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Stories Hindi: चिराग नहीं बुझा

Stories Hindi: गोंडू लुटेरा उस कसबे के लोगों के लिए खौफ का दूसरा नाम बना हुआ था. भद्दे चेहरे, भारी डीलडौल वाला गोंडू बहुत ही बेरहम था. वह लोफरों के एक दल का सरदार था. अपने दल के साथ वह कालोनियों पर धावा बोलता था. कहीं चोरी करता, कहीं मारपीट करता और जोकुछ लूटते बनता लूट कर चला जाता. कसबे के सभी लोग गोंडू का नाम सुन कर कांप उठते थे. उसे तरस और दया नाम की चीज का पता नहीं था. वह और उस का दल सारे इलाके पर राज करता था.

पुलिस वाले भी गोंडू लुटेरा से मिले हुए थे. पार्टी का गमछा डाले वह कहीं भी घुस जाता और अपनी मनमानी कर के ही लौटता. गोंडू का मुकाबला करने की ताकत कसबे वालों में नहीं थी. जैसे ही उन्हें पता चलता कि गोंडू आ रहा है, वे अपनी दुकान व बाजार छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए इधरउधर छिप जाते. यह इतने लंबे अरसे से हो रहा था कि गोंडू और उस के दल को सूनी गलियां देखने की आदत पड़ गई थी.

बहुत दिनों से उन्होंने कोई दुकान नहीं देखी थी जिस में लाइट जल रही हो. उन्हें सूनी और मातम मनाती गलियों और दुकानों के अलावा और कुछ भी देखने को नहीं मिलता था. एक अंधेरी रात में गोंडू और उस के साथी लुटेरे जब एक के बाद एक दुकानों को लूटे जा रहे थे तो उन्हें बाजार खाली ही मिला था.

‘‘तुम सब रुको…’’ अचानक गोंडू ने अपने साथियों से कहा, ‘‘क्या तुम्हें वह रोशनी दिखाई दे रही है जो वहां एक दुकान में जल रही है?

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‘‘जब गोंडू लूटपाट पर निकला हो तो यह रोशनी कैसी? जब मैं किसी महल्ले में घुसता हूं तो हमेशा अंधेरा ही मिलता है.

‘‘उस रोशनी से पता चलता है कि कोई ऐसा भी है जो मुझ से जरा भी नहीं डरता. बहुत दिनों के बाद मैं ने ऐसा देखा है कि मेरे आने पर कोई आदमी न भागा हो.’’

‘‘हम सब जा कर उस आदमी को पकड़ लाएं?’’ लुटेरों के दल में से एक ने कहा.

‘‘नहीं…’’ गोंडू ने मजबूती से कहा, ‘‘तुम सब यहीं ठहरो. मैं अकेला ही उस हिम्मती और पागल आदमी से अपनी ताकत आजमाने जाऊंगा.

‘‘उस ने अपनी दुकान में लाइट जला कर मेरी बेइज्जती की है. वह आदमी जरूर कोई जांबाज सैनिक होगा. आज बहुत लंबे समय बाद मुझे किसी से लड़ने का मौका मिला है.’’

जब गोंडू दुकान के पास पहुंचा तो यह देख कर हैरान रह गया कि एक बूढ़ी औरत के पास दुकान पर केवल 12 साल का एक लड़का बैठा था.

औरत लड़के से कह रही थी, ‘‘सभी लोग बाजार छोड़ कर चले गए हैं. गोंडू के यहां आने से पहले तुम भी भाग जाओ.’’

लड़के ने कहा, ‘‘मां, तुम ने मुझे जन्म  दिया, पालापोसा, मेरी देखभाल की और मेरे लिए इतनी तकलीफें उठाईं. मैं तुम्हें इस हाल में छोड़ कर कैसे जा सकता हूं? तुम्हें यहां छोड़ कर जाना बहुत गलत होगा.

‘‘देखो मां, मैं लड़ाकू तो नहीं??? हूं, एक कमजोर लड़का हूं, पर तुम्हारी हिफाजत के लिए मैं उन से लड़ कर मरमिटूंगा.’’

एक मामूली से लड़के की हिम्मत को देख कर गोंडू हैरान हो उठा. उस समय उसे बहुत खुशी होती थी जब लोग उस से जान की भीख मांगते थे, लेकिन इस लड़के को उस का जरा भी डर नहीं.

‘इस में इतनी हिम्मत और ताकत कहां से आई? जरूर यह मां के प्रति प्यार होगा,’ गोंडू को अपनी मां का खयाल आया जो उसे जन्म देने के बाद मर गई थी. अपनी मां के चेहरे की हलकी सी याद उस के मन में थी.

उसे अभी तक याद है कि वह किस तरह खुद भूखी रह कर उसे खिलाती थी. एक बार जब वह बीमार था तब वह कई रात उसे अपनी बांहों में लिए खड़ी रही थी. वह मर गई और गोंडू को अकेला छोड़ गई. वह लुटेरा बन गया और अंधेरे में भटकने लगा.

गोंडू को ऐसा महसूस हुआ कि मां की याद ने उस के दिल में एक रोशनी जला दी है. उस की जालिम आंखों में आंसू भर आए. उसे लगा कि वह फिर बच्चा बन गया है. उस का दिल पुकार उठा, ‘मां… मां…’

उस औरत ने लड़के से फिर कहा, ‘‘भाग जाओ मेरे बच्चे… किसी भी पल गोंडू इस जलती लाइट को देख कर दुकान लूटने आ सकता है.’’

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तभी गोंडू दुकान में घुसा. मां और बेटा दोनों डर गए.

गोंडू ने कहा, ‘‘डरो नहीं, किसी में इस लाइट को बुझाने की ताकत नहीं है. मां के प्यार ने इसे रोशनी दी है और यह सूरज की तरह चमकेगा. दुकान छोड़ कर मत जाओ.

‘‘बदमाश गोंडू मर गया है. तुम लोग यहां शांति से रहो. लुटेरों का कोई दल कभी इस जगह पर हमला नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन… लेकिन, आप कौन हैं?’’ लड़के ने पूछा.

वहां अब खामोशी थी. गोंडू बाहर निकल चुका था.

उस रात के बाद किसी ने गोंडू और उस के लुटेरे साथियों के बारे में कुछ नहीं सुना.

कहीं से उड़ती सी खबर आई कि गोंडू ने कोलकाता जा कर एक फैक्टरी में काम ले लिया था. उस के साथी भी अब उसी के साथ मेहनत का काम करने लगे थे. Stories Hindi

Best Story: कसूर किस का था? (आखिरी भाग)

पिछले अंकों में आप ने पढ़ा था. Best Story: मेहुल की शराब पीने की लत के चलते राधिका राजन के नजदीक आ गई. वह अपने पति का घर छोड़ कर उस के साथ रहने लगी. थोड़े दिन तक तो सब ठीक रहा, पर बाद में राजन का असली रूप सामने आया. वह उसे अपने काम के लिए दूसरों को परोसना चाहता था. इस तरह वह धीरेधीरे कालगर्ल बन गई. एक दिन राधिका किसी से मिलने होटल गई. वहां उस के सामने उस का बेटा आ गया. वह घबरा कर वापस हो ली.

अब पढ़िए आगे…

‘‘ठीक है, उन्हें चाय वगैरह सर्व करो. मैडम अभी तैयार हो कर आ रही हैं,’’ कह कर राजन कमरे से बाहर आ गया.

राधिका ने जैसे ही ड्राइंगरूम में कदम रखा, सामने नजर पड़ते ही ऐसे तड़प उठी, जैसे भूल से जले तवे पर हाथ रख दिया हो.

वह घबरा कर वापस जाने लगी, तभी उस के कानों में अमृत घोलती

एक आवाज गूंजी, ‘‘मम्मी, मैं आप का बंटी… आप को कहांकहां नहीं ढूंढ़ा हम ने? आखिरकार आप मिल ही गईं,’’ इतना कह कर वह राधिका से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगा.

बंटी रोतेरोते ही कहने लगा, ‘‘मम्मी, आप के बगैर पापा ने भी अपनी कैसी हालत बना ली है, कितने साल बीत गए… आप के बगैर जीते हुए. अब मैं एक पल भी आप के बगैर नहीं रह सकता. प्लीज मम्मी, घर लौट चलो. आप को लिए बगैर मैं यहां से नहीं जाऊंगा.’’

जब होटल में राधिका ने बंटी को देखा, जो बिलकुल मेहुल की शक्ल पाए हुए था. उसे लगा कि उस ने ममता के रिश्ते में भी तेजाब घोल दिया. अगर उस की शक्ल हूबहू न होती, तो वह तो… उस के आगे वह नहीं सोच पाई.

उधर राधिका जब मेहुल को छोड़ कर चली गई थी, तब वह एकदम टूट सा गया था. वह उसे बहुत प्यार करता था. निराशा व हताशा से बेहाल मेहुल ने सारा कारोबार समेटा और बेंगलुरु की किसी अनाम जगह पर चला गया. अब वह अपने बेटे बंटी के लिए जी रहा था. सुबह उसे तैयार कर के स्कूल भेजता, फिर अपने दफ्तर जाता, जल्दी काम निबटा कर वह फिर घर लौटता.

धीरेधीरे सारे काम घर में मोबाइल फोन से ही करने लगा. बंटी को भी पापा का ढेर सारा प्यार पा कर लगा कि जैसे अपनी मम्मी को भूलने लगा है, पर वह भूला नहीं था.

कभीकभी बंटी पूछ ही बैठता, ‘पापा, मम्मी कहां गई हैं?’

तब मेहुल की बेबसी से आंखें भर आतीं, फिर मासूम बंटी को सीने से लगा कर रो पड़ता. उस ने सोचा कि ढूंढ़ा तो उसे जाता है, जो खो जाता है. जो खुद ही छिप गया हो, उसे ढूंढ़ कर क्यों परेशान करूं?

जैसे ही बंटी बड़ा हुआ, उस का भी एमबीए का कोर्स अभीअभी पूरा हुआ था. वह अपनी मम्मी की तलाश में लगा. वह पापा मेहुल को सैमिनार है बोल कर कोलकाता गया, जहां पहले मम्मीपापा के साथ रहता था बचपन में. वहीं से पता चला कि मम्मी मुंबई में हैं. शायद तभी से वह मुंबई में आ कर तलाश करने लगा.

एक दिन एक होटल में उस ने राजन के साथ राधिका को देखा. वहां से सारी जानकारी हासिल की. फिर अपनी मम्मी से मिलने का प्लान बनाया. और कुछ तो समझ में नहीं आया कि कैसे मिले?

वह राधिका को शर्मिंदा नहीं करना चाहता था. और कोई चारा भी तो नहीं था उस के पास, लेकिन अफसोस, मेहुल का हमशक्ल होने से बाजी पलट गई. उस की सूरत देखते ही राधिका लौट गई. वह तुरंत पहचान जो गई थी.

‘‘मम्मी, मेरी सूरत देख कर आप मुझे तुरंत पहचान गईं और आप लौट गईं. मम्मी, मेरा इरादा आप को परेशान करने का नहीं था. पापा भी आप के जाने के बाद एकदम टूट से गए हैं. वे तिलतिल कर मर रहे हैं.

‘‘मैं उन्हें ऐसे घुटतेतड़पते नहीं देख सकता था. उन्हें भी अपनी गलतियों का एहसास हो गया है. वैसे, वे मुझ पर जताते नहीं हैं कि वे दुखी हैं, मैं जानता हूं कि पापा आप को बहुत प्यार करते हैं और आप के बगैर अकेले जी रहे हैं. वे भी मेरे साथ आए हैं, बाहर खड़े हैं.’’

एक ही जगह मूर्ति सी खड़ी राधिका किस मुंह से मेहुल के सामने जाती? उस से नजरें मिलाती? उस ने बेजान, थके हाथों से बंटी को अपने से अलग किया. उस की आंखें पथरा सी गई थीं. लग रहा था कि उन आंखों में भावनाएं नहीं हैं.

इतने में मेहुल भी भीतर आ गया. कितना बीमार, थकाथका, लाचार सा लग रहा था. राधिका के दिल में कुछ टूटने, पिघलने लगा. मन दर्द से भर उठा. मेहुल का क्या कुसूर? पर वह इस कलंकित देह के साथ कैसे आगे बढ़ती?

राजन तो मेहुल को देख कर शर्म से पानीपानी हुए जा रहा था. दोस्त हो कर पीठ में छुरा घोंपने का अपराध जो किया था, इसलिए नजरें न मिला कर एक ओर सिर झुकाए खड़ा रहा.

मेहुल थके कदमों से राधिका के करीब आया और अपने दोनों हाथ जोड़ लिए. मेहुल ने कहा, ‘‘सच राधिका, इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है. मेरी ही नादानी की वजह से हमारा बच्चा हम दोनों की परवरिश नहीं पा सका, लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है.

‘‘हम दोनों मिल कर अब भी अपने बेटे बंटी को अच्छे संस्कार देंगे. उसे कारोबार में फलतफूलता देखेंगे. अभी तो उस की शादी करनी है. उन के प्यारेप्यारे बच्चों को गोद में खिलाना है.’’

‘‘नहीं मेहुल, यह अब कभी नहीं हो सकता… मैं चाह कर भी इस दलदल से बाहर नहीं आ सकती. मैं इस लायक ही नहीं रह गई हूं कि तुम्हारे साथ जा सकूं.’’

अपने भर आए गले को खंखारते हुए राधिका फिर बोली, ‘‘मेहुल, जब बदन का कोई अंग सड़ जाता है, तो उस को काट कर अलग कर दिया जाता है, नहीं तो पूरे जिस्म में जहर फैल जाता है. मैं अब वह दाग हूं, जिसे सिर्फ छिपाया और मिटाया जा सकता है, पर दिखाया नहीं जाता. प्लीज, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ कहतेकहते वह बुरी तरह कांपने व रोने लगी थी.

तब मेहुल ने राधिका का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘राधिका, मैं ने कहा था कि मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मेरे ही रूखे बरताव के चलते तुम्हें घर छोड़ने जैसा कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा. इस के लिए तुम अपनेआप को अकेले दोष मत दो. मुझे तुम मिल गईं, अब कोई मलाल नहीं.

‘‘मुझे समाज, रिश्तेदार किसी की कोई परवाह नहीं. देखो, तुम्हारे बेटे बंटी को, जिसे तुम ने 8 साल का नन्हे बंटी के रूप में देखा था, आज वह पूरा गबरू नौजवान बन गया है. एमबीए की डिगरी भी हासिल कर ली है.

‘‘मैं ने इस का तुम्हारी गैरहाजिरी में ठीक से तो लालनपालन किया है कि नहीं? कोई शिकायत हो तो बोलो?’’

मेहुल का गला भर आया था. आंखें गीली हो गई थीं.

