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मेरी उम्र 33 साल है, 5 सालों में मेरा 3 बार गर्भपात हुआ है, क्या मैं आईवीएफ की मदद ले सकती हूं?

सवाल
मेरी उम्र 33 साल है. 5 सालों में मेरा 3 बार गर्भपात हुआ है. क्या मैं आईवीएफ की मदद ले सकती हूं?

जवाब
सब से पहले तो बारबार होने वाले गर्भपात के कारण का पता लगाएं. आप की उम्र भी 30 वर्ष से अधिक है, इसलिए आप को तुरंत अपनी जांचें करानी चाहिए. तभी सही स्थिति का पता लगेगा. अगर प्राकृतिक रूप से मां बनने की संभावना नहीं है तभी आईवीएफ के लिए जाएं. इस में भ्रूण को चैक कर के गर्भाशय में डालते हैं, जिस से हैल्दी बेबी होने की संभावना बढ़ जाती है.

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क्या है असुरक्षित गर्भपात

किसी भी महिला के जीवन में गर्भपात भावनात्मक रूप से बहुत व्यथित करने वाली घड़ी होती है. इस से जहां एक तरफ वह गर्भपात के कारण मानसिक तौर पर दुखी होती है, वहीं दूसरी तरफ शारीरिक स्तर पर भी उसे पीड़ा झेलनी पड़ती है. दोनों ही हालात में स्थिति चिंताजनक होती है. हालात तब और संजीदा हो जाते हैं जब गर्भपात असुरक्षित तौर पर करवाया गया हो.

ज्यादातर महिलाओं को असुरक्षित गर्भपात के बारे में कोई जानकारी नहीं होती. यहां तक कि उन्हें गर्भपात के बाद होने वाली दिक्कतों का भी पता नहीं होता. गर्भपात प्रसव के समय होने वाले दर्द से कम पीड़ादायक नहीं होता और अगर यह असुरक्षित स्तर पर और किसी नौसिखिए से करवाया गया है तब तो चिंता और बढ़ जाती है.

असुरक्षित गर्भपात वह है, जो किसी अप्रशिक्षित व्यक्ति से करवाया जाता है. उस के पास न तो कोई डिगरी होती है और न ही अनुभव. कानूनी तौर पर भी ऐसा व्यक्ति गर्भपात करने का अधिकार नहीं रखता है. असुरक्षित गर्भपात से दर्द, संक्रमण, संतानहीनता जैसी जटिलताएं पनप सकती हैं. यहां तक कि मौत भी हो सकती है.

1971 में एनटीपी ऐक्ट (गर्भ समाप्ति कानून 1971) को कुछ खास मामलों में मान्यता दी गई. वह भी तब जब महिला या बच्चे के स्वास्थ्य अथवा जान को खतरा हो. परिवार नियोजन की विफलता और बलात्कार के कारण गर्भ होने की स्थिति में भी गर्भपात की इजाजत है. इन निर्धारित सीमाओं के बाहर गर्भपात करवाना अवैध माना जाता है. असुरक्षित गर्भपात का असर महिला के स्वास्थ्य पर पड़ता है और 2 सप्ताह के बाद भी उस के पेट में असहनीय दर्द, बुखार, योनि से रक्त या दुर्गंधयुक्त स्राव जारी रह सकता है.

गर्भपात के कुछ कारण

अकसर कुछ कारणों से गर्भपात की नौबत आती है. फिर चाहे महिला का जीवन बचाने के लिए गर्भपात करवाना जरूरी हो गया हो या गर्भ में पल रहा बच्चा किसी विकार से पीडि़त हो. ऐसे हालात में गर्भपात ही अंतिम उपाय रह जाता है. अकसर बेटे की चाह भी गर्भपात का कारण बनती है. ग्रामीण इलाकों और कुछ अशिक्षित लोगों द्वारा संकोचवश या सस्ते में छूटने की वजह से भी असुरक्षित गर्भपात का सहारा लिया जाता है और इसे आसपास की कोई अप्रशिक्षित महिला या झोलाछाप डाक्टर कम रुपयों में और अकसर घर पर ही कर देता है.

पिछड़े क्षेत्रों में आज भी ज्यादातर गर्भपात इसी तरह के लोग कर रहे हैं, जो किसी अस्पताल या नर्सिंगहोम में कंपाउंडर होते हैं या मरीज की देखरेख आदि का काम करते हैं. यही वजह है कि असुरक्षित गर्भपात के मामले बढ़ते जा रहे हैं.

गर्भवती महिलाओं में से 15% के मामले में कोई न कोई जटिलता उभरने की आशंका रहती है. भारत में दोतिहाई मातृ मृत्यु दर यानी गर्भपात या प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में होती है. यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि देश में ऐनीमिया और कुपोषण के बाद महिलाओं की मौत का सब से बड़ा कारण असुरक्षित गर्भपात बन रहा है.

गंभीर स्थिति

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में 60 फीसदी महिलाएं दाइयों पर निर्भर हैं. स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण हर साल देश में प्रसव के दौरान 78 हजार महिलाओं की मृत्यु हो जाती है.

गर्भपात करवाना जानलेवा हो सकता है यदि:

– अप्रशिक्षित व अनुभवहीन डाक्टर के द्वारा और मान्यताप्राप्त, लाइसैंसशुदा मैटरनिटी होम में न करवाया गया हो.

– गंदे या रोशनी व हवा रहित कमरे में और कीटाणुयुक्त उपकरणों के जरीए करवाया गया हो.

– 12 सप्ताह के भीतर न किया गया हो. इस के अलावा भी कुछ घरेलू तरीके भ्रूण को समाप्त करने के लिए अपनाए जाते हैं. जैसे दादीमांओं के नुसखों या सुनीसुनाई बातों के आधार पर कुछ विशेष पेड़पौधों का रस योनि में डालना, कोई तार या ठोस वस्तु योनि में डाल कर भ्रूण को समाप्त करने की चेष्टा करना आदि.

असुरक्षित गर्भपात में गर्भपात के 2 सप्ताह बाद भी पेट में असहनीय दर्द, बुखार, योनि से रक्त या दुर्गंधयुक्त स्राव जारी रह सकता है. यह खतरनाक स्थिति है. हो सकता है कि गर्भपात अपूर्ण हुआ हो और गर्भाशय के भीतर भ्रूण का कोई अंश रह गया हो. इन हालात में जान जाने का खतरा भी बढ़ जाता है.

सुरक्षित गर्भपात

1 माह तक के गर्भ को दवा दे कर समाप्त किया जाता है, क्योंकि यह भ्रूण की शुरुआत होती है, इसलिए यह दवा से भी खत्म हो जाता है, लेकिन इस से अधिक समय के गर्भ की समाप्ति अबौर्शन से ही की जाती है जो कि उपकरणों के माध्यम से होता है.

सुरक्षित गर्भपात वैक्यूम ऐस्पिरेशन विधि से होता है. इस में योग्य डाक्टर द्वारा विशेष प्रकार की ट्यूब योनि के रास्ते गर्भाशय में डाल कर भ्रूण को बाहर खींच लिया जाता है. यह एक सरल और सुरक्षित तरीका है. डाइलेशन और क्यूरेटाज यह खुरच कर गर्भपात का तरीका है. गर्भ के बचेखुचे हिस्से को क्यूरेटर के जरीए निकाल दिया जाता है. क्यूरेटर चम्मच के आकार का एक उपकरण होता है.

दिल्ली की एक घनी बस्ती की 35 वर्षीय आसमां 5वीं पास है. 10 वर्षों से अपने क्षेत्र की महिलाओं का गर्भपात कर रही है. पहले वह किसी मैटरनिटी होम में मरीजों की देखरेख और इंजैक्शन लगाने का काम करती थी. जब काम छोड़ा तो घर पर ही गर्भपात करने को आमदनी का रास्ता बना लिया. वह कहती है, ‘‘अब तक बहुत गर्भपात किए हैं और कोई भी गलत नहीं हुआ. हालांकि कई दिनों तक हलकीहलकी ब्लीडिंग या दर्द की शिकायत कुछ महिलाओं को हुई, लेकिन सब कुछ ठीक रहा.’’

