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YRKKH: अबीर को अस्पताल में देखकर परेशान होगी अक्षरा, अभिनव का होगा बुरा हाल

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में इन दिनों ड्रामा देखने को मिल रहा है,सीरियल की कहानी में पहले से ज्यादा ट्विस्ट आ गया है. बता दें कि सीरियल की कहानी पूरी तरह से पलटने वाली है, अब दिखाया जाएगा कि अबीर की तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही है.

जिसके बारे में अक्षरा और अभिनव दोनों को ही नहीं पता है, वहीं दूसरी तरफ अबीर के लिए अभिमन्यु भी थोड़ा- थोड़ा परेशान है, बीते एपिसोड में फूटबॉल मैच होता है जहां पर अबीर की हालत थोड़ी सी खराब होती नजर आ रही है,

 

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अब आने वाले एपिसोड में दिखाया जाएगा कि अबीर की फूटबॉल मैच शुरू हो जाती है और वह खराब हालत में पूरा मैच खेलता हुआ नजर आएगा, लेकिन इस दौरान बीच बीच में उसे चक्कर जैसा महूसस होगा जिसके बावजूद भी वह खुद को संभालता हुआ नजर आएगा.

वहीं दूसरी तरफ अक्षरा और अभिमन्यु अपने बेटे को खूब चैयर करते नजर आएंगे, उदयपुर में बैठे अभिमन्यु को भी अपने बेेटे की चिंता हमेशा लगी रहती है कि कैसा है अबीर.

हालांकि अबीर इस मैच को जीतने के बाद से अभिनव की गोद में ही बेहोश हो जाता है, वहीं अक्षरा और अभिनव अपने बेटे को संभाल नहीं पाते हैं, उसे तुरंत अस्पताल लेकर जाते हैं, लेकिन यहां पर डॉक्टर किसी के साथ फोन पर बात करने में व्यस्त रहता है, जिसके बाद से अभिनव को गुस्सा आता है,

इतने में अभिनव उसका कॉलर पकड़ लेता है तभी डॉक्टर मना करता है कि मुझे ऐसे मत परेशान करो,  अभिनव शांत हो जाता है,

आपके दांतों में है ये परेशानी तो हो जाएं सावधान

स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है अच्छी डाइट लेना और अच्छी डाइट को लेने के लिए जरूरी है हमारे मुँह का स्वस्थ होना यानि हमारी ओरल हेल्थ का स्वस्थ होना क्योंकि यदि हम अपने दांतों और मसूड़ों की देखभाल नहीं करेंगे तो यह हमें कई बिमारियों से ग्रस्त कर सकता है. आपके दाँत न सिर्फ आपको खाना चबाने और बात करने में मदद करते हैं बल्कि ये आपको अच्छा दिखने में भी मदद करते हैं. लेकिन यदि आप इनकी सही देखभाल नहीं करते हैं तो आपको इनकी वजह से शर्मिंदगी का सामना करना पड़ सकता है ,हमारे देश में बड़े पैमाने पर लोग ओरल हेल्थ की समस्या से परेशान हैं.

इसके बावजूद लोग अपने दांतों को लेकर लापरवाही बरतते हैं. इसलिए लोगों को ओरल हेल्थ के प्रति जागरूक करने के लिए 20 मार्च का दिन ‘वर्ल्ड ओरल हेल्थ डे’ के रूप में मनाया जाता है. 2021 -2023 तक के लिए ‘बी प्राउड ऑफ योर माउथ फॉर योर हैप्पिनेस एंड वेल-बीइंग ‘ की थीम के साथ मनाया जा रहा है. इसे पहली बार साल 2013 में मनाया गया था. यदि आप भी चाहते हैं खुद को स्वस्थ रखना तो अपनाएं ओरल हेल्थ से जुडी ये जरूरी बातें.
लक्षणों को पहचाने
ब्रशिंग और फ्लॉसिंग के दौरान आपके मसूड़ों में से ख़ून आना .
मुंह से बदबू आना व दांतों का पीला होना .
ठंडा या गर्म खाने पर दांतों में झनझनाहट होना .
मसूड़ों में सूजन होना .
मुँह में गांठ ,छाले या घाव होना.

प्रमुख कारण जो बिगाड़ते हैं ओरल हेल्थ
कैविटीज
यह दाँतों से जुडी एक आम समस्या है इसमें बैक्टीरिया, फूड और एसिड मिलकर दाँतों पर प्लाक की परत जमा कर देते हैं. जिससे धीरे-धीरे दांतो के इनैमल और कनेक्टिव टिशु डैमेज होने लगते हैं जिससे दांत परमानेंट खराब होने लगते हैं इसे कैरीस भी कहा जाता है.

सेंसिटिविटी
कुछ भी ठंडा या गर्म खाने पर दांतों में झनझनाहट होना, खट्टा या मीठा लगने पर सेंसेशन होना जैसी समस्याओं को ही दांतों की सेंसिटिविटी या डेंटिन हायपरसेंसटिविटी कहते हैं.
जिंजिवाइटिस
मसूढ़ों में सूजन, खून आना या फिर इनका लाल होना जिंजिवाइटिस रोग कहलाता है। यदि समस्या लगातार बनी रहे तो दांत जड़ से ढीले होकर गिरने लगते हैं। इस से पीरियडोंटाइटिस की समस्या भी हो सकती है। जिसकी वजह से पूरे शरीर में सूजन और दर्द की समस्या होती है.
उपचार
दाँतों की समस्या जानने के लिए डेंटल एक्स रे, एमआरआई स्कैन, सीटी स्कैन और एंडोस्कोपी की जाँच का सहारा लिया जाता है.

दांतों का ट्रीटमेंट करने के लिए क्लीनिंग से दांतों पर मौजूद प्लाक को हटाया जाता है. यदि दाँत में हल्का कीड़ा लगा है या दाँत में छेद हो गया है तो इसमें डेंटिस्ट दातों में ड्रिल करके टूथ फिलिंग की जाती है.दातों के इनैमल को मजबूत व बैक्टीरिया और एसिड से दूर रखने के लिए फ्लोराइड ट्रीटमेंट किया जाता है. जब कीड़ा दाँत को जड़ तक खराब कर देता है तब दांतों में मौजूद नर्व को या तो बदला जाता है या निकाल दिया जाता है।जिसे रूट कैनाल ट्रीटमेंट कहते हैं.
ओरल हेल्थ को बेहतर बनाने के तरिके
*दिन में दो बार ,दो मिनट तक दांतों पर ऊपर से नीचे व नीचे से ऊपर की दिशा में ब्रश करें। ऐसा करने से मसूड़ों के बीच में फसा खाना निकल जाता है.
*सोने से पहले फ्लॉस का इस्तेमाल करें.
*फ्लोराइड युक्त टूथपेस्ट और माउथवॉश का प्रयोग करें.
*दांतों में चिपकने वाली चीज़ खाने के बाद में अच्छे से कुल्ला या ब्रश अवश्य करें.
*रूटीन चेकअप अवश्य कराएं व 3 महीने के अंतराल पर अपना टूथ ब्रश अवश्य बदलें.

जब भेजें बच्चे को डे केयर

कुछ ​​दिनों पहले नवी मुंबई के एक क्रेच में 10 महीनें की एक बच्ची को पीटने, पटकने और लात मारने की दिल दहलाने वाली घटना सामने आई थी. जब पुलिस एवं बच्ची के अभिभावकों ने क्रेच की सीसीटीवी कैमरे में फुटेज देखी तो वे हैरान रह गए. फुटेज में डे केयर सैंटर की आया बच्ची की पिटाई कर रही थी, उसे थप्पड़ मार रही थी.

वैसे यह पहली घटना नहीं है जिस में क्रेच में बच्चों के साथ ऐसा किया गया हो, इस से पहले भी दिल्ली से सटे क्रौसिंग रिपब्लिक इलाके में पुलिस ने क्रेच चलाने वाले करीब 70 साल के एक शख्स को गिरफतार किया था. आरोप था कि वह क्रेच में 5 साल की बच्ची के साथ छेड़छाड़ करता था.

