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जानकारी: बीआई बीमा छलावा भी हो सकता है

कारोबार की निरंतरता बनी रहे, इस के लिए विशेष सावधानियों की जरूरत होती है. लोग इस के लिए बीमा भी कराते हैं. हर बीमा फायदा दे, जरूरी नहीं, इसलिए बीमा कराते हुए उस के टर्म्स एंड कंडीशंस पर ध्यान देना जरूरी रहता है.

कोविड महामारी के चलते

2 साल के दौरान लाखों लोग हताहत हुए और पूरी दुनिया इस का कहर सहती रही. वहीं, इन घटनाओं ने बीमे की जरूरत और महत्त्व को उजागर कर दिया है. कोविड के कारण हजारों व्यवसाय महीनों बंद रहे. इस दौरान उत्पादन नहीं हो सका. सुचारु रूप से काम होने में महीनों लगे. हजारों लोग बीमारियों में मारे गए. कंपनियों को व्यापार में हुए घाटे की भरपाई नहीं हुई.

हां, यदि एक विशेष बीमा लोगों ने कराया होता तो शायद उसे बीमा कंपनी द्वारा भरपाई मिल सकती थी. इस बीमा का नाम है- व्यापार व्यवधान (बिजनैस इंटरेप्शन) बीमा. संक्षेप में इसे ‘बीआई बीमा’ कहा जाता है.

इस दौरान लाखों मजदूर अपने काम की जगह छोड़ कर अपने निवास स्थान बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर आदि जहां के वे मूल निवासी थे चले गए. इस बीमारी ने एक भय की हवा भी फैला दी थी. पलायन की इस व्यापक घटना की बदौलत लाखों व्यापार ठप हो गए क्योंकि गए कर्मचारी लौटने को तैयार न थे. नए कामगार नियुक्त हुए.

इस दौरान हर व्यवसाय या कारोबार में हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति व्यवसाय मालिकों को नहीं मिल सकती. कारण, उन्होंने बीआई बीमा नहीं कराया था. ऐसे सैकड़ों दृष्टांत मिल जाएंगे आप को

जहां होटल, कारखाने, कार्यालय, अन्य व्यवसाय आदि में कामकाज में किसी न किसी वजह से रुकावट आती है और उत्पादन या कार्य निष्पादन में कमी होने की वजह से नुकसान उठाना पड़ता है. इस नुकसान की कोई पूर्ति नहीं होती क्योंकि जानकारी के अभाव में बीआई बीमा नहीं कराया गया होता. कोविड के अलावा और भी तरह के नुकसान हो सकते हैं.

क्या है बीआई बीमा

बीआई बीमा से तात्पर्य उस बीमा से है जो व्यवसाय में संलग्न कंपनी या संस्थान को किसी रुकावट की वजह से उत्पादन में कमी या घाटे के प्रति संरक्षण प्रदान करता है. दरअसल कारखानों में उत्पादन के क्रम में या कारोबार में हानि का हिस्सा बांटने के उद्देश्य से पहली बार वर्ष 1797 में यूरोप में ‘लौस औफ प्रौफिट’ चलन में आया और यही आधार है बीआई बीमा की शुरुआत का.

इस बीमे में सतत सतर्कता की आवश्यकता होती है, क्योंकि आपदा आने के बाद उसे टाला नहीं जा सकता. यह बीमा प्रौपर्टी क्षति बीमा से सीधेसीधे जुड़ा है एवं कई बार इसे परिणामी क्षति या ‘लौस औफ प्रौफिट’ भी कहा जाता है.

कारोबार की निरंतरता बनी रहे, यही इस बीमे का मकसद है. नाम से स्पष्ट है, बीमा उस नुकसान या हानि को कवर करता है जिसे कोई बिजनैस आपदा या संकट के बाद झेलने को मजबूर होता है. सवाल उठना लाजिमी है कि फिर यह किस प्रकार प्रौपर्टी या संपत्ति बीमा से अलग है क्योंकि आमतौर पर व्यवसायी या उत्पादक अपनी प्रौपर्टी का ही बीमा कराते हैं.

दरअसल, जहां प्रौपर्टी बीमा सिर्फ संपत्ति की भौतिक क्षति की भरपाई करता है, वहीं बीआई बीमा कारोबार में लाभ में हुई कमी या नुकसान को भी कवर करता है. अर्थात कोई भी कारोबार या व्यवसाय संकट के पूर्व जिस स्थिति में था, संकट या विपत्ति के उपरांत भी वह उसी स्थिति में रहे, इसे सुनिश्चित करना ही इस बीमे की जरूरत है.

गौरतलब है यह बीमा अलग से नहीं दिया जाता बल्कि प्रौपर्टी बीमा या व्यापक (कंप्रिहैंसिव) पैकेज बीमा के साथ जारी होता है. एक ही कार्यालय से दोनों पौलिसियां ली जानी अनिवार्य हैं.

एक उदाहरण लीजिए. किसी संकट के आ पड़ने पर कोई व्यवसाय तात्कालिक रूप से पूरी तरह ठप हो जाता है. कारण परिसर या फैक्ट्री आदि की मरम्मत एवं उसे फिर से प्रचलन के अनुरूप लाने में वक्त लगता है. कई बार अस्थायी रूप से परिसर को बदलने की भी जरूरत होती है. ऐसे में बीआई बीमा सहारा बनता है क्योंकि संपत्ति आदि के नुकसान की पूर्ति के लिए तो प्रौपर्टी बीमा कराया ही जाता है, जिस में प्रौपर्टी का फायर बीमा होता है लेकिन कारोबार के ठप रहते हुए जो लाभ प्राप्त नहीं हो सका, उस का क्या? उस की ही भरपाई यह बीमा करता है. अमूमन हर व्यवसायी अपना व्यवसाय शुरू करने से पहले प्रौपर्टी बीमा करवाता है. परंतु गिनेचुने कारोबारी ही बीआई बीमा लेने के बारे में सोचते हैं. बीमा एजेंट आमतौर पर 2-4 उदाहरणों से इस महंगे इंश्योरैंस को बेचते हैं.

मुंबई के अंधेरी इलाके में रहने वाले आलोक शंकर ने 4 साल पूर्व कपड़ा निर्यात करने की कंपनी खोली. चूंकि आलोक बीमा में सर्वेयर के रूप में काम करते रहे हैं, इसलिए उन्हें अलगअलग प्रकार के बीमों की जानकारी है. उन्होंने कंपनी खोलने के साथ ही उस का बीआई बीमा करवा लिया.

2 वर्षों तक तो सब ठीकठाक चलता रहा, लेकिन डेढ़ वर्ष पूर्व कंपनी के कार्मिकों ने 23 दिनों तक कामकाज बंद रखा. कारोबार बंद रहने से उन्हें काफी आर्थिक क्षति हुई, लेकिन बीमा कंपनी ने उन्हें कुल आर्थिक क्षति का करीब

70 फीसदी अदा कर दिया. अब उन की देखादेखी उन के कई चिरपरिचित कारोबारियों ने भी ‘बीआई बीमा’ संरक्षण लेना प्रारंभ कर दिया है.

कोविड, बाढ़, आग में कितनों को प्रौपर्टी लौस या प्रौफिट लौस का क्लेम मिला, इस के आंकड़े कभीकभी ही जारी होते हैं. बैंक और इंश्योरैंस कंपनियां मिल कर पैसा कमाने का साधन इस बीमा को बनाते हैं.

प्रीमियम कितना और क्लेम कितना

प्रीमियम नुकसान की प्रकृति पर निर्भर करता है. जैसे, रैस्तरां के लिए प्रीमियम रियल एस्टेट एजेंसी की अपेक्षा अधिक होगा. कारण, वहां आग संबंधी जोखिम ज्यादा है. संकट के बाद रियल एस्टेट एजेंसी को अन्य लोकेशन पर फिर शुरू करना अधिक आसान है, जबकि आग लगने के उपरांत रैस्तरां को फिर ग्राहकों के लिए खोलना कठिन. उसे नए लोकेशन पर ले जाना भी टेढ़ी खीर है.

