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Hindi Story: कांटा निकल गया

Hindi Story: महाराजजी पर मेरे ससुरालवालों की अपार श्रद्धा थी. महाराजजी के दिशा-निर्देशन पर ही हमारे घर के समस्त कार्य संपन्न होते थे. सासूमां सुबह उठते ही सबसे पहले महाराजजी की तस्वीर पर माथा टेकतीं थीं. ससुर जी नहा-धो कर सबसे पहले उनकी तस्वीर के आगे दिया-बत्ती करते और मेरे पति तो हर गुरुवार और शनिवार नियम से महाराजजी के दरबार में हाजिरी दिया करते थे. उनके आदेश पर श्रद्धालुओं को भोजन कराना, कहीं मंदिर बनवाने में सहयोग राशि जुटाना, कहीं लड़कियों का सामूहिक विवाह कराना ऐसे तमाम कार्य थे, जिसमें महाराजजी के आदेश पर वे तन, मन, धन से जुटे रहते थे. मैं जब शादी करके इस घर में आई तो किसी मनुष्य के प्रति इतना श्रद्धाभाव और पैसे की बर्बादी मुझे कुछ जमती नहीं थी. अपने घर में तो हम बस मंदिर जाया करते थे और वहीं दिया-बत्ती करके भगवान के आगे ही हाथ जोड़ कर अपने दुखड़े रो आते थे. मगर यहां तो कुछ ज्यादा ही धार्मिक माहौल था. अब ईश्वर के प्रति होता तो कोई बात नहीं थी, मगर एक जीते-जागते मनुष्य के प्रति ऐसा भाव मुझे खटकता था. महाराजजी की उम्र भी कोई ज्यादा न थी, यही कोई बत्तीस-पैंतीस बरस की होगी. रंग गोरा, कद लंबा, तन पर सफेद कलफदार धोती पर लंबा रंगीन कुर्ता और भगवा फेंटा. माथे पर भगवा तिलक और कानों में सोने के कुुंडल पहनते थे. साधु-महात्मा तो नहीं, मुझे हीरो ज्यादा लगते थे.

अपने भव्य, चमचमाते आश्रम के बड़े से हॉल में चांदी के पाए लगे एक सिंहासननुमा गद्दी पर बैठ कर माइक पर प्रवचन किया करते थे. सामने जमीन पर दूर तक भक्तों की पंक्तियां शांत भाव से हाथ जोड़े उनकी गंभीर वाणी को आत्मसात करती घंटों बैठी रहती थी. शुरू-शुरू में सासु मां और मेरे पति मुझे भी सत्संग में ले जाते थे. जब मुझे उससे उकताहट होने लगी तो मैं सवाल उठाने लगी, इस पर हमारे घर में महाभारत मचने लगा. कभी सास-ससुर का मुंह फूल जाता, कभी पति का. हफ्तों गुजर जाते बातचीत बंद. धीरे-धीरे मैंने ही घर की शांति के लिए सबसे समझौता कर लिया. महाराजजी में घरवालों की आस्था बढ़ती रही और हमारे घर में छोटे से छोटा कार्य भी महाराजजी की अनुमति से ही होने लगा.

बेटी पूजा की शादी तय हुई, तब महाराजजी ने कहा, ये रिश्ता तोड़ दो, लड़का इसके लिए ठीक नहीं रहेगा…. मुझे बड़ी खीज मची क्योंकि लड़का मेरी सहेली के भाई का था. परिवार मेरा देखा-भाला था. लड़के की अच्छी जौब थी, अच्छा पैसा था, ऑफिस की तरफ से फॉरेन ट्रिप भी करता रहता था. मुझे तो उसमें कोई खोट नजर नहीं आया, मगर महाराजजी का आदेश था तो मेरे पति ने बिना कोई सवाल किये रिश्ता तोड़ दिया. बाद में बेटी की जिस लड़के से शादी हुई वह न तो देखने में हैंडसम था और न उसकी कोई पक्की नौकरी थी. बाद में पता चला कि वह शराब भी पीता है और लड़कियों का शौक भी रखता है. मेरी बेटी की तो जिन्दगी ही बर्बाद हो गयी. मगर ससुरालवालों की अंधभक्ति कम न हुई. उनको मेरी बच्ची का दुख न दिखता था. उनकी आस्था महाराजजी में ज्यों की त्यों बनी रही. सास बोलीं सब अपने भाग्य का पाते हैं. इसमें महाराजजी की कोई गलती नहीं है. वह तो ज्ञानी व्यक्ति हैं. पूजा ने पिछले जन्म में पापकर्म किये होंगे, अब उसका प्रायश्चित कर रही है. प्रायश्चित से तप कर निकलेगी तो सोना हो जाएगी. मैंने तो सिर ही पीट लिया सास की ऐसी बातें सुनकर मगर कर भी क्या सकती थी.

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बेटा अर्जुन आईआईटी करके इंजीनियर बनना चाहता था, महाराजजी ने कहा, ये लाइन ठीक नहीं इसके भविष्य के लिए, मेडिकल लाइन अच्छी है, इन्होंने इंटरमीडिएट के बाद उसका एडमिशन बीएससी में करवा दिया, साथ ही पीएमटी परीक्षाओं की तैयारियों के लिए कह दिया. बेटा भुनभुनाया. जीव-विज्ञान, वनस्पति विज्ञान में उसकी जरा भी रुचि नहीं थी, वह तो मैथ्स और फिजिक्स का दीवाना था. मगर महाराजजी का आदेश था. उधर बेटी की जिन्दगी बर्बाद हो गयी, अब बेटे का भविष्य दांव पर लगा था. वह लगातार पढ़ाई से दूर होता जा रहा था. पढ़े भी कैसे, वह सब्जेक्ट तो उसकी रुचि के ही नहीं थे. मैं मां थी. अपने बच्चों की इच्छाओं को, उनकी भावनाओं को मुझसे बेहतर कौन समझ सकता था? मन ही मन कुढ़ रही थी, मगर कुछ बोल नहीं पाती थी. बोलती तो हंगामा उठ खड़ा होता, सास-ससुर और पति मेरे हाथ से बने खाने का त्याग कर देते. सास चिल्लाती कि महाराजजी का अपमान करती है, चल प्रायश्चित कर. इतने ब्राह्मणों को अपने हाथों से भोजन बना कर खिला तभी यह पाप कटेगा, तभी हम भी भोजन-पानी ग्रहण करेंगे, इत्यादि, इत्यादि.

आज शाम को टीवी खोला तो हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी. चंद मिनटों में घर में रोना-धोना मच गया. सास ने तो अपनी चूड़ियां तक तोड़ डाली कि जैसे वे विधवा ही हो गयी हों, ससुर रोने-तड़पने लगे, पति ने तुरंत गाड़ी निकाली. मां और बाबूजी को लेकर आश्रम की ओर भागे. मैं बेटे अर्जुन के साथ ड्राइंगरूम में बैठी टीवी पर खबर सुनती रही और खुश होती रही. टीवी पर न्यूज चल रही थी कि महाराजजी ने घरेलू तनाव के चलते आत्महत्या कर ली. किसी अन्य लड़की का चक्कर था. मैं सोच रही थी कि कैसा शांत व्यक्तित्व दिखता था, कैसी ओजपूर्ण वाणी थी, कैसे दिल को छूते प्रवचन करते थे, दुनिया को तनावमुक्त करने वाले, दुनिया के दुखों को हरने वाले, दुनिया से यह कहने वाले कि कर्म किए जा, फल की चिंता न कर, आखिर स्वयं तनावग्रस्त कैसे हो गए और वह भी उस स्तर तक कि आत्महत्या जैसा कायरता भरा कदम उठा लिया? महाराजजी इतने दुखी और टूटे हुए इंसान कैसे निकले? इतने कायर और दब्बू कैसे निकले? अपनी पत्नी के होते दूसरी औरत के साथ रिश्ता… छी…छी… धर्म के कवर में छिपा कामी पुरुष…. अच्छा हुआ मर गया. मेरे रास्ते का कांटा हटा. काश कि अब मेरे सास-ससुर और पति की आंखों पर चढ़ा आस्था का चश्मा उतर जाए? किसी की मौत पर खुश होना अच्छी बात नहीं, मगर आज महाराजजी की मौत की खबर सुनकर जो खुशी मुझे हो रही थी उसका मैं वर्णन नहीं कर सकती. मन कर रहा है खुशी से नाचूं.

अचानक बेटे के सवाल ने मेरी तंद्रा भंग की. उसने पूछा, ‘मां, क्या अब मैं आईआईटी का फॉर्म भर दूं?’

और मैं उत्साह में भर कर बोली, ‘जरूर भर दे… अब किसी बात की चिन्ता मत कर… मैं सब संभाल लूंगी… Hindi Story

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Hindi Short Story: अम्मा ने सलाम भेजा है

Hindi Short Story: छह साल का रहमान स्कूल से लौट कर शाम को घर के पास वाले मदरसे में मौलाना साहब से दीन की तालीम लेने जाता था. वह अपने मां-बाप का इकलौता बेटा था. रहमान के पिता अजमल मियां पास के पोस्टऔफिस में काम करते थे. रोज साइकिल से आना-जाना होता था. रहमान की अम्मी आबिदा बेगम बेहद खूबसूरत महिला थीं. अक्सर बुर्के में सौदा-सुल्फ लेने के लिए निकलती थीं और दुकान पर पहुंच कर चेहरे की नकाब हटाती तो उनके चांद से चेहरे से लोगों की निगाहें ही न हटती थीं. मदरसे के मौलाना साहब भी उनकी खूबसूरती से वाकिफ थे. दरअसल एकाध बार उन्होंने आबिदा बेगम को बाजार में सब्जी-भाजी खरीदते देखा था, जब उनके चेहरे का नकाब उलटा हुआ था. मौलाना साहब आये-दिन बाजार के चक्कर भी इस सोच के तहत लगाया करते थे कि न जाने कब चांद का दीदार हो जाए. न जाने कब आबिदा बी नकाब हटा कर एक झलक दिखला जाएं. मगर उनकी यह हसरत अरसे से पूरी नहीं हो रही थी. हसरत बढ़ती ही जा रही थी, आखिरकार एक दिन छुट्टी के समय मौलाना ने नन्हे रहमान से कहा, ‘बेटा, अपनी अम्मी को मेरा सलाम कहना.’

बेटे ने आकर मां को कह दिया कि मौलाना साहब ने आपको सलाम भेजा है.

आबिदा बेगम ने भी बेटे के हाथों सलाम का उत्तर सलाम भेज कर दे दिया.

ये सिलसिला हफ्ते भर चला. रोज़ रोज़ के सलाम से आबिदा बेगम परेशान हो गयीं. हर दिन बेटा आकर कहता कि मौलवी साहब ने सलाम भेजा है. वह सुन-सुन कर पक गयीं. मौलवी साहब की मंशा वह अच्छी तरह समझ रही थी. मगर बेटे की पढ़ाई भी जरूरी थी, इसलिए सामने से जाकर उनकी बेज्जती नहीं करना चाहती थीं. रहमान मदरसे में न होता तो अब तक तो आबिदा बेगम अपने मियां के हाथों मौलाना को पिटवा चुकी होतीं. एक रोज रात में आबिदा बेगम ने यह परेशानी अपने पति अजमल मियां को बतायी. अजमल मियां गुस्से से फनफनाने लगे. मगर आबिदा बी ने उन्हें रहमान की पढ़ाई का वास्ता देकर शान्त कराया. दोनों के बीच काफी समय तक विचार-विमर्श चला और फिर बात एक नतीजे पर पहुंच गयी. अगले दिन आबिदा बेगम ने बेटे रहमान से मौलाना को कहला भेजा कि – अम्मी ने शाम को आपको घर पर बुलाया है.