आसमां क्यूरेटर के जरीए गर्भपात करती है. वह दर्द का इंजैक्शन व दवा भी देती है.

असुरक्षित गर्भपात करवा चुकी नौरीन का कहना है, ‘‘मैं ने एक दाई से गर्भपात के लिए एक दवा ली थी. दवा खाने के बाद कई दिनों तक हलकी ब्लीडिंग और पेट में दर्द हुआ. उस के बाद करीब 1 साल तक कभीकभार दर्द की समस्या रही, लेकिन अब वह ठीक है.’’

वहीं अनीता बताती हैं, ‘‘मैं कई बार दाई से गर्भपात करवा चुकी हूं, लेकिन ठीक हूं.’’

डा. अनुराधा खुराना, लाजपत नगर, दिल्ली, कहती हैं, ‘‘एक अनुभवी डाक्टर कई वर्ष पढ़ाई करने के बाद गर्भपात करता है, जबकि अप्रशिक्षित महिलाएं महज दवाओं, इंजैक्शनों के नामों को जानती हैं. उन के पास अनुभव भी हो सकता है, लेकिन गर्भपात के दौरान जो जटिलताएं आती हैं उन्हें एक विशेषज्ञ ही संभाल सकता है. क्यूरेटर आदि उपकरणों का इस्तेमाल अगर अप्रशिक्षित दाई कर रही है, तो उस के हाथ से गर्भाशय को हानि पहुंचने और उस के फटने की आशंका बढ़ जाती है.

जब यही हानि किसी विशेषज्ञ से हो जाती है, तो वह उस स्थिति को काबू करने में प्रशिक्षित होता है और मरीज की जान को खतरा नहीं रहता.’’

गर्भपात के बढ़ते मामले

आधुनिकता की चकाचौंध कहिए या रिश्तों की नासमझ अकसर टीनऐज लड़केलड़कियां भी अपनी सीमाओं को लांघ जाते हैं. ऐसे में जब गर्भ ठहरता है, तो लड़की के घर वाले लोकलाज के डर से घर में असुरक्षित गर्भपात का रास्ता चुनते हैं. देश में प्रतिवर्ष करीब 60 लाख गर्भपात कराए जाते हैं और प्रत्येक सुरक्षित गर्भपात पर 17 अवैध गर्भपात होते हैं. 2008 में भारत में 65 लाख गर्भपात हुए, जिन में 66 फीसदी असुरक्षित थे. 2014-15 में 18 साल से कम उम्र की लड़कियों के गर्भपात के मामलों में 67 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई. इस में दिल्ली, बैंगलुरु, चेन्नई और मुंबई जैसे महानगरों के युवा सब से आगे रहे.

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पुरुष यानी एक बलिष्ठ, मजबूत, आक्रामक, दबंग, गुस्सैल प्रकृति का व्यक्ति, जिसे देखते ही कमजोर सिहर जाए. भारतीय मानक पर पुरुष की परिभाषा सदियों से यही रही है. ऐसे व्यक्ति को पुरुष के तौर पर देखा जाता रहा जो घर में अपनी औरत को काबू में रखे. बच्चे उस की आज्ञा की अवहेलना करने की हिम्मत न कर पाएं. जिस की राय परिवार में सर्वोपरि हो. किसी में उस की बात काटने की हिम्मत न हो और वह सब पर हावी रहे.

एक पीढ़ी पहले तक शाम को जब पिताजी के औफिस से लौटने का वक्त होता था तो घर के सारे बच्चे खेलकूद छोड़ कर, खिलौने छिपा कर, साफसुथरे बन कर पढ़ाई की टेबल पर आ बैठते थे. किताबकौपी सामने खुल जाती. हिलहिल कर आवाज के साथ पहाड़े रटे जाते थे ताकि घर की चौखट पर पहुंचते ही पिताजी के कान में पड़ जाए. ऐसी गंभीर मुद्रा बनाई जाती कि जैसे सारे दिन से बस पढ़ ही रहे हों. पिताजी घर में प्रवेश करते, एक नजर पढ़ाई में जुटे बच्चों पर डालते, अहंकार से सीना चौड़ा हो जाता, मूंछों पर ताव बढ़ जाता और बच्चों के दिल को तसल्ली हो जाती कि अब पिताजी का मूड ठीक रहेगा. बच्चों को ही नहीं, बल्कि बच्चों की मां को भी राहत मिलती. वह पेशानी पर छलक आए पसीने को पोंछ जल्दीजल्दी चायनाश्ते के इंतजाम में जुटती कि कहीं उस में देर हो गई तो बनाबनाया माहौल गालीगलौच की भेंट चढ़ जाएगा.

घर का स्वामी जो पैसा कमा कर लाता है और जो घर को चलाता है उस को ले कर सब के अंदर एक डर सा बना रहता. पितारूपी इंसान कहीं नाराज न हो जाए, इस डर से कोई खुल कर हंसखेल नहीं सकता था. अपने मन की बात नहीं कह सकता था, कोई इच्छा प्रकट नहीं कर सकता था, घर के किसी मामले में अपनी राय नहीं रख सकता था. मां भी किसी चीज की जरूरत होने पर दबीसहमी जबान में पिताजी को बताती थी. अधिकतर इच्छाएं तो उस के होंठों पर आने से पहले ही दम तोड़ देती थीं. पिताजी की हिटलरशाही के आगे पूरा घर सहमा रहता था. जो पिताजी ने कह दिया, वह बस पत्थर की लकीर हो गई. पिताजी ने कह दिया कि लड़के को डाक्टर बनाना है तो फिर भले लड़के का पूरा इंट्रैस्ट संगीत में क्यों न हो, उसे डाक्टरी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में पूरी जान लगानी पड़ती थी.

पिताजी ने कह दिया कि शर्माजी के बेटे से रज्जो की शादी तय कर दी है तो भले रज्जो अपने पड़ोसी आमिर के प्रेम में पूरी की पूरी डूब चुकी हो, उसे उस प्रेमसागर से निकल कर शर्माजी की बहू बनना ही होता था. मगर क्या आप ने गौर किया है कि बीते 2 दशकों में बहुत बड़ा परिवर्तन हमारे घरसमाज में आ चुका है. ‘पापा आजकल आप पढ़ाई को ले कर कुछ पूछते ही नहीं हो,’ ‘हां, क्योंकि अब तुम बदल गई हो, खुद से पढ़ने लगी हो, दूसरों को कौंसैप्ट सम झाने लगी हो, अब तुम्हारा पापा न तुम्हारा पार्टनर बन गया है.’ विज्ञापन की इन लाइनों में आप को ‘पुरुष की परिभाषा’ में आ चुका परिवर्तन साफ दिखाई देगा. आर्मी में सेवारत अधिकारी मां वीडियो कौल में चिंतित दिखती है क्योंकि उस के बेटे को सर्दीखांसी है. घर में नन्हे बेटे के साथ मौजूद उस का पति कैसे सिचुएशन को हैंडल कर पाएगा? मगर पति नन्हे बेटे के सीने पर विक्स की मालिश कर उस को आराम से सुला देता है और वीडियो कौल कर अधिकारी पत्नी को दिखाता है कि बेटा कैसे आराम की नींद सो रहा है.