कारण, बनेबनाए ग्राहकों के बिखरने का अंदेशा रहता है. सो, रैस्तरां के लिए प्रीमियम रियल एस्टेट एजेंसी की तुलना में थोड़ा ज्यादा होता है. प्रति लाख रुपए के बीमे के लिए 1,200 रुपए से 2,250 रुपए तक प्रीमियम हो सकता है. प्रीमियम निर्धारण के वक्त विगत 2-3 सालों का वार्षिक लेखा भी देखा जाता है. साथ ही, पौलिसी जारी करने से पूर्व कंपनी की ओर से व्यवसाय स्थल का निरीक्षण करना भी जरूरी होता है.

क्लेम संकट के बाद उस अवधि तक के लिए देय होता है जब तक कि आप के कारोबार का टर्नओवर सामान्य नहीं हो जाता. हां, दावा देते वक्त कंपनियां

7 दिनों का सकल लाभ (ग्रौस प्रौफिट) दावा राशि से काट लेती हैं जो अनिवार्य कटौती है. व्यवधान अवधि के दौरान बिजनैस को सुचारु रूप से चलाने के एवज में खर्च हुई किसी भी अन्य राशि का आमतौर पर भुगतान नहीं किया जाता और कई तरह की कटौतियां क्लेम अफसर से ले कर ऊपर तक के अधिकारी करना शुरू कर सकते हैं.

बिजनैस शुरू करना चाह रहे हैं या कोई फैक्ट्री लगाने के बारे में निर्णय लेने वाले हैं, जो भी फैसला लें लेकिन उस पर अमल करने से पूर्व इस की तसल्ली जरूर कर लें कि आप ने अपने नए कारोबार के लिए पर्याप्त बीमा कवरेज लेने का मन बनाया है अथवा नहीं. और फिर, यदि आप को कारोबार में किसी भी प्रकार की अनहोनी या नुकसान होने का अंदेशा हो तो संपत्ति, व्यक्तिगत दुर्घटना, चोरीडकैती, प्राकृतिक विपदा आदि जैसी प्रचलित बीमा पौलिसियां तो लें ही, बीआई बीमा पौलिसी बेचने वालों से होशियारी से ही व्यवहार करें.

कानून इस बारे में इंश्योरैंस कंपनियों का साथ देता है. बीमा कराते समय सैकड़ों धाराओं वाला अनुबंध पढ़ना हरेक के बस का नहीं होता. जो इसे पढ़ने की मेहनत करे और विसंगतियों को एजेंट को बताए तो भी कंपनी इन में बदलाव नहीं करती. वे दूसरे क्लाइंट की तलाश में लग जाते हैं.

इंश्योरैंस का नाम प्रचलित है कि इस के नाम पर कुछ भी बेचा जा सकता है. इस तरह रहेसहे इंश्योरैंस किसी भगवान को चढ़ावा चढ़ाने के बराबर का सा होता है. किसी 2-4 को चढ़ावे के बाद फायदा हो भी जाता है पर ज्यादातर कष्ट ही भोगते रहते हैं.

इस का प्रीमियम काफी ज्यादा होता है. यदि वर्षों तक कुछ नहीं होता तो लोगों को भारी पड़ने लगता है. अब कुछ घटना घट जाए तो इंश्योरैंस कंपनियां अपनी नीतियों को आगे कर के इस का मुआवजा देने में आनाकानी करती हैं पर बैंक लोन लेने में यह काफी काम आता है.

बहुत थोड़े से मामलों में ही कोविड के कारण हुए नुकसान को कंपनियों ने भरा है, वह भी लंबी जद्दोजेहद के बाद. इसलिए आकर्षक दिखने के बावजूद यह बहुत लोकप्रिय नहीं है. इंश्योरैंस कंपनियों का तर्क था कि इस का क्लेम तब मिलेगा जब प्रौपर्टी या बिजनैस के फिजिकल नुकसान हों. कुछ मामले आज भी अदालतों में चल रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में 10-15 साल बाद अंतिम फैसले देता है.

बेटे का विद्रोह- भाग 1: क्या शिव ने मां को अपनी शादी के बारे में बताया?

एक रूढिवादी परिवार, जहां परदा, पूजापाठ, व्रतउपवास आदि पुराने नियम चलते हैं, पर पत्नी के हिस्से में डांटफटकार, गालीगलौज, कभी हाथ भी उठा देना… यह देख  बेटा तिलमिला कर रह जाता… घर के बिजनैस को छोड़ कर नौकरी उस ने ज्वायन कर ली… वहीं शादी भी कर ली. घर आया करता, लेकिन अपनी शादी के बारे में कभी नहीं बताया.

यह कहानी पतिपत्नी के आराम से रहते हुए शुरू होती है और वे बिना पूजापाठ किए कैसे मजे से रह रहे हैं, यह दिखाती है… मुसीबत तब आती है, जब बेटे की मां धमक जाए कि शादी तोड़ो, वरना पिता की अपनी और संयुक्त परिवार की संपत्ति सारी बेटी को चली जाएगी… जिस का पति सजातीय, पूजापाठी, ऐयाश और निकम्मा है.

पिछली बातें मांबेटे के संवादों से बाहर आ सकती हैं. मां दुहाई दे कि मरणासन्न कोमा में पड़ा पिता बिना वसीयत के जा रहा है और दामाद घर दबोचने को तैयार है… बेटी सुनती नहीं…

किरिस्तानी लड़की,

‘सुशीलाजी, हम ये क्या सुन रहे हैं… शिव ने कोर्ट में किरिस्तानी लड़की से शादी कर ली,’ पंडित रामकिशोर क्रोधित स्वर में बोले थे.

‘ये क्या कह रहे हैं आप? शिव ऐसा  नहीं कर सकता…’

‘लो देख कर अपना कलेजा ठंडा कर लो…’ उन्होंने अपने फोन पर फोटो खोल कर दिखाई, ’बहू तो सुंदर दिखाई पड़ रही  है.’

‘सुंदरता ले कर चाटो न… न दान, न दहेज. तुम्हारा बेटा तो पैदाइशी बेवकूफ है… पढ़ाईलिखाई ने और भी दिमाग खराब कर दिया है…’ पंडितजी बोल पड़े…

‘किस ने बताया तुम्हें? आम खाने से मतलब है कि गुठली गिनने से…’ वह गुस्से से थरथर कांप रहे थे.

‘शिव से मेरे सारे नातेरिश्ते खत्म,’ कह कर वह भरभरा कर जमीन पर गिर पड़े थे… सुशीलाजी पति की हालत देख घबरा उठीं.

सुशीलाजी पति के सिर को अपने पैरों पर रख उन्हें सांत्वना देने लगीं. पंडितजी  नशे में धुत्त थे. वह अकसर ऐसे बेहोश हो जाया करते थे, परंतु सुशीलाजी के लिए शिव का शादी कर लेना  बहुत बड़ा झटका था… वह सिसक कर रोने लगीं, ’हाय शिव, यह तुम ने क्या किया… मेरे सारे अरमानों पर पानी फेर दिया…’

थोडी ही देर में संयत होने के बाद वे बोलीं, ‘देखिएजी, सुनैना और कुंवरपाल को कानोंकान खबर नहीं लगनी चाहिए, नहीं तो पूरी बिरादरी में  बात फैल जाएगी. हम खुद शिव और बहू को ले कर आएंगे और धूमधाम से पार्टी कर के सब को बता देंगे…’

वे मन ही मन सोचने लगीं कि शिव के घर न आने की यही वजह होगी, तभी उसे घर आए सालभर से ऊपर हो गया है, लेकिन उन्हें विश्वास था कि बेटा उन की बात को नहीं टालेगा…

तभी उन का फोन बज उठा. उधर शिव था, ’अम्मां, मैं औफिस के काम से मुंबई जा रहा हूं… फ्लाइट में हूं…’

‘शिव, मेरा बच्चा… तुम कब आओगे… तुझे घर आए पूरे एक साल हो गए हैं… तेरे पापा की तबियत ज्यादा खराब है… तुम ने तो हम लोगों को बिलकुल त्याग ही दिया है… न होली पर आए, न दीवाली पर… तेरे पापा तो धीरेधीरे खटिया से लगते जा रहे हैं… वह दुकान भी नहीं जा पाते… तुम्हारा इंतजार देखतेदेखते तो आंखें थक गईं… मैं उन की फाइल ले कर आ रही हूं… किसी बड़े डाक्टर का इलाज करवाना होगा.

‘हां, हां… आप परेशान मत हो… आप को आने की जरूरत नहीं है… मैं औनलाइन मोहित से मंगवा लूंगा… उस ने कह तो दिया.’