मौलाना साहब तो यह सुन कर झूम उठे. उन्होंने तो सपने में भी न सोचा था कि अल्लाह मियां इतनी बड़ी मुराद पूरी कर देंगे. रहमान का पैगाम सुन कर लगा जैसे हवा में उड़ रहे हों. तीन दिन से नहाए नहीं थे. बच्चों को रट्टा मारने के लिए बिठा कर गुसलखाने की ओर भागे. फटाफट खुश्बूदार साबुन से रगड़-रगड़ कर गुसल किया. दाढ़ी और सिर के बालों में शैम्पू लगाया. बाहर आकर बासी शेरवानी को इस्तरी करवाने धोबी के पास भागे. उसने पच्चीस रुपये मांग लिये. पांच रुपये खर्च करके जूते भी मोची से पौलिश करवाते लाये. एक साफ रूमाल ढूंढने में घंटा भर खप गया. बच्चे पढ़ कर वापस चले गए. मौलाना साहब फटाफट तैयार होने में जुट गए. आज चांद के दीदार की शाम थी. साफ कुर्ते पायजामे पर इस्तरी की हुई शेरवानी चढ़ाई, करीने से बाल काढ़े, इत्र का छिड़काव पूरे शरीर पर किया, शेरवानी की ऊपरी जेब में सफेद रूमाल तह करके सलीके से सजाया, पांव में जूतियां डालीं और निकल पड़े रहमान की अम्मा से मिलने.

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घर के दरवाजे पर पहुंचे तो सीने में उनका दिल ऐसे धाड़-धाड़ बज रहा था कि जैसे अभी निकल कर हथेली पर आ जाएगा. किसी तरह दिल पर हाथ रखकर खुद को संभाला और दरवाजा खटखटाया. आबिदा बी ने दरवाजा खोला. गुलाब सा चेहरा, लम्बी काली पलकों के बीच भूरी-भूरी आंखे, चौड़ा माथा, लंबे बाल… मौलाना साहब तो देख कर होश खो बैठे. आबिदा बी ने मौलवी साहब को सलाम किया और घर के अन्दर उनका स्वागत किया. चाय-पकौड़ी से उनकी खूब आवभगत की. चाय नाश्ते के बीच बेटे की पढ़ाई के बारे में बातचीत करती रही.

लेकिन मौलाना साहब जल्दी ही औपचारिक बातों से उकता कर अपनी असलियत पर आ गए. बोले, ‘माशा अल्लाह, आपको खुदा ने बड़ी फुर्सत में तराशा है.

रहमान की अम्मी ने शरमा कर सिर झुका लिया और धीरे से बोली, ‘वो तो है, शुक्रिया.’

मौलाना की हिम्मत बढ़ी. बोले, ‘मुझे आपसे इश्क हो गया है मोहतरमा.’

रहमान की अम्मी घबराई और धीरे से बोली, ‘हां वो तो ठीक है मौलाना साहब, पर ये बातें अगर रहमान के अब्बा ने सुन ली तो बहुत मुश्किल होगी, वो आते ही होंगे. आप अभी जाइए, कल शाम को फिर आइएगा, तब बात करेंगे. मैं आपका इंतजार करूंगी.’

मौलाना साहब अगली मुलाकात के आमंत्रण से झूम उठे. खुशी-खुशी चलने को हुए. इतनी जल्दी किला फतह कर लेंगे, यह तो उन्होंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था. अभी वे कुर्सी से उठे ही थे कि खुले दरवाजे पर रहमान के अब्बा की आवाज आई, ‘घर में कोई बाहरी आया है क्या रहमान की अम्मी?’

रहमान की अम्मी घबराई. डर के मारे कांपने लगी. मौलाना की ओर अपना बुर्का फेंक कर बोली, ‘मौलाना साहिब, इसे जल्दी से पहन लें.’

घबराया हुआ मौलाना बुर्के में घुस गया. मुंह पर नकाब डाल ली. रहमान की अम्मी ने उन्हें ले जाकर कोने वाले नल पर बिठा दिया, जहां जूठे बर्तनों का ढेर लगा था. वह उनके सामने जूना और बर्तन धोने का साबुन रख कर बोली, ‘आप यहां बैठ कर बर्तन धोइये मैं अभी उनको चाय वगैरह पिला कर सब्जी लाने के लिए बाहर भेजती हूं, फिर आप मौका देखकर निकल जाइयेगा.’

मौलाना साहब सिर पर बुर्का संभाले नल खोल कर बर्तन मांजने में जुट गये.

इतने में रहमान के अब्बा आजमल मियां अपनी साइकिल में ताला मार कर भीतर आ गये. कोने वाले नल पर बुर्केवाली को बैठे देखा तो पूछ बैठे, ‘रहमान की अम्मी, ये मोहतरमा कौन हैं?’

आबिदा बेगम पानी का गिलास पकड़ाते हुए बोली, ‘बगल के मोहल्ले में रहती है, बेचारी बहुत गरीब है, काम मांग रही थी तो मैंने बर्तन मांजने के लिए रख लिया है. शाम-शाम को आकर बर्तन मांज जाया करेगी.’

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रहमान के अब्बा वहीं दीवान पर बैठ गए. आबिदा बी किचेन से एक बड़े से टब में छोटे-बड़े तमाम बर्तन जो काफी समय से नहीं धुले थे और रखे-रखे धूल खाकर गंदे हो गये थे, उन्हें भी लाकर मौलाना साहब के आगे पटक गयीं कि इन्हें भी धो दें.

मौलाना साहब बुर्का संभाले बड़ी देर तक बर्तन मांजते रहे. आबिदा बी ने इतनी देर में पूरे किचेन के बर्तन निकाल कर कोने में ढेर लगा दिया . मौलाना साहब का बुरा हाल हो गया. काली-काली कड़ाहियां रगड़ते-रगड़ते उनके हाथ लाल हो गये. समय गुजरता जा रहा था, रहमान के अब्बा टलने का नाम ही न ले रहे थे. चाय-नाश्ता करके बड़ी देर से पैर पसारे बैठे थे. आबिदा बी भी वहीं मोढ़े पर बैठी थीं. पति-पत्नी बड़ी देर तक हंसी-मजाक और बातें करते रहे. एक घंटे के बाद अजमल मियां ने कहा, ‘आबिदा, मैं जरा बाजार होकर आता हूं, रहमान खेल कर आ जाए तो उसको पढ़ने के लिए बिठाइये.’

‘जी बहुत अच्छा…’ आबिदा बी पीछे-पीछे दरवाजे तक गईं. इधर रहमान के अब्बा दरवाजे से बाहर हुए उधर एक घंटे से बर्तन मांज रहे मौलाना साहब, जिनका उंकड़ू बैठे-बैठे टांगे और कमर जवाब दे गयी थी, अजमल मियां के बाहर निकलते ही बुर्का उतार कर वहां से सरपट निकल कर भागे. आबिदा बी के सलाम तक का पलट कर जवाब तक न दिया.

उसके बाद उन्होंने रहमान की अम्मा को फिर कोई सलाम न भेजा. पंद्रह रोज बाद रहमान ने एक दिन मदरसे में मौलाना साहब से कहा, ‘अम्मा ने आपको सलाम भेजा है…’

मौलाना साहब यह सुनते ही तमतमाते हुए दहाड़े, ‘बदजातों, फिर बर्तन जमा हो गये क्या, जो फिर से सलाम भेजा है….?’ Hindi Short Story

Hindi Kahani: उसकी ईमानदारी

Hindi Kahani: अनाज मंडी में मेरी दुकान है. बड़ी और पुरानी दुकान है. मेरे दादाजी ने यह दुकान खरीदी थी और पिताजी के बाद अब इसे मैं देखता हूं. इस दुकान में एक पुराना नौकर है माधव. दस साल से मेरी दुकान में काम कर रहा है. बड़ा ईमानदार और मेहनती है. उस पर पूरा गल्ला छोड़ कर मैं इत्मिनान से खरीदारी के लिए बाहर चला जाता हूं. माधव के होते दुकान पर एक पैसे की भी हेरफेर नहीं होती है.

पांच साल पहले की बात है. माधव की ईमानदारी देखकर मैंने उसकी तनख्वाह पांच सौ रुपये बढ़ा दी थी. जब तनख्वाह वाले दिन मैंने उसे बढ़ी हुई तनख्वाह दी तो रुपये गिनने के बाद उसने पैसे जेब में रख लिये और बिना कुछ बोले अपने काम में लग गया. मुझे बड़ी हैरानी हुई कि उसने पूछा तक नहीं कि मैंने उसे पांच सौ रुपये एक्स्ट्रा क्यों दिये? मैंने सोचा शायद वह सोच रहा है कि लालाजी ने गलती से पांच सौ रुपये ज्यादा दे दिये हैं. उसने अगर यह जान कर चुपचाप नोट रख लिये हैं तो यह उसकी ईमानदारी पर धब्बा है. खैर, मैं कुछ बोला नहीं. अगले महीने भी तनख्वाह में पांच सौ रुपये एक्स्ट्रा मिलने पर वह कुछ नहीं बोला. चुपचाप नोट लेकर जेब में रख लिये और काम में लग गया.

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दो महीने बीते होंगे कि उसने काम से कई बार छुट्टी ली. मैं देखता था कि इधर काम में उसका मन भी कुछ कम ही लग रहा था. वह ज्यादातर फोन पर लगा रहता था. फिर एक हफ्ते के लिए गायब हो गया. मुझे बड़ी खीज लगी कि देखो मैंने इसकी तनख्वाह बढ़ाई, धन्यवाद देना तो दूर इसने तो काम में चोरी शुरू कर दी है. अगली तनख्वाह में मैंने उसके पांच सौ रुपये काट लिये. लेकिन इस बार भी उसने तनख्वाह लेकर चुपचाप नोट गिने और जेब में रख लिये. फिर खामोशी से काम में लग गया. मैं बड़ा बेचैन था. आखिर ये कुछ बोलता क्यों नहीं? न तब बोला जब मैंने पांच सौ रुपये ज्यादा दिये और न अब बोला जब पांच सौ रुपये मैंने काट लिये.

शाम तक मेरी बेचैनी बढ़ गई. आखिर मुझसे रहा न गया. मैंने उसको बुलाया और पूछा, ‘माधव, जब मैंने तीन महीने पहले तेरी तनख्वाह बढ़ायी थी, तब तू कुछ नहीं बोला था, आज जब मैंने पांच सौ रुपये काटे तब भी तू कुछ नहीं बोला?’

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माधव सिर झुका कर बोला, ‘लालाजी, जब आपने पांच सौ बढ़ाये थे तब मेरी बीवी को लड़का हुआ था तो मैंने सोचा कि वह अपने हिस्से का लेकर आया है, इसमें मेरा क्या है और पिछले हफ्ते मेरी बीमार मां मर गई, तो आज जो आपने पांच सौ काटे तो मुझे लगा कि वह अपने हिस्से का ले गई, इसमें मेरा क्या?’

उसकी बात सुनकर मैं उसकी सोच पर हैरान रह गया. इस दुनिया में आज भी इतने सरल और ईमानदार लोग हैं, विश्वास करना कठिन था, मगर मेरे पास माधव जैसा हीरा है. Hindi Kahani

Mobile Addiction Solutions: मोबाइल जरूरी है मगर जिंदगी से ज्यादा नहीं

Mobile Addiction Solutions: शुरुआत में मोबाइल सिर्फ बात करने के लिए था. धीरे-धीरे इस में कैमरा, इंटरनेट, म्यूजिक, गेम्स और सोशल मीडिया आ गए. अब मोबाइल सिर्फ एक डिवाइस नहीं, बल्कि ‘मिनी वर्ल्ड’ बन चुका है. इस ने हमारी जिंदगी को आसान जरूर किया लेकिन हमें अपने ही लोगों से दूर भी कर दिया. हम सोचते हैं कि हम कनेक्टेड हैं लेकिन असलियत में हम डिस्कनेक्टड हो गए हैं अपने परिवार, दोस्तों और खुद से भी.

