़ लोग महंगाई के पिरामिड, जो चक्रव्यूह में तबदील होता जा रहा है, में अभिमन्यू की तरह फंसे पड़े हैं. हाल ही में देश के पूर्व आरबीआई गवर्नर व अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी औफ ला के एक कार्यक्रम को वीडियो कौन्फ्रैंस के जरिए संबोधित करते हुए कहा, ‘‘हाल के वर्षों में हमारा आत्मविश्वास थोड़ा डिगा है. आर्थिक भविष्य में हमारा विश्वास कम हो गया है. महामारी के आंकड़ों ने हमारे आत्मविश्वास को और भी कम कर दिया है, जबकि मध्यवर्ग के कई लोग गरीबी में चले गए हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘‘घरेलू शेयर बाजार तेजी से बढ़ रहा है पर यह वास्तविकता को नहीं दर्शाता कि कई भारतीय गहरे संकट में हैं.’’ जाहिर सी बात है राजन ने यह बात हवा में नहीं की है. मौजूदा समय में आमजन अजीब विडंबना से गुजर रहा है, लोगों की यह हालत मौजूदा सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का परिणाम है, जिसे भुगतने को वे मजबूर हैं.

22 नवंबर, 2013 को नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की एक सभा में मनमोहन सिंह सरकार पर हमलावर होते पूछा था कि अगर महंगाई बढ़ती गई तो गरीब क्या खाएगा. अब अपने ही इस सवाल का जवाब देने की बारी उन की है लेकिन वे जवाब देंगे नहीं, इसलिए नहीं कि इस का कोई जवाब नहीं, बल्कि इसलिए कि जवाब या किसी भी तरह का स्पष्टीकरण देना उन की शान के खिलाफ है. -भारत भूषण श्रीवास्तव के साथ रोहित इन्होंने जो कहा सरकार अपने खर्चे कम नहीं करना चाहती है. विस्टा प्रोजैक्ट से ले कर ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां मोदी सरकार फुजूलखर्ची कर रही है. जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने फुजूलखर्ची, लालबत्ती कल्चर रोकने और नेताओं को सादगी से रहने की नसीहत दी थी. धीरेधीरे यह सब खत्म हो गया. आज सरकार जनता के पैसे को मनमाने तौर पर खर्च कर रही है. अनिता मिश्रा (महिला उद्यमी) महंगाई के नाम पर सरकार तमाशा कर रही है.

एक तरफ वह ‘लोकल फौर वोकल’ की बात करती है, दूसरी तरफ विदेशी मल्टीनैशनल कंपनियों को भारत आने का न्यौता दे रही है. डिजिटल के नाम पर गांव के लोगों का पारंपरिक काम छूट गया है. अब सरकारी नौकरी मिलना और भी मुश्किल हो गया है. सरोज बाला (जम्मू) कोरोना जैसी महामारी के मद्देनजर सरकार को राजस्व के एक बड़े हिस्से को नई सुविधाओं वाले अस्पताल बनाने, नएनए रोजगार शुरू करने और बिगड़ती शिक्षा प्रणाली को सुधारने में लगाना चाहिए, लेकिन उस की तरफ से ऐसा नहीं किया जा रहा है. सरकार मूर्तियों, धार्मिक योजनाओं पर अंधाधुंध पैसा खर्च कर रही है, जो मेरी नजर में राजस्व की बरबादी है. यह कुछ ऐसा है कि घर में खाने को पैसे न हों पर पड़ोसी को दिखाने के लिए घर की सजावट कर्जे लेले कर की जाए. एस्ट्रो शैलजा (फरीदाबाद) जो धन देश की उन्नति में लगना चाहिए था, वह धार्मिक जगह, मूर्ति और हवाई जहाज खरीदने में लगाया गया. हौस्पिटल और शिक्षण संस्थानों पर धन खर्च नहीं किया गया. यह अफसोस की बात है कि अब सरकार कांवडि़यों पर हैलिकौप्टर से फूलों की वर्षा करवाने लगी है और तीर्थयात्राओं पर भी हर राज्य सरकार जनता की गाड़ी कमाई फूंक रही है. नीलेश जैन (व्यापारी, देवरी, मध्य प्रदेश) हैरानी इस बात की है कि आज देश में कुछ लोगों की बुद्धि इतनी शून्य हो गई है कि वे बढ़ती महंगाई पर भी सरकार के बचाव में कुतर्क दे रहे हैं. हालत सब की खराब है. गरीब बुरी तरह पिस रहा है. सम?ा नहीं आ रहा है कि देश में महंगाई ज्यादा बड़ी दिक्कत है या महंगाई का बचाव करने वाले लोग दिक्कतों को बढ़ावा दे रहे हैं. श्रुति गौतम (शिक्षक, दिल्ली विश्वविद्यालय) महंगाई तो निश्चितरूप से बढ़ी है. अब गैस सिलैंडर और पैट्रोल के दाम ही देख लीजिए, लगातार बढ़ रहे हैं. सरकार ने तो अपनी तरफ से उज्ज्वला योजना शुरू की थी, लेकिन जब सिलैंडर इतना महंगा है, तो न्यूनतम आय वाला व्यक्ति इसे कैसे खरीदेगा? बात अगर पैट्रोल की करें, यदि पैट्रोल के दाम बढ़ रहे हैं तो हर छोटी से छोटी चीज का दाम बढ़ना निश्चित है. हम जो टैक्स भर रहे हैं, सरकार उस का ठीक से इस्तेमाल नहीं कर रही है. इस के लिए रोड टैक्स का उदाहरण ही काफी है कि एक भी सड़क बिना गड्ढों के नहीं मिलेगी. दीप्ति गुप्ता (भोपाल) देश में महंगाई से लोग भूखों मर रहे हैं और सरकार हमारे पैसे से मजे कर रही है. सरकार राममंदिर और विस्टा प्रोजैक्ट को पूरा कर अपना नाम लिखवाने में व्यस्त है. खानपान की वस्तुओं की बढ़ी कीमतों से जनता परेशान है. पति तापस बिस्वास मार्केट जा कर 500 रुपए में थोड़ी सब्जी ही ला पाते हैं, जिस से 4 जनों का परिवार पलता है. अभी डीजल और पैट्रोल के दाम बढ़ा कर थोड़ा सा कम करना एक दिखावा है, क्योंकि जिस सामान का मूल्य एक बार बढ़ जाता है,

उस में कमी होते मैं ने नहीं देखा. काकली बिस्वास (गृहिणी, कोलकाता) जो जरूरी है, उस पर सरकार का ध्यान नहीं है. मसलन, बच्चों के लिए सही स्कूल, कालेज, सरकारी अच्छे अस्पताल आदि हैं ही नहीं. सरकार नारा लगा रही है कि विकास हो रहा है पर विकास है कहां? कोविड में लाखों लोग बिना इलाज के मर गए, चारों तरफ त्राहित्राहि मच गई. सही माने में भूखों को रोटी, पढ़ेलिखों को रोजगार और आधारभूत चीजें अगर जनता तक सरकार पहुंचा पाती है तो उसे विकास कहा जाता है. मंदिर के विरोधी नहीं, पर भूखे पेट राममंदिर किस काम का? स्वाति जैन (होममेकर, मुंबई )

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