देश में भड़काऊ नैरेटिव हावी है ताकि सरकार सवालजवाब और जिम्मेदारियों से बच सके. धर्म और जाति अब मुख्य सवाल बना दिया गया है और रोजगार, महंगाई, स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय जैसे मूल मुद्दे दरकिनार कर दिए गए हैं. भड़काऊ नैरेटिव मुसलिमविरोधी या जातिविरोधी नहीं, सिर्फ जनताविरोधी है.
बच्चा जब पैदा होता है तब उस का दिमाग खाली ब्लैकबोर्ड (स्लेट) की भांति होता है, बिलकुल खाली. जैसेजैसे वह बड़ा होता है, वह अपने जीवन में मिले अनुभवों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करता जाता है.
वर्ष 1632 में जन्मे व ‘उदारवाद के पिता’ कहे गए दार्शनिक जौन लोक ने अपने सिद्धांत ‘टेबुला रासा’ में इस बात का जिक्र किया था कि मनुष्य के जन्म के समय दिमाग में कोई विचार नहीं होता, न सोचनेसम झने की क्षमता. यानी जब कोई बच्चा पैदा होता है तब उस का दिमाग शून्य होता है, न कोई पिक्चर न कोई याद न कोई सपना. वह अधिक से अधिक अपनी मां के गर्भाशय के भीतर की तरलता (एमिनियोटिक सेक) को ही सम झ पाता है, जो उसे सहलाहट (सैंसिटिव) महसूस कराती है.
सिद्धांत के इस बिंदु को यदि थोड़ा और आगे ले कर चलें तो यह माना जा सकता है कि जिस दौरान कोई बच्चा पैदा होता है, उसे अपने मातापिता, भाईबहनों, नातेरिश्तेदारों तक का बोध नहीं होता और न किसी दैवीय ताकत का, मतलब भगवान का भी नहीं. मान लीजिए अगर कोई बच्चा गुजरात के हिंदू परिवार में पैदा हुआ है तो संभव है कि गुजराती भाषा और हिंदू धर्म का अनुकरण करेगा. अगर वह लंदन के ईसाई परिवार में पैदा हुआ है तो इंग्लिश भाषा और ईसाईयत का अनुकरण करेगा और अगर वह बगदाद के मुसलिम परिवार में पैदा हुआ है तो अरबी भाषा व इसलाम का अनुकरण करेगा. ये चीजें उसे जन्मजात नहीं मिलतीं, उस के परिवेश से मिलती हैं.
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