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नीतू ने खुद उजाड़ा अपना घर

वह 30 अगस्त, 2022 का दिन था. उस समय सुबह के 8 बज रहे थे. हरिद्वार जिले के रुड़की शहर की
कोतवाली गंगनहर के कोतवाल ऐश्वर्य पाल उस समय अपने क्वार्टर में ही थे. उस वक्त वह कोतवाली आने के लिए तैयार हो रहे थे.जैसे ही ऐश्वर्य पाल बाथरूम से नहा कर निकले तो उन्हें अपने क्वार्टर का दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनाई दी. ऐश्वर्य पाल जोर से बोले, ‘‘कौन है?’’

तभी गेट की दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘सर, मैं थाने का मुंशी संतोष हूं.’’इस के बाद ऐश्वर्य पाल ने मकान का दरवाजा खोलते हुए संतोष से पूछा, ‘‘सब कुछ ठीक तो है?’’‘‘नहीं सर, काफी देर से कंट्रोलरूम से वायरलैस पर एक मैसेज लगातार आ रहा है. मैसेज में बताया जा रहा है कि अपने थाना क्षेत्र सालियर मंगलौर बाइपास पर सड़क के किनारे एक युवक की गरदन कटी लाश पड़ी है. सर, क्षेत्र में लाश के मिलने का मामला थोड़ा गंभीर है,’’ संतोष बोला‘‘ठीक है संतोष, तुम कोतवाली में फोर्स को तैयार करो. मैं 5 मिनट में वरदी पहन कर आता हूं.’’ ऐश्वर्य पाल बोले.

इस के बाद संतोष चला गया.मामला चूंकि हत्या का था, इसलिए कोतवाल ऐश्वर्य पाल ने लाश मिलने की सूचना तत्काल सीओ विवेक कुमार व एसपी (देहात) प्रमेंद्र डोभाल को मोबाइल द्वारा दी और खुद तैयार हो कर कोतवाली पहुंच गए.इस के बाद कोतवाल अपने साथ एसएसआई धर्मेंद्र राठी, एसआई पुनीत दसौनी, विक्रम बिष्ट, महिला थानेदार अंशु चौधरी तथा सिपाही इसरार व भूपेंद्र को ले कर घटनास्थल की ओर चल पड़े.घटनास्थल कोतवाली से महज 8 किलोमीटर दूर था, अत: पुलिस टीम 10 मिनट में ही मौके पर पहुंच गई.

कोतवाल ऐश्वर्य पाल ने देखा कि मौके पर काफी भीड़ थी तथा वहां पर आसपास के गांव वालों की भीड़ युवक की लाश को घेर कर खड़ी थी. वहां खड़े लोग इस लाश के बारे में तरहतरह की बातें कर रहे थे. पुलिस को देख कर वहां से लोगों की भीड़ छंटने लगी थी.ऐश्वर्य पाल ने लोगों से पूछताछ करते हुए पहले मृतक की पहचान कराने का प्रयास किया. लेकिन सभी ने पहचानने से मना कर दिया. मृतक की उम्र यही कोई 30-32 साल थी. इस के बाद एसएसआई धर्मेंद्र राठी ने मृतक की जेब में रखे कागजों को चैक किया. उस में एक आधार कार्ड मिल गया.

वह आधार कार्ड सतवीर पुत्र कुलवीर निवासी शिव मंदिर के पास एक्कड़ कलां थाना पथरी, हरिद्वार के नाम से था.पुलिस ने आधार कार्ड पर प्रिंट फोटो का जब मृतक के चेहरे से मिलान किया तो पाया कि वह आधार कार्ड मृतक का ही था. इस के बाद पुलिस ने मृतक के घर वालों को थाना पथरी के माध्यम से सूचना भिजवाई.

अभी पुलिस मौके का निरीक्षण ही कर रही थी, तभी वहां सीओ विवेक कुमार, एसपी (देहात) प्रमेंद्र डोभाल तथा क्राइम इनवैस्टीगेशन यूनिट के प्रभारी जहांगीर अली भी पहुंच गए.पहले इन अधिकारियों ने मृतक सतवीर के शव का बारीकी से निरीक्षण किया. मृतक के गले पर धारदारचाकू से रेतने के निशान थे तथा उस के कपड़े खून से तर थे. एसपी (देहात) डोभाल ने लाश का निरीक्षण करने के बाद पोस्टमार्टम के लिए राजकीय अस्पताल रुड़की भेज दी. कोतवाल ऐश्वर्य पाल को कुछ दिशानिर्देश देने के बाद श्री डोभाल और विवेक कुमार वापस लौट गए.

आधे घंटे बाद पुलिस ने सतवीर के शव का पंचनामा भर कर उसे पोस्टमार्टम के लिए राजकीय अस्पताल रुड़की भेज दिया था. दूसरी ओर सीआईयू प्रभारी जहांगीर अली ने आसपास लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज चैक करनी शुरू कर दी.लगभग 2 घंटे तक काफी मशक्कत करने के बाद पुलिस को जानकारी मिली कि जिस जगह पर सतवीर का शव मिला था, वहां रात के समय एक यूपी नंबर की बोलेरो गाड़ी देखी गई थी.

उस गाड़ी की जानकारी हासिल करने के लिए पुलिस ने मुजफ्फरनगर की छपार थाने की पुलिस से संपर्क किया था और बहादराबाद के टोल प्लाजा पर लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज को भी चैक किया. उस फुटेज में बोलेरो गाड़ी में सतवीर अपने 2 दोस्तों के साथ रुड़की की ओर आता हुआ दिखाई दे रहा था. यह फुटेज देखने के बाद पुलिस ने राहत की सांस ली थी.सतवीर की लाश मिलने की सूचना पा कर उस के पिता कुलवीर, मां, बड़ी बहन व भाई दोपहर 12 बजे राजकीय अस्पताल रुड़की पहुंच गए थे और जैसे ही उन्होंने मोर्चरी में सतवीर के गला कटे शव को देखा था तो फफक कर रो पड़े.

सतवीर के घर वालों को बिलखते देख कर वहां खड़े काफी लोगों की आंखों से आंसू छलक पड़े. सतवीर के मां, बाप, बड़ी बहन व भाई का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. उन के रिश्तेदारों ने दुख की इस घड़ी में उन्हें किसी तरह से शांत किया था.इस के बाद कोतवाल ऐश्वर्य पाल ने जब सतवीर के पिता से मामले की जानकारी ली तो उन्होंने बताया कि सतवीर का मुख्य काम एक्कड़ कलां में खेती का था और वह खनन का काम भी करता था.

कुछ समय पहले वह पंजाब में भी खनन का काम कर चुका था. सतवीर अपनी पत्नी नवनीत उर्फ नीतू तथा 2 बेटों के साथ खुशहाल जिंदगी जी रहा था. उस की किसी से कोई दुश्मनी भी नहीं थी.
पिछली शाम को सतवीर घर से पैदल ही निकला था. उस ने घर पर बताया था कि उस के कुछ दोस्त बाहर से आए हैं. हो सकता है कि उसे ट्रैक्टर का सामान लेने के लिए पंजाब जाना पड़े.यह कह कर वह घर से निकला था. इस के बाद आगे की कोई जानकारी नहीं है कि कैसे उस का शव मंगलौर बाईपास पर पड़ा मिला.

पुलिस ने सतवीर के पिता कुलवीर की तहरीर पर सतवीर की हत्या का मुकदमा अज्ञात हत्यारों के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत दर्ज कर लिया और सीआईयू की टीम के साथ जांच शुरू कर दी थी.शाम को सीआईयू ने बहादराबाद टोल प्लाजा की रुड़की रोड की वह फुटेज सतवीर के पिता को दिखाई थी, जिस में सतवीर बोलेरो नंबर यूपी 12 आर 8409 में अपने 2 दोस्तों के साथ जा रहा था.

कुलवीर ने सतवीर के एक दोस्त को पहचान लिया था. वह सतवीर का दूर का रिश्तेदार गुरुसेवक देओल निवासी मदपुरी, जिला बिजनौर था. सतवीर के दूसरे दोस्त को कुलवीर पहचान नहीं सके.गुरुसेवक के बारे में उन्होंने बताया कि वह उन का रिश्तेदार भी है तथा सतवीर की बीवी नवनीत कौर उर्फ नीतू से उस की काफी नजदीकियां भी हैं. सतवीर की गैरमौजूदगी में भी वह घर पर आताजाता रहता है.कुलवीर ने गुरुसेवक के बारे में बताया कि उस का परिवार कनाडा में रहता है तथा गुरुसेवक की खेती की 40 एकड़ जमीन मदपुरी में है.

कुलबीर की इस जानकारी के बाद जब पुलिस ने गुरुसेवक से संपर्क करने का प्रयास किया तो उस का मोबाइल फोन स्विच्ड औफ मिला. इस के बाद पुलिस की एक टीम गुरुसेवक की तलाश में उस के गांव मदपुरी भेजी गई थी.पुलिस टीम गुरुसेवक की सुरागरसी व पतारसी करते हुए बढ़ापुर पहुंची थी. वहां भी गुरुसेवक पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ सका था.इस के बाद पहली सितंबर, 2022 को पुलिस टीम ने मुखबिर की सूचना पर गुरुसेवक व उस के साथी मोनू निवासी गांव हिदायतपुर, बिजनौर को हरिद्वार के निकटवर्ती गांव ऐथल से गिरफ्तार कर लिया था. मोनू वही युवक था, जिसे पुलिस ने टोल प्लाजा पर सतवीर के साथ कार में जाते हुए देखा था.

पुलिस टीम दोनों को ले कर रुड़की आ गई थी. पुलिस ने दोनों से सतवीर की हत्या के बारे में गहन पूछताछ की.गुरुसेवक ने पहले तो पुलिस के सामने सतवीर की हत्या के मामले में खुद को बेकसूर बताया था, मगर जब पुलिस ने गुरुसेवक को उस के द्वारा मोबाइल पर सतवीर की बीवी नीतू से की गई बातों के बारे में पूछा तो वह टूट गया.गुरुसेवक ने मोनू के साथ मिल कर 29 व 30 अगस्त की रात को सतवीर की हत्या करना स्वीकार कर लिया था. गुरुसेवक ने यह भी स्वीकार कर लिया था कि सतवीर से उस की रिश्तेदारी थी. इस के अलावा पिछले 3 सालों से सतवीर की पत्नी नवनीत उर्फ नीतू से अवैध संबंध थे. मेरी और नीतू की योजना काफी समय से सतवीर को रास्ते से हटाने की थी.

गुरुसेवक ने पुलिस को आगे बताया कि सतवीर कुछ दबंग किस्म का आदमी था और अकसर नीतू को परेशान करता रहता था. उस ने बताया कि एक बार उस ने किसी नकाबपोश से सतवीर पर फायरिंग भी करवाई थी, जिस में वह बच गया था. इस की सतवीर ने पुलिस से शिकायत नहीं की थी.
सतवीर की हत्या की योजना बनाने के बाद गुरुसेवक 29 अगस्त, 2022 को अपने दोस्त मोनू के साथ मैं सतवीर के घर पहुंचा था. उसे खनन के कारोबार के लिए उस ने पंजाब जाने की बात कही थी. इस बात पर सतवीर उन के साथ चलने के लिए तैयार हो गया था.

शाम को वे तीनों बोलेरो कार से ऐक्कड कलां से पंजाब के लिए चल पड़े थे. पहले रास्ते में तीनों ने एक ढाबे पर रुक कर शराब पी थी और वहीं खाना भी खाया था.जब सतवीर नशे में धुत हो गया था तो वे तीनों मंगलौर बाईपास की ओर चल पड़े थे. नशे में धुत सतवीर ने उन्हें लघुशंका के लिए गाड़ी रोकने को कहा. जब गाड़ी रुकी तो सतवीर नीचे उतरा.इसी दौरान गुरुसेवक ने अपने पास रखे चाकू से सतवीर का गला रेत दिया. फिर सतवीर को वहीं उसी अवस्था में छोड़ कर वे दोनों बोलेरो से वापस अपने घर चले गए थे.
मोनू ने भी अपने बयान में गुरुसेवक के इन बयानों की पुष्टि की और सतवीर की हत्या में गुरुसेवक का साथ देने की बात बताई. इस के बाद पुलिस ने सतवीर की पत्नी नवनीत कौर उर्फ नीतू को भी गिरफ्तार कर लिया था.

पुलिस की पूछताछ में नीतू ने भी पुलिस के सामने सतवीर की हत्या की योजना में शामिल होने की बात स्वीकार कर ली.

पहली सितंबर, 2022 को एसपी (देहात) प्रमेंद्र डोभाल ने कोतवाली गंगनहर में आयोजित प्रैसवार्ता में सतवीर हत्याकांड का मीडिया के सामने खुलासा कर दिया.श्री डोभाल ने इस हत्याकांड को खोलने वाली पुलिस टीम व सीआईयू की टीम की पीठ थपथपाई और उन्हें 2500 रुपए का नकद पुरस्कार देने की भी घोषणा की.सतवीर की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कारण सांस की नली कटने तथा ज्यादा खून बहना बताया. सतवीर के परिवार में उस के मां, बाप, एक भाई, एक बड़ी बहन तथा पत्नी नीतू सहित 2 बेटे हैं.
अवैध संबंधों के कारण जहां नीतू ने एक ओर अपना हंसताखेलता परिवार बरबाद कर दिया तो दूसरी ओर वह खुद भी इस हत्याकांड में शामिल हो कर सलाखों के पीछे पहुंच गई थी.

