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Hindi Family Story: हत्या-आत्महत्या- ससुराल पहुंचने से पहले क्या हुआ था अनु के साथ?

Hindi Family Story: अनु के विवाह समारोह से उस की विदाई होने के बाद रात को लगभग 2 बजे घर लौटी थी. थकान से सुबह 6 बजे गहरी नींद में थी कि अचानक अनु के घर से, जो मेरे घर के सामने ही था, जोरजोर से विलाप करने की आवाजों से मैं चौंक कर उठ गई. घबराई हुई बालकनी की ओर भागी. उस के घर के बाहर लोगों की भीड़ देख कर किसी अनहोनी की कल्पना कर के मैं स्तब्ध रह गई. रात के कपड़ों में ही मैं बदहवास उस के घर की ओर दौड़ी. ‘अनु… अनु…’ के नाम से मां को विलाप करते देख कर मैं सकते में आ गई.

किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन मुझे वहां की स्थिति देख कर समझने में देर नहीं लगी. तो क्या अनु ने वही किया, जिस का मुझे डर था? लेकिन इतनी जल्दी ऐसा करेगी, इस का मुझे अंदेशा नहीं था. कैसे और कहां, यह प्रश्न अनुत्तरित था, लेकिन वास्तविकता तो यह कि अब वह इस दुनिया में नहीं रही. यह बहुत बड़ी त्रासदी थी. अभी उम्र ही क्या थी उस की…? मैं अवाक अपने मुंह पर हाथ रख कर गहन सोच में पड़ गई.

मेरा दिमाग जैसे फटने को हो रहा था. कल दुलहन के वेश में और आज… पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया. मैं मन ही मन बुदबुदाई. मेरी रूह अंदर तक कांप गई. वहां रुकने की हिम्मत नहीं हुई और क्यों कर रुकूं… यह घर मेरे लिए उस के बिना बेगाना है. एक वही तो थी, जिस के कारण मेरा इस घर में आनाजाना था, बाकी लोग तो मेरी सूरत भी देखना नहीं चाहते.

मैं घर आ कर तकिए में मुंह छिपा कर खूब रोई. मां ने आ कर मुझे बहुत सांत्वना देने की कोशिश की तो मैं उन से लिपट कर बिलखते हुए बोली, ‘‘मां, सब की माएं आप जैसे क्यों नहीं होतीं? क्यों लोग अपने बच्चों से अधिक समाज को महत्त्व देते हैं? क्यों अपने बच्चों की खुशी से बढ़ कर रिश्तेदारों की प्रतिक्रिया का ध्यान रखते हैं? शादी जैसे व्यक्तिगत मामले में भी क्यों समाज की दखलंदाजी होती है? मांबाप का अपने बच्चों के प्रति यह कैसा प्यार है जो सदियों से चली आ रही मान्यताओं को ढोते रहने के लिए उन के जीवन को भी दांव पर लगाने से नहीं चूकते? कितना प्यार करती थी वह जैकब से? सिर्फ वह क्रिश्चियन है…? प्यार क्या धर्म और जाति देख कर होता है? फिर लड़की एक बार मन से जिस के साथ जुड़ जाती है, कैसे किसी दूसरे को पति के रूप में स्वीकार करे?’’ रोतेरोते मन का सारा आक्रोश अपनी मां के सामने उगल कर मैं थक कर उन के कंधे पर सिर रख कर थोड़ी देर के लिए मौन हो गई.

पड़ोसी फर्ज निभाने के लिए मैं अपनी मां के साथ अनु के घर गई. वहां लोगों की खुसरफुसर से ज्ञात हुआ कि विदा होने के बाद गाड़ी में बैठते ही अनु ने जहर खा लिया और एक ओर लुढ़क गई तो दूल्हे ने सोचा कि वह थक कर सो गई होगी. संकोचवश उस ने उसे उठाया नहीं और जब कार दूल्हे के घर के दरवाजे पर पहुंची तो सास तथा अन्य महिलाएं उस की आगवानी के लिए आगे बढ़ीं. जैसे ही सास ने उसे गाड़ी से उतारने के लिए उस का कंधा पकड़ा उन की चीख निकल गई. वहां दुलहन की जगह उस की अकड़ी हुई लाश थी. मुंह से झाग निकल रहा था.

चीख सुन कर सभी लोग दौड़े आए और दुलहन को देख कर सन्न रह गए.

दहेज से लदा ट्रक भी साथसाथ पहुंचा. लेकिन वर पक्ष वाले भले मानस थे, उन्होंने सोचा कि जब बहू ही नहीं रही तो उस सामान का वे क्या करेंगे? इसलिए उसी समय ट्रक को अनु के घर वापस भेज दिया. उन के घर में खुशी की जगह मातम फैल गया. अनु के घर दुखद खबर भिजवा कर उस का अंतिम संस्कार अपने घर पर ही किया. अनु के मातापिता ने अपना सिर पीट लिया, लेकन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़यां चुग गई खेत.

एक बेटी समाज की आधारहीन परंपराओं के तहत तथा उन का अंधा अनुकरण करने वाले मातापिता की सोच के लिए बली चढ़ गई. जीवन हार गया, परंपराएं जीत गईं.

अनु मेरे बचपन की सहेली थी. एक साथ स्कूल और कालेज में पढ़ी, लेकिन जैसे ही उस के मातापिता को ज्ञात हुआ कि मैं किसी विजातीय लड़के से प्रेम विवाह करने वाली हूं, उन्होंने सख्ती से उस पर मेरे से मिलने पर पाबंदी लगाने की कोशिश की, लेकिनउस ने मुझ से मिलनेजुलने पर मांबाप की पाबंदी को दृढ़ता से नकार दिया. उन्हें क्या पता था कि उन की बटी भी अपने सहपाठी, ईसाई लड़के जैकब को दिल दे बैठी है. उन के सच्चे प्यार की साक्षी मुझ से अधिक और कौन होगा? उसे अपने मातापिता की मानसिकता अच्छी तरह पता थी. अकसर कहती थी, ‘‘प्रांजलि, काश मेरी मां की सोच तुम्हारी मां जैसे होती. मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि मातापिता हमें अपनी सोच की जंजीरों में क्यों बांधना चाहते हैं. तो फिर हमें खुले आसमान में विचरने ही क्यों देते हैं? क्यों हमें ईसाई स्कूल में पढ़ाते हैं? क्यों नहीं पहले के जमाने के अनुसार हमारे पंख कतर कर घर में कैद कर लेते हैं? समय के अनुसार इन की सोच क्यों नहीं बदलती? ’’

मैं उस के तर्क सुन कर शब्दहीन हो जाती और सोचती काश मैं उस के मातापिता को समझा पाती कि उन की बेटी किसी अन्य पुरुष को वर के रूप में स्वीकार कर ही नहीं पाएगी, उन्हें बेटी चाहिए या सामाजिक प्रतिष्ठा, लेकिन उन्होंने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया था.

अनु एक बहुत ही संवेदनशील और हठी लड़की थी. जैकब भी पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला युवक था. उस के मातापिता भी समझदार और धर्म के पाखंडों से दूर थे. वे अपने इकलौते बेटे को बहुत प्यार करते थे और उस की खुशी उन के लिए सर्वोपरि थी. मैं ने अनु को कई बार समझाया कि बालिग होने के बाद वह अपने मातापिता के विरुद्ध कोर्ट में जा कर भी रजिस्टर्ड विवाह कर सकती है, लेकिन उस का हमेशा एक ही उत्तर होता कि नहीं रे, तुझे पता नहीं हमारी बिरादरी का, मैं अपने लिए जैकब का जीवन खतरे में नहीं डाल सकती… इतना कह कर वह गहरी उदासी में डूब जाती.

मैं उस की कुछ भी मदद न करने में अपने को असहाय पा कर बहुत व्यथित होती. लेकिन मैं ने जैकब और उस के परिवार वालों से कहा कि उस के मातापिता से मिल कर उन्हें समझाएं, शायद उन्हें समझ में आ जाए,

लेकिन इस में भी अनु के घर वालों को मेरे द्वारा रची गई साजिश की बू आई, इसलिए उन्होंने उन्हें बहुत अपमानित किया और उन के जाने के बाद अनु को मेरा नाम ले कर खूब प्रताडि़त किया. इस के बावजूद जैकब बारबार उस के घर गया और अपने प्यार की दुहाई दी. यहां तक कि उन के पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाया भी, लेकिन उन का पत्थर दिल नहीं पिघला और उस की परिणति आज इतनी भयानक… एक कली खिलने से पहले ही मुरझा गई. मातापिता को तो उन के किए का दंड मिला, लेकिन मुझे अपनी प्यारी सखी को खोने का दंश बिना किसी गलती के जीवनभर झेलना पड़ेगा.

लोग अपने स्वार्थवश कि उन की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी, बुढ़ापे का सहारा बनेगा और दैहिक सुख के परिणामस्वरूप बच्चा पैदा करते हैं और पैदा होने के बाद उसे स्वअर्जित संपत्ति मान कर उस के जीवन के हर क्षेत्र के निर्णय की डोर अपने हाथ में रखना चाहते हैं, जैसे कि वह हाड़मांस का न बना हो कर बेजान पुतली है. यह कैसी मानसिकता है उन की?

कैसी खोखली सोच है कि वे जो भी करते हैं, अपने बच्चों की भलाई के लिए करते हैं? ऐसी भलाई किस काम की, जो बच्चों के जीवन से खुशी ही छीन ले. वे उन की इस सोच से तालमेल नहीं बैठा पाते और बिना पतवार की नाव के समान अवसाद के भंवर में डूब कर जीवन ही नष्ट कर लेते हैं, जिसे हम आत्महत्या कहते हैं, लेकिन इसे हत्या कहें तो अधिक सार्थक होगा. अनु की हत्या की थी, मातापिता और उन के खोखले समाज ने. Hindi Family Story.

Hindi Family Story: बोरियत- अनजान शहर में अकेली रह रही एक लड़की की कहानी

Hindi Family Story: सीमा ने कामवाली के जाने के बाद जैसे ही घर का दरवाजा बंद करने की कोशिश की, दरवाजा ठीक से बंद नहीं हुआ. शायद कहीं अटक रहा था. सीमा के चेहरे पर मुसकान आ गई. उस ने ड्राइंगरूम में रखी एक डायरी उठाई, अपने मोबाइल से फोन मिलाया, उधर से “हैलो…” सुनते ही सीमा ने कहा,”रमेश…”

”हां, मैडम…”

”फौरन आओ.”

”क्या हुआ मैडम?”

”घर का दरवाजा ठीक से बंद नहीं हो रहा है. बिलकुल सेफ नहीं है. फौरन आ कर देखो क्या हुआ है.”

”10 मिनट में पहुंच जाऊंगा, मैडम.”

”ठीक है, आओ.”

11 बज रहे थे. सीमा ड्राइंगरूम में ही बैठ कर गृहशोभा पढ़ रही थी. इतने में रमेश आ गया. सीमा उसे देखते ही बोली,”देखो भाई, क्या हुआ है. सालभर भी नहीं हुआ. अभी से अटकने लगा.”

”देखता हूं, मैडम.‘’

फिर थोड़ी देर बाद बोला,”कुछ खास नहीं हुआ. बस, एक हाथ घिसूंगा नीचे से बराबर हो जाएगा.”

”पर हुआ क्यों?”

”मैडम, बरसात का मौसम है, लकड़ी हो जाती है कभीकभी…”

”फिर भी, लकङी इतनी जल्दी तो खराब नहीं होनी चाहिए थी.”

”हां, मैडम सही बोलीं आप.”

”अच्छा, चाय पीओगे?”

”नहीं, मैडम कहीं पास में ही काम कर रहा हूं, आप का फोन आते ही छोड़ कर भागा आया हूं, जल्दी जाना है. मेरे हटते ही कारीगर सुस्ताने लगते हैं. आप को तो पता ही है, सालभर काम किया है आप के यहां.”

”अरे, चाय पी कर जाना.”

”ठीक है, मैडम.”

दरवाजा तो सचमुच जल्दी ही ठीक हो गया पर अब सीमा रमेश के साथ बैठ कर चाय पी रही थी, बोली,”और परिवार में सब ठीक हैं?”

”हां, मैडम.‘’

”कोरोनाकाल में तो काम का बड़ा नुकसान हुआ होगा?‘’

”हां, मैडम सब जमापूंजी खत्म हो गई.‘’

”ओह, कुछ हैल्प चाहिए तो बताना.‘’

”जी, मैडम.”

”गांव में तुम्हारे पिताजी ठीक हैं?”

”जी…’’

”बेटाबहू?”

”बस, वे तो वैसे ही हैं जैसे आप के बेटाबहू हैं, मैडम. बेटाबहू तो सारी दुनिया के एकजैसे ही हैं आजकल.”

सीमा ने ठंडी सांस ली तो रमेश ने उसे ध्यान से देखा, पूछा,”क्या हुआ मैडम?”

”तुम ने तो देखा ही है घर में काम करते हुए, किसी को कोई मतलब नहीं. सब अपने में व्यस्त. खैर, अब तो दूसरी जगह शिफ्ट हो गए हैं तो ठीक हैं, वे वहां खुश मैं यहां.”

थोड़ी देर में रमेश चला गया. सीमा ने बैडरूम में जा कर लेटते हुए गृहशोभा पत्रिका उठा ली और उस में व्यस्त हो गई. आधा घंटा पढ़ती रही, फिर आंखें बंद कर के लेट गई.

बोरीवली के इस फ्लैट में रहते हुए उसे 25 साल हो गए हैं. यह 4 कमरों का फ्लैट भी बेटेबहू को छोटा लग रहा था. वे कुछ साल पहले अंधेरी में शिफ्ट हो गए हैं. पति सुधीर बिजनैसमैन हैं, खूब व्यस्त रहते हैं. टूर पर आनाजाना लगा रहता है, जैसेकि महानगरों की एक आदत होती है, अपने में सिमटे हुए लोग.

सीमा बिहार के एक छोटे शहर की पलीबङी हुई लड़की, जब मुंबई आई तो काफी सालों तक तो उस का मन ही नहीं लगा. वह हैरान होती कि कैसे एक ही फ्लोर पर ही रहने वाले लोग कभी एकदूसरे से मिलते नहीं, बातें नहीं करते, एकदूसरे के सुखदुख से मतलब नहीं. उसे बड़ी कोफ्त होती. फिर बेटा मयंक हुआ तो कुछ साल भागते चले गए. अब कुछ सालों से जीवन में वही बोरियत है जो मुंबई आते ही महसूस हुई थी. मन नहीं लगता. कामवाली आती है तो लगता है कि कुछ देर घर में उस से कोई बात करने वाला है.

सुधीर भी कम बोलने वाला, उस का कितना मन होता कि सुधीर उस से गप्पें मारें, कुछ कहें. वह अपनी बोरियत के बारे में बताती तो बस इतना ही कहते कि टीवी देखो, बुक्स पढ़ लो,‘’ इतनी सलाह दे कर उस की बोरियत से पल्ला झाड़ लेते.

मयंक से कहती कि बोर हो रही हूं तो कहता,”आजकल तो ओटीटी है, इतनी मूवीज हैं, इतने शोज हैं, आप उन की आदत डालो, मां. हम भी थक कर औफिस से आते हैं. बात करने की हिम्मत नहीं बचती. आजकल तो कोई बोर नहीं होता मां, जिस के पास ये सब है, वह बोर हो ही नहीं सकता.”

”पर मेरा मन तो बातें करने का करता है.”

”सौरी मां, जितना आप का मन करता है, उतना तो बहुत मुश्किल है.”

”पर अपने दोस्तों से तो इतनी बातें करते हो…”

”ओह, मां वे दोस्त हैं, सैकड़ों टौपिक्स रहते हैं. आप से क्या बात करूं, आप ही बोलो?”

सीमा चुप रह जाती. उस का यह भी मन न होता कि फोन पर बारबार रिश्तेदारों से बातें करे. सीमा का परिवार अपने बाकी रिश्तेदारों से समृद्ध था. उन की बातों में जलन की बू आती तो उस का मन व्यथित हो जाता वह उन से खास मौकों पर ही बात करती है. कामवाली रमा से वह खुश रहती है. जितनी देर रमा काम करती है, लगातार बोलती रहती है.उसे अच्छा लगता है कि वह यही तो चाहती है कि कोई उस से खूब बातें करे. आज रमेश से भी बात कर के उसे अच्छा लगा.

अब तो बोरियत इस हद तक हो गई है कि कोई भी मिल जाए, कोई भी बात करे, इतना बहुत है. कोई भी हो. काफी समय वह पत्रिकाएं भी पढ़ती है पर कितना पढ़ेगी, बात भी तो करने का दिल करता है. देर रात सुधीर लौटे तो उस ने बताया कि आज दरवाजा अटक गया था. रमेश को बुला कर ठीक करवाया.

”अच्छा किया, नहीं तो परेशानी हो जाती,” इतना कह कर सुधीर फ्रैश हो कर जल्दी ही आराम करने लेट गए.

कुछ दिन बहुत बोरियत भरे बीते. सीमा का वही रूटीन चलता रहा. उस की बिल्डिंग में या तो कई फ्लैट्स खाली पड़े थे या काफी फ्लैट्स में कुछ यंग जोड़े थे जो सुबहसुबह काम पर निकल जाते. कभी छुट्टी के दिन लिफ्ट में आतेजाते मिल जाते. मशीनी स्माइल देते. पड़ोस के नाम पर भी कुछ नहीं था सीमा के पास. अब तो कुछ सालों से उसे जो भी मिलता, वह बातें करने का कोई मौका न छोड़ती. कोई भी कहीं मिल जाए, बस.

एक रात अचानक सोतेसोते सुधीर और सीमा चौंक कर उठे. लाइट कभी आ रही थी, कभी जा रही थी. सुधीर ने कहा ,”ओह, अब यह क्या मुसीबत है. मैं सुबह टूर पर जा रहा हूं और चैन से सो नहीं पा रहा. तुम किसी इलैक्ट्रीशियन को बुला कर दिखा लेना कि क्या हुआ है. मुझे फोन पर बताती रहना.‘’

”हां…‘’

सुधीर अगले 3 दिनों के लिए दिल्ली चले गए. मयंक दिन में एक बार फोन पर हाजिरी दे देता. सीमा ने सोहन को बुलाया. सोसाइटी में सालों से काम कर रहा था. वह आया, देख कर बोला,”मैडम, पुरानी वायरिंग है, बदलनी पड़ेगी. नहीं तो किसी भी दिन आग पकड़ लेगी.‘’

”अच्छा, कितना टाइम लगेगा?”

”2-3 दिन. पूरे घर की बदलनी पड़ेगी.”

”हां, ठीक है, कोई दिक्कत नहीं. सामान ले आओ.”

सोहन ने काम शुरू कर दिया. सीमा को लगा जैसे घर में एक रौनक सी हो गई. कभी सोहन काम करता, कभी फोन पर बात करता, घर में कुछ आवाजें सुनाई दीं. सीमा को अच्छा लगा. वह सोहन के आसपास मंडराती रहती. उस के पास ही कुरसी रख लेती. घरपरिवार, सोसाइटी के लोगों की बातें करतेकरते सीमा का खूब अच्छा टाइमपास होता. वह खुश थी.

एक दिन सीमा पूछने लगी,”सोहन, तुम्हे यहां अच्छा लगता है या अपना गांव?”

”मैडम, गांव याद तो आता है पर अब यहीं काम है तो ठीक है. मन न भी लगे तो क्या कर सकते हैं, पेट का सवाल है.”

”हां, सही कहते हो, भाई. अच्छा, यह बताओ कि सब से ज्यादा क्या याद करते हो?”

सोहन हंसा,” मां हमेशा गरमगरम खाना बना कर खिलाती हैं. चाहे कितनी भी देर से लौटूं. एक दिन अपनी पत्नी से यह बात बताई तो उस ने ऐसे घूरा कि सोच कर ही हंसी आ जाती है.”

सीमा भी हंस पड़ी. बोली,”भाई, पत्नी और मां एकजैसी थोड़ी हो सकती हैं. मैं ने जितने नखरे मयंक के उठाए उस की पत्नी ने तो उसे सीधा कर दिया. सारे नखरे भूल गया है.”

सीमा को लगा कि ऐसी बातें तो वह किसी और से कर ही नहीं पाती जैसे इन लोगों से कर लेती है. अगर पति से यह सवाल पूछ ले तो वे फौरन कहेंगे कि क्या बेकार की सोचती रहती हो तुम, सीमा.

