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बुलडोजर तानाशाही

पहले उत्तर प्रदेश में, फिर मध्य प्रदेश में और अब दिल्ली की जहांगीरपुरी में बुलडोजर तानाशाही का इस्तेमाल कोई चौंकाने वाला नहीं है. यह तो दिख ही रहा है कि समाज का एक वर्ग किसी भी तरह अपना वर्चस्व बनाए रखने बौर बढ़ाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रहा है और अपनाता रहेगा. बुलडोजर तानाशाही का इस्तेमाल कांग्रेस के ही जमाने में 1975-77 में जम कर किया गया था और इसीलिए अब कांग्रेसी ज्यादा बोल नहीं पा रहे.

कहने को सरकारी जमीन पर गैरकानूनी ढंग से बने मकानों और निर्माणों की बुलडोजरों से गिराया जा रहा है पर यह हो रहा है एक समाज ‘मुसलिम समाज’ के खिलाफ ही. सत्ता में बैठे लोगों की सोच दूरगामी है. वे आज मुसलिम समाज को पार्टीशन और आंतकवाद से जोड़ कर डरा देना चाहते हैं ताकि बाद में इस डर का इस्तेमाल हर उस जने के खिलाफ किया जा सके जो उन की नहीं मान रहे हो.

लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि बुलडोजर और उसे चलाने वाले न कपड़े पहचानते हैं, माथे पर लगे रहं, न जाति या धर्म. वे तो हुक्त देने वाले को जानते हैं. पी. चिदंबरम जब वित्तमंत्री और गृहमंत्री थे तो उन्होंने बहुत से कठोर कानून बनाए थे क्योंकि उन के हिसाब से सब व्यापारी चोर हैं और नागरिक आतंकवादी है. उन्हें जब 100 दिन से ज्यादा जेल अपने बनाए कानूनों में भुगतनी पड़ी तो अहसास हुआ होगा कि कानून का राज क्या होता है और क्यों अच्छा होता है.

बुलडोजर तानाशाही सीधेसीधे कानूनी मान्याओं के खिलाफ  है. सजा पहले दे दो, सुनवाई पहले कर दो. समाज में यह बहुत होता है. रोड रेड में होता है. नौकरानी का टीसैट तोडऩे पर होता है. पत्नी की पिटाई पर होता है. स्कूलों में रैङ्क्षगग पर होता है. एक पूरे समाज को कुछ के दोष के लिए सजा देना इसी बुलडोजर तानाशाही को पैदा करता है.

भारतीय जनता पार्टी का यह सोचना कि बुलडोजर तानाशाही कम पैदा कर देगी और लोगों को घुटने टेकने को मजबूर कर देगी, गलत है, यूक्रेन में हजारों मर रहे है शहर के शहर नष्ट हो रहे हैं पर व्लादिमीर जेलेंस्की के नेतृत्व में यूक्रेनी रूस मिसाइलों और टैंकों से डरे बिना लड़ रहे हैं. विश्वयुद्ध के बाद हारे जर्मनी और जापान ने नष्ट ही कर भी फिर अभूतपूर्व उन्नति की. सदियों से दबाए गए पिछड़े व दलित जिन्हें आज ओवीसी एसीसी सरकारी भाषा में कहा जाता है आज आगे बढ़चढ़ कर आगे आ रहे हैं. मुसलिम समुदाय या किसी और समुदाय का बुलडोजरों से दबा कर नहीं रख सकते. कुछ दिनों के लिए चुप कर सकते हैं.

आज ङ्क्षहदू समाज जो इस तानाशाही में पुराने जख्मों पर कुछ ठंडक महसूस कर रहा है, कल खुद ही अपनों द्वारा ही दिए जख्मों से कराहेगा. नोटबंदी, जीएसटी, मंहगाई, औक्सीजन की कमी के दौरान कोविड से मौतें इसी तानाशाही सोच का नतीजा है, हम जो चाहे कर लें वाली सोच सिर्फ बुलडोजर तक ही नहीं रूकी रहती, वह समाज के हर हिस्स्से में दिखती है. सरकार इस तानाशाही शासन शैली में लग रही है और इस का व्यापक असर होगा कि देश का टेलेंट जो तानाशाही से गुस्सा हो जाएगा या तो भाग जाएगा या फिर क्रांतिकारी बन जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ने 4 घंटे में इस तानाशाही को दिल्ली में रोक लिया पर पूरे देश में नहीं. यह न भूलें कि पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडू, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल में बुलडोजर तानाशाही के महंतों का राज नहीं है. इन बुलडोजर महंतों के सगेसंबंधियों के यहां यह तानाशाही इस्तेमाल होने लगे तो सारा कराधरा बेकार हो सकता है. तानाशाहों के जाने के बाद आंसू नहीं बहते, पटाके चलाए जाते हैं. बुलडोजर तो आंधी और भूकंम की तरह हैं, आज आए फिर गए पर जब नुकसान होता है तो सबका होता है, कुछ को तुरंत दिखता है कुछ को बाद में कभी.

खेती के लिए ड्रोन खरीदने पर सब्सिडी

खेती में काम आने वाले अनेक कृषि यंत्रों पर सरकार की ओर से किसानों को इन यंत्रों की खरीद पर सब्सिडी का लाभ दिया जाता है. इन  यंत्रों की सूची में अब ड्रोन भी शामिल हो गया है.

पूसा इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में आयोजित  एक समारोह में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों के लाभ और विभिन्न हितधारकों के लिए ड्रोन के उपयोग को बढ़ावा देने पर जोर दिया और बताया कि सरकार ने ड्रोन प्रशिक्षण देने के लिए सौ फीसदी सहायता यानी अनुदान देने का निर्णय लिया है. कृषि के विद्यार्थी इस में बेहतर भूमिका निभा सकते हैं. कृषि के छात्रछात्राओं के लिए सब्सिडी का प्रावधान भी है.

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने कृषि क्षेत्र के हितधारकों के लिए ड्रोन तकनीक को किफायती बनाने के दिशानिर्देश जारी कर दिए हैं. इस में अलगअलग कृषि संस्थानों, उद्यमियों, कृषक उत्पादक संगठनों (एफपीओ) और किसानों के लिए सब्सिडी का प्रावधान किया गया है.

इन के अनुसार, कृषि मशीनरी प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थानों, आईसीएआर संस्थानों, कृषि विज्ञान केंद्रों और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा ड्रोन की खरीद पर कृषि ड्रोन की लागत का सौ फीसदी तक या 10 लाख रुपए, जो भी कम हो, का अनुदान दिया जाएगा.

कृषक उत्पादक संगठन (एफपीओ) किसानों के खेतों पर इस के प्रदर्शन के लिए कृषि ड्रोन की लागत का 75 फीसदी तक अनुदान पाने के लिए पात्र होंगे.

मौजूदा कस्टम हायरिंग सैंटरों द्वारा ड्रोन और उस से जुड़े सामानों की खरीद पर 40 फीसदी मूल लागत का या 4 लाख रुपए, जो भी कम हो, वित्तीय सहायता के रूप में उपलब्ध कराए जाएंगे.

कस्टम हायरिंग सैंटर की स्थापना कर रहे कृषि स्नातक ड्रोन और उस से जुड़े सामानों की मूल लागत का 50 फीसदी हासिल करने या ड्रोन खरीद के लिए 5 लाख रुपए तक अनुदान समर्थन लेने के पात्र होंगे.

ग्रामीण उद्यमियों को किसी मान्यताप्राप्त बोर्ड से 10वीं या उस के समकक्ष परीक्षा उत्तीर्ण होनी चाहिए और उन के पास नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) द्वारा निर्दिष्ट संस्थान या किसी अधिकृत पायलट प्रशिक्षण संस्थान से दूरस्थ पायलट लाइसैंस होना चाहिए.

कृषि में ड्रोन के उपयोग के लिए कुछ नियमों का भी पालन करना होगा.

डर- भाग 2: समीर क्यों डरता था?

‘यह नीरज एक सिरफिरा इंसान है, समीर. उस दिन यह अकेला ही उन पांचों से लड़भिड़ गया था. यह माथे का घाव जनाब को उस दिन अपने उसी दुस्साहस के कारण मिला था,’ नेहा ने नीरज का कंधा आभार प्रकट करने वाले अंदाज में दबाते हुए समीर को जानकारी दी.

‘और लगे हाथ यह भी बता दो कि इस जख्म से नीरज को क्या मिला?’ मैं ने नेहा से मुसकराते हुए पूछा.

‘मुझे नेहा की दोस्ती मिली,’ नेहा के कुछ बोलने से पहले ही नीरज ने जवाब दिया.

‘और मेरे सब से अच्छे दोस्त को मिली यह प्यारी सी हमसफर,’ नेहा ने कविता का हाथ पकड़ कर नीरज के हाथ में पकड़ा दिया, ‘समीर, उस दिन नीरज के इस घाव की मरहमपट्टी कविता ने अपनी स्कूटी में रखे फर्स्टएड बौक्स को निकाल कर की थी. यह हमारी जूनियर थी. नीरज की हिम्मत ने इस का दिल उस पहली मुलाकात में ही जीत लिया था.’

‘वैसे कायदे से तो समीर को ऐसी हिम्मत दिखाने का इनाम नेहा के प्यार के रूप में मिलना चाहिए था,’ मेरे इस मजाक ने उन तीनों को एकाएक ही गंभीर बना दिया तो बात मेरी समझ में नहीं आई.

मेरी उलझन को नीरज ने दूर करने की कोशिश की, ‘उस दिन होली खेल कर लौट रहा कमल नाम का एक सीनियर मेरी मदद को आगे आया था. उस के हाथ में हौकी देख कर वे बदमाश भाग निकले थे. उस दिन नेहा का दिल कमल ने जीता था पर…’

‘बात अधूरी मत छोड़ो, नीरज.’

‘यह कमल नेहा का विश्वसनीय और वफादार प्रेमी नहीं बन सका. सिर्फ 3 महीने बाद नेहा ने उस के साथ सारे संबंध तोड़ लिए थे.’

‘क्या किया था उस ने?’ यह सवाल मैं ने नेहा से पूछा.

‘रितु के साथ वह एक पुराने खंडहर में पकड़ा गया था. कमल ने दोस्ती और प्रेम दोनों के नाम को कलंकित किया था. नेहा के होंठों पर उदास सी मुसकान उभरी.’

‘रितु गुप्ता नेहा की सब से अच्छी सहेली थी. कमल के साथ नेहा की दोस्ती बढ़ी तो रितु को भी उस के साथ हंसनेबोलने के  खूब मौके मिलने लगे. नेहा सोचती थी कि वह अपने होने वाले जीजा से अच्छी नीयत के साथ हंसीमजाक करती है पर रितु की नीयत में खोट आ गया था. उसे लग रहा था कि बहती गंगा में हाथ धो ले. वह बहुत सैक्सी किस्म की लडक़ी है.’

