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मैंने लव मैरिज की है पर मेरे घरवाले दूसरी शादी करवाना चाहते हैं, मुझे क्या करना चाहिए ?

सवाल

मैं पिछले 3 सालों से एक लड़के के साथ संबंध बनाए हुए हूं. हमारे घर वाले इस रिश्ते के खिलाफ थे, इसलिए हम ने चुपके से मंदिर में शादी कर ली. मेरे जन्म प्रमाणपत्र के अनुसार मैं अब 18 वर्ष की हुई हूं जबकि वैसे मेरी उम्र 18 वर्ष से ज्यादा है. यही कारण था कि हम कोर्ट मैरिज नहीं कर पाए. अब मेरे घर वाले मेरी शादी कहीं और करने वाले हैं. कृपया बताएं मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब

आप की उम्र अभी इतनी नहीं हुई कि आप जीवन का इतना अहम फैसला ले सकें. इस के अलावा मंदिर में चोरीछिपे शादी कर लेने को वैध नहीं माना जाएगा. इसलिए घर वालों की मरजी से शादी कर लें. वे आप की भलाई ही चाहेंगे.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

Monsoon Special: घर पर ऐसे बनाइए टेस्टी कॉर्न पालक रोल

हरी पत्तेदार सब्जियां स्वास्थ्य के लिए सब से अच्छी मानी जाती हैं. ये आप के शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को तो बढ़ाती ही हैं, वजन को भी संतुलित रखती हैं. पत्तेदार सब्जियां त्वचा में निखार लाने का काम भी करती हैं. महिलाओं के लिए ये बेहद जरूरी होती हैं क्योंकि इन सब्जियों में आयरन की अच्छी मात्रा होती है. कई बार बच्चों और बड़ों को पत्तेदार सब्जियां पसंद नहीं आतीं, लेकिन जरा सा रंगरूप बदल कर परोसा जाए तो ये लाजवाब हो जाती हैं.

  1. कौर्नपालक रोल

सामग्री :

100 ग्राम कौर्न, 15 से 20 पालक की बड़ी पत्तियां, 1/2 छोटा चम्मच लालमिर्च पाउडर, 1/2 बड़ा चम्मच हरी धनियापत्ती बारीक कटी, 1/2 छोटा चम्मच चाटमसाला, 5 बड़े चम्मच कौर्नफ्लोर, 2 बड़े चम्मच सूजी, 2 बड़े चम्मच बेसन, 2 बड़े चम्मच मैदा, 50 ग्राम पनीर और तलने के लिए तेल.

विधि :

-कौर्न को थोड़ा सा क्रश कर लें. एक बाउल में कौर्न और पनीर कद्दूकस कर लें.

-लालमिर्च, धनिया, चाटमसाला और नमक डालें. अच्छी तरह मैश कर लें.

-एक बाउल में मैदा, सूजी, कौर्नफ्लोर, बेसन और नमक मिक्स कर लें और पानी की मदद से गाढ़ा घोल तैयार करें.

-पालक के पत्ते के बीच में कौर्न का भरावन करते हुए सावधानी से रोल कर लें.

-कौर्नफ्लोर के घोल में डुबो कर तल लें. ऊपर से जरा सा चाटमसाला बुरक लें और हरी चटनी या सौस के साथ सर्व करें.

2. हरियाला परांठा

सामग्री :

250 ग्राम बारीक कटा सरसों का साग (सिर्फ पत्ते), 1/2 कप उबले हुए काले चने, 1/4 छोटा चम्मच अजवायन, 2 बारीक कटी हरीमिर्चें, 1/2 बड़ा चम्मच बारीक कटा अदरक, 1 कप गुंधा हुआ आटा, नमक स्वादानुसार और परांठे में लगाने के लिए देसी घी.

विधि :

-एक पैन में आधा चम्मच घी डालें. इस में सरसों के पत्ते डालें. नमक डालें. सरसों के साग को तेज आंच पर

-सूखा होने तक भून लें ताकि उस का सारा पानी सूख जाए.

-उबले मैश किए चने व अजवायन डाल दें और आंच बंद कर दें.

-हलका ठंडा होने दें. फिर हरीमिर्च और अदरक डाल दें.

-आटे की बड़ीबड़ी लोई बनाएं.

-तैयार सामग्री लोई में थोड़ीथोड़ी भर कर परांठे बना लें. घी लगा कर करारी सिंकाई करें.

-सौस या अचार के साथ सर्व करें.

ये भी पढ़ें- ऐसे बनाएं कटहल का स्क्वैश

3. हरियाली मूंग

सामग्री :

1 कप साबुत हरा मूंग, 1 बड़ा चम्मच बारीक कटा अदरक, 2-3 सूखी लालमिर्च, 1/4 छोटा चम्मच मेथीदाना, 1/2 कप पालक का पेस्ट, 1/4 छोटा चम्मच गरम मसाला, 2 मध्यम आकार के बारीक कटे प्याज, 2 बारीक कटे टमाटर, 2 बड़े चम्मच कसूरी मेथी, 2 बड़े चम्मच कद्दूकस किया हुआ पनीर, 1 बड़ा चम्मच मलाई और 3 बड़े चम्मच तेल.

विधि :

-साबूत मूंग को पालक के आधे पेस्ट में पानी डाल कर अच्छी तरह से उबाल लें.

-पैन में तेल डालें. मेथीदाना डालें. सूखी लालमिर्च डालें. प्याज डाल कर सुनहरा होने तक भूनें.

-टमाटर और मलाई डालें. थोड़ा सा भूनें और पालक का बचा हुआ पेस्ट भी डाल दें.

-उबली हुई दाल डालें. गरममसाला डालें. कद्दूकस किया हुआ पनीर भी डाल दें.

-एकदो उबाल आने दें. अब कसूरी मेथी डाल दें.

-मलाई से सजाएं. नान या रोटी के साथ परोसें.

Monsoon Special: अदरक खाना भी हो सकता है खतरनाक जानें क्यों?

जी हां, अदरक चाय, सब्जी और दूसरी डिशेज बनाने के साथ-साथ पाचन दुरुस्त रहता है और इसमें मौजूद एंटीऑक्सीडेंट्स आपको कई बीमारियों से बचाते हैं. मगर कई ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं या स्थितियां हैं, जिनमें अदकर खाना आपके लिए नुकसानदायक हो सकता है.

पित्त में पथरी

पित्त की पथरी होने पर अदरक का सेवन खतरनाक हो सकता है. दरअसल अदरक के सेवन से शरीर में बाइल जूस (पाचक रस) ज्यादा मात्रा में बनना शुरू हो जाता है. पित्त की पथरी होने पर ये ज्यादा बाइल जूस का निर्माण खतरनाक हो सकता है. इसलिए ऐसी स्थिति में अदरक का सेवन न करें.

सर्जरी या औपरेशन

किसी सर्जरी या औपरेशन से 2 सप्ताह पहले आपको अदरक का सेवन बंद कर देना चाहिए. इसका कारण यह है कि अदरक का सेवन करने से रक्त पतला हो जाता है, जो सामान्य स्थिति में शरीर के लिए सही है. मगर सर्जरी के समय अदरक का सेवन करने से आपके शरीर से ज्यादा मात्रा में रक्त बह सकता है.

गर्भवती महिलाएं के लिए है हानिकारक

अदरक में ऐसे तत्व होते हैं, जो पाचन को बेहतर बनाते हैं. मगर प्रेग्नेंसी के दौरान अदरक का सेवन नहीं करना चाहिए. अदरक खाने से बच्चे का जन्म समय से पहले (प्रीटर्म बर्थ) हो सकता है, जो बच्चे की सेहत के लिए सही नहीं है. डौक्टर्स के मुताबिक आखिरी छठवें महीने के बाद अदरक का सेवन बेहद कम करना चाहिए. मौर्निंग सिकनेस से निजात पाने के लिए आप इसके छोटे-छोटे 2-3 टुकड़ों का सेवन कर सकते है.

