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छोटी सी ये दुनिया-भाग 2: अनुभा के साथ सोलो ट्रीप पर क्या हुआ?

सामने आने वाला मौसम सर्दियों का था. अनुभा ने जैसलमेर जाने का मन बनाया. सुना है कि यहां दिसंबर के आखिरी सप्ताह में देशी और विदेशी पर्यटकों की बहुत भीड़ होती है, इसलिए अनुभा ने जैसलमेर घूमने के लिए मध्य दिसंबर को चुना.

अनुभा ने नैट पर सर्च किया. दिल्ली से जैसलमेर के लिए सीधी फ्लाइट उपलब्ध थी. पर्यटन स्थल होने के कारण यहां होटलों की अच्छीखासी तादाद थी. अनुभा ने इस के लिए भी गूगल की मदद ली और एक चारसितारा रिसौर्ट में 4 दिन और 3 रात का पैकेज बुक करवा लिया, जिस में एक रात रेतीले टीलों पर आलीशान टैंट में बिताना भी शामिल था. लोकल साइट सीन और आसपास भ्रमण आदि के लिए गाड़ी और एक अनुभवी गाइड भी इसी पैकेज में शामिल था.

अनुभा जैसलमेर ट्रिप को ले कर बहुत उत्साहित थी. उस के उत्साह का सब से बड़ा कारण तो इस ट्रिप का सोलो होना ही था. वह पहली बार ऐसी किसी ट्रिप पर जाने वाली थी, जिस की सारी व्यवस्था उस ने स्वयं की थी और यह जो आजादी वाला फील था, वह भी इस के उत्साह का दूसरा बड़ा कारण था.

सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने वाली कहावत अनुभा ने आजतक केवल सुनी ही थी, पर आज देख भी लिया. कोहरे के कारण अनुभा की फ्लाइट 4 घंटे लेट हो गई, जिस के कारण उस का मूड थोड़ा सा अपसैट हो गया, क्योंकि फ्लाइट लेट होने का सीधासीधा असर आगे के कार्यक्रम पर पड़ने वाला था.

खैर, जो हमारे हाथ में नहीं, उसे कोस कर अपना मन भी क्यों खराब करना. अनुभा जैसलमेर पहुंची, तो एयरपोर्ट पर उस की गाड़ी उस का इंतजार कर रही थी. बताए गए गाड़ी नंबर को तलाश करती वह पार्किंग की तरफ जा रही थी.

“एक्सक्यूज मी,” एक पुरुष स्वर सुन कर अनुभा ने पीछे मुड़ कर देखा. यह लगभग 25 साल का एक युवा था, जो उसे ही पुकार रहा था. घुटनों से फटी जींस और बेपरवाह सी पहनी हुई गरम हुडी… कानों में छोटीछोटी बालियां और आधुनिक स्टाइल से बने हुए बाल… कपड़े और जूते ब्रांडेड नहीं थे. पीठ पर लदा काले रंग का लैपटाप बैग, कानों में ठूंसे हुए ईयर फोन और आंखों पर चढ़ा रंगीन चश्मा उसे पर्यटक साबित कर रहे थे.

“क्या आप मुझे सिटी तक लिफ्ट दे सकती हैं? यहां साधन मिलना बहुत मुश्किल है. मिलेगा भी तो बहुत महंगा,” पुरुष ने अनुरोध किया.

अनुभा ने एक पल सोचा, फिर पूछा “लोकल हो?”

“नहीं, ट्रैवलर हूं, घूमने आया हूं,” युवक ने स्पष्ट कहा. पता नहीं क्या था इस युवक की बातों में कि अनुभा ने सहमति में गरदन हिला कर उसे अपने साथ आने का इशारा कर दिया. युवक उस के पीछेपीछे चलने लगा.

टैक्सी अपनी रफ्तार से शहर की तरफ भाग रही थी. युवक ने अपने गले में लपेटा हुआ मफलर ढीला किया और कार का शीशा नीचे कर दिया. ठंडी हवा का झोंका अनुभा के शरीर को सिहरा गया. उस ने अपने सिर पर पहनी हुडी को कानों पर कस लिया. टैक्सी में गाना बज रहा था, “केसरिया बालम, आवो नी पधारो म्हारे देस…” यह मांड गायन है, जिसे अल्लाह जिलाई बाई ने अपनी लरजती हुई आवाज में बड़े मन से गाया है. इस लोकगीत ने गायिका को विश्वभर में एक पहचान दी है या शायद गायिका ने इस गीत को… जो भी हो, अनुभा आंख मूंदे इस की गहराई में उतरती चली गई.

“आप कहां ठहरी हैं?” युवक ने पूछा. अचानक आए इस व्यवधान ने अनुभा को वर्तमान में ला दिया.

“होटल रौयल इन में. क्यों…?” अनुभा ने पूछा.

“यों ही. काफी महंगा रिसौर्ट है. नैट पर देखा था मैं ने,” युवक ने खिड़की से बाहर दूर तक फैले रेगिस्तान को अपनी आंखों में समेटने का प्रयास करते हुए कहा, “दरअसल, मैं पहली बार सोलो ट्रिप पर निकली हूं, इसलिए सेफ जर्नी चाहती थी, ताकि मेरा पहला अनुभव खराब ना हो,” कहते हुए अनुभा मुसकराई थी.

युवक ने उस की तरफ पलट कर देखा. वह भी मुसकरा दिया.

“इसे सोलो ट्रिप नहीं, बल्कि प्लैन्ड ट्रिप कहते हैं मैडम. सोलो ट्रिप तो बिलकुल आवारगी वाली होती है, जिस में अगले पल क्या होने वाला है, उस का कोई अंदाजा नहीं होता. जहां मरजी रुके, जो मिला वह खाया और जो साधन मिला, उसी में चल दिए. जैसे मैं कर रहा हूं,” युवक ने ठहाका लगाया. अनुभा को लगा मानो वह उस का मजाक उड़ा रहा है. वह चिढ़ गई.

“तो फिर फ्लाइट से क्यों आए? बैलगाड़ी से आते,” अनुभा ने कहा. उस के स्वर की तल्खी से युवक भी समझ गया कि उसे बुरा लगा है.

“ट्रिप तो अब यहां से शुरू हुई है. यहां तक तो पहुंचना ही था ना. टाइम बचाने के लिए मैं ने फ्लाइट ली है, वरना मैं तो ट्रेन से आता, वह भी जनरल डब्बे में बैठ कर,” युवक के अंदाज से अनुभा को लगा कि या तो यह बहुत अनुभवी पर्यटक है या फिर उस पर प्रभाव जमाने का प्रयास कर रहा है.

सत्यकथा: प्रेमिका की हत्या कर सुहागरात की तैयारी

कई युवकों की फितरत होती है कि पहले वे किसी लड़की को प्यार के जाल में फांसते हैं फिर उस के साथ हसरतें पूरी कर उस से किनारा कर लेते हैं. पप्पू राव भी उन्हीं में से एक था.

‘‘रानी, यह दूरदूर की मुलाकात में मजा नहीं आता, चल कहीं बाहर चलते हैं’’ पप्पू राव ने अपनी आवाज में शहद घोल कर फोन पर प्रेमिका रानी से कहा.

‘‘रोज ही तो मिलती हूं तुझ से, दूर कहां हूं,’’ रानी ने भी उतनी ही मोहब्बत से पप्पू से सवाल कर डाला.

‘‘नहीं, अभी तू मुझ से बहुत दूर है. अगर तू सचमुच मुझ से प्यार करती है तो मेरे से बाहर मिल. मैं तुझे बहुत सारा प्यार करना चाहता हूं. बहुत सारी बातें करना चाहता हूं.’’ पप्पू बेसब्री से बोला.

अपने प्रेमी की इतनी रोमांटिक बातें सुन कर रानी फोन पर शरमा गई. कुछ पल तो मुंह से बोल ही नहीं फूटे. पप्पू ने सोचा कि शायद वह नाराज हो गई. वह बेचैनी से बोला, ‘‘क्या तू मुझ से प्यार नहीं करती रानी? तुझे मुझ पर भरोसा

नहीं है?’’

‘‘बहुत प्यार करती हूं पप्पू, पूरा भरोसा है तुझ पर. बता, कहां आना है?’’

पप्पू राव के चेहरे पर विजयी मुसकान तैर उठी. वह रानी को अपने जाल में फंसाने में कामयाब हो गया. उस की मेहनत सफल हो गई. रानी उस के साथ बाहर जाने को तैयार हो गई. अब वह अपनी सारी हसरतें पूरी करेगा.

दूसरे दिन पप्पू अपनी प्रेमिका रानी को मोटरसाइकिल पर बिठा कर शहर की तरफ उड़ा जा रहा था. शहर पहुंच कर उस ने एक सस्ते से होटल में कमरा लिया और दोनों दिन भर के लिए उस में बंद हो गए.

शुरू में रानी ने पप्पू को रोकने की बड़ी कोशिशें कीं, मगर जब पप्पू ने शादी का वादा किया और साथ जीनेमरने की कसमें खाईं तो रानी का सारा ऐतराज समर्पण में बदल गया.

होटल के कमरे में दोनों के बीच की सारी दूरियां मिट गईं. वे दो जिस्म एक जान हो गए. ऐसा एक बार नहीं, कई बार हुआ. महीनों तक हुआ.

बीते एक साल में पप्पू रानी को ले कर गांव के आसपास के कई शहरों में गया. बगहा से ले कर गोरखपुर तक. वहां कई होटलों में अपनी रातें गुलजार कीं. वह रानी को शादी के सपने दिखाता और हसरतें पूरी करता.

रानी शादी की कल्पनाओं में डूबी पप्पू के हाथों तब तक लुटती रही, जब तक उसे यह सूचना नहीं मिली कि पप्पू की शादी तो कहीं और तय हो गई है.

पप्पू मैट्रिक फेल मगर चलतापुरजा था. वैसे तो फिलहाल घर पर रह कर खेतीबाड़ी देख रहा था, मगर पाइप फिटर के काम के लिए वह ठेके पर कई बार विदेश जा चुका था.

बाहर की दुनिया उस ने खूब देखी थी, जेब में पैसा भी था, इसलिए लड़कियों के साथ धोखाधड़ी और अय्याशी उस की फितरत बन गई थी.

उधर रानी 8वीं पास गरीब परिवार की लड़की थी. रानी के घर की माली हालत अच्छी नहीं थी. उस के पिता बीमार रहते थे. घर में खाने वाले ज्यादा थे और कमाई कम. रानी के 6 भाई और एक बहन थी. इसलिए रानी आगे नहीं पढ़ पाई और स्कूल छोड़ कर घरगृहस्थी और खेती के काम में मां का हाथ बंटाने लगी.

उस के परिवार को जब उस के और पप्पू के रिश्ते के बारे में पता चला तो पहले तो मांबाप ने जातपांत, ऊंचनीच समझाई, मगर रानी को पप्पू पर इतना विश्वास था कि उस के आगे सभी हार मान गए.

इधर काफी दिनों से पप्पू रानी से नहीं मिला. वह उस का फोन भी इग्नोर कर रहा था. वाट्सऐप मैसेज का जवाब भी नहीं दे रहा था. तब रानी के दिमाग में शक पैदा हुआ.

उस ने पता लगवाया तो मालूम हुआ कि पप्पू की शादी दूसरे गांव में तय हो गई है, जहां से उसे मोटा दहेज मिल रहा है. इतना पता चलते ही रानी के तो पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई.

रानी पप्पू के हाथों अपना सब कुछ लुटा बैठी थी. बस उस के इसी वादे पर कि वह उस से शादी करेगा. दुलहन बना कर अपने घर ले जाएगा. मगर यह क्या, वह तो किसी और लड़की को अपनी दुलहन बनाने की फिराक में था.

रानी इतना बड़ा धोखा कैसे बरदाश्त कर सकती थी. उस ने पप्पू की बेवफाई की कहानी रोरो कर अपने घर वालों से बयां कर डाली.

रानी और पप्पू की प्रेम लीला घर वालों से छिपी तो थी नहीं, मगर जब पप्पू की करतूत उन को पता चली तो पहले तो मांबाप ने रानी को ही खूब बुराभला कहा. मगर बाद में बेटी के गम में वे भी शरीक हो गए.

रानी हार मानने वाली नहीं थी. कहते हैं कि प्यार में धोखा खाने वाली औरत चोट खाई नागिन की तरह बन जाती है. रानी का भी हाल कुछ ऐसा ही था. वह फुंफकारते हुए सीधे पप्पू के घर पर धमक पड़ी. वहां 13 फरवरी, 2022 को पप्पू की सगाई हो चुकी थी. अब उसे शादी कर के दुलहन लाने और उस के साथ सुहागरात मनाने का इंतजार था. उस का पूरा घर नातेरिश्तेदारों से भरा हुआ था. दूरदूर से रिश्तेदार आए हुए थे.

उन सब के बीच पहुंच कर रानी ने हंगामा खड़ा कर दिया. वह दनदनाती हुई घर में दाखिल हुई और एक कमरे में कब्जा कर के बैठ गई. पीछे उस के घर वाले भी थे. इस के बाद वहां पर खूब हाईवोल्टेज ड्रामा चला. दोनों पक्षों में जम कर कहासुनी हुई.

रानी ने साफ कह दिया कि पप्पू राव की बीवी सिर्फ और सिर्फ वह है. और पप्पू की शादी सिर्फ और सिर्फ उस से ही होगी. वह अब इस घर को छोड़ कर नहीं जाएगी. रानी के घर वालों ने भी उस का सपोर्ट किया. वह रानी को पप्पू के घर छोड़ कर चले गए, मगर उस से फोन पर लगातार संपर्क में रहे.

यह 15 फरवरी, 2022 की बात है. पप्पू के घर में घुसने से पहले रानी ने महिला थाने में जा कर पप्पू और उस के घरवालों के खिलाफ रिपोर्ट भी करवाई थी. पुलिस ने उसे काररवाई का आश्वासन भी दिया था.

मामला प्यार में धोखाधड़ी का था. शादी का सपना दिखा कर एक लड़की की इज्जत लूटी गई थी. रानी को उम्मीद थी कि पप्पू के घर में उस के होने से उस की शादी टूट जाएगी, मगर ऐसा हुआ नहीं. पप्पू के घर वाले 16 फरवरी को बारात ले जाने की तैयारियों में जुटे रहे. रानी के रोनेधोने का उन पर कोई असर नहीं हुआ.

बिहार के बगहा जिले में में भैरोगंज थाना क्षेत्र  के सिरिसिया गांव में अपने बेवफा प्रेमी के घर में धरने पर बैठी रानी का फोन 16 फरवरी को रात 10 बजे अचानक बंद हो गया. उस के भाई ने बड़ी कोशिश की, मगर रानी से कोई संपर्क नहीं हो पाया.

घर वाले भागेभागे पप्पू के घर पहुंचे. मगर रानी वहां भी नहीं थी. जिस कमरे में वह धरना दे रही थी, उस कमरे के दरवाजे पर ताला लटका हुआ था. पप्पू के घर वाले ठीक से जवाब नहीं दे रहे थे. कोई कह रहा था, ‘वो चली गई. कहां गई यह हमें क्या पता.’

रानी के घर वाले पूरे गांव में उसे ढूंढते रहे. मगर उस का कुछ अतापता नहीं चला. घर वालों को उस की हत्या का शक हुआ तो उन्होंने फिर भैरोसिंह थाने में जा कर गुहार लगाई. पुलिसकर्मी तब भी उन्हें आश्वासन देते रहे कि हम काररवाई करेंगे.

कोई काररवाई न होते देख रानी के घर वालों ने बगहा के एसडीपीओ कैलाश प्रसाद से गुहार लगाई. मामला जब एसडीपीओ के कान में पड़ा तो उन्होंने भैरोगंज थाने के प्रभारी लालबाबू प्रसाद से जवाब तलब किया.

लालबाबू प्रसाद ने कहा कि मुझे घटना की कोई सूचना नहीं है. लालबाबू ने बड़े ठंडे लहजे में कहा कि 15 फरवरी को उन्हें सूचना मिली थी कि प्रेम प्रसंग को ले कर युवती द्वारा विवाद किया जा रहा है. इस मामले की जांच चल रही है.

एसडीपीओ कैलाश प्रसाद ने डांट पिलाई तो थानाप्रभारी एक्शन में आए और रानी के गायब होने के 3 दिन बाद टीम बना कर पप्पू के घर पर दबिश दी गई, जहां पप्पू शादी कर के दुलहनिया घर ले आया था और बस सुहागरात मनाने की तैयारी में था.