जितने दिन सोहन काम करता रहा, सीमा का मन खूब लगा रहा. वह नरम दिल स्त्री थी. कोई भी काम करने आता तो उसे खिलातीपिलाती रहती. वे ₹20 मांगते, तो सीमा दुलार से ₹30 देती. इसीलिए उस के एक बार बुलाने पर सब काम करने फौरन आते.

लाइट का काम हो गया. सोहन चला गया. सुधीर आ गए. उन का औफिस का रूटीन शुरू हो गया. अब सीमा फिर बोर होने लगी. कामवाली के जाने के बाद से बिना किसी से बातें किए उस का मुंह सूखने लगता. 1-2 फोन मिला लेती, लेकिन फिर वही बोरियत.

एक दिन एक सैल्समैन आया, वैक्यूम क्लीनर के बारे में समझाने लगा. सीमा के पास तो कब से वैक्यूम क्लीनर था, फिर भी वह चुपचाप ऐसे समझती रही कि जैसे इस के बारे में पहली बार सुन रही हो. वह जब समझा चुका, तो थोड़ीबहुत बातें की उस से, फिर कभी आने के लिए कहा. उस के जाने के बाद खुद की शरारत पर ही हंसने लगी कि बोरियत की क्या हद है. सैल्समैन की बातें भी अच्छी लगती हैं. सुधीर को यह पसंद नहीं था कि वह बाहर काम करे. पत्नी का घर संभालना ही उन्हें पसंद था.

वैसे, सीमा को भी घर से बाहर निकलने का बहुत ज्यादा शौक नहीं था. उस की 1-2 दोस्त बनी थीं पर अब वे सब विदेश में अपने बच्चों के पास थीं. वह खुद को व्यस्त रखने की पूरी कोशिश करती. ऐक्सरसाइज करती, शारीरिक रूप से फिट रहती. शाम को अच्छी तरह तैयार हो कर घर का कुछ न कुछ सामान या सब्जी लेने जरूर जाती. आतेजाते लोगों से थोड़ी हायहैलो करने की कोशिश करती. सब्जी वाले से थोड़ी देर बातें करती. कई बार तो अपनी बोरियत दूर करने के लिए अनजान लोगों से ही सब्जी लेती बतिया लेती.

काम तो वह सब कर ही लेती है पर उस के पास बात करने के लिए जब कोई नहीं होता, तो वह दुखी हो जाती. कोई समझ क्यों नहीं पा रहा है कि बातें करना जरूरी है. क्यों सब अपनेआप में ही डूबते जा रहे हैं?
बहू कभीकभी फोन करती पर बहुत जल्दी फोन रख देती. उस का मन होता कि बहू से खूब बातें करे, पर वह अपनी नौकरी में इतनी व्यस्त रहती कि हमेशा ही जल्दी में दिखती.

1 महीना और बोरियतभरा बीता. उस ने सारी मूवीज देख लीं. मयंक ने जो शोज बताए वे भी देख लिए. लेकिन अब…

बात करने को तरसते हुए कुछ दिन और बीते ही थे कि एक दिन सुधीर के लिए मैंगो शेक बनाते हुए मिक्सी खराब हो गई. सुधीर झुंझलाए पर सीमा खुश थी कि कोई तो आएगा मिक्सी बनाने. Hindi Family Story.

Hindi Social Story: तीन सखियां- नई सोच के साथ नई शुरुआत करती सहेलियों की दिलचस्प कहानी

Hindi Social Story: अपनी नई नई गृहस्थी सजासंवार कर गंगा, दामिनी और कृष्णा सोफे पर ही पसर गईं. गंगा ने कहा, ‘‘चलो, भई, अब शुरू करते हैं नया जीवन, बैस्ट औफ लक.’’

‘‘हां, सेम टू यू,’’ दामिनी ने कहा तो कृष्णा कहने लगी, ‘‘शुरुआत कुछ शानदार होनी चाहिए, डिनर करने बाहर चलें? 2 दिन से अब फुरसत मिली है.’’

गंगा ने कहा, ‘‘हां, ठीक है, 7 बज रहे हैं. दामिनी, कल तुम्हें औफिस भी जाना है. चलो फिर, जल्दी डिनर कर के आते हैं. टाइम से आ कर आराम कर लेना. श्यामा भी कल से ही काम पर आएगी. बोलो, कहां चलना है?’’

दामिनी ने कहा, ‘‘शिवसागर चलते हैं.’’

कृष्णा ने कहा, ‘‘नहीं, फ्यूजन ढाबा चलते हैं.’’

गंगा ने कहा, ‘‘नजदीक ही बार्बेक्यू नेशन चलते हैं.’’

दामिनी ने फटकारा, ‘‘दिमाग खराब हो गया है, गंगा? रात में इतना हैवी डिनर करोगी वहां?’’

गंगा ने भी तेज आवाज में कहा, ‘‘तुम्हारा दिमाग होगा खराब, एक रात हैवी खाने से क्या हो जाएगा? अरे, नए जीवन की पार्टी तो बनती है न.’’

कृष्णा ने टोका, ‘‘बस, फ्यूजन ढाबा चलेंगे, तुम दोनों तो किसी भी बात पर शुरू हो जाती हो.’’

तीनों की आवाजें धीरेधीरे तेज होने लगीं, अभी 2 दिन पहले ही इस ‘तुलसीधाम सोसायटी’ में तीनों ने फोर बैडरूम का फ्लैट किराए पर लिया था और अभी घर का सामान संभाल कर फ्री हुई थीं.

तीनों की आवाजें तेज होते ही फ्लैट की डोरबैल बजी. तीनों चुप हो गईं. एकदूसरे को देखा. कृष्णा ने कहा, ‘‘यह कोई सीरियल नहीं है, डोरबैल बजते ही एकदूसरे की तरफ देखने के बजाय दरवाजा खोलो. अच्छा, मैं ही देखती हूं.’’

कृष्णा ने दरवाजा खोला. एक महिला खड़ी थी. गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं आप के बराबर वाले फ्लैट में रहती हूं. कुछ शोर सा हो रहा था. आप लोग नई आई हैं, कुछ प्रौब्लम है क्या? मैं कुछ हैल्प करूं?’’

इतने में दामिनी और गंगा भी दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गईं. गंगा ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘बहुतबहुत धन्यवाद. हमारे यहां तो अकसर यह शोर होता रहेगा. आप चिंता न करें. हम लोग मजे में हैं.’’

महिला चुपचाप चली गई. दरवाजा बंद कर तीनों खिलखिला कर हंस पड़ीं, दामिनी ने कहा, ‘‘यह बेचारी पड़ोसिन तो हमारे चक्कर में पड़ कर पागल हो जाएगी.’’ इस बात पर तीनों खूब हंसीं.

दामिनी ने कहा, ‘‘चलो, फटाफट तैयार हो जाओ. अब निकलना चाहिए.’’ तीनों अपनेअपने बैडरूम में तैयार होने लगीं. दामिनी ने तैयार हो कर फिर पूछा, ‘‘कहां कर रहे हैं डिनर?’’

कृष्णा ने अपनी शरारती मुसकराहट बिखेरते हुए कहा, ‘‘किसी नई जगह.’’

तीनों तैयार हो कर बाहर निकलीं तो पड़ोसिन महिला से फिर सामना हो गया. वह तीनों को स्टाइलिश कपड़ों में, बढि़या परफ्यूम की खुशबू बिखेरते, हंसीमजाक करते हुए जाते देख हैरान होती रही. क्या औरतें हैं, अभी तो लड़ रही थीं. तीनों ने एक शानदार होटल में डिनर किया. हमेशा की तरह आइसक्रीम खाई और कुछ जरूरी सामान खरीद कर अपने नए संसार में लौट आईं. घर आ कर कपड़े बदले, अपनेअपने बैडरूम में लगा टीवी औन किया. थोड़ी देर अपनी पसंद के प्रोग्राम देखते हुए सुस्ताईं, फिर ड्राइंगरूम में बैठ कर घरगृहस्थी के कामों व सामान पर चर्चा कर के सोने चली गईं. तीनों बहुत थकी हुई थीं. नए घर में आज तीनों की पहली रात थी. कल तक तो दिनभर सामान लगा कर सोने के लिए रात को अपनेअपने पुराने घर में चली जाती थीं, अब तो यही घर उन का सबकुछ था.

पिछले हफ्ते ही तीनों ने इस मिडिलक्लास सोसायटी में तीसरे फ्लोर पर यह 4 बैडरूम  फ्लैट किराए पर लिया था. उन का हर परिचित, रिश्तेदार उन के इस फैसले पर हैरान रह गया था. तीनों अपनेअपने बैड पर सोने लगीं तो तीनों की आंखों के आगे अपना पिछला समय चलचित्र की भांति चलने लगा.

पिछले हफ्ते तक जीवन एक पौश सोसायटी में बिताया था, पर बिल्डिंग अलगअलग थीं. तीनों सोसायटी की ही एक किटी पार्टी की सदस्य भी थीं जिस में 25 साल से ले कर उन की उम्र तक की 15 सदस्य थीं. किटी में ही तीनों का ध्यान एकदूसरे की तरफ गया था. तीनों के विचार, तौरतरीके, स्वभाव, व्यवहार एकदूसरे से खूब मेल खाते थे. तीनों हाउजी खूब उत्साह से खेलती थीं. हर गेम जीतने की कोशिश करती थीं. तीनों बहुत हंसमुख थीं. किटी की अन्य सदस्य जीवन के प्रति उन के सकारात्मक दृष्टिकोण की खुले दिल से तारीफ करती थीं. सब के दिल में उन के लिए प्यार और सम्मान था.

तीनों ही जीवन के 5वें दशक में थीं. फिर भी तीनों सैर पर भी एकसाथ जाने लगी थीं. तीनों का आपसी संबंध दिनपरदिन मजबूत होता गया था. अब तीनों अपनी व्यक्तिगत बातें, अपने सुखदुख एकदूसरे के साथ बांटना चाहती थीं. एक रविवार कृष्णा ने दोनों को फोन कर अपने घर लंच पर बुलाया था. गंगा और दामिनी 12 बजे कृष्णा के घर पहुंच गई थीं. कृष्णा ने बहुत दिल से दोनों की आवभगत की. गंगा और दामिनी ने कृष्णा के बनाए खाने की भरपूर प्रशंसा की. तीनों ने भरपेट खाया. उस के बाद कृष्णा कौफी बना कर ले आई. तीनों आराम से सोफे पर ही पसर गई थीं. कृष्णा ने कहना शुरू किया, ‘जब से हम तीनों मिले हैं, जी उठी हूं मैं, वरना यही सूना घर, वही बोरिंग रुटीन था. पर बाहर तुम लोगों से मिल कर जब घर वापस आती हूं तो घर काटने को दौड़ता है. अकेलापन सहा नहीं जाता.  घर में घड़ी की सूइयां भी ठहरी हुई सी लगती हैं.’

दामिनी ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘कितने साल हो गए आप के पति का स्वर्गवास हुए?’ 15 साल हो गए, 1 ही बेटी है जो आस्ट्रेलिया में पति और बच्चों के साथ रहती है. साल दो साल में कभी वह आ जाती है. कभी मैं चक्कर लगा आती हूं, बस.’

गंगा ने भी अपने बारे में बताया, ‘मेरा भी जीवन ऐसा ही है. आलोक से तलाक के बाद अकेली ही हूं.’

दामिनी ने पूछा, ‘तलाक क्यों हो गया था? कितने साल हो गए?’

‘आलोक से विवाह के 2 साल बाद ही तलाक हो गया था. उस का अपनी किसी सहकर्मी से अफेयर था. मैं ने आपत्ति की तो वह मुझे छोड़ने के लिए तैयार हो गया जिस के बदले में उस ने मुझे इतनी भारी रकम दी कि आज तक मुझे किसी चीज की कमी नहीं है. वह बड़ा बिजनैसमैन था. मेरे नाम मोटा बैंकबैलेंस, गहने, यह फ्लैट, सबकुछ है. एक बेवफा पति से चिपके रहने के बजाय मुझे यह जीवन ही ठीक लगा. मैं भी अब पूरी आजादी से जी रही हूं पर मेरा धीरेधीरे सभी रिश्तेदारों से भी मन खराब होता गया. न मैं उन के ताने सुनना चाहती थी न हमदर्दीभरी बातें इसलिए मैं ने सब को अपने से दूर कर दिया. अकेलापन अब बहुत खलता है पर क्या कर सकते हैं. तुम बताओ दामिनी, तुम ने शादी क्यों नहीं की?’

दामिनी ने एक ठंडी सांस ले कर बताना शुरू किया, ‘पिता नहीं रहे तो चाहेअनचाहे घर की सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आती गई. मैं बड़ी थी. मैं ने खुद पढ़नेलिखने में बहुत मेहनत की, दोनों छोटे भाइयों को पढ़ायालिखाया, मां की देखभाल की. मां और भाइयों को संभालने में काफी उम्र निकल गई. वे भी मेरे विवाह के टौपिक से बचते रहे. एक बार उम्र निकल गई तो विवाह का खयाल मैं ने भी छोड़ दिया. अब मां तो रहीं नहीं, दोनों भाई अपनेअपने परिवार के साथ विदेश में बस गए हैं. मैं एक मल्टीनैशनल कंपनी में ऊंचे पद पर हूं. रुपएपैसे की कमी तो नहीं है पर अकेलापन खलने लगा है. इसी साल मैं 50 की हो रही हूं पर जीवन को मैं रोतेरोते नहीं जीना चाहती. जीवनभर मेहनत की है. जीवन के हर पल का आनंद उठाना चाहती हूं.’

कृष्णा ने कहा, ‘और क्या, हम तीनों ही खुशमिजाज, आर्थिक रूप से मजबूत और नए विचारों वाली महिलाएं हैं. हम क्यों अपना जीवन रोपीट कर बिताएं. जो मिलना था, मिल गया, जो नहीं मिला, बस नहीं मिला. पढ़ा है या सुना है तुम लोगों ने, एक लेखक ने भी कहा है, ‘मन का हो तो अच्छा, न हो तो ज्यादा अच्छा’.’

दामिनी ने खुश हो कर पूछा, ‘अरे, तुम भी यह सब पढ़ती हो क्या?’

‘और क्या, किताबें तो मेरी अब तक सब से अच्छी साथी रही हैं. आओ, तुम्हें अपनी छोटी सी लाइब्रेरी दिखाऊं,’ कह कर कृष्णा उन्हें अपने बैडरूम में ले गई थी.

गंगा भी चहक उठी, ‘अरे वाह, मुझे भी शौक है. मैं भी पढ़ूंगी ये सब.’

उस के बाद तीनों थोड़ी देर बातें करती रही थीं, फिर अपनेअपने घर लौट आईं. तीनों का मन साथ समय बिता कर काफी हलका था. दामिनी की शनिवार, रविवार छुट्टी होती थी. वह अब ये तीनों दिन कृष्णा और गंगा के साथ ही बिताती थी. तीनों के घर काम करने वाली मेड भी एक ही थी अब, श्यामा. कालेज जाने वाली छात्राओं की तरह तीनों सखियां अब किसी एक के घर इकट्ठी होतीं, हंसीमजाक करतीं, कभी मूवी देखने जातीं, कभी शौपिंग जातीं. तीनों को अब किसी अन्य की जरूरत महसूस नहीं होती. ऐसे ही एकदूसरे के सुखदुख को बांटते तीनों की दोस्ती को 2 साल बीत रहे थे.

एक दिन दामिनी ने कृष्णा और गंगा को अपने घर बुलाया हुआ था. तीनों खापी कर उस के बैडरूम में ही लेट गईं. दामिनी को कुछ सोचते हुए देख कर कृष्णा ने पूछा, ‘क्या सोच रही हो, दामिनी?’

‘बहुत कुछ, कुछ नई सी बात.’

‘क्या, बताओ?’

‘समझ नहीं पा रही हूं कि क्या ठीक सोच रही हूं मैं.’

गंगा ने कहा, ‘जल्दी बताओ अब.’

‘अभी दिमाग में आया, हम तीनों ही अकेली हैं, तीनों एकदूसरे के साथ खुश हैं, हम तीनों हमेशा भी तो साथ रह सकती हैं और वैसे भी हमें अपना जीवन जीने के लिए किसी पुरुष के साथ की जरूरत तो है नहीं. हम चाहें तो हमेशा साथ रह कर जीवन की सांध्यवेला में एकदूसरे का सहारा बन सकती हैं. हम तीनों का वन बैडरूम फ्लैट है. ऐसा कर सकते हैं कि आसपास किसी सोसायटी में बड़ा फ्लैट किराए पर ले कर साथ रह कर भी अपनी मरजी से जिएं. सब की प्राइवेसी भी रहे और साथ भी मिलता रहे. अपने फ्लैट किराए पर दे देंगे. सब खर्चे शेयर कर लेंगे. कम से कम घर लौटने पर किसी अपने का चेहरा तो दिखेगा. घर की खाली दीवारें अकेले होने का एहसास तो नहीं कराएंगी.’

गंगा और कृष्णा के मुंह से उत्साहपूर्वक निकला, ‘वाह, दामिनी, क्या बढि़या बात सोची है. यह बहुत अच्छा रहेगा.’

गंगा ने कहा, ‘बहुत मजा आएगा. भविष्य की बेतुकी चिंता में वर्तमान की कुछ बेहतरीन चीजें, कुछ बेहतरीन पल तो हमें इस जीवन में दोबारा नहीं मिलेंगे. फिर इन को खो कर क्यों जिएं. जीवन की राह में बस यों चलते जाना कि सांस जब तक चले, जीना ही पड़ेगा, यह सोच कर क्यों जिएं.’

दामिनी ने कहा, ‘और आजकल तो मैं कई बार सोचती हूं कि मेरे लिए अंदर से दरवाजा खोलने वाला कोई है ही नहीं. हो सकता है कभी मेरे फ्लैट का ताला तोड़ मेरा गला हुआ शव बाहर निकाला जाए. और तब मेरे परिचित मेरी संपत्ति पर हक जताने चले आएंगे.’

कृष्णा कहने लगी, ‘तुम लोग सीरियस मत हो. हमारा अब दोस्ती का सच्चा रिश्ता है जो किसी मांग पर आधारित नहीं है, द्वेष और ईर्ष्या से रहित है, स्वार्थ से परे है.’

तीनों की आंखें भर आई थीं. तीनों एकदूसरे के गले लग गई थीं. तीनों का दिल फूल सा हलका हो गया तो तीनों फिर मस्ती के मूड में आ गईं. अपने अंदर एक नया उत्साह, नई ऊर्जा महसूस की उस दिन तीनों ने. उस के बाद तो भविष्य की योजनाएं बनने लगी थीं. और फिर कई दिन कई घरों को देखने के बाद यह घर फाइनल किया था तीनों ने.  जिस ने भी सुना, हैरान रह गया था. मुंबई की इस सोसायटी में रहने वालों के लिए यह एकदम नया, अद्भुत विचार था. प्रबुद्धजन कह रहे थे, ‘किसी वृद्धाश्रम में जा कर रहने से अच्छा ही है यह आइडिया. समाज के लिए नया उदाहरण पेश कर रही हैं तीनों सखियां.’ उन की किटी पार्टी की सदस्याएं इस नए, उत्साहपूर्ण कदम में उन के साथ थीं. सब ने उन की पूरी सहायता की थी. समाज के लिए एक नई मिसाल कायम कर के तीनों ही अतीतवर्तमान में गोते लगाती हुई बेफिक्री की नींद में डूब चुकी थीं. Hindi Social Story.

Hindi Social Story: विरासत- क्यों कठघरे में खड़ा था विनय?

Hindi Social Story: कई दिनों से एक बात मन में बारबार उठ रही है कि इनसान को शायद अपने कर्मों का फल इस जीवन में ही भोगना पड़ता है. यह बात नहीं है कि मैं टैलीविजन में आने वाले क्राइम और भक्तिप्रधान कार्यक्रमों से प्रभावित हो गया हूं. यह भी नहीं है कि धर्मग्रंथों का पाठ करने लगा हूं, न ही किसी बाबा का भक्त बना हूं. यह भी नहीं कि पश्चात्ताप की महत्ता नए सिरे में समझ आ गई हो.

