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बदलते मौसम-भाग 1: आदित्य की जिंदगी में क्या बदलाव आ रहे थें?

औफिस के गेट पर सारा सीनियर स्टाफ उन का स्वागत करने के लिए खड़ा था. आज वे महीने भर बाद औफिस आए थे. जैसे ही वे कार से उतरे, गार्ड ने तुरंत व्हीलचेयर दरवाजे के पास लगा दी. कितने ही लोग उन की मदद करने के लिए आगे बढ़े पर उन्होंने हाथ से मना कर दिया. ड्राइवर ने थोड़ा सहारा दिया और वे व्हीलचेयर पर बैठ गए. व्हीलचेयर आराम से ऊपर जा सके, इस के लिए सीढि़यों के पास रैंप बना दिया गया था.

मेहुलजी ने आगे बढ़ कर उन के गले में फूलमाला डालते हुए कहा, ‘‘वैलकम, सर.’’

‘‘अरे मेहुलजी, आप कब से ऐसी औपचारिकताओं में विश्वास करने लगे. अपने ही तो औफिस में आया हूं. बस, आया 1 महीने बाद हूं, फिर क्यों मुझे पराया बना रहे हैं?’’ उन्होंने थोड़ा मजाकिया अंदाज में कहा तो मेहुलजी मुसकरा उठे, ‘‘सर, तमाम मुश्किलों के बीच भी हंसीमजाक सिर्फ आप ही कर सकते हैं, वरना…’’

‘‘मेहुल, काम तो ठीकठाक चल रहा है न?’’ उन्होंने बीच में ही उन की बात काट दी.

‘‘जी सर, सब आप के आदेशानुसार चल रहा है,’’ मेहुल अब थोड़ा खिसिया गए थे और अपनी भूल का भी उन्हें एहसास हो गया था कि इस तरह की बात उन्हें नहीं करनी चाहिए थी.

रिसैप्शन पर नई रिसैप्शनिस्ट और नए पीबीएक्स बोर्ड को देख उन्होंने राजन साहब की ओर प्रश्नभरी निगाहों से देखा तो वे तुरंत बोले, ‘‘सर, पुराना सिस्टम खराब हो गया था, इसलिए नया पीबीएक्स खरीदा है और यह लड़की इस सिस्टम को औपरेट करने में माहिर है, इसलिए इसे अपौइंट किया है, लेकिन पुरानी रिसैप्शनिस्ट नेहा को नौकरी से हटाया नहीं है, सर. हमें पता है कि आप किसी को भी नौकरी से निकालना पसंद नहीं करते हैं, इसलिए उसे दूसरे डिपार्टमैंट में शिफ्ट कर दिया गया है.’’

‘‘कितने में आया नया पीबीएक्स? ठीक तो है न यह?’’ ऐसे ही कितने सवाल करते वे लिफ्ट की ओर बढ़े तो लिफ्टमैन ने उन्हें सलाम ठोंका, ‘‘बहुत खुशी हो रही है, साहब, आप को देख कर.

‘‘कैसे हो, रामदीन? अरे यह क्या, लिफ्ट में कितने जाले लगे हैं. कब से सफाई नहीं की तुम ने? शायद ध्यान नहीं गया होगा, चलो कोई बात नहीं. पर आज सफाई कर देना,’’ उन्होंने बहुत ही नरमाई से कहा.

लिफ्ट से बाहर निकलते ही उन की निगाह दीवार पर लगी पेंटिंग्स पर गई. कुछ पेंटिंग्स टेढ़ी लगी थीं, तो कुछ पर धूल चमक रही थी, उस ओर संदीपन का ध्यान दिलाते हुए वे आगे बढ़े तो पाया कि उन का सारा स्टाफ, जिस की संख्या 500 से कम न थी, उन से मिलने के लिए लालायित खड़ा है.

उन्हें देख कर सब के चेहरों पर रौनक आ गई थी. वे केबिन तक जातेजाते सब से हालचाल पूछते जा रहे थे. एक से पूछा कि तुम्हारा बेटा अब कैसा है, 1 महीने पहले वह बीमार था न? किसी से उस के परिवार के बारे में पूछा तो किसी से तबीयत के बारे में. मानो वे हर किसी का हाल, उन के परिवार के बारे में जानते हों और चिंता भी करते हों.

असल में ऐसा था भी. फिर भी आज सब को हैरानी हो रही थी. भौचक्के से खड़े सब अपने मालिक को देख रहे थे, जो इस हाल में भी, जबकि वह स्वयं 25 दिनों तक अस्पताल में थे, अपने स्टाफ को ले कर इतने उत्सुक थे. उन्हें नियति ने जितने घाव दिए थे, उस के बाद तो कोई भी आदमी टूट सकता था, पर उन की जिंदादिली में कोई अंतर नहीं आया था. उन के काम के प्रति कमिटमैंट के तो सब कायल थे.

वे औफिस को एकदम साफ व व्यवस्थित रखना भी पसंद करते थे और इस के लिए वे स्वयं आगे बढ़ कर दिलचस्पी लेते थे. स्टाफ की हर समस्या को धैर्य से सुनते थे और उस का समाधान करते थे. यहां तक कि उन की पारिवारिक परेशानियों में भी हरसंभव सहायता करते थे, फिर चाहे वह आर्थिक हो या मनोबल बढ़ाने की. यही वजह थी कि काम के प्रति लापरवाही न बरतने और सख्त होने के बावजूद उन का स्टाफ उन की बहुत इज्जत करता था और लगन व ईमानदारी से काम भी.

केबिन में प्रवेश करते हुए उन्होंने राजन साहब से फाइलें लाने को कहा. केबिन में चारों ओर उन्होंने नजरें दौड़ाईं. सब कुछ यथास्थान व व्यवस्थित था, जैसा कि वे पसंद करते हैं. करीने से हर चीज लगी हो, ऐसा ही निर्देश वे अपने स्टाफ को देते हैं. अपनी बड़ी सी आयताकार टेबल पर लगे शीशे पर उन्होंने उंगली घुमाई. धूल का एक कण तक न था. कमरे की चारों दीवारों पर नामी चित्रकारों की पेटिंग्स लगी हुई थीं.

शुरू से ही उन के अंदर कलात्मक चीजों के प्रति रुचि रही है. हमेशा से वे यही मानते रहे हैं कि जिंदगी को खुल कर और नफासत के साथ जीना चाहिए. उतारचढ़ाव तो जीवन के अभिन्न अंग हैं, उन से घबराने के बजाय उन का मुकाबला करना चाहिए. विडंबना तो देखो कि जिंदगी तो उन के साथ निरंतर खेल खेलती आई है और वह…

टेबल पर रखी फैमिली फोटोग्राफ को देख उन की आंखें नम हो आईं. उन्हें देख कर हर कोई कहता था, ‘हैप्पी फैमिली’, ‘परिवार हो तो आदित्य साहब जैसा’, ‘हम दो हमारे दो…आदित्य साहब ने सच में इसे अपनाया है,’ यह कहने वाले कहते थकते नहीं थे. वैसे भी उन के जिंदादिल स्वभाव और हर समय खुश रहने की आदत की वजह से उन के दोस्त और परिचितों की कतार बहुत लंबी थी. जीवनसंगिनी मिली तो वह भी वैसी ही थी.

कितना सुखी था उन का जीवन. शायद उन की अपनी ही नजर लगी होगी, वरना क्या सबकुछ इस तरह बिखरता? इतना बड़ा कारोबार, दिल्ली के एक पौश इलाके में आलीशान कोठी और 2 प्यारे बेटे. सारी सुखसुविधाएं और आपसी प्यार का लहराता समुद्र…सबकुछ अच्छा था. जीवन बहुत ही सहज गति से चल रहा था. लोग उन के परिवार की मिसालें दिया करते थे कि पतिपत्नी हों तो ऐसे, बेटे हों तो आदित्य साहब के जैसे. मानो कोई परी कथा सी हो उन की जिंदगी…

केबिन के दरवाजे पर दस्तक हुई तो झट से आदित्य ने अपनी नम हो आई आंखों को पोंछ डाला. अपनी चेयर पर पीठ टिकाते हुए बोले, ‘‘प्लीज कम इन.’’

आगे पढ़ें- राजन साहब फाइलें ले कर आए थे और लगभग 1 घंटे तक वे दोनों…

नौकरी: शेकी पोर्टफोलियो न बनने दें

किसी के लिए भी जौब छोड़ना आसान नहीं होता. जौब छोड़ने के कुछ कारण होते हैं. यदि कोई जौब सिर्फ शेकी पोर्टफोलियो बनाने के लिए छोड़ रहा है तो यह भूल से कम नहीं. इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म करने के बाद मोहनीश को अच्छी जौब मिल गई. 6 महीने की नौकरी के बाद उन्हें अच्छा औफर मिला तो पहली नौकरी छोड़ कर इसे जौइन कर लिया. कोविड के दौरान उन्हें कोई समस्या नहीं आई. काम ज्यों का त्यों चलता रहा. लेकिन एक साल बाद उन्हें तीसरी स्टार्टअप कंपनी में मनमुताबिक सैलरी और पोस्ट मिली. उन्होंने उसे जौइन कर लिया. लेकिन इस बार कंपनी ने जो वादा किया था, पोस्ट नहीं मिली. साथ ही, किसी प्रकार की जौब स्पैशियलिटी, जो पहले की 2 कंपनियों में थी, वह भी नहीं मिली.

मोहनीश अब परेशान होने लगा और आगे जौब बदलने की फिर से सोचने लगा. हर दिन वह अपना सीवी अलगअलग कंपनियों में पोस्ट करता रहता. लेकिन जौब कोई ढंग का नहीं मिल रहा था. करे तो करे क्या? इस जौब को छोड़ नहीं सकता था क्योंकि उस के परिवार वाले पहले से ही बारबार जौब छोड़ने से नाराज थे. ऐसे में वह अपने स्ट्रैस को किसी से शेयर भी नहीं कर पा रहा था. उस का मन काम पर भी नहीं लग रहा था. लेकिन कोई बोल्ड स्टैप लेना उस के लिए कठिन था. ऐसी समस्या केवल मोहनीश को ही नहीं, पास में रहने वाले धीरज को भी थी. उसे भी बारबार जौब चेंज करने का भूत सवार था. उस की सोच रही कि अगर कंपनी उस की मेहनत का सही मूल्य नहीं देती तो उसे वहां काम करना ही नहीं है.

