आज कश्मीर का नाम सुनते ही हर किसी के जेहन में वहां की खूबसूरत वादियों की नहीं, बल्कि आतंकवाद की तसवीरें घूमने लगती हैं. ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को ले कर देश में जिस तरह की बहस छिड़ी है, उस से कश्मीरी पंडितों की हालत में तो शायद कोई सुधार होगा नहीं, बल्कि पीडि़तों की सिसकियों पर सियासत जरूर शुरू हो गई है.
बौक्स औफिस पर रिकौर्ड तोड़ कमाई करने का उदाहरण बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ दर्द, आक्रोश और तबाही की एक तल्ख सच्चाई को समेटे हुए है. लेकिन 3 दशक से भी ज्यादा
समय पहले कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म और विस्थापितों को ले कर अब एक नई बहस छिड़ गई है.
फिल्म को विवाद का जरिया बना दिया गया. देश के 2 धड़ों भाजपा और कांग्रेस समर्थकों के बीच मीडिया से ले कर संसद तक में इस की गूंज सुनी गई. सिनेमाप्रेमियों को फिल्म से कहीं अधिक उन के बहस से मनोरंजन मिला. दु:खद यह रहा कि उन से कोई समाधन भी निकलता नजर नहीं आया.
विवेक रंजन अग्निहोत्री की कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक चर्चित हो चुकी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ 11 मार्च को देश के मात्र 600 सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी. इस फिल्म में न कोई हीरो है और न ही कोई हीरोइन. और तो और इस में न ही रूमानियत भरी वैसी कोई कहानी ही है, जिस के लिए कश्मीर की वादियों की भी बात की जाए.
फिल्म में एक बुजुर्ग चर्चित अभिनेता अनुपम खेर हैं, जो सार्वजनिक मंचों से कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का झंडा उठाते रहे हैं. अभिनेत्री के नाम पर 90 के दशक की पल्लवी जोशी हैं. वह विवेक की पत्नी हैं. कुछ भूमिकाओं में मिथुन चक्रवर्ती हैं.
किंतु, इस में विलेन की एक जबरदस्त पृष्ठभूमि बनाई गई है. अधिकतर पात्रों को हिंदू देवीदेवताओं के नाम दिए गए हैं. मुख्य पात्र को नीला रंग और तिलक लगाए हिमालय के शैव प्रतीकात्मक रूप में ढाला गया है. छात्र संगठनों और एक्टिविस्टों के झंडे लहराए गए हैं. वामपंथी विचारधारा का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू (बदला हुआ नाम दे कर) को भुनाया गया है.
प्रचार तंत्र का सहारा
मुसलमान पात्रों के जरिए आतंकवादी हिंसा और जन्मभूमि की भावनाओं का तानाबना बुन कर एक हद तक क्लाइमेक्स तक पहुंचने की कोशिश की गई है, ताकि कोई भी देख कर अपनी नम आंखें बंद कर ले या फिर फूटफूट कर रो पड़े. यही इस फिल्म की खूबी है, जिस में फिल्म के लेखक और निर्देशक सफल हो गए हैं.
फिल्म से संबंधित दूसरा पक्ष फिल्मकार द्वारा दबे हुए सच को सामने लाने की बात को प्रचारित करना रहा. इस के लिए 5 राज्यों में हुए चुनाव के ठीक बाद प्रदर्शित करने की योजना बनाई गई.
शुरुआत एक हास्य व्यंग्य के लिए मशहूर कपिल शर्मा टीवी शो के घसीटने से हुई. उस के द्वारा फिल्म प्रमोशन के लिए शो में जगह नहीं मिलने पर फिल्मकार द्वारा उसे मुद्दा बनाया गया.
जबकि वह यह भूल गए कि कुछ माह पहले ही एक सच्ची घटना से सबंधित अदालती फैसले पर फिल्म ‘जय भीम’ आई थी, जिसे प्रमोट करने के लिए कपिल शर्मा शो की जरूरत ही नहीं महसूस की गई. इस फिल्म ने न केवल सफलता के झंडे गाड़े, बल्कि सकारात्मक प्रभाव छोड़ने में भी कामयाब हुई.