लगभग आज इस तरह की घटनाएं घटित होती रहती हैं, जिसमें क्रेच में बच्चों के साथ शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है. दरअसल आज ​महिलाएं सासससुर के साथ रहना पसंद नहीं करतीं और न ही अपने कैरियर के साथ किसी तरह का कौम्प्रमाइज करती हैं, उन्हें लगता है क्रेच तो है ही, जहां उनके बच्चे सुरक्षित रह सकते हैं, वहां उन के खानेपीने से ले कर खेलने, आराम करने और एक्टिविटी सिखने का पूरा इंतजाम होता है . वे सुबह औफिस जाते समय बच्चे को क्रेच में छोड़ देती हैं और शाम को आते समय साथ ले कर आती हैं . अगर किसी दिन उन्हें लेट होता है तो क्रेच संचालक को फोन कर के बता देती हैं ‘आज मुझे आने में देर होगा आप प्रिया का ध्यान रखना’ और जब बच्चे को घर ले कर आती हैं तब उस के साथ समय बिताने के बजाय अन्य कामों में व्यस्त रहती हैं सिर्फ संडे को ही बच्चे के साथ समय बिताती हैं.

लेकिन अपने बच्चे को पूरी तरह से डे केयर के हवाले छोड़ना सही नहीं है. ऐसा करने से आप के और बच्चे के बीच बौंडिंग नहीं बन पाती है वह आप से बातें शेयर नहीं कर पाता, उदास रहने लगता है . कई बार तो बच्चा अपने साथ हो रहे शोषण को समझ ही नहीं पाता कि उस के साथ क्या हो रहा है .

आप अपने बच्चे को क्रेच भेज रही हैं, वहां उस का अच्छे से ध्यान रखा जाता है, वह नईनई चीजें भी सीखता है लेकिन इस के बावजूद हर दिन बच्चे की मौनिटरिंग करें कि क्रेच में उसे किस तरह से रखा जाता है, उसे वहां कोई परेशानी तो नहीं होती क्योंकि बच्चे कुछ कहते नहीं हैं बस रोते रहते हैं और मातापिता को लगता है कि वे जाना नहीं चाहते इसलिए रो रहे हैं. यह आप की जिम्मेदारी है कि आप जानें कि आख्रिर बच्चा क्यों नहीं जाना चाहता.

हर ​दिन करें ये काम

· औफिस से घर आने के बाद आप कितनी भी थक क्यों न गईं हों लेकिन अपने बच्चे के साथ समय बिताएं, उस से बातें करें कि आज क्रेच में क्या किया, क्या खाया, क्या सीखा? वहां मजा आता है कि नहीं. अगर बच्चा कुछ अजीब सा जवाब देता है तो उसे हल्के में न लें बल्कि यह जानने कि कोशिश करें कि बच्चा ऐसा क्यों कह रहा है.

· बच्चा जब क्रेच से वापस आए तो जरुर चैक करें कि उस के शरीर पर कोई निशान तो नहीं है . अगर है तो बच्चे से पूछें कि निशान कैसे आया . साथ ही यह भी देखें कि उस की नैपी बदली गई है या नहीं . आप ने लंच में उसे जो खाने के लिए दिया था, उस ने खाया है या नहीं .

जब क्रेच ढूंढ़ने जाएं

· बिजली व पानी की कैसी व्यवस्था है, बिस्तर साफ है या नहीं, बच्चे के खेलने के लिए कैसे खिलौने हैं, किस तरह के खिलौने हैं यह जरुर देखें.

· क्रेच हमेशा हवादार, खुला और रोशनी वाला होना चाहिए.

· यह भी देखें कि क्रेच में जो बच्चे का ध्यान रखती है वह कैसी है, बच्चों के प्रति उस का व्यवहार कैसा है.

· वहां आने वाले बच्चों के मातापिता से बात करें कि क्रेच कैसा है, वे संतुष्ट हैं कि नहीं, वे अपने बच्चे को कब  से वहां भेज रहे हैं.

· सस्ते व घर के पास के चक्कर में अपने बच्चे को कहीं भी न रखें क्योंकि वहां आप के बच्चे को रहना है इसलिए कोशिश करें क्रेच साफसुथरा हो.

दिल का नया रिश्ता : वर्क वाइफ, वर्क हसबैंड

आप को उस के दोस्तों के नाम पता हैं. आप उस की पसंदीदा फिल्मों के नाम जानती हैं. आप उस की जिंदगी में घटी तमाम खास घटनाएं जानती हैं. आप उस पर आंख मूंद कर भरोसा करती हैं. कभीकभी वह आप को डांटता है, फिर भी आप उस की शिकायत किसी और से नहीं करतीं, न ही आप को यह सब बुरा लगता है. आप को उस के बोलने के अंदाज का पता है. उस के मन में क्या चलता रहता है, आप को इस का भी अंदाजा रहता है.

सवाल- आखिर आप का वह कौन है?

आप उस से उम्मीद करते हैं कि वह आप के पसंदीदा कपड़े पहने. आप चाहते हैं जब आप दोनों लंच करने बैठें तो खाना वह परोसे. आप चाहते हैं जब आप कुछ बोल रहे हों, भले गुस्से में तो भी वह चुपचाप सुन ले, पलट कर उस समय जवाब न दे, बाद में भले उलटे आप को डांट दे. आप उसे अपने फ्यूचर के प्लान बताते हैं, यात्राओं के दौरान घटी दिलचस्प घटनाएं बताते हैं. आप उस के साथ बैठ कर काम करने की बेहतर रणनीति पर विचार करते हैं.

सवाल- आखिर वह आप की कौन है?

जी हां पहले सवाल का जवाब है पति और दूसरे सवाल का जवाब है पत्नी. लेकिन रुकिए ये सामान्य जीवन के पतिपत्नी नहीं हैं. ये वर्क हसबैंड और वर्क वाइफ हैं. वर्क हसबैंड यानी कार्यस्थल या दफ्तर का पति. इसी तरह वर्क वाइफ का भी मतलब है कार्यस्थल या दफ्तर की पत्नी. सुनने में यह भले थोड़ा अटपटा लगे या झेंप जाएं, मगर हकीकत यही है. कामकाज की नई संस्कृति के फलनेफूलने के साथ ही दुनिया भर में ऐसे पतिपत्नियों की संख्या दफ्तरों में काम करने वाले कुल लोगों के करीब 40 फीसदी है.

1950 के दशक में अमेरीका में ऐसे रिश्तों के लिए बड़ी शिद्दत से एक शब्द का इस्तेमाल किया जाता था- वर्कस्पाउस. ये वर्क वाइफ, वर्क हसबैंड वास्तव में उसी शब्द के विस्तार हैं. कहने का मतलब यह है कि कामकाजी दुनिया में यह कोई नया रिश्ता नहीं है. बस, नया है तो इतना कि अब इस रिश्ते को दुनिया के ज्यादातर देशों में साफसाफ शब्दों में स्वीकार किया जाने लगा है. इसलिए हमें इस रिश्ते को ले कर आश्चर्य प्रकट करने की कोईर् जरूरत नहीं है. सालों से दुनिया में इस तरह के संबंधों की मौजूदगी है और हो भी क्यों न? यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जब हम दिन का ज्यादातर समय साथसाथ गुजारते हैं तो आखिर भावनात्मक रिश्ते क्यों नहीं विकसित होंगे?

औस्कर वाइल्ड ने कहा था, ‘‘औरत और आदमी बहुत कुछ हो सकते हैं, मगर सिर्फ दोस्त नहीं हो सकते. दोस्त होते हुए भी उन में औरत और आदमी का रिश्ता विकसित हो जाता है.’’