लेकिन अब उसे लगने लगा है कि उस की इस सोच ने उसे अपने दोस्तों के बीच में पीछे धकेल दिया है. उस के दोस्त भले थोड़ा कम कमाते हों लेकिन धीरेधीरे उन्होंने काम के तरीके को समझा है. आगे क्या करना है, वे जानते हैं. उन की सैलरी और पोस्ट दोनों ही अच्छी हो चुकी हैं और कभी उन्हें जौब छोड़नी पड़े तो वे सोच -समझ  कर ही फैसला लेंगे क्योंकि हर जगह काम में नयापन और रिसर्च वर्क जरूरी होता है. आज धीरज भी एक जगह पर टिक कर काम करने के बारे में सोचता है.

बारबार जौब न बदलें किसी के लिए भी नौकरी छोड़ना असामान्य नहीं है. वास्तव में पिछले सालों की तुलना में अधिक लोग बेहतर अवसरों की तलाश में अपनी नौकरी छोड़ चुके हैं. साल 2021 में कम से कम हर चार में से एक आदमी अपनी नौकरी छोड़ दूसरी कंपनी में गया और विशेषज्ञों का मानना है कि यह संख्या आने वाले महीनों में बढ़ भी सकती है. देखा गया है कि बारबार जौब छोड़ने पर व्यक्ति का पोर्टफोलियो अच्छा होने के बजाय कमजोर पड़ जाता है और उस का असर नए जौब पर कई बार दिखता है क्योंकि अधिक मेहनताना दे कर बड़ी पोस्ट पर रखने वाले से कंपनी अपनी ग्रोथ का आकलन बीचबीच में करती है.

उस में सही उत्तर न पाने की स्थिति में कंपनी भी कर्मचारी की छंटाई करती है. इस के अलावा, बारबार जौब छोड़ने पर कंपनी को आप की कुछ आदतों के विषय में पता चलता है. कंपनी को लगता है कि आप केवल अच्छी सैलरी और पोजीशन की चाह रखते हैं या नौकरी को ले कर आप गंभीर नहीं हैं. हालांकि इस में दोराय नहीं कि डैवलपमैंट के लिए सभी जगहों के कार्य का एक्सपीरियंस होना बेहद जरूरी है. किसी भी कैरियर में एक अवधि ऐसी भी होनी चाहिए जहां आप खुद को जांच सकें कि अगर आप को मदद करने वाला वातावरण मिले तो आप का प्रदर्शन कैसा होगा.

कंपनी किसी को भी हायर करने से पहले कुछ खास संकेतों का ध्यान रखती है जिस पर व्यक्ति का कैरियर निर्भर करता है. होती है चुनौती कोविड के बाद से हर कंपनी कमोबेश घाटा सह रही है. कुछ बड़ी कंपनियों ने तो अपने कर्मचारियों को लेऔफ भी कर दिया है. ऐसे हालात में बारबार नौकरी छोड़ना किसी कर्मचारी के लिए किसी चुनौती से कम नहीं. ठोस वजह होना जरूरी मुंबई की कैरियर काउंसलर वर्षा कहती हैं, ‘‘बारबार जौब छोड़ना ठीक नहीं. नौकरी छोड़ने की हमेशा कोई ठोस वजह होना जरूरी होता है. इस से कोई भी कंपनी आप को रखने से पहले काफी छानबीन कर सकती है. मैं किसी भी पर्सन की रुचि के हिसाब से स्किल बढ़ाने की दिशा में काम करने की सलाह देती हूं. हौबी को कैरियर बनाने पर व्यक्ति उस में अधिक सफलता हासिल कर पाता है.

जब तक व्यक्ति एक कंपनी में कुछ समय तक काम नहीं करता, वह उस कंपनी की रणनीति को सम?ा नहीं पाता. चाहे टैक्निकल ज्ञान हो या कोई और जौब. सभी में कुछ दिनों तक टिके रहने के बाद ही आप के द्वारा लिया गया निर्णय सही हो सकता है.’’

पहली जौब को दें

अहमियत असल में जब कोई पहली जौब शुरू करता है तो उसे यह समझना मुश्किल होता है कि उसे कौन सा काम करना है और कैसे करना है क्योंकि एकेडमिक और जौब में बहुत बड़ा अंतर होता है. अगर किसी को अपनी रुचि और उसे जौब में प्रयोग करने का तरीका मालूम है तो वह अधिक दिनों तक टिक कर काम कर सकता है. लेकिन कई बार औफिस का वातावरण सही न होने, शारीरिक शोषण होने, काम का अधिक प्रैशर महसूस करने की वजह से उन्हें जौब करना मुश्किल होता है.

इस के अलावा सही कौन्ट्रैक्ट के न मिलने से भी व्यक्ति के काम की गारंटी नहीं होती और वह असुरक्षित महसूस करता है और एक जगह रह कर मन लगा कर काम न कर कई जगह अपना पोर्टफोलियो भेजता रहता है.

होता है कंपनियों को लौस

वर्षा कहती हैं, ‘‘किसी कर्मचारी को ले कर ट्रेनिंग देने के बाद अगर व्यक्ति 6 महीने में जौब छोड़ कर दूसरी कंपनी में चला जाता है तो इस से कंपनी को लौस का सामना करना पड़ता है. इसलिए किसी भी व्यक्ति को बारबार जौब छोड़ कर किसी दूसरी कंपनी में जाना ठीक नहीं होता, क्योंकि बड़ी कंपनियां अकसर 6 महीने की एक्सपर्ट से ट्रेनिंग देती हैं.’’

जौब चुनने से पहले रखें कुछ खास ध्यान .

जौब सूटेबल है या नहीं.

– कैरियर इंटरैस्टेड है या नहीं.

– कैरियर स्किल्स है या नहीं, लेकिन रुचि होने पर स्किल्स की ट्रेनिंग ली जा सकती है.

-वेतन अधिक पाने के लिए आजकल आईटी सैक्टर का रुख करें,

-जौब सैटिस्फैक्शन के लिए अपनी रुचि को फौलो करना सही होता है. पहली जौब मिलने पर आप का व्यवहार हो कैसा

-अधिक से अधिक सीखने की कोशिश करना.

– खुद में ट्रू रहने की कोशिश करना. कब जौब छोड़ने के बारे में सोचें.

– अधिक मानसिक स्ट्रैस होने पर.

-वर्क कल्चर ठीक न होने पर.

– फिजिकल और मैंटल एब्यूज का सामना होने पर क्योंकि एब्यूज अधिक होने पर व्यक्ति कई बार आत्महत्या भी कर लेता है.

-ग्रोथ का ग्राफ ठीक न होने पर आदि. समझों ग्रोथ की चाल को वर्षा कहती हैं, ‘‘असल में कई बार यह समझना मुश्किल हो जाता है कि व्यक्ति की ग्रोथ सही हो रही है या नहीं, क्योंकि टीचर का काम हर साल एकजैसा ही होता है और उन के ग्रोथ को ट्रेस करना मुश्किल होता है. ऐसे में काम को करने में अगर आप को बोरियत महसूस हो तो काम को कभी न छोड़ें. उस में ही कुछ नयापन लाने की कोशिश करें. ‘‘जो काम अपने जिम्मे लिया है उसे समय पर पूरा कर लें. अपने लिए शौर्ट टर्म और लौंग टर्म गोल्स तय करें. इस से आप को अपनी मंजिल तक पहुंचने में आसानी होगी. अगर आप के दिमाग में अपने लक्ष्यों को ले कर स्पष्टता नहीं होगी तो आप आगे नहीं बढ़ पाएंगे.’’

अपने अनुभव के बारे में वर्षा कहती हैं, ‘‘एक 30 साल की लड़की ने अपनी सहेली की वजह से एचआर में जौब ले लिया पर उसे अब यह प्रोफैशन अच्छा नहीं लग रहा था. कंपनी में उस की ग्रोथ उस के हिसाब से सही नहीं लग रही थी और उस ने जौब छोड़ने का मन बना लिया था.

‘‘साईकोमैट्रिक टैस्ट के द्वारा उस की रुचि का पता किसी दूसरे फील्ड में चला. इस प्रकार उस महिला ने खुद के कुछ साल और कंपनी के कुछ सालों को खराब किया. अगर वह पहले अपनी जौब इंटरैस्ट जान लेती तो वह खुद के अलावा कंपनी के समय को बरबाद न करती. जिन्हें भी अपने काम से संतुष्टि या समझना नहीं है उन्हें तुरंत कैरियर काउंसलर से संपर्क करना आवश्यक होता है.’

मैरिज टिप्स: बड़े काम के हैं ये नियम

अगर हम अपनी मैरिज लाइफ को एक ग्रोइंग बिजनैस की तरह डील करें तो बुराई क्या है . दोनों को निवेश करना पड़ता है. सहयोग जरूरी है. कमिटमैंट माने रखता है. तभी तो सक्सैस मिलती है. किसी कंपनी को चलाना किसी मैरिज को मैनेज करने जैसा ही हो सकता है. सुनने में यह अजीब बात लग सकती है पर गौर करें तो दोनों में ही कहीं समानता नजर आएगी तो फिर वैवाहिक जिंदगी को अपने बिजनैस या प्रोफैशनल लाइफ की तरह मैनेज करने में बुराई ही क्या है? जैसे आप किसी बिजनैस को चलाने के लिए बजट बनाते हैं, लोगों को काम सौंपते हैं, उन्हें समयसमय पर प्रोत्साहित करते हैं, रिवार्ड देते हैं, ठीक वैसे ही वैवाहिक जीवन में भी बजट बनाना पड़ता है, एकदूसरे को काम सौंपे जाते हैं,

जिम्मेदारियां बांटी जाती हैं, साथी को प्रोत्साहित किया जाता है. ग्रोइंग बिजनैस की तरह सम?ों कोई भी अपने वैवाहिक जीवन की तुलना बिजनैस के साथ करना पसंद नहीं करता है. ऐसा करने से रिश्ते से रोमांस खत्म होता लगता है पर विवाह में भी अपेक्षाएं और सीमाएं वैसी ही होती हैं जैसी कि किसी कंपनी में. आर्थिक जिम्मेदारियां, स्वास्थ्य संबंधी फायदे और प्रौफिट मार्जिन विवाहित संबंध में भी देखे जा सकते हैं. हमें भावनात्मक संसाधनों को निर्मित करने, वित्तीय स्थिरता को बढ़ाने और अनापेक्षित स्थितियों का सामना करने के लिए वैकल्पिक योजनाएं बनाने के लिए समय की आवश्यकता होती है.