‘नेहा को जिस दिन असलियत पता लगी उसी दिन उस ने कमल को दूध में पड़ी मक्खी की तरह से निकाल अपनी जिंदगी से दूर फेंक दिया था. रितु गुप्ता को धोखा देने की जो सजा नेहा ने दी थी वह कालेज में महीनों चर्चा का विषय बनी रही थी,’ मुझे ये सारी बातें बताने के बाद नीरज चौधरी रहस्यमयी अंदाज में मुसकुराने लगा.

मैं ने नेहा की तरफ सवालिया नजरों से देखा तो वह बेचैनीभरे अंदाज में बोली, ‘कमल कटियार से मेरी जानपहचान तो नई थी पर रितु के साथ मेरी दोस्ती 5 साल से ज्यादा पुरानी थी. उस ने मुझे धोखा दिया तो मैं गुस्से से पागल हो गई थी, समीर. म…मैं ने तब उसे जान से मारने की कोशिश भी की थी.’

‘यह क्या कह रही हो?’ मैं बुरी तरह  से चौंक पड़ा.

‘अरे, कोई जहर दे कर नहीं बल्कि जुलाब की गोलियां खिला कर नेहा ने उसे विश्वासघात करने की सजा दी थी. उस धोखेबाज के उस दिन कपड़े खराब हो गए थे क्योंकि शौचालय के दरवाजे पर गुस्से से लालपीली हो रही नेहा खड़ी हुई थी और उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह इस के सामने आ जाए. उस घटना के कई चश्मदीद गवाह थे. अपना मजाक उड़वाने से बचने के लिए वह महीनेभर तक कालेज आने की हिम्मत नहीं कर सकी थी,’ नीरज ने पूरी घटना का ब्योरा ऐसे मजाकिया अंदाज में सुनाया कि उस समय घटे दृश्य की कल्पना कर हम सभी जोर से हंस पड़े थे.

‘अच्छे दोस्त जीवन में बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, समीर. समझदार इंसान को उन की बहुत कद्र करनी चाहिए,’ कविता ने अचानक भावुक हो कर अपनी राय जाहिर की थी.

‘बिलकुल ठीक कह रही हो तुम,’ मैं ने फौरन अपनी सहमति जताई.

‘दोस्तों से कोर्ई भी अहम बात छिपाना गलत होता है.’

‘यह भी बिलकुल सही बात है.’

‘तब यह बताओ कि मौडलिंग करने वाली शिखा के साथ तुम्हारे किस तरह के संबंध हैं?’ कविता द्वारा अचानक पूछे गए इस सवाल ने मेरे दिल की धडक़नें बहुत तेज कर दी थीं.

‘वह मेरी अच्छी दोस्त है,’ मैं ने अधूरा सच बोला.

उन तीनों ने मेरा जवाब सुन कर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. बस, खामोशी के साथ मेरी तरफ ध्यान से देखते हुए वे मेरे आगे बोलने का इंतजार कर रहे थे.

‘तुम सब शिखा को कैसे जानते हो?’ कुछ और सचझूठ बोलने के बजाय मैं ने यह सवाल पूछना बेहतर समझा था. शिखा मेरी मौसी के गांव की लडक़ी थी और दिल्ली में रह कर पढ़ाई कर रही थी.

‘वह कल शाम मुझ से मिलने मेरे घर आर्ई थी,’ नेहा ने मुझे बताया.

‘क्या कह रही थी वह?’ मेरे मन की बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई.

‘किस बारे में?’

‘मेरे बारे में, अपने और मेरे बारे में उस ने कुछ ऊटपटांग बातें तो तुम से नहीं कही हैं?’

नेहा ने गहरी सांस छोड़ी और गंभीर लहजे में बोली, ‘इस बात को लंबा खींचने के बजाय मुझे जो कहना है, वह मैं तुम से साफसाफ कहे देती हूं.’

‘शिखा तुम्हें धोखेबाज इंसान बता रही थी क्योंकि तुम ने उस के साथ शादी करने के अपने वादे को तोड़ा है. तुम्हारे साथ अपनी अति निकटता को सिद्ध करने के लिए उस ने अपने मोबाइल में सेव किए कुछ फोटो भी मुझे दिखाए थे.’

‘ओह.’

‘लेकिन तुम्हारे खिलाफ लगातार जहर उगलते रहने के कारण वह मुझे तुम्हारी प्रेमिका कम और दुश्मन ज्यादा लगी, तो उस की बातें मेरे दिल को गहरी चोट पहुंचाने में सफल नहीं रही थीं. अब मैं तुम से एक महत्त्वपूर्ण सवाल पूछना चाहूंगी, समीर.’

Mother’s Day 2022- टूटते सपने: क्या उसके सपने पूरे हुए?

दोपहर के भोजन का समय हो चुका था. मनोरमा ने आवाज लगाई, ‘‘चल खाना खाने, रोज तो तू मुझे याद दिलाती है लेकिन आज मैं तुझे बुला रही हूं.

Mother’s Day 2022: मां, तुम गंदी हो

कहीं दूर रेडियो बज रहा था. हवा की लहरों पर तैरती ध्वनि शेखर के कानों में पड़ी.

मन रे, तन कागद का पुतला,

लागै, बूंद बिनसि जाइ छिन में,

गरब करै क्यों इतना.

शेखर पहचान गया कि यह कबीरदास का भजन है. जीवन की क्षणभंगुरता को जतला रहा है. कौन नहीं जानता कि जीवन के हासविलास, रागरंग और उल्लास का समापन अंतिम यात्रा के रूप में होता है, फिर भी मनुष्य का पागल मन सांसारिक सुखों के लिए भटकना नहीं छोड़ता.

कुछ मिल गया तो खुशी से बौरा जाता है. कुछ छिन गया तो पीड़ा से सिसक उठता है.

यही पुरानी कहानी हर बार नई हो कर हर जिंदगी में दोहराई जाती है. उस का खुद का जीवन इस का एक उदाहरण है.

ऊंची नौकरी, नंदिता के साथ विवाह और निधि का जन्म. ये जीवन के वे सुख हैं जिन्हें पा कर वह खुशी से बौरा उठा था. फिर एक दुर्घटना में सदा के लिए अपाहिज हो जाना, नौकरी छूटना और बेटी को साथ ले कर पत्नी का घर छोड़ जाना वे दुख हैं जिन्होंने दर्द की तीखी लहर उस के सर्वांग में दौड़ा दी.

अनायास ही शेखर की आंखों में दो बूंद आंसू झिलमिला उठे. जब से तन जर्जर हुआ है, मन भी न जाने क्यों बेहद दुर्बल हो गया है. तनिक सी बात पर आंखें भर आती हैं. यह सच है कि पुरुष की आंखों में आंसू अच्छे नहीं लगते लेकिन क्या किया जाए.

जिस का सब कुछ लुट गया है, ब्याहता पत्नी तक ने जिसे छोड़ दिया है, उस एकाकी पुरुष की वेदना नारी की प्रसव पीड़ा से कम भयंकर नहीं. वह तो कहो कि अम्मां जिंदा थीं वरना…

शेखर के मुंह से एक ठंडी सांस निकल गई. सिरहाने बैठी अम्मां नीचे झुक कर मृदु स्वर में बोलीं, ‘‘कुछ चाहिए, बेटा?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘थोड़ा दूध लाऊं? सुबह से तुम ने कुछ नहीं खायापिया है.’’

‘‘निधि के आने पर खाऊंगा पर नंदिता ने निधि को भेजने से इनकार कर दिया तो?’’

‘‘इनकार कैसे करेगी? पड़ोस के मनोहरजी अदालत का हुक्मनामा ले कर गए हैं. पुलिस के 2 सिपाही साथ हैं. वे लोग अब आते ही होंगे.’’

‘‘उफ, कैसी विडंबना है कि बाप को अपनी बच्ची से मिलने की खातिर अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा है, पुलिस भेजनी पड़ी है. अगर कहीं जज साहब भी नंदिता की तरह तंगदिल होते तो मुझे अपनी आखिरी इच्छा को मन में लिए हुए ही दुनिया से जाना पड़ता,’’ यह कह कर शेखर ने एक ठंडी सांस खींची.

अम्मां कुछ नहीं बोलीं. चुपचाप बेटे के कमजोर चेहरे पर अपना झुर्रियों भरा हाथ फिराती रहीं.

वर्षों से गुमसुम हो चुका शेखर आज न जाने क्यों इतना बोल रहा था. नंदिता के चले जाने के बाद उस ने ‘हां’ ‘हूं’ के अलावा कोई बात ही नहीं की थी. उस की बोलने की इच्छा ही जैसे मर गई थी. अब तो यह हाल हो चुका है कि चाहने पर भी वह बातचीत नहीं कर पाता.

कमजोरी इतनी हो गई है कि पूरी ताकत लगा कर बोलने पर भी चिडि़या की तरह ‘चींचीं’ से ज्यादा तेज आवाज नहीं निकलती. उस को सुनने के लिए अम्मां को झुक कर उस के मुंह के पास अपना कान ले जाना पड़ता है.

वैसी ही धीमी आवाज में वह बोला, ‘‘बड़ी गलती हो गई अम्मां जो नाई को बुलवा कर दाढ़ी नहीं बनवा ली. जरूर मेरा चेहरा भयानक लगता होगा. निधि बच्ची है, देख कर डर जाएगी.’’

‘‘लेकिन अब वे लोग आते ही होंगे. नाई को बुलाने का समय नहीं बचा है,’’ अम्मां ने जवाब दिया.

शेखर ने आंखें मूंद लीं. 4 साल पहले देखी बिटिया की छवि याद करने लगा. बच्ची का मुसकराता चेहरा ही तो वह औषध था जिस के सहारे इस लंबी बीमारी को उस ने काटा था. तकिए के नीचे संभाल कर रखा बेटी का फोटो निकालनिकाल कर इतनी बार देखा था कि फोटो की हर रेखा मन में पूरी तरह उतर गई थी.

लंबी बीमारी में पुरानी यादें रोगी की अनमोल थाती होती हैं. बीते हुए दिनों की सुहानी याद उस के घायल मन पर मरहम का काम करती है. यदि यह सहारा न हो तो आदमी पागल हो जाए. अकेले पड़ेपड़े छत और दीवारों को कोई कितनी देर देख सकता है.

हर सुबह खिड़की से जब धूप का पहला टुकड़ा भीतर घुसता था तो शेखर यह कल्पना करता था कि निधि दबेपांव भीतर घुस रही है. यह कल्पना बड़ी मधुर होती थी पर कल्पना आखिर कल्पना थी. यथार्थ से उस का क्या संबंध. संयोग से आज जीतीजागती निधि इस कमरे में आएगी. जाड़े की सुहानी धूप की तरह कमरे को उजास से भर देगी.