मोबाइल के फायदे : जब सही तरह से इस्तेमाल हो
मोबाइल ने बहुत सी चीजें आसान कर दी हैं.
ऑनलाइन पढ़ाई : अब घर बैठे बच्चे दुनिया के किसी भी कोने से पढ़ सकते हैं.
कोविड के समय हम सब ने देखा कि मोबाइल के जरिए बच्चे पढ़ाई से जुड़े रहे.
इमरजेंसी में मदद : मोबाइल से तुरंत किसी को कॉल या मैसेज किया जा सकता है.
जानकारी का जरिया : कोई भी न्यूज, हेल्थ टिप्स या एजुकेशनल वीडियो सेकेंडों में मिल जाती है.
कम्युनिकेशन आसान हुआ : देश-विदेश में बैठे अपने लोगों से वीडियो कॉल पर बात करना संभव है. ऐसा लगता है दूरियां मिट गई हैं. हम अपनों के साथ बैठे हैं.
एंटरटेनमेंट : मूवी, सोंग्स, गेम्स आदि काफी-कुछ एक क्लिक पर उपलब्ध है.
यानी, अगर मोबाइल का उपयोग लिमिट में किया जाए तो यह हमारे लिए मैजिक बॉक्स है जिस से हम अपनी ख्वाहिशें पूरी कर सकते हैं.
लेकिन जब मोबाइल आदत बन जाए
जब मोबाइल का इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा होने लगता है तब यह तकनीक हमें नुकसान पहुंचाने लगती है. आज के टीनएजर्स घंटों-घंटों मोबाइल पर लगे रहते हैं— सोशल मीडिया स्क्रॉल करते हुए, गेम खेलते हुए या बेवजह चैटिंग करते हुए. कई बार यह आदत इतनी बढ़ जाती है कि पढ़ाई, नींद और सेहत सब पर बड़ा असर पड़ता है.
मोबाइल के नुकसान : जो टीनएजर्स को समझने चाहिए
धोखाधड़ी और ऑनलाइन फ्रॉड : आजकल सोशल मीडिया पर फ्रेंडशिप और ऑनलाइन चैटिंग बहुत आम हो गई है. कई टीनएजर्स बिना सोचे-समझे अजनबियों से बात करने लगते हैं.
कई बार ये रिश्ते धोखे में बदल जाते हैं. फेक अकाउंट, ब्लैकमेलिंग और डाटा चोरी जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं.
ऐसी खबरें अखबारों में अक्सर आती हैं कि किसी ने मोबाइल फ्रॉड से अपनी प्राइवेट जानकारी खो दी.
सेल्फी का खतरनाक क्रेज: मोबाइल ने सेल्फी को एक जुनून बना दिया है. लोग कहीं भी, कभी भी और किसी भी खतरनाक जगह पर सेल्फी लेने लगते हैं. कई बार यह क्रेज जानलेवा साबित होता है. समाचारों में अकसर आता है कि सेल्फी लेते समय नदी, पहाड़ या ट्रेन ट्रैक पर हादसे हो गए. टीनएजर्स को समझना होगा कि एक तस्वीर से ज्यादा अपनी जान जरूरी है.
सड़क दुर्घटनाएं
मोबाइल पर बात करते हुए या मैसेज टाइप करते हुए सड़क पार करना या बाइक चलाना बहुत खतरनाक है. हर साल हजारों ऐक्सिडेंट्स सिर्फ इसलिए होते हैं क्योंकि किसी ने मोबाइल नीचे नहीं रखा. कई युवा अपने दोस्त को लाइव लोकेशन भेजने में इतने व्यस्त रहते हैं कि खुद अपने डेस्टिनेशन तक नहीं पहुंच पाते.
बढ़ती दूरियां और सोशल गैप : मोबाइल ने हमें कनेक्टड रखा है लेकिन भावनात्मक रूप से डिस्कनेक्टड कर दिया है. अब डाइनिंग टेबल पर परिवार के हर सदस्य के हाथ में मोबाइल होता है, एकदूसरे से कोई बात नहीं करता. दोस्त एक ही कमरे में बैठ कर भी व्हाट्सएप चैट करते हैं.
पहले रिश्तों में जो गर्माहट होती थी, अब स्क्रीन की ठंडक ने उसे कम कर दिया है.
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर : लंबे समय तक मोबाइल का उपयोग आंखों, गर्दन और नींद पर असर डालता है. कई टीनएजर्स देर-रात तक मोबाइल पर लगे रहते हैं और सुबह थकान महसूस करते हैं. इस की वजह से नींद की कमी, चिड़चिड़ापन और एंग्जाइटी जैसे लक्षण अब आम हो गए हैं. मोबाइल की स्क्रीन की नीली रोशनी हमारी नींद और ध्यान दोनों को प्रभावित करती है.
टीनएजर्स को क्या करना चाहिए?
मोबाइल का इस्तेमाल सिर्फ जरूरत के समय करें.
हर दिन कुछ समय ‘नो मोबाइल टाइम’ रखें — परिवार या दोस्तों के साथ बिताएं.
किसी भी अनजान व्यक्ति से सोशल मीडिया पर चैट या फोटो शेयर न करें.
पढ़ाई, हॉबीज और स्पोर्ट्स पर फोकस करें.
अगर मोबाइल पर ज्यादा समय बिताने की आदत हो तो खुद को लिमिट में रखें.
और सब से जरूरी, कभी भी सड़क पर मोबाइल यूज न करें.
मोबाइल एक बेहतरीन इन्वेंशन है, लेकिन यह हमारी समझ पर निर्भर करता है कि हम इसे कैसे इस्तेमाल करते हैं. यह हमें दुनिया से जोड़ सकता है लेकिन गलत इस्तेमाल हमें अपने ही लोगों से दूर कर देता है.
मोबाइल जरूरी है पढ़ाई, काम और जानकारी के लिए लेकिन यह हमारी जिंदगी से ज्यादा जरूरी नहीं हो सकता. टीनएजर्स को समझना होगा कि मोबाइल सिर्फ सुविधा का साधन है, जीवन का उद्देश्य नहीं.
अगर इसे सही तरीके से यूज किया जाए तो यह वरदान सरीखा है लेकिन अगर इस पर हमारा कंट्रोल नहीं रहा तो यही मोबाइल हमारी आजादी, नींद और रिश्ते सब छीन सकता है.
मोबाइल हमारे हाथ में होना चाहिए, हमारे दिमाग में नहीं
मोबाइल फोन का सही उपयोग करें, सुरक्षित रहें क्योंकि टेक्नोलॉजी तब तक अच्छी है जब तक वह इंसान के कंट्रोल में है, इंसान उस के कंट्रोल में नहीं. Mobile Addiction Solutions.

Hindi Stories: इक विश्वास था

लेखक: मनीष जैन, Hindi Stories:  अमर में न जाने ऐसी क्या बात थी कि न चाहते हुए भी उस की बातों पर मेरा दिमाग विश्वास नहीं कर पा रहा था लेकिन दिल उस की बातों को झुठला भी नहीं पा रहा था. दिल और दिमाग की कशमकश में उलझा मैं इस उस की मदद को तैयार हो गया. मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

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वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

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मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है. Hindi Stories

Hindi Story: मुन्नी बदनाम हुई

Hindi Story: यौवनावस्था में कदम रखने वाली मुन्नी के स्वभाव का बचपना न जाने कब मोहित के प्यार में खो गया, खुद उसे ही नहीं पता चला. मोहित व कविता के बीच आखिर ऐसा क्या हुआ कि वह पूरी तरह से टूट गई और खुद की नजरों में ही गिर गई.

‘‘मम्मी, मेरा लंच बौक्स,’’ कविता चिल्लाती हुई रसोईघर में घुसी.

‘‘तैयार है, तू खुद लेटलतीफ है, देर से उठती है और सारे घर को सिर पर उठा लेती है. यह अच्छी बात नहीं है.’’

‘‘बस, मम्मी, हो गया. अब दो भी मेरा लंच बौक्स. कल से जल्दी उठूंगी,’’ कविता अपनी मम्मी की तरफ देखते हुए बोली.

उस की मम्मी भी उस पर ऊपरी मन से गुस्सा करती थीं. उन्हें पता है कि कविता नहीं सुधरने वाली. उस का यह रोज का काम है.

कविता ने प्यार जताने के लिए मम्मी को गले लगाया और बोली,

‘‘बाय मम्मी.’’

‘‘बाय बेटा, पेपर अच्छे से करना.’’

कविता की मां नम्रता अपने रोजमर्रा के काम निबटाने में व्यस्त हो गईं. कविता के घर में उस के मातापिता, 1 भाई, दादादादी, ताऊताई व उन की 2 बेटियां रहते हैं. कविता अपने घर में सब से छोटी है और सब की लाड़ली है. सब उस से बहुत प्यार करते हैं. प्यार में सब उसे मुन्नी कहते हैं.

कविता 17 साल की एक सुंदर लड़की थी. उस का भराभरा सा सुडौल शरीर और चंचल स्वभाव सहज किसी को भी आकर्षित करने लायक था. उस को गांव में सभी प्यार से मुन्नी बुलाते थे. यौवनावस्था में कदम रखने वाली मुन्नी के स्वभाव में अभी तक बचपना था. उस की 12वीं कक्षा की वार्षिक परीक्षाएं चल रही थीं. पेपर देने के लिए उसे अपने गांव से 18 किलोमीटर दूर कसबे के उच्च माध्यमिक विद्यालय में जाना पड़ता था.

गांव से कसबे में जाना उस में रोमांच पैदा कर देता. उसे लगता कि जैसे वह आजाद हो गई हो. वह अपने बालों में क्लिप लगा कर, गले में सफेद रंग की माला, माथे पर छोटी सी बिंदी लगा कर, विद्यालय की ड्रैस में बहुत ही आकर्षक और सुंदर लगती.

एक दिन उस की सहेलियां उस का इंतजार कर रही थीं. उस के पहुंचते ही सभी उस पर गुस्सा करने लगीं.

‘‘मुन्नी की बच्ची, आज फिर लेट,’’ मीनू बोली.

‘‘कल से हम तेरा इंतजार नहीं करेंगे, अभीअभी दूसरी बस भी निकल गई,’’ सुजाता ने भी डांटा.

‘‘सौरी, लेट हो गई पर तुम टैंशन मत लो. मैं हूं न,’’ मुन्नी बोली, ‘‘लो, बस भी आ गई. बस स्टैंड से स्कूल तक आटो का खर्चा मेरा.’’

बस रुकी, सभी लड़कियां और अन्य लोग बस में चढ़ गए. बस में मुन्नी व उस की सहेलियों की चटरपटर सभी का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी.

लड़के मुन्नी को देख कर किसी न किसी बहाने उसे छूने के लिए बेताब रहते थे. मुन्नी को लड़कों का घूरना बाहर से तो अच्छा न लगता पर अंदर से वह खुश होती और अपनी सुंदरता का घमंड करती.

बस कसबे में पहुंची, सभी यात्री उतरे. वहां खड़े छिछोरे, आवारा लड़के, लड़कियों का झुंड देख कर तरहतरह की फब्तियां कसने लगे.

मुन्नी ने अपनी एक सहेली का हाथ खींचा, ‘‘चल, आटो ले कर आते हैं. तुम सभी यहीं इंतजार करना,’’ वे आटो ले कर आईं और सब उस में बैठ कर समय पर स्कूल पहुंच गईं.

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विद्यालय के गेट के पास कई आउटसाइडर और छात्र खड़े थे. वे सभी आती हुई लड़कियों के ग्रुप की तरफ देख रहे थे. लड़कियां उन को अनदेखा कर के अंदर चली गईं. अंदर बहुत चहलपहल थी. सभी छात्र इधरउधर चहलकदमी कर रहे थे. कुछ अपने रोल नंबर नोटिसबोर्ड पर देख रहे थे, कुछ किताबें पढ़ रहे थे और कुछ कमरों की तरफ जा रहे थे.

‘‘हाय, एवरीबडी,’’ एक लड़का उन की तरफ आते हुए बोला.

‘‘हाय, अविनाश,’’ कविता बोली.

‘‘रोल नंबर देख लिया क्या?’’ अविनाश ने पूछा.

‘‘नहीं, अभी नहीं.’’

‘‘सभी अपने रोल नंबर दो, मैं देखता हूं, किस रूम में है तुम्हारी सीट,’’ अविनाश ने सब के रोल नंबर ले लिए.

सभी लड़कियां पेड़ के नीचे खडे़ हो कर अविनाश का इंतजार करते हुए बातें करने लगीं.

‘‘यह लो, तुम्हारा रोल नंबर रूम नं. 4 में और बाकी सभी का रूम नं. 5 में है,’’ अविनाश ने आ कर बताया.

‘‘ओह, मेरा रोल नंबर तुम सब के साथ नहीं आया,’’ कविता निराश हो कर बोली.

