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1 करोड़ की रंगदारी: सगे भाइयों की गहरी साजिश

सौजन्य: सत्यकथा

उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर पर बसा जिला सोनभद्र पहाड़, जंगलों, प्राकृतिक जलप्रपातों (झरनों) से घिरा एक अनूठा जिला है. यह जिला 4 राज्यों मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड की सीमाओं से सटा होने के साथ ही साथ ऐतिहासिक, पौराणिक तथा पर्यटन की असीम संभावनाओं से भरा हुआ उत्तर प्रदेश को सर्वाधिक राजस्व देने वाला जनपद है.

इसी जिले के अंतर्गत एक कस्बा है घोरावल. घोरावल सोनभद्र जिला मुख्यालय से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर महज एक कस्बा ही नहीं, बल्कि ब्रिटिश शासन काल से पूर्व का ही व्यापारिक और धार्मिक, ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक दृष्टिकोण से काफी महत्त्वपूर्ण कस्बा रहा है.

घोरावल कस्बा सोनभद्र जिले के अंतिम छोर पर स्थित और मिर्जापुर जिले से लगा हुआ है. इसी कस्बे के वार्ड नंबर 10 में पन्नालाल गुप्ता (60 वर्ष) का परिवार रहता है, जो पेशे से सुनार हैं.

6 फरवरी, 2022 का दिन था. पन्नालाल काम के सिलसिले में सोनभद्र जाने के लिए तैयार हो रहे थे कि अचानक उन के मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. जब तक वह काल रिसीव करते, तब तक वह कट चुकी थी. मोबाइल फोन की स्क्रीन पर उन्होंने नजर डाली तो पता चला कि मोबाइल नंबर 7355313333 से काल आई थी. वह नंबर अपरिचित था.

काल बैक करें या नहीं, क्योंकि नंबर अपरिचित होने के साथसाथ बिलकुल अंजाना सा लग रहा था. फिर भी उन्होंने सोचा कि काल बैक करना चाहिए. क्योंकि हो सकता है किसी ग्राहक का फोन रहा हो.

दरअसल, इस के पीछे पन्नालाल का सोचना भी बिलकुल सही था. वह यह कि अभी भी ग्रामीण हिस्सों में बहुत से ऐसे लोग हैं जो आज भी ज्यादातर लोगों से बातचीत करने के लिए मिस काल करते हैं. इस के पीछे का सब से बड़ा कारण यह है कि वे मोबाइल में मिनिमम बैलेंस डाल कर सिर्फ एक्टिव किए रहते हैं. क्योंकि उन के बस की बात नहीं है कि 200 या 300 का हर माह वह रिचार्ज करा सकें.

यही सब सोच कर पन्नालाल ने उस नंबर पर काल बैक कर बात कर लेना उचित समझा. वह अभी इसी उधेड़बुन में थे कि सहसा उसी नंबर से दोबारा काल आ गई. उन्होंने जैसे ही काल रिसीव की, दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘हैलो, पन्नालाल गुप्ता बोल रहे हैं?’’

‘‘जी बोल रहा हूं, आप कौन?’’ काल करने वाले की बात उन्हें थोड़ी अटपटी जरूर लगी फिर भी उन्होंने सोचा कि कोई ग्रामीण होगा.

इस से कुछ और ज्यादा पूछ पाते कि इस के पहले ही दूसरी तरफ से फोन करने वाले ने तपाक से अपनी बात कह डाली, ‘‘सुनो, मैं कौन बोल रहा हूं, कहां से बोल रहा हूं. यह सब पता चल जाएगा. पहले जो मैं कह रहा हूं उसे सुनो, एक करोड़ तैयार कर लो वरना अंजाम बहुत बुरा होगा.

‘‘हां, एक बात और याद रखना. ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करना और पुलिस को भूल कर भी मत बताना अन्यथा अंजाम बहुत बुरा होगा, इस की कल्पना भी तुम नहीं कर सकते कि…’’

इतना सुनना था कि ठंड के महीने में भी पन्नालाल गुप्ता को पसीना आने लगा. वह अपना पसीना अभी पोंछ भी नहीं पाए थे कि फोनकर्ता ने फिर रौब के साथ उन्हें धमकी देते हुए कहा, ‘‘सुनो, यह रकम कब, कहां और कैसे देनी है मैं फिर तुम्हें काल कर के बताऊंगा. लेकिन एक बात ध्यान देना कि मैं ने जो भी कहा है उसे हलके में मत लेना, वरना अंजाम भुगतने के लिए भी तुम तैयार रहना.’’ इतना कह कर उस ने काल डिसकनेक्ट कर दी.

एक करोड़ का नाम सुनते ही अचानक पन्नालाल के होश फाख्ता हो गए. वह अपना माथा पकड़ कर बैठ गए थे. उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उन के साथ यह हो क्या रहा है.

उन्होंने तो किसी का कुछ बिगाड़ा भी नहीं था, न ही उन का किसी से कोई विवाद हुआ था. तो भला उन से एक करोड़ रुपए वह भी किस बात के लिए कोई क्यों मांगेगा?

माथा पकड़ कर वह इसी सोच में उलझे हुए थे कि तभी अचानक घर के अंदर से पत्नी ने आवाज लगाई, ‘‘अरे, आप अभी यहीं बैठे हुए हैं. आप तो सोनभद्र जा रहे थे फिर अचानक क्या हुआ कि माथा पकड़ कर बैठ गए हैं?’’

पति द्वारा कोई जवाब न मिलने से उन की पत्नी सुनैना (काल्पनिक नाम) ने करीब में आ कर उन के सिर पर अपनत्व का हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ, आप की तबीयत तो ठीक है ना. अचानक क्या हुआ आप माथा पकड़ कर बैठ गए हैं कोई बात है क्या?’’

पत्नी सुनैना का इतना कहना ही था कि पन्नालाल फफक पड़े और पूरी आपबीती पत्नी सुनैना को कह सुनाई. पति के मुंह से बदमाशों द्वारा एक करोड़ मांगे जाने की बात सुनते ही सुनैना के भी होश उड़ गए थे. वह भी माथा पकड़ कर बैठ गई थी.

दोनों पतिपत्नी को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह करें तो क्या करें? काफी देर तक दोनों एक ही जगह पर बैठे इसी सोच में उलझे हुए थे कि कहीं यह किसी गुंडेबदमाश की हरकत तो नहीं है?

यही सब सोच कर जहां उन का अंदर से तनमन कांपे जा रहा था, वहीं वे दोनों तमाम शंकाओंआशंकाओं में उलझे हुए थे. कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें.

किसी प्रकार 6 फरवरी इतवार का दिन बीता था. इस बीच सगेसंबंधियों तथा नातेरिश्तेदारों के सुझाव पर इस की सूचना पुलिस को देना मुनासिब समझते हुए पन्नालाल गुप्ता दूसरे दिन यानी 7 फरवरी, 2022 दिन सोमवार को कस्बे के कुछ संभ्रांत लोगों को ले कर घोरावल कोतवाली पहुंच गए, जहां उन्होंने थानाप्रभारी देवतानंद सिंह को पूरी आपबीती सुनाने के बाद सुरक्षा की गुहार लगाई.

पन्नालाल गुप्ता की तहरीर ले कर थानाप्रभारी ने उन्हें काररवाई का भरोसा दिला कर घर भेजते हुए कहा, ‘‘यदि किसी प्रकार की धमकी भरा फोन आए तो वह तुरंत सूचना पुलिस को दें तथा घबराएं नहीं. उन्हें न्याय और सुरक्षा मिलेगी.’’

थानाप्रभारी से मिले आश्वासन से आश्वस्त हो कर पन्नालाल अपने घर तो लौट आए थे, लेकिन फिर भी उन के मन में एक भय बना हुआ था.

दूसरी ओर थानाप्रभारी देवतानंद सिंह भी एक करोड़ की वसूली के इस केस में उलझे हुए थे और बिना किसी का अपहरण किए एक करोड़ रुपए की मांग करना पुलिस के लिए गंभीर बात थी. वह समझ नहीं पा रहे थे कि यह किसी की शरारत है या महज इत्तेफाक.

फिर भी उन्होंने मामले को हलके में न ले कर तुरंत अपने उच्चाधिकारियों को न केवल इस घटनाक्रम से अवगत करा दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने अज्ञात के खिलाफ आईपीसी की धारा 34, 411, 414, 201, 384 के तहत रिपोर्ट दर्ज कर काररवाई प्रारंभ कर दी.

उन्होंने इस मामले की जांच घोरावल कस्बा चौकीप्रभारी एसआई देवेंद्र प्रताप सिंह को सौंप दी.

कई प्रमुख नक्सलवादी घटनाओं के कारण यह जिला पूरे देश में सुर्खियों में बना रहा है. ऐसे में पुलिस अधिकारी इस मामले में गंभीरता दिखाते हुए हर दृष्टिकोण से इस मामले की तहकीकात में जुट गए.

पुलिस को इस बात की भी आशंका थी कि कहीं अपनी कमजोर हो चुकी रीढ़ को मजबूत करने के लिए नक्सलियों की यह कोई सोचीसमझी साजिश तो नहीं है.

घोरावल के व्यापारी से एक करोड़ की फिरौती मांगने के मामले में अज्ञात अभियुक्तों को खोजने व शीघ्र गिरफ्तारी के लिए डीआईजी (सोनभद्र) अमरेंद्र प्रसाद सिंह द्वारा एएसपी (मुख्यालय) विनोद कुमार, एएसपी (औपरेशन) तथा सीओ (घोरावल) को जहां विशेष तौर पर निर्देश दिए गए थे, वहीं सीओ की देखरेख में अपराध शाखा की स्वाट, एसओजी, सर्विलांस टीम व प्रभारी निरीक्षक घोरावल के साथ कुल 4 संयुक्त टीमों का गठन किया गया.

जिस फोन नंबर से व्यापारी पन्नालाल को धमकी दे कर पैसे मांगे गए थे, जांच करने पर उस फोन की लोकेशन प्रतापगढ़ के थाना आसपुर देवसरा क्षेत्र स्थित सारडीह टावर क्षेत्र की मिली.

इतनी जानकारी मिलने के बाद पुलिस को अब आगे बढ़ कर उसे दबोचना था ताकि यह पता चल सके कि धमकी देने वाला व्यक्ति कौन है.

यह जानकारी मिलने के बाद पुलिस टीम सोनभद्र से जिला प्रतापगढ़ के लिए रवाना हो गई.

उस मोबाइल फोन की लोकेशन के आधार पर पुलिस टीम जब सुलतानपुर जिले के चांदा से पट्टी जाने वाली सड़क पर गांव रामनगर में पुलिया के पास पहुंची तो 2 युवकों ने पुलिस टीम को देख कर भागने का प्रयास किया. शक होने पर पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया.

पकड़े गए व्यक्तियों के पास से चोरी के 2 फोन बरामद हुए, जिस में से एक फोन का प्रयोग धमकी दिए जाते समय किया गया था. पूछताछ के दौरान इन के द्वारा जुर्म स्वीकार किया गया. यह बात 11 फरवरी, 2022 की है.

घोरावल के ज्वैलर से एक करोड़ की फिरौती मामले में गिरफ्तार दोनों युवकों को पुलिस टीम सोनभद्र ले आई, जिन्हें 12 फरवरी, 2022 को सोनभद्र के सदर कोतवाली में एएसपी विनोद कुमार ने प्रैसवार्ता आयोजित कर मीडिया के सम्मुख केस का खुलासा किया.