मनोविद भी कहते हैं कि जब 2 विपरीत सैक्स के लोग एकदूसरे के साथ लगाव महसूस करते हैं, तो उन का यह लगाव उन की स्वाभाविक भूमिकाओं वाला आकार ले लेता है यानी पुरुष, पुरुष हो जाता है और औरत, औरत हो जाती है.

पहले भी रहे ऐसे रिश्ते

ऐसे रिश्ते हमेशा रहे हैं और जब भी औरत और आदमी साथसाथ होंगे हमेशा रहेंगे. ऐसे रिश्ते पहले भी थे, पर उन की संख्या बहुत कम थी. इस की वजह थी औरतों का घर से बाहर निकलना मुश्किल था, दफ्तरों में आमतौर पर पुरुष ही पुरुष होते थे. मगर अब जमाना बदल चुका है. आज के दौर में स्त्री और पुरुष दोनों ही घर से बाहर निकल कर साथसाथ काम कर रहे हैं. दोनों का ही आज घर में रहने की तुलना में दफ्तर में ज्यादा वक्त गुजर रहा है. काम की संस्कृति भी कुछ ऐसी विकसित हुई है कि तमाम काम साथसाथ मिल कर करने पड़ रहे हैं. लिहाजा, एक ही दफ्तर में काम करते हुए 2 विपरीत सैक्स के बीच प्रोफैशनल के साथसाथ भावनात्मक नजदीकियां बढ़नी भी बहुत स्वाभाविक है.

एक जमाना था, जब दफ्तर का मतलब होता था सिर्फ 8 घंटे. लेकिन आज दफ्तरों का मिजाज 8 घंटे वाला नहीं रह गया है. आज की तारीख में व्हाइट कौलर जौब वाले प्रोफैशनलों के लिए दफ्तर का मतलब है एक तयशुदा टारगेट पूरा करना, जिस में हर दिन के 12 घंटे भी लग सकते हैं और कभीकभी लगातार 24 से 36 घंटों तक भी साथ रहते हुए काम करना पड़ सकता है.

ऐसा इसलिए है, क्योंकि अर्थव्यवस्था बदल गई है, दुनिया सिमट गई है और वास्तविकता से ज्यादा चीजें आभासी हो गई हैं. जाहिर है लंबे समय तक दफ्तर में साथसाथ रहने वाले 2 लोग अपने सुखदुख भी साझा करेंगे, क्योंकि जब 2 लोग साथसाथ रहते हुए काम करते हैं, तो वे आपस में हंसते भी हैं, साथ खाना भी खाते हैं, एकदूसरे के घरपरिवार के बारे में भी सुनते व जानते हैं, बौस की बुराई भी मिल कर करते हैं और एकदूसरे को तरोताजा रखने के लिए एकदूसरे को चुटकुले भी सुनाते हैं. यह सब कुछ एक छोटे से कैबिन में संपन्न होता है, जहां 2 सहकर्मी बिलकुल पासपास होते हैं. ऐसी स्थिति में वे एकदूसरे को चाहेअनचाहे हर चीज साझा करते हैं. सहकर्मी को कैसा म्यूजिक पसंद है यह आप को भी पता होता है और उसे भी. उसे चौकलेट पसंद है या आइसक्रीम यह बात दोनों सहकर्मी भलीभांति जानते हैं. जाहिर है लगाव की डोर इन सब धागों से ही बनती है.

जब साथ काम करतेकरते काफी वक्त गुजर जाता है, तो हम एकदूसरे के सिर्फ काम की क्षमताएं ही नहीं, बल्कि मानसिक बुनावटों और भावनात्मक झुकावों को भी अच्छी तरह जानने लगते हैं. जाहिर है ऐसे में 2 विपरीत सैक्स के सहकर्मी एकदूसरे के लिए अपनेआप को कुछ इस तरह समायोजित करते हैं कि वे एकदूसरे के पूरक बन जाते हैं. उन में आपस में झगड़ा नहीं होता. दोनों मिल कर काम करते हैं तो काम भी ज्यादा होता है और थकान भी नहीं होती. दोनों साथ रहते हुए खुश भी रहते हैं यानी ऐसे सहकर्मी मियांबीवी की तरह काम करने लगते हैं. इसलिए ऐसे लोगों को समाजशास्त्र में परिभाषित करने के लिए वर्क हसबैंड और वर्क वाइफ की श्रेणी में रखा जाता है.

हो रही बढ़ोतरी

पहले इसे सैद्धांतिक तौर पर ही माना और समझा जाता था. लेकिन पूरी दुनिया में मशहूर कैरिअर वैबसाइट वाल्ट डौटकौम ने एक सर्वे किया और पाया कि 2010 में ऐसे वर्क हसबैंड और वर्क वाइफ करीब 30 फीसदी थे, जो 2014 में बढ़ कर 44 फीसदी हो गए हैं. इस स्टडी के लेखकों ने एक बहुत ही जानासमझा उदाहरण दे कर दुनिया को समझाने की कोशिश की है कि वर्क वाइफ और वर्क हसबैंड कैसे होते हैं? उदाहरण यह है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जौर्ज बुश व उन की विदेश मंत्री व राष्ट्रीय सलाहकार रहीं कोंडालिजा राइस के बीच जो कामकाजी कैमिस्ट्री थी, वह वर्क हसबैंड या वर्क वाइफ के दायरे में आने वाली कैमिस्ट्री थी.

कितना जायज है यह रिश्ता

सवाल है क्या यह रिश्ता जायज है? क्या यह रिश्ता विश्वसनीय है? वाल्ट डौटकौम का सर्वेक्षण निष्कर्ष इस बात की पुष्टि करता है कि लोग इसे एक जरूरी और मजबूत रिश्ता मानते हैं. इस सर्वेक्षण के दौरान ज्यादातर लोगों ने कहा कि दफ्तर में पसंदीदा सहकर्मी के साथ जो रिश्ते बनते हैं, वे ज्यादा विश्वसनीय और ज्यादा मजबूत होते हैं. लोग इन रिश्तों को बखूबी निभाते हैं. करीब वैसे ही जैसे कोई शादीशुदा जोड़ा अपनी जिंदगी को सुचारु रूप से निभाने की कोशिश करता है. इस रिश्ते को पश्चिम में समाजशास्त्रियों ने व्यावहारिकता की कई कसौटियों में रख कर देखा है और उन्होंने पाया है कि यह रिश्ता न सिर्फ बेहद खास, बल्कि बहुत ही समझदारी भरा भी होता है.

इस रिश्ते में रोमांस नहीं होता, बस जोड़े एकदूसरे के साथ जज्बाती लगाव रखते हैं और एकदूसरे की परेशानियों और हकीकतों को बेहतर समझते हुए उस रिश्ते के लिए जमीन तलाशते हैं. हालांकि ज्यादातर ऐसे जोड़े जो ऐसे रिश्तों के दायरे में आते हैं, गहरे जिस्मानी रिश्ते नहीं रखते. लेकिन थोड़े बहुत रिश्ते तो सभी के होते हैं, मगर समाजशास्त्रियों ने अपने व्यापक विश्लेषणों में पाया है कि जिन जोड़ों के बीच जिस्मानी रिश्ते भी होते हैं, वे भी एकदूसरे की वास्तविक स्थितियों का सम्मान करते हैं और मौका पड़ने पर बहुत आसानी से एकदूसरे से दूरी बना लेते हैं, बिना किसी झगड़े, मनमुटाव के. प्रोफैसर मैकब्राइट जिन्होंने इस सर्वे का वृहद विश्लेषण किया, उन के मुताबिक बहुत कम लोगों के बीच इन कामकाजी रिश्तों के साथ रोमानी रिश्ता होता है. सवाल है आखिर इस रिश्ते का फायदा क्या है? इस सर्वेक्षण के निष्कर्षों की मानें और सर्वेक्षण के दौरान लोगों से किए गए साक्षात्कारों से निकले निष्कर्षों पर भरोसा करें तो जब 2 सहकर्मियों के बीच वर्क वाइफ या वर्क हसबैंड का रिश्ता बन जाता है, तो वे दोनों कर्मचारी अपने काम के प्रति ज्यादा ईमानदार हो जाते हैं. उन्हें काम से ज्यादा लगाव हो जाता है और ज्यादा काम भी होता है. यही वजह है कि दुनिया की तमाम बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाहती हैं कि उन के कर्मचारियों के बीच वर्क वाइफ, वर्क हसबैंड का रिश्ता बने तो बेहतर है.