सभी एकदूसरे को पेपर के लिए शुभकामनाएं बोल कर अपनेअपने कमरे की तरफ लपकीं. कविता के कमरे में कुछ छात्र उसी विद्यालय के और कुछ उस के विद्यालय के थे. उस के पास ही मोहित नाम का लड़का बैठा था.

पेपरों के दौरान मोहित से उस की हैलोहाय शुरू हुई. मोहित कसबे के मशहूर वकील का इकलौता लड़का था. वह बहुत स्मार्ट और अमीर घर का था. उस पर उस के विद्यालय की कई लड़कियां मरती थीं पर वह किसी को भाव नहीं देता था. पेपरों के दौरान उसे कविता सब से अलग और अच्छी लगी.

कविता को मोहित का बात करना अच्छा लगता. पहली बार उसे भी कोई लड़का अच्छा लगा था. मोहित रोज किसी न किसी बहाने से कविता के ग्रुप से बात करता. सभी को उस का बात करना अच्छा लगता.

अंतिम पेपर के दिन मोहित ने कविता को एक खत और एक फूल दिया. कविता कुछ समझ नहीं पाई, ‘‘मोहित, क्या है यह?’’

‘‘घर जा कर पढ़ना, सब पता लग जाएगा. पर देखो, मेरे ऊपर गुस्सा मत करना. इस में जो लिखा है, सब सच है,’’ मोहित प्यार से बोला.

कविता ने लड़कियों की नजर बचा कर वह पत्र बैग में डाला और बस का इंतजार कर रही सहेलियों के पास पहुंच गई.

‘‘अरे कविता, बड़ी देर कर दी, पेपर कैसा हुआ?’’

‘‘अच्छा हुआ, मम्मी का दिया परांठा खाने में देर हो गई.’’

‘‘मोहित क्या कह रहा था?’’

‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही पूछ रहा था

कि इस के बाद किस कालेज में ऐडमिशन लोगी? मैं ने कहा द्रोणाचार्य कालेज में.’’

‘‘वह कहां लेगा?’’ लड़कियों ने पूछा.

‘‘मुझे क्या पता, मैं ने ज्यादा बात नहीं की,’’ कविता बोली और तभी सामने बस रुकी. लड़कियां बस की तरफ भागीं, कविता ने पीछे मुड़ कर देखा. मोहित पेड़ के नीचे बैठा उसी को देख रहा था. मोहित ने हाथ उठा कर बाय का इशारा किया, पर कविता ने सिर झुकाया और बस में चढ़ गई. उस के मन में पत्र को ले कर उत्सुकता थी. पूरे रास्ते उस ने ज्यादा कुछ नहीं कहा, बस कुछ सोचती रही.

‘‘भैया रोकना,’’ लड़कियां बोलीं.

कंडक्टर ने सीटी बजाई. बस रुकी और सभी लड़कियां उतर गईं.

‘‘अच्छा, डेढ़ महीने बाद जाएंगे, ऐडमिशन लेने कालेज में. फोन पर बता देंगे कि कितने बजे जाना है.’’

इस के साथ ही सभी एकदूसरे को बाय कर के अपनेअपने घर की तरफ चले गए.

कविता के घर में घुसते ही, ‘‘मुन्नी बेटा, पेपर कैसा हुआ?’’ मम्मी ने पूछा.

‘‘बहुत अच्छा. मम्मी, भूख लगी है, खाना दो.’’

‘‘ठीक है, तुम हाथमुंह धो लो. मैं खाना गरम कर के परोसती हूं.’’

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खाना खा कर कविता सीधे अपने कमरे में चली गई, दरवाजा बंद किया और जल्दी से चिट्ठी निकाल कर पढ़ने लगी :

‘डियर कविता,

जब से तुम्हें देखा है, मुझे नींद नहीं आती. तुम से मिलने का मन करता है. तुम बहुत अच्छी हो. क्या तुम मुझ से दोस्ती करोगी? मेरा नं. 9813000××× है. मुझे फोन करना. मेरी बातों का बुरा मत मानना. पर यह सच है, मुझे तुम से प्यार हो

गया है. तुम्हारे फोन का बेसब्री से इंतजार करूंगा.

बाय, टेक केयर.’

कविता का रोमरोम सिहर उठा पत्र को पढ़तेपढ़ते. वह खुश भी हुई साथ में उसे एक अनजाना सा भय भी लगा. उसे भी मोहित अच्छा लगा था. वह साधारण परिवार से थी और मोहित कसबे के जानेमाने वकील का बेटा था. उन की अपनी गाडि़यां, बंगला और दादा की थोक की 2 दुकानें थीं और बहुत सारे नौकरचाकर.

कविता को अपने ऊपर बहुत गुमान हुआ कि कसबे की फैशनेबल लड़कियों में मोहित को वह पसंद आई. वह खुश थी. कविता ने शाम को किसी बहाने अपनी ताई से फोन मांगा.

‘‘बड़ी मम्मी, मीनू को फोन करना है, आप का फोन कहां है?’’

‘‘अंदर कमरे में रखा है, ले ले.’’

उस की ताई अपनी बेटी नीता और संगीता को साथ ले कर बाहर चली गईं. कविता ने छत पर जा कर मोहित का नंबर मिलाया.

‘‘हैलो,’’ कविता धीरे से बोली.

‘‘हैलो, कविता,’’ मोहित की आवाज में उत्साह छलक रहा था.

‘‘तुम ने कैसे पहचाना कि कविता का फोन है?’’

‘‘मुझे पता लग जाता है. मैं तुम्हारे फोन का बेसब्री से इंतजार कर रहा था. बड़ी देर लगा दी सोचने में, फिर क्या सोचा?’’

‘‘मुझे डर लग रहा है.’’

‘‘अरे, सिर्फ दोस्ती करनी है और तुम्हें डर लग रहा है? बोलो भी अब.’’

‘‘ठीक है, मुझे मंजूर है,’’ कविता ने इतना कहते ही फोन काट दिया. उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. उसे मोहित की आवाज से शरीर में कुछ अजीब सा एहसास, सिहरन सी महसूस हुई.

उस के बाद हर पल वह मोहित के बारे में न जाने क्याक्या सोचती रही.

उधर मोहित का भी ऐसा ही हाल था. रात ठीक 12 बजे उस ने कविता के नंबर पर फोन किया, ‘‘हैलो.’’

दूसरी तरफ कविता के ताऊजी ने नींद से उठ कर हड़बड़ाहट के साथ फोन उठाया और बोले, ‘‘हैलो.’’

आवाज सुनते ही दूसरी तरफ से फोन कट हो गया.

‘‘शायद किसी से रौंग नंबर लग गया होगा,’’ ताऊजी बड़बड़ाए और सो गए.

दूसरे दिन कविता की मौसी के घर में जागरण था. वह सुबह ही वहां  अपनी बहनों के साथ चली गई. सारा दिन उन्होंने जागरण की तैयारियों में मौसी की सहायता की और पूरी रात जागरण चला. बीचबीच में उस का ध्यान मोहित की तरफ जा रहा था.

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अगले दिन सुबह उठते ही उस ने मौसी का फोन लिया और छत पर जा कर मोहित को फोन किया.

‘‘हैलो, मोहित.’’

‘‘अरे कहां रह गईं तुम? हद है यार, एक फोन तक नहीं कर सकती थीं क्या? कहां थीं तुम?’’ मोहित बोलता गया.

‘‘मोहित, मैं ने फोन तो किया.’’

‘‘क्या खाक किया? मैं ने मंगलवार को तुम्हारे नंबर पर फोन किया था, शायद तुम्हारे पापा ने फोन उठाया था.’’

‘‘क्या…’’ कविता के मुंह से चीख सी निकल पड़ी.

‘‘कब किया तुम ने बेवकूफ, वह मेरे ताऊजी का फोन है. दूसरी बार मत करना, तुम मुझे मरवाओगे.’’

‘‘कविता, अपना नंबर दो,’’ मोहित बोला.

‘‘मेरा नंबर, मेरे पास तो फोन ही नहीं है.’’

‘‘ओह,’’ मोहित के मुंह से निकला, ‘‘क्या तुम आज कसबे में आ सकती हो?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘आ सकती हो क्या?’’ वह बिना उत्तर दिए बोला.

कविता सोचने लगी फिर बोली, ‘‘आज तो नहीं पर कल आ सकती हूं.’’

‘‘ठीक है, राजू चाय वाले के ढाबे के बाहर सुबह 9 बजे मिलना, ठीक है?’’

‘‘ठीक है,’’ कविता बोली.

कविता ने यह सोचते हुए रात गुजारी कि मोहित को क्या काम होगा. उस का भी मोहित से मिलने का बहुत मन था. सुबह उठ कर कविता ने मम्मी से कहा, ‘‘मम्मी, मुझे मेहंदी और अपना कुछ सामान लाना है, मुझे पैसे दे देना. मैं 8.30 बजे की बस में जाऊंगी.’’

‘‘पापा से मांग ले जितने की जरूरत है और घर जल्दी आ जाना.’’

‘‘ठीक है.’’

तैयार हो कर कविता बड़ी देर तक शीशे के आगे खुद को निहारती रही. उस ने सफेद रंग का सूट पहना, बालों को खुला छोड़ा, पर्स लिया और बस पकड़ कर राजू के सामने उतर गई. 9 बज कर 10 मिनट हो चुके थे पर मोहित कहीं नहीं दिख रहा था. तभी उसे कार का हौर्न सुनाई दिया. देखा, मोहित कार चला रहा था और उस ने ढाबे से थोड़ा आगे कार रोक दी.

मोहित ने दरवाजा खोला, ‘‘कविता, बैठो.’’

कविता निसंकोच बैठ गई, ‘‘और कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं, तुम कैसे हो?’’

‘‘मैं ठीक नहीं हूं,’’ मोहित ने मुसकरा कर कहा तो कविता शरमा सी गई.

‘‘कविता, तुम्हारे लिए कुछ है, यह बैग उठाओ और खोलो.’’

‘‘क्या है?’’

‘‘खोलो और खुद ही देख लो,’’ कविता ने बैग खोला. उस में मोबाइल फोन था.

‘‘फोन, पर मैं इसे नहीं रख सकती, मम्मीपापा गुस्सा करेंगे.’’

‘‘मम्मीपापा को बताने को कौन कह रहा है. छिपा कर रखना. मैं रात को फोन किया करूंगा.’’

कविता ने ज्यादा नानुकुर नहीं की. वह बहुत खुश थी. मोहित के साथ वाली सीट पर बैठेबैठे कविता के सिर में झुरझुरी हो रही थी. उसे लग रहा था जैसे वह पिघल रही है.

‘‘मोहित, कार को वापस बस स्टैंड ले चलो, मुझे घर जाना है, रात को बात करेंगे.’’

‘‘जल्दी क्या है, थोड़ी देर बाद

चली जाना.’’

‘‘नहीं, मम्मी गुस्सा करेंगी.’’

मोहित ने कविता के मुंह पर गिरे बालों को गाड़ी चलातेचलाते अपने हाथ से पीछे किया. अब तो कविता का बुरा हाल था. मोहित का स्पर्श उसे अंदर तक करंट लगा गया. वह कुछ नहीं बोल सकी. मोहित ने उस की झुकी नजरें और शर्माता चेहरा देखा. उसे वह बहुत ही अच्छी लग रही थी. उस ने उसे बस स्टौप तक छोड़ा.

दोनों ने मुसकरा कर एकदूसरे से विदा ली.

अब दोनों के बीच फोन का दौर शुरू हो गया. 2 महीने कब बीत गए, उन्हें पता ही नहीं चला. घर में कविता के फोन की किसी को खबर तक न हुई. दोनों रातभर बातें करते. कालेज में ऐडमिशन शुरू हो गए थे. कविता और उस की बाकी सहेलियों ने भी ऐडमिशन ले लिए थे.

काफी दिनों बाद दोनों मिलने वाले थे, रोज फोन पर बात करने के बाद भी उन को एकदूसरे से मिलनेदेखने की ललक थी. कविता और मीनू ने साइंस और बाकी सहेलियों ने कौमर्स. मोहित ने भी साइंस में ऐडमिशन लिया. कुछ दिनों बाद मीनू की घर में गिरने से टांग की हड्डी टूट गई. वह 2 महीने कालेज न जा सकी. इस बात का फायदा कविता और मोहित ने पूरापूरा उठाया. मोहित कार ले कर आता. दोनों कालेज से बंक मार कर घूमने चले जाते. उम्र के इस मोड़ पर दोनों को बहकने में देर न लगी. कविता, मोहित पर खुद से ज्यादा यकीन करने लगी थी.