दरअसल, बात यह है कि इन दिनों मेरी सुपुत्री राशि का मेलजोल अपने सहकर्मी रमन के साथ काफी बढ़ गया है. मेरी चिंता का विषय रमन का शादीशुदा होना है. राशि एक निजी बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत है. रमन सीनियर मैनेजर है. मेरी बेटी अपने काम में काफी होशियार है. परंतु रमन के साथ उस की नजदीकी मेरी घबराहट को डर में बदल रही थी. मेरी पत्नी शोभा बेटे के पास न्यू जर्सी गई थी. अब वहां फोन कर के दोनों को क्या बताता. स्थिति का सामना मुझे स्वयं ही करना था. आज मेरा अतीत मुझे अपने सामने खड़ा दिखाई दे रहा था…

मेरा मुजफ्फर नगर में नया नया तबादला हुआ था. परिवार दिल्ली में ही छोड़ दिया था.  वैसे भी शोभा उस समय गर्भवती थी. वरुण भी बहुत छोटा था और शोभा का अपना परिवार भी वहीं था. इसलिए मैं ने उन को यहां लाना उचित नहीं समझा था. वैसे भी 2 साल बाद मुझे दोबारा पोस्टिंग मिल ही जानी थी.

गांधी कालोनी में एक घर किराए पर ले लिया था मैं ने. वहां से मेरा बैंक भी पास पड़ता था. पड़ोस में भी एक नया परिवार आया था. एक औरत और तीसरी या चौथी में पढ़ने वाले 2 जुड़वां लड़के. मेरे बैंक में काम करने वाले रमेश बाबू उसी महल्ले में रहते थे. उन से ही पता चला था कि वह औरत विधवा है. हमारे बैंक में ही उस के पति काम करते थे. कुछ साल पहले बीमारी की वजह से उन का देहांत हो गया था. उन्हीं की जगह उस औरत को नौकरी मिली थी. पहले अपनी ससुराल में रहती थी, परंतु पिछले महीने ही उन के तानों से तंग आ कर यहां रहने आई थी.

‘‘बच कर रहना विनयजी, बड़ी चालू औरत है. हाथ भी नहीं रखने देती,’’ जातेजाते रमेश बाबू यह बताना नहीं भूले थे. शायद उन की कोशिश का परिणाम अच्छा नहीं रहा होगा. इसीलिए मुझे सावधान करना उन्होंने अपना परम कर्तव्य समझा.

सौजन्य हमें विरासत में मिला है और पड़ोसियों के प्रति स्नेह और सहयोग की भावना हमारी अपनी कमाई है. इन तीनों गुणों का हम पुरुषवर्ग पूरी ईमानदारी से जतन तब और भी करते हैं जब पड़ोस में एक सुंदर स्त्री रहती हो. इसलिए पहला मौका मिलते ही मैं ने उसे अपने सौजन्य से अभिभूत कर दिया.

औफिस से लौट कर मैं ने देखा वह सीढि़यों पर बैठ हुई थी.

‘‘आप यहां क्यों बैठी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी… सर… मेरी चाभी कहीं गिर कई है, बच्चे आने वाले हैं… समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’’

‘‘आप परेशान न हों, आओ मेरे घर में आ जाओ.’’

‘‘जी…?’’

‘‘मेरा मतलब है आप अंदर चल कर बैठिए. तब तक मैं चाभी बनाने वाले को ले कर आता हूं.’’

‘‘जी, मैं यहीं इंतजार कर लूंगी.’’

‘‘जैसी आप की मरजी.’’

थोड़ी देर बाद रचनाजी के घर की चाभी बन गई और मैं उन के घर में बैठ कर चाय पी रहा था. आधे घंटे बाद उन के बच्चे भी आ गए. दोनों मेरे बेटे वरुण की ही उम्र के थे. पल भर में ही मैं ने उन का दिल जीत लिया.

जितना समय मैं ने शायद अपने बेटे को नहीं दिया था उस से कहीं ज्यादा मैं अखिल और निखिल को देने लगा था. उन के साथ क्रिकेट खेलना, पढ़ाई में उन की सहायता करना,

रविवार को उन्हें ले कर मंडी की चाट खाने का तो जैसे नियम बन गया था. रचनाजी अब रचना हो गई थीं. अब किसी भी फैसले में रचना के लिए मेरी अनुमति महत्त्वपूर्ण हो गई थी. इसीलिए मेरे समझाने पर उस ने अपने दोनों बेटों को स्कूल के बाकी बच्चों के साथ पिकनिक पर भेज दिया था.

सरकारी बैंक में काम हो न हो हड़ताल तो होती ही रहती है. हमारे बैंक में भी 2 दिन की हड़ताल थी, इसलिए उस दिन मैं घर पर ही था. अमूमन छुट्टी के दिन मैं रचना के घर ही खाना खाता था. परंतु उस रोज बात कुछ अलग थी. घर में दोनों बच्चे नहीं थे.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं रचना?’’

‘‘अरे विनयजी अब क्या आप को भी आने से पहले इजाजत लेनी पड़ेगी?’’

खाना खा कर दोनों टीवी देखने लगे. थोड़ी देर बाद मुझे लगा रचना कुछ असहज सी है.

‘‘क्या हुआ रचना, तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, बस थोड़ा सिरदर्द है.’’

अपनी जगह से उठ कर मैं उस का सिर दबाने लगा. सिर दबातेदबाते मेरे हाथ उस के कंधे तक पहुंच गए. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. हम किसी और ही दुनिया में खोने लगे. थोड़ी देर बाद रचना ने मना करने के लिए मुंह खोला तो मैं ने आगे बढ़ कर उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

उस के बाद रचना ने आंखें नहीं खोलीं. मैं धीरेधीरे उस के करीब आता चला गया. कहीं कोई संकोच नहीं था दोनों के बीच जैसे हमारे शरीर सालों से मिलना चाहते हों. दिल ने दिल की आवाज सुन ली थी, शरीर ने शरीर की भाषा पहचान ली थी.

उस के कानों के पास जा कर मैं धीरे से फुसफुसाया, ‘‘प्लीज, आंखें न खोलना तुम… आज बंद आंखों में मैं समाया हूं…’’

न जाने कितनी देर हम दोनों एकदूसरे की बांहों में बंधे चुपचाप लेटे रहे दोनों के बीच की खामोशी को मैं ने ही तोड़ा, ‘‘मुझ से नाराज तो नहीं हो तुम?’’

‘‘नहीं, परंतु अपनेआप से हूं… आप शादीशुदा हैं और…’’

‘‘रचना, शोभा से मेरी शादी महज एक समझौता है जो हमारे परिवारों के बीच हुआ था. बस उसे ही निभा रहा हूं… प्रेम क्या होता है यह मैं ने तुम से मिलने के बाद ही जाना.’’

‘‘परंतु… विवाह…’’

‘‘रचना… क्या 7 फेरे प्रेम को जन्म दे सकते हैं? 7 फेरों के बाद पतिपत्नी के बीच सैक्स का होना तो तय है, परंतु प्रेम का नहीं. क्या तुम्हें पछतावा हो रहा है रचना?’’

‘‘प्रेम शक्ति देता है, कमजोर नहीं करता. हां, वासना पछतावा उत्पन्न करती है. जिस पुरुष से मैं ने विवाह किया, उसे केवल अपना शरीर दिया. परंतु मेरे दिल तक तो वह कभी पहुंच ही नहीं पाया. फिर जितने भी पुरुष मिले उन की गंदी नजरों ने उन्हें मेरे दिल तक आने ही नहीं दिया. परंतु आप ने मुझे एक शरीर से ज्यादा एक इनसान समझा. इसीलिए वह पुराना संस्कार, जिसे अपने खून में पाला था कि विवाहेतर संबंध नहीं बनाना, आज टूट गया. शायद आज मैं समाज के अनुसार चरित्रहीन हो गई.’’

फिर कई दिन बीत गए, हम दोनों के संबंध और प्रगाढ़ होते जा रहे थे. मौका मिलते ही हम काफी समय साथ बिताते. एकसाथ घूमनाफिरना, शौपिंग करना, फिल्म देखना और फिर घर आ कर अखिल और निखिल के सोने के बाद एकदूसरे की बांहों में खो जाना दिनचर्या में शामिल हो गया था. औफिस में भी दोनों के बीच आंखों ही आंखों में प्रेम की बातें होती रहती थीं.

बीचबीच में मैं अपने घर आ जाता और शोभा के लिए और दोनों बच्चों के लिए ढेर सारे उपहार भी ले जाता. राशि का भी जन्म हो चुका था. देखते ही देखते 2 साल बीत गए. अब शोभा मुझ पर तबादला करवा लेने का दबाव डालने लगी थी. इधर रचना भी हमारे रिश्ते का नाम तलाशने लगी थी. मैं अब इन दोनों औरतों को नहीं संभाल पा रहा था. 2 नावों की सवारी में डूबने का खतरा लगातार बना रहता है. अब समय आ गया था किसी एक नाव में उतर जाने का.

रचना से मुझे वह मिला जो मुझे शोभा से कभी नहीं मिल पाया था, परंतु यह भी सत्य था कि जो मुझे शोभा के साथ रहने में मिलता वह मुझे रचना के साथ कभी नहीं मिल पाता और वह था मेरे बच्चे और सामाजिक सम्मान. यह सब कुछ सोच कर मैं ने तबादले के लिए आवेदन कर दिया.

‘‘तुम दिल्ली जा रहे हो?’’

रचना को पता चल गया था, हालांकि मैं ने पूरी कोशिश की थी उस से यह बात छिपाने की. बोला, ‘‘हां. वह जाना तो था ही…’’

‘‘और मुझे बताने की जरूरत भी नहीं समझी…’’

‘‘देखो रचना मैं इस रिश्ते को खत्म करना चाहता हूं.’’

‘‘पर तुम तो कहते थे कि तुम मुझ से प्रेम करते हो?’’

‘‘हां करता था, परंतु अब…’’

‘‘अब नहीं करते?’’

‘‘तब मैं होश में नहीं था, अब हूं.’’

‘‘तुम कहते थे शोभा मान जाएगी… तुम मुझ से भी शादी करोगे… अब क्या हो गया?’’

‘‘तुम पागल हो गई हो क्या? एक पत्नी के रहते क्या मैं दूसरी शादी कर सकता हूं?’’

‘‘मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी? क्या जो हमारे बीच था वह महज.’’

‘‘रचना… देखो मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की, जो भी हुआ उस में तुम्हारी भी मरजी शामिल थी.’’

‘‘तुम मुझे छोड़ने का निर्णय ले रहे हो… ठीक है मैं समझ सकती हूं… तुम्हारी पत्नी है, बच्चे हैं. दुख मुझे इस बात का है कि तुम ने मुझे एक बार भी बताना जरूरी नहीं समझा. अगर मुझे पता नहीं चलता तो तुम शायद मुझे बिना बताए ही चले जाते. क्या मेरे प्रेम को इतने सम्मान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी?’’

‘‘तुम्हें मुझ से किसी तरह की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी.’’

‘‘मतलब तुम ने मेरा इस्तेमाल किया और अब मन भर जाने पर मुझे…’’

‘‘हां किया जाओ क्या कर लोगी… मैं ने मजा किया तो क्या तुम ने नहीं किया? पूरी कीमत चुकाई है मैं ने. बताऊं तुम्हें कितना खर्चा किया है मैं ने तुम्हारे ऊपर?’’

कितना नीचे गिर गया था मैं… कैसे बोल गया था मैं वह सब. यह मैं भी जानता था कि रचना ने कभी खुद पर या अपने बच्चों पर ज्यादा खर्च नहीं करने दिया था. उस के अकेलेपन को भरने का दिखावा करतेकरते मैं ने उसी का फायदा उठा लिया था.

‘‘मैं तुम्हें बताऊंगी कि मैं क्या कर सकती हूं… आज जो तुम ने मेरे साथ किया है वह किसी और लड़की के साथ न करो, इस के लिए तुम्हें सजा मिलनी जरूरी है… तुम जैसा इनसान कभी नहीं सुधरेगा… मुझे शर्म आ रही है कि मैं ने तुम से प्यार किया.’’

उस के बाद रचना ने मुझ पर रेप का केस कर दिया. केस की बात सुनते ही शोभा और मेरी ससुराल वाले और परिवार वाले सभी मुजफ्फर नगर आ गए. मैं ने रोरो कर शोभा से माफी मांगी.

‘‘अगर मैं किसी और पुरुष के साथ संबंध बना कर तुम से माफी की उम्मीद करती तो क्या तुम मुझे माफ कर देते विनय?’’

मैं एकदम चुप रहा. क्या जवाब देता.

‘‘चुप क्यों हो बोलो?’’

‘‘शायद नहीं.’’

‘‘शायद… हा… हा… हा… यकीनन तुम मुझे माफ नहीं करते. पुरुष जब बेवफाई करता है तो समाज स्त्री से उसे माफ कर आगे बढ़ने की उम्मीद करता है. परंतु जब यही गलती एक स्त्री से होती है, तो समाज उसे कईर् नाम दे डालता है. जिस स्त्री से मुझे नफरत होनी चाहिए थी. मुझे उस पर दया भी आ रही थी और गर्व भी हो रहा था, क्योंकि इस पुरुष दंभी समाज को चुनौती देने की कोशिश उस ने की थी.’’

‘‘तो तुम मुझे माफ नहीं…’’

‘‘मैं उस के जैसी साहसी नहीं हूं… लेकिन एक बात याद रखना तुम्हें माफ एक मां कर रही है एक पत्नी और एक स्त्री के अपराधी तुम हमेशा रहोगे.’’

शर्म से गरदन झुक गई थी मेरी.

पूरा महल्ला रचना पर थूथू कर रहा था. वैसे भी हमारा समाज कमजोर को हमेशा दबाता रहा है… फिर एक अकेली, जवान विधवा के चरित्र पर उंगली उठाना बहुत आसान था. उन सभी लोगों ने रचना के खिलाफ गवाही दी जिन के प्रस्ताव को उस ने कभी न कभी ठुकराया था.

अदालतमें रचना केस हार गई थी. जज ने उस पर मुझे बदनाम करने का इलजाम लगाया. अपने शरीर को स्वयं परपुरुष को सौंपने वाली स्त्री सही कैसे हो सकती थी और वह भी तब जब वह गरीब हो?

रचना के पास न शक्ति बची थी और न पैसे, जो वह केस हाई कोर्ट ले जाती. उस शहर में भी उस का कुछ नहीं बचा था. अपने बेटों को ले कर वह शहर छोड़ कर चली गई. जिस दिन वह जा रही थी मुझ से मिलने आई थी.

‘‘आज जो भी मेरे साथ हुआ है वह एक मृगतृष्णा के पीछे भागने की सजा है. मुझे तो मेरी मूर्खता की सजा मिल गई है और मैं जा रही हूं, परंतु तुम से एक ही प्रार्थना है कि अपने इस फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना.’’

चली गई थी वह. मैं भी अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गया था. मेरे और शोभा के बीच जो खालीपन आया था वह कभी नहीं भर पाया. सही कहा था उस ने एक पत्नी ने मुझे कभी माफ नहीं किया था. मैं भी कहां स्वयं को माफ कर पाया और न ही भुला पाया था रचना को.

किसी भी रिश्ते में मैं वफादारी नहीं निभा पाया था. और आज मेरा अतीत मेरे सामने खड़ा हो कर मुझ पर हंस रहा था. जो मैं ने आज से कई साल पहले एक स्त्री के साथ किया था वही मेरी बेटी के साथ होने जा रहा था.

नहीं मैं राशि के साथ ऐसा नहीं होने दूंगा. उस से बात करूंगा, उसे समझाऊंगा. वह मेरी बेटी है समझ जाएगी. नहीं मानी तो उस रमन से मिलूंगा, उस के परिवार से मिलूंगा, परंतु मुझे पूरा यकीन था ऐसी नौबत नहीं आएगी… राशि समझदार है मेरी बात समझ जाएगी.

उस के कमरे के पास पहुंचा ही था तो देखा वह अपने किसी दोस्त से वीडियो चैट कर रही थी. उन की बातों में रमन का जिक्र सुन कर मैं वहीं ठिठक गया.

‘‘तेरे और रमन सर के बीच क्या चल रहा है?’’

‘‘वही जो इस उम्र में चलता है… हा… हा… हा…’’

‘‘तुझे शायद पता नहीं कि वे शादीशुदा हैं?’’

‘‘पता है.’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘राशि, देख यार जो इनसान अपनी पत्नी के साथ वफादार नहीं है वह तेरे साथ क्या होगा? क्या पता कल तुझे छोड़ कर…’’

‘‘ही… ही… मुझे लड़के नहीं, मैं लड़कों को छोड़ती हूं.’’

‘‘तू समझ नहीं रही…’’

‘‘यार अब वह मुरगा खुद कटने को तैयार बैठा है तो फिर मेरी क्या गलती? उसे लगता है कि मैं उस के प्यार में डूब गई हूं, परंतु उसे यह नहीं पता कि वह सिर्फ मेरे लिए एक सीढ़ी है, जिस का इस्तेमाल कर के मुझे आगे बढ़ना है. जिस दिन उस ने मेरे और मेरे सपने के बीच आने की सोची उसी दिन उस पर रेप का केस ठोक दूंगी और तुझे तो पता है ऐसे केसेज में कोर्ट भी लड़की के पक्ष में फैसला सुनाता है,’’ और फिर हंसी का सम्मिलित स्वर सुनाई दिया.

सीने में तेज दर्द के साथ मैं वहीं गिर पड़ा. मेरे कानों में रचना की आवाज गूंज रही थी कि अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना… अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना, परंतु विरासत तो बंट चुकी थी. Hindi Social Story.

Hindi Family Story: फिर आई बहार- रीमा के ससुराल वाले उसे क्यों रोक रहे थे?

Hindi Family Story: आज सालों बाद मैं अपनी सहेली रीमा से मिलने जा रही हूं. बचपन से ही साथ खेले, पढ़े, बड़े हुए और सुखदुख में एकदूसरे के साथी बने. ग्रैजुऐशन करने के बाद मैं ने एमए में प्रवेश ले लिया था, जबकि रीमा के पुरातनपंथी मातापिता ने ग्रैजुऐशन करते ही उस का विवाह कर दिया था.

मेरा रीमा से कुछ विशेष ही लगाव था. इसलिए फोन पर हमारी बातें होती रहती थीं और जब कभी रीमा मायके आती तो हम दोनों का अधिकांश समय साथ ही गुजरता था. रीमा हमेशा ही मुझ से अपनी खुशहाल जिंदगी की बातें करती. अपने पति राजेश की प्रशंसा करते तो थकती नहीं थी.

एक दिन दफ्तर से घर लौटते समय राजेश का अचानक ऐक्सीडैंट हो गया और उस ने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया. सूचना मिलते ही मैं भी रीमा के घर गई. उस पर तो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था.

कहते हैं, मुसीबत कभी अकेले नहीं आती. एक मुसीबत तो रीमा पर आन पड़ी थी दूसरे, ससुराल वालों की तीखी और कड़वी बातें उस का कलेजा छलनी कर देते. सब उसे ही पति की मौत का जिम्मेदार ठहराते.

“कुलच्छिनी, कलंकिनी, पति को खा गई…” जाने क्याक्या कटूक्तियां सुनतेसुनते रीमा के कान पक जाते. वह सोचती रहती कि अब यह जीवन कैसे कटेगा? क्या करूं, क्या न करूं?

मुझे तो एक ही हल समझ में आ रहा था कि रीमा अब अपनेआप को किसी काम में व्यस्त कर ले. व्यस्त रह कर वह अपने दुख को थोड़े समय के लिए ही सही, भुला तो सकेगी. साथ ही 5-6 घंटों के लिए सासननदों के तानों से भी उसे मुक्ति मिली रहेगी. मैं ने यही सब सोच कर अपनी बात रीमा के सामने रख दी.

आंखों में आंसू भरे रीमा ने कहा,“मुझ से नहीं होगा. फिर ससुराल वाले घर से बाहर जा कर नौकरी करने की इजाजत भी नहीं देंगे. अब तो बस घुटघुट कर मरना है.”

मैं ने उसे दिलासा देते हुए कहा,“सब ठीक हो जाएगा. धीरज रख.”