देख कर पत्नी चैन की सांस लेती है. इस विज्ञापन में भी पुरुष की बदलती भूमिका साफ है. आज ऐसे कितने ही विज्ञापन हमारे चारों तरफ हैं जिन में पुरुष कपड़े धोते, घर साफ करते, पत्नी को कौफी बना कर सर्व करते नजर आ रहे हैं. क्या ऐसे विज्ञापन 2 दशकों पहले कहीं दिखते थे? तो क्या भारतीय पुरुष बदल रहा है? क्या पुरुषों के पुरुषार्थ में कमी आ रही है? क्या अपने पूर्वजों के मुकाबले उस में पौरुष हार्मोन का स्तर घटने लगा है? क्या वह स्त्रीयोचित गुणों को धारण कर रहा है? क्या उस के अंदर वात्सल्य का दरिया बह निकला है? क्या उस के दिल में ममता हिलोरें ले रही है? आइए इन सवालों के जवाब तलाशते हैं. सचिन की पत्नी नेहा का 2019 में देहांत हो गया. उन के पास 10 साल का बेटा है. घर में बूढ़े मातापिता हैं. पहले सचिन घर के कामों में रुचि नहीं रखते थे.

वे सुबह 9 बजे औफिस निकल जाते और शाम 6 बजे घर लौट कर बढि़या चायनाश्ता कर के टीवी इत्यादि देखने या महल्ले के दोस्तों के साथ गपशप में तल्लीन रहते थे. उन का एक काम था, पैसा कमा कर बीवी के हाथ में रखना. बाकी किसी बात से कोई मतलब न था. बेटे ने भी कभी उन से बहुत लाड़प्यार नहीं पाया था. वह पूरे वक्त मां से ही लिपटा रहता या फिर दादादादी उस से लाड़ लड़ाते और उस की ख्वाहिशें पूरी किया करते थे. लेकिन नेहा के अचानक चले जाने से बेटे की और मांबाप की पूरी जिम्मेदारी सचिन पर आ गई. मां हार्टपेशेंट थी. नेहा ही उन की दवादारु का खयाल रखती थी.

हर महीने चैकअप के लिए ले कर जाती थी. बेटे के स्कूल की पढ़ाई, पेरैंटटीचर मीटिंग, ट्यूशन, उस के सामान की खरीदारी सब नेहा अकेले करती थी. अब ये सारी जिम्मेदारियां सचिन पर पड़ीं तो उन में बड़ा भावनात्मक बदलाव आया. उन का व्यवहार भी पूरी तरह बदल गया. सुबह जल्दी उठ कर सब के लिए नाश्ता बनाना, बेटे का लंचबौक्स तैयार करना, बेटे को नहलानाधुलाना, स्कूल के लिए तैयार करना, स्कूल छोड़ने जाना, दोपहर में लेने जाना, शाम को होमवर्क करवाना, उस की एकएक जरूरत के लिए बारबार बाजार दौड़े जाना, बीमार पड़ने पर डाक्टर के, क्लीनिक के चक्कर काटना आदि, यानी सचिन पापा के साथसाथ मां का रोल भी निभाने लगे. बीते 2 सालों में सचिन अपने बेटे के बहुत नजदीक आ गए हैं. इन 2 सालों में शायद ही कभी उन्होंने उस को किसी बात के लिए डांटा हो. कोरोनाकाल में वर्क फ्रौम होम करते हुए सचिन पूरी तरह एक ममतामयी मां के किरदार में ढल चुके हैं.

2 वर्ष पहले और 2 वर्ष बाद वाले सचिन में जमीनआसमान का फर्क आ चुका है. बेटे के साथ वे वात्सल्य की दरिया में गोते लगाते हैं. मातापिता की देखभाल करते हैं. उन की दवाइयां व दवा का समय सचिन को याद रहता है. मगर इस का मतलब यह कतई नहीं है कि उन के पुरुषार्थ में कोई कमी आ गई है. घर के बाहर और औफिस के कर्मचारियों के साथ उन का व्यवहार पहले की तरह ही है. बल्कि, कुछ ज्यादा सम झदारीभरा हो गया है. वे अब दूसरों की परेशानियों को आसानी से सम झने लगे हैं. दरअसल, बढ़ी हुई जिम्मेदारियों ने उन की भावनाओं को जगाने का काम किया है. जिन भावनाओं को पुरुष अकसर नजरअंदाज कर देते हैं, उन के करीब नहीं जाना चाहते, सचिन के मन की वही कोमल भावनाएं अब जागृत अवस्था में हैं. गौरव के पिता पुलिस अधिकारी थे. आईजी की पोस्ट पर बड़ा रोब था.

दबंग दिखते थे, बाहर भी और घर में भी. पत्नी गृहिणी थी और पति से दबती थी. कभी हिम्मत नहीं हुई कि उन की किसी आज्ञा के आगे चूं भी कर दे. गौरव और सौरभ दोनों भाइयों पर बचपन से ही दबाव था कि उन्हें सरकारी अधिकारी ही बनना है. 12वीं के बाद से ही दोनों ने सिविल सर्विसेज की परीक्षा की तैयारी में रातदिन एक कर दिए. दोनों ने परीक्षा निकाल भी ली और आज अच्छी पोस्ट पर तैनात हैं. दोनों के दोदो बच्चे हैं. दोनों अलगअलग शहरों में कार्यरत हैं और दोनों की पत्नियां भी नौकरीपेशा हैं. दोनों अच्छा कमा रहे हैं. रोब वाली नौकरी है. मगर दोनों का व्यक्तित्व अपने पिता के व्यक्तित्व से बहुत अलग है. औफिस में काम के लिए अपने मातहतों पर पिले रहने वाले सौरभ से जब इस विषय पर बात करते हुए मैं ने पूछा कि क्या घर में भी ऐसे ही रोब में रहते हैं, तो मेरे इस सवाल पर दिल्ली में असिस्टैंट कमिश्नर, सेल्स टैक्स के पद पर तैनात सौरभ हंस कर बोले, ‘‘अरे नहीं, औफिस और घर में बहुत अंतर है. वहां मैं अलग किरदार में होता हूं. खाना बनाता हूं. किचन के सिंक में रखे गंदे बरतन मांज देता हूं.

कभी उन की (पत्नी की) अलमारी खोल कर सारे कपड़े ठीक से लगा देता हूं. छुट्टी वाले दिन बच्चों की बुकशेल्फ भी साफ कर देता हूं. किताबों पर नए कवर चढ़ा कर सजा देता हूं. मु झे उन के लिए ये सब करना अच्छा लगता है. अगर आप सचमुच अपने बीवीबच्चों से प्यार करते हैं तो इन कामों के जरिए अपने प्यार को बेहतर तरीके से जता सकते हैं.’’ सौरभ कहते हैं, ‘‘रूपाली (उन की पत्नी) एनजीओ चलाती है. काम के सिलसिले में कई बार बाहर भी जाना पड़ता है. कई बार वह घर देर से आती है. तो हम में से जो भी पहले घर पहुंचता है, रात का खाना बनाने की जिम्मेदारी वह लेता है. बच्चों का होमवर्क भी वही करवाता है. हमारे बच्चों से अगर आप पूछें कि मम्मीपापा में कौन ज्यादा अच्छा है, तो उन का जवाब होगा कि दोनों. लेकिन अगर आप मु झ से मेरे बचपन में यह सवाल पूछतीं तो मैं कहता कि मम्मी ज्यादा अच्छी हैं, बल्कि कहता कि, बस मम्मी ही अच्छी हैं, क्योंकि वही हमारे पास ज्यादा थीं. ‘‘पापा अनुशासन, भय और सम्मान का मिलाजुला व्यक्तित्व थे जिन से दूरी बना कर रखने में ही भलाई नजर आती थी. मम्मी हमारे सारे काम करती थीं. वही ज्यादा प्यार करती थीं. कई बार हमारे लिए वे पापा से डांट भी खाती थीं.

