पैगासस जासूसी मामले में केंद्र सरकार कोई स्पष्ट जवाब देने को न तो संसद में तैयार है और न ही सुप्रीम कोर्ट में. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जस्टिस आर वी रवींद्रन की अध्यक्षता में गठित जांच कमेटी को इस मामले में कब तक और किस हद तक सफलता मिलेगी, कहना मुश्किल है. भारत में पैगासस जासूसी मामले को ले कर सुप्रीम कोर्ट ने एक एक्सपर्ट जांच कमेटी का गठन किया है. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस आर वी रवींद्रन इस के अध्यक्ष बनाए गए हैं. गौरतलब है कि पैगासस स्पाईवेयर के उपयोग की बात केंद्र सरकार ने आज तक न मानी है और न ही इस से इनकार किया है.

सरकार ने अब तक यह साफ नहीं किया है कि उस ने पैगासस खरीदा और इस का उपयोग किया या नहीं. वह कोर्ट के सामने बारबार केवल उन प्रक्रियाओं का हवाला दे रही है, जिस के जरिए देश में संदिग्ध लोगों के फोन टेप किए जा सकते हैं और इंटरनैट आधारित सेवाओं पर नजर रखी जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार के इस बर्ताव को देखते हुए जांच का आदेश दिया है. इस के साथ ही शीर्ष कोर्ट ने इस से आम नागरिकों के भी प्रभावित होने की आशंका पर चिंता व्यक्त की है. पैगासस जासूसी कांड के आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जांच कमेटी के बाद भी कई प्रश्न अनुत्तरित हैं. मसलन, क्या सरकार नागरिकों की जासूसी कर सकती है? क्या इस के लिए कानून है? यह इंटरसैप्शन क्या है, जिसे पारंपरिक तौर पर पहले से करने की बात सरकार कह रही है? दरअसल ऐसे व्यक्तियों या समूहों जिन पर गैरकानूनी या देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने का संदेह हो, उन के इलैक्ट्रौनिक उपकरणों को इंटरसैप्ट करने की अनुमति सरकार को कानूनी तौर पर हासिल है.

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इस के लिए 10 एजेंसियां अधिकृत हैं. आईटी कानून, 2000 की धारा 69 केंद्र या राज्य सरकार को किसी भी कंप्यूटर या मोबाइल डिवाइस में सृजित, स्टोर, प्रसारित और उस डिवाइस तक पहुंचे संदेश की निगरानी, उसे इंटरसैप्ट और डिक्रिप्ट करने का अधिकार देती है. ऐसा देश की संप्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, अन्य देशों से दोस्ताना संबंध व जन व्यवस्था और संज्ञेय अपराधों को रोकने के लिए किया जाता है. बिना अनुमति नहीं कर सकते इंटरसैप्शन आईटी कानून के अनुसार इंटरसैप्शन के लिए एजेंसियों को तय प्रक्रिया के तहत अनुमति लेनी होती है. यह अनुमति हर मामले के अनुसार अलगअलग ली जाती है, पहले से व्यापक निगरानी की अनुमति नहीं होती. केंद्रीय स्तर पर कैबिनेट सचिव और राज्य स्तर पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बनी कमेटी यह अनुमति देती है. अनुमति 2 महीने के लिए होती है, लेकिन जरूरत होने पर अवधि बढ़ाई जा सकती है, पर यह 6 महीने से ज्यादा नहीं होती है.

जासूसी नहीं कर सकती सरकार आईटी कानून की यह शक्ति सिर्फ इंटरसैप्ट करने की है. अगर किसी के खिलाफ अपराध या गैरकानूनी गतिविधियों का शक हो तो पूर्व अनुमति से सरकारी जांच एजेंसियां उस के सूचना माध्यमों को इंटरसैप्ट कर सकती हैं. सरकार किसी के फोन में स्पाइवेयर डलवा कर जासूसी नहीं करवा सकती. जबकि पैगासस जासूसी में लोगों के फोन व अन्य डिवाइस में स्पाईवेयर डालने के आरोप हैं. अगर केंद्र सरकार यह कहती है कि उस ने किसी भी नागरिक के फोन में पैगासस स्पाइवेयर नहीं डाला तो यह नई चिंता की बात है कि फिर ऐसा किस ने किया? गौरतलब है कि 50 हजार नंबरों के एक बड़े डेटा बेस के लीक की पड़ताल ‘द गार्डियन’, ‘वाशिंगटन पोस्ट’, ‘द वायर’, ‘फ्रंटलाइन’, ‘रेडियो फ्रांस’ जैसे 16 मीडिया संस्थानों के पत्रकारों ने की थी. इस मामले में बड़े नेता, केंद्रीय जांच एजेंसियों के अफसर, वित्त व्यवस्था से जुड़े अधिकारी, मंत्री, जज, वकील और पत्रकारों के मोबाइल फोन हैक कर के उन की जासूसी के गंभीर आरोप हैं. यदि यह काम विदेशी शक्तियों द्वारा किया जा रहा है तो इस से राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को बड़ा खतरा है.