यही बात बिजनैस पर भी लागू होती है, जिस में सही तरह से बनाई गई योजनाएं ही लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद करती हैं. डील है पार्टनरशिप अगर सीधे शब्दों में कहें तो मैरिज को एक प्रकार की पार्टनरशिप ही मानें, जिसे आप सफल बनाना चाहती हैं. मैरिज काउंसलर दिव्या राणा का कहना है कि आप को एकदूसरे की इन विशेषताओं का वैसे ही सम्मान करना चाहिए जैसे कि बिजनैस पार्टनर आपस में करते हैं. मनोवैज्ञानिक अनुराधा सिंह मानती हैं कि अपनी एक अच्छा बिजनैसमैन अपने कर्मचारी को सम्मान देता है और उस का खयाल रखता है, इसी वजह से कर्मचारी उस का सम्मान करते हैं और उम्मीद से ज्यादा काम करते हैं. इस वजह से बिजनैस सुगमता और व्यवस्थित ढंग से चलने के साथसाथ लाभ भी देता है. इसी तरह जब हम अपने साथी का सम्मान करते हैं,

उस की हर छोटीबड़ी बात की परवा करते हैं तो हमें उन से बदले में कहीं अधिक मिलता है, कई बार उम्मीद से ज्यादा. बिजनैस के साथ प्लेजर को भी मिक्स करें. बिजनैस को भी एंजौय करें और मैरिज को भी. इस से संतुलन बने रहने के साथसाथ जोश और उत्साह भी बना रहेगा जो निरंतर आगे बढ़ते रहने को प्रोत्साहित करेगा. वर्क एथिक्स हैं जरूरी चाहे बिजनैस हो या मैरिज, दोनों ही वर्क एथिक्स पर चलते हैं. दोनों में ही निवेश करना पड़ता है. जिस तरह से आप अपने पोर्टफोलियो को मैनेज करते हैं, उसी तरह मैरिज में भी आप को अपने संबंधों के पोर्टफोलियो को मैनेज और अपडेट करते रहना पड़ता है. अगर आप अपने मनपसंद प्रोफैशन में सफल होने के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं तो क्या वही वर्क एथिक्स आप की मैरिज पर लागू नहीं होते? बात आश्चर्यजनक लग सकती है पर अपने कैरियर में आप ने जो सफलता व निपुणता हासिल की है, उसे ही मैरिज में ट्रांसफर कर दीजिए.

फिर उसी तरह से एक मजबूत परिवार निर्मित कर पाएंगे जैसे कि आप ने अपनी कंपनी खड़ी की है. ईगो को रखें दूर मैरिज हो या बिजनैस, दोनों में ही अगर ईगो फैक्टर सिर उठाने लगे तो बिजनैस चौपट हो जाता है और मैरिज में टकराव या अलगाव ?ोलना पड़ जाता है. इसीलिए माना जाता है कि एक सही तरह से चलने वाला बिजनैस एक सही ढंग से चल रही शादी के समान है. दोनों ही अपनेअपने खिलाडि़यों के ईगो को बढ़ने नहीं देते. ईगो वह संवेग है जो युगल को अपने स्वार्थ से बाहर आने और एकदूसरे के प्रति पूर्ण समर्पित होने से रोकता है, चाहे युगल एकदूसरे को बहुत ज्यादा प्यार व सम्मान देने की चाह ही क्यों न रखते हों. इसी तरह बिजनैस के फेल होने का मुख्य कारण ईगो ही होता है,

क्योंकि मालिक को वह अपने मातहतों के साथ सही ढंग से पेश आने या उन की परेशानियों को सम?ाने से रोकता है. कमिटमैंट है जरूरी विवाह हो या बिजनैस, दोनों ही जगह सहयोग अपेक्षित है. दोनों ही जगह अगर सम?ाते की स्थिति न हो तो असफलता हाथ लगते देर नहीं लगती. सम?ाते के साथसाथ कम्यूनिकेशन एक ऐसा आधार है जो दोनों को ही सफल बनाता है. एकदूसरे को बदलने की कोशिश करने के बजाय दोनों को अपने को सुधारने पर काम करने को तैयार रहना चाहिए.

कम्यूनिकेशन के साथसाथ कमिटमैंट भी एक आवश्यक तत्त्व है शादी को निभाने के लिए वैसे ही जैसे वह बिजनैस को चलाने के लिए आवश्यक होता है. जहां कमिटमैंट नहीं वहां युगल में न विश्वास होगा, न समर्पण की भावना और न ही जिम्मेदारी का भाव. इसी तरह अगर बिजनैस में कमिटमैंट न हो तो बौस उस के प्रति न तो चिंतित रहेगा, न ही उसे सुधारने के लिए मेहनत करेगा. ऐसी स्थिति में बिजनैस लंबे समय तक कायम नहीं रह पाएगा, वैसे ही शादी भी इस के अभाव में एक जगह पर आ कर ठहर जाएगी और पतिपत्नी दोनों के लिए एकदूसरे का साथ किसी सजा से कम नहीं होगा.

रुबीना दिलैक की बहन की हल्दी की तस्वीरें आईं सामने , फैंस दे रहे हैं बधाई

टीवी एक्ट्रेस रुबीना दिलैक की बहन ज्योतिका दिलैक जल्द ही शादी के बंधन में बंधने वाली है, ज्योतिका की शादी की रस्में की कुछ तस्वीरें सामने आ रही है, बता दें कि 8 मार्च के दिन ज्योतिका दिलैक की हल्दी सेरेमनी थी , जिसमें ज्योतिका खूबसूरत लग रही थी.

बता दें कि रुबीना दिलैक से लेकर ज्योतिका दिलैक तक ने हल्दी की तस्वीर अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर किया है, जिसके बाद से इस तस्वीर को खूब लाइक मिल रहे हैं. फोटो में होने वाली दुल्हनियां ज्योतिका को फूल डांस मोड में देखा जा रहा है.

 

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हल्दी के आउटफिट में ज्योतिका किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही है,उन्होंने अपने पूरे परिवार के साथ पोज देते हुए तस्वीर शेयर किया हुआ है. इस तस्वीर की तारीफ सोशल मीडिया पर भी खूब हो रही है. ज्योतिका ने अपने लुक को गुलाबी चूड़ियों से ढ़का हुआ है, हल्के मेकअप में वे कमाल के लग रही हैं.

वहीं ज्योतिका के होने वाले दुल्हे राजा ने अपनी लेडी बर्ड को ट्विन किया हुआ है, इस तस्वीर की खूब तारीफ हो रही है, पिंक कुर्ता प्याजामा में होने वाले दुल्हा राजा खूब जच रहे हैं. वहीं रुबीना दिलैक भी अपने पूरे परिवार के साथ मस्ती करती नजर आईं.

YRKKH: अक्षरा को डांटेगी मंजरी, अभि के एक्सीडेंट का जिम्मेदार बताएगी

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता में आएं दिन नया -नया ड्रामा देखने को मिल रहा है, जिस वजह से सीरियल में ट्विस्ट भी आ रहा है. बीते एपिसोड में दिखाया गया है कि गोयनका हाउस में अभिमन्यु का एक्सीडेंट हो जाता है.

अभि के एक्सीडेंट के बाद से मंजरी अक्षरा को इसका दोषी मानती है. अक्षरा के अनुसार इस एक्सीडेंट की दोषी अक्षरा है. हालांकि जब अक्षरा को इस बात का पता चलता है कि अभि का एक्सीडेंट हुआ है तो वह सब कुछ छोड़कर अभि के पास जाती है.

 

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मंजरी दोनों रिश्ते पर सवाल खड़े करेगी औऱ अक्षरा को इस एक्सीडेंट का दोषी मानती है. आने वाले एपिसोड में दिखाया जाएगा कि  मंजरी फोन देख लेती है जिसमें अक्षरा अभि को देखने के बाद से फूट फूटकर रो रही होती है.जिसके बाद मंजरी कहती है कि मेरा बेटा बेहोश सिर्फ तुम्हारी वजह से है, इसकी जिम्मेदार सिर्फ तुम हो.

यह सब बाते सुनकर अक्षरा खूब रोती है, कहानी में आगे देखऩे को मिलेगा कि मंजरी का गुस्सा यहीं शांत नहीं होता है, आगे दिखाया जाएगा कि अभि के इस हालत की जिम्मेदार अक्षरा खुद को मानती है, वह बार-बार कॉल करने के बाद भी फोन नहीं उठाती है इस वजह से ऐसा हुआ है.Y

हिंसक होते शिक्षक, बेहद चिंतनीय

स्कूलों में शिक्षकों द्वारा छात्रों को मारनापीटना कानूनन अपराध है, फिर भी ऐसी घटनाएं सामने हैं जहां शिक्षक इसे ‘गुरु अधिकार’ सम?ा छात्रों की बेरहमी से पिटाई करते हैं. जरूरी है कि ऐसे हिंसक शिक्षकों से निबटा जाए. ‘टीचर ने मु?ो कैंची से मारा, मेरे बाल खींचे, फिर मु?ो स्कूल की पहली मंजिल से फेंक दिया. मैं ने कुछ भी गलत नहीं किया था.’ बीती 17 दिसंबर को दिल्ली के हिंदूराव अस्पताल में इलाज के लिए भरती इस पीडि़ता के पहले टीचर गीता देशवाल कई मासूमों के साथ इसी तरह की हिंसा कर चुकी थी. लेकिन उस के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई थी.