कथा लिखे जाने तक आरोपी गुरुसेवक, मोनू तथा नवनीत कौर उर्फ नीतू रुड़की जेल में बंद थे. कोतवाल ऐश्वर्य पाल द्वारा सतवीर हत्याकांड की विवेचना की जा रही थी. ऐश्वर्य पाल शीघ्र ही इस हत्याकांड की विवेचना पूरी कर के तीनों आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट अदालत में भेजने की तैयारी कर रहे थे.

कैसे करें दूर एक्जाम की टैंशन

12वीं क्लास का अमन पढ़नेलिखने में तेज था. उसके मम्मीपापा हमेशा उस से एक्जाम में हाईएस्ट नंबर लाने की आशा रखते थे. परीक्षा नजदीक आतेआते अमन पढ़ाई में इतना समय देने लगा कि वक्त पर न खाना खा पाता और न ही पर्याप्त नींद ले पाता. नतीजा यह हुआ कि एक्जाम के वक्त वह वीमार पड़ गया और परीक्षा में उसे कम मार्क्स मिले.

मार्च का महीना युवाओं के एक्जाम का महीना होता है. सीबीएसई और स्टेट बोर्ड ने एक्जाम की डेट भी घोषित कर दी हैं. एक्जाम का समय करीब आतेआते स्टूडैंट के चेहरों पर टैंशन साफ झलकने लगती है.एक्जाम को लेकर स्टूडैंट के बीच टैंशन और भय का माहौल बन जाता है. जैसेजैसे परीक्षा नजदीक आती है,वे अच्छे रिजल्ट और कोर्स कंप्लीट करने की वजह से चिंता से घिरने लगते हैं.

खासकर कमजोर बच्चे इस दौरान अधिक दबाव महसूस करते हैं. परिवार और शिक्षकों की उम्मीदें भी कई बार बच्चों में तनाव का कारण बन जाती हैं. एक्जाम के दौरान कई युवकयुवतियां डिप्रैशन का शिकार होकर अपना कैरियर भी खराब कर लेते हैं. एक्जाम की तैयारी समय रहते एक प्लानिंग के अनुसार की जाए तो भय व तनाव से बचने के साथ अच्छे मार्क्स लेकर एक्जाम पास कर बेहतर मुकाम हासिल किया जा सकता है.

सालभर तो आप पढ़ाई करते ही हैं पर यदि एक्जाम के समय एक टाइमटेबल तैयार कर सभी सब्जैक्ट की तैयारी की जाए तो परिणाम सुखद होते हैं. आज एक्जाम का ढंग भी तकनीक से अछूता नहीं है. बहुत से विद्यार्थी कम समय में अधिक से अधिक सिलेबस कवर करके एक्जाम की तैयारी कर बेहतर प्रदर्शन कर लेते हैं.

इसके लिए वे संबंधित एक्जाम के पूर्व वर्षों के क्वेश्चन पेपर और मौडल आंसर का सहारा लेते हैं. एक्जाम के दिनों में रेगुलर 8 से 10 घंटे की पढ़ाई के साथ यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रतिदिन थोड़ाथोड़ा सिलेबस सभी सब्जैक्ट का पढ़ा जाए. एक्जाम के दिनों में 6 से 8 घंटे की नींद और भोजन में संतुलित आहार भी उतना ही आवश्यक है. आइए जानते हैं एक्जाम के दिनों में ध्यान रखने वाली उन महत्त्वपूर्ण बातों के बारे में जो आपके लिए उपयोगी साबित हो सकती हैं.

 

ब्लू प्रिंट का ध्यान रखें

आजकल ब्लू प्रिंट के आधार पर एक्जाम पेपर तैयार होने लगे हैं. ब्लू प्रिंट में पहले से ही तय कर दिया जाता है कि किस चैप्टर से कितने मार्क्स के क्वेश्चन पूछे जाएंगे. ब्लू प्रिंट संबधित बोर्ड की वैबसाइट के अलावा बुक स्टोर्स पर मिलने वाले क्वेश्चन बैंक में आसानी से मिल जाता है. ऐसे में ब्लू प्रिंट को ध्यान में रखकर की गई एक्जाम की तैयारी आपको कम समय और परिश्रम में बेहतर मार्क्स दिला सकती है.

जो चैप्टर ज्यादा मार्क्स के हैं उन पर फोकस ज्यादा होना चाहिए. यदि किसी चैप्टर से केवल औब्जेक्टिव टाइप क्वेश्चन ही पूछे जानेहैं तो उस चैप्टर की छोटीछोटी बातों को याद रखा जाए,लौंग आंसर वाले क्वेश्चन पर ध्यान न दिया जाए.इसी तरह पिछले तीनचार सालों के क्वेश्चन पेपर को देखने से यह आइडिया हो जाता है कि अधिकांश क्वेश्चन जो रिपीट होते हैं उनको अच्छी तरह से तैयार किया जाए.

 

मन लगने तक ही पढ़ें

पढ़ाई के दौरान मन की एकाग्रता का होना नितांत आवश्यक है. पुस्तक खोलकर यह एहसास दिलाना कि आप पढ़ रहे हैं, यह तरीका ठीक नहीं है. जब तक आपका पढ़ाई में मन लगे तभी तक पढ़ने बैठें. बोरियत होने पर थोड़ा टहल लें या थोड़ी देर आंखों को बंद करके लेट जाएं. उसके बाद दोबारा पढ़ाई शुरू कर सकते हैं.

टैलीविजन पर कोई मनोरंजक कार्यक्रम देखकर या कुछ समय मोबाइल चलाकर भी रिफ्रैश हो सकते हैं. पढ़ाई में मन न लगने पर कुछ भी पढ़ने की आदत से बचें, क्योंकि आप ऐसा करके  अपना समय बरबाद करने के साथ और अधिक मानसिक थकान के शिकार हो सकते हैं.

पढ़ाई के वक्त आपका दिल और दिमाग भी आपके साथ होना चाहिए. किसी भी सब्जैक्ट की तैयारी के लिए फ्लो चार्ट पैटर्न का उपयोग करते हुए पढ़ते समय महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का चार्ट बनाएं और फिर दोबारा पढ़ने के लिए उसकी पुनरावृत्ति करें. इससे जानकारियां आपके मनमस्तिष्क में स्थाई रूप से फीड हो जाएंगी. बोलबोलकर रटने के बजाय लिखलिखकर समझने की आदत बनाकर किसी भी विषय की पढ़ाई आसान बनाई जा सकती है.

 

आधुनिक तकनीक से नोट्स तैयार करें

किसी विषय विशेष से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के तरीकों को सूचना तकनीक ने बदल कर रख दिया है. जानकारियां प्राप्त करना अब बहुत आसान हो गया है. इंटरनैट ब्राउजर पर गूगल के अलावा विभिन्न प्रकार के सर्च इंजन हैं जिन पर विषयगत जानकारी सर्च की जा सकती है. संबंधित विषय के वीडियो भी यूट्यूब पर मिल जाते हैं जो किसी भी सब्जैक्ट की जानकारी को रोचक एवं सरल तरीके से प्रस्तुत करते हैं.

किसी भी विषय के नोट्स तैयार करने के लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर एक्जाम की तैयारी को आसान बनाया जा सकता है.इसलिए अपनेआपको को थोड़ा तकनीक से जोड़ें और  मैथ्स के फार्मूले,कैमिस्ट्री व बायोलौजी में सबसे मुश्किल पार्ट किसी रसायन या किसी जीव का वैज्ञानिक नाम याद रखने के लिए उसके नाम का पहला अक्षर और लास्ट अक्षर को ध्यान में रखकर स्थानीय भाषा का कोई शौर्टकट दिमाग में बना लें जिस से याद करने में आसानी हो. नोट्स बनाते समय पुस्तक में लिखे विस्तारपूर्वक तरीके के बजाय अपनी भाषा में उसके संक्षिप्त रूप में पौइंट्स तैयार करें.

 

नकल से रहें दूर

वर्तमान दौर में एक्जाम में सफल होने के लिए परीक्षार्थियों द्वारा नकल के नएनए तरीके ईजाद किए जा रहे हैं. परीक्षार्थी रातरातभर जागकर पढ़ने के बजाय नकल की परचियां तैयार करने में अपना समय नष्ट कर देते हैं. नकल की बढ़ती प्रवृत्ति आपको किसी एक्जाम में पास तो करा सकती है पर आपको वास्तविक योग्यता नहीं दिला सकती.

नकल करके स्कूलकालेज के एक्जाम में पास तो हो सकते हैं पर सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरियों के लिए होने वाले कंपीटिशन एक्जाम में हम योग्य लड़कों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते. कई बार नकल करते पाए जाने पर अपना कैरियर भी खराब होने का खतरा बना रहता है.सो, नकल के बजाय अक्ल का इस्तेमाल कर बेहतर ढंग से पढ़ाई कर एक्जाम में सफल होने की कोशिश करें.

 

एक्जाम के समय ये बातें रखें याद 

  • 2 माह पूर्व से परीक्षा की तैयारी आरंभ करेंतो परीक्षा के समय हड़बड़ी और तनाव से बच सकते हैं.
  • केवल मौडल टैस्टपेपर से तैयारी के बजाय संपूर्ण पाठ्यक्रम का रिवीजन करके परीक्षा की तैयारी करें.
  • रिवीजन हेतु टाइमटेबल बनाएं. यह रिवीजन परीक्षा तिथि के कम से कम एक सप्ताह पूर्व हो जाना चाहिए.
  • यदि आपको कोई विषयवस्तु समझ में नहीं आ रही है तो उस पर अपने सहपाठी मित्रों या अपने अध्यापकों से चर्चा अवश्य करें.
  • परीक्षा के समय पूरी नींद व हलका खाना दोनों ही परीक्षा देने हेतु अति आवश्यक हैं. परीक्षा पूर्ण तरोताजगी से एवं तनावरहित होकर देनी चाहिए.
  • सकारात्मक सोच रखने वाले दोस्तों से परीक्षा के समय विषय से जुड़े प्रश्नों पर चर्चा करें. परीक्षा को बोझ समझने वाले मि़त्रों से दूरी बनाने में ही समझदारी है.
  • एक्जाम देते समय उत्तरपुस्तिका में आवश्यक प्रविष्टियां कर प्रश्नपत्र को आराम से पूरा पढें. आसान प्रश्न से शुरू करें. पहले वे ही प्रश्न करें जो आप को अच्छी तरह से आते हों. समयसीमा का ध्यान रखें, स्पष्ट एवं स्वच्छ लिखें.
  • प्रश्न को उतरपुस्तिका में न लिखें, केवल प्रश्न नंबर लिखकर प्रश्न वाली लाइन खाली छोड़ दें और अगली ही लाइन से उत्तर लिखना शुरू करें. चित्र स्पष्ट बनाएं. संगत बातें ही लिखें. शब्दमा का ध्यान रखें. इधरउधर देखने में समय न गवाएं.
  • कठिन प्रश्न को छोड़ने के बजाय उसको हल करने का प्रयास करें. उस प्रश्न से संबधित जो भी बातें आपको ज्ञात हों, उत्तर के रूप में उन्हें जरूर लिखें.
  • आज दिए गए प्रश्नपत्र के उत्तरों के सहीगलत होने एवं मित्रों से उस विषय पर वार्त्तालाप में अधिक समय नष्ट न करें. दूसरे विषय के प्रश्नपत्र की तैयारी पर अपना ध्यान केंद्रित करें.
  • याद रखें जीवन में लक्ष्य प्राप्ति हेतु बहुत कठिन परिश्रम और समर्पण की आवश्यकता है. सफलता हेतु जीवन में सुखसुविधाओं को भी त्यागना पड़ता है.

 

एक्जाम के दौरान इन बातों का खयाल रखकर आप टैंशन से बच सकते हैं और एक्जाम में अच्छे मार्क्सहासिल कर आसानी से पास हो सकते हैं.

पेरैंट्स से दूरी नहीं बढ़ाएं नजदीकियां

पेरैंट्स अपने बच्चों का बुरा नहीं चाहते, सभी अपने बच्चों का बेहतर भविष्य बनते देखना चाहते हैं. हो सकता है समझनेसमझाने के तरीकों में अंतर हो, पर सभी मातापिता बच्चे की खुशी चाहते हैं. अब तय यह करना है कि पेरैंट्स से बढ़ रही दूरी को नजदीकियों में कैसे तबदील करें.

इतना सबकुछ सोचने के बाद मूड हलका हो गया है कि क्यों हम लोग कभीकभी कितनी छोटीछोटी बातों को जरूरत से ज्यादा गंभीरता से ले लेते हैं और जाने क्याक्या ऊटपटांग सोच डालते हैं. अब वक्त है कि हमें भी रिश्तों को समझना चाहिए जो हमारी जिंदगी की धुरी है. पेरैंट्स क्या नहीं करते हम बच्चों के लिए और हम हैं कि जरा सी बात पर उन्हें दुश्मन समझने लगते हैं.