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ऐसे में खुद केंद्र सरकार को बेतहाशा चिंतित नजर आना चाहिए था, जो कि वह कभी नहीं दिखी. आईटी कानून के अनुसार ऐसे मामले तो साइबर आतंकवाद अपराध के दायरे में आते हैं. मगर मोदी सरकार जिस तरीके से पूरे मामले को शुरू से ही हलके में ले रही है उस से उस की नीयत और कथनीकरनी पर शक ही उत्पन्न होता है. विपक्ष सरकार पर हावी विपक्ष लंबे समय से इस मुद्दे पर बहस और जांच की मांग कर रहा है और उस ने सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा है कि क्या पैगासस सौफ्टवेयर सरकार ने खरीदा था? पैगासस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक बार फिर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रैस कौंफ्रैंस कर केंद्र सरकार को निशाने पर लिया है. राहुल ने केंद्र सरकार से सवाल पूछा कि वह बताए कि इस का डेटा किसकिस के पास गया है. गौरतलब है कि कांग्रेस ने पिछले संसद सत्र में भी यह मामला उठाया था. उस ने पूछा था कि इसे किस ने खरीदा था, किसकिस के फोन टैप किए गए थे और किनकिन पर इस का इस्तेमाल हुआ? क्या इस का डाटा प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को मिल रहा था? राहुल गांधी ने कहा, ‘‘सरकार ने कुछ न कुछ गलत काम जरूर किया है, अन्यथा सरकार को इन सवालों का जवाब देना चाहिए.

अगर जवाब नहीं दे रहे हैं तो इस का मतलब है कि कुछ न कुछ छिपाया जा रहा है. हमें खुशी है कि सुप्रीम कोर्ट ने पैगासस मामले का संज्ञान लिया है. हमें उम्मीद है कि सच अब सामने आएगा. हम इस मामले को दोबारा संसद में उठाएंगे. हमारी कोशिश इस पर संसद में बहस कराने की होगी.’’ कमेटी के लिए राह कठिन पैगासस मामले में कमेटी गठित होने के आठ हफ्ते के बाद इस मामले की सुप्रीम कोर्ट में फिर सुनवाई होगी. 8 हफ्ते में कमेटी सुप्रीम कोर्ट को अपनी अंतरिम रिपोर्ट सौंपेगी. कमेटी के सामने जांच के दौरान सब से अहम सवाल यह होगा कि केंद्र या किसी राज्य सरकार ने पैगासस सौफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है या नहीं? सरकार इस मामले पर कोई स्पष्ट जवाब देने को न तो संसद में तैयार है और न ही सुप्रीम कोर्ट में तो ऐसे में कमेटी को यह स्पष्ट जानकारी सरकार से कैसे मिलेगी? जांच कमेटी के पास भी सिर्फ बयान दर्ज करने और रिपोर्ट देने का ही अधिकार है.

यह बात गौर करने वाली है कि इजराइल के भारत के साथ बहुत नजदीकी संबंध हैं, खासकर 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से. इजराइल ने भारत के पुलिसकर्मियों और सुरक्षा एजेंटों को ट्रेनिंग भी दी है. साथ ही दोनों देश खुफिया जानकारियां भी सा?ा करते हैं. भारत इजराइल की रक्षा तकनीक का बड़ा खरीदार भी है. वहां की रक्षा कंपनियां भारत में उत्पादन भी कर रही हैं. इजराइल की तकनीक का भारत में सुरक्षा व्यवस्था में इस्तेमाल किया जाता है, ऐसे में बहुत संभव है कि इस में से कुछ तकनीक का देश के भीतर भी इस्तेमाल हो रहा है. मगर सवाल यह है कि क्या सरकार, खुफिया एजेंसियां और गृह मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जांच कमेटी को सहयोग करेगा और किस हद तक जानकारियां मुहैया कराएगा या राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल का हवाला दे कर जानकारियां छिपा ली जाएंगी.

सुप्रीम कोर्ट की बनाई गई जांच कमेटी को अपनी अंतिम रिपोर्ट देने के लिए कोई तय समय सीमा नहीं दी गई है, 8 हफ्तों में सुनवाई होगी लेकिन कमेटी के लिए किसी नतीजे पर इतनी जल्दी पहुंचना मुमकिन नहीं होगा. बहुत समय के बाद अगर कोई लंबीचौड़ी रिपोर्ट आती है, तब तक यह मामला बेमानी हो जाएगा. पिछली कमेटियों के उदाहरण सामने हैं गौरतलब है कि समयसमय पर गंभीर मामलों की पड़ताल के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कई कमेटियां बनाईं, मगर कोई भी नतीजे तक नहीं पहुंच पाई. जिन कुछ कमेटियों ने अपनी रिपोर्ट और सिफारिशें दीं भी तो वे सिफारिशें कभी लागू नहीं हुईं. याद होगा कि सीबीआई डायरैक्टर के विवाद के समय सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल उठे थे. तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने न्यायिक व्यवस्था को खतरे में डालने के आपराधिक साजिश की जांच के लिए पूर्व जज पटनायक कमेटी का गठन किया था, जो आज तक किसी तर्कसंगत नतीजे पर नहीं पहुंची है.