कितना बड़ा कलेजा था मेहुल का. राधिका, जो शर्म, अपराध के बोझ तले दबी जा रही थी, वह भी सारी लाज भूल कर मेहुल की बांहों में समा गई. कभी सोचा भी नहीं था कि मेहुल से नफरत की जगह माफी मिलेगी. उस के चेहरे पर एक दृढ़ विश्वास की चमक थी. राजन लुटापिटा सा एक ओर खड़ा ताकता ही रह गया. Best Story

Hindi Poem : आज की नारी

लेखिका – सरिता सिंह 

मैं आज की नारी हूं
हां, आज की नारी

मैं
तुम्हारी भूख मिटाने की खातिर
सिर्फ देह भर नहीं हूं
जिसे तुम
रौंद कर ही पुरुष बन सको
और न ही सिर्फ वस्तु हूं
जिसे तुम
इस्तेमाल करो
और कूड़ेदान में फेंक कर ही
मर्द बन सको

जैसे तुम मेरे लिए
सिर्फ देह भर नहीं हो
वैसे ही मैं भी
देह के अलावा
और भी बहुतकुछ हो सकती हूं

बेटी, पत्नी, बहू, भाभी
आइटम गर्लफ्रैंड से आगे भी
बहुत से रिश्ते हैं
जिन में तुम
मुझे फिट देखना चाहते हो
लेकिन मैं इन
रिश्तों से अलग भी तो
एक्जिस्ट कर सकती हूं

शायद मेरा यह
एक्जिस्टेंस तुम्हें
बरदाश्त न हो
लेकिन मैं अब
तुम्हारी सोच के दायरे से
कहीं बाहर भी
एक्जिस्ट करती हूं

जी हां,

अब मैं वो नहीं हूं
जिसे तुम ने बनाया है
अब मैं वो हूं
जिसे मैं ने खुद से
क्रिएट किया है

मैं आज की नारी हूं
हां,
आज की नारी

इसलिए
अब तुम्हारे नियमों की
आदत नहीं मुझे
तुम्हारी मर्यादाओं की
जरूरत नहीं मुझे

अब मुझे
तुम्हारे घिसेपिटे संस्कारों से
जकड़न सी होने लगी है
तुम्हारे झूठे आदर्शों से
घुटन सी होने लगी है

अपनी गुलामी की दास्तां
मुझे खुद से पढ़ लेने दो
मेरी आजादी के मायने
मुझे खुद से गढ़ लेने दो

मैं बीवी नहीं बनना चाहती
न जी
बिलकुल नहीं
मुझे पटरानी बनाने की
जहमत भी अब न उठाओ
मेरी खुशियों की कीमत भी
अब तुम न चुकाओ

न मैं तुम्हारे लिए खास बनूं
न तुम
मेरे लिए आम बनो
न मैं तुम्हारे लिए
सीता बनूं
न तुम मेरे लिए राम बनो

बस, अब रहने दो
बहुत हो चुका

मुझे खोलने दो
खुद से मेरी खिड़कियां
अपनी बंद खिड़कियों के लिए
अब मैं तुम्हें नहीं कोसूंगी

न जी
बिलकुल नहीं

मुझे तोड़ने दो खुद से
मेरी बेड़ियां
मैं अपनी इन बेड़ियों के लिए
अब तुम्हें दोष नहीं दूंगी
न जी
बिलकुल नहीं

मुझे एहसास मत कराओ कि तुम
मेरी बेड़ियों के गुनहगार नहीं थे
मुझे मत बताओ कि तुम
मेरी खिड़कियों के पहरेदार नहीं थे

मैं जानती हूं कि तुम
बिलकुल निर्दोष हो

जाओ और
तुम भी शामिल हो जाओ
उन आदर्श पुरुषों की भीड़ में
जिन्होंने नारी के उत्थान में
अपना महान बलिदान दिया था
जाओ, तुम भी बन जाओ
अपने महात्माओं जैसे
जिन्होंने नारी को पत्थर की मूरत से
अलग कर इंसान किया था

लेकिन ध्यान रहे कि
मुझे तुम्हारे इन तमाम
आदर्श पुरुषों के किस्सों में
अब कोई इंट्रस्ट नहीं

मुझे तुम्हारी मूरत के साथ ही
तुम्हारे महापुरुषों की मूर्तियों से भी
पुरुषवाद की भयंकर दुर्गंध आती है

इसलिए मैं
जैसी हूं वैसा ही रहना चाहती हूं और
पुरुषों की मर्यादाओं से
या मर्यादित पुरुषों से
उचित दूरी बना कर रखना चाहती हूं

रखो अपने पास
अपनी संवेदनाएं
अपनी हमदर्दी
और रखो अपने पास
अपने गौरवशाली इतिहास की
महानतम पोथियों को भी
और रखो अपने पास
अपने आदर्श पुरुषों की
महानतम गाथाओं को भी

जी हां,
अब मैं वो नहीं हूं
जिसे तुम ने बनाया

अब मैं वो हूं
जिसे मैं ने खुद से
क्रिएट किया है

मैं आज की नारी हूं
आज की नारी

मुझे नहीं चाहिए
तुम
तुम्हारे विचार
तुम्हारे संस्कार
तुम्हारा सत्कार
तुम्हारी इज्जत
तुम्हारी हसरत

यदि कुछ
दे सकते हो तो
मेरे कदमों का साथ दो
मेरे साथ चलो
मेरे हाथों में अपना हाथ दो

मुझे तहजीब सिखाने की कसरत न करो
मेरी उड़ान को रोकने की जहमत न उठाओ
मेरे कदमों को रोको मत
मेरे सपनों को कुचलो मत

या फिर रहने दो
बहुत हो चुका

मुझे अपनी रेखाएं
खुद से खींचनी हैं
इस के लिए अब किसी
लक्ष्मण की जरूरत नहीं मुझे

मुझे अपनी वीणा खुद
बजानी है
इस के लिए अब किसी
बुद्ध की जरूरत नहीं मुझे

मुझे मेरा घर
खुद से तामीर करना है
जहां से खींच कर कोई राम
मुझे घर से न निकाल पाए

मेरा जिस्म
मैं खुद से ढंकना सीख गई हूं
इस के लिए अब
मेरे पास कोई कृष्ण न आ पाए

मैं अपनी कीमत जान गई हूं
अब कोई युधिष्ठिर
मुझे जुए में न हार पाए

खदीजा की मेहनत पर
अब कोई अहमद
नबी न बन पाए

आयशा के बांकपन पर
अब कोई पैगंबर डाका न डाल पाए

मुझे मरियम की तरह
जीसस को जन्म भी नहीं देना है
और मुझे यह किस्सा भी अब यहीं खत्म करना है

इसलिए
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो
मुझ पर
अब कोई एहसान भी मत करो
और मुझे बारबार
यह एहसास भी न दिलाओ कि
तुम राम और बुद्ध की तरह
नारी के महान उद्धारक हो

तुम बनो महान
लेकिन
मुझे महान नहीं बनना है
मैं औरत हूं
और औरत ही रहूं
बस
इतना ही काफी है
मेरे लिए

जी हां,
अब मैं वो नहीं हूं
जिसे तुम ने बनाया
अब मैं वो हूं
जिसे मैं ने खुद से
क्रिएट किया है

मैं आज की नारी हूं
हां, आज की नारी

 

Hindi Kahani: करप्शन आई लव यू!

Hindi Kahani: कनछेदी लाल को अनुभूति है, आप भी, इंकार नहीं कर सकेंगे. भ्रष्टाचार के संदर्भ में संपूर्ण विश्व एक साझा सरोकार रखता है . हमारा देश भारत तो इस क्षेत्र में अन्यतम स्थान रखता है .आम आदमी से लेकर देश का उच्चतम न्यायालय इस मामले में एक है- कि भ्रष्टाचार, इस देश की रग- रग में फैल चुका है. इसे सामाजिक स्वीकृति मिल रही है .ऐसे में कनछेदी लाल ने यह प्रस्ताव देश के समक्ष रखने की घृष्टता की है कि क्यों न भ्रष्टाचार को हम राष्ट्रीय पर्व बन लें और उसे सकारात्मक भाव से ले.

भ्रष्टाचार को हम खुले हृदय से अपना मित्र माने. गले से लगाएं. सारी दुनिया से खुलेआम कह डालें- आई लव यू करप्शन. अनेकानेक लाभ होंगे.कनछेदी लाल कई दिनों से निंद्रा देवी से कोसों दूर है.प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सहित देश के लाड़ले राष्ट्र नायकों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे हैं.इन दिनों यह कुछ ज्यादा ही हो रहा है. दरअसल मेरा मानना है इसमें दोष हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का नहीं है. भ्रष्टाचार को दैवीय शक्ति प्राप्त है .वह बढ़ता चला जा रहा है. विस्तारित अपने प्रारब्घ से हो रहा है .खेत में बाड़ लगाई जाती है मगर खरपतवार कहां रुकता है. अब प्रारब्घ है .तो भ्रष्टाचार भी विश्वव्यापी शक्ति प्राप्त संस्था है. कनछेदी लाल को महसूस होता है, इसके पीछे हमारे राष्ट्र नायको का कोई हाथ नहीं है .हमारे नायक तो चुकि पद पर हैं इसलिए आरोप सहने मजबूर हैं. इनकी जगह और कोई भी, आप, मैं या हमारा कोई मित्र पद पर होता, वह भी इससे दो-चार होता. तो हमें विशाल हृदय का बनना होगा.

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कनछेदी लाल तो कहता है ‘भ्रष्टाचार देव भव:’ का नारा दिया जाना समाज और राष्ट्रहित में होगा .कनछेदी लाल बड़ा स्वार्थी है. यह काम किसी राष्ट्रीय पुरुष के हाथों संपन्न होना चाहिए. कनछेदी लाल रात भर जागता है, सोचता है, आंखों में नींद नहीं है. भ्रष्टाचार ने ऐसा जादू किया है कि आंखों से नींद, गधे के सिंग की तरह गायब हो गई है .कनछेदी लाल खुश है,- चलो राष्ट्र चिंतन के लिए जीवन का समय लग रहा है इससे बढ़कर इस मस्तिष्क और शरीर का क्या उपयोग हो सकता है.

आखिरकार इस देश में इतनी बड़ी बड़ी बौद्धिक शख्सियते हैं. फिर क्यों नहीं भ्रष्टाचार को उचित सम्मानजनक स्थान, पद प्रदान किया जाता ? मैंने अन्वेषण कर रात रात जागकर यह अनमोल तथ्य राष्ट्र को समर्पित करने खोज निकाला है भ्रष्टाचार देव भव: यह नारा अगर प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति एक सेमिनार आयोजित कर राष्ट्र के समक्ष उद्घाटित करें. राष्ट्र को बताएं कि भ्रष्टाचार के क्या-क्या लाभ हैं. हमारी क्या खामियां हैं तो कनछेदी लाल को महसूस होता है यह दुनिया को शुन्य के बाद हमारी महान देन होगी. कुछ लोग सदैव बाल की खाल निकालने वाले होते हैं. कनछेदी लाल ऐसे दुष्टत्मा चेहरों से वाकिफ है. कुछ बुद्धिजीवी का चेहरा ओढे. कुछ छुटभैया राजनेता. कुछ विपक्षी दल, इस नारे का विरोध करेंगे .मगर कनछेदी लाल के पास उनकी काट भी है…आप चिंता न करें. देखिए…सबसे पहले लाभ देखिए . हमारा देश महान है. महावीर, गौतम बुध्द, गांधी का देश है . हमेशा बताया गया है दुश्मनों से प्रेम करो. प्रेम से दुश्मन की आत्मा, ह्रदय परिवर्तन हो जाता है .यह भारतीय राजनीति में अक्सर देखा गया है .श्रीमती सोनिया गांधी के प्रति करुणानिधि का व्यवहार का अध्ययन करने वालो से पूछिएगा . आप देखेंगे अन्नाद्रमुक अर्थात करुणानिधि की पार्टी पर स्वर्गीय राजीव गांधी की हत्या के दरम्यान प्रभाकरण और लिट्टे समर्थक होने का आरोप था . मगर जब सत्ता की बात आती है. प्रेम की ताकत देखिए श्रीमती गांधी करुणानिधि से हाथ मिला लेती है. आज महबूबा मुफ्ती फूटी आंख नहीं सुहाती मगर प्रेम में इतनी शक्ति है कि हृदय परिवर्तन हो जाता है .लालू प्रसाद कभी नीतिश का विरोध करते थे । शरद पवार, पी. ए. संगमा ने का कांग्रेस छोड़ दी थी मुकुल रॉय ने ममतादी को छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया की नही. प्रेम की अक्षत शक्ति का उदाहरण देखिए, सभी का हृदय परिवर्तन हो जाता है . कनछेदी लाल का निवेदन है, आप अपने आसपास देखिए ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे.
कनछेदी लाल का स्वार्थ सिर्फ इतना है कि इससे आप प्रेम के कायल हो जाएंगे और मेरी थ्योरी पर ध्यान देंगे.तो अगर हम भ्रष्टाचार को सम्मान देंगे, हमें लगेगा यह भ्रष्टाचार करना है और कहेंगे,भ्रष्टाचार देवो भव: तो भ्रष्टाचार के प्रति हम सहिष्णु हो जाएंगे .देखिए सब आत्मा और मन का मामला है. आत्मा की स्वीकृरोक्ति सारी समस्या का समाधान है. हमारा परिजन किसी की बलात्कार या हत्या कर दे, तो क्या हम निष्ठुर होकर उसे फांसी पर चढ़ने छोड़ देते हैं ? भई ! अपनी जमीन जायदाद बेचकर झूठ बोलकर भी न्यायालय से बचा लाते हैं कि नहीं.