फिल्म के स्पैशल शो रखे गए. लालकृष्ण आडवाणी समेत कई लोगों को स्पैशल शो में फिल्म दिखाई गई. उन की आंखों से बहते आंसुओं को प्रतिक्रिया के तौर पर भावनात्मक प्रचार का माध्यम बनाया गया.
इस सिलसिले में फिल्म के लिए गहन शोध की मेहनत और इस पर आई लागत का हवाला दिया गया. साथ ही फिल्म की शूटिंग के दरम्यान फतवे जारी करने जैसे विरोध के किस्से भी बयां किए गए.
इन तथ्यों के जरिए फेसबुक और इंस्टाग्राम से ले कर सभी तरह के सोशल मंचों पर डिजिटल मार्केटिंग का गहन अभियान चला दिया गया.
इस फिल्म में क्रूरता के फिल्माए गए हिंसक दृश्य दर्शकों की रूह कंपा देने वाले हैं. आतंकियों द्वारा बी.के. गंजू की निर्मम हत्या चावल के कंटेनर के अंदर कर दी गई थी. आतंकी हिंसा यहीं नहीं थमी थी. इस के बाद उन्होंने गंजू की पत्नी को उन के खून से सने चावल खाने को भी मजबूर कर दिया.
वह उस समय की कई घटनाओं में से एक थी, जिन से दर्शक फिल्म के अंत तक उन के पिता की भूमिका निभाने वाले अनुपम खेर के माध्यम से जुड़े रहते हैं. फिल्म का हरेक हिंसक फ्रेम कश्मीरी पंडितों के दर्द की दास्तां कहता है.
बी.के. गंजू की हत्या कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की सैकड़ों दर्दभरी कहानियों में से एक थी. वह श्रीनगर के छोटा बाजार नाम के इलाके में रहते थे. केंद्र सरकार के दूरसंचार विभाग में इंजीनियर थे.
मर्म को झकझोरने की कोशिश
बात 22 मार्च, 1990 की है. उस दिन कर्फ्यू में ढील दी गई थी. बी.के. गंजू घर वापस लौटते समय आतंकियों की नजरों में आ गए थे. आतंकी उन का पीछा करते हुए घर तक आ पहुंचे थे.
बी.के. गंजू को भी इस बात का एहसास हो गया था. किसी तरह से आतंकियों से नजर बचा कर वह घर में घुसते ही ताला लगा देते हैं. कुछ ही देर में आतंकियों की घर में दस्तक होती है. वे ताला तोड़ कर घर में घुस जाते हैं. इस बीच बी.के. गंजू घर की तीसरी मंजिल पर चावल के एक ड्रम के अंदर छिप जाते हैं.
आतंकी गंजू को घर के अंदर खूब ढूंढते हैं. उन के नहीं मिलने पर आतंकी लौटने लगते हैं. तभी बी.के. गंजू का पड़ोसी आतंकी को उन के चावल के ड्रम में छिपे होने की जानकारी दे देता है.
फिर आतंकी ड्रम के अंदर ही गंजू की हत्या कर देते हैं. उन्हें कंटेनर के अंदर ही गोली मार दी जाती है. उस वक्त गंजू केवल 30 साल के थे.
इस घटना को फिल्म का हिस्सा बनाने की खास वजह थी. वह यह कि 2019 में जानीमानी स्तंभकार सुनंदा वशिष्ठ ने जब जम्मूकश्मीर पर अमेरिकी संसद में जम कर स्पीच दी थी, तब उन्होंने बी.के. गंजू की इस घटना का उल्लेख किया था.
तब उन्होंने कहा था कि बी.के. गंजू जैसे लोगों को पड़ोसियों पर भरोसा करने के बदले में सिर्फ धोखा मिला.