शेखर के पपडि़याए होंठों पर हलकी सी मुसकान दौड़ गई.

तभी अचानक अम्मां उठते हुए बोलीं, ‘‘लगता है वे लोग आ गए,’’ फिर वह उठ कर दरवाजे पर गईं. वहीं उन्होंने मनोहरजी से पूछा, ‘‘किसी ने इसे भेजने में आनाकानी तो नहीं की?’’

‘‘सरकारी हुक्म की तौहीन करने की जुर्रत कौन कर सकता है? लेकिन इतना तय है कि मुहलत सिर्फ 8 घंटे की है,’’ मनोहरजी ने जवाब दिया.

‘‘8 घंटे तो बहुत हैं. बाप के तड़पते सीने में इसे देखते ही ठंडक पड़ जाएगी,’’ कहते हुए अम्मां ने 7 साल की पोती को सीने से चिपका लिया और भीगी आंखें पोंछ कर उसे साथ लिए भीतर आ गईं. आ कर देखा कि शेखर की दोनों आंखों से आंसुओं की धाराएं बह कर दाढ़ी के जंगल में समा रही हैं.

अम्मां ने प्यार से झिड़का, ‘‘बेटा, अब आंसू मत बहा. बच्ची सहम जाएगी. कितने इंतजार के बाद तो इसे देख सका है तू. पास बैठ कर बातचीत कर.’’

शेखर लटपटाती जबान से बोला, ‘‘तुम ने मुझे पहचान लिया, बेटी?’’

मुंह खोलते ही सामने के 2 टूटे दांतों की खाली जगह नजर आई. लंबी, कष्टदायक बीमारी ने उसे 35 वर्ष की आयु में ही बूढ़ा बना दिया था. सचमुच उस का चेहरा काफी विकृत और भयानक लगने लगा था.

निधि बड़े धैर्य से रोगी के सिरहाने बैठ गई. उस की आंखों में न भय था, न जान छुड़ा कर भागने की छटपटाहट. मीठी आवाज में बोली, ‘‘पहचानूंगी क्यों नहीं? आप मेरे पापा हैं.’’

शेखर तो जैसे निहाल हो गया. जल्दीजल्दी अपने कमजोर हाथों से बच्ची को स्पर्श करने लगा. पितापुत्री के इस भावविह्वल मिलन को अम्मां न देख सकीं. उधर से मुंह घुमा लिया उन्होंने और आगे बढ़ कर अलमारी से एक खूबसूरत कीमती गुडि़या निकाल लाईं. उन्होंने यह कल ही बाजार से मंगवाई थी.

निधि ने गुडि़या की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा. 7 साल की उस बच्ची में न जाने कहां से  इतनी समझ आ गई थी कि उस के भोले बाल मन ने भावी अमंगल को सूंघ लिया था. जैसे संयोग से हासिल हो जाने वाले पिता के दुर्लभ प्यार का वह एकएक क्षण आत्मसात कर लेना चाहती थी.

अपने हाथों से उस ने शेखर को एक प्याला दूध पिलाया. किसी कुशल परिचारिका की तरह एकएक चम्मच दूध पिता के मुंह में डालती रही. फिर तौलिया उठा कर बड़ी सफाई और जतन से मुंह पोंछ दिया.

वह एक मिनट भी पिता के पास से हिली नहीं. दादी का दिया साग, परांठा भी उस ने वहीं बैठ कर खाया. अपने नन्हेनन्हे कोमल हाथों से वह पिता का सिर दबाती रही. बैठेबैठे अपने स्कूल की, अपनी सहेलियों की, अपने खिलौनों की ढेरों बातें सुनाती रही. उस ने पिता को अंगरेजी और हिंदी के शिशु गीत भी बड़ी लय में सुनाए. पिता को थका जान कर उस ने पिता से कुछ देर सोने का अनुरोध भी किया.

अम्मां वहीं जमीन पर चटाई बिछाए आराम करती रहीं. जितनी बार वह शेखर को दवा पिलाने उठतीं, निधि उन के हाथ से दवा ले लेती और पिता को खुद दवा पिलाती. कौन कह सकता था कि यह लड़की 4 साल बाद अपने पिता से मिली है.

वक्त गुजरता गया. 8 घंटे पलक झपकते बीत गए.

‘‘चलो, निधि,’’ सख्त आवाज में दिया यह आदेश सुन कर शेखर के कमरे में सब चौंक पड़े. नंदिता अपने बड़े भाई दीपक के साथ दरवाजे पर खड़ी हुई थी.

निधि ने घबरा कर पिता की कमजोर कलाई मजबूती से पकड़ ली, ‘‘मैं नहीं जाऊंगी. यहीं पापा के पास रहूंगी.’’

‘‘चलोगी कैसे नहीं?’’ कहते हुए दीपक ने उसे झपट कर गोद में उठा लिया और उस के रोनेमचलने की परवा किए बिना उसे ले कर चल दिया.

पल भर तो कमरे में मौत की सी खामोशी छाई रही. फिर शेखर की करुण हंसी उभरी जो रोने जैसी लग रही थी. वह बोला, ‘‘अम्मां, बेकार ही निधि को बुलवाया, आखिरी समय में मेरे मन में मोह जगा गई है. सालों अकेले पड़ेपड़े संन्यासी की तरह दुखसुख से ऊपर हो गया था. मन में कोई चाह ही बाकी नहीं रही थी लेकिन अब चाहता हूं कि 10-5 दिन और जिंदगी मिल जाए जिसे निधि के साथ गुजार सकूं. तब चैन से प्राण निकलेंगे.’’

‘‘इस बात को भूल जाओ, बेटा. वह अब तुम्हें देखने को भी नहीं मिलेगी. उस की तरफ से अपना मन हटा लो,’’ अम्मां ने कांपते स्वर में समझाया.

‘‘सच कहती हो अम्मां,’’ एक ठंडी सांस ले कर शेखर बोला.

पर कहने से ही क्या बच्ची को भूला जा सकता था. वह ध्यान हटाने की जितनी कोशिश करता, बच्ची मानस पटल पर उतनी ही शिद्दत से छा जाती. लगता, जैसे झुक कर पूछ रही हो, ‘पापा, आप को संतरे की एक फांक छील कर और दूं?’

खींच कर ले जाते वक्त कैसी मचल रही थी, ‘मैं अपने पापा के पास रहूंगी. मुझे यहां से मत ले जाओ.’

अपने घर जा कर निधि पांव पटकते हुए मचल गई, ‘‘हांहां, मैं अपने पापा के पास रहूंगी. मुझे वहां से क्यों ले आए तुम लोग?’’

नंदिता ने खिसिया कर उस के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया, बोली, ‘‘पापा के पास लड्डू मिल रहे थे तुझे. घंटों से उसी एक बात को रटे जा रही है. दिमाग खराब कर दिया है मेरा.’’

दरवाजे के पास आ कर दीपक ने गंभीर स्वर में समझाया, ‘‘बच्ची के साथ तुम भी बच्ची मत बनो नंदिता. उसे प्यार से समझाबुझा कर चुप कराओ. मारनेपीटने से कुछ नहीं होगा.’’

दीपक चला गया तो नंदिता पल भर खामोश रही. फिर उस ने बेटी की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा, बोली, ‘‘अच्छे बच्चे जिद नहीं करते हैं. तुम तो बहुत अच्छी बिटिया हो. आंसू पोंछ कर दूध पी लो. देखो, कितनी रात हो गई है.’’

‘‘मैं क्यों तुम्हारा कहना मानूं? तुम ने भी तो मेरा कहना नहीं माना है. जबरदस्ती मुझे ले आईं वहां से. मेरा मन क्या अपने पापा के पास रहने को नहीं होता? निशा, गौरव, सोनू सब बच्चे अपने मम्मीपापा के घर रहते हैं. मैं नानी के घर क्यों रहूं?’’ निधि ने हिचकियां लेते हुए मान भरे स्वर में कहा.

नंदिता समझ नहीं पा रही थी कि बच्ची को क्या कह कर बहलाए. पर उसे बहलाना जरूरी था. वह हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘देखो बेटे, बात यह है… असल में तुम्हारे पापा बीमार हैं. वहां रहने से तुम्हारी पढ़ाईलिखाई कुछ नहीं हो सकती थी. उन की बीमारी कब तक चलेगी, इस का कोई ठीक पता नहीं. रातदिन बीमार आदमी के साथ कहां तक रहा जा सकता था? हमारी भलाई इसी में थी कि हम यहां आ जाते.’’

‘‘छि:, मां, तुम कितनी गंदी हो,’’ नफरत भरे स्वर में निधि बोल पड़ी.

‘‘क्यों?’’ नंदिता ने पूछा.

‘‘गंदी न होतीं तो ऐसी बात नहीं सोचतीं. तुम से हजार गुना अच्छी दादी हैं जो बीमार पापा की देखभाल कर रही हैं. मैं अब उन्हीं के पास रहूंगी. तुम इतनी मतलबी हो कि बीमारी में मुझे भी छोड़ सकती हो. दादी कम से कम मुझे छोड़ेंगी तो नहीं,’’ निधि की आवाज में नफरत और डर दोनों थे.

नंदिता सहम गई. उसे लगा जैसे मासूम बच्ची ने उसे निरावरण कर दिया है. बेटी की परवरिश तो एक बहाना थी. क्या सचमुच अपने स्वार्थ की खातिर वह रोगी पति को नहीं छोड़ आई थी.

उस के कानों में 4 वर्ष पहले की वे बातें गूंजने लगीं जो मां और भैया ने उस से कही थीं.

‘अभी तेरी उम्र ही क्या है? महज 22 साल. न जाने जिंदगी कैसे कटेगी?’

‘जीवन भर अपाहिज पड़े रहने से तो मरना भला था. अगर शेखर इस दुर्घटना में मर जाता तो उसे भी मुक्ति मिलती और घर वाले भी एक बार रोपीट कर सब्र कर लेते.’

‘भई, मरने वाले के साथ मरा तो जाता नहीं है. शेखर के लिए तू कहां तक खुद को तबाह करेगी?’

‘अपनी न सही, अपनी बच्ची की फिक्र कर. उस की पढ़ाईलिखाई की बात सोच. यहां रह कर वही एक बीमारीपुराण चलता रहेगा.’

‘साल 2 साल की बात हो तो धीरज से मरीज की सेवा भी की जाए. शेखर 4-6 साल भी जी सकता है और 15-20 साल भी. उस की जिंदगी की डोर अगर लंबी खिंच गई तो तू कहीं की नहीं रहेगी.’

नंदिता के कानों में हर रोज यही मंत्र फूंके गए थे. उस के स्वार्थ और कर्तव्य भावना में कुछ दिन संघर्ष चला था. आखिर स्वार्थ ही जीता था पर छोटी सी बच्ची ने आज बता दिया कि दुनिया स्वार्थ से नहीं त्याग से चलती है. स्वार्थ के वशीभूत हो कर राम को वनवास दिलाने वाली कैकेयी भी क्या बाद में अपने कुकृत्य पर नहीं पछताई थी.