दुबले-पतले लोग अदरक का सेवन कम करें

अगर आप दुबले-पतले हैं, तो आपको अदरक का सेवन कम करना चाहिए. अदरक में फाइबर होता है और ये शरीर के पीएच लेवल को बढ़ा देता है, जिससे भोजन को पचाने वाले एंजाइम्स एक्टिवेट हो जाते हैं. इससे आपका फैट तेजी से बर्न होता है और भूख कम लगती है, जिससे वजन कम होने लगता है. यही कारण है कि दुबले-पतले लोग थोड़ी मात्रा में अदरक का सेवन करें मगर बहुत ज्यादा सेवन करने से उनका वजन और भी कम हो सकता है. इसके उलट, जिन लोगों का वजन ज्यादा है, उन्हें अदरक का सेवन अधिक करना चाहिए.

करण जौहर को लेकर वरुण धवन ने खोला ये सीक्रेट, पढ़ें खबर

बॉलीवुड एक्टर  वरुण धवन अपनी एक्टिंग से दर्शकों के दिलों पर राज करते हैं.   अब वह फिल्म जुग जुग जियो में नजर आने वाले हैं. यह फिल्म करण जौहर के प्रोडक्शन हाउस के तले बनाया जा रहा है. एक्टर ने फिल्म के रिलीज से पहले करण जौहर के बारे में ऐसा स्टेटमेंट दिया है, जिसे सुनकर आप हैरान हो जाएंगे. आइए बताते है, क्या कहा है वरुण धवन ने..

दरअसल  वरुण धवन फिल्म जुग जुग जियो का प्रमोशन जोर-शोर से कर रहे हैं. एक इंटरव्यू के एक्टर ने बताया कि कैसे फिल्म में पॉप कल्चर है और ये सब करण जौहर की वजह से हुआ.

 

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एक रिपोर्ट के अनुसार, वरुण ने कहा है कि ‘करण जौहर यंग लोगों के साथ हैंगआउट करना पसंद करते हैं. वे अनन्या पांडे, सारा अली खान, जाह्नवी कपूर के साथ डिनर पर जाते हैं. तो वहीं एक्ट्रेस कियारा ने कहा कि करण और भी यंग लोगों के साथ टाइम स्पेंड करते हैं जैसे शनाया कपूर और सुहाना खान.

 

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आपको बता दें कि वरुण ने करण जौहर की फिल्म स्टूडेंट ऑफ द ईयर से ही बॉलीवुड डेब्यू किया था. वरुण के साथ-साथ सिद्धार्थ मल्होत्रा और आलिया भट्ट ने भी इसी फिल्म से बॉलीवुड में एंट्री ली.

 

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आदिवासी महिला नेता को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के पीछे क्या है बीजेपी की सोच?

अगले महीने की 25 तारीख को देश को नया राष्ट्रपति मिलेगा. 29 जून को नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख है. इसी बीच बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने घोषणा करते हुए कहा कि NDA ने झारखंड की राज्यपाल रह चुकीं द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है. राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनाए जाने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने द्रौपती मुर्मू को बधाई दी. साथ ही पीएम मोदी ने उम्मीद जताई कि वह देश की एक महान राष्ट्रपति साबित होंगी.

कौन है द्रौपदी मुर्मू?

द्रौपदी मुर्मू का जन्म 20 जून 1958 को ओडिशा में हुआ था. वह दिवंगत बिरंची नारायण टुडू की बेटी हैं. द्रौपदी मुर्मू ओडिशा से आनेवाली आदिवासी नेता हैं. उन्होंने 1997 में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की और तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. द्रौपदी मुर्मू 1997 में ओडिशा के राजरंगपुर जिले में पार्षद चुनी गईं. झारखंड की नौंवी राज्यपाल रह चुकीं द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के रायरंगपुर से विधायक रह चुकी हैं. वह पहली ओडिया नेता हैं जिन्हें राज्यपाल बनाया गया. इससे पहले बीजेपी-बीजेडी गठबंधन सरकार में साल 2002 से 2004 तक वह मंत्री भी रहीं.

नीलकंठ पुरस्कार से सम्मानित

द्रौपदी मुर्मू ओडिशा में दो बार की बीजेपी विधायक रह चुकी हैं और वह नवीन पटनायक सरकार में कैबिनेट मंत्री भी थीं. ओडिशा विधान सभा ने द्रौपदी मुर्मू को सर्वश्रेष्ठ विधायक के लिए नीलकंठ पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया.

आदिवासियों और महिलाओं को साधना मकसद!

गौरतलब है कि लोकसभा की 543 सीटों में से 47 सीट ST श्रेणी के लिए आरक्षित हैं. 60 से अधिक सीटों पर आदिवासी समुदाय का प्रभाव है. मध्य प्रदेश, गुजरात, झारखंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में आदिवासी वोटर निर्णायक स्थिति में हैं. ऐसे में आदिवासी नाम पर भी चर्चा चल रही थी. ऐसे में द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बन जाने से बीजेपी को चुनाव में भी बहुत फायदा मिल सकता है. देश में अब तक आदिवासी समुदाय का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति नहीं बन पाया है. इससे पहले महिला, दलित, मुस्लिम और दक्षिण भारत से आने वाले लोग राष्ट्रपति बन चुके हैं, लेकिन आदिवासी समुदाय इससे वंचित रहा है. ऐसे में यह मांग उठती रही है कि दलित समाज से भी किसी व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर बैठाया जाए.

महिलाएं बीजेपी के लिए कोर वोट बैंक बन चुकी हैं. इस वोट बैंक को साधने की भाजपा की कोशिश जारी है. बताया जा रहा है कि महिलाओं के नाम पर सबसे तेजी से विचार किया जा रहा था. इसमें UP की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल भी शामिल थीं. आनंदी बेन के अलावा पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके भी इस रेस में शामिल बताई जा रही थीं.

यशवंत होंगे विपक्ष के राष्ट्रपति प्रत्याशी

विपक्ष ने पूर्व केंद्रीय मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के नेता यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तय किया है. इसके बाद सिन्हा ने तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. NCP प्रमुख शरद पवार, नेशनल कांफ्रेंस के मुखिया फारूक अब्दुल्ला और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के बाद अब महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी ने भी राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने के विपक्ष के ऑफर को ठुकरा दिया है.

25 जुलाई को ही खत्म होता है राष्ट्रपति का कार्यकाल

नीलम संजीव रेड्‌डी ने देश के 9वें राष्ट्रपति के तौर पर 25 जुलाई 1977 को शपथ ली थी. तब से हर बार 25 जुलाई को ही नए राष्ट्रपति कार्यभार संभालते आए हैं. रेड्‌डी के बाद ज्ञानी जैल सिंह, आर वेंकटरमन, शंकरदयाल शर्मा, केआर नारायणन, एपीजे अब्दुल कलाम, प्रतिभा पाटिल, प्रणब मुखर्जी और रामनाथ कोविंद 25 जुलाई को शपथ ले चुके हैं.

Anupamaa: बरखा देगी पाखी और अधिक का साथ! आएगा ये ट्विस्ट

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में इन दिनों नई एंट्री के कारण लगातार ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो में आपने देखा कि अनुज और अनुपमा की शादी के बाद नए मोड़ देखने को मिल रहा है. तो वहीं दूसरी तरफ बरखा और अंकुश के आने से शो में हाईवोल्टेज ड्रामा देखने को मिल रहा है.