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तो, जिस तरह आत्मा, मन हृदय को मना कर हम मन मार कर स्वीकारोक्ति कर लेते हैं. भ्रष्टाचार के संदर्भ में राष्ट्रीय स्वीकारोक्ति करनी है बस .हो गया काम. भ्रष्टाचार देश से समाप्त. दुनिया हमें सम्मान से देखेगी . वाह ! भारत को देखो… देश से भ्रष्टाचार समाप्त कर दिया . कनछेदी लाल चिंतित है. देश चिंतामग्न है. सुप्रीम कोर्ट कुद्र है . भ्रष्टाचार विकराल होकर देश को तोड़ने का कारक बनने जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट कह रहा है, देश में अराजकता का माहौल बन जाएगा .भ्रष्टाचारी लोग सड़क पर पीटेंगे . सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है . मगर सच्चाई को हम स्वीकार करें .हरि अनंत हरि कथा अनंता एक कहावत है न ! तो भ्रष्टाचार भी अनंत है और भ्रष्टाचार की कथा भी अनंता है. कनछेदी लाल ने बहुत-बहुत चिंतन किया है. निष्कर्ष यही है कि कोई ताकत भ्रष्टाचार का निर्मूलन नहीं कर सकती. भगवान भोलेनाथ के माटी के पुत्र श्री गणेश एक उत्पाती और कुद्र बालक थे. सभी देवता उनसे त्रस्त थे .ऋषिमुनि, देवगण और राक्षसों को अपनी ताकत के मद में गणेश ने हलाकान कर रखा था. अंततः त्रिदेव भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने गणेश को प्रतिष्ठापित किया .सर्वप्रथम पूजा का अधिकार दिया. इस तरह गणेश जी शांत हुए. प्रसन्न हुए .बस कन छेदीलाल का भी यही प्रस्ताव है- देश भ्रष्टाचार से प्रेम करें.देवगण माने और हृदय से पूजा करें .भ्रष्टाचार का रौद्र रूप शांत होता चला जाएगा. भ्रष्टाचार विकास की अनिवार्यता में परिवर्तित होकर देश में जन-जन में स्वीकार हो जाएगा. Hindi Kahani

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Hindi Story: मेवानिवृत्ति

Hindi Story: सरकारी मुलाजिम के 60 साल पूरे होने पर उस के दिन पूरे हो जाते हैं. कोईर् दूसरा क्या, वे खुद ही कहते हैं कि सेवानिवृत्ति के समय घूरे समान हो जाते हैं. 60 साल पूरे होने को सेवानिवृत्ति कहते हैं. उस वक्त सब से ज्यादा आश्चर्य सरकारी आदमी को ही होता है कि उस ने सेवा ही कब की थी कि उसे अब सेवानिवृत्त किया जा रहा है. यह सब से बड़ा मजाक है जोकि सरकार व सरकारी कार्यालय के सहकर्मी उस के साथ करते हैं. वह तो अंदर ही अंदर मुसकराता है कि वह पूरे सेवाकाल में मेवा खाने में ही लगा रहा.

इसे सेवाकाल की जगह मेवाकाल कहना ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है. सेवा किस चिडि़या का नाम है, वह पूरे सेवाकाल में अनभिज्ञ था. वह तो सेवा की एक ही चिडि़या जानता था, अपने लघु हस्ताक्षर की, जिस के ‘एक दाम, कोई मोलभाव नहीं’ की तर्ज पर दाम तय थे. एक ही दाम, सुबह हो या शाम. आज लोगों ने जब कहा कि सेवानिवृत्त हो रहे हैं तो वह बहुत देर तक दिमाग पर जोर देता रहा कि आखिर नौकरी की इस सांध्यबेला में तो याद आ जाए कि आखिरी बार कब उस ने वास्तव में सेवा की थी. जितना वह याद करता, मैमोरी लेन से सेवा की जगह मेवा की ही मैमोरी फिल्टर हो कर कर सामने आती. सो, वह शर्मिंदा हो रहा था सेवानिवृत्ति शब्द बारबार सुन कर.

सरकारी मुलाजिम को शर्म से पानीपानी होने से बचाने के लिए आवश्यक है कि 60 साल का होने पर अब उसे सेवानिवृत्त न कहा जाए? इस के स्थान पर सटीक शब्द वैसे यदि कोई हो सकता है तो वह है ‘मेवानिवृत्त’, क्योंकि वह पूरे कैरियर में मेवा खाने का काम ही तो करता है. यदि उसे यह खाने को नहीं मिलता तो यह उस के मुवक्किल ही जान सकते हैं कि वे अपनी जान भी दे दें तो भी उन के काम होते नहीं. बिना मेवा के ये निर्जीव प्राणी सरीखे दिखते हैं और जैसे ही मेवा चढ़ा, फिर वे सेवादार हो जाते हैं. वैसे, आप के पास इस से अच्छा कोईर् दूसरा शब्द हो तो आप का स्वागत है.

आज आखिरी दिन वह याद करने की कोशिश कर रहा था कि उस ने सेवाकाल में सेवा की, तो कब की? उसे याद आया कि ऐसा कुछ उस की याददाश्त में है ही नहीं जिसे वह सेवा कह सके. वह तो बस नौकरी करता रहा. एक समय तो वह मेवा ले कर भी काम नहीं कर पाने के लिए कुख्यात हो गया था. क्या करें, लोग भी बिना कहे मेवा ले कर टपक जाते थे. चाहे जीवनधारा में कुआं मंजूर करने की बात हो या कि टपक सिंचाई योजना में केस बनाने की बात, सीमांकन हो या बिजली कनैक्शन का केस, वह क्या करे, वह तो जो सामने ले आया, उसे गटक जाता था. और ऐसी आदत घर कर गई थी कि यदि कोई सेवादार बन कर न आए तो ऐसे दागदार को वह सीधे उसे फाटक का रास्ता दिखा देता था.

दिनभर में वह कौन सी सेवा करता था, उसे याद नहीं आ रहा था? सुबह एक घंटे लेट आता था, यह तो सेवा नहीं हुई. एक घंटे का समयरूपी मेवा ही हो गया. फिर आने के घंटेभर बाद ही उस को चायबिस्कुट सर्व हो जाते थे. यह भी मेवा जैसा ही हुआ. मिलने वाले घंटों बैठे रहते थे, वह अपने कंप्यूटर या मोबाइल में व्यस्त रहता था. काहे की सेवा हुई, यह भी इस का मेवा ही हुआ.

कंप्यूटर व मोबाइल में आंख गड़ाए रहना जबकि बाहर दर्जनों मिलने वाले इस के कक्ष की ओर आंख गड़ाए रहते थे कि अब बुलाएगा, तब बुलाएगा. लेकिन इसे फुरसत हो, तब भी इंतजार तो कराएगा ही कराएगा. फिर भी इसे सरकारी सेवक कहते हैं.

60 साल पूरे होने पर सेवानिवृत्त हो रहे हैं. कहते हैं, इस सदी का सब से बड़ा झूठ यही है, कम से कम भारत जैसे देश के लिए जहां कि सेवा नहीं मेवा उद्देश्य है. सरकारीकर्मी आपस में कहते भी हैं कि ‘सेवा देवई मेवा खूबई.’

वह बिलकुल डेढ़ बजे लंच पर निकल जाता था. चाहे दूरदराज से आए किसी व्यक्ति की बस या ट्रेन छूट रही हो, उसे उस से कोई मतलब नहीं रहता था. उसे तो अपने टाइमटेबल से मतलब रहता था. उस के लिए क्लब में सारा इंतजाम हो जाए. यही उस की सेवा थी जनता के प्रति.

सेवानिवृत्त वह नहीं हो रहा था बल्कि वह जनता हो रही थी, मातहत हो रहे थे जो उस की देखभाल में लगे रहते थे. अब उस के 60 साल के हो जाने से उन्हें निवृत्ति मिल रही थी बेगारी से. लेकिन असली सेवानिवृत्त को कोई माला नहीं पहनाता. हर साल उसे वेतनवृद्धि चाहिए, अवकाश, नकदीकरण चाहिए, मैडिकल बैनिफिट चाहिए, एलटीसी चाहिए, नाना प्रकार के लोन चाहिए. यह उस की सेवा है कि बीचबीच में मेवा का इंतजाम है?

सरकार को गंभीरता से विचार कर के सेवानिवृत्ति की जगह मेवानिवृत्ति शब्द को मान्यता दे देनी चाहिए. वैसे, गंगू कहता भी है कि सेवानिवृत्ति से कहीं सटीक व ठीक शब्द मेवानिवृत्ति है. Hindi Story

 

Sad Stories Hindi: ताज बोले तो

Sad Stories Hindi:  खूबसूरत ताज प्रतीक है शाहजहां और मुमताज की सच्ची मोहब्बत का. लेकिन समय के साथ प्यारमोहब्बत के माने बदल गए हैं. एक दवा कंपनी में समीर रीजनल मैनेजर था. वैसे तो वह देहरादून में रहता था मगर कंपनी के काम से उसे अकसर बिजनौर, मुरादाबाद और बरेली जाना पड़ता था. उस की कंपनी का मुख्यालय दिल्ली में था अत: जबतब वहां का भी उसे चक्कर लगाना पड़ता था. घर पर तो समीर महीने में मुश्किल से 10 दिन ही रुक पाता था.

देहरादून में समीर की पत्नी सौम्या अकेली रहती थी. वह शांत, सुशील, सुंदर एवं सुशिक्षित महिला थी. उस की शादी को 2 साल हो गए थे पर उन के घर का आंगन अभी किलकारियों से सूना था. इन दिनों सौम्या पीएच.डी. कर रही थी. उस का विषय था, ‘इतिहास की पे्रम कथाएं.’

सौम्या का ज्यादा समय पढ़ने- लिखने में ही गुजरता था. वैसे समीर देहरादून में होता तो पोथीपुस्तकें कुछ दिनों के लिए बंद हो जातीं. उस के टूर पर जाते ही वह इतिहास के बिखरे पन्नों को जोड़ने बैठ जाती थी. सौम्या के गाइड डी.ए.वी. कालिज के सीनियर प्रोफेसर डा. माथुर थे. पर अपनी व्यस्तता के चलते उन्होंने डा. विनय को सौम्या का सहगाइड बना दिया था. डा. विनय को मध्यकालीन इतिहास में महारत हासिल थी. वह बोलते भी बहुत मधुर थे. जब वह पढ़ाते तो इतिहास साकार हो उठता था. सौम्या डा. विनय से बहुत प्रभावित थी. अपनी पीएच.डी. जल्द से जल्द पूरा करने के लिए सौम्या बुधवार और रविवार को डा. विनय के घर गाइडेंस के लिए जाने लगी. कभीकभार वह फोन पर भी उन से सलाहमशवरा कर लेती थी. डा. विनय अपने घर में अकेले रहते थे, इसलिए सौम्या जब भी उन के घर जाती तो घर के कामकाज में थोड़ाबहुत उन का हाथ बंटा देती थी.  समय के साथ दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे.

सौम्या डा. विनय को गाइड कम दोस्त ज्यादा मानती थी. उम्र में भी 2-3 बरस का ही अंतर था. एक दिन सौम्या ने समीर को भी डा. विनय से मिलवाया था. दोनों काफी देर तक बातचीत करते रहे. विनय पहली बार सौम्या के घर आए थे. सौम्या ने अपने हाथों से बना गाजर का हलवा और गरमागरम पकौडि़यां उन्हें खिलाईं. समीर, विनय के बोलचाल के ढंग से जीवन के प्रति उस के दृष्टिकोण से बहुत प्रभावित हुआ था और मुसकराते हुए बोला था, ‘डाक्टर साहब, अपने इस मुरीद को भी जल्दी से डाक्टर बनवा दीजिए, फिर इन के लिए कोई कालिज ढूंढ़ते हैं.’

‘जी हां, थोड़ा इंतजार कीजिए,’

डा. विनय बोले, ‘अभी 1 साल लग जाएगा. वैसे सौम्या बहुत मेहनती और लगनशील है. अपना शोध कार्य 30 महीने में पूरा कर दिखाएगी, मुझे पूरा भरोसा है.’

डा. विनय का विवाह बरेली की जया वर्मा के साथ हुआ था. जया एम.बी.ए. कर के मार्केटिंग मैनेजर बन गई थी. उस की लाइफ बड़ी बिजी थी. डा. विनय छुट्टियों में उस के पास आ जाते थे. जया कामकाज में व्यस्त रहती थी. उस के लिए पैसा और कामयाबी ही जीवन के उद्देश्य थे. यह इत्तफाक ही था कि जया, समीर वाली कंपनी की बरेली शाखा में कार्यरत थी. समीर अकसर बरेली आफिस आता- जाता रहता था. कंपनी की मार्केटिंग बढ़ाने के लिए वह जया से मिलता, उस के साथ पास के कसबों में जाता और नई शाखाएं खोलने की तैयारी करता. जया अपने अधिकारी समीर के साथ घुलमिल गई थी. जब भी समीर बरेली में होता तो जया ही उस की देखभाल करती थी. होटल में कमरा बुक करा दिया जाता और आफिस की गाड़ी दे दी जाती.

जया का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था. तीखे नयननक्श, गोल गुलाबी गाल, सपाट माथा, दूधिया रंग लिए चेहरे पर कानों तक लहराते बाल. सचमुच देखने में परी सी लगती थी वह. उस पर खुद को सजानेसंवारने में भी कोई कोरकसर नहीं छोड़ती थी. समीर तो उस की एक झलक पाते ही दीवाना हो गया. वह जया को पाना चाहता था, मगर सदा के लिए नहीं. वह तो उस खूबसूरत खिलौने की तलाश में था जिस से जब चाहा खेल लिया और फिर सजा कर अलमारी में रख दिया. जया अपनी मनभावन अदाओं, मनमौजी बातों और मदमाते यौवन से समीर को मदमस्त बना रही थी. बदले में वह उसे महंगेमहंगे तोहफों से निहाल कर रहा था. जया समझती, बौस उस पर बड़ा मेहरबान है. प्रेम दोनों ओर पल रहा था, मगर विशुद्ध व्यावसायिक, समीर को खिलौने की चाहत थी और जया को कामयाबी की, इसलिए अपनेपन का स्वांग दोनों खूब करते थे.

दोस्ती परवान चढ़ने लगी. समीर, जया को एरिया मैनेजर बनाने के स्वप्न दिखा रहा था. जया की गोलगोल आंखों में सुनहरा भविष्य घूम रहा था. वह समीर को हर कीमत पर खुश रखना चाहती थी. दोनों एकदूसरे के वर्तमान से इतने खुश और संतुष्ट थे कि उन्होंने कभी भी अतीत को कुरेदने की गलती नहीं की. एक दिन समीर होटल में बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था. जया ने चहकते हुए कहा, ‘‘सर, आप तो हमेशा टूर पर होते हैं, हमें भी कभी बरेली से बाहर ले चलिए न.’’

समीर ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘क्यों नहीं, बोलो कहां चलोगी? मनाली, मसूरी या आगरा.’’

जया ने अपने गुलाबी अधरों पर मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘परसों पूर्णिमा है, क्यों न आगरा चला जाए? पे्रम की अनूठी मिसाल, पत्थर में रोमांस, दूधिया चांदनी में नहाया ताज, मुमताज को पुकारता सा लगता है. सर, आप पहले कभी ताज देखने आगरा गए हैं?’’

समीर बनावटी चिढ़न के साथ बोला, ‘‘जया, मैं तुम से नाराज हो जाऊंगा. क्या सर, सर लगा रखी है. यह आफिस नहीं है. तुम मुझे समीर बुला सकती हो.’’

जया ने नजरें झुकाते हुए कहा, ‘‘ठीक है.’’

‘‘जया, आगरा तो मैं कई बार गया हूं मगर इतनी फुरसत कहां जो चांदनी रात में ताज का दीदार कर सकूं. बस, आगरा पहुंचा, लोगों से मिला, बिजनेस का हाल पूछा और चलता बना. मैं तो ठहरा रमता जोगी, बहता पानी,’’ समीर रोमांटिक हो रहा था. उस ने जया की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘ताज भी तुम्हें देख कर ताजा हो जाएगा.’’