नंदिता का मन भी उसे धिक्कारने लगा. वह अपराधबोध से भर कर बोली, ‘‘सचमुच मैं ने बहुत बड़ी भूल की है. मुझे माफ कर दो बेटी. मैं वादा करती हूं कि कल सुबह तुझे साथ ले कर तेरे पापा के पास चलूंगी और अब हमेशा वहीं रहूंगी.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ निधि ने चहक कर पूछा. उस की आवाज में खुशी भी थी और अविश्वास भी.

‘‘बिलकुल सच,’’ नंदिता ने भर्राए स्वर से उत्तर दिया.

मां के आश्वासन पर निधि दूध पी कर सो गई. नंदिता की आंखों के सामने कभी शेखर का विवाह के वक्त का हंसमुख चेहरा घूमता तो कभी दुर्घटना के बाद का मुर्झाया चेहरा. वह मुर्झाया चेहरा नंदिता से बारबार कह रहा था, ‘तुम ने मुझ से किस बात का बैर निकाला था, प्रिय? जीवन भर साथ निभाने का वादा कर के मुझे अकेला छोड़ गईं. यही दुर्घटना यदि तुम्हारे साथ घटी होती और मैं ने तुम्हें अकेला छोड़ दिया होता तो? तो तुम पर क्या गुजरती?’

‘मैं भी इनसान था. मेरे सीने में भी एक धड़कता हुआ दिल था. मुझे अकेला छोड़ते हुए तुम्हें तनिक भी तड़प नहीं हुई. अकेले पड़ेपड़े तुम्हें न जाने कितनी आवाजें दीं मैं ने. उन में से एक भी तुम्हारे कानों में नहीं पड़ी?’

‘अपने जीवन के लिए मुझे एक ही उपमा याद आ रही है… पतझड़ की सूनी शाख. वसंत में जो डाली फूलों से लदी हुई थी वह पतझड़ में बिलकुल वीरान पड़ी है. खैर, अकेलेपन से क्या डरना. आदमी अकेला ही दुनिया में आया है और अकेला ही जाएगा.’

‘बंधुसंबंधी अधिक से अधिक श्मशान तक उस का साथ निभा सकते हैं. तुम ने वह भी नहीं निभाया. जिंदगी के सफर में बीच रास्ते में साथ छोड़ गईं. परंतु अब मैं उस मोड़ पर पहुंच गया हूं जहां सारे गिलेशिकवे खत्म हो जाते हैं. यकीन मानो, मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है.’

नंदिता की आंखों से आंसू बरसने लगे. हृदय में ग्लानि का ज्वार उमड़ने लगा. उधर रात भी आहिस्ताआहिस्ता ढलने लगी.

भोर की पहली किरण के साथ वह उठ खड़ी हुई. किसी को कुछ बताए बिना वह निधि को साथ ले कर घर से निकल पड़ी. रिकशा जब ससुराल की गली के मोड़ पर पहुंचा तो सूरज निकल आया था.

रिकशा वाले को पैसे दे कर नंदिता ने बेटी की उंगली थामी और आगे बढ़ी. तभी दिल को चीरने वाला रुलाई का स्वर कानों से टकराया. निधि और नंदिता दोनों ने अम्मां की आवाज पहचान ली. आवाज उसी मकान से आ रही थी जहां एक दिन नंदिता मांग में सिंदूर सजाए डोली में चढ़ कर पहुंची थी. रात को निधि ने नफरत भरी आवाज में कहा था, ‘मां, तुम गंदी हो.’

नंदिता को महसूस हुआ जैसे यही वाक्य हर ओर से उस पर लांछन बन कर बरस रहा है, ‘तुम गंदी हो.’

हथेलियों से चेहरा ढांप कर वह रो पड़ी पर इन खारे मोतियों का मोल पहचानने वाला जौहरी अब कहां था.

Mother’s Day 2022: बच्चों में डालें बचत की आदत

पटना की रहने वाली शालिनी इस बात को ले कर अकसर टैंशन में रहती हैं कि नोएडा में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा उन का बेटा दिलीप हर महीने जरूरत से ज्यादा रुपए खर्च कर देता है. उस के कालेज, होस्टल और मैस की पूरे सालभर की फीस तो एक बार ही जमा कर दी जाती है. इस के बाद भी मोबाइल रिचार्ज कराने, इंटरनैट पैक डलवाने, होटलों में खाने, पिक्चर देखने और डिजाइनर कपड़े आदि खरीदने में वह 8-10 हजार रुपए अलग से खर्चकर देता है. वे बेटे के बैंक अकाउंट में इतने रुपए रख देती हैं कि वक्तबेवक्त उस के काम आ सके, लेकिन वह सारे रुपए निकाल कर अंटशंट कामों में खर्च कर डालता है. उन्होंने कई बार अपने बेटे को फुजूलखर्च बंद करने के बारे में समझाया. कई दफे शालिनी के पति ने भी बेटे को डांटफटकार लगाई, पर वह अपनी फुजूलखर्ची की आदत से बाज नहीं आ रहा है.

रांची हाईकोर्ट के वकील अभय सिन्हा इस बात को ले कर काफी परेशान रहते हैं कि शहर के ही एक मशहूर स्कूल में पढ़ रही उन की बेटी की फरमाइशों का कोई अंत नहीं है. एक फरमाइश पूरी होते ही उस की दूसरी डिमांड सामने आ जाती है. इस बारे में उन्होंने कई बार अपनी बिटिया को समझाया कि उन की आमदनी का बड़ा हिस्सा उस की स्कूल फीस और ट्यूशन फीस पर खर्च हो जाता है, इसलिए वह सोचसमझ कर ही रुपए खर्च किया करे.

उन के लाख समझाने के बावजूद वह कुछ समझने के लिए तैयार नहीं है. उस की फरमाइशों की वजह से कई बार अभय मुश्किलों में घिर चुके हैं और उस से निबटने के लिए कई बार उन्हें दोस्तों से उधार मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा.

मातापिता की परेशानी

अकसर पेरैंट्स इस बात को ले कर परेशान रहते हैं कि वे अपने बच्चों के बढ़ते जेबखर्च पर कैसे काबू रखें. हर महीने जेबखर्च की निश्चित रकम देने के बाद भी बच्चे जबतब पैसे मांगते रहते हैं. कभी बाइक मरम्मत के लिए तो कभी पैट्रोल के लिए, कभी मोबाइल फोन रिचार्ज कराने के लिए. कभी फ्रैंड्स के बर्थडे पर गिफ्ट देने के लिए तो कभी सैरसपाटे के लिए. पौकेटमनी को वे 8-10 दिनों में ही खर्च कर डालते हैं और महीने के बाकी दिनों के लिए पेरैंट्स को परेशान करते रहते हैं.

पेरैंट्स चाहते हैं कि उन के बच्चे जेबखर्च के लिए मिले पैसे पूरे महीने चलाएं और उस में से कुछ बचा कर जमा करने की आदत भी डालें, लेकिन ज्यादातर घरों में ऐसा हो नहीं पाता है.

रवि की मम्मी सीमा इस बात को ले कर बहुत चिंतित रहती थीं कि उस का बेटा पौकेटमनी को 10-12 दिनों में ही खत्म कर देता है और हमेशा कुछ न कुछ पैसे की डिमांड करता रहता है. दोस्तों के साथ फास्टफूड आदि खा कर और कभी पैंट, शर्ट, जूता, जैकेट आदि खरीद कर पौकेटमनी को तुरंत खर्च कर डालता है. पौकेटमनी से बचत की बात तो दूर, जरूरत से ज्यादा अंटशंट खर्च करने की आदत से सीमा की चिंता बढ़ती जा रही है. ऊपर से उन्हें पति की फटकार भी सुननी पड़ती है कि वे रवि को रोज पैसे दे कर बिगाड़ रही हैं.

फुजूलखर्ची पर लगाम जरूरी

बच्चों की फुजूलखर्ची और उन में बचत की आदत नहीं पैदा होने की समस्या से ज्यादातर मातापिता जूझते हैं. चार्टर्ड अकाउंटैंट श्यामबाबू शर्मा कहते हैं कि पेरैंट्स को बच्चों के बढ़ते जेबखर्च और फुजूलखर्च के अंतर को समझना पड़ेगा. बच्चों की बढ़ती आयु के साथ उन की जरूरतें भी बढ़ने लगती हैं. आज के जमाने में बाइक के लिए पैट्रोल, मोबाइल फोन, किताबें, कौपियां, इंटरनैट, सैरसपाटा, पहनावा आदि पर होने वाले खर्च को फुजूलखर्ची नहीं कह सकते. हां, इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि इन सब पर होने वाला खर्च हद से ज्यादा न हो. पार्टी, मौजमस्ती, घूमनेफिरने और पहनावे पर किए जाने वाले खर्च पर लगाम लगाने की बहुत जरूरत है. पढ़ाई छोड़ कर बच्चे दोस्ती, मटरगश्ती और फैशन की रंगीनियों में बहकें नहीं, इन सब चीजों पर अगर बच्चे ज्यादा खर्च कर रहे हों तो मातापिता को सतर्क हो जाना चाहिए.

बिहार सरकार में कभी अफसर रहे जितेंद्र सहाय कहते हैं कि अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को शुरू से ही बचत की आदत डालें, क्योंकि बचत की आदत उन की आगे की जिंदगी को आसान बना सकती है. बच्चों की आयु बढ़ने के बाद उन में बचत के प्रति समझ पैदा करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. वे बताते हैं कि नौकरी के सिलसिले में वे अकसर पटना से बाहर रहते थे. उन्होंने अपने चारों बच्चों के अकाउंट पास के बैंक में खुलवा दिए. हर महीने उन में बच्चों की जेबखर्च की रकम डाल देते हैं. जरूरत पड़ने पर बच्चे बैंक से ही पैसे निकाल कर अपना काम कर लेते हैं. इस से जहां उन के खर्च पर नियंत्रण लग सका, वहीं बच्चों में बचत की आदत भी डैवलप होती गई.

जरूरी खर्च क्या, क्यों, कब और कितना जरूरी है और फुजूलखर्च का क्या मतलब है व उस से क्याक्या नुकसान हैं? यह हर मातापिता को चाहिए कि अपने बच्चों को समझाएं. बच्चों को पैसे दे कर उस के बाद उन के द्वारा फुजूलखर्च करने पर डांटने और पीटने का कोई औचित्य ही नहीं है. आप ने पैसे दिए तभी तो बच्चे ने खर्च किए. उस के बाद हंगामा या मारपीट करने का क्या औचित्य?