इधर रीमा के मातापिता भी अपनी बेटी के साथ हुए हादसे से बेहद दुखी व परेशान थे. उन्हें अपनी बेटी के भविष्य की चिंता सता रही थी. वे भी चाहते थे कि रीमा कोई नौकरी कर के अपनेआप को व्यस्त कर ले, जिस से उसे अपना दुख भुलाने में मदद मिले. पर रीमा के ससुराल वाले कब मानने वाले थे?

फिर पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा. रीमा की स्थिति बहू की नहीं बल्कि नौकरानी की हो गई थी. तानों की बौछारों के बीच घर का सारा काम उसी से कराया जाने लगा. नौकरों की छुट्टी कर दी गई. काम का बोझ उसे उतना परेशान न करता जितना तानों का न रुकने वाला दौर. दुखी मन और कितना दुख सहता. अब तो रीमा का मन भी मुक्ति के लिए छटपटाने लगा था. आखिर सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है जो समाप्त हो चुकी थी. विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी थी. अब उस ने तय कर लिया था कि इस नर्क से मुक्त हो कर रहेगी और मुक्ति का एक ही रास्ता है खुद अपने पैरों पर खड़े होना.

बीए पास तो वह थी ही. जहां कहीं विज्ञापन देखती, वहीं आवेदन कर देती. आखिरकार, एक प्राइवेट कंपनी में उसे सैक्रेटरी चुन लिया गया. अपना नियुक्तिपत्र देख कर क्षण भर के लिए तो वह अपने साथ हुए हादसे को भूल ही गई. खुशियों के द्वार अब उस के लिए खुल गए.

ससुराल वालों के सारे विरोधों को दरकिनार करते हुए रीमा ने अपनी नई नौकरी जौइन कर ली. उस ने एक क्वार्टर भी ले लिया. जल्द ही रीमा ने अपने कार्य और व्यवहार से दफ्तर में अपनी एक खास छवि बना ली. नया शहर, नई नौकरी, नएनए लोग, अब तक घर की चारदीवारी में रही रीमा के लिए कुछ अजीब सा तो लग रहा था पर जल्दी ही उस ने इस नए परिवेश में अपनेआप को ढाल लिया. रीमा के नीरस जीवन में बाहर सी आ गई थी. अपने जीवन के इस बदले हुए रूप की सूचना रीमा मुझे फोन पर अकसर ही देती रहती थी. जीवन में जो रिक्तता आ गई थी, उस का दर्द भी उस की बातों से जाहिर हो ही जाता था.

ससुराल वालों ने अब रीमा की खोजखबर लेना बंद कर दिया. इधर रीमा अपने पैरों पर खड़ी हो कर खुश तो थी पर संतुष्ट नहीं. आखिर दिलोजान से चाहने वाला, उस की हर खुशी पर कुरबान होने वाला पति जो उस ने खो दिया था. यह खालीपन उसे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था. मन की घुटन ने आखिर उसे तन से भी कमजोर बना दिया. एक बार तो वह इतनी बीमार हुई कि उस ने बिस्तर ही पकड़ लिया.

कई दिनों तक वह दफ्तर नहीं गई. एक आवश्यक मीटिंग के पेपर तैयार करने थे. रीमा के बौस मिस्टर बिनोद खुद इस संबंध में रीमा से मिलने उस के घर पहुंच गए. रीमा का बुखार से तमतमाया चेहरा और सूजी हुई आंखें देख कर वे हैरत में पड़ गए। बोले,“मुझे तुम्हारी बीमारी की सूचना तो मिली थी पर मैं ने सोचा कि देखभाल और आराम करने से अब शायद आप बेहतर होंगी. पर यह क्या, आप यहां अकेली और इस हाल में? घर के बाकी लोग कहां हैं?”

रीमा ने वस्तुस्थिति पर परदा डालने की कोशिश की मगर मिस्टर बिनोद से शायद कुछ छिपा नहीं रह गया.
उसे तत्काल अस्पताल ले कर गए. रीमा को भरती कर लिया गया. सारे चैकअप किए जा रहे थे. लंबे समय से अत्यधिक मानसिक तनाव झेल रही रीमा का ब्लडप्रैशर हाई हो गया था. डाक्टर ने आराम करने की सलाह दी थी.

पूरी तरह ठीक होने तक उसे अस्पताल में ही रहना था. अकेली रीमा अस्पताल में यह सोच कर परेशान हो रही थी कि यहां कौन उस की देखभाल करेगा? इस से तो वह घर पर ही ठीक थी. उस का विचार मंथन चल ही रहा था कि सामने से बिनोद साहब आते हुए दिखाई दिए. हाथ मैं थरमस और जाने कितने पैकेटों को लिए हुए.

रीमा को अपने हाथों से थरमस से चाय निकाल कर दी. पैकेट से फल और दवाइयां निकाल कर रैक में रखा और पास ही बैठ गए. जाने कितनी देर वे यों ही बैठे रहे और बातों से रीमा का दिल बहलाते रहे, जिस से अस्पताल में रह कर वह बोर न हो. रीमा ने कहा भी,”सर, देर बहुत हो चुकी है. अब आप घर जाइए. मैं ठीक हूं.”

“लेकिन तुम्हें इस तरह अकेली छोड़ कर…”

“कोई बात नहीं सर, अकेले रहने की वैसे भी मेरी आदत है. फिर यहां डाक्टर व नर्स तो हैं ही मेरी देखभाल करने के लिए.”

“ठीक है, अपना ध्यान रखिएगा,” जातेजाते भी बिनोद साहब डाक्टर व नर्स से रीमा का ध्यान रखने को कह गए.

सुबह रीमा की आंखें भी नहीं खुली थीं और बिनोद साहब हाजिर थे. थोड़ी देर रीमा के उठने का इंतजार करते रहे फिर अस्पताल के बाहर जा कर टी स्टौल से थरमस में चाय ले कर आ गए. रीमा अब तक जाग चुकी थी. उसे अपने हाथों से चाय का प्याला थमाते हुए बोले,“गुडमौर्निंग.”

रीमा को सुखद आश्चर्य हुआ. कभी अपनों ने इतना खयाल नहीं रखा और कहां यह. मेरे बौस अवश्य हैं पर इन से मेरा कोई खून का रिश्ता तो नहीं. अब तक उपेक्षाओं का शिकार रही रीमा को संकट की घड़ी में बौस का यों साथ रहना, अस्पताल में देखभाल करना उसे सुखद भी लग रहा था. मानो तपती दुपहरी में शीतल हवा का झोंका उस के तनमन को ठंडक पहुंचा गया.

5 दिनों के बाद पूर्णतया स्वस्थ हो कर आज रीमा अस्पताल से डिस्चार्ज हो गई. इन 5 दिनों में बिनोद साहब ने रीमा का इस तरह ध्यान रखा कि शायद परिवार वाले भी इतना न कर पाते.

रीमा ने फिर से दफ्तर जाना शुरू कर दिया. आज बौस के आते ही उस ने उन्हें धन्यवाद दिया. बौस ने पूछा,”धन्यवाद किसलिए?”

“सर, आप ने मेरा इतना खयाल रखा. आजकल तो अपने भी अपनों के लिए इतना नहीं करते.”

बौस ने सिर ऊपर उठाया,“मैं आप की बात समझा नहीं. आखिर आप ने यह भ्रम क्यों पाल रखा है कि अपने भी अपनों के लिए कुछ नहीं करते.”

“कुछ नहीं सर, बस यों ही.”

रीमा की आंखों से बह चले आंसुओं को बौस ने देख लिया. रीमा अपने केबिन में जा चुकी थी. शाम को औफिस के सारे काम समेट कर रीमा जाने की तैयारी में थी कि तभी चपरासी ने आ कर सूचना दी कि साहब ने याद किया है. रीमा बिनोद साहब से मिलने गई.

“सर?”

“रीमाजी, यदि आप को ऐतराज न होतो आज शाम कौफी हाउस में कौफी पी जाए?”

रीमा पशोपेश में पड़ गई, जिसे बिनोद साहब ने भांप लिया,”देखिए, आप गलत न समझें. यह सिर्फ प्रस्ताव है, कोई बाध्यता नहीं. यदि आप को आपत्ति है, तो कोई बात नहीं.”

“नहीं सर, ऐसी बात नहीं है,” रीमा के सामने बौस के द्वारा अब तक किए गए निस्वार्थ उपकार घूम गए. उन के निश्चल, निष्कपट और शालीनता के कायल औफिस के सभी कर्मचारी थे. शक का तो सवाल ही नहीं उठता. इसलिए वह चलने को तैयार हो गई।

कुछ ही देर में वे कौफी हाउस पहुंच गए. “देखिए रीमाजी, मैं शुरू से ही आप के भीतर छिपे दर्द को महसूस कर रहा हूं. यदि वह दर्द आप छिपा कर रखेंगी तो भीतर ही भीतर घुट कर रह जाएंगी. यदि आप चाहें तो अपना दर्द मेरे साथ शेयर कर सकती हैं. विश्वास कीजिए. मैं बौस की हैसियत से नहीं, बल्कि इंसानियत और दोस्त के नाते आप का दर्द बांटना चाहता हूं. बचपन में ही मेरे मातापिता चल बसे थे. मैं उन की इकलौती संतान था. वजीफा ले कर पढ़ाई की और आज यहां तक पहुंचा हूं. मैं अपने मातापिता का सहारा तो नहीं बन सका. अब अगर किसी के काम आ सका तो मैं अपना जीवन धन्य समझूंगा.”

रीमा की आंखों से आंसूओं की धार बह निकली. मिस्टर बिनोद ने उस की दुखती रग पर हाथ क्या रखा, उस ने तो रोते हुए अपने साथ हुए हादसे की जानकारी उन्हें दे दी. पति की मौत के बाद ससुराल वालों का उपेक्षा भरा बरताव और प्रताड़ना की दुखद दास्तान सुन कर तो बिनोद भी विचलित से हो गए. उन्होंने रीमा को सांत्वना दी, “रीमाजी, आप के साथ जो कुछ हुआ, उस का मुझे अफसोस है लेकिन आप कब तक इस तरह घुटती रहेंगी. आप के सामने पूरा जीवन पड़ा है. माना कि आप के पास अच्छी नौकरी है, पर जीने के लिए सिर्फ नौकरी और पैसा नहीं, खुशी की भी दरकार होती है. यदि आप बुरा न मानें तो मैं आप की खुशियां लौटा सकता हूं?”

“सर, मैं समझी नहीं.”

“आप अन्यथा न लें,” बौस ने कहा,“मैं और आप दोनों ही अपनों से जुदा हो कर एकाकी और नीरस जीवन जी रहे हैं. यदि आप चाहें तो हम एकदूसरे के हमसफर बन कर अपने जीवन की बगिया को फिर से महका सकते हैं.”

“सर, मैं इस समय कुछ भी नहीं सोच पा रही हूं.”

“कोई बात नहीं. आप की जो भी मरजी होगी, मुझे स्वीकार होगा. बस, इतना समझ लीजिए कि मैं यह सब किसी स्वार्थवश नहीं कह रहा था. मैं हृदय से आप को अपनाना चाहता हूं. आप को खुशी देना चाहता हूं.” रीमा असमंजस में थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था क्या करे और क्या न करे.

मुझे तो वह जब भी फोन करती, बौस की चर्चा और उन की तारीफ जरूर करती थी. कौफी हाउस की सारी बातें उस ने मुझे फोन पर बताई और यह भी कहा,“मेरी तो समझ में नहीं आ रहा क्या जवाब दूं. तू तो मेरी सहेली है, अब तू ही बता?”

यदि उजड़ी बगिया में फिर से बहार आ जाए तो उस से अच्छा और क्या हो सकता है?” मैं ने उसे तत्काल सुझाव दे डाला,“अब देर मत कर. अपना उजड़ा जीवन फिर से संवार ले.”

और अब कल ही रीमा का फोन आया,“मैं ने अपने बौस से शादी कर ली है. बिना किसी धूमधड़ाके के. बस इस खुशी में मैं तुझे शामिल करना चाहती हूं. तू जल्दी आ जा.”

अपनी प्रिय सखी का स्नेह निमंत्रण भला मैं कैसे टाल सकती थी. 5-6 घंटे के सफर के बाद मैं मुंबई पहुंच गई. औटो ले कर सीधे रीमा के घर पहुंची. कौलबेल बजाई. दरवाजा खोलने वाला सुदर्शन, सभ्य व अच्छी कदकाठी का व्यक्ति था. बड़ी शालीनता से अभिवादन कर उस ने मुझे अंदर आने के लिए कहा. तब तक रीमा भी बाहर आ चुकी थी. उस ने ही परिचय कराया,“यही हैं मेरे पति मिस्टर बिनोद.”

रीमा गले लग गई. उस की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली. ये खुशी के आंसू थे.
हम दोनों बातचीत में मशगूल थे. इतने में रीमा के पति चाय की ट्रे लिए बैठक में आ गए.

रीमा ने चहकते हुए कहा,“जनाब, यह अस्पताल नहीं, घर है. घर में तो चाय मुझे बनाने देते.”

“अरे, क्या अस्पताल और क्या घर, बंदा तो आप की सेवा में हरदम ही हाजिर है.”

हंसी के ठहाकों से कमरा गूंज गया.
जीवन को टूटी डोर फिर से जुड़ गई थी. उजड़ी और वीरान बगिया में खुशियों के फूल फिर से खिल उठे थे. Hindi Family Story.

Hindi Romantic Story: उस का घर- प्रेरणा की खामोश जिंदगी के किस्सों की कहानी

Hindi Romantic Story: बहुत अजीब थी वह सुबह. आवाजरहित सुबह. सबकुछ खामोश. भयानक सन्नाटा. किसी तरह ही आवाज का नामोनिशान न था. उस ने हथेलियां रगड़ीं, सर्दी के लिए नहीं, सरसराहट की आवाज के लिए. खिड़की खोली, सोचा, हवा के झोंके से ही कोई आवाज हो सकती है. लकड़ी के फर्श पर भी थपथपाया कि आवाज तो हो. कुछ भी, कहीं से सुनाई तो पड़े. पेड़ भी सुन्न खड़े थे, आवाजरहित.

उस ने अपनी घंटी बजाई, थोड़ी आवाज हुई…आवाज होती थी, मर जाती थी, कोई अनुगूंज नहीं बचती थी. ये कैसे पेड़ थे. कैसी हवा थी, हरकतरहित जिस में न सुर, न ताल. उस ने खांस कर देखा. खांसी भी मर गई थी जैसे प्रेरणा, उस की दोस्त…अब उस की कभी आवाज नहीं आएगी. वह क्या गई, मानो सबकुछ अचानक मर गया हो. यह सोच कर उस के हाथपैर ठंडे पड़ने लगे. शायद वह प्रेरणा की मौत की खबर को सहन नहीं कर पा रहा था. पिछले सप्ताह ही तो मिली थी उसे वह.

अब तक तो अंतिम संस्कार भी हो गया होगा. हैरान था वह खुद पर. अब तक हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाया उस के घर जाने की. शायद लोगों को उस की मौत का मातम मनाते देख नहीं सकता था, या फिर प्रेरणा की छवि जो उस के जेहन में थी उसे संजो कर रखना चाहता था.

अंतिम संस्कार हुए 4 दिन हो चुके थे. तैयार हो कर उस ने गैराज से कार निकाली और भारी मन से चल दिया. रास्तेभर यही सोचता रहा, वहां जा कर क्या कहेगा. आज तक वह किसी शोकाकुल माहौल में गया नहीं. वह नहीं जानता था कि ऐसी स्थिति में क्या कहना चाहिए, क्या करना चाहिए. यही सोचतेसोचते प्रेरणा के घर की सड़क भी आ गई. उस का दिल धड़कने लगा. दोनों ओर कतारों में पेड़ थे. उस का मन तो धुंधला था ही, धुंध ने वातावरण को भी धुंधला कर दिया था. उस ने अपना चश्मा साफ किया, बड़ी मुश्किल से उस के घर का नंबर दिखाई दिया. घर बहुत अंदर की तरफ था. उस ने कार बाहर ही पार्क कर दी. कार से पांव बाहर रखते ही उस के पांव साथ देने से इनकार करने लगे. बाहर लगे लोहे के गेट की कुंडी हटाते ही, लोहे के टकराव से, कुछ क्षणों के लिए वातावरण में एक आवाज गूंजी. वह भी धीरेधीरे मरती गई. पलभर को उसे लगा, मानो प्रेरणा सिसकियां भर रही हो…

वहां 3 कारें खड़ी थीं. घर के चारों ओर इतने पेड़ लगे थे कि उस के मन के अंधेरे और बढ़ने लगे. एक भयानक नीरवता चारों ओर घिरी थी. लगता था हमेशा की तरह ब्रिटेन की मरियल धूप कहीं दुबक कर बैठ गई थी. बादल बरसने को तैयार थे.

मन के भंवर में धंसताधंसता न जाने कब और कैसे उस के दरवाजे पर पहुंचा. दिल की धड़कन बढ़ने लगी. एक पायदान दरवाजे के बाहर पड़ा था. उस ने जूते साफ किए और गहरी सांस ली. उस ने घंटी बजाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि दरवाजा खुला. शायद लोहे के गेट की गुंजन ने इत्तला दे दी होगी. प्रेरणा के पति ने उस के आगे बढ़े हाथ को अनदेखा कर, रूखेपन से कहा, ‘‘अंदर आओ.’’

उस ने अपना हाथ पीछे करते कहा, ‘‘आई एम राहुल. प्रेरणा और मैं एक ही कंपनी में काम करते थे.’’

‘‘आई एम सुरेश, बैठो,’’ उस ने सोफे की ओर इशारा करते कहा.

सोफे पर बैठने से पहले राहुल ने नजरें इधरउधर दौड़ाईं और कुछ बिखरी चीजें सोफे से हटा कर बैठ गया. राहुल को विश्वास नहीं हुआ, हैरान था वह, क्या सचमुच यह प्रेरणा का घर है. यहां तो उस के व्यक्तित्व से कुछ भी तालमेल नहीं खाता. दीवारें भी सूनीसहमी खड़ी थीं. उन पर न कोई पेंटिंग, न ही कोई तसवीर. अखबारों के पन्ने, कुशन यहांवहां बिखरे पड़े थे. टैलीविजन व फर्नीचर पर धूल चमक रही थी. बीच की मेज पर पड़े चाय के खाली प्यालों में से चाय के सूखे दाग झांकझांक कर अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे थे.

हर तरफ वीरानगी थी. लगता था मानो घर की दीवारें तक मातम मना रही हों. दिलों के विभाजन की गंध सारे घर में फैली थी. अचानक उस की नजर एक कोने में बैठे 2 उदास कुत्तों पर पड़ी जो सिर झुकाए बैठे थे. शायद वे भी प्रेरणा की मौत का मातम मना रहे थे.

‘‘राहुल, चाय?’’

‘‘नहींनहीं, चाय की आवश्यकता नहीं, आ तो मैं पहले ही जाता, सोचा, अंतिम संस्कार के बाद ही जाऊंगा, तब तक लोगों का आनाजाना कुछ कम हो जाएगा.

‘‘वैसे, प्रेरणा ने आप का जिक्र तो कभी किया नहीं. हां, अगर आप पहले आ जाते तो अच्छा ही रहता, आप का नाम भी उस के चाहने वालों की सूची में आ जाता. सच पूछो तो मैं नहीं जानता था कि हिंदी में कविता और कहानियों की इतनी मांग है. क्या आज के युग में भी सभ्य इंसान हिंदी बोलता या पढ़ता है?’’ प्रेरणा के पति ने बड़े पस्त और व्यंग्यात्मक लहजे में कहा.

‘‘प्रेरणा तो बहुत अच्छा लिखती थी. उस की एकएक कविता मन को छू लेने वाली है. व्यक्तिगत दुखसुख व प्रेम के रंगों की सुगंध है. ऐसी संवदेनाएं हैं जो पाठकों व श्रोताओं को आपबीती लगती हैं. आप ने तो पढ़ी होंगी,’’ राहुल ने कहा.