ज्वैलर से एक करोड़ की फिरौती मामले में गिरफ्तार किए गए दोनों युवक जो सगे भाई थे, ने पुलिस के सामने जो खुलासा किया वह सभी को न केवल अचरज में डाल देने वाला था, बल्कि मायावी दुनिया (टीवी सीरियल) की चकाचौंध से प्रेरित हो कर अपराध की राह पर चल पड़ने से जुड़ा था, जो कुछ इस प्रकार निकला—

उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले के थाना चांदा क्षेत्र के अंतर्गत एक गांव पड़ता है रामनगर. इसी गांव के निवासी हैं राधेश्याम मिश्रा उर्फ श्यामू. राधेश्याम मिश्रा की हैसियत और पहचान गांव में बहुत अच्छी नहीं है.

उन के 2 बेटे 23 वर्षीय अंकित मिश्रा व 22 वर्षीय आयुष मिश्रा उर्फ सागर उर्फ गुड्डू भी कोई कामधाम न कर पूरे ठाटबाट से जीवन जीने का सपना देखा करते थे. यही कारण था कि उन्होंने अपराध का रास्ता अख्तियार कर लिया और चोरी इत्यादि की वारदातों को अंजाम देने के साथ ही साथ बड़ा बनने के सपने हमेशा बुनने लगे थे.

अपनी आपराधिक आदतों के चलते दोनों सगे भाई अंकित और आयुष मिश्रा कई बार जेल भी जा चुके थे. लखनऊ, सुलतानपुर जिलों में उन के खिलाफ कई मामले विभिन्न धाराओं में दर्ज हैं. उन मामलों में पुलिस इन्हें सरगर्मी से तलाश रही थी.

पकड़े गए अंकित मिश्रा व उस के भाई आयुष मिश्रा उर्फ सागर उर्फ गुड्डू ने पुलिस टीम को पूछताछ में बताया कि इस बार वे दोनों कुछ लंबा हाथ मार कर करोड़पति बनने का ख्वाब देख रहे थे.

इसी उधेड़बुन में दोनों जुटे हुए थे कि उन के हाथ चोरी का एक मोबाइल लग गया. कुछ साल पहले बनी वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ से प्रेरित हो कर वह ऐसे ही उसी चोरी के मोबाइल फोन नंबर से नंबर डायल कर रहे थे कि संयोग से यह नंबर सोनभद्र जिले के घोरावल के व्यापारी पन्नालाल गुप्ता का लग गया.

ट्रूकालर पर व्यापारी का नाम देख कर उन्हें लगा कि वह बड़ा व्यापारी होगा और इसीलिए उन्होंने उस से एक करोड़ रुपए की मांग रखी.

पुलिस के मुताबिक दोनों युवक पहले भी चोरी व लूट के मामले में भी आरोपी रहे हैं. पूछताछ में उन के पास से धमकी दिए जाने वाले मोबाइल और सिम को बरामद करने के बाद पुलिस टीम ने दोनों सगे भाइयों को सक्षम न्यायालय में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया था.

पुलिस टीम में एसओजी प्रभारी मोहम्मद साजिद सिद्दीकी, थानाप्रभारी (घोरावल) देवतानंद सिंह, एसआई सरोजमा सिंह, देवेंद्र प्रताप सिंह, अमित त्रिपाठी, हैडकांस्टेबल अरविंद सिंह, अमर सिंह, शशि प्रताप सिंह, कांस्टेबल हरिकेश यादव, रितेश पटेल आदि को शामिल किया गया.

डीआईजी/एसएसपी अमरेंद्र प्रताप सिंह ने केस का खुलासा करने वाली पुलिस टीम को 25 हजार रुपए का नकद पुरस्कार देने की घोषणा की.

—कथा पुलिस तथा समाचार पत्रों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है

पावर टिलर के बारे में जानकारी

पावर टिलर खेतीबारी की एक ऐसी मशीन है, जिस का इस्तेमाल खेत की जुताई, थ्रेशर, रीपर, कल्टीवेटर, बीज ड्रिल मशीन, पावर टिलर में पानी का पंप जोड़ कर किसान तालाब, पोखर, नदी आदि से पानी निकाल सकते हैं.

इस मशीन से जिस प्रकार देशी हल से एक सीध पर बोआई की जाती?है, उसी प्रकार इस से भी बोआई की जा सकती है. अगर इस पावर टिलर में कृषि के अन्य यंत्र भी जोड़ दिए जाएं, तो वे काम भी इस के सहारे पूरे किए जा सकते हैं.

क्या है पावर टिलर

पावर टिलर ट्रैक्टर की अपेक्षा यह काफी हलका और चेनरहित होता है. इस को चलाना बेहद आसान है. इस को कई कंपनियां बनाती हैं और इस के कई मौडल बाजार में उपलब्ध हैं. इस के कुछ मौडल 1.8 एचपी, 2.1 एचपी,

4 एचपी, 5.5 एचपी, 6 एचपी, 7 एचपी, 8.85 एचपी, 10 एचपी, 12 एचपी अलगअलग कंपनियों के अलगअलग मौडल होते हैं.

इस की कीमत भी जितनी एचपी की पावर टिलर है, उस पर निर्भर करती है. कुछ कंपनियां पैट्रोल और डीजल दोनों से चलने वाले पावर टिलर बनाती हैं और कुछ तो सिर्फ डीजल से चलने वाले.

वीएसटी शक्ति 130 डीआई

वीएसटी का यह पावर टिलर खेती में अच्छा काम करता है. वीएसटी शक्ति 130 डीआई आधुनिक खेती में सब से विश्वसनीय कृषि उपकरण है.

वीएसटी 130 डीआई पावर टिलर अपनी शानदार गुणवत्ता के लिए भी जाना जाता है. वीएसटी शक्ति 130 डीआई पावर टिलर की कीमत सभी छोटे और सीमांत किसानों के लिए किफायती है.

वीएसटी शक्ति 130 डीआई पावर टिलर

4 स्ट्रोक सिंगल सिलैंडर वाटरकूल्ड डीजल इंजन या ओएचवी इंजन के साथ आता है. यह टिलर 130 डीआई 600 मिलीमीटर टिलिंग चौड़ाई और 220 मिलीमीटर गहरी जुताई का काम करता है. इस टिलर में 11 लिटर की ईंधन टैंक क्षमता है.

वीएसटी पावर टिलर 130 डीआई मल्टीपल प्लेट ड्राई डिस्क टाइप क्लच और हैंड औपरेटेड इंटरनल ऐक्सपैंडिंग मेटैलिक शू टाइप ब्रेक के साथ आता है.

इस यंत्र में 2 स्पीड (वैकल्पिक 4 स्पीड) रोटरी ट्रांसमिशन सिस्टम के साथ 6 फारवर्ड और 2 रिवर्स दी गई हैं. इस पावर टिलर का कुल वजन तकरीबन 405 किलोग्राम है. इस में 13 एचपी की इंप्लीमैंट्स पावर शामिल है. वीएसटी शक्ति 130 डीआई पावर टिलर की कीमत तकरीबन 1.8 लाख रुपए है.

अगर कहा जाए, तो खेती में जो काम छोटा ट्रैक्टर करता है, वे सभी काम इस यंत्र के द्वारा भी लिए जा सकते हैं. सरकार द्वारा भी पावर टिलर की खरीद पर किसानों को सब्सिडी का लाभ दिया जाता है. पावर टिलर खरीदते समय किसान इस सरकारी सब्सिडी का लाभ उठा सकते हैं.

भारत भूमि युगे युगे: सादगी या हीनता

शिष्टाचार निभाना अच्छी बात है लेकिन इस की भी सीमाएं होती हैं. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मुंबई में हदें पार करते हुए नैशनल सिक्योरिटीज डिपौजिटरी लिमिटेड के सिल्वर जुबली आयोजन में भाषण दे रहीं मैनेजिंग डायरैक्टर पद्मजा चुंदुरु को मांगने पर पीने का पानी दिया तो उन की सादगी की मिसाल दी जाने लगी. भाषण देतेदेते पद्मजा का गला सूखने लगा तो उन्होंने पानी के लिए इशारा किया, इस पर निर्मला बोतल ले कर स्टेज तक पहुंच गईं.

यह टोटका असल में हीनतायुक्त था कि कैसे तो पब्लिसिटी मिले क्योंकि मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा किसी और मंत्री को स्पेस नहीं देता. नाम और प्रचार के लिए तरस रहे मंत्री सस्ते हथकंडे आजमाने लगे हैं. इस चक्कर में उन्हें प्रोटोकौल भी तोड़ना पड़ रहा है. रही बात वित्त मंत्री की तो वे आम बजट में ही खासा पानी आम लोगों को पिला चुकी हैं.

बहके क्यों पी के

चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर यानी पी के अब कांग्रेस में नहीं जाएंगे बल्कि अपनी खुद की पार्टी बनाएंगे. इस बाबत उन्होंने बिहार से तैयारियां भी शुरू कर दी हैं. पी के की कोई जमीनी पकड़ नहीं है. उन्हें तो मीडिया ने हौआ बना दिया है. जो रणनीति वे बनाते हैं वह अकसर चौपालों, चौराहों और चाय के अड्डों पर पहले ही बन चुकी होती है.

पी के, दरअसल, सांख्यिकी विज्ञान के संभावना वाले सिद्धांत को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं यानी वे अभिजात्य तोता छाप भविष्यवक्ता हैं जो यह भी बताता है कि रेस में कौन सा घोड़ा जीतेगा और न जीते तो यह भी बता देते हैं कि वह क्यों नहीं जीता.

कांग्रेस बहुत घिसे लोगों की पार्टी है जिन के सामने ऐसे कई पी के पानी भरते हैं, इसलिए उन्हें पार्टी में शामिल नहीं किया गया. इस पर तिलमिलाए पी के क्या सोच कर अपनी पार्टी बनाने जा रहे हैं, यह तो शायद वे भी नहीं जानते होंगे. हां, वक्त काटने और अब तक कमाया पैसा ठिकाने लगाने को उन का यह आइडिया बुरा नहीं.

इन्हें कोई मिल गया था

मशहूर रामकथा वाचक मोरारी बापू अब अकसर सनातनियों के निशाने पर रहने लगे हैं क्योंकि उन के अरबों के कारोबार में राम के साथ अल्लाह की तसवीर भी टंगी रहती है और वे शंकराचार्यों व महामंडलेश्वरों की तरह सनातनी संविधान का पालन भी नहीं करते. पिछले साल मुंबई के बदनाम इलाके कमाठीपुरा की कौल गर्ल्स को अयोध्या ले जा कर उन का उद्धार करने की नाकाम कोशिश उन्होंने की थी.

मोरारी बापू का वायरल होता एक वीडियो भक्त और अभक्त दोनों दिलचस्पी से देख रहे हैं जिस में ‘पाकीजा’ फिल्म के गाने चलतेचलते इन्हें ‘कोई मिल गया था….’ पर कुछ संभ्रांत महिलाएं नृत्य या मुजरा, जो भी कहलें, कर रही हैं और मौजूद लोग इस का लुत्फ उठा रहे हैं.

वीडियो वायरल करने से कट्टरपंथियों का मोरारी बापू को बदनाम करने का मकसद हल नहीं हुआ क्योंकि धार्मिक आयोजनों में महिलाओं के नाच रोजमर्रा की बात है, इस के बिना ये आयोजन फीके रहते हैं. बापू अपने तरह से आयोजनों को आकर्षक और कमाऊ बनाते हैं, इस पर एतराज के कोई माने नहीं.