समय बीतता गया. एक दिन मोहित उस को घुमाने ऐसी जगह ले गया जहां जंगल था. दोनों गाड़ी से उतरे और फिर मोहित ने उस की पीठ पर हाथ रखा. कविता को करंट सा लगा, साथ में कुछ अच्छा भी लगा. वह मोहित पर विश्वास करती थी. मोहित उस के शरीर के विभिन्न हिस्सों को छूने लगा. अब तो हद हो गई. फिर मोहित ने कुछ ऐसा किया कि कविता ने कहा, ‘‘मोहित, ऐसा न करो प्लीज.’’

‘‘कुछ नहीं होगा, कविता मेरा विश्वास करो, मैं सिर्फ तुम्हीं से शादी करूंगा. क्या तुम्हें मेरा भरोसा नहीं?’’

कविता मोहित के गले लग गई. शायद दोनों के कदम बहकने के लिए इतना काफी था. दोनों का जीवन बदल गया. ऐसी मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा. अब तो मोहित उसे होटलों में ले कर जाता. 3 साल तक यह सिलसिला चलता रहा. अब वे एकदूसरे के बिना रह नहीं पाते थे.

मोहित के मांबाप को कविता पसंद थी और वे दोनों की शादी के लिए राजी हो गए. वे मोहित की खुशी में खुश थे. दोनों को अब कोई डर न रहा.

कुछ समय के बाद मोहित का लैपटौप खराब हो गया. उस ने उसे चंडीगढ़ भेजा. कुछ दिनों में उस का लैपटौप ठीक हो गया. मोहित के पापा ने उसे ला की पढ़ाई करने के लिए चंडीगढ़ भेजने का निर्णय लिया. कविता का मन दुखी हो गया तो मोहित ने कहा कि तुम भी चल पड़ो. उन्होंने झूठमूठ की जौब का बहाना बनाया. कविता ने जैसेतैसे अपने मम्मीपापा को मना लिया. उस के परिवार ने पहले तो आनाकानी की फिर सैलरी पैकेज अच्छा देख कर भेजने की स्वीकृति दे दी. वहां दोनों साथ रहने लगे. इसी दौरान एक दिन मोहित के कालेज में एक लड़के ने उसे टौंट मारी, ‘‘यार, तुम तो बहुत छिपेरुस्तम निकले. क्या मजे लिए, कौन है यह लड़की, हमें भी मिलाओ कभी.’’

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मोहित समझ न सका कौन सी लड़की की बात उस का दोस्त कर रहा है. उस ने अपनी भौंहें सिकोड़ते हुए पूछा,

‘‘कौन लड़की?’’

‘‘वही लड़की जिस के साथ तुम…’’

‘‘अरे, क्यों मसखरी कर रहा है. कोई लड़कीवड़की नहीं. तू भी न, ऐसे ही बोले जा रहा है.’’

‘‘अच्छा, तो यह कौन है, निकुल के फोन में?’’ कविता और मोहित के एमएमएस का पूरा जखीरा था. उस के पैरों तले जमीन खिसक गई.

उस ने हैरानी से पूछा, ‘‘यह तुम्हें कहां से मिला?’’

निकुल ने कहा, ‘‘यार, यह कालेज के हर एक लड़के के पास है और सुनने में आया है कि दिल्ली, चंडीगढ़, मंडी में इस की बहुत डिमांड है.’’

मोहित का हाल देखने लायक था. वह पसीने से तरबतर हो गया. पसीना पोंछ कर वह जैसेतैसे कालेज से निकला और सीधा कविता के पास गया. सारी बातें सुन कर कविता रोने लगी कि अब क्या होगा. मोहित ने कहा कि फिक्र मत करो. मैं तुम से ही शादी करूंगा लेकिन अब यहां रहना ठीक नहीं. दोनों ने घर वापस जाने का मन बनाया. दोनों ने अपनाअपना सामान पैक किया और घर से निकल पड़े. कविता बहुत डरी हुई थी.

यह क्या हो गया. फिर पता चला जहां लैपटौप ठीक करने को दिया था वहां से उन के ये कारनामे लीक हुए थे. पर अब क्या किया जा सकता था. घर जा कर मोहित ने शादी का प्रस्ताव रखा. सभी खुशी से रिश्ता ले कर कविता के घर गए. बात पक्की हुई, शादी की तारीख तय हुई लेकिन उन के प्यार को शायद उन की अपनी ही नजर लग गई. 2 दिन बाद वह मार्केट में खड़ा था, उस का दोस्त मुकेश लपक कर उस के पास आया और बोला, ‘‘मोहित, यार, भाभी के साथ शादी के पहले काफी मस्ती की तू ने.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘भोले मियां, तुम्हारा मस्ती भरा एमएमएस सारे कसबे के लड़कों के फोन में पहुंच चुका है.’’

मोहित को अब एहसास हुआ कि सभी उस की तरफ अजीब सी नजरों से क्यों देख रहे थे. मोहित के पिता तक बात पहुंची, उन्होंने शादी से मना कर दिया. फिर भी मोहित अपनी बात पर अडिग था. उस ने कविता से कोर्ट मैरिज कर ली पर अब वे कहीं आजा नहीं सकते थे. सभी ने उन का मजाक उड़ाया. उसे अपना भविष्य अंधकारमय होता दिख रहा था और कुछ ही दिनों में उस ने कविता से तलाक ले लिया.

कविता न घर की रही न घाट की, क्योंकि वह न घर जा सकती थी और न कहीं और. उस ने अपनी खुशियों के महल को स्वयं धराशायी होते देखा. वह पूरी तरह से टूट गई और खुद की नजरों से गिर गई. वह खुद को ऐसी सजा देना चाहती थी कि वह हर दिन एक मौत

मरे क्योंकि उसे प्यार करने वाला मोहित भी उस के पास न था. उस ने सोचा, लड़कों का क्या जाता है, बदनाम तो लड़कियां होती हैं. लड़के तो इतना होने पर भी सिर उठा कर चलते हैं पर लड़कियां कहां जाएं. उन को समाज जीने नहीं देता.

कविता की एक गलती से उस के परिवार की बहुत बदनामी हुई.

कई दिनों तक उस के मातापिता घर से बाहर नहीं निकले. कई बड़ेबुजुर्गों ने उन्हें समझाया, हिम्मत दी तब कहीं जा कर वे घर से बाहर निकले. जिन की कविता के परिवार वालों से नहीं बनती थी वे अपने घरों में ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए…’ गाना जोरजोर से बजाते थे. पर अब कविता का परिवार करता भी तो क्या. उन की बच्ची की एक गलती ने उन्हें अंदर तक तोड़ कर रख दिया था. और लोग धीरेधीरे यह बात भूल से गए. Hindi Story

Best Hindi Stories: तौबा

Best Hindi Stories: शेयर ट्रेडिंग और सेंसैक्स की उछाल देख कर मणिचंद ने पैसा लगा कर थोड़ा सा मुनाफा क्या कमाया कि खुद को शेयर बाजार का ‘शेर’ ही समझने लगे. लेकिन मणिचंद को असली झटका मिलना तो बाकी था. ऐसा झटका जिस ने उन के तमाम सपनों को चकनाचूर कर दिया.

मणिचंद आज बहुत खुश हैं. खुशी की वजह है कि वे बड़ीबड़ी प्रौपर्टीज को खरीदने, उन्हें मेंटेन करने से बच गए हैं. कैसे, यह जानने के लिए आप को 1 महीने पहले के फ्लैशबैक में जाना पड़ेगा. तो हुआ यों कि उन्होंने कंप्यूटर के माध्यम से ‘इंट्रा डे टे्रडिंग’ करना सीख लिया और पहले ही दिन उन्हें 2 हजार रुपए का फायदा हुआ. वैसे शाम को जब स्टेटमैंट आया तो इस 2 हजार रुपए में से 300 रुपए टैक्स, चार्ज, सरचार्ज आदि के कट गए थे और उन्हें मिलने थे 1,700 रुपए. पर यह भी घाटे का सौदा नहीं था. और घाटे का क्या, यह तो मुहावरे की भाषा हुई. इस में तो फायदा ही फायदा था. यदि मुहावरे की ही भाषा में कहें तो हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए. मात्र 30 हजार रुपए सिक्योरिटी टे्रडर के पास लिएन (शेयर के सौदों के लिए जमा रकम) रख कर वे 1,700 रुपए कमा रहे थे और वह भी पहले ही दिन.

उन्होंने फैसला किया कि आगे चल कर वे लिएन की रकम बढ़ा देंगे और साथ ही टे्रडिंग का वौल्यूम भी बढ़ाएंगे. उन के हिसाब से वे रोज 10 हजार रुपए और महीने में तकरीबन 2 लाख 20 हजार रुपए कमा लेंगे. यह हिसाब लगाने में उन्होंने बड़ी ही उदारतापूर्वक हफ्ते में 5 ही दिन जोड़े थे जिन दिनों शेयर बाजार खुले रहते हैं. इस तरह साल में रकम हो जाएगी करीब 25 लाख रुपए. फिर तो प्लौट खरीदा जाएगा, बिल्ंिडग बनेगी, खूब मौजमस्ती से जिंदगी कटेगी. कार भी नए मौडल की और कीमती ही आएगी. आखिर, आय के मुताबिक ही स्टैंडर्ड औफ लिविंग होना चाहिए न. वैसे तो कई और भी चीजें हैं जो छिपाए नहीं छिपतीं लेकिन उन में एक अहम चीज है खुशी. लाभ की खुशी को वे छिपा नहीं पाए व अपने सहकर्मियों को इस के बारे में बताया. खुशी की बात बताएं और सहकर्मी पार्टी की फरमाइश न करें, यह कैसे हो सकता है? सो, पार्टी में भी 200-400 रुपए शहीद हो ही गए.

अगले 2 दिनों में लाभ कम सही, पर हुआ. लेकिन गुरुवार के दिन, जिसे वे अपने लिए न जाने किन कारणों से शुभ माना करते थे, बड़ी हानि हुई. दरअसल, पंडेपुरोहितों ने उन्हें उन की ग्रहदशा देख कर बताया था कि देवों के गुरु बृहस्पति की उन पर बड़ी कृपा है और उस दिन केले के वृक्ष में पानी देने, काली गाय को गुड़ खिलाने व पीले वस्त्र धारण करने से उन्हें काफी लाभ होगा. साथ ही, उन्हें अंगूठी, ताबीज भी हजार 2 हजार रुपए में दिए गए थे. परंतु पंडेपुरोहितों की बताई बातें उन के अनुकूल न बैठ कर प्रतिकूल साबित हुईं. शुक्रवार को भी यही क्रम जारी रहा और इन 3 दिनों में उन्होंने जो भी कमाया था, उस पर पानी फिर गया, फ्लश चल गया यानी जो भी लाभ हुए थे वे हानि के चलते रद्द कर दिए गए.

वहीं, अगले 3 दिनों तक वे फिर 400-500 रुपए लाभ कमाते रहे. पर बुरा हो पंडों के बताए शुभ दिन गुरुवार का, ऐसा गच्चा लगा कि 10 हजार रुपए शहीद हो गए. शायद, उस दिन बजट प्रस्तुत किया गया था. इस के असर से सेंसैक्स यह गुनगुनाते हुए कि ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठइयो’ ऐसा रपटा, ऐसा फिसला कि सचमुच उसे उठाने की कोई आशा नहीं रही. ऐसा लग रहा था मानो भारतीय क्रिकेट टीम बैटिंग कर रही हो और विकेट पतझड़ के पत्तों के समान गिर रहे हों. इतना ही नहीं, जंगल की आग की तरह खबर उन के औफिस में फैल गई कि आज मणिचंद को 10 हजार रुपए का गच्चा लगा है. लोगों के पास वैसे भी आज अपने सुख पर खुश होेने का मौका कहां मिलता है, अगर मिलता भी है तो, सच पूछा जाए तो इस से सच्ची खुशी मिलती नहीं है. दूसरे के दुख से जो खुशी मिलती है उस से कोई वंचित नहीं रहना चाहता. सभी बारीबारी से मणिचंद के पास आते, उन से सहानुभूति जताते वक्त अपने चेहरे की खुशी को छिपाने की हरसंभव, पर नाकाम कोशिश करते.

