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रूस का यूक्रेन पर हमला

रूस का यूक्रेन पर हमला कुछ उसी तरह का है जैसा ज्ञानवापी मसजिद या मथुरा में ङ्क्षहदू कट्टरों का है. एक बेमतलब का मामला जिस से जनता को कुछ मिलनामिलाना नहीं है. लाखों लोग तरहतरह से शिकार होंगे. जैसे मसजिदों के झगड़ों के कारण देश भर का मुसलमान ही नहीं दलित और पिछड़ा भी परेशान है और देश की सरकार को मंहगाई या बेरोगारी नहीं मंदिरमसजिद में ताकत झोंकने पड़ रही है, वैसे ही रूस और यूक्रेन में आम लोग अब कित ……..करके हथियार उठा रहे हैं और खाने की पैदावार को नुकसान हो रहा है.

रूस और यूक्रेन बहुत गेहूं और तेल को दूसरे देशों में बेचा करते थे जो लड़ाई और प्रतिबंधों की वजह से बंद हो गया है. ऊपर से भारतपाकिस्तान में भयंकर गर्मी से फसल को भारी नुकसान हो रहा है. एक दिन नरेंद्र मोदी ने बड़ी शान से कहा कि उन का देश दुनिया को खिलाएगा, 2 दिन बाद उन्होंने गेहूं को बाहर भेजने पर रोक लगा दी क्योंकि गेहूं आटे के दाम आसमान को छूने लगे और सरकारी स्टाक आधा रह गया.

भारत में भी किसानों को घेरघार का मसजिदों तक ले जाया जा रहा है कि यहीं मंदिर बनाना है. दिखावे के लिए बड़ी पुलिस बंदोबस्त करी जा रही है. भगवे झंडे लिए जा रहे हैं कमीज पैंट नहीं. लोग अपनी ताकत नारों में लगा रहे हैं, खेतों में नहीं. जो बेरोजगार वे तोडफ़ोड़ की स्किल लिख रहे हैं, कुछ बनाने की नहीं. 500-1000 साल पहले हुए मामलों का बदला आज लिया जा रहा है.

आज यह बदला मुसलमानों से लिया जा रहा है कोई बड़ी बात नहीं कि कल यह उलटा पड़े और उन से लिया जाने लगे जिन्होंने जन्म से नीचे कुल में पैदा हुए है. कहकर सदियों तक बड़ी आबादी के साफ अन्याय किया जो आज भी जारी है. उस से आज के दलित, शूद्र, गरीब को वैसे ही कुछ फायदा नहीं होगा जैसे मसजिद की जगह मंदिर बनने से गेहूं आसमान से नहीं बरसने लगेगा.

रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन भी इसी गुमान में थे कि यूके्रन पर कब्जा कर वे अपनी जनता में दमदार नेता कहे जाने लगेंगे. उन्हें नहीं मालूम था कि यूक्रेनियों ने रूस की आबादी का 12′ होते हुए भी रूस को मजा चखा दिया. कल यह कहीं भी दोहराया जा सकता है. इसलिए इस तरह की घटनाओं से भरा है जब एक तानाशाही का तख्या पलटा पर ज्यादातर मामलो में उस की बात सिर्फ  बर्बादी हुई, तानाशाही की नहीं, उन के साथ के लोगों की भी.

गेहूं की होती कमी उसी तख्ता पलट का एक ट्रेलर है. फार्म कानूनों को वापस लेने का कदम भी यही था. अब देश को एक ऐसी लड़ाई में झोंका जा रहा है जिस में जगहजगह बंद होंगे, शहरों में ही नहीं गांवों में भी खेमे बनेंगे, एकदूसरे पर भरोसा टूटेगा. भुगतेगा सारा देश, परेशान होगी सारी दुनिया, आसोमा बिन लादेन ने अकेले इस्लामी आतंकवाद को हथियार दिला कर इराक, लीबिया, अफगानिस्तान को नष्ट करा दिया और दुनिया भर में सिक्योरिटी चैङ्क्षकग पर 100 गुना खर्च बढ़वा दिया. यही गेहूं की कमी, रूस, मंदिरमसजिद कर रहे हैं.

बरबाद हो गया श्रीलंका

श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने अपने फरेबी बयानों से राष्ट्रवाद की आंधी पैदा की, बहुसंख्यक समुदाय में उन्माद जगाया, अच्छे दिनों के सब्जबाग दिखाए और अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत को हवा दी. नतीजा श्रीलंका बरबादी की कगार पर जा पहुंचा और आखिरकार वहां की जनता ने अपने देश के किंग को कुरसी से खींच कर जमीन पर दे पटका. मगर तब तक महिंदा राजपक्षे ने देश का जो नुकसान कर दिया उस की भरपाई करने में नए प्रधानमंत्री को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी.

श्रीलंका बहुत बड़ा नहीं है. बेहद छोटा सा देश है, जिस में 9 राज्य और 25 जिले ही हैं. श्रीलंका की आबादी मात्र 2 करोड़ है और यह आबादी बिलकुल वैसी ही बंटी हुई है जैसे भारत में आज हिंदू और मुसलमान बंटे हैं. 75 प्रतिशत सिंहली संप्रदाय, जो बौद्ध धर्म का अनुयायी हैं, यहां का बहुसंख्यक वर्ग है और 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक तमिल हैं जो हिंदू धर्म को मानते हैं.

दोनों संप्रदायों की आपस में बनती नहीं है. दरअसल, राजनीति इन्हें अलग रख कर अपना गेम खेलती है. अब तक सत्ता पर काबिज राजपक्षे परिवार ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई, बिलकुल वैसी ही जैसी भारत के राजनीतिबाज करते हैं. कट्टरता और ध्रुवीकरण की राजनीति श्रीलंका में खूब हुई मगर बहुसंख्यकों के मन में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत पैदा कर के श्रीलंका में अपनी राजनीति चमकाने वालों का हश्र आज सारी दुनिया देख रही है.

श्रीलंका में पिछले दिनों जो हुआ वह संपूर्ण एशिया के लिए एक चेतावनी है. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने देश को गंभीर आर्थिक संकट के मुहाने पर ला कर खड़ा कर दिया और फिर हालात न संभाल पाने व देश को अराजकता के गर्त में डुबोने के बाद आखिरकार जनता ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया. वहां हालात इतने बिगड़ गए कि उन्हें परिवार सहित जान बचा कर छिपना पड़ा.

राजपक्षे के इस्तीफे से पहले और बाद में उन के समर्थकों व विरोधियों के बीच जम कर हिंसा हुई, जिस में महिंदा राजपक्षे सहित 13 मंत्रियों के घर फूंक दिए गए और एक सांसद सहित कई लोग मार डाले गए. राजपक्षे की पुश्तैनी संपत्तियां भी प्रदर्शनकारियों ने फूंक डाली. महिंदा राजपक्षे अपने परिवार को ले कर नेवी के किसी बेस में जा छिपे और अब यह खबर है कि परिवार के सदस्यों को चुपचाप सिंगापुर भेज दिया गया है.

राष्ट्रवाद का उन्माद

ये वही महिंदा राजपक्षे हैं जो श्रीलंका में बहुसंख्यकों को राष्ट्रवाद की चटनी चटा कर 2019 में सत्ता पर काबिज हुए थे. उन की सत्ता हासिल करने की कहानी दिलचस्प है और कुछ हद तक भारत से मिलतीजुलती है. महिंदा राजपक्षे ने बहुसंख्यक सिंहलियों को एकजुट कर उन में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का जहर भरा. जगहजगह अल्पसंख्यकों पर हमले करवाए. तमिलों को आतंकवादी घोषित करवाने में महिंदा राजपक्षे ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

महिंदा को प्रधानमंत्री की कुरसी भी इसलिए मिली क्योंकि उन की अगुआई में लिट्टे के चीफ वेलुपिल्लई प्रभाकरन को 2009 में खत्म किया गया था. प्रभारन तमिलियन्स का जांबाज नेता था जिस ने श्रीलंका में सताए जा रहे अल्पसंख्यक तमिल हिंदुओं के लिए अलग तमिल राष्ट्र की मांग की थी. अपने लिए अलग देश की मांग करने वाले लिट्टे के इस आंदोलन या खूनी संघर्ष में तब तक एक लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे.

खैर, प्रभाकरन की मौत के बाद वह आंदोलन खत्म हो गया और अधिकांश तमिल अपनी जान बचा कर भारत आ गए और यहां शरणार्थियों के तौर पर बस गए. अल्पसंख्यकों पर जुल्म ढाने वाले महिंदा राजपक्षे ने खुद को बहुत बड़ा राष्ट्रवादी घोषित कर लिया और 2010 में राष्ट्रपति चुनाव भारी बहुमत से जीत कर कानून की तमाम शक्तियों को संविधान संशोधन कर के अपने हाथ में ले लिया. लेकिन कट्टरता और ध्रुवीकरण का खेल ज़्यादा समय तक चल नहीं पाया और अपनी गलत नीतियों के कारण महिंदा राजपक्षे 2015 में चुनाव हार गए.

राजपक्षे की नीतियों के खिलाफ 2014 में बड़ी संख्या में लोगों ने यूनाइटेड नैशन कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया था. तब पश्चिमी देशों और मानवाधिकार संगठनों ने भी राजपक्षे को तमिल कम्युनिटी के खिलाफ बताते हुए उन की नीतियों की कड़ी निंदा की थी. मगर 2019 में महिंदा राजपक्षे का सितारा एक बार फिर चमका जब उन के भाई गोयबाटा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति नियुक्त हुए. उन्होंने तुरंत ही महिंदा राजपक्षे को एक बार फिर प्रधानमंत्री बना दिया. राजपक्षे परिवार का एक भाई राष्ट्रपति, दूसरा भाई प्रधानमंत्री और परिवार के अन्य सदस्यों ने सारे मलाईदार महकमे आपस में बांट लिए. इस तरह राजकोष के 70 फीसदी पर राजपक्षे परिवार ने अपना कब्ज़ा जमा लिया.

बीते 3 सालों के दौरान महिंदा राजपक्षे ने अपने फरेबी बयानों और बड़ेबड़े वादों से राष्ट्रवाद की ऐसी आंधी पैदा की जिस में देश का बहुसंख्यक समुदाय एक बार फिर उन्मादी हो उठा. राजपक्षे ने उन्हें ‘अच्छे दिनों’ के सब्ज़बाग दिखाए और अल्पसंख्यक तमिलों तथा मुसलमानों के प्रति नफरत को हवा दी. लेकिन खुद को बड़ा राष्ट्रवादी बताना और राष्ट्र को सफलतापूर्वक चलाना दो अलग बातें हैं. अगर राष्ट्र को चलाने की सही नीतियोजना आप नहीं बना पाए तो आप के राष्ट्रवादी होने का कोई फायदा नहीं है और यही हुआ है श्रीलंका में. लोग कहते हैं कोरोना ने श्रीलंका को डुबो दिया है, मगर सचाई यह है कि कट्टरता और ध्रुवीकरण की राजनीति ने श्रीलंका को बरबाद कर दिया. राजपक्षे कर्ज ले कर घी पीते रहे और खुद को राष्ट्रवादी दिखाने के चक्कर में देश की जनता को आपस में लड़ाते रहे.

राष्ट्रवाद की चटनी बहुत समय से चाटचाट कर श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी जब भीतर से खोखली हो गई और जब श्रीलंका दानेदाने को मुहताज हो गया तो “राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री” को गद्दी से उखाड़ फेंकने के लिए वही बहुसंख्यक समाज अपने घरों से बाहर निकल पड़ा. सड़कों पर राजपक्षे सरकार के खिलाफ प्रदर्शन और हिंसा की घटनाएं होने लगीं. राष्ट्रवाद की सारी बातें हवा हो गईं और जनता ने गुस्से में आ कर जगहजगह आगजनी व तोड़फोड़ करना शुरू कर दिया.

पेट की आग के आगे राष्ट्रवाद, धर्म, संप्रदाय सब बौने पड़ गए. सड़कों पर बहुसंख्यक सिंहली ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक तमिल, मुसलिम, ईसाई सब एकसाथ आ जुटे इस “राष्ट्रवादी” को सिंहासन से खींच कर जमीन पर पटकने के लिए. सब ने मिल कर अपने उसी प्रधानमंत्री का घर घेर लिया, जिसे वे ‘किंग कहते थे. जिसके राष्ट्रवादी गीत वहां के टैलीविजन पर बजते थे. जिस ने देश की संसद में नहीं, बल्कि बौद्ध मंदिर में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी. दरअसल, कट्टरता वह कोढ़ है जो किसी भी देश को भीतर ही भीतर बरबाद कर देता है. इस में कोई शक नहीं कि श्रीलंका बरबाद हो चुका है.

महिंदा राजपक्षे के गलत फैसले

श्रीलंका 1948 में ब्रिटेन से आजाद हुआ. वहां आर्थिक संकट समयसमय पर मुंह उठाते रहे मगर पर्यटन उद्योग और चायमसालों की बेहतरीन खेती ने उस को संभाले रखा. मगर 2019 में महिंदा राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद कृषि और पर्यटन दोनों ही उद्योग तेजी से गर्त में जाने लगे. राजपक्षे सरकार ने तमिल हिंदुओं की मेहनत पर तो कभी भरोसा किया ही नहीं, जबकि मछली और चाय के उद्योग में वे ही सब से ज्यादा मेहनत कर रहे थे.

मछली उद्योग तो तमिलियन ही करते थे और तमिलियन हिंदुओं को राजपक्षे सरकार आतंकी घोषित करने पर तुली हुई थी. अल्पसंख्यकों के प्रति इस नफरती व्यवहार को देख कर मानवाधिकार आयोग तक को यह कहना पड़ गया था कि पीटीए यानी प्रिवैंशन औफ टेररिज्म एक्ट का गलत इस्तेमाल तमिल हिंदुओं और मुसलमानों के खिलाफ हो रहा है. मगर महिंदा राजपक्षे पर इन बातों का कोई असर नहीं था. चाय, मछली और टूरिस्ट जिन 3 पहियों पर श्रीलंका चल रहा था, इन तीनों के लिए ही राजपक्षे ने कई गलत फैसले ले लिए.

महिंदा राजपक्षे के अदूरदर्शी फैसलों के चलते किसानों को जैविक खेती के लिए मजबूर किया जाने लगा और उन को यूरिया, रासायनिक खाद व कीटाणुनाशक पदार्थों की सप्लाई पूरी तरह रोक दी गई. जैविक खेती की जिद्द से उत्पादन औंधेमुंह गिरा, किसानों को उन की फसल की लागत भी नहीं मिली और अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ गई.

दरअसल, महिंदा राजपक्षे सरकार ने देश के किसानों से बात किए बगैर अत्यंत गैरजिम्मेदाराना तरीके से अचानक पूरी तरह से जैविक खेती की ओर आगे बढ़ने का फैसला ले लिया और रासायनिक खाद पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया. देश को आत्मनिर्भर बनाने के चक्कर में यूरिया का आयात बंद कर दिया गया. कीटाणुनाशकों के आयात पर भी रोक लगा दी गई, जिस के चलते कृषि उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ. किसानों की कमर टूट गई और खाद्यान्न की कीमतें बेतहाशा बढ़ने लगीं. इस तरह अनाज, दालें, सब्ज़ी और चाय की पैदावार और निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुआ. लोगों के पास खाने तक का अनाज नहीं बचा. हालांकि जैविक खेती में कोई बुराई नहीं है लेकिन इसे अचानक अंजाम देना और किसानों को इस के लिए मजबूर करना किसी भी तरह से बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती.

उधर, कोरोना महामारी के कारण देश का पर्यटन उद्योग चौपट हो गया और विदेशी मुद्रा के स्रोत ठप हो गए. गौरतलब है कि श्रीलंका, जो चारों तरफ समुद्र से घिरा एक सुंदर देश है, की पर्यटन से सब से ज्यादा कमाई होती है. मगर गर्त हो चुकी अर्थव्यवस्था और कोरोना के कारण अब हालत इतनी जर्जर हो गई है कि लगता नहीं कि आने वाले कई सालों तक सैलानी अब उधर का रुख भी करेंगे.