बरखा और अंकुश के साथ-साथ उनकी बेटी सारा और बरखा का भाई अधिक की भी एंट्री हुई है. शो में ये भी दिखाया जा रहा है कि बरखा अनुपमा को परेशान करने के लिए जल्द ही प्लान बनाने वाली है.

 

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एक्टर अधिक मेहता शो में अधिक का किरदार निभा रहे हैं, जिनको कलर्स टीवी के कहानी में अधिक मुस्कान बामने यानी वनराज और अनुपमा की बेटी पाखी के अपोज़िट दिखाई देंगे.

 

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एक इंटरव्यू के अनुसार अधिक ने पाखी और उनके रिश्ते तथा अपनी केमिस्ट्री के बारे में कई दिलचस्प बातें की है. अधिक ने कहा,  मैं कहानी में आए इस नए मोड़ को लेकर बहुत उत्साहित हूं. पाखी एक बहुत अच्छी को-एक्टर हैं और मुझे हमारी केमिस्ट्री बहुत ज्यादा पसंद है.

 

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एक्टर ने आगे ये कहा कि पाखी और अधिक को धीरे-धीरे एक दूसरे के लिए फीलिंग्स आ रही हैं. शो में ये बड़ा खुलासा कैसे होगा, ये देखना काफी दिलचस्प है. अधिक ने यह भी बताया की अब कपाड़िया और शाह दोनों एक परिवार बन चुके हैं. शो के लेटेस्ट एपिसोड में दिखाया गया कि अनुपमा को इस बात का शक हो जाता है कि पाखी और अधिक के बीच कुछ चल रहा है.

 

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रिपोर्ट के अनुसार, शो के आने वाले एपिसोड में बरखा, पाखी-अधिक के रिश्ते का समर्थन करेगी. बिजनेस में हिस्सा पाने के लिए बरखा पाखी का इस्तेमाल करेगी.

मुद्दा: ध्वस्त होती इमेज

देश की इमेज खराब होती है तब बड़ी परेशानी आम लोगों को भी होती है क्योंकि हकीकत होती कुछ और है और दिखाई कुछ और जाती है. इस से आम लोगों का आत्मविश्वास कम होता है जिस से उन की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है. हर कोई चाहता है कि उस के देश का सिर दुनिया में ऊंचा हो, लेकिन ?ाठ, नफरत और हिंसा के चलते देश की छवि की भद पिट रही है.

अपने यूरोप टूर के दौरान 6 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में वहां रह रहे भारतीयों से रूबरू होते अपील की कि वे अपने कम से कम 5 गैरभारतीय दोस्तों को भारत आने को प्रेरित करें.

इस के एवज में वे राष्ट्रदूत कहलाएंगे. लगे हाथ उन्होंने इस मुहिम का नामकरण भी ‘चलो इंडिया’ कर दिया.

इस के क्या माने हुए और वे नव राष्ट्रदूतों के जरिए भारत लाने वाले विदेशियों को कौन सा इंडिया दिखलाना चाहते हैं, इस से पहले यह दिलचस्प बात जान लेना जरूरी है कि अब उन के विदेशी दौरों में आम लोगों की दिलचस्पी बेहद कम हो रही है वरना एक वक्त था जब नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा पर होते थे तब लोग न्यूज चैनल्स के सामने अगरबत्ती जला कर बैठे मुग्धभाव से उन्हें निहारा करते थे.

हालांकि इतना सन्नाटा नहीं पसरता था कि रामायण या महाभारत सीरियलों का दौर याद आ जाए लेकिन ‘मोदीमोदी…’ के नारे ड्राइंगरूम से ले कर सोशल मीडिया पर गूंजते जरूर थे. फिर भले ही वे प्रायोजित हों या भक्तिभाव से निकले हों. कई दिनों तक गागा कर बताया जाता था कि देखो, मोदीजी ने अमेरिका और इंगलैंड तक में ?ांडे गाड़ दिए और भारत अब विश्वगुरु बनने ही वाला है.

तय है महंगाई की मार, विकराल होते भ्रष्टाचार और देश के लगातार खराब होते माहौल से आजिज आ गए लोगों का भ्रम टूटा है और उन्हें सम?ा आ रहा है कि भक्ति और नारों से उन की समस्याएं हल नहीं होने वालीं, उलटे बढ़ने लगी हैं और न ही मोदीजी कोई चमत्कारी नेता या दैवीय अवतार हैं जैसी कि उन्हें घुट्टी पिला दी गई थी और उन्होंने गणेशजी दूध पी रहे हैं की तर्ज पर भरोसा भी कर लिया था.

चलो इंडिया मुहिम में भी किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई. हर कोई बिना किसी के बताए सम?ा गया कि यह एक बेकार की अपील थी जो ‘कुछ नया कहना है’ की गरज से की गई थी. इस से  किसी को कुछ हासिल नहीं होने वाला. हां, इस पर वे कुछ कमीशन की पेशकश करते तो पैसों के लालच में थोड़ाबहुत रिस्पौंस मिल भी जाता. इस पर भी अनियुक्त राष्ट्रदूतों को अपने मित्रों को यह बताने में पसीने छूट जाने थे कि उन्हें भारत में क्या दिखाने लाए हैं. इन अतिथियों को भारत लाने व ले जाने के भारीभरकम खर्च पर चुप्पी ने भी इस योजना की भ्रूणहत्या कर दी.

फर्क डेनमार्क और भारत में

देश बहुसंख्यकवाद की गिरफ्त में है. ऐसे में यह हकीकत बताना कि डेनमार्क दुनिया के खुशहाल देशों की लिस्ट में टौप पर है और वहां भ्रष्टाचार न के बराबर है. राष्ट्रवादियों की हर मुमकिन कोशिश यह रहती है कि अपनी जिन खामियों और कमजोरियों को दूर न किया जा सके उन्हें उजागर मत होने दो, बल्कि धर्म और संस्कृति की चादर से ढक दो.

अगर इस से भी बात बनती न दिखे तो उस खामी को ही खूबी कहते प्रचारित कर दो. ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल के भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक 2021 के मुताबिक 180 देशों की सूची में डेनमार्क 88 अंक ले कर शीर्ष पर है जबकि भारत 40 अंकों के साथ 85वें स्थान पर है. हैरत की बात डेनमार्क का इस जगह पर 1995 से लगातार बने रहना है. रिपोर्ट बताती है कि डेनमार्क में सार्वजनिक लाभों और सेवाओं तक पहुंचने के लिए दी जानी वाली रिश्वत न के बराबर है, जबकि भारत में तसवीर उलट है कि न दी जाने वाली रिश्वत न के बराबर है.

भारत में वे लोग बड़े भाग्यवान होते हैं जिन के मकान या जमीन के नामांतरण जैसे मामूली काम बिना घूस दिए हो जाते हैं, फिर बड़े कामों की तो बात करना ही बेकार की बात है. हम में से हर किसी को जिंदगी में कम से कम 3 दर्जन बार रिश्वत देनी पड़ती है और जिस बार न देनी पड़े, उस दिन या तो बाबू, क्लर्क, सिपाही, पटवारी, चपरासी या उन से बड़े साहब का उपवास होता है या फिर बेटे का जन्मदिन होता है जिसे वे ईमानदारी से एक दिन अन्न की तरह घूस का सेवन न कर मनाते हैं.

डेनमार्क के लोगों या समाज, जिन्हें डेनिश कहा जाता है, को अगर घूस के लेनदेन का चलन और तौरतरीके सीखना हो तो जरूर ‘चलो इंडिया’ मुहिम उन के लिए बेहद उपयोगी साबित होगी. मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के चर्चित व्यंग्य ‘इंस्पैक्टर मातादीन चांद पर’ में यही सब बताया गया है कि कैसे एक भारतीय पुलिस इंस्पैक्टर चांद पर पहुंच कर वहां भी घूस का रोग फैला देता है.