ताकि वे मोची ही रहें

वर्णव्यवस्था को कायम रखने का कोई मौका भगवा गैंग के मैंबर नहीं चूकते. यही नहीं, इस बाबत नएनए मौके पैदा करने में उन्हें महारत भी हासिल है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मोचियों का अपने निवास पर ही सम्मेलन आयोजित कर उन्हें सहूलियतें देने का वादा करते कुछ को मोची किट भी थमा दी.

अब लोग पहले से सस्ते और घटिया फुटवियर नहीं पहनते और जूतेचप्पल टूट भी जाएं तो उन्हें सुधरवाने मोची के पास नहीं जाते. ऐसे में भी मोचियों और चर्मकारों को इस धंधे से नजात क्यों नहीं मिल रही? यह सोचना किसी नेता का काम नहीं, बल्कि खुद बचेखुचे मोचियों का है कि उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान चाहिए, फुटपाथ पर बैठे रहने के लिए टूलकिट नहीं.

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हकीकत: गंदगी के पहाड़ों के नीचे

गंदगी से बजबजाते एक शहर में पिछले दिनों कूड़े के बेहतर निबटान की एक स्कीम चली थी. इस में एक प्राइवेट कंपनी व सरकार के बीच हुए करार के तहत घरों से एक रुपए रोज ले कर कूड़ा उठाना था. उन से कंपोस्ट खाद, बिजली, ग्रीन कोल, गत्ता व प्लास्टिक दाना बनाया जाना था. स्कीम अच्छी थी. सो, नागरिकों ने तो खुशी से अपना सहयोग दिया, लेकिन आखिर में कुछ नहीं हुआ. कड़े पहाड़ बनते चले गए. कागजों पर बनी योजनाएं कागजों पर रह गईं. योजना बनाने वालों को जमीनी हकीकत मालूम ही न थी.

साफसफाई के मकसद से शुरू हुआ यह मिशन स्वच्छ शौचालय मिशन की तरह फेल हो गया. यह भी उसी तरह रुक गया जैसे फुजूल की स्कीमों से बहुत से काम बंद हो जाते हैं. साफसफाई ही क्या, हमारे देश में सुधार के लिए कोई भी नया काम आसानी से पूरा नहीं हो पाता, क्योंकि कोई भी काम करना गुनाह समझता है. सब अपनेअपने स्वार्थ के लिए लोगों को भड़काने लगते हैं.

गंदगी के पहाड़

मैट्रो रेल, मौल्स, फ्लाईओवर व ऊंची इमारतें तेजी से बढ़ी हैं. मोबाइल फोन व कंप्यूटर बढ़े हैं. लोगों की तालीम व आमदनी भी बढ़ी है, लेकिन साफसफाई के मोरचे पर पिछड़ापन अभी बाकी है. गंदगी के अंधेरे में सफाई के चिराग जुगनू सरीखे लगते हैं. महानगरों की सड़कों, कोठीबंगलों व पौश कालोनियों को छोड़ कर देश के ज्यादातर इलाकों में भयंकर गंदगी है.

रेलवे स्टेशन, बसस्टैंड, सिनेमाहौल, पार्क, सार्वजनिक शौचालय, पेशाबघरों आदि का बुरा हाल है. गांवशहरों की गलियां, नालियां, रास्ते व रेल की पटरियां गंदगी से अटी पड़ी हैं. जहांतहां कूड़े, कचरे के ढेर लगे रहते हैं.

लापरवाही, निकम्मापन, जहालत व जानकारी की कमी गंदगी के कई कारण हैं. मनमानी कर के गंदगी फैलाने को लोग अपना हक समझते हैं. ज्यादातर लोग सिर्फ दूसरों से उम्मीद करते हैं. वे सफाई कर्मचारियों व नगरपालिका को कोसते हैं. आबादी का बड़ा हिस्सा बेपढ़ा व सेहत के मामले में जागरूक नहीं हैं. सो ज्यादातर लोग साफसफाई को तरजीह, तवज्जुह नहीं देते. किसी भी शहर के मुहाने को देख लीजिए. दूरदूर तक धूल, कीचड़, मैला व गंदगी पसरी दिखाई देती है.

कारण

अमीर मुल्कों में गंदगी फैलाने पर सख्त जुर्माना होता है. सो, वहां सब चौकस रहते हैं. लेकिन हमारे देश में राजकाज चलाने वालों को ऐसी बातें फुजूल लगती हैं. यहां ज्यादातर सरकारी दफ्तरों का बुरा हाल है. इस में दोष ओहदेदारों का भी है. भले ही विदेशियों के सामने उन की गरदन शर्म से झुके, लेकिन वे साफसफाई के लिए सख्त कायदेकानून नहीं बनाते. गरीबों के लिए घरों का सही इंतजाम नहीं करते. ऐसे में गंदगी का अंधेरा ले कर झुग्गीझोपड़ियों का सैलाब बढ़ता है.

लोग बेखोफ हो कर अपने घरों, दफ्तरों व कारखानों का कचरा कहीं भी फेंक देते हैं. ठीक से कचरे का निबटारा नहीं करते, क्योंकि ज्यादातर लोग तो कूड़े के बेहतर निबटान की तकनीक व तरीकों से ही नावाकिफ हैं. नतीजतन, नालियां व नाले पौलिथीन व कचड़े आदि से अटे पड़े रहते हैं. लोग गंदगी में रहने, जीने व खाने तक से परहेज नहीं करते. धार्मिक अंधविश्वासों ने इस आग में घी का काम किया है. वैसे, गंदगी तो सदियों से हमारे समाज में है. वहीं, बहुत से लोग गंदी आदतों के शिकार हैं.

ज्यादातर लोग खुद गंदे रहते हैं. अपना घर व आसपास का माहौल गंदा रखते हैं. पूजापाठ का सामान, मुर्दे, राख व मूर्तियां आदि बहा कर नदियों को गंदा करते हैं. भीड़भाड़ वाली जगहों खासकर मंदिर, मेले व तीर्थस्थानों आदि का तो इतना बहुरा हाल रहता है कि देख कर भी घिन्न आती है, क्योंकि जानवरों व इंसानों में ज्यादा फर्क नहीं दिखता. हमारी सोच ही गंदी है. जब दिमागों में ही गंदगी होगी तो बाहर साफसफाई कैसे व किसे रास आएगी?

बेअक्ली

बाल व नाखून बढ़ाना, धूनी रमाना, बदन पर राख मलना, गंदीगंदी गालियां देना, गंद नहीं तो और क्या है? ये सब हमारी उसी संस्कृति के हिस्से रहे हैं, जिस के हम आज भी गुणगान गाते हुए नहीं अघाते. गंदे रीतिरिवाजों की वजह से हमारे देश के बहुत से लोग आज भी गंदगीपसंद हैं. वे जागरूक नहीं हैं. वे साफसुथरे ढंग से रहने या सफाई आदि करने की परवा ही नहीं करते. क्योंकि गंदगी तो हमारी जिंदगी में रचीबसी व जेहनियत में भरी हुई है.

खुद साफसुथरे रहने या अपने आसपास साफसफाई रखने का ख़याल पहले दिलोदिमाग में आता है. तभी तो हमारे कामधाम व रहनसहन में सफाई झलकती है. तभी हम गंदगी से बच कर सफाई को तरजीह देते हैं. लेकिन हमारे देश में तो ज्यादातर लोग गंदा रहने व गंदगी करने के आदी हैं. पानगुटखा खाने वाले वाहन चलाते हुए ही पीक मार देते हैं. जहां चाहा थूक दिया, मूत दिया. जहां मन किया खुले में फारिग हो लिए. जब ऐसी बातों पर नकेल नहीं होती तो फिर गंदगी तो बढ़ेगी ही. हालांकि साफसुथरे रहना मंहगा, मुश्किल या नामुमकिन नहीं है.

फिर भी ज्यादातर लोग सफाई पर ध्यान नहीं देते, नशेड़ी, भिखारी, मिस्त्री, कारीगर, हलवाई, ठेले, खोमचे व रिकशा वाले आदि बेहद गंदे रहते हैं. ऐसे आलसी बहुत हैं जो कई दिनों तक नहीं नहाते, दाढ़ीबाल नहीं कटाते, दांत नहीं मांजते, कपड़े धोने, बदलने की जहमत नहीं उठाते. इस वजह से उन के बदन व कपड़ों पर मैल दिखता है. पास आने से बदबू आती है, लेकिन फिर भी वे जरा नहीं शरमाते. यह सच है कि इंसान यदि चाहे तो मामूली सा धन खर्च कर के भी साफसुथरा रहा जा सकता है.

जातिवाद

हमारे देश में खूब उलटबांसियां देखने को मिलती हैं. मसलन, लोगों को गंदा रहने या गंदगी फैलाने में जरा शर्म नहीं आती और उन्हें खुद साफसफाई करना हिमाकत लगती है. सदियों से चला आ रहा जातिवाद का जहर उस की बड़ी वजह है. खासकर अगड़े, अमीर व पंडेपुजारी साफसफाई करने को नीची जाति वालों का काम समझते हैं. सफाई करने वालों को शूद्र समझते हैं: अपने मतलब के लिए उन्हें नहाने, धोने व साफसुथरा रहने से रोक कर गंदा बने रहने के लिए मजबूर करते हैं. सो, हमारी आबादी के बड़े हिस्से को गंदा रहने की आदत पड़ चुकी है.

हम अपने धर्म व संस्कृति की शान में कितने ही कसीदे क्यों न काढ़ें, लेकिन जातिप्रथा उसी की देन है. पंडेपुजारी बिना करेधरे मौज उड़ाते हैं. ऊपर से लोगों को यही समझाते व बताते हैं कि ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सब के दाता राम.’ ज्यादातर लोग भगवान को अपना सबकुछ मान कर काम को हाथ नहीं लगाते. वे इतने निकम्मे हो जाते हैं कि उन्हें खुद गंदा रहना बुरा रहना बेजा नहीं लगता. गंदगी को बनाए रखने व गंदगी करने में उन्हें अफसोस नहीं होता. सो, जहांतहां गंदगी के अंबार दिखाई देते हैं.

नुकसान

गंदगी से इंसान, समाज व पूरे देश का बहुत नुकसान होता है. गंदगी एक बदनुमा दाग, गंभीर समस्या व तरक्की के रास्ते में बड़ी रुकावट है. यह हमारे समाज का कोढ़ व बदहाली की जड़ है. गंदगी की वजह से भी बहुत सी बीमारियां फैलती हैं: जिन के बेवजह इलाज में धन जाया होता है. गुरबत बढ़ती है. गंदगी में रहने से कमजोरी, दिमागी परेशानी व तनाव बढ़ता है. गंदे बने रहने से काम करने व कमाने की कूवत घटती है. भयंकर गंदगी देख कर बहुत से सैलानी भारत घूमने की हिम्मत नहीं कर पाते. सो, गंदगी को जड़ से दूर करना बेहद जरूरी है.

यदि हर देशवासी अपने आसपास थोड़ी सी भी कोशिश करे तो यह मसला हल हो सकता है. कूड़ेकचरे का बेहतर निबटान, पुरानी कुप्रथाओं का खात्मा तथा गंदगी वाली जगहों पर फूलों की खेती कर के अपने देश को चमन बनाया जा सकता है. कई इलाकों में ऐसा हुआ भी है. मुफ्त जमीन, छूट व ईनाम आदि की सहूलियतें दे कर सरकार सफाई को बढ़ावा दे सकती है.