जितनी आजादी और सहूलियतें हमें मिली हैं उतनी उन्हें नहीं मिलीं, इसलिए उन की हर मुमकिन कोशिश रहती है कि हमारे बच्चे को वह सब मिले जिस के लिए वे तरस जाते थे, फिर चाहे वह एजुकेशन हो, आजादी हो या कि पैसा हो.

कई बार तो लगता है कि पेरैंट्स को दकियानूसी कहना अपना उल्लू सीधा करने का बहाना और हथियार हो चला है. वे हमें समझें, यह जिद पालने से पहले हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि हम उन्हें कितना समझ पा रहे हैं.

दरअसल, आज सुबहसुबह ही फिर पापा से पंगा हो गया. हमेशा की तरह यह उन की नजर में मेरी गलती है. क्या दोस्तों के साथ पार्टी के लिए पैसे मांगना कोई गलत बात थी, जो सुबहसुबह ही वे चटक कर बोले, ‘‘तुम्हें कुछ और सूझता भी है सिवा फालतू कामों के लिए पैसे मांगने और मोबाइल पर चैटिंग करते रहने व गेम खेलते रहने के, और फिर एक हजार रुपए… यह तो हद है फुजूलखर्ची और पैसों की बरबादी की.’

लैक्चर यहीं खत्म नहीं हुआ. एक लंबी सांस ले कर बोले, ‘‘जिस दिन कमाने लगोगे, उस दिन समझ आएगी पैसों की कीमत. पढ़ाईलिखाई करना नहीं और हर कभी पैसों के लिए मुंह फाड़ना. जाने कब आप में अक्ल आएगी, क्या करोगे जिंदगी में. मैं तो समझासमझा कर हार गया.’

अब कहनेसुनने को कुछ नहीं बचा था क्योंकि वे तुम से आप पर आ गए थे.

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इस में गलत क्या है. बात तो जरा सी है. सारे दोस्त मौजमस्ती का प्लान पहले ही बना चुके थे और सभी के पेरैंट्स ने उन्हें पैसे भी दे दिए थे. किसी ने भी इन की तरह प्रवचन नहीं सुनाए होंगे. पैसे नहीं देना है तो न दें. वेबजह मूड खराब करने में इन्हें जाने कौन सा सुख मिलता है. बातबात में कहते हैं, कहते क्या हैं ताने मारते हैं कि ‘अब तुम 18 में चल रहे हो, अपनी जिम्मेदारियां समझो और मैं कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं बल्कि वैलविशर हूं.’

बढ़ती उम्र गुनाह तो नहीं

18 का होना कोई गुनाह तो नहीं पर पापा जाने क्यों समझते ही नहीं कि मेरी भी अपनी अलग कोई पर्सनैलिटी है. आइडैंटिटी है. इच्छाएं और जरूरतें हैं. ऐसा हर कभी होता है तो उन से डर लगने लगता है और उन के पास बैठने का भी मन नहीं करता. हालांकि, फिर मेरा उतरा चेहरा देख वे खुद ही बुलातेपुचकारते हैं और भरे गले से बोलते हुए भींच लेते हैं.

शायद उन्हें गिल्ट महसूस होता है, इसलिए हर बार डांटने के बाद सीने से लगा लेते हैं. बालों में हाथ फेरते, गीलेगीले किस देते हैं और इमोशनल हो कर कहते हैं, ‘तेरे लिए ही तो है यह सब. मुझे सिर पर रख कर ले थोड़े जाना है. हम तो अपनी जिंदगी जी चुके, पर चाहते हैं कि तुम जिंदगी में कुछ बनो, इसलिए समझाते रहते हैं. आगे तुम जानो.’

मुझे लगता है कि इस तरह की गरमागरमी मुझे पापा से दूर ले जा रही है. 2-3 साल पहले तक तो ऐसा कुछ नहीं होता था पर अब हर कभी होने लगा है. लेकिन जब पापा प्यार से जकड़ लेते हैं तो रोना मुझे भी यह सोचते आने लगता है कि सही तो कह रहे हैं पर जाने क्यों मेरी फीलिंग्स को समझने की कोशिश वे नहीं करते. मैं क्या इन बातों को समझता नहीं कि मेरे लिए अच्छा क्या है, बुरा क्या. वे मुझे क्यों हर वक्त अपने कंट्रोल में रखना चाहते हैं. मैं क्या कोई टौमी या मोती हूं.

गले लगा कर जब वे दोस्तों और बड़ों जैसे बात करते हैं तो सचमुच में लगता है कि वे ही मेरे वैलविशर हैं. मुझे चाहते हैं. मेरा भला चाहते हैं. फिर मैं भी उन से चिपट जाता हूं. उन की कमर पर झूल जाता हूं. लेकिन फिर दोचार दिनों बाद कोई स्कैम ऐसा हो जाता है कि वे फिर से मुझे अजनबी और पराए से लगने लगते हैं.

तो क्या इस प्रौब्लम का कोई सोल्यूशन नहीं? नहीं होगा जरूर, क्योंकि यह भी तो पापा ने ही सिखाया है और कई बार साबित कर के भी दिखाया है कि कोई भी समस्या बाद में आती है, समाधान उस का पहले आ चुका होता है. जरूरत बस, बारीकी से उसे पकड़ने व समझने की है.

मैं ही कुछ करूंगा

पापा हमेशा मेरे नजदीक रहें, इस के लिए मैं क्या करूं. क्या उन के हिसाब से जीना शुरू कर दूं जो कि इंपौसिबल है या वे मेरे हिसाब से जीने लगें जो महा इंपौसिबल है. हां, एक रास्ता है कि दोनों एकदूसरे के हिसाब से ज्यादा नहीं तो थोड़ाथोड़ा ही, जीना और रहना सीख लें. यह जरूर पौसिबल है.

ऐसे मौकों पर जब वे दूर लगते हैं तब मेरा मन भी तो करता है कि क्या ऐसा करूं जिस से वे मुझे हमेशा के लिए नजदीक लगने लगें. अब कैसे उन्हें बताऊं कि मैं उन्हें उस से ज्यादा कहीं चाहता हूं जितना वे मुझे चाहने का दावा करते हैं. वे मेरे रोल मौडल हैं. लेकिन जब गुस्से में कभीकभी वे यह कहते हैं कि आप ने तो मुझे सिर्फ फाइनैंसर समझ रखा है तो मैं भी चटक जाता हूं.

खैर, अब मैं ही कुछ करूंगा और मम्मी के जरिए बात करूंगा या फिर एक लैटर में अपने दिल की सारी बातें लिख कर उन्हें दे दूंगा या फिर व्हाट्सऐप पर मैसेज कर दिया करूंगा. फादर्स डे पर जब मैं ने उन्हें मैसेज में आई लव यू माई हीरो लिखा था तो कैसे दौड़ कर मेरे पास आए थे और मुझे भींच कर बोले थे, ‘चल पुत्तर, आज तुझे तेरी पसंद की ब्लैक करैंट आइसक्रीम खिलाता हूं. बुला मम्मी को, मैं गाड़ी निकालता हूं.’

अभी उन के जाने के बाद मैं झल्लाया बैठा था कि कुछ देर बाद मम्मी आ कर बोलीं, ‘लो, ये हजार रुपए, तेरे पापा का फोन आया था कि लड़के को दे दो. आज वह दोस्तों के साथ पार्टी पर जाने को कह रहा था. यह कोई नई बात नहीं थी. वे अकसर ऐसा ही करते हैं. पहले झाड़ पिलाते हैं, फिर लाड़ दिखाते हैं. मम्मी ही तो बताती हैं कि बचपन में मैं जब बीमार पड़ता था तो पापा अपना कामधाम भूल कर मेरे पास बैठे रहते थे और विश्वास न होते हुए भी कुदरत से मेरे ठीक हो जाने की प्रार्थना किया करते थे. जब मेरे लिए इतना सबकुछ कर सकते हैं तो थोड़ाबहुत मैं क्यों नहीं कर सकता.

मेरे हीरो मेरे पापा

मैं क्या करूं, यह बात जब मम्मी से पूछी तो वे हंस कर बोलीं, ‘अबे गधे, तुझे कुछ नहीं करना, सिवा इस के कि पापा के साथ रोज एकाध घंटा बिता. उन की बातें ध्यान से सुन, उन से उन की कुछ पूछ, कुछ उन्हें अपनी बता. मोबाइल और लैपटौप का इस्तेमाल कम से कम कर, इस से नुकसान बहुत हैं, थोड़ाबहुत गेम खेल, फ्रैंड्स से चैट भी कर लेकिन अच्छी किताबें और मैगजीन भी पढ़, जिस से तेरे ज्ञानचक्षु खुलें. जब तू छोटा था तब तेरे लिए हर 15 दिन में ‘चंपक’ मंगाते थे और तब तू चाव से पढ़ता भी था. लेकिन मोबाइल हाथ में आने के बाद तो तू मैगजीन और न्यूजपेपर देखता भी नहीं.

‘मैं और तेरे पापा तुझे बहुत चाहते हैं. इसलिए कभीकभार डांट भी देते हैं. फिर पापा की तो तू जान है जो कभीकभी तो तेरे पीछे मुझ से भी झगड़ बैठते हैं. कहते हैं कि लड़के को लाइफ एंजौय करने दो. हम ने तो स्ट्रगल में जिंदगी निकाल दी. हमारा बेटा क्यों किसी चीज के लिए तरसे और फिर बच्चा ही तो है अभी, धीरेधीरे समझ जाएगा सब.’

बात में दम है. अब मुझे ही समझना होगा. इसलिए मैं ने उन्हें तुरंत मैसेज कर दिया, ‘थैंक यू एंड लव यू माई हीरो.’

प्रीति: हाकी की नई जादूगर 

देश की महिला जूनियर हाकी टीम के एशिया कप 2023 चैंपियन बनने के बाद कप्तान प्रीति आज खबरों में आ गई है. प्रीति के खेल प्रदर्शन से यह माना जा रहा है कि भविष्य की हॉकी के जादूगर प्रीति ही है. भारतीयों का प्रेम हॉकी के प्रति आकर्षण असंदिग्ध माना जाता है. भले ही क्रिकेट लंबे समय से लोकप्रियता की सीमाओं को पार कर चुका है मगर एक समय था जब हाकी का जुनून भारतीयों में देखने लायक था.

एशिया कप में भारत ने जापान में खेले गए टूर्नामेंट के फाइनल में एक दो नहीं चार दफा के चैंपियन दक्षिण कोरिया को 2-1 से हराकर पहली बार इस खिताब को अपने नाम किया है ऐसे में इस टीम की कप्तान प्रीति की सफलता पर देश स्वाभाविक रूप से गर्व कर रहा है और हाकी प्रेमी प्रीति उनकी और बड़ी आशाओं के साथ देख रहे हैं . यहां सच बताना भी अपरिहार्य है कि प्रीति के लिए यह सफर आसान नहीं था.

प्रीति के मुताबिक, कई दफा ऐसा हुआ कि उसके पास डाइट के पैसे भी नहीं होते थे. लेकिन उसने खेलना नहीं छोड़ा. सोनीपत के भगत सिंह कालोनी की रहने वाली प्रीति के पिता शमशेर राजमिस्त्री और मजदूरी का काम करते हैं. मां  सुदेश  खेतों में मजदूरी करती रही . सोनीपत के गरीब परिवार में पली बढ़ी प्रीति अपने संघर्ष से दूसरों के लिए प्रेरणा बनी है. प्रीति के परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण भी प्रीति ने कभी हार नहीं मानी. महज 10 साल की उम्र में ही प्रीति ने खेलना शुरू किया. उसके पिता ने मजदूरी कर प्रीति को इस मुकाम तक पहुंचाया है. प्रीति का सपना अब बेहतर प्रदर्शन करते हुए सीनियर टीम में जाकर ओलंपिक खेलना है.

प्रीति के पिता का कहना है कि वह लंबे समय से राजमिस्त्री का काम कर रहे हैं. बेटी की डाइट पूरी करने के लिए उन्होंने मजदूरी भी की है. उन्होंने रात रात भर काम किया है.उन्होंने बताया कि वो नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी खेलने के लिए बाहर जाए, लेकिन प्रीति छुप छुप कर  बाहर खलने जाती थी. वह आकर ही बताती थी कि वह ग्राउंड पर खेलने के लिए गई थी.

प्रीति की कोच प्रीतम सिवाच का कहना है कि हमारे ग्राउंड की बेटियां जब अच्छा खेलते हुए टीम में सेलेक्ट होती हैं, तू मुझे हार्दिक प्रसन्नता होती है. प्रीति ने बड़े संकोच के साथ जब खेलने की अनुमति मांगी तो वहां प्रशिक्षक प्रीतम सिवाच ने हाकी खेलने के बारे में पूछा तो तत्काल स्वीकृति दे दी थी उसने प्रीतम सिवाच को घर की परिस्थितियां बताई तो उन्होंने कहा कि आप मेहनत करो, बाकी सब मुझ पर छोड़ दो. प्रीति कहती हैं, आज मैं जिस मुकाम पर खड़ी हूं, उसमें मेरे परिजनों के साथ ही प्रीतम सिवाच का अहम योगदान है.