आज दुनिया की तमाम कंपनियां अपने कर्मचारियों के लिए जिस किस्म का आरामदायक कार्य माहौल प्रदान कर रही हैं और दफ्तरों में जिस तरह महिलाओं और पुरुषों को करीब समान अनुपात में रख रही हैं, उस के पीछे एक सोच यह भी रहती है कि तमाम कर्मचारी अपनेअपने जोड़े तय कर के काम करें. मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक जब पुरुष और महिला एकसाथ बैठ कर काम करते हैं, तो उन में बिना किसी वजह के भी 10 फीसदी खुशी की भावनाएं होती हैं यानी जब अकेलेअकेले पुरुष या अकेलेअकेले महिलाएं काम करती हैं, तो वे काम से जल्द ऊब जाते हैं. उन का कार्य उत्पादन भी कम होता है और काम करने के प्रति कोई लगाव या रोमांच भी नहीं रहता.

मगर जब महिला और पुरुष मिल कर साथसाथ काम करते हैं, तो उन्हें एक आंतरिक खुशी का एहसास होता है, भले ही इस खुशी का कोई मतलब न हो. वास्तव में 2 विपरीत सैक्स के लोग एकसाथ समय गुजारते हुए एकदूसरे से चार्ज होते रहते हैं.

बढ़ती है काम की गुणवत्ता

तमाम सर्वेक्षणों और शोधों में यह भी पाया गया है कि जब महिला और पुरुष मिल कर काम करते हैं, तो वे न केवल ज्यादा काम करते हैं, बल्कि उच्च गुणवत्ता वाला काम भी करते हैं. साथ ही नएनए आइडियाज भी विकसित करते हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसी रणनीति के तहत अपने कर्मचारियों को आपस में घुलनेमिलने हेतु माहौल प्रदान करने के लिए अकसर पार्टियां आयोजित करती हैं. कर्मचारियों को एक खुशगवार माहौल में रखती हैं ताकि सब एकदूसरे की कमजोरियों और खूबियों को पहचान सकें ताकि कर्मचारियों को अपनेअपने अनुकूल साथी चुनने में दिक्कत न आए.

वर्क हसबैंड और वर्कवाइफ का चलन तेजी से बढ़ रहा है. हालांकि हिंदुस्तान जैसे समाज में ही नहीं अमेरिका और यूरोप जैसे समाजों में कर्मचारी इस शब्द के इस्तेमाल से झिझकते हैं. शादीशुदा या गैरशादीशुदा दोनों ही किस्म के कर्मचारी अपने परिवार और दोस्तों के बीच इस शब्द का इस्तेमाल भूल कर भी नहीं करते. यहां तक कि आपस में भी वे कभी इस शब्द का इस्तेमाल नहीं करते या एकदूसरे को नहीं जताते कि हां, ऐसा है. मगर वे एकदूसरे से इस भावना से जुड़े हैं, यह बात दोनों जानते हैं.

ये रिश्ते टूटते हैं

जिस तरह शादीशुदा जोड़ों के बीच तलाक होता है या कईर् बार रिश्ते ठंडे पड़ जाते हैं अथवा कई बार उन में अलगाव हो जाता है, उसी तरह ऐसे वर्क हसबैंड और वर्क वाइफ के बीच भी अलगाव होता है. कई बार आप की वर्क वाइफ किसी दूसरी कंपनी में चली जाती है और आप को नए सिरे से नए साथी की तलाश करनी पड़ती है. ठीक ऐसे ही उसे भी नए सिरे से वर्क हसबैंड की तलाश करनी पड़ती है. लेकिन ऐसे मौकों पर इस तरह के अलगाव को दिल से नहीं लेना चाहिए और न ही इस का अपने कामकाज पर प्रभाव पड़ने देना चाहिए. कई बार कुछ वर्क हसबैंड या वर्क वाइफ एकदूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं और वे एकदूसरे का साथ पाने के लिए अपनी उन्नतितरक्की को भी दांव पर लगा देते हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक यह व्यावहारिक कदम नहीं है. इस तरह के रिश्तों के भावनात्मक जाल में फंस कर अपनी बेहतरी के मौके को गंवा देना ठीक नहीं. अगर कामयाबी की सीढि़यां चढ़ने का मौका मिला है तो हर हाल में चढ़ें, क्योंकि क्या मालूम ऊपर की सीढि़यों में कोई और बेहतर साथी आप का इंतजार कर रहा हो, जो आप की प्रोफैशनल और भावनात्मक दोनों ही किस्म की जरूरतों को पहले साथी से बेहतर ढंग से पूरा कर सकता हो.

आखिर कहां खींचें लक्ष्मणरेखा

विशेषज्ञ कहते हैं कि कार्यस्थल पर किसी के साथ प्रोफैशनल झुकाव होना यानी वर्क हसबैंड या वर्क वाइफ होना अनैतिकता नहीं है. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह रिश्ता हमेशा हमारी वास्तविक यानी घरेलू जिंदगी के लिए चिंता का विषय बना रहता है. सवाल है ऐसा क्या करें जिस से इस तरह के डर या इस तरह की चिंताओं से दूर रहा जा सके?

– कार्यस्थल पर वर्क हसबैंड या वर्क वाइफ होना तो ठीक है लेकिन यह अक्लमंदी नहीं है कि आप घर जा कर पूरे दिन की दफ्तर की गतिविधियों की कौमैंट्री करें और सुबह दफ्तर पहुंच कर अपने विपरीतलिंगी सहकर्मी के साथ पूरी रात की गतिविधियों पर डिस्कस करें. घर और दफ्तर के बीच एक स्पष्ट सीमारेखा तय होनी चाहिए.

– यह बात हमेशा याद रखें कि न आप के वास्तविक पति का विकल्प वर्क हसबैंड हो सकता है और न ही आप के वर्कहसबैंड का विकल्प आप का वास्ततिक पति का हो सकता है. दोनों के बीच अपनीअपनी जगह, जरूरतें हैं और दोनों का अपनाअपना महत्त्व है. यही बात वर्क वाइफ और वास्तविक वाइफ के संदर्भ में भी लागू होती है. आप दोनों के बीच जिस दिन तुलना करने लगते हैं और दोनों को दोनों में तलाशने लगते हैं, उसी दिन से तनाव शुरू हो जाता है, क्योंकि कोईर् एक कमतर हो जाता है और दूसरा बेहतर.

– अपने वर्क हसबैंड के साथ कुछ मामलों में बिलकुल स्पष्ट रहें उस के साथ जितना हो सके. उस के साथ गुजारे गए समय को ही शेयर करें. न तो उसे जानबूझ कर नीचा दिखाने की कोशिश करें और न ही उस की अपने वास्तविक पति से तुलना करें. तुलना करें भी तो कभी भी यह बात उसे न बताएं. दरअसल, पुरुषों की यह कमजोर नस है कि वे खुद को सब से ऊपर ही मानना और देखना चाहते हैं. ऐसे में विशेष कर वर्क वाइफ के लिए यह दिक्कत पैदा हो सकती है. अगर वह दोनों के बारे में दोनों से बताती है. भले ही वह अलगअलग समय पर अलगअलग पुरुषों को दूसरे से बेहतर ही क्यों ने बताती हो?