इस आर्ट को सीखने डेनिशों को जरूर इंडिया आना चाहिए. पहले सबक से ही वे इंडियंस के कायल हो जाएंगे जब उन से कहा जाएगा कि ‘अगर सीखना है तो पहले लाख दो लाख ढीले करो वरना कुतुबमीनार देख कर और सीताराम दीवान चंद के छोलेभठूरे खा कर चलते बनो.’

जिस देश में भ्रष्टाचार नहीं होगा, जाहिर है, वहां खुशहाली भी ज्यादा होगी. संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी विश्व प्रसन्नता सूची 2022 में डेनमार्क को दुनियाभर के 146 देशों में दूसरा स्थान मिला है जबकि भारत इस में 136वें नंबर पर है. यानी भारत नीचे से लगभग टौप पर है. इस रिपोर्ट में जीडीपी, सामाजिक समर्थन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और भ्रष्टाचार जैसे कारक शामिल किए जाते हैं. जीवन की गुणवत्ता भी एक अहम पैमाना होता है.

डेनिशों को दुख के कारणों को सम?ाने के लिए भी भारत आना चाहिए. यकीन मानें, वे घबरा कर एक दिन में ही दुख के माने और कारण सम?ा कर अपने वतन वापस भाग जाएंगे. इसी एक दिन में उन्हें यह भी ज्ञान प्राप्त हो जाएगा कि बेवजह ही उन के देश के लोकतंत्र को सब से मजबूत और सशक्त नहीं कहा जाता.

स्वीडन के गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी स्थित वी डेम संस्था की हालिया एक रिपोर्ट में डेनमार्क को दुनिया का सब से बढि़या लोकतंत्र बताया गया है. इस रिपोर्ट में भारतीय लोकतंत्र को 97वें स्थान पर रखते कहा गया है कि भारत 2010 के चुनावी लोकतंत्र से अब चुनावी निरंकुशता में बदल गया है.

इसी तरह अमेरिका की मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वाच की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक  सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली सरकार की नीतियों ने हाशिए के समुदायों, सरकार की आलोचना करने वालों और धार्मिक अल्पसंख्यकों, खासतौर से मुसलमानों पर ज्यादा से ज्यादा दबाव डाला है.

इस हकीकत को और उजागर करते हुए एक और अमेरिकी एजेंसी फ्रीडम हाउस ने अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के तहत भारतीय लोकतंत्र अब पूर्णरूप से आजाद के बजाय आंशिक रूप से आजाद रह गया है. वह अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा है.

ऐसे कई पैमाने हैं जिन पर भारत डेनमार्क के सामने बहुत बौना साबित होता है. मसलन, वहां प्रतिव्यक्ति सालाना आमदनी 48 लाख रुपए है जो भारत में मात्र 2.5 लाख रुपए है. डेनमार्क में कोई भी नागरिक बेघर नहीं है जबकि भारत में, एक रिपोर्ट के मुताबिक, करीब 6.8 करोड़ लोगों के पास अपना घर नहीं है.

2020 लोकतंत्र सूचकांक में भारत

2 पायदान नीचे फिसल कर 53वें नंबर पर आ गया है. यह गिरावट नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में दर्ज की गई, नहीं तो साल 2014 में भारत 27वें नंबर पर था. डैमोक्रेसी इन सिकनैस एंड इन हैल्थ शीर्षक वाले ईआईयू (द इकोनौमिस्ट इंटैलिजैंस यूनिट) की हालिया सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राधिकारियों के लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने और नागरिकों के अधिकारों पर कार्रवाई करने से भारत में यह गिरावट और आई. बकौल ईआईयू, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने भारतीय नागरिकता की अवधारणा में धार्मिक तत्त्व को शामिल किया है और इसे कई आलोचक भारत के धर्मनिरपेक्ष आधार को कमजोर करने वाले कदम के तौर पर देखते हैं.

कोई वजह नहीं कि अंधभक्त, कट्टरपंथी और भगवा गैंग के सदस्यों से इन रिपोर्टों के बाबत किसी सीख या सबक की उम्मीद रखी जाए क्योंकि उन की नजर में यह साजिश है. उलटे, वे लोग तो लोकतंत्र को ले कर यह दम भरते हैं कि उन्हें कोई लोकतंत्र के माने न सिखाए. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और विदेश मंत्री जयशंकर तो बात पूरी सुनने से पहले ही तिलमिला उठते हैं, लेकिन सपना विश्वगुरु बनने का देखते हैं.

रही बात डेनमार्क की तो उस से तुलना बेकार या हर्ज की बात नहीं है बल्कि इस से पता चलता है कि भारत को तो डेनमार्क सरीखे छोटे देश से सीखना चाहिए कि जीवन की गुणवत्ता, रहनेबोलने की आजादी और सभी को खाना किसी भी देश की खुशहाली की वजह होते हैं. इस से उस की इमेज बनती और बिगड़ती है और एक हमारे प्रधानमंत्री हैं जो सुख और संपन्नता धर्म व संस्कृति में बताते फिरते हैं जो एक ?ाठा दंभ और हीनभावना ही कही जाएगी.

जमीनी हकीकत बताते हैं आरहूस विश्वविद्यालय के भारतीय मूल के एसोसिएट प्रोफैसर ताबिश, जो 25 वर्षों से डेनमार्क में रह रहे हैं और हर साल भारत आते हैं. बिहार के गया शहर के ताबिश ने एक दर्जन किताबें भी लिखी हैं और कई पुरुस्कार भी उन्हें मिले हैं. कुछ दिनों पहले ही एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि डेनमार्क जैसी जगहें भारत जैसी जगहों से कहीं बेहतर हैं. इस की 4 बड़ी वजहें हैं जवाबदेही, पारदर्शिता, राजनीतिक शक्तियों का विकेंद्रीकरण और एक सिविल सोसाइटी. ये चारों भारत में कमजोर हैं और हाल के सालों में हालात और भी खराब हुए हैं.

ताबिश कहते हैं, ‘‘हम 1975 में इंदिरा गांधी के दौर में पीछे गए और हम 2014 से पीछे जा रहे हैं. इस की कई समान वजहें हैं जिन में से प्रमुख है शीर्ष पर बैठे शख्स का कल्ट में बदलना, शासन व्यवस्था की बढ़ती फुजूलखर्ची, नौकरशाहों व व्यापारियों की सांठगांठ और संविधान की अनदेखी करना.

उपनिषद का सफेद ?ाठ

नरेंद्र मोदी के भाषणों में धर्म का जिक्र होना एक अनिवार्यता है. भारत में वे अकसर संस्कृत के श्लोकों को अपने भाषणों में शामिल करते हैं जो किसी धर्मग्रंथ से ही लिए गए होते हैं. इस से पब्लिक उन्हें विद्वान मान लेती है. डेनमार्क में उन्हें एहसास था कि शून्य फीसदी बेरोजगारी और सौ फीसदी साक्षरता वाले इस देश में धाक जमाने के लिए कोई ऐसी गूढ़ सी बात कहनी जरूरी है जिस से लोग उन की विद्वत्ता के कायल हो जाएं. वक्त का तकाजा यह भी था कि इस बात में भारत और डेनमार्क दोनों शामिल हों.

इस के मद्देनजर उन्होंने कहा, हम वे लोग हैं जो नदी को मां मानते हैं और पौधों में भी परमात्मा देखते हैं. इस गैरजरूरी और अप्रासंगिक वक्तव्य का वाजिब असर न पड़ते देख वे आध्यात्म के छज्जे से कूदते धर्म की जमीन पर आते बोले, कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी में नील्स बोर का नाम है, वे खुद की जरूरत के समय भारत के उपनिषद के पास आते थे.