पुलिस पप्पू को गिरफ्तार कर के थाने ले आई. उस के साथ उस की मां और चचेरे भाई को भी गिरफ्तार किया गया. पहले तो तीनों जवाब देने में आनाकानी करते रहे, मगर जब हवालात में तीनों से सख्ती की गई तो उन की जुबान खुल गई.

आरोपियों ने बताया कि रानी को वे जबरन एक बोलेरो गाड़ी में बिठा कर सुदूर वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के चिउटहां के जंगल में ले गए थे, जहां गला घोट कर उस की हत्या करने के बाद उस के शव को एक जगह गड्ढा खोद कर उन्होंने दफना दिया है.

पप्पू की निशानदेही पर पुलिस उस स्थान पर पहुंची, जहां रानी की लाश गाड़े जाने की बात आरोपियों ने कही थी. पुलिस ने उस जगह की खुदाई करवाई तो कुछ ही देर में तेज बदबू के साथ रानी का शव दिख गया.

गड्ढे के अंदर और शव के चारों ओर काफी मात्रा में नमक डाला गया था ताकि शव जल्दी गल जाए. इस से यह पता चला कि रानी की हत्या से पहले पूरी प्लानिंग की गई थी.

जंगल में जगह तलाशना, वहां गहरा गड्ढा खोदना, नमक की बोरियां ला कर उस में डालना आदि बताता है कि पूरे कांड को कई लोगों की मदद से अंजाम दिया गया होगा.

पूछताछ में पता चला कि रानी की हत्या में पप्पू के परिवार के उदय प्रताप राव, सुशील राव, बलदेव राव के अलावा कुछ और लोग शामिल थे. मगर पुलिस सिर्फ 3 लोगों को ही गिरफ्तार कर सकी थी.

पुलिस ने वह बोलेरो गाड़ी भी जब्त कर ली, जिसे रानी को जंगल ले जाने में इस्तेमाल किया गया था. गांव वालों ने बताया कि शादी के झांसे में ले कर पप्पू ने इस से पहले भी3 लड़कियों के साथ संबंध बनाए थे. जिस में से एक मामले में शिकायत भी हुई थी.

मगर उस की फितरत नहीं बदली और उस ने रानी के साथ फिर वही हरकत की. लेकिन रानी ने जब हंगामा किया और उस के घर में घुस कर बैठ गई तो वह गुस्से से भर गया. अगले दिन उस की शादी भी होनी थी. इसलिए रानी से मुक्ति पाने के लिए उस ने हमेशा के लिए उसे सुला दिया.

इस पूरे मामले में पुलिस की हीलाहवाली और महिला थाने में रिपोर्ट दर्ज होने के बाद तुरंत कोई काररवाई न होने से पीडि़त लड़की की हत्या हो गई.

अगर महिला थाने में केस दर्ज होने के तुरंत बाद पुलिस ने काररवाई की होती और आरोपियों को थाने बुला कर पूछताछ शुरू कर दी गई होती तो पप्पू और उस के घर वालों का हौसला इतना न बढ़ता कि लड़की को कार में डाल कर जंगल ले जाएं और मार कर दफना दें. जबकि रानी के घर वाले और पूरा गांव जानता था कि रानी पप्पू के घर में है.

पूरा गांव वहां हुए तमाशे का साक्षी था, बावजूद इस के गांवदेहातों में पुलिस की निष्क्रियता इतनी ज्यादा है कि किसी के मन में कानून को ले कर कोई डर नहीं है.

ऊंची जाति के लड़के नीची जाति की लड़कियों का शारीरिक शोषण करते हैं, उन्हें बरगलाते हैं, भगा ले जाते हैं और कुछ दिन के मनोरंजन के बाद छोड़ देते हैं.

अधिकांश मामलों में तो शिकायत ही दर्ज नहीं होती. मगर जब कोई लड़की हिम्मत कर के शिकायत दर्ज करवाती भी है तो पुलिस की उदासीनता के चलते उस का अंजाम यही होता है जो रानी का हुआ.

आरोपियों से पूछताछ के बाद पुलिस ने उन्हें न्यायालय में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया.

Women’s Day Special: टूटे कांच की चमक

उस बिल्डिंग में वह हमारा पहला दिन था. थकान की वजह से सब का बुरा हाल था. हम लोग व्यवस्थित होने की कोशिश में थे कि घंटी बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक महिला खड़ी थीं.

अपना परिचय देते हुए वह बोलीं, ‘‘मेरा नाम नीलिमा है. आप के सामने वाले फ्लैट में रहती हूं्. आप नएनए आए हैं, यदि किसी चीज की जरूरत हो तो बेहिचक कहिएगा.

मैं ने नीचे से ऊपर तक उन्हें देखा. माथे पर लगी गोल बड़ी सी बिंदी, साड़ी का सीधा पल्ला, लंबा कद, भरा बदन उन के संभ्रांत होने का परिचय दे रहा था.

कुछ ही देर बाद उन की बाई आई और चाय की केतली के साथ नाश्ते की ट्रे भी रख गई. सचमुच उस समय मुझे बेहद राहत सी महसूस हुई थी.

‘‘आज रात का डिनर आप लोग हमारे साथ कीजिए.’’

मेरे मना करने पर भी नीलिमाजी आग्रहपूर्वक बोलीं, ‘‘देखिए, आप के लिए मैं कुछ विशेष तो बना नहीं रही हूं, जो दालरोटी हम खाते हैं वही आप को भी खिलाएंगे.’’

रात्रि भोज पर नीलिमाजी ने कई तरह के स्वादिष्ठ पकवानों से मेज सजा दी. राजमा, चावल, दहीबड़े, आलू, गोभी और न जाने क्याक्या.

‘‘तो इस भोजन को आप दालरोटी कहती हैं?’’ मैं ने मजाकिया स्वर में नीलिमा से पूछा तो वह हंस दी थीं.

जवाब उन के पति प्रो. रमाकांतजी ने दिया, ‘‘आप के बहाने आज मुझे भी अच्छा भोजन मिला वरना सच में, दालरोटी से ही गुजारा करना पड़ता है.’’

लौटते समय नीलिमाजी ने 2 फोल्ंिडग चारपाई और गद्दे भी भिजवा दिए. हम दोनों पतिपत्नी इस के लिए उन्हें मना ही करते रहे पर उन्होंने हमारी एक न चलने दी.

अगली सुबह, रवि दफ्तर जाते समय सोनल को भी साथ ले गए. स्कूल में दाखिले के साथ, नए गैस कनेक्शन, राशन कार्ड जैसे कई छोटेछोटे काम थे, जो वह एकसाथ निबटाना चाह रहे थे. ब्रीफकेस ले कर रवि जैसे ही बाहर निकले नीलिमाजी से भेंट हो गई. उन के हाथ में एक परची थी. रवि को हाथ में देते हुए बोलीं, ‘‘भाई साहब, कल रात मैं आप को अपना टेलीफोन नंबर देना भूल गई थी. जब तक आप को फोन कनेक्शन मिले, आप मेरा फोन इस्तेमाल कर सकते हैं.’’

नीलिमाजी ने 2 दिन में काम वाली बाई और अखबार वाले का इंतजाम भी कर दिया. जब घर सेट हो गया तब भी नीलिमा को जब भी समय मिलता आ कर बैठ जातीं. सड़क के आरपार के समाचारों का आदानप्रदान करते उन्हें देख मैं ने सहजता से अनुमान लगा लिया था कि उन्होंने महिलाओं से अच्छाखासा संपर्क बना रखा है.

उस समय मैं सामान का कार्टन खोल रही थी कि अचानक उंगली में पेचकस लगने से मेरे मुंह से चीख निकल गई तो नीलिमाजी मेरे पास सरक आई थीं. उंगली से खून निकलता देख कर वह अपने घर से कुछ दवाइयां और पट्टी ले आईं और मेरी चोट पर बांधते हुए बोलीं, ‘‘जो काम पुरुषों का है वह तुम क्यों करती हो. यह सोनल क्या करता रहता है पूरा दिन?’’

नीलिमा दीदी का तेज स्वर सुन कर सोनल कांप उठा. बेचारा, वैसे ही मेरी चोट को देख कर घबरा रहा था. जब तक मैं कुछ कहती, उन्होंने लगभग डांटते हुए सोनल को समझाया, ‘‘मां का हाथ बंटाया करो. ये कहां की अक्लमंदी है कि बच्चे आराम फरमाते रहें और मां काम करती रहे.’’

सोनल अपने आंसू दबाता हुआ घर के अंदर चला गया. मैं अपने बेटे की उदासी कैसे सहती. अत: बोली, ‘‘दीदी, सोनल मेरी बहुत मदद करता है पर आजकल इंटरव्यू की तैयारी में व्यस्त है.’’

‘‘इंटरव्यू, कैसा इंटरव्यू?’’

‘‘दरअसल, इसे दूसरे स्कूलों में ही दाखिला मिल रहा है. लेकिन हम चाहते हैं कि इसे ‘माउंट मेरी’ स्कूल में ही दाखिला मिले.’’

‘‘क्यों? माउंट मेरी स्कूल में कोई खास बात है क्या?’’ नीलिमा ने भौंहें उचका कर पूछा तो मुझे अच्छा नहीं लगा था. अपने घर किसी पड़ोसी का हस्तक्षेप उस समय मुझे बुरी तरह खल गया था.

बात को स्पष्ट करने के लिए मैं ने कहा, ‘‘यह स्कूल इस समय नंबर वन पर है. यहां आई.आई.टी. और मेडिकल की कोचिंग भी छात्रों को मिलती है.’’

‘‘अजी, स्कूल के नाम से कुछ नहीं होता,’’ नीलिमा बोलीं, ‘‘पढ़ने वाले बच्चे कहीं भी पढ़ लेते हैं.’’

‘‘यह तो है फिर भी स्कूल पर काफी कुछ निर्भर करता है. कुशाग्र बुद्धि वाले बच्चों को अच्छी प्रतिस्पर्धा मिले तो वे सफलता के सोपान चढ़ते चले जाते हैं.’’

‘‘लेकिन इतना याद रखना सविता, इन्हीं स्कूलों के बच्चे ड्रग एडिक्ट भी होते हैं. कुछ तो असामाजिक गतिविधियों में भी भाग लेते देखे गए हैं,’’ इतना कहतेकहते नीलिमा हांफने लगी थीं.

खैर, जैसेतैसे मैं ने उन्हें विदा किया.

नीलिमा की जरूरत से ज्यादा आवाजाही और मेरे घरेलू मामले में दखलंदाजी अब मुझे खलने लगी थी. कई बार सुना था कि पड़ोसिनें दूसरे के घर में घुस कर पहले तो दोस्ती करती हैं, बातें कुरेदकुरेद कर पूछती हैं फिर उन्हें झगड़े में तबदील करते देर नहीं लगती.

एक दिन मैं और पड़ोसिन ममता एक साथ कमरे में बैठे थे. तभी नीलिमा आ गईं और बोलीं, ‘‘यह तुम्हारा पंखा बहुत आवाज करता है, कैसे सो पाती हो?’’

यह कह कर वह अपने घर गईं और टेबल फैन उठा कर ले आईं.

‘‘कल ही मिस्तरी को बुलवा कर पंखा ठीक करवा लो. तब तक इस टेबल फैन से काम चला लेना.’’

पड़ोसिन ममता के सामने उन की यह बेवजह की घुसपैठ मुझे अच्छी नहीं लगी थी. रवि दफ्तर के काम में बेहद व्यस्त थे इसलिए इन छोटेछोटे कामों के लिए समय नहीं निकाल पा रहे थे. सोनल भी ‘माउंट मेरी स्कूल’ के पाठ्यक्रम के  साथ खुद को स्थापित करने में कुछ परेशानियों का सामना कर रहा था, मिस्तरी कहां से बुलाता? मैं भी इस ओर विशेष ध्यान नहीं दे पाई थी. मैं ने उन्हें धन्यवाद दिया और एक प्याली चाय बना कर ले आई.

चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने टटोलती सी नजर चारों ओर फेंक कर पूछा, ‘‘सोनल कहां है?’’

‘‘स्कूल में ही रुक गया है. कालिज की लाइब्रेरी में बैठ कर पढे़गा. आ जाएगा 4 बजे तक .’’

नीलिमा के चेहरे पर चिंता की आड़ीतिरछी रेखाएं उभर आईं. कभी घड़ी की तरफ  देखतीं तो कभी मेरी तरफ. लगभग सवा 4 बजे सोनल लौटा और किताबें अपने कमरे में रख कर बाथरूम में घुस गया. मैं ने तब तक दूध गरम कर के मेज पर रख दिया था.

नए कपड़ों में सोनल को देख कर नीलिमाजी ने मुझ से प्रश्न किया, ‘‘सोनल कहीं जा रहा है?’’

‘‘हां, इस के एक दोस्त का आज जन्मदिन है, उसी पार्टी में जा रहा है.’’

सोनल घर से बाहर निकला तो बुरा सा मुंह बना कर बोलीं, ‘‘सविता, जमाना बड़ा खराब है. लड़का कहां जाता है, क्या करता है, इस की संगत कैसी है आदि बातों का ध्यान रखा करो. अपना बच्चा चाहे बुरा न हो लेकिन दूसरे तो बिगाड़ने में देर नहीं करते.’’

नीलिमा की आएदिन की टीका- टिप्पणी के कारण सोनल अब उन से चिढ़ने लगा था. उन के आते ही उठ कर चला जाता. मुझे भी उन की जरूरत से ज्यादा घुसपैठ अच्छी नहीं लगती थी, किंतु उन के सहृदयी, स्नेही स्वभाव के कारण विवश हो जाती थी.

धीरेधीरे, मैं ने अपने घर का दरवाजा बंद रखना शुरू कर दिया. घर के  अंदर घंटी बंद करने का स्विच और लगवा लिया. अब जब भी दरवाजे पर घंटी बजती मैं ‘आईहोल’ में से झांकती. अगर नीलिमा होतीं तो मैं घंटी को कुछ देर के लिए अनसुनी कर देती और यह समझ कर कि घर के अंदर कोई नहीं है, वह लौट जातीं.

काफी राहत सी महसूस होने लगी थी मुझे. कई आधेअधूरे काम निबट गए. कुछ लिखनेपढ़ने का समय भी मिलने लगा. सोनल भी अब खुश रहता था. पढ़ने के बाद जो भी थोड़ाबहुत समय मिलता वह मेरे पास बैठ कर बिताता. शाम को जब रवि दफ्तर से लौटते, हम नीचे जा कर बैठ जाते. कुछ नए लोगों से जानपहचान बढ़ी, कुछ नए मित्र भी बने.

उन्हीं दिनों मैट्रो में एक नई फिल्म लगी थी. हम दोनों पतिपत्नी पिक्चर गए थे, बरसों बाद.

अचानक, रवि के मोबाइल की घंटी बजी. नीलिमाजी थीं. बदहवास, परेशान सी बोलीं, ‘‘भाई साहब, आप जहां भी हैं जल्दी घर आ जाइए. आप के घर का ताला तोड़ कर चोरी करने का प्रयास किया गया है.’’

धक्क से रह गया दिल. पिक्चर आधे में ही छोड़ कर दौड़तीभागती मैं घर की सीढि़यां चढ़ गई थी. रवि गाड़ी पार्क कर रहे थे. दरवाजे पर ही रमाकांतजी मिल गए. बोले, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है, भाभीजी. हम ने चोर को पकड़ कर अपने घर में बंद कर रखा है. पुलिस के आते ही उस लड़के को हम उन के हवाले कर देंगे.’’

मैं ने बदहवासी में दरवाजा खोला. अलमारी खुली हुई थी. कैमरा, वाकमैन, घड़ी के साथ और भी कई छोटीछोटी चीजें थैले में डाल दी गई थीं. लाकर को भी चोर ने हथौड़े से तोड़ने का प्रयास किया था पर सफल नहीं हो पाया था. एक दिन पहले ही रवि के एक मित्र की शादी में पहनने के लिए मैं बैंक से सारे गहने निकलवा कर लाई थी. कुछ नगदी भी घर में पड़ी थी. अगर नीलिमा ने समय पर बचाव न किया होता तो आज अनर्थ ही हो जाता.

मैंऔर रवि कुछ क्षण बाद जब नीलिमा के घर पहुंचे तो वह उस चोर लड़के को बुरी तरह मार रही थीं. रमाकांतजी ने पत्नी के चंगुल से उस लड़के को छुड़ाया, फिर बोले, ‘‘जान से ही मार डालोगी क्या इसे?’’ तब नीलिमा गुस्से में बोली थीं, ‘‘कम्बख्त, पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया.’’

कुछ ही देर में पुलिस आ गई और उस लड़के को पकड़ कर अपने साथ ले गई. हम सब के चेहरे पर राहत के भाव उभर आए थे.