सांसद भी नहीं रहे राहुल: गांधी होना गुनाह है

आख़िरकार उम्मीद के मुताबिक कांग्रेसी नेता राहुल गांधी से सांसदी छीन ली गई क्योंकि उन्हें सूरत की एक अदालत ने मानहानि के एक आरोप में 2 साल की सजा सुनाई थी. लेकिन क्या यह इतना बड़ा गुनाह था जितनी की सजा दे दी गई, इससे सहमत होने की कोई वजह नहीं. आज लोकतंत्र को श्रद्धांजलि देने का दिन है क्योंकि जो हुआ है उसमें भगवा गैंग का भय साफ़ दिखाई दे रहा है कि यह कहनेसुनने की बात नहीं है कि वह राहुल गांधी से डर गई थी. क्या है यह विवाद जिसमें मनमानी की सारी हदें तोड़ दी गईं, इसे सिलसिलेवार समझने के लिए नवंबर2020 में चलना पड़ेगा जब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कश्मीर में कहा था कि-

`यह गुपकार संगठन और कांग्रेस कश्मीर के माहौल में जहर घोलना चाहते हैं, उसे अंधेरे में ढकेलना चाहते हैं. अब्दुल्लाओं, मुफ्तियों और गांधियों ने मिलकर यही किया. आज गांधी परिवार कश्मीर के अब्दुल्ला व मुफ़्ती परिवार के साथ है तो उसकी वजह यह है कि मोदी सरकार ने कश्मीर से धारा 370 और 35 ए हटाकर इनकी लूट पर रोक लगा दी है.` इस आरोप पर किसी बुद्धिमान कांग्रेसी को यह नहीं सूझा था कि यह बयांन आईपीसी धाराओं 499 और 500 के तहत गांधी परिवार की मानहानि होती है जिसमें गांधी सरनेम पर विवादित टिप्पणी की गई है.गांधी परिवार पर ऐसी टिप्पणियां बेहद आम हैं. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भगवा गैंगके दूसरे, तीसरे, चौथे और तमाम निचले दर्जों के नेता प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से गांधियों को कोसते रहते हैं और इस बाबत उन्हें अब पानी पीने की भी जरूरत नही पड़ती.

लेकिन जैसे ही राहुल गांधी ने पहले कर्नाटक और बाद में दूसरे राज्यों में मोदी सरनेम वालों को चोर बताया या यह पूछा कि चोरों का सरनेम मोदी ही क्यों होता है तो सूरत पश्चिम से भाजपा विधायक और पूर्व मंत्री पूर्णेश मोदी ने उनके खिलाफ 2019 में ही मुकदमा दर्ज करा दिया था.सूरत की सैशन कोर्ट ने 22 मार्च को उन्हें 2 साल की कैद और 15 हजार के जुर्माने की सजा सुनाते जमानत के साथसाथ ऊपरी अदालत में अपील करने के लिए मोहलत भी दे दी लेकिन हैरतंगेज तरीके से दूसरे ही दिन उनकी सदस्यता छीन ली गई.

बकौल पूर्णेश मोदी, राहुल गांधी ने पूरे मोदी समुदाय को बदनाम किया है. देश और समाज में पसरा जातिवाद किसी सुबूत का मुहताज नही जिसमें जातिगत उपाधियों की भरमार है, मसलन कायस्थ चतुर होते हैं, ब्राह्मण लालची होते हैं, क्षत्रिय क्रूर और ऐयाश होते हैं, छोटी जाति वाले गंवार व पापी होते हैं.देश में आदमी जाति से पहचाना जाता है. इसी से उसकी सामाजिक हैसियत तय होती है. इसी से उसे मोक्ष का अधिकारी माना या न माना जाता है. हाल तो यह है कि सभी जातियों पर मुहावरों और दोहों तक की भरमार है.

अदालती फैसले का सियासी आकलन और लोकसभा सचिवालय के नोटिफिकेशन की मंशा समझने से पहले यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं कि आखिर मोदी होते कौन लोग हैं और करते क्या हैं. आमतौर पर माना यह जाता है कि जैन समुदाय के लोग मोदी सरनेम लिखते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद बड़े पैमाने पर लोगों ने जाना था कि किराने और तेल का कारोबार करने वाले साहू और तेली समाज के लोग भी मोदी सरनेम लिखते हैं

इसी समुदाय से नरेंद्र मोदी हैं जो अपनी जाति का जिक्र चुनावी सभाओं में करने से नही चूकते. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावप्रचार के दौरान उन्होंने खुद के तेली होने की दुहाई देते वोट मांगे थे क्योंकि इस राज्य में तेलियों की भरमार है जो अधिकतर साहू सरनेम लिखते हैं.महाराष्ट्र के सोलापुर में 17 अप्रैल,2019 को उन्होंने कहा भी था कि पिछड़ा होने की वजह से हम पिछड़ों को अनेक बार ऐसी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. अनेक बार कांग्रेस और उसके साथियों ने मेरी हैसियत बताई, मेरी जाति बताने वाली बातें कही हैं. कांग्रेस के नामदार ने पहले चौकीदार को चोर कहा, जब यह चला नहीं तो अब कह रहे हैं कि जिसका भी नाम मोदी हो, सारे चोर हैं.

जब कोई जाति पर ताना कसता है तो हर किसी को स्वाभाविक तकलीफ होती है. राजनीति में जाति की बिना पर फब्तियां कसना नई या हैरानी की बात नहीं. लेकिन बड़ी दिक्कत समाज है जो जातिवाद के जहर में गले तक डूबा हुआ है. एक उदाहरण से इस व्यथा को समझने के लिए आइए मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी जबलपुर चलते हैं जहां के गंजीपुरा इलाके के नजदीक एक महल्ला है साहू मोहल्ला. कुछ वर्षों पहले तक सवर्ण लोग इस महल्ले से सुबह निकलने से कतराते थे. माना यह जाता था कि सुबहसुबह किसी साहू का चेहरा दिख जाए तो अपशकुन होता है.पौराणिक तौर पर साहुओं की गिनती सछूत शूद्र वर्ण में होती है.

कानून ऐसी ज्यादतियों और बेइज्ज्ती पर खामोश रहता है क्योंकि इसे लेकर कोई अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाता कि यह तो हमारा अपमान है. यह व्यवस्था धर्म की दी हुई है, इसलिए सहज स्वीकार्य है.
राहुल गांधी के मामले में दोटूक कहा जा सकता है कि उनकी मंशा जाति की नहीं बल्कि घोटालों की थी और इसका जिक्र उन्होंने भाषण में किया भी है. आमतौर पर कानूनन जब आरोप स्पष्ट नहीं होता तो अदालतों को यह छूट मिली हुई है कि वे अपने विवेक से निर्णय लें. ऐसे मामलों में अदालतें आरोपी की मंशा यानी अभिप्राय देखसमझकर फैसला सुनाती हैं.कायस्थ चालाक होते हैं, इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि सारे कायस्थों को लपेटे में लिया जा रहा है क्योंकि कुछ कायस्थ बुद्धू या सरल भी हो सकते हैं.

बहरहाल, अभी देश कोर्ट के फैसले की समीक्षा कर ही रहा था कि राहुल गांधी की सांसदी भी छीन कर यह साबित कर दिया गया कि देश कबीलाई और मनमाने तरीके से चल रहा है. सरकार की आलोचना ईशनिंदा से कमतर गुनाह नहीं. राहुल गांधी को उनके गांधी होने की सजा मिल गई है क्योंकि उन्होंने माफ़ी नहीं मांगी थी. तानाशाही की ऐसी मिसाल लोकतांत्रिक तो क्या, राजेरजवाड़ों के दौर में भी सुनने को नहीं मिलती.

बदबू से मुंह तो नहीं फेरते

क्या याद कर के रोऊं कि कैसा शबाब था

कुछ भी न था हवा थी कहानी थी शबाब था.

अब इत्र भी मलो तो तकल्लुफ की बू कहां

वो दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था.

एक मशहूर शायर की गजल के ये 2 शुरुआती शेर एकसाथ कई बातें बताते हैं.

पहली, गुलाब की महक की पसीने से (जाहिर है माशूका के) तुलना और दूसरी, इत्र का इस्तेमाल है जो अब न के बराबर होता है.