तो आज अगर बीवियां नौकरी करने के लिए घर से निकली हैं तो उस से पतियों को यह फायदा हुआ है कि उन के बच्चों से उन की निकटता और प्रेम बढ़ा है. वे बापबेटे से ज्यादा एकदूसरे के दोस्त हैं. मु झे पता है मेरे बच्चों को कब क्या चाहिए, मगर मेरे पिता को कभी नहीं पता चलता था कि हमें कब क्या चाहिए. वे, बस, यह जानते थे कि उन को क्या चाहिए. हमारी जरूरतें सिर्फ मां ही सम झती थीं.’’ औरतों की आर्थिक आजादी से पुरुषों की हिटलरशाही में गिरावट आई है. औरतोंबच्चों पर पति का रोब सिर्फ इस वजह से था कि वह कमाता है, उन्हें रोटी देता है.

उस की कमाई से ही घर चलता है. बच्चे पढ़ते हैं. घरभर की दवादारू होती है. बीते दोतीन दशकों में आदमी का सारा रोब और हिटलरशाही तब चली गई जब बढ़ती महंगाई के कारण एक आदमी की तनख्वाह से एक मध्यवर्गीय घर चलना मुश्किल हो गया. तब लड़के अपने लिए नौकरीपेशा दुलहन ढूंढ़ने लगे. अब कहींकहीं तो हालत यह है कि पत्नियां पति से ज्यादा कमा रही हैं, तो कहींकहीं सिर्फ पत्नियां ही कमा रही हैं और पति घर संभाल रहे हैं. ऐसे में वे बच्चों के ज्यादा निकट हैं. बच्चों से उन का भावनात्मक लगाव भी ज्यादा है. वे दिनभर उन के साथ रहते हैं तो उन की जरूरतें भी सम झते हैं. पुरुषों के एकछत्र प्रभाव वाले क्षेत्रों में महिलाओं की धमाकेदार एंट्री से घरसमाज का माहौल बदला है.

इस आर्थिक बदलाव को कई पुरुषों ने स्वीकार कर के स्वयं को बदल लिया है और जो नहीं बदल रहे हैं वे बच्चों की निगाह में विलेन बनते जा रहे हैं. एक ऐसा पिता जिसे बच्चों से प्रेम नहीं है और जो बहुत खड़ूस है, उन के मित्रों के पिताओं से अलग. पुरुषों के भावनात्मक बदलाव की वजह एक यह भी है कि उन में अपने पूर्वजों के मुकाबले टैस्टोस्टेरोन (पुरुष और पौरुष हार्मोन) का स्तर घटा है और संतानप्रेम के लिए जिम्मेदार औक्सिटोसिन हार्मोन (वात्सल्य हार्मोन) का स्तर बढ़ा है. विकासक्रम के चलते हालांकि अब भी संतान अपने दबंग पिता को पसंद करती है जिस का समाज में रुतबा, सम्मान और शान हो लेकिन उन्हें घर के हिटलर अब पसंद नहीं हैं. वे पिता में अब मां के कुछ गुण देखना चाहते हैं.

एक प्रेम करने वाला मजबूत पिता. किसी चाइल्ड क्लीनिक पर नजर दौड़ाइए, आप पाएंगे कि अधिकतर बच्चे पिता की गोद में चढ़े रहते हैं या पिता की उंगली पकड़ कर उन से सटे रहते हैं. पहले के पिता अपने बच्चों से एक दूरी बना कर रखते थे, उन्हें प्रेम से गोद में उठा कर नहीं लाते थे, उन की समस्याओं को सुनाते हुए भावुक नहीं होते थे और न ही उन की समस्याओं को सुनाते हुए रोने लगते थे लेकिन अब यह बदल गया है. वर्तमान पीढ़ी के मर्दों में हिटलरशाही काफी हद तक खत्म हो चुकी है. शाम को पतिपत्नी में से जो घर पहले पहुंचे, घर टाइडी करना, चायनाश्ता बनाना उस की जिम्मेदारी हो गई है. कोरोनाकाल में वर्क फ्रौम होम करते हुए मर्दों का ममतामयी रूप भी जाग पड़ा है. घर में सारा दिन बच्चों के करीब रहते उन के अंदर स्नेह और केयर कुछ ज्यादा नजर आने लगा है. अब पिता पहले से ज्यादा अपना प्रेम प्रदर्शित करने लगे हैं.

जानिए क्यों खुद को सख्त मां मानती हैं फेमस एक्ट्रेस राजेश्वरी सचदेव

महज 21 वर्ष की उम्र में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘‘सरदारी बेगम’’ में अभिनय कर सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार पा जाने वाली अभिनेत्री राजेश्वरी सचदेव की सबसे बड़ी खुशकिस्मती यह रही कि उन्हे फिल्म हो या टीवी सीरियल हर जगह श्याम बेनेगल व बासु चटर्जी जैसे नामचीन व उत्कृष्ट निर्देशकों के साथ काम करने का अवसर मिला. यह वह दौर था, जब माना जाने लगा था कि श्याम बेनेगल की फिल्म या सीरियल है तो राजेश्वरी सचदेव का होना अनिवार्य है.  जबकि राजेश्वरी सचदेव दूसरे निर्देशकों के साथ भी काम किया.

मसलन-‘सूरज का सातवां घोड़ा’’ करने के बाद राजेश्वरी सचदेव ने बर्नार्डो बर्टोलुसी के निर्देशन में अंग्रेजी भाषा की फिल्म ‘‘लिटिल बुद्धा’’ की. फिर बासु चटर्जी के निर्देशन में ‘त्रिया चरित्र’ की. मेजर कौल के निर्देशन में ‘परमवीर चक्र’, प्रवीण निश्चल की ‘‘इंग्लिश बाबू देसी मेम’’, परेश कामदार की ‘टुन्नू की टीना’ वगैरह वगैरह . . .

वास्तव में राजेश्वरी सचदेव ने खुद को किसी बंदिश में नही बांधा. वह सिर्फ अच्छे किरदार निभाने पर ही जोर देती आयी हैं. तभी तो जब मनीश तिवारी ने उन्हे फिल्म ‘‘चिड़ियाखाना’’ में सिंगल मदर का किरदार सौंपा तो उन्होने उसे भी निभाया, जो कि दो जून को प्रदर्शित हुई.

प्रस्तुत है राजेश्वरी सचदेव से हुई बातचीत के अंश. . .

सुना है आपने बहुत छोटी उम्र से ही अभिनय करना शुरू कर दिया था?

-सच तो यही है. क्योंकि मेरा जन्म ही कला जगत से जुड़े परिवार में हुआ था. मेरे पिता अपनी नौकरी करने के साथ ही थिएटर व फुटबाल के खेल से जुड़े हुए थे. मेरी मां ने मुझे पांच साल की उम्र से ही भरत नाट्यम सिखवाना शुरू कर दिया था. मेरी नृत्य की शिक्षा राज राजेश्वरी डांस स्कूल में चल रही थी. पर मैं दो तीन माह में ही बोर हो गयी. क्योंकि इतने वक्त में वह हमें सिर्फ बैठना ही सिखा रही थी. मतलब नींव मजबूत कर रही थी. तो मैने डांस क्लास में न जाने के लिए बहाने शुरू किए. पर मेरी मां के सामने कोई बहाना काम न आता. मैं आज भी अपनी मां का शुक्रिया अदा करती हूं कि उन्होंने उस वक्त मुझे जबरन डांस क्लास में भेजा. फिर चैदह साल लगातार डांस किया. दसवीं कक्षा में मैने पिता जी से कहा कि अब मेहनत ज्यादा करनी है तो डांस क्लास नही जाती. मेरे पिता जी ने कहा-‘‘आप 24 घंटे नही पढ़ सकती. एक घंटा डांस सीखकर अपना माइंड फ्रेश करके आओ. मुझे मेरे परिवार का सपोर्ट मिला और ‘पुश’ भी मिला. मेरे पिता जी अपने दूसरे काम के साथ ही शौकिया ‘इप्टा’ से जुड़कर नाटक किया करते थे. शाम को नाटक की रिहर्सल में मैं और मेरा भाई अपने पिताजी के साथ जाया करते थे. हमें मजा आता था. पर माहौल तो हमें मिलता ही था. उस वक्त मेरे पिताजी ने नही सोचा था कि मैं क्या करुंगी. पर वह हमें हर तरह का अनुभव दे रहे थे. इसी तरह मैं खेल से भी जुड़ी हुई थी. हमारी एथलेटिक ट्रेनिंग भी होती थी. इस बीच हम कैफी आजमी द्वारा शुरू किए गए ‘इप्टा बाल मंच’ में नाटक करने लगे थे. एम एस सथ्यू के साथ ‘बकरी’ किया. उससे पहले शबाना आजमी के नाटक ‘‘सफेद कुंडली’ में भीड़ का हिस्सा हुआ करती थी. उन दिनों मुझे पृथ्वी थिएटर में जाने में आनंद आता था.