लेकिन शिव मन ही मन परेशान हो उठा था. चाहे कितने ही बुरे हों उस के अम्मांपापा… वह उन का अच्छे से अच्छा इलाज करवाएगा…

‘ठीक है अम्मां, हम आप का टिकट करवा कर बताते हैं. इन दिनों औफिस में काम ज्यादा है, नहीं तो मैं खुद आ जाता.’

उस की आंखों के सामने अपनी अम्मां का रोतासिसकता चेहरा सजीव हो उठता था. कभीकभी तो उस की आंखें भी छलछला उठती थीं, जब पापा उस की अम्मां पर नाहक ही चिल्लाचिल्ला कर गाली देना शुरू कर देते थे. यदि वह जरा भी मुंह खोलतीं, तो अकसर उन की पिटाई भी कर देते. इसी वजह से  पिता के प्रति जरा भी कोमल भावनाएं नहीं थीं, वरन नफरत की भावना कूटकूट कर भरी हुई  थी.

पंडित रामकिशोर दिल्ली से तकरीबन 300 किलोमीटर की दूरी पर कासगंज में रहते थे. यह एक छोटा सा शहर है. उन के पास संयुक्त परिवार की जायदाद से काफी पैसा आता था, जिसे वह अकेले हजम करते थे. किसी चाचा को उन का हिस्सा नहीं देते. जब भी कोई बंटवारे की आवाज उठाता है, उसे गोलमोल उत्तर दे कर टरका देते, क्योंकि वह बहुत कंजूस और लालची थे. उन का  अपना साड़ियों का थोक का बिजनैस है, लेकिन सिद्धांत है कि ‘चमड़ी चली जाए, लेकिन दमड़ी न जाए…’ बी. टाउन की जीवनशैली है, “मोटा खाओ मोटा पहनो.‘’

सुबह जोरजोर से घंटी बजाबजा कर भजन गाना, गले में रंगबिरंगी माला उन की पहचान थी. वह साथसाथ में अम्मां के लिए गाली निकालते रहते. और जब किसी भी व्यापारी या दुकान के किसी काम से फोन आए, तो चीखनाचिल्लाना साथ में. मुंह से गालियों की बौछार करते रहना. हाथ की उंगली तो माला के दाने सरकाती जाती है, लेकिन जबान और दिमाग खुराफात में बिजी रहता है.

रात में दारू की बोतल पी कर आना और गालियों की बौछार करते हुए घर में घुसना, यह तो उन की पुरानी आदत थी.

शिव को तो अपने पापा से नफरत है, इसीलिए वह उन से बात नहीं करता. वह अपनी दादी को बहुत प्यार करता था. वे भी उसे बहुत चाहती थीं. उन्हें टायफायड हो गया, तो पापा कंजूसी के मारे कभी वैद्यजी की पुड़िया, तो कभी हकीमजी का काढ़ा, तो कभी होमियोपैथिक दवा…

अम्मां, ये दवा बहुत बढ़िया है… दवा के सारे एक्सपैरीमेंट उन पर होते रहे और जब बहलाफुसला कर कागजों पर दस्तखत करवा लिए और तिजोरी की चाबी हथिया कर सब सामान चुपचाप पार कर दिए, तो पापा ने उन की ओर आंख उठा कर देखना भी बंद कर दिया था.

उन की हालत खराब होने की खबर जब शांति बूआ को लगी, तो वे आ कर उन्हें अपने साथ ले गई थीं. जब 6 महीने के बाद दादी गुजर गईं, तो मुंह फाड़फाड़ कर ‘हाय अम्मां हमें छोड़ गईं‘ रोरो कर दुनिया को दिखा रहे थे. फिर तेरहवीं पर अपनी बिरादरी और पंडितों की दावत कर अपनी जातिबिरादरी में अपना नाम ऊंचा कर लिया.

जब वह 7-8 साल का था, तभी सुनैना दीदी की शादी खूब धूमधाम से की, मुंहमांगी रकम भी शादी में दी और साथ में दिल खोल कर खर्च भी किया था… लेकिन फिर तो घर में एकएक पैसे के लिए दिनभर वह अम्मां पर चिल्लाया करते.

उस समय वह छोटा था, तो बचपन से सभी बच्चों की तरह पढ़ने की जगह खेलने में मन लगता था. दूसरे बच्चों की तरह कभी कंचा, तो कभी गिल्लीडंडा, कबड्डी, पहलवानी में बहुत मजा आता. उसे अखाड़े में कुश्ती देखने में बहुत आनंद आता. अपने बगीचे में जा कर अमरूद, खीरा, आम तोड़ कर खाना उसे बहुत अच्छा लगता. मुख्य बात यह थी कि वह पढ़ने से जी चुराता था. उसे बाजार की चाट बहुत अच्छी लगती. पापा जब हिसाब मांगते, तो घर के सामान में तिकड़म भिड़ा कर, कभी यहां से तो कभी वहां से पैसे ताड़ कर मौजमस्ती कर लेता… यह सब 10 -11 साल की उम्र तक चलता रहा, लेकिन जैसेजैसे बड़ा होता गया, पापा की गालियां और बातबात में पिटाई बुरी लगने लगी थी. अब उन का पूजापाठ भी ढोंग लगता था.

सुनैना दीदी का आनाजाना  और फरमाइशें बढ़ती जा रही थीं… वे जब आतीं तो उन की गोद में एक बच्चा रहता… घर का माहौल तनावपूर्ण रहता… वह चुपकेचुपके अम्मां से कुछ मांगतीं और पापा से रोधो कर मांग कर ले जातीं… उस का नतीजा उसे भुगतना पड़ता… स्कूल की फीस के लिए भी पापा परेशान करते… जैसे ही वह किसी चीज के लिए कहते… जैसे खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे, उसी तरह उस को डांट कर भगा देते… और अकसर पिटाई भी कर देते… वह बड़ा हो रहा था.

उस की दोस्ती अमन से हो गई थी. वह क्लास में फर्स्ट आता था. उस की मम्मी टीचर थीं. एक दिन वह उस के घर गया तो आंटी ने अमन के साथ उस को भी पढ़ने के लिए बिठा लिया.

अब तो वह हर रोज उन के घर पढ़ने के लिए जाने लगा था. नतीजा यह हुआ कि वह हाईस्कूल में फर्स्ट आया और उमा मौसी जो दिल्ली में रहती थीं, वह अपने घर पर रखने को राजी हो गईं.

पापा को लगा कि बिल्ली के भाग से छींका टूटा… आंटी के सिफारिश करने की वजह से वहां का फार्म भर दिया और किस्मत से एडमिशन भी हो गया…

बस उम्र के साथसाथ अक्ल भी आ गई कि उसे पढ़ कर कुछ बनना है… बस जुट गया पढ़ाई में.

कुछ सालों के बाद मौसाजी का ट्रांसफर हो गया, तो वह लड़कों के साथ कमरे में रहने लगा. अपने खर्चे के लिए मौल में पार्टटाइम जौब कर लेता. अपनी फीस के लिए भी नहीं कहता. होलीदीवाली की छुट्टियों में जाता तो लायक बेटा बन कर जो कहते चुपचाप कर देता, लेकिन अम्मांपापा की लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज और मारपीट देख मन खट्टा हो जाता और घर से मन उचटता गया.

जब वह दिल्ली में एमबीए कर रहा था, तभी रोजी पहली नजर में उसे भा गई थी. एमबीए करते ही प्लेसमेंट हो गया. रोज रोजी से मुलाकातें होती रहीं और वह उस के प्यार में डूबता गया. उसे अच्छी तरह पता था कि पापा क्रिश्चियन लड़की से शादी करने को कभी भी राजी नहीं होंगे, क्योंकि इस से  बड़ा अधर्म उन के लिए कुछ हो ही नहीं सकता. इसीलिए कोर्ट में शादी करने के सिवा कोई चारा ही नहीं था.

समय बीतता गया. अब तो पूरा साल बीत गया. जब फोन आता है, तो कह देता हूं कि ‘मीटिंग में हूं… बिजी हूं… छुट्टी नहीं मिल रही है आदि.’

एक सुबह वह सो कर उठा ही था कि फोन की घंटी घनघना उठी थी. सुबह के 7 बजे वाचमैन बोला, “कोई सुशीलाजी और गगन आप से मिलना चाहते हैं.”