विदेशों में भी बड़ी सफाई से नरेंद्र मोदी ?ाठ बोल जाते हैं जो किसी की सम?ा में नहीं आता. नील्स बोर भौतिकी के नामी वैज्ञानिक थे. उन के योगदान के चलते उन्हें 1922 में नोबेल पुरस्कार भी दिया गया था. वे भारत उपनिषद के पास आते थे (इस की जांचपड़ताल शायद ही कोई करे). डेनिशों से उन्होंने आग्रह किया कि आप भी अपनी समस्याओं के लिए भारत आइए. नील्स बोर अब दुनिया में नहीं हैं जिन के नजदीकी लोग मानते थे कि वे नास्तिक थे और चर्चों से भी उन्होंने नाता तोड़ लिया था.

यह सच है कि 1960 में नील्स बोर भारत आए थे लेकिन उन के किसी मठमंदिर में जा कर उपनिषद पढ़ने की बात सिरे से ?ाठी है. अब यह डेनिशों की जिम्मेदारी है कि वे खामोशी से यह मान लें कि नील्स बोर ने परमाणु संरचना और क्वांटम सिद्धांत पढ़ कर, रिसर्च कर और प्रयोगशालाओं में हाड़तोड़ मेहनत कर नहीं बल्कि उपनिषदों में कहीं पढ़ कर दिए थे.

जब भारतीयों के पास गिनाने को कुछ नहीं होता तो वे अपने धर्मग्रंथों का हवाला देने लगते हैं कि देखो, हम नदियों और पहाड़ों को भी पूजते हैं, हमारे यहां हजारों साल पहले कृत्रिम गर्भाधान की तकनीक थी. और तो और हम इतने उन्नत थे कि एक वक्त में बच्चा पैदा करने में हमें कोख की भी जरूरत नहीं पड़ती थी. हमारे यहां जमीन से बच्चे पैदा होते थे, शरीर के मैल से भी हो जाते थे, नाक से भी बच्चे होते थे और मेढक से भी पैदा होते थे.

डेनिशों को ये बेहूदगियां पूरे आत्मविश्वास और विस्तार से जानने को इंडिया जरूर आना चाहिए और अपनी संपन्नता व खुशहाली पर लानतें भेजनी चाहिए कि देखो, वे तो इन के मुकाबले अभी तक पिछड़े ही हैं. एक ये महान लोग हैं कि अपने मृत पूर्वजों को

ऊपर खाना, बिस्तर, रुपयापैसा  और जूतेचप्पल तक पंडों के  मार्फत भिजवा देते हैं. ऐसे कई प्रसंग डेनिशों का सिर शर्म और हीनता से ?ाका देंगे.

और हमारा सिर…

मान भी लिया जाए कि 6 मई के बाद मोदीजी की अपील पर कुछ डेनिश भारत आ जाते तो उन के साथ आया राष्ट्रदूत उन्हें क्या दिखाता और जो बिना दिखाए दिख जाता, उस से देश की इमेज कौड़ी भर की भी न रह जाती. इस वक्त आगरा में ताजमहल को ले कर विवाद और तनाव था. सनातनी कोर्ट के भीतर और बाहर हल्ला मचा रहे थे कि ताजमहल के 22 कमरों में हिंदू देवीदेवताओं की मूर्तियां हैं, इसलिए यह भी हमें सौंप दिया जाए. इस के कुछ दिनों पहले ही भगवा कपड़े पहने कई हिंदू संतमहंत कानून को ठेंगा दिखाते ताजमहल पर कब्जा करने की नीयत से पहुंच गए थे.

दिखाने को तो धार्मिक नगरी काशी भी थी जहां की ज्ञानवापी मसजिद को ले कर खासा बवंडर मचा हुआ था. वाराणसी पुलिस छावनी में तबदील थी. कोर्ट के आदेश पर यहां सर्वे चल रहा था. हिंदू संगठन मांग कर रहे थे कि ज्ञानवापी के भीतर मौजूद शृंगार गौरी की रोज पूजाअर्चना की इजाजत दी जाए. मुसलिम पक्ष इस बात पर अड़ा हुआ था कि उसे सर्वे पर एतराज नहीं है बल्कि इस बात पर आपत्ति है कि कोर्ट ने मसजिद के अंदर जा कर सर्वे करने को नहीं कहा है, लिहाजा, सर्वे टीम को अंदर दाखिल नहीं होने दिया जाएगा.

डेनिशों के सामने हमारा सिर हिमाचल प्रदेश के विधानसभा विवाद को ले कर भी ?ाकता जहां हाई अलर्ट था क्योंकि वहां खालिस्तान के ?ांडे लगा दिए गए थे. इस मसले को सुल?ाने के लिए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने एक एसआईटी गठित कर दी थी. आलम यह था कि हिमाचल के बसअड्डों, रेलवे स्टेशनों और सरकारी इमारतों पर पुलिस ही पुलिस थी जिस से पर्यटकों और स्थानीय लोगों में दहशत थी.

इन्हीं दिनों में राष्ट्रदूत अपने डेनिश मित्रों को यह भी बताता कि एक राज्य ?ारखंड की आईएएस अधिकारी पूजा सिंघल के यहां से करोड़ों की नकदी बरामद हुई है जो घूसखोरी से ही इकट्ठा हो सकती है और एक तुम्हारा देश है जहां न सांप्रदायिक दंगे होते और न ही तुम लोग घूस का लेनदेन करते. ऐसी दर्जनों दिलचस्प घटनाओं से डेनिश रूबरू होते तो उन के दिमाग में भारत की क्या इमेज बनती, सहज सम?ा जा सकता है. नरेंद्र मोदी का न्यू इंडिया देख कर वे चमत्कृत रह जाते.

इमेज की चिंता किसे

जब देश की इमेज खराब होती है तब बड़ी परेशानी आम लोगों को भी होती है क्योंकि हकीकत होती कुछ और है और दिखाई कुछ और जाती है. इस से बड़ा नुकसान आम लोगों का आत्मविश्वास कम होना है जिस से उन की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है. हर कोई चाहता है कि उस के देश का सिर दुनिया में ऊंचा हो, लोग जरूरत से ज्यादा अभावों में न रहें और सब से बड़ी बात, देश में अमनचैन रहे.

यह सब दूरदूर तक नजर नहीं आ रहा है. उलटे, माहौल और बिगड़ता जा रहा है. इस के चलते लोग तरहतरह की आशंकाओं से घिरे रहते हैं. इसी वजह से हम खुशहाली के मामले में पिछड़ते रहे हैं. हीनता को श्रेष्ठता बताने से देश की इमेज बनती नहीं, बिगड़ती ही है और लोग बारबार बोले गए ?ाठ या अस्तित्वहीन बातों को ही सच मान तर्क तो दूर, आम बुद्धि का भी इस्तेमाल नहीं कर पाते.

इस ध्वस्त होती इमेज को ले कर कई लोग चिंतित हैं जिन में एक बड़ा नाम भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का है. उन्होंने एक कार्यक्रम में बड़ी पीड़ा के साथ कहा, ‘‘भारत की अल्पसंख्यक विरोधी इमेज से दुनियाभर में भारतीय बाजार का नुकसान हो रहा है.’’ बकौल रघुराम राजन, देश की छवि का असर उपभोक्ताओं के साथसाथ दूसरे देशों की सरकारों पर भी पड़ता है. उन्होंने इस का सटीक उदाहरण देते हुए बताया

कि यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदोमीर जेलेंस्की को अपने देश की रक्षा के लिए खड़े व्यक्ति के रूप में देखा जाता है. यही वजह है कि दुनियाभर के देश यूक्रेन का साथ देने से पीछे नहीं हट रहे जबकि कुछ देश रूस के साथ व्यापार करने में लगे हैं.