इस के बाद ही पसीने से लथपथ नीलिमा के सीने में तेज दर्द उठा तो सब उन्हें सिटी अस्पताल ले गए. डाक्टरों ने बताया कि हार्ट अटैक है. 3 दिन और 2 रातों के  बाद उन्हें होश आया. जिस दिन उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज होना था हम पतिपत्नी सुबह ही अस्पताल पहुंच गए थे. डाक्टरों ने हमें समझाया कि इन्हें हर प्रकार के टेंशन से दूर रहना होगा. जरा सा रक्तचाप बढ़ा तो दोबारा हार्टअटैक पड़ सकता है.

रमाकांतजी कुरसी पर बैठे एकटक पत्नी को देखे जा रहे थे. अचानक उन का गला भर आया. वे कांपते स्वर में बोले, ‘‘जिस के दिल में, ज्ंिदगी भर का नासूर पल रहा हो वह भला टेंशन से कैसे दूर रह सकता है. सविताजी, जिस लड़के ने आप के घर का ताला तोड़ कर चोरी करने का प्रयास किया वह हमारा बेटा था.’’

विश्वास नहीं हुआ था अपने कानों पर. लोगों को शिक्षित करने वाले रमाकांतजी और पूरे महल्ले की हितैषी नीलिमा का बेटा चोर, जो खुद के स्नेह से सब को स्ंिचित करती रहती थीं उन का अपना बेटा अपराधी?

रमाकांतजी ने बताया, ‘‘दरअसल, नीलिमा ने आप लोगों को कार में बिल्ंिडग से बाहर जाते हुए देख लिया था. कोई आधा घंटा भी नहीं बीता होगा, जब दूध ले कर लौट रही थीं कि आप के घर का ताला नदारद था और दरवाजा अंदर से बंद था. पहले नीलिमा ने सोचा कि शायद आप लोग लौट आए हैं लेकिन जब खटखट का स्वर सुनाई दिया तो उन्हें शक हुआ. धीरे से उन्होंने दरवाजा बाहर से बंद किया और चौकीदार को बुला लाई. थोड़ी देर में चौकीदार की सहायता से चोर को अपने घर में बंद कर दिया और फोन कर पुलिस को सूचित भी कर दिया.’’

हतप्रभ से हम पतिपत्नी एकदूसरे का चेहरा देखते तो कभी रमाकांतजी के चेहरे पर उतरतेचढ़ते हावभावों को पढ़ने का प्रयास करते.

‘‘शहर के सब से अच्छे स्कूल ‘माउंट मेरी कानवेंट’ में हम ने अपने बेटे का दाखिला करवाया था,’’ टूटतेबिखरते स्वर में रमाकांत बताने लगे, ‘‘इकलौती संतान से हमें भी ढेरों उम्मीदें थीं. यही सोचते थे कि हमारा बेटा भी होनहार निकलेगा. पर वह बुरी संगत में फंस गया. हम दोनों पतिपत्नी समझते थे कि वह स्कूल गया है पर वह स्कूल नहीं, अपने दोस्तों के पास जाता था. स्कूल से शिकायतें आईं तो डांटफटकार शुरू की, मारपीट का सिलसिला चला पर सब बेकार गया. उसे तो चरस की ऐसी लत लगी कि पहले अपने घर से पैसे चुराता, फिर पड़ोसियों के घरों में चोरी करने लगा. लोग हम से शिकायतें करने लगे तो हम ने स्पष्ट शब्दों में सब से कह दिया कि ऐसी नालायक औलाद से हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

सहसा मुझे याद आया वह दिन जब निर्मला ने स्कूल के मुद्दे को छेड़ कर मुझ से कितनी बहस की थी. मेरे सोनल में शायद वह अपने बेटे की छवि देखती होंगी. तभी तो समयअसमय आ कर सलाहमशविरा दे जाती थीं. यह सोचते ही मेरी आंखों की कोर से टपटप आंसू टपक पड़े.

निर्मला की तांकनेझांकने की आदत से मैं कितना परेशान रहती थी. यही सोचती थी कि इन का अपने घर में मन नहीं लगता पर आज असलियत जान कर पता चला कि जब अपना ही खून अपने अस्तित्व को नकारते हुए बगावत का झंडा खड़ा कर बीच बाजार में इज्जत नीलाम कर दे तो कैसा महसूस होता होगा अभिभावकों को?

सच, व्यक्तित्व तो दर्पण की तरह होता है. जहां तक नजर देख पाती है उतना ही सत्य हम पहचानते हैं, शीशे के पीछे पारे की पालिश तक कौन देख सकता है? काश, नीलिमा की प्रतिछवि को पार कर कांच की चमक के पीछे दरकती गर्द की चुभन को मैं ने पहचाना होता पर अब भी देर नहीं हुई थी. वह मेरे लिए पड़ोसिन ही नहीं, आदरणीय बहन भी बन गई थीं.

लेखक- पुष्पा भाटिया

छोटी सी ये दुनिया-भाग 3: अनुभा के साथ सोलो ट्रीप पर क्या हुआ?

अनुभा ने उस की बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. तभी खिड़की से बाहर उसे एक अद्भुत दृश्य दिखाई दिया.

कुछ महिलाओं का झुंड एक खेजड़ी के पेड़ के नीचे खड़ा बतिया रहा था. टखने तक ऊंचे गहरे नीले रंग का घाघरा और केसरिया मिश्रित लाल रंग, जिसे राजस्थान में ‘कसुम्मल रंग’ कहा जाता है की ओढ़नी ओढ़े एक नवोढ़ा इन महिलाओं के बीच लंबा सा घूंघट काढ़े लजाई सी खड़ी थी.

लगभग सभी महिलाओं ने चांदी की मोटीमोटी छड़ अपने पांवों में पहन रखी थी और उन के हाथ कलाई से ले कर कंधे तक सफेद सीप की चूड़ियों से लदे थे. नाक में बड़ी सी नथनी झूल रही थी. अनुभा ने फोटो लेने के लिए ड्राइवर से गाड़ी रोकने का आग्रह किया.

अनुभा ने पास जा कर उन महिलाओं का हेयर स्टाइल देखा. उन्होंने बालों को कस कर बांध कर उन्हें एक जाली से इस तरह कवर किया हुआ था कि कोई न चाहे तो बाल महीनों तक बिखरें नहीं.

अनुभा इस नए स्टाइल को देख कर मुसकरा दी और मोबाइल निकाल कर इस दृश्य को कैद करने लगी. कुछ तसवीरें लेने के बाद उस ने अपना मोबाइल उस युवक की तरफ बढ़ा कर अपनी फोटो लेने का आग्रह किया.

“ये राजस्थान है मैडम.. यहां न जाने ऐसे कितने दृश्य आप को देखने को मिलेंगे,” युवक ने फोटो लेतेलेते उसे टोका. अनुभा को अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन वह चुप ही रही. गाड़ी अब शहर में प्रवेश कर रही थी.

“मुझे यहां अफसर कालोनी में छोड़ देना,” कहते हुए युवक ने ड्राइवर को रास्ता बताया. फिर अनुभा की तरफ देखने लगा.

“यह यहां की प्राइम लोकेशन है. सभी दर्शनीय स्थल इस के आसपास ही हैं. चलिए, मुलाकात होती है फिर कहीं किसी जगह,” कहते हुए युवक ने अपना हाथ अनुभा की तरफ बढ़ाया. अनुभा ने भी शिष्टाचार के नाते उस से हाथ मिलाया और हलके से मुसकरा दी.

“मुझे विहान कहते हैं,” युवक अपना नाम बताते हुए आगे बढ़ गया. अनुभा की गाड़ी रिसौर्ट की तरफ मुड़ गई.

रिसौर्ट में अनुभा का स्वागत राजस्थानी परंपरा के अनुसार तिलक लगा कर और साफा पहना कर किया है. वैलकम ड्रिंक में उसे छाछ परोसी गई, जिस में भुना हुआ जीरा और सेंधा नमक मिला हुआ था. रिसौर्ट बहुत शानदार बना हुआ था. कमरे भी सुविधाजनक थे. अनुभा ने चैकइन किया और चूंकि दोपहर हो चली थी, इसलिए वह पहले डाइनिंग हाल में चली गई. यहां सभी मेहमानों के लिए बुफे लगा था, जिस में पारंपरिक और आधुनिक सभी तरह का भोजन शामिल था.

अनुभा ने जम कर दालबाटी, चूरमा खाया. देशी घी में तर बाटियां और केसरपिस्ता डला हुआ चूरमा… उस पर लहसुन के तड़के वाली दाल… आहा, पेट भर गया, लेकिन उस का मन नहीं भरा.

इतना खाने के बाद भला सुस्ती आने से कौन रोक सकता है. वैसे भी दोपहर ढलने ही वाली थी, ऐसे में जैसलमेर घूमने जाने का कोई मतलब नहीं रह जाता, क्योंकि सर्दियों में दिन भी तो जल्दी छिप जाता है.

अनुभा सो कर उठी तो शाम के 5 बज रहे थे. उस ने कमरे में ही कौफी मंगवाई और खिड़की में से ढलते हुए सूरज को देखने लगी. कौफी पीने के बाद अनुभा ने एक शाल अपने इर्दगिर्द लपेटा और अकेली ही बाहर निकल गई.

“शौपिंग करने के लिए कहां जाना चाहिए?” अनुभा ने रिसौर्ट के चौकीदार से जानकारी ली.

“हुकुम, आप माणक चौक चले जाओ. आप के मतलब का सब मिल जावेगा वहां,” चौकीदार ने उसे सलाह दी. उस का ‘हुकुम’ कहना अनुभा को भीतर तक सम्मान का अनुभव करा गया.

माणक चौक सचमुच बहुत खूबसूरत बाजार था. कठपुतली और पत्थर से बने कलात्मक गहनों के साथसाथ हस्तकला से निर्मित बहुत सा सामान यहां बिक्री के लिए सजा हुआ था. अनुभा देखतीपरखती और कीमत पूछती हुई चली जा रही थी कि अचानक विहान को वहां देख कर चौंक गई. वह भी उसे देख कर मुसकरा रहा था.

“छोटी सी यह दुनिया, पहचाने रास्ते हैं… मैं ने कहा था ना फिर मिलेंगे,” कहता हुआ विहान उस के करीब आ गया.

“आज तो लेट हो गई थी, इसलिए कल यहां घूमेंगे. अभी थोड़ा समय था तो सोचा कि कुछ शौपिंग हो जाए,” अनुभा ने कहा.

“शौपिंग करनी है तो आओ मेरे साथ. पंसारी बाजार में आप को सबकुछ मिलेगा. सस्ता भी और बहुत अच्छा भी. यहां इसे ग्रामीण हाट भी कहते हैं,” विहान ने कहा और अनुभा का हाथ पकड़ कर चल दिया.

अनुभा उस का साहस देख कर हैरान थी. कैसे अधिकार से उस ने एक अजनबी लड़की का हाथ थाम लिया. लेकिन वह विरोध भी कहां कर पाई थी.

पंसारी बाजार जैसा विहान ने बताया वैसा ही था. यह एक स्ट्रीट मार्केट था, जहां गांव के लोग अपना सामान बेचने आते हैं.

अनुभा ने अपने लिए बंधेज का दुपट्टा और मोजड़ी खरीदी. 2 जोड़ी औक्सीडाइज्ड झुमके और दरवाजे पर बांधने वाली एक बंदनवार भी.

“संभाल कर पहनना, मोजड़ी पहनने से छाले हो जाते हैं,” कहते हुए विहान हंसा. इस पर अनुभा भी हंस दी. रात होने लगी थी, अनुभा वापस रिसौर्ट लौट गई.

सुबह 10 बजे उस की गाड़ी तैयार थी लोकल साइट सीन के लिए. सब से पहले उन्होंने जैसलमेर का मशहूर सोनार किला देखा. यह शायद एकमात्र ऐसा किला है, जिस के भीतर आज भी लोग रहते हैं. उस के बाद पटवों की हवेली और जैन मंदिर देखा. अंत में गढ़ीसर झील में बोटिंग कर के शाम तक वापस होटल आ गई. नजरें विहान को तलाश कर रही थीं, लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दिया.

यह उस की यात्रा का तीसरा दिन था. सुबह नाश्ते के बाद आज उन्हें तनोट माता के मंदिर में जाना था. अनुभा यहां जाने के लिए विशेष उत्साहित थी, क्योंकि उस ने सुना था कि किसी समय भारतपाकिस्तान के युद्ध में पाकिस्तानी सेना द्वारा फेंका गया कोई भी गोला, जो इस मंदिर परिसर में गिरा था, वह फटा नहीं था. बताया जाता है कि आज भी वे गोले यहां सुरक्षित रखे हुए हैं. इस पैकेज में सीमा सुरक्षा बल के कैंप से उसे पाकिस्तान की सीमा भी दिखाया जाना शामिल था. आज की रात सम के धोरों पर रंगारंग कार्यक्रम, कैमल सफारी और कई अन्य तरह की रोमांचक गतिविधियां होने वाली थीं.

दिन बहुत अच्छा निकला. सबकुछ तय कार्यक्रम के अनुसार ही हो रहा था. शाम को जब वह टैंट वाली जगह पहुंची तो 4 बज रहे थे. यहांवहां लंबी कतारों में लगे हुए दिखने में लगभग एकजैसे सैकड़ों टैंट देख कर अनुभा चकित रह गई. उस ने एक रौयल टैंट में चैकइन किया.

टैंट की व्यवस्था सचमुच बहुत अच्छी थी. जंगल में मंगल जैसी. उस ने अपने टैंट में ही कौफी और स्नैक्स मंगवा लिए. बेसन के पकौड़े खा कर वह अपनी दिनभर की थकान भूल गई. गरम पानी से नहा कर अब अनुभा सुबह सी फ्रेश हो गई. कपड़े बदल कर बाहर आई.

“हुकुम, आप कैमल सफारी करोगे ना?” टैंट के मैनेजर ने पूछा. अनुभा ने हां भर दी. कुछ ही देर में एक सजाधजा ऊंट वहां हाजिर था. सीढ़ी लगा कर अनुभा को ऊंट की पीठ पर बनी एक चौकी पर बिठाया गया. डर तो बहुत लगा, लेकिन ऊंट की पीठ के साथ ऊपरनीचे होने का भी एक जुदा सा अनुभव रहा.

जैसेजैसे रात हो रही थी, वैसेवैसे प्रांगण में चहलपहल बढ़ने लगी थी. अनुभा अकेली ही रेत के टीलों में टहलने निकल गई.

ये पूनम की रात थी. आसमान से झांकता चांद रेत को और भी अधिक ठंडी और सुनहरी बना रहा था. आसपास के टीलों पर लोग मजे कर रहे थे. कोई टायर पर बैठ कर ऊपर से नीचे फिसल रहा था तो कोई खुली जीप में डैजर्ट सफारी कर रहा था. अनुभा हाथ में कोल्ड ड्रिंक की बोतल लिए कोलाहल से दूर एक शांत से टीले की चोटी की तरफ बढ़ने लगी. टखनों तक पांव मिट्टी में गड़े जा रहे थे. बैलेंस बनाने के प्रयास में कभी उस की हथेलियां रेत में धंस रही थी, तो कभी वह गिर भी पड़ती.

टीले की चोटी पर पहुंच कर अनुभा ने अपना दुपट्टा रेत पर बिछाया और उस पर लेट गई. आसपास अब कोई शोर नहीं था. उस की आंखें मुंदने लगी. अचानक उस ने करवट बदली तो पाया कि पास में कोई और भी लेटा है. आंख खोली तो आश्चर्य से फैल गई.

“विहान, इट्स यू…?” अनुभा ने कहा.

“यस, इट्स मी. कहा था ना मैं ने? छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं…” विहान ने शरारत से कहा.

“अच्छा, एक बार अपनी आंखें बंद करो,” विहान ने कहा.

“क्यों…?” अनुभा ने पूछा.

“तुम करो तो सही,” कहते हुए विहान ने जबरदस्ती उस की आंखों पर अपनी हथेली रख दी. विहान ने अपना हाथ अनुभा की कमर में डाला और झटका दिया. दोनों एकदूसरे से लिपटे हुए टीले से नीचे आने लगे.

अनुभा कुछ कहना चाहती थी, लेकिन मुंह खोलते ही रेत मुंह में जाने का डर उसे सबकुछ यथावत चलते रहने के लिए मजबूर कर रहा था. कुछ ही पलों में ये फिसलन थम गई और वे दोनों टीले की तलहटी में आ कर ठहर गए.

जिस स्थिति में वे नीचे आए, अनुभा के होंठ विहान के गालों को छू रहे थे. विहान ने अपना चेहरा जरा सा घुमाया और उस के होंठ अनुभा के होंठों को छूने लगे.