इस के अलावा फिल्म में कई और नरसंहार की घटनाएं फिल्माई गई हैं, जो दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ती है. एक रूह कंपा देने वाला सीन पुष्करनाथ पंडित (अनुपम खेर) की बहू शारदा पंडित का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री भाषा सुबली पर फिल्माया गया है.
कश्मीरी पंडितों को जब उन के घर से पलायन करने को मजबूर कर दिया जाता है और वो कैंप में दर्दभरी जिंदगी बिता रहे होते हैं. तभी दरिंदे आतंकी आर्मी की वरदी में वहां जबरन घुस आते हैं. सुबुली को निर्वस्त्र कर देते हैं.
इसी में उन पर फिल्माया गया आरी से काटने का सीन भी है. एक सीन में 29 लोगों को एक लाइन में खड़ा कर आतंकी अपनी गोली से एकएक कर मार डालते हैं.
राष्ट्रपति शासन को मुख्यमंत्री काल बताया
इस तरह के क्रिएट किए गए सीन के जरिए लोगों के जेहन में तब के कश्मीर में एक खास समुदाय के प्रति वैमनस्य की भावना को बिठाने की कोशिश की गई. यह भी आरोप मढ़ दिया गया कि पिछली सरकारों ने हिंदुओं की अनदेखी की.
समाधान के लिए मौजूदा सरकार पर नजर टिका दी गई. यह फिल्म क्यों देखी जानी चाहिए? इस के तर्क भी दिए गए, लेकिन फिल्म में समस्या का कोई समाधान नहीं निकाला गया, केवल हिंसा की एक पक्षीय बातें हुईं.
यह टिप्पणी फिल्म समीक्षकों के अलावा कई सम्मानित शख्सियतों ने की. उदहारण के तौर पर छत्तीगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने फिल्म को सिरे ने नकारते हुए कहा कि यह फिल्म सिर्फ हिंसा दिखाती है, इस में कोई समाधान नहीं है.
फिल्म में कुछ गलत तथ्य भी डालने के भी आरोप लगे. जैसे उस दौरान कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और राज्यपाल जगमोहन थे. जबकि फिल्म में मुख्यमंत्री की चर्चा की गई.
फिल्म से उपजे विवादों की वजह से इस की गूंज संसद तक में सुनाई दी. बसपा के एक सांसद ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने इस पर टिप्पणी करते हुए फिल्म निर्माण की सराहना की.
फिल्म को टैक्स फ्री करने की मांगों का भी असर हुआ और फिर फिल्म 9 राज्यों में टैक्स फ्री कर दी गई. यानी फिल्मकार का उद्देश्य पूरा हो गया.
2 धड़ों में बंट गए लोग
यह फिल्म रिलीज होने के बाद बहस का मुद्दा बन गई. लोग 2 धड़ों में बंट गए. एक ने कांग्रेस का पक्ष रखते हुए कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की बातें कीं.
साथ ही भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी के दौर की सरकारों को भी आड़ेहाथों लिया. दूसरे पक्ष ने इस फिल्म को भाजपा के दौर में एक कड़वे सच को उजागर करने वाला बताया.
यह कहा जा सकता है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक ऐसी फिल्म बन गई, जिस की बहुत तारीफ हो रही है. एक बड़ा तबका इस फिल्म के सपोर्ट में है तो वहीं कई लोग ऐसे भी हैं, जो फिल्म को प्रोपेगेंडा और भाजपा सरकार का वोट बैंक बता रहे हैं.
अब तक देश के भाजपा शासित 9 राज्यों ने इस फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया है. ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म की सराहना प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी भी कर चुके हैं.
इन्हीं दिनों दक्षिण के सुपर स्टार ‘बाहुबली’ फेम प्रभास की एक फिल्म ‘राधे श्याम’ (हिंदी वर्जन) भी प्रदर्शित हुई. ‘द कश्मीर फाइल्स’ के आगे उस ने बौक्स औफिस पर पानी भी नहीं मांगा. उस के बुरी तरह फ्लौप से प्रभास के एक प्रशंसक ने खुदकुशी तक करने की कोशिश की.