ऐसे हुई छवि धूमिल

यह कोई इत्तफाक की बात नहीं थी कि फ्रांस से डेनमार्क पहुंचने के ठीक पहले 3 मई को प्रैस स्वतंत्रता दिवस वाले दिन आरएसएफ (रिपोर्ट्स सैंस फ्रंटियर्स) द्वारा जारी प्रैस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग 180 देशों में 150वें नंबर पर थी जबकि डेनमार्क की ऊपर से चौथे नंबर पर थी. पिछले साल भारत 142वें नंबर पर था, यानी एक साल में वह 8 पायदान नीचे खिसका. देश की दरकती इमेज की और वजहें भी हैं. इन पर दुनियाभर की नजर थी. आइए कुछ ताजा घटनाओं और हादसों पर सरसरी नजर डालें जिन्होंने छवि धूमिल की-

ईद और रामनवमी के त्योहारों पर हुई व्यापक हिंसा खासतौर से मध्य प्रदेश के पिछड़े जिले खरगौन की हिंसा, जिस में कई कथित आरोपी मुसलमानों के घर बुलडोजर से ढहा दिए गए. सांप्रदायिक हिंसा राजस्थान के जोधपुर में भी एक खंडहरनुमा मंदिर को ढहाने के बाद हुई.

गुजरात के निर्दलीय दलित विधायक जिग्नेश मेवानी की गिरफ्तारी और कोर्ट द्वारा उन्हें जमानत देने के बाद फिर से गिरफ्तारी.

सीबीआई द्वारा मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली नोबेल पुरस्कार प्राप्त संस्था एमनेस्टी इंटरनैशनल के भारतीय अध्यक्ष आकार पटेल के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी कर उन्हें विदेश यात्रा से रोका जाना. यहां गौरतलब है कि एमनेस्टी की संपत्ति को सितंबर 2020 में मोदी सरकार द्वारा जब्त कर उसे भारत से खदेड़ दिया गया था.

एमनेस्टी ने कहा था कि विरोधी आवाजों के लिए जगह संकुचित कर भारतीय अधिकारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मजाक बना रहे हैं. अधिकारियों के आलोचकों के खिलाफ उन का लगातार विच हंट भारत के अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों और संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद के सदस्य के रूप में उस की भूमिका को पूरी तरह खंडित करता है.

मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में 3 आदिवासियों को इस शक की बिना पर बजरंग दल के लोगों द्वारा पीटपीट कर मार डाला गया कि वे कथित रूप से गौमांस ले जा रहे थे.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि पिछले 2 सालों में भारत में कोरोना से 47 लाख मौतें हुई हैं जबकि सरकारी आंकड़ा मात्र 4 लाख 80 हजार के लगभग है यानी सरकार हकीकत छिपा रही है जिस से उस की बदनामी न हो.

पंजाब के पटियाला में खालिस्तानविरोधी मार्च को ले कर 2 समूहों के बीच हिंसा के बाद इंटरनैट सेवाएं बंद, हिंसा भड़काने के आरोप में 2 सप्ताह बाद एक भाजपा नेता तेजिंदर पाल बग्गा गिरफ्तार और फिर रिहा भी.

इन और ऐसी तमाम घटनाओं में सरकार की भूमिका संदिग्ध है. अब छिटपुट ही सही, देश के बाहर से भी भारत को ले कर चिंता जताई जाने लगी है कि आखिर यहां हो क्या रहा है और क्यों राष्ट्रवादियों को शह दी जा रही है. यह कोई राज की बात नहीं है कि भगवा गैंग हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए अपने पर उतारू है और इस के लिए वह लोकतंत्र व संविधान की बलि देने को तैयार है. अखंड भारत का नारा कहीं देश के और खंड न कर दे, इस की चिंता होना स्वाभाविक बात है लेकिन चिंता व्यक्त करने वालों को ही राष्ट्रद्रोही करार दे दिया जाए तो जाहिर है यह तानाशाही का अभिजात्य रूप है.

इकलौती लड़की बूढ़े मां-बाप

जिस तरह बच्चों की देखभाल के लिए पेरैंट्स की भूमिका अहम होती है उसी तरह बुढ़ापे में संतानों की भूमिका अहम हो जाती है, पर क्या हो अगर संतान इकलौती लड़की हो और उस की शादी हो गई हो?

क्या अकेली संतान के लिए पेरैंट्स बो?ा बनते हैं? क्या संतान अपनी जिंदगी को अच्छी तरह से जी नहीं सकती? क्या लड़की के लिए यह कुछ अधिक समस्या ले कर आती है? ऐसे न जाने कितने ही प्रश्नों के उत्तर शायद किसी के पास नहीं हैं, क्योंकि लड़कियां बड़ी होने पर अगर विवाह करती हैं तो उन्हें कई भूमिकाएं परिवार में निभानी पड़ती हैं, मसलन बेटी, पत्नी, व्यवस्थापक, मां, अनुशासक, हैल्थ औफिसर, रिक्रिएटर आदि न जाने कितनी ही अवस्थाओं से उन्हें गुजरना पड़ता है.

इस के अलावा एक महिला पर समाज के विकास का दायित्व भी होता है. इस में अकेला बेटा कुछ गलती करे तो उसे समाज और परिवार उस की परवरिश और रहनसहन को गलत बता कर पल्ला ?ाड़ लेते हैं लेकिन बेटी के लिए यह सोच अलग है. उस से किसी प्रकार की कमी हो तो समाज और परिवार सहन नहीं करते, उसे स्वार्थी कह दिया जाता है.

लेकिन इस से अलग जिंदगी गुजार रही है 45 वर्षीया शोमा बनर्जी, जो अपने मातापिता की अकेली संतान है और एक प्लेबैक सिंगर भी है. उस के पति विकास कुमार मित्रा फिल्म राइटर एंड डायरैक्टर हैं. पति का पूरा परिवार पहले छत्तीसगढ़ में रहता था, अभी सभी मुंबई में साथ रहते हैं.

सोचा नहीं शादी के बारे में

शोमा साल 1995 में अपने पेरैंट्स के साथ मुंबई संगीत में कुछ नाम कमाने आ गई. अकेली संतान होने की वजह से उस ने अपने बचपन को काफी मजे से गुजारा, कभी किसी बात की कमी उस ने अपने जीवन में नहीं देखी. बिना बताए ही सबकुछ उसे मिल जाता था.

जिम्मेदारी का एहसास तब हुआ जब उस के मातापिता की उम्र बढ़ी और शोमा की उम्र भी 30 साल हो चुकी थी. उसे लगने लगा कि उस का कोई रिलीवर नहीं है क्योंकि वह मातापिता की अकेली संतान है. उस की जिम्मेदारी बढ़ रही है क्योंकि कभी मां तो कभी पिता की देखभाल करनी पड़ती थी. ऐसे में जब शोमा ने देखा कि उस के आसपास की सहेलियों की शादियां हो रही थीं तो उस ने अपने मन को सम?ाया कि वह शादी के इस ?ां?ाट में नहीं पड़ सकती.

शोमा कहती है, ‘‘शुरू में मु?ो शादी करने की कोई इच्छा नहीं हुई क्योंकि मेरे पिता कहते थे कि अगर तुम संगीत में अच्छा कैरियर बनाना चाहती हो तो उस के लिए कोशिश करो और ऐसी इच्छा न होने पर शादी कर लो. इस के अलावा शुरू से मेरे घर के लोग जैंडर बायस्ड नहीं थे. किसी ने मेरी शादी को ले कर पेरैंट्स पर कभी दबाव नहीं डाला. मैं भी हमेशा पेरैंट्स से कहती थी कि जब तक आप हैं तब तक आप के साथ रहूंगी, बाद में मैं किसी संस्था में रह कर जरूरतमंदों की सेवा करूंगी.’’