मणिचंद समझते तो थे कि लोग उन के जले पर तेजाबयुक्त नमक का मरहम लगाने आए हैं पर करते क्या. इस पुनीत कार्य में वे लोग खासतौर से लगे हुए थे जो खुद कभी शेयर बाजार की बेवफाई से देवदास बन गए थे. जिस ने जितनी बड़ी बेवफाई झेली थी वह उतना ही मणिचंद के पास बैठ कर शेयर बाजार के चालचलन की निंदा करता. मणिचंद जितना चाहते कि इस घटना पर चर्चा न की जाए उतना ही लोग उस पर चर्चा करते. बेचारे ऊपर से दिखलाने की कोशिश करते कि उन्हें ऐसी छोटीमोटी बातों की परवा नहीं होती. लाभहानि तो लगी रहती है. लेकिन उन का दिल जानता था कि 10 हजार रुपयों का अर्थ है आधे महीने का वेतन. मन ही मन वे उस घड़ी को कोस रहे थे जब उन्होंने शेयर के कारोबार में हाथ डालने का फैसला किया था. एक ओर उन का दिल कहता था कि शेयर बाजार से तौबा कर लें पर जो नुकसान हो चुका था उस की भरपाई वे कैसे करेंगे, इस चिंता में वे चिंतनशील होना चाहते थे लेकिन हितैषियों के ‘शुभ परामर्श’ की बौछार से ऐसे करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे.

अब मणिचंद ने ठान लिया है कि वे टे्रडिंग नहीं करेंगे. इस का सब से बड़ा लाभ उन्हें यही दिख रहा है कि उन्हें बड़ीबड़ी प्रौपर्टीज खरीदने, महंगी विदेशी कार खरीदने, नौकरचाकर रखने, सुरक्षा इंतजाम करने से छुट्टी मिल जाएगी और छुट्टी भी ऐनवक्त पर मिल जाएगी. उन्होंने इन प्रौपर्टीज के ऊपर किसी प्रकार का समय और धन अभी तक खर्च करना शुरू नहीं किया था. करते भी कैसे. जो 30 हजार रुपए की रूंजीपूंजी उन के पास थी, वह सिक्योरिटी टे्रडर के पास गिरवी पड़ी थी और उस में से 10 हजार रुपए तो घाटे वाले दिन कट गए थे. इस के पहले के उन के तजरबों को जानना भी कम रुचिकर नहीं होगा. दरअसल, उन्होंने जब पहली बार डीमैट खाता खोला था और उन्हें पता चला था कि इंटरनैट बैंकिंग के जरिए शेयर खरीदेबेचे जा सकते हैं तो उन्हें लगा था कि बहुत बड़ी कला उन के हाथ लग गई है. आईपीओ के जितने भी औफर आते उन में वे मुक्तहस्त हो कर कोष लगा देते. एक आईपीओ में उन्होंने 6 हजार रुपए लगाए थे जो 3 महीनों के अंदर 15 हजार रुपए हो गए थे. अब तो उन के वारेन्यारे हो रहे थे. यह बात आज से तकरीबन

3 साल पहले की है. उस समय सेंसैक्स खुशहाल स्थिति में था. रोजाना ऐसे बढ़ रहा था मानो रुकने का नाम ही नहीं लेगा. ऐसी स्थिति में बेचारे मणिचंद बहती गंगा में हाथ कैसे न धोते. जब 6 हजार रुपए बढ़ कर 15 हजार हो सकते हैं तो क्यों न बड़ी रकम लगाई जाए. पीएफ फंड से कर्ज ले कर उन्होंने 1 लाख 25 हजार लगा दिए. उन के हिसाब से बहुत जल्द यह रकम दूनी होने वाली थी. लेकिन बुरा हो सेंसैक्स का, जिस तेजी से ऊपर की ओर गया था उसी तेजी से नीचे की ओर जाने लगा. घटतेघटते 16 हजार के आंकड़े के भी नीचे आ गया. उन के द्वारा लगाई गई रकम दूनी होने के स्थान पर आधी हो गई और उस में भी लगातार उतार जारी था. पीएफ पर लिए गए कर्ज पर सूद अलग से लग रहा था. घबराहट में उन्होंने सारे शेयर बेच दिए. उस दिन के बाद से उन्होंने शेयर बाजार की ओर रुख नहीं किया था.

लेकिन इधर, धीरेधीरे ही सही सेंसैक्स में सुधार हो रहा था. इसी बीच उन्होंने एक सहकर्मी को इंट्रा डे टे्रडिंग करते और उस में मुनाफा कमाते देखा था तो पुराने जख्म को भूल कर वे फिर से कमर कस कर तैयार हो गए थे और शुरुआती कामयाबी के बाद जो झटका लगा उस से उबरने में उन्हें काफी परेशानी हो रही थी. लेकिन दिल को तसल्ली देने के लिए वे इस के लाभ देख रहे थे कि उन्हें बड़ी प्रौपर्टीज से संबंधित झंझटों से छुटकारा मिल गया था. इस प्रकार वे आज बड़े ही खुश हैं और आप भी उन्हें इतने बड़ेबड़े झंझटों से निजात पाने के ‘शुभ अवसर’ पर बधाई दे ही डालिए. Best Hindi Stories

Hindi Short Stories: अनाम कसबे का एंग्री ओल्डमैन

Hindi Short Stories: सामयिक घटनाओं पर ओजपूर्ण और क्रांतिकारी कमैंट्री करने वाले नागो दादा ने जब बासमती चावल का भाव सुना तो उन्हें क्रांति के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखा. लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने राजनीतिक कमैंट्री तो जारी रखी लेकिन क्रांति की बात करनी छोड़ दी और हिंसक विचारों का पूरी तरह परित्याग कर दिया.

‘‘एक राउंड और चाय पिला  दो,’’ अखबार को मोड़ कर बगल की कुरसी पर लुढ़कते हुए नागो दादा ने कहा तो उन की पत्नी नीलिमा भड़क उठीं.

‘‘सुबह से खाली पेट 5 कप चाय पी चुके हैं. अल्सर हो जाएगा तो डाक्टर और अस्पताल का चक्कर लगाते रहिएगा. डायबिटीज तो हो ही चुकी है और क्याक्या बीमारी पालिएगा. मेरा तो जीवन बरबाद हो गया समझो. घर वालों ने किस के पल्ले बांध दिया है,’’ बड़बड़ाती हुई नीलिमा अंदर जाने लगीं.

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‘‘कभी तो अच्छा बोला करो. चाय पिए बिना प्रैशर बनता ही नहीं, क्या करें.’’

‘‘प्रैशर, हुंह, शरीर न हुआ स्टीम इंजन हो गया…’’

‘‘जाने दो, तुम को तकलीफ है तो हम खुद ही बना लेते हैं. नहीं तो शनि को बोल दो, बना देगी.’’

‘‘उस को पढ़नेलिखने दीजिएगा या नहीं. दिनरात आप ही की सेवा में लगी रहेगी तो कंपीटिशन की तैयारी क्या खाक करेगी. हमारी जिंदगी का तो जो हाल किया सो किया, उस को तो चैन से रहने दीजिए. चाय बना देती हूं लेकिन इस के बाद 3-4 घंटे चाय तो चाय, उस की पत्ती भी देखने को नहीं मिलेगी.’’

‘‘ठीक है भई, अभी तो दो.’’

यह रोज की दिनचर्या थी. नागो दादा दिन के एकडेढ़ बजे तक चाय पर चाय पीते जाते और 2-3 बजे तक तैयार हो कर खाना खाते. फिर अपनी बाइक ले कर निकल जाते.

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60 के लपेटे में पहुंचे नागो दादा अपने आधेअधूरे ज्ञान के बावजूद अंधों में काना राजा बने हुए थे. उन्हें कसबे के लोग बहुत बड़ा चिंतक और विद्वान समझते थे. उन की वाक्कला अद्भुत थी. कोई भी बात इतनी लच्छेदार भाषा में इतने तरीके से कहते कि अच्छेअच्छे लोग दंग रह जाते. कम पढ़ेलिखे लोग तो उन के सामने नतमस्तक रह जाते. इसीलिए उन्हें नागो दादा कहा जाने लगा. उन का असली नाम क्या है, कोई नहीं जानता. आदिवासियों की बहुलता वाले उस इलाके में नागो दादा की पूछ का एक और बड़ा कारण था उन का हिंदी और अंगरेजी का ज्ञान, जिस के तहत वे प्रखंड या अनुमंडल कार्यालय में जरूरतमंदों के लिए आवेदन लिख देते थे. इस के एवज में कुछ नकद प्राप्ति भी हो जाती थी. उन्हें मांगना नहीं पड़ता था. लोग जातेजाते खुद ही उन की जेब में डाल जाया करते थे. वे थोड़ा नानुकर करते, फिर रख लेते.

उन की बाइक सब से पहले कल्लू चायवाले की दुकान पर रुकती थी, जहां उपस्थित लोगों के बीच वे सामयिक घटनाओं पर अपनी मौखिक टिप्पणी पेश किया करते. उन की टिप्पणियां बहुत ओजपूर्ण और क्रांतिकारी हुआ करतीं. उन की कमैंट्री राष्ट्रीय स्तर से शुरू हो कर पंचायत स्तर तक आती थी. अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को आमतौर पर नहीं छूते थे क्योंकि वे उन की समझ के बाहर होते थे. कुछ सतही बातें जरूर कभीकभार कह जाते थे. चीन को वे भारत का सब से बड़ा दुश्मन समझते थे और आतंकवादियों का असली संरक्षक उसी को बताते थे.

उन की बुरी आदतों से लोग परिचित थे. उन्हें पता था कि वे शाम को थोड़ी सी मदिरा पीना पसंद करते थे. इसलिए कोई न कोई उन की शाम की व्यवस्था का जिम्मा उठा ही लेता था. वे जब पीने बैठते और अपनी राजनीतिक कमैंट्री शुरू करते तो कितनी पी गए, यह ध्यान न रहता. अकसर उन्हें उन की बाइक सहित घर पहुंचाना पड़ता. जिस दिन ऐसा होता, नीलिमा देवी इतनी खरीखोटी सुनातीं कि उन का सारा नशा काफूर हो जाता. सप्ताह में ऐसा दिन आ ही जाता. उन्होंने कई बार कोशिश की कि नीलिमा भी मदिरा का स्वाद चख ले. इस में वे कामयाब भी हुए लेकिन इस के बाद उन की जबान, जो आमतौर पर कैंची की तरह चलती है, एके-47 की तरह गोलियां बरसाने लगी. बस, फिर उन्होंने ऐसी कोशिशों को तिलांजलि दे दी.

नागो दादा मूल रूप से बिहार के रहने वाले थे. 20-25 साल पहले उन्होंने झारखंड के एक इलाके में आ कर क्रेशर मशीन लगाई थी. इसी इलाके के स्लीपर कारखाने को स्टोन चिप्स की सप्लाई करते थे. लेकिन आदतें वही थीं जो आज हैं. दिन के 2-3 बजे तक वर्कशौप पहुंचते थे. इस बीच कितना पत्थर टूटा, कितना माल भेजा गया, इस की देखभाल के लिए एक सुपरवाइजर नियुक्त था.

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वे कहा करते थे कि टाटा, बिड़ला अपने कारखानों में कभी जाते हैं भला. मैं तो फिर भी रोज चला आता हूं. उन के पहुंचने के बाद फिर वही जमघट. मजदूर थोड़ा रिलैक्स नहीं करेंगे तो बढि़या रिजल्ट कैसे देंगे, उन का मानना था. वे सबकुछ करते थे लेकिन पत्थर तोड़े जाने से उड़ने वाली धूल से अपने श्वसन तंत्र की रक्षा का कोई उपाय नहीं करते थे. नतीजतन, 4-5 वर्षों तक के्रशर चलाने के बाद उन्हें हंफनी की शिकायत होने लगी. के्रशर को ठेके पर दे कर उन्होंने किसी तरह अपनी जान छुड़ाई.