साल 2018 में श्रीलंका में 23 लाख पर्यटक आए थे. वर्ष 2019 में 19 लाख मगर 2020 में जब कोविड शुरू हुआ तो यह संख्या घट कर 1.94 लाख रह गई. सैलानी नहीं आए तो लोगों की कमाई भी ठप हो गई. सरकारी नीतियां ठीक होतीं तो इस स्थिति से श्रीलंका 2021 के अंत तक उबर आता, मगर देश की गिरती अर्थव्यवस्था को राजपक्षे सरकार संभाल ही नहीं पाई. महान बनने के चक्कर में महिंदा राजपक्षे ने टैक्स भी आधा कर दिया जिस से देश का खज़ाना खाली हो गया.

अब श्रीलंका की यह हालत है कि उस के लिए अंतर्राष्ट्रीय ऋण चुकाना भी मुश्किल हो गया है. राजपक्षे सरकार ने मजबूर हो कर कई चीज़ों के आयात पर बैन लगा दिया. इस वजह से देश में कई आवश्यक चीजों की भारी कमी हो गई, महंगाई दर बहुत ऊपर चली गई और देशभर में भयानक बिजली संकट भी पैदा हो गया. श्रीलंका में तेल की खपत 1.30 लाख बैरल प्रतिदिन है, मगर आ रहा था मात्र 0.30 लाख बैरल. इन्ही वजहों के चलते जरूरी चीज़ों की कीमतों में आग लग गई. गेहूं 200 रुपए किलो, चावल 220 रुपए किलो, चीनी 7,240 रुपए किलो, नारियल का तेल 850 रुपए लिटर. एलपीजी का सिलैंडर 4,200 रुपए का. एक अंडे की कीमत 30 रुपए और 100 रुपए में चाय की एक प्याली लोगों को बमुश्किल नसीब हो रही थी.

आखिर लोग जाएं तो कहां जाएं, खाएं तो क्या खाएं. दुकानों पर लंबीलंबी कतारें, जरूरी चीज़ों की बेतरह किल्लत, लोगों के आय के स्रोत बंद. पर्यटन जो श्रीलंका के लिए विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत था, गरम मसाले और चाय जो निर्यात की प्रमुख वस्तुएं थीं, महिंदा राजपक्षे सरकार की गलत नीतियों के चलते सब पर भारी गाज गिरी. चारों तरफ हाहाकार मच गया, जो सत्ता परिवर्तन के बाद भी अभी थमा नहीं है.

राजपक्षे सरकार की दूसरी बड़ी गलती यह थी कि उस ने चीन पर जरूरत से ज़्यादा भरोसा किया. चीन ने श्रीलंका को बढ़बढ़ कर कर्ज दिया और फिर धीरेधीरे उस के बंदरगाहों को हथिया लिया. यों तो श्रीलंका को भारत समेत कई अन्य देशों ने भी कर्ज दिया है मगर उन की नीतियां साम्राज्यवादी नहीं हैं. श्रीलंका को दिए कर्ज में करीब 15 फीसदी कर्ज चीन का है. वर्ल्ड बैंक और एडीबी व अन्य देशों का 9-9 फीसदी तथा मार्केट का 47 फीसदी. भारत का अंश मात्र 2 प्रतिशत है. बता दें कि श्रीलंका के ऊपर 56 अरब डौलर का विदेशी कर्ज है. इस भारीभरकम कर्ज के कारण ही श्रीलंका का मुद्रा भंडार 3 सालों में 8,884 मिलियन डौलर से घट कर 2,311 मिलियन डौलर पर आ गया. करीब 2 अरब डौलर तो श्रीलंका को केवल ऋण का ब्याज चुकाने के लिए ही चाहिए.

यदि समय पर ब्याज अदायगी न हुई तो जुलाई में उस को डिफौल्टर घोषित किया जा सकता है. और यदि ऐसा हुआ तो श्रीलंका के लिए स्थिति बेहद नाजुक हो जाएगी. वहीं श्रीलंका ने अब आईएमएफ से करीब 4 अरब डौलर के कर्ज को ले कर बातचीत की है, जो कुछ सार्थक भी रही है, लेकिन श्रीलंका की समस्या केवल इस से ठीक होने वाली नहीं है.

नए प्रधानमंत्री के आगे चुनौतियां

इस में शक नहीं कि श्रीलंका इन दिनों बहुत मुश्किल दौर से गुज़र रहा है. वर्ष 2018-19 में प्रधानमंत्री रह चुके रनिल विक्रमसिंघे ने देश की कमान अपने हाथों में तो ले ली है मगर सच पूछें तो इस बार उन्होंने कांटों का ताज पहना है. महिंदा राजपक्षे की गलतियों के अम्बार के कारण उन के सामने कई बड़ी चुनौतियां खड़ी हैं. उन्होंने ऐसे समय में देश की बागडोर संभाली है जब देश में चारों तरफ अराजकता व्याप्त है.

राजपक्षे सरकार को ले कर लोगों में गुस्सा अभी भी उफान पर है. राष्ट्रपति पद पर अभी भी राजपक्षे परिवार का व्यक्ति ही आसीन है जो जनता को खटक रहा है. वहीं देश की माली हालत इस कदर खराब हो चुकी है कि इस का कुछ समय के अंदर ही समाधान हो जाएगा, ऐसा कह पाना काफी मुश्किल है. यह दौर कब ख़त्म होगा, आमजन के लिए स्थितियां कब तक सामान्य होंगी, चीज़ों के दाम कब कम होंगे, इस सब को ले कर असमंजस बना हुआ है और उम्मीद की किरण अभी दूरदूर तक नजर नहीं आ रही है.

परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं. आर्थिक संकट, प्रशासकीय विफलता, व्यापक भ्रष्टाचार, जनअसंतोष और गलत नेतृत्व ने एक सुंदर प्रायद्वीप के सामने अभूतपूर्व विषम संकट पैदा कर दिया है. राजपक्षे बंधुओं द्वारा पैदा की गई आर्थिक बरबादी, अशांति, अदूरदर्शी नीतियां, जरूरी चीज़ों की किल्लत, परिवारवाद, नफ़रत और भ्रष्टाचार ने श्रीलंका को ऐसे गर्त में धकेल दिया है जिस से उबरने में कई बरस लग जाएंगे.

नए प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे के सामने सब से बड़ी चुनौती घरेलू समस्या को हल करना है. यदि श्रीलंका को विदेशी संस्थानों से कर्ज मिल भी जाता है तो भविष्य में उस को चुकाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे. जनता पर कई नए कर लगाए जा सकते हैं या मौजूदा करों को ही बढ़ाया जा सकता है. इस के अलावा कई ऐसे कदम भी उठाने पड़ सकते हैं जो लोगों को नागवार गुजरेंगे. ऐसे में विक्रमसिंघे को देशवासियों की तरफ से आने वाली विपरीत प्रतिक्रिया का सामना भी करना पड़ेगा.

इस में शक नहीं कि चुनौतियां कठिन हैं और समय प्रतिकूल है. हालांकि, विक्रमसिंघे श्रीलंका में बड़े कद के नेता होने के साथ पहले भी प्रधानमंत्री पद संभाल चुके हैं. जानकार मानते हैं कि वे एक ऐसा चेहरा हैं जो फौरीतौर पर राहत दिलाने में कामयाब हो सकते हैं. रनिल को प्रधानमंत्री बनाने का राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे का फैसला निहायत ही चतुराईभरा सियासी फैसला है.

73 वर्षीय विक्रमसिंघे अनुभवी और सर्वस्वीकार्य नेता हैं. उन की घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय छवि भी काफी अच्छी है. वे इस डूबते जहाज को तूफ़ान से बाहर निकाल सकते हैं. औब्‍जरवर रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफैसर हर्ष वी पंत का कहना है, ‘“राष्‍ट्रपति गोटबाया के सामने विक्रमसिंघे के अलावा दूसरा कोई विकल्‍प नहीं था. विक्रमसिंघे पश्चिमी देशों के समर्थक माने जाते हैं. इसलिए वे आईएमएफ से कर्ज को ले कर चल रही बातचीत में भी एक बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं.’”

देश में मौजूदा समय में एक स्थिर सरकार के अलावा एक ऐसा व्यक्ति सत्ता के शीर्ष पर होना जरूरी है कि जिस से वित्‍तीय संस्‍थान बात कर कर्ज के नियमों को तय कर सकें. इस के अलावा विक्रमसिंघे भारत को ले कर भी सकारात्मक रवैया रखते हैं. कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रपति गोटबाया ने बड़ी सोचसमझ के साथ शतरंजी चाल चली है. विक्रमसिंघे को सत्ता सौंप कर उन्होंने अपने परिवार और अपने प्रति जनता के रोष पर भी ठंडे पानी के छींटे मारने की कोशिश की है. साथ ही, यह चालाकी भी साफ नजर आती है कि स्थितियां नहीं सुधरीं तो सारा ठीकरा विक्रमसिंघे के सिर पर फोड़ा जा सकेगा.

हालांकि, श्रीलंका की इस बरबादी से एक खुशखबरी भी जरूर निकल कर आई है जिस से अन्य देशों को भी सबक ले लेना चाहिए, खासतौर से भारत को. खुशखबरी यह है कि श्रीलंका में दशकों से एकदूसरे से लड़ रहे बौद्ध बहुसंख्यक सिंहली और अल्पसंख्यक हिंदू तमिल और मुसलमान सब आज एक हो गए हैं. जो काम सदियां नहीं कर पाईं वह काम भूख के कारण घरघर से उठती सिसकियों ने कर दिया है.

श्रीलंका में जिस महिंदा राजपक्षे का कोई विकल्प नहीं दिखता था, आज उसी को वहां की जनता फूटी आंख नहीं देखना चाहती. राजपक्षे ने राष्ट्रवाद की घुट्टी पिला कर श्रीलंका को बरबाद कर दिया, दानेदाने को मुहताज किया और एक खुशहाल देश को दुनिया के सामने डिफौल्टर बना कर खड़ा कर दिया, हाथ में कटोरा पकड़ा दिया. एक ऐसा देश जिस के पास उधार का ब्याज चुकाने तक को पैसे नहीं हैं, जिस के पास अपने नागरिकों को खिलाने के लिए अन्न नहीं है. अन्न छोड़िए, एक कप चाय भी वहां दो वक्त के भोजन से ज्यादा महंगी है. देश बरबाद होने के बाद श्रीलंका के लोगों को अब यह अक्ल आई है कि ‘राष्ट्रवादी’ या ‘धर्मवादी’ देश व देशवासियों के लिए हितकारी नहीं होता, बल्कि जो देश को चलाने में सक्षम हो, जो प्यारमोहब्बत का माहौल बनाए, जो हकीकत में सब को साथ ले कर चले, वही देश का नेतृत्व करने के लायक होता है, वही लीडर होता है.

तनहाइयों का मजा लें

वर्ष 1970 में रिलीज हुई ‘सफर’ फिल्म का यह गीत ‘जिंदगी का सफर ये कैसा सफर…’ एक ऐसा गीत जिसे राजेश खन्ना पर तब फिल्माया गया था जब वे एक सुपर स्टार थे. उन्हें तब पता नहीं था कि उन के जीवन का सफर भी बहुतकुछ इसी गाने की तरह ही होगा. करीब 10 सालों से अकेले रह रहे राजेश खन्ना अपने आखिरी पलों में तनाव के शिकार थे. वे न तो किसी से बात करते थे और न ही कहीं आतेजाते थे.

नशे में धुत राजेश खन्ना कभी अकेले या कभी कुछ दोस्तों के बीच अपने गुजरे पलों को याद करते हुए देखे जाते थे. जानकार बताते है कि कई बार ऐसा भी होता था कि वे अकेले अपने कमरे में बत्ती बुझा कर बैठे रहते थे. आखिर 60 और 70 के दशकों के पूर्वाध के सुपरस्टार ने अचानक अपनी चमक कैसे खो दी?

जिस सितारे ने 15 हिट फिल्में लगातार दीं, जिस की एक झलक पाने के लिए हजारों लोग लाइन लगा कर खड़े रहते थे, जिस की कार पर युवा लड़कियों के लिपस्टिक के निशान हुआ करते थे और जिसे लड़कियां खून से लिखी चिट्ठियां भेजा करती थीं वह इंसान अचानक कामयाबी के शिखर से कैसे लुढ़क गया?

राजेश ने जिस हीरोइन के साथ काम किया उस के साथ उन का नाम भी जुड़ा, पर आखिर के दिनों में कोई भी उन से मिलने नहीं आता था. फिल्मों के साथसाथ परिवार, बच्चे सभी उन का साथ छोड़ते चले गए. आखिर इस दशा का जिम्मेदार कौन है?

उन की एक करीबी दोस्त कहती हैं,“ “राजेश खन्ना दिल के बहत नरम और भावुक इंसान थे. नशे और अकेलेपन ने उन के जीवन का अंत कर दिया. उन के पास किसी के आने पर वे उस का पूरा ध्यान रखते, मेहमाननवाजी खूब करते थे. उन्हें अपनी दोनों बेटियां ट्विंकल खन्ना और रिंकी खन्ना और नाती आरव बहुत प्रिय थे. हर किसी से वे दिल लगा बैठते थे. वे अपनी स्टारडम को संभाल नहीं पाए.”

“जैसेजैसे इंसान की उम्र बढ़ती है उसे बदलते रहना चाहिए, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि आप में अब वह बात नहीं रही और उसी हिसाब से फिल्मों का चयन करना चाहिए. राजेश खन्ना के बदलते स्वभाव की वजह से डिंपल भी परेशान हो चुकी थीं.”

डिंपल राजेश से 15 साल छोटी थीं. डिंपल ने उन के साथ जीवन के रंगीन सपने देखे थे. लेकिन राजेश खन्ना ने कुछ ही सालों बाद उसे तोड़ दिया. स्टारडम की चकाचौंध में व्यस्त राजेश खन्ना इस बात को भांप नहीं पाए और एक दिन डिंपल अपनी दोनों बेटियों को ले कर अलग रहने चली गईं. राजेश खन्ना को इस बात का गहरा धक्का लगा.

ऐसे ही संपन्न सैकड़ों उद्योगपति, व्यापारी, लेखक प्रौफेसर आखिरी दिनों में अकेलेपन के शिकार हैं. उन से कोई मिलने नहीं आता. कोई नंबर नहीं है उन के पास जिन से वे बात कर सकें.

एक रिसर्च बताती है कि अकेलापन किसी भी उम्र के व्यक्ति को तनाव का शिकार बना सकता है. कई तो गंभीर बीमारियों के शिकार व्यक्ति हो सकते हैं, जिस का अंत कम उम्र में मौत तक हो सकती है.

इस बारे में मुंबई की एक काउंसलर कहती हैं, ““सफल लोगों का अकेलापन उन का खुद का बनाया हुआ होता है. ये लोग दूसरों में खुशियां खोजते हैं. दूसरों की वाहवाही में उन्हें सुख मिलता है. ऐसे में वे वास्तविक खुशी को नहीं ढूढ़ पाते, उस की कला उन्हें नहीं आती. वे अपने दोस्तों और परिवार को छोड़ उसी की ओर बढ़ते जाते हैं. असल में ये बाहरी लोग सिर्फ प्रशंसक हैं, परिवार या दोस्त नहीं. जब इस क्षणिक खुशी से वे बाहर निकलते हैं तो उन के आसपास न तो दोस्त होते हैं न ही परिवार.”

“ऐसे लोगों को चाहिए कि वे समय रहते अपनी खुशियों को समझ लें, उन्हें सहेज कर रखें. उन्हें सोचना चाहिए कि भविष्य में अकेलेपन से उन्हें अगर दोचार होना पड़े तो उस से नजात पाने के लिए उन्हें क्याक्या करना चाहिए ताकि जब वे युवा न भी रहें तो भी उन के कुछ दोस्त और परिवार उन के साथ रहें.