स्कूल टीचर रजनी माथुर कहती हैं कि बच्चों को छोटी आयु से ही फुजूलखर्ची से होने वाले नुकसानों और बचत से होने वाले फायदों का पाठ पढ़ाना बहुत जरूरी है. बच्चे मन से चाहेंगे, तभी उन से कुछ बेहतर करवाया जा सकता है. समय गंवाने के बाद फटकार और मारपीट से न उन की फुजूलखर्ची पर नकेल कसी जा सकती है और न ही उन में बचत करने की आदत डाली जा सकती है.

बच्चों में समझ पैदा करें

अकसर यह देखनेसुनने में आता है कि कई पेरैंट्स इन सब के लिए बच्चों की पिटाई कर देते हैं. ऐसा कर के वे अपने बच्चों में खुद के प्रति नफरत और गुस्से की भावना ही पैदा कर लेते हैं जिस का बुरा असर बच्चों और पेरैंट्स दोनों पर पड़ता है. इसलिए समय रहते बच्चों में खर्च और फुजूलखर्च की समझ पैदा करें वरना बाद की हरकतें फुजूल ही साबित होती हैं. कई बार पैरेंट्स बच्चों की गैरजरूरी मांगें पूरी करते रहते हैं, जो गलत है.

आप खुद जानते हैं कि लचीले पेड़ को अपने हिसाब से मोड़ सकते हैं, तने के कठोर हो जाने के बाद उसे मोड़ने की कोशिशें बेवकूफी ही कहलाती हैं.

Mother’s Day 2022- टूटते सपने: भाग 1

‘‘अरुणाजी, आप का फोन,’’ वृद्धाश्रम के प्रबंधक मनोहरजी ने कहा.

‘मेरा फोन?’ अरुणा सोचने लगी, कौन हो सकता है.

‘‘आज कोई खास दिन है क्या, मनोहरजी?’’ अरुणा ने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘हां, आज तो आप लोगों का ही दिन है.’’

‘‘हमारा दिन?’’ कह अरुणा ने मनोहरजी से फोन ले लिया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैप्पी मदर्स डे, मम्मा,’’ आभास का स्वर सुनाई दिया. अरुणा एक पल को रिसीवर हाथ में पकड़े स्तब्ध खड़ी रही. उस के मुंह से बोल भी नहीं फूट सके थे. बस, आंखें झरझर बह रही थीं, जिह्वा तालू से चिपक गई थी.

‘‘क्या हुआ, मम्मा, आप ठीक तो हैं न? मैं आश्रम वालों को हर माह पेमैंट भेज देता हूं. ओके, टेक केयर,’’ और फोन कट गया.

रिसीवर पकड़े हुए कुछ पल यों ही निशब्द बीत गए.

‘‘हो गई बात?’’

मनोहरजी के कहने पर ‘जी’ कह कर अरुणा ने फोन रख दिया. भारी कदमों से चलती हुई वह अपने कमरे में आ गई.

‘‘क्या हुआ? क्या व्हाइट हाउस से डिनर का निमंत्रण था?’’ मनोरमा ने चुटकी वाले अंदाज में कहा.

‘‘हां, तो? तेरे राम व लक्ष्मण ने नहीं बुलाया क्या? और बुलाएंगे भी क्यों, वे तो तेरे लिए फूलों का गुलदस्ता लाएंगे, घर से पकवान बनवा कर लाएंगे,’’ अरुणा ने भी मनोरमा को छेड़ने वाले अंदाज में कहा और दोनों ही हंसने लगीं.

अरुणा और मनोरमा दोनों आश्रम में रहती थीं और एकदूसरे की अभिन्न मित्र बन गई थीं. एक ही कमरे में दोनों रहती थीं. अरुणा 5 वर्षों से इस वृद्धाश्रम में रह रही थी. जब आभास अमेरिका जा रहा था तभी उस ने अरुणा को इस आश्रम में पहुंचा दिया था यह कह कर कि ‘मां, तुम अकेली कहां रहोगी, इस आश्रम में तुम्हारे सरीखे बहुत लोग हैं, मन भी लगा रहेगा, और उचित अवसर मिलते ही मैं तुम्हें ले जाऊंगा.’ और फिर वह अपनी पत्नी तथा दोनों बच्चों को ले कर चला गया. तब से अरुणा उस उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी जो शायद कभी नहीं आने वाला था.

कुछ यही हाल मनोरमा का भी था. वह दबंग किस्म की मुंहफट स्त्री थी. बिना सोचेसमझे किसी से कुछ भी कह देना उस की आदत में शामिल था. वह 2 बेटों की मां थी. दोनों मां की आंखों के तारे थे. उन का विवाह मनोरमा ने बहुत ठोकबजा कर अपनी पसंद की लड़कियों से कर दिया था. लेकिन जिस घड़े को वह इतना ठोकबजा कर लाई थी वही घड़ा पानी पड़ते ही रिसने लगा. कहने को तो वह 2-2 बेटों की मां थी लेकिन जब वृद्धावस्था आई तो उस का जीवन दयनीय हो गया. घर के जिस आंगन में दोनों बेटों की किलकारियां गूंजती थीं, हंसी के फौआरे छूटते थे वही विवाह के कुछ ही वर्षों बाद घर के 2 टुकड़े करवा कर अलगअलग रह रहे थे. वह अवाक् थी. किस के साथ वह रहे, दोनों ही तो उस के अपने थे, किंतु वह केवल यह सोच ही सकती थी. किसी बेटे ने यह नहीं कहा, ‘मां, तुम मेरे साथ रहोगी.’ वह जानती थी कि बेटे अपनीअपनी पत्नियों के अधीन थे और वे वही करेंगे जो उन की पत्नियां कहेंगी.

वह मौन सबकुछ अपने कक्ष से देखती थी किंतु कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं होती थी. क्या बेटे या बहुएं, यह भूल जाते हैं कि कल जब उन की जीवनसंध्या हो रही होगी, जब वे भी अशक्त बूढ़े हो जाएंगे तब उन का भी यही हश्र हो सकता है. उसे यह भी नहीं पता होता था कि आज किस बेटे के घर से उस के लिए खाना आदि आएगा. कभीकभी तो वह भूखी ही रह जाती थी. मां का तो बंटवारा हुआ नहीं था, दोनों ही एकदूसरे पर मां के लिए भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी डाल देते थे.मनोरमा को अपनी परवरिश पर बड़ा नाज था. जब भी किसी स्त्री की दुरावस्था को देखती थी यही कहती थी, ‘पालनपोषण में कहीं कमी रह गई होगी वरना आज ये दिन क्यों देखने पड़ते?’ किंतु जब स्वयं पर गाज गिरी तब उसे अपनी गलती समझ में आने लगी. दूसरों को अपने बच्चों की नकेल को कस कर पकड़ने की सलाह देने वाली क्या स्वयं भी नकेल को कस कर पकड़ सकी थी? स्वभाव की तेज महिला को किसी का भी थोड़ा तेजी से बोलना बरदाश्त नहीं था. शायद उस की इसी तेजी ने या अधिक अपेक्षा रखने की चाहत ने उसे इस कगार पर पहुंचा दिया था. मां की इस दुरावस्था का भान होते ही उस की बेटी उसे अपने घर ले कर चली गई. 2 माह तो वहां ठीक से बीते किंतु उस का भी भरापूरा परिवार था. घर में सासससुर भी थे जिन्हें अब उस की उपस्थिति अखर रही थी. इस बात को मनोरमा अब अच्छी तरह समझ रही थी, कहीं उस के कारण बेटी का जीवन अस्तव्यस्त न हो जाए, उस ने समय रहते ही वहां से भी किनारा कर लिया और चुपचाप इस वृद्धाश्रम में आ गई. उसे पैसों का इतना अभाव नहीं था जितना कि अपनों के स्नेह का.

मनोरमा अपने विचारों में मगन थी कि अरुणा ने उसे कंधे से झकझोर कर हिला दिया, ‘‘क्या हुआ? खाने की घंटी नहीं सुनाई दे रही है? चल भोजनकक्ष में, सभी तो आ चुके हैं हम दोनों के सिवा. आज मिसरानी ने भरवां करेले बनाए हैं और खीर भी बनाई है. आज तो खाने में मजा आ जाएगा,’’ अरुणा ने उसे गुदगुदाने वाले लहजे में कहा किंतु मन्नो तो चुप थी. न जाने क्यों अरुणा की मनोरमा से इतनी मित्रता हो गई थी जबकि मनोरमा का रोबीला अंदाज, अक्खड़ी बोली किसी को भी पसंद नहीं आती थी. किंतु फिर भी दोनों में अच्छा सामंजस्य था, शायद दोनों का दुख एक ही था.

Mother’s Day 2022: शोभा मम्मी- कौन स्मिता की मम्मी बनी?

बाहर से सख्त दिखने वाली, रूल्सरैगुलेशन को मानने वाली स्मिता के पीजी की मालकिन शोभा आंटी किसी पर विश्वास नहीं करती थीं. फिर ऐसा क्या हुआ कि वे स्मिता की शोभा मम्मी बन गईं?

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर लोगों की भीड़ कंचेगोटियों सी  प्रतीत हो रही थी. लग रहा था जैसे किसी बच्चे के हाथ से ढेर सारे कंचे छूट कर चारों ओर बिखर गए हों. इतनी भीड़ स्मिता ने सिर्फ फिल्म के परदे पर देखी थी. उस के अपने शहर जबलपुर में तो शायद कुल मिला कर इतने ही लोग होंगे जितने यहां स्टेशन पर.

जबलपुर की और्डिनैंस फैक्टरी में कार्यरत उस के पापा, वहीं एक छोटे से महल्ले में रहती आई स्मिता एमबीए कर, नौकरी पाते ही साहस बटोर कर चली आई थी मुंबई. वह भी अकेली. कितनी मुश्किल से माने थे उस के पापा.

‘अब मैं बड़ी हो गई हूं, पापा. हर जगह आप की गोदी में थोड़े ही जाऊंगी. जब पढ़ाई पूरी कर, इंटरव्यू में चुनी जा कर नौकरी पा सकती हूं तो टे्रन में बैठ कर मुंबई क्यों नहीं जा सकती? वैसे भी कंपनी की तरफ से मुझे स्टेशन पर रिसीव किया जाएगा. आप ने भी तो बात की है न फोन पर कंपनी के बौस से.’

पापा मान तो गए पर हर पिता की तरह उन्होंने कई हिदायतों की लिस्ट भी रटा दी थी उसे. ‘हांहां पापा, पहुंचते ही फोन करूंगी. टे्रन में किसी से ज्यादा बात नहीं करूंगी, किसी का दिया कुछ नहीं खाऊंगी, अपना पूरा ध्यान रखूंगी. आप प्लीज चिंता न करना.’ लेकिन यहां लोगों के महासागर में कदम रखते हुए वह मन ही मन सहम गई. चारों ओर नजर उठा कर देखते ही उसे अपने नाम का प्लेकार्ड लिए एक लड़का दिखाई दिया. वह उस की ओर बढ़ गई.