जया शरम से लाल हो गई. मुसकराते हुए बोली, ‘‘तारीफ करना तो कोई आप से सीखे.’’

‘‘थैंक्यू, जा कर अपनी तैयारी करो, कल रात को निकल पड़ते हैं. मैं अभी 2 टिकट बुक करा देता हूं,’’ समीर ने मुसकराते हुए कहा.

जया कृतज्ञ भाव से बोली, ‘‘थैंक्यू, समीर, कल मिलते हैं और आगरा चलते हैं.’’

उधर सौम्या को अपने बहुत करीब पा कर डा. विनय जया को भूल से गए थे. दोनों रात में कभीकभी फोन पर बातें कर लेते थे. सौम्या ने भी डा. विनय की तन्हाई को दूर कर दिया था. घर से दूर एक अच्छा दोस्त किसे खुशी नहीं देता. विनय फैशन के इस दौर में अतीत की अप्सरा को अपने सुघड़ हाथों से तराश रहा था. इतिहास की प्रेम कथाओं में डूबी सौम्या उन्हें कभी वैशाली की नगरवधू आम्रपाली लगती, कभी हाथ में वरमाला लिए संयोगिता बन जाती और कभी गुलाब सी खिलखिलाती नूरजहां, तो कभी हुस्न की मलिका मुमताज नजर आती थी.

सौम्या अपने शोध को प्रामाणिक बनाने के लिए लाइबे्ररियों की सीढि़यां चढ़तीउतरती, ऐतिहासिक प्रणय स्थलों की खाक छानती और दिन भर पढ़तीलिखती. उस की इस शोध यात्रा में एक शख्स हमेशा साये के समान उस के साथ रहता, वह कोई और नहीं, डा. विनय थे.

एक दिन डा. विनय ने सौम्या से पूछा, ‘‘भारत का सर्वश्रेष्ठ पे्रमस्मारक कौन सा है?’’

सौम्या ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘ताजमहल.’’

‘‘क्या कभी चांदनी रात में ताज के दीदार किए हैं?’’

‘‘नहीं, सर.’’

‘‘पूर्णिमा की रात में ताज का खास महत्त्व है,’’ डा. विनय बोले.

‘‘वह क्यों? उस रात उसे देखने से क्या मिलता है?’’

‘‘आंखों को सुख, मन को शांति और हृदय को अपूर्व आनंद. चांदनी रात में ताज की खूबसूरती सिर चढ़ कर बोलती है. ऐसा लगता है कि शाहजहां और मुमताज अपनीअपनी कब्रों से निकल कर एकटक एकदूसरे को निहार रहे हों.’’

‘‘आप सच कह रहे हैं?’’

‘‘इस में झूठ बोल कर क्या मिलेगा.’’

‘‘फिर तो मैं पूनम की रात में ताज अवश्य देखने जाऊंगी. आप मेरे साथ चलेंगे न?’’ सौम्या ने आग्रह से कहा तो डा. विनय चाह कर भी मना नहीं कर पाए.

समीर और जया सुबह ही आगरा पहुंच गए थे. दोनों एक होटल में ठहर गए. सफर की थकान दूर करने के लिए कड़क काफी का सहारा लिया. कुछ देर बाद बे्रकफास्ट किया और फिर अपनेअपने बिस्तर पर पसर गए. जया के मन में समीर को ले कर कोई घबराहट नहीं थी. उसे समीर पर पूरा भरोसा था.

समीर भी खाने को ठंडा कर के खाना चाहता था. उसे कोई उतावलापन नहीं था. वह तो जया के समर्पण की प्रतीक्षा कर रहा था. उसे भरोसा था कि जया कटी पतंग सी उस की बांहों में गिरेगी और वह जैसे चाहेगा, उस के साथ खेलेगा. वक्त ने भी उसे क्या खूब मौका दिया था. पूर्णिमा की रात, चांदनी में चमकता ताज और उस पर हंसतीखिलखिलाती कामिनी का साथ. समीर को इस से अधिक और क्या चाहिए?

जया की आंख खुली तो उस की नजर घड़ी पर पड़ी. शाम के 5 बज चुके थे. उस ने समीर को जगाया, तो समीर ने अंगड़ाई लेते हुए कहा, ‘‘अभी क्या जल्दी है, आज तो चांद भी देर से निकलेगा.’’

‘‘अब उठो भी,’’ जया बोली, ‘‘तैयार होना है, कुछ खानापीना है और फिर ताज भी तो चलना है.’’

‘‘अरे, उठता हूं बाबा, जाओ, पहले तुम तो तरोताजा हो लो, बस, 5 मिनट में उठता हूं. थोड़ी देर और सोने दो.’’

जया ने अकेले बालकनी में खड़े हो कर चाय पी और फिर नहाने चली गई.

जया ने नारंगी रंग की साड़ी पहनी. हलका मेकअप किया, और फिर आईने में खुद को तिरछी नजरों से निहारा तो आईने के किसी कोने में उसे विनय घूरता नजर आया. पल भर के लिए वह ठिठक गई. यह उस के मन का भ्रम था. अगले पल चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुसकान लाते हुए बुदबुदाने लगी, ‘अरे, डा. साहब…आप दून घाटी में इतिहास पढ़ाओ, हम तो खुद अपना इतिहास लिख रहे हैं. वैसे भी तुम कब मेरी पसंद रहे हो. घरपरिवार की मानमर्यादा का खयाल रखते हुए मैं ने हां कर दी थी.’

समीर ने आज सफेद रंग का सूट नेवी ब्लू टाई के साथ पहना. काले चमचमाते जूते. सिर के काले घने घुंघराले बाल उसे हैंडसम बना रहे थे. गठीला बदन, सुंदर, सुदर्शन गोल चेहरा और चेहरे पर मृदुल मुसकान किसी भी औरत का दिल जीतने के लिए काफी थे. समीर ने पहली बार जया को साड़ी में देखा तो बरबस उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘ओह, नाइस, वेरी ब्यूटीफुल.’’

जया ने अपनी तारीफ सुन कर धीरे से हाथ मिलाया तो उस ने जया के हाथ को चूम लिया.

जया ने धीरे से अपना हाथ हटा लिया, तो समीर दिल की बात जबान पर लाते हुए बोला, ‘‘जया, कयामत लग रही हो.’’

‘‘और आप हैंडसम.’’

‘‘कहीं तूफान न आ जाए.’’

‘‘मुझे उस की परवा कब है?’’

समीर ने जया को अपनी बांहों में भर लिया. जया के शरीर में बिजली सी दौड़ गई. उस ने  समीर के गाल पर किस करते हुए बडे़ प्यार से कहा, ‘‘पहले ताज को देख लो, मुमताज को फिर गले लगाना. चलो, देर हो रही है.’’

सौम्या और डा. विनय भी दोपहर बाद आगरा पहुंच गए थे. उन्होंने एक गेस्ट हाउस में कमरा बुक कराया था. शाम ढलने के साथ ही उन दोनों ने भी ताज देखने की तैयारियां शुरू कर दी थीं. सौम्या के लिए यह उत्सुकता और कौतूहल का विषय था और विनय के लिए इतिहास से वर्तमान में आने का सुनहरा अवसर. दोनों को लगता था कि ताज के सम्मुख बैठ कर कुछ दिल के अध्याय खोलेंगे. दोनों जब गेस्ट हाउस से निकले तो ऐसा लगा कि आज के शाहजहां और मुमताज मध्यकालीन प्रणय स्मारक पर प्रेम की नई इबारत लिखने जा रहे हों. ठीक 9 बजे डा. विनय, सौम्या को अपने साथ लिए ताज परिसर में पहुंच गए.

अपनी सोलह कलाओं के साथ चांद आकाश में निकला तो चांदनी ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया. चांदनी में नहाया ताज सचमुच बेजोड़ था. लोग ठगे से इस अनुपम दृश्य का आनंद ले रहे थे.

डा. विनय सौम्या को ताज के सामने वाली बेंच पर ले गए और बोले, ‘‘सौम्या, यहां बैठ कर ताज की सुंदरता का अवलोकन करो.’’

‘‘वाह, कितना अपूर्व, कितना स्वच्छ, कितना निर्मल, कितना कोमल, इस के जैसा कोई नहीं. प्रेम की अद्भुत मिसाल,’’ सौम्या के मुख से निकल पड़ा.

‘‘इस का इतिहास नहीं जानोगी?’’ डा. विनय बोले.

‘‘सर, वह मैं ने पढ़ रखा है.’’

‘‘एक तथ्य मैं बता देता हूं. जब शाहजहां को उस के बेटे औरंगजेब ने कैदखाने में डाल दिया, तब वह घंटों तक इस इमारत को देख कर रोता रहता था.’’

‘‘शाहजहां इतना प्यार करते थे मुमताज को?’’ सौम्या आश्चर्य से बोली.

‘‘हां, शाहजहां का प्यार इतिहास में अमर है.’’

इस तरह दोनों अपनी इतिहास चर्चा में इतने मग्न थे कि उन्हें पता ही न चला कि कब उन के बगल वाली बेंच पर एक खूबसूरत जोड़ा आ बैठा है, जो अपनी प्रेमकथा का इतिहास स्वयं लिख रहा है. दोनों एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले खुल कर प्रेम का इजहार कर रहे थे.

अचानक सौम्या की नजर पीछे पड़ी तो उस ने समीर को पहचान लिया. एक अनजान औरत को समीर के साथ देख कर उस का चेहरा तमतमा उठा. मुट्ठियां भिंचने लगीं. वह पैर पटकते हुए बगल वाली बेंच के सामने जा खड़ी हुई. समीर अपनी प्रेमलीला में इतना मस्त था कि उसे सौम्या के आने की आहट का भी पता नहीं चला.

सौम्या ने झुंझलाते हुए पूछा, ‘‘कौन है यह औरत? और यह सब क्या है, समीर? तो यहां है, तुम्हारी बरेली. झूठ, मुझे धोखा दे कर रंगरेलियां मना रहे हो.’’

समीर को झटका सा लगा. वह सकपका गया. जया से पल्ला झाड़ते हुए बोला, ‘‘सौम्या, तुम यहां, वह भी अकेली, मुझे बताया तक नहीं.’’

‘‘तो तुम ने क्या मुझे बताया कि तुम आगरा में पराई औरत के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे हो.’’

जया की स्थिति काटो तो खून नहीं वाली हो गई थी. सौम्या ने बड़बड़ाना जारी रखा, ‘‘मैं अकेली नहीं आई हूं, मेरे साथ मेरे गाइड डा. विनय आए हैं.’’

विनय का नाम सुनते ही जया के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह अपना मुंह छिपा कर वहां से भागना चाहती थी. तभी शोरगुल सुन कर विनय भी वहां पहुंच गए. बनीठनी जया को समीर के साथ देख कर विनय खुद को ठगा सा महसूस करने लगे. उन्होंने तो सपने में भी यह नहीं सोचा था कि जया इस हद तक गिर जाएगी.

आज डा. विनय का एक नए इतिहास से परिचय हो रहा था, जिस में न प्रेम था न त्याग और न समर्पण. यदि था तो केवल फरेब, शरीर का आकर्षण, वासना की भूख और महत्त्वाकांक्षा की अंधी गली.

समीर दूसरे के घर चोरी करने चला था, लेकिन उस के अपने घर भी डाका पड़ने वाला था. हमाम में सभी नंगे थे. चारों एकदूसरे को भूखे भेडि़यों की नजर से देख रहे थे. समीर विनय को घूर रहा था तो जया, सौम्या को. इतिहास ने उन्हें चौराहे पर ला खड़ा किया.

चांद वही था, ताज वही था और चांदनी भी वही थी मगर चेहरों से हंसीखुशी की रंगत गायब थी. माहौल एकदम बदल गया था. शृंगार रस का स्थान अब रौद्र एवं करुण रस ने ले लिया था. बेंचों पर बैठे दोनों जोड़े भी बदल गए थे. पल भर पहले की मुसकान, उत्साह, उमंग और हर्ष अब आरोपप्रत्यारोप, मानमनुहार और पश्चाताप में बदल चुके थे, चारों को अपने किए पर ग्लानि थी. पतिपत्नी के बीच भरोसे का बंधन खिसक रहा था. प्रेम तो पावन और निर्मल होता है, प्रेम का प्रतीक ताज यही बयां कर रहा था. मंदमंद मुसकरा रहा था और शायद यही कह रहा था, ‘ताज बोले तो…’ Sad Stories Hindi

Hindi Kahani: ऐसा तो होना ही था

Hindi Kahani: नमिता की बातें सुन कर ऋचा पलंग पर कटी पतंग की तरह गिर पड़ी. दिल इतनी जोरों से धड़क रहा था मानो निकल कर बाहर ही आ जाएगा. आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे :

‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’

भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है. एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं. ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है. आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं. एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए. अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था. रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया. पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी. अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था. दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं. आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी. अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है. Hindi Kahani

Short Story: रीते हाथ

Short Story: महत्त्वाकांक्षी उमा ने खूब सपने संजोए थे अपने भावी पति के बारे में. जल्द ही उस का सपना पूरा भी हो गया. सिला खत्म कर उमा घर से निकली तो मैं दरवाजा बंद कर अंदर आ गई. आंखों में अतीत और वर्तमान दोनों आकार लेने लगे. मैं सोफे पर चुपचाप बैठ कर अपने ही खयालों में खोई अपनी सहेली के रीते हाथों के बारे में सोचती रही. क्यों उमा से मेरी दोस्ती मां को बिलकुल पसंद नहीं थी. सुंदर, स्मार्ट, हर काम में आगे, उमा मुझे बहुत अच्छी लगती थी. वह मुझ से एक क्लास आगे थी और रास्ता एक होने के कारण हम अकसर साथ स्कूल आतेजाते थे. तब मैं भरसक इस कोशिश में रहती कि मां को हमारे मिलने का पता न चले, पर मां को सब पता चल ही जाता था.

उमा स्कूल से कालिज पहुंची तो दूसरे ही साल मेरा भी दाखिला उसी कालिज में हो गया. कालिज के उमड़ते सैलाब में तो उमा ही मेरा एकमात्र सहारा थी. यहां उस का प्रभाव स्कूल से भी ज्यादा था. कालिज का कोई भी कार्यक्रम उस के बगैर अधूरा लगता था. नाटक हिंदी का हो या अंगरेजी का उमा का नाम तो होता ही, अभिनय भी वह गजब का कर लेती थी. लड़कों की एक  लंबी फेहरिस्त थी, जो उमाके दीवाने थे. वह भी तो कैसे बेझिझक उन सब से बात कर लेती थी. बात भी करती और पीठ पीछे उन का मजाक भी उड़ाती. कालिज से लौटते समय एक बार उमा ने मुझे बताया था कि अभी तो ये ग्रेजुएशन ही कर रहे हैं और इन को कुछ बनने में, कमाने में सालों लगेंगे. मैं तो किसी ऐसे युवक से विवाह करूंगी जिस की अच्छी आमदनी हो ताकि मैं आराम से रह सकूं.