अनुभा अचकचा कर उठ खड़ी हुई. चलने लगी तो रेत में धंस कर फिर से विहान की बगल में ही गिर पड़ी. विहान ने उस का हाथ थाम लिया और टीले पर चढ़ने लगे. दोनों ही चुप थे.

अचानक अनुभा को शरारत सूझी और उस ने विहान को धक्का दे दिया. एकदूसरे पर गिरतेपड़ते दोनों फिर से टीले की तलहटी में जा कर रुके. स्थिति अब भी लगभग पिछली बार जैसी ही थी. फर्क सिर्फ इतना सा था कि इस बार विहान नीचे था और अनुभा उस के ऊपर.

अनुभा ने अपनी आंखें बंद की और विहान के होंठों पर अपने होंठ रख दिए. विहान को लगा मानो उस ने गरम कौफी का घूंट भर लिया हो. होंठों के साथ बहुतकुछ सुलग उठा. दूध में उबाल आया और कौफी का मग ढेर सारे झाग से भर गया. धीरेधीरे उफान कम हुआ और कौफी ठंडी हो गई. शेष झाग को पैंदे में छोड़ कर दोनों उठ खड़े हुए. दो विपरीत लहरें आपस में टकराईं… अपने आयाम के चरम पर पहुंची और फिर मद्धम हो कर अपनेअपने साहिल को लौट गईं.

रात के रंगारंग कार्यक्रम के लिए अनुभा रिसौर्ट के मुख्य प्रांगण में चली गई, जहां राजस्थानी लोकनृत्यों और गीतों का कार्यक्रम शुरू हो चुका था. पहले तो अनुभा को कुछ विशेष आनंद नहीं आया, लेकिन यह माहौल भी भांग के नशे की तरह था, जो धीरेधीरे चढ़ता है. सारंगी जैसे वाद्य पर लोक कलाकार ‘लंगा और पार्टी’ देशी गीतों की धुन बजाने लगे. उन की कानों तक लंबी मूंछें अनुभा को विशेष आकर्षित कर रही थी. 2 अपेक्षाकृत कम उम्र के कलाकारों ने खड़ताल बजाते हुए ‘जद देखूं बना री लालपीली अंखियां, मैं नहीं डरूं सा…’ झूमझूम कर गाना शुरू किया.

कुछ ही देर में वो समां बांधा कि सब को अपने साथ झूमने के लिए मजबूर कर दिया. उस के बाद कालबेलिया नृत्य शुरू हुआ तो बस पूछो ही मत. अनुभा सबकुछ भूल कर उन कलाकारों के घाघरे के घेर के साथ घूमने लगी. उन के हाथों पर लटकती लूम अनुभा की आंखों को स्थिर नहीं रहने दे रही थी और अंत में जब सभी पर्यटक उन के साथ थिरकने लगे, तो अनुभा भी नाच उठी.

देर रात कार्यक्रम खत्म होने के बाद जब वह टैंट में आई, तो विहान का खयाल भी उस के साथ था. वह विहान से बात करना चाहती थी, लेकिन नहीं जानती थी कि वो कहां और किस टैंट में रुका है. सैकड़ों की तादाद में टैंट लगे हैं यहां. कैसे उसे तलाश करे. फोन नंबर भी तो नहीं लिया था उस ने विहान का.

अनुभा सोने की तैयारी करने लगी, लेकिन जिन आंखों में कोई बस जाए, उन में फिर नींद कहां? किसी तरह सुबह हुई और अनुभा फिर वहीं उसी टीले की तरफ निकल गई, जहां कल रात एक दास्तान लिखी गई थी.

ठंड से सिकुड़ा सूरज धीरेधीरे बाहर निकलने का मानस बना रहा था. टीलों की ऊपरी सतह हलकी गरम होने लगी थी. अनुभा को लगा मानो सूरज का रक्तिम तेज ठंडी बालू को जादू की झप्पी दे कर ठंड सहने की हिम्मत देने की कोशिश कर रहा है. विहान की झप्पी को याद कर के उस के गाल भी रक्तिम होने लगे.

अनुभा ने चारों तरफ देखा. हर तरफ टीले ही टीले… धोरे ही धोरे… सब के सब एकजैसे मानो एकदूसरे का क्लोन हों. वह कल रात वाले अपने टीले को पहचान ही नहीं पाई. यहां तक कि किसी भी टीले पर कोई पदचिह्न अब शेष नहीं था. रात को चली हवा ने सब टीलों को फिर से एकसार कर दिया. नए पदचिह्न बनाने के लिए. जैसे किसी ने ब्लैक बोर्ड को साफ कर के नया पाठ लिखने के लिए तैयार कर दिया हो. शायद प्रकृति उसे जिंदगी की कोई बड़ी सीख देना चाह रही थी.

अनुभा ने अपने मन की पगडंडी से इस मुलाकात के तमाम पदचिह्न मिटा दिए और इसे एक मील के पत्थर के रूप में दिल में संजो लिया.

आज दोपहर उस की फ्लाइट थी. गाड़ी उसे यहां से सीधे ही एयरपोर्ट ड्राप करने वाली थी. वह अपना सामान पैक करने लगी. साथ ही साथ मुसकराती हुई गुनगुना भी रही थी, “छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं… तुम कभी तो मिलोगे… कहीं तो मिलोगे…

आईना: गरिमा ने कैसे दिखाया आईना?

सामान से लदीफंदी मैं घर पहुंची तो बरामदे में ही मैं ने मम्मी को इंतजार करते पाया. अरे मम्मी, आप कब आईं? न फोन, न कोई खबर, मैं ने मम्मी के पैर छूते हुए उन से पूछा.

अचानक ही प्रोग्राम बन गया, कहते हुए मम्मी ने मुझे गले लगा लिया.

रामू, रामू, जरा चाय बनाना, मैं ने नौकर को आवाज दे कर चाय बनाने को कहा.

तुम्हारे नौकर तो बहुत ट्रेंड हैं. मेरे आते ही चायपानी, सब बड़ी स्मार्टली करा दिया, मम्मी बोलीं.

बातबात में अंगरेजी के शब्दों का इस्तेमाल करना मम्मी के व्यक्तित्व की खासियत है. डाई किए कटे बाल, कानों में नगों वाले हीरे के टाप्स, गले में सोने की मोटी चेन में चमकता पेंडेंट, अच्छे मेकअप से संवरी उन की सुगठित काया सामने वाले पर अच्छा असर डालती है.

मैं ने प्रशंसा से मम्मी की ओर देखा, बादामी रंग पर हलके सतरंगी फूलों वाली साड़ी उन के गोरे तन पर फब रही थी. ड»ाइवर सामान मेज पर रख कर चला गया था.

मम्मी, मैं बाजार से यह सामान लाई हूं, आप तब तक देखिए, मैं जरा हाथमुंह धो कर आती हूं, कहती हुई मैं बाथरूम में चली गई.

हांहां, तुम फ्रेश हो कर आ जाओ, मम्मी ने कहा.

मैं हाथमुंह धो कर आई तो मैं ने देखा मेरे आने तक रामू मम्मी के सामने चाय के साथसाथ पकौड़ी की प्लेट भी लगा चुका था. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, गरिमा, साडि़यां तो बहुत सुंदर हैं, लेकिन ये इतने सारे छोटेछोटे बाबा सूट किस के लिए लाई हो? मम्मी पूछ तो मुझ से रही थीं पर उन की नजर हाथ में पकड़ी सोने की पतली चेन का निरीक्षण कर रही थी.

इतने सारे कहां, मम्मी? सिर्फ 5 सेट कपड़े हैं. भैरवी को बेटा हुआ है न, उसी के लिए लाई हूं, मैं ने बताया.

अरे हां, याद आया. मैसेज तो आया था. मैं ने भी बधाई का टेलीग्राम भेज दिया था, मम्मी बोलीं.

अच्छा किया, मम्मी, भैरवी को अच्छा लगा होगा. मैं भैरवी के घर जाने की ही तैयारी कर रही हूं. परसों इतवार है. मैं ने 2 दिन की छुट्टी ले ली है. आज रात में ललितपुर से आदर्श यहां आ जाएंगे, कल सुबह यहां से निकलने का प्रोग्राम है. अब…, उत्साह से मैं बोलती ही जा रही थी.

चलो अच्छा है, आदर्श से भी मुलाकात हो जाएगी. मुझे भी कल मानिर््ंाग में ही वापसी निकलना है, मम्मी बोलीं.

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अरे, ऐसी क्या जल्दी है. हम लोग अपना प्रोग्राम थोड़ा बदल लेंगे. भैरवी के घर पहुंचने में सिर्फ 4 घंटे ही तो लगते हैं. और फिर अपनी गाड़ी से जाना है, जब चाहें निकल लेंगे. इतने दिनों बाद तो आप आई हैं, पकौड़ी खाते हुए मैं बोली.

नहीं भाई, मेरा प्रोग्राम तो एकदम डेफिनेट है. ठीक 7 बजे हम लोग यहां से निकल जाएंगे. ठंडेठंडे में कानपुर पहुंच जाएंगे, मम्मी ने कहा.

हम लोग? यानी आप के साथ और भी कोई आया है? मैं ने चौंकते हुए पूछा.

हमारी महिला समिति को मेरठ में एक ‘इनक्वायरी’ करनी थी. तुम यहां पोस्टेड हो और मेरी सहेली सुलभा देशमुख की बेटी भी यहीं झांसी में मैरिड है. 2 मेंबर्स की टीम आनी थी, अच्छा चांस था. बस, हम दोनों ने वाøलटियर कर दिया. रास्ते में इनक्वायरी का काम निबटाया. आज का दिन और एक रात अपनीअपनी बेटियों के साथ बिताएंगे और कल ईवनिंग में 5 बजे समिति की मीटिंग में अपनी जांच रिपोर्ट दे देंगे. अब समिति की गाड़ी तो आनी ही थी, सो बिना खर्चे के बच्चों से मिलना हो गया, कहती हुई मम्मी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

चाय का स्वाद अचानक मेरे मुंह में कसैला हो गया. जाने क्यों, मम्मी का यह व्यावहारिक रूप मुझे कभी रास नहीं आया था. मैं मम्मी से मतलब निकालने की कला नहीं सीख सकी थी. केवल यही क्यों, मैं तो मम्मी से कुछ भी नहीं पा सकी थी. गोरी रंगत और तीखे नैननक्श के साथ लंबी कद- काठी और गठीले शरीर की स्वामिनी की कोख से मैं, सांवली रंगत, साधारण नाकनक्श और सामान्य कदकाठी की संतान पैदा हुईघ्थी.

मैं ने अपने पिता की छवि पाई थी. केवल रंगरूप में ही नहीं, स्वभाव भी मुझे पिता का ही मिला था. बचपन से ही मैं डरपोक, शांतिप्रिय, एकांत प्रेमी और पढ़ाकू थी. एकांत प्रेमी और पढ़ाकू होना शायद मेरी मजबूरी थी. गुजरा हुआ अतीत मुझ पर हावी होता जा रहा था.

रूपगर्विता मम्मी का मन, साधारण व्यक्तित्व वाले पति को कभी स्वीकार नहीं सका था.घ्पति को छोड़ पाना मम्मी के वश में भी नहीं था, आर्थिक मजबूरियां थीं. परंतु मुझ जैसी कुरूप संतान उन पर बोझ थी. लेकिन मजबूरी यहां भी दामन थामे खड़ी थी. अपनी ही संतान को कहां फेंकें? सामाजिक बंधन थे. लिहाजा उन्हें मेरी परवरिश का अनचाहा बोझ उठाना पड़ा. इस जिम्मेदारी को अंजाम भी दिया परंतु वात्सल्य की मिठास से मेरी झोली खाली ही रह गई. उसी शाख पर खिले दूसरे 2 सुंदर फूल मम्मी की प्रतिच्छाया थे. मम्मी का सारा प्यार उन्हीं पर निछावर हो गया.

मेरे प्रशासनिक सेवा में चयन की खुशी मम्मी की आंखों में चमकी थी. घर की उपेक्षित लड़की अचानक मम्मी की नजर में महक्कवपूर्ण हो गई थी.घ्मुझे मम्मी में यह बदलाव अच्छा लगा था, किंतु यहां भी छोटी बेटी के प्रति मम्मी का प्रेम उन पर हावी हो गया था और उन्हें यह अफसोस होने लगा था कि यदि ग्लोरी की शादी अब होती तो उसे भी प्रशासनिक अधिकारी पति मिल जाता.

बचपन में मम्मी की सहेलियां जब भी घर आतीं, मम्मी मुझे हमेशा रसोई में घुसा देतीं. नाश्तापानी बनाने की सारी मेहनत मैं करती किंतु ट्रेन में सजा कर ले जाने का काम हमेशा मेरी अनुजा ग्लोरी का ही होता. उम्र के साथसाथ मैं ने इस सत्य को स्वीकार लिया और खुद ही लोगों के सामने जाने से कतराने लगी. धीरेधीरे मैं एकांतप्रिय होती चली गई. अपने अकेलेपन को भरने के लिए मैं ज्यादा से ज्यादा पढ़ने लगी जिस से मैं पूरी तरह पढ़ाकू ही बन गई.

ग्लोरी, मेरी अनुजा का यह नाम भी मम्मी का रखा हुआ था जो मम्मी का अंगरेजी प्रेम दरशाता है. अपनी इसी खिचड़ी भाषा, शिष्ट श्रृंगार और सामाजिक संगठनों से जुड़ कर मम्मी खुद को उच्च वर्ग का दरशाती हैं. ग्लोरी मेरी सगी बहन है, किंतु वह मम्मी की कार्बन कापी. अधिकार से अपनी बात मनवाना और हर जगह छा जाना उस की फितरत में है.

गरिमा, गरिमा, मम्मी की आवाज से मैं वापस वर्तमान में आ गई.

अरे, क्या सोचने लगी थी? बैठेबैठे सपनों में खो जाने की तेरी आदत अभी गई नहीं. इतनी देर से पूछ रही हूं, कुछ बोलती क्यों नहीं? मम्मी ने कहा.

ये, क्या पूछ रही थीं, मम्मी? मैं ने सवाल के जवाब में खुद ही सवाल कर डाला.

यह गुलाबी साड़ी कितने रुपए की है? मैं ग्लोरी के घर जाने वाली हूं. सोच रही हूं यह गुलाबी साड़ी ग्लोरी पर अच्छी लगेगी, उसे दे दूं, वाणी में मिठास घोलते हुए मम्मी बोलीं.

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ग्लोरी पर तो सारे रंग अच्छे लगते हैं. ये साडि़यां तो मैं भैरवी के लिए लाई हूं. अपने लिए लाई होती तो मैं जरूर दे देती, मैं ने कहा.

क्या? ये सब, मतलब ये सारा सामान तुम भैरवी को देने के लिए लाई हो? मम्मी की आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं.

हां, मम्मी, भैरवी की पहली संतान को आशीर्वाद देने जा रहे हैं हम लोग, मैं ने कहा.

अरे, तू होश में तो है? इतने सारे कपड़े, 5 साडि़यां, रजाईगद्दा, चादर, खिलौने, क्या तूने उस का पूरा ठेका ले रखा है? और, जरा सा बच्चा सोने की चेन का क्या करेगा? फैली नजरों से मम्मी मुझे देख रही थीं.

मम्मी, कैसी बात कर रही हैं आप? भैरवी की यह पहली संतान है, मैं ने कहा.

कैसा क्या? तेरे भले की बात कर रही हूं. पहला बच्चा है तो क्या, कोई अपना घर उजाड़ कर सामान देता है किसी को? मम्मी ने कहा.

छोडि़ए मम्मी, जो आ गया सो आ गया, कह कर मैं ने इस अप्रिय प्रसंग को खत्म करना चाहा.

छोडि़ए कैसे? तुम फुजूलखर्ची छोड़ो और ऐसा करो, बहुत मन है तो बच्चे के कपड़ों के साथ एक साड़ी और मिठाई दे दो, बाकी सब वापस रख दो. हो जाएगा सगुन, कहते हुए मम्मी ने आदतन अपना हुकम सुना दिया.

मम्मी, ग्लोरी के पहली बेटी होने पर लगभग इतना ही सामान भिजवाया था आप ने. तब मैं टे»øनग में ही थी, पैसों की भी तंगी थी, परंतु उस समय आप को यह सब फुजूल- खर्ची नहीं लगी थी, मुझे अब गुस्सा आने लगा था.

ग्लोरी तेरी सगी बहन है, उसे दिया तो क्या, सभी को बांटती फिरोगी, मम्मी बोलीं.

भैरवी कोई गैर नहीं, मेरी सगी ननद है. जैसी ग्लोरी वैसी भैरवी, मैं ने कहा.

