‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए...’ 80 के दशक में कलमबद्ध किया गया फिल्म ‘सिलसिला’ का यह लाजवाब गीत मशहूर गीतकार जावेद अख्तर की कलम से निकला उन की जिंदगी का पहला गीत है, जो सुनने वालों को आज भी मदहोश कर देता है. जावेद अख्तर आजकल हिंदू कट्टरपंथियों के निशाने पर जम कर हैं.

फिल्म ‘सिलसिला’ के गीतों की सफलता के बाद जावेद बतौर गीतकार भी पहचाने जाने लगे. उन्होंने एक से बढ़ कर एक गीत लिखे. इस से पहले फिल्म इंडस्ट्री में वे बतौर संवाद लेखक जाने जाते थे.

भारत एक सिंगिंग नेशन है, हर हिंदुस्तानी गाता है. चाहे वह बाथरूम में, सड़क पर चलते हुए अथवा साइकिल चलाते हुए गाए. अमेरिका में सड़क पर एक आदमी गाना गाता हुआ नहीं चलता या टे्रन में सफर के दौरान गुनगुनाता नहीं है. वहां आम आदमी गाना नहीं गाता. पियानो अथवा गिटार बजाना जानता है. वहां गाना बनता है सुनने के लिए, हमारे यहां गाना बनता है गाने के लिए. पिछले 10-15 सालों से गाने ऐसे बनाए जा रहे हैं जिन्हें हम सिर्फ सुन सकते हैं, इसलिए वे दिल को छूते नहीं हैं. वे किसी और कल्चर, किसी और टै्रडिशन से उठा कर हम पर डाल दिए गए हैं. वे हमें अपील नहीं करते.

इस तरह के गानों की डिमांड करने वाले लिसनर्स हैं. उन्हें जितनी जल्दी समझ में आएगा उतना ही उन के लिए अच्छा होगा. कहा जाता है कि ये गाने यंग जैनरेशन को पसंद हैं, लेकिन जितने भी सिंगिंग रिऐलिटी शोज या म्यूजिक कंसर्ट होते हैं उन में हिस्सा लेने वाले बच्चे 50-60 के दशक के पुराने गीत गाते हैं. अगर उन्हें नए गाने पसंद हैं तो वे उन्हें क्यों नहीं गाते? दरअसल, दिक्कत वहां होती है जहां मार्केटिंग डिपार्टमैंट क्रिएटिव डिपार्टमैंट से ज्यादा स्ट्रौंग हो जाता है.

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