‘तो आप हैं स्मिता. मैं अनुराग हूं, औफिस की तरफ से आया हूं आप को रिसीव करने. आप की रिक्वैस्ट पर कंपनी ने आप के लिए एक पीजी एकोमोडेशन पक्का किया है. मैं आप को वहीं ले चलता हूं.’

स्मिता, अनुराग की टीम मैंबर बनने वाली थी. अनुराग ने रास्ते में औफिस भी दिखा दिया और पीजी से औफिस पहुंचने का रास्ता भी. अब स्मिता को थोड़ी राहत मिली. वह खुश थी कि कंपनी ने उस का इतना ध्यान रखा.

‘‘इन से मिलिए, ये हैं शोभा आंटी. हमारा औफिस अकसर न्यूकमर्स को इन्हीं के पीजी में भेजता है,’’ अनुराग ने स्मिता का परिचय पीजी की मालकिन से कराते हुए कहा, ‘‘और न्यूकमर्स शहरों की चकाचौंध को देख, उस में डूबते ही शोभा आंटी के घर से भाग जाते हैं. आंटी का रूल्स, बच्चा लोगों को नहीं जंचता. तुम अपना नाम तो बताओ?’’ पारसी समुदाय की शोभा आंटी थोड़े से अलग अंदाज में बोलीं.

‘‘मैं…मेरा नाम स्मिता है, जबलपुर से आई हूं,’’ थोड़ी हकलाहट के साथ वह बोल गई.

आंटी ने अपने रूल्स साफसाफ बताते हुए कहा, ‘‘अपने रूम को घर जैसा व्यवस्थित रखना होगा. रात को 10 बजे से ज्यादा देरी से नहीं आने का, नाश्ता मेरी तरफ से होगा पर लंच और डिनर खुद का. रूम में कोई भी फ्रैंड, रुकने के लिए नहीं आएगा. म्यूजिक जोर से नहीं बजेगा.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

स्मिता को इन नियमों से कोई परेशानी न थी. घर में मां न होने के कारण, वह कामकाज करने की आदी थी.

अगली सुबह अपने कमरे में झाड़ू देने के बाद उस ने सारे घर की भी सफाई कर दी. शोभा आंटी तब तक सो रही थीं. तब स्मिता किचन में चली गई. एक डब्बे में रखा चिड़वा देखा तो प्याज काट कर पोहा बनाने लगी.

तड़के की आवाज सुन आंटी आ गईं, ‘‘अरे, यह क्या करती है?’’

‘‘कुछ नहीं, शोभा आंटी, आप सो रही थीं और मैं फ्री थी तो सोचा कि नाश्ता बना दूं. आप पोहा खाती हैं न? साथ में चाय भी चढ़ा देती हूं.’’

स्मिता को इतने अपनेपन से काम करते, बोलते देख शोभाजी मूक रह गईं और स्वीकृति में सिर हिला कर डाइनिंग टेबल पर जा कर बैठ गईं. नाश्ता करते समय भी वे मौन रहीं. जब स्मिता औफिस जाने लगी तब पूछा, ‘‘कब लौटेगी?’’

‘‘कह नहीं सकती, आंटी, पर 10 बजे से पहले हर हाल में घर पहुंच जाऊंगी. आज मेरी नौकरी का पहला दिन है. पापा यहां होते तो कितने खुश होते,’’ कहते हुए स्मिता, आंटी के कदमों की ओर बढ़ी. आंटी ने बीच में ही थाम लिया, ‘‘औल द बैस्ट.’’

नई लड़की द्वारा इतना अपनापन, ऐसा व्यवहार शोभाजी को शक में डाल गया. आज की स्वार्थपरता व चालाकी से भरी दुनिया में इतनी सरलता? कोई चक्कर तो नहीं है. वे सोच में पड़ गईं.

स्मिता का दिन अच्छा व्यतीत हुआ. लोग अच्छे लगे, खासकर अनुराग द्वारा ध्यान रखना. वह बता चुका था कि पिछले 3 वर्षों से वह यहां है और अकेला रहता है, मातापिता लखनऊ में हैं. औफिस से निकलने के साथ ही अचानक मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. ऐसे में स्मिता खड़ी हो कर बारिश के थमने की प्रतीक्षा करने लगी. पर जब 9 बजने वाले हो गए तो वह आंटी की रूल्स वाली बात याद कर डर गई. तुरंत आंटी को फोन पर बारिश के कारण देर होने की बात कह डाली कि तभी बीच में ही आंटी ने कह दिया, ‘‘अधिक देरी होने पर मत आना, वहीं औफिस में रुक जाना,’’ और फोन डिसकनैक्ट हो गया.

स्मिता को आंटी की आवाज में क्रोध का आभास हुआ. इस के बाद तो वह किसी भी तरह अनुराग के साथ आंटी के घर, गली में घुटनों तक पानी को पार करती हुई पहुंची.

उन की हालत देख शोभाजी ने लपक कर कहा, ‘‘ओ बाबा, मैं ने कहा था न कि बारिश में वहीं रुक जाओ. यह रूल्स की बात नहीं है कि…खैर छोड़ो. चलो, जल्दी से चेंज कर लो. अनुराग तुम्हारे लिए अपने बेटे रोमेश का कुरतापाजामा देती हूं. चेंज कर अपने घर जाओ. बारिश थम गई है.’’

बातोंबातों में स्मिता जान गई थी कि आंटी के पति किसी दूसरी औरत के साथ दुबई में रहते हैं. बेटा और बहू लंदन में हैं, 3 बार ये भी लंदन रह कर आई हैं. बेटा तो साथ रहने की जिद करता है पर शोभा आंटी का मन अपने ही घर में लगता है.

‘‘मैं अपनी इच्छा से दिनचर्या जीती हूं और बच्चे अपने हिसाब से जीते हैं. मुझे किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं है,’’ चाय पीते हुए शोभाजी ने कहा था.

‘‘फिर भी आंटी, आप यहां अकेली रहती हैं और सुरक्षा की दृष्टि से भी ठीक नहीं है.’’

‘‘नहीं, मैं किसी से नहीं डरती और किसी पर यों ही विश्वास भी नहीं करती. अपनी आंखें खुली रखती हूं,’’ तभी उन्हें अपने बेटे रोमेश की बात याद आ गई जो बारबार कहता है कि ‘मम्मा, पीजी पर ज्यादा भरोसा न करना, आज क्राइम इतना बढ़ गया है कि हर समय आप की चिंता लगी रहती है.’ इसीलिए तो रोमेश हर शनि व रविवार को फोन करता है.

उस दिन, सुबह 8 बजे जब शोभाजी किचन में दिखाई न दीं तो स्मिता ने उन के बैडरूम में झांका, वे बिस्तर पर लेटी थीं.

‘‘क्या हुआ, आंटी, आप की तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ पूछने के साथ ही उन के प्रत्युत्तर के बिना ही शोभा आंटी की सूजी आंखें, उतरा चेहरा देख वह जान गई कि कुछ गड़बड़ है. तभी शोभाजी ने बताया कि ब्लडप्रैशर बढ़ गया है, चक्कर आ रहे थे. सुबह 4 बजे घबराहट होने पर उन्होंने ब्लडप्रैशर नापने के यंत्र से ब्लडप्रैशर नापा था, 260 और 120 था. इसलिए वे दवा ले कर लेटी थीं.

हाथ लगाने पर शरीर तप भी रहा था. आननफानन स्मिता ने शोभा आंटी के सैलफोन की एड्रैसबुक से उन के डाक्टर का नंबर खोज कर उन्हें घर बुलाया. औफिस से छुट्टी ले वह 2 दिन उन की सेवा करती रही. इन 2 दिनों में वह आंटी के रूम व कपड़ों की भी सफाई करती रही. तीसरी शाम आंटी को अपनी तबीयत ठीक लगी. स्मिता को सूप लाते देख उन्होंने पूछा, ‘‘तुम दफ्तर नहीं गईं?’’

‘‘आज तो शनिवार है, आंटी. मेरी छुट्टी है. हां, मैं ने कल और परसों की छुट्टी जरूर ली थी, अपनी मां जैसी आंटी के लिए,’’ मुसकराते हुए वह बोली.

शोभाजी अपनी अलमारी के लिए चिंतित हो उठीं. उन्हें मालूम था कि अलमारी खुली थी, लौक नहीं लगा था. उस में कैश व डेली यूज की ज्वैलरी तथा छोटीमोटी और भी कीमती चीजें रखी थीं जो उन्हें याद भी न थीं.

स्मिता के जाते ही, उन्होंने अपनी अलमारी देखी सबकुछ व्यवस्थित था, बल्कि बिखरा सामान तक करीने से सजा हुआ था. उन्हें अपनी सोच पर ग्लानि हो उठी थी, ‘ओह, मैं ने न जाने कितने गलत विचार बना लिए इस नेक बच्ची के लिए. मैं ने शक किया. मुझे माफ कर देना.’

अब शोभाजी व स्मिता के व्यवहार को देख कर कोई कह नहीं सकता था कि वह पीजी मात्र है. नाश्ते के साथसाथ छुट्टी वाले दिन लंच व डिनर साथसाथ होता. आंटी ने स्मिता को जैसे पूरा शहर ही घुमा डाला था. जुहू बीच पर पावभाजी, चौपाटी पर कालाखट्टा, बर्फ का गोला, लिओपोल्ड कैफे में स्ंिप्रग रोल्स खाने के साथसाथ तारापोरवाला एक्वेरियम आदि में दोनों साथसाथ घूम कर मजे कर रही थीं.

इधर, अनुराग का चाहे जब फोन आना और स्मिता का हंस कर, खिलखिला कर बातें करना, शोभाजी को अच्छा नहीं लगता था, पर वे चुप रहतीं. फिर भी एक दिन वे स्वयं को रोक न सकीं, ‘‘स्मिता, क्या अनुराग तुम्हें पसंद आ रहा है? क्या तुम इस के परिवार के व इस के बारे में जानती हो?’’

‘‘अरे, आंटी, यह तो मेरा सीनियर कुलीग है और थोड़ीबहुत दोस्ती है. बस, और कुछ नहीं,’’ स्मिता ने बेझिझक कहा.

‘‘बेटा, मैं तो एक ही बात कहूंगी कि संभल कर ही कोई दोस्ती या रिश्ता कायम करना, आजकल एक ही व्यक्ति के कईकई चेहरे होते हैं. तुम एक सिंपल लड़की हो, इसीलिए चिंता होती है. मैं भुक्तभोगी हूं. मैं ने देखा है चेहरे पर चेहरा. वर्षों तक मुझे पता ही न चल सका था कि वह अपनी सैके्रटरी के साथ मजे लूट रहा था. जब 5 वर्ष बाद मुझे पता लगा तब बहुत हंगामा हुआ और परिणाम तलाक ले कर आया. खैर, मैं ने हिम्मत नहीं हारी अपने रोमेश की परवरिश की, उसी के लिए जीती रही.

