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Hindi Story : चेतावनी – मीना आंटी ने क्या जिद ठान ली थी

Hindi Story : संदीप और अर्चना के प्रति मीना की दिलचस्पी इतनी बढ़ी कि वह उन की परेशानी जानने को आतुर हो उठी, यहां तक कि अर्चना को परेशानी से उबारना मीना की जिद बन गई.

पिछले कुछ दिनों से वे दोपहर 1 से 2 के बीच रोज पार्क में आते. उन दोनों की जोड़ी मुझे बहुत जंचती. युवक कार से और युवती पैदल यहां पहुंचती थी. दोनों एक ही बैंच पर बैठते और उन के आपस में बात करने के ढंग को देख कर कोई भी कह सकता था कि वे प्रेमीप्रेमिका हैं.

मैं रोज जिस जगह घास पर बैठती थी वहां माली ने पानी दे दिया तो मैं ने जगह बदल ली. मन में उन के प्रति उत्सुकता थी, इसलिए उस रोज मैं उन की बैंच के काफी पास शौल से मुंह ढक कर लेटी हुई थी, जब वे दोनों पार्क में आए.

उन के बातचीत का अधिकांश हिस्सा मैं ने सुना. युवती का नाम अर्चना और युवक का संदीप था. न चाहते हुए भी मुझे उन के प्रेमसंबंध में पैदा हुए तनाव व खिंचाव की जानकारी मिल गई.

नाराजगी व गुस्से का शिकार हो कर संदीप कुछ पहले चला गया. मैं ने मुंह पर पड़ा शौल जरा सा हटा कर अर्चना की तरफ देखा तो पाया कि उस की आंखों में आंसू थे.

मैं उस की चिंता व दुखदर्द बांटना चाहती थी. उस की समस्या ने मेरे दिल को छू लिया था, तभी उस के पास जाने से मैं खुद को रोक नहीं सकी.

मुझ जैसी बड़ी उम्र की औरत के लिए किसी लड़की से परिचय बनाना आसान होता है. बड़े सहज ढंग से मैं ने उस के बारे में जानकारी हासिल की. बातचीत ऐसी हलकीफुलकी रखी कि वह भी जल्दी ही मुझ से खुल गई.

इस सार्वजनिक पार्क के एक तरफ आलीशान कोठियां बनी हैं और दूसरी तरफ मध्यवर्गीय आय वालों के फ्लैट्स हैं. मेरा बड़ा बेटा अमित कोठी में रहता है और छोटा अरुण फ्लैट में.

अर्चना भी फ्लैट में रहती थी. उस की समस्या पर उस से जिक्र करने से पहले मैं उस की दोस्त बनना चाहती थी. तभी जिद कर के मैं साथसाथ चाय पीने के लिए उसे अरुण के फ्लैट पर ले आई.

छोटी बहू सीमा ने हमारे लिए झटपट अदरक की चाय बना दी. कुछ समय हमारे पास बैठ कर वह रसोई में चली गई. चाय खत्म कर के मैं और अर्चना बालकनी के एकांत में आ बैठे. मैं ने उस की समस्या पर चर्चा छेड़ दी.

‘‘अर्चना, तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी को ले कर मैं तुम से कुछ बातें करना चाहूंगी. आशा है कि तुम उस का बुरा नहीं मानोगी,’’ यह कह कर मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों में ले कर प्यार से दबाया.
‘‘मीना आंटी, आप मुझे दिल की बहुत अच्छी लगी हैं. आप कुछ भी पूछें या कहें, मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगी,’’ उस का भावुक होना मेरे दिल को छू गया.
‘‘वहां पार्क में मैं ने संदीप और तुम्हारी बातें सुनी थीं. तुम संदीप से प्रेम करती हो. वह एक साल के लिए अपनी कंपनी की तरफ से अगले माह विदेश जा रहा है. तुम चाहती हो कि विदेश जाने से पहले तुम दोनों की सगाई हो जाए. संदीप यह काम लौट कर करना चाहता है. इसी बात को ले कर तुम दोनों के बीच मनमुटाव चल रहा है ना?’’ मेरी आवाज में उस के प्रति गहरी सहानुभूति के भाव उभरे.

कुछ पल खामोश रहने के बाद अर्चना ने चिंतित लहजे में जवाब दिया, ‘‘आंटी, संदीप और मैं एकदूसरे के दिल में 3 साल से बसते हैं. दोनों के घर वालों को हमारे इस प्रेम का पता नहीं है. वह बिना सगाई के चला गया तो मैं खुद को बेहद असुरक्षित महसूस करूंगी.’’

‘‘क्या तुम्हें संदीप के प्यार पर भरोसा नहीं है?’’
‘‘भरोसा तो पूरा है, आंटी, पर मेरा दिल बिना किसी रस्म के उसे अकेला विदेश भेजने से घबरा रहा है.’’
मैं ने कुछ देर सोचने के बाद पूछा, ‘‘संदीप के बारे में मातापिता को न बताने की कोई तो वजह होगी.’’
‘‘आंटी, मेरी बड़ी दीदी ने प्रेम विवाह किया था और उस की शादी तलाक के कगार पर पहुंची हुई है. पापामम्मी को अगर मैं संदीप से प्रेम करने के बारे में बताऊंगी तो मेरी जान मुसीबत में फंस जाएगी.’’
‘‘और संदीप ने तुम्हें अपने घरवालों से क्यों छिपा कर रखा है?’’

अर्चना ने बेचैनी के साथ जवाब दिया, ‘‘संदीप के पिता बहुत बड़े बिजनेसमैन हैं. आर्थिक दृष्टि से हम उन के सामने कहीं नहीं ठहरते. मैं एमबीए पूरी कर के नौकरी करने लगूं, तब तक के लिए उस ने अपने मातापिता से शादी का जिक्र छेड़ना टाल रखा है. मेरी एमबीए अगले महीने समाप्त होगा, लेकिन उस के विदेश जाने की बात के कारण स्थिति बदल गई है. मैं चाहती हूं कि वह फौरन अपने मातापिता से इस मामले में चर्चा छेड़े.’’

अर्चना का नजरिया तो मैं समझ गई लेकिन संदीप ने अभी विदेश जाने से पहले अपने मातापिता से शादी का जिक्र छेड़ने से पार्क में साफ इनकार कर दिया था और उस के इनकार करने के ढंग में मैं ने बड़ी कठोरता महसूस की थी. उस ने अर्चना के नजरिए को सम?ाने की कोशिश भी नहीं की थी. मुझे उस का व्यक्तित्व पसंद नहीं आया था. तभी दुखी व परेशान अर्चना का मनोबल बढ़ाने के लिए मैं ने उस की सहायता करने का फैसला लिया था.

मेरा 5 वर्षीय पोता समीर स्कूल से लौट आया तो हम आगे बात नहीं कर सके क्योंकि उस की मांग थी कि उस के कपड़े बदलने, खाना परोसने व खिलाने का काम दादी ही करें.

अर्चना अपने घर जाना चाहती थी पर मैं ने उसे यह कह कर रोक लिया कि बेटी, अगर तुम्हें कोई ऐतराज न हो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूं. तुम्हारी मां से मिलने का दिल है मेरा.

रास्ते में अर्चना ने उलझन भरे लहजे में पूछा, ‘‘मीना आंटी, क्या संदीप के विदेश जाने से पहले उस के साथ सगाई की रस्म हो जाने की मेरी जिद गलत है?’’

‘‘इस सवाल का सीधा ‘हां’ या ‘न’ में जवाब नहीं दिया जा सकता है,’’ मैं ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘मेरी समझ से इस समस्या के 2 महत्त्वपूर्ण पहलू हैं.’’
‘‘कौनकौन से, आंटी?’’
‘‘पहला यह कि क्या संदीप का तुम्हारे प्रति प्रेम सच्चा है? अगर इस का जवाब ‘हां’ है तो वह लौट कर तुम से शादी कर ही लेगा. दूसरी तरफ वह ‘रोकने’ की रस्म से इसलिए इनकार कर रहा हो कि तुम से शादी करने का इच्छुक ही न हो.’’
‘‘ऐसी दिल तोड़ने वाली बात मुंह से मत निकालिए, आंटी,’’ अर्चना का गला भर आया.
‘‘बेटी, यह कभी मत भूलो कि तथ्यों से भावनाएं सदा हारती हैं. हमारे चाहने भर से जिंदगी के यथार्थ नहीं बदलते,’’ मैं ने उसे कोमल लहजे में समझाया.
‘‘मुझे संदीप पर पूरा विश्वास है,’’ उस ने यह बात मानो मेरे बजाय खुद से कही थी.
‘‘होना भी चाहिए,’’ मैं ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई.
‘‘आंटी, मेरी समस्या का दूसरा पहलू क्या है?’’ अर्चना ने मुसकराने की कोशिश करते हुए पूछा.
‘‘तुम्हारी खुशी है. तुम्हारे मन की सुखशांति.’’
‘‘मैं कुछ समझ नहीं, आंटी.’’
‘‘अभी इस बारे में मुझ से कुछ मत पूछो पर मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि संदीप के विदेश जाने में अभी 2 सप्ताह बचे हैं और इस समय के अंदर ही तुम्हारी समस्या का उचित समाधान मैं ढूंढ़ लूंगी.’’
ऐसा आश्वासन पा कर अर्चना ने मुझ से आगे कुछ नहीं पूछा.
अर्चना की मां सावित्री एक आम घरेलू औरत थीं. मेरी 2 सहेलियां उन की भी परिचित निकलीं तो हम जल्दी सहज हो कर आपस में हंसनेबोलने लगे.

मैं ने अर्चना की शादी का जिक्र छेड़ा तो सावित्री ने बताया, ‘‘मीना बहनजी, इस के लिए इस की बूआ ने बड़ा अच्छा रिश्ता सुझाया है पर यह जिद्दी लड़की हमें बात आगे नहीं चलाने देती.’’
‘‘क्या कहती है अर्चना?’’ मैं ने उत्सुकता दर्शाई.
‘‘यही कि एमबीए के बाद कम से कम सालभर नौकरी कर के फिर शादी के बारे में सोचूंगी.’’
‘‘उस के ऐसा करने में दिक्कत क्या है, बहनजी?’’
‘‘अर्चना के पापा इतना लंबा इंतजार नहीं करना चाहते. अपनी बहन का भेजा रिश्ता उन्हें बहुत पसंद है.’’

मैं समझ गई कि आने वाले दिनों में अर्चना पर शादी का जबरदस्त दबाव बनेगा. अर्चना की जिद कि संदीप सगाई कर के विदेश जाए, मुझे तब जायज लगी.
‘‘अर्चना, कल तुम पार्क में मुझे संदीप से मिलाना. तब तक मैं तुम्हारी परेशानी का कुछ हल सोचती हूं,’’ इन शब्दों से उस का हौसला बढ़ा कर मैं अपने घर लौट आई.
अगले दिन पार्क में अर्चना ने संदीप से मुझे मिला दिया. एक नजर मेरे साधारण से व्यक्तित्व पर डालने के बाद संदीप की मेरे बारे में दिलचस्पी फौरन बहुत कम हो गई.
मैं ने उस से थोड़े से व्यक्तिगत सवाल सहज ढंग से पूछे. उस ने बड़े खिंचे से अंदाज में उन के जवाब दिए. यह साफ था कि संदीप को मेरी मौजूदगी खल रही थी.
उन दोनों को अकेला छोड़ कर मैं दूर घास पर आराम करने चली गई.
संदीप को विदा करने के बाद अर्चना मेरे पास आई. उस की उदासी मेरी नजरों से छिपी नहीं रह सकी. मैं ने प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उस के बोलने का इंतजार खामोशी से करने लगी.
कुछ देर बाद हारे हुए लहजे में उस ने बताया, ‘‘आंटी, वह सगाई करने के लिए तैयार नहीं है. उस की दलील है कि जब शादी एक साल बाद होगी तो अभी से दोनों परिवारों के लिए तनाव पैदा करने का कोई औचित्य नहीं है.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद मैं ने मुसकराते हुए विषय परिवर्तन किया, ‘‘देखो, परसों मेरे बड़े बेटे अंकित की कोठी में शानदार पार्टी होगी. मेरी पोती शिखा का 8वां जन्मदिन है. तुम्हें उस पार्टी में मेरे साथ शामिल होना होगा.’’
अर्चना ने पढ़ाई का बहाना कर के पार्टी में आने से बचना चाहा पर मेरी जिद के सामने उस की एक न चली. उस की मां से इजाजत दिलवाने की जिम्मेदारी मैं ने अपने ऊपर ले ली थी.
मेरा बेटा अमित व बहू निशा दोनों कंप्यूटर इंजीनियर हैं. उन्होंने प्रेम विवाह किया था. मेरे मायके या ससुराल वालों में दोनों तरफ दूरदूर तक कोई भी उन जैसा अमीर नहीं है.
अमित ने पार्टी का आयोजन अपनी हैसियत के अनुरूप भव्य स्तर पर किया. सभी मेहमान शहर के बड़े और प्रतिष्ठित आदमी थे. उन की देखभाल के लिए वेटरों की पूरी फौज मौजूद थी. शराब के शौकीनों के लिए ‘बार’ था तो डांस के शौकीनों के लिए डीजे सिस्टम मौजूद था.

मेरी छोटी बहू सीमा, अर्चना और मैं खुद इस भव्य पार्टी में मेहमान कम, दर्शक ज्यादा थे. जो एकदो जानपहचान वाले मिले वे भी हम से ज्यादा बातें करने को उत्सुक नहीं थे.
अमित और निशा मेहमानों की देखभाल में बहुत व्यस्त थे. हम ठीक से खापी रहे हैं, यह जानने के लिए दोनों कभीकभी कुछ पल को हमारे पास नियमित आते रहे.
रात को 11 बजे के करीब उन से विदा ले कर जब हम अपने फ्लैट में लौटे, तब तक 80 प्रतिशत से ज्यादा मेहमानों ने डिनर करना भी नहीं शुरू किया था.
पार्टी के बारे में अर्चना की राय जानने के लिए अगले दिन मैं 11 बजे के आसपास उस के घर पहुंच गई थी.