इसलिए मैं किसी के प्यार के चक्कर में नहीं पड़ती. मैं उस की दूरदर्शी बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. मुझ में झिझक थी. मैं अपनी किताबी दुनिया से बाहर कुछ नहीं जानती थी और उमा ठीक मेरे विपरीत थी. क्या यही कारण था, जो मुझे उस के व्यक्तित्व की ओर आकर्षित करता था? मन में छिपी एक कसक थी कि काश, मैं भी उस की जैसी बन पाती लेकिन मां क्यों…?

संयोग देखो कि उस की आकांक्षाओं पर जो युवक खरा उतरा वह मेरा ही मुंहबोला भाई विकास था. विकास से हमारा पारिवारिक रिश्ता इतना भर था कि उस के और मेरे पिता कभी साथसाथ पढ़ते थे पर इतने भर से ही विकास ने कभी हम बहनों को भाई की कमी महसूस नहीं होने दी. अपने घर की एक पार्टी में मैं ने विकास का परिचय उमा से कराया था और यह परिचय दोस्ती का रूप धर धीरेधीरे प्रगाढ़ होता चला गया था. मगर उस के पिता का मापतौल अलग था, उमा की आकांक्षाओं पर विकास भले ही खरा उतरा था. उमा की मां किसी राजघराने से संबंधित थीं और इस बात का गरूर उमा की मां से अधिक उस के पिता को था.

एक साधारण परिवार में वह अपनी बेटी ब्याह दें, यह नामुमकिन था. इसलिए उन्होंने एक खानदानी रईस परिवार में उमा का रिश्ता कर दिया. ऐसी बिंदास लड़की पर भी मांबाप का जोर चलता है, सोच कर मुझे आश्चर्य हुआ पर यही सच था. उमा के विवाह के 2 महीने बाद ही मेरा भी विवाह हो गया. पहली बार मायके आने पर पता चला कि उमा भी मायके आई हुई है, हमेशा के लिए. ‘लड़का नपुंसक है,’ यही बात उमा ने सब से कही थी. यह सच था अथवा उस ने अपने डिक्टेटर पिता को उन्हीं की शैली में जवाब दिया था, वही जाने. बहरहाल, पिता अपना दांव लगा कर हार चुके थे. इस बार मां ने दबाव डाला. उमा एक बार फिर दुलहन बनी और इस बार दूल्हा विकास था. प्यार की आखिरकार जीत हुई थी. एक असंभव सी लगने वाली बात संभव हो गई. हम सभी खुश थे. विकास की खुशी हम सब की खुशी थी. बस, मां ही केवल औपचारिकता निभाती थीं उमा से.

साल दर साल बीत रहे थे. अब शादीब्याह जैसे पारिवारिक मिलन के अवसरों पर उमा से मुलाकात हो ही जाती. एकदूसरे की हमराज तो हम पहले से ही थीं, अब और भी करीब हो गई थीं. एक बात सोचती हूं कि मनचाहा पा कर भी व्यक्ति संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता? और ऊंचे उड़ने की अंधी चाह औंधेमुंह पटक भी तो सकती है. उमा यही बात समझ नहीं पा रही थी. उसे अपनी महत्त्वा- कांक्षाओं के आगे सब बौने लगने लगे थे. विकास से उस की शिकायतों की फेहरिस्त हर मुलाकात में पहले से लंबी हो रही थी, वह महत्त्वाकांक्षी नहीं, पार्टियों, क्लबों का शौकीन नहीं, उसे अंगरेजी फिल्में पसंद नहीं, वह उमा के लिए महंगेमहंगे उपहार नहीं लाता…और भी न जाने क्याक्या? मैं भी अब पहले जैसी नादान नहीं रही थी. दुनियादारी सीख चुकी थी और मुझ में इतना आत्मविश्वास आ चुका था कि उमा को अच्छेबुरे की, गलतसही की पहचान करा सकूं.

‘देख उमा, मैं जानती हूं कि विकास बहुत महत्त्वाकांक्षी नहीं है पर तुम तो आराम से रहती हो न, और सब से बड़ी बात, वह तुम्हें कितना प्यार करता है. इस से बड़ा सौभाग्य क्या और कुछ हो सकता है? बताओ, कितनों को मनपसंद साथी मिलता है. फिर भी तुम्हें शिकायतें हैं, जबकि ज्यादातर औरतें एक अजनबी व्यक्ति के साथ तमाम उम्र गुजार देती हैं, बिना गिलेशिकवों के.’

‘मैं यह नहीं कहती कि पुरुष की सब बदसलूकियां चुपचाप सह लो, उस के सब जुल्म बरदाश्त कर लो पर जीवन में समझौते तो सभी को करने पड़ते हैं. यदि औरत घरपरिवार में तो पुरुष भी घर से बाहर दफ्तर में, काम में समझौते करता ही है.

‘मुझे ही देखो. मेरे पति अपने पैसे को दांत से पकड़ कर रखते हैं. अब इस बात पर रोऊं या इस बात पर तसल्ली कर लूं कि फुजूलखर्ची की आदत नहीं है तो दुखतकलीफ में किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे. दूसरे, कंजूस व्यक्ति में बुरी आदत जैसे सिगरेटशराब की लत पड़ने का भय नहीं रहता. अब यह तो जिस नजर से देखो नजारा वैसा ही दिखाई देगा.’

‘समझौता करना, कमियों को नजरअंदाज कर देना, यह सब तुम जैसे कमजोर लोगों का दर्शन है सुधा, सो तुम्हीं करो. यह समझौते मेरे बस के नहीं. मुझे जो एक जीवन मिला है मैं उसे भरपूर जीना चाहती हूं. शादी का मतलब यह तो नहीं कि मैं ने जीवन भर की गुलामी का बांड ही भर दिया है. ठीक है, गलती हो गई मेरे चयन में तो उसे सुधारा भी तो जा सकता है. मैं तुम्हारी तरह परंपरावादी नहीं हो सकती, होना भी नहीं चाहती और विकास को तो मैं सबक सिखा कर रहूंगी. इसी के लिए तो मैं पहले पति को छोड़ आई थी.’

विकास को सबक सिखाने का उमा ने नायाब तरीका भी ढूंढ़ निकाला. उस के काम पर जाते ही वह अपने पुरुष मित्रों से मिलने चल पड़ती. उस का व्यक्तित्व एक मैगनेट की तरह तो था ही जिस के आकर्षण में पुरुष स्वयं ख्ंिचे चले आते थे. क्या अविवाहित और क्या विवाहित, दोनों ही. उमा अब विकास के स्वाभिमान को, उस के पौरुष को खुलेआम चुनौती दे रही थी. उसे लगता था कि इस से अच्छा तो तलाक ही हो जाता. कम से कम वह चैन से तो जी पाएगा. उमा की यह इच्छा भी पूरी हो गई. उस का विकास से भी तलाक हो गया और वह अपनी 5 वर्षीय बेटी को भी छोड़ने को तैयार हो गई, क्योंकि इस बीच उस ने नवीन पाठक को पूरी तरह अपने मोहजाल में फंसा कर विवाह का वादा ले लिया था.

मैं उस के नए पति से कभी मिली नहीं थी और न ही मिलने की कोई उत्सुकता थी. बस, इतना जानती थी कि वह किसी उच्च पद पर है और प्राय: ही विदेश जाता रहता है. कुछ दिन के बाद उमा दूसरे शहर चली गई तो हम सब ने राहत की सांस ली. बस, विकास को देख कर मन दुखी होता था. इस रिश्ते का टूटना विकास के लिए महज एक कागजी काररवाई न थी. उस में अस्वीकृति का बड़ा एहसास जुड़ा था और उस जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह गहरा धक्का था. वैरागी सा हो गया था वह. कम ही किसी से मिलता और काम के बाद का सारा समय वह अपनी बेटी के संग ही बिताता.

लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर उमा अचानक मिल गई. इस बीच हम भी अनेक शहर घूम दिल्ली आ कर बस गए थे. हुआ यों कि एक शादी के रिसेप्शन में शामिल होने हम जिस होटल में गए थे, होटल की लौबी में अचानक ही उमा मुझे दिख गई. उस ने भी मुझे देख लिया और फौरन हम एकदूसरे की तरफ लपके. उमा अब 50 को छू रही थी किंतु उस के साथ जो पुरुष था वह उस से काफी बड़ा लग रहा था. उस समय तो अधिक बातचीत नहीं हो पाई पर उसे देख कर सब पुरानी यादें उमड़ पड़ी थीं. मैं ने फौरन उसे अगले ही दिन घर आने और पूरा दिन संग बिताने के लिए आमंत्रित कर लिया. आश्चर्य, अब भी उस के प्रति मेरा अनुराग बना हुआ था. उमा समय पर पहुंची. मैं ने खाना तो तैयार कर ही रखा था, काफी भी बना कर थर्मस भर दिया था ताकि इत्मीनान से बैठ कर हम बातचीत कर सकें.

मेरे पहले प्रश्न का उत्तर ही मुझे झटका दे गया, महज बात शुरू करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पाठक साहब कैसे मिजाज के हैं? मैं ने कल पहली बार उन्हें देखा.’’

उमा के चेहरे पर एक बुझी हुई और उदास सी मुसकान दिखाई दी और पल भर में वह गायब भी हो गई, कुछ पल खामोश रही वह, पर मेरी उत्सुक निगाहों को देख टुकड़ोंटुकड़ों में बोली, ‘‘वह पाठक नहीं था. हम दोनों अब एकसाथ रहते हैं. दरअसल, पाठक सही आदमी नहीं था. बहुत ऐयाश किस्म का आदमी था वह. तुम सोच नहीं सकतीं कि मैं किस तनाव से गुजरी हूं. जी चाहता है जान दे दूं. एंटी डिपे्रशन की दवाई तो लेती ही हूं.’’

विकास के साथ किए गए उस के पुराने व्यवहार को भूल कर मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सांत्वना देने का प्रयत्न किया.

‘‘कई औरतों के साथ पाठक के संबंध थे और विवाह के एक साल बाद से ही वह खुलेआम अपने दफ्तर की एक महिला के संग घूमने लगा था. जब जी चाहता वह घर आता, जब चाहता रात भी उसी के संग बिता देता. अपनी ऐसी तौहीन, मेरे बरदाश्त के बाहर थी.’’

‘हमारे किए का फल कई बार कितना स्पष्ट होता है’ कहना चाह कर भी मैं कह नहीं पाई. मुझे उस से हमदर्दी हो रही थी. एक औरत होने के नाते या पुरानी दोस्ती के नाते? जो भी मान लो.

‘‘फिर अब कहां रहती हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एक फ्लैट पाठक ने विवाह के समय ही मेरे नाम कर दिया था. मैं उसी में रहती हूं. बाकी मैं रीयल एस्टेट का अपना व्यवसाय करती हूं ताकि उस से और किसी सहायता की जरूरत न पड़े.’’

बच्चों की बात हुई तो मैं ने उसे बताया कि मेरे दोनों बच्चे ठीक से सैटल हो चुके हैं. बेटे ने अहमदाबाद से एम.बी.ए. किया है और बेटी ने बंगलौर से. बेटी का तो विवाह भी हो चुका है और अब बेटे के विवाह की सोच रहे हैं. जानती तो मैं भी थी उस की बिटिया के बारे में पर वह कितना जानती है पता नहीं. यही सोच कर मैं कुछ नहीं बोली. उस ने स्वयं ही बेजान सी आवाज में कहा, ‘‘सुना है, अलग अपनी किसी सहेली के साथ रहती है. कईकई दिनों घर नहीं जाती. मुझ से तो ठीक से बात करने को भी तैयार नहीं. फोन करूं तो एकदो बात का अधूरा सा जवाब दे कर फोन रख देती है,’’ यह कहतेकहते वह रोंआसी हो गई. मैं उस की ओर देखती रही, लेकिन ढूंढ़ नहीं पाई जीवन से भरपूर, अपनी ही शर्तों पर जीने वाली उमा को.

‘‘सिर पर छत तो है पर सोच सकती हो, उस घर में अकेले रहना कितना भयावना हो जाता है? लगता है दीवारें एकसाथ गिर कर मुझे दबोच डालने का मनसूबा बनाती रहती हैं. शाम होते ही घर से निकल पड़ती हूं. कहीं भी, किसी के भी साथ… मैं तुम्हें पुरातनपंथी कहती थी, मजाक उड़ाती थी तुम्हारा. पर तुम ही अधिक समझदार निकलीं, जो अपना घर बनाए रखा, बच्चों को सुरक्षात्मक माहौल दिया. बच्चे तुम्हारे भी तुम से दूर हैं, फिर भी वह तुम्हारे अपने हैं. पूर्णता का एहसास है तुम्हें, कैसा भी हो तुम्हारा पति तुम्हारे साथ है, उस का सुरक्षात्मक कवच है तुम्हारे चारों ओर. जानती हो, मुझे कैसीकैसी बातें सुननी पड़ती हैं. मेरी ही बूआ का दामाद एक दिन मुझ से बोला, कोई बात नहीं यदि पाठक चला गया तो हम तो हैं न.