वर्ष 2015 में खेलते हुए प्रीति के टखने में चोट लग गई , हड्डी टूटने के कारण पैर पर प्लास्टर चढ़ा दिया गया.जिस कारण करीब दो साल तक खेल से दूर रही. प्रीति को एक बार तो लगने लगा था कि अब कभी हाकी नहीं खेल पाऊंगी, लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ी. ठीक होने के बाद फिर अभ्यास शुरू किया.साल 2018 में भोपाल में जूनियर राष्ट्रीय प्रतियोगिता खेलने लगी. वहां से राष्ट्रीय शिविर के लिए चयन हुआ.  प्रीति बताती हैं कि मार्च 2021 में उन्हें रेलवे में नौकरी मिल गई , उसके बाद घर के हालात ठीक हुए. अब एक ही संकल्प है कि देश के लिए ओलंपिक में खेलना है और सफलता के खुशखबरी लानी है.‌

मैं जब भी खाना खाती हूं खाना मुंह में आ जाता है और मुंह जहर की तरह कड़वा हो जाता है ,बताएं क्या करूं?

सवाल
मैं 32 साल की स्त्री हूं. पिछले 2-3 साल से जब भी खाना खाती हूं कुछ मिनट बाद खाना मुंह में आ जाता है और मुंह जहर की तरह कड़वा हो जाता है. मुंह और खाने की नली में खट्टास भर जाती है.  बताएं क्या करूं?     

जवाब
आप की समस्या गैस्ट्रोइसोफेजिअल रिफ्लक्स की है. यह विकार हार्टबर्न के नाम से भी जाना जाता है. हमारी खाने की नली और आमाशय के बीच 1 एकतरफा खुलने वाला कुदरती वाल्व लगा होता है. यह वाल्व खाने को आगे आमाशय की ओर तो जाने देता है, लेकिन आमाशय में आ चुके भोजन को खाने की नली में नहीं लौटने देता. कुछ लोगों में यह वाल्व कमजोर पड़ जाता है और ठीक से काम नहीं करता. ऐसे में आमाशय में आया भोजन और आमाशय में पाचन के लिए बिना हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड पलट कर खाने की नली में जाने लगता है. खाने की नली की अंदरूनी सतह हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड के तीव्र ऐसिडिक गुण को सह नहीं पाती. नतीजतन कलेजे में अगन लगने लगती है, मुंह में खट्टा खारा पानी भर आता है.

भोजन में जरूरत से ज्यादा मिर्चमसाले, बदपरहेजी, 5-6 प्याले चायकौफी किसी स्वस्थ व्यक्ति के कलेजे में भी गैस्ट्रोइसोफेजिअल रिफ्लक्स उपजा कर जलन उत्पन्न कर सकती है.

हार्टबर्न का खानपान से गहरा संबंध है. तली चीजें, अधिक घी, चरबी वाले व्यंजन, टमाटर, प्याज, लालमिर्च, कालीमिर्च, संतरा, मौसमी, चौकलेट आदि खाने की नली पर लगे वाल्व की ताकत घटाते हैं, इसलिए इन से परहेज अच्छा है. इसी प्रकार चायकौफी और कोल्ड ड्रिंक्स भी कम से कम लेने में भलाई है. सिगरेटबीड़ी, खैनी, तंबाकू, पानमसाले से जितना दूर रहें उतना ही अच्छा है.

भोजन करने के बाद अगले 2-3 घंटों तक न तो लेटें और न ही झुकें. या तो सीधे बैठें या टहल सकें तो टहल लें. लेटने और झुकने से गुरुत्वीय प्रभाव के कारण भोजन आमाशय से खाने की नली में लौटने की प्रवृत्ति रखता है. देर रात में भोजन करने और भोजन करते ही सो जाने से रात भर परेशानी हो सकती है. इस के अलावा भरपेट भोजन करने के बजाय एक समय पर थोड़ाथोड़ा खाने की आदत बनाएं. पेटू होने से वजन तो बढ़ता ही है, चाह कर भी आमाशय अपने भीतर भोजन नहीं संभाल पाता.

सदा ढीले व आरामदेह वस्त्र पहनें. तंग कसी हुई पैंट या जींस फैशनेबल दिख सकती है, पर पेट की सेहत के लिए ठीक नहीं. पेट के अधिक कसने पर खाने की नली का वाल्व ठीक से काम नहीं कर पाता.

हर आधेआधे घंटे पर पानी पीते रहें. पानी पीने से खाने की नली धुलती रहेगी और हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड उस पर बुरा असर नहीं डाल सकेगा.

सोते समय पलंग का सिरहाना 6 इंच ऊपर उठा कर रखें. इस के लिए सिरहाने पर ईंट लगा लें. अपने वजन पर अंकुश रखें. पेट पर चरबी जमने से डायफ्राम पेशी छितरा जाती है और पेट उचक कर छाती में बैठ सकता है. ऐसे में भोजन के पलट कर खाने की नली में जाने पर पूरी रोकटोक ही हट जाती है.

पेंटाप्राजोल, लैंसोप्राजोल या ओमेप्राजोल जैसी अम्लरोधी दवाएं लेने से लाभ पहुंचता है. इन में से कोई भी एक दवा सुबह उठते ही खाली पेट लेना अच्छा है. जरूरत पड़ने पर डाइजीन, म्यूकेन, जेल्यूसिल सरीखी ऐंटासिड भी लाभ दे सकती हैं.

अमेरिका प्रवास और ढेरों समस्याएं

विदेश जा कर व्यापार व नौकरी कर धन कमाना सदियों पुरानी बात है. पिछले 2-3 दशकों से कंप्यूटर बूम के कारण भारतीय प्रवासियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है जो दुनिया के दूसरों देशों, खासतौर पर अमेरिका, में गए हैं. मध्यवर्ग के हजारों युवक व युवतियां तकनीकी मजदूरों के रूप में अमेरिका व यूरोपीय देशों में जा बसे हैं.

आज करीब 45 लाख भारतीय मूल के लोग अमेरिका में हैं जिन में कुछ की कंपनियां जानीमानी हैं. काफी डाक्टर हैं जो सिलिकौन वैली में भरे हैं. भारतीय मूल के न्यूयौर्क में 7 लाख लोग हैं. सवाल यह कि क्या धन और भौतिक सुखों की लालसा में अमेरिका गए युवकयुवतियां वहां वाकई संतुष्ट हैं?

किसी विदेशी कंपनी मेंजौब करने का वीसा मिलते ही युवा खुशी से फूले नहीं समाते. वे चटपट बड़े सूटकेसों में अपना समान सहेज कर गैर धरती पर जा पहुंचते हैं. मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे अपने मातापिता से घर बनवाने का, कार खरीदने या फिर बहन की शादी के लिए पूंजी इकट्ठा करने का वादा कर वहां जाते हैं. उन्हें वहां कड़वी सचाइयों का सामना करना पड़ता है.

पढ़ाई के लिए भारतीयों की स्कौलरशिप या मांबाप से मिलने वाला पैसा बहुत ही कम होता है. उन्हें अपने दालचावल की फिक्र में हर समय पार्टटाइम काम की तलाश रहती है.

प्रवासियों को आसमान छूते मकान किराए के रूप में एक बैडरूम वाले फ्लेट का भारी किराया देना होता है. जो कुल आय का आधा तक भी हो सकता है. न्यूयौर्क, न्यूजर्सी, शिएटल, सेनफ्रान्सिसको के आसपास का बे-एरिया जैसे कूपरटोना, सन्टाक्लारा, सैनहोजे, फ्रीमान्ट, मिलीपिटास जैसी जगहों में, जहां कंप्यूटरकंपनियों का जमावड़ा है, रिहायशी फ्लैटों का किराया भी सब से ज्यादा है. कारण, यहीं पर अधिकांश प्रवासियों का डेरा है.

एक बैडरूम वाले फ्लेट में अपनी अटैची खोलने पर लगता है कि वह अपनी जरूरत का पूरा सामान भारत से नहीं ला पाया है और फिर शुरू होता है दौर छोटीमोटी खरीदारी का.

घर से बाहर निकलते ही कार की जरूरत महसूस होती है क्योंकि कार तो अमेरिका में पांव है. विशाल भूखंड वाले विशाल देश में पंइयांपंइयां भला कहां तक जाया जा सकता है. भारत तो है नहीं कि स्कूटर रिकशा को 50-100 रुपए दिए और कहीं भी चले गए. इसलिए पहली जरूरत कार की खरीदारी की सोच शुरू हो जाती है.

कार खरीदने से पहले उसे चलाना सीखना व वहां का लाइसैंस प्राप्त करने के लिए प्रति क्लास में महंगा खर्च करना सब के लिए जरूरी हो जाता है. महीनेडेढ़महीने में कार चलाने का लाइसैंस मिलने के बाद आती है उधारी पर ली गई कार.जिस पर कम से कम भारी प्रतिमाह क़िस्त जाती है. टीवी, म्यूजिक सिस्टम, माइक्रोवेव, फ्रिज आदि तो आधारभूत जरूरत हैं ही. किस्तों पर ही सब सामान जुटाया जाता है. बिजली, पानी, टैलीफोन व मैडिकल इंश्योरैंस से बच पाना तो नामुमकिन है ही.

अगर वीसाधारक अपने जीवनसाथी के साथ वहां जाता है तो अन्य कई खर्च बढ़ जाते हैं, जिन में खानापीना, कपड़ालत्ता व घूमनाफिरना शामिल है. यह इतना हो जाता है कि बचत की बाबत सोचना भी मुश्किल हो जाता है.

भारत में घरवालों से बात होती है तो पता पड़ता है कि भारत में घर पर पैसों की जरूरत है. बस, शुरू हो जाती है मियांबीबी में चखचख. भला बहू अपना पेट काट कर डौलर क्यों भेजे. क्या अमेरिका में डौलर पेड़ों पर लगते हैं आदिआदि. खुद मांबाप तो पूरी जिंदगी अपनी कमाई का एक कमरा नहीं बना पाते पर प्रवासी बेटे को सालभर में दोमंजिला शानदार मकान खड़ा करने के समर्थ समझते हैं.

मियांबीवी दोनों कमाते हैं तो कुछ बचत होती है. कोई विवाह, घर में मौत. दोतीन सालों बाद घरवालों की याद व अपनी जन्मभूमि की मिट्टी की खुशबू उन्हें भारत आने को मजबूर कर देती है. भारत आने का प्रोग्राम बनाते हैं तो खयाल आता है सभी रिश्तेदारों व मित्रों का जो किसी न किसी उपहार की आशा लगाए बैठे होते हैं.

अपनी जेब को देख कर महीनों पहले शुरू हो जाती है खरीदारी. ढेरों सामान खरीदा जाता है. सारा सामान ठूंसठांस कर भारत लाते हैं लेकिन प्रियजनों को उन के गिफ्ट बहुत कम व मामूली लगते हैं- ‘बस एक लिपस्टिक’ या ‘बस एक टीशर्ट’.

सूटकेस खाली हुआ और फिर भारत से खरीदारी का दौर मिर्चमसाले, सलवारसूट, साड़ियां,शौल, बरतन, शोपीस और न जाने क्याक्या, जो अमेरिका में नहीं मिलते या वहां के भारतीय स्टोरों पर महंगे हैं.

इस प्रकार भारत के एक दौरे में हजारों डौलर का खर्च तो हो ही जाता है, फिर वही कड़की और कमी का एहसास.

जहां दोनों पति व पत्नी नौकरीपेशा हैं वे लोग अच्छी बचत कर लेते हैं और कुछ डौलर इकट्ठा होते ही अमेरिका में अपना मकान बनाने की सोचने लगते हैं. प्रौपर्टी तो होनी ही चाहिए, फिर जमीन की तो कीमतें बढ़ती ही हैं. फायदा ही होगा. 15या 10अग्रिम भुगतान के बाद बरसों चलने वाली क़िस्त मकान किराए से थोड़ी ज्यादा तो हो ही जाती है.

इस तरह अंतहीन क्रैडिट और उस के चुकता करने के लिए बचत की खींचातानी. आप को आश्चर्य होगा कि क्रैडिट हिस्ट्री बगैर इंसान का वजूद ही नहीं है अमेरिका में. हर समय डौलरों की जोड़तोड़, बचत का प्रयास.

उन्नति के शिखर पर पहुंचे अमेरिका में इंसान इंसानियत से खाली हो मशीनें बन चुके हैं. कुछ समय बाद उन की मिलनसारिता की पोल सामने आ जाती है क्योंकि अधिकांश अमेरिकावासी भारतीयों के साथ घुलतेमिलते नहीं. बस, मुसकराहटों के आदानप्रदान तक ही सीमित रहते हैं वे लोग. एक अनचाहीदीवार भारतीयों व अमेरिकावासियों में सदा मौजूद रहती है, जैसे भारत में हिंदूमुसलिम के बीच और ऊंची जाति व नीची जाति के बीच रहती है.

 

भेदभाव के शिकार भारतीय

आजकल जब बहुत अधिक भारतीय वहां पहुंच गए हैं तो वहां के नौजवानों में एक विद्रोही भावना पनप रही है कि बाहरी लोगों के कारण वहां के लोगों में बेरोजगारी बढ़ रही है. इसलिए एक अप्रत्यक्ष भेदभाव का शिकार हो रहे हैं वहां पर रहने वाले भारतीय.