के्रशर से तो जान छूटी लेकिन हंफनी की बीमारी ने 30 वर्ष गुजर चुकने के बाद भी उन की जान नहीं छोड़ी. अभी भी वे टे्रन या बस की सीट पर बैठ कर यात्रा नहीं कर पाते. वे अमूमन तो कहीं आनाजाना पसंद नहीं करते. जाना ही पड़े तो गेट पर खड़े रह कर आवागमन करते हैं. क्रेशर का धंधा छोड़ने के बाद नागो दादा ने कई तरह के पापड़ बेले. कभी पत्ताप्लेट बनाने का काम किया, कभी हाफडाला पुराना ट्रक खरीद कर लोकल माल ढुलाई का काम करने लगे तो कभी बंगला भट्ठा लगा कर ईंट निर्माण का धंधा किया.

अपनी कार्यशैली के कारण वे किसी धंधे का सही ढंग से संचालन नहीं कर सके. हर धंधे में घाटा लगता गया. इस की क्षतिपूर्ति के लिए वे बिहार में ननिहाल से मिले खेत बेचते गए. इस चक्कर में अपने बड़े भाई से मनमुटाव कर बैठे. यहां तक कि किसी प्रकार का लेनदेन, आनाजाना भी बंद कर चुके हैं. नागो दादा के इलाके के काफी लोग स्लीपर फैक्टरी में काम करते हैं. उन से उन की बातचीत भी है लेकिन उन में से किसी से उन की पटती नहीं क्योंकि वे उन का प्रवचन नहीं सुनते. दूसरे सीधेसादे ग्रामीणों के सामने वे कुछ भी शेखी बघार सकते हैं, वे आपत्ति नहीं करते. मध्य बिहार के लोग तुरंत बात काट कर थीसिस का ऐंटी थीसिस प्रस्तुत करने लगते हैं. दादा अपनी बातों से किसी तरह की असहमति बरदाश्त नहीं कर पाते. उन का सामाजिक दायरा भोलेभाले आदिवासियों से शुरू हो कर उन्हीं पर खत्म हो जाता है.

इलाके में तमाम आर्थिक उठापटक के बाद भी नागो दादा ने अपनी 2 बेटियों और 1 बेटे को बेहतर परवरिश और शिक्षा प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बेटे को कंप्यूटर इंजीनियरिंग का कोर्स कराने के लिए हैदराबाद भेजा. अब उन्हें क्या पता था कि उस कालेज की मान्यता संदिग्ध है और उस में प्लेसमैंट की संभावना नहीं के बराबर है. इन बातों की जानकारी खुद विद्यार्थी को रखनी चाहिए. उन्होंने तो अपना कर्तव्य निभाया. उस ने जबजब जितने पैसे की मांग की, वे कहीं से भी इंतजाम कर के भेजते गए. झारखंड के एक छोटे से कसबे में बैठ कर वे कैसे जान सकते थे कि उन के बेटे ने शराब पीने और खानेपीने के अलावा कई तरह के रईसाना शौक पाल लिए हैं. उसे लैपटौप की जरूरत थी, उन्होंने खरीद दिया. अब नागो दादा कैसे जान सकते थे कि वह लैपटौप पर पढ़ाई करता है या फिर फिल्म

डाउनलोड कर के देखता है या फिर फेसबुक पर मित्र बनाने, चैटिंग करने में ज्यादा समय बरबाद करता है. नागो दादा के जमाने में कंप्यूटर और लैपटौप कहां थे इसीलिए जब बेटा घर आता और रातरात भर लैपटौप पर व्यस्त रहता तो उन की छाती फूल जाती कि बेटे का पढ़ाई में कितना मन लगता है. बेचारा ठीक से सो भी नहीं पाता. जरूर उन का नाम ऊंचा करेगा. अब वे क्या जानते थे कि रातभर वह लैपटौप पर करता क्या है. बहरहाल, समय बीतते देर ही क्या लगती है. 4 वर्ष का समय गुजर गया. उस की पढ़ाई पूरी हो गई. उस ने बताया कि कई कंपनियों ने इंटरव्यू लिया है. कौललैटर आता ही होगा. लेकिन इस बीच उसे बेंगलुरु में रहना होगा, वहां आईटी का जबरदस्त स्कोप है.

नागो दादा ने उसे कमरा खोजने के लिए कहा. वह हैदराबाद से बेंगलुरु आ गया. एक बार वह इंटरव्यू के लिए चेन्नई गया हुआ था. नागो दादा ने मोबाइल पर पूछा कि पैसे हैं या नहीं? उस ने अपने एक मित्र के खाते में 1 हजार रुपए भेजने को कहा. नागो दादा ने पुत्रमोह से ग्रसित हो कर उदारतापूर्वक 2 हजार रुपए भेज दिए. तीसरे दिन फोन आया कि बेंगलुरु लौटने का किराया नहीं है, कुछ और पैसे भेज दीजिए. नागो दादा ने पूछा कि2 हजार रुपए का क्या हुआ? उस ने बताया कि उस का सैलैक्शन हो गया तो दोस्तों को पार्टी देनी पड़ गई. उन्होंने पूछा कि कौललैटर कब तक आएगा?

तो उस ने बताया कि एकडेढ़ महीने में आ जाएगा. 6 महीने बीतने के बाद भी जब कौललैटर नहीं आया और किसी कंपनी ने याद नहीं किया तो नागो दादा ने उसे अपने पास लौट आने और यहीं रह कर कंपीटिशन की तैयारी करने को कहा. मन मसोस कर वह वापस तो लौट आया लेकिन इंटरव्यू और परीक्षा के बहाने कभी कोलकाता तो कभी चेन्नई का चक्कर लगाने का जुगाड़ करता रहा. बाद में नागो दादा ने अपने उन बड़े भाई, जिन से सारे संबंध तोड़ चुके थे, के बेटे यानी अपने भतीजे से कह कर उस के लिए दिल्ली में छोटीमोटी नौकरी की व्यवस्था करा दी.

नागो दादा की छोटी बेटी पढ़ने में तेज थी. उस ने कई प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने के बाद एक बहुराष्ट्रीय बैंक में अच्छी नौकरी प्राप्त कर ली. बड़ी बेटी को भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए हर सहूलियत दी लेकिन अभी तक उसे सफलता नहीं मिली. उस के लिए नागो दादा को चिंता लगी रहती थी. लेकिन अपनी दिनचर्या में चिंतित होने का वक्त उन्हें बहुत कम मिलता था. वे भूतकाल में खूब विचरण करते थे. कोई सुनने वाला मिल जाए तो संस्मरणों की बौछार कर देते थे. बढ़ती महंगाई की उन्हें ज्यादा चिंता नहीं होती थी क्योंकि उन के दिमाग में जो अंतिम मूल्यतालिका थी वह 1970 के आसपास की थी. आमतौर पर खरीदारी नीलिमा देवी और शनि ही करती थीं. एक बार नागो दादा चावल खरीदने गए. दुकानदार से पूछा, ‘बासमती क्या भाव है?’ दुकानदार ने बतलाया,

‘55 रुपए किलो, कितना दूं?’ तो नागो दादा भड़क उठे, ‘लूट मचा रखी है तुम ने. हम ने 7 रुपए किलो बासमती खाया है. इतना दाम कहीं बढ़ता है.’ दुकानदार ने मुसकराते हुए पूछा, ‘किस जमाने की बात कर रहे हैं, दादा?’

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‘जमाने की, 77-78 तक तो यही भाव था.’

‘यह 2014 है, दादा. जाने दीजिए. भाभीजी को भेज दीजिएगा, वही चावल ले जाएंगी.’

नागो दादा बड़बड़ाते हुए दुकान के बाहर निकल आए.

‘अब इस देश के लोगों को हथियार उठाना होगा. क्रांति के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. मंत्रियों को शूट करना होगा. दहशत फैलानी होगी तभी वे रास्ते पर आएंगे.’

उस दिन शाम को नागो दादा लोगों को समझा रहे थे. एक माओवादी युवक उन की बातें गौर से सुन रहा था.

अगले दिन वह ऐन उस वक्त उन के सामने उपस्थित हुआ जब वे अपने घर से बाहर निकलने के लिए बाइक स्टार्ट कर रहे थे.

‘दादा, कल आप की बात से काफी प्रभावित हुआ हूं. क्या आप हम लोगों के बीच चल कर अपनी बात रखना चाहेंगे?’

‘कहां?’

‘जंगल में. वहां कैडर भी मिलेंगे और हथियार भी.’

‘तुम माओवादी हो क्या?’

‘वही समझ लीजिए.’

‘माफ करना, भाई, अभी कुछ काम है, बाद में बात करेंगे.’

‘फिर कब आऊं?’

‘तुम्हारे आने की जरूरत नहीं है. मैं खुद ही बात कर लूंगा.’

युवक मुसकराते हुए चल दिया.

नागो दादा ने उस दिन से क्रांति की बात करनी छोड़ दी. राजनीतिक कमैंट्री जरूर जारी रही लेकिन उन्होंने हिंसक विचारों का पूरी तरह परित्याग कर दिया. Hindi Short Stories

Stories Hindi: चिराग नहीं बुझा

Stories Hindi: गोंडू लुटेरा उस कसबे के लोगों के लिए खौफ का दूसरा नाम बना हुआ था. भद्दे चेहरे, भारी डीलडौल वाला गोंडू बहुत ही बेरहम था. वह लोफरों के एक दल का सरदार था. अपने दल के साथ वह कालोनियों पर धावा बोलता था. कहीं चोरी करता, कहीं मारपीट करता और जोकुछ लूटते बनता लूट कर चला जाता. कसबे के सभी लोग गोंडू का नाम सुन कर कांप उठते थे. उसे तरस और दया नाम की चीज का पता नहीं था. वह और उस का दल सारे इलाके पर राज करता था.

पुलिस वाले भी गोंडू लुटेरा से मिले हुए थे. पार्टी का गमछा डाले वह कहीं भी घुस जाता और अपनी मनमानी कर के ही लौटता. गोंडू का मुकाबला करने की ताकत कसबे वालों में नहीं थी. जैसे ही उन्हें पता चलता कि गोंडू आ रहा है, वे अपनी दुकान व बाजार छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए इधरउधर छिप जाते. यह इतने लंबे अरसे से हो रहा था कि गोंडू और उस के दल को सूनी गलियां देखने की आदत पड़ गई थी.

बहुत दिनों से उन्होंने कोई दुकान नहीं देखी थी जिस में लाइट जल रही हो. उन्हें सूनी और मातम मनाती गलियों और दुकानों के अलावा और कुछ भी देखने को नहीं मिलता था. एक अंधेरी रात में गोंडू और उस के साथी लुटेरे जब एक के बाद एक दुकानों को लूटे जा रहे थे तो उन्हें बाजार खाली ही मिला था.

‘‘तुम सब रुको…’’ अचानक गोंडू ने अपने साथियों से कहा, ‘‘क्या तुम्हें वह रोशनी दिखाई दे रही है जो वहां एक दुकान में जल रही है?

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‘‘जब गोंडू लूटपाट पर निकला हो तो यह रोशनी कैसी? जब मैं किसी महल्ले में घुसता हूं तो हमेशा अंधेरा ही मिलता है.

‘‘उस रोशनी से पता चलता है कि कोई ऐसा भी है जो मुझ से जरा भी नहीं डरता. बहुत दिनों के बाद मैं ने ऐसा देखा है कि मेरे आने पर कोई आदमी न भागा हो.’’

‘‘हम सब जा कर उस आदमी को पकड़ लाएं?’’ लुटेरों के दल में से एक ने कहा.

‘‘नहीं…’’ गोंडू ने मजबूती से कहा, ‘‘तुम सब यहीं ठहरो. मैं अकेला ही उस हिम्मती और पागल आदमी से अपनी ताकत आजमाने जाऊंगा.

‘‘उस ने अपनी दुकान में लाइट जला कर मेरी बेइज्जती की है. वह आदमी जरूर कोई जांबाज सैनिक होगा. आज बहुत लंबे समय बाद मुझे किसी से लड़ने का मौका मिला है.’’