“इस की योजना शुरू से ही बना लेनी चाहिए और जब ग्लैमर वर्ल्ड से उन्हें फुरसत मिले तो अपनी दूसरी प्रायोरिटी को आगे रखना चाहिए. साथ ही, उन के पास एक ऐसा दोस्त और काउंसलर अवश्य होने चाहिए जो उन्हें ‘ग्राउंडेड’ रखने में मदद करें, उन्हें उन की सीमाएं बताएं.”

मुंबई की मनोरोग चिकित्सक कहती हैं, ““अकेलेपन का शिकार व्यक्ति अधिकतर चिड़चिड़ा, अकेले में बातें करना, नकारात्मक सोच रखना, अपनेआप से घृणा करना, उदास रहना आदि आदतों का शिकार बन जाता है. यही वजह है कि दोस्त और परिवार उन से छूटते चले जाते हैं. उन का दिमागी संतुलन बिगड़ जाता है.”

“ऐसे में कुछ क्रिएटिव टाइम पास करने की सोच उन्हें रखनी चाहिए. उन को यह भी समझना होगा कि जो खुशी वे बाहर तलाश रहे हैं वे उन के अंदर है. दोस्त और परिवार का सहयोग उन्हें आवश्यक है जो उन में आत्मविश्वास पैदा कर उन्हें संतुलित जीवन जीने के लिए प्रेरित करेंगे.” अकेलेपन का शिकार, दरअसल, अधिकतर वही व्यक्ति होते हैं जिन में आत्मसंतुष्टि का अभाव होता है. जिसे वे खुद नहीं ढूढ़ सकते.

अंत भला तो सब भला- भाग 3: ग्रीष्मा की जिंदगी में कैसे मची हलचल

कुछ देर तक विचार करने के बाद ग्रीष्मा बोली, ‘‘सर, बुरा न मानें तो एक बात पूंछू? आप ने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया?’’

‘‘आप का प्रश्न एकदम सही है. मैडम ऐसा नहीं है कि मैं विवाह करना नहीं चाहता था, परंतु पहले तो मैं अपने कैरियर को बनाने में लगा रहा और फिर कोई लड़की अपने अनुकूल नहीं मिली. दरअसल, हमारे समाज में लड़कियों को उच्चशिक्षित नहीं किया जाता. अल्पायु में ही उन की शादी कर दी जाती है. मुझे शिक्षित लड़की ही चाहिए थी. बस इसी जद्दोजहद में मैं आज तक अविवाहित ही हूं. बस यही है मेरी कहानी.’’

सर की बातें सुन कर ग्रीष्मा सोचने लगी कि सर की जाति के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं. मांबाबूजी तो बड़े ही रूढि़वादी हैं. पर किया भी क्या जा सकता है…प्यार कोई जाति देख कर तो किया नहीं जा सकता. वह तो बस हो जाता है, क्योंकि प्यार में दिमाग नहीं दिल काम करता है.

ग्रीष्मा अपने विचारों में डूबी हुई थी कि अचानक विनय सर बोले, ‘‘अरे मैडम कहां खो गईं?’’

‘‘सर मैं आप की बात को समझ रही हूं और मानती भी हूं कि आप ने मेरे अंदर जीने की इच्छा जाग्रत कर दी है. आप ने मेरे खोए आत्मविश्वास को लौटाया है. जब आप के साथ होती हूं तो मुझे भी यह दुनिया बड़ी हसीन लगती है…मुझे आप का साथ भी पसंद है… पर मेरे साथ बहुत सारी मजबूरियां हैं… मैं अकेली नहीं हूं मेरा बेटा और सासससुर भी हैं, जिन का इस संसार में मेरे सिवा कोई नहीं है… उन का एकमात्र सहारा मैं ही हूं.’’

‘‘तो उन का सहारा कौन छीन रहा है मैम? उन से अलग होने को कौन कह रहा है? मैं तो स्वयं ही अकेला हूं. आगेपीछे कोई नहीं है. मैं अभी अधिक तो कुछ नहीं कह सकता, परंतु हां यह वादा अवश्य करता हूं कि आप को और आप के परिवार के किसी भी सदस्य को कभी कोई कमी नहीं होने दूंगा.’’

‘‘जी, मैं इस बारे में सोचूंगी,’’ कह कर वह उठ खड़ी हुई.

अगले दिन रविवार था. वह नाश्ता तैयार कर रही थी, तभी ससुर ने आवाज लगाई, ‘‘बहू देखो तुम से कोई मिलने आया है? हाथ पोंछते हुए जब ग्रीष्मा किचन से आई तो सामने विनय सर को देख एक बार को तो हड़बड़ा ही गई. फिर कुछ संयत हो सासससुर से बोली, ‘‘मांबाबूजी ये हमारे प्रिंसिपल हैं विनय सर और सर ये मेरे मातापिता.’’

विनय सर ने आगे बढ़ कर दोनों के पांव छू लिए.

ससुरजी बोले, ‘‘अच्छा ये वही सर हैं जिन के बारे में तू अकसर चर्चा करती रहती है. अरे बेटा बहुत तारीफ करती है यह आप की.’’

विनय सर बिना कोई उत्तर दिए मुसकराते रहे.

ससुरजी बोले, ‘‘आज बिटिया ने नाश्ते में आलू के परांठे बनाए हैं. चलिए आप भी हमारे साथ नाश्ता करिए.’’

‘‘जी बिलकुल मुझे खुशबू आ गई थी इसलिए मैं भी खाने आ गया,’’ कह ग्रीष्मा की ओर मुसकरा कर देखते हुए विनय सर सामने रखा नाश्ता करने लगे. कुछ देर बाद फिर बोले, ‘‘मैम कल एक जरूरी मीटिंग है. आप 2 दिन से नहीं आ रही थीं तो मैं ने सोचा आप का हालचाल भी पूछ लूं और सूचना भी दे दूं. अब मैं चलता हूं, और वे चले गए.’’

विनय सर के जाने के बाद सास बोलीं, ‘‘बड़े अच्छे, सौम्य और विनम्र हैं तुम्हारे सर.’’

‘‘हां मां आप बिलकुल सही कह रही हैं. सर बहुत अच्छे और सुलझे हुए इंसान हैं. आप को पता है जब से सर आए हैं हमारे स्कूल का माहौल ही बदल गया है.’’

इस के  बाद तो अकसर रविवार को विनय सर घर आने लगे थे. कुणाल भी अंकलअंकल कह कर उन से चिपक जाता. कई बार वे परिवार के सभी सदस्यों को अपनी गाड़ी में घुमाने भी ले जाते थे.

लगभग 6 माह बाद एक दिन शाम को विनय सर घर आए और औपचारिक बातचीत के बाद ससुर से बोले, ‘‘अंकल, मैं आप से आप की बहू का हाथ मांगना चाहता हूं.’’

विनय सर की बात सुन कर सासससुर को तो जैसे सांप सूंघ गया. उन्होंने ऐसी चुप्पी लगाई कि आधे घंटे तक इंतजार के बाद भी विनय सर कोई उत्तर न पा सके और चुपचाप उठ कर चले गए. उस के बाद घर का माहौल अजीब सा हो गया. सासससुर ने उस से बातचीत करनी बंद कर दी.

एक दिन जब ग्रीष्मा स्कूल से लौटी तो सासससुर का आपसी वार्त्तालाप उस के कानों में पड़ा. ‘‘देखो तो हम ने हमेशा इसे अपनी बेटी समझा और आज इस ने हमें ही बेसहारा करने की ठान ली. बेटे के जाते ही इस ने रंगरलियां मनानी शुरू कर दीं और ऊपर से लड़का भी छोटी जाति का. हम ब्राह्मण. क्या इज्जत रह जाएगी समाज में हमारी? कैसे सब को मुंह दिखाएंगे? इस ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा..सही ही कहा जाता है कि बहू कभी अपनी नहीं हो सकती,’’ कहते हुए सास ससुर के सामने रो रही थीं.

फिल्म ‘‘अनेक’’ की दुर्गति की वजहें

आयुष्मान खुराना के कैरियर सबसे घटिया अभिनय

फिल्म ‘‘अनेक’’ की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी लेखक व निर्देशक अनुभव सिन्हा फिल्म सर्जक के साथ ही फिल्म आलोचकों / पत्रकारों और प्रचारक पर उठे सवालिया निशान लीक से हटकर खासकर उन विषयों पर,जिन्हे समाज में हौव्वा या तोबा समझा जाता था, उन फिल्मों में अभिनय कर लगातार खुद को बेहतरीन अभिनेता साबित करते आ रहे आयुष्मान खुराना ने फिल्म ‘‘अनेक’’ में अभिनय करने के साथ ही अपने पीआर की गलत सलाह मानकर अपने पूरे कैरियर पर कलंक लगा दिया. अब तक आयुष्मान ने मेहनत करके दर्शकों के बीच अपनी जो पैठ बनायी थी,वह खत्म हो गयी.

जी हां! यह कटु सत्य है. 20 मई को प्रदर्शित कंगना रानौट की फिल्म ‘‘धाकड़’’ के बाद आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘अनेक’ की बॉक्स आफिस पर बहुत बुरी दुर्गति हुई है. 20 मई को प्रदर्शित होते ही फिल्म ‘धाकड़’ को सिनेमाघरों से उतारा जाना शुरू हो गया था. मगर इसका वितरण ‘भाजपा’ समर्थित ‘जी स्टूडियो’ कर रहा है इसलिए इसे जबरन कुछ थिएटर में लगाकर रखा गया. मजेदार बात यह है कि आठवें दिन इस फिल्म के महज बीस टिकट बिके और वह भी कम दर वाली तथा फिल्म ने बाक्स आफिस पर 4420 रूपए इकट्ठा किए. सौ करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म आठ दिन में दो करोड़ भी नही कमा सकी.

लगभग उसी ढर्रे पर आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘अनेक’ चल रही है. फिल्म ‘‘अनेक’’ षुक्रवार 27 मई को एक साथ 1800 सिनेमाघरों (भारत में 1200 और विदेशों में 600 सिनेमाघरों में ) में प्रदर्शित हुई, लेकिन पहले शो में मुश्किल से एक प्रतिशत दर्शक पहुंचे, फिर धीरे धीरे सिनेमाघर मालिकों ने ‘अनेक’ को अपने अपने सिनेमाघरो से बाहर करना शुरू कर दिया था और शाम होते होते इसके सिनेमाघर न के बराबर ही बचे थे. जोड़ तोड़कर यानी कि ट्रेलर की बदौलत एडवांस बुकिंग के चलते इस पचहत्तर करोड़ की लागत वाली फिल्म ने पहले दिन एक करोड़ के लगभग पैसा बाक्स आफिस पर जुटाने में कामयाब रही.लेकिन दूसरे दिन ऐसा नहीं हो पाया. सूत्रों पर यकीन किया जाए तो इस फिल्म के लिए आयुष्मान खुराना ने दस करोड़ रूपए की फीस वसूली है. आखिर ‘अनेक’ की यह दुर्गति क्यों हो रही है? इस पर विस्तार से समझने की जरुरत है…

कही जाने वाली कथा का फिल्म सर्जक ने किया बंटाधार

हर दर्शक फिल्म देखते समय मनोरंजन के साथ कुछ जानकारी भी पाना चाहता है. मगर फिल्म ‘अनेक’ इन दोनों मोर्चों पर बुरी तरह से असफल रही है. ‘मुल्क’ व ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्में बना चुके फिल्मकार अनुभव सिन्हा की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपनी हर फिल्म में सिर्फ समस्या का महिमा मंडन करते हैं,मगर उसका हल नही बताते.वह हमेषा लोगों की कमजोर नस को दबाकर उसका फायदा उठाते आए हैं, मगर इस बार वह बुरी तरह से हार गए.यॅूं तो फिल्म ‘अनेक’ में युद्ध, शांति , अलगाववाद, नक्सलवाद,  नस्लीय भेदभाव, भारत सरकार की सोच,पूर्वोत्तर राज्यों की समस्या सहित अनेक सवाल उठाते हुए इस बात पर भी सवाल उठाती है कि भारतीय होने के असली मायने क्या हैं? उपदेशात्मक षैली की यह फिल्म इस कटु सत्य को भी रेखांकित करती है कि सिर्फ 24 किमी चैड़े गलियारे से बाकी देश से जुड़े उत्तर पूर्व के सात राज्यों के किसानों की पूरी फसल हाईवे पर खड़े ट्रकों में सड़ जाती है,क्योंकि उन्हें दूसरी तरफ से आती फौज की गाड़ियों के लिए जगह बनानी होती है. फिल्म यह सवाल भी उठाती है कि कोई तो है जो चाहता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों और पूर्वोत्तर में अशांति ही बनी रहे.मगर यह सब बहुत ही बचकाने व नीरस तरीके से हुआ है.जबकि यह ऐसे सवाल हैं,जिन पर बात की जानी चाहिए.इन मुद्दों पर कहानी कही जानी चाहिए. मगर लेखक व निर्देशक अनुभव सिन्हा की यह फिल्म ‘अलगाव वादी आंदोलनो’ पर बेसिर पैर की प्रवचन वाली फिल्म बन कर रह गयी है.फिल्म में सिर्फ बंदूकबाजी व सरकार की अपनी कुछ चालें हैं,जिसे देखते हुए दर्षक की समझ में ही नहीं आता कि यह सब क्या चल रहा है? फिल्मकार ने दो चार संवादों के माध्यम से यह जरुर बताया है कि ‘दिल्ली सरकार’ यानी कि ‘भारत सरकार’ देश के अन्य राज्यों के मुकाबले पंजाब , कश्मीर व पूर्वात्तर के सात राज्यों को अलग नजरिए से देखती है. ‘भारत सरकार’ पंजाब को खालिस्तानी, कश्मीर को पाकिस्तान व उत्तर पूर्वी राज्यों को चीनी समझ ही व्यवहार करती है. मगर इसे समझाने वाला एक भी दृश्य नही है.‘भारत सरकार’ और ‘पूर्वात्तर राज्य के अलगाव वादियों ’के बीच संघर्ष की वजह या विचारधारा के अंतर आदि को भी स्पष्ट नही किया गया. इसी तरह संवाद में 24 किलोमीटर चैड़े गलियारे का जिक्र है,मगर इस विकराल समस्या को स्पष्ट नही किया गया.फिल्म में इस समस्या को रेखांकित करने वाले एक भी दृश्य नहीं है. नस्लीय भेदभाव पर भी स्पष्ट बात नही की गयी है. फिल्म में सिर्फ हिंसा व खूनखराबा भरा गया है.बेवजह दो गुटों या पुलिस बल व अलगाव वादियों के बीच मुठभेड़ के लंबे लंबे दृश्य ठूंसकर फिल्म की लंबायी बढ़ा दी गयी है. कौन किस पर क्यों गोली चला रहा है, कुछ स्पष्ट नही है.