कुछ घटनाओं को जानने के लिए बाद लगता है कि वहां इंसानियत, मानवता जैसी भावनाए हैं ही नहीं, और यदि हैं भी तो कानून के तगड़े शिकंजे में बेबस हैं

अमेरिका में सड़क पर दुर्घटना में एक व्यक्ति घायल हो गया. लाचार स्थिति में पड़ा घंटेभर वह सहायता के लिए पुकारता रहा पर किसी ने उस की मदद नहीं की. अंत में पुलिस वहां पहुंची और उस ने उसे उठा कर गाड़ी में डाला. वह चिल्लाता रहा कि,‘मेरा चश्मा, मेरा बैग, मेरा बटुआ तो उठा दो’ पर किसी भी पुलिसवाले ने उस की बात न सुनी.

अस्पताल में पहुंचते ही उस की मैडिकल इंश्योरैंस के नंबर पूछे गए. बटुआ, बैग आदि खो जाने के कारण वह नहीं बता पाया. घंटों बाद इलाज चालू हुआ. अस्पताल वालों ने मरहमपट्टी कर इंजैक्शन लगा कर सुला दिया. 48घंटे बाद जब वह कुछ स्वस्थ हुआ तो उस ने अपने मित्रों को बुलाया.

उस के इलाज में हुआ सैकड़ों डौलर का खर्च इंश्योरैंस कंपनी ने नहीं दिया क्योंकि फिजीशियन को अपनी दुर्घटना की इत्तला देनी जरूरी थी जो वह अपनी नीमबेहोशी व बटुआ और दूसरे सामान सड़क पर रह जाने के कारण नहीं कर पाया था.

कैसा है यह देश जहां इंसान से ज्यादा जरूरी है- सोशल सिक्योरिटी नंबर, इंश्योरैंस नंबर और न जाने कौनकौन से कागज.

सड़क पर अगर कभी किसी की गाड़ी का ऐक्सिडैंट हो जाए तो पुलिस तो वहां मिनटों में ही पहुंच जाती है. और घायल व्यक्ति को फौरन गाड़ी में डाल कर 8 मिनट के अंदर उसे अस्पताल की इमरजैंसी में पहुंचाने की व्यवस्था होती है पर उस के साथ कार में सवार उस के बीवीबच्चे या मित्र सड़क पर ही खड़े रह जाते हैं. उन्हें पुलिस वाले जातेजाते एक नकशा पकड़ा जाते हैं कि वे इस रास्ते से घायल को फलां अस्पताल ले जा रहे हैं पर किसी भी शर्त पर वे घायल व्यक्ति के साथी को साथ नहीं ले जाते.

सड़क के किनारे खड़ा उस का साथी कुछ सोच पाए, उस से पहले दुर्घटनाग्रस्त कार को भी खींच कर किसी अन्य जगह भेज दिया जाता है. अगर कोई तीव्र बुद्धि वाला व्यक्ति होता है तो वह उस टूटी कार में से समान निकाल लेता है वरना सामान सहित ही कार को घसीट लिया जाता है. अब सड़क के किनारे खड़े आगे क्या करें कि विकट समस्या हो जाती है क्योंकि वहां हाईवे पर कोई टैक्सी या सहायता मिलना बहुत मुश्किल होता है.

फिर अगर मोबाइल हाथ में बचा हो तो उस की सहायता से अपने किसी मित्र को बुलाना पड़ता है, तब कहीं किसी अपने की सहायता से अस्पताल पहुंच पाते हैं. तब याद आता है अपना भारत और कोसते हैं अमेरिकी कानून ववहां की व्यवस्था को.

ऐसा ही एक हादसा रवि के साथ हुआ. वे अपनी पत्नी व 3 महीने के बच्चे के साथ कहीं जा रहे थे कि दुर्घटना के शिकार हो गए. कुछ सोचसमझ पाते, इस से पहले ही कौओं की तरह चिल्लाती पुलिस की गाड़ियों ने उन्हें घेर लिया. हालांकि चोट अधिक नहीं थी, फिर भी पुलिस की जिम्मेदारी उन्हें 8 मिनट में अस्पताल पहुंचाने की थी, सो दरवाजा तोड़ कर उन्हें निकाला और ले चले.

बीवीबच्चा क्योंकि बिलकुल ठीक थे उन्हे वहीं छोड़ दिया. रास्ते का नकशा पकड़ा गए. शोर और धक्के से बच्चा भी डर गया था, सो जोरजोर से रोने लगा. मां बेचारी उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी कि गाड़ी, जिस में उन का सामान भी था, घसीट ली गई.वह चिल्लाती रही कि मेरा सामान तो निकाल दो पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. फोन किया तब करीब एक घंटे बाद उन के मित्र वहां पहुंचे तब ही वे अपने पति के पास पहुंच पाई.

नन्हे बच्चे की जरूरत का सारा सामान, घर की चाबी वगैरह सब चीजें उन की पहुंच से दूर थीं. ऐसी स्थिति में डेढ़ घंटा निकालने की व्यथा तो भुक्तभोगी ही समझ सकता है.

वहां पर रहने वाले भारतीय लाख कोशिशों के बाद भी जब तब ऐसी मुसीबतों में फंस जाते हैं. बुरा समय कह कर तो आता नहीं. लेकिन जब कोर्ई ऐसा हादसा होता है,आर्थिक नुकसान के साथ एक दहशत दिल में समा जाती है और परदेश ज्यादा बेगाना लगने लगता है.

 

महंगा है इलाज

डाक्टरी इलाज वहां बहुत महंगा और मुश्किल है. अधिकांश डाक्टर वहां की विभिन्न मैडिकल इंश्योरैंसकंपनियों के आधीन काम करते हैं, इसलिए जिस कंपनी का इंश्योरैंस आपने ले रखा है उसी के मातहत काम करने वाले डाक्टर का इलाज भी करवाना होता है वरना इलाज का सारा खर्च व्यक्ति को स्वयं वहन करना पड़ता है जो हजारोंडौलरों में होता है.

अगर किसी को तेज बुखार है,टैलीफोन पर अपौइंटमैंट 10 या 20 दिन बाद का मिलेगा. अगर डाक्टर को दिखाना बहुत ही जरूरी हो तो इमरजैंसी में भरती होना पड़ता है. और एक बार इमरजैंसी में भरती हो गए तो, बस, आप बेबस हो जाएंगे. न जाने कौनकौन से टैस्ट करते हैं डाक्टर.

बस, आप तो तैयार रहिए आने वाले बिलों के पेमैंट के लिए. हजारों डौलरों का खर्चा आप शायद यह सोच कर निश्चिंत हों कि बीमारी का खर्च तो इंश्योरैंस दे रही देगी लेकिन न तो सारी बीमारियां और न ही सारे टैस्ट इंश्योरैंस के तहत आते हैं. एक कतरा खून से किए विभिन्न टैस्टों में से कौन से इंश्योरैंस कवर करती है और किस का पेमैंट आप को स्वयं करना है,इस का पता महीनों बाद बिल आने पर ही चलता है.

अब करते रहिएडौलरों की जोड़तोड़. शायद यही कारण है कि जब भी दोचार भारतीय मित्र वहां मिलते हैं,‘कैसे कितने डौलर बचाए’पर ही बातें होती हैं.

कानूनीतौर पर वहां भारतीयों को बराबरी का अधिकार है पर वास्तव में ऐसा है नहीं. कालेगोरे का भेद हमारे धर्म और जातिभेद की तरह वहां हर जगह मौजूद है और शायद अप्रत्यक्ष भेदभाव भारतीयों को एडमिनिस्ट्रेशन वाली नियुक्तियों से वंचित रखता है जिस से अमेरिकावासियों को भारतीय लोगों के धीन काम न करना पड़े. पढ़ेलिखे टैलेंटेड मजदूरों से ज्यादा कोई हैसियत नहीं है वहां टैक्निकल भारतीयों की.

खुदा न ख्वास्ता अगर कभी आप का कार ऐक्सिडैंट हो जाए और दूसरी पार्टी चीनी या अमेरिकी हो, तो आप का कुसूर न होते हुए भी पुलिस आपको कुसूरवार ठहराएगी, आप भारतीय जो हैं. पुलिस को तो कोई चैलेंज कर नहीं सकता. बस, रोते रहिए अपने समय पर.

 

दोहरी जिंदगी जीने पर मजबूर

यूरोप में भी भारतीयों की स्थिति अच्छी नहीं है. कालेगोरे का भेद तो वहां भी भारतीयों के सम्मानजनक जीवनयापन में बाधक है.एच-1 से शुरू हुआ प्रवास कुछ सालों बाद ग्रीन कार्ड में बदलता है और फिर वहां की नागरिकता में. वहां कुछ समय के लिए गया युगल भी चाहता है कि उन के बच्चे वहींजन्में जिस से बच्चे वहां के नागरिक हों और उन्हें वहां की नागरिकता का फायदा मिले.

भारतीय मूल के बच्चे दोहरी जिंदगी जीने पर मजबूर होते हैं. घर में भारतीय संस्कृति से भरपूर माहौल और बाहर अमेरिकी सभ्यता. त्रिशंकु सी स्थिति में फंसे बच्चे न पूरे अमेरिकी ही बन पाते हैं, न भारतीय. बोलचाल, रहनसहन सब बच्चों का एकसा होता है, फिर भी अधिकांश भारतीय बच्चों को भारतीय साथियों की ही दोस्ती नसीब होती है.

अमेरिकी बच्चे उन के साथ घुमनामिलना पसंद नहीं करते, एक अप्रत्यक्ष भावना जो बचपन से ही कालेगोरे का भेद बनाए रखती है.

मशीनी जिंदगी, भौतिक सुखसुविधाएं जुटाने और डौलर जमा करने में व्यस्त भारतीयों को अपना देश व घरपरिवार की यादें भी डंक मारती हैं. लड़कियों में होमसिकनैस की भावना ज्यादा ही होती है. भला कौन लड़की अपने पितृग्रह की देहरी भुला सकती है पर डौलरों की चमकदमक उन्हें बांधे मजबूर बनाए रखती है. डौलरों की रुपयों से तुलना पर उन्हें लखपति होने की आत्मतुष्टि मिलती रही है. पैसा ही तो सबकुछ है आज के युग में.

सात समुद्र पार बसे भारतीयों को अपने अभिष्ट की प्राप्ति के बाद भी बनवास की पीड़ा जब तक आहत करती रहती है. बनवास तो बनवास ही है.

भारतीयों की आय अन्य प्रवासी समूहों से अच्छी है, औसत 60,000 डौलर. यह भी इतनी नहीं कि वे भारत में अपने मांबाप का खयाल रख सकें. मिडिल क्लास भारतीय तो इंतजार करता है कि कब मांबाप गुजरें और कब वह उन के मकान, जेवर बेच कर पैसा अमेरिका ले जाए.

लेखिका-बसंती माथुर

सांप्रदायिकता की आग में जलता मणिपुर

अपनी प्राकृतिक सुंदरता को लेकर आश्चर्यजनक रूप से अंतरात्मा को लुभाने वाला मणिपुर जिसे ‘भारत का स्विट्जरलैंड’ नाम से जाना जाता है, आज अपना रक्तरंजित चेहरा, भयावह चीखों और सिसकियों में डूबी वादियों से दुनिया को डरा रहा है. आगजनी, गोलियों की तड़तड़ाहट, अश्रुगैस का धुआं, सड़कों पर गिरती लाशें और भय से चीखती/भागती भीड़ ने मणिपुर की मोहक छवि धूलधूसरित कर दी है. एक महीने से जारी जातीय संघर्ष थमने का नाम नहीं ले रहा है. सौ से ज्यादा मौतें और अस्पतालों के बिस्तरों पर कराहते हजारों घायल, यह मणिपुर की वर्तमान तसवीर है.

भारतीय जनता पार्टी के राज में आखिर सौंदर्य की अनुपम धरती खून में क्यों लाल है, इसकी वजहें बताने से पहले उस मणिपुर की चर्चा कर लें जिसका प्राकृतिक सौंदर्य दुनियाभर के पर्यटकों को अपनी ओर खींचता है. मणिपुर पूर्वोत्तर भारत की पहाड़ियों और झीलों के बीच स्थित है. म्यांमार की सीमा से लगा हुआ मणिपुर जिसे साउथ एशिया का प्रवेशद्वार भी कहा जाता है, अपनी ऊंची घाटियों, नीले पहाड़ों, झरनों, हरेभरे मैदानों, चारागाहों, सदाबहार प्राकृतिक सुंदरता, गीतसंगीत की परंपराओं और समृद्ध संस्कृति के लिए दुनियाभरमें मशहूर है.

मणिपुर का इतिहास 1,500 ईसा पूर्व का है. पूर्व-ऐतिहासिक मानव बस्तियां और कई अन्य पेचीदा गुफाएं इस राज्य को पर्यटकों के लिए आकर्षक बनाती हैं. मणिपुर में नागा, कुकी समेत 60 जनजातियां निवास करती हैं जिनके पास अपनी विशेष अद्भुत कला और संस्कृति की विरासत है. उल्लेखनीय है कि इसी छोटे से राज्य से ‘पोलो’ जैसे खेल की उत्पत्ति हुई थी.