वाकेआ दिल्ली के सदर बाजार के मौडल बस्ती स्थित प्राइमरी स्कूल का है जहां पढ़ रहे कई बच्चों के पेरैंट्स ने बताया कि उक्त टीचर आएदिन बच्चों की बेरहमी से मारकुटाई करती रहती है लेकिन उस के खिलाफ कई शिकायतों के बाद भी कोई ऐक्शन नहीं लिया गया. चूंकि इस बार एक मासूम की जान पर बन आई थी, इसलिए मध्य दिल्ली की डीसीपी श्वेता चौहान भागीभागी स्कूल पहुंची और उक्त शिक्षिका के खिलाफ मामला दर्ज कर कार्रवाई शुरू करने की रस्म निभा दी. स्कूल सरकारी है जिस में अधिकतर गरीबगुरबों और छोटी जाति वालों के बच्चे पढ़ते हैं. यह सोचना फुजूल की बात है कि इस क्रूर और हैवान शिक्षिका का कुछ बिगड़ेगा जिसे तगड़ी पगार इन एकलव्यों को अर्जुन बनने से रोकने के एवज में दी जाती है. इस के बाद भी लाखदोलाख में एकाध बच्चा अपनी प्रतिभा व मेहनत के दम पर पढ़लिख कर कुछ बन जाए तो आसमान सिर पर उठा लिया जाता है कि देखो, रिकशे वाले का बच्चा बड़ा अफसर बन गया जिस का सीधा सा मतलब यह है कि पढ़ाईलिखाई और गुणवत्ता के मामले में सरकारी स्कूल उन्नीस नहीं हैं, वे महंगे और भव्य प्राइवेट स्कूलों को टक्कर देते हैं.

खोट हमारे सिस्टम और नजरिए में है जो सरकारी स्कूलों और उन के माहौल को बदनाम किया जाता है. ऐसी ही एक और नेकनामी का एक मामला हिमाचल प्रदेश के ऊना से आया था, जहां प्रिंसिपल साहब ने बीती 1 दिसंबर को 2 छात्रों की बेरहमी से पिटाई की थी जिन में से एक को तो मरणासन्न हालत में अस्पताल में भरती कराना पड़ा था. मामला इतना भर था कि स्कूल के बाथरूम के नल तोड़ने का शक प्रिंसिपल को इन छात्रों पर था, लिहाजा, महज शक की बिना पर उन्होंने छात्रों की हड्डीपसली तोड़ दी. इस हादसे के 12 दिन पहले राजस्थान के टोंक जिले के एक सरकारी स्कूल में एक शिक्षक ने एक मासूम की इतनी बेरहमी से पिटाई की थी कि उस की रीढ़ की हड्डी ही टूट गई थी.

इस बच्चे का गुनाह इतना भर था कि वह लंच के दौरान साथियों से बात कर रहा था. अनुशासनप्रिय मास्साब को उस की यह हरकत इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने उसे जमीन पर पटक कर उस की पीठ पर लात रख दी, दृश्य ठीक वैसा ही था जैसे तसवीरों और ?ांकियों में देवी राक्षसों का वध करती नजर आती है. हिंसा के मंदिर शिक्षकों की आएदिन की हिंसा का पुराण बहुत लंबाचौड़ा है जिस में 2-4 नए अध्याय रोज जुड़ते हैं. शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले स्कूल किस तरह हिंसा के मंदिरों में तबदील होते जा रहे हैं, इस की एक और बानगी बीती 16 दिसंबर को ही वाराणसी से देखने में आई थी. वहां के चोलापुर ब्लौक के जरियारी गांव के सरकारी स्कूल में एक अध्यापक ने तीसरी क्लास के एक बच्चे की डंडे से तबीयत से धुनाई कर डाली. बच्चा रहम की गुहार लगाता रहा.

लेकिन उस हैवान को तरस न आया. यह बच्चा स्कूल देर से पहुंचा था, इस पर अध्यापक ने आव देखा न ताव और डंडे से बच्चे को मारना शुरू कर दिया जिस का वीडियो किसी दूसरे टीचर ने बना कर वायरल कर दिया. ये मामले चंद उदाहरण हैं. इन्हें ‘अपवाद’ या ‘ऐसा तो कभीकभार होता रहता है’ कह कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. देशभर में 15 नवंबर से ले कर 15 दिसंबर 2020 तक ऐसे लगभग 50 मामले उजागर हुए थे जिन में हिंसा के मंदिरों के इन पुजारियों ने जम कर बच्चों की पूजा की थी. छोटेमोटे मामलों का तो अतापता ही नहीं चलता जिन में बच्चों को चोट नहीं आती. कुछ प्राइवेट स्कूल भी इस में शामिल थे. सोचना लाजिमी है कि आखिर शिक्षक क्यों हिंसक हो रहे हैं और ऐसे शिक्षकों से कैसे निबटा जा सकता है. बच्चों की सुरक्षा और उन्हें हिंसा से रोकने के लिए तमाम कानून वजूद में हैं (आईपीसी के सैक्शन 83 में 7 से 12 साल के बच्चों को शारीरिक सजा देने की मनाही है,

न केवल स्कूलों, बल्कि घरों में भी बच्चों के प्रति हिंसा रोकने के लिए जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2020 में प्रावधान हैं.) लेकिन दोषियों को सजा होगी, ऐसा लगता नहीं. एकदो मामलों में मुमकिन है सजा हो भी जाए पर अधिकतर, खासतौर से सरकारी स्कूलों के मामले रफादफा हो जाते हैं क्योंकि वहां टीचर्स की पहुंच ऊपर तक होती है. उन्हें खासी सैलरी मिलती है और अहम बात इन स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के अभिभावक आर्थिक व सामाजिक सहित तमाम मोरचों पर कमजोर होते हैं, इसलिए सम?ाता करने के अलावा उन के पास कोई रास्ता नहीं रह जाता. ये हैं वजहें सरकारी स्कूलों में बच्चों के प्रति हिंसा बेहद चिंतनीय और संवेदनशील मसला है जिस पर हैरत की बात, बातबात पर डिबेट कर हल्ला मचाने वाले न्यूज चैनल्स की चुप्पी है. दीगर मीडिया भी कुछ न बोलने में ही बेहतरी सम?ाता है. पिटने वाले और हिंसा का शिकार होने वाले अधिकांश बच्चे समाज के उस तबके के होते हैं जिन्हें सदियों से शिक्षा से महरूम रखा गया है.

पिटना और प्रताडि़त होना इस वर्ग की नियति रही है. अलावा इस के, बच्चे सौफ्ट टारगेट और कमजोर होते हैं जो विरोध नहीं कर पाते, इसलिए भी इन की कुटाई करना आसान होता है. यह सहूलियत धर्मग्रंथों और वर्णव्यवस्था से भी मास्टरों को प्रोत्साहन की शक्ल में मिली हुई है जिन्हें श्रुति और स्मृति की बिना पर यह ज्ञान प्राप्त है कि प्रताड़ना से ही बच्चों की जिंदगी बनती है और जो हम इन्हें दे रहे हैं वह अनमोल है. तीसरी अहम वजह शिक्षकों की कुंठाएं और पारिवारिक ?ां?ाटें हैं. इस प्रतिनिधि ने भोपाल के कोई 20 शिक्षकशिक्षिकाओं से इस संबंध में बातचीत की तो उन्होंने जाहिर है नाम न छापने की शर्त पर बताया कि हां, वे अकसर घर का गुस्सा स्कूल में बच्चों पर उतारते हैं क्योंकि इस पर किसी विरोध की गुंजाइश न के बराबर होती है और वे इसे अधिकार की तरह इस्तेमाल करते हैं.

यानी, कमजोर पर गुस्सा उतारने की मनोवैज्ञानिक थ्योरी हिंसा के इन मामलों पर बिना किसी सैंसर के लागू होती है. भारत में कभी शिक्षा गुरुकुलों में ही दी जाती थी जहां गुरुओं का दबदबा और रुतबा किसी सुबूत का मुहताज नहीं था. पढ़ाई या ज्ञान हासिल करने के एवज में छात्रों को गुरु की गुलामी करना पड़ती थी. वे गुरु के घर का सारा कामकाज करते थे, जंगल से लकडि़यां बीन कर लाते थे, गाय का दूध निकालते थे और यहां तक कि गुरु के हाथपैर भी दबाते थे. गुरु को भगवान का दरजा मिला हुआ था. कमोबेश कलियुगी गुरुओं की मानसिकता आज भी सनातनी है कि शिष्यों को सिखाने के नाम पर प्रताडि़त करना उन का हक है. तब के अभिभावक भी नादान थे जो गुरुओं से कहते थे कि बच्चे की चमड़ी आप की है, हड्डी हमारी है. सनातनी है मानसिकता सोशल मीडिया पर आएदिन धर्म, संस्कृति और संस्कारों के नाम पर वर्तमान शिक्षा प्रणाली को कोसते गुरुकुलों की अहमियत का गुणगान होता रहता है जिस से कट्टर हिंदुत्व और मजबूत होता है.

इस बात का स्कूलों में होने वाली हिंसा से कनैक्शन नहीं है, ऐसा न कहने की कोई वजह नहीं. महाभारत काल में आचार्य द्रोणाचार्य द्वारा भील समुदाय के होनहार निशानेबाज एकलव्य का अंगूठा काटे जाने का प्रसंग इस की बेहतर मिसाल है. द्रोण, दरअसल नहीं चाहता था कि पांडव कुल के उस के चहेते शिष्य अर्जुन के मुकाबले कोई दूसरा धनुर्धारी हो, इसलिए उस ने गुरुदक्षिणा में एकलव्य से उस का अंगूठा ही मांग लिया था और हैरत की बात यह है कि उस ने एकलव्य को धनुष विद्या सिखाई ही नहीं थी क्योंकि तब आज की तरह शूद्रों को पढ़ने का अधिकार ही नहीं था. छात्रों के प्रति हिंसा का ऐसा नायाब एक और उदाहरण महाभारत काल में ही देखने को मिलता है जिस में कर्ण को उस के गुरु परशुराम ने युद्ध के मैदान में युद्ध कौशल भूलने का श्राप दे दिया था क्योंकि कर्ण पांडव होते हुए भी सूत पुत्र था और परशुराम केवल ऊंची जाति वालों को ही शिष्य बनाते थे.