बहन और ननद में कोई फर्क नहीं है क्या? मम्मी भी गुस्से में आ गई थीं.

नहीं, कोई फर्क नहीं है. एक को मेरी मां ने जन्म दिया है तो दूसरी को मेरी सासू मां ने. एक ही प्यार का नाता है, मैं बोली.

तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, कोई फर्क नहीं दिखता, मम्मी खीज उठीघ्थीं.

वैसे फर्क तो है, मम्मी, कुछ सोचती हुई मैं बोल पड़ी.

चलो, तुम्हारी समझ में तो आया, मम्मी खुश हो गईं.

भावना और परवरिश में फर्क है, अभी मैं ने अपनी बात स्पष्ट करना शुरू ही किया था कि रामू अदब से सामने आ कर खड़ा हो गया और बोला, मैडम, खाना लग गया है.

ठीक है, चलिए मम्मी, खाना खाते हैं. आप तो सुबह की निकली होंगी, मैं उठते हुए बोली. इस अप्रिय संवाद के खत्म होने से मैं ने चैन की सांस ली.

हां, सुबह 6 बजे ही हम लोग कानपुर से चल दिए थे. सीधे मोठ पहुंचे. 2 घंटे वहां लगे. 11 बजे मोठ से चलना शुरू किया और सीधे झांसी, कहते हुए मम्मी भी उठ खड़ी हुईं.

खाना खा कर हम दोनों पलंग पर लेट गईं. घरपरिवार का हालचाल बतातेबताते मम्मी अचानक बोल पड़ीं, अरे, गरिमा, जो सामान वापस करना है, अपने ड»ाइवर को बोल दो, वापस कर आएगा, नहीं तो तुम लोग 3 दिन के लिए चले जाओगे. इस दौरान शापकीपर का सामान क्यों पता बिक ही जाए. जब लेना नहीं है तो बेचारे का नुकसान क्यों कराया जाए.

कौन सा सामान? कुछ समझ नहीं सकी. लिहाजा बोल पड़ी.

अरे, वही जो तुम भैरवी के लिए उठा लाई थीं, मम्मी ने कहा.

मम्मी, क्यों वही बात फिर से शुरू कर रही हैं? मेरे लहजे में शिकायत थी.

मतलब, तुम सामान वापस नहीं कर रही हो? मम्मी अविश्वास से मेरी तरफ देख रही थीं.

नहीं, मम्मी, आप भला नहीं कर रही हैं. आप हमें स्वार्थी बनाने का प्रयास कर रही हैं, मैं स्पष्ट शब्दों में बोल उठी.

गरिमा? गुस्से से मम्मी की आवाज कांप गई.

मैं ने मम्मी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे से बोली, मम्मी, मुझे मालूम है मेरी बात आप को ठेस पहुंचा रही है. इस विषय में मैं ने हमेशा टालना चाहा है. जब तक बात मेरे तक थी, मैं ने कोई विरोध नहीं किया, अपनेआप में सिमटती चली गई. लेकिन आप की दखल का असर अब हमारी गृहस्थी पर भी होने लगा है. ग्लोरी का बिखरता दांपत्य आप की ऐसी सीखों का ही नतीजा है. अभी भी समय है मम्मी, खुद को रोक लीजिए. आप ने तो समाजसुधार का बीड़ा उठा रखा है. फिर अपनी बेटियों का घर क्यों…

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मेरी बात बीच में काटती हुई मम्मी मेरा हाथ झटक कर बैठ गईं और गुस्से से बोलीं, तुम कहना क्या चाहती हो? मेरी फूल जैसी ग्लोरी को वे लोग सुखी नहीं रख रहे हैं और उस के लिए दोषी मैं हूं? मैं तुम लोगों को स्वार्थी बना रही हूं? मैं तुम लोगों का भला नहीं चाहती? और तेरे साथ मैं ने क्या किया जो तू चली गई? पढ़ालिखा कर प्रशासनिक अधिकारी बना दिया, यही न? आज सी.डी.ओ. बनी सब पर रोब झाड़ती घूम रही है. हमेशा की डरीसहमी रहने वाली लड़की, आज मां से ही जवाबसवाल कर रही है, मम्मी की आंखें अंगारे बरसा रही थीं.

मम्मी, प्लीज, शांत हो कर मेरी बात सुनिए, मैं ने नरम पड़ते हुए कहा.

अच्छा, अभी भी सुनने को कुछ रह गया है क्या? मम्मी झल्लाईं.

प्लीज मम्मी, मुझे मालूम है आप हमारा बुरा नहीं चाहतीं. अपनी लाड़ली ग्लोरी का बुरा तो आप सोच भी नहीं सकतीं øकतु अनजाने में ही आप भले के चक्कर में ऐसा कुछ कर जाती हैं जो आप के न चाहते हुए भी आप की संतान का बुरा कर बैठता है. मेरे और ग्लोरी के सुखी भविष्य के लिए मेरी बात सुन लीजिए, मैं ने उन्हें समझाते हुए कहा.

शायद मेरी बात मम्मी को कुछ समझ आ रही थी या फिर ग्लोरी की बिखरती गृहस्थी को संवारने की इच्छा से मम्मी मेरी बात सुनने को तैयार हो गई थीं. मैं समझ नहीं पा रही थी कि उन नजरों में क्या था.

क्या कहना चाहती हो, बोलो, मम्मी के सपाट शब्दों में कोई भाव नहीं था.

मैं दुविधा में थी. मम्मी अपलक मेरी ओर देख रही थीं. थोड़ी देर हमारे बीच खामोशी पसरी रही, फिर मैं ने बोलना शुरू किया, मेरी बात का गलत अर्थ मत लगाइएगा, मम्मी.

हां, बोलो, मम्मी की तटस्थता बरकरार थी.

मम्मी, अभी आप ने मुझे बहन और ननद में फर्क करने की सलाह दी थी जिसे मैं ने मानने से मना कर दिया, क्योंकि निश्छल और निस्वार्थ प्यार क्या होता है, मैं ने अपनी शादी के बाद ही जाना है. पति का प्यार ही नहीं, मां का प्यार, बहन का प्यार…, मैं कहती चली गई.

अरे, हम प्यार नहीं करते क्या? मम्मी की तटस्थता टूटी. उन के स्वर में आश्चर्य था.

जरूर करती हैं, लेकिन ग्लोरी और भैया से कम. मैं बचपन से ही काली मोटी रही हूं, मैं ने कहा.

गरिमा, रंगरूप तो भगवान का दिया है, मम्मी बोलीं.

हां, लेकिन आप तीनों के व्यवहार से मेरी कुरूपता मुझ पर हावी होती गई. नतीजतन, मैं हीनभावना से घिरती गई. किसी से बात करने का आत्मविश्वास मुझ में नहीं रहा, मैं ने मम्मी से अपने मन की हकीकत बयान की.

अरे, कैसी बात कर रही हो? ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ, मम्मी बोलीं.

लेकिन अतीत की कसैली यादें मुझ पर हावी थीं. मैं अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, मम्मी, याद है मैं जब हाईस्कूल में थी, स्कूल में हमारी फेयरबेल पार्टी थी. मैं बहुत उत्साहित थी. आप की एक साड़ी मैं ने उस खास मौके पर पहनने के लिए कई दिन पहले से अलग निकाल रखी थी. उस दिन, जब मैं ने उसे पहनने के लिए निकाला तो ग्लोरी ने टोका था, ‘दीदी, तुम दूसरी साड़ी पहन लो. यह साड़ी मैं परसों पिकनिक में पहन कर जाऊंगी.’

‘नहीं, आज तो मैं यही साड़ी पहनूंगी. इतने दिनों से मैं ने इसे तैयार कर के रखा है. तुम्हें पहनना है तो तुम भी पहन लेना. मैं इसे गंदा नहीं करूंगी,’ मैं ने भी जिद कीघ्थी.

‘दीदी, तुम जो कुछ भी पहनती हो, कोई भी रंग तुम्हारे ऊपर खिलता तो है नहीं, बेकार की जिद मत करो,’ कहते हुए ग्लोरी ने साड़ी मेरे हाथ से ले ली थी. मैं खड़ी की खड़ी रह गई थी.

मम्मी, आप के सामने ग्लोरी मुझे इस तरह अप्रिय शब्दों में अपमानित कर के चली गई और आप कुछ नहीं बोली थीं.

अरे, तुम इतनी छोटी सी बात अब तक दिल से लगाए बैठी हो, गरिमा? मम्मी अचंभित सी मुझे देख रही थीं.

यह आप के लिए छोटी घटना होगी मम्मी, लेकिन उस दिन के बाद से मैं ने कभी भी ग्लोरी और भैया की बराबरी नहीं की. मैं सब से कटती चली गई. अपने रंगरूप के कारण जो आत्मविश्वास मैं ने खो दिया था वह मुझे वापस मिला अपनी शादी के बाद.

आई.ए.एस. की टे»øनग के दौरान मुझे आदर्श मिले, जो सिर्फ नाम के ही नहीं विचारों के भी आदर्श हैं. आदर्श को जीवनसाथी में रूप की नहीं, गुणों की तलाश थी और हम परिणय सूत्र में बंध गए. ससुराल जाते हुए मैं बहुत आशंकित थी øकतु मेरी सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं. ससुराल में सब ने मेरा खुले मन से स्वागत किया. मेरा ससुराल सचमुच ‘घर’ था, जहां सब को एकदूसरे की भावनाओं का खयाल था, मेरी छोटीछोटी बातों की तारीफ होती. मैं किसी को रूमाल भी ला कर देती तो वे लोग एकदम खिल जाते. वे कहीं भी जाते तो मेरे लिए कुछ न कुछ जरूर लाते. तब मुझे अपने भाईबहन याद आते, जो सिर्फ अधिकार से लेना जानते हैं.

गरिमा, वे तुम से छोटे हैं, मम्मी ने उन का पक्ष लेते हुए कहा.

मम्मी, आप ने हमेशा उन का पक्ष लिया है. इसीलिए वे जिद्दी हो गए हैं. मां होने का अर्थ हमेशा बच्चों की कमी पर परदा डालना नहीं होता बल्कि उन्हें सही राह दिखाना होता है. मम्मी, वे यदि छोटे हैं तो भैरवी भी तो छोटी ही है, लेकिन उस ने मुझे सही अर्थों में छोटी बहन का प्यार दिया. ‘प्यार’ शब्द का अर्थ मैं ने इस परिवार में आ कर जाना है. प्यार में कोई लेनदेन नहीं होता, बस, प्यार होता है. बिना मेरी कमियों की तरफ इशारा करे भैरवी ने मेरे बालों की स्टाइल, मेरा पहनावा सब बदलवा दिया. मैं इस नई स्टाइल में काफी स्मार्ट लगने लगी जिस से मुझे मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास वापस मिला. मैं भैरवी की आभारी हूं. उस के लिए कुछ भी करने का मेरा मन करता है. जितना सामान मैं भैरवी को दे रही हूं, इस से कहीं ज्यादा ही वह बेटे के होने पर लाई थी और ग्लोरी के लिए मैं ने क्या नहीं किया और वह क्या लाई थी, आप से भी छिपा नहीं है, मैं ने शिकायती अंदाज में कहा.

गरिमा… मम्मी बोलीं.

नहीं मम्मी, मुझे गलत मत समझिए. मैं नहीं चाहती कि ग्लोरी मुझे कुछ दे, लेकिन ग्लोरी को देना सिखाइए. उस की सुखी गृहस्थी के लिए यह जरूरी है, मैं ने कहा.

मुझे आज पता चला तुम अपने दिल में अंदर ही अंदर इतना कुछ छिपाए हुए थीं. आज अचानक तुम्हारी दर्द की परतें खुलने लगीं तो मैं… मम्मी बोलीं.

मम्मी की बात बीच में काटते हुए मैं बोली, मेरा छोडि़ए, मम्मी, जो अकेला बीता, वह मेरा बचपन था और वह बीत चुका है. मेरा वर्तमान खुशियोें से भरा है. मेरा दांपत्य बहुत सुखी है और आज आप को अपनी गृहस्थी में दखल देने से पहले ही रोक कर मैं ने बिखराव की पहली आहट पर ही विवेक का पहरा बिठा दिया है. ग्लोरी यही नहीं कर सकी है, मैं ने कहा.

मतलब… गरिमा साफसाफ कहो, क्या कहना चाह रही हो तुम. मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आई. मैं ग्लोरी के लिए बहुत øचतित हूं, मम्मी ने कहा.

मेरी छोटी बहन के प्रति उन की ममता उमड़ रही थी. ग्लोरी के लिए उन का øचतित होना बहुत ही स्वाभाविक था. अब उन की आंखों में अपरिचित सा भाव दिखाई दे रहाघ्था.

अतीत चलचित्र सा मेरे मानस पटल पर उभर रहा था. परिवार की सब से छोटी,  सब की लाड़ली बेटी ग्लोरी का हित मम्मी के लिए सदैव सर्वोपरि रहा है.

पापा के गहरे मित्र ने अपने बड़े बेटे, अक्षय का रिश्ता मेरे लिए भेजा था. दहेज विरोधी इतना संपन्न परिवार, उस पर  प्रोबेशनरी अफसर लड़का. बस, मम्मी की दुनियादारी का ज्ञान उन की कोमल भावनाओं पर हावी हो गया और मम्मी ने यह रिश्ता ग्लोरी के लिए तय कर लिया. पापा के अलावा और किसी ने कोई विरोध नहीं किया. हमेशा की तरह पापा झुक गए और बड़ी के कुंआरी रहते छोटी बेटी का ब्याह हो गया. ससुराल से लौटी ग्लोरी अपनी कुंआरी बड़ी बहन की भावनाओं को समझे बिना अपने वैवाहिक जीवन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती रही.

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ग्लोरी की कोई गलती नहीं थी. उस ने दूसरे की भावनाओं को समझना सीखा ही नहीं था और न ही उसे सिखाया गया.

गरिमा, गरिमा, क्या कह रहीं थीं तुम? एकदम चुप क्यों हो गईं? मम्मी के टोकने से मैं फिर वर्तमान में लौट आई.

मम्मी, दूसरे की भावना को समझना हर ब्याही लड़की के लिए बहुत जरूरी होता है. हरेक को पापा जैसा सहनशील पति और परिवार नहीं मिलता. दूसरे की भावना को समझे बिना ससुराल में कोई भी लड़की तालमेल नहीं बिठा सकती. अब से ही सही, ग्लोरी को सही राह दिखाइए, मैं ने मम्मी से कहा.

मौन हुई मम्मी मेरी तरफ देख रही थीं. शायद वह मेरी बातों की सचाई तौल रही थीं.

मम्मी.

हां, मम्मी का स्वर बहुत धीमा था.

मम्मी, याद है आप को, जब हम लोग पहली बार ग्लोरी के घर गए थे. कितना दौड़दौड़ कर वह सब काम कर रही थी और कितना खुश थी, लेकिन एकांत मिलते ही आप ने उसे समझाया था…‘ग्लोरी, सारा काम तुम ही करोगी क्या? अपनी ननद को भी करने दो. और साड़ी के पल्ले को पिन से बालों में क्यों रोक रखा है? अरे, पल्ला सिर से गिरता है तो गिरने दो. अभी से अपने पैर जमाना स्टार्ट करो. नहीं तो बहू के बजाय नौकरानी बन कर रह जाओगी,’ मैं ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

सिर हिलाती हुई मम्मी बोलीं, याद है, सब याद है, लेकिन लाख समझाने पर भी ग्लोरी कहां कुछ कर पाई. रोजरोज की खिटखिट से बेचारी परेशान रहती है. समझ में नहीं आता, उस के लिए क्या करूं. अक्षय हैं कि अलग रहने के लिए तैयार ही नहीं हैं, मम्मी के स्वर में ग्लोरी के प्रति गहरी हमदर्दी थी.

मम्मी, आप की उस दिन की वह सलाह ग्लोरी के परिवार के बिखराब की पहली दस्तक थी, जिस की आहट ग्लोरी नहीं सुन सकी थी, मैं ने कहा.

क्या…? मम्मी फटीफटी आंखों से मेरी तरफ देख रही थीं.

मम्मी, जब किसी परिवार में कोई बाहरी व्यक्ति दखल देने लगता है तो उसी पल उस परिवार का बिखराव तय हो जाता है, मैं ने मम्मी को समझाते हुए कहा.

बाहरी?…मैं, मैं ग्लोरी के लिए बाहरी व्यक्ति हो गई? मम्मी चौंक कर बोलीं.