‘‘उस की बात से अधिक उस के कहने का ढंग, चेहरे का भाव मुझे आज भी परेशान करता है पर चुप हूं. मुंह खोलूंगी तो बूआ और उन की बेटी दोनों को दुख पहुंचेगा. और फिर अपने ही किए की तो सजा पा रही हूं…’’

उमा को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था. ठोकरें खा कर दूसरों के दुखदर्द का खयाल आने लगा था पर अब बहुत देर हो चुकी थी. मैं उस की सहायता तो क्या करती, सांत्वना के शब्द भी नहीं सोच पा रही थी. वही फिर बोली, ‘‘सुधा, घर तो खाली है ही मेरा मन भी एकदम खाली है. लगता है घनी अंधेरी रात है और मैं वीरान सड़क पर अकेली खड़ी हूं… रीते हाथ. Short Story

Bihar Politics : पावरलेस नीतीश कुमार- नाम किसी का राज किसी का

बिहार में चुनाव हो गए और नीतीश कुमार 10वीं बार मुख्यमंत्री बन गए. इस बार नीतीश कुमार बदलेबदले नजर आ रहे हैं. बिहार के 2020 और 2025 के दोनों विधानसभा चुनावों में खास बात यह थी कि भाजपा के विधायकों की संख्या जदयू के विधायकों से अधिक थी. इस के बाद भी भाजपा ने नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री कबूल कर लिया.
2025 के चुनाव नतीजों से पहले यह कयास लगाया जा रहा था कि भाजपा नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का पद नहीं देगी. भाजपा ने नेता और गृहमंत्री अमित शाह ने कहा भी था कि ‘मुख्यमंत्री का नाम चुनाव नतीजों के बाद तय कर लिया जाएगा.’ अमित शाह के बयान का यह मतलब था कि नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के लिए भाजपा तैयार नहीं है.
बिहार में नीतीश कुमार का क्रेज था. नीतीश कुमार का नाम चल रहा था. ऐसे में भाजपा ने ‘सीएम फेस’ के मुद्दे पर अपने पैर वापस खीचें.
विपक्ष लगातार इस मुददे को हवा दे रहा था कि भाजपा नीतीश कुमार को साइड कर रही है. नीतीश कुमार का साथ भाजपा के लिए जरूरी और मजबूरी दोनों है. केंद्र सरकार को चलाने में नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू का सहयोग जरूरी हैं. ऐसे में बिहार में भाजपा को अपनी ज्यादा सीटों के बाद भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना मजबूरी था, क्योंकि केंद्र के लिए नीतीश कुमार जरूरी हैं.
इस उहापोह के बीच भाजपा का एक सपना फंसा हुआ है. वह पूरे भारत को जीत कर चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहती है. बिहार को जीत तो लिया पर राज तो नीतीश का ही चल रहा है. यह भाजपा को सहन नहीं हो रहा है. इस के लिए उस ने बीच का रास्ता यह निकाला कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर बैठ तो जाएं पर वह पावरलेस रहें. वह केवल रबर स्टैंप हों. इस योजना के तहत बिहार में भाजपा ने शतरंज की गोट बिछा दी है.
बिहार में मुख्यमंत्री का पद भले ही नीतीश कुमार के पास हो पर उन के साथ दो उपमुख्यमंत्री बना दिए गए हैं. इन में पहले सम्राट चौधरी हैं और दूसरे उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा हैं. सम्राट चौधरी को गृह विभाग मिलने से उन का पावर अधिक हो गया है. सम्राट चौधरी को नीतीश कुमार के विकल्प के रूप में तैयार किया जा रहा है.
26 सदस्यों की टीम में नीतीश कुमार के अलावा 9 नए चेहरे शामिल है. इन में भाजपा के 14, जदयू के 8, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के 2, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) और राष्ट्रीय लोकमोर्चा (आरएलएम) के एकएक सदस्य शामिल हैं. नीतीश की इस कैबिनेट में एक मुसलिम मंत्री और 3 महिलाएं हैं. पिछली नीतीश सरकार के मंत्री रहे एक दर्जन से अधिक नेताओं को इस बार नीतीश की नई कैबिनेट में जगह नहीं मिली. इन में भाजपा के 15 और जदयू के 6 सदस्य हैं. इन में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के बेटे नीतीश मिश्रा भी हैं.
नीतीश कैबिनेट में जातीय समीकरणों का भी पूरा ध्यान रखा गया. सब से अधिक 8 मंत्री सामान्य वर्ग से हैं, 6-6 पिछड़ी और अतिपिछड़ी जाति से और 5 अनुसूचित जाति से मंत्री है. भाजपा की ओर से पूर्व उपमुख्यमंत्री रेणु देवी के साथ नीरज कुमार सिंह, नीतीश मिश्रा, जनक राम, हरि सहनी, केदार प्रसाद गुप्ता, संजय सरावगी, जीवेश कुमार, राजू कुमार सिंह, मोतीलाल प्रसाद, कृष्ण कुमार मंटू, संतोष सिंह और कृष्णनंदन पासवान के नाम शामिल हैं. इस मंत्रिमंडल में सब से खास बात यह है कि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएम से उन के बेटे दीपक प्रकाश को मंत्री बनाया गया. वह न तो विधायक हैं न ही विधान परिषद् के सदस्य. उन को 6 माह के भीतर सदस्य बनना पड़ेगा.

गृह विभाग क्यों होता है खास ?

नीतीश कुमार की हालत महाभारत के धृतराष्ट्र वाली है. जहां सिंहासन पर भले ही धृतराष्ट्र बैठे हों पर राजकाल दुर्योधन के अनुसार चल रहा है. नीतीश कुमार जब से बिहार के मुख्यमंत्री है गृहविभाग उन के ही पास रहा है. जब वह 10वीं बार मुख्यमंत्री बने तो गृहविभाग उप मुख्यमंत्री और भाजपा नेता सम्राट चौधरी को देना पड़ा. किसी भी देश और प्रदेश में गृहविभाग सब से अहम होता है. केंद्र की मोदी सरकार में 2014 में गृहविभाग राजनाथ सिंह के पास था. 2019 में जब अमित शाह को मोदी मंत्रिमंडल में जगह दी गई तो उन को गृहविभाग देने के लिए राजनाथ सिंह को रक्षा विभाग की तरफ खिसका दिया गया. इस की वजह यह थी कि अमित शाह पीएम नरेंद्र मोदी के बेहद खास माने जाते हैं.
प्रदेशों में ज्यादातर ताकतवार मुख्यमंत्री गृह विभाग अपने पास रखते हैं. उत्तर प्रदेश में गृह विभाग मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पास है. जिस के बल पर उन का ‘बुलडोजर’ चलता है. गृहविभाग के अंदर ही पुलिस आती है. जिस से सरकार का रसूख चलता है. बिहार सरकार के गृह विभाग में प्रशासन के रखरखाव के साथ अग्निशमन, कारागार प्रशासन, कानून और व्यवस्था, अपराध की रोकथाम और नियंत्रण, अपराधियों के अभियोजन का काम आता है.
20 साल में जब भी नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री थे तब इस विभाग के कामकाज की फाइल सीधे नीतीश कुमार के पास आती थी. क्योंकि वह गृहविभाग के मंत्री थे. अब गृहविभाग की फाइल सम्राट चौधरी के पास जाएगी. जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के तौर पर इस में कोई हस्तक्षेप करना चाहेंगे तभी फाइल उन के पास जा सकती है. यह हालत आपसी विवाद को जन्म देगी क्योंकि कोई भी मंत्री यह नहीं चाहता कि कोई दूसरा उस के कामकाज में हस्तक्षेप करें. सम्राट चौधरी भाजपा के नेता हैं.
गृह विभाग सम्राट चौधरी के पास होने का मतलब यह है कि बिहार में कानून व्यवस्था की कमान अब भाजपा के पास है. सम्राट चौधरी के बयान भी इसी दिशा में हैं कि अपराधी या तो जेल में रहें या फिर बिहार के बाहर चले जाएं. यह भी हो सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यना का बुलडोजर अब सम्राट चौधरी के काम आने लगे. भाजपा उन को नीतीश कुमार के विकल्प के तौर पर उभरने का मौका दे रही है. ऐसे में नीतीश कुमार का हस्तक्षेप भाजपा को भी रास नहीं आएगा.

विवादों के घिरे रहे हैं सम्राट चौधरी

भाजपा में यह खासियत है कि वह दूसरे दलों के नेताओं न केवल अपने दल में मिला लेती है बल्कि उन को अहम जिम्मेदारी भी देती है. उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पाटी से आए ब्रजेश पाठक को उपमुख्यमंत्री बनाया उसी प्रकार से राजद, जदयू से निकले सम्राट चौधरी को बिहार का उपमुख्यमंत्री बना दिया. अब उन को बिहार में भाजपा नेता का प्रमुख चेहरा बना रही है. जिस से 2030 के विधानसभा चुनाव में वह अपने नेता के साथ चुनाव में जा सके. तभी भाजपा का विजयरथ आगे बढ़ सकेगा.
सम्राट चौधरी की खास बात यह है कि वह अभी 57 साल के है. उन के पास 10-15 साल का कैरियर बाकी है. इस के अलावा वह कोइरी (कुशवाहा) समुदाय से आते हैं. बिहार में राजनीत में भाजपा सवर्ण, एससी और अतिपिछड़ी जातियों को जोड़ कर चलती है. सम्राट चौधरी बिहार की राजनीति में लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) गठजोड़ को मजबूत करने वाले प्रमुख ओबीसी चेहरे के रूप जाने जाते हैं. जो भाजपा को मजबूत आधार देने का काम करेगा.
सम्राट चौधरी का जन्म 16 नवंबर 1968 को मुंगेर जिले के लखनपुर गांव में हुआ था. उन का परिवार दशकों से बिहार की राजनीति के केंद्र में रहा है. उन के पिता शकुनी चौधरी 7 बार विधायक और सांसद रह चुके हैं, जबकि मां पार्वती देवी 1995 में तरापुर से विधायक थीं. सम्राट चौधरी की पत्नी ममता कुमारी पेषे से अधिवक्ता हैं और उन के दो बच्चे हैं.
सम्राट चौधरी ने 1990 में राष्ट्रीय जनता दल के अपने राजनीतिक कैरियर की शुरूआत की थी. 1999 में वे राबड़ी देवी सरकार में कृषि मंत्री बने. उस समय उन की उम्र 25 साल से कम थी. इस बात को ले कर विवाद उठा तो उन को मंत्री पद से हटा दिया गया था. 2000 और 2010 में सम्राट चौधरी परबत्ता सीट से विधायक चुने गए. 2010 में विपक्ष के मुख्य सचेतक बने. 2014 में वे जनता दल यूनाइटेड में शामिल हुए और जीतन राम मांझी सरकार में शहरी विकास एवं आवास मंत्री भी रहे.
2017-2018 में सम्राट चौधरी ने भाजपा का दामन थामा और तेजी से संगठन में आगे बढ़े. पहले वह बिहार भाजपा के उपाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष बने. 2020 में वह विधान परिशद सदस्य चुने गए. 2021-2022 में उन को पंचायती राज मंत्री बनाया गया. जब नीतीश और भाजपा गठबंधन टूटा तो अगस्त 2022 से अगस्त 2023 तक वे बिहार विधान परिशद में विपक्ष के नेता बने थे.
मार्च 2023 से जुलाई 2024 तक उन्होंने बिहार भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पार्टी को नेतृत्व दिया. इसी दौरान उन्होंने पगड़ी पहनने की कसम खाई थी कि जब तक भाजपा सत्ता में नहीं लौटेगी, तब तक नहीं उतारेंगे. लोकसभा चुनाव से पहले जब नीतीश वापस भाजपा के साथ आए तो जनवरी 2024 में उन को भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद उपमुख्यमंत्री बनाया गया. 2025 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पैतृक सीट तरापुर से चुनाव जीता.
सम्राट चौधरी विवादों से घिरे रहे हैं. 25 साल से कम उम्र में मंत्री बनने के विवाद के चलते उन को हटना पड़ा था. उन की शिक्षा को ले कर भी विवाद है. सम्राट चौधरी की शिक्षा गृहनगर में पूरी की थी. उच्च शिक्षा के तौर पर मदुरै कामराज विश्वविद्यालय से डाक्टर औफ लिटरेचर (डी.लिट.) की डिग्री का उल्लेख किया है. 2010 के चुनावी हलफनामे में सम्राट चौधरी ने खुद को 7वीं कक्षा तक पढ़ा बताया था. 2025 में प्रशांत किशोर ने उन की डिग्री की प्रामाणिकता पर सवाल उठाया था. इस तरह से उन की शिक्षा विवादों में रही है.
चुनाव में अनुचित प्रभाव (धारा 171एफ), सरकारी आदेश की अवज्ञा (धारा 188), चोट पहुंचाने और दंगा से संबंधित आरोप भी सम्राट चौधरी पर दर्ज हैं. 2023 में उन का बयान विवादों में रहा कि भारत 1947 में नहीं, बल्कि 1977 में जेपी की संपूर्ण क्रांति से आजाद हुआ था. अब वह बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं लेकिन उन को सुपर सीएम माना जा रहा है. भाजपा उन को बिहार में सीएम फेस के रूप में उभारना चाहती है. भाजपा को इस बात का दर्द है कि बिहार में उसका अपना मुख्यमंत्री कभी नहीं रहा है. उसे नीतीश कुमार के पीछे चलना पड़ रहा है. आने वाले 5 सालों में नीतीश कुमार कमजोर होंगे. उन के साथ भाजपा वही करेगी जो अपने सहयोगी दलों के साथ करती है. शिवसेना, एनसीपी और अकाली दल जैसी कई पार्टियां इस का दंश झेल रही है.