‘‘मैं पीजी अपना अकेलापन दूर करने के लिए ही रखती हूं वरन मेरा बेटा व बहू मुझे अपने घर बारबार बुलाते हैं. बस, मेरा ही मन वहां नहीं लगता. मुंबई से मेरा मन जुड़ा है. पर बेटा याद रखना कि यह ऐक्टरों की नगरी है. संभल कर कदम रखना. बस, अब मैं और कुछ नहीं कहूंगी.’’

‘‘ओह आंटी, सो नाइस औफ यू. आप मेरी मां जैसी हैं. मैं अपना पूरा ध्यान रखूंगी,’’ कहते हुए स्मिता ने उन के दोनों हाथ थाम लिए.

शोभाजी अपने त्योहार जमशेद-ए- नवरोज की तैयारी में दोगुने जोश के साथ जुट गई थीं, उन का बेटा जो आने वाला था. दरवाजे पर रंगोली में फूलों व मछली की डिजाइन देख कर वह खुशी से बोला, ‘‘वाह मम्मा, अभी भी वही खूबसूरत डिजाइन बनाई है तुम ने.’’

‘‘नहीं बेटा, यह रंगोली तो स्मिता ने बनाई है. हां, मैं ने उसे सिखाई जरूर है,’’ प्रसन्न स्वर में शोभाजी ने कहा. शोभाजी ने स्मिता का परिचय करवाया और उस की सहायता से खाने की टेबल पर दूध, फलूदा, मटनपुलाव, साली बोटी, सासनी मच्छी, लगा नू कस्टर्ड के डोंगे सजा डाले. ये सब बेटे की पसंद थे.

शोभा आंटी के चेहरे पर फैली चमक व मुसकराहट देख, स्मिता चहक कर बोली, ‘‘अरे वाह, आंटी, आज आप कितनी सुंदर व खुश लग रही हैं. काश, रोज ही यह त्योहार आए और रोमेश भाई भी,’’ इस पर मांबेटा हंस दिए थे.

‘‘मम्मा, आजकल अकेले बुजुर्ग की क्या हालत है? आप रोज देखतीसुनती हैं टीवी पर, अखबार में, फिर भी यहीं रहना चाहती हैं. आखिर ऐसा भी क्या मोह है इस घर से?’’ जरा चिढ़ते हुए दुखी स्वर में रोमेश अपनी मां से, रूम में कह रहा था, ‘‘आजकल कितने धोखे हैं, कोई घर भी हड़प सकता है प्यार दिखातेदिखाते, मर्डर भी हो सकता है. क्याकुछ नहीं हो सकता. मां, मैं फिर कह रहा हूं कि मेरे साथ रहो लंदन में.’’

‘‘सुनो डीकरा, मैं मानती हूं कि तुम्हें मेरी फिक्र है, मुझे तुम प्यार करते हो पर यह घर कोई नहीं हड़प सकता. मैं 20 वर्षों से हाउसटैक्स दे रही हूं. रसीदें मेरे नाम हैं. पेमैंट चैक द्वारा होता है. इसीलिए इस में हेराफेरी नहीं हो सकती. और हां, कंपनी द्वारा भेजी गई लड़की को ही पीजी रखती हूं और यह स्मिता तो बहुत ही नेक, सीधी बच्ची है,’’ इसी के साथ उन्होंने अपनी तबीयत खराब होने वाली घटना बता डाली.

रोमेश भी समझ गया कि मां यों ही किसी पर विश्वास करने वाली नहीं हैं. फिर भी जाते समय अपनी मां को ‘टेक केयर ऐंड बी अवेयर’ कह गले लगाया.

सुबह आंखों की सूजन, चुगली कर रही थी कि आंटी रात में देर तक रोई थीं. जैसे ही स्मिता ने उन का हाथ थामा, वे गले लग कर रो पड़ीं, ‘‘मैं जानती हूं कि बच्चों की अपनी मजबूरी होती है, उन्हें देशविदेश जाना होता है पर इस मन का क्या करूं?’’

‘‘आंटी मैं हूं न आप के पास. क्या मैं आप की बेटी जैसी नहीं हूं. प्लीज, दुखी मत होइए.’’

‘‘यहां हमेशा मेरे साथ रहने वाली थोड़े ही है. तू भी तो चली ही जाएगी.’’

‘‘चलो, पहले चाय पियो. मैं कहीं भी जाने वाली नहीं हूं, समझीं?’’ शोभा जी के आंसू पोंछते हुए स्मिता ने उन्हें चेयर पर बिठाया और फिर कहा, ‘‘शोभा मम्मी.’’

मम्मी संबोधन पर ‘ओ माई चाइल्ड’ कह स्मिता को फिर से गले लगा लिया.

एक शाम अनुराग ने अपनी चाहत, स्मिता के समक्ष रख दी. स्मिता ने शोभा मम्मी से यह बात बताते हुए स्पष्ट कहा कि वह भी उसे चाहती है. शोभा मम्मी ने, स्मिता के पापा को इस रिश्ते के लिए राजी किया. शोभाजी लखनऊ गईं. एक मां की तरह शादी के कार्य में हाथ बंटाया. खूब धूमधाम से शादी संपन्न हो गई.

हनीमून की खुमारी के बीच एक सुबह स्मिता का चेहरा देख अनुराग पूछ बैठा, ‘‘तुम उदास क्यों हो? क्या बात है?’’

‘‘कुछ खास नहीं, बस शोभा मम्मी का खयाल आ गया कि वे अकेली होंगी,’’ ऊटी की सुंदरता देखते हुए उदास स्वर में स्मिता ने कहा.

‘‘अभी तुम इस प्राकृतिक सौंदर्य का, मेरे प्यार का मजा लो जानम. बस, 2 दिन बाद हम वापस जा ही रहे हैं. नाऊ चीयर अप. फिर तो वही भागमभाग होगी, समझीं,’’ अनुराग ने उसे बांहों में भर कर प्यार किया.

मुंबई लौट कर अपने नए घर, जोकि अनुराग ने विवाह से पहले ही ले लिया था, जाने के बजाय स्मिता ने शोभा मम्मी के घर चलने की जिद की.

शोभा मम्मी ने पूरी आवभगत से स्वागत किया. फिर कुछ ही देर में कितने ही व्यंजन बना डाले. स्वीट डिश खाते हुए अनुराग ने बताया कि शिफ्टिंग के लिए कल सुबह ट्रक बुला लिया है.

सुबह भी हो गई और अनुराग ने कई बार कह डाला, ‘‘स्मिता, प्लीज जल्दीजल्दी सामान रखो. 8 बजे के बाद ट्रक सिटी में एंटर नहीं कर सकेगा,’’ और स्वयं सामान लोड कराने लगा.

हठात स्मिता की नजर डाइनिंग टेबल पर रखी दवाइयों पर पड़ी.

‘‘शोभा मम्मी, आप ने अपनी दवाइयां नहीं खाईं. ये तो उतनी की उतनी हैं,’’ दवाइयां उठाती हुई वह बोली.

इस से बेखबर अनुराग अंदर आते हुए बोला, ‘‘अगली बार जब हम आएंगे तब आप का यह पुराना सोफा बदलने का काम करेंगे आंटी, ओके?’’

‘‘कुरसी पर पड़े इस पुराने फर्नीचर का भी कुछ कर देना, डीकरा,’’ अपनी ओर इशारा करते हुए जैसे ही शोभा मम्मी ने कहा वैसे ही स्मिता फूटफूट कर रो पड़ी. मम्मी के आंसू तो बह ही रहे थे. कुछ पल अनुराग भी मूर्तिवत खड़ा रह गया. ‘‘अरे, ट्रक वाले भाईसाहब, वापस उतार दो सामान. अब हम कहीं नहीं जाएंगे.’’

और इस वाक्य ने दो रोती हुई ममता की मूरतों के चेहरों पर हंसी लौटा दी.

विद्या का मंदिर- भाग 1: क्या थी सतीश की सोच

“अरे रे, रोकना,” रमा ने एक बार जब फिर राहुल से कार रुकवाई, तो राहुल के मुंह से निकल पड़ा, “ओह नो.”

सामने उस के वही चिरपरिचित हनुमानजी का मंदिर था जिस को वह रोज ही यहां से गुजरते हुए देखता था. पहले यह छोटा सा मंदिर था. देखते ही देखते मंदिर ने भव्य रूप ले लिया था. बढ़ते ट्रैफिक और रोज जाम जैसी स्थिति पैदा होने के मद्देनजर सड़कों को चौड़ी करने के लिए कई अवैध रूप से कब्जा की हुई इमारतों, छोटीमोटी दुकानों को हटा दिया गया. लेकिन इस मंदिर को छूने की हिम्मत किसी को न हुई. सड़क चौड़ी हुई, ट्रैफिक प्लान भी बदला. लेकिन यह मंदिर अपनी जगह पर जस का तस रहा. हां, इस का स्वरूप बदलता रहा. मंदिर में एक के बाद एक भगवान की प्रतिमाएं स्थापित होती रहीं और मंदिर का आकार छोटे से बड़ा होता गया. एक विशालकाय हनुमानजी की प्रतिमा मंदिर के बाहर ऊपर स्थापित कर दी गई. बाईं ओर से एक सड़क जाती और दाईं ओर से दूसरी. रास्ता वन-वे हो गया. वैसे तो मंदिर का मुख्यद्वार सड़क के दाईं ओर खुलता था, लेकिन हनुमानजी की प्रतिमा सड़क को 2 भागों में विभाजित करने वाले स्थान पर मंदिर के ऊपर स्थापित की हुई थी. सिंदूरी रंग की विशालकाय मूर्ति बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेती थी.

राहुल को जो बात सब से ज्यादा अखरती थी, वह थी, वे 2 दुकानें.  मंदिर के बाईं ओर शराब की दुकान और दाईं ओर चिकन कौर्नर.  रोज शाम को इन 2 दुकानों में  जितनी भीड़ उमड़ती थी, उतनी भीड़ तो मंदिर में भी नहीं उमड़ती. बजरंगबलीजी भले ही बल में अव्वल हों, मगर लोकतंत्र के पैमाने में कहीं टिक नहीं पाते थे. सामने बड़ी सी हनुमानजी की प्रतिमा और उन के दोनों तरफ ये दुकानें एक अजीब सा विरोधाभास उत्पन्न करती थीं. शाम को मंदिर में होती आरती और शंखनाद की ध्वनि इन 2 दुकानों में भीड़ से उत्पन्न कोलाहल में दब के रह जाती. यह दृश्य राहुल को बहुत ही हास्यास्पद लगता था. हनुमानजी को क्या देखने को मिल रहा…यह विचार आते ही राहुल को हंसी आ जाती. कभीकभी तो मन करता राहुल का कि हनुमानजी की मूर्ति को कपड़े से ढक दे या इन 2 दुकानों को यहां से हटा दे, इन में दूसरा विकल्प बिलकुल भी संभव न था.