बचपन की बात अलग थी. पर समझदार होने के बाद अभिनय की शुरूआत कैसे हुई?

-घर बैठे हो गयी. पंद्रह साल की उम्र में मराठी फिल्म ‘‘अयात्या घरात घरोबा’’ में अभिनय किया था. हाई स्कूल की परीक्षा खत्म होते ही मुझे मराठी फिल्म ‘‘अयात्या घ्रात घरोबा’’ में सचिन व प्रशांत दामले जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम करने का अवसर मिला. इसके लिए मुझे महाराष्ट् राज्य की तरु से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला. प्रशांत दामले सहित कई दिग्गज कलाकारों के साथ काम करने का अवसर मिला था. इस फिल्म के रिलीज से पहले ही मुझे मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्म ‘‘सूरज का सातवां घोड़ा’’ में अभिनय करने को मिला. फिल्म सफल हो गयी. फिर मैने अंग्रेजी फिल्म ‘‘लिटिल बुद्धा’’ की.  फिर 1996 में श्याम बेनेगल के निर्देशन में फिल्म ‘‘सरदारी बेगम’’ की. इस फिल्म ने मुझे सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार दिला दिया. उसके बाद मैने श्याम बेनगल के साथ हर फिल्म व सीरियल किए. दूसरे फिल्मकारों के साथ भी काम किया और लगातार काम करती जा रही हॅू.

आपने श्याम बेनेगल की हर फिल्म में अभिनय किया. इसकी कोई खास वजह?

-इसका सही जवाब तो श्याम बेनेगल अंकल ही दे सकते हैं कि वह मुझे अपनी हर फिल्म का हिस्सा क्यों बनाते रहे. मैं तो यही मानकर चलती रही हूं कि मैं अच्छा काम करती हूं. इसलिए वह मुझे हर फिल्म का हिस्सा बनाते हैं. मैं खुद को लक्की मानती हूं कि मैने उनके साथ काफी काम किया और एक वक्त ऐसा भी आया जब मैं मान चुकी थी कि उनकी हर फिल्म में मैं रहूंगी. वह मुझसे जो कहेंगे मैं कर लूंगी. ‘सूरज का सातवंा घोड़ा’ के बाद ‘मम्मो’ में एक छोटा सा किरदार दिया था, जिसमें मैं पुरानी अभिनेत्री का गाना गुनगुनाते हुए गुजर जाती हूं. ‘सरदारी बेगम’ के वक्त मेंरे दो तीन किरदार बदल गए थे. पर जो किरदार निभाया, उसने मुझे राष्ट्ीय पुरस्कार दिला दिया. जबकि मैने यह बात सपने में भी नही सोचा था.

कैरियर की शुरूआत और छोटी उम्र में ही राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना आपके लिए क्या मायने थे?

-मुझे एक रात पहले पता चला था तो मुझे यकीन ही नही हुआ. फिर मैने कहा कि कल तक बदल तो नहीं जाएगा. खैर, मैं बहुत एक्साइटेड थी. बहुत खुशी मिली थी.

एक निर्देशक के साथ लंबे समय तक काम करते हुए आप निर्देशक की सोच, समझ व कार्यशैली से परिचित हो जाती हैं और निर्देशक आपके कमजोर व सकारात्मक पक्ष को समझ जाता है. ऐसे में मोनोटोनस वाली चीज नही आती?

-कभी नही. श्याम बेनेगल अपने कलाकार को पूरी छूट देते हैं. वह कलाकार से कभी नही कहते कि ऐसा करो. मैंने उनके साथ लगभग हर फिल्म में अलग अलग किरदार निभाए हैं. पर उन्होने मुझसे कभी यह नही कहा कि मुझे ऑडीशन देना होगा. वह कलाकार में जो यकीन दिखाते हैं, वह कलाकार को अंदर से कुछ अलग करने के लिए उकसाता है. मुझे फिल्म ‘हरी भरी’ का वक्त याद आ रहा है. मैं उनसे मिलने गयी तो उन्होने कह दिया कि इस फिल्म में तुम्हारे लायक कोई किरदार नही है. मैने कहा कि ऐसे कैसे हो सकता है?उन्होने स्क्रिप्ट रख दी और कहा बताओ कौन सा किरदार करोगी. हर किरदार उम्र के हिसाब से शबाना आजमी या अलका जी को दिए जा चुके थे. मैने कहा कि यह चौदह साल की लड़की वाला किरदार? वह मुझे कुछ देर देखते रह गए. फिर कहा , ‘जब तुम ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ कर रही थी, उस वक्त भी 14 साल से बड़ी थी. अब दस साल बाद कैसे चौदह साल की लगोगी. मैने कहा कि मैं यह किरदार निभाउंगी. जबकि उस वक्त मेरी उम्र 26 वर्ष थी. मैं अपने हिसाब से तैयारी करके सेट पर पहुंची. राज कोठारी कैमरामैन थे. उन्होने मुझे देखते ही कहा कि इसमें कुछ कर रही हो. मैने हामी दी. वह मुस्कुराए. मैं बालों की एक चोटी बनाकर गयी थी. श्याम जी ने देखा और कहा कि दो चोटी बनाओ. क्योंकि स्कूल का सीन है. उनके साथ काम करने का आनंद यही था कि उन्हे यकीन होता था कि उनका कलाकार कर ले जाएगा. हां! ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ में उन्होने मुझसे कहा था कि इसे कुछ इस ढंग से करके देखते हैं.

श्याम बेनेगल की कोई ऐसी खास बात जो उन्हे दूसरे निर्देशकों से अलहदा करती हो?

-वह मेंरे लिए बहुत अलग अहमियत रखते हैं. वह मेरे लिए पिता की तरह रहे. मैने उनसे कैरियर ही नहीं जिंदगी के कई मसलों पर कई बार सलाह ली है. उनके साथ हम काम करते हैं, पर हमरे बीच एक रिश्ता भी रहता है. अखिर साथ में काम करते हुए हम एक दूसरे से जुड़े होते हैं. वह सिर्फ निर्देशक नही होते हैं, वह अपने कलाकार के साथ हर कदम पर जुड़े रहते हैं. वह आपकी जिंदगी को चलाते नही है, मगर जब भी आप लड़खड़ाएं, तो वह आपकी उंगली पकड़ने को तैयार रहते हैं. मैं खुद को खुशकिस्मत मानती हूं कि मुझे खाद पानी सही मिला.

क्या आप इस बात से सहमत हैं कि कलाकार और निर्देशक के बीच अच्छी समझ हो, परिवार जैसा रिश्ता हो, तो उसका असर फिल्म पर पड़ता है?

-देखिए, जब हम काम करते हैं, उस वक्त हम पूरी तरह से प्रोफेशनल होकर ही काम करते हैं. पर जब आपसी समझ हो, तो हम कहीं न कहीं निश्चिंत तो हो ही जाते हैं. एक आत्मविश्वास बढ़ जाता है. उसी दौरान मैने बासु चटर्जी जी के साथ भी काम किया.

पर आप कलात्मक फिल्में ज्यादा करती रही?