कर्ण ने उन से अपनी जाति छिपाई थी जिस का खमियाजा उसे अपने ही भाई अर्जुन के हाथों मर कर भुगतना पड़ा था. यह हिंसा नहीं तो और क्या था? यह मनुवादी गुरुशिष्य परंपरा आज भी सामाजिक चिंतन को अपनी लपेट में लिए हुए है जिस की गूंज ‘गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरा…’ मंत्र की शक्ल में हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के दिन देखनेसुनने में आती है. इस लिहाज से तो दिल्ली की गीता देशवाल कतई गुनाहगार नहीं, बल्कि पूजनीय है क्योंकि उस के जैसे तमाम प्रभुतुल्य गुरुओं को यह हक है कि वे छात्र या शिष्य को बिना किसी लिहाज के मारेपीटें. इस छूट के हकदार वे सभी शिक्षक हैं जो छात्रों के प्रति हिंसा करते हैं. बात अकेले भारत की ही नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में धर्मगुरुओं का बोलबाला और दबदबा था.

10वीं शताब्दी पूर्व इब्राहीमी धर्मों के मुताबिक, यहूदियों के एक राजा और धर्मगुरु सुलेमान अपनी संहिता में शारीरिक सजा की वकालत कर गया तो बाद में इस से छात्रों की शामत आ गई. पेशे से वकील और मशहूर दार्शनिक इंग्लैंड के जेरेमी बेन्थम ने सुलेमान संहिता का समर्थन करते फरमान जारी कर दिया कि शारीरिक दंड का मकसद प्रतिशोधात्मक नहीं, बल्कि सुधारात्मक है. बेन्थम की इस थ्योरी को इसलिए भी बिना किसी लागलपेट के कानून जैसा मान लिया गया कि उन्होंने 1763 में महज 15 साल की उम्र में औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से स्नातक डिग्री ले कर अपनी प्रतिभा के ?ांडे गाड़ दिए थे. यही भारत में ब्राह्मणवाद के पालकपोषक आचार्य चाणक्य और चार्वाक जैसे गुरुओं ने किया और कहा कि किशोरावस्था में बालक से प्रताड़ना से ही पेश आना चाहिए. इन और ऐसे सिद्धांतों के न तब कोई माने थे, न आज हैं जो शिक्षकों को बेलगाम होने की छूट देते हुए थे.

एक वक्त में हाल तो यह था कि काबिल गुरु या शिक्षक उसी को माना जाता था जो छात्रों को कड़ी से कड़ी सजा देता था, चाहे पढ़ाईलिखाई में वह शिक्षक भले ही जीरो हो. सदियों और सालों बाद भी सामाजिक व मानसिक स्तर पर खास कुछ नहीं बदला है सिवा इस के कि गुरुकुलों की जगह सरकारी और प्राइवेट स्कूलों ने ले ली है और शिक्षकों को दक्षिणा की जगह मोटी पगार मिलने लगी है. सार यह कि शिक्षक आदिकाल से हिंसक थे और आज भी हैं और इन से निबटना तब भी चुनौती थी और आज भी है जो मासूम और अबोध बच्चों पर अपनी भड़ास निकालते हैं. ऐसे निबटें हिंसा बच्चों के दिलोदिमाग पर कितना बुरा असर डालती है, यह हिंसा करने वाले शिक्षकों से बेहतर कोई सम?ा भी नहीं सकता क्योंकि इन्हें बीएड की पढ़ाई के दौरान खासतौर से चाइल्ड साइकोलौजी पढ़ाई जाती है. मोटेतौर पर हर कोई सम?ाता है कि बच्चा सहमासहमा सा रहता है, बोलने में हकलाने लगता है, आत्मविश्वास खो बैठता है, गुमसुम रहता है, डिप्रैशन में चला जाता है और इस के बाद भी सजा और हिंसा जारी रहे तो स्कूल ही छोड़ देता है.

तब कहा यह जाता है कि यह तो है ही डफर, अब शहर जा कर मेहनतमजदूरी करेगा, डिलीवरी बौय बन जाएगा या फिर लिफ्टमैन या सिक्योरटी गार्ड की नौकरी करेगा. पहले ऐसे बच्चों को ताना दिया जाता था कि पढ़ेगालिखेगा नहीं तो ढोर चराएगा. ऐसे ड्रौपआउट छात्रों की तादाद इतनी तेजी से बढ़ रही है कि कई राज्यों के सरकारी स्कूलों में नाममात्र के छात्र बचे हैं और वे भी सिर्फ मध्याह्न भोजन के लालच में स्कूल जाते हैं. आंकड़ों के अनुसार, शैक्षणिक वर्ष 2021-22 में प्राथमिक स्तर (कक्षा 1 से 5) में ड्रौपआउट दर 1.5 प्रतिशत हो गई है, जो 2020-21 में 0.8 प्रतिशत थी. उच्च प्राथमिक स्तर (कक्षा 6-8) में ड्रौपआउट दर वर्ष 2020-21 के 1.9 प्रतिशत की तुलना में 2021-22 में 3 प्रतिशत हो गई है. यह डेटा यूडीआईएसई प्लस 2021-22 रिपोर्ट द्वारा सामने आया. रिपोर्ट में कहा गया, उच्च प्राथमिक स्तर पर ड्रौपआउट दर 3 वर्षों में सब से अधिक है. 2019-20 की रिपोर्ट बताती है कि ड्रौपआउट दर 2.6 प्रतिशत थी, जो 2020-21 में घट कर 1.9 प्रतिशत हो गई और फिर 2021-22 में फिर से 3 प्रतिशत हो गई. तीनों वर्षों में, इस स्तर पर लड़कियों की ड्रौपआउट दर लड़कों की तुलना में अधिक रही है. रिपोर्ट में कहा गया कि भारत ने पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष 19.63 लाख नए छात्र जोड़े, जिस में सरकारी और प्राइवेट दोनों स्कूल शामिल थे. 2020-21 में छात्रों की संख्या 25.38 करोड़ से बढ़ कर 25.57 करोड़ हो गई पर ड्रौपआउट रेट चिंताजनक बना हुआ है. अब गुरुजी भी प्रसन्न रहते हैं कि इन छात्रों को पढ़ाने की जहमत नहीं उठानी पड़ रही, इसलिए सप्ताह में एकदो बार वे मुंह दिखाने के लिए स्कूल का चक्कर काट आते हैं.

कई स्कूलों में तो टीचर्स ने दिन बांध रखे हैं कि 2 दिन तू जा, 2 दिन मैं जाऊंगा और 2 दिन वह आएगा. कभी स्कूल का औचक निरीक्षण होगा भी तो अपने माथुर या फलां साहब मैनेज कर लेंगे. 50 हजार महीने के मिलते हैं, उन में से साल में एकदो बार 5 हजार देना भी पड़े तो सौदा घाटे का नहीं, यह तो सहूलियत है. जाहिर है जो टीचर पढ़ाने के नाम पर अलाली काटेंगे, वे बच्चे को डराए रखने, उसे सजा भी देंगे जिस से कोई कहीं शिकायत न करे. शहरों और उन से सटे स्कूलों में लोग जागरूक रहते हैं, वहां जरूर स्कूल नियमित लगते हैं लेकिन हिंसा भी खूब होती है. बच्चा कुछ पूछता है या सवालजवाब करता है तो शिक्षकों को उस में तौहीन लगती है. लिहाजा, वे ऐसे बच्चों को टारगेट कर उन्हें परेशान ही करते रहते हैं.

इस अभिजात्य किस्म की हिंसा में बच्चे का जो नुकसान होता है, उस का खमियाजा वह जिंदगीभर भुगतता है. छोटा बच्चा स्कूल से मार खा कर आए तो तुरंत स्कूल जा कर हल्ला मचाएं कि मास्टरों को बच्चों को मारनेपीटने का कोई हक नहीं. यह जुर्म है और इस के खिलाफ कार्रवाई न हुई तो हम हाहाकार मचाएंगे. दिल्ली के मामले में अगर वक्त पर टीचर के खिलाफ पेरैंट्स ऐक्शन लेते तो उस के हौसले इतने बुलंद न हो पाते कि एक मासूम को खिड़की से ही फेंक दे. पेरैंट्स को याद यह भी रखना चाहिए कि गुरु कोई महात्मा या भगवान नहीं होता, वह वैतनिक सरकारी नौकर है जिस की अपनी सीमाएं हैं जिन में से एक यह भी है कि उसे बच्चे को किसी भी लैवल पर अपमानित या प्रताडि़त करने का अधिकार नहीं. विदिशा के एक रिटायर्ड शिक्षक का कहना है कि सरकारी स्कूलों में कभी कोई पेरैंट्स हिंसक शिक्षकों की शिकायत करने ऊपर नहीं जाते जबकि मामला उन के बच्चों के भविष्य का होता है. उलट इस के, अगर बड़े प्राइवेट स्कूलों में बच्चे को खरोंच भी आती है तो पेरैंट्स उसे स्कूल से निकलवा कर ही दम लेते हैं और धौंस भी देते हैं कि यह कारोबार है और हम ग्राहक तगड़ी फीस अदा करते हैं. यह दम और जागरूकता सभी पेरैंट्स को खुद में पैदा करनी पड़ेगी, नहीं तो कुछ बदलने की उम्मीद कोई न रखें.

कम पानी में कद्दूवर्गीय सब्जियों के लिए लो टनल तकनीक

तकनीक से खेती करने में किसानों को उत्पादन दोगुना मिलता है. इस से पानी का उपयोग 50 फीसदी तक कम हो जाता है. इस के साथ ही समय से पहले फसल आने के कारण किसानों को उपज के अच्छे भाव मिलते हैं. लो टनल या रो कवर्स संरक्षित खेती में अच्छा उत्पादन लेने की एक तकनीक है.

अपेक्षाकृत बहुत कम लागत में फसल तैयार हो जाती है और थोड़े समय (3-4 महीने) में इस से मुनाफा कमा सकते हैं. इस से खेतों मे धोरेनुमा क्यारियां बना कर उन पर विशेष तरह से सुरंग का आकार देते हुए प्लास्टिक को लगाया जाता है. इस में प्लास्टिक की 200 माइक्रोन फिल्म लगानी उचित है. इस तकनीक से हम एक तरह की पौलीटनल यानी एक लोहे का सरिया, बांस की डंडियों की सहायता से सुरंग का निर्माण करते हैं. इस की ऊंचाई 1-1.5 फुट तक रखते हैं और लंबाई खेत के आकार के आधार पर रखते हैं. इस में सुरंग के दोनों सिरों को बंद कर देते हैं, जिस में समयसमय पर इस प्लास्टिक को ऊंचा कर के अपनी फसल में निराईगुड़ाई, खाद मिलाना आदि क्रियाएं करते हैं. इस सुरंगनुमा भाग में ड्रिप सिस्टम लगा कर उसे ट्यूबवैल से जोड़ दिया जाता है.