“आप ऊपर भेज दें,” कहते ही उस के होश उड़ गए थे. अम्मां रोजी को देखेंगी, तो क्या होगा? शायद गगन ने रोजी के बारे में अम्मां को  बता दिया है.

मेरे पति मुझसे नौकरी करवाना चाहते हैं जबकि मैं बच्चा चाहती हूं, हमें क्या करना चाहिए?

सवाल

मेरे विवाह को 2 वर्ष हो चुके हैं. मेरे पति मुझ से नौकरी करवाना चाहते हैं जबकि मैं संतानोत्पत्ति चाहती हूं. मेरे पति की उम्र 38 वर्ष हो चुकी है, इसलिए यदि हम ने अभी से इस विषय में नहीं सोचा तो दिक्कत होगी. मैं भी इस वर्ष 30 की हो गई हूं. कृपया बताएं कि हमें क्या करना चाहिए?

जवाब

आप की उम्र 30 वर्ष हो चुकी है. अधिक विलंब करने से गर्भधारण करने और संतानोत्पत्ति में दिक्कत होगी, इसलिए आप को समय रहते संतानोत्पत्ति के लिए प्रयास करना चाहिए. आप के पति दिनोंदिन बढ़ती महंगाई के कारण चाहते होंगे कि आप नौकरी करें. यदि पति की आमदनी संतोषजनक नहीं है, तो आप घर पर रह कर ट्यूशन आदि कार्य कर के भी उन्हें आर्थिक सहयोग दे सकती हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

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कैसे ये दिल के रिश्ते- भाग 4: क्या वाकई तन्वी के मन में धवल के प्रति सच्चा प्रेम था?

तन्वी पिता के साथ मायके चली गई. हमारी सैंट्रो कार उस ने रख ली. ड्राइवर ने लौट कर बताया कि मेम साहब ने कार वापस ले जाने से इनकार किया है. प्रणव ने तन्वी के घर फोन कर के माजरा पूछा तो उस के पिता ने रूखे स्वर में उत्तर दिया, ‘कार तो तन्वी की ही थी, इसलिए उस ने रख ली.’

‘तन्वी की?’ प्रणव ने आश्चर्य से पूछा था.

‘जी हां, कार धवल के नाम है और पत्नी होने के नाते उस पर तन्वी का हक है.’

इतना कह कर उन्होंने प्रणव के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही रिसीवर रख दिया था. उन का जवाब सुन कर हम सन्न रह गए.

दूसरे दिन जब प्रणव औफिस गए तो वहां ताला लगा था और धवल के स्थान पर तन्वी की नेमप्लेट लगी थी. प्रणव परेशान हो उठे. वह विशाल इमारत, जिस में प्रणव का औफिस और नीचे कई दुकानें, बैंक, होटल आदि बने थे, 2 वर्षों पहले ही हम ने धवल के नाम से खरीदी थीं. धवल की पत्नी होने के कारण अब तन्वी उन पर अपना हक जता रही थी.

तन्वी के पिता वकील थे, किसी भी शख्स पर कोई भी इलजाम साबित करने में माहिर. प्रणव द्वारा आधी जायदाद तन्वी को देने का प्रस्ताव ठुकराने के बाद उन्होंने हमारे खिलाफ मुकदमा दायर किया कि हम तन्वी को प्रताडि़त करते थे और प्रणव ने उस के साथ बलात्कार का प्रयास भी किया था.

जिस के चरित्र पर कभी जवानी में भी कोई दाग नहीं लगा उस प्रणव पर बुढ़ापे में बलात्कार जैसा घिनौना आरोप लगाया गया, वह भी पुत्रवधू द्वारा. जवान बेटे की मौत का गम वैसे ही कम नहीं था, फिर यह बदनामी का कहर हम पर टूट पड़ा. अखबारों ने हमारे कथित जुल्मों को सुर्खियों में उछाला. नारी संगठनों ने हमारे घर के सामने नारेबाजी कर प्रदर्शन किए. हम किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह गए. जीना दूभर हो गया. लोग मुंह से तो कुछ नहीं कहते, मगर अजीब नजरों से घूरते थे.

हमारे रिश्तेदार हमारी ही गलती बताते. तन्वी के पिता ने वही किया जो उन जैसे लोग करते आए हैं. बेवकूफ हम थे जो जज्बातों में बह गए. बेटे के प्यार को इज्जत बख्शने की खातिर उन से नाता जोड़ बैठे. हम ने उन्हें उंगली थमाई, अब उन्होंने कलाई तो थामनी ही थी. हम सारे इलजामों को खामोश रह कर सह रहे थे. किसकिस के आगे सफाई पेश करते और इस से होना भी क्या था.

कानपुर में अब हम रहना नहीं चाहते थे. संपत्ति से कोई मोह नहीं रह गया था. धंधा तो प्रणव पहले भी नहीं संभाल पा रहे थे. बुढ़ापे में पैसा कमाने की उखाड़पछाड़ किस के लिए करते? वत्सल को इस व्यवसाय में कोई दिलचस्पी नहीं थी और जिसे थी वह इस दुनिया से जा चुका था.

दुखी हो कर हम ने वत्सल को हकीकत से अवगत कराया. जख्मी हालत में वह मुंबई से कानपुर आया. आते ही वह हम पर बरस पड़ा कि हम धवल के विवाहरूपी नाटक में सम्मिलित क्यों हुए? तन्वी जैसी टुच्ची लड़की को हम ने घर में क्यों घुसाया?

हम चाह कर भी उस से नहीं कह सके कि धवल की अंतिम इच्छा को साकार रूप देने से हम कैसे इनकार कर देते. अंतिम सांसें ले रहे अपने प्रिय पुत्र को उस की नवविवाहिता से अलग रखने जैसी निष्ठुरता कहां से लाते.

तन्वी ने ससुर पर बलात्कार के प्रयास का आरोप लगाया है, यह सुन कर तो वत्सल आपे से बाहर हो गया. उस ने ठान ली कि वह तन्वी को एक कौड़ी भी नहीं लेने देगा और अदालत में यह साबित कर के रहेगा कि तन्वी ने जायदाद के लालच में ही मरणासन्न धवल से विवाह किया था. तन्वी का प्यार महज नाटक था.

मुकदमेबाजी के झंझट से बचने के लिए तन्वी को कुछ देदिला कर पीछा छुड़ाने का प्रस्ताव हम ने रखा, पर वत्सल राजी नहीं हुआ. तन्वी के गर्भ में पल रहा शिशु धवल का है, इस बात को मानने के लिए भी वह कतई तैयार नहीं था. न जाने तन्वी गर्भवती थी भी या नहीं. संभव है वह जायदाद हथियाने के लिए झूठ बोल रही हो. उस की अब तक कोई जांच नहीं करवाई गई थी.

हमारे सारे ट्रक वत्सल ने औनेपौने दामों में बेच डाले. कोठी किराए पर उठा कर वह हमें अपने साथ मुंबई ले जा रहा था. कानपुर की सारी जायदाद बेच कर वह मुंबई में संपत्ति खरीदना चाहता था. हम जीवन और संपत्ति के प्रति मोह खो चुके थे. हम ने वत्सल के किसी काम में दखल नहीं दिया. मृत्यु की ही प्रतीक्षा थी अब हमें, जो चाहे कानपुर में आए या मुंबई में.

अदालत का फैसला क्या होगा, हम नहीं जानते. जायदाद का कुछ भाग तन्वी को मिल जाने से हमें कोई खास फर्क नहीं पड़ना है. जैसी भी है, तन्वी मेरे धवल की परिणीता है, पर प्यार के इस घृणित रूप को देख कर हम व्यथित हैं.

यदि तन्वी ने अपना घिनौना रूप उजागर न किया होता तो हम दिवंगत बेटे की उस प्राणप्रिया को कलेजे से लगा कर रखते. न केवल उस के जीवनभर के गुजारे का स्थायी इंतजाम करते बल्कि उसे पुनर्विवाह के लिए भी समझाते और किसी योग्य वर के साथ सम्मानपूर्वक बेटी की तरह विदा करते. हमें तो धवल की निर्जीव वस्तुएं तक बहुत प्रिय थीं, फिर तन्वी तो उस की प्रेयसी थी. लेकिन इस हादसे से दोचार होने के बाद अब हम भूल जाना चाहते हैं कि हमारे धवल ने तन्वी नाम की किसी लड़की को कभी चाहा था.