-देखिए, उस वक्त हम अच्छे किरदार की तरफ ध्यान देते थे. हमें अच्छे किरदार मिलते गए और मैं करती रही. पर मैं डांसर भी हूं. तो मैं भी डांस करने वाले किरदार निभाना चाहती थी. लेकिन इस तरह की फिल्मों के जब आफर आए तो मैने मना किया. मुझे लगा कि इस किरदार में तो कुछ दम ही नही है. उस वक्त मुझसे कहा गया था कि एक अच्छी फिल्म पाने के लिए आपको चार बुरी फिल्में करनी पड़ेगी. जिससे आप लोागे की नजर में बने रहें. लेकिन बहुत सी चीजें आपकी अपनी पसंद व चयन पर निर्भर करती हैं. कई बार यह जरुरी नही होता कि जो आप करना चाहते हो, वह सामने से आपके पास आए. जो आपके पास आया है, उसी में से आपको चुनना होता है. मुझे हमेशा अच्छे निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के लिए चुना. मैने हर काम को अपनी तरफ से पूरी इमानदारी के साथ किया.

आपको नहीं लगता कि श्याम बेनेगल और बासु चटर्जी के समय का सिनेमा का जो दौर था, उसमें और आज के सिनेमा के दौर में जमीन आसमान का अंतर आ चुका है?

-देखिए, कहने को सभी कह रहे हैं कि अभी बहुत अच्छी कहानियों पर सिनेमा बन रहा है. पर मैं मानती हूं कि उस वक्त की फिल्मों की कहानियां ज्यादा अच्छी थीं. हम साहित्यिक कहानियों पर फिल्म बनाते थे. पर तब प्लेटफार्म कम थे. आज हर फिल्मकार के पास प्लेटफार्म बहुत हैं. आज आपके पास स्वतंत्रता है कि आप किसी भी फार्मेट में फिल्म बना सकते हैं और अपनी फिल्म किसी भी प्लेटफार्म को दे सकते हैं. लेकिन कहानी कहने या कोई बात बताने की कलाकारी में कमी आ गयी है. रियालिटी के चक्कर में कलाकारी बट जाती है. हम जानते हैं कि एक परिवार में चार सदस्य होते हैं तो भी उन चारों के बात करने का अंदाज अलग अलग होता है. पर हम यहां वेब सीरीज या सीरियल में देख रहे हैं कि परिवार के सभी किरदार एक ही अंदाज, एक ही ढर्रे के संवाद बोल रहे हैं? क्या यह रियालिटी है? माना कि जो बिकता है वही दिखता है, मगर फिर वह छाप भी तो नही छोड़ता.

कैरियर के मोड़ या टर्निंग प्वाइंट क्या रहे?

-एक नहीं ढेर सारे रहे हैं. सभी को सिलसिलेवार बताना थोड़ा मुश्किल है. देखिए, अच्छे काम करने का इंतजार भी कैरियर का एक मोड़ होता है. कई बार आप कोई फिल्म मना करते हैं, तो वह भी एक मोड़ आता है. फिर वह मोड़ आता है, जब हम किसी फिल्म को उसकी विशयवस्तु के कारण स्वीकार कर लेते हैं और वह सफल हो जाती है या कल्ट फिल्म बन जाती है. तो ऐसा मेरे कैरियर में एक नही कई बार हुआ है. मैं फिल्मों के साथ साथ नाटक व टीवी भी कर रही थी. टीवी तो ज्यादा नही कर रही थी. टीवी पर एक काउंट डाउन शो ‘सुपरहिट मुकाबला’ आया था. इसमें लोहड़ी का एक एपीसोड था. हम ठहरे पंजाबी. नाच गाना हमें पसंद है. फोक संगीत तो हम सभी गाते हैं. तो मैने यह एपीसोड कर लिया. गाना भी गा दिया. फिर मेरे पास कई संगीत कंपनियो से उनकी कंपनी के संगीत अलबमों के लिए गाने के आफर आ गए. मैने कुछ तो मना कर दिए. मैने कहा कि मैं अभिनेत्री हूं, गायक नही हूं. मैने संगीत सीखा भी नही है. पर जागरुक नही थे, तो मुझे लगा कि यह सब के सब बेवकूफ तो नही हो सकते. फिर जब मेंरे पास मैग्नासाउंड से आफर आया तो मैने स्वीकार कर लिया. पर अंदर से मैं बहुत डरी हुई थी कि लोग मेरा गायन सुनकर पता नहीं क्या कहेंगे? मगर मैने हिम्मत

दिखायी. अब हम रातों रात कोई कलागीरी दिखा नही सकते. लेकिन हमने सोचा कि अगर मैं अपनी तुलना लता मंगेशकर जी से करती हूं तो यह मेरी मूर्खता होगी. हम लता मंगेशकर तो बन भी नही सकते. इसका मतलब यह नही हुआ कि हमें संगीत के क्षेत्र में कुछ नही करना चाहिए. मैने मैग्नासाउंड को हां कहते समय यही सोचा कि अगर मेरे अंदर कुछ प्रतिभा है और सामने ेसे मौके आ रहे हैं, तो प्रयास करना चाहिए. हम नया अनुभव लेते हुए कुछ तो आगे बढ़ेगे. खैर, नक्श लायलपुरी जी ने मेरे लिए गाना लिखा. संगीतकार ने हिम्मत दी और गाना हिट हो गया. तो मेरे अंदर का गायक जाग गया. मैने सोचा कि अभिनय तो मेरे अंदर है, अब मुझे गायन मंे भी कोशिश करनी चाहिए. मैने एक गाना कुलदीप सिंह के साथ गाया. तो मेरे दो तीन अलबम आ गए. उसके बाद मै फिर से फिल्म व टीवी में अभिनय करने में व्यस्त हो गयी.

मैं थिएटर से लंबे समय से दूर थी. उन दिनों मैं सीरियल ‘बालिका वधू’ की शूटिंग कर रही थी. तभी मुझे लिलेट दुबे ने म्यूजिकल नाटक ‘‘गौहर जान’ का आफर दिया,  जिसमें मुझे गाना भी गाना था. मैने कहा कि मैं गाना तो गा सकती हूं, पर मैं क्लासिकल गायक नही हूं. गौहर जान का किरदार कमाल का था. वह अपने वक्त की इकलौटी रिकार्डिंग आर्टिस्ट थीं. उनकी जिंदगी काफी रोचक रही है. तो ऐसे किरदार के लिए मना भी नही कर सकती थी. पर इस किरदार के लिए काफी तैयारी करनी थी. नाटक के रिहर्सल करना था. गायकी भी सीखनी थी. उन दिनों मेरा बेटा भी चार पांच साल का था. सारी तैयारी करने के लिए हमारे पास सिर्फ एक माह का वक्त था. मैं ‘बालिका वधू’ की शूटिंग में भी व्यस्त थी. यानी कि कई तरह की चुनौतियां सामने थीं. पर मैने मेहनत करने के लिए कमर कस ली और शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया. मेरे दिमाग में यह बात भी आयी कि अगर हम यह सोचे कि नाटक के पहले शो में कमाल कर देंगें, तो यह संभव नही. अभिनेता के तौर पर काम करने लेने का आत्म विश्वास मेरे अंदर था. मामला तो गायन में अटक रहा था. फिर मैने वही सोचा कि शुरूआत के कुछ शो में मुझे और दर्शकों को भी लग सकता है कि और बेहतर किया जा सकता था. लेकिन इतना तय था कि मैं कुछ सीख कर निकलने वाली थी. कलाकार के तौर पर मेरा विकास तय था. एक अच्छा अनुभव मिलना भी तय था. वैसे मेरा इरादा तो पहले शो में ही कमाल करने का था. पर आप भी जानते हैं कि नाटक के किसी भी नंबर के शो में गड़बड़ी हो सकती है. अंत में मैने तय किया कि ज्यादा गुणा भाग लगाने की बजाय मेहनत की जाए, तो यह नाटक मैं अच्छे से कर ले जाउंगी.