इस में करेला, लौकी, खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, खीरा, धारीदार तोरई, चप्पनकद्दू, टिंडा, कद्दू की फसल लेने के लिए समय से पूर्व सर्दी के मौसम में ही बोआई कर दी जाती है. लो टनल बोआई इन फसलों को सर्दी से बचाने का काम करती है. इस के साथ ही साथ भीतर का वातावरण फसल के अनुकूल बना रहता है. ड्रिप सिस्टम से इस में सिंचाई की जाती है, जिस से पौधों को आवश्यकतानुसार पूरा पानी मिलता है. इस के साथ ही भाप के रूप में उड़ने वाले पानी को प्लास्टिक वायुमंडल में नहीं जाने देती, जिस के कारण टनल में भी नमी बनी रहती है. सर्दी के मौसम में लो टनल फसलें समय से पूर्व ही उपज देने लगती हैं. इस प्रकार बेमौसमी सब्जी से किसानों को दोगुनी आय मिलती है. उत्पादन तकनीक यह तकनीक राजस्थान के गरम शुष्क क्षेत्रों में कद्दूवर्गीय सब्जियों की अगेती खेती के लिए उपयोगी है.

जहां सर्दी के मौसम में रात का तापमान बहुत अधिक गिर जाता है, वहीं लो टनल तकनीक से फसल निम्न तापमान वाली से सुरक्षित रहती है. इस में जनवरी में बीजों की बोआई ड्रिपयुक्त नाली (ट्रेंच) में करते हैं. इस को प्लास्टिक की चादर से ढक देते हैं, जिस से कद्दूवर्गीय सब्जियों को उस के सामान्य समय से पहले उगाना संभव है. इस से सामान्य दशाओं की तुलना में फसल 30-40 दिन पहले ही तैयार हो जाती है. दिसंबर के अंत में खेत में फसल के अनुसार 2-2.5 मीटर की दूरी पर 45 सैंटीमीटर चौड़ी और 45 से 60 सैंटीमीटर गहरी नालियां पूर्व से पश्चिम दिशा में बनाते हैं. इन नालियों में सड़ी गोबर की खाद और रासायनिक उर्वरकों की बोई जाने वाली फसल के लिए संतुलित मात्रा मिला देनी चाहिए.

पानी में घुलनशील नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश व सूक्ष्म तत्त्वों के मिश्रण को ड्रिप द्वारा सिंचाई के साथ भी फसल में दे सकते हैं. नाइट्रोजन की अधिक मात्रा देने से बचना चाहिए, अन्यथा पौधों की वानस्पतिक बढ़वार अधिक होगी. इस के परिणामस्वरूप फलत कम होगी. सिंचाई के लिए 4 लिटर प्रति घंटा पानी के डिस्चार्ज वाली 12-16 मिलीमीटर आकार वाली ड्रिप पाइप (लेटरल), जिन पर 60 सैंटीमीटर की दूरी पर ड्रिपर लगे हों, नालियों में बिछा देनी चाहिए. बोआई करने से पूर्व बीजों का अंकुरण करवाना आवश्यक है. जनवरी में कम तापमान के कारण इन का अंकुरण देर से होता है.

अंकुरण के लिए बीजों को पानी में भिगोया जाना चाहिए. पानी में भिगोने की अवधि बीज के छिलके की मोटाई पर निर्भर करती है. 3-4 घंटे खरबूजा एवं खीरा, 6 से 8 घंटे लौकी एवं तोरई, 10 से 12 घंटे टिंडा, तरबूज, खरबूजा भिगोने के बाद बीज को केपटौन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करना चाहिए. इस के बाद बोरों में लपेट कर गरम स्थान जैसे बिना सड़ी हुई गोबर की खाद में 2-3 दिन तक दबाने से बीजों की बोआई तैयार नालियों में जनवरी के पहले हफ्ते में कर देनी चाहिए. एक ड्रिपर के पास कम से कम 2 बीजों की बोआई करते हैं.

प्लास्टिक से ढकने से नालियों के अंदर का तापमान सामान्य से 8 से 10 डिगरी सैल्सियस अधिक बना रहता है. इस से बीजों का अंकुरण जल्दी हो जाता है और पौधों का विकास भी सुचारु रूप से होता है. फरवरी के दूसरे हफ्ते में मौसम का तापमान बढ़ जाता है, तो प्लास्टिक को हटा कर खरपतवार को निकाल देना चाहिए. प्लास्टिक की टनल को कभी भी एकदम से नहीं हटाना चाहिए. ऐसा करने से पौधों को धक्का लगता है और वे मुरझा जाते हैं, जिस से उन की वानस्पतिक बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. प्लास्टिक को शाम के समय तापमान कम होने पर हटाना चाहए और अगले दिन सुबह पौधों को फिर से प्लास्टिक से ढक देना चाहिए. यह प्रक्रिया 2 से 3 दिन तक करने से पौधों में कठोरीकरण आ जाता है और वे मौसम के अनुकूल ढल जाते हैं. पौधों की वानस्पतिक बढ़वार के दौरान पंक्तियों के सापेक्ष सरकंडा लगा देते हैं, जिस से प्रतिकूल या तेज हवाओं से पौधों को बचाया जा सके.

इस प्रकार की तकनीक से बोई गई फसल सामान्य दशा में 40 से 50 दिन पहले ही तैयार हो जाती है, जिसे बाजार में अच्छा भाव मिलता है. इस से प्रति हेक्टेयर 1 से 1.5 लाख रुपए तक आमदनी प्राप्त की जा सकती है. उन्नत किस्में लौकी : पूसा संतुष्टि, पूसा समृद्धि, पूसा संदेश, काशी गंगा, काशी बहार, पूसा बहार, पूसा नवीन, पूसा हाइब्रिड-3, एनडीवीएच-4. करेला : पूसा दोमौसमी, पूसा विशेष, पूसा हाइब्रिड-2, काशी उर्वशी, अर्का हरित. खीरा : पूसा उदय, पूसा बरखा, पीसीयूसीएच 1. कद्दू : पूसा विश्वास, पूसा विकास, आस्ट्रेलियन ग्रीन, काशी हरित, पूसा हाइब्रिड-1, पूसा अलंकार हाइब्रिड. खरबूजा : पूसा मधुरस, पूसा शरबती, हरा मधु, दुर्गापुरा मधु, पंजाब सुनहरी. तरबूज : शुगर बेबी, अर्कामानिक, थार मानक. टिंडा : पंजाब टिंडा, अर्का टिंडा. चप्पनकद्दू : आस्ट्रेलियन ग्रीन, पेटीपेन, अर्ली यैलो, प्रोलिफिक, पूसा अलंकार. धारीधार तोरई : पूसा नसदार, सतपुतिया,

पूसा नूतन. तोरई : पूसा स्नेहा, पूसा सुप्रिया, पूसा चिकनी, काशी दिव्या. कद्दूवर्गीय फसलों के प्रमुख कीट एवं रोग रौड पंपकिन बीटल : इस कीट के शिशु व वयस्क दोनों ही फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. वयस्क कीट पौधों की पत्तियों में टेढ़ेमेढ़े छेद करते हैं, जबकि शिशु पौधों की जड़ों में भूमिगत तने व भूमि से सटे फलों और पत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं. रोकथाम : कार्बोरिल 50 डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या एमामैक्टिन बेंजोएट 5 एसजी की 1 ग्राम मात्रा प्रति 2 लिटर या इंडोक्स्कार्ब 14.5 एससी की 1 मिलीलिटर प्रति 2 लिटर का घोल बना कर छिड़काव करें. फल मक्खी रोकथाम : मेलाथियो 0.02 फीसदी 200 मिलीग्राम प्रति लिटर का घोल बना कर छिड़काव करें. मृदु रोमिल आसिता : इस की वजह से पत्तियों के ऊपरी भाग पर पीले धब्बे और निचले भाग पर बैगनी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. रोकथाम : डाईथेन जेड 78 के 0.2 से 0.3 (2 से 3 ग्राम प्रति लिटर) का घोल बना कर छिड़काव करें. चूर्णिल आसिता : यह एक कवकजनित रोग है. इस से ग्रस्त पौधों पर सफेद चूर्णिल धब्बे दिखाई देते हैं.

अधिक प्रकोप की दशा में पत्तियां गिर जाती हैं और पौधा मुरझा जाता है. रोकथाम : रोगग्रस्त पत्तियों को काट कर पौधों से अलग कर देना चाहिए. इस रोग के लक्षण दिखने पर 0.1 फीसदी कार्बंडाजिम या 0.05 फीसदी हेक्साकोनेजोल का 15 से 20 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए. मोजेक रोग : यह विषाणुजनित रोग है, जो एफिड या माहू के माध्यम से फैलता है. इस रोग से प्रभावित पत्तियों की लंबाई व चौड़ाई कम रह जाती है और फलों का रंग व आकार भी प्रभावित होता है. रोकथाम : * रोगरोधी किस्मों का चुनाव करें. * पौधों में रोग के लक्षण दिखाई देते ही उखाड़ कर जला देना चाहिए. * इस रोग के माध्यम से माहू कीट के नियंत्रण के लिए 1.5 मिलीलिटर मेटासिस्टौक्स प्रति लिटर पानी के घोल का 10 से 15 दिनों के अंतराल पर 2 से 3 बार छिड़काव करना चाहिए.

मेरे पापा कि डेथ हो गई थी ,बचपन में लेकिन जब मुझे पता चला कि मेरी मम्मी का बॉयफ्रेंड है, तो मेरे पैरों चले जमीन खिसक गई?

सवाल 

मेरा कालेज का लास्ट ईयर है. कालेज में ही जौब प्लेसमैंट हो गया है और कालेज कंप्लीट होने के बाद मेरी जौब लग जाएगी. मैं बहुत खुश हूं क्योंकि मैं अपने बलबूते पर कुछ कर पाऊंगी.