इतना सुनते ही एक कुटिल छिपी मुसकराहट उस के चेहरे पर फैल गई. उस ने राहुल की बात को तूल न देते हुए संदर्भ बदल कर कहना शुरू किया, ‘‘अच्छा हुआ, आप वहां नहीं थे. कैसे बेवकूफ बना गई वह मुझे, मैं जान ही नहीं पाया कि मेरी पार्टनर कितनी फ्लर्ट थी. कितने दोस्त आए थे अंतिम संस्कार के मौके पर. उस वक्त हमारे परिवार का समाज के सामने नजरें उठाना दूभर हो गया था. उम्रभर मना करता रहा, ऐसी प्रेमभरी कविताएं मत लिखो, बदनामी होगी, लोग क्या कहेंगे. वही हुआ जिस का डर था. लोग कानाफूसी कर रहे थे, बुदबुदा रहे थे, ‘पति हैं, बच्चे हैं…’ किस के लिए लिखती थी?’’ इतना कह कर कुछ क्षण वह चुप रहा, फिर बिफरता सा बोला, ‘‘राहुल, कहीं वह तुम्हारे लिए तो…’’ उस की जबान बेलगाम चलती रही.

राहुल हैरान था, क्या यह वही दरिंदा है जिस से वह एक बार कंपनी के सालाना डिनर पर मिला था. राहुल कसमसाता रहा, तय नहीं कर पा रहा था कि उस की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए. पलभर को उस का मन किया कि उठ कर चला जाए, फिर मन को समझाते बुदबुदाया, ‘मैं उस के स्तर पर नहीं गिर सकता.’ वक्त की नजाकत को देखते वह गुस्से को पी गया. मन में तो उस के आया कि इस पत्थरदिल से साफसाफ कह दे, हां, हां, था रिश्ता.

मानवता के रिश्ते को जो नाम देना चाहो, दे दो. जीवन का सच तो यह है कि प्रेरणा मेरे जीवन में रोशनी बन कर आई थी और आंसू बन कर चली गई.

वहां बैठेबैठे राहुल को एक घंटा हो चुका था. अभी तक घर में अक्षुब्ध शांति थी. चुप्पी को भंग करते राहुल ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, बच्चे दिखाई नहीं दे रहे?’’

‘‘श्रुति तो कालेज गई है, रुचि सहेलियों के साथ बाहर गई है. सारा दिन घर में बैठ कर करेगी भी क्या. मैं उस की मां की मौत को बड़ा मुद्दा बना कर उन की पढ़ाई में विघ्न नहीं डालना चाहता. घर को बिखरते नहीं देख सकता. मेरा घर मेरे लिए सबकुछ है, इसे बनाने में मैं ने बहुत पैसा और जान लगाई है. प्रेरणा ने तो पीछा छुड़ा लिया है सभी जिम्मेदारियों से. बच्चों की पढ़ाई, विवाह, घर का लोन सब मुझे ही तो चुकाना है. इस के लिए पैसा भी तो चाहिए,’’ वह भावहीन बोलता गया.

राहुल ने सबकुछ जानते हुए भी विरोध का नहीं, मौन के हथियार को अपनाना सही समझा. सोचने लगा, जो तुम नहीं जानते, मैं वह जानता हूं. मैं ने ही तो करवाया था प्रेरणा के मकान के लिए इतना बड़ा लोन सैंक्शन. फिर लोन का इंश्योरैंस कराने के लिए उसे बाध्य भी किया. इस सुरेश पाखंडी ने प्रेरणा को बदले में क्या दिया? आंसू, यातनाएं, उम्रभर आजादी से कलम न उठा पाने की बंदिशें? एक मैं ही था जिसे वह पति के नुकीले शब्दों के कंकड़ों से पड़े दाग दिखा सकती थी. उस की हंसी तक खोखली हो चुकी थी. अकसर वह कहती थी कि उसे अपना घर कभी अपना नहीं लगा. वह सीखती रही अशांति में भी शांति से जीने की कला. वह खुद पर मुखौटा चढ़ा कर उम्रभर खुद को धोखा देती रही.

राहुल की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. वह प्रेरणा की लिखनेपढ़ने की जगह देखने को उतावला हो रहा था. अभी तक उसे कोई सुराग नहीं मिला था. कभी बाथरूम इस्तेमाल करने का बहाना कर के दूसरे कमरों में झांक कर देखा, कहीं भी स्टडी टेबल दिखाई नहीं दी. राहुल टटोलता रहा. चाय पीतेपीते जब राहुल से रहा नहीं गया, तो हिम्मत बटोर कर उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, क्या मैं प्रेरणा का अध्ययन करने का स्थान देख सकता हूं. आई मीन, जहां बैठ कर वह पढ़ालिखा करती थी?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोला, ‘‘आओ मेरे साथ, वह देखो, सामने,’’ उस ने गार्डन में एक खोके की ओर इशारा किया और फिर बोला, ‘‘वह जो आखिर में कमरा है वही था उस का स्टडीरूम.’’

राहुल भलीभांति जानता था कि जिसे वह कमरा कह रहा है वह कमरा नहीं, 5×8 फुट का लकड़ी का शैड है. मुरगीखाने से भी छोटा. शैड को खोलते ही राहुल का दिमाग चकरी की तरह घूमने लगा. शैड के चारों और मकड़ी के जाले लगे थे. सीलन की गंध पसरी थी. शैड फालतू सामान से भरा था. उस की दीवारों पर फावड़ा, खुरपी, कैंची, फौर्क वगैरह टंगे थे.

एकदो पुराने सूटकेस और पेंट के खाली डब्बे पड़े थे. आधा हिस्सा तो घास काटने वाली मशीन ने ले लिया था, बाकी थोड़ी सी जगह में पुराना लोहे का बुकशैल्फ था, जिस पर शायद प्रेरणा किताबें, पैन, पेपर रखती रही होगी. कुछ मोमबत्तियां और बैट्री वाली हैलोजन की बत्तियां पड़ी थीं. दीवार से टिकी 2 फुट की फोल्ंिडग मेज और फोल्ंिडग गार्डनकुरसी पड़ी थीं. एक छोटा सा पोर्टेबल हीटर भी पड़ा था. फर्श पर चूहे व कीड़ेमकोडे़ दौड़ रहे थे. बिजली का वहां कोई प्रबंध नहीं था. हां, एक छोटी सी प्लास्टिक की खिड़की जरूर थी जहां से दिन की रोशनी झांक रही थी. अविश्वसनीय था कि कैसे एक इंसान दूसरे से किस हद तक क्रूर हो सकता है.

डरतेडरते राहुल ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘भला बिना बिजली के कैसे लिखती होगी? डर भी तो लगता होगा?’’

‘‘डर, वह सामने 2 कुत्ते देख रहे हो, प्रेरणा के वफादार कुत्ते. उस की किसी चीज को हाथ लगा कर तो देखो, खाने को दौड़ पड़ेंगे.

‘‘प्रेरणा के अंगरक्षक या बौडीगार्ड, जो चाहे कह लो. यह कहावत तो सुनी होगी तुम ने, ‘जहां चाह वहां राह? मेरे सामने उसे लिखने की इजाजत ही कहां थी. मुझे तो बच्चों की मां और मेरी पत्नी चाहिए थी, लेखिका नहीं. मैं नहीं चाहता था मेरे घर में कविताओं के माध्यम से प्रेम का इजहार हो. देखो न, अब बेकार हैं उस की सब किताबें. कौन पढ़ना चाहेगा इन्हें? बच्चे तो पढ़ेंगे नहीं. नौकर से कह कर बक्से में रखना ही है. तुम चाहो तो ले जा सकते हो वरना रद्दी वाला ले जाएगा या फिर मैं गार्डन में लोहड़ी जला दूंगा,’’ उस ने क्रूरता से कहा.

राहुल को लगा उस के कानों में किसी ने किरचियां डाल दी हों. राहुल उसे कह भी क्या सकता था, वह प्रेरणा का पति था. बस, बड़बड़ाता रहा, ‘जा, थोड़ा सा दिल खरीद कर ला, कैसा मर्द है समानता का दर्जा तो क्या, उसे उस के हिसाब से जीने का हक तक न दे सका. तुम क्या जानो कुबेर का खजाना. लेखन का भी एक अनूठा नशा होता है. पत्रिका या किताबों पर अपना नाम देख कर अपने लिखे शब्दों को देख कर जो शब्द धुएं की तरह मन में उठते हैं और हमेशा के लिए कागज पर अंकित हो जाते हैं, दुनिया में कोई और चीज उन से अधिक स्थायी नहीं हो सकती.’

‘‘सर, कुछ किताबें तो रख लेते यादगार के लिए.’’

‘‘यादगार, बेकार की बातें क्यों करते हो. औरत भी कोई याद रखने की चीज है क्या. हां, प्रेरणा ने 2 बच्चियां जरूर दी हैं, उन के लिए मैं आभारी हूं. जानवर भी घर में रहता है तो उस से मोह हो ही जाता है.’’

राहुल अब वहां पलभर भी रुकना नहीं चाहता था. सोचने लगा, इतनी तौहीन, कठोर शब्दों के बाण. शाबाशी है प्रेरणा को, जो ऐसी बंदिशों व घुटनभरी जिंदगी की रेलपेल से पिस्तेपिस्ते भी अपना काम करती रही.

भारी मन से गार्डन से अंदर आतेआते राहुल का पांव हाल में पड़े एक खुले गत्ते के डब्बे से टकराया, जिस में से प्रेरणा का सभी सामान और ट्रौफियां उचकउचक कर झांक रहे थे.

‘‘लगी तो नहीं तुम्हें? मैं तो इन्हें देख कर आपे से बाहर हो जाता हूं. नौकर से कह कर इन्हें बक्से में रखवा दिया है. इन्हें कबाड़ी वाले को धातु के भाव दे दूंगा.’’

उस की हृदयहीन बातें राहुल के हृदय को बींधती रहीं. कितनी आसानी से समेट लिया था सुरेश ने सबकुछ. प्रेरणा की 25 वर्षों की मेहनत के अध्याय को चार दिन में अपने जीवन से निकाल कर फेंक दिया था उस ने. अभी तो उस की राख भी ठंडी नहीं हुई थी, उस का तो नामोनिशान तक मिटा दिया इस बेदर्द ने.

इतनी  नफरत, आखिर क्यों? फिर वह मन ही मन ही बड़बड़ाने लगा, ‘हो सकता है प्रेरणा की तरक्की से जलता हो. इस का क्या गया, खोया तो मैं ने है अपना सोलमेट. अब किस से करूंगा मन की बातें. कौन सुनेगा एकदूसरे की कविताएं,’ बहुत रोकतेरोकते भी राहुल की आंखें भर्रा गईं.

राहुल की भराई आंखें देख कर सुरेश का चेहरा तमतमा उठा, भौंहों पर बल पड़ गए, माथे की रेखाएं गहरा गईं. उस के स्वर में कसैलापन झलका, वह बोला, ‘‘आई सी, राहुल, कहीं तुम वह तो नहीं हो जिस के साथ वह रात को देरदेर तक बातें करती रहती थी, आई मीन उस के बौयफ्रैंड?’’

इतना सुनते ही राहुल की सांस रुक गई. निगाह ठहर गई. उसे लगा जैसे किसी ने उस के गाल पर तमाचा जड़ दिया हो या फिर पंजा डाल कर उस का दिल चाकचाक कर दिया हो. प्रेरणा तो उस की दोस्त थी, केवल दोस्त जिस में न कोई शर्त, न आडंबर, खालिस अपनेपन की गहनता. प्रेरणा के पास नई राह पर चलने का हौसला नहीं था. उस की खामोशी शब्दों में परिभाषित रहती थी. ऐसी थी वह.

राहुल वहां से भाग जाना चाहता था. वह अपनी खामोश गीली आंखों में चुपचाप प्रेरणा की असहनीय पीड़ा को गले लगाए, उस की कुर्बानियों पर कुर्बान महसूस करता अपने घर को निकलने की तैयारी करने लगा. उसे संतुष्टि थी कि अब प्रेरणा आजाद है. उसे याद आया प्रेरणा अकसर कहा करती थी, ‘भविष्य क्या है, मैं नहीं जानती. इतना जरूर जानती हूं कि सीतासावित्री का जीवन भी इस देश में गायभैंस के जीवन जैसा है, जिन के गले की रस्सी पर उस का कोई अधिकार नहीं.’’

जैसे ही राहुल अपना पैर चौखट के बाहर रखने लगा, उस ने दोनों बक्सों की ओर देखा और सोचा, ‘प्रेरणा की 25 वर्षों की अमूल्य कमाई मैं इस विषैले वातावरण में दोबारा मरने के लिए नहीं छोड़ सकता.’’

राहुल ने प्रेरणा के पति की ओर देखते इशारे से पूछा, ‘‘सर, क्या मैं इन्हें ले जा सकता हूं?’’

‘‘शौक से, लेकिन इन कुत्तों से इजाजत ले लेना?’’

राहुल ने दोनों बक्सों को छूते हुए, कुत्तों की ओर देखा. कुत्ते पूंछ हिला रहे थे. उस ने बक्से कार में रखे. कुत्ते उस के पीछेपीछे कार तक गए, मानो, कह रहे हों प्रेरणा का घर तो कभी उस का था ही नहीं. Hindi Romantic Story.

Hindi Stories: हीरोइन – आखिर कमला ने इतनी कम उम्र में क्यों शादी की ?

Hindi Stories: स्थानांतरण हमारे जीवन का एक अंग बन चुका था किंतु लखनऊ स्थानांतरण के नाम पर मेरी पत्नी सदैव आतंकित रहती थी. पहले तो सरकारी मकान की दिक्कत और दूसरे, घर पर कामकाज करने वालों की किल्लत. घर के बाकी सब काम तो जैसेतैसे हो जाते थे किंतु बरतन साफ करना, झाड़ू पोंछा करना ऐसे काम थे जिन्हें सुन कर ही पत्नी का तापमान सामान्य से ऊपर पहुंच जाता था. पूरे घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता था. दिन भर पत्नी मुझ पर, बच्चों पर और खुद पर भी झल्लाती रहती थी. बच्चों के दोचार थप्पड़ भी लग जाना स्वाभाविक ही था. इसलिए लगभग 5 वर्ष पूर्व जब मैं लखनऊ स्थानांतरित हो कर आया था तो इस आशंका से भयंकर रूप से त्रस्त था.

भागदौड़ कर के दारुलशफा (विधायक निवास) के चक्कर काट कर मुझे कालोनी में मकान मिल गया था. वह मेरे लिए कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था. किराए के मकानों की दशा से कौन परिचित नहीं है. खुशामद और सामर्थ्य से परे किराया और दिनप्रतिदिन की कहासुनी. तनाव का एक छोटा हिस्सा मकान मिलने से अवश्य कम हुआ था किंतु उस का अधिकांश भाग तब तक घर पर मंडराता रहा जब तक चौकाबासन करने वाली महरी की व्यवस्था नहीं हो गई.

वास्तव में पत्नी से अधिक महरी की चिंता मुझे थी. मैं ने लखनऊ आते ही पूछताछ करनी प्रारंभ कर दी थी. आसपास के घरों में सुबहशाम आतीजाती महरीनुमा औरतों पर निगाह रखना शुरू कर दिया था. 1-2 महरियां दीख पड़ीं, लेकिन उन्होंने बात करते ही ‘खाली नहीं’ की तख्ती दिखा दी. एक सप्ताह बाद पत्नी का धैर्य तेज धूप में कच्ची दीवार सा चटखने लगा. 15 दिन बीततेबीतते उस के चेहरे पर तनाव भी परिलक्षित होना स्वाभाविक ही था.

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इतनी बड़ी कालोनी में मेरे ही विभाग के अनेक अधिकारी निवास करते थे. धीरेधीरे मैं ने सभी के सामने महरी की समस्या रखी. अंतत: कमला के बारे में मुझे पता चला किंतु सहयोगी अरविंदजी ने मुझे उस की चर्चा के साथ ही सचेत करते हुए कह दिया था, ‘‘भाई, कालोनी की हीरोइन है कमला, एकदम आधुनिका. बड़ी नखरेबाज. उस की हर किसी के साथ निभ पाना संभव नहीं है.’’

मैं ने पत्नी को आ कर सब बता दिया था और कमला को बुलाने का आग्रह किया था. कमला आई थी तो उसे देख कर मैं भी पहले दिन ही चकित रह गया था. वह देखने में 30 के आसपास थी. सांवला रंग किंतु तीखे नाकनक्श, सलीके से संवरी हुई आकृति और साफसुथरे कपड़े, अंगूठी से घिरी 2 उंगलियां, कलाई में घड़ी और साधारण एड़ी वाली चप्पलें. उसे देख कर यह विश्वास नहीं हुआ कि वह स्त्री घरों में बरतन मांजने और झाड़ू पोंछे का काम करती थी.

प्रारंभिक वार्त्ता के बाद कमला ने कार्य प्रारंभ कर दिया था. बाद में पता चला था कि वह इत्तफाक ही था कि एक अधिकारी के स्थानांतरण के फलस्वरूप कमला अभी हाल में ही खाली हुई थी. वरना उस का नियम था कि वह एक ही समय में 5 से अधिक घरों में काम नहीं करती थी.

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कमला का काम जहां एक ओर अति स्वच्छ व व्यवस्थित था वहीं दूसरी ओर उस में स्वयं एक सौम्यता व गंभीरता दीख पड़ती थी. घड़ी की सूइयों के साथ वह प्रात: सवा 8 बजे आती थी और 45 मिनट में सारे कार्यों से निवृत्त हो कर चली जाती थी. सायं ठीक सवा 5 बजे कमला घर में घुसती थी और पौने 6 बजे तक घर से निकल जाती थी. न तो वह अधिक बोलती थी और न ही उसे सुनने की कोई आदत थी.

जैसेजैसे समय बीतता गया, हम कमला के बारे में और अधिक जानते गए. उस का पति बीमा कार्यालय में चपरासी था. 3 बच्चे थे उन के. बड़ा लड़का और 2 लड़कियां. कमला को देख कर हम तो यही सोचते थे कि अभी बच्चे छोटे ही होंगे. किंतु मुझे उस दिन घोर आश्चर्य हुआ जब एक 16-17 वर्षीय लड़के ने घर आ कर पूछा था, ‘‘मां आई थीं?’’

‘‘किस की मां?’’ पत्नी ने सकपका कर पूछा था.

‘‘मेरी मां, कमलाजी.’’

‘‘कमला,’’ पत्नी हतप्रभ सी धीरे से मुसकरा दी. फिर सहजता धारण कर के बोली, ‘‘हमारे यहां तो सवा 5 बजे आती है. अभी तो देर है.’’

वह लड़का अभिवादन कर के लौट गया.

पता नहीं क्यों पत्नी के हृदय में एक कुलबुलाहट सी हुई. उस दिन कमला के आने पर पत्नी ने उस के लड़के के आने के बारे में बताते हुए बातों का सिलसिला शुरू कर दिया.

‘‘जी, बीबीजी,’’ कमला ने बताया, ‘‘घर पर अचानक कुछ मेहमान आ गए थे. जल्दी में थे. इसलिए लड़का ढूंढ़ रहा था.’’

‘‘मगर तुम्हारा लड़का और इतना बड़ा?’’ पत्नी रोक न सकी अपनी जिज्ञासा को.

कमला ने शरम से मुंह नीचे कर लिया. पहली बार उस के चेहरे पर स्मित की लहरें उभर आईं.

‘‘तुम देखने में तो इतनी बड़ी उम्र की नहीं लगती हो?’’ पत्नी ने धीरे से बात बनाई थी.

कमला हंसने लगी. फिर दबे स्वर में बोली, ‘‘बीबीजी, कुछ तो शादी ही जल्दी हो गई थी. वैसे अब 33 की तो हो ही रही हूं.’’

कमला ने आगे बताया था कि उस के पिता बरेली में एक स्कूल में अध्यापक थे. घर में पढ़नेलिखने का वातावरण भी था. कमला की 2 बहनों ने इंटर पास किया था. उन की शादी हो गई थी. छोटा भाई बी.ए. कर के कचहरी में बाबू हो गया था.

कमला जब केवल 15 वर्ष की ही थी तो पड़ोस में रह रहे नवयुवक के प्रेमजाल में फंस कर वह उस के साथ लखनऊ चली आई थी. उस समय वह 9वीं की परीक्षा दे चुकी थी. नवयुवक यानी उस के पति के मामा ने उन्हें शरण दी थी तथा कचहरी में विवाह कराया था. उस का पति हाईस्कूल पास था. मामा ने ही सिफारिश कर के उस की बीमा दफ्तर में नौकरी लगवा दी थी.