हां, मम्मी. यही कड़वी सचाई है, इसे स्वीकार कीजिए. देखिए, ग्लोरी का घरपरिवार वही है, ग्लोरी वहां रह रही है और वही बेहतर समझ सकती है, उसे वहां कैसे रहना चाहिए. परंतु वह अपने विवेक से नहीं, आप के बताए रास्ते पर चलती है. इसी लिए अपनी शादी के 4 साल बाद भी वह अपने परिवार को पूरी तरह अपना नहीं पाई है.

कुछ पल के मौन के बाद मम्मी बोलीं तो उन की आंखें नम हो आई थीं, ग्लोरी बहुत भोली है, वह कुछ समझ नहीं पाती.

मम्मी, आप उस का भला चाहती हैं तो उसे उस के हाल पर छोड़ दीजिए. अक्षय हैं न उसे राह दिखाने के लिए. मम्मी, अक्षय अच्छा लड़का है और सब से बड़ी बात यह कि वह ग्लोरी को बहुत प्यार करता है. एक बार उसे उस के हाल पर छोड़ कर देखिए.

तुम…शायद तुम ठीक कह रही हो. मैं…मैं…तो उस का, कहतेकहते गला भर आया था. उन की आंखों से गरम आंसू टपक पड़े.

मम्मी, मुझे माफ कर दीजिए, मैं बहुत ज्यादा बोल गई. मैं आप को दुखी नहीं करना चाहती थीं, कहते हुए मेरा भी गला भर आया था.

मम्मी ने आगे बढ़ कर मुझे अपने सीने से लगा कर कहा, नहीं, गरिमा, आज तुम ने मुझे सही आईना दिखाया है. मैं ने कभी इस नजरिए से नहीं सोचा था.

जाने कब तक हम मांबेटी एकदूसरे से लिपटी आंसू बहाती रहीं. दिल के तार दिल से जुड़ते गए और उस खारे जल के साथ मन की परतों में छिपे सारे गिलेशिकवे बह गए.

अब मन का आईना धुल कर चांदी सा चमकने लगा था मानो नवप्रभात के आगमन की सूचना दे रहा हो.

Women’s Day Special: अपनी राह- 40 की उम्र में कैसे हुआ मीरा का कायाकल्प

देखते ही देखते मीरा ने अपनी उम्र का 40वां वसंत पार कर लिया. 5 साल पहले तक रिश्तेदार उस के लिए ढंगबेढंग के रिश्ते भेजते रहे थे, पर अब सभी ने किनारा कर लिया था. उस के मम्मीपापा भी उस से छोटी दोनों बहनों और भाई की शादी कर चुके थे.

‘‘अकेले हैं तो क्या गम है,’’ कह कर  15 सालों से मीरा सारे प्रस्तावों को ठुकराती रही थी. लेकिन अपने असफल प्यार के धधकते रेगिस्तान में नंगे पैर दौड़ती भी तो रही.  वह एक पल के लिए भी देव को भूल न सकी थी. मन में बसे देव को वह भूल भी कैसे सकती थी. तनमन को चुरा, वजूद को मिटा कर मीरा के उस गिरधर ने उसे कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं छोड़ा था. मात्र 14 साल की कच्ची उम्र से मीरा ने उसे मन में छिपा लिया था और उस चोर ने भी छिपने में कोई आनाकानी नहीं की थी. मन, क्रम, वचन से उस का हाथ थामे उस के प्रेम रस में भीगती रही, छीजती  रही. सोतेजागते, उठतेबैठते, रोतेहंसते देवदेव उच्चारती रही.

समय के साथ दोनों के प्यार की खुशबू सर्वत्र फैल रही थी पर देव के प्रेम रस बूंदन में मीरा के मन की भीग रही चुनरिया तन को भी भिगो गई थी. होली के दिन भंग चढ़ा कर देव ने उस के तन की याचना क्या की कि गरजती, नाचती दामिनी की तरह वह उस पर बरस गई. फिर बारबार भीगती रही. कभी मोल ली हुई दासी की तरह तो कभी जोगन की तरह. प्रीत की चुनर ओढ़े मीरा नित नई होती गई.  दोनों ने आईआईटी दिल्ली से कंप्यूटर साइंस में बीटैक किया. एमबीए करने के लिए मीरा बैंगलुरु चली गई और देव बोस्टन के हार्वर्ड बिजनैस स्कूल में चला गया. देव तो बारबार जाने से मना कर रहा था पर मीरा ही नहीं मानी. पलक झपकते 2 साल गुजर जाएंगे, फिर हम और हमारा आशियाना. भविष्य के ढेर सारे सपने आंखों में ले कर भरे मन से मीरा ने देव को विदा किया.

कभी फोन पर बातें कर के तो कभी फेसबुक पर प्यारमनुहार करते समय बीतता रहा. न्यूयौर्क की एक बड़ी कंपनी में कैंपस सलैक्शन होने के बाद देव इंडिया आया भी. कन्याकुमारी में 2 हफ्ते तक दोनों एकदूजे में खोए रहे. सभी तरह से आश्वस्त करते हुए देव लौट गया. बैंगलुरु की मल्टीनैशनल कंपनी ने मीरा को भारी पैकेज के साथ सलैक्ट कर लिया था. लेकिन उस की नौकरी भी न्यूयौर्क में हो जाए, इस के लिए देव हर तरह से प्रयत्नशील था. नहीं भी होने से कोई बात नहीं थी. शादी के बाद स्पाउस वीजा पर वह देव के साथ चली जाएगी.  लेकिन ऐसा कहां हो सका.

इधर मीरा प्रीत की धानी चुनर ओढ़े देव की प्रतीक्षा कर रही थी. उधर विषम परिस्थितियों में देव को उसी कंपनी में कार्यरत नैन्सी से शादी करनी पड़ी थी. विरह में डूबे जो दिन पावस और वसंत बने हुए थे, अग्नि बन कर उस पर बरस गए. देव पुरुष था, समाज ने उस के कदम को सराहा. स्त्री तन लिए मीरा ही कलंकित हुई. समय की चट्टान पर लिखित उस की प्रेमगाथा ने जीतेजी उसे सलीब पर टांग दिया. विवश मीरा को विरह की अनंत पीड़ा स्वीकारनी पड़ी पर अपनी प्रेम गठिया को छुआ तक नहीं. छूती भी कैसे? एक ही मन था, एक ही चुनर थी और वह भी देव प्रेम रंग में भीगी. दूसरा रंग कहां से चढ़ता और चढ़ता भी कैसे? चुनर का रंग न तो छीजा था और न सूखा था, वह तो दिनोंदिन गहराता गया था.

कितने रिश्ते आए, कितनों ने साथ के लिए हाथ बढ़ाया पर वह देव की जोगिन  ही बनी रही. मीरा अपने काम में ही अपना सुकून ढूंढ़ने का प्रयास करती रही. देखतेदेखते दोनों बहनों एवं भाई का घर बस गया पर मीरा अकेलेपन की मार भोगती रही.  जब से मीरा को दीया का साथ मिला था जीवन के प्रति उस का नजरिया सकारात्मक हो गया था. दीया का बारबार का समझाना कि जीवन में जो गुजर गया उसे भुला कर जीने का प्रयास कर के खुश रहना है.

‘‘अरे यार, कब तक देव की विरहण बनी रहोगी? वह तो सब कुछ भुला कर मस्ती भरा जीवन जी रहा है और तुम उस की यादों को संजोए हो. चलो, आज ब्यूटीपार्लर चलती हैं. अपने साथ तुम्हारे हुलिए को भी बदलवाऊंगी.’’  मीरा ने हंसते हुए कहा, ‘‘उम्र के 40 वसंत पार कर लिए. अब मुझे देखेगा भी कौन, जो ब्यूटीपार्लर जाऊं?’’  ‘‘यह भी कोई उम्र है जोगिन बनने की… 40 के बाद ही जीवन जीने का मजा रहता है… चुनौतियों से, झंझावातों से, बाधाओं से और अगर कोई साथी न हो तो अकेलेपन से जूझने का जज्बा रहता है. जब जागो तभी सबेरा. आज से अपने जीने का अंदाज बदल डालो… कैसी बहार छा जाती है जीवन में देखना.’’

दीया के शब्दों ने मीरा के अंदर तूफान उठा दिया… वह व्यग्र हो उठी… कितना दम है दीया के कथन में… इस तरह से क्यों न समझाया उस के अपनों ने उसे कभी. फिर मीरा ने कोईर् आनाकानी नहीं की.  ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद एक नई मीरा का जन्म हो गया था, जिस के समक्ष खुशियों का समंदर लहरा उठा था. कोई अकेलापन नहीं, उत्साह, उमंग से भरे नए एहसास के कलश चारों ओर छलक उठे थे.

15 सालों के दुखदर्द, टूटन, चुभन और अकेलेपन के पलों को एकसाथ जी लेना चाहती थी. अपार रूप की स्वामिनी थी ही, ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद हीरे से तरासे उस के सौंदर्य ने न जाने कितनी जोड़ी आंखों को बांध लिया था.  मौल में जा कर आधुनिक पोशाकें खरीदीं. फिर उन से मैच करती ज्वैलरी, सौंदर्य प्रसाधन का सामान, परफ्यूम आदि खरीदा. अगर दीया उसे समय का एहसास नहीं दिलाती तो शायद पल भर में अपनी दुनिया बदल लेने के जनून से बाहर ही न आ पाती.

1 हफ्ते के अंदर ही मीरा ने स्वयं को ही नहीं, अपने फ्लैट के कोनेकोने को भी सजा लिया. वार्डरोब से ले कर किचन तक मुसकरा उठे.  मीरा में आए अचानक परिवर्तन ने अपार्टमैंट से ले कर औफिस तक के लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था. अकेलेपन में घुटती मीरा हर पल चहकने लगी थी. सभी की अवहेलना करने वाली मीरा नए जोश से भर कर सब के साथ उन्मुक्त हो उठी थी.  देखतेदेखते सभी के साथ उस के दोस्ताना संबंध ही नहीं बने, बल्कि वह सब के दुखसुख के साथी भी बन गई. हर पल कुछ नया करने की उमंग से भरी रहती. प्रत्येक दिन सैंडविच निगलने वाली मीरा के खाने का डब्बा खुलते ही लजीज व्यंजनों की सुगंध से सभी के मुंह में पानी आ जाता. साथियों से अपना खाना भी शेयर करने लगी थी.

फिट और चुस्त रहने के लिए मीरा ने जिम जाना भी शुरू कर दिया था. वहां भी हर उम्र के उस के बहुत सारे दोस्त बन गए थे. पढ़ना तो पहले से ही उस की हौबी थी. प्रसिद्घ लेखकों की किताबों से रैक भर गया था.  आंतरिक प्रसन्नता एवं सुगढ़ मेकअप ने उस की उम्र के 10 साल चुरा लिए थे. अपने डाइरैक्टर अमन से हमेशा चिढ़ी रहने वाली मीरा अब उन से भी हिलमिल गई थी. वे भी मीरा में आए परिवर्तन पर चकित थे. उस की असीमित प्रतिभा और उदासी से भरे सौंदर्य पर वे मोहित तो थे ही, उस के जीने के अनोखे अंदाज से वे उस की निकटता के लिए व्याकुल हो उठे.

आननफानन में किसी बड़े प्रोजैक्ट की रूपरेखा तैयार  करते हुए मीरा को साथ लिए उन्होंने न्यूयौर्क के लिए उड़ान भर ली. 2 कमरों की बुकिंग होते हुए भी मीरा को अपने कमरे में रहने को बाध्य किया तो वह भी इनकार नहीं कर सकी. अमन के आकर्षक व्यक्तित्व पर वह भी मुग्ध थी. अब दोनों के दिन सोने के थे और रातें चांदी की.  दोनों एकदूसरे में समाए हाथों में हाथ लिए दुनिया के उस अनोखे खहर में घूमते रहे. वहां रोकटोक करने वाला भी कौन था. तनमन से वर्षों की प्यासी मीरा आनंद सागर में जी भर कर डुबकियां लगा रही थी.

मौल में घूमते समय किसी की घूरती नजरों को पहचान मीरा और उन्मुक्त हो उठी. वह अमन की बांहों में झूम उठी. वे नजरें थीं देव की.  वह अमन से लिपटी हुई देव के समक्ष जा खड़ी हुई.  ‘‘हाय देव, पहचाना नहीं? मैं मीरा… कभी की तुम्हारी दीवानी… सोचा भी नहीं था कि कभी तुम से कुछ यों मुलाकात होगी… सब कुछ ठीक चल रहा है न? कुछ दुबले हो गए हो.’’

अमन की बांहों में अपनेआप को लपेटते हुए उद्दंडता से बोली मानो देव के किए का सारा लेखाजोखा इसी पल ले लेगी.  ‘‘अमन. ये हैं देव, कभी के मेरे मंगेतर थे. मैं इन से तनमन से जुड़ी रही. इन के विश्वासघात के बाद भी इन की यादों में जीतीमरती रही.’’  ये तो मेरे देव नहीं बने पर मैं ने बेवकूफी में जीवन के कितने अनमोल वर्ष इन की पारो बन कर गुजारा दिए.

‘‘देव, ये हैं अमन,’’ कह कर सब से छिपा कर मीरा ने छलक आए आंसुओं को अमन की हथेलियों में मुंह छिपा कर पोछा और आगे बढ़ गई. अमन को उस पर और भी प्यार उमड़ आया. फिर पीछे मुड़ कर देव को घूरते हुए मीरा को अपनी जैकेट में छिपा लिया.

फटीफटी आंखों से देव तब तक अमन की बांहों में बंधी मीरा को देखता रहा जब तक वह उस की नजरों से ओझल नहीं हो गई.

त्यौहार 2022: मौसमी बुखार- पति के प्यार को क्या समझ बैठी माधवी?

‘‘उठो भई, अलार्म बज गया है,’’ कह कर पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना राकेश ने फिर करवट बदल ली.

चिडि़यों की चहचहाहट और कमरे में आती तेज रोशनी से राकेश चौंक कर जाग पड़ा, ‘‘यह क्या तुम अभी तक सो रही हो? मधु…मधु सुना नहीं था क्या? मैं ने तुम्हें जगाया भी था. देखो, क्या वक्त हो गया है? बाप रे, 8…’’

जल्दी से राकेश बिस्तर से उठा तो माधवी के हाथ से अचानक उस का हाथ छू गया, वह चौंक पड़ा. माधवी का हाथ तप रहा था. माधवी बेखबर सो रही थी. राकेश ने एक चिंता भरी नजर उस पर डाली और सोचने लगा, ‘यदि मौसमी बुखार ही हो तो अच्छा है, 2-3 दिन में लोटपोट कर मधु खड़ी हो जाएगी. अगर कोई और बीमारी हुई तो जाने कितने दिन की परेशानी हो जाए,’ सोचतेसोचते राकेश बच्चों को जगाने पहुंचा.

चाय बना कर माधवी को जगाते हुए राकेश बोला, ‘‘उठो, मधु, चाय पी लो.’’

माधवी ने आंखें खोलीं, ‘‘क्या समय हो गया? अरे, 9. आप ने मुझे जगाया नहीं. आज बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?’’

राकेश मुसकरा कर बोला, ‘‘बच्चे तो स्कूल गए, तुम क्या सोचती हो, मैं कुछ कर ही नहीं सकता. मैं ने उन्हें स्कूल भेज दिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘चिंता न करो. टिफिन दे कर ही भेजा है.’’

माधवी को खुशी भी हुई और अचंभा भी कि राकेश इतने लायक कब से बन गए? वह सोई रह गई और इतने काम हो गए.

राकेश पुन: बोला, ‘‘मधु और बिस्कुट लो, तुम्हें बुखार लगता है. यह रहा थर्मामीटर. बुखार नाप लेना. अब दफ्तर जा रहा हूं.’’

‘‘नाश्ता?’’

‘‘कर लिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘जरूरत नहीं, वहीं दफ्तर में खा लूंगा. यह दवाइयों का डब्बा है, जरूरत के मुताबिक गोली ले लेना,’’ एक सांस में कहता हुआ राकेश कमरे से बाहर हो गया.

पर दूसरे ही पल फिर अंदर आ कर बोला, ‘‘अरे, दूध तो गैस पर ही चढ़ा रह गया,’’ शीघ्र ही राकेश थर्मस में दूध भर कर माधवी के पास रखते हुए बोला, ‘‘थोड़ी देर बाद पी ले.’’