‘‘आंटी, पार्टी बहुत अच्छी थी पर सच कहूं तो मजा नहीं आया,’’ उस ने सकुचाते हुए अपना मत व्यक्त किया.
‘‘मजा क्यों नहीं आया तुम्हें?’’ मैं ने गंभीर हो कर सवाल किया.
‘‘पार्टी में अच्छा खानेपीने के साथसाथ खूब हंसनाबोलना भी होना चाहिए. बस, वहां जानपहचान के लोग न होने के कारण पार्टी का पूरा लुत्फ नहीं उठा सके हम.’’
‘‘अर्चना, हम दूसरे मेहमानों के साथ जानपहचान बढ़ाने की कोशिश करते तो क्या वे हमें स्वीकार करते? मैं चाहूंगी कि तुम मेरे इस सवाल का जवाब सोचसम?ा कर दो.’’
कुछ देर सोचने के बाद अर्चना ने जवाब दिया, ‘‘आंटी, वहां आए मेहमानों का सामाजिक व आर्थिक स्तर हम से बहुत ऊंचा था. हमें बराबर का दर्जा देना उन्हें स्वीकार न होता.’’
‘‘एक बात पूछूं?’’
‘‘पूछिए.’’
‘‘क्या ऐसा ही अंतर तुम्हारे व संदीप के परिवारों में नहीं है?’’
‘‘है,’’ अर्चना का चेहरा उतर गया.
‘‘तब क्या तुम्हारे लिए यह जानना जरूरी नहीं है कि उस के घर वाले तुम्हें बहू के रूप में आदरसम्मान देंगे या नहीं?’’
‘‘आंटी, क्या संदीप का प्यार मुझे ये सभी चीजें उन से नहीं दिलवा सकेगा?’’
‘‘अर्चना, कल की पार्टी में अमित की मां, भाईभतीजा व भाई की पत्नी मौजूद थे. लगभग सभी मेहमान हमें पहचानने के बावजूद हम से बोलना अपनी तौहीन सम?ाते रहे. सिर्फ संदीप की पत्नी बन जाने से क्या तुम्हारे अमीर ससुराल वालों का तुम्हारे प्रति नजरिया बदल जाएगा?’’
अनुभव के आधार पर मैं ने एकएक शब्द पर जोर दिया, ‘‘तुम्हें संदीप के घर वालों से मिलना होगा. वे तुम्हारे साथ सगाई करें या न करें पर इस मुलाकात के लिए तुम अड़ जाओ, अर्चना.’’
मेरे कुछ देर तक समझने के बाद बात उस की समझ में आ गई. मेरी सलाह पर अमल करने का मजबूत इरादा मन में ले कर वह संदीप से मिलने पार्क की तरफ गई.

करीब डेढ़ घंटे बाद जब वह लौटी तो उस की सूजी आंखों को देख कर मैं संदीप का जवाब बिना बताए ही जान गई.
‘‘वह अपने घर वालों से तुम्हें मिलाने को नहीं माना?’’
‘‘नहीं, आंटी,’’ अर्चना ने दुखी स्वर में जवाब दिया, ‘‘मैं उस के साथ लड़ी भी और रोई भी पर संदीप नहीं माना. वह कहता है कि इस मुलाकात को अभी अंजाम देने का न कोई महत्त्व है और न ही जरूरत है.’’
‘‘उस के लिए ऐसा होगा पर हम ऐसी मुलाकात को पूरी अहमियत देते हुए इसे बिना संदीप की इजाजत के अंजाम देंगे, अर्चना. संदीप की जिद के कारण तुम अपनी भावी खुशियों को दांव पर नहीं लगा सकतीं,’’ मेरे गुस्से से लाल चेहरे को देख कर वह घबरा गई थी.

डरीघबराई अर्चना को संदीप की मां से सीधे मिलने को राजी करने में मुझे खासी मेहनत करनी पड़ी पर आखिर में उस की ‘हां’ सुन कर ही मैं उस के घर से उठी.

जीवन हमारी सोचों के अनुसार चलने को जरा भी बाध्य नहीं. अगले दिन दोपहर को संदीप के पिता की कोठी की तरफ जाते हुए अर्चना और मैं काफी ज्यादा तनावग्रस्त थे पर वहां जो भी घटा वह हमारी उम्मीदों से कहीं ज्यादा अच्छा था.

संदीप की मां अंजू व छोटी बहन सपना से हमारी मुलाकात हुई. अर्चना का परिचय मुझे उन्हें नहीं देना पड़ा. कालेज जाने वाली सपना ने उसे संदीप भैया की खास ‘गर्लफ्रैंड’ के रूप में पहचाना और यह जानकारी हमारे सामने ही मां को भी दे दी.

संदीप की जिंदगी में अर्चना विशेष स्थान रखती है, अपनी बेटी से यह जानकारी पाने के बाद अंजू बड़े प्यार व अपनेपन से अर्चना के साथ पेश आईं. सपना का व्यवहार भी उस के साथ किसी सहेली जैसा चुलबुला व छेड़छाड़ वाला रहा.

जिस तरह का सम्मान व अपनापन उन दोनों ने अर्चना के प्रति दर्शाया वह हमें सुखद आश्चर्य से भर गया. गपशप करने को सपना कुछ देर बाद अर्चना को अपने कमरे में ले गई.

अकेले में अंजू ने मुझ से कहा, ‘‘मीनाजी, मैं तो बहू का मुंह देखने को न जाने कब से तरस रही हूं पर संदीप मेरी नहीं सुनता. अगला प्रमोशन होने तक शादी टालने की बात करता है. अब अमेरिका जाने के कारण उस की शादी सालभर को तो टल ही गई न.’’
‘‘आप को अर्चना कैसी लगी है?’’ मैं ने बातचीत को अपनी ओर मोड़ते हुए पूछा.
‘‘बहुत प्यारी है. सब से बड़ी बात कि वह मेरे संदीप को पसंद है,’’ अंजू बेहद खुश नजर आईं.
‘‘उस के पिता बड़ी साधारण हैसियत रखते हैं. आप लोगों के स्तर की शादी करना उन के बस की बात नहीं.’’
‘‘मीनाजी, मैं खुद स्कूलमास्टर की बेटी हूं. आज सबकुछ है हमारे पास. सुघड़ और सुशील लड़की को हम एक रुपया दहेज में लिए बिना खुशीखुशी बहू बना कर लाएंगे.’’

बेटे की शादी के प्रति उन का सादगीभरा उत्साह देख कर मैं अचानक इतनी भावुक हुई कि मेरी आंखें भर आईं.

अर्चना और मैं ने बहुत खुशीखुशी उन के घर से विदा ली. अंजू और सपना हमें बाहर तक छोड़ने आईं.

‘‘कोमल दिल वाली अंजू के कारण तुम्हें इस घर में कभी कोई दुख नहीं होगा अर्चना. दौलत ने मेरे बड़े बेटे का जैसे दिमाग घुमाया है, वैसी बात यहां नहीं है. अब तुम फोन पर संदीप को इस मुलाकात की सूचना फौरन दे डालो. देखें, अब वह सगाई कराने को तैयार होता है या नहीं.’’ मेरी बात सुन कर अब तक खुश नजर आ रही अर्चना की आंखों में चिंता के बादल मंडरा उठे.

संदीप की प्रतिक्रिया मुझे अगले दिन शाम को अर्चना के घर जा कर ही पता चली. मैं इंतजार करती रही कि वह मेरे घर आए लेकिन जब वह शाम तक नहीं आई तो मैं ही दिल में गहरी चिंता के भाव लिए उस से मिलने पहुंच गई.

हुआ वही जिस का मुझे डर पहले दिन से था. संदीप अर्चना से उस दिन पार्क में खूब जोर से झगड़ा. उसे यह बात बहुत बुरी लगी कि मेरे साथ अर्चना उस की इजाजत के बिना क्यों उस की मां व बहन से मिल कर आई.

‘‘मीना आंटी, मैं आज संदीप से न दबी और न ही कमजोर पड़ी. जब उस की मां को मैं पसंद हूं तो अब उसे सगाई करने से ऐतराज क्यों?’’ अर्चना का गुस्सा मेरे हिसाब से बिलकुल जायज था.
‘‘आखिर में क्या कह रहा था संदीप?’’ उस का अंतिम फैसला जानने को मेरा मन बेचैन हो उठा.
‘‘मुझ से नाराज हो कर भाग गया वह, आंटी. मैं भी उसे ‘चेतावनी’ दे आई हूं.’’
‘‘कैसी ‘चेतावनी’?’’ मैं चौंक पड़ी.
‘‘मैं ने साफ कहा कि अगर उस के मन में खोट नहीं है तो वह सगाई कर के ही विदेश जाएगा वरना मैं समझ लूंगी कि अब तक मैं एक अमीरजादे के हाथ की कठपुतली बन मूर्ख बनती रही हूं.’’
‘‘तू ने ऐसा सचमुच कहा?’’ मेरी हैरानी और बढ़ी.
‘‘आंटी, मैं ने तो यह भी कह दिया कि अगर उस ने मेरी इच्छा नहीं पूरी की तो उस के जहाज के उड़ते ही मैं अपने मम्मीपापा को अपना रिश्ता उन की मनपसंद जगह करने की इजाजत दे दूंगी.’’

एक पल को रुक कर अर्चना फिर बोली, ‘‘आंटी, उस से प्रेम कर के मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है जो मैं अब शादी करने को उस के सामने गिड़गिड़ाऊं. अगर मेरा चुनाव गलत है तो मेरा उस से अभी दूर हो जाना ही बेहतर होगा.’’

‘‘मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं, बेटी,’’ मैं ने उसे अपनी छाती से लगा लिया और बोली, ‘‘दोस्ती और प्रेम के मामले में जो दौलत को महत्त्व देते हैं वे दोस्त या प्रेमी बनने के काबिल नहीं होते.’’
‘‘आप का बहुत बड़ा सहारा है मुझे. अब मैं किसी भी स्थिति का सामना कर लूंगी, मीना आंटी,’’ उस ने मुझे जोर से भींचा और हम दोनों अपने आंसुओं से एकदूसरे के कंधे भिगोने लगीं.

वैसे अर्चना की प्रेम कहानी का अंत बढि़या रहा. अपने विदेश जाने से एक सप्ताह पहले संदीप मातापिता के साथ अर्चना के घर पहुंच गया. अर्चना की जिद मान कर सगाई की रस्म पूरी कर के ही विदेश जाना उसे मंजूर था.

अगले दिन पार्क में मेरी उन दोनों से मुलाकात हुई. मेरे पैर छू कर संदीप ने पूछा, ‘‘मीना आंटी, मैं सगाई या अर्चना को अपने घर वालों से मिलाना टालता रहा, इस कारण आप ने कहीं यह अंदाजा तो नहीं लगाया कि मेरी नीयत में खोट था?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने आत्मविश्वास के साथ झुठ बोला, ‘‘मैं ने जो किया, वह यह सोच कर किया कि कहीं तुम नासमझ में अर्चना जैसे हीरे को न खो बैठो.’’
‘‘थैंक यू, आंटी,’’ वह खुश हो गया.

एक पल में ही मैं मीना आंटी से डार्लिंग आंटी बन गई. अर्चना मेरे गले लगी तो लगा कि बेटी विदा हो रही है.

लेखक : अवनीश शर्मा

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रिश्ते में मेरी बूआ की बेटी है जानकी. वह खूब बातूनी है और खूब कंजूस भी. बस, बातों ही में सब की मेहमानदारी कर डालती है और किसी को यह महसूस ही नहीं होने देती कि बूआ और उस ने किसी को पानी तक के लिए नहीं पूछा. कंजूस तो हमारे तीनों कजिन भी हैं.

उन की जानकी मुझे बहन की तरह मानती है. भूलेभटके ही मैं उन के घर जाती हूं तो सभी खुशी से पागल हो जाते हैं. वे समझ नहीं पाते कि मेरी खातिरदारी वे कैसे करें. बातों ही बातों में खानेपीने की चीजों का अंबार लगा देते हैं, लेकिन सामने एक भी डिश नहीं आती. जब मैं उन के घर से वापस आती हूं तो मेरे पेट में भूखे चूहों की इतनी उछलकूद हो रही होती है कि मैं समझ नहीं पाती, घर कैसे जल्दी पहुंचूं और इन्हें थोड़ा चारा डाल कर रास्ते में कैसे शांत करूं.

वैसे तो थोड़ाबहुत मैं खा कर ही जाती हूं, क्योंकि मुझे मालूम होता है कि वहां से खाली पेट आना पड़ेगा. लेकिन जानकी की बातों के जवाब देतेदेते मेरे पेट को भूख महसूस होने लगती है. जब मैं उठने लगती हूं तो जानकी मेरा हाथ पकड़ कर तपाक से कह उठती, ‘नहींनहीं, इतनी जल्दी चली जाएगी, वह भी सुच्चे मुंह, अभी तो बातों से ही मेरा मन नहीं भरा. ठहर, मैं कुछ खाने को मंगवाती हूं.’ फिर वह अपने तीनों भाइयों को आवाज लगा कर अपने पास बुलाएगी और डांटने लगेगी, ‘क्यों रे, बेवकूफो, तुम्हें जरा भी तमीज नहीं है. शादी लायक हो गए लेकिन अक्ल नहीं आई. देख रहे हो, तुम्हारी कजिन 3 घंटे से आई बैठी है और तुम लोग हो कि उस के लिए अभी तक चायनाश्ता ही नहीं मंगाया?’

और वे तीनों शातिर एकदूसरे का मुंह देखने लगते हैं, जैसे पूछ रहे हों, ‘क्या, जानकी सचमुच लाने को कह रही है?’ तभी जानकी फुंफकार उठती है, ‘खड़ेखड़े मुंह क्या देख रहे हो, कौफी बना लाओ.’

उन तीनों के पीठ मोड़ते ही जानकी बोल उठती, ‘ठहरो, इतनी गरमी में वह क्या कौफी पिएगी, पहले ही उस का सिर दुखता है. कुछ ठंडावंडा ले आओ. क्यों, रमा, तू बता न, क्या पिएगी? क्या मंगाऊं? तेरा गला तो ठीक है न? अच्छा रहने दे, दहीपकौड़ी मंगवा देती हूं. हायहाय, मैं भी कैसी भुलक्कड़ हूं. याद ही नहीं रहा, चंदू स्वीट्स की तो आज छुट्टी है. कल उस के बड़े भाई गुजर गए थे न.’

रास्ते में आते हुए मैं ने देखा था कि चंदू स्वीट्स के शोकेस खाने से चमक रहे थे पर नतीजा यह होता है कि मुझे जानकी से हंसतेहंसते कहना पड़ता है, ‘छोड़ो इस खानेपिलाने की झंझट को, क्यों तकलीफ करती हो. मैं तो घर से खा कर आई थी. अभी तक पेट भरा है…’ और इस तरह हर बार मुझे बिना पानी पिए वापस आना पड़ता है.

घर के बाहर तक जानकी छोड़ने आती तो चिंता के मारे उस का चेहरा पीला पड़ गया होता. वह अगली बार के लिए अपने सिर की कसम दे देती कि खबरदार, जो मैं कुछ घर से खा कर आऊं?

इच्छा तो होती है जानकी से कहूं, ‘तेरी अकाल मौत के डर से मैं आज भी भूखी आई थी,’ लेकिन बोलने की इतनी भी ताकत नहीं थी कि मैं उसे समझ सकूं कि झुठी कसमें मत खाया करो, जानकी. क्या पता, किस दिन तुम्हारी वाणी पर सरस्वती विराजमान हो जाए और मेरे सामने ही तुम एनीमिया की शिकार हो जाओ. खाली पेट तो मुझ से अस्पताल भी जाना नहीं हो पाएगा.