कमला के पिता और घर के अन्य सदस्य उस घटना के बाद इतने अपमानित व क्षुब्ध थे कि उन्होंने कमला से सदा के लिए अपने संबंध विच्छेद कर लिए थे. उधर पति के घर वाले भी उतने ही नाराज थे किंतु धीरेधीरे उन से संबंध सुधर गए थे. लगभग 1 वर्ष बाद पुत्र का जन्म हुआ था और बाद में 2 लड़कियों का. अब उन में से एक 15 साल की थी और दूसरी 9 साल की.

हमें लखनऊ में आए लगभग 3 साल बीत चुके थे. अब सब व्यवस्थित हो चला था. कमला से कभीकभार खुल कर बातें भी होने लगी थीं किंतु न तो उस के नित्यक्रम में कोई अंतर आया था और न ही उस में. कमला की कुछ और भी विशिष्टताएं थीं. वह कभी हमारे घर पर कुछ खातीपीती नहीं थी. और तो और वह कभी चाय भी नहीं लेती थी. घर से खाने का कोई सामान स्वीकार न करना और न ही तीजत्योहार पर किसी अतिरिक्त पैसे, कपड़े या वस्तु की मांग करना. प्रारंभ में हमें लगा कि संभवत: महानगर की ऐसी ही प्रथा हो, किंतु बाद में यह भ्रांति भी दूर हो गई.

उस दिन के बाद कमला का लड़का भी कभी हमारे घर नहीं आया था. पता चला था कि वह हाईस्कूल की परीक्षा में 2 बार फेल हो चुका था. अब तीसरी बार परीक्षा दी थी. कमला की लड़कियों का हमारे घर पर आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था. एक दिन जब पत्नी ने कमला से उस की 2 दिन की अनुपस्थिति में किसी लड़की को काम पर भेजने को कहा था तो पहली बार कमला रोष व खीज भरे स्वर में बोली थी, ‘‘नहीं, बीबीजी, मैं अपनी लड़की को नहीं भेज सकती. जो काम मैं उन बच्चों के लिए करती हूं वह उन को करते नहीं देख सकती हूं.’’

उस वर्ष जब हाईस्कूल बोर्ड का परीक्षाफल आया और कमला का लड़का तीसरी बार अनुत्तीर्ण हुआ तो कमला क्षोभ व यंत्रणा से टूटी सी लगती थी. पत्नी के पूछने पर उस के नेत्र छलछला उठे. फिर सिसकियां ले कर रोने लगी. साथ ही भरभराए स्वर में कहने लगी, ‘‘बीबीजी, सिर्फ इन बच्चों के लिए यह काम करना शुरू किया था, जिस से वे अच्छी तरह रह सकें, अच्छा पहनेंखाएं और पढ़लिख कर लायक बन जाएं.’’

कुछ पल शांत रही कमला. फिर बताने लगी, ‘‘बाबूजी, हमारे पूरे खानदान में यह काम किसी ने नहीं किया था, लेकिन मैं ने सिर्फ बच्चों की खातिर यह धंधा अपनाया था.’’

साड़ी का पल्लू निकाल कर कमला ने आंसू पोंछे. फिर आगे बोली, ‘‘मेरा आदमी मुझ से इस धंधे के पीछे बड़ा नाराज हुआ. दुखी भी हुआ. घर के गुजारे लायक उस को पैसा मिलता था. उस के साथ के चपरासी ऐसे ही रह रहे हैं, लेकिन मैं ने जिद कर के यह काम किया. जानती थी कि उस की आमदनी में काम तो चल जाएगा. लेकिन मैं बच्चों को पढ़ालिखा नहीं सकूंगी. उन्हें ठीक तरह नहीं रख पाऊंगी.

‘‘मैं ने मुन्ना को बड़े चाव से पढ़ाना चाहा था, लेकिन वह पढ़ता ही नहीं है. उस के पापा तो पिछले साल ही पढ़ाई बंद करा रहे थे. उसे कपड़े की दुकान पर लगवा भी दिया था, लेकिन मैं ने जिद कर के वह काम छुड़वाया और पढ़ने भेजा.

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‘‘आज सुबह जब नतीजा आया तो मुन्ना को तो डांटाडपटा ही मेरे आदमी ने, मुझे भी बुराभला कहा. फिर आज ही मुन्ना काम पर चला गया उस दुकान पर.’’

कहतेकहते कमला का स्वर बोझिल हो कर टूट सा गया.

‘‘कैसी दुकान है?’’ कुछ देर शांत रह कर कुछ न सूझते हुए पत्नी ने पूछ लिया.

‘‘कपड़े की, जनपथ में है.’’

‘‘कितना देंगे?’’

‘‘यही करीब 300-350 रुपए. मगर बीबीजी, मुझे पैसे का क्या करना है. मुन्ना पढ़ लेता तो जीवन की आस पूरी हो जाती. मेरा यों दरदर ठोकरें खाना सफल हो जाता,’’ कहते हुए कमला की आंखों में एक गीली परत सी जम गई.

कमला की व्यथा सुन कर मैं भी दुखित हो चला था. सचमुच एक विडंबना ही तो थी यह उस की.

उस घटना के बाद कमला दुखी व परेशान सी रहने लगी थी. ऐसा लगता था जैसे कोई दुख उस के हृदय को लगातार बरमे की तरह सालता था. मानो काले बादलों का साया उस के अंतरंग में घुटन सी पैदा कर रहा था. सब काम नियमित रूप से करते हुए भी कमला स्फूर्तिहीन व निस्पंद सी दीख पड़ती थी. कभीकभी यह आशंका होती थी कि कहीं वह काम करना ही न छोड़ दे. किंतु जब 6 माह बीत गए तो पत्नी आश्वस्त हो गई. कमला भी धीरेधीरे सामान्य हो चली थी.

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एक दिन कमला ने एक सप्ताह के अवकाश के संबंध में पत्नी से कहा तो उस का आशंकित हो उठना स्वाभाविक था, ‘‘क्या कामवाम छोड़ने का विचार है?’’ अपने संदेह व आशंका को एक धीमी मुसकान से ढांपते हुए पत्नी ने पूछा था.

‘‘नहीं, बीबीजी, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ कमला ने सहजता से उत्तर दिया, ‘‘मेरी लड़की की शादी है.’’

‘‘सचमुच?’’ पत्नी ने अचंभे से कमला को देखा.

‘‘हां, बीबीजी. 17 पूरे कर चली है. लड़का मिल गया है सो शादी पक्की कर डाली है.’’

‘‘ठीक ही तो किया तुम ने.’’

‘‘और करती भी क्या. उस को भी पढ़ाने की लाख कोशिश की, लेकिन 9वीं से आगे नहीं पढ़ सकी. मेरी ही तरह रही,’’ कह कर हंस दी वह, ‘‘मैं ने सोचा कि कुछ और न हो इस से पहले ही उस के हाथ पीले कर दूं और छुट्टी पा लूं.’’

कमला के आग्रह पर हम दोनों विवाह में सम्मिलित हुए थे. पत्नी एक बार पहले भी उस के घर जा चुकी थी. उस ने मुझे कमला के घर के रखरखाव के बारे में बताया था. टीवी, सोफा, खाने की मेजकुरसियां, ड्रेसिंग टेबल, सबकुछ उस के घर में था.

आज उस का घर देख कर मैं भी चकित रह गया था. शादी का स्तर भी मध्यवर्गीय परिवार जैसा ही था. कहीं कोई कमी नहीं दीख पड़ी. वह सब देख कर जाने क्यों मेरे हृदय में कहीं अंदर अतीव सुख व संतोष की भावना प्रवाहित हो गई थी.

लड़की के विवाह के बाद एक बार फिर हमें ऐसा लगा कि अब कमला अवश्य काम छोड़ देगी, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ.

एक दिन पत्नी ने मुझे बताया कि कमला मुझ से कोई बात करना चाहती थी. सुन कर मुझे आश्चर्य हुआ. अगले दिन मैं ने स्वयं कमला से पूछा था, ‘‘कमला, तुम्हें कुछ बात करनी थी?’’

‘‘जी, बाबूजी,’’ हाथ धो कर वह मेरे पास आ कर नीचे जमीन पर बैठ गई, ‘‘कुछ काम था.’’

‘‘बोलो?’’ आत्मीयता भरे स्वर में मैं ने इजाजत दी थी.

‘‘छोटी मुन्नी का किसी अच्छे स्कूल में दाखिला करा दीजिए.’’

‘‘किस क्लास में?’’

‘‘जी, उस ने कानवेंट से 5वीं पास की है. क्लास में दूसरे नंबर पर आई है. अब छठी में जाएगी. उस की अध्यापिका उस की बड़ी तारीफ कर रही थीं. कह रही थीं कि मैं उसे खूब पढ़ाऊं. मैं उसे किसी अच्छे अंगरेजी स्कूल या सेंट्रल स्कूल में डालना चाहती हूं. मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी. इसलिए आप से ही विनती करने आई हूं.’’

मैं स्तंभित सा सुनता रहा.

‘‘क्यों नहीं. आज ही ले आओ उसे. मैं ले कर चला जाऊंगा. दाखिला भी करवा दूंगा,’’ मैं ने कमला को आश्वासन दिया.

कमला मेरे पैरों को छूने लगी, ‘‘मुझ पर बड़ा एहसान होगा आप का. यह लड़की पढ़ लेगी तो जीवनभर आप को याद करूंगी.’’

‘‘लेकिन तुम ने कभी बताया ही नहीं कि तुम्हारी लड़की कानवेंट में है और पढ़ने में इतनी अच्छी है.’’

‘‘बाबूजी, क्या बताती, मेरी तो आखिरी आशा है वह. कभी लगता है उस को दूसरों से ज्यादा मेरी ही नजर न लग जाए.’’

मैं सुन कर हंसने लगा. वातावरण की गंभीरता टूट चुकी थी. इसलिए मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘मगर तुम ने उसे दोनों बच्चों के बीच कैसे पाला?’’

‘‘बस, बाबूजी, शुरू से छोटी मुन्नी को एकदम अलग ही रखा दोनों बच्चों से. उस के लिए अध्यापक लगाए, पढ़ाने से ज्यादा उस को अलग रखने के लिए. वह जो मांगती है, उसे देती हूं,’’ कुछ क्षण रुक कर फिर धीमे से कहने लगी कमला, ‘‘उसे आज तक यह नहीं मालूम कि मैं क्या काम करती हूं. बाबूजी, हो सकता है कि वह जान कर अच्छे बच्चों में खुल कर घुलमिल न पाए.’’

कमला की आंखें डबडबा उठी थीं. मेरे दिल के तार भी जैसे झंकृत हो उठे थे.

कमला उठ कर अपने काम में लग गई.

तब से मैं भी यह मानता हूं कि कमला वास्तव में हीरोइन है. उस रूप में नहीं जिस में लोग उसे कहतेसमझते हैं बल्कि एक नए अर्थ में, एक नए संदर्भ में. Hindi Stories

लेखक : शैलेन्द्र सागर

Hindi Story: हैसियत – मनमोहन राव को किस बात की चिंता थी

Hindi Story:  सुबह से ही घर का माहौल थोड़ा गरम था. महेश की अपने पिता से रात को किसी बात पर अनबन हो गई थी। यह पहली बार नहीं हुआ था. ऐसा अकसर ही होता था। महेश के विचार अपने पिता के विचारों से बिलकुल अलग थे पर महेश अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता था और उन से बहुत प्रेम भी करता था.

महेश बहुत ही साफदिल इंसान था. किसी भी तरह के दिखावे या बनावटीपन की उस की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी. महेश के पिता मनमोहन राव लखनऊ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. बड़ेबड़े लोगों के साथ उन का उठनाबैठना था. उन्होंने अपनी मेहनत से कपड़ों का बहुत बड़ा कारोबार खड़ा किया था. इस बात का उन्हें बहुत गुमान भी था और होता भी क्यों नहीं, तिनके से ताज तक का सफर उन्होंने अकेले ही तय किया था.

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महेश को इस बात का बिलकुल घमंड नहीं था. अपने मातापिता की इकलौती संतान होने का फायदा उस ने कभी नहीं उठाया था. महेश की मां रमा ने उस की बहुत अच्छी परवरिश की थी. उस में संस्कारों की कोई कमी नहीं थी. हर किसी का आदरसम्मान करना और जरूरतमंदों के लिए दिल में दया रखना उस का स्वभाव था. वह घर के नौकरों से भी बहुत तमीज और सलीके से बात करता था. उस के स्वभाव के कारण वह अपने दोस्तों में भी बहुत प्रिय था.

आधी रात को भी अगर कोई परेशानी में होता था तो एक फोन आने पर महेश तुरंत उस की मदद के लिए पहुंच जाता था. किसी के काम आ कर उस की सहायता कर के महेश को बहुत सुकून मिलता था. 11 दिसंबर का दिन था. दोहरी खुशी का अवसर था. महेश के पिता मनमोहन राव का जन्मदिन था और साथ में उन की नई फैक्टरी का उद्घाटन भी था. इस अवसर पर घर में बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन किया गया था.

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महेश की मां ने सुबह ही उस को चेतावनी देते हुए कहा,”शाम को मेहमानों के आने से पहले घर जल्दी आ जाना.”

महेश देर से घर नहीं आता था, पर औफिस के बाद दोस्तों के साथ कभी इधरउधर चला भी गया तो घर आने में थोड़ी देर हो जाती थी. अपने पिता का इतना बड़ा कारोबार होने के बाद भी महेश एक मैगजीन के लिए फोटोग्राफी का काम करता था. उसे इस काम में शुरू से ही दिलचस्पी थी और उस ने तय किया था कि अपने काम से ही एक दिन खुद की एक पहचान बनाएगा.

उस की सैलरी बहुत ज्यादा नहीं थी पर महेश को बहुत ज्यादा की ख्वाहिश कभी रही भी नहीं. वह बहुत थोड़े में ही संतुष्ट होने वाला इंसान था.

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शाम होने को आई थी. मेहमानों का आगमन शुरू हो गया था. महेश भी औफिस से आ कर अपने कमरे में तैयार होने चला गया था. मनमोहन राव और उन की पत्नी रमा मुख्यद्वार पर मेहमानों का स्वागत करने के लिए खड़े थे. महेश भी तैयार हो कर आ गया था. थोड़ी ही देर में उन का बगीचा मेहमानों की उपस्थिति से रौनक हो चुका था. महेश की मां के बहुत जोर दे कर बोलने पर भी महेश ने अपने किसी दोस्त को पार्टी में आने का आमंत्रण नहीं दिया था.

टेबल पर केक रख दिया गया था. महेश के पिता ने केक काट कर पहला टुकड़ा अपनी पत्नी रमा को खिलाया फिर दूसरा टुकड़ा ले कर वह बेटे को खिलाने लगे तो महेश ने उन के हाथ से केक ले लिया और उन्हें खिला दिया.

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फिर अपने पिता के पैर छू कर बोला,”जन्मदिन की बहुतबहुत शुभकामनाएं पिताजी.”

मनमोहन राव ने बेटे को सीने से लगा लिया. महेश की मां यह सब देख कर बहुत खुश हो रही थीं. बहुत कम ही अवसर होते थे जब बापबेटे का यह स्नेह देखने को मिलता था, नहीं तो विचारों में मतभेद के कारण दोनों में बात करतेकरते बहस शुरू हो जाती थी और बातचीत का सिलसिला कई दिनों तक बंद रहता था.

वेटर स्नैक्स और ड्रिंक्स ले कर घूम रहे थे. अकसर बड़ीबड़ी पार्टियां और समारोहों में ऐसा ही होता है और इस तरह की पार्टीयों को ही आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है. इस तरह की पार्टियां महेश ने बचपन से ही अपने घर में देखी थी, इस के बावजूद भी वह इस तरह की पार्टियों का आदी नहीं था. ऐसे माहौल में उसे बहुत जल्द घुटन महसूस होने लगती थी.

महेश के पिता ने उस को आवाज दे कर बुलाया,”महेश, इधर आओ. विजय अंकल से मिलो, कब से तुम्हें पूछ रहे हैं.” विजय अंकल मनमोहन राव के बहुत करीबी मित्रों में से एक थे और उन का भी लखनऊ में अच्छाखासा कारोबार फैला था. महेश ने “हैलो अंकल” बोल कर उन के पैर छुए तो वह बोलने लगे,”यार मनमोहन तुम्हारा बेटा तो हाईफाई करने के जमाने में भी पैर छूता है, आधुनिकता से कितनी दूर है. तुम्हें कितनी बार समझाया था कि इकलौता बेटा है तुम्हारा, इसे अमेरिका भेजो पढ़ाई के लिए, थोड़ा तो आधुनिक हो कर आता.”

महेश चुपचाप मुसकराता हुआ खड़ा था.

विजय अंकल फिर बोलने लगे,”और बताओ कैसी चल रही है तुम्हारी फोटोग्राफी की नौकरी? अब छोड़ो भी यह सब. क्या मिलता है यह सब कर के?

“अब अपने पिता के कारोबार की डोर संभालो. जितनी सैलरी तुम्हें मिलती है उतनी तो तुम्हारे पिता घर के नौकरों में बांट देते हैं. अपने पिता की शख्सियत का तो खयाल रखो.”

पिता की शख्सियत की बात सुन कर महेश ने अपनी चुप्पी तोड़ने का निर्णय ले लिया था.

महेश बोला,”अंकल, काम को ले कर मेरा नजरिया जरा अलग है. काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि मैं ने आज तक ऐसा कोई भी काम किया है जिस से
मेरे पिताजी की छवि या उन की शख्सियत को कोई हानि पहुंची हो.

“फोटोग्राफी मेरा शौक है. इस काम को करने से मुझे खुशी मिलती है और रही बात पैसों की, तो ज्यादा पैसों की ना मुझे जरूरत है और ना ही कोई चाह,” बोलतेबोलते महेश की आवाज ने जोर पकड़ लिया था. मनमोहन राव को महेश का इतने खुले शब्दों में बात करना पसंद नहीं आया. उन्होंने लगभग चिल्लाने के लहजे में बोला,”चुप हो जाओ महेश. यह कोई तरीका है बात करने का? अपनी इस बदतमीजी के लिए तुम्हें अभी माफी मांगनी होगी.”

महेश ने साफ इनकार करते हुए कहा,”माफी किस बात की पिताजी?
मैं ने कोई गलती नहीं करी है, सिर्फ अपनी बात रखी है.

“आप ही बताइए कि मैं ने आज तक ऐसा कौन सा काम किया है जिस की वजह से आप को शर्मिंदा होना पड़ा हो.”

मनमोहन राव बोले,”मैं कुछ नहीं सुनना चाहता महेश, मेरे प्रतिद्वंदी भी इस पार्टी में मौजूद हैं. सब के सामने मेरा मजाक मत बनाओ.”

महेश बोला,”मुझे किसी की परवाह नहीं है, पिताजी कि कौन देख रहा है और कौन क्या सोच रहा है? मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप मुझे समझो.

“मैं ने जब से होश संभाला है तब से आज तक उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब आप मुझे समझोगे. इंसान बड़ा काम या बड़ा कारोबार कर के ही बड़ा नहीं होता पिताजी. छोटेछोटे काम कर के भी इंसान अपनी एक पहचान बना सकता है. बड़े बनने का सफर भी तो छोटे सफर से ही तय होती है. इस बात का उदाहरण तो आप खुद भी हैं पिताजी, फिर आप क्यों नहीं समझते?”

मनमोहन राव का सब्र खत्म हो चुका था. अब बात उन्हें अपनी प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचने जैसी लग रही थी.

उन्होंने महेश से कहा,”तुम या तो विजय अंकल से माफी मांगो या अभी इसी वक्त घर से निकल जाओ.”

महेश की मां रमा जो इतनी देर से दूर खड़े हो कर सब देखसुन रही थीं, सोचने लगीं कि पति की प्रतिष्ठा का खयाल रखना जरूरी है पर बेटे के आत्मसम्मान को चोट पहुंचा कर नहीं।

वे पति से बोलीं,”यह क्या बोल रहे हो आप? इतनी सी बात के लिए कोई अपनी इकलौती औलाद को घर से जाने के लिए कहता है क्या?”

मनमोहन राव को जब गुस्सा आता था तब वे किसी की भी नहीं सुनते थे. हमेशा की तरह उन्होंने रमा को बोल कर चुप करा दिया था.

महेश बोला,”मुझे नहीं पता था पिताजी की आप को अपने बेटे से ज्यादा इन बाहरी लोगों की परवाह है,
जो आज आप के साथ सिर्फ आप की शख्सियत की वजह से हैं.