बंगले वाली- भाग 5: नेहा को क्यों शर्मिंदगी झेलनी पड़ी?

पिछली बार बहन की गोद भराई में उस की सास ने तो ताना मार ही दिया था. लगता है, नेहा को पुरानी चीजों से बहुत लगाव है, इसलिए हमेशा यही हार  पहनती है. अरे भाई, अब तो नया ले लो, वो भी बेचारा थक गया होगा. हाल  सब के ठहाकों से गूंज उठा था, पर कहां से ले ले नया हार…? सोचते हुए उस ने जैसे ही हार निकाला…, अरे, इस की एक झुमकी तो टूट रही है. हाय, अब क्या  पहनूंगी? सोने का कुछ न कुछ तो पहनना पड़ेगा, मंगलसूत्र तो बहुत ही हलका है, अकेले उस से काम नहीं चलेगा. सुबह औफिस जाते वक्त इन्हें दे दूंगी, सुनार के यहां डाल देंगे. दिन में जा कर उठा लाऊंगी, परसों तो निकलना ही है. सुबह पति से मनुहार कर के नेहा ने झुमकी सुनार के यहां पहुंचा दी थी.

जल्दीजल्दी घर के काम पूरे कर के वह झुमकी लेने बाजार की तरफ चल पड़ी. बाजार पास ही था, इसलिए पैदल ही चल दी. मायके जाने के उत्साह में कांची कब उस के ध्यान से उतर गई, उसे पता ही नहीं चला. उत्साह का आलम ये था कि जिस बंगले ने उस की नींद उड़ा रखी थी, उस की तरफ भी उस का ध्यान नहीं गया.

तेज कदमों से चलते हुए वह सुनार की दुकान पर पहुंची, झुमकी उठा कर जैसे ही वह पलटी, उस का मुंह खुला का खुला रह गया. सामने कांची खड़ी थी, वो भी उसे देख कर हक्काबक्का रह गई. कुछ पल बाद दोनों को जैसे ही होश आया, खुशी से चीखते हुए कांची उस से लिपट गई.

‘‘हाय, मैं ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि तुझ से मुलाकात होगी. एक पल को तो मैं पहचान ही नहीं पाई कि तू ही है या कोई और, कितनी बेडौल हो गई है.’’

‘‘पर, तू तो बिलकुल वैसी की वैसी ही है, जरा भी नहीं बदली,’’ नेहा जबरन मुसकरात हुए बोली.

‘‘तू यहां क्या कर रही है? क्या इसी शहर में रहती है? कहां है तेरा घर? तेरे पति क्या करते हैं और बच्चे…?

‘‘अरे, बसबस…..सांस तो ले ले, मैं कहां भागे जा रही हूं, परसों राहुल की सगाई है, कान की झुमकी उठाने  आई थी. मुझे कल ही निकलना है, आज बहुत काम है, बातें तो फिर होती रहेंगी.’’

नेहा की बेरुखी कांची समझ न सकी, वह तो खुशी के मारे अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, ‘‘अरे वाह, क्या बात है, छोटा सा राहुल इतना बड़ा हो गया. हाय, टपने पुराने महल्ले को देखने का इतना मन कर रहा है…, पर अभीअभी नए घर में शिफ्ट हुए हैं, पहले ही बैंक से बहुत छुट्टियां ले चुकी हूं. आज भी घर के कुछ काम निबटाने थे, छुट्टी पर हूं, नहीं तो मैं भी तेरे साथ चलती, सभी से मिल लेती. खैर, कोई बात नहीं, तू जब लौट कर आएगी तो तेरी बातें सुन कर ही वहां की यादें ताजा कर लूंगी.’’

‘‘ले, तुझे देख कर तो मैं सब भूल गई. तू रुक, मैं जरा कड़े की डिजाइन सुनार को बता दूं.’’

उफ, जिस बला से बच रही थी, वो इस तरह मेरे सामने आएगी, सोचा न था. कहीं झुमकी न देखने लगे, जल्दी से रूमाल में लपेट कर उसे पर्स में डाल ली. कांची की आत्मीयता उसे दिखावा  लग रही थी. जब वो मेरी हालत देखेगी तो जरूर पूछेगी, क्या हुआ तेरे रूपसौंदर्य का, सपनों का राजकुमार नहीं आया लेने, पर अब तो इस से बचना मुश्किल है, नेहा रूआंसी हो उठी.

‘‘चल, अब बता तेरा घर किधर है, पहले मेरे यहां चलते हैं, चाय पिएंगे, फिर मैं तुझे घर छोड़ दूंगी,’’ दुकान से बाहर आते हुए कांची बोली.

‘‘नहीं, आज नहीं. मुझे बहुत देर हो रही है.’’

‘‘चुप रह, मैं कोई बहाना नहीं सुनने वाली, एकाध घंटे में कुछ नहीें बिगड़ने वाला, चल बता, किधर है तेरा घर?’’

‘‘पास में ही है, सतगुरू अपार्टमैंट में रहती हूं.’’

सुनते ही कांची लगभग उछल ही पड़ी, ‘‘क्या बात कह रही है. उस अपार्टमैंट के सामने ही तो मेरा बंगला है. हद हो गई यार… हम दोनों 10 दिनों से एकदूसरे के इतने पास रह रहे हैं और एकदूसरे को दिखे भी नहीं? ये तो  कमाल ही हो गया… मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि मेरी सब से प्यारी दोस्त मेरे पड़ोस में रहती है, अब हमारा बचपन फिर से जी उठेगा,’’ कांची खुशी से फूली नहीं समा रही थी.

‘‘अरे क्या हुआ…? तेरा चेहरा क्यों उतरा हुआ है, कहीं पुरानी बातें तो याद नहीं कर रही, मैं तो वो सब कब का भूल चुकी हूं, तू भी भूल जा.’’

‘‘बातोंबातों में घर ही आ गया, चल चाय पीते हैं,’’ कांची ने कार बंगले में पार्क करते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, फिर आऊंगी…’’

‘‘चल न यार,’’ कांची उस का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए अंदर ले गई.

बंगले की शानोशौकत देख कर नेहा की आंखें फटी की फटी रह गईं. साजसज्जा के ऐसेऐसे सामान. ऐसी दुर्लभ पेंटिग्स… आलीशान कानूस… जिधर नजर जाती, ठहर जाती. ये सब तो उस ने सिर्फ फिल्मों में ही देखा था, यह तो उस का सपना था…

‘‘कहां खो गई, चल बैडरूम में बैठते हैं,’’ नेहा मंत्रमुग्ध सी उस के पीछे चल पड़ी.

‘‘यहां आराम से बैठ. भोला, जरा चायनाश्ता तो लाना…’’

नेहा जैसे ही बैठने को हुई, उस की नजर बैड पर बिखरे जेवरों पर पड़ी. आश्चर्य के मारे उस का मुंह खुला का खुला रह गया. इतने सारे जेवर… वे भी एक से बढ़ कर एक.

‘‘तू भी क्या सोचेगी? कैसा फैला हुआ पड़ा है? तू तो जानती है, मुझे शुरू से सादगी से रहना ही पसंद है,  पर इन की बिजनैस पार्टियों में इन की खुशी के लिए सब पहनना पड़ता है. राज एक पाटी में गए थे, समझ नहीं आ रहा था कि क्या पहनूं? तो सारे निकाल लिए, रखने का वक्त ही नहीं मिला.

“ये भोला भी, अभी तक चाय नहीं लाया. तू बैठ, मैं अभी देख कर आती हूं,’’ कांची उस की मनोस्थिति से पूरी तरह बेखबर थी.

नेहा को तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. उस की नजर तो डायमंड नेकलेस पर अटक गई थी, जो बिलकुल उस के पास ही पड़ा था. इतना खूबसूरत नेकलेस तो उस ने कभी सपने में भी नहीं देखा था, न ही वो उस की कीमत का अंदाजा लगा सकती थी.

अगर ये मैं राहुल की सगाई में पहन कर चली जाऊं, तो… सारे रिशतेदारों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी, और मुह पर ताले पड़ जाएंगे.

अगर मांगू तो… कांची क्या सोचेगी, नहींनहीं, चुपचाप उठा लूं तो… पर, कहीं किसी ने देख लिया तो… कोई भी तो नहीं है, उस ने पर्स से रूमाल निकाल कर नेकलेस पर पटक दिया, इधरउधर देखा और झट रूमाल के साथ नेकलेस उठा कर पर्स में डाल लिया.

‘‘नौकरों के भरोसे कोई काम नहीं होता, ले  गरमागरम चाय पी,’’ कांची ने बैडरूम में घुसते हुए कहा.

अधिक संतान और मातृत्व

कुछ दिन पहले की बात है, मैं अस्पताल के बरामदे से निकल रहा था. 2 महिलाएं आपस में बातें कर रही थीं. पहली महिला दूसरी महिला से बोली कि बहन, क्या आज तुम्हारी अस्पताल से छुट्टी हो गई? तो दूसरी महिला ने बताया कि मैं ने डाक्टरनी से झूठ कहा कि यह मेरा तीसरा बच्चा है और तीनों में पहली 2 लड़कियां और यह पहला लड़का है, इसलिए मैं औपरेशन नहीं करवाना चाहती. इस पर पहली महिला ने आश्चर्य से कहा कि बहन, तुम्हारे तो 2 लड़कियां व 2 लड़के और हैं. यह तुम ने उन को क्यों नहीं बताया तो वह महिला हंस कर बात टाल गई. मैं थोड़ी देर वहीं ठिठक गया परंतु वे फिर कुछ न बोलीं. अभी कुछ माह पहले की ही बात है, वही महिला मेरे पास आई और पूछने पर पता लगा कि 2 माह से उस के पूरे शरीर की हड्डियों में दर्द है और 7 माह का गर्भ है. उस के चेहरे से व्यथा झलक रही थी. उस के पति ने बताया कि उसे सुबह बिस्तर से उठने में आधा घंटा लग जाता है और बहुत तकलीफ होती है. उठनेबैठने में उसे दूसरों का सहारा लेना पड़ता है.

जांच करने पर पता लगा कि अब वह इतनी कमजोर हो गई है कि कमजोरी का असर हड्डियों तक में हो गया है. अब वह औस्टियोमलेशिया से पीडि़त है. यह ऐसी बीमारी है जिस में हड्डियां कमजोर व नरम हो जाती हैं और कभीकभी थोड़े झटके से ही टूट जाती हैं. शरीर के सभी अंगों में दर्द होना इस बीमारी का प्रमुख लक्षण है, खासकर कमर की हड्डियों में अधिक दर्द होता है. कम अंतर से बहुत बच्चे होने पर महिलाएं इस रोग की शिकार हो जाती हैं. विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसी माताएं जिन के 6 या उस से अधिक बच्चे होते हैं, किसी भी समय परेशानियों में घिर सकती हैं. ऐसी महिलाओं के प्रति अधिक सतर्कता बरती जाए, इसलिए चिकित्सा विशेषज्ञ ऐसी महिलाओं को खतरनाक गर्भवती महिलाएं कहते हैं. ऐसी महिलाएं किसी भी समय नाटकीय दृश्य के समान अनेक समस्याएं उत्पन्न कर सकती हैं और इन के लक्षण अधिक खतरनाक होते हैं. जल्दीजल्दी संतान होने से महिलाओं के हृदय को अधिक काम करना पड़ता है जिस से मानसिक परेशानियां भी हो जाती हैं. ऐसी महिलाएं ब्लडप्रैशर की भी शिकार हो जाती हैं.