इधर टिकट खिड़की पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ के धुआंधार रफ्तार से आगे बढ़ने का असर यह हुआ कि 16 मार्च तक इसे 2700 परदों पर प्रदर्शित कर दिया गया.
इस के कुछ दिन पहले की बहुचर्चित आलिया भट्ट अभिनीत ‘गंगूबाई’ भी बेअसर हो गई तो अक्षय कुमार की धुआधार ट्रेलर से प्रशंसित हो चुकी ‘बच्चन पांडे’ की सफलता पर भी सवालिया निशान लग गया. एक सप्ताह आतेआते मात्र 12 करोड़ की लागत से बनी यह फिल्म 80 करोड़ से अधिक की कमाई कर चुकी थी.
एक वर्ग इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश में जुट गया. दिल्ली में जनकपुरी के एक सिनेमाहाल में यह फिल्म लोगों को फ्री दिखाई गई. इस का पूरा खर्च एक यूट्यूबर गौरव तनेजा ने उठाया था. इस की जानकारी उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल के जरिए दी थी.
उन्होंने लिखा था, ‘दिल्ली के जो लोग इस फिल्म को देखना चाहते हैं, लेकिन टिकट खरीदने की क्षमता नहीं है, वे 17 मार्च को दोपहर एक बजे दिल्ली के जनकपुरी में सिनेमाहाल में इस फिल्म को देख सकते हैं.’
इस फिल्म ने ऐसी सच्चाई दिखाई कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों के जख्म हरे हो गए. उन की आंखों में आंसुओं के सैलाब भर गए. इस के विपरीत फिल्म पर एकपक्षीय होने का भी आरोप लग गया और राजनीति की गंध फैल गई. राजनेताओं के बयानों से भी कोई समाधान निकलता नजर नहीं आया.
विवाद कई, तर्क अपनेअपने
जम्मूकश्मीर में नैशनल कौन्फ्रैंस के उपाध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने नाराजगी दिखाते हुए कहा कि फिल्म के जरिए दुनिया भर में एक समुदाय को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है.
32 साल पहले जो हुआ, उस से एक आम कश्मीरी खुश नहीं है. आज एक धारणा बनाई जा रही है कि सभी कश्मीरी सांप्रदायिक हैं, सभी कश्मीरी दूसरे धर्मों के लोगों को सहन नहीं करते हैं. उन का कहना है कि फिल्म निर्माताओं ने मुसलिमों और सिखों के बलिदान को नजरअंदाज किया है, जो आतंकवाद से पीडि़त थे.
अब्दुल्ला का तर्क है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक कमर्शल फिल्म थी तो किसी को कोई समस्या नहीं है, लेकिन अगर फिल्म के निर्माता दावा करते हैं कि यह वास्तविकता पर आधारित है, तब तो तथ्य गलत हैं.
जिन दिनों कश्मीरी पंडितों के पलायन की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुईं, उन दिनों फारुक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री नहीं थे. जगमोहन राज्यपाल थे. केंद्र में वी.पी. सिंह की सरकार थी, जिन्हें बाहर से भाजपा का समर्थन था. इस तथ्य को फिल्म से दूर रखा गया.
बिहार में यह फिल्म टैक्स फ्री कर दी गई है, लेकिन इस पर राजनीतिक विवाद नहीं थम रहा है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के अध्यक्ष जीतनराम मांझी ने भी फिल्म पर बड़े आरोप लगाते हुए उसे आतंकियों की गहरी साजिश कहा है.
इस फिल्म को ले कर जीतन राम मांझी ने अपने ट्वीट में लिखा है कि ‘द कश्मीर फाइल्स आतंकियों की एक गहरी साजिश का परिणाम हो सकता है. इसे दिखा कर आतंकी संगठन कश्मीरी ब्राह्मणों में डर का माहौल बना रहे हैं.’
इस का मकसद यह है कि कश्मीरी ब्राह्मण डर से फिर कश्मीर में वापस नहीं जाएं. मांझी इशारों में फिल्म यूनिट सदस्यों के आतंकी कनेक्शन की बात भी कहते हैं.