हमारी बूआ के 3 बेटे हैं और एक जानकी है. तीनों कजिन ब्याहने लायक हैं. नाम हैं उन के राम, कृष्ण और महावीर. पूरा परिवार बड़ा धार्मिक व अंधविश्वासी है. चाचा ने तो देख कर शादी की थी पर फूफा को न जाने कौन सा भक्ति का रंग चढ़ा कि स्वतंत्रता संग्रामी का चोला छोड़ कर वे देश से विधर्मियों को निकालने की बातें करने लगे और जम कर पूजापाठ करते. हां, दानदक्षिणा कम ही देते, बातें बहुत बनाते.

लड़का रामनवमी के दिन पैदा हुआ था, सो, बूआजी कहती हैं, यह रामचंद्रजी का आशीर्वाद है, इसीलिए इस का नाम राममोहन रखा. बिचला कृष्ण जन्माष्टमी के दिन दुनिया में आया था, सो वह भगवान कृष्ण का प्रसाद है. तीसरा महावीर हनुमान जयंती के दिन पैदा हुआ था इसीलिए वह हनुमानजी की कृपा का फल है. मेरी तीनों कजिनों से कभी नहीं बनी. लेकिन हैं तो कजिन ही न. तीनों अलगथलग रहते थे.

जानकी की समझ में आ गया था कि जब तक उन तीनों की शादियां न होंगी, उस का नंबर नहीं आ सकेगा. वह सब से छोटी जो थी. सो, जानकी उन तीनों के विवाह के लिए चिंतित रहती थी. आतेजाते से लड़कियां ढूंढ़ने के लिए तकाजा करती. मेरे पति को भी वह दिनरात याद दिलाती, ‘भूलना नहीं, जीजाजी. लड़कियां ऐसी ढूंढ़ना, अंदर बैठें तो बाहर तक उन के रूपरंग का उजाला पड़े.’

मेरे पति कभीकभी हंसते हुए जानकी से कह देते, ‘क्यों, जानकी, घर के बिजली खर्च में कटौती करने का इरादा है क्या?’

‘अरे, नहींनहीं, जीजाजी. महिला घर में सुंदर हो तो घर भराभरा लगता है. दहेज तो अपने मुंह से मांगेंगे नहीं. वह तो, बस, लड़की सुंदर मांगती हूं,’ जानकी कहती.

‘यह तो तुम ने अच्छी याद दिलाई, जानकी. कल ही मेरे एक मित्र कह रहे थे, कोई ऐसा लड़का बताओ जो दहेज के चक्कर में न पड़े. आप की तो मुझे याद ही नहीं आई. अब आज ही उस से बात करूंगा.’

‘न, न, बेटा. वहां बात मत करना,’ बीच में बूआ घबरा कर बोली, ‘हमारे कहने का यह मतलब नहीं कि हम तीन ही कपड़ों में लड़की ले आएंगे. मैं तो यह कहती हूं कि मैं दहेज नहीं मांगूंगी. वैसे, लड़की के मातापिता देने में कोई कसर थोड़े ही रखते हैं. लड़की खाली हाथ चली आए तो भला ससुराल में उस की कोई इज्जत होती है. पति भी बातबात में बहू को डंक मारता है कि कैसी भिखमंगों की लड़की पल्ले पड़ी है.’

बूआ बड़ी तर्कपूर्ण बात करती. जानकी भी बड़ीबूढ़ी की तरह सिर हिलाती.

‘लेकिन बूआजी, आप अपने राजकुमारों की पढ़ाई तो पूरी हो जाने दो. यह बीवी का ढोल क्यों उन के गले में बांधती हो?’ पति बूआ को समझते.

‘अरे भैया, तुम समझते क्यों नहीं, लड़कियां क्या रास्ते में बैठी हैं जो बात की और उठ कर चल देंगी. समय लगता है उन्हें ढूंढ़ने में. फिर कुछ समय तो सगाई भी रहनी चाहिए. दोनों परिवारों को एकदूसरे को समझने का मौका मिल जाता है. लड़की के चालचलन का भी पता लग जाता है. इन तीनों का निबटारा हो तो जानकी की बात चलाऊं.’

‘और, बूआजी, यह क्यों नहीं कहतीं कि समधियों से खाने को माल भी मिल जाता है. आप हैं बड़ी समझदार, दूर की सोचती हैं. खैर, यह तो बताइए, हमारे सालों की उम्र क्या है?’

‘अरे, वे क्या छोटे हैं, इसीलिए तो चिंता खाए जा रही है. बड़ा राम रामनवमी पर पूरा 24 का हो जाएगा,’ बूआ होंठों को दांत के नीचे दबा कर बोली थी.
‘और अभी तक वह तो क्लर्क की नौकरी के लिए एग्जाम दे रहा है?’ मेरे पति हैरानी से बोले थे.
‘अरे, वह क्या जानबूझ कर पड़ा है. यह मेरी सरकार ही रिजल्ट सही से नहीं निकालती.

राममोहन खिलाड़ी भी था, हौकी खेलता है. सारा दिन मैदान के पास बैठा रहता है. पहले तो लड़के आते थे पर अब सब की नौकरियां लग गईं तो बच्चों के साथ थोड़ाबहुत खेल कर मन बहलाता है.

जन्माष्टमी पर 21 का हो जाएगा, वह भी 2-3 बार कौरेसपौंडेंस परीक्षा में बैठ कर फेल हो चुका है. तीसरा भी 20 का हो जाएगा. मैं जानती थी कि तीनों अव्वल दर्जे के निकम्मे हैं. फर्नीचर के नाम पर जानकी के घर में 4 कुरसियां और 2 मेजें थीं. हर कुरसी अलग डिजाइन की.

एक कुरसी का बेंत ढीला था. दो कुरसियां अभी जवान थीं. मैं ने एक बार बूआ से कहा था, ‘बूआ, फेंको इन पुरानी कुरसियों को. बैठो तो डर लगता है. न जाने किस वक्त गुस्से में इन की टांग लडखड़ा जाए और बैठने वाले को दंडवत प्रणाम करना पड़े.’

बूआ बड़ी हैरानी से मुझे देखतीं, फिर कहतीं, ‘क्यों बेटा, घर में जो बूढ़े मांबाप हो जाते हैं उन्हें भी फेंक देना चाहिए?’

मैं ने कहा, ‘इंसान और सामान में फर्क होता है, बूआ. कोई ऐसा तो है नहीं कि तुम गरीब हो. प्रकृति का दिया सबकुछ है. मकान, जायदाद, पैसा, जेवर और फूफा की अच्छीखासी ऊपर की कमाई वाली नौकरी.’ जानकी हमेशा की तरह सिर हिलाती बोली, ‘दीदी, ऐसी बातें क्या मुंह से निकाली जाती हैं, दीवारों के भी कान होते हैं. पापा क्या इस पचड़े में पड़ने वाले थे. वह तो भले ही जिद समझ जो थोड़ाबहुत ले लेते हैं. तुम ही सोचो, दीदी खालिस तनख्वाह में कहीं 6 जनों का गुजारा होता है?’

‘लेकिन घर का थोड़ाबहुत सामान तो बनवा लो. आजकल तो मेजकुरसी पर खाने का फैशन है. लेकिन तुम हो कि अभी तक कोने पर, बक्सों पर कुशन रख कर काम चलाती हो. न सही ज्यादा फर्नीचर, बैठने को एक सोफा.’

‘न, न, जैसे हैं, हम उसी तरह अच्छे हैं. घर में कुछ भी सामान लाने का मतलब है लोगों का मुंह खुलवाना. किसी का मुंह बंद तो नहीं किया जाएगा, न यही कहेंगे, ‘साला ऊपर की कमाई खाता है.’ इस तरह सीधेसादे रहने से किसी को शक नहीं होता. फिर अब तेरे भाइयों के ब्याह हैं, तीनतीन दहेज आएंगे. घर भर जाएगा सामान से,’ बूआ ने कहा था.

उन्हीं दिनों जानकी का किसी लड़के से चक्कर चलने लगा था. उस ने मुझे बताया तो सही पर कुछ ज्यादा नहीं. लड़का शायद विधर्मी था पर अच्छा कमा लेता था. जानकी ने बूआ से कई बार कहा कि भाइयों की शादी कर दो पर बूआ तो दहेज के लालच में थी. जब तक मोटा दहेज न मिले वह किसी भी बेटे की शादी करने को तैयार न थी चाहे वे मामूली शक्लसूरत के और निखट्टू थे.

‘‘लेकिन बूआ, यह मकान तो ठीक करवा लो, जगहजगह से टूट रहा है. कल को लड़की वाले घरवर देखने आएं तो ऐसा घर देख तुम्हें कौन अपनी लड़की देगा?’’
‘‘कहती तो तू सच है. हम ने भी इंतजाम कर लिया है. इन के दफ्तर का काम चल रहा है. वह पूरा हुआ कि देखना ठेकेदार हमारे घर का कैसे हुलिया बदल देगा,’’ बूआ धीरे से बोली.
‘‘वह कैसे, बूआ?’’
‘‘तेरे फूफा ने इसी शर्त पर उसे ठेका दिया था,’’ बूआ ने मेरे कान में धीरे से कहा. जानकी के कहने पर बूआ लड़कों की शादी के लिए बड़ी परेशान हो गई. बहुत से लोगों से कह रखा था. लेकिन बूआ के गुणगान सुनते ही लड़की वाले दूर से सलाम कर लेते. बूआ में एक और भी गुण था और वह था झगड़े करने का. झगड़े के ही मारे न तो घर में फूफाजी ही टिकते थे, न बरतन मांजने वाली बाई. बूआ को इस बात से हमेशा ही शिकायत रही, ‘तेरे फूफाजी को 2 बातें घर ले आती हैं, एक भूख और दूसरी नींद. अगर इस आदमी का इन बातों के लिए भी बाहर इंतजाम हो जाए तो घर में झांके तक नहीं.’ और बरतन मांजने वालियां तो बूआ को देखते ही बस कान पकड़ लेतीं. जानकी खुल कर मां से कुछ न कह सकी.

एक दिन बूआ का सवेरेसवेरे बड़े खुश स्वर में फोन आया.

‘‘रमा, मैं कहती थी न कि मेरे लड़के का अच्छा रिश्ता आएगा. अब पास के शहर के घर से रिश्ता आया है. लड़की का फोटो भी आया है. वे 5 लाख रुपए लगाएंगे शादी में.’’

जानकी को मैं ने फोन किया तो बोली, ‘‘दीदी, मां तो वैसे ही कह रही हैं. लड़की पर असल में बचपन में किसी ने तेजाब डाल दिया था और अब उन के पिता वैसे भी शादी कर देना चाहते हैं. तीनों ने फोटो देख कर ही नापसंद कर दिया पर मां अड़ी हैं कि एक से तो शादी कराएंगी,’’ थोड़ा रुक कर वह फिर बोली, ‘‘दीदी, इस चक्कर में मैं बेकार ही पिस रही हूं. मां से कुछ कहना तो आफत बुलवाना है.’’

जानकी और बूआ के घर में क्या चल रहा था, यह मुझे नहीं मालूम चल पा रहा था. बूआ का फोन कुछ कम आता था. अब वे जब भी बात करतीं तो 5 लाख रुपए के दहेज की बात जरूर बता देतीं.

एक दिन मैं ने कहा, ‘‘बूआ, पहले अपना घर तो ठीक करवा लो, एकाध कोई नीलाम घर से ही सोफा ले लो. एकाध दरी ले लो. समधी आएं तो घर देख कर कुछ तो प्रभावित हों.’’

‘‘कुरसियां तो मेरे पास हैं, बेटी.’’
‘‘कहां, इन कुरसियों पर कौन बैठ सकता है बूआ.’’
‘‘बस, दहेज मिलने दे, मैं पूरा घर चकाचक करा दूंगी.’’

हम लोग एक दिन रास्ते में टकरा गए थे. बूआ ने एक बार भी घर आने को नहीं कहा. हां, यह जरूर पूछ लिया कि मेरी गैस्ट लिस्ट में कौनकौन हैं ताकि वे होने वाले समधी को बता सकें.

यह सुनते ही हंसी तो बहुत आई लेकिन पिताजी का खयाल आते ही दबा लेनी पड़ी और कुछ बूआ की नाराजगी का भी डर था. मरते हुए पिताजी ने कहा था, ‘मैं जानता हूं, बेटी, बूआ तुम्हें कभी पसंद नहीं रही. तुम लोग तो मुझे भी मिलने से रोकते थे. लेकिन क्या करूं, सात भाईबहनों में से हम 2 ही तो बचे थे, कैसे छोड़ देता उसे, बहन जो थी. अब मैं तो जा रहा हूं. तुम्हारे दादा की यह अंतिम निशानी रह गई है, इस से रूठना मत, बेटी. मिलतीमिलाती रहना.’

एक दिन मैं ने ही उन्हें फोन किया. इधरउधर की बातें करने के बाद मैं ने बूआ से कहा. ‘‘अभी तो घर पर खर्चा कर डालो. जब शादी होगी तो मय सूद के पैसा वापस आ जाएगा.’’ बूआ ने कोई जवाब नहीं दिया.

खैर, एक दिन आने का संदेश दे दिया. तीनों लड़कों को बूआ ने खूब सजाया था. यही अच्छा था, लड़के अब कालेज में पढ़ते थे, सो चार कपड़े उन के पास अच्छे थे. बूआ के पास न जाने कब का सैंट रखा था. उन्होंने वह भी उन के शरीर पर मल दिया. मेरे पूछने पर बोली, ‘‘कमबख्त 8-8 दिन तक नहाते नहीं. पसीने की बू के बारे नाक सड़ने लगती है. सो, सैंट की गंध से पसीने की बू नहीं आएगी.’’

‘‘कुछ उन के लिए चायपानी का प्रबंध किया, बूआ?’’ मेरे पति बोले.
‘‘अरे बेटा, वे क्या बेटी के घर का खाएंगे?’’
‘‘पर अभी उन्होंने अपनी बेटी दी कहां है?’’ मैं ने कहा.

बूआ बुरा सा मुंह बनाती मान गईं.

लड़की वालों के साथ केवल बूआ ही बात करेंगी, ऐसी बूआ की आज्ञा थी. फूफा तो यह कह कर वहां से चले गए, ‘‘बेटी, तुम पतिपत्नी हो. बात संभाल लेना. मैं यहां रहा तो तेरी बूआ की पचरपचर कहीं मुझे आपे से बाहर न कर दे.’’ जाने को तो मेरे पति भी उठ खड़े हुए लेकिन मैं ने मिन्नत कर उन्हें रोक लिया, ‘‘पुरुष के साथ किसी पुरुष को ही बैठना चाहिए. भले ही उस का मुंह सिला हुआ हो.’’