निरंतर बढ़ती उम्र और यदाकदा शरीर का मोटापा न केवल रक्तचाप यानी ब्लडप्रैशर बढ़ाने में भूमिका निभाते हैं बल्कि इन महिलाओं में प्रसूति क्रिया के असामान्य होने की अधिक आशंका रहती है. देखा गया है कि गरीब और निम्नवर्गीय लोग, जिन्हें स्वास्थ्य शिक्षा का अधिक ज्ञान नहीं होता, सदैव रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से जूझते रहते हैं. ऐसी महिलाओं में भी प्रसूति क्रिया के असामान्य होने की अधिक आशंका रहती हैं. ऐसी महिलाएं प्रसूति के बाद ठीक से आराम नहीं कर पातीं और जब शीघ्र ही दोबारा गर्भवती हो जाती हैं तो उन में खून की कमी हो जाती है. गरीबी का आंचल ओढ़े हुए भारतीय नारी अपने भोजन को अच्छा बनाने की जगह उस में कटौती करती है और अपने बच्चों का पेट पालती है. परिणाम यह होता है कि ऐसी महिलाओं के शरीर में पोषक तत्त्वों की कमी हो जाती है और बढ़ती उम्र में सफेद व निराश आंखें, कमजोर शरीर, लटका हुआ पेट व टेढ़ीमेढ़ी चाल उस नारी का स्वरूप चित्रित करती है जिस की कल्पना मात्र से ही दिल कांप जाता है.

मुश्किलें कम नहीं

जिन नारियों के अधिक बच्चे होते हैं वे गर्भपात की भी शिकार होती हैं. ऐसे गर्भपात कितने प्राकृतिक और कितने करवाए गए हैं, यह जानना मुश्किल होता है किंतु इन से शरीर में खून की कमी तो हो ही जाती है जिन का इलाज खून बढ़ाने की गोलियां, इंजैक्शंस या कभीकभी रक्त दे कर किया जाता है. जैसा कि अनुमान लगाया जाता है ठीक उस के अनुरूप अधिक संतानों वाली माताएं बवासीर और पैर की नसों में सूजन से भी अधिक परेशान रह सकती हैं. जैसेजैसे अधिक बच्चे होते जाते हैं, गर्भाशय व पेट अधिक बड़ा व ढीला होता जाता है और इस प्रकार की परिस्थितियां गर्भस्थ शिशु को उलटा या आड़ाटेढ़ा रखने में भूमिका निभाती हैं. इस का परिणाम यह होता है कि अधिकाधिक माताओं को प्रसूति के लिए शल्यक्रिया की आवश्यकता होती है, चाहे वह छोटी हो या बड़ी. अधिक बच्चे पैदा होने से बच्चेदानी कमजोर हो जाती है और ऐसी बच्चेदानी में जब बच्चे टेढ़ेमेढ़े होते हैं तो दर्द की तीव्रता से बच्चेदानी के फट जाने की अधिक संभावना होती है जो जान के लिए अधिक घातक सिद्ध होता है. अकसर देखा गया है कि ग्रामीण अंचलों में किन्हीं अनजान कारणोंवश ऐसी महिलाओं को ग्लूकोज चढ़ाया जाता है व प्रसव वेदना बढ़ाने के लिए इंजैक्शन दिए जाते हैं जो खतरनाक होते हैं, कभीकभी तो बच्चेदानी एक तरफ से टूट जाती है. ऐसे में या तो जच्चाबच्चा दोनों की मृत्यु हो जाती है या किसी प्रकार ऐसी महिला को बड़े अस्पताल में भेजा जाए तो बड़ी मुश्किल से शल्यक्रिया द्वारा महिला की जान बचाई जा पाती है.

कभीकभी तो चिकित्सकों को इस प्रकार के फूटे हुए गर्भाशय का शीघ्र पता भी नहीं लग पाता. पता तब लगता है जब महिला को या तो प्रसूति के बाद अधिक खून बह जाता है या वह एकदम से रक्त की कमी से बेहोश हो जाती है. ऐसी महिलाएं काल के गाल में जाने से बहुत मुश्किल से बचाई जा सकती हैं. कभीकभी प्रसूति के बाद शिशु का पोषक मांस जिसे चलती भाषा में फूल (प्लेसेंटा) भी कहते हैं, भीतर ही रह जाता है जिसे निकालने में बड़ी परेशानी होती है और जिस के लिए छोटी या बड़ी शल्यक्रिया का सहारा लेना पड़ता है. बहरहाल, एक संतान की प्राप्ति के बाद इस समस्या को यथा समय ही सुलझा लें ताकि अधिक संतानों के होने के चलते संतप्त मातृत्व को बचाया जा सके. आज की बढ़ती महंगाई और जीवनसंघर्ष के क्षेत्र में यह अत्यावश्यक हो जाता है कि हम अपने परिवार में वृद्धि सुनियोजित हो कर ही करें. वैसे भी छोटा परिवार, सुखी परिवार.     

(लेखक स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं.) 

अंतिम प्रयाण: अपनों और परायों का दो मुंहा चेहरा

विनायक के चेहरे को तिरछी नजरों से ताकती हुई परिता पिता से संवाद साध रही थी कि यह देखो पापा, अच्छा ही हुआ वरना आप अपनों और परायों का यह दोमुंहा चेहरा सहन न कर पाते. मैं और मम्मी  इन लोगों के बीच अब कैसे रहूं? और फिर उस ने सुधा की ओर देखा.

आखिर विनायक ने अंतिम सांस ली. बगल में उन का हाथ थामे बैठी सुधा, आंखें बंद किए लगातार मृत्युंजय जाप कर रही थी. पुनीत और परिता सजल आंखों से 15वां अध्याय गुनगुना रहे थे. विनायक इस सब के बिलकुल खिलाफ थे. खिलाफ तो इस सब के सुधा भी थी लेकिन जगहंसाई से बचने के लिए उसे यह ढोंग करना पड़ रहा था. जैसा विनायक का सात्विक, सत्यनिष्ठ, शांत जीवन था वैसा ही उन की शांत मृत्यु और वैसा ही उन का स्थितिप्रज्ञ परिवार, जिस ने पूरी स्वस्थता के साथ यह आघात सहने का मनोबल बना रखा था. इस के पीछे भी विनायक और सुधा के ही विचार थे.

दोनों ही देश की प्रतिष्ठत यूनिवर्सिटी में विज्ञान शाखा के पूर्व प्राध्यापक होने के कारण हमेशा सत्य की खोज में रत, स्पष्टवक्ता, समाज और परिवार में व्ववहार के नाम पर चलने वाले दंभ के सामने विरोध कर क्रांतिकारी कदम उठाने में हमेशा आगे रहे. उन से मिलने वाले किसी भी व्यक्ति को यही लगता था कि जीवन की सभी वास्तविकताओं और चढ़ावउतार को तटस्थताभाव से समझने वाले और पचाने वाला यह दंपती धर्म में कम, मानवता व कर्म में ज्यादा जीता है. शायद इसीलिए विनायक को अच्छा लगे, उन के व्यक्तित्व पर जमे, इस तरह पूरे परिवार ने मोक्षमार्ग के प्रयाण के समय आंसू गिराए बिना खुद को संभाला और निभाया.

खबर मिलते ही सगेसंबंधी, पड़ोसी, यारदोस्त, कलेज के साथी जुटने लगे थे. अंतिम प्रयाण की तैयारियां होने लगी थीं. पुनीत और परिता के फोन बजने लगे थे. फोन विनायक के दूर के मौसेरे भाई हरीश का था, “अरे, मुझे तो अभीअभी पता चला. प्रकृति जो करे, वही ठीक है. वैसे तो कुछ भी नहीं था न उन्हें? कैसे हो गया यह? बेटा, हिम्मत से काम लेना. मैं तो बेंगलुरु से अभी पहुंच नहीं सकता, पर कोई काम हो, कह देना, जरा भी संकोच मत करना.”

“जी अंकल, नहींनहीं, कोई बात नहीं. बस, अचानक सांस भारी हुई. पापा की इच्छानुसार किसी तरह का कोई लौकिक रीतिरिवाज नहीं रखा, इसलिए परेशान मत होइए.”

“सुधा भाभी को संभालना. अब तो घर में तुम्हीं सब से बड़े हो. परिता तो अभी छोटी है. मुझे विश्वास है, तुम संभाल लोगे. बाकी और बोलो, नया क्या है. मजे में हो न?” और फोन कट गया.

पुनीत एकटक फोन को ताकता रहा. ‘नया क्या है, मजे में हो न? नया क्या है मजे में हो न?’ कान के परदे पर ये शब्द गूंजते रहे. बाप को खोए अभी कुछ ही घंटे हुए हैं. उन का पार्थिव शरीर अभी सामने पड़ा है. इस हालत में भला कोई मजे में हो सकता है? यह नया कहा जाएगा? इस तरह के सवाल? मन को धक्का लगा.

अब पुनीत ने मां की ओर नजर दौडाई. गजब स्वस्थ हैं मम्मी. लगातार गुनगुना कर रही हैं, पापा की ऊर्ध्वगति के लिए, अपनी वेदना को छिपा कर. तभी मिसेज तिवारी आंटी आईं. इस्त्री की हुई साड़ी में, दोनों हाथ जोड़े, “सुधा, यह क्या हो गया? मुझे तो प्रोफैसर शशांक से पता चला. अब तुम इन दोनों को देखो. इन की हिम्मत तो तुम्हीं हो अब. किसी भी तरह की कोई जरूरत हो तो कहना. खाने की चिंता मत करना. कालेज की कैंटीन में कह दिया है. अभी कुछ दिनों तक घर में लोगों का आनाजाना लगा रहेगा न. सागसब्जी तो कुछ नहीं चाहिए?”

सुधा मिसेस तिवारी के चल रहे नौनस्टौप लैक्चर को नतमस्तक हो कर सुन रही थी, “देखो, चाहोगी तो यह सब तुम्हें घरबैठे मिल जाएगा. ऐसी तमाम ऐप हैं. मैं तो इस महामारी के दौर में औनलाइन ही और्डर करती हूं. 3-4 घंटों में सब्जी आ जाती है.” तभी बगल में बैठी तारा बूआ ने आंख पोंछते हुए धीरे से कहा, “हांहां, बहुत अच्छी सर्विस है उन की. उस में डिस्काउंट स्कीम भी चलती रहती है. परवल और भिंडी एकदम ताजी और आर्गेनिक.”

मिसेज तिवारी अब बूआ की ओर घूम कर फुसफुसाती हुई बोलीं, “उस में आप कौन्टैक्ट ऐड कर के फायदा भी ले सकती हैं. आप अपना नंबर दीजिए, मैं आप को ऐड…”

वहीं पास में बैठे पुनीत और परिता स्तब्ध हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. यह स्थान और समय सचमुच सागसब्जी की ऐप के संवाद के लिए था. ऐसे मौके की तो छोड़ो, सामान्य संयोगों पर भी मम्मी इस तरह के माहौल का जोरदार बहिष्कार करतीं. पर इस समय, ऐसे मौके पर एक सामान्य महिला की तरह चुपचाप बैठी सभी का मुंह ताक रही थीं. भाईबहन कभी एकदूसरे का तो कभी मां का तो कभी बातें करने वालों का मुंह ताक रहे थे.