वह लिखते हैं कि फिल्म यूनिट सदस्यों के आतंकी कनेक्शन की जांच होनी चाहिए. साथ ही अपने ट्वीट को फिल्म के अभिनेता अनुपम खेर को टैग भी कर दिया है.
इस के पहले बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने टैक्स फ्री का विरोध किया था. उन्होंने कहा था कि एक फिल्म गोधरा दंगे पर भी बननी चाहिए.
उस वक्त मांझी की पार्टी ने राबड़ी देवी पर तंज कसते हुए चारा घोटाले पर भी फिल्म बनाने की मांग रखी थी. कहा था कि इस से देश को पता लगेगा कि कैसे स्कूटर पर गायभैंस ढोए गए और महज 12 साल की उम्र में तेजस्वी यादव अरबपति बन गए.
उल्लेखनीय है कि इस फिल्म की भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार ने तारीफ की है. खुद प्रधानमंत्री मोदी इस की प्रशंसा कर चुके हैं. दूसरी तरफ एनडीए के नेता जीतन राम मांझी इस फिल्म में आतंकी कनेक्शन व साजिश ढूंढ़ रहे हैं.
इस बीच निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को फिल्म को ले कर मिल रही धमकियों को देखते हुए सरकार ने उन्हें ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा दी है.
इस से कश्मीर का अलगाववादी नेता यासीन मलिक भी चर्चा में आ गया, जो इन दिनों तिहाड़ जेल में बंद है. उन की पाकिस्तान में रह रही बीवी मुशाल हुसैन मलिक ने फिल्म आने के बाद भारत के बारे में फेक न्यूज फैला कर अलग ही सनसनी पैदा कर दी.
यासीन मलिक की बीवी का रुख
मलिक जम्मूकश्मीर लिबरेशन फ्रंट का अध्यक्ष था और उस ने मूलरूप से कश्मीर घाटी में सशस्त्र उग्रवाद का नेतृत्व किया था. मलिक पर 1990 में एक हमले के दौरान भारतीय वायु सेना के 4 कर्मियों की हत्या का साल 2020 में आरोप लगाया गया था. उस पर रुबैया सईद के अपहरण का भी मुकदमा चल रहा है.
यासीन मलिक की पत्नी मुशाल हुसैन मलिक अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स में जहर उगलने लगी. उस के ट्विटर अकाउंट पर 80,000 से ज्यादा फालोवर्स हैं. उस का अकाउंट वैरीफाइड भी है. उस के फालोवर्स में अधिकांश पाकिस्तानी हैं.
मुशाल ने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा है कि उसे यासीन मलिक की पत्नी होने पर गर्व है और वह खुद को कश्मीरी अलगाववादियों का नेता बताती है.
मुशाल यासीन के बारे में कहा जा रहा है कि अपने सोशल मीडिया अकाउंट के जरिए लगातार कश्मीरी लड़कियों के फोटो इस तरह पोस्ट करती है, जिस से यह लगता है कि भारत में मुसलमानों के ऊपर अत्याचार हो रहे है. मुसलिम महिलाओं पर अत्याचार किए जा रहे हैं.
उस के पोस्ट देखने पर ऐसा लगता है कि भारत में मुसलमानों को प्रताडि़त किया जा रहा है, उन का नरसंहार हो रहा है. मुसलिम महिलाओं के साथ रेप हो रहे हैं.
मुशाल अपने पति को निर्दोष बताते हुए रिहाई की मांग कर रही है. साल 2019 में मुशाल मलिक पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित एक प्रोग्राम में शामिल हुई थी. तब उस ने एक कविता के जरिए कश्मीर के मुसलमानों पर अत्याचार होने का आरोप लगाया था.
यासीन से उम्र में 20 साल छोटी मुशाल को पाकिस्तान में राष्ट्रीय महिला अधिकार पुरस्कार (2018) मिल चुका है. उस के पाकिस्तान में नेताओं और अधिकारियों के साथ संबंध हैं. वैसे मुशाल सेमी न्यूड पेंटिंग बनाने के लिए प्रसिद्ध है. वह पीस ऐंड कल्चर आर्गनाइजेशन, पाकिस्तान की अध्यक्ष है.