जानकी कहीं दिख नहीं रही थी. मैं और मेरे पति बाहर वाले कमरे में बैठे थे. तब ही लड़की वाले आए. उन के हाथ खाली थे. 2 पुरुष थे. बूआ ने हमें बाहर ही रोक दिया. शायद वह दहेज की बात गुप्त रखना चाहती थी. हमें कुछ जोर से बोलने की आवाजें सुनाई दे रही थीं.

अचानक बूआ की चीख सुनाई दी, ‘हाय दैया, में तो मर गई.’

हम दोनों अंदर भागे, देखा, बूआ जोरजोर से रो रही थीं और जानकी को कोस रही थीं. सब बातों के बाद लड़कों को दिखाने की बात आई तो बूआ झट से उन के फोटो उठा लाईं. लड़की का पिता बोला, ‘‘हमें सैंपल नहीं, माल चाहिए.’’

उन्हें महावीर मोहन पसंद आया. बूआ ने झट से उस की कीमत भी बता दी, ‘‘मैं ने तो सोचा था, मैं अपने मुंह से दहेज नहीं मांगूंगी लेकिन आप अड़ ही गए हैं तो इस के लिए तो मैं 2 लाख रुपए का दहेज लूंगी.’’

‘‘मेरी तो 3 लड़कियां हैं. गरीब आदमी हूं, इतना कहां दे पाऊंगा. आप ने तो एक एकदम इतने भाव…’’

‘‘इस की बीमारी पर ही मेरा इतना खर्चा हो गया है, भाईसाहब. पढ़ाई का तो मैं ने बताया ही नहीं. जानते हैं, महंगाई का जमाना है. 2 लाख रुपए की कीमत ही क्या है? आप कृष्णमोहन से कर दीजिए रिश्ता,’’ बूआ बोलीं.

‘‘उस की आंख में नुक्स है, बहनजी. फिर जरा वह दादा टाइप है, जैसा कि आप ने बताया है. इसी से छोटा पसंद आया था,’’ समधी नम्रता से बोले.

पता चला कि जानकी ने अपने बौयफ्रैंड से शादी कर ली थी और उस की सूचना अपनी मम्मीपापा को देने की जगह लड़की वालों को दी थी. वे लोग तहकीकात करने आए थे. बूआ को पहले से शक था क्योंकि जानकी एक दिन घर से यह कह कर गई हुई थी कि वह कालेज ट्रिप में कश्मीर जा रही है. उसे स्कौलरशिप मिली है. उसी से पैसे का इंतजाम हो गया. लड़की वालों ने जानकी की शादी के फोटो और वौयस मैसेज लड़की के पिता को भेज दिए थे.

अब लड़की के पिता अपनी तेजाब डाली लड़की की शादी भी निखट्टू लड़कों से करने को मना करने आए थे.

हम दोनों नहीं समझ पा रहे थे कि बूआ का गम क्या है. 5 लाख का नुकसान, जानकी की शादी या बेटों का कुंआरा रह जाना. मेरे पति ने बूआ से कहा, ‘‘बूआ जानकी ने बिलकुल सही किया. मेरे घर के दरवाजे तो उस के लिए हमेशा खुले रहेंगे पर आप के घर के दरवाजे कोई लड़की वाला नहीं खटखटाएगा क्योंकि वजह आप का लालच और झगड़ालूपन है. यह बात सब को मालूम है. मैं बता दूं रमा को बताए बिना मैं जानकी की शादी में गवाह था. मेरे कहने पर ही मजिस्ट्रेट ने बिना कोई अड़चन लगाए शादी कराई थी क्योंकि वह मेरा सहपाठी रह चुका था. रमा को मैं ने नहीं बताया था क्योंकि कहीं आप हमारे घर में क्लेम करने न आ जाएं.’’ यह कह कर मेरे पति मेरा हाथ पकड़ कर बाहर निकल गए. बूआ दहाड़ें मारमार कर रो रही थी.

लेखिका : लीला सिंह

Akshaya Tritiya : कमाई का जरिया अक्षय तृतीया

Akshaya Tritiya : अक्षय तृतीया किस तरह पंडितों के लिए कमाई का साधन बन गया है, यह दिल्ली के एक समाचार से साफ जाहिर है कि इस अकेले दिन 21,000 शादियां होने के कारण हर पंडित का दाम बढ़ गया. हर पंडित ने चारचारपांचपांच शादियां कराईं. दिल्ली के 1,400 बैंक्वेट हौलों, 200 एमसीडी के कम्युनिटी हौलों, 1,000 पार्कों में पंडाल लगाने के काम करने वालों ने जम कर अतिरिक्त पैसा कमाया. यह पूरे भारत में हुआ. अबूझ मुहूर्त का नाम दे कर इस दिन शादियों से जुड़े खास लोगों ने मोटी कमाई की. सोशल मीडिया ने यह सवाल नहीं उठाया कि क्या गारंटी है कि इस दिन हुए विवाह कभी टूटेंगे नहीं और डोमैस्टिक वौयलैंस, दाउरी एक्ट, तलाक के मामले नहीं बनेंगे?

Gold Price : सोना तो सोना है

Gold Price : मई 2024 से मई 2025 तक सोने के दामों में हुई 35 प्रतिशत वृद्धि से उन लोगों को तो खुशी हुई जिन्होंने पहले से सोना खरीद रखा था लेकिन उन्हें गम हुआ जो कुछ गहने बनवाना चाहते थे. विश्व की सरकारों द्वारा गोल्ड रिजर्व बढ़ाने के कारण डौलर पर भरोसा कम होना इस वृद्धि का मुख्य कारण है. गोल्ड लोन ले कर समय पर न चुका पाने वालों को बड़ा नुकसान होने वाला है. दरअसल, बैंक वाले पीठपीछे निर्णय ले कर लोन लेने वाले के सोने की मनमरजी से नीलामी कर उस से मिली रकम बना देंगे. लोन लेने वाले दोतीन लाख रुपए के लिए कहीं शिकायत भी नहीं कर पाएंगे.

School Fees : फीस में मनमानी

School Fees : पूरे देश में प्राइवेट इंग्लिश मीडियम स्कूल हर साल फीस बढ़ा रहे हैं. इस बीच, दिल्ली सरकार ने एक कानून बनाने का वादा किया है कि वह इन स्कूलों की फीस को कंट्रोल करेगी. इंग्लिश मीडियम वाले ये स्कूल आमतौर पर सरकार से सस्ती जमीन हासिल कर बनाए गए हैं. ये कई तरीकों से दान भी वसूलते हैं. फिर भी, चूंकि मांग ज्यादा है, ये अकड़ में रहते हैं और फीस बढ़ाने से हिचकते नहीं. इस में दोष स्कूलों का ही नहीं, अभिभावकों का भी है कि वे बच्चों को सस्ते स्कूलों में क्यों नहीं भेजते.

Best Hindi Poem : साझेदार…!

Best Hindi Poem : जो नहीं थे,
मेरे सुख के साझेदार,
जिनके लिए मेरी खुशियों का
कोई मोल ही न था…
जो मेरे होकर भी मेरे ना थे…
उन तमाम लोगों को आज
अपने दुख से बेदखल करती हूँ
कि न आये वो, दुख में मेरा हाथ थामने!

जानना जरूरी होगा, सभी को
कि अकेला पड़ जाना
और अकेले छोड़ देने की
महीन रेखा को,
उससे उठते दर्द की परिभाषा कहीं लिखा नहीं जाता,
पर मैं लिखूंगी, इसकी परिभाषा
अपने वसीयत में!

जरूरत को पूरा करना
हर बार जरूरी नहीं होता
कभी वक्त वेवक्त प्रेम/परवाह जताना भी अपनेपन की निशानी है….
ये निशानियां अब नजर नहीं आती…
मुझे! तुम में तुम नजर नहीं आते
इसलिए भी मैं, तुम्हें अपने दुख से बेखल करती हूँ।

मुझे कोई रोग कोई पीड़ा
है की नहीं, नहीं जानती
फिर भी चेहरे का पीला पड़ना
मन खाली होना और दिल का भारी होना
यह सब क्यूँ हो रहा है…
आँसू आँख में अटके रहते.
कि कभी कोई आयेगा….पोछने
इस इंतजार में मन मकड़ी के जालों की तरह उलझा रहता..
जो नहीं देता मेरे मन पर दस्तक…क्या करूँ मैं
ऐसे अपनों का…

जो नहीं बैठा, मुझे अपना समझकर
मेरे साथ, उन सभी को
मैं अपने दुख से बेदखल करती हूँ..

कि मत आना राम नाम सत्य कहने भी,
कि उस समय भी तुम दुख का कारण बनोगे…
तुम दुख में भी, दुख का कारण बनो,
ऐसा मैं हरगिज नहीं चाहती
इसलिए भी
जो नहीं थे मेरे सुख के साझेदार
उन तमाम लोगों को
अपने दुख से बेदखल कर रही हूँ…

लेखिका : प्रतिभा श्रीवास्तव अंश

Hindi Poem : नारी आदि है अनंत है

Hindi Poem : मैं कब घर आंगन सम्भालने लगी गुड़िया से हो गयी मां
मां शब्द जब सुना मैं हो गयी सम्पूर्ण नारी
अब मां की ज़िम्मेदारी निभाती
अपनी गुड़िया को अपने आंगन में लाड लाडती
और मन में सोच रही
पता नहीं चलेगा, समय दौड़ जायेगा
मैं मां बन जाउंगी
मन ही मन मैं कहती मैं भी मां की तरह
हो जाउंगी सम्पूर्ण नारी
नारी तुम शाक्ति हो
नारी तुम आदि अनंत हो

लेखिका : रमा सेठी

Best Hindi Satire : तोंद की महिमा

Best Hindi Satire : अरे वाह, तोंद की महिमा तो कुछ और ही है. पेट का आकार बढ़तेबढ़ते मानो सफलता की निशानी बन गया हो. पहले कहते थे, ‘पतले रहो, स्वस्थ रहो,’ अब तो आलम है कि ‘जितना बड़ा पेट, उतनी बड़ी शान.’

हिंदू शास्त्रों में समय को 4 युगों, यथा सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में बांटा गया है. विद्वानों के अनुसार, अभी कलियुग चल रहा है. लेकिन मौजूदा समय को ‘तोंदुल युग’ कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा. हालांकि इन्हें किसी कालखंड में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि तोंदुलों का अस्तित्व अनादिकाल से बना हुआ है. मामले में ये कौकरोचों को भी पीछे छोड़ चुके हैं. आज ये बहुसंख्यक हैं और देश को चलाने में इन की अहम भूमिका है. इतना ही नहीं, ऊर्जावान और क्षमतावान होने की वजह से दुनियाभर में इन की तूती बोल रही है.

तोंद की महिमा हर युग में बनी हुई रही है और तोंदुलों को ईसा पूर्व से मानसम्मान मिलता रहा है. उस जमाने में गणमान्य व्यक्ति यानी नगर सेठ, पुरोहित, राज पुरोहित आदि तोंदुल ही हुआ करते थे, लेकिन वे अर्थव्यवस्था और धर्म के आधार थे. इन के सहयोग के बिना राजा कुछ भी नहीं कर सकता था. वे इतने ताकतवर होते थे कि कभी भी राजा का तख्ता पलट सकते थे. आज भी तोंदुल आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक दिशानिर्देशों व नियमकायदों को तय करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं.

तोंदुल की श्रेष्ठता से जलनेभुनने वाले इन की महिमामंडन करने से बचते रहे हैं पर आज जरूरत इस बात की है कि तोंदुलों के एहसान को माना जाए, उन की अहमियत को सम झा जाए, बेवजह उन की लानतमलामत न की जाए, हमेशा श्रद्धाभाव से उन का इस्तकबाल किया जाए आदि.

दुनिया में तोंदुलों के महत्त्व को या उन की महिमा को सिर्फ इथोपिया जैसा देश ही सम झ सका है, जहां निवास करने वाले बोदी जनजाति में जिस पुरुष की तोंद सब से ज्यादा बढ़ी हुई होती है, उसे सब से सुंदर या हैंडसम माना जाता है. वहां सभी पुरुष हमेशा तोंद बढ़ाने की जुगत में रहते हैं. बड़े व बढ़े तोंद पर लड़कियां मरती हैं, जान छिड़कती हैं. मोटे पुरुषों के लिए सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है और सब से मोटे पुरुष को विजेता घोषित कर के उस का मानसम्मान किया जाता है, साथ ही साथ, उसे पुरस्कार के रूप में एक मोटी राशि दी जाती है.

वर्तमान में तसवीर थोड़ी बदल गई है. राजा अर्थात नेता यानी सांसद, विधायक, मंत्री आदि तोंदुल बन गए हैं. देश यही चला रहे हैं. नेता को मामले से अलग कर दें तो भी रोजगार सृजन का कार्यभार तोंदुलों ने अपने कंधों पर ले रखा है.

डाक्टर और दवाखाना वाले तो पूरी तरह से तोंदुलों के रहमोकरम पर जिंदा हैं. मिठाई, पिज्जाबर्गर, गोलगप्पे व समोसाचाट, जलेबी, पूरीकचौड़ी व घूघनी, बकरामुर्गा, मोमौजचाउमीन आदि बेचने वालों की दुकानें भी तोंदुल ही चला रहे हैं. कपड़े बेचने वाले, दर्जी आदि के मुनाफे को बढ़ाने में भी इस प्रजाति की अहम भूमिका है.

वीएलसीसी, जिम चलाने वाले, स्लिमिंग मशीन का कारोबार करने वाले कारोबारी तोंदुलों की वजह से ही चांदी काट रहे हैं. करोड़ोंअरबों रुपयों के वारेन्यारे कर रहे हैं ये लोग. सिर्फ एकदो किलोग्राम वजन कम करने के लिए तोंदुल डाक्टरों और कारोबारियों की मोटी रकम से जेब गरम कर रहे हैं.

बड़ी संख्या में महिलाएं तोंदुल पति की वजह से ही आज चैन की नींद सो पा रही हैं. पति की जासूसी करवाने का भी टैंशन उन्हें नहीं रहता है. पति की सेक्रेटरी सुंदर कन्या के रहने पर उन्हें डर नहीं लगता है. कभी बुरे सपने नहीं आते हैं. तोंदुल पति इधरउधर मुंह नहीं मारेगा और चरबीदार और गुब्बारे जैसे फूले पेट वाले पति को कोई भी कन्या घास नहीं डालेगी, इस का भरोसा पत्नी के मन में सर्वदा बना रहता है. हां, एकाध प्रतिशत कोई चंट या मक्कार लड़की पैसों के चक्कर में तोंदुल पति पर डोरे डालने की कोशिश करती भी है तो आसानी से पत्नी बेलन से या गालियों की बौछार से उस की छीछालेदर कर सकती है.