राकेश के जाते ही माधवी सोचने लगी, ‘इतनी चिंता, इतनी सेवा,’ फिर भी खुश होने के बजाय उस का मन भारी होता जा रहा था, ‘इतना भी नहीं हुआ कि माथे पर हाथ रख कर देख लेते. खुद बुखार नाप लेते तो लाट- साहबी पर धब्बा लग जाता? कितने मजे से सब संभाल लिया. वही पागल है जो सोचती रहती है कि उस के बिना सब को तकलीफ होगी. दिन भर जुटी रहती है सब के आराम के लिए. देखो, सब हो गया न? उस के न उठने पर भी सब काम हो गया? वह सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी बन कर नाचती रहती है और सब उसे नचाते रहते हैं. आज तो सब को सबकुछ मिल गया न? लगता है सब जानबूझ कर उसे परेशान करते हैं.’

सोचतेसोचते माधवी का सिर दुखने लगा. चाय के साथ एक गोली सटक कर वह फिर लेट गई. झपकी आई ही थी कि बिन्नो की आवाज से नींद खुल गई, ‘‘बहूजी, आज दरवाजा कैसे खुला पड़ा है? अरे, लेटी हो. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

माधवी की आंखें छलछला आईं, ‘‘बिन्नो, जरा देखना, स्नानघर में कपड़े पड़े होंगे. धो देना. गीले कपड़े मेरी छाती पर बोझ बढ़ाते हैं. सब यह जानते हैं पर कपड़े ऐसे ही फेंक गए होंगे.’’

बिन्नो ने स्नानघर से ही आवाज लगाई, ‘‘बहूजी, स्नानघर एकदम साफ है. यहां तो एक भी कपड़ा नहीं.’’

‘क्या एक भी कपड़ा नहीं?’ विस्मय से माधवी ने सोचा. उस की मनोस्थिति ऐसी हो रही थी कि राकेश और बच्चों के हर कार्य से उसे अपनेआप पर अत्याचार होता ही महसूस हो रहा था.

बिन्नो ने काम खत्म कर के उस का सिर और हाथपैर दबा दिए. माधवी कृतज्ञता से भर गई, ‘घर वालों से तो महरी ही अच्छी है. बेचारी कितनी सेवा करती है, अब की दीवाली पर इसे एक अच्छी सी साड़ी दूंगी.’

कुछ तो हाथपैर दबाए जाने से और कुछ दवा के असर से दर्द कम हो गया था. इसलिए माधवी दोपहर तक सोती ही रही.

अचानक ही आंखें खुलीं तो प्रिय सखी सुधा को देख माधवी आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गई, ‘‘तू आज अचानक कैसे?’’

सुधा ने हंस कर कहा, ‘‘मन ने कहा और मैं आ गई,’’ सुधा सुरीले स्वर में गुनगुनाने लगी, ‘‘दिल को दिल से राह होती है. तू बीमार पड़ी है, अकेली है, कितने सही समय पर मैं आई हूं.’’

माधवी कुछ बोले बिना एकटक सुधा को देखती रही. फिर उस की आंखें छलछला आईं. सुधा ने अचरज से पूछा, ‘‘अरे, क्या हुआ?’’

भीगे हुए करुण स्वर में अपने दिन भर के विचारबिंदु एकएक कर सुधा के सामने परोस दिए माधवी ने. स्वार्थी राकेश और बच्चों के किस्से, उस की सेवाटहल में की गई कोताही, जानबूझ कर उस से फायदा उठाने के लिए की गई लापरवाहियों के किस्से, उदाहरण सब सुनाते हुए अंत में न चाहते हुए भी माधवी के मुंह से वह निकल गया जो उसे सवेरे से परेशान किए था, ‘‘देखो न, मेरे बिना भी तो सब का काम होता है. मेरी इन लोगों को जरूरत ही क्या है? सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी की तरह नाचती हूं. मुझ से तो राकेश ज्यादा कार्यकुशल है, सुबह फटाफट बच्चों को स्कूल भेज दिया.’’

सुधा मुंह दबा कर मुसकान रोक रही थी. उस पर नजर पड़ते ही  माधवी भभक उठी, ‘‘तुम हंस रही हो? हंसो, मैं ने बेवकूफी में जो इतने साल गंवाएं हैं, उन के लिए तुम्हारा हंसना ही ठीक है.’’

सुधा ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘सच मधु, तुम बहुत भोली हो,’’ फिर गंभीर होते हुए समझाने लगी, ‘‘क्या मैं अपनेआप आ गई हूं? राकेश भैया ने ही मुझे फोन किया था कि आप की मित्र बहुत बीमार है, कृपया दोपहर में उन्हें देख आइएगा. जरूरत पड़े तो डाक्टर को दिखा दीजिए.’’

‘‘अब यही बचा है? मेरी बीमारी का ढिंढ़ोरा सारे शहर में पीटना था. खुद नहीं दिखा सकते थे डाक्टर को? डाक्टर की बात छोड़ो, माथा तक छू कर नहीं देखा. क्या पहले कभी मुझे छुआ नहीं?’’

सुधा हंस कर बोली, ‘‘खुद छुआ है भई, इस में क्या शक है? पर मधु इतना गुस्सा केवल इसीलिए कि माथा छू कर बुखार नहीं देखा? तुम्हें डाक्टर को दिखाने के लिए क्या वे बिना छुट्टी लिए घर बैठ जाते? तुम्हीं सोचो जो काम तुम 3 घंटे में करती हो, बेचारे ने इतनी जल्दी कैसे किया होगा?’’

‘‘यही तो बात है, मेरी उन्हें अब जरूरत ही नहीं. इतने कार्यकुशल…’’

‘‘खाक कार्यकुशल,’’ सुधा गुस्से से बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारे आराम के लिए खुद कितनी परेशानी उठाई उन्होंने? इस में तुम्हें उन का प्यार नहीं दिखता? अच्छा हुआ, मैं आ गई. डाक्टर से ज्यादा तुम्हें मेरी जरूरत थी. ऐसा करो, आंखों से गुस्से की पट्टी उतार कर देखो चुपचाप. आंखें खुली, जबान बंद. सब पता लग जाएगा कि सचाई क्या है और उन लोगों को तुम्हारी कितनी जरूरत है? तुम्हारी चिंता कम करने के लिए ही वे सब तुम्हारी देखभाल कर रहे हैं.’’

माधवी को सुधा की बातें कुछ समझ आईं, कुछ नहीं पर उस ने तय किया कि जबान बंद और आंखें खुली रख कर देखने की कोशिश करेगी. शाम को एकएक कर सब घर लौटे. पहले बच्चे, फिर राकेश. उस ने आते ही पूछा, ‘‘क्या हाल है? बिन्नो आई थी? दवा ली?’’

‘‘हां, एक गोली ली थी,’’ माधवी ने धीरे से कहा.

ठीक है, आराम करो. और कोई तो नहीं आया था?’’

‘‘नहीं तो. किसी को आना था क्या?’’

‘‘नहीं भई, यों ही पूछ लिया.’’

‘‘हां, याद आया, सुधा आई थी,’’ माधवी बोली. सुनते ही राकेश के चेहरे पर इतमीनान झलक उठा. वह उत्साह से बोला, ‘‘चलो बच्चो, दू पी लो. फिर हम सब खिचड़ी बनाएंगे.’’

गुडि़या सोचते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमें खिचड़ी बनानी तो आती नहीं है.’’

‘‘अच्छा, तो क्या बनाना आता है?’’

गुडि़या चुप हो गई क्योंकि उसे तो कुछ भी बनाना नहीं आता था. उसे देख कर सब हंसने लगे.

राकेश उत्साहपूर्वक बोला, ‘‘चलो, हम सब मिल कर बनाएंगे. तुम्हारी मां आराम करेंगी.’’

रसोई से आवाजें आ रही थीं. माधवी सुन रही थी, ‘‘पिताजी, चावलदाल बीनने होंगे?’’

‘‘नहीं बेटा, धो कर काम चल जाएगा.’’

‘‘पर पिताजी मां तो शायद बीनती भी हैं.’’

‘‘शायद न? तुम्हें पक्का तो नहीं मालूम?’’

माधवी का मन हुआ कि चिल्ला कर बता दे, ‘चावल, दाल बीने जाएंगे,’ पर फिर सोचा, ‘हटाओ, कौन उस से पूछने आ रहा है जो वह बताने जाए?’

खिचड़ी बन कर आई. राकेश ने पहली प्लेट उसी को पेश की. पहला चम्मच मुंह में डालते ही कंकड़ दांतों के नीचे बज गया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोचार कौर के बाद राकेश ने खिसियाते हुए कहा, ‘‘कंकड़ हैं खिचड़ी में.’’

पप्पू बोला, ‘‘पिताजी, कहा था न कि चावल, दाल बीनने पड़ेंगे.’’

‘‘चुप, पिताजी क्या रोज बनाते हैं? जैसा मालूम था बेचारों को वैसा बना दिया,’’ गुडि़या पप्पू को घूरते हुए बोली.

‘‘बेटा, डबलरोटी खा लो,’’ राकेश ने धीरे से कहा.

‘‘पिताजी, सवेरे से बस डबलरोटी ही तो खा रहे हैं. नाश्ते में, टिफिन में, दूध के साथ, अब फिर?’’ पप्पू गुस्से से बोला. गुडि़या बिगड़ कर बोली, ‘‘तू एकदम बुद्धू है क्या? मां इतनी बीमार हैं, एक दिन डबलरोटी खा कर तू दुबला हो जाएगा? पिताजी ने भी सवेरे से क्या खाया है? कितने परेशान हैं?’’

गुडि़या की इस बात से कमरे में  सन्नाटा छा गया. सब अपनीअपनी प्लेटों के सामने चुप बैठे थे.

पप्पू अपनी प्लेट छोड़ कर उठा और मां की बगल में लेटता हुआ बोला, ‘‘मां, आप कब ठीक होंगी? जल्दी ठीक हो जाइए, कुछ सही नहीं चल रहा है.’’

गुडि़या मां का सिर दबाते हुए बोली, ‘‘अभी चाहें तो और आराम कर लीजिए, हम लोग काम चला लेंगे.’’

राकेश ने माधवी का माथा छू कर कहा, ‘‘अब लगता है, बुखार कम है.’’

माधवी आनंद की लहरों में डूबती उतराती उनींदे स्वर में बोली, ‘‘तुम सब जा कर होटल से खाना खा आओ.’’

‘‘और तुम?’’ राकेश के प्रश्न के जवाब में असीम तृप्ति से उस का हाथ अपने माथे पर दबा कर माधवी ने कहा, ‘‘मैं अब सोऊंगी.’’

Holi Special: मिशन मोहब्बत भाग-1

कैंपस सिलैक्शन में राहुल का चयन गुजरात की एक बहुत बड़ी कैमिकल ऐंड फर्टिलाइजर फैक्टरी में हो गया था. फैक्टरी की अपनी आवासीय कालोनी थी, मनोरंजन के सभी साधन थे, शहर जाने के लिए फैक्टरी की गाडि़यां थीं, कुछ लोगों से दोस्ती भी हो गई थी, फिर भी अभी राहुल का दिल नहीं लग रहा था. लेकिन कुछ सप्ताह से आवाज में मायूसी के बजाय उत्साह झलकने लगा था.

एक शाम यह सुन कर विशाल और मानसी ने राहत की सांस ली कि अगली सुबह विशाल टूर पर जयपुर जा रहा था. राहुल ने चहक कर कहा, ‘‘सच पापा, मजा आ गया.’’

‘‘जयपुर मैं जा रहा हूं, मजा तुझे किस खुशी में आ गया, भई?’’ विशाल ने चौंक कर पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं पापा, आप फोन कौन्फ्रैंस मोड पर लगा दीजिए ताकि मम्मी भी सुन लें.’’

‘‘फोन कौन्फ्रैंस मोड पर ही है, बोल क्या सुना रहा है मुझे,’’ मानसी ने उतावलेपन में कहा.

‘‘मेरे बौस हैं न सलिल मेहरा, उन की ससुराल है जयपुर में, उन की साली भी मेरे साथ ही ट्रेनिंग ले रही है. सो, सलिल साहब के घर पर आनाजाना हो गया है. यह सुन कर कि पापा टूर पर जयपुर जाते रहते हैं, अर्पिता दीदी, मेरा मतलब है श्रीमती मेहरा ने कहा कि अब जब जाएं तो बताना, मम्मीपापा से कहूंगी उन से मिलने को. मैं उन को आप का मोबाइल नंबर दे देता हूं. प्रेम सर्राफ आप को फोन कर लेंगे, वे मेरे बौस के ससुर हैं, पापा.’’

 

‘‘सीधे से कह न, मेरे होने वाले ससुर हैं…’’

‘‘आप भी न पापा…’’ और राहुल ने फोन काट दिया.

‘‘थोड़े में ही बहुत कुछ कह गए, बरखुरदार,’’ विशाल ने उसांस ले कर कहा, ‘‘मगर यह रिश्तेविश्ते की

बात मुझ से नहीं होगी. तुम भी साथ चलो, मानसी.’’

इतने शौर्ट नोटिस पर और वह भी बेटे की संभावित ससुराल जाना, मानसी कैसे मान सकती थी. टालने के स्वर में बोली, ‘‘जब लड़की ही वहां नहीं है तो मैं जा कर क्या करूंगी?’’

‘‘यह बात भी ठीक है, मैं भी

काम का बहाना बना कर टालने की कोशिश करूंगा.’’

अगली सुबह प्लेन से बाहर आते ही जैसे विशाल ने अपना मोबाइल स्विच औन किया, घंटी बजने लगी.

‘‘नमस्कार विशाल सहगल साहब, मैं कामिनी सर्राफ बोल रही हूं. राहुल ने आप को बताया होगा कि मेरे पति प्रेम सर्राफ आप को फोन करेंगे लेकिन वे तो आजकल अजमेर गए हुए हैं, सो मैं फोन कर रही हूं.’’

विशाल आवाज की मधुरता और खनक से अभिभूत हो गया.

‘‘नमस्कार जी, बड़ी खुशी हुई आप से बात कर के. कहिए, मेरे लिए क्या हुक्म है?’’

‘‘गुजारिश करने की हिमाकत कर रही हूं,’’ कामिनी की हंसी ने विशाल के मनमस्तिष्क को एक बार फिर झंकृत कर दिया, ‘‘आज की शाम मेरे साथ बरबाद कीजिए.’’

‘‘हुक्म करिए, अपनी शाम संवारने के लिए कब और कहां हाजिर होना है?’’

‘‘जब आप को फुरसत हो, आप फोन कर दीजिएगा, मैं गाड़ी भिजवा दूंगी.’’

‘‘वैसे तो आप जब कहें फुरसत निकाल सकता हूं लेकिन 6 बजे के बाद तो खाली हूं.’’

‘‘आप जब, जहां कहें, गाड़ी पहुंच जाएगी.’’

‘‘मेरे पास बैंक की गाड़ी है, आप पता बता दीजिए, मैं शाम साढ़े 7 बजे हाजिर हो जाऊंगा.’’

‘‘रेलवे औफिसर कालोनी में किसी से भी चीफ इंजीनियर का घर पूछ लीजिएगा. शाम को मिलते हैं फिर, हैव ए गुड डे,’’ कह कर कामिनी ने फोन रख दिया.

विशाल सिटपिटा गया. गुड डे का आगाज जो कामिनी की आवाज से हुआ था, यह सुनते ही कि प्रेम सर्राफ रेलवे के चीफ इंजीनियर हैं, गायब हो गया. राहुल पर गुस्सा भी आया, बताना तो चाहिए था कि किस के यहां मिलने भेज रहा है ताकि वे उस के अनुरूप कपड़े तो लाता. अभी तो औफिस में पहनने वाले कपड़े ही लाया है. वैसे अमेरिकन बैंक मैनेजर के औफिस के कपड़े भी बढि़या ही रहते हैं, फिर भी किसी खास जगह जाने और खास हस्ती से मिलने के लिए तो कुछ खास होना चाहिए. खैर, अब जो भी हैं उन्हें कड़क प्रैस करवा लेगा.

गैस्ट हाउस पहुंच कर बैग खोलते ही वह फड़क उठा. मानसी ने खास कपड़ों के अलावा, दुबई के सूखे मेवों का गिफ्ट हैंपर भी रख दिया था. कमाल की व्यवहारकुशलता थी मानसी में. बगैर कहे वक्त की नजाकत को समझ कर वक्त के साथ चलना तो उस की खासीयत थी. लेकिन आज मानसी के बारे में सोचने के बजाय उसे कामिनी सर्राफ की आवाज के बारे में सोचना अच्छा लग रहा था. शाम को फुरसत मिलने पर जब मानसी को फोन किया तो यह तो बताया कि वह सर्राफ के यहां जा रहा है लेकिन यह बताना टाल गया कि प्रेम सर्राफ शहर में नहीं हैं.

कामिनी की आवाज ही आकर्षक नहीं थी, व्यक्तित्व में भी अजीब चुंबकीय कशिश थी. पहली बार संभावित समधी से अकेले मिलने की हिचक भी नहीं थी उस में जबकि विशाल को समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात करे.