“यहां खड़ा हुआ हरएक इंसान आप के लिए अपने दिल में इज्जत लिए नहीं खड़ा है, बल्कि अपने दिमाग में आप से जुड़ा नफा और नुकसान लिए खड़ा है. इस सचाई को आप स्वीकार नहीं करना चाहते,” ऐसा बोल कर महेश मां के पास आया और पैर छू कर बोला,”चलता हूं मां, तुम अपना खयाल रखना.”

रमा पति से गुहार लगाती रही मगर मनमोहन राव ने एक नहीं सुनी. वे चिल्लाते हुए बोले,”जाओ तुम्हारी हैसियत ही क्या है मेरे बिना. 4 दिन में वापस आओगे ठोकरें खा कर.”

हंसीखुशी भरे माहौल का अंत इस तरह से होगा यह किसी ने कल्पना नहीं करी थी. इस घटना को पूरे 5 वर्ष बीत चुके थे पर ना महेश वापस आया था और ना ही उस की कोई खबर आई थी. बेटे के जाने के गम में रमा की तबीयत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. वे अकसर बीमार रहती थीं. उन की जिंदगी से खुशी और चेहरे से हंसी हमेशा के लिए चली गई थी. मनमोहन राव को भी बेटे के जाने का बहुत अफसोस था. उस दिन की घटना के लिए उन्होंने अपनेआप को ना जाने कितनी बार कोसा था.

एक मां को उस के बेटे से दूर करने का दोषी भी वे खुद को ही मानते थे. अकेले में महेश को याद कर के कई बार वे रो भी लेते थे. एक मां के लिए उस की औलाद का उस से दूर जाना बहुत बड़े दुख का कारण बन जाता है पर एक पिता के लिए उस के जवान बेटे का घर छोड़ कर चले जाना किसी सदमे से कम नहीं होता. रमा और कमजोर ना पड़ जाए इसीलिए उस के सामने मनमोहन राव खुद को कारोबार में व्यस्त रखने का दिखावा करते थे. वे अकसर रमा को यह बोल कर शांत कराते थे कि आज नहीं तो कल आ ही जाएगा तुम्हारा बेटा.

रमा अपने मन में सोचती कि मैं मां हूं उस की, मुझे पता है वह स्वाभिमानी और दृढ़निश्चयी है. एक बार जो ठान लेता है वह कर के ही शांत होता है.

अचानक एक दिन फोन की घंटी बजी। सुबह के 10 बज रहे थे. रमा दूसरे कमरे में थीं।

नौकर ने फोन उठाया और जोर से चिल्लाया,”मैडममैडम…”

रमा एकदम से चौंक गईं। दूसरे कमरे से ही नौकर को चिल्लाते हुए बोलीं,”क्यों चीख रहे हो? किस का फोन है?”

“छोटे साहब का फोन है मैडम,”नौकर बोला.

रमा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

वे फोन की तरफ लपकीं और नौकर के हाथ से फोन लगभग छीनते हुए ले कर बोलीं,”हेलो, महेश बेटा… कैसे हो बेटे? 5 साल लगा दी अपनी मां को याद करने में? घर वापस कब आ रहे हो बेटा? तू ठीक तो है ना?”

महेश बोला,”बसबस मां, तुम रुकोगी तब तो कुछ बोल पाऊंगा ना मैं. पिताजी कैसे हैं मां? आप दोनों की तबीयत तो ठीक है ना?

“आप दोनों की खबर लेता रहता था मैं, पर आज इतने सालों बाद आप की आवाज सुन कर मन को बहुत तसल्ली हो गई मां…

“पिताजी से बात कराओ ना,”महेश ने आग्रह किया तो रमा बोलीं,”वे औफिस में हैं बेटा.

“तू सब कुछ छोड़, पहले बता घर वापस कब आ रहा है? कहां है तू ?
मैं अभी ड्राइवर को भेजती हूं तुझे लाने के लिए…”

महेश हंसते हुए बोला,”मैं लंदन में हूं मां.”

“लंदन में…” आश्चर्य से बोलीं रमा,”बेटा, वहां क्यों चला गया?
तू ठीक तो है ना? किसी तकलीफ में तो नहीं हो ना?”

अकसर जब औलादें अपने मातापिता से दूर हो जाती हैं किसी कारण से तो ऐसी ही चिंता उन्हें घेरे रहती हैं कि वे किसी गलत संगत में ना पड़ जाएं, अकेले खुद को कैसे संभालेंगे? रमा के बारबार बीमार रहने की वजह भी यही सब चिंताएं थीं. महेश सोचने लगा कि मां ने 5 साल मेरे बिना कैसे निकाले होंगे पता नहीं. मां की बातों से उस की फिक्र साफ झलक रही थी.

“मेरी बात सुनो मां,” महेश बोला,”घर से निकलने के बाद मैं 2 साल लखनऊ में ही था. जिस मैगजीन के लिए मैं काम करता था, उस की तरफ से ही मुझे 3 साल पहले एक प्रोजैक्ट के लिए लंदन भेजा गया था. मेरा प्रोजैक्ट बहुत ही सफल रहा.

“यहां लंदन में मेरे काम को बहुत ही सराहा गया और अगले महीने यहां एक पुरस्कार समारोह का आयोजन
है जिस में तुम्हारे बेटे को ‘बैस्ट फोटोग्राफर औफ द ईयर’ का पुरस्कार मिलने वाला है.

“मां, आप के और पिताजी के आशीर्वाद और मेरी इतनी सालों की मेहनत का परिणाम मुझे इस पुरस्कार के रूप में मिलने जा रहा है. मेरी बहुत इच्छा है कि इस अवसर पर मेरा परिवार मेरे मातापिता मेरे साथ रहें.

“मेरी जिंदगी की इतनी बड़ी खुशी को बांटने के लिए आज मेरे साथ यहां कोई नहीं है मां,” बोलतेबोलते महेश का गला भर आया था.

उधर रमा की आंखों से निकले आंसूओं ने भी उस के आंचल को भिगो दिया था और उन का दिल खुशी से चिल्लाने को कर रहा था कि मेरे बेटे की हैसियत देखने वालो देखो, आज अपनी मेहनत से मेरा बेटा किस मुकाम पर पहुंचा है. दूसरे देश में जा कर दूसरे लोगों के बीच में अपने काम से अपनी पहचान बनाना अपनेआप में बहुत बड़ी जीत का प्रमाण है.

महेश ने आगे बोला,”मां, आप के और पिताजी के लिए लंदन की टिकट भेज रहा हूं. पिताजी को ले कर जल्दी यहां आ जाओ मां.”

“हां बेटा, हम जरूर आएंगे,” रमा ने कहा,”कौन से मातापिता नहीं चाहेंगे कि दुनिया की नजरों में अपने बेटे के लिए इतना मानसम्मान और इज्जत देखना. तू ने हमें यह अवसर दिया है, हम जरूर आएंगे बेटा, जरूर आएंगे,”ऐसा कह कर रमा
ने फोन रख दिया।

आज रमा को अपनी परवरिश पर बहुत नाज हो रहा था. 5 साल की जुदाई का दर्द आज बेटे की सफलता के आगे उसे बहुत छोटा लग रहा था।

वे बहुत बेसब्री से महेश के पिता के घर वापस आने का इंतजार कर रही थीं. फोन पर इतनी बड़ी खुशखबरी वे नहीं देना चाहती थीं। वे चाह रही थीं कि बेटे की सफलता की खुशी को अपनी आंखों से उस के पिता के चेहरे पर देखें।

दरवाजे की घंटी बजी तो नौकर ने जा कर दरवाजा खोला। महेश के पिता जैसे ही घर के अंदर दाखिल हुए तो उन्होंने जो देखा उस की कल्पना नहीं की थी. रमा अपनी खोई हुई मुसकान चेहरे पर लिए हुए खड़ी थीं. देखते ही बोले मनमोहन राव,”इतने साल बाद तुम्हारे चेहरे पर खुशी देख कर बहुत सुकून मिल रहा है. इस की वजह पता चलेगी कि नहीं? तुम्हारा बेटा वापस आ गया क्या?”

रमा बोलीं,”जी नहीं, बेटा नहीं आया पर आज दोपहर में उस का फोन आया था.”

इस खबर को सुनने का इंतजार वे भी
ना जाने कब से कर रहे थे।

“अच्छा कैसा है वह? मेरे बारे में पूछा कि नहीं उस ने? नाराज है क्या अब तक मेरे से?” उन की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी.

रमा बोलीं,”बिलकुल नाराज नहीं है और बारबार आप को ही पूछ रहा था। और सुनिए, लंदन में है हमारा बेटा.”

बेटा लंदन में है, सुन कर महेश के पिता सोफे से उठ खड़े हुए थे.

“जी हां, लंदन में और अगले महीने वहां एक बहुत बड़े पुरस्कार से सम्मानित होने जा रहा है आप का बेटा,” बोलते हुए मिठाई का एक टुकड़ा रमा ने ममनमोहन राव के मुंह
में डाल दिया था.

उन की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

“तुम सच कह रही हो ना रमा?”

रमा बोलीं,”जी हां, बिलकुल सच.”

मनमोहन राव ने रमा को सीने से लगा लिया और दोनों अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए.

रमा ने खुद को संभालते हुए कहा,”आगे तो सुनिए, हमारे लिए लंदन की टिकट भेज रहा है. पुरस्कार समारोह में वह हम दोनों के साथ शामिल होना चाहता है.”

मनमोहन राव के आंसुओं का बहाव और तेज हो चुका था. जिस बेटे को 5 साल पहले उन्होंने बोला था कि तुम्हारी हैसियत क्या है मेरे बिना, उस ने अपनी हैसियत से शख्सियत तक का सफर क्या बखूबी पूरा किया था। आंसुओं ने उन के चेहरे को पूरी तरह से भिगो दिया था और बेटे से मिलने की तड़प में दिल मचल उठा था. Hindi Story

लेखिका-निधि अमित पांडेय

Hindi Stories: पूर्णाहुति – जया दीदी क्यों रो रही थी

Hindi Stories: मैं बैठक में चाय ले कर पहुंची तो देखा, जया दीदी रो रही हैं और लता दीदी उन्हें चुप भी नहीं करा रहीं. कुछ क्षणों तक तो चुप्पी ही साधे रही, फिर पूछा, ‘‘जया दीदी को क्या हुआ, लता दीदी? क्या हुआ इन्हें?’’

आंसुओं को रूमाल से पोंछ, जबरदस्ती हंसने का प्रयास करते हुए जया दीदी बोलीं, ‘‘हुआ तो कुछ भी नहीं… लता ने प्यार से मन को छू दिया तो मैं रो दी, माफ करना. तेरे यहां के आत्मीय माहौल में ले चलने के लिए लता से मैं ने ही कहा था, पर कभीकभी ज्यादा प्यार भी रास नहीं आता. जैसे ही लता ने अभय का नाम लिया कि मैं…’’ वे फिर रोने लगी थीं.

‘अभय को क्या हुआ?’ मैं ने अब लता दीदी की तरफ देखते हुए आंखोंआंखों में ही पूछा. इस सब से बेखबर अपने को संयत करने की कोशिश में जया दीदी स्नानघर की तरफ बढ़ गई थीं. मुंहहाथ धो कर उन्होंने कोशिश तो अवश्य की थी कि वे सहज लगने लगें या हो भी जाएं, पर लगता था कि अभी फिर से रो पड़ेंगी.

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‘‘मुझे समझ नहीं आता कि कहूं या न कहूं, पर छिपाऊं भी क्या? बात यह है कि अभय अपनी पत्नी सहित मुझ से अलग होना चाह रहा है,’’ भर्राई आवाज में उन्होंने कहा.

‘‘इस में रोने की क्या बात है, जया दीदी, यह तो एक दिन होना ही था,’’ मैं ने कहा.

‘‘यही तो मैं इसे समझा रही थी कि हम दोनों तो इस बात को बहुत दिनों से सूंघ रही थीं,’’ लता दीदी कह रही थीं.

‘‘वह कैसे? तुम लोगों से अचला और अभय बहुत आत्मीयता से मिलते हैं, मेरी सहेलियों में तुम दोनों का घर आना तो उन्हें बहुत अच्छा लगता है,’’ जया दीदी ने कहा.

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‘‘हमारा घर आना क्यों बुरा लगेगा उन्हें. समस्या तो आप हैं, हम नहीं. और फिर बाहर वालों के सामने तो अपनी भलमनसाहत का सिक्का जमाना ही होता है. वाहवाही जो मिलती है उन से. कितनी सुंदर, सुघड़, मेहमाननवाज, सलीकेदार है आप की बहू. भई, मुसीबत तो घर के लोग होते हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जया, यह समय सम्मिलित कुटुंब का नहीं रहा है. चाहे परिवार के नाम पर एक मां ही क्यों न हो. और फिर तू घबराती क्यों है? एक प्राध्यापिका की आय कम नहीं होती. 5 साल बाद रिटायर होती भी है तो पैंशन तो मिलेगी ही. एक नौकरानी रख लेना,’’ लता दीदी उन्हें समझा रही थीं.

‘‘जया दीदी, 2-3 साल बाद जो होना है वह अगर अभी हो जाता है तो यह आप के हित में ही है. जब से अभय की शादी हुई है, मैं तो दिनबदिन आप को कमजोर होते ही देख रही हूं. मुझे लगता है, आप भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती हैं. आज की सासें बहुओं को कुछ कह तो सकती नहीं, अपनेआप में ही तनाव झेलती और घुलती रहती हैं. मैं तो सोचती हूं, उन का आप से अलग हो जाना आप के लिए अच्छा ही है,’’ मैं ने कहा.

‘‘फिर जया, अब वह जमाना नहीं है कि तुम बेटे से कहो कि बेटा, मैं ने तुम्हें इसलिए पालापोसा था कि बुढ़ापे में तुम मेरी लाठी बन सको. हम लोगों को बच्चों से किसी भी प्रकार की अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए…’’

‘‘कुछ अपेक्षा नहीं है मेरी,’’ लता की बात को बीच में काटती हुई जया दीदी बोलीं, ‘‘मैं तो केवल यह चाहती हूं कि वे मेरे सामने रहें. साथ रहने के लिए तो मैं ने आगरा विश्वविद्यालय से मिल रही  ‘रीडरशिप’ अस्वीकार कर दी थी.’’

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‘‘जो हुआ सो हुआ, अब तुम अपने को उन से अलग हो कर अकेले जिंदगी जीने के लिए तैयार करो. आजकल की मांओं को बेटों के मोह से मुक्त हो कर अलग रहने के लिए तैयार रहना चाहिए. मैं जानती हूं, कहने और करने में बहुत अंतर होता है पर मानसिक तैयारी तो होनी ही चाहिए. अभ्यास से अकेलापन खलता नहीं, विशेषकर हम लोगों को, जिन को पढ़नेलिखने की आदत है. फिर तू तो एक तरह से अकेली ही रही है. अभय के साथ तेरे भीतर का अकेलापन कटा हो, यह तो मैं नहीं मान सकती. हां, दायित्व जरूर था वह तुझ पर.’’

‘‘दायित्व ही सही, व्यस्त तो रखा उस ने मुझे. एक भरीपूरी दिनचर्या तो रही, किसी को मेरी जरूरत है, यह एहसास तो रहा. नहीं लता, यह अकेलापन मुझ से बरदाश्त नहीं होगा.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा, जया. चाय ठंडी न कर. रोने का मन है तो बेशक रो ले.’’ लता दीदी के ऐसा कहते ही जया हंसने लगीं, ‘‘इसीलिए तो यहां आई थी कि तुम लोगों में बैठ कर कुछ सही सोच पाऊंगी, अपने में कुछ विश्वास प्राप्त कर सकूंगी.’’

जया दीदी मन से उखड़ी हुई थीं, इसीलिए लता दीदी और मेरे प्रयासों के बावजूद अन्यमनस्क वे एकाएक खड़ी हो गईं और लता दीदी से कहने लगीं, ‘‘चल, अब और न बैठा जाएगा आज.’’

मुझे भी लगा, उन्हें अपने को समेटने के लिए बिलकुल अकेलेपन की जरूरत है, जिस का सामना करने से वे बच रही हैं. मैं ने कहा, ‘‘जया दीदी, मेरे पति तो आजकल बाहर हैं, इसलिए जब चाहे, आइए मेरे पास. मुझे आप का आना अच्छा ही लगेगा. इच्छा हो तो 2-4 दिन मेरे पास ही रह जाइए. मैं फिर दोहरा रही हूं, अभय और अचला के चले जाने पर आप अपने ढंग से रह सकेंगी. हमें भी आप के घर आने पर ज्यादा अपनापन लगेगा. अभी तो लेदे कर आप का शयनकक्ष ही अपना रह गया है.’’

जया दीदी लता दीदी के साथ चली गई थीं, पर मैं अभी भी उन्हीं में खोई हुई थी. अभय बड़ा हो गया है, यह उसी दिन महसूस हुआ. यों समझदार तो वह मुझे पहले से ही लगता था. उन दिनों हिंदी विषय पढ़ने के लिए वह अकसर मेरे पास आता था.

एक दिन वह बोला, ‘‘मौसी, ऐसा कुछ बताइए कि…’’

‘‘एक रात में ही तू पढ़ कर पास हो जाए…है न?’’ उस की बात पूरी करते हुए मैं ने कहा था, ‘‘पर बेटे, थोड़े दिन अपने पाठ्यक्रम को एक बार पूरी तरह से पढ़ तो ले.’’

उस की अभिव्यक्ति में कहीं कोई कमी नहीं थी. साहित्य पर उस की पूरी पकड़ थी. कठिनाई आती थी भाषा के संदर्भ में.

‘‘मौसी, इस बार पास नहीं हुआ तो, ‘औनर्स’ की डिगरी नहीं मिलेगी.’’

‘‘नहीं, मुझे पूरा भरोसा है कि तुम हिंदी पास ही नहीं करोगे, अच्छे अंक भी पाओगे.’’

‘‘ओह, धन्यवाद मौसी.’’

‘आषाढ़ का एक दिन’ नामक नाटक पढ़ने में उसे कठिनाई हो रही थी. मुझे याद है, इसलिए मैं ने उसे उन्हीं दिनों ‘संभव’ द्वारा हो रहे इसी नाटक को देखने के लिए भेजा था. परिणाम यह हुआ था कि ‘विलोम’ के चरित्र को उस ने परीक्षा में बड़े खूबसूरत ढंग से लिखा था. जीवन की उसे समझ थी.

‘मल्लिका’ की वेदना वह उस उम्र में भी महसूस कर सका था. फिर अपनी मां की वेदना को? क्या हुआ है अभय को? पर एकसाथ तनावग्रस्त रहने से तो अच्छे, मधुर संबंधों के साथ लगाव रखते हुए अलग रहना कहीं ज्यादा बेहतर है.

लंबी चुप्पी तो नहीं रही जया दीदी के साथ, पर मिलना भी नहीं हुआ. एक दिन फोन आया तो पूछ ही बैठी, ‘‘दीदी, अभय और अचला ने यह निर्णय क्यों लिया? कोई तात्कालिक कारण तो रहा ही होगा?’’

‘‘हां,’’ उन्होंने बताया, ‘‘तू जानती ही है कि नवरात्रों के अंतिम 2 दिन मेरा उपवास रहता है. अचला सुबह 9 बजे चली जाती थी. 10.50 पर मेरी भी कक्षा थी. सुबह मैं ने दोनों को चाय दे ही दी थी, अष्टमी की वजह से नाश्ते के लिए अंडा नहीं रखा था. बस, इसी पर चिल्ला पड़ी, ‘मैं सुबहसुबह पूरीहलवा नहीं खा सकती.’

‘‘मैं ने इतना कहा, ‘बेटे, आज अंडा, औमलेट या जो चाहिए, बाहर हीटर पर बना लो.’

‘‘पर वह तो पैर पटकती हुई चली गई. उसी शाम दफ्तर से वह मायके चली गई और अभय ने मुझे सूचित किया कि वह अलग घर का इंतजाम कर रहा है.

‘‘मेरे पूछने पर कि मेरा दोष क्या है? वह बोला, ‘मां, आप पर बहुत ज्यादा बोझ है. यहां रहते अचला कभी अपना दायित्व नहीं समझेगी और नासमझ ही रह जाएगी. व्यर्थ में आप को भी परेशानी होती है.’