हादसों से गुजरने का नाम ही जिंदगी है. मगर यह हादसा नहीं, सोचीसमझी साजिश थी. जायदाद के लालच में कोई इस तरह का प्रपंच भी रच सकता है, यह कल्पना हम नहीं कर सके.

खूबसूरती के जाल में किसी अमीर घर के लड़के को फंसाओ और उस की दौलत हथिया कर ऐश करो, क्या यही एक मकसद था तन्वी के उस नाटक का? क्या उसे अपनी प्रगति का यह एक मार्ग नजर आया? क्या मेहनत, ईमानदारी और शराफत से धन अर्जित नहीं किया जा सकता? क्या नैतिकता और चरित्र का कोई मूल्य नहीं? क्या वह लैला, हीर, शीरीं या सोहनी कहलाने के काबिल थी?

कैसे थे उस के मातापिता जो इस सारे क्रियाकलाप को स्वीकृति देते रहे. प्यार उन के लिए जज्बा नहीं, किसी की जायदाद हथियाने का साधनमात्र था. उन्होंने बेटी को परिश्रम और योग्यता से सफलता पाने की सीख क्यों नहीं दी? उस की खूबसूरती को हथियार बना कर इस्तेमाल क्यों किया? उस के प्यार को व्यापार क्यों बनाया? सुंदरता वरदान होती है, पर कैसे थे तन्वी के पिता, जिन्होंने बेटी की खूबसूरती को इस तरह भुनाया.

तन्वी अतिसुंदर है. चाहने वाले बहुत मिल जाएंगे, मगर रूप का जादू आखिर कब तक चलना है? क्या वह सारी जिंदगी इसी तरह दो और दोपांच करती रहेगी?

तन्वी को धवल के हिस्से की जायदाद पाने का हक मुमकिन है अदालत दिला दे, मगर तन्वी के इस प्रपंच के कारण बुढ़ापे में हमारी जो बदनामी और थूथू हुई, जो खून के आंसू हम रोए, क्या उस की भरपाई कोई अदालत कर सकेगी?

जीने की राह- भाग 2: उदास और हताश सोनू के जीवन की कहानी

घर पहुंच कर तन्हाई से सामना करना कठिन हो रहा था. हर तरफ नीता और रिया दिखाई दे रही थीं, उन की यादों ने मुझे झकझोर कर रख दिया. जी में आता घर छोड़ कर कहीं दूर चला जाऊं. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा धम्म से सोफे पर बैठ गया. दुर्घटना से संबंधित सारे दृश्य आंखों के सामने आने लगे, मानो कोई वीभत्स चलचित्र देख रहा हूं. हादसे का दृश्य, क्षतविक्षत शरीर, मेरी नीता और रिया, जो मेरे लिए सुंदरता की प्रतिमूर्ति थीं. क्षतविक्षत लाशें, सार्वजनिक दाहसंस्कार, इतनी बड़ी संख्या में लोगों का क्रंदन. इतने लोगों के मध्य में भी अपना दुख सहन किए बैठा था किंतु घर में अकेले असहनीय प्रतीत हो रहा है. नहीं सहन होगा मुझ से, मैं नीता और रिया के बिना नहीं जी सकता, जो मेरी हर सांस में, हर आस में बसी हैं, उन के बिना भला कैसे जी सकता हूं. यह असंभव है, एकदम असंभव.

अपने ही घर में मैं बुत बना बैठा था. सामने रखे फोटो पर नजर ठहर गई. और मैं अतीत में खो गया. पिछले माह ही मेरी और नीता की 25वीं शादी की सालगिरह पड़ी थी. रिया के अनुरोध पर हम ने यह तसवीर खिंचवाई थी. रिया का कहना था कि मम्मीपापा, आप लोग अपनी शादी की 25वीं सालगिरह पर पेपर फोटो खिंचवाइए, जैसी आप दोनों ने अपनी शादी के बाद खिंचवाई थी. उस ने हंसते हुए कहा था, ‘मेरे मम्मीपापा इतने यंग और स्मार्ट दिखते हैं कि कोई विश्वास ही नहीं करेगा कि यह तसवीर 25वीं सालगिरह पर खिंचवाई गई है.’ नीता ने रिया से सस्नेह कहा, ‘चलो, तुम्हारी बात मान लेते हैं, किंतु इस फोटो में हमारी प्यारी बिटिया भी साथ आएगी, भला 25वीं सालगिरह की फोटो बिटिया के बिना हो ही नहीं सकती है.’

नीता की बात पर सहमत होते हुए रिया ने कहा था, ‘अब आप की 25वीं सालगिरह के दिन तो आप की बात रखनी ही होगी.’ और वह भी हमारे साथ शामिल हो गई तथा हमारा प्यारा फैमिली फोटोग्राफ तैयार हो गया. मैं गुमसुम अश्रुपूरित नजरों से फोटोग्राफ को एकटक देख रहा था कि किसी के आने की आहट पा मेरी तंद्रा भंग हुई. मेरे पड़ोसी एकएक कर मेरे घर पहुंचने लगे, सभी को कानोंकान मेरे वापस लौट आने की खबर लग चुकी थी. इस कालोनी में अपने घर में रहते हुए मुझे 8 साल हो चुके थे. नीता और रिया कालोनी के प्रत्येक क्रियाकलापों में काफी सक्रिय रहती थीं, सो वे दोनों ही कालोनी में बेहद लोकप्रिय थीं. हमेशा ही मेरे पड़ोसियों का मेरे घर आनाजाना लगा रहता था. सभी दोनों की आकस्मिक मौत से बेहद दुखी थे, सभी को मुझ से गहरी सहानुभूति थी.

अपनों की सहानुभूति पा कर मेरे धैर्य का बांध टूट गया और मैं फूटफूट कर रो पड़ा. मेरा निकटतम पड़ोसी उत्तम भावविह्वल हो मुझे गले से लगा कर बोला, ‘‘न मन, न, स्वयं को संभाल.’’ उत्तम नीता को बहन मानता था. वह नीता से राखी बंधवाता था. उत्तम बड़े प्यार एवं शौक से उसे उन मौकों पर गिफ्ट भी दिया करता. उन स्नेहपूरित उपहारों को नीता भी सहर्ष स्वीकार कर लेती थी. रिया उसे मामा कहती थी. कभी भूल से अंकल बोल जाती तो वह नाराज हो जाता. मेरा विलाप देख सामने वाली माताजी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘मन, बेटा दिल को कड़ा कर, जो तुम्हारे साथ हुआ है उसे सहन करना बेहद कठिन है किंतु सहना तो पड़ेगा ही क्योंकि दूसरा विकल्प नहीं है. हम सब तेरे साथ हैं. तू अकेला नहीं है. खुद को मजबूत बना. नीता मेरी बहू और रिया मेरी पोती थी न, बेटा,’’ मुझे समझाते वे स्वयं विलाप करने लगीं.

माताजी मेरे परिवार से बहुत स्नेह करती थीं. वे अकसर मेरे घर आती रहती थीं. रिया के हमउम्र उन के 2 पोते हैं. मुझे याद है, एक दिन दोनों पोतों की शिकायत करते हुए बोलीं, ‘देख न नीता, मेरे दोनों पोते अक्षय और अभय को तो अपनी बूढ़ी दादी के लिए समय ही नहीं है, कितने दिनों से बोल रही हूं मुझे तुलसी ला दो पर दोनों हर बार कल पर टाल देते हैं. रिया बेटा, तू ही अपने भाइयों को थोड़ा समझा न.’ रिया बड़े प्यार से माताजी से बोली थी, ‘दादीमां, आप को कोई काम हुआ करे तो आप मुझे बोल दिया करो. मैं कर दिया करूंगी. मेरे ये दोनों भाई ऐसे ही हैं, दोनों को क्रिकेट से फुरसत मिलेगी तब तो दूसरा कोई काम करेंगे.’ रिया, अगले ही दिन जा कर उन के लिए तुलसी ले आई. माताजी खुश हो कर बोलीं, ‘मेरी पोती कितनी लायक है.’ रिया हंसते हुए बोली, ‘दादीमां, सिर्फ मक्खन से काम नहीं चलेगा, मुझे मेरा इनाम चाहिए.’ माताजी प्यार से उस का माथा चूम लेतीं, यही रिया का इनाम होता था. दादीपोती का यह प्यार अनोखा था, जिस की प्रशंसा पूरी कालोनी करती थी.