कई एक्शन दृश्य देखते हुए लगता है कि बच्चे एक्शन का वीडियो देख रहे हैं या वीडियो गेम में वह बच्चा एक्शन कर रहा है. किशोर वय के लड़के हाथ में बंदूक लेकर गुरिल्ला युद्ध कर रहे है, पर वह ऐसा क्यों कर रहे है, उन्हें किसने ऐसा करने के लिए कहा कुछ भी स्पष्ट नहीं. सब कुछ घालमेल है. एक दृश्य में एक बारह तेरह साल के उम्र के लड़के की मां को चिंता है कि एक गुट उसके लड़के को फुसलाकर उसके हाथ में बंदूक थमा देगा. पर ऐसा क्यों हो रहा है, कुछ भी स्पष्ट नहीं है. लगभग ढाई घंटे की अविध वाली फिल्म में दो घंटे तो सिर्फ बंदूके ही चल रही है. कब क्यों बंदूके गरजने लगी, समझ में ही नहीं आता. अब इस तरह की उटपटांग फिल्म को दर्शक कैसे मिलेंगे? इतना ही नही अनुभव सिन्हा ने फिल्म की शुरूआत बहुत गलत ढंग से की है. फिल्म की शुरूआत एक नाइट क्लब से जहां फिल्म की नायिका और मुक्केबाजी में भारत का प्रतिनिधित्व करने का सपना देख रही एडो की गिरफ्तारी की गयी है. जबकि उसकी कोई गलती नही है.ऐसा महज नाइट क्लब चलाने वाले व पुलिस के बीच आपसी मतभेद के कारण किया जाता है. अब इस दृश्य के माध्यम से फिल्मकार क्या कहना चाहते हैं, शायद उन्हें भी नहीं पता. अनुभव सिन्हा भूल गए कि आज का दर्शक विश्व सिनेमा देखने वाला समझदार है. फिल्म का नाम ‘अनेक’ भी अपने आप में कन्फ्यूजन ही पैदा करता है. ‘अनेक’ महज एक खोखला सिनेमा है.फिल्म ‘अनेक’ में सात उत्तर पूर्वी राज्यों की समस्याओं और मुद्दों को उकेरने में असफल रही है.

फिल्मकार अनुभव सिंन्हा आत्म प्रशंसा व घमंड में इतने चूर रहे कि वह यह भी भूल गए कि पूर्वोत्तर राज्यो ने ही हमें मैरी कॉम, मीराबाई चानू,लवलीना बोरगोहैन जैसे एथलिट दिए हैं. देश के बेहतरीन फुटबाल खिलाड़ी भी पूर्वोत्तर से ही आते हैं. प्राकृतिक रूप से पूर्वोत्तर राज्य स्विटजरलैंड से ज्यादा खूबसूरत है. पर फिल्म में सिर्फ ड्ग्स के अवैध कारोबार व हिंसा को ही बढा चढ़ाकर दिखाया गया है.

आयुष्मान खुराना का ‘इगो’ ले डूबा लीक से हटकर विषयों पर फिल्म कर सफलता दर्ज कराते आ रहे आयुष्मान खुराना को घमंड हो गया है कि वह जिस फिल्म में होंगे, वह फिल्म सफलता के झंडे अवश्य गाड़ेगी? इसलिए उन्होंने इस बात पर भी गौर नहीं किया कि ‘अनेक’ की कहानी व इसके किरदार में वह फिट नहीं बैठते है. उन्होंने इस फिल्म में अजीबोगरीब हरकतें की है,जो कि किसी भी ‘स्पेशल एजेंट’ को शोभा नहीं देता. एक्शन उनके वश की बात नहीं है, पर वह एक्शन कर रहे हैं.एक्शन के नाम पर आयुष्मान खुराना सिर्फ बंदूक पकड़ कर भागते हुए ही नजर आते हैं. दर्शक सीधे सवाल कर रहा है कि आयुष्मान खुराना ने ‘अनेक’ में काम करना क्यों स्वीकार किया? क्या उन्होंने महज ‘टीसीरीज’ कैंप का हिस्सा बनने के लिए यह फिल्म की अथवा पैसे के लिए.

सभी जानते है कि ‘अनेक’ में बकवास अभिनय करने वाले आयुष्मान खुराना इससे पहले अंधाधुन, बाला, शुभ मंगल ज्यादा सावधान, ड्रीमगर्ल सहित कई सफलतम फिल्में दे चुके हैं. मगर आयुष्मान खुराना के घमंड के ही चलते उनकी पिछली फिल्म ‘‘चंडीगढ़ करे आशिकी’’ को भी दर्शक नहीं मिले थे.फिर भी आयुष्मान खुराना ने सबक नहीं सीखा और अपनी पीआरटीम की हर सही व गलत बात पर अमल करते जा रहे हैं.

 पी आर टीम पर आंख मूंद कर भरोसा करना भी गलत रहाः

फिल्म ‘अनेक’ के प्रमोशन के सिलसिले में पहली बार आयुष्मान का अनोखा रवैया नजर आया. इस बार आयुष्मान ने अपनी पी आर टीम के कहने पर सिर्फ उन पत्रकारों को ही इंटरव्यू दिया, जो कि सिर्फ प्रशंसा करें और उनसे फिल्म के विषय को लेकर गहराई से सवाल न पूछे. इतना ही नहीं पीआर टीम पत्रकारों से यह आश्वासन भी ले रही थी कि वह आयुष्मान का इंटरव्यू करेंगे, तो फिल्म की समीक्षा लिखते समय चार से पांच स्टार देंगे.

तथा कथित फिल्म आलोचकों ने फिल्म को डुबाने में कसर नहीं छोड़ी फिल्म ‘अनेक’ को डुबाने में फिल्म प्रचारकों व कलाकारों की पीआर टीम के इशारे पर नाचने वाले पत्रकारों/ फिल्म आलोचकों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. इन सभी ने दर्शकों को गुमराह करने का ही काम किया है.इस तरह इनकी विश्वसनीयता पर भी कई बड़े सवलिया निशान लग गए हैं. इन दिनों फिल्म समीक्षाएं भी अजीबोगरीब तरीके से लिखी जा रही हैं. हर फिल्म के प्रदर्शन से पहले पत्रकारों के एक तबके को अलग से फिल्म दिखायी जाती है, बाद में पता चलता है कि इस तबके के सभी पत्रकारों ने फिल्म को चार से पांच स्टार दे दिए हैं. मजेदार बात यह है कि इन पत्रकारों / फिल्म आलोचकों की लिखी हुई समीझाएं और इनके द्वारा फिल्म को दिए गए ‘स्टार’ का विज्ञापन एक ही दिन अखबारों में छपता है. अक्सर यह भी देखा जाता है कि यूट्यूब चैनल चलाने वाले पत्रकार फिल्म की बेवजह जबरदस्त तारीफें करते हुए साढ़े चार स्टार से पांच स्टार देकर वीडियो जारी कर देते हैं और जब फिल्म को बाक्स आफिस पर सफलता नही मिलती है,तब वह षाम को दूसरा वीडियो जारी करते हैं कि इस फिल्म में यह कमियां हैं.माना कि हर इंसान की फिल्म को देखने की पसंद व नापसंद में अंतर हो सकता है.मगर इतना बड़ा अंतर…?

अमूमन माना तो यही जाता है कि फिल्म आलोचक को सिनेमा की समझ के साथ ही दर्शक की पसंद नापसंद की भी समझ होती है.पर हकीकत यह है कि अब फिल्म आलोचक भी आम लोगों से कट कर रह गया है.जब कोई कलाकार किसी प्रेस कांफ्रेंस में किसी पत्रकार का नाम ले लेता है,तो उस पत्रकार का सीना 56 इंच का हो जाता है और वह हर किसी से यह बताता घूमता है.तो वहीं कई फिल्म पत्रकार तो केवल पीआर के लिखे षब्दों को ही अपने षब्द बनाकर पेष करने में अपने कर्तब्य की इतिश्री समझने लगे हैं.

जी हां! फिल्म ‘‘अनेक’’ के प्रदर्शन वाले दिन कई बड़े अखबार फिल्म की तारीफों के पुल बांधने वाली समीक्षाओं से लबालब थे, तो वहीं दर्शक कुढ़ते हुए गाली देते हुए सिनेमाघर से निकल रहा था और सिनेमाघरों में फिल्म का शो रद्द होने का बोर्ड लटक रहा था.मुझे याद है कि कई अखबारों की ही तरह हिंदी के एक बड़े अखबार के पत्रकार ने ‘अनेक’ की समीक्षा में इस फिल्म को ‘ऑस्कर अवार्ड’ जीतने योग्य बता डाला. अब जिस फिल्म को दर्शक सिरे से खारिज कर रहा हो, उसे पत्रकार ‘ऑस्कर विजेता बनने योग्य’ बताने पर क्यों तुल गया?? यह विचारणीय प्रश्न है. जिसका जवाब हर पाठक और हर दर्शक को तलाशना चाहिए. वैसे इस तरह की हरकते अंग्रेजी दां पत्रकार कुछ ज्यादा ही कर रहे हैं.

बहरहाल, हिंदी के इस पत्रकार ने आयुष्मान खुराना की प्रतिभा का गुणगान करते हुए लंबा चैड़ा इंटरव्यू अपने अखबार में छापने, अपने अखबार के चैनल पर वीडियो इंटरव्यू प्रसारित करने के अलावा सोषल मीडिया पर भी जमकर प्रशंसा की थी.वैसे फिल्म ‘अनेक’ को चार से साढ़े चार स्टार देने वाले पत्रकारों की कमी नही रही.

बौलीवुड में पत्रकारों के बीच इस बात की भी कानाफूसी होती रहती है कि ‘फलां’ पीआर ने ‘फलां’ पत्रकार को इतना बड़ा लिफाफा थमा दिया है,जिससे वह चार स्टार से पांच स्टार के बीच की रेटिंग दे दे.

लेकिन इस तरह की पत्रकारिता से सबसे ज्यादा नुकसान देष के सिनेमा को हो रहा है.इन दिनों पीआर टीम के आगे नतमस्तक इन पत्रकारों की वजह से कलाकार व फिल्मकार भी जमीन से जुड़ने की बजाय हवाबाजी में ही अटका हुआ है.

‘धाकड़’ और ‘अनेक’ के बाक्स आफिस आंकड़े इस ओार इषारा कर रेह है कि अब वह वक्त आ गया है जब बौलीवुड के हर कलाकार व फिल्मकार को हौलीवुड व दक्षिण के सिनेमा को कोसने की बजाय अपनी पीआर टीम की हरकतों पर गंभीरता से गौर करे,वह इस बात को जानने का प्रयास करे कि कौन सा पत्रकार निस्पक्ष व सही बात कर रहा है.इसी के साथ वह दर्शकों के मन को समझने के लिए जमीन पर आकर सोचे.

अनुपमा फिर से बनेगी मां? काव्या एक्स पति के साथ करेगी बिजनेस डील

टीवी शो ‘अनुपमा’  में बड़ा ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि अनुज-अनुपमा हनीमून के लिए मुंबई रवाना हो गये है. दोनों एक-दूसरे के साथ क्वालिटी टाइम स्पेंड कर रहे हैं. शो के अपकमिंग एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते हैं शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो में दिखाया जा रहा है कि अनुज-अनुपमा अपना हनीमून इंजॉय कर रहे है. तो दूसरी तरफ काव्या, बा और वनराज के बीच जंग छीड़ी हुई है.  शो में आप देखेंगे कि अनुज अनुपमा से कहेगा कि वो उसके साथ अमेरिका चले और उसके रिश्तेदारों से मिले.

 

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शो के अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि अनुज-अनुपमा मुंबई घूमेंगे तो दूसरी तरफ अनुपमा के बच्चे और बापूजी अनुपमा की तस्वीरें देखकर खुश हो जाएंगे.

 

मुंबई घुमने के दौरान अनुपमा अनुज से कहेगी कि वो उसे ऐसी जगह ले जाए जो अनुज की स्पेशल जगह हो. अनुज अनुपमा को एक अनाथ आश्रम लेकर जाएगा, जहां वो पला था. अनुज इस जगह पहुंचकर काफी इमोशल हो जाएगा. अनुपमा उसे संभालेगी. अनुज-अनुपमा की मुलाकात छोटी सी बच्ची से होगी, उस बच्ची में अनुपमा की खूबियां मौजूद होगी.

 

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इस ट्रैक से कयास लगाया जा रहा है कि अनुपमा एक बार फिर से मां बनेगी, अनुज-अनुपमा इस बच्ची को गोद लेंगे.

 

शो के अपकमिंग एपिसोड में आप ये भी देखेंगे कि काव्या शाह परिवार को झटका देगी और कहेगी कि वो अनिरुद्ध के साथ मिलकर मार्केटिंग एजेंसी खोल रही है. इसी बात को लेकर बा और काव्या के बीच बहस होगी और वनराज उसे चुप होने को कहेगा.

सहयोग- भाग 2: क्या सीमा और राकेश का तलाक हुआ?

‘‘मैं चाहता हूं कि आज ये मामला इधर या उधर हो जाए. उस ने घर लौटने को ‘हां’ नहीं कहा, तो फिर हमारा तलाक ही होगा. राकेश का लहजा बेहद कठोर हो गया.

‘‘ठीक है. हम सीमा से मिलने चलते हैं,’’ बुआ ने निर्णय लिया.

घंटे भर बाद सीमा के मायके में ये दोनों ड्राइंगरूम में बैठे हुए थे. वहां सीमा, उस के पिता राजेंद्रजी, मां गायत्री, भाई संजीव और भाभी कविता भी उपस्थित थे.

कमरे का माहौल तनाव, गुस्से, शिकायतों व नाराजगी की तरंगों से प्रभावित था. जबरदस्त टकराव और झगड़े का जन्म लेना वहां निश्चित था.

‘‘पतिपत्नी दोनों का आपसी मनमुटाव सुलझा कर खुशी से साथ रहने का प्रयास दिल से करना होता है. अपनी घरगृहस्थी की सुरक्षा और मजबूती को बनाए रखना आसान नहीं होता, पर समझदारी से किसी भी समस्या को सुलझाया जा सकता है,’’ बुआ की इस सीधी सीख से वार्तालाप आरंभ हुआ और फिर माहौल पलपल ज्यादा गर्माने लगा.

एक से ज्यादा लोग साथसाथ उत्तेजित हो कर बोलने लगे. दूसरे की सुनने में कम और अपनी कहने में सब की दिलचस्पी थी.

सिर्फ सीमा खामोश बैठी थी. राकेश उस के खिलाफ बहुत कुछ बोल रहा था, पर वो माथे में बल डाले सब चुपचाप सुनती रही.

सीमा के मातापिता और भैयाभाभी मिलकर भी राकेश को दबा नहीं पा रहे थे. अनिता बुआ की शांति से बातें करने की फरियाद पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था.

सीमा की खामोशी से चिड़ कर अचानक राकेश ने ऊंची आवाज में धमकी दे डाली, ‘‘मेरी सहनशक्ति जवाब दे चुकी है. आप सब मेरी चेतावनी ध्यान से सुन लो. अगर सीमा फौरन घर नहीं लौटी, तो इस का नतीजा बुरा होगा.’’

सबको खामोश करने के लिए सीमा ने अचानक हाथ हवा में उठाया और गंभीर स्वर में बोली, ‘‘इन के सब आरोपों और धमकी का जवाब मैं देने जा रही हूं और अब सब लोग सिर्फ मेरी सुनेंगे. कोई बीच में न बोले, प्लीज.’’

सीमा का अवाज में कुछ ऐसी ताकत थी, कुछ ऐसा रौब था कि सब फौरन खामोश हो उस की बात सुनने को तत्पर हो गए.

राकेश के चेहरे पर नजरें जमा कर सीमा ने तीखे लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘आप मेरे चरित्र पर पिछले 2 महीने से लगातार उंगली उठाते रहे हैं, पर मैं आप के जैसी नहीं हूं. वैसे भी इंसान को अपने गिरैबान में झांकने के बाद ही किसी को कुछ कहना चाहिए.’’

‘‘मैं बस ये स्वीकार करती हूं कि अजय मेरा सहयोगी ही नहीं, बल्कि शुभचिंतक मित्र भी है. वो मेरे साथ फ्लर्ट जरूर करता है, लेकिन मर्यादा की सीमा न कभी उस ने तोड़ी है, न मैं ने.

‘‘आप से ज्यादा इस बात कौन समझेगा कि सहयोगी पुरुष कामकाजी महिलाओं और युवतियों के साथ हंसीमजाक में ‘फ्लर्ट’ कर लेते हैं. आप तो 2 कदम आगे बढ़ कर स्त्रियों से अवैध प्रेम संबंध कायम करने से भी कभी नहीं चूके हैं.’’