आज जमाना परफ्यूम और डियोड्रैंट का है जो कई तरह की गंध और खुशबुओं में इतनी आकर्षक पैकिंग में मिलते हैं कि खरीदने गया शख्स चकरा जाता है कि कौन सा परफ्यूम खरीदा जाए कि लोग उस के कायल हो जाएं. ताजा महक, समुद्र के ताजे पानी की महक की है लेकिन गुलाब और दूसरे फूलों वाले परफ्यूम की पूछपरख भी कम नहीं हुई है.

फिलहाल परफ्यूम इंडस्ट्री सुनहरे दौर से गुजर रही है, क्योंकि परफ्यूम अब सभी लोग इस्तेमाल करते हैं. इस से जाहिर होता है कि लोग महकते रहने की अहमियत समझने लगे हैं. हर कोई शरीर से आती बदबू से नजात पाना चाहता है.

कब, किस मौके के लिए कौन सा परफ्यूम इस्तेमाल करना ठीक रहेगा, इस का कोई तयशुदा पैमाना नहीं है और न ही अधिकतर खरीदार जानते हैं कि एक अच्छे परफ्यूम की विशेषताएं क्या होती हैं और उन्हें खरीदते व इस्तेमाल करते वक्त क्या एहतियात बरतनी चाहिए. आइए इस बारे में जानें ताकि पसीने की बदबू दूसरों को नाक सिकोड़ने को इतना मजबूर न कर दे कि आप मुंह छिपाने की कोशिश करते नजर आएं.

दिखाएं खरीदते वक्त स्मार्टनैस

हर कोई इस्तेमाल करने से पहले खुद परफ्यूम की महक जान लेना चाहता है. आमतौर पर लोग पैकिंग खोल कर परफ्यूम की बोतल सूंघ कर देखते हैं या फिर विक्रेता इजाजत दे तो उसे अपने ऊपर इस्तेमाल कर के देखते हैं.

ये तरीके  बहुत ज्यादा कारगर साबित नहीं होते हैं, क्योंकि कई बार दुकान पर जो सुगंध महसूस हुई थी वह घर आने के बाद हवा हो गई लगती है, फिर सिवा झल्लाने और पछताने के कुछ नहीं रह जाता. बेहतर यह होता है कि परफ्यूम को अपने रूमाल या फिर शरीर के किसी खुले हिस्से पर स्प्रे करें. इस के बाद लगभग 15 मिनट बाद देखें, यदि अब भी वही महक कायम है तो परफ्यूम खरीदने लायक है.

पैकिंग की खूबसूरती देख कर महक का अंदाजा लगाने की गलती कतई न करें, न ही परफ्यूम की कीमत से तय करें कि सस्ता कम महकेगा और महंगा ज्यादा देर तक महकता रहेगा. ऐसा जरूरी नहीं.

दुकान में ज्यादा महक वाले परफ्यूम्स न सूंघें, इस से कन्फ्यूजन पैदा होता है और तमाम सुगंध मिक्स हो जाती है. आमतौर पर इन दिनों जो परफ्यूम चलन में हैं उन में कोलोन प्रमुख है. लेकिन फूलों की महक वाले यानी फ्लोरल परफ्यूम भी खूब इस्तेमाल किए जाते हैं. इन में गुलाब के अलावा जैस्मिन, ब्लौसम और गोडेनिया प्रमुख हैं.

खुद के लिए तो कोई सा भी परफ्यूम चल जाता है, लेकिन प्रेमी या प्रेमिका के लिए उस की पसंद का परफ्यूम खरीदना चुनौतीपूर्ण काम है. आमतौर पर युवतियों को फूलों की महक वाले परफ्यूम भाते हैं, तो युवकों की पसंद कुछ तीखी होती है. इस के बाद भी बात न जमे तो असमंजस से उबरने के लिए नीबू यानी सिट्रसकी महक वाला परफ्यूम खरीदें. इस की भीनीभीनी खुशबू काफी देर तक महकती रहती है.  शायपर इस का दूसरा विकल्प है और ओक मास तीसरा.

परफ्यूम लंबे वक्त तक रखने के बजाय उस का नियमित इस्तेमाल करना बेहतर होता है. परफ्यूम को कभी भी फ्रिज में रखने की गलती न करें और इसे धूप या रोशनी वाली जगह में भी न रखें. इस से वह जल्दी खराब होता है. नमी वाली जगह पर रखने से भी परफ्यूम खराब हो जाता है.

लगाते वक्त बरतें सावधानी

अधिक समय तक खुशबू के लिए ढेर सारा परफ्यूम न छिड़कें. इस से महक बहुत तीखी हो जाती है. परफ्यूम बगलों या गरदन पर लगाएं. इस से उस की महक वैसी बनी रहती है जैसी आप चाहते हैं.

परफ्यूम का इस्तेमाल नहाने के तुरंत बाद करने से यह देर तक महकता है, लेकिन गीली त्वचा पर इस का प्रयोग नहीं करना चाहिए. परफ्यूम लगाने के तुरंत बाद धूप में जाने से इस की महक कम हो जाती है, इसलिए घर से निकलने के कुछ देर पहले इसे लगा लेना चाहिए. कलाई पर लगा परफ्यूम ज्यादा देर तक महकता है, लेकिन लगाने के बाद कलाइयां आपस में नहीं रगड़नी चाहिए.

कपड़ों पर परफ्यूम के इस्तेमाल से बचना ही चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से कपड़ों के खराब होने की आशंका रहती है और इस से महक भी प्रभावित होती है. कलाई के अलावा कोहनी और कान के पिछले हिस्से पर परफ्यूम के इस्तेमाल से उस की महक देर तक बनी रहती है. नाभि और घुटने के पिछले हिस्से पर लगाया गया परफ्यूम भी देर तक महकता है.

डियोड्रैंट और परफ्यूम में फर्क

परफ्यूम और डियो स्प्रे या डियोड्रैंट में फर्क इतना भर है कि परफ्यूम महकते रहने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जबकि डियो का इस्तेमाल पसीने की बदबू दबाने में किया जाता है.

अगर आप को पसीना ज्यादा आता है तो डियो का इस्तेमाल करना ठीक होगा. गरमी के मौसम में डियो का प्रयोग ठीक रहता है.

साथ रखें माउथ फ्रैशनर

सांसों की बदबू से हर दूसरा आदमी परेशान है. इस से छुटकारा पाने के लिए माउथ फ्रैशनर व टूथपेस्ट का इस्तेमाल भी अब आम हो चला है.

भोपाल की वरिष्ठ ब्यूटीशियन निक्की बाबा किसी समारोह या सैमिनार में जाने से पहले अपने पर्स में इलायची या फिर माउथ फ्रैशनर जरूर रखती हैं. वे बताती हैं कि भीड़भाड़ वाले प्रोग्राम में किसी से भी बात करो, तो बदबू आती है. पर लोग इस तरफ ध्यान नहीं देते. ऐसे में सहज तरीके से आप सामने वाले से बात नहीं कर पाते.

अंतरंग पलों में माउथ फ्रैशनर उत्प्रेरक का काम करते हैं. अगर मुंह से बदबू आने का वहम भी होगा तो आप पार्टनर का जोरदार चुंबन न तो ले सकते हैं और न ही पूरे आत्मविश्वास से दे सकते हैं.

तो फिर देर किस बात की कि बदबू के कारण आप किसी से मुंह चुराएं या कोई आप से, उस से पहले ही नख से शिख तक खुशबू से सराबोर हो जाना हर्ज की बात तो नहीं.

मैं 1 महीने से बाईं ऐड़ी और तलवे में चुभन भरे दर्द से परेशान हूं, बताए मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 1 महीने से बाईं ऐड़ी और तलवे में चुभन भरे दर्द से परेशान हूं. यह दर्द चलते वक्त होता है. पैर में कभी कोई चोट नहीं लगी, लेकिन जैसे ही चलने के लिए पांव नीचे रखती हूं, दर्द शुरू हो जाता है. बताए मैं क्या करूं?