मणिपुर की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है. यहां के खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, हथकरघा, दस्तकारी और पर्यटन क्षेत्र में भी बड़ी संभावनाएं हैं. यहां हथकरघा राज्य का सबसे बड़ा कुटीर उद्योग है. वहीं राज्य में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार भी इसी उद्योग से मिल रहा है.

यहां हथकरघा के तहत साड़ी, चादर, परदे, फैशन वाले कपड़े और तकिए के कवर तैयार किए जाते हैं. वहीं मणिपुर में कपड़े और शौल की राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी काफी मांग है. इसके अलावा हस्तशिल्प कला का भी राज्य में अनूठा योगदान है. यहां बेंत और बांस के बने हुए उत्पादों के साथ मिट्टी के बरतन बनाने की भी एक अलग कला है. बांस और बेंत की टोकरी बुनना स्थानीय लोगों का सबसे प्रमुख व्यवसाय है.

कहीं असुरक्षा कहीं दबदबा

मणिपुर का नाम लेते ही मणिपुरी पोशाक में नृत्य मुद्राओं वाली खूबसूरत स्त्रियों की मोहक छवि, बांस की पत्तियों से बनी बड़ीबड़ी टोपियां पहने सीढ़ीदार खेतों में काम करते स्त्रीपुरुष, नागा शौल ओढ़े युवकों की तसवीरें जेहन में उभरती हैं. अनुपम सौंदर्य से सजी मणिपुर की धरती आज राजनीति के चंगुल में दंगों की भेंट चढ़ चुकी है.

इसकी वजह जानने से पहले मणिपुर की भौगोलिक स्थिति और इसकी सामाजिक स्थिति को समझना जरूरी है. मणिपुर की जनसंख्या लगभग 30-35 लाख है. यहां 3 मुख्य समुदाय हैं- मैतई, नगा और कुकी. मैतई हिंदू समुदाय है. हालांकि इसमें कुछ संख्या मुसलमानों की भी है. जनसंख्या में मैतई समुदाय सबसे ज़्यादा है. राजनीति में इस की हिस्सेदारी ज्यादा है. नगा और कुकी ज्यादातर ईसाई हैं. नगा और कुकी जनजाति समुदाय हैं. मणिपुर विधानसभा में कुल 60 विधायकों में 40 विधायक मैतई समुदाय से हैं. बाकी 20 नगा और कुकी जनजाति से आते हैं. अब तक हुए 12 मुख्यमंत्रियों में से 2 ही जनजाति से थे, बाकी सारे मैतेई थे.

मणिपुर की भौगोलिक संरचना काफी विशिष्ट है. मणिपुर एक फुटबौल स्टेडियम की तरह है.  इसमें इम्फाल वैली बिलकुल सैंटर में प्लेफील्ड जैसी दिखती है और उसके चारों तरफ के पहाड़ी इलाके गैलरी की तरह नजर आते हैं.

मणिपुर के 10 प्रतिशत भूभाग पर मैतेई समुदाय का दबदबा है. यह समुदाय इम्फाल वैली में बसा हुआ है. बाकी 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाके में प्रदेश की मान्यताप्राप्त जनजातियां रहती हैं. यहां सारा झगड़ा इन्हीं पहाड़ी और घाटी के लोगों के बीच जमीन पर वर्चस्व को लेकर है.

काफी लंबे समय से मैतेई समुदाय राजनीतिक प्रभाव में यह मांग उठा रहा है कि उसको भी जनजाति का दरजा दे दिया जाए. इसके पीछे लालच है पहाड़ी इलाकों की जमीनें हथियाने और जनजातियों को मिलने वाले फायदे में हिस्साबांट की. समुदाय ने इसके लिए मणिपुर हाईकोर्ट में काफी पहले एक याचिका डाल रखी थी.

जातीय समस्या और मणिपुर

मैतई समुदाय की दलील है कि 1949 में जब मणिपुर का भारत में विलय हुआ था, उससे पहले मैतेई को यहां जनजाति का दरजा मिला हुआ था. इसलिए उनका वह दरजा बहाल किया जाए ताकि वे अपने पूर्वजों की जमीन, परंपरा, संस्कृति और भाषा की रक्षा कर सकें. इनका कहना है कि मैतेई समुदाय को बाहरी लोगों के अतिक्रमण से बचाने के लिए भी एक संवैधानिक कवच की जरूरत है.

अपनी मांगों को लेकर मैतेई समुदाय ने वर्ष 2012 में एक कमेटी भी बनाई थी जिसका नाम है शिड्यूल ट्राइब डिमांड कमेटी औफ मणिपुर. उनका आरोप है कि उन्हें पहाड़ों से अलग करने की साजिश हो रही है. पहाड़ी जनजातियों ने उन्हें ढकेल कर इम्फाल घाटी तक सीमित कर दिया है.

मैतेई पहाड़ों पर जमीन नहीं खरीद सकते क्योंकि वो जनजातियों की जमीनें हैं, जबकि जनजातीय लोग इम्फाल वैली में जमीन खरीद सकते हैं. इसके कारण मैतेई समुदाय के हिस्से वाली इम्फाल वैली भी उनके रहने के लिए सिकुड़ती जा रही है.

लेकिन पहाड़ी जनजातियां मैतई समुदाय को जनजाति का दरजा देने का लगातार विरोध कर रही हैं. इन जनजातियों का कहना है कि मैतई जनसंख्या में भी ज्यादा हैं और राजनीति में भी उनका दबदबा है.दूसरे यह कि मैतेई समुदाय आदिवासी नहीं हैं. उनको पहले से ही एससी और ओबीसी आरक्षण के साथसाथ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग का आरक्षण मिला हुआ है और उसके फायदे भी वे खूब उठा रहे हैं, यहां तक कि उनकी भाषा भी संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल है और संरक्षित है.

कुकी और नगा जनजाति मैतेई समुदाय को सबकुछ दे देने के विरोध में हैं. उनका कहना है कि अगर मैतेई को और आरक्षण मिला तो फिर बाकी जनजातियों के युवाओं के लिए नौकरी और कालेजों में एडमिशन मिलने के मौके और कम हो जाएंगे. फिर मैतई समुदाय को भी पहाड़ों पर जमीन खरीदने की इजाजत मिल जाएगी और इससे जनजातियां और हाशिए पर चली जाएंगी.

मामला उलझा हुआ

मैतेई समुदाय की याचिका काफी लंबे समय से कोर्ट में पैंडिंग थी लेकिन मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की आवाजाही, मैतेई समाज से मुलाकातें, हिंदुत्व को मजबूत करने की इच्छा और ईसाई व बौद्धों को दबाने की मंशा ने आग में घी डालने का काम करना शुरू किया.

इसके चलते हाल ही में मणिपुर हाईकोर्ट ने मैतेई ट्राइब यूनियन की उस याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से कहा कि वह मैतेई समुदाय को जनजाति का दरजा दिए जाने को लेकर विचार करे.10 सालों से यह डिमांड पैंडिंग है. अगले 4 हफ़्तों में सरकार इस पर कोई संतोषजनक जवाब दाखिल करे. इसी के साथ कोर्ट ने केंद्र सरकार से भी उस की राय मांगी.

कोर्ट ने अभी मैतई समुदाय को जनजाति का दरजा देने का आदेश नहीं दिया है. उसने सिर्फ अपनी औब्जर्वेशन दी है और राज्य व केंद्र से राय मांगी है.लेकिन इसने जनजातीय समूहों को आक्रोश से भर दिया. कोर्ट के आदेश के अगले दिन मणिपुर विधानसभा की हिल एरियाज कमेटी ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया और कहा कि कोर्ट के इस आदेश से वे दुखी हैं.

उनका कहना था कि कमेटी एक संवैधानिक संस्था है और उनसे सलाह नहीं ली गई. गौरतलब है कि पहाड़ी इलाके से चुने गए सभी विधायक इस कमेटी के सदस्य हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी से हों. इस कमेटी के वर्तमान चेयरमैन भारतीय जनता पार्टी के विधायक डी गेंगमे हैं.

इसी के साथ 3 मई को औल ट्राइबल स्टूडैंट्स यूनियन मणिपुर ने एक रैली आयोजित की. ‘आदिवासी एकजुटता रैली’ राजधानी इम्फाल से 65 किलोमीटर दूर चुराचांदपुर जिले के तोरबंग इलाके में हुई.उसमें हजारों की संख्या में जनजातीय लोग शामिल हुए.उसी दौरान जनजातीय समूहों और मैतेई लोगों के बीच झड़प शुरू हो गई और देखते ही देखते पूरा मणिपुर हिंसा की गिरफ्त में आ गया.

जातीय टकरावों को भुनाते दल

मणिपुर में झगड़े और तनाव की एक वजह और है. मणिपुर सरकार का कहना है कि पहाड़ी क्षेत्रों में चोरीछिपे अफीम की खेती हो रही है. जनजातियों के बीच ड्रग्स का धंधा फलफूल रहा है. बीते माह चुराचांदपुर में पुलिस ने 2 लोगों के पास से 16 किलो अफीम भी बरामद की थी. इस घटना के बाद मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने ट्वीट किया कि,’ये लोग हमारे वनों को बरबाद कर रहे हैं और सांप्रदायिक मुद्दे को अपने ड्रग्स बिजनैस के लिए भड़का रहे हैं.’

मणिपुर में पहाड़ी इलाके में बसे ईसाई धर्म को मानने वाले नगा और कुकी जनजातियों का म्यांमार के अवैध प्रवासियों के साथ संबंधों की बात भी है. इनके बीच प्रेमविवाह भी हो रहे हैं. नशे का चलन इनके बीच आम है. वहीं राज्य सरकार अफीम की खेती को लगातार नष्ट करने में जुटी है. इसको लेकर भी सरकार के प्रति जनजातियों की नाराजगी लंबे समय से है.

बीजेपी की सरकार बनने के बाद और देश के गृहमंत्री अमित शाह के बारबार मणिपुर दौरों ने सरकार के खिलाफ जनजातियों में गुस्से को तेज किया और उस पर हाईकोर्ट का मैतेई को जनजाति में शामिल करने की याचिका पर आदेश पारित करना बिलकुल ज्वालामुखी के फूट पड़ने जैसा हुआ.

स्थानीय पत्रकार प्रदीप फंजोबम अपने एक लेख में लिखते हैं,’प्रदेश में हिंसा एक दिन में नहीं भड़की है. बल्कि पहले से कई मुद्दों को लेकर जनजातियों में नाराजगी पनप रही थी. यहां पिछले कई सालों से जनजातियों के कब्जे वाली जमीन खाली करवाई जा रही है. इसमें सबसे ज्यादा कुकी समूह के लोग प्रभावित हो रहे हैं. जिस जगह हाल ही में हिंसा भड़की है, वह चुराचांदपुर इलाका है जहां कुकी समुदाय के लोग ज्यादा हैं. इन सब बातों को लेकर ही तनाव पैदा हुआ.’

औल मणिपुर ट्राइबल यूनियन के महासचिव केल्विन नेहसियल ने हिंसा की वजह मैतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दरजा पाने की मांग को बताया है. नेहसियल कहते हैं,““मैतेई अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दरजा चाहते हैं. अगर उन्हें एसटी का दरजामिल गया तो वे हमारी सारी जमीन छीन लेंगे. कुकी समुदाय को संरक्षण की जरूरत हैक्योंकि वे बहुत गरीब हैं और सिर्फ झूम की खेती पर ही निर्भर हैं.”

गौरतलब है कि भाजपाई मुख्यमंत्री एन वीरेन सिंह कुकी जनजाति को उग्रवादी करार दे चुके हैं और सुरक्षाबलों का दावा है कि वे अब तक 40 से ज़्यादा उग्रवादियों को बंदूकों से ढेर कर चुके हैं.29 मई को अमित शाह के मणिपुर प्रवास पर पहुंचने की पूर्वसंध्या पर ही 10 लोग मारे गए जिन में एक महिला भी शामिल थी.

आपसी मेलजोल जरुरी

आज पूर्वोत्तर का यह छोटा सा सुंदर राज्य राजनीतिक साजिशों के चलते आग की लपटों में घिरा हुआ है. जातीय टकराव के बाद हत्याओं का दौर जारी है. प्रतिकिया दोनों ओर से तेज है. मणिपुर के अनेक जिलों में आदिवासी समूहों ने 400 से ज्यादा घरों को आग के हवाले कर दिया है. सरकार से गुस्सा उत्तेजित भीड़ ने भाजपा के 4 विधायकों के घरों पर भी हमला बोला और आगजनी की. सुरक्षा बल और सेना के 36 हजार से ज्यादा जवानों की तैनाती के बावजूद स्थिति काबू में नहीं आ रही है. शांत और सुंदर मणिपुर आज धर्म की आग में झुलस रहा है.

मणिपुर में यह टकराव न होता अगर पहाड़ी और मैदानी सभी लोगों को विश्वास में लेकर चर्चा की गई होती. किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दरजा दिया जाना चाहिए या नहीं, यह एक गंभीर मुद्दा है, खासकर, ऐसे राज्यों में जहां आदिवासियों और गैरआदिवासियों के बीच गहरी असमानता व्याप्त हो और हितों को लेकर टकराव होते रहे हों. लेकिन मणिपुर में इतने गंभीर मामले को सीधे अदालती कार्रवाई के लिए भेज दिया गया.