मैने अपनी तरफ से मेहनत की और शो दर शो वह नाटक बेहतर होता गया. मुझे अपने आप पर गर्व है. शायद कोई दूसरा कलाकार मुझसे बेहतर कर सकता था. पर मैने जो किया वह मेरे हिसाब से सर्वश्रेष्ठ किया. मुझे इस नाटक को करके बहुत मजा आया. एक कलाकार जब स्टेज पर जाता है, तो सोचता है कि मैं अभिनेता हूं, गायक हूं और डांसर भी हूं. इसका लुत्फ मैंने इस नाटक को करते हुए उठाया.

इस नाटक को करते हुए आपको अहसास हुआ होगा कि बचपन में आपकी मां ने आपको नृत्य सीखने के लिए भेजकर अच्छा कदम उठाया था?

-जी हां! आप जिंदगी में जो कुछ सीखते हैं, वह कभी भी बेकार नही जाता. आपको हिम्मत करनी पड़ती है. आप यह सोचकर डर नही सकते या चुप नही बैठ सकते कि क्या होगा? जो होना है वह होगा, पर आपको हिम्मत जुटानी पड़ती है. आप यह न समझे कि मुझे डर नही लगता. मुझे भी डर लगता है. कई बार मुझे भी लगता है कि मैं यह नही कर सकती. पर दिमाग लगाना पड़ता है. जब मेरी समझ में आता है कि यह काम करते हुए मुझे मजा आएगा, मैं किसी का नुकसान किए बगैर कुछ नया सीख सकती हूं, तो मैं आगे बढ़ जाती हूं. एक कलाकार के तौर पर हमें कोई मौका नहीं छोड़ना चाहिए. हम यह मानकर चलते है कि हम एक बार गिरेंगे, पर फिर उठना है.

जब आपका अभिनय कैरियर अच्छा चल रहा था, उसी बीच आपने अन्नू कपूर संग जीटीवी पर संगीत के कार्यक्रम ‘‘अंताक्षरी’’ का संचालन किया?

– मजा लेने के लिए किया था. सिर्फ 26 एपीसोड किए थे. मैने इंज्वाॅय किया था. अन्नू कपूर के संग काम करने में मजा आया था. वह ज्ञान के सागर हैं. वह सेट पर जितनी तड़क भड़क और कई तरह की जानकारी के साथ आते थे, उससे मैं हैरान रह जाती थी. इंसान के अंदर हमेशा कुछ नया करने की इच्छा होनी चाहिए. भले ही आप दोबारा उस काम को न करना चाहें. सच कहूं तो एंकरिंग करना मेरे लिए आसान नही था. मेरे लिए चार लोगों के सामने बात करना मुश्किल होता है. मैने स्कूल में तमाम बच्चों के बीच कविताएं पढ़ी हैं. मगर उसमें अंतर है. पर भाशण देना मुश्किल हो जाता था. लेकिन लिखा हुआ पढ़ना है, कुछ पढ़कर उसे एक्सप्रेस करना आनंद देता है. फिर भी मैने ‘अंताक्षरी’ का संचालन करते हुए सब कुछ किया. और मैं तो हर इंसान से कहती हूं कि उसे हर काम करना चाहिए. मैं मानती हूं कि यह कहना गलत होगा कि इंसान कुछ भी कर सकता है. हर इंसान कुछ काम नही कर सकता. मगर यदि आपको एक मौका मिला है और आपको लगता है कि उसे करने से आप एक सीढ़ी, एक पायदान उपर चढ़ सकते हैं, तो अवश्य प्रयास करना चाहिए. इससे आपका अपना आत्म विश्वास बलवान होता है.

जब अभिनय कैरियर उंचाइयों पर था, तभी क्या सोचकर आपने शादी करने का फैसला लिया था?

-सच कहूं तो मैने कुछ सोचा ही नहीं था. मुझे यह लगा कि यह सही वक्त है, मुझे शादी कर लेनी चाहिए. मेरे घर में मुझसे कभी किसी ने यह नही कहा था कि मुझे 18 वर्ष की उम्र में शादी करनी चाहिए. मेरे दादा जी ने कहा था कि , ‘तुम आराम से अपना काम करो. अपने पैर जमाओ. फिर शादी कर लेना. ’’लेकिन मुझे पता था कि हर काम का एक वक्त होता है. पर उस वक्त के चलते किसी से भी शादी करना जरुरी नही है. लेकिन जब वह वक्त होता है, तो सही राह भी दिखा देता है.

जब वरूण मिले,  तो हमें लगा कि हम काफी एक जैसे हैं. हमारे बीच अपनी जगह बनाने की लड़ाई नही है. हम दोनो के परिवारों की पृष्ठभूमि अलग होते हुए भी ऐसा है कि हम दोनों के परिवार एक साथ एक टेबल पर बैठकर बात कर सकते हैं. कुछ तो समानताएं हैं. दोनों परिवारों का कला व साहित्य से जुड़ाव है. वरूण के साथ हमारी दोस्ती थी. हम एक दूसरे को जानते थे.

लेकिन हर दिन मुलाकात नही होती थी. कई बार तो साल भर तक मुलाकात नही होती थी. कभी किसी सीरियल की शूटिंग के सिलसिले में लगातार कई दिन मुलाकात हो गयी. कभी फोन पर बात हुई तो एक घंटे की मुलाकात हो गयी. इन मुलाकातों के दौरान कोई विचार नही आता था. पर शायद जिसे जिस वक्त पर होना होता है, वह उस वक्त पर हो जाता है. हम व वरूण साथ में एक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे. शूटिंग खत्म होने वाली थी, तभी बातों बातों में ही बात निकली. वरूण ने शादी का प्रस्ताव रख दिया. मैने कहा कि मेरे पिताजी से जाकर बात कर लो. यदि उनकी हां है, तो मेरी हां है, यदि उनकी ना है, तो ना है.

वैसे तो यह मजाक की बात थी. पर उस वक्त यह गंभीर बात थी. क्योंकि उस वक्त ही नही, अब तक मेरी जिंदगी में कभी ऐसा नही हुआ कि मेरे माता पिता ने मुझे कोई सलाह दी हो और वह गलत साबित हुई हो. पर शादी का निर्णय मेरे लिए बहुत बड़ा निर्णय था. मैं सभी के चेहरे पर मुस्कान देखना चाहती थी. क्योंकि मुझे तो पता था कि मैं सही कदम उठाने जा रही हूं, पर यदि मेरे माता पिता कह दें, तो मुझे यकीन हो जाएगा कि हां मैं सही सोच रही हूं. मेरे माता पिता की खूबी है कि हर निर्णय में वह हमें शामिल करते रहे हैं. तो जाने अनजाने वह सभी का निर्णय होता था.

खैर, मेरा निर्णय, वरूण का निर्णय और मेरे माता पिता का निर्णय एक ही था, तो हमने शादी कर ली. हमें पता था कि शादी के बाद हम गायब नहीं होने वाले हैं. हम लगातार काम करते रहेंगे. तो जो सामने से आए हैं? अच्छे इंसान हैं, उन्हे भगाना ठीक नही लगा. कई मसलों में मेरी व वरूण की सोच एक जैसी है. हम दोनों की प्रोफेशनल अप्रोच भी एक जैसी है. हम दोनों के लिए परिवार भी जरुरी है. हमारे बीच प्रतिस्पर्धा वाली कोई बात नही है. हमारे बीच बहुत अच्छा तालमेल है. हम अपनी गाड़ी बैलेंस बनाकर चला लेते हैं.

शादी का कैरियर पर क्या असर पड़ा?