राकेश ने फौरन चिड़ कर जवाब दिया, ‘‘तुम्हारे शक्की दिमाग ने कई वहम पैदा किए हुए हैं तुम्हारे अंदर, सीमा इस कारण तुम्हें नाजायज संबंध बनाने की सुविधा मिल गई, ऐसा सोचना तुम्हारी भारी भूल थी. मेरी ये भी मांग है कि तुम पुराना स्कूल छोड़ोगी.’’

‘‘तुम्हारी ये मांग मेरे लिए कोई अहमियत नहीं रखती क्योंकि मेरा मन साफ है जब कोई गलती नहीं की है मैं ने, तो कैसी भी सजा क्यों स्वीकार करूं?’’

‘‘अगर इसी तरह अकड़ी रहोगी, तो पछताओगी.’’

‘‘पछता तो मैं इसलिए रही हूं कि मैं ने अभी तक तुम्हारी चरित्रहीनता का क्यों जीजान से विरोध नहीं किया. रीता, अंजलि, मीनू, सुषमा और न जाने कितनी औरतों से तुमने इश्क लड़ाया और मैं हल्का सा विरोध कर के अपनी बेइज्जती बर्दाश्त करती रही.

‘‘अजय के साथ जबरदस्ती मेरा नाम जोड़ कर तुम ने मुझे भद्दीभद्दी गालियां दी…एक रात शराब पीकर इतनी मारपिटाई की कि पड़ोसियों को मुझे छुड़ाने आना पड़ा.

‘‘तुम मुझे चरित्रहीन कहते हो, पर तुम हो गंदी नाली के कीड़े. मैं 2 महीने से यहां हूं और कम से कम 3 बार तुम उस कुलटा सुषमा को मेरे घर में रंगरलियां मनाने के लिए लाए हो.’’

‘‘तुम्हारा नहीं, बल्कि मेरे सब्र का घड़ा भर चुका है, मिस्टर राकेश मुझे धमकी देने की जरूरत नहीं है तुम्हें क्योंकि मैं ने खुद ही तुम्हारे साथ न रहने का फैसला कर लिया है.

‘‘तुम पर से मेरा विश्वास पूरी तरह से उठ गया है. अपमान और जिल्लत भरी जिंदगी के साथ अब मैं तुम्हारे साथ आगे नहीं जीना चाहती हूं. मुझे तुम से तलाक चाहिए.’’ आंखों से आंसू बहाती व गुस्से से थरथर कांपती सीमा इतनी जोर से आखिरी वाक्य बोलते हुए चिल्लाई कि कमरे की दीवारें कांप उठी.

राकेश ने इस पल सीमा की आंखों में अपने प्रति नफरत और गुस्से के साथसाथ मजबूत निश्चय के भाव पढ़े, तो उस के पूरे बदन में भयमिश्रित झनझनाहट की लहर सी दौड़ गई.

उस ने देखा कि उस के सासससुर भी अचानक गुस्सा व शिकायतें भूल कर बेहद चिंतिति नजर आ रहे थे. सीमा का भाई माथे में परेशानी के बल डाल कर अपनी बहन को घूर रहा था. उस की भाभी का मुंह मारे हैरानी के खुला रह गया. अनिता बुआ जरूर अपनी भतीजी से नाराज नजर आ रही थी.

‘तलाक’ शब्द बारबार राकेश के जेहन में गूंजने लगा. मन में क्रोध और उत्तेजना का स्थान अजीब से डर व घबराहट ने ले लिया. जितनी उस ने खुद को संभालने की कोशिश करी, उतनी उस के मन की बेचैनी बढ़ती गई.

‘सीमा मेरे पास नहीं लौटी, तो मेरी घरगृहस्थी उजड़ जाएगी.’ ये विचार अचानक उस के मन में कौंधा और इस के प्रभाव में उस का शरीर तुरंत ठंडे पसीने से नश गया.

फिर टांगों में अजीब सा कंपन शुरू हुआ. घबराहट व दिल डूबने का एहसास गहराया. अचानक छत घूम गई और आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा.

सब के देखते ही देखते राकेश अपनी चेतना खो सोफे पर लुढक गया. उस का पीला पड़ा चेहरा इस बात का सुबूत था कि वो कोई नाटक नहीं कर रहा था.

ड्राइंगरूम में भगदड़ मच गई. बुआ ने राकेश का सिर अपनी गेाद में रखा. गायत्री और राजेंद्रजी उस के शरीर को अखबार से हवा करने लगे. कविता रसोई से पानी का गिलास लाने भागी. संजीव उस का गाल थपथपा कर उसे होश में लाने की कोशिश कर रहा था.

सिर्फ सीमा अपनी जगह से नहीं हिली. राकेश की यूं अचानक बिगड़ी तबियत ने उस की सोचनेसमझने की शक्ति हर कर उसे भावशून्य कर दिया था.

राकेश की हालत में हल्का सुधार चंद मिनटों में ही हो गया. उस ने बैठने की कोशिश की, पर असफल रहा. सब के आग्रह पर वो आंखें मूंद कर लेटा रहा.

सीमा एक झटके में अपने घरवालों की नजरों में खलनायिका बन गई. सब के सब उसे नाराजगी से घूरते हुए दबी जुबान में समझाने लगे. तलाक लेने की बात उठा कर उस ने सबको तेज झटका दिया था और सब की नाराजगी मोल ले ली थी.

सीमा ने कुछ मिनट सब की बातें खामोश रह कर सुनी. किसी को उस ने कैसा भी जवाब नहीं दिया. जब उस से उन के लैक्चर और सहन नहीं हुए तो वो ड्राइंगरूम से निकलकर अपने कमरे में चली गई.

राकेश की तबीयत कुछ और संभली, तो संजीव उसे सहारा दे कर अंदर वाले एक कमरे में ले आया. पलंग पर लेटने के कुछ देर बाद बेहद कमजोरी महसूस कर रहे राकेश को नींद आ गई.

उस की नींद करीब घंटे भर बाद एक झटके से खुली. वो एक खराब सपना देते हुए जागा था. सपने में सीमा और मोहित नदी में डूब रहे थे. राकेश उन्हें पुकारता भाग रहा था और वो पलपल दूर होते जा रहे थे.

सीमा चिल्ला रही थी वो उस के पास नहीं रह सकती और राकेश उस से माफी मांग कर किनारे आने को गिड़गिड़ा रहा था. वो मोहित को भी बारबार पुकारता, पर उस का बेटा डूबने से बचने को हाथपैर मारने में खोया हुआ था.

आंखें खोलने पर उस ने देखा कि अनिता बुआ उस का माथा सहला रही थी. उस के पैरों की तरफ पलंग पर बैठी सीमा चिंतित नजरों से उस की तरफ देख रही थी.

सीमा से उस की नजरें मिली राकेश को अपनी पत्नी की आंखों में परेशानी के साथसाथ नाराजगी, बेबसी, गुस्से व चिड़ के भाव भी नजर आए. उस के दिलोदिमाग में अजीब सा भारीपन और उदासी का एहसास फिर से बढ़ने लगा.

फिल्म: बुरे दौर में भारतीय सिनेमा

‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए…’ 80 के दशक में कलमबद्ध किया गया फिल्म ‘सिलसिला’ का यह लाजवाब गीत मशहूर गीतकार जावेद अख्तर की कलम से निकला उन की जिंदगी का पहला गीत है, जो सुनने वालों को आज भी मदहोश कर देता है. जावेद अख्तर आजकल हिंदू कट्टरपंथियों के निशाने पर जम कर हैं.

फिल्म ‘सिलसिला’ के गीतों की सफलता के बाद जावेद बतौर गीतकार भी पहचाने जाने लगे. उन्होंने एक से बढ़ कर एक गीत लिखे. इस से पहले फिल्म इंडस्ट्री में वे बतौर संवाद लेखक जाने जाते थे.

भारत एक सिंगिंग नेशन है, हर हिंदुस्तानी गाता है. चाहे वह बाथरूम में, सड़क पर चलते हुए अथवा साइकिल चलाते हुए गाए. अमेरिका में सड़क पर एक आदमी गाना गाता हुआ नहीं चलता या टे्रन में सफर के दौरान गुनगुनाता नहीं है. वहां आम आदमी गाना नहीं गाता. पियानो अथवा गिटार बजाना जानता है. वहां गाना बनता है सुनने के लिए, हमारे यहां गाना बनता है गाने के लिए. पिछले 10-15 सालों से गाने ऐसे बनाए जा रहे हैं जिन्हें हम सिर्फ सुन सकते हैं, इसलिए वे दिल को छूते नहीं हैं. वे किसी और कल्चर, किसी और टै्रडिशन से उठा कर हम पर डाल दिए गए हैं. वे हमें अपील नहीं करते.

इस तरह के गानों की डिमांड करने वाले लिसनर्स हैं. उन्हें जितनी जल्दी समझ में आएगा उतना ही उन के लिए अच्छा होगा. कहा जाता है कि ये गाने यंग जैनरेशन को पसंद हैं, लेकिन जितने भी सिंगिंग रिऐलिटी शोज या म्यूजिक कंसर्ट होते हैं उन में हिस्सा लेने वाले बच्चे 50-60 के दशक के पुराने गीत गाते हैं. अगर उन्हें नए गाने पसंद हैं तो वे उन्हें क्यों नहीं गाते? दरअसल, दिक्कत वहां होती है जहां मार्केटिंग डिपार्टमैंट क्रिएटिव डिपार्टमैंट से ज्यादा स्ट्रौंग हो जाता है.

हकीकत से दूर

यही हाल कहानियों का है. हिंदी की जो भी फिल्में बन रही हैं, उन में हकीकत नहीं है. फिल्म बनाने और देखने वाले दोनों ही इस के लिए जिम्मेदार हैं. औडियंस होने के नाते वे किन फिल्मों को देखना पसंद करते हैं और किन फिल्मों को प्रोत्साहित करते हैं? जो अच्छी फिल्में फ्लौप हो जाती हैं उन की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या दर्शक इस बात की परवा करते हैं कि जो अच्छी फिल्में थीं वे फ्लौप क्यों हुईं? समाज अच्छी फिल्मों का साथ अब नहीं दे रहा है जैसे वह 50 या 60 के दशकों में देता था.

कुछ ऐसी फिल्में खूब चलीं जिन में रिऐलिटी बिलकुल नहीं थी. इस के लिए जिम्मेदार कौन है? जो फिल्में हिंदू धर्मांधता को और ज्यादा प्रचारित करती हैं वे और ज्यादा चल रही हैं. अक्षय कुमार ने तो एक के बाद एक नई फिल्में इसी दर्शक वर्ग को देख कर बनाईं.

फिल्म इंडस्ट्री समाज का ही एक अंग है. सिनेमा और समाज एकदूसरे से जुड़े हुए हैं. समाज में भी बदलाव आए हैं. इसलिए समाज के जो मूल्य और संस्कार होंगे वे फिल्मों में दिखाई देंगे. यही समाज ‘प्यासा’ और ‘मिस्टर इंडिया’ जैसी फिल्में बनाता था और यही समाज आज की फिल्में बना रहा है. जो फिल्में बन रही हैं वे आज के और कट्टर व दंभी होते समाज की प्रतीक हैं. आज फिल्म में दिख रही गड़बड़ी बदलते समाज के ही लक्षण हैं.

जो खराबी समाज में होगी वही फिल्मों में दिखेगी. किसी भी समाज का ऐंटरटेनमैंट वैसा होता है जैसे उस समाज के ऐस्थैटिक्स और संस्कार होते हैं. हम जिस दिन समाज को ठीक करेंगे, सबकुछ ठीक हो जाएगा. हमें तो सिर्फ धर्म पर बनी फिल्में अच्छी लग रही हैं या सिर्फ जिन में सच्चाझूठा देशप्रेम हो.

जिम्मेदार कौन

दर्शकों का भी कर्तव्य बनता है कि वे अच्छी फिल्में देखें तो अच्छी फिल्में और बनेंगी. फिल्म दिमाग को झकझोरने के लिए बने, एक पार्टी के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए नहीं.

गुजरे जमाने के जो मास्टरपीस रोमांटिक गाने हैं उन में अधिकतर में प्रकृति प्रेम झलकता है. नेचर के बिना कोई रोमांटिक गाना बहुत बढि़या बन ही नहीं पाता. ‘ये रात भीगीभीगी ये मस्त अदाएं…’ इस में नेचर कैसे घुला हुआ है. अब आप गाने में नेचर को इनवौल्व करते हैं तो 2 प्यार करने वालों के साथ पूरी प्रकृति रोमांस में डूबी लगती है. आज हमारा नेचर से वास्ता ही कट गया है. अगर आप आज बाग या गुलशन बोलें तो आज का आदमी कभी वहां गया ही नहीं है. उसे मौसम नहीं मालूम. एयरकंडीशंड ने सारे मौसमों का मजा चौपट कर दिया है. सावन क्या है, भादों क्या है, पुरवइया किसे कहते हैं आज के बच्चों को मालूम ही नहीं है.

इस में बच्चों का कोई दोष नहीं है. उन्हें वह भाषा सिखाई ही नहीं जा रही जिस में नेचर की बात हो. बच्चे वही करते हैं जो मांबाप करते हैं.

अच्छे गाने लिखेगा कौन

मांबाप और बच्चे जिन के पास मल्टीप्लैक्स में खर्च करने लायक पैसे हैं. आजकल अंगरेजी मीडियम स्कूलों से आए हैं और उन्हें न भाषा की समझ है और न देश के समाज की चुनौतियों की. अंगरेजी मीडियम में जो पढ़ाया जा रहा है वह पढ़ने वालों को समाज से बिलकुल काट देता है क्योंकि ये लोग लिखना और गंभीर पढ़ना, चाहे अंगरेजी में हो या हिंदी में, भूल चुके हैं. इन्हें गरीबों पर बनी फिल्में बनावटी लगती हैं. इन के दिमाग में गरीब तो सिर्फ सेवा करने के लिए हैं.

हिंदी मीडियम से पढ़ कर आए लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है पर वे सामाजिक समस्याओं को नजदीक से देखते हैं पर उन के लिए फिल्में बन ही नहीं रहीं क्योंकि फिल्म निर्माण पूरी तरह अंगरेजीदां के हाथों में सिमट गया है. हिंदी मीडियम वाले तो और्केस्ट्रा में तबलची बन कर रह गए हैं या शूट में स्पौटबौय. जब समाज से कटे हों तो अच्छी फिल्में बनेंगी कैसे? अच्छे गाने लिखेगा कौन?

भड़काऊ नैरेटिव की गुलामी

देश में भड़काऊ नैरेटिव हावी है ताकि सरकार सवालजवाब और जिम्मेदारियों से बच सके. धर्म और जाति अब मुख्य सवाल बना दिया गया है और रोजगार, महंगाई, स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय जैसे मूल मुद्दे दरकिनार कर दिए गए हैं. भड़काऊ नैरेटिव मुसलिमविरोधी या जातिविरोधी नहीं, सिर्फ जनताविरोधी है.

बच्चा जब पैदा होता है तब उस का दिमाग खाली ब्लैकबोर्ड (स्लेट) की भांति होता है, बिलकुल खाली. जैसेजैसे वह बड़ा होता है, वह अपने जीवन में मिले अनुभवों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करता जाता है.

वर्ष 1632 में जन्मे व ‘उदारवाद के पिता’ कहे गए दार्शनिक जौन लोक ने अपने सिद्धांत ‘टेबुला रासा’ में इस बात का जिक्र किया था कि मनुष्य के जन्म के समय दिमाग में कोई विचार नहीं होता, न सोचनेसम झने की क्षमता. यानी जब कोई बच्चा पैदा होता है तब उस का दिमाग शून्य होता है, न कोई पिक्चर न कोई याद न कोई सपना. वह अधिक से अधिक अपनी मां के गर्भाशय के भीतर की तरलता (एमिनियोटिक सेक) को ही सम झ पाता है, जो उसे सहलाहट (सैंसिटिव) महसूस कराती है.