शादी करने का बनाया मन 

40 वर्ष की होने पर शोमा को लगने लगा कि उस ने अपने साथ कुछ गलती की है क्योंकि पेरैंट्स को इस उम्र में लोगों की बातें सुनने को मिल रही थीं. कोई कहता कि वे अपनी सुविधा के लिए बेटी की शादी नहीं करवा रहे हैं, उन के बाद बेटी का क्या होगा आदिआदि?

शोमा कहती है, ‘‘जब काफी लोग मेरे पेरैंट्स और मु?ो मेरी शादी को ले कर कहने लगे तो मैं ने इस विषय पर सोचने का मन बनाया और जो भी मु?ो शादी को ले कर कुछ कहता तो उसे मैं लड़का ढूंढ़ कर लाने को कहती रही, क्योंकि 40 के बाद किसी भी लड़की को विवाह करना मुश्किल होता है क्योंकि इस उम्र में पार्टनर मिलना कठिन था. मैं ने सारे मैट्रिमोनियल साइट्स पर अपनी फोटो डाल दी थी. उसी दौरान मेरी एक फ्रैंड के कहने पर मैं अपने पति से मिली. वह भी अजीब तरीके से मिलना हुआ, दरअसल, मैं बहुत अधिक काम में व्यस्त थी, इसलिए बहुत कम बातचीत हुई और 2 महीने बाद ही शादी कर ली.’’

साथ रहना हुआ मुश्किल

शोमा का कहना है, ‘‘शादी के बाद दोनों का साथ रहना मुश्किल हो चुका था क्योंकि अपने पेरैंट्स को मैं नहीं छोड़ सकती थी और मेरे पति अपनी मां को अकेले नहीं छोड़ सकते थे. ऐसे में हम दोनों ने 4 कमरों वाला एक बड़ा फ्लैट मलाड एरिया में लिया जिस का किराया मेरे पिता के अंधेरी वैस्ट इलाके के 2 कमरों वाले फ्लैट के किराए से पूरा किया. हम दोनों ने मिल कर 3 बुजुर्गों की देखभाल का जिम्मा लिया लेकिन यह बहुत बड़ी चुनौती हम दोनों के साथ है क्योंकि मेरे पेरैंट्स बंगाल के हैं जबकि मेरे पति मिक्स कल्चर बंगाल और नेपाल के हैं. उन के पिता बंगाली और मां नेपाली हैं.

‘‘मेरे परिवार में सुबह उठ कर खाना बना कर औफिस जाना होता है. इस तरह से छोटीछोटी बातों को सुल?ाते हुए हम दोनों का बहुत सारा वक्त गुजर जाता था. इस तरह से आपसी तालमेल के साथ हम दोनों दायित्व निभा रहे हैं. मेरी कोई संतान न होने की वजह भी मेरी 40 की उम्र के बाद शादी करना और मेरे पिता का अचानक कैंसर डिटैक्ट होना रहा क्योंकि मैं ऐसी परिस्थिति में एक बच्चे को जन्म दूं और उस की देखभाल न कर सकूं, इसलिए मैं ने अपने 2 मातापिता और सास की देखभाल सही से करना ही उचित सम?ा. मेरे पति राजी न होतेहोते भी राजी हो गए. साथ ही, मेरा संगीत भी साथसाथ चल रहा था.’’

शादी से पहले करें बातचीत

यह सही है कि अकेली संतान को हमेशा ही मातापिता के भविष्य का सहारा सम?ा जाता है. फिर उस में अगर लड़का हो तो पेरैंट्स भले ही उसे अपना सहारा सम?ों लेकिन उन की उम्मीद पर अधिकतर पानी फिर जाता है, पर इस में वे अपनी गलत परवरिश को मान कर चुप रह जाते हैं. जबकि लड़की को कैसे भी दायित्व निभाना पड़ता है. इसलिए अकेली लड़की के होने वाले पति को शादी से पहले सबकुछ बता देना सही सम?ा जाता है.

शोमा कहती है, ‘‘सबकुछ क्लीयर होने पर भी इकलौती लड़की को ससुराल पक्ष से कुछ न कुछ सुनना पड़ता है पर मैं उस में अधिक ध्यान नहीं देती. कई बार हम दोनों अपनी सास और मातापिता को साथ घुमाने ले जाते हैं ताकि दोनों परिवारों के बीच संबंध अच्छे बने रहें. एकसाथ बैठ कर खाना भी खाते हैं. इस से फायदा हुआ. इस के अलावा छोटीछोटी बातों को आपस में बैठ कर सुल?ा लेना या फिर ध्यान न देना ही मेरे लिए सही हुआ.’’

अलग होती है मानसिकता

शोमा कहती है, ‘‘मैं ने देखा है कि लड़कों की मानसिकता सबकुछ जानने के बाद भी स्वार्थी दिखाई देती है. दरअसल, लड़कों को बचपन से ही अपनी दुनिया अधिक प्यारी लगती है. बहुत कम ऐसे लड़के हैं जो किसी की जिम्मेदारी को सम?ाते हैं. मु?ो इस बात का एहसास कभी नहीं हुआ क्योंकि मैं कभी लड़कों के साथ घूमी नहीं. मेरा तो शादी करने का इरादा ही नहीं था, इसलिए किसी प्रेमप्रसंग में नहीं पड़ी. अभी सब ठीक चल रहा है पर माइंड गेम का ?ामेला चलता रहता है जिसे बीचबीच में सुल?ाना पड़ता है क्योंकि मेरे पति इन्ट्रोवर्ट हैं जबकि मु?ो सब से बात करना अच्छा लगता है.’’

कानूनन प्रौपर्टी की बात   

प्रौपर्टी की बात अगर करें तो शोमा ने शादी से पहले ही सब क्लीयर कर दिया था कि दोनों एकदूसरे की प्रौपर्टी पर किसी प्रकार का दावा नहीं रखेंगे और यह जारी रहेगा. यह सही है कि पेरैंट्स का दायित्व लेना किसी लड़के के लिए काफी कठिन होता है. वहीं, शादी के बाद पत्नी अपने पेरैंट्स की देखभाल करे तो वह बहुत अधिक मुश्किल होता है. दरअसल समाज और परिवार लड़की की शादी के बाद उसे ससुराल की संपत्ति सम?ाते हैं.

शोमा का इस बारे में कहना है, ‘‘शादी के बाद एक अकेली लड़की दोनों परिवारों के बुजुर्गों की देखभाल आसानी से कर सकती है, अगर पति का सहयोग हो. मेरा सु?ाव सभी अकेली लड़कियों से यह है कि जब भी शादी करें, अपने पार्टनर के साथ अधिक समय बिताएं. शादी के लिए जल्दबाजी न करें.’’

कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जहां अकेली लड़की शादी के बाद अपने पेरैंट्स की देखभाल नहीं करती. भिलाई की एक अकेली लड़की ने शादी की, मां की मत्यु के बाद अपने 70 वर्षीय पिता की देखभाल का जिम्मा लिया और पूरी प्रौपर्टी अपने नाम करवा ली और फिर वहां अपने पति के साथ रहने लगी. कुछ दिनों बाद उस बुजुर्ग का शव भिलाई स्टेशन की रेल की पटरी पर मिला, जिसे बेटी ने आत्महत्या बताया जबकि वह व्यक्ति बहुत खुश रहता था और किसी से उस की नाराजगी नहीं थी. पुलिस भी पता करने में असमर्थ रही कि यह हत्या है या आत्महत्या?

जिंदगी कभी अधूरी नहीं होती- भाग 1: शादी के बाद खुशमन क्यों बदल गया?

‘‘खुशी…’’चिल्लाते हुए खुशमन बोला, ‘‘मेरे सामने बोलने की हिम्मत भी न करना. मैं कभी सहन नहीं कर पाऊंगा कि कोई मेरे सामने मुंह भी खोले और तुम जैसी का तो कभी भी नहीं.’’