मेरे पापा की डैथ मेरे बचपन में ही हो गई थी. मम्मी ने मुझेबहुत प्यार से पाला हैमेरा हर तरह से ध्यान रखा है. मैं ने अपने अलावा मम्मी को किसी और के लिए ध्यान करते कभी देखा ही नहीं. लेकिन कुछ दिनों पहले मम्मी मार्केट जाते वक्त अपना मोबाइल घर भूल गईं और मैं घर पर थी. मोबाइल बजा तो मैं ने कौल रिसीव कर ली. दूसरी तरफ से एक आदमी की आवाज आई जो मुझेमम्मी सम?ा कर जो कुछ बोलासुन कर मेरे पैरोंतले जमीन खिसक गई.

उस दिन से मैं बहुत अपसैट हूं. मम्मी का बौयफ्रैंड हो सकता हैमैं सपने में भी सोच नहीं सकती थी. मैं अपने पापा के सिवा किसी और को मम्मी के साथ कैसे देख सकती हूं. मैं मम्मी को अपना आइडियल मानती हूं लेकिन अब सब धोखा सा लग रहा है. बहुत बैचेन हूंक्या करूं?

जवाब

ये कैसी बातें कर रही हैं आपवह भी अपनी मां के लिएजिस ने अपनी पूरी उम्र सिर्फ और सिर्फ आप को बड़ा होनेकाबिल बनाने के लिए लगा दीउस की दुनिया सिर्फ आप के इर्दगिर्द घूमती रही और जिसे आप भी अपना आइडियल मानती हैं.

एक दिन आप को पता चलता है कि मम्मी का ब्रौयफ्रैंड है तो वे एकदम आप की नजरों से गिर गईं. ऐसा क्या गुनाह कर दिया मम्मी ने बौयफ्रैंड बना कर.

मम्मी ने तो आप को पता भी नहीं चलने दिया कि उन का कोई ब्रौयफ्रैंड है. यानी कि उन्होंने आप की केयर मेंप्यार में कोई कमी आने नहीं दी. अगर उस दिन आप मोबाइल की कौल न रिसीव करतीं तो शायद आप को कभी पता भी न चलता कि मम्मी का कोई बौयफ्रैंड भी है.

मुझेयह बताइए कि मां इंसान नहीं होती. क्या उस की अपनी कोई फीलिंग्स नहीं होती. आप के पिता का देहांत बहुत जल्दी हो गया. आप की मम्मी अपने बारे में सोच सकती थीं लेकिन उन के लिए आप प्रायोरटी थीं. मम्मी ने आप को एहसास नहीं होने दिया कि उन की जिंदगी में क्या चल रहा है या उन्हें भी किसी के साथ की जरूरत है या वे भी चाहती हैं कि कोई उन के साथ खड़ा हो. नहीं नक्योंकि वे आप को हर तरह से खुश रखना चाहती थीं.

अगर वे अपनी निजी जिंदगी में खुशी के कुछ पल अपने ब्रौयफ्रैंड के साथ बिता लेती हैं तो आप को इस में इतना गलत क्या लग रहा हैआप अपने दिमाग में कुछ ज्यादा ही खयाली पुलाव पका रही हैं. मम्मी आप के साथ हैं और आप के साथ ही रहेंगी. बल्किहैरानी तो इस बात की हो रही है कि एक बेटी हो कर आप अपनी मां की फीलिंग्स को नहीं सम?ा रही हैं. क्या आप ने सोचा है कि शादी होने के बाद जब आप अपनी ससुराल चली जाएंगीतब मम्मी का क्या होगा?

आप को तो खुश होना चाहिए कि मम्मी का कोई बौयफ्रैंड है जिस से वे अपने खालीपन को भरने की कोशिश कर रही हैं. सब को किसी न किसी का साथ चाहिए. आप को आगे आ कर वक्त रहते मम्मी को सपोर्ट करना चाहिए. फिलहाल इस बारे में मम्मी से कोई बात न करें और अपने मन से भी बेकार की बातें निकाल दें. जैसा चल रहा हैचलने दें. आगे सब वक्त पर छोड़ दें. खुश रहें और मम्मी को अपना भरपूर प्यार दें.

 

गुस्सैल औरत से कैसे निबटें

बाहरी गतिविधियों में शामिल होने से पुरुषों को यह फायदा मिलता है कि वे अपने मूड को शिफ्ट कर लेते हैं पर भारत में अधिकतर महिलाएं घरों में बंद जिंदगी जीती हैं, अधिकतर परेशानियां वे किसी से शेयर नहीं कर पातीं जिस के चलते उन में गुस्सा व तनाव पैदा होने लगता है. ऐसी स्थिति से कैसे निबटें जब औरत का स्वभाव गुस्सैल हो जाए. नेहा जब से नितिन से शादी कर के उस के घर आई थी, उस ने अपनी सास को ज्यादातर उखड़े हुए मूड में ही देखा.

उस की सास कामिनी सभी के कामों में दखलंदाजी करती थी और हर चीज में मीनमेख निकालती थी. 25 वर्षीय नेहा, उस का 28 वर्षीय पति नितिन, उस की ननद, ससुरजी, देवर सभी कामिनी के व्यवहार से परेशान रहते थे. वह छोटीछोटी बात पर चीखनेचिल्लाने लगती थी, तेज आवाज में लड़ने लगती थी. नेहा तो उस का व्यवहार देख कर उस से डरीडरी रहने लगी. सास से कुछ पूछनेबताने के लिए उसे बड़ी हिम्मत जुटानी पड़ती थी, पता नहीं किस बात पर बखेड़ा खड़ा कर दे.

घर के लोग ही नहीं, बल्कि पड़ोसी भी कामिनी के उग्र स्वभाव से डरते थे और कोई उस को अपने घर नहीं बुलाना चाहता था. नेहा एक उच्चशिक्षित संस्कारी परिवार से आई थी. अपने परिवार में उस ने कभी किसी औरत का तो क्या, किसी पुरुष का भी ऐसा रौद्र रूप नहीं देखा था. सभी बहुत सुल?ो हुए लोग थे. कोई किसी से तेज आवाज में बात नहीं करता था और सब के मन में एकदूसरे के प्रति प्यार और इज्जत थी. लेकिन ससुराल का वातावरण बिलकुल विपरीत था. एक औरत की वजह से पूरा घर जंग का मैदान बना रहता था. मध्यम और मीठी आवाज में बात करने वाली नेहा को जल्दी ही अपनी ससुराल जंगलियों की खोह नजर आने लगी. उस ने काफी कोशिश की कि किसी तरह अपनी सास के दिल में अपने लिए प्रेम पैदा कर सके. औफिस से लौटते वक्त अकसर वह कोई न कोई छोटामोटा गिफ्ट या उस की पसंद की खाने की कोई चीज ले आती थी.

मार्केट जाती तो उस को तैयार कर के अपने साथ ले जाती और उस की पसंद की चीजें खरीदती ताकि वह खुश रहे. खाली वक्त में उस से बातें करती या उस की किसी रैसिपी की तारीफ कर के उसे सिखाने के लिए कहती. मगर नेहा की इन तमाम कोशिशों का प्रभाव, बस, थोड़े समय के लिए रहता था. दोएक दिन बाद कामिनी का व्यवहार फिर गुस्सैल हो जाता था. सालभर सास के तीखे बोल सहने के बाद एक दिन तंग आ कर नेहा ने सारी बातें अपने बड़े भाई अंकुर को फोन पर कह डालीं. अंकुर डाक्टर थे, छूटते ही बोले, ‘‘आंटी का ब्लडप्रैशर चैक करवाओ. मु?ो तो हाइपरटैंशन का मामला लग रहा है.

यह हालत उस के हार्ट और ब्रेन के लिए ठीक नहीं है. खाने में घी, नमक और मसाले की मात्रा कम कर दो.’’ नेहा ने अपने पति नितिन से बात की. अपने भाई अंकुर से भी पति की बात करवाई. अंकुर ने कहा, ‘‘इस से पहले कि बहुत देर हो जाए, अपनी मम्मी का चैकअप करवा लो. नितिन को बात सम?ा में आ गई पर अब सब से बड़ी प्रौब्लम यह थी कि मम्मी को डाक्टर के पास क्या कह कर ले जाया जाए? अगर वह मां से कहता कि चलो बीपी चैक करवा लो तो वह न सिर्फ मना कर देती बल्कि डांट लगा कर कहती- तुम लोगों ने मु?ो पागल सम?ा रखा है? मैं तुम लोगों को बीमार नजर आती हूं? ऐसे में नेहा ने एक रास्ता निकाला.

नेहा ने अपने चैकअप का बहाना बनाया और दूसरे दिन बहाने से सास को ले कर डाक्टर के पास पहुंच गई. नितिन ने पहले ही डाक्टर को सारी स्थिति और मां का व्यवहार सम?ा दिया था. डाक्टर ने पहले नेहा का बीपी चैक किया और फिर बोला, ‘‘आइए माताजी, आप भी चैक करवा लीजिए.’’ डाक्टर ने बैंड नेहा के हाथ से उतार कर उस की सास के हाथ पर बांध दिया. कामिनी का बीपी 200/120 निकला. डाक्टर ने हैरानी से कहा, ‘‘यह तो बहुत ज्यादा है.

आप का बीपी क्या हमेशा इतना ज्यादा रहता है?’’ कामिनी देवी बोलीं, ‘‘पता नहीं, कभी चैक नहीं कराया.’’ डाक्टर ने पूछा, ‘‘सिरदर्द रहता है? बेचैनी रहती है? चिड़चिड़ाहट होती है? गुस्सा आता है?’’ नेहा की सास ने हर सवाल का जवाब ‘हां’ में दिया तो डाक्टर ने उन्हें सम?ाया, ‘‘आप को ब्लडप्रैशर की बहुत गंभीर शिकायत है. अगर आप ने इस को कंट्रोल नहीं किया तो आगे जा कर आप को हार्टअटैक या ब्रेन स्ट्रोक हो सकता है. कुछ दवाएं दे रहा हूं. इन को नियमित खाइए. भोजन में नमक बहुत कम और कुछ दिनों के लिए तलाभुना खाना बिलकुल बंद कर दीजिए. हो सके तो उबला हुआ खाना खाइए.’’ डाक्टर की बातें सुन कर नेहा की सास डर गई. उस दिन के बाद उन्होंने अपना खानपान बदल दिया.