अभी सभी थोड़ा सामन्य हुए थे कि रविंद्र ताऊ पुनीत के पास आ कर बोले, “ए पुनीत, विनय भैया का एक कुरतापायजामा दो. जल्दीजल्दी में मैं ने तौलिया तो ले लिया, पर श्मशान से लौट कर नहाने के बाद बदलने के लिए कपड़े साथ लाना भूल गया. और अब तो विनय भैया के कपड़ों की जरूरत ही क्या है. अरे हां, पिछले महीने फैशन वेयर से उन्होंने जो कुरतापायजामा खरीदा था, उसे ही ले आना.”

रविंद्र विनायक के सगे बड़े भाई थे. पुनीत ने झटके से रविंद्र की ओर देखा. बड़ेबुजुर्ग हैं, इसलिए लिहाज करने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता था? बड़ी बूआ कनक 2-4 अन्य बुजुर्ग महिलाओं के बीच बैठी सुधा से फरमा रही थीं, “ऐसे में तुम्हें रहने में अकेलापन लगेगा. कहो तो मैं एकाध महीने रुक जाऊं? वैसे भी हमें क्या काम है. मंदिर में बैठी रहूं या तुम्हारे घर में, क्या फर्क पड़ता है. व्रतउपवास तो मैं करती नहीं. हां, मेरे लिए अलग खाना बनाने का थोड़ा झंझट जरूर रहेगा. तुम्हारा भी मन लगा रहेगा और भजनसत्संग भी होता रहेगा. अब तो तुम्हें भी इसी में हमेशाहमेशा के लिए मन लगाना होगा.”

सुधा शून्यभाव से चुपचाप अपने चारों ओर बुढ़ियों को ताकती रही. उन सब की बातें सुन कर वह थक गई हो, इस तरह निसास छोड़ती रही. उसी समय कोने में दीवार से टेक लगाए बैठे मनोज मोबाइल पर जोरजोर से बातें करते हुए आगे खिसके, “हांहां, सुनाई दे रहा है. वहां तो इस समय देररात होगी? ले बात कर पुनीत से.” इस के बाद पुनीत को फोन पकड़ाते हुए कहा, “ले, बात कर, दीपक है स्काइप पर. तेरे लिए ही जाग रहा है. फर्ज निभाने में मेरा दीपक जरा भी पीछे नहीं रहता. बहुत व्यावहारिक है. ले जरा बात कर ले और थोड़ा अंतिमदर्शन भी करा देना. मोबाइल की स्क्रीन विनायक मौसा की ओर घुमा देना. हमारे दीपक को परिवार से बहुत लगाव है.” इतना कह कर मनोज ने गर्वभरी नजरों से वहां बैठे लोगों की ओर देखा.

पुनीत को एकाएक झिझक सी हुई. जबरदस्ती हाथ में पकड़ाए गए मोबाइल को ले कर वह दूसरे कमरे में चला गया. बात कर के वह वापस आया तो अंतिमयात्रा के लिए मंत्रोच्चार और विधि हो रही थी. विनायक के पार्थिव शरीर को फूलों से सजाया जा रहा था. परिता बाप की विदाई और उस समय चल रही आसपास की विषमताओं को पचाने का असफल प्रयास कर रही थी.  तभी धीरे से खिसक कर धीरेंद्र ने कहा, “विश्वास ही नहीं हो रहा कि विनय मामा हम सब को छोड़ कर चले गए. मैं सब संभाल लूंगा, हां. मैं तुम्हारा भाई हूं न. मैं वह क्या कह रहा था कि कोई उतावल नहीं है, फिर भी आगेपीछे पुनीत के कान में बात डाल देना. इन फूलों और बाकी चीजों को मिला कर 3 हजार रुपए हुए हैं. कोई उतावल नहीं है. मामा को कितने अच्छे से सजाया है न, जैसे अभी उठ कर बोलने लगेंगे. चेहरे पर तेज तो देखो. श्मशान से आने के बाद खाने की क्या व्यवस्था की है? मैं वह क्या कह रहा था कि कहो तो पंडित के ढाबे पर फोन कर दूं. हमारी जानपहचान है पंडित से. उस के यहां का खाना बहुत टेस्टी होता है.”

धीरेंद्र की बातों से परिता की आंखों में आंसू आ गए. “पापा… यह किस तरह के लोगों के बीच छोड़ कर चले गए हो. आप तो समाज की सोच को बदलना चाहते थे, यहां तो इन के मन में मौत के बजाय ढाबे के टेस्टी खाने की परवा ज्यादा है.” मन में उठ रहे आक्रोश को वह आंसुओं में बहा रही थी.

पुनीत ने बहन को सांत्वना देने के लिए उस के सिर पर हाथ फेरा. उसी समय सुन॔दा आंटी एकाएक चिल्लाती हुई आईं और ध्यानमुद्रा में बैठी सुधा को बांहों में भर लिया. अपनी जेठानी के इस आवेगभरे हमले से सुधा हिल उठी. वे जोरजोर से कहने लगीं, “सुधा, यह क्या हो गया. मेरा प्यारा देवर हम सब को दगा दे गया. रो ले सुधा, रो ले. इस तरह गुमसुम बैठी रहेगी तो पत्थर हो जाएगी. फिर इन दोनों को कौन देखेगा?” थोड़ा खंखार कर गला साफ किया तो सुनंदा की आवाज थोड़ा स्पष्ट हुई. अब उन की बात पुनीत और परिता की भी समझ में आने लगी.

उन्होंने आगे कहा, “विधि का विधान तो देखो, अभी हम दोनों ने शादी की 50वीं वर्षगांठ मनाई है. तुम्हारे जेठ तो 75 पार कर गए और यह तो उन से कितने छोटे थे, फिर भी पहले चले गए.” आवाज की खनक और तरीके में छिपा राजी वाला मर्म स्पष्ट झलक रहा था, “पीकू मुझ से कह रहा था कि दादी, यह कैसा हुआ?  आप ओल्डर हैं तब भी कपल हैं. पर सुधा दादी तो आप से छोटी हैं, फिर भी विडो हो गईं, ऐसा कैसे?”

पुनीत मुट्ठी भींच कर लौन में खड़े लोगों की ओर बढ़ गया. परिता विनायक के निश्चेत चेहरे को तिरछी नजरों से ताकते हुए मन ही मन पिता से संवाद साध रही थी, ‘यह देखो, पापा, सुन रहे हो न? अच्छा ही हुआ, आप यह सब देखने के लिए यहां नहीं हो. आप चले गए, यही अच्छा है. वरना आप अपनों और परायों का यह दोमुंहा चेहरा सहन न कर पाते. इन लोगों की यह मानसिकता आप कैसे सह पाते. पापा, आप को तो छुटकारा मिल गया, अब मैं, मम्मी  इन लोगों के बीच कैसे रह पाऊंगी?’ और विनायक के चेहरे से नजर हटा कर लाचारी से मां सुधा की ओर देखा.

ठीक उसी समय सुनंदा बैठैबैठे बड़बड़ाती रहीं और पलभर में खुद को संभाल कर अगलबगल, आगेपीछे देखने लगीं, जैसे अदृश्य धक्का मारने वाली को खोज रही हों. और यह देख लेने वाली परिता उधर से नजर हटा कर पिता की सजी देह को ध्यान से देखने लगी.

छात्र प्रतिनिधि- भाग 1: क्या छात्र प्रतिनिधि के चुनाव में जयेश सफल हो पाया?

जयेश ने प्रयोगशाला में बैक्टीरिया कल्चर को तैयार किया. सभी विद्यार्थियों को करना था. यह उन के बीएससी पाठ्यक्रम का हिस्सा था. भोजन के पश्चात दोपहर 2 बजे से प्रयोगशाला का सत्र होने से बहुतों को नींद आ रही थी. लैब अटेंडेंट प्रयोग की क्रियाविधि छात्रों को थमा कर वहां से गायब हो जाता था. लैब इंचार्ज भी लेटलतीफ था. जब स्लाइड पर बैक्टीरिया के धब्बों को बंसेन बर्नर पर गरम करने के लिए जयेश ने स्लाइड आगे बढ़ाई तो पता नहीं कैसे वहां रखे ब्लोटिंग पेपर के जरीए आग माइक्रोस्कोप तक पहुंच गई और यहांवहां के कुछ उपकरण भी आग की चपेट में आ गए. तुरंत लैब में ही रखे अग्निशामक से विद्यार्थियों के द्वारा ही आग बुझा ली गई. किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा, लेकिन प्रयोगशाला के कुछ उपकरण ध्वस्त हो गए. जयेश को इस वारदात से गहरा आघात लगा. गलती उस की नहीं थी, अवमानक लैब उपकरण ही इस का जिम्मेदार थे.

शाम को जब जयेश कालेज से वापस अपने घर जाने के लिए चल दिया तो कालेज के खेल के मैदान पर क्रिकेट खेलते छात्रों पर उस की नजर पड़ी. सभी के लिए कालेज वालों ने नई किट मंगाई हुई थी. उसे समझ नहीं आया कि कालेज वाले खेल पर इतना पैसा कैसे खर्च कर सक रहे थे, जबकि विज्ञान प्रयोगशाला में पुराने और जीर्णशीर्ण उपकरण रखे हुए थे. चाहे भौतिकी हो, चाहे रसायनशास्त्र या जीवविज्ञान प्रयोगशाला हो, सभी में रगड़े हुए औजार और उपकरण दिखते थे. ऐसा लगता था, जैसे वे अभी टूट जाएंगे. इस बारे में उस की बात जब अपने खिलाड़ी मित्र संदेश से हुई, तो उस का मित्र हंस दिया. उस ने हंसते हुए कहा, “रांची शहर में रहते हो तुम भैय्या…?”

बात सही थी. रांची शहर में क्रिकेट का जनून था. हिंदुस्तान का पूर्व कप्तान जिस शहर से रहा हो, वहां हर युवा क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहता था.

जयेश उदास लहजे में बोला, “यह बिलकुल भी उचित नहीं है. यह महाविद्यालय है. शिक्षा उन की प्राथमिकता होनी चाहिए.”

जयेश के एक और साथी प्रसनजीत ने भी इस वार्तालाप में भाग लिया. उस ने जयेश का साथ देते हुए कहा, “बात बिलकुल बराबर है. महाविद्यालय का कार्य छात्रों को भविष्य के लिए तैयार करना है. आखिर इन छात्रों में से कितने पेशेवर खिलाड़ी बन पाएंगे?”

संदेश ने हंसते हुए कहा, “कम से कम हम तीनों में से कोई नहीं.”

फिर, जयेश को गंभीर देखते हुए संदेश ने पूछा, “लेकिन, इन छात्रों में से कितने ऐसे हैं, जो वैज्ञानिक बनेंगे?”

प्रसनजीत ने वाजिब प्रश्न किया, “ऐसा नहीं हो सकता है कि महाविद्यालय खेल के पैसों में से कुछ पैसा लैब को नवीनतम बनाने और सुचारू रूप से चलाने पर खर्च करे?”

संदेश बोला, “हमारे शहर में…?”

प्रसनजीत कहने लगा, “70-80 के दशक का इतिहास पढो. तब, जब भी चीजों को बदलने की आवश्यकता पड़ती थी, तो वे धड़ल्ले से विरोधप्रदर्शन करते थे.”