पता नहीं और क्याक्या बोला खुशमन ने. ‘तुम जैसी को तो कभी भी सहन नहीं कर सकता,’ यह वाक्य तो खुशमन ने पता नहीं इन 5 वर्षों में कितनी बार दोहराया होगा. पर मैं पता नहीं क्यों फिर भी वहीं की वहीं थी. वैसे की वैसी… जिस पर जितना मरजी पानी फेंको, ठोकरें मारो कोई फर्क नहीं पड़ता था या फिर मेरा वजूद भी खत्म हो गया था.

शादी को 5 साल हो गए थे. पता नहीं क्याक्या बदल गया था? जब याद करती हूं कि यह वही खुशमन है जिसे मैं आज से 5 साल पहले मिली थी तो खुद को कितनी खुशहाल समझी थी. वह लड़की जिस से दोस्ती के लिए भी हाथ बढ़ाने को सब तरसते थे और वह खुशमन के पीछे चलती हुई न जाने कब उस की जीवनसंगिनी बन गई थी.

मांबाप की इकलौती संतान थी खुशी. बड़े नाजों से, लाड़प्यार से पाला था उस के मांबाप ने. पापा शहर के जानेमाने बिल्डर थे. इमारतें बना कर बेचना बड़ा काम था उन का. खुशी के जन्म के बाद तो उन का व्यवसाय इतना बढ़ा कि उन्होंने इस का श्रेय उसे दे दिया. खुशी के मुंह से निकली कोई इच्छा खाली नहीं जाती थी. शहर के अच्छे स्कूल में पढ़ने के बाद खुशी ने अपने ही शहर के सब से अच्छे कालेज में बीएससी साइंस में दाखिला ले लिया. पढ़ाई में तो होशियार थी ही, साथ ही साथ खूबसूरत भी थी.

कालेज में पहले ही दिन उस के कई दोस्त बन गए. खुशी कालेज के प्रत्येक समारोह में भाग लेती. पढ़ाई में भी प्रथम स्थान पर रहती. इसी कारण वह अध्यापकों की भी चहेती बन गई थी. हर कोई उस की प्रशंसा करता न थकता. इतने गुण होने के बावजूद भी खुशी में घमंड बिलकुल नहीं था. घर में भी सब से मिल कर रहना और मातापिता का पूरा ध्यान उस के द्वारा रखा जाता था.

एक बार पापा को दिल का दौरा पड़ा तो खुशी ने ऐसे संभाला कि एक बेटा भी ऐसा न कर पाता. एक दिन पापा जैसे ही शाम को घर पहुंचे तो खुशी रोज की तरह पापा को पानी देने आई तो पापा को सोफे पर गिरा पड़ा पाया. खुशी ने हिलाया, पर पापा के शरीर में कोई हलचल न थी. नौकरों और मां की सहायता से कार से तुरंत अस्पताल ले गई और पापा को बचा लिया. तब से मातापिता का उस पर मान और भी बढ़ गया था. तब पापा ने कहा भी था कि लड़की भी लड़का बन सकती है. जरूरी नहीं कि लड़का ही जिंदगी को खुशहाल बनाता है. तब खुशी को महसूस हुआ कि उन के परिवार में कुछ भी अधूरा नहीं है.

बीएससी करने के बाद खुशी ने एमएससी में दाखिला लेना चाहा पर मां की इच्छा थी कि अब उस की शादी हो जाए, क्योंकि पापा को अपने व्यवसाय को संभालने के लिए सहारा चाहिए था. लड़का तो कोई था नहीं. इसलिए उन का विचार था कि खुशी का पति उन के साथ व्यवसाय संभाल लेगा. मगर खुशी चाहती थी कि वह आगे पढ़े. अत: मातापिता ने उस की जिद मान ली.

एमएससी खुशी के शहर के कालेज में नहीं थी. इस के लिए उसे दूसरे शहर के कालेज में दाखिला लेना पड़ता था. इस के लिए भी पापा ने अपनी हरी झंडी दिखा दी. खुशी ने दाखिला ले लिया. रोजाना बस से ही कालेज जातीआती थी. पापा ने यह देख कर उसे कार ले दी. अब वह कार से कालेज जाने लगी. उस की सहेलियां भी उस के साथ ही जाने लगीं. समय पर कालेज पहुंचती, पूरे पीरियड अटैंड करती, यहां पर भी खुशी की कई सहेलियां बन गईं. होनकार विद्यार्थी होने के कारण अध्यापकों की भी चहेली बन गई.

कालेज जौइन कर समय का पता ही नहीं चला कि कब 4 महीने बीत गए. खुशी को कई बार महसूस होता कि कोई उसे चुपके से देखता है, उस का पीछा करता है, परंतु कई बार इसे वहम समझ लेती. मगर यह सच था और वह शख्स धीरेधीरे उस के सामने आ रहा था.

रोजाना की तरह उस दिन भी खुशी कक्षा खत्म होने के बाद लाइब्रेरी चली गई. वह वहां किताबें देख ही रही थी कि कोई पास आ कर उसी अलमारी में से पुस्तकें देखने लगा. खुशी घबरा कर पीछे हो गई. जब पलट कर देखा तो यह वही था जो उस के आसपास ही रहता था. उस ने खुशी की तरफ मुसकरा कर देखा, पर खुशी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चली गई. अब तो वह खुशी को रोजाना नजर आने लगा. वह कहीं न कहीं खुशी को मिल ही जाता.

एक दिन खुशी लाइब्रेरी में बैठ कर एक पुस्तक पढ़ रही थी. उस की एक ही कापी लाइब्रेरी में थी जिस कारण उसे इश्यू नहीं किया गया था. तभी अचानक वह वहीं खुशी के पास आ कर बैठ गया और फिर कहने लगा, ‘‘इस पुस्तक को तो मैं कब से ढूंढ़ रहा था और यह आप के पास है.’’

खुशी घबरा गई. ‘‘अरे, घबराएं नहीं. मैं भी आप की ही तरह इसी विद्यालय का छात्र हूं. खुशमन नाम है मेरा और आप का?

‘‘खुशी, मेरा नाम खुशी है,’’ कह कर खुशी बाहर आ गई.

खुशमन भी साथ ही आ गया और फिर चला गया. अब रोज मिलते. हायहैलो हो जाती. धीरेधीरे कालेज की कैंटीन में समय बिताना शुरू कर दिया. खुशमन ने अपने परिवार के बारे में काफी बातें बतानी शुरू कर दीं. काफी होशियार था वह पढ़ने में. कालेज का जानामाना छात्र था. उस के मातापिता नहीं थे. एक भाई था, जो पिता का व्यवसाय संभालता था. पैसे की कमी न थी. खुशमन शुरू से ही होस्टल में पढ़ा था, इसलिए घर से लगाव भी कम ही था. शहर में कालेज होने पर भी होस्टल में ही रहता था. भाई ने शादी कर ली थी, परंतु खुशमन अभी पढ़ना चाहता था. इंजीनियरिंग का बड़ा ही होशियार छात्र था. उसे कई कंपनियों से नौकरी के औफर थे. बड़ीबड़ी कंपनियां उसे लेने के लिए खड़ी थीं. खुशी का अब काफी समय उस के साथ बीतने लगा. पता ही नहीं चला कि कब 1 साल बीत गया और कब उन की दोस्ती प्यार में बदल गई.

खुशी के पापा का व्यवसाय काफी अच्छा चल रहा था, परंतु अब वे ज्यादा बोझ नहीं उठा पाते थे, क्योंकि अब उन की उम्र और दूसरा शायद बेटा न होने की चिंता. मगर उन्होंने यह खुशी को पता नहीं चलने दिया.

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