उसी हनुमानजी के मंदिर के आगे रमा ने गाड़ी रुकवा दी.

“मुझे, मंदिर में चलने के लिए मत कहना,” राहुल ने अड़ते हुए कहा.

“भगवान हनुमानजी से भी आशीर्वाद ले लो,” हनुमानजी की प्रतिमा को हाथ जोड़ते हुए रमा बोली.

“मम्मी, आप यह चौथे मंदिर में जा रही हो,” झुंझलाते हुए राहुल ने गाड़ी से उतरते हुए कहा.

राहुल की बातों को अनसुना कर रमा मंदिर में भगवानजी के आगे नतमस्तक हो गई. राहुल उखड़ा सा खड़ा रहा.

पापा की कार राहुल को मुश्किल से ही छूने को मिलती थी, कारण, वे अभी भी राहुल को बच्चा समझते थे और थोड़ा डरते भी थे उस की ड्राइविंग से. नौकरी पर लगते ही राहुल ने सब से पहले अपने लिए कार खरीदी. मम्मीपापा मना ही करते रह गए. लाल रंग की नई चमचमाती कार घर में खड़ी हो गई.

दूसरे दिन राहुल का अपनी नई कार चलाने की सारी खुशी और जोश उस समय ठंडा हो गया, जब उस ने बैग में अपना लंचबौक्स रख, कार की चाबी हवा में घुमाते हुए औफिस जाने के लिए निकलने ही वाला था कि रमा ने रोक दिया.

“पहले गाड़ी देवी मां के मंदिर जाएगी. वहां देवी की पूजा और आशीर्वाद के बाद ही कार चलाएगा.”

“मम्मी, मैं इन सब में विश्वास नहीं करता,” अपनी नई गाड़ी चलाने को उतावला राहुल लापरवाही से बोला.

“मुझे कुछ नहीं सुनना,” रमा ने अपना अंतिम फैसला सुनाया, तो राहुल खीझ गया.

मुंह फुला कर राहुल चाबी वहीं टेबल पर जोर से पटक और बिना कुछ बोले तेजी से औफिस के लिए निकल गया.

“क्यों बच्चे का मूड खराब करती हो,” अखबार पढ़ते हुए सतीश चंद्र बोले.

“आप तो चुप ही रहिए. आप को तो पूजापाठ में कोई आस्था है नहीं, राहुल को भी वैसे ही बना रहे हो,” कार की चाबी को कस कर पकड़ती हुई रमा बोली.

इतवार को सुबहसुबह रमा ने राहुल को उठा दिया.

“मम्मी, चाय तो पिला दो पहले,” उनींदा सा राहुल बोला.

“कोई चायवाय नहीं. मंदिर में पूजा के बाद ही चायनाश्ता करेंगे. जल्दी उठ और नहा कर तैयार हो जाओ, नहीं तो मंदिर में फिर बहुत भीड़ हो जाएगी.”

अधखुली आंखों से राहुल ने देखा- सामने मम्मी तैयार खड़ी थी.

“अभी सोने दो, रोज तो जल्दी उठना पड़ता है,” बोल कर राहुल ने बिस्तर पर दूसरी ओर करवट ले कर लिहाफ अपने ऊपर तक खींच कर फिर सो गया.

“कल औफिस कार से जाना है कि नहीं?” राहुल के ऊपर से लिहाफ खींचती हुई रमा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा.

राहुल को पता था कि बिना देवी के मंदिर जाए मां कार चलाने नहीं देगी. कार चलाने की लालसा ने राहुल के अंदर एकाएक ऊर्जा का संचार कर दिया. एक झटके से उठा और जल्दी से नहा कर तैयार होने लगा.

शहर से 14 किलोमीटर दूर मुख्य सड़क पर बना यह मंदिर अपनी प्राकृतिक छटा से यात्रियों का मन बरबस ही मोह लेता  है. एक ओर विभिन्न किस्म के हरेभरे पेड़ों से आच्छादित पहाड़ियां और दूसरी ओर थोड़ी सी समतल भूमि पर निर्मित देवी मां का मंदिर और पीछे विस्तृत क्षेत्र में फैली बरसाती नदी, जिस में उथला पानी का स्तर. नदी के स्वच्छ, निर्मल जल में छोटेबड़े,  सफेदस्लेटी रंग के गोलाकार पत्थर स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं, कभीकभार हिरन व हाथी भी नदी के आसपास विचरित करते दिख जाते हैं. दूर सड़क से यह विहंगम दृश्य बड़ा रमणीक लगता है.

इतवार होने की वजह से सच में मंदिर में बहुत भीड़ थी. मंदिर की मान्यता है कि नया वाहन लेने पर देवी से पूजा करवाने पर वाहन और चालक दोनों सुरक्षित रहते हैं. किस्मकिस्म की चमचमाती ब्रैंडेड नई दोपहिया और चौपहिया वाहनों की असंख्य गाड़ियां मंदिर के बाहर खचाखच खड़ी हुई थीं. ऐसा लग रहा, मानो शहर के सारे शोरूमों की गाड़ियां यहीं एकसाथ इकट्ठी हो गई हों. बड़ी मुश्किल से पार्किंग की जगह मिली. भिखारियों की अच्छीखासी तादाद मंदिर के बाहर मंड़रा रही थी.

उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की भाव और भावना एक: सीएम योगी

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के लिए गुरुवार का दिन ऐतिहासिक रहा. दोनों राज्यों के बीच तीन दशक से चले आ रहे एक विवाद का पटाक्षेप करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को अलकनंदा अतिथि गृह की चाबी सौंपी तो उत्तर प्रदेशवासियों के लिए हरिद्वार में नवनिर्मित भव्य भागीरथी भवन का लोकार्पण किया.

माँ गंगा तट के पर आयोजित संपन्न कार्यक्रम को मुख्यमंत्री योगी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजन के अनुरूप बताया. उन्होंने कहा कि माँ गंगा भारत के जीवनधारा की आत्मा हैं. गंगा तब बनती है जब अलकनंदा और भागीरथी एक साथ मिलती हैं.

प्रधानमंत्री जी ने हमें विवादों को संवाद से सुलझाना सिखाया है और इसी भावना के साथ दोनों राज्यों के बीच विवादों का समाधान होना संभव हुआ.

पूज्य संतों, धर्माचार्यों, अनेक पूर्व मुख्यमंत्री गणों, उत्तराखंड सरकार के मंत्रियों की उपस्थिति में मुख्यमंत्री योगी ने दोनों राज्यों के समग्र विकास के लिए साथ-साथ मिलकर काम करने की जरूरत बताई.

उत्तराखंड को अपनी माँ और मातृभूमि कहते हुए सीएम योगी ने कहा कि उत्तराखंड में स्प्रिचुअल टूरिज्म और इको टूरिज्म की अपार सम्भावनाएं हैं. उत्तर प्रदेश की 25 करोड़ जनता सहित पूरे भारत से कौन ऐसा है जो उत्तराखंड के चार धाम का पुण्य लाभ नहीं लेना चाहता, ऐसा कोई नहीं जो हर की पैड़ी पर स्नान नहीं करना चाहता. यहां हर मौसम में पर्यटन के अवसर हैं.

चारधाम यात्रा के दौरान केदारनाथ, बद्रीनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री की ओर लोग आने को उत्सुक हैं तो दूसरे सीजन में कुमाऊं, नैनीताल, झूंसी मठ से जुड़े अनेक हिल स्टेशन भी लोगों को लालायित करता है. यही नहीं, हाल के वर्षों में यहां फारेस्ट कवर भी बढ़ा है, जो इको टूरिज्म की संभावनाओं को बल देने वाला गया. सीएम योगी ने डबल इंजन की सरकार में देवभूमि उत्तराखंड में केदारनाथ, बद्रीनाथ, ऋषिकेश, आदि आध्यत्मिक स्थलों के पर्यटन विकास के लिए जारी प्रयासों की सराहना की. इन पावन स्थलों को आस्था के साथ-साथ राष्ट्रीय एकात्मता को तेज और ओज देने के केंद्र की संज्ञा देते हुए सीएम योगी ने विश्वास जताया कि यहां विकास की यह यात्रा सभी के सुख-समृद्धि का कारक बनेगी.

काशी में 50 लोग पूजन नहीं कर पाते थे, आज 50 हजार लोग होते हैं मौजूद उत्तर प्रदेश में अयोध्या दीपोत्सव, काशी देव दीपावली, बरसाना रंगोत्सव, कृष्ण जन्मोत्सव के भव्य आयोजनों की चर्चा करते हुए सीएम ने अयोध्या, काशी, शुक तीर्थ, नैमिष धाम, राजापुर, आदि पावन, आध्यत्मिक ऊर्जा के केंद्रों के समग्र विकास के कार्यक्रमों की भी जानकारी दी.

प्रधानमंत्री जी के मार्गदर्शन में काशी में श्रीकाशीविश्वनाथ धाम कॉरिडोर निर्माण के बाद बदली परिस्थितियों की चर्चा करते हुए सीएम योगी ने कहा कि जहां 50 लोग एक साथ पूजा-पाठ नहीं कर सकते थे आज 50 हजार लोग एक साथ उपस्थित रहते हैं. मुख्य पर्वों पर तो 05 लाख लोग दर्शन कर रहे हैं.

वेदालाइफ-निरामयम् में लिया आड़ू और खुमैनी का स्वाद

पौड़ी-गढ़वाल में पतंजलि योगपीठ द्वारा नवविकसित योग, आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा की इंटीग्रेटेड थेरेपी के अत्याधुनिक केंद्र “वेदालाइफ-निरामयम्” भ्रमण के अनुभवों को भी साझा किया.

सीएम ने बताया कि वहां उन्होंने आड़ू और खुमैनी जैसे फलों का आनंद लिया. उन्होंने कहा कि एक सूखी पहाड़ी पर, जहां मोटे पत्थर हुआ करते थे, वहां 40 हजार से अधिक वृक्षों का एक मनोरम जंगल बसा दिया गया है. यह पूरा क्षेत्र किसी ऋषि की साधना स्थली लगती है. कल देश के मैदानी क्षेत्रों में जब 45℃ तापमान था तब हम लोग वहां 15℃ का आनंद ले रहे थे. सीएम योगी ने कहा कि यह केंद्र हेल्थ टूरिज्म को बढ़ावा देने के साथ ही व्यापक पैमाने पर रोजगार सृजन का कारक भी बनेगा.

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