जब गोंडू दुकान के पास पहुंचा तो यह देख कर हैरान रह गया कि एक बूढ़ी औरत के पास दुकान पर केवल 12 साल का एक लड़का बैठा था.

औरत लड़के से कह रही थी, ‘‘सभी लोग बाजार छोड़ कर चले गए हैं. गोंडू के यहां आने से पहले तुम भी भाग जाओ.’’

लड़के ने कहा, ‘‘मां, तुम ने मुझे जन्म  दिया, पालापोसा, मेरी देखभाल की और मेरे लिए इतनी तकलीफें उठाईं. मैं तुम्हें इस हाल में छोड़ कर कैसे जा सकता हूं? तुम्हें यहां छोड़ कर जाना बहुत गलत होगा.

‘‘देखो मां, मैं लड़ाकू तो नहीं??? हूं, एक कमजोर लड़का हूं, पर तुम्हारी हिफाजत के लिए मैं उन से लड़ कर मरमिटूंगा.’’

एक मामूली से लड़के की हिम्मत को देख कर गोंडू हैरान हो उठा. उस समय उसे बहुत खुशी होती थी जब लोग उस से जान की भीख मांगते थे, लेकिन इस लड़के को उस का जरा भी डर नहीं.

‘इस में इतनी हिम्मत और ताकत कहां से आई? जरूर यह मां के प्रति प्यार होगा,’ गोंडू को अपनी मां का खयाल आया जो उसे जन्म देने के बाद मर गई थी. अपनी मां के चेहरे की हलकी सी याद उस के मन में थी.

उसे अभी तक याद है कि वह किस तरह खुद भूखी रह कर उसे खिलाती थी. एक बार जब वह बीमार था तब वह कई रात उसे अपनी बांहों में लिए खड़ी रही थी. वह मर गई और गोंडू को अकेला छोड़ गई. वह लुटेरा बन गया और अंधेरे में भटकने लगा.

गोंडू को ऐसा महसूस हुआ कि मां की याद ने उस के दिल में एक रोशनी जला दी है. उस की जालिम आंखों में आंसू भर आए. उसे लगा कि वह फिर बच्चा बन गया है. उस का दिल पुकार उठा, ‘मां… मां…’

उस औरत ने लड़के से फिर कहा, ‘‘भाग जाओ मेरे बच्चे… किसी भी पल गोंडू इस जलती लाइट को देख कर दुकान लूटने आ सकता है.’’

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तभी गोंडू दुकान में घुसा. मां और बेटा दोनों डर गए.

गोंडू ने कहा, ‘‘डरो नहीं, किसी में इस लाइट को बुझाने की ताकत नहीं है. मां के प्यार ने इसे रोशनी दी है और यह सूरज की तरह चमकेगा. दुकान छोड़ कर मत जाओ.

‘‘बदमाश गोंडू मर गया है. तुम लोग यहां शांति से रहो. लुटेरों का कोई दल कभी इस जगह पर हमला नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन… लेकिन, आप कौन हैं?’’ लड़के ने पूछा.

वहां अब खामोशी थी. गोंडू बाहर निकल चुका था.

उस रात के बाद किसी ने गोंडू और उस के लुटेरे साथियों के बारे में कुछ नहीं सुना.

कहीं से उड़ती सी खबर आई कि गोंडू ने कोलकाता जा कर एक फैक्टरी में काम ले लिया था. उस के साथी भी अब उसी के साथ मेहनत का काम करने लगे थे. Stories Hindi

Best Story: कसूर किस का था? (आखिरी भाग)

पिछले अंकों में आप ने पढ़ा था. Best Story: मेहुल की शराब पीने की लत के चलते राधिका राजन के नजदीक आ गई. वह अपने पति का घर छोड़ कर उस के साथ रहने लगी. थोड़े दिन तक तो सब ठीक रहा, पर बाद में राजन का असली रूप सामने आया. वह उसे अपने काम के लिए दूसरों को परोसना चाहता था. इस तरह वह धीरेधीरे कालगर्ल बन गई. एक दिन राधिका किसी से मिलने होटल गई. वहां उस के सामने उस का बेटा आ गया. वह घबरा कर वापस हो ली.

अब पढ़िए आगे…

‘‘ठीक है, उन्हें चाय वगैरह सर्व करो. मैडम अभी तैयार हो कर आ रही हैं,’’ कह कर राजन कमरे से बाहर आ गया.

राधिका ने जैसे ही ड्राइंगरूम में कदम रखा, सामने नजर पड़ते ही ऐसे तड़प उठी, जैसे भूल से जले तवे पर हाथ रख दिया हो.

वह घबरा कर वापस जाने लगी, तभी उस के कानों में अमृत घोलती

एक आवाज गूंजी, ‘‘मम्मी, मैं आप का बंटी… आप को कहांकहां नहीं ढूंढ़ा हम ने? आखिरकार आप मिल ही गईं,’’ इतना कह कर वह राधिका से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगा.

बंटी रोतेरोते ही कहने लगा, ‘‘मम्मी, आप के बगैर पापा ने भी अपनी कैसी हालत बना ली है, कितने साल बीत गए… आप के बगैर जीते हुए. अब मैं एक पल भी आप के बगैर नहीं रह सकता. प्लीज मम्मी, घर लौट चलो. आप को लिए बगैर मैं यहां से नहीं जाऊंगा.’’

जब होटल में राधिका ने बंटी को देखा, जो बिलकुल मेहुल की शक्ल पाए हुए था. उसे लगा कि उस ने ममता के रिश्ते में भी तेजाब घोल दिया. अगर उस की शक्ल हूबहू न होती, तो वह तो… उस के आगे वह नहीं सोच पाई.

उधर राधिका जब मेहुल को छोड़ कर चली गई थी, तब वह एकदम टूट सा गया था. वह उसे बहुत प्यार करता था. निराशा व हताशा से बेहाल मेहुल ने सारा कारोबार समेटा और बेंगलुरु की किसी अनाम जगह पर चला गया. अब वह अपने बेटे बंटी के लिए जी रहा था. सुबह उसे तैयार कर के स्कूल भेजता, फिर अपने दफ्तर जाता, जल्दी काम निबटा कर वह फिर घर लौटता.

धीरेधीरे सारे काम घर में मोबाइल फोन से ही करने लगा. बंटी को भी पापा का ढेर सारा प्यार पा कर लगा कि जैसे अपनी मम्मी को भूलने लगा है, पर वह भूला नहीं था.

कभीकभी बंटी पूछ ही बैठता, ‘पापा, मम्मी कहां गई हैं?’

तब मेहुल की बेबसी से आंखें भर आतीं, फिर मासूम बंटी को सीने से लगा कर रो पड़ता. उस ने सोचा कि ढूंढ़ा तो उसे जाता है, जो खो जाता है. जो खुद ही छिप गया हो, उसे ढूंढ़ कर क्यों परेशान करूं?

जैसे ही बंटी बड़ा हुआ, उस का भी एमबीए का कोर्स अभीअभी पूरा हुआ था. वह अपनी मम्मी की तलाश में लगा. वह पापा मेहुल को सैमिनार है बोल कर कोलकाता गया, जहां पहले मम्मीपापा के साथ रहता था बचपन में. वहीं से पता चला कि मम्मी मुंबई में हैं. शायद तभी से वह मुंबई में आ कर तलाश करने लगा.

एक दिन एक होटल में उस ने राजन के साथ राधिका को देखा. वहां से सारी जानकारी हासिल की. फिर अपनी मम्मी से मिलने का प्लान बनाया. और कुछ तो समझ में नहीं आया कि कैसे मिले?

वह राधिका को शर्मिंदा नहीं करना चाहता था. और कोई चारा भी तो नहीं था उस के पास, लेकिन अफसोस, मेहुल का हमशक्ल होने से बाजी पलट गई. उस की सूरत देखते ही राधिका लौट गई. वह तुरंत पहचान जो गई थी.

‘‘मम्मी, मेरी सूरत देख कर आप मुझे तुरंत पहचान गईं और आप लौट गईं. मम्मी, मेरा इरादा आप को परेशान करने का नहीं था. पापा भी आप के जाने के बाद एकदम टूट से गए हैं. वे तिलतिल कर मर रहे हैं.

‘‘मैं उन्हें ऐसे घुटतेतड़पते नहीं देख सकता था. उन्हें भी अपनी गलतियों का एहसास हो गया है. वैसे, वे मुझ पर जताते नहीं हैं कि वे दुखी हैं, मैं जानता हूं कि पापा आप को बहुत प्यार करते हैं और आप के बगैर अकेले जी रहे हैं. वे भी मेरे साथ आए हैं, बाहर खड़े हैं.’’

एक ही जगह मूर्ति सी खड़ी राधिका किस मुंह से मेहुल के सामने जाती? उस से नजरें मिलाती? उस ने बेजान, थके हाथों से बंटी को अपने से अलग किया. उस की आंखें पथरा सी गई थीं. लग रहा था कि उन आंखों में भावनाएं नहीं हैं.

इतने में मेहुल भी भीतर आ गया. कितना बीमार, थकाथका, लाचार सा लग रहा था. राधिका के दिल में कुछ टूटने, पिघलने लगा. मन दर्द से भर उठा. मेहुल का क्या कुसूर? पर वह इस कलंकित देह के साथ कैसे आगे बढ़ती?

राजन तो मेहुल को देख कर शर्म से पानीपानी हुए जा रहा था. दोस्त हो कर पीठ में छुरा घोंपने का अपराध जो किया था, इसलिए नजरें न मिला कर एक ओर सिर झुकाए खड़ा रहा.

मेहुल थके कदमों से राधिका के करीब आया और अपने दोनों हाथ जोड़ लिए. मेहुल ने कहा, ‘‘सच राधिका, इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है. मेरी ही नादानी की वजह से हमारा बच्चा हम दोनों की परवरिश नहीं पा सका, लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है.

‘‘हम दोनों मिल कर अब भी अपने बेटे बंटी को अच्छे संस्कार देंगे. उसे कारोबार में फलतफूलता देखेंगे. अभी तो उस की शादी करनी है. उन के प्यारेप्यारे बच्चों को गोद में खिलाना है.’’

‘‘नहीं मेहुल, यह अब कभी नहीं हो सकता… मैं चाह कर भी इस दलदल से बाहर नहीं आ सकती. मैं इस लायक ही नहीं रह गई हूं कि तुम्हारे साथ जा सकूं.’’

अपने भर आए गले को खंखारते हुए राधिका फिर बोली, ‘‘मेहुल, जब बदन का कोई अंग सड़ जाता है, तो उस को काट कर अलग कर दिया जाता है, नहीं तो पूरे जिस्म में जहर फैल जाता है. मैं अब वह दाग हूं, जिसे सिर्फ छिपाया और मिटाया जा सकता है, पर दिखाया नहीं जाता. प्लीज, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ कहतेकहते वह बुरी तरह कांपने व रोने लगी थी.

तब मेहुल ने राधिका का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘राधिका, मैं ने कहा था कि मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मेरे ही रूखे बरताव के चलते तुम्हें घर छोड़ने जैसा कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा. इस के लिए तुम अपनेआप को अकेले दोष मत दो. मुझे तुम मिल गईं, अब कोई मलाल नहीं.

‘‘मुझे समाज, रिश्तेदार किसी की कोई परवाह नहीं. देखो, तुम्हारे बेटे बंटी को, जिसे तुम ने 8 साल का नन्हे बंटी के रूप में देखा था, आज वह पूरा गबरू नौजवान बन गया है. एमबीए की डिगरी भी हासिल कर ली है.

‘‘मैं ने इस का तुम्हारी गैरहाजिरी में ठीक से तो लालनपालन किया है कि नहीं? कोई शिकायत हो तो बोलो?’’

मेहुल का गला भर आया था. आंखें गीली हो गई थीं.

कितना बड़ा कलेजा था मेहुल का. राधिका, जो शर्म, अपराध के बोझ तले दबी जा रही थी, वह भी सारी लाज भूल कर मेहुल की बांहों में समा गई. कभी सोचा भी नहीं था कि मेहुल से नफरत की जगह माफी मिलेगी. उस के चेहरे पर एक दृढ़ विश्वास की चमक थी. राजन लुटापिटा सा एक ओर खड़ा ताकता ही रह गया. Best Story

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