इश्क के चक्कर से बचे रहना, लड़की के चक्कर में पत्नी से लड़ाई नहीं होना, काम पर फोकस बना रहना, हमेशा मनपसंद भोजन करना, कसरत करने या मौर्निंग वौक करने में समय बरबाद नहीं करना, फिजिकल खेलकूद में व्यर्थ के पैसे खर्च करने से बचे रहना, हमेशा खुश रहना आदि तोंदुल होने के ही तो फायदे हैं.

देखा जाए तो आज दुनिया तोंदुलों के रहमोकरम की वजह से ही चल रही है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में देखेंगे तो इन का भारतीय अर्थव्यवस्था में कम से कम 25-30 प्रतिशत का योगदान जरूर होगा. सो, अब वक्त आ गया है कि हम इन्हें हिकारत की नजरों से देखना बंद करें और तोंदुल महाराज का सोतेजागते अविरल जयकारा लगाएं.

सचमुच, तोंद की महिमा अपरंपार है.

Love Story : अब आओ न मीता

Love Story : ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी. मीता भीड़ के बीच खड़ी अपना टिकट कनफर्म करवाने के लिए टी.टी.ई. का इंतजार कर रही थी. इतनी सारी भीड़ को निबटातेनिबटाते टी.टी.ई. ने मीता का टिकट देख कर कहा, ‘‘आप एस-2 कोच में 12 नंबर सीट पर बैठिए, मैं वहीं आऊंगा.’’

5 दिन हो गए उसे घर छोड़े. आशा दी से मिलने को मन बहुत छटपटा रहा था. बड़ी मुश्किल से फैक्टरी से एक हफ्ते की छुट्टी मिल पाई थी. अब वापसी में लग रहा है कि ट्रेन के पंख लग जाएं और वह जल्दी से घर पहुंच जाए. दोनों बेटों से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था उस का मन…और सागर? सोच कर धीरे से मुसकरा उठी वह.

यह टे्रन उसे सागर तक ही तो ले जा रही है. कितना बेचैन होगा सागर उस के बिना. एकएक पल भारी होगा उस पर. लेकिन 5 युगों की तरह बीते 5 दिन. उस की जबान नहीं बल्कि उस की गहरीगहरी बोलती सी आंखें कहेंगी…वह है ही ऐसा.

मीता अतीत में विचरण करने लगी.

‘परसों दीदी के पास कटनी जा रही हूं. 4-5 दिन में आ जाऊंगी. दोनों बच्चों को देख लेना, सागर.’

‘ठीक है पर आप जल्दी आ जाना,’ फिर थोड़ा रुक कर सागर बोला, ‘और यदि जरूरी न हो तो…’

‘जरूरी है तभी तो जा रही हूं.’

‘मुझ से भी ज्यादा जरूरी है?’

‘नहीं, तुम से ज्यादा जरूरी नहीं, पर बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाई है एक हफ्ते की. फिर अगले माह बच्चों के फाइनल एग्जाम्स हैं, अगले हफ्ते होली भी है. सोचा, अभी दीदी से मिल आऊं.’

‘तो एग्जाम्स के बाद चली जाना.’

‘सागर, हर चीज का अपना समय होता है. थोड़ा तो समझो. मेरी दीदी बहुत चाहती हैं मुझे, जानते हो न? मेरी तहसनहस जिंदगी का बुरा असर पड़ा है उन पर. वह टूट गई हैं भीतर से. मुझे देख लेंगी, दोचार दिन साथ रह लेंगी तो शांति हो जाएगी उन्हें.’

‘तो उन्हें यहीं बुला लीजिए…’

‘हां, जाऊंगी तभी तो साथ लाऊंगी. एक बार तो जाने दो मुझे. मेरे जाने का मकसद तुम ही तो हो. दीदी को बताने दो कि अब अकेली नहीं हूं मैं.’

इतने में नीलेश और यश आ गए, अपनी तूफानी चाल से. अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाने की दोनों में होड़ लगी थी. मीता ने दोनों की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखी. टेस्ट में दोनों ही फर्स्ट थे. दोनों को गले लगा कर मीता ने आशीर्वाद दिया…पर उस की आंखें नम थीं…कितने अभागे हैं राजन. बच्चों की कामयाबी का यह गौरव उन्हें मिलता पर…

दोनों बच्चों ने अपने कार्ड उठाए. वापस जाने को पीछे मुड़ते इस के पहले ही दोनों सागर के पैरों पर झुक गए, ‘…और आप का आशीर्वाद?’

‘वह तो सदा तुम दोनों के साथ है,’ कहते हुए सागर ने दोनों को उठा कर सीने से लगा लिया और कहा, ‘तुम दोनों को इंजीनियर बनना है. याद है न?’

‘हां, अंकल, याद है पर शाम की आइसक्रीम पक्की हो तो…’

‘शाम की आइसक्रीम भी पक्की और कल की एग्जीबिशन भी. वहां झूला झूलेंगे, खिलौने खरीदेंगे, आइसक्रीम भी खाएंगे और जितने भी गेम्स हैं वे सब खेलेंगे हम तीनों.

‘हम तीनों मीन्स?’ यश बोला.

‘मीन्स मैं, तुम और नीलेश.’

‘और मम्मी?’

‘वह तो बेटे, कल तुम्हारी आशा मौसी के पास कटनी जा रही हैं. 4-5 दिन में लौटेंगी. मैं हूं ना. हम तीनों धूम मचाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे और मम्मी को बिलकुल भी याद नहीं करेंगे. ठीक?’

दोनों बच्चे खुश हो कर बाहर चल दिए.

मीता आश्चर्यचकित थी. पहले बच्चों के उस व्यवहार पर जो उन्होंने सागर से आशीर्वाद पाने के लिए किया, फिर सागर के उस व्यवहार पर जो उस ने बच्चों के संग दोहराया. सागर की गहराई को अब तक महसूस किया था आज उस की ऊंचाई भी देख चुकी वह.

किस मिट्टी का बना है सागर. चुप रह कर सहना. हंस कर खुद के दुखदर्द को छिपा लेना. कहां से आती है इतनी ताकत? मीता शर्मिंदा हो उठी.

‘नहीं, सागर, तुम्हें इस तरह अकेला कर के नहीं जा सकती मैं. एक हफ्ता हम घर पर ही रहेंगे. माफ कर दो मुझे. तुम्हारा मन दुखा कर मुझे कोई भी खुशी नहीं चाहिए. मैं बाद में हो आऊंगी.’

‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मुझ से पहले तो आप पर आप के परिवार का हक है. फिर रोकने का हक भी तो नहीं है मुझे…आप की अपनी जिम्मेदारियां हैं जो मुझ से ज्यादा जरूरी हैं. फिर आशा दी को यहां बुलाना भी तो है…’

एकाएक झटके से ट्रेन रुक गई. आसपास फिर वही शोर. पैसेंजरों का चढ़नाउतरना, सब की रेलपेल जारी थी.

मीता पर सीधी धूप आ रही थी. हलकी सी भूख भी उसे महसूस होने लगी. एक कप कौफी खरीद कर वह सिप लेने लगी. सामने की सीट पर बैठे 3-4 पुलिस अफसर यों तो अपनी बातों में मशगूल लग रहे थे लेकिन हरेक की नजरें उसे अपने शरीर पर चुभती महसूस हो रही थीं.

सागर और मीता का परिचय भी एक संयोग ही था. कभी- कभी किसी डूबते को तिनका बन कर कोई सहारा मिल जाता है और अपने हिस्से का मजबूत किनारा तेज बहाव में कहीं खो जाता है. यही हुआ था मीता के संग. अपने बेमेल विवाह की त्रासदी ढोतेढोते थक गई थी वह. पूरे 11 सालों का यातनापूर्ण जीवन जिया था उस ने. जिंदगी बोझ बनने लगी थी पर हारी नहीं थी वह. आत्महत्या कायरता की निशानी थी. उस ने वक्त के सामने घुटने टेकना तो सीखा ही न था. एक मजबूत औरत जो है वह.

मगर 11 सालों में पति रूपी दीमक ने उस के वजूद को ही चाटना शुरू कर दिया था.

तानाशाह, गैरजिम्मेदार और क्रूर पति का साथ उस की सांसें रोकने लगा था. प्रेम विवाह किया था मीता ने, लेकिन प्रेम एक धोखा और विवाह एक फांसी साबित हुआ आगे जा कर. पति को पूजा था बरसों उस ने, उस की एकएक भावना की कद्र की थी. उसे अपनी पलकों पर बैठाया, उसे क्लास वन अफसर की सीट तक पहुंचाने में भावनात्मक संबल दिया उस ने. यह प्रेम की पराकाष्ठा ही तो थी कि मीता ने अपनी शिक्षा, प्रतिभा और महत्त्वाकांक्षाओं को परे हटा कर सिर्फ  पति के वजूद को ही सराहा. सांसें राजन की चलतीं पर उन सांसों से जिंदा मीता रहती, वह खुश होता तो दुनिया भर की दौलत मीता को मिल जाती.

पुरुष प्रधान समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि प्राय: हर सफल व्यक्ति के पीछे कोई महिला होती है, लेकिन सफल होते ही वही पुरुष किसी और मरीचिका के पीछे भागने लगता है. प्रेम विवाह करने वाला प्रेम की नई परिभाषाएं तलाशने लगा. एक के बाद दूसरे की तलाश में भटकने लगा.

पद के साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है यह भूल ही गया था राजन. यहां तो पद के साथसाथ शराब, ऐयाशी और ज्यादतियां आ जुड़ी थीं. प्रतिष्ठा को ताख पर रख कर राजन एक तानाशाह इनसान बनने लगा था, मीता का जीवन नरक से भी बदतर हो गया था. पतिपत्नी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. मीता की सारी कोशिशें बेकार हो गईं. उस का स्वाभिमान उसे उकसाने लगा. दोनों बेटों की परवरिश, उन का भविष्य और ममता से भारी न था यह नरक. नतीजा यह हुआ कि शहर छूटा, कड़वा अतीत छूटा और नरक सा घर भी छूट गया. धीरेधीरे आत्मनिर्भर होने लगी मीता. नई धरती, नए आसमान, नई बुलंदियों ने दिल से स्वागत किया था उस का. फैशन डिजाइनिंग का डिप्लोमा काम आ गया सो एक एक्सपोर्ट गारमेंट फैक्टरी में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई. दोनों बच्चों की परवरिश और चैन से जीने के लिए पर्याप्त था इतना कुछ. ज्ंिदगी एक ढर्रे पर आ गई थी.

मारने से मन नहीं मरता न? मीता का भी नहीं मरा था. बेचैन मीता रात भर न सो पाती. नैतिकता की लड़ाई में जीत कर भी औरत के रूप में हार गई थी वह. लेकिन जीवन तो कार्यक्षेत्र है जहां दिल नहीं दिमाग का राज चलता है. मीता फिर अपनी दिनचर्या से जूझने को कमर कस कर खड़ी हो जाती, चेहरे पर झूठा मुखौटा लगा कर दुनियादारी की भीड़ में शामिल हो जाती.

लेकिन पति से अलग हो कर जीने वाली अकेली औरत को तो कांटों भरा ताज पहनाना समाज अपना धर्म समझता है. अपने अस्तित्व, स्वाभिमान और आत्मविश्वास की रक्षा करना यदि किसी नारी का गुनाह है तो बेशक समाज की दोषी थी वह…

नीलेश अब चौथी और यश दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था. उस दिन पेरेंट्सटीचर्स  मीटिंग में जाना था मीता को. जाहिर है छुट्टी लेनी पड़ती. सागर दूसरे डिपार्टमेंट में उसी पद पर था. मीता ने जा कर उसे अपनी स्थिति बताई और न आने का कारण बता कर अपना डिपार्टमेंट संभालने की रिक्वेस्ट भी की. सागर ने मीता को आश्वासन दिया और मीता निश्ंिचत हो कर मीटिंग में चली गई.

पिछले 3 साल से सागर इसी फैक्टरी में सुपरवाइजर था…अंतर्मुखी और गंभीर किस्म का व्यक्तित्व था सागर का… सब से अलग था, अपनेआप में सिमटा सा.

दूसरे दिन मीता सब से पहले सागर से मिली. पिछले दिन की रिपोर्ट जो लेनी थी और धन्यवाद भी देना था. पता चला, सागर आया जरूर है लेकिन कल से वायरल फीवर है उसे.

‘तो आप न आते कल… जब इतनी ज्यादा तबीयत खराब थी तो एप्लीकेशन भिजवा देते,’ मीता ने कहा.

‘तो आप की दी जिम्मेदारी का क्या होता?’

‘अरे, जान से बढ़ कर थी क्या यह जिम्मेदारी.’

‘हां, शायद मेरे लिए थी,’ जाने किस रौ में सागर के मुंह से निकल गया. फिर मुसकरा कर बात बदलते हुए बोला, ‘आप सुनाइए, कल पेरेंट्सटीचर्स मीटिंग में क्या हुआ?’ फिर सागर खुद ही नीलेश और यश की तारीफों के पुल बांधने लगा.

आश्चर्यचकित थी मीता. सागर को यह सब कैसे पता?

‘हैरान मत होइए, क्योंकि जब मां आइडियल होती है तो बच्चे जहीन ही होते हैं.’

फिर वह बीते दिन की रिपोर्ट देने लगा. थोड़ी देर बाद मीता अपने डिपार्ट- मेंट में चली गई. सारे दिन उस के भीतर एक अजीब सी हलचल होती रही थी. सागर का अप्रत्याशित व्यवहार उसे आंदोलित किए हुए था. 30-32 साल की उम्र होगी सागर की, लेकिन इस उम्र का सहज सामान्य व्यक्तित्व न था उस का. जो गंभीरता और सौम्यता 36-37 वर्ष में मीता को खुद में महसूस होती, वही कुछ सागर को देख कर महसूस होता था. उसे न जाने क्यों वह किसी भीतरी मंथन में उलझा सा लगता. वह किसी और की व्यक्तिगत जिंदगी में न दखल देना पसंद करती न ही इस में उस की रुचि थी. पर सागर की आज की बातों ने उसे अंदर से झकझोर दिया था.

रात बड़ी देर तक वह बेचैन रही. सागर सर के शब्द कानों में गूंजते रहे. सच तो यह है कि मीता सिर्फ शब्दों पर ही विश्वास नहीं करती, क्योंकि शब्द जाल तो किसी अर्थ विशेष से जुड़े होते हैं.

ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी. मीता सोच रही थी, ‘मेरे जैसा इनसान जिस ने खुद को समेटतेसमेटते अब किसी से एक इंच भी फासले के लायक न रखा वह किसी भावनात्मक संबंध के लिए सोचेगा तो सब से बड़ी सजा देगा खुद को. मेरी जिंदगी तो खुला पन्ना है जिस के हाशिए, कौमा, मात्राएं सबकुछ उजागर हैं. बस, नहीं है तो पूर्णविराम. होता भी कैसे? जब जिंदगी खुद ही कटापिटा वाक्य हो तो पूर्णविराम के लिए जगह ही कहां होगी?’