मेरे सभी परिचित मुझे अपनेअपने तरीके से सांत्वना दे रहे थे. मैं ने कहा, ‘‘मुझ में इतनी हिम्मत नहीं है. मैं असमर्थ हूं. नीता और रिया के बिना जीने के खयाल से ही मैं कांप जाता हूं. दिल में आता है स्वयं को खत्म कर दूं. मैं हार गया,’’ यह कहतेकहते मैं रो पड़ा. उत्तम ने मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘मन, ऐसा सोचना गलत है, जीवन से हार कर स्वयं को कायर लोग खत्म करते हैं. आप हिम्मत से काम लीजिए.’’ सभी शांत एवं उदास बैठे थे, मानो सांत्वना के सारे शब्द उन के पास खत्म हो चुके हों. निश्चित कार्यक्रम के अनुसार सुबह 8 बजे मैं और उत्तम निकट के अनाथालय चले गए, वहां का काम निबटा कर हम साढ़े 10 बजे तक घर लौट आए थे. मैं और उत्तम मेरे घर की छत पर चुपचाप, गमगीन बैठे हुए थे. भाभीजी चायनाश्ता ले कर आ गईं, आग्रह करती हुई बोलीं, ‘‘मनजी, आप दोनों के लिए नाश्ता रख कर जा रही हूं, अवश्य खा लीजिएगा,’’ और वे जल्दी से पलट कर चली गईं. मैं समझ रहा था भाभीजी मुझ से नजरें मिलाना नहीं चाह रही थीं, क्योंकि रोरो कर उन का भी बुरा हाल था.

तृप्त मन- भाग 3: राजन ने कैसे बचाया बहन का घर

“शुभअशुभ कुछ नहीं होता राकेश. समय की नजाकत को समझते हुए गलत परंपराएं और जिद छोड़ी जा सकती है राकेश. तुम्हारे और मम्मीजी के कहने पर शादी के बाद मैं ने अपनी जिद छोड़ कर नौकरी छोड़ दी थी न, तो कम से कम अब तुम भी तो थोड़ा झुको,” पिछली बातें याद कर जवाब देते हुए उस की आंखें गीली हो रही थीं.

“बहू, खानदानी परंपरा तोड़ी नहीं जाती. बात अगर जिद छोड़ने की ही है तो झुकना तो तुझे ही चाहिए. पुरुष कभी औरत के आगे नहीं झुकता,” उस की बात सुन कर सास ने अपना मन्तव्य रखा.

“देखो नेहा, तुम पिछले 10 दिनों से इस बात को ले कर घर का माहौल तंग बनाए हुए हो. कल रात से तो हद ही कर दी है तुम ने. मेरे पूछे बिना तुम ने उस वकील …क्या नाम था… हां … विभा सहाय को अपने घर के मामले में डाला तब मैं ने कुछ नहीं कहा लेकिन अब तो पानी सिर से ऊपर जा रहा है. मम्मी कह रही थीं तुम ने आज सुबह पंडितजी को भी भलाबुरा कह कर उन की हाजिरी में मम्मी की इन्सल्ट की. अपनी औकात में रहना सीखो वरना मुझे भी अपनी उंगली टेढ़ी करना आती है,” राकेश ने जला देने वाली नजर उस की तरफ डाली तो एक पल को वह सहम गई लेकिन फिर अगले ही क्षण विभा सहाय की दी गई सलाह उस के जेहन में तैर गई और वह पूरे आत्मविश्वास से बोलने लगी, “ठीक है, मैं अपनी औकात में ही रहूंगी लेकिन मेरी औकात क्या है, यह मैं खुद तय करूंगी.”

“तुम्हारे कहने का मतलब क्या है? धमकी दे रही हो या समझौता कर रही हो?” राकेश ने उस का जवाब सुन कर शंकाभरी नजर उस पर डाली.

उस ने अब एक ठंडी आह भरी और आगे कहा, “जिंदगी में पैसा झगड़ा करवाता है. यह बात सुन रखी थी लेकिन अब अनुभव भी कर ली है. पापा के मुझे दिए गए पैसों को ले कर हमारे घर की सुखशांति भंग हो रही है, तो सोच रही हूं उन का दिया सारा पैसा उन्हें वापस कर दूं. इस से घर में शांति तो बनी रहेगी. नया मकान आज नहीं तो दसपन्द्रह साल बाद तुम खुद अपनी कमाई से ले ही लोगे.”

जैसे ही उस ने अपनी बात पूरी की, राकेश का चेहरा सफेद पड़ गया. वह हड़बड़ाता हुआ बोला, “तुम ऐसा हरगिज नहीं कर सकतीं.”

“क्यों नहीं कर सकती? मैं यह फैसला ले सकूं, इतनी तो औकात है मेरी राकेश,” जवाब देते हुए उस ने राकेश को घूरा तो उस के तेवर और आत्मविश्वास देख कर राकेश तुरंत कुछ नहीं बोल पाया. उस ने अपनी मम्मी की तरफ देखा और उन की आंखों से एक इशारा पा कर वह बिगड़ी हुई बात संभालते हुए उसे समझाने लगा, “यह समय आवेश में आ कर इस तरह का फैसला लेने का नहीं है. इस वक्त तुम गुस्से में हो, अपने परिवार का हित ध्यान में रख कर फिर से सोचो और हम फिर किसी दिन इस बारे में बात करेंगे.”

“वह दिन कभी नहीं आएगा राकेश. मैं अच्छी तरह से समझ गई हूं. मेरे नाम से संपत्ति कर देने से तुम खुद को इनसिक्योर या छोटा फील करोगे, इसी से तुम यह फैसला नहीं ले पा रहे हो लेकिन मैं अपने फैसले पर अडिग हूं या तो मकान मेरे नाम से होगा या फिर मैं अपने पापा का सारा पैसा उन्हें लौटा दूंगी.”

“तुम गलत समझ रही हो नेहा. बात खुद को छोटा फील करने वाली नहीं है. जब तक मैं हूं तब तक संपत्ति वगैरह जैसे लफड़ो में तुम्हें नहीं पड़ना चाहिए,” राकेश ने उस की बात का जवाब दिया तो नेहा ने अब विस्तार से कहा, “अगर तुम्हारा सोचना ऐसा ही है तो तुम गलत हो राकेश. अपने जीवनसाथी को जीवन की आवश्यक चीजों से दूर रख कर तुम उसे केवल औरत होने के नाम पर कमजोर बना रहे हो. याद करो वह दिन जब पापाजी के जाने के बाद गांव वाली जमीन को ले कर कितनी दिक्कतें हुई थीं. मम्मीजी को उस बारे में थोड़ा भी पता होता तो वह जमीन तुम्हारे ताऊजी हड़प न कर पाते.”

उस की बात सुनकर कुछ देर के लिए कोई कुछ नहीं बोला. वह अपनी जगह से उठ कर चायनाश्ते की खाली प्लेट्स ले कर रसोई में जाने लगी. तभी पीछे से उसे उस की सास की आवाज सुनाई दी, “राकेश, बहू की बात कुछ हद तक सही तो है. तेरे पापा ने मकान-संपत्ति के मामले में मुझे बिलकुल अनजान रखा था, इसी से आज जो कुछ हमारा होना था वह हमारे पास नहीं है. बहू को कम से कम अपने अधिकारों के बारे में तो पता है और अपने अधिकार को ले कर अगर वह अपनों से भी लड़ रही है तो कुछ गलत नहीं कर रही है.”

“लेकिन मम्मी…मकान उस के नाम…” राकेश ने कुछ कहना चाहा तो उन्होंने उसे टोकते हुए आगे कहा, “तुम दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए हो. क्या फर्क पड़ता है अगर घर बहू के नाम भी हुआ तो… आखिर मकान को घर तो उसे ही बनाना है.”

अपनी मम्मी के फैसले पर सहमति जताते हुए राकेश आगे कुछ नहीं बोला. नेहा ने पीछे पलट कर उसे देखा तो उस की तरफ देख कर वह मुसकरा दिया.

आकाश में मचान- भाग 3: आखिर क्यों नहीं उसने दूसरी शादी की?