सिद्धांत के इस बिंदु को यदि थोड़ा और आगे ले कर चलें तो यह माना जा सकता है कि जिस दौरान कोई बच्चा पैदा होता है, उसे अपने मातापिता, भाईबहनों, नातेरिश्तेदारों तक का बोध नहीं होता और न किसी दैवीय ताकत का, मतलब भगवान का भी नहीं. मान लीजिए अगर कोई बच्चा गुजरात के हिंदू परिवार में पैदा हुआ है तो संभव है कि गुजराती भाषा और हिंदू धर्म का अनुकरण करेगा. अगर वह लंदन के ईसाई परिवार में पैदा हुआ है तो इंग्लिश भाषा और ईसाईयत का अनुकरण करेगा और अगर वह बगदाद के मुसलिम परिवार में पैदा हुआ है तो अरबी भाषा व इसलाम का अनुकरण करेगा. ये चीजें उसे जन्मजात नहीं मिलतीं, उस के परिवेश से मिलती हैं.

फिर सवाल यह कि जिस भगवान का उसे पैदा होते बोध नहीं होता, उस के लिए मारकाट, लड़ाई झगड़ा और हिंसा क्यों? अतीत में दुनियाभर में न जाने कितने ही धर्मयुद्ध हुए और आज भी कितने ही उसी कगार पर हैं. तमाम वैज्ञानिक चमत्कारों के बावजूद धार्मिक अंधपन में अलगअलग समुदायों के बीच सिरफुटौवल की स्थिति है, कई देश धार्मिक वर्चस्व कायम करने में मरखप रहे हैं. वे अपनी ऊर्जा गैरजरूरी, कुतार्किक बहसों में लगा रहे हैं और अंदरूनी कलह से जू झ रहे हैं. यह सब क्यों?

समाजशास्त्री व दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा था, ‘‘धर्म लोगों के लिए एक अफीम है.’’ बात सही है, वह अफीम जो इंसान को उस के वास्तविक पहचान से अलग कर देती है. अतीत में इन धर्मों की बदौलत राजामहाराजाओं, पंडेपुजारियों, मौलवियों व पादरियों ने जनता की आंखों में धूल  झोंक कर अपने ऐशोआराम का राजपाट चलाया, ऊंचनीच का भेद बनाए रखा, टैक्स वसूले, जनता पर अत्याचार किए, बेगारीभुखमरी और लाचारी का कारण पुराने जन्मों का कर्म बताया.

भारत समेत दुनिया के अलगअलग देशों में दक्षिणवादी सरकारें आज फिर से जनता को उन्हीं पाखंडों में धकेलने की साजिश रच रही हैं. शासकों द्वारा धार्मिक नैरेटिव चला कर लोगों को न सिर्फ पाखंडी, अंधविश्वासी और नफरती बनाया जा रहा है ताकि लोग गुलामी सहते हुए पूजापाठी बनें और दानदक्षिणा करते रहें, बल्कि जरूरी मुद्दों से ध्यान भी भटकाया जा रहा है ताकि कोई उन से सवालजवाब न करने लगे.

धर्म की आड़ में

इस नैरेटिव को गढ़ने में शासक और उस का प्रचारतंत्र मीडिया पूरी तरह से जुटा हुआ है. लोगों को कैसे असल मुद्दों से बिदकाना है, भारत में टीवी चैनलों की गोदी पत्रकारिता अच्छे से जानती है. वहां हर समय धर्मयुद्ध छिड़ा रहता है. अव्वल यह कि सुबह के अखबार भी धीरेधीरे धार्मिक नफरत का जहर फैलाने में जुट गए हैं. अखबारों की मुख्य हैडलाइन से ले कर बड़ेछोटे कौलमों में धर्म का स्पेस फैलता जा रहा है जबकि जनमानस की खबरें सिकुड़ती जा रही हैं.

इस नैरेटिव को सम झना कोई बड़ी बात नहीं. इसे अखबार की हैडलाइन और प्राथमिकता देख कर सम झा जा सकता है. जैसे सीएमआईई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश की शहरी बेरोजगारी दर अप्रैल के महीने में बदतर 9.22 फीसदी हो चली है, पर यह खबर कहीं साइड में छोटे से कौलम में जानबू झ कर सरका दी जाती है जिस में न सरकार से सवाल होता है न कोई विश्लेषण. ठीक इस की बगल में ‘गाजियाबाद के हिजाब प्रकरण में छात्राओं से पूछताछ…’ शीर्षक वाली लंबीचौड़ी खबर छपती है. ठीक नीचे 3 कौलम में ‘ओखला में 6, शाहीन बाग में 9 को चलेगा बुलडोजर’ शीर्षक वाली खबर बनती है. वहीं बगल में 3 बड़े कौलमों में ‘जोधपुर में नमाज के बाद उत्पात’ शीर्षक वाली खबर छपती है, जिसे पेज 11 व 16 में विस्तार दिया जाता है. इन भड़काऊ और भ्रामक खबरों के बीच जनता से जुड़ी खबर को कैसे दबाया जाए या सरकाया जाए, यह कृत्य बड़े शातिराना तरीके से किया जा रहा है.

सवाल यह है कि रोजीरोटी से ज्यादा धर्म से जुड़े मसले क्या इतने जरूरी हो चले हैं कि उस के लिए किसी अखबार को पहले ही पेज में 60-70 फीसदी खबर तनाव, नफरत और कट्टरपन पैदा करने वाली छापनी पड़े और बाकी जगह महज नेताओं की ब्रैंडिंग वाली खबरें हों, जैसे ‘दुनिया में मोदी का डंका’, ‘फ्रांस में मोदी की जयजय’, ‘वायनाड में स्मृति की राहुल को चुनौती’, ‘राहुल गांधी की पब पार्टी’ क्या जनता को जानने के लिए यही सब खबरें रह गई हैं? सवाल यह है कि देश का नैरेटिव ‘अच्छे दिन’ से कैसे ‘मोदी की जय’ और ‘जय श्रीराम’ में शिफ्ट होता चला गया?

कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के चंदौली में यूपी पुलिस पर ये गंभीर आरोप लगे कि उस ने कारोबारी कन्हैया यादव की गैरमौजूदगी में घर में घुस कर परिवार की महिलाओं के साथ मारपीट की. यह मारपीट इतनी भयानक हुई कि कन्हैया यादव की बड़ी बेटी निशा यादव की तत्काल मौत हो गई. ऐसे ही उत्तर प्रदेश के ललितपुर के थानाध्यक्ष पर आरोप लगा है कि उस ने बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने आई 13 वर्षीया नाबालिग के साथ दुष्कर्म किया. हालिया ऐसी ढेरों खबरे हैं जो या तो गायब कर दी गईं या कहीं कोने में सरका दी गईं. जाहिर है देश में जब धर्म का नशा हावी हो तब महिला सुरक्षा और जैंडर जस्टिस की खबरें कोई माने नहीं रखतीं. यही कारण भी है कि मुसलिम महिलाओं को खुले बलात्कार की धमकी देने वाले बजरंग मुनि दास को भारतीय जनमानस ने आसानी से पचा लिया क्योंकि महिलाओं की सुरक्षा अब देश में गौण हो चली है.

ऐसे ही मध्य प्रदेश के सिवनी में 3 आदिवासियों की मौबलिंचिंग का मामला सामने आया है. जिस में 2 आदिवासी मारे गए. आरोपित लोग कोई और नहीं, बजरंग दल के कार्यकर्ता बताए गए. यह संगठन वही है जिस के कार्यकर्ता कल तक मुसलमानों को गौकशी के आरोपों में मारतेपीटते आए थे और उस का पैतृक संगठन आरएसएस आदिवासियों को हिंदू बता रहा था. आज यही संगठन खुलेआम धर्म की आड़ ले कर ऊंचनीच का खेल खेल रहा है.

वहीं, दलितों को मंदिरों में जाने से रोकने, मूंछें रखने, घोड़ी चढ़ने, मजदूरी मांगने के एवज में दबंगों व ऊंचों द्वारा पीटा जा रहा है. ऐसी खबरें छोटेछोटे कौलमों में आती हैं जहां सफाईकर्मी की मौत गटर सफाई के दौरान हो गई, ऐसी खबरें अब बिना नजरों में आए निकल जाया करती हैं, क्योंकि धर्म से जुड़ी खबरों के शीर्षक भव्य, व्यापक और उत्तेजक दिखने लगे हैं. यही कारण भी है कि ‘प्रैस फ्रीडम इंडैक्स 2022’ में भारतीय मीडिया की रैंक 8 पायदान नीचे गिर कर 150वें पायदान पर आ गई है.

एससी/एसटी/ओबीसी, दहेज उत्पीड़न, रेप, जैंडर जस्टिस, रोजगार, महंगाई, जबरन टैक्स वसूली, मजदूर-किसानों की खबरें सुर्खियों से गायब हो गई हैं और यह सिर्फ इसलिए कि धर्म का नैरेटिव जोर से फैलाया जाता रहे. इस नैरेटिव में भले मुसलिम प्राइम टारगेट दिखाई दे रहे हों पर  झेलना हिंदू आबादी को भी पड़ रहा है, क्योंकि उस की समस्याएं, दुखदर्द, न्याय, उत्पीड़न पूरी तरह डिस्कोर्स से गायब कर दिए गए हैं. यही कारण है कि इस नैरेटिव को हालिया दिनों में जानबू झ कर अधिक हवा दी जा रही है क्योंकि महंगाई और अर्थव्यवस्था से देश की आम आबादी हलकान में है, फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू. बस, फर्क यह है कि पहले इन समस्याओं के लिए लोग सरकार और व्यवस्था को निशाने पर लिया करते थे, अब मुसलिमों पर दोष मढ़ने लगे हैं.

बढ़ता सांप्रदायिक तनाव

पिछले कुछ समय से धर्मरूपी इस अफीम के नशे का सुरूर भारत के वातावरण में निरंतर फैलते देखा जा सकता है, जिस ने जनमानस को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है. इसे जानबू झ कर फैलाया भी जा रहा है. लोगों के मन में धर्म विशेष के नारे लगा कर, मारनेकाटने की मंशा घर करने लगी है. कट्टर धार्मिक नेताओं द्वारा लगातार नफरती बयान दिए जा रहे हैं और ऐसे लोगों को मिल रहा राजनीतिक व प्रशासनिक संरक्षण सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा कर रहे हैं. दुखद यह कि भारत का बहुसंख्य तबका अब इन चीजों को आसानी से पचाने लगा है, क्योंकि वह इस नैरेटिव में खुद को एडजस्ट करने लगा है.

पिछले 1-2 महीनों के भीतर हुईं ऐसी कई घटनाएं बता रही हैं कि देश एक ऐसे ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है जो कब फट पड़े, कहा नहीं जा सकता और इस ज्वालामुखी को गरमाने का काम कोई और नहीं, बल्कि खुद देश की सत्ता में बैठे लोग कर रहे हैं.

अमेरिका स्थित जेनोसाइड वाच के संस्थापक प्रोफैसर ग्रेगरी स्टैंटन ने भारत में नरसंहार की चेतावनी दी है और कहा है कि मुसलमान समुदाय इस के शिकार हो सकते हैं. प्रोफैसर ग्रेगरी स्टैंटन ने 1994 में रवांडा में हुए नरसंहार, जिस में 100 दिनों में तकरीबन 10 लाख लोग मारे गए थे, का भी पूर्वानुमान किया था.

वे कहते हैं, ‘‘2002 में जब गुजरात दंगे में 1,000 से अधिक मुसलमान मारे गए थे तब से भारत में नरसंहार की चेतावनी पर जेनोसाइड वाच मुखरता से काम कर रहा है. उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे.’’ उन के अनुसार, इस बात के कई सारे सुबूत हैं कि उन्होंने उस नरसंहार को बढ़ावा दिया था.

पिछले दिनों घटी घटनाओं में भी सरकार इस माहौल को या तो हवा दे रही है या मूक समर्थन दे रही है. युवा हिंसक दंगाई भीड़ में तबदील हो रहे हैं. जिन युवाओं के हाथों में किताबें, लैपटौप होनी चाहिए थीं, जिन्हें अपनी नौकरी के लिए संघर्ष करना था, उन के हाथों में तलवारें लहरा रही हैं. यह सब इसलिए क्योंकि उन के दिमाग में लगातार यही बातें डाली जा रही हैं. हालिया रामनवमी व हनुमान जयंती में हिंसक सांप्रदायिक घटनाएं जिस फौर्मेट में घटीं, वे बताती हैं कि ये तयबद्ध योजना के तहत अंजाम दी गईं.

फौर्मेट : एक धार्मिक यात्रा, यात्रा में शामिल युवाओं के हाथों में हथियार (लंबीलंबी तलवारें व पिस्टल, चाकू आदि), डीजे का भारीभरकम शोर, उस शोर में बज रहे नफरती, उकसाऊ व भौंडे भजन/गाने, मुसलिम इलाकों के रूट, मसजिद, प्रशासन की लापरवाही, हिंसा और दंगा. इसे इस तरह सम िझए-

करौली, राजस्थान : हिंदूवादी समूह द्वारा 2 अप्रैल, 2022 को नवरात्र और नव संवत्सर के मौके पर जुलूस का आयोजन किया गया. जब यह जुलूस मुसलिम बहुल इलाका हटवारा से गुजरा. शामिल लोगों ने कथित तौर पर सांप्रदायिक गालियां दीं और स्थानीय निवासियों के लिए आपत्तिजनक अपशब्द कहे. इस के तुरंत बाद सांप्रदायिक हिंसा शुरू हो गई. पथराव, आगजनी और संपत्ति के नुकसान की सूचना.

खरगौन, मध्य प्रदेश : विवाद मसजिद के बाहर डीजे बजाने को ले कर उत्पन्न हुआ. बताया जा रहा है कि रामनवमी का जुलूस पूर्व निर्धारित तालाब चौक के रास्ते निकलना था. जुलूस ने तय रूट के बजाय नया रूट लिया और एक मसजिद के सामने रोक कर लोगों ने डीजे की धुन पर नाचना शुरू कर दिया. भ्रामक नारे, गालीगलौज और जुलूस में डीजे पर भौंडे गाने बजाने के बाद जम कर पत्थरबाजी. पुलिस को आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े तो वहीं पैट्रोल पंप का भी भरपूर उपयोग किया गया. कई घरों और दुकानों में आग लगा दी गई.

गुजरात : रामनवमी के मौके पर निकाली जा रही यात्रा के दौरान 2 समूहों में विवाद के बाद  झड़प हो गई. खंभात में हुई हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हो गई. पुलिस अधीक्षक अजीत राजन के मुताबिक, हिंसा के दौरान जम कर पथराव हुआ और स्थिति को नियंत्रण में करने के लिए पुलिस को आंसू गैस के गोले तक छोड़ने पड़े. वहीं हिम्मतनगर में 2 समुदायों के लोग आपस में भिड़ गए और वाहनों व दुकानों में तोड़फोड़ कर भारी नुकसान पहुंचाया. इस के अलावा 11 अप्रैल को भी वडोदरा के पुराने शहर इलाके में एक सड़क दुर्घटना के बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा में कई लोग घायल हुए.

झारखंड : रामनवमी के मौके पर  झारखंड में भी एक नहीं, बल्कि 2 शहरों में हिंसा की खबरें सामने आईं. यहां के बोकारो और लोहरदगा में सांप्रदायिक हिंसा की सूचना मिली. यह भी जुलूस के बाद घटित हुई घटनाएं थीं. वहीं दूसरी ओर लोहरदगा में दंगाइयों ने कई वाहनों को आग के हवाले किया और जम कर पथराव किया, जिस में कई लोग घायल हो गए.

पश्चिम बंगाल : पश्चिम बंगाल में भी रामनवमी के मौके पर निकाले जा रहे जुलूस के दौरान हिंसा का मामला सामने आया. इस घटना की राज्यस्तरीय जांच शुरू कर दी गई है.