आज अचानक सागर सर की गहरी आंखों ने दर्द की हदों को हौले से छू दिया तो भरभरा कर सारे छाले फूट गए. मजाक करने के लिए किस्मत हर बार मुझी को क्यों चुनती है. सोचतेसोचते करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगी थी मीता.

दूसरे दिन सुबह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर रही थी कि कालबेल बज उठी. दरवाजा खोला तो सागर सर खड़े थे…

‘अरे, सागर सर, आप? भीतर आइए न?’

बीमार, परेशान सागर ने कहा, ‘माफ कीजिए, मीताजी, मैं आप को परेशान कर रहा हूं. मैं 3-4 दिन फैक्टरी न जा सकूंगा. प्लीज, यह एप्लीकेशन आफिस पहुंचा दीजिएगा.’

‘हांहां, ठीक है. पहुंचा दूंगी. आप अंदर तो आइए, सर.’

‘नहीं, बस ठीक है.’

शायद चक्कर आ रहे थे सागर को. लड़खड़ाते हुए दीवार से सिर टकरातेटकराते बचा. मीता ने उन्हें जबरदस्ती बिठाया और जल्दी से चायबिस्कुट टे्र में रख कर ले आई.

‘डाक्टर को दिखाया, सर, आप ने?’

‘नहीं. ठीक हो जाऊंगा एकाध दिन में.’

‘बिना दवा के कोई चमत्कार हो जाएगा?’

‘चमत्कार तो हो जाएगा… शायद…दवा के बिना ही हो.’

‘आप की फैमिली को भी तो च्ंिता होगी?’

‘मां और भाई गांव में हैं. भाई वहीं पास के मेडिकल कालिज में है.’

‘और यहां?’

‘यहां कोई नहीं है.’

‘आप की फैमिली…यानी वाइफ, बच्चे?’

‘जब कोई है ही नहीं तो कौन रहेगा,’ सागर का अकेलापन उस की आवाज पर भारी हो रहा था.

‘यहां आप कहां रहते हैं, सर?’

‘यहीं, आप के मकान की पिछली लाइन में.’

‘और मुझे पता ही नहीं अब तक?’

‘हां, आप बिजी जो रहती हैं.’

फिर आश्चर्यचकित थी मीता. सागर उस के रोजमर्रा के कामों की पूरी जानकारी रखता था.

चाय पी कर सागर जाने के लिए खड़ा हुआ. दरवाजे से बाहर निकल ही रहा था कि वापस पलट कर बोला, ‘एक रिक्वेस्ट है आप से.’

‘कहिए.’

‘प्लीज, बुरा मत मानिए… मुझे आप सर न कहिए. एक बार और रिक्वेस्ट करता हूं.’

‘अरे, इतने सालों की आदत बन गई है, सर.’

‘अचानक कभी कुछ नहीं होता. बस, धीरेधीरे ही तो सबकुछ बदलता है.’

जवाब सुने बिना ही वह वापस लौट गया. हाथ में टे्र पकड़े मीता खड़ी की खड़ी रह गई. सागर की पहेलियां उस की समझ से परे थीं.

धीरेधीरे 4-5 दिन बीत गए. सागर का कोई पता, कोई खबर न थी. छुट्टियां खत्म हुए भी 2 दिन बीत चुके थे. मैनेजर ने मीता को बुलवा कर सागर की तबीयत पता करने की जिम्मेदारी सौंपी.

घर आने से पहले उस ने पीछे की रो में जा कर सागर का घर ढूंढ़ने की कोशिश की तो उसे ज्यादा परेशानी नहीं हुई.

बहुत देर तक बेल बजाती रही लेकिन दरवाजा न खुला. किसी आशंका से कांप उठी वह. दरवाजे को एक हलका सा धक्का दिया तो वह खुल गया. मीता भीतर गई तो सारे घर में अंधेरा ही अंधेरा था. टटोलते हुए वह स्विच तक पहुंची. लाइट आन की. रोशनी हुई तो भीतर के कमरे में बेसुध सागर को पड़े देखा.

3-4 आवाजें दीं उस ने, पर जवाब नदारद था, सागर को होश होता तब तो जवाब मिलता.

उलटे पैर दरवाजा भेड़ कर मीता अपने घर आ गई. सागर का पता बता कर नीलेश को सागर के पास बैठने भेजा और खाना बनाने में जुट गई. खिचड़ी और टमाटर का सूप टिफिन में डाल कर छोटे बेटे यश को साथ ले कर वह सागर के यहां पहुंची. इनसानियत के नाते तो फर्ज था मीता का. आम सामाजिक संबंध ऐसे ही निभाए जाते हैं.

घर पहुंच कर देखा, शाम को जो घर अंधेरे में डूबा, वीरान था अब वही नीलेश और सागर की आवाज से गुलजार था. मीता को देखते ही नीलेश उत्साहित हो कर बोला, ‘मम्मी, अंकल को तो बहुत तेज फीवर था. फ्रिज से आइस निकाल कर मैं ने ठंडी पट्टियां सिर पर रखीं, तब कहीं जा कर फीवर डाउन हुआ है.’

प्रशंसा भरी नजरों से उसे देख कर वह बोली, ‘मुझे पता था, बेटे कि तुम्हारे जाने से अंकल को अच्छा लगेगा.’

‘और अब मैं डाक्टर बन कर अंकल को दवा देता हूं,’ यश कहां पीछे रहने वाला था. मम्मी के बैग से क्रोसिन और काम्बीफ्लेम की स्ट्रिप वह पहले ही निकाल चुका था.

‘चलिए अंकल, खाना खाइए. फिर मैं दवा खिलाऊंगा आप को.’

यश का आग्रह न टाल सका सागर. आज पहली बार उसे अपना घर, घर महसूस हो रहा था… सच तो यह था कि आज पहली बार उसे भूख लगी थी. काश, हर हफ्ते वह यों ही बीमार होता रहे. घर ही नहीं उसे अपने भीतर भी कुछ भराभरा सा महसूस हो रहा था.

खाना खातेखाते मीता से उस की नजरें मिलीं तो आंखों में छिपी कृतज्ञता को पहचान लिया मीता ने. इन्हीं आंखों ने तो बहुत बेचैन किया है उसे. मीता की आंखों में क्या था सागर न पढ़ सका. शायद पत्थर की भावनाएं उजागर नहीं होतीं.

सागर धीरेधीरे ठीक होने लगा. नीलेश और यश का साथ और मीता की देखभाल से यह संभव हो सका था. उस की भीतरी दुनिया भी व्यवस्थित हो चली थी. अंतर्मुखी और गंभीर सागर अब मुसकराने लगा था. नीलेश और यश ने भी अब तक मां की सुरक्षा और छांव ही जानी थी. पापा के अस्तित्व को तो जाना ही न था उन्होंने. सागर ने उस रिश्ते से न सही लेकिन किसी बेनाम रिश्ते से जोड़ लिया था खुद को. और मीता? एक अनजान सी दीवार थी अब भी दोनों के बीच. फैक्टरी में वही औपचारिकताएं थीं. घर में नीलेश और यश ही सागर के इर्दगिर्द होते. मीता चुप रह कर भी सामान्य थी, लेकिन सागर को न जाने क्यों अपने करीब महसूस करती थी.

दिनोंदिन घर का सूनापन भरने लगा था. मीता ने इस बदलाव पर आशा दी को पत्र लिखा. तुरंत उन का जवाब आया, ‘शायद कुदरत अपनी गलती पर पछता रही हो…मीता, जो होगा, अच्छा होगा.’

सागर के रूप में उसे अपना एक हमदर्द मिला तो जीवन जीना सहज होने लगा, फिर भी हर वक्त एक आशंका और डर छाया रहता…सब कुछ वक्त के हवाले कर के आंखें मूंद ली थीं मीता ने.

‘‘आंटी, आप का पर्स नीचे गिरा है बहुत देर से,’’ आवाज से स्मृतियों की यात्रा में पड़ाव आ गया. सामने की सीट पर बैठी एक युवती मीता को जगा रही थी. उसे लगा मीता सो रही है. मीता ने पर्स उठाया और उसे थैंक्यू बोला.

कितनी अजीब होती हैं सफर की स्थितियां. या तो हम अतीत में होते हैं या भविष्य में. गाड़ी के  पहिए आगे बढ़ते और यादें पीछे लौटती हैं. पीछे छूटे लोगों की गंध और चेहरे साथ चलते महसूस होते हैं.

चलते वक्त आशा दी की आंखें रोरो कर लाल हो गई थीं. फिर किसी तरह स्वयं को संयत कर बोली थीं, ‘आज पहली बार लग रहा है मीता कि मैं अपनी बहन नहीं, बेटी को बिदा कर रही हूं. अब जब आएगी तो अपने परिवार के संग आएगी…तेरा सुख देखने को आंखें तरस गईं, मीता. सागर तो फरिश्ता बन कर आया है मेरे लिए वरना राजन ने तो…’

‘छोड़ो न आशा दी… मत याद करो वह सब. मत दिल दुखाओ.’ मीता रो उठी. दोनों बहनें एकदूसरे के गले लग कर बहुत देर तक रोती रहीं.

‘आशा दी, आप एक बार आ कर सागर से मिलो तो. अब कुछ पा कर भी खो देने का डर बारबार मन में समा जाता है. अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं रहा अब.’

‘पगली, ज्ंिदगी में सच्ची चाहत सब को नसीब नहीं होती. चाहत की, चाहने वाले की कद्र करनी चाहिए. उम्र के फासले को भूल जा, क्योंकि  प्यार उम्र को नहीं दिल को जानता है…सच के सामने सिर झुका दे मेरी बहन…नीलेश और यश के लिए भी सागर से बेहतर और कोई नहीं हो सकता.’

सागर को डाक्टर के पास चेकअप के लिए ले जाना था. मीता फैक्टरी से सीधी सागर के घर चली आई. आज फिर घर में अंधेरा था…भीतर वाले कमरे में सागर सोफे पर लेटे थे. टेप रिकार्डर आन था :

‘तुझ बिन जोगन मेरी रातें,

तुझ बिन मेरे दिन बंजारे…’

अंधेरे में गूंजता अकेलापन मीता की बरदाश्त से बाहर था. लाइट आन की तो सागर की पलकों की कोरें गीली थीं. मीता को देखा तो उठ कर बैठ गए.

‘यह गाना क्यों सुन रहे हो?’

‘हमेशा यही तो सुनता रहा हूं.’

‘जो चीज रुलाए उसे दूर कर देना चाहिए कि उसे और गले लगा कर रोना चाहिए?’

‘लेकिन जो चीज आंसू के साथ शांति भी दे उस के लिए क्या करे कोई?’

‘क्या मतलब?’

‘अच्छा छोडि़ए, डाक्टर के यहां चलना है न? मैं तैयार होता हूं…’

‘नहीं, पहले बात पूरी कीजिए.’

‘पिछले 3 सालों से…’ सागर की गहरी आंखें मीता पर टिकी थीं.

‘आगे बोलिए.’

‘मुझे आप के आकर्षण ने बांध रखा है… मैं ने पागलों की तरह आप के बारे में सोचा है. आप के अतीत को जान कर, आप के संघर्ष, आप के ज्ंिदगी जीने के अंदाज को मन ही मन सराहा है. पिछले 3 सालों का हर पल आप के पास आने की ख्वाहिश में बीता है…ये गीत मेरे दर्द का हिस्सा हैं…’

‘यह जानते हुए भी कि मैं उम्र में आप से बड़ी, 2 बच्चों की मां और एक शादीशुदा औरत हूं. मेरी शादी सफल नहीं हो पाई. मैं ने अकेले ही अपने बच्चों के भविष्य को संभाला है और किसी सहारे की दूरदूर तक गुंजाइश नहीं मेरे जीवन में. अपने बच्चों की नजरों में मैं अपना सम्मान नहीं खोना चाहती. हमारे बीच जो कुछ भी है, वह जो कुछ भी हो पर प्यार नहीं हो सकता.’

‘मैं ने कब कहा कि आप की चाहत चाहिए मुझे…प्यार का बदला प्यार ही हो यह जरूरी नहीं…यश, नीलेश और आप का साथ जो मुझे अपनी बीमारी के दौरान मिला, उस ने मेरा जीवन बदल दिया है. आप मेरे करीब, मेरे सामने हों. मैं जी लूंगा इसी सहारे से.’

‘मेरे साथ आप का कोई भविष्य नहीं. आप की ज्ंिदगी में अच्छी से अच्छी लड़कियां आ सकती हैं. अपना घर बसाइए…मेरी ज्ंिदगी जैसे चल रही है चलने दीजिए, सागर. ओह, सौरी.’

‘नहीं, सौरी नहीं. आप ने मेरा नाम लिया. इस के लिए शुक्रिया.’

फिर सागर तैयार होने भीतर चला गया और मीता वहीं सोफे पर बैठी कुछ सोचती रही.

सागर को सिविल इंजीनियर बनाना चाहते थे उस के डाक्टर पापा. असमय ही सिर से पिता का साया क्या उठा सागर रातोंरात बड़प्पन की चादर ओढ़ घर का बड़ा और जिम्मेदार सदस्य हो गया. 2-3 साल तक इंजीनियरिंग की डिगरी का इंतजार, फिर नौकरी की तलाश करना उस के लिए नामुमकिन था, इसलिए अपनी मंजिल को गुमनामी में धकेल कर सब से पहले फाइनल में पढ़ रही छोटी बहन सोनल के हाथ पीले किए उस ने…पापा के अधूरे कामों को पूरा करने का बीड़ा उठाया था सागर ने. सारी जमीनजायदाद का हिसाब कर के सारा पैसा बैंक में जमा कर रोहित का मेडिकल में एडमीशन करा कर वह यहां आ गया. मां को सारा उत्तरदायित्व सौंप कर वह निश्ंिचत था. अपने लिए कुछ सोचना उस की फितरत में न था. बहन अपने घर में खुश थी राहुल का कैरियर बनना निश्चित था. मां को आर्थिक सुरक्षा दे वह अकेला हो कर ज्ंिदगी जीने लगा.

बिल्ंिडग, पुल और सड़क बनाने वाली आंखें यहां शर्ट बनते देखने लगी थीं. मशीनों के शोर में वह सबकुछ भूल जाना चाहता था. कपड़ों की कतरनों में उसे अपने ध्वस्त सपनों के अक्स नजर आते. किनारे पर आ कर जहाज डूबा था उस का… बड़ा जानलेवा दर्द होता है किनारे पर डूबने का…

फिर यहां मीता को देखा. उस की समझौते भरी ज्ंिदगी का हश्र देखा तो ठगा सा रह गया वह. एक अकेली औरत का साहस देख कर कायल हो गया उस का मन. उस की प्रतिभा, शिक्षा और संस्कार का एहसास हर मिलने वाले को पहली नजर में ही हो जाता. दूसरों के मन को समझने वाली पारखी नजर मीता की विशेषता थी, न होती तो सागर के भीतर बसा खालीपन वह कैसे महसूस कर पाती भला?