जवाब

आप के लक्षण प्लांटर फेशियाइटिस के हैं. यह विकार पांव के तले में ऐड़ी से पैर की उंगलियों तक फैली मोटी ऊतकीय तह में सूजन आने से उपजता है. ऐसे जूतेचप्पल जिन के तले में ठीक से कुशनिंग नहीं होती, उन्हें पहनने, देर तक खड़े रह कर काम करने, शरीर का वजन अधिक होने और धावक होने पर प्लांटर फेशियाइटिस होने का रिस्क बढ़ जाता है.

पांव की नैचुरल आर्च को मजबूत बनाने वाले व्यायाम करने, दिन में 3-4 बार 15-20 मिनट के लिए ठंडा सेंक करने, ठीक कुशनिंग वाले जूतेचप्पल पहनने और वजन घटाने से इस तकलीफ से राहत पाई जा सकती है. यदि रोग इस से काबू में न आए, तो किसी और्थोपैडिक सर्जन से मिलना वाजिब है. कुछ मामलों में ऐड़ी में स्टेराइड का टीका लगाने से भी आराम मिलता है. पर यह टीका किसी अनुभवी सर्जन से ही लगवाना चाहिए वरना कौंप्लिकेशंस का डर रहता है.

रैड लाइट: सुमि के दिलोदिमाग पर हावी था कौन सा डर

वो खतरनाक मुस्कान

उस कौफी शाप में बैठी मैं बड़ी देर से दरवाजे के बाहर आते जाते कदमों को देख रही थी. कदमों को पढ़ना भी एक कला है. दिल्ली की बसों या मेट्रो में लोगों के चेहरों को पढ़ना भी मेरी आदत में शुमार है. मैं चेहरे देख कर व्यक्ति के व्यवहार, पीड़ा या खुशी का अंदाजा लगाते हुए आराम से अपना सफर तय करती हूं. उस रोज मन बड़ा उदास सा था, इसलिए दोपहर बाद कौफी हाउस में आकर बैठ गई थी. नजरें कौफी हाउस के दरवाजे पर अटक गईं. दरवाजे के पार एक जोड़ी कदम सफेद चूड़ीदार में चहकते हुए जा रहे थे. कदमों में आवारगी का पुट था. पंजों पर उछल-उछल कर चलने के क्रम से पता चलता था कि इन कदमों को धारण करने वाली युवती काफी प्रसन्नचित्त है. नई-नई जवानी की मदहोशी में मुब्तिला, भविष्य की चिंताओं से मुक्त कदम…. तभी साड़ी में लिपटे कुछ हल्के और थके कदम सामने से गुजरे.

पुरानी सी मटमैली बैली में फंसे कदम. सुस्त चाल गवाह थी कि जीवन का बोझ ढोते-ढोते इन कदमों की जिम्मेदारियां इस उम्र में भी कम नहीं हुई हैं. अपनी ख्वाहिशों को मार कर बच्चों के भविष्य और खुशियों के लिए जीवन अर्पण करने वाली शायद आज भी सुबह से शाम दफ्तर और घर के बीच खट रही है. इतने में एक जोड़ी कदम दूसरी जोड़ी के साथ नजर आए. ये कदम बहुत उल्लासित से थे. थिरकन का भाव लिए हुए. ये कदम दूसरे कदम से कुछ लिपट लिपट कर चल रहे थे. जरूर ये पति पत्नी हैं. एक दूसरे के प्यार में डूबे हुए. तभी एक जोड़ी कदम कौफी शाप के दरवाजे से भीतर आते नजर आए. गोरे गोरे, सलोने कदम… काले रंग की सैंडल में… बेहद खूबसूरत.

पास आते इन कदमों पर मेरी नजरें गड़ गईं. सलीके से कटे हुए नाखून, साफ और गुलाबी रंगत लिए हुए एड़ियां, पैरों का शेप देख कर ही अंदाजा हो गया कि व्यक्ति का कद छह फुट के करीब है. ये कदम मेरी ही ओर बढ़ते आ रहे हैं. आते-आते यह कुछ दूरी पर रुक गये और फिर सामने वाली टेबल पर थम गये. मेरी नजरें बड़ी देर तक इन कदमों से लिपटी रहीं. फिर दिल चाहा कि नजरें उठा कर इन खूबसूरत कदमों के स्वामी की शक्ल देखूं. मैंने नजरें उठायीं. सामने वाली टेबल पर वह बैठा था. सफेद कुर्ता और नीली जींस. गजब की पर्सनेलिटी. गोल खूबसूरत चेहरा, गोरी रंगत, भूरे बाल, तीखी मूछें और काली घनेरी पलकों वाली बड़ी-बड़ह आंखें. वह जरूर किसी सम्मानित और संस्कारी परिवार का व्यक्ति है, मेरी धारणा बनी. उसकी टेबल पर बेयरा कौफी का प्याला रख गया था. वह धीरे-धीरे कौफी सिप करने लगा. तभी उसने अपनी जेब से एक सफेद लिफाफा निकाल कर खोला.

अन्दर से एक कागज निकाला और पढ़ने लगा. मेरी नजरें उसके चेहरे से हटने को तैयार नहीं थीं. उसके होंठों पर मुस्कान तैर रही थी. यह जरूर इसका नियुक्ति पत्र होगा. ऐसी मुस्कान तो तभी चेहरे पर दिखती है. या फिर उसकी प्रेमिका का पत्र… जिसकी कल्पना ने उसके चेहरे की रंगत को और दमका दिया था. उसने पत्र वापस लपेट कर लिफाफे में डाला और टेबल पर रख कर कौफी सिप करने लगा. मैं अभी उसके बारे में अपनी धारणा को और विस्तार दे रही थी, कि अचानक वह उठ कर दरवाजे की ओर चल दिया.

अरे… उसका पत्र तो टेबल पर ही रह गया. मैं उसकी टेबल की तरफ झपटी कि उसका पत्र उठा कर उसे पकड़ा दूं. टेबल से पत्र उठाया, मगर एक क्षण में मेरे जहन में यह विचार कौंधा कि पत्र को खोल कर देखूं. आखिर इसमें ऐसा क्या था जिसको पढ़ कर वह इतना खुश था. मैं उसकी टेबल पर बैठ गई. लिफाफा खोल कर पत्र निकाला. वहां सफेद कागज पर अखबार की छोटी सी कटिंग चिपकी थी, उसकी फोटो के साथ, लिखा था – आतंकी संगठन हिजबुल के आतंकी उस्मान की तलाश में दिल्ली क्राइम ब्रांच की टीम कश्मीर रवाना…

गैरजिम्मेदार माता पिता और हिंसक होता बचपन

‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी, मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन…’

पर क्या आज के बच्चों का बचपन इतना सुहाना है कि वे उसे बारबार जीना चाहेंगे? जगजीत सिंह की इस गजल के विपरीत आज तो बच्चों का बचपन कहीं गुम ही हो गया है. आएदिन न्यूज चैनलों व समाचारपत्रों में बच्चों द्वारा परपस्पर एकदूसरे को मारनेपीटने की घटनाएं देखने और पढ़ने को मिलती हैं.

10 वर्षीय अभि ने एक दिन अपने से 2 साल छोटी बहन के हाथ पर इतनी जोर से काटा कि उस के हाथ से खून की धारा बह निकली. कारण सिर्फ इतना था कि बहन ने उस के बैग से स्कैचपैन ले लिए थे.

कशिश की 12 वर्षीया बेटी बातबात पर चीखती है, गुस्से में घर का सामान इधरउधर फेंकने लगती है. कई बार तो वह खुद को ही चांटे मारना और बाल खींचना शुरू कर देती है.