राज्य सरकार ने इस मामले में जनजातीय विभाग और कमेटी से भी कोई चर्चा नहीं की. जबकि जनजाति का दरजा देना राज्य सरकार के विशेषाधिकार में नहीं है. इस पर केंद्रीय आयोग और केंद्रीय गृह मंत्रालय ही कोई निर्णय ले सकते हैं.

मणिपुर में घाटी और पहाड़ के बीच असमानता को दूर करने की जरूरत थी. जनजातियों के हितों की रक्षा करते हुए उनके बुनियादी ढांचे, शिक्षा और स्वास्थ्य पर काम होना चाहिए था. आदिवासी समुदायों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान पर ध्यान दिया जाना चाहिए था, मगर भाजपा सरकार ने जख्मों पर मरहम लगाने की बजाय आग में घी डालने का काम किया. अमित शाह का बारबार मणिपुर दौरा जनजातियों में गुस्से को भड़काता रहा क्योंकि हिंदू राष्ट्र की आकांक्षा पालने वाली भाजपा दमनकारी नीतियों पर चल कर विजय प्राप्ति का सपना देखती है.

दक्षिण कोरिया के बुकियॉन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में होगा फिल्म प्रायवेसी का वर्ल्ड प्रीमियर

इन दिनों अपराध पर अंकुश लगाने के नाम पर मुंबई सहित लगभग हर महानगर की हर इमारत में सीसीटीवी से निगरानी की जाती है.तमाम लोगों की राय में यह उनकी निजिता का हनन है.इसी मूल मुद्दे पर मूलतः भारतीय मगर अमरीका में बसे फिल्मकार सुदीप कंवल ने सामाजिक रोमांचक कहानी वाली फिल्म ‘‘प्रायवेसी’’ का लेखन व निर्देशन किया है,जिसका विष्व प्रीमियर 29 जून से 9 जुलाई तक संपन्न होने वाले दक्षिण कोरिया के बुकियॉन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में इस फिल्म का विष्व प्रीमियर संपन्न होगा.इस फेस्टिवल में दुनिया भर की हॉररथ्रिलरमिस्ट्री और फैंटेसी फिल्मों से लेकर ढेर सारे सिनेमा शामिल हैं. इस साल के फेस्टिवल की शुरुआत जोआक्विन फोनिक्स स्टारर ब्यू इज अफ्रेड‘ से होगी.

फिल्म प्रायवेसी’ मुंबई में सामाजिक-आर्थिक मतभेदों को उजागर करते हुए शहर में वीडियो यानी कि सीसीटीवी निगरानी के आवष्यकता के मुद्दे पर बात की गयी है.फिल्म ‘‘प्रायवेसी’ मुंबई की मलिन बस्तियों की एक सामाजिक रोमांचक फिल्म है.कहानी के केंद्र में ‘‘ं मुंबई निगरानी कमांड और नियंत्रण केंद्र’’ में आपरेटर के रूप में काम कर रही रूपाली की है.अति महत्त्वाकांक्षी होते हुए रूपाली लगातार अपने अपराध बोध से लड़ती है.वह अपने अंधेरे अतीत का विरोध भी करती है. लेकिन रूपाली के लिए चीजें तब जटिल होने लगती हैं,जब रूपाली प्रोटोकॉल की अनदेखी कर अपनी निगरानी में होने वाली डकैती/हत्या की जांच शुरू करती है.

नेटफ्लिक्स के ट्रायल बाय फायर‘ के बाद इस फिल्म में राजश्री देशपांडे रूपाली की मुख्य भूमिका में नजर आएंगी.वह अपनी खुशी को साझा करते हुए कहती हैं,‘‘एक अभिनेता और एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि पटकथा संवेदनशील तरीके से लिखी हुई हो.प्रायवेसी‘ मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे के बारे में बात करती है.यह इस बात पर रोशनी डालती है कि समाज किसी व्यक्ति के संघर्ष को किस तरह से देखता है.खूबसूरती से लिखी गई इस कहानी में गोपनीयता‘ के महत्व के साथ इस बात का रेखंाकन है कि कैसे हर सामाजिक तत्व इस शब्द का शोशण कर रहा है.’’

मूलतः भारतीय सुदीप कंवल की षिक्षा दिक्षा न्यूयॉर्क में हुई. न्यूयॉर्क के सिटी कॉलेज से फिल्म में एमएफए के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त कर उन्होने लेखन और निर्देशन में विशेशज्ञता हासिल की.सुदीप कंवल ने सबसे पहले 2007 में लघु फिल्म इट राइजेज फ्रॉम द ईस्ट’ का लेखन व निर्देशन किया था.2013 में साइलेंट ववे’ और 2016 में द अदर एंड’’ बनायीं. 2013 में उनकी लघु फिल्म साइलेंट वेव’ ने संयुक्त राज्य भर में 23 फिल्म समारोहों में प्रदर्शन किया और कई पुरस्कार और नामांकन जीते.

‘‘प्रायवेसी’’ उनकी पहली फीचर फिल्म है,जिसे उन्होने मुंबई स्थित आर्ट हाउस स्टूडियो व फंडामेंटल पिक्चर्स के साथ निर्माण किया है..कार्गो‘ और टू सिस्टर्स एंड ए हसबैंड‘ जैसे फिल्मों के निर्माता ष्लोक शर्मा व नवीन शेट्टी ने इस फिल्म का सह निर्माण किया है. फिल्म के निर्देशक सुदीप कहते हैं-‘‘फिल्म सूचना तक पहुंच के सम्मोहक सच को दर्शाती है. चाहे सीसीटीवी सर्विलांस हो या फिर किसी का निजी डाटा इकट्ठा करना. आज की दुनिया में किसी व्यक्ति की निजिता वास्तव में एक विलासिता बन गई है.’’

राजश्री देशपांडे के साथफिल्म में निशंक वर्मासंदेश कुलकर्णी, सौरभ गोयलछाया कदमरुशद राणा और सागर सालुंके प्रमुख भूमिकाओं में हैं.

जब मेरे गाने को लोगों का प्यार मिलता है, तभी मुझे खुशी मिलती है -अमन त्रिखा

मुंबई के ठाकुर कालेज से इलेक्ट्रानिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते करते संगीत से जुड़ने का निर्णय करने वाले गायक अमन त्रिखा को लंबा संघर्ष करना पड़ा. लगभग छह वर्ष तक संघर्ष करने के बाद अमन त्रिखा को संगीत रियालिटी शो ‘‘सुरक्षेत्र‘‘ से जुडऩे का अवसर मिला और इसी से उन्हे काफी शोहरत भी मिली. फिर 2012 में अमन ने फिल्म ‘‘ओह माई गॉड‘‘ में ‘‘गो गो गोविंदा‘‘ नमक गीत गाकर हंगामा बरपा दिया था. जिसके बाद‘‘ सन ऑफ सरदार‘‘, ‘‘स्पेशल 26‘‘ सहित तमाम फिल्मों में पाश्र्व गायन करते आए.  

इतना ही नहीं फिल्म खिलाड़ी 786‘ के गीत हुक्का बार‘ को गाकर जबरदस्त शोहरत बटोरी थी. अमन त्रिखा ने फिल्म ‘‘भूतनाथ‘‘ में अमिताभ बच्चन के लिए भी एक गाना गाया था. आमन त्रिखा के कई सिंगल गाने लोकप्रिय हो चुके हैं.  हाल ही में अमन त्रिखा ने संगानी ब्रदर्स मोशन पिक्चर्स’ के लिए एक गणपति का गाना अपनी आवाज में रिकॉर्ड कराया. उसी अवसर पर अमन त्रिखा से हमारी लंबी बातचीत हुई. . . . .

अमन त्रिखा से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत इस प्रकार रही. . .

आपने इलेक्ट्रानिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. . पर बन गए गायक?

 -जी हां! जब मैं इलेक्ट्रानिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा थातो फस्ट ईअर में मुझे अहसास हुआ कि मुझे तो संगीत जगत में कुछ करना है. हालांकि मैं बचपन से ही संगीत से जुड़ा हुआ यानी कि की बोर्ड’ बजाया करता था. इसे ईष्वर की देन ही कहा जाएगा कि बिना किसी ट्रेनिंग के ही मैं की बोर्ड’ बजाया करता था. मुझे सुर का भी थोड़ा ज्ञान था. क्रिकेट खेलने का भी शौक था. उस वक्त मैं उन्नीस वर्ष का था. तो संगीतक्रिकेट वगैरह बहुत कुछ चल रहा था. पर जब इंजीनियरिंग कालेज पहुंचातो एक दिन कक्षा में मैं यूं ही कुछ गुनगुना रहा थाक्योंकि उस दिन लेक्चर बहुत बोरिंग था. कुछ देर बाद मेरे बगल में बैठे हुए लड़के ने मुझसे कहा कि तू अच्छा गाता है,तू रोज गाया कर. दो तीन दिन बाद हम मेकेनिकल वर्कशॉप के लिए गए. वहां पर बड़े बड़े हाल होते हैं.  हां बात करने पर या गाने पर आवाज गूंजती है. ऐसी जगह पर गाने और अपनी आवाज को सुनने में बड़ा मजा आता है. वहां पर मैं गुनगुनाता थातो बाहर से आकर लोग मुझे अपनी पसंद का गाना गुनगुनाने के लिए फरमाइश किया करते थे. फिर मैने कालेज में गायन प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. वहां मुझे सुनने के बाद मेरे दोस्तो ने मुझे टीवी के रियालिटी शो में हिस्सा लेने के लिए मुझ पर दबाव बनाया. उन दिनों इंडियन आयडल’ व सारेगामापा’ का बुखार पूरे देश में छाया हुआ था. मैं यह 2005 की बात कर रहा हॅू.

सब की बात मानकर मैने भी आॅडीशन दिया. मेरा टाॅप छह में चयन भी हो गया. इस खबर से मेरे घर वाले हैरान हो गए. क्यांेकि उन्हें पता था कि मैं की बोर्ड’ बजाता हॅूं,पर यह गायन की बात उनकी समझ से परे थी. मैने देखा कि टाॅप छह में जितने गायक थे,उनमें से कोई षास्त्रीय संगीत सीख रहा थाकोई कुछ सीख रहा था. खैरमैने कोशिश की और मैं दूसरे नंबर पर आया था. मैं तो ठाकुर कालेजकांदीवालीमंुबई का छात्र हॅूं. हमारे कालेज का ऑडीटेरियम भी काफी बड़ा है. वहां पर सात आठ सौ लोग मौजूद थेउन सभी ने खुब तालियां बजायी. इससे मेरा हौसला बढ़ गया.  उसके बाद मैं ज्यादा समय संगीत में देने लगा. जिसके चलते मैं तीसरे सेमिस्टर में छह विशय में फेल हो गया. जबकि पहले मैं हमेषा 95 प्रतिशत नंबर लाया करता था. बारहवीं में मैने पीसीएम में 95 प्रतिशत नंबर पाए थे. ऐसे में तीसरे सेमिस्टर में छह विशयांे में फेल होना अचंभित करने वाली बात थी. मैने सोचा कि इंजीनियरिंग छोड़कर संगीत में ही रम जाता हॅूं. उसके बाद मैने पढ़ाई पर भी ध्यान देना शुरू किया. तो पढ़ाई पूरी की. उसके बाद फिल्म इंडस्ट्ी की भागदौड़ शुरू हुईइससे तो आप भी वाकिफ हैं. मेरे परिवार के किसी भी सदस्य का फिल्म इंडस्ट्ी से कोई संबंध नहीं था.

इंडियन आयडल में ऑडिशन देने से कोई फायदा मिला?

 -सच कहूं तो संगीत के रियालिटी शो में भी मुझे अहमियत नही दी गयी. वहां पर मैने देखा कि वहां भी सारे निर्णय सिफारिश पर हो रहे हैं. 2006 से 2011 तक मैने कई आॅडीशन दिए. पर हर बार एक मुकाम पर जाकर रोक दिया जाता था. हर शो में किसी न किसी प्रतियोगी की कोई न कोई सिफारिश जरुर होती थी. जिसके चलते हर बार मुझ पर गाज गिरती थी. मेरे साथ कोई नहीं था. मैं तो सिर्फ अपनी प्रतिभा का झंडा लेकर चल रहा थाजिसकी कद्र नहीं हो रही थी. पर मेरा मन कह रहा था कि एक न एक दिन अवसर मिलेगा. इसलिए मैने हार नही मानी. मैने अपना संघर्ष जारी रखा. मुझे भी समझ में आ गया था कि जिनके बाप दादा कई वर्षांे से इस इंडस्ट्ी में हैंउन्हे ही प्राथमिकता मिलेगी. मुझे अपने आप पर व ईष्वर पर भरोसा था.

जब ऑडिशन में आपको रिजेक्षन मिल रहे थेतब क्या अहसास हो रहे थे?

-बहुत दुख होता था. तकलीफ भी होती थी. गुस्सा बहुत आता था. कई बार मैं बहुत हताश हो जाता था. दिल टूटता था. लेकिन मैने सोच लिया था कि अब जिस राह पर चला हूंउस राह पर जितने भी कंकड़पत्थरकीलें हैं,उन्हें तो झेलना ही पड़ेगा.