कृषि कानून के बारे में भी सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है. आंध्र प्रदेश में बलात्कार के अभियुक्तों की पुलिस एनकाउंटर में मौत के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की जांच कमेटी का कार्यकाल कई बार बढ़ाया जा चुका है. इस पृष्ठभूमि में पैगासस जांच कमेटी से सार्थक निष्कर्ष की उम्मीद कैसे की जा सकती है? अन्य देशों में भी जारी है जांच उल्लेखनीय है कि पैगासस और दूसरे जासूसी सौफ्टवेयर से जुड़ी जांचें मैक्सिको, फ्रांस और खुद इजराइल में भी चल रही हैं, लेकिन वहां भी अब तक इन जांचों का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है. दरअसल जासूसी सौफ्टवेयर की जांच बेहद जटिल है. इस में जांचकर्ताओं को यह साबित करना होगा कि सरकार की एजेंसी ने सौफ्टवेयर खरीदा और उस का आम नागरिकों के खिलाफ गैरजरूरी इस्तेमाल किया गया. इस में कई चुनौतियां हैं. मैक्सिको में मामला ठप्प 2016 में सब से पहले मैक्सिको में पैगासस की जांच शुरू हुई थी.

वहां इस पर करीब 16 करोड़ डालर की राशि अब तक खर्च हो चुकी है, लेकिन यह साफ नहीं हो सका है कि देश में किस पैमाने पर जासूसी हुई और कुल कितना पैसा इस पर खर्च हुआ. जांच के 4 साल बाद भी न तो कोई गिरफ्तारी हुई है और न ही किसी को पद गंवाना पड़ा है. इस को ले कर मैक्सिको को जांच में इजराइल की तरफ से भी कोई सहयोग नहीं मिला. मैक्सिको की जांच दिशाहीन हो गई और बीते 4 सालों में कुछ हासिल नहीं कर सकी. जानकारों का कहना है कि इजराइल किसी भी जांच में सहयोग नहीं करेगा. न ही भारत में शुरू हुई जांच में और न ही किसी और देश में चल रही जांच में. इजराइल ने अपने इतिहास में सिर्फ एक बार 1980 के दशक में अमेरिका के साथ ईरान-कोंट्रा स्कैंडल की जांच में ही सहयोग किया है.

इस के अलावा वह कभी भी किसी विदेशी जांच में शामिल नहीं हुआ. फ्रांस भी फिसड्डी साबित हुआ फ्रांस में इमैनुएल मैक्रों सरकार के 5 मंत्रियों के अलावा कई पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता भी पैगासस सौफ्टवेयर के निशाने पर थे. उन के फोन में पैगासस मिलने की बात सामने आने के बाद इजराइल और फ्रांस के बीच राजनयिक संकट पैदा हो गया था. फ्रांस में इन्वैस्टिगेटिव जर्नलिज्म करने वाली संस्था मीडियापार के फाउंडर एडवी प्लेनेल और उन की सहयोगी पत्रकार लीनाग ब्रेडा के नाम भी पैगासस के निशाने पर थे. उन की शिकायत पर फ्रांस में पैगासस जासूसी की आपराधिक जांच शुरू हुई. उल्लेखनीय है कि मीडियापार ने ही भारत के साथ हुए रफाल विमान सम?ाते में कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था. फ्रांस में जांच तो शुरू हो गई, लेकिन अभी तक एजेंसियां किस हद तक पहुंची हैं,

वहां के नागरिकों को इस का कुछ पता नहीं चल रहा है. दूसरी तरफ पता चला है कि फ्रांस सरकार इजराइल के साथ कुछ गुप्त सम?ातों में उल?ा हुई है. कहा जा रहा है कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के एक शीर्ष सलाहकार ने इजराइली सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से पैगासस को ले कर गुप्त बातचीत की है. जिस के बाद फ्रांस और इजराइल के बीच एक सम?ाता हुआ है और यह तय हुआ है कि फ्रांस के मोबाइल नंबरों को इजराइल में निर्मित जासूसी सौफ्टवेयर से टारगेट नहीं किया जाएगा. हालांकि यह बात सामने आने के बाद विपक्ष वहां सरकार पर हमलावर है. विपक्ष का आरोप है कि फ्रांस के राष्ट्रपति निगरानी की समस्या के समाधान के बजाय इजराइल की सरकार से सम?ाता करने में लगे हैं. जबकि फ्रांस की जनता चाहती है कि इजराइल यह गारंटी दे कि एनएसओ सिस्टम फ्रांस के नंबरों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. लेकिन इजराइल ऐसी कोई गारंटी देने को तैयार नहीं है. सरकार के साथ हुआ उस का गुप्त सम?ाता क्या है और किस के लिए है, यह अभी तक जनता के सामने नहीं आया है.

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