सहयोगियों खत्म कर ही बढ़ेगा भाजपा का विजय रथ

भाजपा के मूल में लोकतंत्र की भावना नहीं है. भाजपा पौराणिक राज को वापस लाना चाहती है जिस में राजा कोई भी हो पर राज ब्राहमणों का चलता रहा है. भाजपा अलगअलग जातियों को कुर्सी पर बैठा सकती है पर सिहासन पर आदेश आरएसएस का ही चलना चाहिए. यह व्यवस्था बनाने के लिए वह सहयोगी दलों को खत्म करना पड़ता है. नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू भले ही केंद्र में भाजपा के सहयोगी हों पर भाजपा उन को भी मौका मिलते ही खत्म करने में देर नहीं लगाएगी.
बिहार से पहले महाराष्ट्र इस का सब से बड़ा उदाहरण है. भाजपा ने सब से पहले शिवसेना को तोड़ा. इस के लिए उस ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया था. जब भाजपा का बहुमत आया तो एकनाथ शिंदे को वापस उपमुख्यमंत्री बना कर भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बना दिया. एनसीपी में शरद पंवार के भतीजे अजित पंवार को भाजपा ने तोड़ कर अलग कर दिया. अब एकनाथ शिंदे और अजीत पंवार दोनों ही भाजपा के पिछलग्गू बन कर रह गए हैं.
बिहार में जदयू ही नहीं चिराग पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी का भी वही हाल है. चिराग पासवान में अपने बलबूते कुछ करने की ताकत नहीं है. ऐसे में उन की पार्टी भाजपा की पिछलग्गू ही बनी रहेगी. जिस लोकजन शक्ति पार्टी को एससी और ओबीसी की बेहतरी के लिए काम करना था उस के नेता चिराग पासवान नरेंद्र मोदी के हनुमान बन कर ही खुश है. बिहार के नेता जीतन राम मांझी जैसे नेता भी नाराज होने के बाद भी भाजपा के पीछे चलने को मजबूर है.
उत्तर प्रदेश में लोकदल, अपना दल अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद भाजपा के सहयोगी दल है. पिछड़ी जाति के आरक्षण को ले कर अनुप्रिया पटेल ने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार से नाराज है. लोकदल के नेता जंयत चौधरी केंद्र में मंत्री रह कर ही खुश है. वह भाजपा से अलग का सोच नहीं सकते हैं. उन को लगता है कि भाजपा विरोध में उन का दल टूट जाएगा. ओमप्रकाश राजभर और सुभाश निषाद योगी सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने की हालत में नहीं है. बहुजन समाज पार्टी जब से भाजपा के दबाव में आई है उस को जनाधार खत्म होता जा रहा है.
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल भारतीय जनता पार्टी का सहयोगी दल था. अटल बिहारी वाजपेई से लेकर नरेंद्र मोदी सरकार तक केंद्र सरकार में अकाली दल के नेताओं को मंत्री पद मिला हुआ था. कृषि कानूनों के विरोध में जब किसान आंदोलन हुआ तब से अकाली दल और भाजपा के बीच दूरियां बढ़नी शुरू हुई. भाजपा जब भी ‘हिंदू राष्ट्र’ की बात करती है तो सहज भाव से सिख को अपना खालिस्तान याद आने लगता है. अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल हिंदू और सिखों के बीच एक कड़ी का काम करते थे जो दोनों को जोड़े थे. शिरोमणि अकाली दल के कमजोर होने का प्रभाव पंजाब की राजनीति पर पड़ रहा है. भाजपा ने अकाली दल का खत्म कर दिया है.
नवीन पटनायक और चन्द्रबाबू नायडू के साथ भी भाजपा ने इसी तरह से खेल किया है. दक्षिण भारत एआईएडीएमके जयललिता के समय से भाजपा के साथ थी. नरेंद्र मोदी के दौर में भाजपा की बदलती विस्तारवादी नीति से परेशान हो कर भाजपा से दूर हो गई. इस तरह से भाजपा अपने सहयोगी दलों से तभी तक मतलब रखती है जब तक उसे काम होता है. जैसे काम निकल जाता है भाजपा उन को पहचानती नहीं है. भाजपा अपने हिंदू राष्ट्र की पताका पूरे देश में फहराना चाहती है इस के लिए जरूरी है कि उस की विचाराधारा से सहमत न रहने वाले दलों को खत्म कर दिया जाए.
बिहार के बाद अगले साल 2026 में पष्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडू के विधानसभा चुनाव है जहां भाजपा अपना आधार बढाना चाहती है. पश्चिम बंगाल में भाजपा टीएमसी के साथ टकरा रही है. वामपंथी दल और कांग्रेस वहां खत्म हो गए हैं. भाजपा वहां टीएमसी और ममता बनर्जी को सत्ता से उतारना चाहती है. जिस से भाजपा के पौराणिक राज का विस्तार हो सके. इस की एक झलक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अयोध्या में दिए गए भाषण में मिलती है. राममंदिर में ध्वजारोहण करते पीएम मोदी के कहने का अर्थ यह था कि धर्मध्वजा रामराज का प्रतीक है. यहां निषाद राज, सबरी, अहल्या, महर्षि अगस्त्य, तुलसीदास, जटायू और गिलहरी की मूर्तियां भी हैं. इस के बाद राममंदिर है.
रामराज में जिस तरह से अलगअलग समुदाय के लोग थे पर राजा केवल महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र के कहे अनुसार चलता था. उसी तरह से देश में अलग अलग विचारधारा के लोग हो सकते हैं लेकिन उन को चलना भाजपा और संघ के अनुसार होगा. वह राजसत्ता चलाने के लिए नहीं है. वह केवल वानर सेना का हिस्सा भर हो सकते हैं. विजय पताका केवल भाजपा की ही फैल सकती है. उस के पीछे वाले केवल साथ चल सकते हैं. इस के लिए सहयोगी दलों को समझना होगा. एनडीए में किसी दल की हैसियत नहीं है कि वह भाजपा से अलग सोच सके. पौराणिक ग्रंथों के चक्रवर्ती साम्रराज्य की पटकथा में भाजपा विजयश्री की माला खुद ही पहनना चाहती है.

Story in Hindi: एक मौका और दीजिए

Story in Hindi: नीलेश शहर के उस प्रतिष्ठित रेस्टोरेंट में अपनी पत्नी नेहा के साथ अपने विवाह की दूसरी सालगिरह मनाने आया था. वह आर्डर देने ही वाला था कि सामने से एक युगल आता दिखा. लड़की पर नजर टिकी तो पाया वह उस के प्रिय दोस्त मनीष की पत्नी सुलेखा है. उस के साथ वाले युवक को उस ने पहले कभी नहीं देखा था. मनीष के सभी मित्रों और रिश्तेदारों से नीलेश परिचित था. पड़ोसी होने के कारण वे बचपन से एकसाथ खेलेकूदे और पढ़े थे. यह भी एक संयोग ही था कि उन्हें नौकरी भी एक ही शहर में मिली. कार्यक्षेत्र अलग होने के बावजूद उन्हें जब भी मौका मिलता वे अपने परिवार के साथ कभी डिनर पर चले जाते तो कभी किसी छुट्टी के दिन पिकनिक पर. उन के कारण उन दोनों की पत्नियां भी अच्छी मित्र बन गई थीं.

मनीष का टूरिंग जाब था. वह अपने काम के सिलसिले में महीने में लगभग 10-12 दिन टूर पर रहा करता था. इस बार भी उसे गए लगभग 10 दिन हो गए थे. यद्यपि उस ने फोन द्वारा शादी की सालगिरह पर उन्हें शुभकामनाएं दे दी थीं किंतु फिर भी आज उसे उस की कमी बेहद खल रही थी. दरअसल, मनीष को ऐसे आयोजनों में भाग लेना न केवल पसंद था बल्कि समय पूर्व ही योजना बना कर वह छोटे अवसरों को भी विशेष बना दिया करता था. मनीष के न रहने पर नीलेश का मन कोई खास आयोजन करने का नहीं था किंतु जब नेहा ने रात का खाना बाहर खाने का आग्रह किया तो वह मना नहीं कर पाया. कार्यक्रम बनते ही नेहा ने सुलेखा को आमंत्रित किया तो उस ने यह कह कर मना कर दिया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है पर उसे इस समय देख कर तो ऐसा नहीं लग रहा है कि उस की तबीयत खराब है. वह उस युवक के साथ खूब खुश नजर आ रही है.

नीलेश को सोच में पड़ा देख नेहा ने पूछा तो उस ने सुलेखा और उस युवक की तरफ इशारा करते हुए अपने मन का संशय उगल दिया.

‘‘तुम पुरुष भी…किसी औरत को किसी मर्द के साथ देखा नहीं कि मन में शक का कीड़ा कुलबुला उठा…होगा कोई उस का रिश्तेदार या सगा संबंधी या फिर कोई मित्र. आखिर इतनेइतने दिन अकेली रहती है, हमेशा घर में बंद हो कर तो रहा नहीं जा सकता, कभी न कभी तो उसे किसी के साथ की, सहयोग की जरूरत पड़ेगी ही,’’ वह प्रतिरोध करते हुए बोली, ‘‘न जाने क्यों मुझे पुरुषों की यही मानसिकता बेहद बुरी लगती है. विवाह हुआ नहीं कि वे स्त्री को अपनी जागीर समझने लगते हैं.’’

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‘‘ऐसी बात नहीं है नेहा, तुम ही तो कह रही थीं कि जब तुम ने डिनर का निमंत्रण दिया था तब सुलेखा ने कह दिया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है और अब वह इस के साथ यहां…यही बात मन में संदेह पैदा कर रही है…और तुम ने देखा नहीं, वह कैसे उस के हाथ में हाथ डाल कर अंदर आई है तथा उस से हंसहंस कर बातें कर रही है,’’ मन का संदेह चेहरे पर झलक ही आया.

‘‘वह समझदार है, हो सकता है वह दालभात में मूसलचंद न बनना चाहती हो, इसलिए झूठ बोल दिया हो. वैसे भी किसी स्त्री का किसी पुरुष का हाथ पकड़ना या किसी से हंस कर बात करना सदा संदेहास्पद क्यों हो जाता है? फिर भी अगर तुम्हारे मन में संशय है तो चलो उन्हें भी अपने साथ डिनर में शामिल होने का फिर से निमंत्रण दे देते हैं…दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.’’

नेहा ने नीलेश का मूड खराब होने के डर से बीच का मार्ग अपना लेना ही श्रेयस्कर समझा.

‘‘हां, यही ठीक रहेगा,’’ किसी के अंदरूनी मामले में दखल न देने के अपने सिद्धांत के विपरीत नीलेश, नेहा की बात से सहमत हो गया. दरअसल, वह उस उलझन से मुक्ति पाना चाहता था जो उस के दिल और दिमाग को मथ रही थी. वैसे भी सुलेखा कोई गैर नहीं, उस के अभिन्न मित्र की पत्नी है.

वे दोनों उठ कर उन के पास गए. उन्हें इस तरह अपने सामने पा कर सुलेखा चौंक गई, मानो वह समझ नहीं पा रही हो कि क्या कहे.

‘‘दरअसल सुलेखा, हम लोग यहां डिनर के लिए आए हैं. वैसे मैं ने सुबह तुम से कहा भी था पर उस समय तुम ने कह दिया कि तबीयत ठीक नहीं है पर अब जब तुम यहां आ ही गई हो तो हम चाहेंगे कि तुम हमारे साथ ही डिनर कर लो. इस से हमें बेहद प्रसन्नता होगी,’’ नेहा उसे अपनी ओर आश्चर्य से देखते हुए भी सहजता से बोली.

‘‘पर…’’ सुलेखा ने झिझकते हुए कुछ कहना चाहा.

‘‘पर वर कुछ नहीं, सुलेखाजी, मनीष नहीं है तो क्या हुआ, आप को हमेंकंपनी देनी ही होगी…आप भी चलिए मि…आप शायद सुलेखाजी के मित्र हैं,’’ नीलेश ने उस अजनबी की ओर देखते हुए कहा.

‘‘यह मेरा ममेरा भाई सुयश है,’’ एकाएक सुलेखा बोली.

‘‘वेरी ग्लैड टू मीट यू सुयश, मैं नीलेश, मनीष का लंगोटिया यार, पर भाभी, आप ने कभी इन के बारे में नहीं बताया,’’ कहते हुए नीलेश ने बडे़ गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘यह अभी कुछ दिन पूर्व ही यहां आए हैं,’’ सुलेखा ने कहा.

‘‘ओह, तभी हम अभी तक नहीं मिले हैं, पर कोई बात नहीं, अब तो अकसर ही मुलाकात होती रहेगी,’’ नीलेश ने कहा.

अजीब पसोपेश की स्थिति में सुलेखा साथ आ तो गई पर थोड़ी देर पहले चहकने वाली उस सुलेखा तथा इस सुलेखा में जमीनआसमान का अंतर लग रहा था…जितनी देर भी साथ रही चुप ही रही, बस जो पूछते उस का जवाब दे देती. अंत में नेहा ने कह भी दिया, ‘‘लगता है, तुम को हमारा साथ पसंद नहीं आया.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. दरअसल, तबीयत अभी भी ठीक नहीं लग रही है,’’ झिझकते हुए सुलेखा ने कहा.

बात आईगई हो गई. एक दिन नीलेश शौपिंग मौल के सामने गाड़ी पार्क कर रहा था कि वे दोनों फिर दिखे. उन के हाथ में कुछ पैकेट थे. शायद शौपिंग करने आए थे. आजकल तो मनीष भी यही हैं, फिर वे दोनों अकेले क्यों आए…मन में फिर संदेह उपजा, फिर यह सोच कर उसे दबा दिया कि वह उस का ममेरा भाई है, भला उस के साथ घूमने में क्या बुराई है.

मनीष के घर आने पर एक दिन बातोंबातों में नीलेश ने कहा, ‘‘भई, तुम्हारा ममेरा साला आया है तो क्यों न इस संडे को कहीं पिकनिक का प्रोग्राम बना लें. बहुत दिनों से दोनों परिवार मिल कर कहीं बाहर गए भी नहीं हैं.’’

‘‘ममेरा साला, सुलेखा का तो कोई ममेरा भाई नहीं है,’’ चौंक कर मनीष ने कहा.

‘‘पर सुलेखा भाभी ने तो उस युवक को अपना ममेरा भाई बता कर ही हम से परिचय करवाया था, उसे सुलेखा भाभी के साथ मैं ने अभी पिछले हफ्ते भी शौपिंग मौल से खरीदारी कर के निकलते हुए देखा था. क्या नाम बताया था उन्होंने…हां सुयश,’’ नीलेश ने दिमाग पर जोर डालते हुए उस का नाम बताते हुए पिछली सारी बातें भी उसे बता दीं.

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‘‘हो सकता है, कोई कजिन हो,’’ कहते हुए मनीष ने बात संभालने की कोशिश की.

‘‘हां, हो सकता है पर पिकनिक के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’’ नीलेश ने फिर पूछा.

‘‘मैं बाद में बताऊंगा…शायद मुझे फिर बाहर जाना पडे़,’’ मनीष ने कहा.

नीलेश भी चुप लगा गया. वैसे नीलेश की पारखी नजरों से यह बात छिप नहीं पाई कि उस की बात सुन कर मनीष परेशान हो गया है. ज्यादा कुछ न कह कर मनीष कुछ काम है, कह कर उस के पास से हट गया. उस दिन उसे पहली बार महसूस हुआ कि दोस्ती चाहे कितनी भी गहरी क्यों न हो पर कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें व्यक्ति किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहता.

उधर मनीष, नीलेश के प्रति अपने व्यवहार के लिए स्वयं को धिक्कार रहा था. पहली बार ऐसा हुआ था कि कोई प्रोग्राम बनने से पूर्व ही अधर में लटक गया था पर वह करता भी तो क्या करता. नीलेश की बातें सुन कर उस के दिल में  शक का कीड़ा कुलबुला कर नागफनी की तरह डंक मारते हुए उसे दंशित करने लगा था.

वह जानता था कि उसे महीने में 10-12 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है. ऐसे में हो सकता है सुलेखा की किसी के साथ घनिष्ठता हो गई हो. इस में  कुछ बुरा भी नहीं है पर उसे यही विचार परेशान कर रहा था कि सुलेखा ने उस सुयश नामक व्यक्ति से उसे क्यों नहीं मिलवाया, जबकि नीलेश के अनुसार वह उस से मिलती रहती है. और तो और उस ने उस का नीलेश से अपना ममेरा भाई बता कर परिचय भी करवाया…जबकि उस की जानकारी में उस का कोई ममेरा भाई है ही नहीं…उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे पर सिर्फ अनुमान के आधार पर किसी पर दोषारोपण करना उचित भी तो नहीं है.

एक दिन जब सुलेखा बाथरूम में थी तो वह उस का सैलफोन सर्च करने लगा. एक नंबर  उसे संशय में डालने लगा क्योंकि उसे बारबार डायल किया गया था. नाम था सुश…सुश. नीलेश की जानकारी में सुलेखा का कोई दोस्त नहीं है फिर उस से बारबार बातें क्यों किया करती है और अगर उस का कोई दोस्त है तो उस ने उसे बताया क्यों नहीं. मन ही मन मनीष ने सोचा तो उस के अंतर्मन ने कहा कि यह तो कोई बात नहीं कि वह हर बात तुम्हें बताए या अपने हर मित्र से तुम्हें मिलवाए.

पर जीवन में पारदर्शिता होना, सफल वैवाहिक जीवन का मूलमंत्र है. अपने अंदर उठे सवाल का वह खुद जवाब देता है कि वह तुम्हारा हर तरह से तो खयाल रखती है, फिर मन में शंका क्यों?