मीता अपनी सीमा जानती थी. उस ने सबकुछ वक्त और हालात पर छोड़ दिया था. लेकिन मीता जानने लगी थी, सागर वह नहीं है जो नजर आता है, कई बार उस की गहरी आंखें कुछ सोचने पर विवश कर देतीं मीता को. मीता झटक देती जल्दी से अपना सिर…नहीं, उसे यह सब सोचने का हक नहीं. पर सिर झटकने से क्या सबकुछ छिटक जाता है. इनसान अकेलापन तो बरदाश्त कर लेता है लेकिन भीड़ के बीच अकेलापन बहुत भारी होता है.

पहले कम से कम उस का जीवन एक ढर्रे पर तो था. अपने बारे में उस ने सोचना ही बंद कर दिया था. लेकिन सागर का साथ पा कर कमजोर होने लगी थी वह. दूसरी ओर एक जिम्मेदार मां है वह…यह भी नहीं भूलती थी. अनिश्चय के झूले में झूल रही थी मीता. भावनाओं का चक्रवात उसे निगलने को आतुर था.

फैक्टरी की गोल्डन जुबली थी उस दिन. सुबह से ही कड़ाके की सर्दी थी. 6 बजने को थे. मीता जल्दीजल्दी तैयार हो कर फैक्टरी की ओर चल दी. घर से निकलते ही थोड़ी दूर पर सागर उसी ओर आता दिखाई दिया.

‘अरे आप तो तैयार भी हो गईं…मैं आप ही को देखने आ रहा था.’

‘तुम तैयार नहीं हुए?’

‘धोबी को प्रेस के लिए कपड़े दिए हैं. बस, ला कर तैयार होना बाकी है. चलिए, आप को स्पेशल कौफी पिलाता हूं, फिर हम चलते हैं.’

दोनों सागर के घर आ गए. मीता ने कहा, ‘मैं जब तक कौफी बनाती हूं, तुम कपड़े ले आओ.’’

बसंती रंग की साड़ी में मीता की सादगी भरी सुंदरता को एकटक देखता रह गया सागर.

‘एक बात कहूं आप से?’

मीता ने हामी भरते हुए गरदन हिलाई…

‘बड़ा बदकिस्मत रहा आप का पति जो आप के साथ न रह पाया. पर बड़ा खुशनसीब भी रहा जिस ने आप का प्यार भी पाया और फिर आप को भी.’

‘और तुम, सागर?’

‘मुझ से तो आप को मिलना ही था.’

एक ठंडी सांस ली मीता ने.

उस दिन सागर के घर पर ही इतनी देर हो गई कि उन्हें फैक्टरी के फंक्शन में जाने का प्रोग्राम टालना पड़ा था. उफ, यह मुलाकात कितने सारे सवाल छोड़ गई थी.

दूसरे दिन सागर जब मीता से मिला तो एक नई मीता उस के सामने थी…सागर को देखते ही अपने बदन के हर कोने पर सागर का स्पर्श महसूस होने लगा उसे. भीतर ही भीतर सिहर उठी वह. आंखें खोलने का मन नहीं हो रहा था उस का, क्योंकि बीती रात का अध्याय जो समाया था उस में. इतने करीब आ कर, इतने करीब से छू कर जो शांति और सुकून सागर से मिला था वह शब्दों से परे था…ज्ंिदगी ने सूद सहित जो कुछ लौटाया वह अनमोल था मीता के लिए. सागर ने बांहें फैलाईं और मीता उन में जा समाई… दोनों ही मौन थे…लेकिन उन के भीतर कुछ भी मौन न था…जैसे रात की खामोशी में झील का सफर…कश्ती अपनी धीमीधीमी रफ्तार में है और चांदनी रात का नशा खुमारी में बदलता जाता है.

शाम का अंधेरा घिरने लगा था. जंगल, गांव, पेड़ और सड़क सब पीछे छूटते जा रहे थे. टे्रन अपनी गति में थी. अधिकांश यात्री बर्थ खोल कर सोने की तैयारी में थे. मीता ने भी बैग से कंबल निकाल कर उस की तहें खोलीं. एअर पिलो निकाल कर हवा भरी और आराम से लेट गई. अभी तो सारी रात का सफर है. सुबह 10 बजे के आसपास घर पहुंचेगी.

कंबल को कस कर लपेटे वह फिर पिछली बातों में खोई हुई थी. मन की अंधेरी सुरंग पर तो बरसों से ताला पड़ा था. पहले वह मानती थी कि यह जंग लगा ताला न कभी खुलेगा, न उसे कभी चाबी की जरूरत पड़ेगी. लेकिन ऐसा हुआ कि न सिर्फ ताला टूटा बल्कि बरसों बाद मन की अंधेरी सुरंग में ठंडी हवा का झोंका बन कर कोई आया और सबकुछ बदल गया.

सफर में एकएक पल मीता की आंखों से गुजर रहा था.

जिंदगी के पाताल में कहां क्या दबा है, क्या छुपा है, कब कौन उभर कर ऊपर आ जाएगा, कौन नीचे तल में जा कर खो जाएगा, पता नहीं. विश्वास नहीं होता इस अनहोनी पर, जो सपनों में भी हजारों किलोमीटर दूर था वह कभी इतना पास भी हो सकता है कि हम उसे छू सकें…और यदि न छू पाएं तो बेचैन हो जाएं. जिंदगी की अपनी गति है गाड़ी की तरह. कहीं रोशनी, कहीं अंधेरा, कहीं जंगल, कहीं खालीपन.

यहां आशा दी के पास आना था. होली भी आने वाली है. बच्चों के एग्जाम भी थे और इस बीच किराए का मकान भी शिफ्ट किया था. उसे सेट करना था. सागर 3-4 दिन से अस्पताल में दाखिल था.

पीलिया का अंदेशा था. वह सागर को भी संभाले हुए थी. एक ट्रिप सामान मेटाडोर में भेज कर दूसरी ट्रिप की तैयारी कर सामान पैक कर के रख दिया. सोचा, सामान लोड करवा कर अस्पताल जाएगी, सागर को देख कर खाना पहुंचा देगी फिर लौट कर सामान सेट होता रहेगा. लेकिन तभी सागर खुद वहां आ पहुंचा.

‘अरे, तुम यहां. मैं तो यहां से फ्री हो कर तुम्हारे ही पास आ रही थी. लेकिन तुम आए कैसे? क्या डिस्चार्ज हो गए?’

‘डिस्चार्ज नहीं हुआ पर जबरदस्ती आ गया हूं डिस्चार्ज हो कर.’

‘क्यों, जबरदस्ती क्यों?’

‘आप अकेली जो थीं. इतना सारा काम था और आप के साथ तो कोई नहीं है मदद के लिए…’

‘खानाबदोश ज्ंिदगी ने आदी बना दिया है, सागर. ये काम तो ज्ंिदगी भर के हैं, क्योंकि कोई भी मकान मालिक एक या डेढ़ साल से ज्यादा रहने ही नहीं देता है.’

‘नहीं, ज्ंिदगी भर नहीं. अब आप को एक ही मकान में रहना होगा. बहुत हो गया यह बंजारा जीवन.’

‘हां, सोच तो रही हूं… फ्लैट बुक कर लूंगी, साल के भीतर कहीं न कहीं.’

सागर खाली मकान में चुपचाप दीवार से टिका हुआ था. मीता को उस ने अपने पास बुलाया. मीता उस के करीब जा खड़ी हुई.

सागर पर एक अजीब सा जुनून सवार था. उस ने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि इस घर से आप यों न जाएं, क्योंकि इस से हमारी बहुत सी यादें जुड़ी हैं.’

‘तो कैसे जाऊं, तुम्हीं बता दो.’

‘ऐेसे,’ सागर ने अपना पीछे वाला हाथ आगे किया और हाथ में रखे स्ंिदूर से मीता की मांग भर दी.

अचानक इस स्थिति के लिए तैयार न थी मीता. सागर की भावनाएं वह जानती थी…स्ंिदूर की लालिमा उस के लिए कालिख साबित हुई थी और अब सागर…उफ. निढाल हो गई वह. सागर ने संभाल लिया उसे. मीता की थरथराती और भरी आंखें छलकना चाह रही थीं.

ट्रेन की रफ्तार कम होने लगी थी. अतीत और भविष्य का अनोखा संगम है यह सफर. सागर और राजन. एक भविष्य एक अतीत. कल सागर से मिलूंगी

तो पूछूंगी, क्यों न मिल गए थे 14 साल पहले. मिल जाते तो 14 सालों

का बनवास तो न मिलता. ज्ंिदगी की बदरंग दीवारें अनारकली की तरह तो न चिनतीं मुझे.

मुसकरा उठी मीता. सागर से माफी मांग लूंगी दिल तोड़ कर जो आई थी उस का. सागर की याद आई तो उस की बोलती सी गहरी आंखें सामने आ गईं. 5 दिनों में 5 युगों का दर्द बसा होगा उन आंखों में.

टे्रन रुकी तो चायकौफी वालों की रेलपेल शुरू हो गई. मीता ने चाय पी और फिर कंबल ओढ़ कर लेट गई इस सपने के साथ कि सुबह 10 बजे जब टे्रन प्लेटफार्म पर रुकेगी…तो सागर उस के सामने होगा. नीलेश और यश उसे सरप्राइज देने आसपास कहीं छिपे होंगे.

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. सुबह भी हुई, मीता की आंखें भी खुलीं, उस ने प्लेटफार्म पर कदम भी रखा, पर वहां न सागर, न नीलेश और न यश. थोड़ी देर उस ने इंतजार भी किया, लेकिन दूरदूर तक किसी का कोई पता न था. रोंआसी और निराश मीता ने अपना सामान उठाया और बाहर निकल कर आटो पकड़ा. क्या ज्ंिदगी ने फिर मजाक के लिए चुन लिया है उसे?

पूरे शहर में होली का हुड़दंग था. इन रंगों का वह क्या करे जब इंद्रधनुष के सारे रंग न जाने कहां गुम हो गए थे.

बहुत भीड़ थी रास्ते में. घर के सामने आटो रुका तो घर पर ताला लगा था. वह परेशान हो गई. अचानक घर के ऊपर नजर गई तो वहां ‘टुलेट’ का बोर्ड लगा था. उसी आटो वाले को सागर के घर का पता बता कर वापस बैठी मीता. अनेक आशंकाओं से घिरा मन रोनेरोने को हो गया.

सागर के घर के आगे बड़ी चहलपहल थी. टैंट लगा था. सजावट, वह भी फूलों की झालर और लाइटिंग से…गार्डन के सारे पेड़ों पर बल्बों की झालरें

लगी थीं…

खाने और मिठाइयों की सुगंध चारों ओर बिखरी थी. आटो के रुकते ही लगभग दौड़ती बदहवास मीता भीतर की ओर दौड़ी. भीतर पहुंचने से पहले ही जड़ हो कर वह जहां थी वहीं खड़ी रह गई.

दरवाजे पर आरती का थाल लिए सागर की मां और सुहाग जोड़ा, मंगलसूत्र और लाल चूडि़यों से भरा थाल पकड़े सागर की छोटी बहन खड़ी थी. नीचे की सीढ़ी पर हाथ जोड़ कर स्वागत करता सागर का छोटा भाई मुसकरा रहा था.

मीता ने देखा झकाझक सफेद कुरतापाजामा पहने, लाल टीका लगाए सागर उसी सोफे पर बैठा यश को तैयार कर रहा था जहां उस शाम दोनों की जिंदगी ने रुख बदला था.

रोहित मस्ती में झूमता मीता की ओर आने लगा…

सागर ने मीता को देखते ही आवाज लगाई, ‘‘नीलेश बेटे.’’

‘‘जी, पापा.’’

‘‘जाओ, आटो से मम्मी का सामान उतारो और आटो वाले को पैसे भी दे दो.’’

‘‘जी, पापा.’’

नीलेश बाहर आने लगा तो सागर ने फिर आवाज दी, ‘‘और सुनो, आटो वाले को मिठाई जरूर देना…’’

‘‘जी, पापा.’’

मीता बुत बनी सागर को एकटक देख रही थी. सागर की गहरी आंखें कह रही थीं…इंजीनियर जरूर आधा हूं लेकिन घर पूरा बनाना जानता हूं. है न? अब आओ न मीता…

रीता श्रीवास्तव

Hindi Kahani : मसीहा – अपनी हिम्मत से कहां से कहां पहुंच गई शांति

Hindi Kahani : दोपहर का खाना खा कर लेटे ही थे कि डाकिया आ गया. कई पत्रों के बीच राजपुरा से किसी शांति नाम की महिला का एक रजिस्टर्ड पत्र 20 हजार रुपए के ड्राफ्ट के साथ था. उत्सुकतावश मैं एक ही सांस में पूरा पत्र पढ़ गई, जिस में उस महिला ने अपने कठिनाई भरे दौर में हमारे द्वारा दिए गए इन रुपयों के लिए धन्यवाद लिखा था और आज 10 सालों के बाद वे रुपए हमें लौटाए थे. वह खुद आना चाहती थी पर यह सोच कर नहीं आई कि संभवत: उस के द्वारा लौटाए जाने पर हम वह रुपए वापस न लें.

पत्र पढ़ने के बाद मैं देर तक उस महिला के बारे में सोचती रही पर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था.

‘‘अरे, सुमि, शांति कहीं वही लड़की तो नहीं जो बरसों पहले कुछ समय तक मुझ से पढ़ती रही थी,’’ मेरे पति अभिनव अतीत को कुरेदते हुए बोले तो एकाएक मुझे सब याद आ गया.

उन दिनों शांति अपनी मां बंती के साथ मेरे घर का काम करने आती थी. एक दिन वह अकेली ही आई. पूछने पर पता चला कि उस की मां की तबीयत ठीक नहीं है. 2-3 दिन बाद जब बंती फिर काम पर आई तो बहुत कमजोर दिख रही थी. जैसे ही मैं ने उस का हाल पूछा वह अपना काम छोड़ मेरे सामने बैठ कर रोने लगी. मैं हतप्रभ भी और परेशान भी कि अकारण ही उस की किस दुखती रग पर मैं ने हाथ रख दिया.

बंती ने बताया कि उस ने अब तक के अपने जीवन में दुख और अभाव ही देखे हैं. 5 बेटियां होने पर ससुराल में केवल प्रताड़ना ही मिलती रही. बड़ी 4 बेटियों की तो किसी न किसी तरह शादी कर दी है. बस, अब तो शांति को ब्याहने की ही चिंता है पर वह पढ़ना चाहती है.