‘‘प्रेम साहब अकसर टूर पर रहते हैं?’’ न चाहते हुए भी घिसापिटा सा सवाल पूछा.

‘‘महीने में 2-3 बार जाना पड़ ही जाता है. सुना है आप अकसर जयपुर आते रहते हैं?’’

‘‘जी हां, जयपुर का जिस तेजी से विकास हो रहा है उस के मुताबिक हम भी अपने बैंक की सेवाओं का विस्तार कर रहे हैं. उसी सिलसिले में आता रहता हूं. कभीकभी मानसी भी साथ आ जाती है.’’

‘‘अगली बार उन्हें जरूर साथ लाइएगा,’’ कह कर कामिनी ने मेज पर रखा लैपटौप उठा लिया, ‘‘आप को उस फैक्टरी की तसवीरें तो दिखा दूं जहां आप का बेटा काम करता है.’’

लैपटौप पर फैक्टरी और कालोनी की तसवीरें थीं. कुछ देर बाद तसवीरों को आगे बढ़ाते हुए कामिनी बोली, ‘‘अब अपने बेटे को भी देख लीजिए, कालोनी के क्लब की तसवीरें हैं,

यह बैडमिंटन खेल कर आता हुआ आप का बेटा है और इस के साथ मेरी छोटी बेटी निकिता और यह रहा मेरा दामाद सलिल और यह बड़ी बेटी अर्पिता.’’

‘‘अरे, परिवार के मुखिया से तो मिलवाया ही नहीं?’’

‘‘अभी साइड टेबल पर रखी तसवीर ही देख लीजिए, फिर कोई सीडी लगाऊंगी.’’

तभी एक युवक और युवती आ गए. कामिनी ने परिचय करवाया, ‘‘मेरा भतीजा राघव और इस की पत्नी ऋतु, ये दोनों कोठारी कैपिटल में काम करते हैं यानी आप की तरह ही पैसे के लेनदेन का धंधा करने वाले.’’

‘‘आजकल तो चाची, बस, देने का ही काम रह गया है,’’ राघव हंसा.

‘‘ठीक कह रहे हैं, लेने का तो दूरदूर तक पता नहीं है,’’ विशाल ने जोड़ा.

‘‘इस लेनेदेने के लेखेजोखे में उलझने से पहले बेहतर रहे, राघव, कि तुम अजयजी से उन की पसंद पूछ लो,’’ कामिनी ने कहा, ‘‘विशालजी, ऋतु और राघव लजीज व्यंजन बनाने में माहिर हैं. बस अपनी पसंद बता दीजिए.’’

आगे पढ़ें- कुछ ही देर में बढि़या खानेपीने का सामान आ गया और…

Holi Special: जीजाजी का पत्र

घर में सालों बाद सफेदी होने जा रही थी. मां और भाभी की मदद के लिए मैं ने 2 दिन के लिए कालेज से छुट्टी कर ली. दीदी के जाने के बाद उन का कमरा मैं ने हथिया लिया था. किताबों की अलमारी के ऊपरी हिस्से में दीदी की किताबें थीं. मैं कुरसी पर चढ़ कर किताबें उतार रही थी कि अचानक हाथ से 3-4 किताबें गिर पड़ीं.

1-2 किताबें जमीन पर अधखुली पड़ी थीं. उन को उठाने के लिए झुकी तो देखा, 3-4 पेज का एक पत्र पड़ा था. अरे, यह तो जीजाजी का पत्र है जो उन्होंने दीदी को इंगलैंड से लिखा था. पत्र पर एक नजर डालते हुए मैं ने सोचा, ‘दीदी का पत्र मुझे नहीं पढ़ना चाहिए.’

परंतु मन में पत्र पढ़ने की उत्सुकता हुई. मां अभी रसोई में ही थीं. भाभी बंटी को स्कूल छोड़ने गई थीं. जीजाजी के पत्र ने मुझे झकझोर कर रख दिया और अतीत के आंगन में ला कर खड़ा कर दिया.

दीदी हम तीनों में सब से बड़ी हैं. भैया दूसरे नंबर पर हैं. दीदी और मुझ में फर्क भी 12 साल का है. मां और पिताजी को घर में बहू लाने की बहुत इच्छा थी. इसलिए भैया की शादी जल्दी ही हो गई… वैसे भी दीदी की शादी की प्रतीक्षा करते तो भैया कुंआरे ही रह जाते.

उस दिन सवेरे से ही सब लोग काम में लगे हुए थे. पूरे घर की अच्छी तरह से सफाई की जा रही थी. मां और भाभी रसोई में लगी थीं. दीदी को देखने के लिए कुछ लोग दिल्ली से आ रहे थे. वे दोपहर 12 बजे तक हमारे घर पहुंचने वाले थे. दिल्ली से चलने से पहले उन का 10 बजे के लगभग फोन आ गया था. दीदी नहाधो कर तैयार हो रही थीं.

इस बार दीदी को देखने आने वाले लोग जरा दूसरी ही किस्म के थे. लड़का इंगलैंड में नौकरी करता था. शादी कराने भारत आया हुआ था और उसे 2 हफ्ते से भी कम समय में वापस लौट जाना था.

पिछले 5 वर्ष से दीदी को न जाने कितनी बार दिखाया जा चुका था. हमारे पड़ोस में ही दीदी की एक साथी प्राध्यापिका रहा करती थीं. वे हमेशा ही हमारे घर में होने वाली गतिविधियों से जान जातीं कि कोई दीदी को देखने आ रहा है. हर बार जब निराशा हाथ लगती तो दीदी को उन के सामने लज्जित होना पड़ता था. वैसे वे बेचारी दीदी को कुछ नहीं कहती थीं, परंतु दीदी ही हर बार अपने को हीन और अपमानित महसूस करती थीं.

पिछले कुछ महीनों में तो दीदी ने कई बार घर में काफी क्लेश किया था कि वे भेड़बकरी की तरह नहीं दिखाई जाएंगी, परंतु पिताजी की एक डांट के आगे बेचारी झुक जातीं. हां, अपनी जिद, हीनभावना और अपमान के कारण वह खूब रोतीं.

वे लोग ठीक समय पर ही आ गए थे. उन सब की खूब खातिरदारी की गई. वे खुश नजर आ रहे थे. लड़के के भैया- भाभी, छोटी बहन, मातापिता, 2 छोटे भाई और बड़े भाई के 3 बच्चे सभी बैठक में बैठे थे. लड़के की मां, भाभी, छोटी बहन तो पहले ही अंदर जा कर दीदी से मिल चुकी थीं. जिस प्यार से लड़के की मां दीदी को देख रही थीं उस से तो लगता था कि उन्हें दीदी बहुत पसंद आई हैं.

खाने के पश्चात दीदी को बैठक में लाया गया, जहां सब लोग बैठे थे. लड़के के पिता और बड़े भाई दीदी को बड़े गौर से देख रहे थे. लड़का बेचारा चुप ही था. उस की शायद समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? वह दीदी से आंख मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. लगभग आधे घंटे बाद लड़के के पिता ने कहा, ‘‘इन दोनों को कुछ देर के लिए अकेला छोड़ देते हैं. एकदूसरे से एकांत में कुछ पूछना हो तो पूछ सकते हैं.’’

उन की बात सुन कर सब लोग वहां से उठ गए.  लगभग 20 मिनट पश्चात दीदी अंदर आ गईं. उन के आने पर लड़के के घर की महिलाएं बैठक में चली गईं. उन्होंने अपने परिवार के पुरुषों को भी वहीं बुला लिया. वे आपस में सलाहमशवरा कर रहे थे. लगभग आधे घंटे पश्चात लड़के के पिता ने मेरे पिताजी को बुलाया और उन के बैठक में पहुंचते ही कहा, ‘‘मुबारक हो, हमें आप की बेटी बहुत पसंद आई है.’’  पिताजी ने मां और भैया को वहीं बुला लिया. कुछ ही क्षणों में वहां का माहौल ही बदल गया. कुछ देर पहले का तनावपूर्ण वातावरण अब आत्मीयता में परिवर्तित हो चुका था.

जब दीदी ने सुना कि उन को आखिर किसी ने पसंद कर ही लिया है तब उन्होंने चैन की सांस ली. वे लाज की चादर ओढ़े बैठी थीं. बैठक में पिताजी उन लोगों से सारी बातें तय कर रहे थे. मां और भाभी महिलाओं से बातें कर रही थीं.  थोड़ी देर बाद अंदर आ कर लड़के की मां ने अपने गले से सोने की चेन उतार कर दीदी को पहना दी. पहले तो उन सब का 4-5 बजे तक दिल्ली लौट जाने का कार्यक्रम था परंतु अब रात का खाना खाए बिना कैसे जा सकते थे. मां और भाभी खाने की तैयारी में लग गईं. मुझे भी मन मार कर रसोई में उन दोनों की मदद करने जाना पड़ा.  खाने के तुरंत पश्चात ही वे लोग जाने की तैयारी करने लगे. दीदी अपने कमरे से नहीं आईं. मैं जिद कर के होने वाले जीजाजी को दीदी के कमरे में ले गई और उन दोनों को अकेले छोड़ दिया, परंतु वे कुछ देर बाद ही बाहर आ गए. उन्होंने दीदी से क्या कहा? यह तो दीदी ने मुझे बाद में कुरेदने पर भी नहीं बताया था.

3 दिन बाद पिताजी और भैया जा कर सगाई की रस्म पूरी कर आए. उन लोगों ने दीदी के लिए साडि़यां और सोने का एक सैट भेजा. घर में कुछ नजदीकी रिश्तेदार आ गए थे. समय कम था, फिर भी परिवार के सब लोगों की दिनरात की मेहनत से सारी तैयारियां हो ही गईं.

खूब धूमधाम से शादी हुई. किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि लड़के वालों ने 6 दिन पहले ही हमारे यहां आ कर पहली बार दीदी को देखा था. सवेरे 8 बजे बरात विदा हो गई. दीदी हमारा घर सूना कर गई थीं.

दीदी को जीजाजी अगले ही दिन ब्रिटेन के हाईकमीशन ले गए. उन के लिए वीजा मिलने में कुछ दिन तो लग ही जाने थे. दिल्ली में दीदी से हम मुश्किल से 40 घंटे बाद मिले थे, परंतु ऐसा लगा कि जैसे मुद्दतों के बाद मिले हों. दीदी बहुत थकीथकी नजर आ रही थीं. कुछ उदास भी थीं, आखिर जीजाजी लंबी हवाई यात्रा पर जो जा रहे थे.  जीजाजी के विमान के चले जाने पर हम लोग मोदीनगर रवाना हो गए. दीदी की सास ने तो घर चलने की काफी जिद की, पर मांपिताजी नहीं माने. 1-2 दिन बाद तो भैया दीदी को लिवाने के लिए उन के यहां जाने ही वाले थे. दीदी भी घर जल्दी आने को इच्छुक थीं. उन्होंने अभी अपनी नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया था.

2 दिन बाद भैया दीदी को लिवा लाए. घर में जैसे बहार आ गई. दीदी का कालेज जाने का वह आखिरी दिन था. उन्होंने सवेरे ही अपना इस्तीफा लिख लिया था.  वे रिकशा वाले की प्रतीक्षा कर रही थीं, तभी दरवाजे की घंटी बजी. दीदी ने जल्दी से दरवाजा खोला. उन के ही नाम रजिस्ट्री थी. जीजाजी ने ही रजिस्ट्री पत्र भेजा था.  दीदी पत्र को उत्सुकता से खोलने लगीं. उन के हवाई टिकट के साथ एक पत्र भी था. दीदी ने हवाई टिकट पर एक नजर डाली.

‘‘अरे, अगले इतवार की ही हवाई उड़ान है,’’ मैं ने टिकट दीदी के हाथ से ले लिया.

दीदी पत्र पढ़ने लगीं. अचानक मुझे उन के चेहरे का रंग उड़ता सा नजर आया, ‘‘जीजाजी ठीक हैं न?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘हां, ठीक हैं,’’ दीदी ने बस यही कहा. उन का चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया था. वे मुझे वहीं छोड़ कर स्नानघर में चली गईं.

मैं जीजाजी का भेजा हवाई टिकट मां को दिखाने के लिए रसोई में चली गई. कुछ ही देर में भाभी भी आ गईं. रिकशा वाला बाहर घंटी बजा रहा था. हम लोग हवाई टिकट देख कर इतने उत्साहित हो गए कि दीदी की अनुपस्थिति का एहसास ही नहीं हुआ. दीदी जब स्नानघर से निकलीं तो सीधी रिकशा की ओर जाने लगीं. भाभी ने रोका तो बस यही कह दिया, ‘‘भाभीजी, मुझे देर हो रही है.’’

दीदी के चेहरे की बस एक ही झलक मैं देख पाई थी. उन्होंने चाहे भाभी के मन में कोई शक न पैदा किया हो, पर मुझे विश्वास हो गया कि दीदी स्नानघर में जरूर ही रोई होंगी. शायद वे इतनी जल्दी हम सब को छोड़ कर विदेश जाने से घबरा रही थीं. जीजाजी के साथ उन्होंने कितना कम समय बिताया था. वे दोनों एकदूसरे के लिए लगभग अजनबी ही तो थे दीदी का उसी दिन से मन खराब रहने लगा. 2-3 बार तो रोई भी थीं. मां और पिताजी उन्हें समझाने के अलावा और कर भी क्या सकते थे. इंगलैंड जाने से 2 दिन पहले वे अपनी ससुराल चली गईं.  दीदी को हवाई अड्डे पर विदा करने के लिए उन की ससुराल के लोगों के साथसाथ हम सब भी पहुंचे हुए थे. तब दीदी में काफी परिवर्तन सा नजर आ रहा था. विदा लेते समय दीदी की जेठानी ने उन से कहा, ‘‘अब तो हमें जल्दी से जल्दी खुशखबरी देना.’’

दीदी चली गईं. हम लोग भी वापस मोदीनगर आ गए. जीजाजी ने दीदी के लंदन पहुंचने का तार उन के वहां पहुंचते ही भेज दिया. तार पा कर घर में सब को बहुत राहत मिली. दीदी का पत्र भी आ गया. मां ने उन का पत्र न जाने कितनी बार पढ़ा होगा. दीदी के जाने के बाद कई सप्ताह तो घर कुछ सूनासूना लगा, परंतु बाद में सब सामान्य हो गया.

जीजाजी और दीदी के पत्र हमेशा नियमित रूप से आते रहते थे. दीदी ने मांपिताजी को तसल्ली दे रखी थी कि उन की बेटी वहां बहुत खुश है. उन को इंगलैंड गए 2 साल होने जा रहे थे. मां ने कभी दीदी को भारत आने के लिए नहीं लिखा था. सोचा था, उचित समय आने पर ही आग्रह करेंगी. मां की नजरों में उचित समय मेरी शादी का ही अवसर था, जिस के लिए मांपिताजी दौड़धूप कर रहे थे.

मां ने रसोई से आवाज दी, ‘‘सफेदी करने वाले आते ही होंगे…सामान जल्दी से निकाल कर कमरा खाली करो.’’

‘‘अच्छा मां,’’ मैं ने उत्तर दिया. पता नहीं उसी क्षण मुझे अपनी दीदी पर क्यों इतना स्नेह उमड़ आया. भावावेश में मेरी आंखें भीग गईं. फिर मुझे जीजाजी का ध्यान आया. उन्होंने अपने प्यार से दीदी के अधूरे जीवन में शायद कुछ पूर्णता सी ला दी है. यह तो हमें कभी शायद पता नहीं चल पाएगा कि दीदी वास्तव में खुश हैं या नहीं. परंतु उन के पत्रों से इस बात का जबरदस्त एहसास होता कि जीजाजी उन को बहुत प्यार करते हैं.

भाभी बंटी को विद्यालय छोड़ कर घर आ गई थीं. इस से पहले कि वे मुझे जीजाजी का पत्र पढ़ते हुए देख पातीं, मैं ने पत्र की कुछ खास पंक्तियों पर आखिरी नजर डाली. जीजाजी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि घर वालों की जिद के आगे झुक कर ही उन्होंने शादी की थी. उन की इस भूल के लिए वे स्वयं ही उत्तरदायी हैं. घर वालों में से किसी को भी नहीं मालूम था कि वे अपनी पत्नी को एक पति का सुख देने में असमर्थ हैं. वे अपनी इस शारीरिक असमर्थता को अपने परिवार वालों के सामने स्वीकार नहीं कर सके. इस के लिए वे अत्यंत दुखी हैं.

जीजाजी के पत्र के छोटेछोटे टुकड़े कर के मैं उसे घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक आई थी.

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