संदेश कहने लगा, “इस मामले में किस चीज का विरोध करोगे भाई?”

प्रसनजीत ने जयेश को सुझाव दिया, “शायद, तुम एक पत्र लिख सकते हो?”

जयेश ने विचार करते हुए कहा, “मुझे लगता है कि मुझे औपचारिक रूप से शिकायत दर्ज करानी पड़ेगी. महाविद्यालय के बोर्ड और मैनेजमेंट से.”

संदेश बोला, “क्या कहोगे तुम उन से?”

जयेश बोला, “यही कि खेल का बजट बाकी के विभागों पर गलत असर छोड़ रहा है.”

संदेश ने फिर हंसते हुए जयेश को समझाने की कोशिश की, “हिंदुस्तान में लाखों शहर और गांव हैं, जहां ऐसी दलील चल सकती है. लेकिन ये रांची है भैय्या, इस बात का ध्यान रखना.”

अगले ही दिन जयेश विश्वास के साथ प्रिंसिपल रत्नेश्वर के चैंबर में जा पहुंचा. प्रिंसिपल की मेज पर काफी कागजात बिखरे पड़े थे. उस ने सिर उठा कर आगंतुक को देखा, “क्या चाहिए?”

जयेश ने अपना लिखा हुआ पत्र प्रिंसिपल के समक्ष कर दिया, “मैं ने औपचारिक शिकायत के रूप में महाविद्यालय के बोर्ड के नाम यह पत्र लिखा है.”

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने अपना चश्मा नीचे करते हुए अनमने से पत्र को निहारा, “क्या है इस में?”

जयेश ने बेझिझक कहा, “यह पत्र इस बारे में है कि खेल पर हम कितना पैसा खर्च कर रहे हैं. उम्मीद है कि आप इस पत्र को उन तक पहुंचा पाओगे.”

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने इसे बिना बात के आई मुसीबत समझा और बेमन से जयेश के हाथों से पत्र लिया, “लाओ दिखाओ.” उस ने आह भरी, और पत्र के बीच में से कोई पंक्ति पढ़ने लगा, “क्रिकेट के खेल में जख्मी होने के आसार बहुत अधिक रहते हैं. खिलाड़ियों में भी गुस्सा भरा हुआ रहता है. विकेट न मिलने और रन न बना पाने की वजह से उत्कंठा से भरे रहते हैं …”

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने हैरतअंगेज हो कर जयेश से पूछा, “तुम को क्रिकेट पसंद नहीं है?”

जयेश ने कोई जवाब नहीं दिया. रत्नेश्वर ने पत्र की अंतिम पंक्ति पढ़ी, “महाविद्यालय के पैसों का बेहतर उपयोग तब होगा, जब उसे विज्ञान और सीखने पर खर्च किया जाएगा.”

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने अपने चश्मे के भीतर से जयेश को घूरा, “इस पत्र को मैं बोर्ड को दूंगा, तो मेरा उपहास उड़ाएंगे.”

उन्होंने जयेश को पत्र लौटा दिया और कहा, “मेरे पास यहां और गंभीर मसले हैं.”

जयेश पत्र ले कर प्रिंसिपल के औफिस से बाहर आ गया. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि प्रिंसिपल के ऊपर भी वह स्वयं ही जाएगा. उसे ही यह कदम उठाना पड़ेगा. तब अचानक उस की नजर नोटिस बोर्ड पर पड़ी. वहां नोटिस लगा हुआ था कि जो भी छात्र संघ का हिस्सा बनना चाहते हैं, वे अपना नाम रजिस्टर करवाएं. अगले हफ्ते चुनाव की तिथि दी गई थी.

आकस्मिक रूप से इस नोटिस का सामने आ जाना जयेश को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो ऊपर वाले की भी यही इच्छा हो. उस ने दृढ़संकल्प बना लिया. बिना एक क्षण की देरी किए वह सीधे प्राध्यापक नीलेंदु के पास जा पहुंचा.

प्राध्यापक होने की वजह से नीलेंदु के पास छोटा ही सही, पर स्वयं का कमरा था. इस बात का उन्हें गर्व था. बाकी की फैकल्टी को अपनी जगहें साझा करनी पड़ती थीं.

नीलेंदु ने अभ्यागत को निहारा, “क्या है?”

जयेश ने पूछा, “सर, आप छात्र संघ चुनाव के इंचार्ज हैं?”

नीलेंदु ने सांस छोड़ कर कहा, “हां, हूं.”

जयेश ने कहा, “सर, मुझे महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ना है.”

नीलेंदु ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, “सही में…?”

जयेश बोला,“जी सर.”

नीलेंदु ने विस्मय से कहा, “ठीक है.”

उन्होंने एक रजिस्टर अपनी डेस्क से निकाला और उस में एंट्री करते हुए कहा, “लेकिन, मैं तुम्हें बता दूं कि तुम किस के विरुद्ध खड़े हो रहे हो – अनुरंजन नावे.”

जयेश को कोई फर्क नहीं पडा, “तो…?”

प्राध्यापक नीलेंदु ने कहा , “छात्र संघ में सभी उसे पसंद करते हैं.”

जयेश इस बात से अनजान था. नीलेंदु ने पहली बार चुनाव लड़ने वाले इस छात्र का मनोबल परखना चाहा, “ये चुनाव लोकप्रियता पर निर्भर हैं. दरअसल, ये लोकप्रियता प्रतियोगिता होती है. जो ज्यादा लोकप्रिय होता है, वही जीतता है.”

यह सुन कर जयेश की भौहें तन गईं. नीलेंदु ने और हथोड़े का प्रहार किया, “स्नातकोत्तर छात्र है अनुरंजन. कितने वर्ष गुजारे हैं उस ने इस महाविद्यालय में. और तुम तो अभीअभी आए हो. तुम्हें तो कोई जानता तक नहीं. मुझे भी नहीं पता कि तुम कौन हो?”

जयेश ने कठोरता से कहा, “चुनाव लोकप्रियता के बारे में नहीं होने चाहिए. उन्हें इस बारे में होना चाहिए कि किस के पास सब से अच्छे विचार हैं.”

नीलेंदु ने मुंह बनाया, “और, तुम्हारे क्या विचार हैं?”

जयेश ने तुरंत उत्तर दिया, “खेल पर कम खर्च और विज्ञान पर ज्यादा.”

नीलेंदु उसे देखता रह गया.

शाम को जब जयेश की मुलाकात अपने मित्रों से हुई, तो उस ने उन्हें इस प्रकरण से अवगत कराया, “मैं ने निश्चय किया है कि छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ूंगा.”

प्रसनजीत खुश होते हुए बोला, “बहुत बढ़िया.”

संदेश ने विस्मय से प्रसनजीत से कहा, “तुम इसे बढ़ावा दे रहे हो? चुनाव में इस का पूरा भाजीपाला निकल जाएगा. बुरी तरह से शिकस्त मिलेगी.”

प्रसनजीत ने नाराजगी से संदेश से कहा, “तुम्हें पूरी बात नहीं पता है.”

संदेश बोला, “मुझे तो यही लगता है.”

प्रसनजीत ने जयेश का मनोबल कायम रखने के लिए कहा, “जीत हो या हार, मुझे तो इस बात की ही खुशी है कि तुम कोशिश कर रहे हो.”

जयेश को शायद और प्रोत्साहन की जरूरत थी, “लेकिन, तुझे ऐसा लगता है कि मैं जीतूंगा?”

प्रसनजीत ने कहा, “मुझे तो यही लगता है कि यह जीत निश्चित रूप से संभव है.”

संदेश ने हुंकार भरी. प्रसनजीत ने संदेश को अनदेखा कर जयेश से पूछा, “क्या तेरे पास अपने अभियान की कोई रणनीति है?”

जयेश ने इस बारे में अभी सोचा नहीं था, “नहीं.”

प्रसनजीत बोला, “कोई ऐसा नारा है, जो एकदम आकर्षक हो?”

जयेश ने फिर कहा, “नहीं.”

प्रसनजीत ने जयेश को समझाते हुए कहा, “हमारी एक आंटी हैं, वृंदा कडवे. वे हमारे इलाके का कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. मैं उन से बात करवा सकता हूं तुम्हारी.”

प्रसनजीत ने तुरंत अपने मोबाइल फोन से वृंदा कडवे को फोन लगाया, “आंटी, मैं प्रसनजीत.”

वृंदा ने आतुर हो कर कहा, “हां, बोलो बेटा, क्या बात है?”

प्रसनजीत ने स्थिति समझाई, “मेरा एक मित्र छात्र संघ के लिए चुनाव लड़ रहा है. वह उम्मीद कर रहा है कि आप उसे कुछ सलाह दे सकती हैं.”

प्रसनजीत ने जयेश को मोबाइल थमा दिया. वृंदा ने पूछा, “बेटा, तुम कभी फेल हुए हो क्या?”

जयेश एक पल के लिए यह प्रश्न सुन कर चौंक गया. फिर संभल कर उस ने उत्तर दिया, “नहीं, मैं हमेशा अव्वल दर्जे में पास हुआ हूं. और मैं हमेशा सभी के साथ तमीज से पेश आता हूं. अपने व्यवहार के बारे में आज तक मैं ने किसी को कुछ कहने का मौका नहीं दिया है.”

कारपोरेटर होने के कारण वृंदा कडवे सफाई को बेहद महत्त्व देती थीं, “तुम अपने आसपास स्वच्छता रखते हो?”

जयेश ने जोश में कहा, “गंदगी तो मुझे सर्वथा पसंद नहीं. आप तो खुद कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. क्या आप चुनाव जीतने के बारे में मुझे कुछ सलाह दे सकती हैं?”

वृंदा ने अपने अनुभव से कहा, “सब से महत्वपूर्ण बात है, बाहर निकलना और लोगों से जुड़ना.”

जयेश को यह थोड़ा मुश्किल कार्य लगा. वह विज्ञान का छात्र था. वह बोला, “मुझे लोगों से बहुत लगाव नहीं है.”

कारपोरेटर वृंदा को अच्छे से इस बात का महत्त्व पता था, “ठीक है, तुम को उस पर काबू पाने की आवश्यकता हो सकती है.”

जयेश ने इस के आगे का कदम जानना चाहा, “मान लें कि मैं यह कर सकता हूं. मैं उन से कैसे जुड़ूं?”

कारपोरेटर वृंदा बोली, “तुम्हारे लिए तो सब से अच्छी शुरुआत करने का तरीका है, सब के साथ दोस्ताना बना कर उन से हाथ मिलाओ.”

हाथ मिलाने के नाम से ही जयेश के हाथ सिकुड़ गए.

अगले कुछ दिनों में जयेश ने अपना अभियान चलाया. उस ने महाविद्यालय में जगहजगह पोस्टर लगवाए. सभी छात्रों से बातचीत की और उन्हें बताया, “मेरा नाम जयेश है और मैं छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ रहा हूं.”

प्रसनजीत और संदेश ने उस का भरपूर साथ दिया. हर जगह, हर विभाग में पोस्टर दिखने लगे, ‘छात्र प्रतिनिधि के लिए जयेश को वोट दीजिए.’

सभी से मिलते समय जयेश ने उन्हें एकएक पेन देना उचित समझा. थोक में खरीदने पर हर पेन की कीमत महज 5 रुपए पड़ी.