फिल्म को अतुलनीय और अविश्वनीय बताने वालों की एक अलग जमात है, जबकि फिल्म के प्रोड्यूसर अभिषेक अग्रवाल ने पीएम नरेंद्र मोदी के साथ अपनी एक तसवीर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी.
यानी कि फिल्म को ले एक कामेडियन की खिंचाई से ले कर कमाई तक के बाद जो नई सच्चाई समाने आई उस में राजनीतिक बवाल लोगों पर हावी हो गया.
सोशल मीडिया पर साफतौर पर इस फिल्म को भाजपा के कई दिग्गज नेताओं का समर्थन मिला, लेकिन उसी पर सवाल भी खड़े किए जा रहे हैं कि उस की सरकार ने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए क्या किया?
सरकारों ने की उपेक्षा
जिन दिनों कश्मीर से हिंसा के शिकार परिवारों का पलायन हो रहा था, उस का एक कारण और भी था. वहां आतंकी गतिविधियों के चरम पर पहुंचने से स्थानीय कारोबार ठप पड़ गया था. टूरिज्म बंद हो चुका था. उस से जुड़े लोगों को दोजून की रोटी कमाना दूभर था.
फिल्मों की शूटिंग पूरी तरह से बंद थी. बड़े कारोबार में अड़चनें आ रही थीं. पूरे इलाके में आबादी की तुलना में सेना के जवानों की चहलकदमी और अधिकतर इलाके में रात के कर्फ्यू ने जनजीवन को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया था.
विकास ठप था. लोग पड़ोसी राज्यों और महानगरों से कट से गए थे. बुनियादी सुविधाओं में घोर कमी थी. शिक्षा, खेतीखलिहानी से ले कर हेल्थ सेक्टर तक चरमरा गया था. ऐसे में पलायन होना स्वाभाविक था.
उन दिनों केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भी बदलाव की राजनीति अंगड़ाई ले रही थी. उन के द्वारा ‘इंडिया शाइनिंग’ तक नारा दे दिया गया था.
इन सब के बावजूद विस्थापित कश्मीरियों को राहत की एक बूंद नहीं हासिल हो रही थी. उल्टे वे अलगाववादी नेताओं के रहमोकरम पर आश्रित थे. तुष्टिकरण की राजनीति का चलन चल पड़ा था. फिल्म में इस पहलू को छूने की भी जरूरत नहीं समझी गई.
इस तरह की तीखी बहस के बीच 2011 में विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए बनी जगती टाउनशिप के करीब 4,000 विस्थापित परिवार सकते में आ गए हैं. उन के मन में अब नए सिरे से भय समा गया है.
फिल्म ने जख्म कुरेद कर मुसलिम समुदाय के खिलाफ भावना को भड़काने का ही काम किया है.
वे नहीं मानते कि फिल्म से उन की घर वापसी का कोई रास्ता निकलेगा. उन का कहना है कि इस से और अधिक अड़चनें पैदा होंगी.
एक कड़वा सच तो यह भी है कि 3 दशक बीत जाने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें कश्मीरी हिंदुओं की घर वापसी तक सुनिश्चित नहीं करा पाईं.
हालांकि जगती टाउनशिप में रहने वाले कुछ विस्थापित फिल्म की प्रशंसा करते तो हैं, लेकिन वे यह भी कहते हैं कि 1990 से ले कर आज तक उन के नाम पर फिल्में तो बहुत बनीं, लेकिन उन के जीवन में स्थिरता नहीं आई है, घर वापसी के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. उन के जीवन में कुछ भी नहीं बदला है.
बहरहाल, कहने का मतलब यह है कि राजनैतिक दल इस फिल्म के जरिए पीडि़तों की सिसकियों पर सियासत करने पर नहीं चूक रहे.