इन्होंने भाभी से रिपोर्ट के बारे में बताया और कल सुबह लौटने की बात कही. भाभी पहले तो तटस्थ बैठी थीं, फिर चौंक कर बोलीं, ‘‘अरे, चले जाना, 2-4 दिन और रह लो’’, फिर अफसोस जाहिर करती हुई बोलीं, ‘‘इस बार तो सब तुम्हें ही करना पड़ा. तुम न होतीं तो पता नहीं कैसे चलता. ऐसे समय नौकरानी भी छुट्टी ले कर चली गई. कहते हैं न, मुसीबत चौतरफा आती है.’’

‘‘अरे भाभी, किया तो क्या हुआ, अपने ही घर में किया’’, मेरी आवाज में कुछ चिढ़ने का लहजा आ गया था.

शाम को हम लोग संतोषजी के घर गए. साफसुथरा, सजा हुआ प्यारा सा घर. फिल्मी हीरोइन जैसी सुंदर बेटी राधिका. देखते ही उस ने हाथ जोड़ कर हम लोगों से नमस्ते किया.

मैं ने तो उसे अपने गले से लगा लिया और एक चुंबन उस के माथे पर जड़ दिया. इन्होंने उस के सिर पर हाथ फिराते हुए आशीर्वाद दिया.

मैं अपनी नजरों को चारों ओर दौड़ा रही थी, तभी संतोषजी की आवाज

गूंज उठी और सब ने एकदूसरे को बधाइयां दीं. मैं ने मिठाई का डब्बा राधिका के हाथ में और कुरतापाजामा का पैकेट संतोषजी के हाथ में थमा दिया.

भोजन टेबल पर लगा था. हंसते, मजाक करते हम लोग भोजन का आनंद ले रहे थे. हर चीज स्वादिष्ठ बनी थी. हम लोग सारी औपचारिकताएं भूल कर आप से तुम पर आ गए थे.

संतोषजी कह रहे थे कि 3 माह बाद जब दोबारा आना, तब यहीं ठहरना. देखो भाई, संकोच मत करना. और एक पैकेट हमारे हाथ में थमा दिया.

‘‘जरूरजरूर आएंगे. आप के रुपए देने तो जरूर आएंगे. कोशिश करेंगे, अगली बार ही रुपए वापस कर दें, और यदि नहीं हुआ तो क्षमा करना, भाई,’’ इन्होंने बड़े प्रेम से कहा तो संतोषजी ने इन के हाथों को अपने हाथों में ले लिया और बोले, ‘‘कैसी बातें करते हैं. दोस्ती की है तो इसे निभाऊंगा भी, चाहो तो आजमा के देख लेना.’’

तब तक मैं ने पैकेट खोल लिया था. एक सुनहरी डब्बी में मेरी वाली

सोने की चेन रखी थी. एक पल आंख मुंदी और सारी स्थिति समझ में आ गई.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. कितने महान हैं वे – संकट से उबारा भी और रिश्ते के बंधन में भी बांधा. मैं उन के चरणों में झुकी ही थी कि उन्होंने मुझे बीच में ही रोक लिया और बोले, ‘‘नहीं बहन, नहीं’’, संतोषजी की आंखें सजल हो गईं. उन के मुंह से आगे कुछ न निकल सका.

राधिका अपने पापा से लिपट गई. ‘‘पापा, आप कितने अच्छे हैं.’’ फिर हम लोगों के पास आ कर वह खड़ी हो गई. ऐसा लगा जैसे समुद्र के तट पर फैले बैंगनी रंग ने जीवन के आकाश में मचान बना दी हो.

‘‘देहाती डिस्को”: उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती, पढ़ें रिव्यु

रेटिंग: दो़ स्टार

निर्माताःवासिम कुरेशी,गीतेश चंद्राकर व कमल किशोर मिश्रा

निर्देशकः मनोज शर्मा

कलाकारः गणेश आचार्य,सक्षम शर्मा, साहिल खान,रविकिशन,मोहन जोशी, राजेश शर्मा,पंकज बेरी,रेमो डिसूजा व अन्य

अवधिः दो घंटे दो मिनट

जब निर्देशक पर कलाकार हावी हो जाता है, तब एक अच्छे विषय वाली फिल्म का किस तरह बंटाधार हो जाता है, इसका एकदम सटीक उदाहरण है मनोज शर्मा निर्देशित व नृत्य निर्देशक से अभिनेता बने गणेश आचार्य की फिल्म ‘‘देहाती डिस्को’’ फिल्म का कॉन्सेप्ट यह है कि डांस अभिशाप नहीं हो सकता.

और अभिशाप व अंधविश्वास की प्रचलित धारणाओं को तोडऩा. फिल्म की शुरूआत इसी ढर्रे पर होती है, मगर फिर फिल्म भटक जाती है.पूरी फिल्म देखकर अहसास होता है कि निर्देशक मनोज शर्मा ने फिल्म के सह लेखक व मुख्य अभिनेता गणेश आचार्य के सामने घुटने टेक दिए. क्योंकि फिल्म सही ढंग से संदेश देने में असफल होने के साथ ही पूरी फिल्म महज धर्म का प्रचार करने व जनता को धार्मिक रूप से भीरू बनाने का ही काम करती है. इतना ही नही फिल्म की शुरूआत में जाति विरोधी बातें करने वाला भोला अंतत: ‘हर हर महादेव ’ही चिल्लाता है. जात पंत कुछ नहीं होता, यह वह भी भूल जाता है. फिल्म की शुरूआत में अक्षय कुमार की आवाज में पूरे देश से प्रतिभाओं की तलाश की बात की गयी है, मगर फिल्म में ऐसा कुछ नही है. सक्षम व जैक के बीच डांस की प्रतियोगिता मंदिर बचाने के लिए होती है न कि गांवों से प्रतिभा तलाशने के लिए. इतना ही नहीं फिल्म में पितृसत्ता ही हावी है.

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कहानीः

फिल्म की कहानी उत्तर भारत के शिवपुर नामक गांव से होती है. यहां के महंत (मोहन जोशी) का मानना है कि मंदिर के सामने ही नही पूरे गांव में डांस करना अभिशाप है. डांस की वजह से गांव पर विपदा आती है. एक दिन गांव वालों के सामने जब महंत आरती कर रहे होते हैं तब उनका सात वर्ष का बड़ा बेटा भोला डांस करने लगता है. महंत अपने बेटे भोला को जबरन घर ले जाकर उसकी पिटायी कर उसे डांस न करने की सलाह देते हैं. महंत अपने बेटे भोला को गुरूकुल में भेजकर गांव का नया महंत बनाना चाहते हैं. दो दिन बाद स्कूल से लौटते वक्त वह फिर रास्ते में डांस करता है, तब महंत जी उसके पैर को जलाने के साथ ही उसे घर से बाहर कर देते हैं.भोला को एक ग्वाला शरण देता है. समय बीतता है. भोला (गणेश आचार्य) बड़ा होकर एक बेटे भीमा (सक्षम शर्मा ) के पिता बन जाते हैं. पर उनकी पत्नी उन्हे छोड़कर चली जाती है. भोला व उनका सात साल का बेटा भीमा भी भगवान शिव का भक्त और डांस में माहिर है. एक दिन पता चलता है कि भोला की मां की मौत हो गयी,पर उनके पिता व महंत ने उसे खबर नहीं दी.तो वहीं भोला के छोटे भाई राधे (रवि किशन ) को नया महंत बनाया जाता है.तभी मंत्री दुबे (राजेश शर्मा ) का बेटा जय किशन उर्फ जैक(साहिल एम खान) लंदन से डांस सीखकर आता है और अब वह शिवपुर गांव में मंदिर की जगह पर ही अपनी डांस अकादमी खोलकर पष्चिमी नृत्य सिखाना चाहता है.मंत्री जी राधे को इस डांस अकादमी में बीस प्रतिशत का भागीदार बना लेते हैं.राधे को लगता है

कि इससे गांव का विकास होगा.पर महंत इसके खिलाफ हैं. अंततः गांव व मंदिर को बचाने के लिए भीमा, जैक से डांस में प्रतियोगिता करता है, जिसमें भीमा जीतता है. जैक अपनी बात से पीछे हट जाता है.मंत्री दुबे जी उस मंदिर को और अधिक भव्य बनवा देने का वादा करते हैं.