नियमित दवाएं, सादा खाना और डाक्टर के परामर्श से सुबह की सैर आरंभ कर दी. नेहा ने इस सब में उस की मदद की. एक महीने के अंदर ही कामिनी के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ गया. अब वह सब के ऊपर ?ाल्लाती नहीं थी. डांटफटकार, लड़ाई?ागड़ा बहुत कम हो गया बल्कि अब तो वह सब के साथ बैठ कर टीवी भी देखती और हंसीठिठोली भी कर लेती थी. सालों से जो परिवार यह सम?ाता था कि इस गुस्सैल औरत से तो बात करना ही बेकार है, यह अपनी आदत नहीं बदल सकती, किसी की भावनाएं नहीं सम?ा सकती, हर बात पर काट खाने को दौड़ती हैं, वह परिवार अब सम?ा रहा था कि कामिनी वास्तव में बीमारी की जकड़ में थी जो अंदर ही अंदर उस को खाए जा रही थी. गुस्सा आना इंसानी स्वभाव का हिस्सा है. हम में से हर किसी को कभी न कभी, किसी न किसी बात पर गुस्सा आता ही है पर वह क्षणिक होता है. लेकिन जब गुस्सा स्वभाव ही बन जाए तो सचेत हो जाना चाहिए.

ऐसा व्यक्ति किसी गंभीर बीमारी की चपेट में हो सकता है. कुछ लोगों के संस्कार अच्छे नहीं होते या वे बचपन में अपने मातापिता को ?ागड़ते देख बड़े होते हैं तो उन के स्वभाव में भी गुस्सा अपना स्थान बना लेता है. कई बार हम जो लक्ष्य जीवन में ले कर चलते हैं उन को प्राप्त नहीं कर पाते तो हमें खुद पर गुस्सा आता है और फ्रस्ट्रेशन बढ़ने पर हम अपना गुस्सा दूसरों पर निकालने लगते हैं. ऐसा गुस्सा रिश्तों में दरार डालता है. पतिपत्नी के बीच खटास पैदा कर देता है. बच्चों से दूरियां बढ़ा देता है. दोस्तों से ताल्लुकात खत्म कर देता है. साल 2022 में बीबीसी ने दुनियाभर में बढ़ रही गुस्सैल प्रवृत्ति पर एक विश्लेषण किया, जिस में उस ने पाया कि 2012 से पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं उदासी और चिंता महसूस कर रही हैं, हालांकि दोनों में यह चिंता ऊपर की ओर बढ़ रही है.

2012 में महिलापुरुषों में समान स्तरों पर क्रोध और तनाव था पर 9 साल बाद महिलाएं अधिक गुस्सैल हो गई हैं जिस का अंतर अब 6 प्रतिशत का हो चला है. इस सर्वे में हर साल 150 से अधिक देशों के 1,20,000 से अधिक लोगों को औब्जर्व किया गया. गुस्से से निबटना एक चुनौती है, विशेषकर जब वह वैवाहिक जीवन में दरार उत्पन्न करने की वजह बन रहा हो. हमारे समाज में आमतौर पर पति ज्यादा समय घर के बाहर रहते हैं. औफिस के काम में और लोगों से मेलमुलाकात से वे खुद को हलकाफुलका तनावमुक्त रखते हैं मगर पत्नियां अकसर घर की चारदीवारी में बंद रहती हैं. उन के पास अपनी बातें शेयर करने के लिए कोई नहीं होता. घर के कामों और दूसरों की सेवा करतेकरते वे परेशान व तनावग्रस्त हो जाती हैं. लिहाजा, उन का स्वभाव उग्र हो जाता है और फिर अपनी खी?ा वे घर के सदस्यों पर निकालने लगती हैं और इस का सब से पहला शिकार पति बनता है.

पत्नी अगर गुस्सैल है तो भी उस के साथ निभाना तो पड़ता है. इस के लिए जरूरी है कि कुछ खास बातों का खयाल रखा जाए, ताकि उस के साथ निभाना आसान हो जाए और आप के रिश्तों में कटुता भी न आए. जानें कि गुस्सा क्यों है पतिपत्नी का एकदूसरे के स्वभाव को जानना बेहद जरूरी है. पत्नी हर बात पर तो क्रोधित नहीं होती है. जाहिर है बिना वजह कोई नहीं भड़कता है. उन बातों और स्थितियों पर गौर करें और उन का आकलन करें जिन से आप की पत्नी को गुस्सा आता है. अगर उन्हें सम?ा लिया जाए और ऐसी स्थिति उत्पन्न होने से बचा जा सके तो पत्नी के गुस्से से सामना करने से बचा जा सकता है. व्यवहार को चैक करते रहें हो सकता है आप की कुछ ऐसी आदतें और व्यवहार हों जो उसे नापसंद हों. आप के लिए उन आदतों व व्यवहार को बदलना बेशक मुमकिन न हो पर पत्नी के सामने वे काम या बात न करें जिन से उस के अंदर खी?ा पैदा होती हो. गलती मानें गलतियां सब से होती हैं.

आप से भी हुई. मगर आप मानते नहीं तो यह बात उस के गुस्से का कारण हो सकती है. पत्नी चाह रही है कि आप अपनी गलती मान लें तो इस में बुराई ही क्या है? इस तरह उसे भी अच्छा लगेगा और आप को भी उस के क्रोध से जल्दी छुटकारा मिल जाएगा. जब भी गलती हो तो अपने ईगो को एक तरफ रख दें. बात तुरंत संभल जाएगी. उस की बात सुनें कई बार औरतें इस बात से नाराज रहती हैं कि कोई उन की बात सुनने को तैयार नहीं है. इस दुनिया में अनेक महिलाएं इसी वजह से डिप्रैशन में रहती हैं कि उन्हें सुननेसम?ाने वाला कोई नहीं है. जब वह क्रोधित हो तो उस की बात अवश्य सुनें. उस की स्थिति व मानसिक अवस्था को सम?ा कर ही उस के साथ व्यवहार करें. सप्ताह में एक दिन कुछ घंटे सिर्फ उसे दें. उस को घर के कामों से कुछ आराम दें. कहीं घुमाने ले जाएं. सिर्फ सैक्स के लिए ही उस के पास न आएं बल्कि कभीकभी सिर्फ साथ बैठ कर हलकीफुलकी प्यारमोहब्बत की बात करें. उस की ज्यादा सुनें, अपनी कम सुनाएं. शांत होने का समय दें जब आप को लगे कि आप की पत्नी को गुस्सा आ रहा है तो कोई प्रतिक्रिया या उसे चुप कराने की कोशिश करने के बजाय उसे शांत होने का वक्त दें.

बीच में बोलने या उसे बुराभला कहने से बात और बढ़ेगी. हो सकता है आप उस की बात न सुनते हों, इसलिए उसे अधिक गुस्सा आता हो. वह जो भी कहना चाहती है, अगर आप उसे वह कहने का मौका दें, उस की बातों को ध्यान से सुनें, उस की राय को महत्त्व दें तो हो सकता है उसे क्रोध का सहारा न लेना पड़े. उसे स्पेस दें ताकि उसे अपनी गलतियों का एहसास हो और हो सकता है, वह आप से आ कर सौरी भी कह दे. धैर्य बनाए रखें अपनी गुस्सैल पत्नी के साथ निभाने के लिए आप को धैर्य बनाए रखना होगा. आप को कई बार इस बात की हैरानी भी होगी कि आखिर इतनी छोटी सी बात पर पत्नी को गुस्सा क्यों आया या वह इस तरह से रिऐक्ट क्यों कर रही है? लेकिन ऐसे में उसे रोकने या टोकने का मतलब होगा उस के गुस्से को और बढ़ाना. बेहतर यही होगा कि अपना धैर्य न खोएं. हो सके तो उस के सामने से हट जाएं, दूसरे कमरे में चले जाएं. इस से कम से कम आप की सहनशीलता तो आप का साथ नहीं छोड़ेगी. अगर वह बेहद गुस्से में हो तो अच्छा यही होगा कि आप घर से बाहर चले जाएं.

जब तक आप वापस लौटेंगे, वह शांत हो चुकी होगी. उस के साथ वाक पर जाएं जो महिलाएं नौकरीपेशा हैं तो कई बार औफिस के तनावपूर्ण हालात का लगातार सामना करने से गुस्सा उन के दिमाग पर हावी हो जाता है और वे घर में अपना गुस्सा निकालने लगती हैं. अगर आप की नौकरीपेशा पत्नी को औफिस के किसी व्यक्ति पर गुस्सा आ रहा है तो आप दोनों वाक पर जाएं. उस से पूरी बात सुनें, सम?ों और उसे उस परेशानी से निकलने की सही सलाह दें. आमतौर पर पत्नी को यह बात अच्छी लगती है कि उस का पति उसे सपोर्ट कर रहा है. अगर आप की पत्नी किसी मुद्दे पर गलत भी हो तो गुस्से के वक्त उस की आंखें खोलने का या बहस करने का प्रयास न करें, बल्कि सही वक्त का इंतजार करें.

अगर उसे लगता है कि उस का पति उसे सपोर्ट कर रहा है तो उसे बहुत तसल्ली होगी और उस के हार्मोन भी संतुलित होंगे, जिस से उसे अपने क्रोध पर नियंत्रण पाने में मदद मिलेगी. हो सकता है उसे अपनी गलती का भी एहसास हो जाए और वह औफिस में नरम पड़ जाए. इमोशनली स्ट्रौंग बनें इस के लिए आप का भावनात्मक रूप से मजबूत होना आवश्यक है. अगर आप ऐसा कर पाते हैं तो उसे एहसास दिला सकते हैं कि उस का क्रोधित होना सिवा ऊर्जा को जाया करने के और कुछ नहीं है. लेकिन अगर वह आप को भी गुस्सा दिलाने में कामयाब हो जाती है तो इस का सीधा सा अर्थ है कि उस का आप के इमोशंस पर कंट्रोल है

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