आंध्र प्रदेश : 16 अप्रैल को ही आंध्र प्रदेश के कुरनूल में हनुमान जन्मोत्सव के दौरान निकाले जा रहे एक जुलूस में

2 समूहों के बीच विवाद हो गया. विवाद इतना बढ़ा कि दोनों ओर से पथराव शुरू कर दिया गया. इस हमले में कम से कम 15 लोगों के घायल होने की खबर है. रिपोर्ट के मुताबिक, लाउडस्पीकर की आवाज को ले कर यह पूरा विवाद शुरू हुआ था.

उत्तराखंड : रुड़की में हनुमान जयंती के मौके पर निकाली गई शोभायात्रा के दौरान पथराव, नारेबाजी और उग्र नारों की खबरें आईं. आरोप है कि जानबू झ कर मुसलिम इलाके से यात्रा निकाली गई. कथित रूप से घटना उस समय घटित हुई जब जुलूस भगवानपुर थाना क्षेत्र के डंडा जलालपुर गांव से गुजर रहा था. खबरों के अनुसार, अब मुसलिम परिवार वहां से पलायन करने को मजबूर किए जा रहे हैं.

दिल्ली : जहांगीरपुरी में निकाली गई हनुमान जयंती की शोभायात्रा में घटना तब घटी जब जुलूस तेज शोर करता हुआ मसजिद के पास पहुंचा. ऊपर की घटनाओं की तरह, एक विशेष समुदाय के लोगों को गालीगलौज करना, भड़काऊ नारे लगाना, उन्हें उकसाना. इस विवाद में भी 2 पक्षों के बीच कहासुनी होना, जिस के बाद पथराव का सिलसिला. जहांगीरपुरी के बी और सी ब्लाक में जहां सांप्रदायिक  झड़पें हुईं, वहां मछली बेचने वाले, मोबाइल मरम्मत करने वालों की दुकानें और कपड़े के खुदरा विक्रेताओं सहित एक मजदूर वर्ग की आबादी रहती है.

सवाल जिन के जवाब नहीं

इन घटनाओं के बाद कुछ सवाल सामने हैं जिन के जवाब न तो सरकार में बैठा कोई नुमाइंदा देने को तैयार है और न ही प्रशासन में. जैसे- अलगअलग इलाकों में आरएसएस, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद् व अन्य हिंदूवादी संगठनों द्वारा निकाले गए धार्मिक जुलूसों में लहराए गए गैरकानूनी हथियारों (तलवारें, बंदूक, चाकू) की परमिशन किस ने दी? लगभग सभी जुलूसों का रास्ता मुसलिम बहुल इलाकों और मसजिदों के आगे से क्यों निकाला गया? इस रूट की मंशा क्या थी? जब ये जुलूस निकाले जा रहे थे तब प्रशासन क्या कर रहा था? इन जुलूसों के लिए क्या उचित परमिशन ली गई (जैसा पुलिस के अनुसार, जहांगीरपुरी जुलूस की परमिशन नहीं ली गई)? जब मसजिदों के आगे जानबू झ कर होहल्ला मचाया जा रहा था और उकसाऊ नारे लगाए (हिंदुस्तान में रहना होगा तो जय श्रीराम कहना होगा, नोट- इस में धर्म विशेष के खिलाफ गालियां भी शामिल हैं) जा रहे थे, तब प्रशासन क्या कर रहा था? हिंसा के बाद प्रशासन की कार्यवाही एकतरफा क्यों दिखाई दे रही है? इतना सब हो जाने के बाद प्रधानमंत्री की तरफ से कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं आई है?

ये महज कुछ घटनाएं हैं, जो हाल के दिनों में मुख्यधारा में जगह बना पाईं. ऐसी ही गोवा, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक में भी घटनाएं घटीं, जिन्होंने भारत की एकता और भाईचारे को तोड़ने का काम किया. अब इन सभी घटनाओं में क्या हुआ, कैसे हुआ, किस ने पहले पत्थर फेंका, यह सब निष्पक्ष जांच का विषय है, पर, यकीनन सिलसिलेवार घटी ये सभी घटनाएं किसी बड़ी योजना का हिस्सा जरूर दिखाई देती हैं, जिस का नैरेटिव काफी पहले से गढ़ा जा रहा है और खमियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है.

29 मार्च को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में जानकारी दी कि देशभर में पिछले 4 वर्षों में सांप्रदायिक दंगों से जुड़े 3,400 केस दर्ज किए गए हैं. यह आंकड़ा 2016 से 2020 के बीच का है. इन 4 वर्षों के दौरान दंगों से जुड़े 2.76 लाख केस रजिस्टर किए गए. अब सोचने वाली बात यह है कि ये घटनाएं क्या अपनेआप ही घटती चली गईं या इस के लिए लगातार माहौल बनाने की कोशिश की गई?

नफरती बयानों की बाढ़

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर साल धारा 153ए (हेट स्पीच) के तहत दर्ज होने वाले मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है. जहां 2014 में देश में हेट स्पीच के कुल 336 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2020 में 1,804 मामले दर्ज हुए हैं. यानी 7 वर्षों में हेट स्पीच के मामले 6 गुना तक बढ़ गए हैं. वहीं इन मामलों में कन्विक्शन रेट घटता जा रहा है. अधिकतर मामलों में नफरत फैलाने वाले बरी हो जा रहे हैं.

हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने 2020 के दिल्ली दंगों में अनुराग ठाकुर द्वारा दी गई हेट स्पीच (देश के गद्दारों को…) पर सुनवाई करते हुए कहते हुए कहा, ‘चुनाव के दौरान दिए गए भाषण सामान्य समय में दिए गए भाषणों से अलग होते हैं क्योंकि चुनाव के दौरान नेता बिना किसी विशेष इरादे के अपनी रैलियों में अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करते हैं.’

इस के आगे कोर्ट ने कहा, ‘चुनावी भाषण में नेताओं द्वारा नेताओं के लिए कई चीजें कही जाती हैं और वे गलत हैं. लेकिन हमें किसी भी घटनाक्रम की आपराधिकता को देखना होगा. अगर आप कुछ मुसकरा कर कह रहे हैं तो इस में कोई अपराध नहीं है. लेकिन अगर आप कुछ आक्रामक तरीके से कह रहे हैं, तो यह जरूर (अपराध) है.’ जाहिर है कोर्ट की यह टिप्पणी गले उतरने लायक बिलकुल नहीं और इन चीजों से ही असामाजिक तत्त्वों को शह मिल रही है.

पिछले दिनों सिलसिलेवार चले नफरती बयान सरकार के समर्थन और कोर्ट की इसी चुप्पी का नतीजा हैं. देश के अलगअलग राज्यों में धर्म संसद आयोजित की गईं. यह सब प्रशासन की देखरेख में हुए. रामनवमी के दिन कट्टरवादी हिंदू नेता साध्वी ऋतंभरा ने हिंदुओं से अपील करते हुए कहा, ‘‘हिंदू बंधुओ, दो नहीं चार संतानें पैदा करो. अगर ऐसा हो जाएगा तो देश हिंदू राष्ट्र बन जाएगा.’’ इस बयान को न सिर्फ मुसलिमों को डराने के लिए कहा गया, बल्कि महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मशीन सम झने और घरों में कैद रहने की साजिश के तौर पर कहा गया.

ऐसा ही कुछ हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले के मुबारकपुर में 3 दिवसीय ‘धर्म संसद’ के पहले दिन हिंदू कट्टरपंथी यति सत्येवानंद सरस्वती ने कहा, ‘‘देश में मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या हिंदुओं के पतन का संकेत है. हिंदुओं को अपने परिवारों को मजबूत करना चाहिए. उन्हें अपने परिवारों, मानवता और सनातन धर्म की रक्षा के लिए अधिक बच्चों को जन्म देना चाहिए.’’

पिछले 6 महीनों के भीतर इस तरह के बयानों की  झड़ी लग गई है. फिर चाहे वह हरिद्वार, छतीसगढ़, दिल्ली की धर्मसंसद हो या जंतरमंतर और धार्मिक आयोजनों के मंचों से खुले सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के बयान हों, जिन में महात्मा गांधी तक को गालियां दी गई हैं, गोडसे को राष्ट्रभक्त कहा गया है, महिलाओं पर टिप्पणियां की गई हैं. इस पूरे मामले में सत्ता पक्ष के नेताओं की तरफ से उचित कार्यवाही करने की जगह आरोपियों के समर्थन में बयान दिए गए हैं. वहीं केंद्र व भाजपाशासित राज्य सरकारों द्वारा चीजों को सुधारने की जगह भड़काने की कोशिशें की गई हैं, फिर चाहे वह मध्य प्रदेश में महज आरोप के आधार पर एकतरफा घरों को उजाड़ना हो, या दिल्ली के जहांगीरपुरी में बदले की भावना से गैरकानूनी ढंग से गरीब मुसलिमों की दुकानों को अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ना हो.

थ्योरी औफ नौर्मलाइजेशन

आज देश की जनता को इस का विरोध कर सड़कों पर आना चाहिए था, सरकार के खिलाफ बगावत करनी चाहिए थी, पर वह या तो इन कार्यवाहियों की खुली समर्थक बन बैठी है या शिथिल हो चुकी है, या सहम गई है. यही भाजपा की सब से बड़ी जीत है कि उस ने देश की अधिकतर जनता को पंगु और मानसिक गुलाम बना दिया है और ऐसी भयानक घटनाओं को नौर्मलाइज्ड (सामान्यीकरण) कर दिया है जो लोकतंत्र के लिए घातक है.

उदाहरण के लिए, आरोप साबित होने से पहले सजा दे देना (बुलडोजर कार्यवाही) यह तानाशाही का परिचायक है जिसे लोगों ने हाथोंहाथ स्वीकार कर लिया है. भाजपा ने अपने विरोधियों की राजनीति पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है. आंदोलनकारियों को सहमा दिया है और जनता को तटस्थ या समर्थक बना दिया है.

यह बिना नैरेटिव चलाए संभव नहीं. दार्शनिक मिशेल फूको ने अपनी थ्योरी ‘नौरमलाइजेशन’ में इस बात को इंगित किया था कि सत्ता में बैठे लोग, जिन के पास ताकत होती है, वे अपने एजेंडे के लिए लगातार नैरेटिव चलाते हैं. लोग क्या सोचें क्या नहीं, क्या चीज नौर्मल होगी क्या नहीं, यह सब डिसाइड करते हैं. उदाहरण के लिए आज से 10 साल पहले खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलाया जाना अच्छा माना जाता था और धार्मिक कट्टर कहलाया जाना बुरा. आज धर्मनिरपेक्ष कहलाया जाना बुरा माना जा रहा है और धार्मिक कट्टर कहलाया जाना अच्छा.

इसी प्रकार अपने एजेंडे तक पहुंचने के लिए भाजपा लगातार कुछ न कुछ नैरेटिव जनता के बीच उछालती है. वह लगातार अपने एजेंडे पर अग्रसर है. उस के लिए जरूरी नहीं कि चुनाव हों या नहीं, वह विवादित मुद्दों के केंद्र में हमेशा बने रहना भी चाहती है. उदाहरण के तौर पर पिछले 2 महीनों में हिजाब विवाद, मुसलिम ट्रेडर का बहिष्कार, हलाल,  झटका, नवरात्र में मीट बैन, चारधाम यात्रा में गैर हिंदुओं पर रोक इसी के क्रम दर्शाते हैं. इस के अलावा भाजपा ने अपने खिलाफ उठने वाले विरोधों की आवाज को कुचलने का काम किया है. सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर प्रशासनिक हमले बढ़ रहे हैं.

ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले 8 सालों में भाजपा ने बहुत तेजी से अपने लक्ष्य बदले हैं. उस ने जनता के दिमाग को बुरी तरह कैप्चर किया है. जैसे 2014 में भाजपा जब सरकार में आई थी तब उस ने जनता के बीच विकास का नैरेटिव दिया, जिस में महंगाई कम करना, भ्रष्टाचार खत्म करना, सब का साथ सब का विकास, अच्छे दिन, गरीबों का उत्थान और देश को मजबूत बनाना शामिल था.

2016 में जेएनयू तथाकथित ‘देशद्रोह’ प्रकरण के बाद देश को राष्ट्रवाद का नैरेटिव दिया. देशभक्त और देशद्रोही की बहस चलाई गई. फिर 2019 का पूरा चुनाव राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ा गया. अब 2022 आतेआते उस ने हिंदूराष्ट्र का नैरेटिव देना शुरू कर दिया है, जिस का पहला आधार मुसलिमों के नागरिक व सामाजिक अधिकारों को छीन कर उन्हें अलगथलग करना है.

पूंजी, मीडिया और तंत्रमंत्र का साथ

अपने नैरेटिव जनता के दिमाग में डालने के लिए भाजपा के पास तमाम संसाधन मौजूद हैं. एसोसिएशन फौर डैमोक्रेटिक रिफौर्म्स (एडीआर) द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को वित्त वर्ष 2019-20 में सब से ज्यादा 720.407 करोड़ रुपए कौर्पोरेट चंदा मिला. जिस के मुकाबले में कांग्रेस को 154 कौर्पोरेट दाताओं से 133.04 करोड़ का चंदा मिला. यह दिखाता है कि उद्योगपतियों का  झुकाव भारत में मोदी की तरफ है.

इस रिपोर्ट के अनुसार, इस समय बीजेपी देश की सब से अमीर पार्टी है, जिस ने वित्तवर्ष 2019-20 के लिए 4,847 करोड़ की संपत्ति घोषित की है. दूसरे नंबर पर मायावती की बसपा 698.33 करोड़ रुपए की संपत्ति के साथ है. तीसरे नंबर पर कांग्रेस है. उस के पास 588.16 करोड़ रुपए की संपत्ति है. इसी अनुपात में भाजपा के खर्चों में बढ़ोतरी हुई है. तथ्य यह है कि महज 42 सालों के भीतर ही भाजपा सब से अमीर पार्टी बन चुकी है. यह दिखाता है कि कौर्पोरेट और अमीरों ने किस तरह से भाजपा पर अपना प्यार लुटाया है. यह प्यार एकतरफा तो लुट नहीं सकता, इसलिए पिछले 8 सालों में देश की सरकारी संपत्ति इस प्यार की कीमत चुका रही है.

क्रिस्टोफ जैफ्रीलोट अपनी किताब ‘मोदीज इंडिया : हिंदू राइज एंड राइज औफ एथनिक डैमोक्रेसी’ में लिखते हैं, ‘‘भारत में अमीर और अमीर बन गए हैं. सरकार की कर नीति ने इस प्रवृत्ति को ठीक करने के बजाय इसे और मजबूत किया है.’’ क्रिस्टोफ मानते हैं कि इस में क्रोनिज्म (तरफदारी नीति) का मामला है. कुछ लोग अमीर से और अमीर हुए, इस में मोदी सरकार और उद्योगपतियों के बीच करीबी संबंध होना शामिल है.

भाजपा के नैरेटिव को जनता के ऊपर थोपने में मीडिया बड़ी भूमिका अदा कर रही है. आज मुख्यधारा की मीडिया मोदीशाह के नियंत्रण में है. जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाना, भाजपा प्रचारक की भूमिका निभाना और विपक्ष को निशाने पर लेना मीडिया का रोल रह गया है. पक्षपाती मीडिया का उदाहरण हर शाम प्राइम टाइम पर देखने को मिल जाता है. कैसे धार्मिक विषयों को उठा कर सामाजिक द्वेष को बढ़ावा दिया जाता

है. जो मीडिया संस्थान सरकार की आलोचना करता है उसे तरहतरह से परेशान करने के उदाहरण बीते सालों से लगातार देखने को मिल रहे हैं. इस के साथ ही भाजपा का आईटी सैल सोशल मीडिया पर अपने अन्य विशाल सह संगठनों के साथ मिल कर योजनाबद्ध तरीके से  झूठी या आधीअधूरी एकतरफा खबरों का प्रचारप्रसार करती है. इस में व्हाट्सऐप ग्रुप, फेसबुक ट्रोलिंग सामान्य बन चुकी हैं.