ऐसे में अनजाने में उस की मुलाकात अपने प्रतिद्वंद्वी अनुरंजन नावे से हो गई. वाणिज्य विभाग की ओर जाते समय जयेश ने एक लंबे से युवक को जब पेन थमाते हुए कहा, “मैं जयेश हूं. मैं छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ रहा हूं.”

इस पर उस युवक ने मुसकान से कहा, “आखिरकार तुम से मुलाकात हो ही गई.”

बड़े ही गर्मजोशी के साथ जयेश से हाथ मिला कर कहा, “मैं अनुरंजन नावे.”

जयेश ने अपने विरोधी पक्ष पर गौर किया. उसे गौर से देखता देख अनुरंजन ने विस्मय से पूछा, “इस पेन का क्या करना है?”

जयेश ने अस्पष्ट तरीके से कहा, “जो भी असाइनमेंट हम को करने के लिए मिलते हैं, वे इस से कर सकते हैं. मुझे अपने शिक्षकों के दिए हुए असाइनमेंट न केवल अच्छे लगते हैं, बल्कि उन्हें करने में भी मजा आता है.”

अनुरंजन ने मुसकराते हुए पेन ले लिया और कहा, “हम में से जो श्रेष्ठ है, उसी की जीत होगी.” और पेन ले कर वहां से चल दिया.

शाम को जयेश ने यह बात प्रसनजीत को बताई, “वह वाकई में बहुत अच्छी तरह से पेश आया. उस का स्वभाव मुझे अच्छा ही लगा.”

तभी संदेश बोला, “तभी तो वो लोकप्रिय है.”

प्रसनजीत ने एक और रणनीति को कार्यान्वित किया, “अब ढेर सारे चौकलेट ले लेते हैं. चौकलेट सभी को पसंद आते हैं. इस से बाकियों के साथ आत्मीयता बढ़ेगी.”

संदेश ने हामी भरी, “अच्छा तरीका है.”

जयेश बोला, “अब मुझे समझ में आ रहा है कि अमीर व्यक्ति लोगों का वोट कैसे खरीद सकते हैं.”

परंतु अगले दिन जब जयेश महाविद्यालय पहुंचा तो उसे जैसे झटका लगा. हर विभाग में उस के चित्र समेत पोस्टर लगे थे, जिन पर लिखा था, ‘जयेश को वोट देने का मतलब है ज्यादा असाइनमेंट और ज्यादा पढ़ाई.’ पोस्टर में नीचे इस प्रकार से लिखा था: ‘जयेश: “मुझे असाइनमेंट अच्छे लगते हैं.” अगर आप को और असाइनमेंट नहीं चाहिए, तो अनुरंजन नावे को वोट दीजिए.’

यह देख जयेश सकते में आ गया. उस ने पोस्टरों की लड़ी में से एक पोस्टर निकाल कर हाथ में ले लिया. रातोंरात अपने विरोधी पक्ष को अपने से ऊपर होता देख वह दंग रह गया. उस के ही मुंह से निकले हुए शब्द थे ये. वाणिज्य और कला के विद्यार्थी कहां असाइनमेंट जैसी चीज को पसंद करने वाले थे.

वेटिंग रूम- भाग1: सिद्धार्थ और जानकी की जिंदगी में क्या नया मोड़ आया

हाथ में एक छोटा सा हैंडबैग लिए हलके पीले रंग का चूड़ीदार कुरता पहने जानकी तेज कदमों से प्रतीक्षालय की ओर बढ़ी आ रही थी. यहां आ कर देखा तो प्रतीक्षालय यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था. बारिश की वजह से आज काफी गाडि़यां देरी से आ रही थीं. उस ने भीड़ में देखा, एक नौजवान एक कुरसी पर बैठा था तथा दूसरी पर अपना बैग रख कर उस पर टिक कर सो रहा था, पता नहीं सो रहा था या नहीं. एक बार उस ने सोचा कि उस नौजवान से कहे कि बैग को नीचे रखे ताकि एक यात्री वहां बैठ सके, परंतु कानों में लगे इयरफोंस, बिखरे बेढंगे बाल, घुटने से फटी जींस, ठोड़ी पर थोड़ी सी दाढ़ी, मानो किसी ने काले स्कैचपैन से बना दी हो, इस तरह के हुलिया वाले नौजवान से कुछ समझदारी की बात कहना उसे व्यर्थ लगा. वह चुपचाप प्रतीक्षालय के बाहर चली गई.

मनमाड़ स्टेशन के प्लेटफौर्म पर यात्रियों के लिए कुछ ढंग की व्यवस्था भी नहीं है, बाहर बड़ी मुश्किल से जानकी को बैठने के लिए एक जगह मिली. ट्रेन रात 2:30 बजे की थी और अभी शाम के 6:30 बजे थे. रोशनी मंद थी, फिर भी उस ने अपने बैग में से मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास ‘गोदान’ निकाला और पढ़ने लगी. गाडि़यां आतीजाती रहीं. प्लेटफौर्म पर कभी भीड़ बढ़ जाती तो कभी एकदम गायब हो जाती. 8 बज चुके थे, प्लेटफौर्म पर अंधेरा हो गया था. प्लेटफौर्म की मंद बत्तियों से मोमबत्ती जैसी रोशनी आ रही थी. सारे दिन की बारिश के बाद मौसम में ठंडक घुल गई थी. जानकी ने एक बार फिर प्रतीक्षालय जा कर देखा तो वहां अब काफी जगह हो गई थी.

जानकी एक अनुकूल जगह देख कर वहां बैठ गई. उस ने चारों तरफ नजर दौड़ाई तो लगभग 15-20 लोग अब भी प्रतीक्षालय में बैठे थे. वह नौजवान अब भी वहीं बैठा था. कुरसियां खाली होने का फायदा उठा कर अब वह आराम से लेट गया था. 2 लड़कियां थीं. पहनावे, बालों का ढंग और बातचीत के अंदाज से काफी आजाद खयालों वाली लग रही थीं. उन के अलावा कुछ और यात्री भी थे, जो जाने की तैयारी में लग रहे थे, शायद उन की गाड़ी के आने की घोषणा हो चुकी थी. जल्द ही उन की गाड़ी आ गई और अब प्रतीक्षालय में जानकी के अलावा सिर्फ वे 2 युवतियां और वह नौजवान था, जो अब सो कर उठ चुका था. देखने से तो वह किसी अच्छे घर का लगता था पर कुछ बिगड़ा हुआ, जैसे किसी की इकलौती संतान हो या 5-6 बेटियों के बाद पैदा हुआ बेटा हो.

नौजवान उठ कर बाहर गया और थोड़ी देर में चाय का गिलास ले कर वापस आया. अब तक जानकी दोबारा उपन्यास पढ़ने में व्यस्त हो चुकी थी. थोड़ी देर बाद युवतियों की आवाज तेज होने से उस का ध्यान उन पर गया. वे मौडर्न लड़कियां उस नौजवान में काफी रुचि लेती दिख रही थीं. नौजवान भी बारबार उन की तरफ देख रहा था. लग रहा था जैसे इस तरह वे तीनों टाइमपास कर रहे हों. जानकी को टाइमपास का यह तरीका अजीब लग रहा था. उन तीनों की ये नौटंकी काफी देर तक चलती रही. इस बीच प्रतीक्षालय में काफी यात्री आए और चले गए. जानकी को एहसास हो रहा था कि वह नौजवान कई बार उस का ध्यान अपनी तरफ खींचने का प्रयास कर रहा था, परंतु उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. अब तक 9:00 बज चुके थे. जानकी को अब भूख का एहसास होने लगा था. उस ने अपने साथ ब्रैड और मक्खन रखा था. आज यही उस का रात का खाना था. तभी किसी गाड़ी के आने की घोषणा हुई और वे लड़कियां सामान उठा कर चली गईं. अब 2-4 यात्रियों के अलावा प्रतीक्षालय में सिर्फ वह नौजवान और जानकी ही बचे थे. नौजवान को भी अब खाने की तलाश करनी थी. प्रतीक्षालय में जानकी ही उसे सब से पुरानी लगी, सो उस ने पास जा कर धीरे से उस से कहा, ‘‘एक्सक्यूज मी मैम, क्या मैं आप से थोड़ी सी मदद ले सकता हूं?’’

जानकी ने काफी आश्चर्य और असमंजस से नौजवान की तरफ देखा, थोड़ी घबराहट में बोली, ‘‘कहिए.’’ ‘‘मुझे खाना खाने जाना है, अगर आप की गाड़ी अभी न आ रही हो तो प्लीज मेरे सामान का ध्यान रख सकेंगी?’’ ‘‘ओके,’’ जानकी ने अतिसंक्षिप्त उत्तर दिया और नौजवान चला गया. लगभग 1 घंटे बाद वह वापस आया, जानकी को थैंक्स कहने के बहाने उस के पास आया और कहा, ‘‘यहां मनमाड़ में खाने के लिए कोई ढंग का होटल तक नहीं है.’’

‘‘अच्छा?’’ फिर जानकी ने कम से कम शब्दों का इस्तेमाल करना उचित समझा.

‘‘आप यहां पहली बार आई हैं क्या?’’ बात को बढ़ाते हुए नौजवान ने पूछा.

‘‘जी हां.’’ जानकी ने नौजवान की ओर देखे बिना ही उत्तर दिया. अब तक शायद नौजवान की समझ में आ गया था कि जानकी को उस से बात करने में ज्यादा रुचि नहीं है.

‘‘एनी वे, थैंक्स,’’ कह कर उस ने अपनी जगह पर जाना ही ठीक समझा. जानकी ने भी राहत की सांस ली. पिछले 4 घंटों में उस ने उस नौजवान के बारे में जितना समझा था, उस के बाद उस से बात करने की सोच भी नहीं सकती थी. जानकी की गाड़ी काफी देर से आने वाली थी. शुरू में उस ने पूछताछ खिड़की पर पूछा था तब उन्होंने 2:00 बजे तक आने को कहा था. अब न तो वह सो पा रही थी न कोई बातचीत करने के लिए ही था. किताब पढ़तेपढ़ते भी वह थक गई थी. वैसे भी प्रतीक्षालय में रोशनी ज्यादा नहीं थी, इसलिए पढ़ना मुश्किल हो रहा था. नौजवान को भी कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे. वैसे स्वभाव के मुताबिक उस की नजर बारबार जानकी की तरफ जा रही थी. यह बात जानकी को भी पता चल चुकी थी. वह दिखने में बहुत सुंदर तो नहीं थी, लेकिन एक अनूठा सा आकर्षण था उस में. चेहरे पर गजब का तेज था. नौजवान ने कई बार सोचा कि उस के पास जा कर कुछ वार्त्तालाप करे लेकिन पहली बातचीत में उस के रूखे व्यवहार से उस की दोबारा हिम्मत नहीं हो रही थी. नौजवान फिर उठ कर बाहर गया. चाय के 2 गिलास ले कर बड़ी हिम्मत जुटा कर जानकी के पास जा कर कहा, ‘‘मैम, चाय.’’ इस से पहले कि जानकी कुछ समझ या बोल पाती, उस ने एक गिलास जानकी की ओर बढ़ा दिया. जानकी ने चाय लेते हुए धीरे से मुसकरा कर कहा, ‘‘थैंक्स.’’ नौजवान को हिम्मत देने के लिए इतना काफी था. थोड़ी औपचारिक भाषा में कहा, ‘‘क्या मैं आप से थोड़ी देर बातें कर सकता हूं?’’

जानकी कुछ क्षण रुक कर बोली, ‘‘बैठिए.’’

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