दिन पर दिन बच्चे हिंसक होते जा रहे हैं, उन का बचपन खो सा गया है. वे अपनी उम्र से पहले ही बड़े हो रहे हैं. छोटीछोटी बातों पर चीखना, चिल्लाना, हिंसा करना और येनकेनप्रकारेण अपनी बात मनवाना उन की आदतों में शुमार हो चुका है. बच्चों के इस व्यवहार के पीछे उन की मानसिक अस्वस्थता है, जिस के कारण वे स्वयं पर से अपना नियंत्रण खो देते हैं. वे कई बार मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली कू्ररतम घटनाओं को अंजाम दे देते हैं. यही नहीं, छोटीछोटी घटनाओं से तनाव में आ कर वे स्थायी मानसिक अवसाद तक की अवस्था में चले जाते हैं और कई बार तो अपने जीवन को समाप्त करने के आत्मघाती कदम तक उठाने से पीछे नहीं हटते.

बच्चे के इस तरह के व्यवहार के जिम्मेदार उस के मातापिता ही हैं, क्योंकि बच्चे की प्रथम पाठशाला उस का परिवार होता है और उस का अधिकांश समय अपने परिवार में ही व्यतीत होता है. अपनी जीवन की व्यस्ततम आपाधापी में पेरैंट्स कहीं न कहीं वे अपने उत्तरदायित्व को भलीभांति निभा पाने में असफल हैं.

क्या हैं कारण

समाज का बदलता स्वरूप :  कुछ दशकों में भारतीय समाज में बड़ा बदलाव देखने को मिला है. संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवार ने ले लिया है. बढ़ती महंगाई में अपना लिविंग स्टैंडर्ड कायम रखने के लिए पतिपत्नी दोनों ही जीतोड़ मेहनत करते हैं. परिवार में बच्चों की संख्या एक या दो तक ही सिमट कर रह गई है. परिणामस्वरूप, परिवार में बच्चों का अकेलापन बढ़ गया है और मोबाइल, टीवी, टैब व लैपटौप पर उन की निर्भरता बहुत अधिक बढ़ गई है.

एकल परिवार होने के कारण मातापिता के औफिस जाने के बाद उन के प्रश्नों का जवाब देने या बातचीत करने वाला कोई नहीं होता. जिस से समाज या किसी व्यक्ति विशेष के प्रति उन के मन में उत्पन्न उचित या अनुचित धारणा स्थायी रूप से अपना स्थान बना लेती है और वे धीरेधीरे मानसिक अस्वस्थता का शिकार होते जाते हैं.

मातापिता दोनों ही कामकाजी होते हैं. काम के दबाव के चलते वे बच्चे के मन में चल रही भावनाओं से अनभिज्ञ रह जाते हैं. भोपाल के मनोचिकित्सक डा. सत्येंद्र त्रिवेदी कहते हैं, ‘‘आजकल एक नया चलन चला है, वीकैंड पर बच्चों को क्वालिटी टाइम देने का, पर क्या है यह क्वालिटी टाइम? बच्चे को तो हर पल अपने मातापिता की आवश्यकता होती है अपनी बातें सुनाने के लिए, अपनी परेशानियां और उलझनें सुनाने के लिए. वीकैंड पर बिताया गया क्वालिटी टाइम हंसीखुशी में बीत जाता है और बच्चे की परेशानियां मन में ही रह जाती हैं.’’

आधुनिक तकनीक :  बच्चों के लिए आधुनिक तकनीक वरदान नहीं, अभिशाप है. आज के दुधमुंहे बच्चे टीवी देख या मोबाइल हाथ आते ही रोना बंद कर देते हैं. जिन बच्चों को आउटडोर बचपन चाहिए वे आज टैब, लैपटौप और मोबाइल में आंखें गड़ाए नजर आते हैं. कुछ घरों में बच्चे पूरे दिन टीवी के सामने रिमोट थामे बैठे रहते हैं जबकि हम सभी जानते हैं कि टीवी पर हिंसा, मारपीट और सासबहू के झगड़े ही दिखाए जाते हैं. यहां तक कि कार्टून कैरेक्टर भी हिंसामारपीट से अछूते नहीं हैं.

बच्चों को हिंसा, महिलाओं का तिरस्कार, गालीगलौज और खूनखराबे वाले कार्यक्रमों को नहीं देखना चाहिए. बच्चों में अनुकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है. वे जैसा देखते हैं वैसा ही सीखते भी हैं. 10 वर्षीय आशु और उस की 3 वर्षीया बहन आशी प्रत्येक सीरियल नियमित देखते हैं. 3 वर्षीया वैष्णवी मोबाइल पर गेम खेलने में कईकई घंटे व्यस्त रहती है. यदि इस बीच कोई उस से मोबाइल ले लेता है तो वह जोरजोर से रोना और मारपीट करना शुरू कर देती है.

घरेलू वातावरण :  उदिता के पिता को शराब पी कर घर पर मारपीट करने की आदत है. इस से उस का घर हर रोज महाभारत का मैदान बना रहता है. कई परिवारों में अभिभावक बातबात पर आपस में एकदूसरे पर चीखतेचिल्लाते रहते हैं, जिस का सीधा असर बच्चे के मनोमस्तिष्क पर पड़ता है. ऐसे घरों में बच्चा खुद को अकसर एकाकी महसूस करने लगता है. मातापिता का परस्पर व्यवहार देख कर वह उन से बात तक करने का साहस नहीं कर पाता. मातापिता का व्यवहार देख कर उसे भी दूसरों के साथ हिंसक व्यवहार करने की आदत हो जाती है.

मीडिया का रोल :  बच्चों द्वारा देश के किसी भी कोने में किसी भी प्रकार का हिंसात्मक व्यवहार किया जाता है, तो मीडिया उस घटना को बारबार और बढ़ाचढ़ा कर बताता है. ऐसे में मानसिक रूप से अस्वस्थ बच्चा इस प्रकार की घटना को एक आदर्श के तौर पर अपने मनोमस्तिष्क में स्थापित कर लेता है.

मातापिता की अपेक्षाएं  :  आज प्रत्येक मातापिता अपने बच्चे को डाक्टर, इंजीनियर और कलैक्टर बनाना चाहता है. कई बार अभिभावकों द्वारा बच्चे को ऐसे विषय दिला दिए जाते हैं जिन में उस की तनिक भी रुचि नहीं होती. बच्चा जब कक्षा में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता तो कक्षा में शिक्षक और घर में मातापिता उस पर बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव बनाने लगते हैं, जिस से वह परेशान होता है.

अनीष शुरू से ही पढ़ाई में कमजोर था. 10वीं तक तो किसी तरह काम चल गया परंतु 12वीं में विज्ञान पढ़ना उस के लिए काफी कठिन हो गया. अपनी तरफ से कठोर परिश्रम करने के बाद भी वह लगातार फेल हो रहा था. स्कूल में शिक्षक उस की खिल्ली उड़ाते, घर में मातापिता का व्यवहार तानाशाहीभरा था. अपने मन की बात किसी से न कह पाने के कारण वह तनाव में रहने लगा. तनाव के कारण उसे रात में नींद आनी बंद हो गई. एक माह तक लगातार यही स्थिति रहने के कारण वह सिजनोफ्रेनिया नामक मानसिक बीमारी का शिकार हो गया. उस का इलाज चल रहा है.

प्रतिस्पर्धा के इस दौर में अकसर मातापिता को लगता है कि उन का बच्चा कहीं पिछड़ न जाए, इसलिए वे अपने बच्चों को स्कूल के साथसाथ टैनिस, पेंटिंग, डांस और क्ले मौडलिंग जैसी कक्षाओं में भी भेजते हैं. जिस से बच्चे को दो मिनट चैन की सांस तक लेने का वक्त नहीं मिलता. जबकि वास्तव में आज इन कक्षाओं की अपेक्षा बच्चों को भावनाओं, रिश्तों, जीवन मूल्यों की ओर तनावमुक्त जीवन जीने की शिक्षा देना अत्यंत आवश्यक है ताकि वे वर्तमान के साथसाथ अपना भविष्य भी सुखमय बना सकें.

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