लेखन व निर्देशनः

यह फिल्म की बजाय टीवी सीरियल ज्यादा नजर आता है.रूढ़िबद्ध ग्रामीण व मेलोड्रामैटिक संवादों की भरमार है. सारे किरदार यथार्थ से कोसों दूर है. अब न तो वैसे ग्रामीण रहे और न ही भोला जैसे बेटे. परणिामतः दर्शक किसी भी किरदार के साथ रिलेट नही कर पाता.फिल्म की पटकथा हिचकोले लेकर चलती है.फिल्म पूरी तरह से भोला का ही महिमा मंडन करती नजर आती है.फिल्म के मुख्य खलनायक जैक के किरदार को ठीक से उभारा ही नहीं गया.लेखक व निर्देशक इस बात को भूल  गए कि खलनायक जितना अधिक शक्तिशाली होगा, उतना ही हीरो का कद बढ़ता है.

review

मगर फिल्म के सह लेखक व हीरो गणेश आचार्य ने सब कुछ अपने तक ही सीमित रखा. फिल्म के कई दृश्य गणेश आचार्य पर फिट नही बैठते. फिल्म की शुरूआत के बीस मिनट कुछ उम्मीद जगाते हैं कि यह फिल्म जांतपांत, अंधविश्वास, अभिशाप, मंदिर के पुजारियों आदि के खिलाफ बात करेगी, मगर उसके बाद फिल्म एकदम से भटककर गलत राह पर बढती चली जाती है. इसके अलावा फिल्म का गलत ढंग से किए गए प्रचार के चलते जब दर्शक सिनेमा में जाता है, तो खुद को ठगा हुआ महसूस करता है.फिल्म को पिता पुत्र की भावनात्मक कहानी के रूप में प्रचार किया गया. मगर पिता पुत्र के इमोशन की दास्तां तो कहीं नजर नहीं आती.सब कुछ धर्म व मंदिर को बचाने के ही इर्द गिर्द घूमती है.फिल्म डांस के साथ भी न्याय नही करती है.निर्देशक मनोज शर्मा ने अपने काम को सही ढंग से अंजाम दिया है, मगर जब पटकथा कमजोर हो,तो निर्देशक क्या करेगा? फिर भी इस फिल्म के माध्यम से देहाती डांस को जिस तरह से प्रमोट किया गया है,उसके लिए फिल्मसर्जक को बधाई दी जा सकती है.

अभिनयः

भोला के किरदार के साथ गणेश आचार्य कड़ी मेहनत करते हैं, लेकिन वह किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाते. उनके चेहरे पर जो भाव आने चाहिए, वह आते ही नही है. खुद को हीरो साबित करने के लिए उन्होंने बेवजह कुछ

एक्शन दृश्य अपने नाम लिख लिए,मगर जमे नही.उनके चेहरे पर गुस्से के भाव तो नजर ही नहीं आते.मसलन-जब उनके बेटे सक्षम के पीछे मंत्री के गुंडे पड़े हुए हैं, तब भगवान की तरह वह टपक पड़ते हैं और हथियार बंद गुंडों को पल भर में हरा देते हैं. वाह!..यह दृश्य बड़ा अजीब सा लगता है. गणेश आचार्य को मान लेना चाहिए कि वह अच्छे नृत्य निर्देशक है, अभिनेता नहीं. भीमा के किरदार में बाल कलाकार सक्षम ने बेहतरीन डांसर बनकर उभरे हैं. उनमें बेहतर अभिनेता बनने की संभावनाएं नजर आती हैं. जैक के किरदार में साहिल एम खान ने डांस अच्छा किया है. संवाद अदायगी भी उनकी कमाल की है. यदि यह कहा जाए कि दर्शकों को अंततः सक्षम शर्मा व साहिल एम खान ही याद आ जाते हैं.फिर भी बतौर अभिनेता खुद को स्थापित करने के लिए अभी साहिल को मेहनत

करने की जरुरत है.पंकज बेरी,राजेश शर्मा, मोहन जोशी का अभिनय ठीक ठाक है. राधे के किरदार में अभिनेता व सांसद का अभिनय भी ठीक ठाक ही है.फिल्म देखकर लगता है कि उन्होने लेखकों पर दबाव डालकर अपनी राजनीति विचारधारा के अनुरूप ही संवाद लिखवाए हैं..

‘अनुपमा’ के वनराज ने फैंस को किया चैलेंज, पढ़ें खबर

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’  में वनराज का किरदार निभाने वाले सुधांशु पांडे (Sudhanshu Pandey) सोशल मीडिया पर  काफी एक्टिव रहते हैं. वह अक्सर फैंस के साथ फोटोज और वीडियोज शेयर करते रहते हैं. फैंस को भी उनके पोस्ट का बेसब्री से इंतजार रहता है. अब सुधांशु पांडे ने अपने फैंस को चैलेंज किया है. आइए बताते है पूरी खबर.

आपको बता दें कि सुधांशु पांडे ने एक्टिंग की दुनिया में कदम रखने से पहले मॉडलिंग की थी.  कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी कुछ मॉडलिंग से जुड़ी फोटोज शेयर की थी.

 

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सुधांशु पांडे ने इंस्टाग्राम पर अपनी स्कूल की तस्वीर शेयर की है, जिसमें वह बाकी बच्चों के साथ नजर आ रहे हैं. इस फोटो के कैप्शन में उन्होंने लिखा है कि लो जी पेश है ये तस्वीर, जब मैं स्टैंडर्ड 3 में था. नैनीताल में बिशप शॉ स्कूल.. इस तस्वीर में मुझे पहचानने वालों को मिलेंगे पूरे एक करोड़ तो नहीं पर कमेंट टॉप पर पिन कर दूंगा. चलो सब लग जाओ काम पर. जय महाकाल…

 

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सुधांशु पांडे की इस फोटो को अभी तक 14 हजार से भी ज्यादा बार लाइक किया जा चुका है. आपको बता दें कि सुधांशु पांडे ‘अनुपमा’ में वनराज का किरदार निभा रहे हैं. वह अपने नेगेटिव किरदार के कारण अक्सर सोशल मीडिया पर ट्रोल होते रहते हैं.

 

शो के लेटेस्ट एपिसोड में दिखाया जाएगा कि काव्या अपने एक्स से मिलने चली जाएगी तो दूसरी तरफ बा घर पर काव्या का इंतजार करेगी. काव्या के लेट आने पर बा का खून खौल जाएगा. बा दावा करेगा कि वह काव्या को सबस सिखाकर रहेगी.

 

हनीमून के दौरान करीब आए अनुज-अनुपमा, वनराज और काव्या में होगी लड़ाई

अनुपमा टीवी सीरियल में इन दिनों लगातार ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो में अनुज-अनुपमा की शादी के बाद कहानी में नया मोड़ देखने को मिल रहा है. अनुपमा अपनी जिंदगी में आगे बढ़ रही है तो वहीं वनराज और काव्या के बीच जंग छिड़ गई है. शो के आने वाले एपिसोड में बड़ा ट्विस्ट देखने को मिलेगा. आइए बताते हैं शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो में आपने देखा कि शादी के बाद अनुपमा और अनुज रसोई की रस्म निभाते हैं. इस दौरान यह दोनों खूब मस्ती करते है. तो दूसरी तरफ काव्या और वनराज के रिश्ते में दरार आ गई है. काव्या ने फैसला कर लिया है कि वह वनराज से अलग होने वाली है.

 

वनराज भी काव्या का फैसला सुनकर ऐलान कर दिया है कि वह परिवार का देखरेख खुद कर सकता है. उसे किसी की भी जरूरत नहीं है.

 

शो के आने वाले एपिसोड में यह देखा जाएगा कि अनुज और अनुपमा अपने हनीमून पर जाएंगे. दरअसल अनुज अनुपमा को बताएगा कि वह दोनों अपना हनीमून मनाने के लिए मुंबई जाने वाले हैं. यह सुनकर अनुपमा बहुत खुश हो जाएगी.

 

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शो में आप देखेंगे कि हनीमून के दौरान अनुज और अनुपमा को एक दूसरे पर प्यार लुटाते नजर आएंगे. तो दूसरी तरफ काव्या अपने एक्स हसबैंड से मिलने लिए जाएगी जिसे देख कर वनराज आगबबूला हो जाएगा और दोनों के बीच में जमकर लड़ाई होगी.

 

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