भाजपा के नैरेटिव को बढ़ाने में सब से अधिक कारगर वह पारंपरिक व्यवस्था है जिस के घेरे में लगभग हर हिंदू परिवार फंसा है. इस में दानदक्षिणा पर निर्भर मंदिरों में बैठे पंडेपुजारी मुफ्त में सदियों से भाजपा के एजेंडे का प्रचार करते रहे हैं. डील यही कि देश में ऐसे लोगों की जमात बढ़े जो धर्मकर्म के कार्यों में अधिक से अधिक शामिल हो, जो डरीसहमी हो, जिसे बारबार मंदिर आने की जरूरत हो, जो धर्म के मकड़जाल में इतनी घिरी हुई हो कि दानदक्षिणा करे, चढ़ावा चढ़ाए. इसी तबके से हिंदूराष्ट्र बनाने की मुखर आवाज आ रही है. संविधान को बदलने की मांग भी यही तबका जोरशोर से कर रहा है. वजह यह है कि एक को सत्ता भोगने का सुख मिले तो दूसरे को दानदक्षिणा का सुख. यही कारण है कि दिनरात ‘हिंदू खतरे में हैं’, ‘मुसलिम राज आ जाएगा’, ‘4 बच्चे पैदा करो’ की रट लगाई जाती है.

एंटी सिमिटिज्म की शुरुआत तो नहीं

जरमनी में जब फासीवादी हिटलर का राज था, तब प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स की एक बात मशहूर थी, ‘किसी  झूठ को इतनी बार कहो कि वह सच बन जाए और सब उस पर यकीन करने लगें.’ वहां यहूदियों को अलगथलग करने के लिए तमाम भ्रामक प्रचार किए गए. ऐसी जानकारियां फैलाई गईं जो कुछ ही सच, बाकी भ्रामक होतीं, ताकि लोग इन बातों पर आसानी से विश्वास कर लें, यहूदियों के खिलाफ पूर्वाग्रह, नफरत, द्वेष फैलाया गया. नाजियों द्वारा लगातार यहूदियों के खिलाफ मुद्दे उछाले गए जिस से जनमानस में एंटी सिमिटिक विचार हावी होने लगे. यह इसलिए क्योंकि वहां के शासक ऐसा चाहते थे, पर जैसे धुंध हटने के बाद सबकुछ साफ नजर आने लगता है वैसे ही हिटलर के मरने के बाद वहां आम लोगों को सम झ आया कि हिटलरभक्ति और यहूदियों से नफरत ने उन्हें कितना अंधा बना दिया था कि वे सहीगलत नहीं सम झ पाए और आज वे किस बरबादी पर खड़े हैं.

भारत में भी एंटीसिमिटिक दौर की शुरुआत होना कहना गलत नहीं होगा, क्योंकि इस समय मुसलिमों के खिलाफ कई प्रकार के पूर्वाग्रह तेजी से फैलाए जा रहे हैं, जैसे मुसलिम देश के प्रति वफादार नहीं हो सकते, वे 20-20 बच्चे पैदा करते हैं, वे हिंदू महिलाओं को अपने प्यार में फंसा कर जबरदस्ती धर्मांतरण कराते हैं, देश में मुसलिम अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं जिस से एक दिन मुसलिम राज स्थापित हो जाएगा, मुसलिम बाहरी हैं, मुसलिम नौकरियां खा रहे हैं, जमीनों को हड़प रहे हैं इत्यादि.

जाहिर है, ये सब नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं ताकि मूल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके. जैसा कि पिछले कुछ समय से लगातार देखने को मिल रहा है, केंद्र सरकार रोजगार के अवसर पैदा करने में विफल रही है. बल्कि जो बचे रोजगार थे उन पर भी वह चोट पहुंचाने का काम कर रही है. छोटा और मध्यम क्षेत्र, भारतीय रोजगार के सब से बड़े दाता, 2016 में हुए नोटबंदी के बाद से लड़खड़ा गए हैं और बाद में जीएसटी व लौकडाउन जैसे आघातों का सामना करना पड़ा है.

कई आंकड़ों से पता चलता है कि मोदीकाल में अमीर अधिक अमीर हुए हैं, गरीबों और अतिगरीबों की संख्या में इजाफा हुआ है. अमीरीगरीबी की खाई बढ़ी ही है. महंगाई की बात करें तो थोक और खुदरा दोनों प्रकार की महंगाई में महीनेदरमहीने इजाफा हो रहा है. कंज्यूमर प्राइस इंडैक्स (सीपीआई) पर आधारित खुदरा महंगाई नवंबर

में 4.9 फीसदी के स्तर पर पहुंच चुकी है. आम लोगों के लिए यह  इजाफा परेशान करने वाला है. वहीं दूसरी ओर होलसेल प्राइस इंडैक्स (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित थोक महंगाई को देखें तो यह पिछले 12 साल के उच्च स्तर पर पहुंच चुकी है. इस का स्तर डराने वाला है. फिलहाल देश में थोक महंगाई 14.23 फीसदी के स्तर पर है.

भारत में पिछले दिनों कई राज्यों में हुई सांप्रदायिक हिंसा को ले कर रिजर्व बैंक औफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने देश को आगाह किया. रघुराम राजन ने कहा कि दुनिया में देश की बन रही अल्पसंख्यक विरोधी छवि भारतीय प्रोडक्ट्स के लिए बाजार को नुकसान पहुंचा सकती है. उन्होंने कहा कि भारत की ऐसी इमेज बनने के चलते विदेशी सरकारें राष्ट्र पर भरोसा करने में हिचकिचा सकती हैं. हो सकता है कि निवेशक आप को एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में न देखें.

इस के ठीक पहले मुसलिम दुकानदारों के बहिष्कार की मांग पर भारत की ओर दुनिया की शीर्ष बायोटेक कंपनियों में से एक, बायोकौन की संस्थापक व प्रमुख किरण मजूमदार शा के बयान ने आपति जाहिर की. इस से व्यापार पर पड़ने वाले नुकसान को ले कर चेताया. उन का बयान एक ट्वीट में आया, उन्होंने कहा, ‘‘कर्नाटक ने हमेशा समावेशी आर्थिक विकास किया है और हमें इस तरह

के सांप्रदायिक बहिष्कार (मुसलिम वैंडर की दुकानों के बहिष्कार) की अनुमति नहीं देनी चाहिए. अगर आईटीबीटी (सूचना प्रौद्योगिकी और

जैव प्रौद्योगिकी) सांप्रदायिक हो गई तो यह हमारे वैश्विक नेतृत्व को नष्ट कर देगी. मुख्यमंत्रीजी, कृपया इस बढ़ते धार्मिक विभाजन को हल करें.’’

जाहिर है, नफरत और हिंसा का यह माहौल न केवल भारतीय मुसलमानों के लिए एक संकट ले कर आया है बल्कि भारत के बहुसंख्यक हिंदू आबादी के लिए भी कम खतरनाक नहीं है. भारत की छवि विश्व मंच पर खराब हो रही है, जिस से कंपनियां भारत में आने से हिचकिचा रही हैं.

श्रीलंका आज इस का सब से बड़ा उदाहरण बन कर हमारे सामने खड़ा है. वहां राजपक्षे सरकार की खराब आर्थिक नीतियों के चलते देश की पूरी अर्थव्यवथा चौपट हो गई. महंगाई इतनी बढ़ गई कि हर तरफ त्राहित्राहि मच गई.

यह सब इसलिए कि हालात को सुधारने की जगह राजपक्षे ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत,  झूठी देशभक्ति और भ्रम को हथियार बनाया.

आज वहां लोगों की आंखें खुलीं तो हालात नियंत्रण से बाहर हो चले हैं, इतने बाहर कि सड़क पर उतरे प्रदर्शनकारियों ने कुरुनेगला शहर स्थित राजपक्षे परिवार के पैतृक घर में भी आग लगा दी. इस के अलावा प्रदर्शनकारियों ने कई नेताओं के घरों को भी आग के हवाले कर दिया.

ऐसे ही आज भारत में महंगाई की मार हिंदूमुसलिम दोनों पर पड़ रही है. महिला उत्पीड़न के मामले दब रहे हैं तो हिंदू महिलाओं को इसे अधिक  झेलना पड़ रहा है. बेरोजगारी दोनों समुदायों के युवा  झेल रहे हैं. सरकारी नौकरियों में कटौती सभी पर भारी पड़ रही है. भाजपा व हिंदूवादी संगठनों का फैलाया यह नैरेटिव मुसलिमविरोधी से कहीं अधिक जनताविरोधी हो चला है. अगर देश में यही हालात रहे तो भारत को श्रीलंका बनने में देर न लगेगी.

एक गलती- भाग 2: क्या उन समस्याओं का कोई समाधान निकला?

फिर उस ने अपनी सारी दवाएं उठा कर फेंक दीं और जो कुछ उस के खाने के लिए आया था उसे भी हाथ नहीं लगाया. मैं उसे असहाय सी खड़ी देख रही थी. मैं ने डरतेडरते आशीष को फोन मिलाया.

आशीष बोले, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘संकर्षण ने दवाएं फेंक दी हैं और खाना भी नहीं खा रहा है,’’ मैं ने कहा.

आशीष झल्ला कर बोले, ‘‘तो मैं क्या करूं?’’ और फोन काट दिया.

मैं ने संकर्षण को समझाने की कोशिश की ‘‘प्लीज, ऐसा मत करो. ऐसे तो तुम्हारी तबीयत और खराब हो जाएगी. तुम ठीक हो जाओ. मैं तुम्हारे सारे प्रश्नों के उत्तर दूंगी, अभी तुम मेरी बात समझ नहीं पाओगे.’’

‘‘क्या नहीं समझ पाऊंगा? इतना बच्चा नहीं हूं मैं. आप क्या बताएंगी? यही न कि मेरी कोई गलती नहीं थी. मैं  रेप का शिकार हुई थी. कम से कम यही बता दीजिए ताकि आप के प्रति मेरी नफरत कुछ कम हो सके, वरना इस नफरत से मेरे अंदर ज्वालीमुखी धधक रहा है.’’

मैं कैसे कह दूं यह, जबकि मुझे पता है कि मेरे साथ कोई रेप नहीं हुआ था और न ही हम दोनों अपने पार्टनर के प्रति बेवफा थे. यह बिलकुल सत्य है कि उस एक घटना के अलावा हम लोगों के मन में कभी एकदूसरे के प्रति और भाव नहीं आए. हम एकदूसरे का उतना ही आदर करते रहे जितना इस घटना के पहले करते थे, पर इस बात को संकर्षण समझ पाएगा भला? संकर्षण ही क्या आशीष भी इस बात को समझ पाएंगे क्या?

मेरा ऐसा सोचना गलत भी न था. तभी तो 2 दिन बाद आशीष ने मुझ से पूछा, ‘‘संकर्षण के पिता गगन ही हैं न?’’

मैं ने कहा, ‘‘पहले मेरी बात तो सुनिए.’’

‘‘मुझे और कुछ नहीं सुनना है, तुम मुझे केवल यह बताओ के संकर्षण के पिता गगन ही है न?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

यह सुनते ही आशीष जैसे पागल हो गए. मुझ पर चिल्लाए, ‘‘नीच हो तुम लोग. जिन पर मैं ने जिंदगी भर विश्वास किया, उन्हीं लोगों ने मुझे धोखा दिया. मुझे इस की आदतें, शक्ल गगन से मिलती लगती थी, पर फिर भी मैं कभी संदेह न कर सका तुम दोनों पर…मेरे इस विश्वास का यह सिला दिया… तुम ने क्यों किया ऐसा?’’ और फिर गुस्से से आशीष ने मेरी गरदन पकड़ते हुए आगे कहा, ‘‘जी तो कर रहा है, तुम्हें मार का जेल चला जाऊं ताकि फिर कोई पत्नी पति को धोखा देने से पहले 10 बार सोचे, पर तुम इतनी नीच हो कि तुम्हें मारने का भी मन नहीं कर रहा है. उस से तुम्हारी तुरंत मुक्ति हो जाएगी जबकि मैं यह नहीं चाहता. मेरी इच्छा है तुम तिलतिल कर मरो,’’ और फिर आशीष ने मेरी गरदन छोड़ दी.

उधर संकर्षण अपने पिता का नाम जानने की जिद लगाए बैठा था. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उसे गगन का नाम कैसे बता दूं…मुझे पता था कि वह उन की बहुत इज्जत करता है. उन के साथ बिताए सारे सुखद क्षणों की स्मृतियां संजोए हुए है.

अगर वे भी उस से छिन गईं तो कैसे जीएगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. इधर कुआं तो उधर खाई. न बताने पर तो वह केवल अवसादग्रस्त है, बताने पर कहीं अपनी जान ही न दे दे. दवा न खाने और अवसादग्रस्त होने से संकर्षण की हालत 2 दिनों में और ज्यादा बिगड़ गई. उसे मानोवैज्ञानिक चिकित्सा की आवश्यकता पड़ गई. इधर गगन का कुछ भी पता न था. वे क्या कर रहे हैं, कहां हैं, किसी को कोई जानकारी न थी.

एक दिन मैं ने डरतेडरते आशीष से कहा, ‘‘गगन का पता लगाइए वरना संकर्षण का इलाज नहीं हो पाएगा.’’

‘‘मैं कैसे पता लगाऊं? तुम अनपढ़ हो क्या?’’ और फिर पैर पटकते हुए चले गए.

कुछ समझ में नहीं आ रहा था. पलपल अपनी आंखों के सामने अपने बच्चे को मरता देख रही थी. जिंदगी में अनजाने में हुई एक गलती का इतना बड़ा दुष्परिणाम होगा, सोचा न था.

फिर मैं ने सारे संबंधियों, दोस्तों को ई-मेल किया, ‘‘संकर्षण बहुत बीमार है. उस की बीमारी डीएनए टैस्ट से पता चलेगी. अत: गगन जहां कहीं भी हों तुरंत संपर्क करें.’’

अंजन और अमिता भी संकर्षण को देखने आ गए थे. वीकैंड था वरना रोज फोन से ही हालचाल पूछ लेते थे. आज की जिंदगी में इनसान इतना व्यस्त रहता है कि अपनों के लिए ही समय नहीं निकाल पाता है. आते ही थोड़ा फ्रैश होने के बाद अमिता और अंजन दोनों ने एकाएक पूछा, ‘‘क्या बात है मम्मीपापा, आप दोनों बहुत परेशान नजर आ रहे हैं?’’

आशीष यह प्रश्न सुन कर वहां से उठ कर चले गए.

‘‘मम्मी इन्हें क्या हुआ?’’ अंजन ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं बेटा, संकर्षण की ही बीमारी को ले कर हम परेशान हैं.’’

‘‘यह बीमारी का तनाव आप लोगों के चेहरे पर नहीं है. कुछ और बात है…हम लोग इतने बच्चे भी नहीं हैं कि कुछ समझ न सकें. सच बात बताइए शायद हम लोग कोई हल निकाल सकें.’’

मुझे बच्चों की बातों से कुछ आशा की किरण नजर आई, लेकिन फिर मन में संदेह हो गया कि जब आशीष कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं, तो बच्चे क्या खाक मेरी बात समझेंगे? फिर बताना तो पड़ेगा ही, सोच मैं ने बच्चों को सारी बात बता दी.

आज की पीढ़ी शायद हम लोगों से ज्यादा समझदार है. सारी स्थिति का विश्लेषण करती है और फिर कोई निर्णय लेती है.

वे दोनों कुछ देर के लिए एकदम गंभीर हो गए, फिर अमिता बोली, ‘‘तभी हम लोग समझ नहीं पाते थे कि संकर्षण हम लोगों से इतना भिन्न क्यों है? हम लोग इस का कारण उस की परवरिश मानते थे पर सच तो कुछ और ही था.’’

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