‘‘नया मकान लेने के बाद अभय के साथ अचला भी आई थी. बहुत प्यार से मिली, ‘मां, हम क्या करें, हमें यहां अजीब तनाव सा लगता था. कभी देर रात तक अभय और हमारे मित्र आते तो लगता, आप परेशान हो रही हैं. आप कुछ कहती तो नहीं थीं, पर हमें अपराधबोध होता था. कुछ घुटाघुटा सा लगता था. यहां देखने में कुछ भी गलत न होने पर लगता था, जैसे सबकुछ ही गलत है.’

‘‘बस, ऐसे चले गए वे. अभय अभी हर शाम आता है, पर कब तक आएगा?’’ जया दीदी शायद रो रही थीं क्योंकि एकाएक चुप्पी के बाद ‘अच्छा’ कहा और रिसीवर रख दिया.

लगभग 15 वर्ष पहले कालेज में एक मेला लगा था. जया दीदी छुट्टी पर थीं. हम लोगों के जोर देने पर अभय को घुमाने के लिए मेले में ले आई थीं.

मां से पैसे ले कर वह कोई खेल खेलने चला गया. भोजन के बाद जया दीदी ने उसे वापस चलने के लिए कहा तो वह बोला, ‘अभी नहीं, अभी और खेलेंगे.’

खेलने के बाद मां को ढूंढ़ते हुए वह हमारे स्टाल पर आया तो हम चाय पी रहे थे. जया दीदी ने फिर कहा था, ‘अब तो चलो अभय, दूर जाना है, बस भी न जाने कितनी देर में मिले.’

तब वह गरदन ऊंची करते हुए बोला, ‘डरती क्यों हो मां. मैं हूं न साथ.’ लेकिन मेला उठने से पहले ही मां को बिना ठिकाने पर पहुंचाए उस ने अपना अलग ठिकाना कर लिया था.

मैं इसी में खोई हुई थी कि फोन की घंटी से तंद्रा भंग हुई, ‘‘अरे आप, सच, लंबी उम्र है आप की. आप ही को याद कर रही थी. कैसी हैं आप? क्या कहा, अभी आप के पास आना होगा? लता दीदी भी आ रही हैं? जैसा आदेश, आती हूं,’’ कहते हुए मैं ने फोन बंद कर दिया था.

जया दीदी का उल्लासयुक्त स्वर बहुत दिनों बाद सुना था. नया फ्लैट दिखाना चाह रही थीं. हमारे परामर्श के बाद ही लेंगी, ऐसा सोच रही थीं. फ्लैट बहुत अच्छा था. लेने का निर्णय भी उसी समय कर लिया था उन्होंने और ‘बयाना’ भी हमारे सामने ही दे दिया था.

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बस, अब तो इंतजार था उन के गृहप्रवेश का. एक दिन शाम को उन का फोन आया कि वे हवन नहीं करवा रहीं. कुछ लोगों को सूचित करने के लिए उन्होंने कहा था. वह सब तो किया, पर लगा कि जया दीदी के पास जाना चाहिए.

लता दीदी को फोन कर के उन के फ्लैट पर पहुंची.

‘‘वाह, यहां तो जो आ जाए उस का जाने का मन ही न हो,’’ इस वाक्य से जया दीदी खुश होने के बदले आहत ही हुईं, ‘‘जाने की क्या बात, यहां तो कोई आना ही नहीं चाहता. अभय, अचला ने हवन पर आने से इनकार कर दिया है. सोचा, वही नहीं आ रहे तो फिर काहे का हवन. अब तो लगने लगा है, पूर्णाहुति की बेला में ही आएगा वह यहां. पर प्रश्न है, क्या उस समय मैं उसे देख पाऊंगी?’’

बैठक के द्वार पर मैं स्तब्ध सी खड़ी रह गई थी. क्या कहती, निराश, निढाल, थकी मां को. Hindi Stories

Freedom of Speech : सोशल मीडिया की जवाबदेही जरूरी

Freedom of speech  : रणवीर इलाहाबादिया का यूट्यूब पर ‘बियर बाइसेप्स’ नाम से चैनल है. उस पर वो पोडकास्ट चलाते हैं. रणवीर के पोडकास्ट में बौलीवुड इंडस्ट्री के कई बड़ेबड़े सितारे आते रहे हैं. स्टैंडअप कौमेडियन समय रैना के शो ‘इंडियाज गौट लेटेंट’ में रणवीर इलाहाबादिया बतौर गेस्ट जज शामिल हुए थे. उस कार्यक्रम में उन्होंने एक कंटेस्टेंट से उस के पेरैंट्स की सैक्स लाइफ पर सवाल पूछा था कि ‘क्या वे जिंदगीभर अपने मातापिता को सैक्स करते देखना पसंद करेंगे या फिर एक बार उन के साथ मिल कर इसे रोकना चाहेंगे?’
रणवीर के इस भद्दे सवाल की क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल हो गई थी, जिसे देखने के बाद कुछ लोगों का उन पर गुस्सा फूट पड़ा. कई बड़ेबड़े क्रिएटर्स ने रणवीर की आलोचना की. उन पर मुकदमा कायम कराया गया और मानवाधिकार आयोग में भी शिकायतें पहुंची थीं. लोग उन पर कड़ी कार्रवाई ही मांग कर रहे थे. दर्शकों ने ‘इंडियाज गौट लेटेंट’ का बहिष्कार करने की मुहिम चलाई. जब तक यह एपिसोड हटा तब तक यह हजारों लाखों लोगों तक पहुंच चुका था.
इस के बाद रणवीर इलाहाबादिया ने सोशल मीडिया पर एक माफीनामा वीडियो पोस्ट किया. उस में उन्होंने कहा, ‘मैं ने इंडियाज गौट लेटेंट पर जो कुछ भी कहा वह नहीं कहना चाहिए था. मुझे माफ करना. मेरी टिप्पणी उचित नहीं थी, वह मजाकिया भी नहीं थी. मैं, बस, माफी मांगने आया हूं. मेरी तरफ से यह ठीक नहीं था. मैं उस तरह का इंसान नहीं बनना चाहता जो इस जिम्मेदारी को हलके में ले. और परिवार ऐसी आखिरी चीज है जिस का मैं कभी अनादर नहीं करूंगा.’
इस मसले की सुनवाई के समय ही सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रहे कंटैंट की निगरानी के लिए एक अलग संस्था और कानून बनाने के लिए सरकार से कहा है. कोर्ट की सब से बड़ी चिंता यह थी कि किसी गलत कंटैंट को पोस्ट होने से पहले ही रोकने की क्या व्यवस्था हो सकती है, क्योंकि कंटैंट के पोस्ट होते ही वह वायरल हो जाता है. जब गलत कंटैंट लोगों तक पंहुच ही गया तो उस को हटाने से भी कोई लाभ नहीं होता. वहीं, क्या यह फ्रीडम औफ स्पीच को प्रभावित करेगा? सोशल मीडिया पर नियंत्रण क्यों जरूरी है? इन सवालों के जवाब जरूरी है.

क्या बोला सुप्रीम कोर्ट

मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत और जस्टिस जोयमाल्या बागची की बैंच ने पोडकास्टर रणवीर इलाहाबादिया और अन्य लोगों की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए ‘औनलाइन प्लेटफौर्म पर अश्लील, आपत्तिजनक या अवैध सामग्री को नियंत्रित करने के लिए एक निष्पक्ष, स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था बनाने की जरूरत पर जोर दिया. कोर्ट ने कहा कि मीडिया संस्थानों की ओर से अपनाया जा रहा ‘सैल्फ रैगुलेशन’ मौडल प्रभावी नहीं है.’
पोडकास्टर रणवीर इलाहाबादिया और अन्य लोगों की याचिकाएं ‘इंडियाज गौट लेटेंट’ शो में अश्लील सामग्री को ले कर दर्ज एफआईआर से जुड़ी हैं. कुछ महीने पहले इस शो को ले कर काफी विवाद देखने को मिला था. कोर्ट में सुनवाई के दौरान अटौर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट को बताया कि केंद्र सरकार ने कुछ नए दिशानिर्देश प्रस्तावित किए हैं और इस मुद्दे पर संबंधित पक्षों से चर्चा चल रही है. यह समस्या केवल ‘अश्लीलता’ तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यूजर्स की ओर से बनाए गए कंटैंट (यूजीसी) में फैले ‘झूठ’ तक है, जिसे लोग अपने यूट्यूब चैनल या अन्य प्लेटफौर्म पर डालते हैं.
सीजेआई सूर्यकांत ने हैरानी जताई कि ऐसे कंटैंट क्रिएटर्स के लिए कोई नियम ही नहीं है. उन्होंने कहा, ‘मैं अपना चैनल बना लूं और मैं किसी के प्रति जवाबदेह न रहूं, किसी न किसी को तो जवाबदेह होना ही चाहिए. अभिव्यक्ति के अधिकार का सम्मान होना चाहिए. अगर किसी कार्यक्रम में एडल्ट सामग्री है, तो पहले से चेतावनी दी जानी चाहिए.’ सुप्रीम कोर्ट ने इन्फौर्मेशन एंड ब्रौडकास्टिंग मिनिस्ट्री को निर्देश दिया है कि वह ऐसा सिस्टम तैयार करे जो पोस्ट डाले जाने से पहले ही कंटैंट को स्कैन कर सके ताकि खतरनाक, नुकसानदायक या देशविरोधी कंटैंट वायरल होने से पहले ही रोका जा सके.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह किसी भी तरह की सैंसरशिप को बढ़ावा नहीं देना चाहता. लेकिन जब तक गलत कंटैंट हटाया जाता है, तब तक वह समाज में कितना नुकसान पहुंचा चुका होता है, इस का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. आज सोशल मीडिया पर एक पोस्ट अपलोड होते ही मिनटों में वायरल हो सकती है. कई बार ऐसा कंटैंट अफवाहें फैलाता है, लोगों को भड़काता है या देश की छवि और सुरक्षा को नुकसान पहुंचा सकता है. पोस्ट हटाना एक बाद की प्रक्रिया है, लेकिन जरूरत है एक ऐसे सिस्टम की जो पहले ही छानबीन कर सके.

सैल्फ रैगुलेशन सिस्टम पर उठे सवाल

ओटीटी प्लेटफौर्म्स, डिजिटल मीडिया और बड़े ब्रौडकास्टर्स का कहना है कि उन के पास पहले से ही सैल्फ रैगुलेटरी कोड है. सवाल उठाता है कि अगर कोड इतना अच्छा काम करता है तो गलत कंटैंट इतना वायरल क्यों होता है? सब से बड़ा विवाद ‘एंटी नैशनल’ शब्द को ले कर है. इस शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है. अगर कोई सरकार की आलोचना करे तो क्या वह एंटीनैशनल है? कोर्ट का कहना था, ‘अगर कोई व्यक्ति वीडियो बना कर दावा करे कि भारत का एक हिस्सा किसी पड़ोसी देश में मिल जाना चाहिए तो क्या यह एंटीनैशनल नहीं माना जाएगा?’
सुप्रीम कोर्ट ने औपरेशन सिंदूर की घटना का जिक्र करते कहा, ‘एक व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर ऐसा वीडियो अपलोड किया जिस में वह पाकिस्तान का समर्थन करता दिखाई दिया. उस ने बाद में दावा किया कि उस ने एक घंटे में पोस्ट हटा दी.’ कोर्ट ने बताया, ‘एक घंटा भी काफी है. पोस्ट अपलोड होते ही वायरल हो जाती है.’ कोर्ट ने सरकार से कंटैंट प्रीस्क्रीनिंग ड्राफ्ट तैयार करने को कहा है. उस को जनता के सामने रखा जाए. जनता के सुझाव और आपत्तियां मांगी जाएं. विशेषज्ञों, जजों और मीडिया प्रोफैशनल्स से राय ली जाए. अंतिम सिस्टम तैयार कर के उसे कोर्ट के सामने पेश किया जाए. इस के बाद सोशल मीडिया के नियम पूरी तरह बदल जाने की उम्मीद की जा रही है.
इस में सब से बड़ा खतरा है कि सरकार की इच्छा के हिसाब से कंटैंट ब्लौक हो सकता है. आलोचना को भी गलत तरीके से रोका जा सकता है. डिजिटल क्रिएटर्स पर अनावश्यक दबाव बन सकता है. अगर देखें तो यह पहली बार नहीं हुआ है. प्रिंट मीडिया पर भी ऐसे नियमकानून है जो उस को रोकने का काम करते हैं. मीडिया को संविधान का चौथा स्तंभ कहा जाता है. संविधान में मीडिया को इस बारे में कोई लिखतपढ़त में नहीं कहा गया है. मीडिया को कोई अलग से अधिकार नहीं दिए गए हैं. फ्रीडम औफ स्पीच का जो मौलिक अधिकार सामान्य लोगों को हासिल है वह ही मीडिया के पास है.

फ्रीडम औफ स्पीच क्या है

भारत का संविधान सभी नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है. इस में न केवल मौखिक शब्द शामिल हैं, बल्कि लेखन, चित्र, फिल्म, बैनर आदि के माध्यम से कही गई बातों को भी शामिल किया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्णय दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) का एक अविभाज्य अधिकार है. ये दोनों अधिकार अलगअलग नहीं, बल्कि संबंधित हैं. लोकतंत्र में संविधान सभी नागरिकों को देश की राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में हिस्सा लेने की अनुमति देता है.
फ्रीडम औफ स्पीच बेहद महत्त्वपूर्ण है क्योंकि लोकतंत्र तभी अच्छी तरह काम करता है जब लोगों को सरकार के बारे में अपनी राय व्यक्त करने और आवश्यकता पड़ने पर उस की आलोचना करने का अधिकार हो. लोगों की आवाज सुनी जानी चाहिए और उन की शिकायतों का समाधान किया जाना चाहिए. न केवल राजनीतिक क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी यह आजादी जरूरी होती है. इस के बिना सरकार अत्यधिक शक्तिशाली हो जाएगी और फिर वह मनमानी करने लगेगी. संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता, विदेशी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, द्वेषपूर्ण भाषण, मानहानि, न्यायालय की अवमानना पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है.
सोशल मीडिया के जमाने में इस तरह के कई मामले सामने आने लगे हैं जिन में फ्रीडम औफ स्पीच का दुरुपयोग किया जा रहा है. इस के लिए अलगअलग जगहों पर अलग तरह के कानूनों के अनुसार रोक लगाई जाती है. प्रिंट मीडिया में छपी खबरों पर धारा 499 के तहत अपराधिक मानहानि, धारा 124ए के तहत राजद्रोह और 505 के तहत शांति भंग करने के कानून के तहत मुकदमा कायम किया जा सकता है. इस के अलावा भारतीय प्रैस परिषद में भी शिकायत दर्ज कराई जा सकती है. प्रिंट मीडिया को कानून के आधीन काम करना पड़ता है. इस के लिए भी कानून बना है जिस से कि वह गलत लिखने से बचे और अपनी जिम्मेदारी का पालन कर सके.

प्रिंट मीडिया के लिए क्यों बना था पीआरबी एक्ट

प्रैस और पुस्तक रजिस्ट्रीकरण (पीआरबी) अधिनियम 1867 में बना था. यह अधिनियम प्रिंटिंग प्रैसों और समाचारपत्रों को नियंत्रित करता है. यह सभी तरह के प्रिंटिंग प्रैसों के लिए नियुक्त प्राधिकारी के साथ रजिस्ट्रीकरण को अनिवार्य बनाता है. इस का उद्देश्य यह है कि सरकार देश में प्रकाशनों और प्रकाशकों पर नजर रख सके. जिस समय यह कानून बना था, देश में अंगरेजों का राज था. उन के खिलाफ कई तरह के लेख, समाचार और परचे छपते थे. ऐसे में वे प्रिंटिंग प्रैसों की निगरानी करना चाहते थे. ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों को निर्देश था कि प्रकाशित हर महत्त्वपूर्ण कार्य की प्रतियां इंगलैंड भेज कर ‘इंडिया हाउस’ के पुस्तकालय में जमा कराई जाएं. जिस से वहां बैठे लोग यह जान सकें कि भारत में उन के पक्ष और विपक्ष में क्या हो रहा है.
देश के आजाद होने के बाद नेहरू सरकार ने प्रैस कानूनों की जांच के लिए प्रैस कानून जांच समिति 1948 बनाई. जिस ने प्रैस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम 1867 में संशोधन की कुछ सिफारिशें कीं. यह 1955 का संशोधन अधिनियम माना जाता है. प्रैस और पुस्तक पंजीकरण (संशोधन) विधेयक 1952 संसद में पेश किया गया था. प्रैस आयोग, जिसे इस के तुरंत बाद नियुक्त किया गया था, ने अधिनियम के कार्यान्वयन के संबंध में पूरी स्थिति की समीक्षा की. प्रैस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम में 1955 में संशोधन किया गया था ताकि अन्य बातों के साथसाथ समाचारपत्रों से संबंधित आंकड़ों के संग्रहण, समाचारपत्रों के रजिस्टर के रखरखाव और अन्य सहायक मामलों के लिए एक केंद्रीय प्रैस रजिस्ट्रार के अधीन एक तंत्र की स्थापना का प्रावधान किया जा सके.
इलैक्ट्रौनिक मीडिया, डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के लिए अलग से कोई निगरानी बोर्ड अभी तक नहीं बना है. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और केबल टैलीविजन नैटवर्क (विनियमन) अधिनियम 1995 बनाया गया. इस के अलावा भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण, जिस को ट्राई भी कहते हैं, भी बनाया गया है. सोशल मीडिया पर निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है. सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि यह व्यवस्था इस तरह की हो कि कोई गलत सामग्री के पोस्ट होने से पहले ही उस को रोका जा सके. सोशल मीडिया के विस्तार के बाद इस की पहुंच हर हाथ में हो गई है लेकिन इस की जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं है.

सोशल मीडिया पर नियंत्रण जरूरी

सीजेआई सूर्यकांत ने कहा, ‘मैं अपना चैनल बना लूं और मैं किसी के प्रति जवाबदेह न रहूं, किसी न किसी को तो जवाबदेह होना ही चाहिए.’ सोशल मीडिया में अश्लीलता को ले कर सवाल तो उठता है पर मसला उस से अधिक समाज को प्रभावित करने का है जब सोशल मीडिया पोस्ट से किसी की सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल की जाती है. एआई से बने वीडियो, फोटो एडिट से सच और झूठ का पता ही नहीं चलता. 2014 के बाद के चुनावों में राजनीतिक दलों ने इस का भरपूर प्रयोग किया. घोषित तौर पर हर दल का अपना आईटी सेल है जिस का काम अपना प्रचार कम, दूसरे का दुष्प्रचार करना ज्यादा है.
सोशल मीडिया पर वीडियो और फोटो के जरिए अफवाहों को फैला कर दंगे कराए जा रहे हैं. लोगों पर लिखे से कई गुना अधिक प्रभाव फोटो और वीडियो का पड़ता है. ऐसे में उन की जिम्मेदारी तय करनी जरूरी है. कुछ लोग आज की युवा पीढ़ी को भरमाने का काम करते हैं. कुछ पैसे के लालच में तमाम लोग हर दिन रील बनाते रहते हैं. रील को लोग अधिक से अधिक देखें, इस के लिए गलत-सही का भेद भुला कर कृत्य किए जा रहे हैं. जिन युवाओं के हाथों में रोजगार होना चाहिए वे रील बनाने में लगे हैं. उन को यह पता ही नहीं है कि वे अपने काम या कहें कृत्य से समाज में किस तरह का प्रभाव डाल रहे हैं.
सोशल मीडिया दोधारी तलवार जैसी हो गई है. ऐसे में इस पर नियंत्रण जरूरी है. इस के लिए जरूरी है कि इस के प्लेटफौर्म्स पर निगरानी की संस्था बने, जो यह भी देखे कि सोशल मीडिया पर कंट्रोल की आड़ में कहीं बोलने की आजादी पर प्रतिबंध तो नहीं लगाया जा रहा. दूसरी तरफ, वह यह भी देखे कि सोशल मीडिया अराजक तो नहीं हो गया है कि जिस से समाज को नुकसान हो रहा हो. सोशल मीडिया पर एक बार जो वायरल हो जाता है उस को खंडन करने से सुधारा नहीं जा सकता, इसलिए उस के वायरल होने यानी उस सामग्री के पोस्ट किए जाने से पहले उसे रोका जाए. Freedom of speech

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