‘शायद जिसे हम हद से ज्यादा प्यार करते हैं, उसे खो देने का विचार ही मन में असुरक्षा  पैदा कर देता है.’

‘अगर ऐसा है तो पता लगा सकते हो, पर कैसे?’

मन तर्कवितर्क में उलझा हुआ था. अचानक सुश और सुयश में उसे कुछ संबंध नजर आने लगा और उस ने वही नंबर डायल कर दिया.

‘‘बोलो सुलेखा,’’ उधर से किसी पुरुष की आवाज आई.

पुरुष स्वर सुन कर उसे लगा कि कहीं गलत नंबर तो नहीं लग गया अत: आफ कर के पुन: लगाया, पुन: वही आवाज आई…

‘‘बोलो सुलेखा…पहले फोन क्यों काट दिया, कुछ गड़बड़ है क्या?’’

उसे लगा नीलेश ठीक ही कह रहा था. सुलेखा उस से जरूर कुछ छिपा रही है… पर क्यों, कहीं सच में तो उस के पीछे उन दोनों में… अभी वह यह सोच ही रहा था कि सुलेखा नहा कर आ गई. उस के हाथ में अपना मोबाइल देख कर बोली, ‘‘कितनी बार कहा है, मेरा मोबाइल मत छूआ करो.’’

‘‘मेरे मोबाइल से कुछ नंबर डिलीट हो गए थे, उन्हीं को तुम्हारे मोबाइल से अपने में फीड कर रहा था,’’ न जाने कैसे ये शब्द उस की जबान से फिसल गए.

अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह ऐसा ही करने लगा जैसा उस ने कहा था. इसी बीच उस ने 2 आउटगोइंग काल, जो सुश को करे थे उन्हें भी डिलीट कर दिया, जिस से अगर वह सर्च करे तो उसे पता न चले.

अब संदेह बढ़ गया था पर जब तक सचाई की तह में नहीं पहुंच जाए तब तक वह उस से कुछ भी कह कर संबंध बिगाड़ना नहीं चाहता था. उस की पत्नी का किसी के साथ गलत संबंध है तथा वह उस से चोरीछिपे मिला करती है, यह बात भी वह सह नहीं पा रहा था. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि वह नामर्द तो नहीं, तभी उस की पत्नी को उस के अलावा भी किसी अन्य के साथ की आवश्यकता पड़ने लगी है.

‘तुम इतने दिन बाहर टूर पर रहते हो, अपने एकाकीपन को भरने के लिए सुलेखा किसी के साथ की चाह करने लगे तो इस में क्या बुराई है?’ अंतर्मन ने पुन: प्रश्न किया.

‘बुराई, संबंध बनाने में नहीं बल्कि छिपाने में है, अगर संबंध पाकसाफ है तो छिपाना क्यों और किस लिए?’

‘शायद इसलिए कि तुम ऐसे संबंध को स्वीकार न कर पाओ…सदा संदेह से देखते रहो.’

‘क्या मैं तुम्हें ऐसा लगता हूं…नए जमाने का हूं…स्वस्थ दोस्ती में कोई बुराई नहीं है.’

‘सब कहने की बात है, अगर ऐसा होता तो तुम इतने परेशान न होते… सीधेसीधे उस से पूछ नहीं लेते?’

‘पूछने पर मन का शक सच निकल गया तो सह नहीं पाऊंगा और अगर गलत निकला तो क्या मैं उस की नजरों में गिर नहीं जाऊंगा.’

‘जल्दबाजी क्यों करते हो, शायद समय के साथ कोई रास्ता निकल ही आए.’

‘हां, यही ठीक रहेगा.’

इस सोच ने तर्कवितर्क में डूबे मन को ढाढ़स बंधाया…उन के विवाह को 10 महीने हो चले थे. वह अपने पी.एफ. में उसे नामिनी बनाना चाहता था, उस के लिए सारी औपचारिकता पूरी कर ली थी. बस, सुलेखा के साइन करवाने बाकी थे. एक एल.आई.सी. भी खुलवाने वाला था, पर इस एपीसोड ने उसे बुरी तरह हिला कर रख दिया. अब उस ने सोचसमझ कर कदम उठाने का फैसला कर लिया.

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यद्यपि सुलेखा पहले की तरह सहज, सरल थी पर मनीष के मन में पिछली घटनाओं के कारण हलचल मची हुई थी. एक बार सोचा कि किसी प्राइवेट डिटेक्टर को तैनात कर सुलेखा की जासूसी करवाए, जिस से पता चल सके कि वह कहां, कब और किस से मिलती है पर जितना वह इस के बारे में सोचता, बारबार उसे यही लगता कि ऐसा कर के वह अपनी निजी जिंदगी को सार्वजनिक कर देगा…आखिर ऐसी संदेहास्पद जिंदगी कोई कब तक बिता सकता है. अत: पता तो लगाना ही पड़ेगा, पर कैसे, समझ नहीं पा रहा था. हफ्ते भर में ही ऐसा लगने लगा कि वह न जाने कितने दिनों से बीमार है. सुलेखा पूछती तो कह देता कि काम की अधिकता के कारण तबीयत ढीली हो रही है…वैसे भी सुलेखा का उस की चिंता करना दिखावा लगने लगा था. आखिर, जो स्त्री उस से छिप कर अपने मित्र से मिलती रही है वह भला उस के लिए चिंता क्यों करेगी?

उस दिन मनीष का मन बेहद अशांत था. आफिस से छुट्टी ले ली थी. सुलेखा ने पूछा तो कह दिया, ‘‘तबीयत ठीक नहीं लग रही है, अत: छुट्टी ले ली.’’

सुलेखा ने डाक्टर को दिखाने की बात कही तो वह टाल गया. आखिर बीमारी मन की थी, तन की नहीं, डाक्टर भी भला क्या कर पाएगा. रात का खाना भी नहीं खाया. सुलेखा के पूछने पर कह दिया कि बस, एक गिलास दूध दे दो, खाने का मन नहीं है. सुलेखा दूध लेने चली गई. उस के कदमों की आहट सुन कर उसे न जाने क्या सूझा कि अचानक अपनी छाती को कस कर दबा लिया तथा दर्द से कराहने लगा.

दर्द से उसे यों तड़पता देख कर उस ने दूध मेज पर रखा तथा उस के पास ‘क्या हुआ’ कहती हुई आई. उस के आते ही उस ने हाथपैर ढीले छोड़ दिए तथा सांस रोक कर ऐसे लेट गया मानो जान निकल गई हो. वह बचपन से तालाब में तैरा करता था, अत: 5 मिनट तक सांस रोक कर रखना उस के बाएं हाथ का खेल था.

सुलेखा ने उस के शांत पड़े शरीर को छूआ, थोड़ा झकझोरा, कोई हरकत न पा कर बोली, ‘‘लगता है, यह तो मर गए…अब क्या करूं…किसे बुलाऊं?’’

मनीष को उस की यह चिंता भली लगी. अभी वह अपने नाटक का अंत करने की सोच ही रहा था कि सुलेखा की आवाज आई :

‘‘सुयश, हमारे बीच का कांटा खुद ही दूर हो गया.’’

‘‘क्या, तुम सच कह रही हो?’’

‘‘विश्वास नहीं हो रहा है न, अभीअभी हार्टअटैक से मनीष मर गया. अब हमें विवाह करने से कोई नहीं रोक पाएगा…मम्मी, पापा के कहने से मैं ने मनीष से विवाह तो कर लिया पर फिर भी तुम्हारे प्रति अपना लगाव कम नहीं कर सकी. अब इस घटना के बाद तो उन्हें भी कोई एतराज नहीं होगा.

‘‘देखो, तुम्हें यहां आने की कोई आवश्यकता नहीं है. बेवजह बातें होंगी. मैं नीलेश भाई साहब को इस बात की सूचना देती हूं, वह आ कर सब संभाल लेंगे…आखिर कुछ दिनों का शोक तो मुझे मनाना ही होगा, तबतक तुम्हें सब्र करना होगा,’’ बातों से खुशी झलक रही थी.

‘पहले दूध पी लूं फिर पता नहीं कितने घंटों तक कुछ खाने को न मिले,’ बड़बड़ाते हुए सुलेखा ने दूध का गिलास उठाया और पास पड़ी कुरसी पर बैठ कर पीने लगी.

मनीष सांस रोके यह सब देखता, सुनता और कुढ़ता रहा. दूध पी कर वह उठी और बड़बड़ाते हुए बोली, ‘अब नीलेश को फोन कर ही देना चाहिए…’ उसे फोन मिला ही रही थी कि  मनीष उठ कर बैठ गया.’

‘‘तुम जिंदा हो,’’ उसे बैठा देख कर अचानक सुलेखा के मुंह से निकला.

‘‘तो क्या तुम ने मुझे मरा समझ लिया था…?’’ मनीष बोला, ‘‘डार्लिंग, मेरे शरीर में हलचल नहीं थी पर दिल तो धड़क रहा था. लेकिन खुशी के अतिरेक में तुम्हें नब्ज देखने या धड़कन सुनने का भी ध्यान नहीं रहा. तुम ने ऐसा क्यों किया सुलेखा? जब तुम किसी और से प्यार करती थीं तो मेरे साथ विवाह क्यों किया?’’

‘‘तो क्या तुम ने सब सुन लिया?’’ कहते हुए वह धम्म से बैठ गई.

‘‘हां, तुम्हारी सचाई जानने के लिए मुझे यह नाटक करना पड़ा था. अगर तुम उस के साथ रहना चाहती थीं तो मुझ से एक बार कहा होता, मैं तुम दोनों को मिला देता, पर छिपछिप कर उस से मिलना क्या बेवफाई नहीं है.

‘‘10 महीने मेरे साथ एक ही कमरे में मेरी पत्नी बन कर गुजारने के बावजूद आज अगर तुम मेरी नहीं हो सकीं तो क्या गारंटी है कल तुम उस से भी मुंह नहीं मोड़ लोगी…या सुयश तुम्हें वही मानसम्मान दे पाएगा जो वह अपनी प्रथम विवाहित पत्नी को देता…जिंदगी एक समझौता है, सब को सबकुछ नहीं मिल जाता, कभीकभी हमें अपनों के लिए समझौते करने पड़ते हैं, फिर जब तुम ने अपने मातापिता के लिए समझौता करते हुए मुझ से विवाह किया तो उस पर अडिग क्यों नहीं रह पाईं…अगर उन्हें तुम्हारी इस भटकन का पता चलेगा तो क्या उन का सिर शर्म से नीचा नहीं हो जाएगा?’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मनीष. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई,’’ सुलेखा ने उस के कदमों पर गिरते हुए कहा.

‘‘अगर तुम इस संबंध को सच्चे दिल से निभाना चाहती हो तो मैं भी सबकुछ भूल कर आगे बढ़ने को तैयार हूं और अगर नहीं तो तुम स्वतंत्र हो, तलाक के पेपर तैयार करवा लेना, मैं बेहिचक हस्ताक्षर कर दूंगा…पर इस तरह की बेवफाई कभी बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा.’’

उसी समय सुलेखा का मोबाइल खनखना उठा…

‘‘सुयश, आइंदा से तुम मुझे न तो फोन करना और न ही मिलने की कोशिश करना…मेरे वैवाहिक जीवन में दरार डालने की कोशिश, अब मैं बरदाश्त नहीं करूंगी,’’ कहते हुए सुलेखा ने फोन काट दिया तथा रोने लगी.

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उस के बाद फिर फोन बजा पर सुलेखा ने नहीं उठाया. रोते हुए बारबार उस के मुंह से एक ही बात निकल रही थी, ‘‘प्लीज मनीष, एक मौका और दे दो…अब मैं कभी कोई गलत कदम नहीं उठाऊंगी.’’

उस की आंखों से निकलते आंसू मनीष के हृदय में हलचल पैदा कर रहे थे पर मनीष की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उस की बात पर विश्वास करे या न करे. जो औरत उसे पिछले 10 महीने से बेवकूफ बनाती रही…और तो और जिसे उस की अचानक मौत इतनी खुशी दे गई कि उस ने डाक्टर को बुला कर मृत्यु की पुष्टि कराने के बजाय अपने प्रेमी को मृत्यु की सूचना  ही नहीं दी, अपने भावी जीवन की योजना बनाने से भी नहीं चूकी…उस पर एकाएक भरोसा करे भी तो कैसे करे और जहां तक मौके का प्रश्न है…उसे एक और मौका दे सकता है, आखिर उस ने उस से प्यार किया है, पर क्या वह उस से वफा कर पाएगी या फिर से वह उस पर वही विश्वास कर पाएगा…मन में इतना आक्रोश था कि वह बिना सुलेखा से बातें किए करवट बदल कर सो गया.

दूसरा दिन सामान्य तौर पर प्रारंभ हुआ. सुबह की चाय देने के बाद सुलेखा नाश्ते की तैयारी करने लगी तथा वह पेपर पढ़ने लगा. तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा मनीष ने खोला तो सामने किसी अजनबी को खड़ा देख वह चौंका पर उस से भी अधिक वह आगंतुक चौंका.वह कुछ कह पाता इस से पहले ही मनीष जैसे सबकुछ समझ गया और सुलेखा को आवाज देते हुए अंदर चला गया, पर कान बाहर ही लगे रहे. सुलेखा बाहर आई. सुयश को खड़ा देख कर चौंक गई. वह कुछ कह पाता इस से पहले ही तीखे स्वर में सुलेखा बोली, ‘‘जब मैं ने कल तुम से मिलने या फोन करने के लिए मना कर दिया था उस के बाद भी तुम्हारी यहां मेरे घर आने की हिम्मत कैसे हुई. मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखना चाहती…आइंदा मुझ से मिलने की कोशिश मत करना.’’

सुयश का उत्तर सुने बिना सुलेखा ने दरवाजा बंद कर दिया और किचन में चली गई. आवाज में कोई कंपन या हिचक नहीं थी.

वह नहाने के लिए बाथरूम गया तो सबकुछ यथास्थान था. तैयार हो कर बाहर आया तो नाश्ता लगाए सुलेखा उस का इंतजार कर रही थी. नाश्ता भी उस का मनपसंद था, आलू के परांठे और मीठा दही.

आफिस जाते समय उस के हाथ में टिफिन पकड़ाते हुए सुलेखा ने सहज स्वर में पूछा, ‘‘आज आप जल्दी आ सकते हैं. रीजेंट में बाबुल लगी है…अच्छी पिक्चर है.’’

‘‘देखूंगा,’’ न चाहते हुए भी मुंह से निकल गया.

गाड़ी स्टार्ट करते हुए मनीष सोच रहा था कि वास्तव में सुलेखा ने स्वयं को बदल लिया है या दिखावा करने की कोशिश कर रही है. सचाई जो भी हो पर वह उसे एक मौका अवश्य देगा. Story in Hindi

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