पहला ब्रेक कैसे मिला था?

-मुझे सबसे पहले संगीतकार हिमेश रेशमिया ने फिल्म ‘‘ओह माय गाॅड’’ का गाना ‘‘गो गो गोविंदा’ गाने का अवसर दिया था. इस फिल्म में अक्षय कुमार,परेश रावल व सोनाक्षी सिन्हा थे. वास्तव में संगीत के रियालिटी शो ‘‘सुरक्षेत्र’’ में मैने हिस्सा लिया था. इसमें भारत व पाकिस्तान के गायको के बीच द्वंद था. उसमें भारतीय टीम के कैप्टन हिमेश रेशमिया जी थे.  इस शो में करीबन तीस एपीसोड में मुझे अलग अलग तरह के गाने गाते हुए हिमेश रेशमिया जी ने सुना था.  मैने गजल व रॉक सहित सब कुछ गाया था. मेरे गायन में इतनी विविधता से हिमेश जी ख्ुाश थे. इस शो में हिमेश जी ने वादा किया था कि वह मुझे एक मौका जरुर देंगेंजिसे उन्होेने ओह माय गाॅड’ में पूरा किया था. गो गो गोविंदा’ काफी लोकप्रिय हुआ. इसके बाद मुझे सन आफ सरदार’ में गाने का अवसर मिला. इसका शीर्ष गीत मैने गाया था. फिर फिल्म खिलाड़ी 786’ का गाना हुक्काबाज’,तो आज भी लोग गुनगुनाते मिल जाएंगे. उसके बाद

स्पेशल 26’ के लिए गाया. उसके बाद मुझे 2014 में फिल्म ‘‘भूतनाथ रिटर्न’ में अमिताभ बच्चन के लिए गाने को मिला. फिर सिलसिला रूका नही.

दस वर्ष के आपके कैरियर के टर्निंग प्वाइंट्स क्या रहे?

-देखिए,मेरा सफर आसान नही रहा. बहुत उतार चढ़ाव रहे. पहले मुझे लगा कि शुरूआत में ही तीन माह के अंदर पांच सुपरहिट गाने आ गए हैंतो अब संघर्ष खत्म हो जाएगा. पर वैसा कुछ भी नहीं हुआ. मैं इंडस्ट्ी के चलन से वाकिफ नही था. मुझे लगता था कि मैने गाना गा दिया. गाना बाजार में आ गया. बस मेरा काम खत्म. लोग ख्ुाद सुनेंगें और सवाल करेंगे कि गायक कौन हैउस वक्त मुझे प्रचार और मीडिया की कोई समझ ही नहीं थी. बाद मंे समझ मंे आया कि बाजार में गाने के आने के बाद एक अलग जंग शुरू होती है. गाने के बाजार में आने के बाद उसे हिट बनाने और लोगों तक पहुॅचाने का एक संघर्ष होता है. मीडिया से बात करनी होती हैवगैरह वगैरह समझ मंे आया. पर पहले में नासमझ थाइसलिए लोग गो गो गोविंदा ’ गुनगुना रहे थेपर उन्हे पता नहीं था कि इसका गायक कौन है.  हुक्का बार’ इतना बड़ा गाना हैपर लोगों को लगता है कि हिमेश भाई ने गाया है. अब मैं लोगो को बताने लगा कि हुक्का बार’ को मैने गाया है और हिमेश भाई ने संगीत दिया है. तो पूरे दस वर्ष संघर्ष में ही बीते हैं.  उस वक्त तो सोशल मीडिया भी नहीं था. पर अब सोशल मीडिया के माध्यम से लोगांे तक पहुंचना आसान हो गया है.  पहले जिनके इंटरव्यू टीवी पर आते थे या अखबारों मंे छपते थेलोग उन्हे ही जानते थे.

तो क्या यह माना जाए कि लोगों को अपने नाम व चेहरे से परिचित कराने के लिए 2014 में आपने अपना संगीत अलबम निकाला था?

 -जी हाॅ! मैने पहला सिंगल गाना गाया था. इसकी वजह यह थी कि मैं फिल्मों में उसी तरह के गीत गा रहा थाजिन्हे संगीतकार मुझसे गवा रहे थे. मैं वहां अपनी पसंद या नापंसद नही चला सकता था.  तो मैने अपनी पसंद का गाना गाने के लिए यह तरीका अपनाया था.

किसी भी फिल्म को गाने से पहले क्या स्क्रिप्ट पढ़ना पसंद करते हैं?

-हमें स्क्रिप्ट नही मिलती. केवल निर्देशक की तरफ से पूरी सिच्युएशन बतायी जाती है. वह बताते हैं कि गाना कहना क्या चाहता है. गाने के पात्र क्या सोच रहे हैंक्या महसूस कर रहे हैं. जिससे मैं वह सारे भाव गाते हुए गाने में ला सकॅूं.

मैं कहां आ गई- भाग 4

इस से भी ज्यादा गजब यह हुआ

कि उस ने सिर्फ यह बताया था कि मेरा घर मुमताजाबाद, मुलतान में है. इस से पहले कि वह मकान नंबर या अब्बा का नाम

बताता, उस की रूह उड़ गई. यह भी हो सकता है कि इतने दिन गुजर जाने के बाद वह यह मालूमात भूल ही गया हो. उसे

सिर्फ मुमताजाबाद याद रह गया हो.”

“उस बेहूदा आदमी ने तुम्हें हम से जुदा कर दिया और तुम उसे मोहसिन कहती हो. सोचो, अगर वह उसी वक्त तुम्हें हमारे

पास ले आता तो आज यह दिन देखने को नहीं मिलता.” रशीद अहमद ने गुस्से से कहा.

“मैं उसे इसलिए मोहसिन कहती हंू कि उस ने अपनी मौत से पहले मेरी हकीकत मुझे बता कर मुझ पर एहसान किया.

अगर वह न बताता तो आज मैं वहां होती, जहां से अगर वापस आती तो आप मुझे अपनी बहन जानते हुए भी कबूल करने से

इनकार कर देते.”

नरगिस ने आगे बताया, “अब यह बताना जरूरी नहीं कि अब मेरा वहां रहना मुश्किल नहीं रहा था. मैं उन के घर से निकली

और मुलतान का टिकट ले कर गाड़ी में बैठ गई. गाड़ी में मुझे सरफराज की वालिदा मिल गई. फिर जो कुछ हुआ, वह

सरफराज साहब आप को बता ही चुके हैं.”

नरगिस को कराची आते ही यह खबर मिल चुकी थी कि उस के वालिदैन का इंतकाल हो चुका है. अब रशीद भाईजान ही उस

के सब कुछ हैं. उस की खुशी आधी रह गई थी, लेकिन यह खुशी फिर भी थी कि अब वह एक शरीफ घर में शरीफाना

ङ्क्षजदगी गुजारेगी.

नई जगह थी, इसलिए सुबह जल्दी ही नींद टूट गई. सुबह से कुछ पहले ही वह बिस्तर से उठी. जब से वह बड़ी बी के घर आई

थी, नमाज की पाबंद हो गई थी. नमाज अदा की और फिर लौन में आ कर टहलने लगी. कुछ देर बाद वह वापस आ गई. घर

में अभी तक सब लोग सो रहे थे. नरगिस कुछ देर अपनी ङ्क्षजदगी पर गौर करती रही. कोई व्यस्तता तो थी नहीं. लेटेलेटे

नींद आ गई. आंख खुली तो घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे. नरगिस घबरा कर उठी और एक बार फिर हाथमुंह धो कर बाहर

निकली तो भाई रशीद को अकेले नाश्ता करते देखा.

नरगिस ने सलाम करने के बाद कहा, “मैं तो समझ रही थी, आप औफिस जा चुके होंगे.”

“अरे, अपना औफिस है. तेरा भाई किसी का मुलाजिम तो है नहीं. आओ, तुम भी नाश्ता कर लो.” रशीद बोला.

“इमराना और फरहाना कहां हैं?” नरगिस ने पूछा.

“उन्हें कालेज जाना होता है, 8 बजे चली गई होंगी.”

“और इमरान?”

“उस की मत पूछो. बरखुरदार नींद के ऐसे शौकीन हैं कि दोपहर की शिफ्ट में दाखिला लिया है. वह 11 बजे उठेंगे.”

“भाभी को तो नाश्ते की मेज पर होना चाहिए था. आप अकेले नाश्ता कर रहे हैं.”

“वह रात को देर तक जागती हैं. उन्हें कहीं जाना तो होता नहीं. अपनी मर्जी से उठती हैं. हमारी मुलाकात शाम की चाय पर

होती है या रात के खाने पर.”

नरगिस सोच में पड़ गई. यह कैसा घर है, जहां लोग एकसाथ बैठ कर नाश्ता भी नहीं करते. हर शख्स अपनी अलग

ङ्क्षजदगी गुजार रहा है.

रशीद अहमद ने नाश्ता किया और तैयार होने के लिए ड्रेङ्क्षसगरूम में चले गए. तैयार हो कर आए तो नरगिस भी नाश्ता

कर चुकी थी.

“अच्छा नजमा, मैं औफिस जा रहा हूं. तुम्हारी खातिर दोपहर को आ जाऊंगा. उस वक्त तक तुम्हारी भाभी भी उठ जाएंगी.

तुम उन से गपशप करना.”

नरगिस अपने भाई को छोडऩे दरवाजे तक गई और उस वक्त तक वहां खड़ी रही, जब तक ड्राइवर ने गाड़ी गेट से बाहर नहीं

कर ली. यह पहला मौका था, जब कोई रशीद अहमद को छोडऩे दरवाजे तक आया था.

इतने बड़े घर में नरगिस अकेली घूमती रही. अल्लाहअल्लाह कर के 11 बजे इमरान सो कर उठा. उठते ही उस ने पूरे घर को

सिर पर उठा लिया. मजबूरन उस की मां को भी उठना पड़ा. मांबेटे जल्दीजल्दी तैयार हुए. इमरान ने नाश्ता किया और

स्कूल चला गया.

थोड़ी देर में रशीद अहमद आ गए. उन्हें देख कर बीवी चौंकी, “आप आज इतनी जल्दी आ गए.”

“भई, मैं ने सोचा, नजमा अकेली बोर हो रही होगी. इमरानाफरहाना आ जाएं तो कहीं घूमने निकलते हैं.”

इमराना और फरहाना आ गईं. दोपहर का खाना सब ने मिल कर खाया. नरगिस को खुशी हो रही थी कि नाश्ते पर न सही,

खाने पर तो सब मौजूद हैं.

“कराची बाद में घूमेंगे, पहले तुम लोग नजमा को घर तो दिखा दो.” खाने के बाद रशीद अहमद ने बेटियों से कहा.

“अच्छा डैडी.” उन्होंने बेदिली से कहा और नरगिस को ले कर चली गई. तमाम कमरे दिखाने के बाद वे उसे एक हौलरूपी

कमरे में ले गईं. उस कमरे में कालीन के सिवा कोई फर्नीचर नहीं था. संगीत के जितने वाद्य हो सकते हैं, सब उस कमरे में

मौजूद थे. तबले की जोड़ी, हारमोनियम, ड्रम, गिटार. क्या था, जो वहां नहीं था. एक कोने में घुंघरू पड़े हुए थे. नरगिस को

फुरेरी आ गई. उसे बहुत दिनों बाद दिलशाद बेगम का कोठा याद आ गया.

“यह सब क्या है इमराना?” नरगिस ने भयभीत आवाज में पूछा.

“यह हमारा बालरूम है. यहां हम डांस करते हैं, संगीत सुनते हैं, शोर मचाते हैं, मौज उड़ाते हैं. यह साउंडप्रूफ कमरा है. यहां

हम कितना ही शोर मचाएं, बाकी घर वाले डिस्टर्ब नहीं होते.”

“तुम लोग डांस करती हो?” नरगिस को जैसे यकीन नहीं हुआ.

“हां, आप को भी दिखाएंगे किसी दिन. फरहाना तो ऐसा नाचती है कि बिजली भी क्या कौंधेगी. डैडी कहते हैं, पहले तालीम

पूरी कर लो, वरना फिल्मों के दरवाजे तो उस के लिए हर वक्त खुले हैं.”

नरगिस पर हैरतों के पहाड़ टूट रहे थे. तमाशबीनों के सिवा यहां तो सब कुछ दिलशाद बेगम के कोठे की तरह था.

नरगिस सोच रही थी. अगर वह यह सब कुछ न देखती तो अच्छा था. वह तो किसी पाकीजा माहौल की तलाश में आई थी,

मगर यह सब क्या है? उस ने सोचा, वह इस माहौल को बदलने की कोशिश करेगी. शरीफ घरों का नक्शा उस के जेहन में

कुछ और था, जो यहां नहीं था.

“घर देख आईं नजमा?” रशीद अहमद ने पूछा.

“जी, आप का घर बहुत पसंद आया.” उस की आवाज में छिपे व्यंग्य को रशीद अहमद महसूस नहीं कर सका.

“आओ, अब तुम्हें कराची घुमाने चलते हैं.” रशीद अहमद ने कहा. उस के बाद इमराना और फरहाना से कहा कि वे भी चलें.

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