बंती कुछ देर को रुकी फिर आगे बोली कि अपनी मेहनत से शांति 10वीं तक पहुंच गई है पर अब ट्यूशन की जरूरत पड़ेगी जिस के लिए उस के पास पैसा नहीं है. तब मैं ने अभिनव से इस बारे में बात की जो उसे निशुल्क पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. अपनी लगन व परिश्रम से शांति 10वीं में अच्छे नंबरों में पास हो गई. उस के बाद उस ने सिलाईकढ़ाई भी सीखी. कुछ समय बाद थोड़ा दानदहेज जोड़ कर बंती ने उस के हाथ पीले कर दिए.

अभी शांति की शादी हुए साल भर बीता था कि वह एक बेटे की मां बन गई. एक दिन जब वह अपने बच्चे सहित मुझ से मिलने आई तो उस का चेहरा देख मैं हैरान हो गई. कहां एक साल पहले का सुंदरसजीला लाल जोड़े में सिमटा खिलाखिला शांति का चेहरा और कहां यह बीमार सा दिखने वाला बुझाबुझा चेहरा.

‘क्या बात है, बंती, शांति सुखी तो है न अपने घर में?’ मैं ने सशंकित हो पूछा.

व्यथित मन से बंती बोली, ‘लड़कियों का क्या सुख और क्या दुख बीबी, जिस खूंटे से बांध दो बंधी रहती हैं बेचारी चुपचाप.’

‘फिर भी कोई बात तो होगी जो सूख कर कांटा हो गई है,’ मेरे पुन: पूछने पर बंती तो खामोश रही पर शांति ने बताया, ‘विवाह के 3-4 महीने तक तो सब ठीक रहा पर धीरेधीरे पति का पाशविक रूप सामने आता गया. वह जुआरी और शराबी था. हर रात नशे में धुत हो घर लौटने पर अकारण ही गालीगलौज करता, मारपीट करता और कई बार तो मुझे आधी रात को बच्चे सहित घर से बाहर धकेल देता. सासससुर भी मुझ में ही दोष खोजते हुए बुराभला कहते. मैं कईकई दिन भूखीप्यासी पड़ी रहती पर किसी को मेरी जरा भी परवा नहीं थी. अब तो मेरा जीवन नरक समान हो गया है.’

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. मानव मन भी अबूझ होता है. कभीकभी तो खून के रिश्तों को भी भीड़ समझ उन से दूर भागने की कोशिश करता है तो कभी अनाम रिश्तों को अकारण ही गले लगा उन के दुखों को अपने ऊपर ओढ़ लेता है. कुछ ऐसा ही रिश्ता शांति से जुड़ गया था मेरा.

अगले दिन जब बंती काम पर आई तो मैं उसे देर तक समझाती रही कि शांति पढ़ीलिखी है, सिलाईकढ़ाई जानती है, इसलिए वह उसे दोबारा उस के ससुराल न भेज कर उस की योग्यता के आधार पर उस से कपड़े सीने का काम करवाए. पति व ससुराल वालों के अत्याचारों से छुटकारा मिल सके मेरे इस सुझाव पर बंती ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अपना काम समाप्त कर बोझिल कदमों से घर लौट गई.

एक सप्ताह बाद पता चला कि शांति को उस की ससुराल वाले वापस ले गए हैं. मैं कर भी क्या सकती थी, ठगी सी बैठी रह गई.

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. इस बीच मैं ने बंती से शांति के बारे में कभी कोई बात नहीं की पर एक दिन शांति के दूसरे बेटे के जन्म के बारे में जान कर मैं बंती पर बहुत बिगड़ी कि आखिर उस ने शांति को ससुराल भेजा ही क्यों? बंती अपराधबोध से पीडि़त हो बिलखती रही पर निर्धनता, एकाकीपन और अपने असुरक्षित भविष्य को ले कर वह शांति के लिए करती भी तो क्या? वह तो केवल अपनी स्थिति और सामाजिक परिवेश को ही कोस सकती थी, जहां निम्नवर्गीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी गईगुजरी होती है.

पहले तो जन्म लेते ही मातापिता के घर लड़की होने के कारण दुत्कारी जाती हैं और विवाह के बाद अर्थी उठने तक ससुराल वालों के अत्याचार सहती हैं. भोग की वस्तु बनी निरंतर बच्चे जनती हैं और कीड़ेमकोड़ों की तरह हर पल रौंदी जाती हैं, फिर भी अनवरत मौन धारण किए ऐसे यातना भरे नारकीय जीवन को ही अपनी तकदीर मान जीने का नाटक करते हुए एक दिन चुपचाप मर जाती हैं.

शांति के साथ भी तो यही सब हो रहा था. ऐसी स्थिति में ही वह तीसरी बार फिर मां बनने को हुई. उसे गर्भ धारण किए अभी 7 महीने ही हुए थे कि कमजोरी और कई दूसरे कारणों के चलते उस ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. इत्तेफाक से उन दिनों वह बंती के पास आई हुई थी. तब मैं ने शांति से परिवार नियोजन के बारे में बात की तो बुझे स्वर में उस ने कहा कि फैसला करने वाले तो उस की ससुराल वाले हैं और उन का विचार है कि संतान तो भगवान की देन है इसलिए इस पर रोक लगाना उचित नहीं है.

मेरे बारबार समझाने पर शांति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को देखते हुए मेरी बात मान ली और आपरेशन करवा लिया. यों तो अब मैं संतुष्ट थी फिर भी शांति की हालत और बंती की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परेशान भी थी. मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति ने सहज भाव से 20 हजार रुपए शांति को देने की बात कही ताकि पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद वह इन रुपयों से कोई छोटामोटा काम शुरू कर के अपने पैरों पर खड़ी हो सके. पति की यह बात सुन मैं कुछ पल को समस्त चिंताओं से मुक्त हो गई.

अगले ही दिन शांति को साथ ले जा कर मैं ने बैंक में उस के नाम का खाता खुलवा दिया और वह रकम उस में जमा करवा दी ताकि जरूरत पड़ने पर वह उस का लाभ उठा सके.

अभी इस बात को 2-4 दिन ही बीते थे कि हमें अपनी भतीजी की शादी में हैदराबाद जाना पड़ा. 15-20 दिन बाद जब हम वापस लौटे तो मुझे शांति का ध्यान हो आया सो बंती के घर चली गई, जहां ताला पड़ा था. उस की पड़ोसिन ने शांति के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन मैं अवाक् रह गई.

हमारे हैदराबाद जाने के अगले दिन ही शांति का पति आया और उसे बच्चों सहित यह कह कर अपने घर ले गया कि वहां उसे पूरा आराम और अच्छी खुराक मिल पाएगी जिस की उसे जरूरत है. किंतु 2 दिन बाद ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि शांति ने अपने दोनों बच्चों सहित भाखड़ा नहर में कूद कर जान दे दी है. तब से बंती का भी कुछ पता नहीं, कौन जाने करमजली जीवित भी है या मर गई.

कैसी निढाल हो गई थी मैं उस क्षण यह सब जान कर और कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी. पर आज शांति का पत्र मिलने पर एक सुखद आश्चर्य का सैलाब मेरे हर ओर उमड़ पड़ा है. साथ ही कई प्रश्न मुझे बेचैन भी करने लगे हैं जिन का शांति से मिल कर समाधान चाहती हूं.

जब मैं ने अभिनव से अपने मन की बात कही तो मेरी बेचैनी को देखते हुए वह मेरे साथ राजपुरा चलने को तैयार हो गए. 1-2 दिन बाद जब हम पत्र में लिखे पते के अनुसार शांति के घर पहुंचे तो दरवाजा एक 12-13 साल के लड़के ने खोला और यह जान कर कि हम शांति से मिलने आए हैं, वह हमें बैठक में ले गया. अभी हम बैठे ही थे कि वह आ गई. वही सादासलोना रूप, हां, शरीर पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था. आते ही वह मेरे गले से लिपट गई. मैं कुछ देर उस की पीठ सहलाती रही, फिर भावावेश में डूब बोली, ‘‘शांति, यह कैसी बचकानी हरकत की थी तुम ने नहर में कूद कर जान देने की. अपने बच्चों के बारे में भी कुछ नहीं सोचा, कोई ऐसा भी करता है क्या? बच्चे तो ठीक हैं न, उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?’’

बच्चों के बारे में पूछने पर वह एकाएक रोने लगी. फिर भरे गले से बोली, ‘‘छुटका नहीं रहा आंटीजी, डूब कर मर गया. मुझे और सतीश को किनारे खड़े लोगों ने किसी तरह बचा लिया. आप के आने पर जिस ने दरवाजा खोला था, वह सतीश ही है.’’

इतना कह वह चुप हो गई और कुछ देर शून्य में ताकती रही. फिर उस ने अपने अतीत के सभी पृष्ठ एकएक कर के हमारे सामने खोल कर रख दिए.

उस ने बताया, ‘‘आंटीजी, एक ही शहर में रहने के कारण मेरी ससुराल वालों को जल्दी ही पता चल गया कि मैं ने परिवार नियोजन के उद्देश्य से अपना आपरेशन करवा लिया है. इस पर अंदर ही अंदर वे गुस्से से भर उठे थे पर ऊपरी सहानुभूति दिखाते हुए दुर्बल अवस्था में ही मुझे अपने साथ वापस ले गए.

‘‘घर पहुंच कर पति ने जम कर पिटाई की और सास ने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल पीठ दाग दी. मेरे चिल्लाने पर पति मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में ले गया और चीखते हुए बोला, ‘तुझे बहुत पर निकल आए हैं जो तू अपनी मनमानी पर उतर आई है. ले, अब पड़ी रह दिन भर भूखीप्यासी अपने इन पिल्लों के साथ.’ इतना कह उस ने आंगन में खेल रहे दोनों बच्चों को बेरहमी से ला कर मेरे पास पटक दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर चला गया.

‘‘तड़पती रही थी मैं दिन भर जले के दर्द से. आपरेशन के टांके कच्चे होने के कारण टूट गए थे. बच्चे भूख से बेहाल थे, पर मां हो कर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी उन के लिए. इसी तरह दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई. भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था और जीने की कोई लालसा शेष नहीं रह गई थी.

‘‘अपने उन्हीं दुर्बल क्षणों में मैं ने आत्महत्या कर लेने का निर्णय ले लिया. अभी पौ फटी ही थी कि दोनों सोते बच्चों सहित मैं कमरे की खिड़की से, जो बहुत ऊंची नहीं थी, कूद कर सड़क पर तेजी से चलने लगी. घर से नहर ज्यादा दूर नहीं थी, सो आत्महत्या को ही अंतिम विकल्प मान आंखें बंद कर बच्चों सहित उस में कूद गई. जब होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में पाया. सतीश को आक्सीजन लगी हुई थी और छुटका जीवनमुक्त हो कहीं दूर बह गया था.

‘‘डाक्टर इस घटना को पुलिस केस मान बारबार मेरे घर वालों के बारे में पूछताछ कर रहे थे. मैं इस बात से बहुत डर गई थी क्योंकि मेरे पति को यदि मेरे बारे में कुछ भी पता चल जाता तो मैं पुन: उसी नरक में धकेल दी जाती, जो मैं चाहती नहीं थी. तब मैं ने एक सहृदय

डा. अमर को अपनी आपबीती सुनाते हुए उन से मदद मांगी तो मेरी हालत को देखते हुए उन्होंने इस घटना को अधिक तूल न दे कर जल्दी ही मामला रफादफा करवा दिया और मैं पुलिस के चक्करों  में पड़ने से बच गई.

‘‘अब तक डा. अमर मेरे बारे में सबकुछ जान चुके थे इसलिए वह मुझे बेटे सहित अपने घर ले गए, जहां उन की मां ने मुझे बहुत सहारा दिया. सप्ताह  भर मैं उन के घर रही. इस बीच डाक्टर साहब ने आप के द्वारा दिए उन 20 हजार रुपयों की मदद से यहां राजपुरा में हमें एक कमरा किराए पर ले कर दिया. साथ ही मेरे लिए सिलाई का सारा इंतजाम भी कर दिया. पर मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे सिले कपड़े बिकेंगे कैसे?

‘‘इस बारे में जब मैं ने डा. अमर से बात की तो उन्होंने मुझे एक गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष से मिलवाया जो निर्धन व निराश्रित स्त्रियों की सहायता करते थे. उन्होंने मुझे भी सहायता देने का आश्वासन दिया और मेरे द्वारा सिले कुछ वस्त्र यहां के वस्त्र विके्रताओं को दिखाए जिन्होंने मुझे फैशन के अनुसार कपड़े सिलने के कुछ सुझाव दिए.

‘‘मैं ने उन के सुझावों के मुताबिक कपड़े सिलने शुरू कर दिए जो धीरेधीरे लोकप्रिय होते गए. नतीजतन, मेरा काम दिनोंदिन बढ़ता चला गया. आज मेरे पास सिर ढकने को अपनी छत है और दो वक्त की इज्जत की रोटी भी नसीब हो जाती है.’’

इतना कह शांति हमें अपना घर दिखाने लगी. छोटा सा, सादा सा घर, किंतु मेहनत की गमक से महकता हुआ.  सिलाई वाला कमरा तो बुटीक ही लगता था, जहां उस के द्वारा सिले सुंदर डिजाइन के कपड़े टंगे थे.

हम दोनों पतिपत्नी, शांति की हिम्मत, लगन और प्रगति देख कर बेहद खुश हुए और उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त भी. शांति से बातें करते बहुत समय बीत चला था और अब दोपहर ढलने को थी इसलिए हम पटियाला वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए. चलने से पहले अभिनव ने एक लिफाफा शांति को थमाते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये वही रुपए हैं जो तुम ने हमें लौटाए थे. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि किनकिन कठिनाइयों को झेलते हुए तुम ने ये रुपए जोड़े होंगे. भले ही आज तुम आत्मनिर्भर हो गई हो, फिर भी सतीश का जीवन संवारने का एक लंबा सफर तुम्हारे सामने है. उसे पढ़ालिखा कर स्वावलंबी बनाना है तुम्हें, और उस के लिए बहुत पैसा चाहिए. यह थोड़ा सा धन तुम अपने पास ही रखो, भविष्य में सतीश के काम आएगा. हां, एक बात और, इन पैसों को ले कर कभी भी अपने मन पर बोझ न रखना.’’

अभिनव की बात सुन कर शांति कुछ देर चुप बैठी रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘अंकलजी, आप ने मेरे लिए जो किया वह आज के समय में दुर्लभ है. आज मुझे आभास हुआ है कि इस संसार में यदि मेरे पति जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं तो

डा. अमर और आप जैसे महान लोग भी हैं जो मसीहा बन कर आते हैं और हम निर्बल और असहाय लोगों का संबल बन उन्हें जीने की सही राह दिखाते हैं.’’

इतना कह सजल नेत्रों से हमारा आभार प्रकट करते हुए वह अभिनव के चरणों में झुक गई.

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