-मुझे नही लगता कि कोई बुरा असर पड़ा. हम पहले जिस तरह का काम कर रहे थे, शादी के बाद भी उसी तरह का काम कर रहे हैं. मैने कभी यह नही कहा कि मेरे लिए कैरियर महत्वपूर्ण नही है. कैरियर तो आज भी महत्वपूर्ण है. पर कैरियर शब्द का उपयोग करना ठीक नही रहेगा. बल्कि मैं यह कहती हूंू कि यह ऐसा काम है, जो मुझे सकून देता है. मैं अभिनय करते हुए इंज्वाय करती हूं. लोग मुझे कलाकार के तौर पर जानते हैं, पहचानते हैं यह और भी ज्यादा खुशी की बात है. इसी के साथ मुझे पता है कि मेरा घर है, मेरा परिवार है. मेरा बेटा है. तो सब कुछ सामंजस्य बैठाते हुए करना है. शादी से पहले भी जिंदगी में बैलेंस था और शादी के बाद भी है. फर्क इतना है कि अब जिम्मेदारी बढ़ गयी हैं. पर हम जिंदगी जी रहे हैं. जिंदगी में आने वाले उतार चढ़ाव तो हमें झेलने ही हैं. उसी के साथ काम चलता रहेगा.

आप अभिनेत्री, मां, पत्नी, बहू हैं. इन सभी जिम्मेदारियों के बीच किस तरह से तालमेल बिठाती हैं?

-हमारी जिंदगी में उदाहरण काफी अच्छे हैं. सबसे पहले तो हमारे माता पिता हैं. उनको देखते हुए जाने अनजाने हमारे अंदर समझ आती रही कि जिंदगी को कैसे जिया जाए. हर जिम्मेदारी का निर्वाह किस तरह से हंसते हुए किया जाए. हर इंसान की जिंदगी में संघर्ष होता है. हमारे लिए जिंदगी का हर पहलू महत्वपूर्ण है. एक वक्त में एक चीज महत्वपूर्ण है, तब दूसरी चीज बैलेंस करनी ही पड़ेगी. पर इन सारी जिम्मेदारियों को लेकर मैं ज्यादा सोचती नही हूं. सब कुछ अपने आप तालमेल में बैठ जाती हैं. टचवुड सब ठीक से निभ रहा है. पर हमें बहुत ज्यादा चुनौतियां भी नहीं चाहिए.

पर जब बेटा छोटा था, तब बेटे की अपनी मांग रही होगी. वह चाहता होगा कि उसकी मां उसके साथ ज्यादा रहे. . घर से बाहर न जाए?

-मेरा बच्चा तो सोचता है कि उसकी मां कब घर से बाहर जाए. क्यांेकि मैं एक सख्त मां हूं. मैं लाड़ प्यार भी करती हूं. पर मैं उसके लिए आसान नही हूं. वैसे मेरा बेटा बहुत प्यारा है. मुझमें सहनशक्ति ज्यादा नही है. बेटे के पैदा होने के बाद इसी ने मुझे पैशन/ धैर्य रखना सिखाया है. पर वरूण के मुकाबले मेरे अंदर ज्यादा पैशन है. दूसरी बात हमारा बच्चा सिर्फ हम नहीं पालते. पूरा परिवार पालता है. इसलिए हमारा बेटा अच्छे से पल रहा है.

अब तक आप कई किरदार निभा चुकी हैं. कोई ऐसा किरदार रहा जिसने आपकी जिंदगी पर असर किया हो?

-नहीं. . . वास्तव में 1994 में मैं एक फिल्म ‘‘त्रियाचरित्र’’ की शूटिंग कर रही थी. उस वक्त माथे पर एक दाग देने के सीन में मुझे तकलीफ हो रही थी. तब मैने कहा कि यह क्या ? यह तो गलत है. तभी से मैने अपने आपको बदला और मैं स्विच ऑन और स्विच आफ कलाकार बन गयी.

मैं कहां आ गई- भाग 3

उन से कह दीजिएगा कि पता मालूम हो गया है. अब आप की बेटी 2-4 दिनों बाद मिलेगी. देख लेना अम्मा, खुशामद करेंगे

और मेरे अब्बा कि बस, नजमा को आज ही ले आओ. मैं दिल ही दिल में खूब हंसूंगी उन पर. बेचारों को ज्यादा मत सताना.

थोड़ी देर में बता देना कि नजमा यह क्या खड़ी है. बड़ा मजा आएगा.”

नरगिस ये हवाई किले बना रही थी, जबकि सरफराज का मशविरा था कि वह अकेला जाएगा. हीलहुज्जत के बाद नरगिस

तैयार हो गई और सरफराज अपनी वालिदा को ले कर मकान ढूंढऩे चला गया.

“यह तू मुझे कहां ले आया?” बड़ी बी ने मकान को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा.

“अखबार में इसी मकान का नंबर छपा है.” सरफराज ने अखबार देखते हुए कहा.

“लेकिन यह तो शाहिदा का मकान है. मेरी सहेली है. मैं तो नरगिस को ले कर यहां आ चुकी हूं.”

“अच्छा, मगर पता तो यही है.”

“सरफराज,” बड़ी बी ने सरगोशी की, “नरगिस भी इस मकान को देख कर चौंकी थी. शायद उस की याददाश्त ने सही

निशानदेही की थी. हो सकता है, शाहिदा का नरगिस से वाकई कोई ताल्लुक हो.”

“चलिए, मालूम करते हैं. अकसर यह भी होता है कि गुम हो जाने वाली लड़कियों के रिश्तेदार उन्हें कबूल करने से कतराते हैं.

अगर ऐसा हुआ तो हमें सख्त जद्दोजहद करनी पड़ेगी.”

“कैसी जद्दोजहद? मैं शाहिदा की जान को आ जाऊंगी. बच्ची का इस में क्या कसूर? बस तुम इतना खयाल करना कि यह जिक्र

न आने पाए कि नरगिस अब तक तवायफ के कोठे पर थी. मैं कोई और बहाना तलाश लूंगी.”

बड़ी बी अंदर चली गईं. कुछ देर बाद सरफराज को भी बुला लिया गया.

“आप इस बच्ची को जानती हैं?” सरफराज ने शाहिदा को अखबार दिखाते हुए पूछा.

शाहिदा ने गौर से तसवीर को देखा और इनकार में सिर हिला दिया.

“गौर से देखिए, कुछ याद कीजिए,” सरफराज ने जोर दिया, “यह 15 साल पुरानी तसवीर है.”

“नहीं बेटा, मैं इस को नहीं जानती.” शाहिदा ने फिर इनकार किया.

“अच्छा यह बताइए, 15 साल पहले आप के घर में कोई बच्ची गुम हुई थी?”

“अल्लाह न करे. ऐसा हादसा तो कभी पेश नहीं आया.”

“फिर यह इश्तिहार कैसा है? इस में तो आप ही के घर का पता है.”

“कमाल है,” सरफराज किसी सोच में डूब गया, “अच्छा, यह बताइए, आप के यहां हाजी फरीद अहमद किस का नाम है?”

“किसी का भी नहीं. मेरे शौहर का नाम तो अब्दुल हमीद था.”

सरफराज को अपनी सारी मेहनत बेकार जाती हुई नजर आ रही थी. अचानक उस के जेहन में एक खयाल बिजली की तरह

कौंधा.

“आप इस मकान में कब से हैं?” उस ने पूछा.

“तकरीबन 12 साल से.”

“हूं,” सरफराज ने चुटकी बजाई, “यह इश्तिहार है 15 साल पहले का. इस का मतलब है, आप से पहले इस मकान में कोई

और रहता था और वह थे हाजी फरीद अहमद यानी नरगिस के वालिद. उन्होंने किसी वजह से यह मकान आप को बेच दिया

और यहां से चले गए.”

“हां, यही होगा.”

“आप मुझे मकान के कागजात दिखा सकती हैं?”

“बात क्या है? हमें पूरी तरह समझाओ.”

“मैं बताती हूं,” बड़ी बी ने कहा, “उस रोज जो लडक़ी मेरे साथ आई थी, यह तसवीर उसी की है. बचपन में वह गुम हो गई

थी. शायद मैं ने तुम्हें बताया भी था. उस रोज वह यहां आई थी तो इस मकान को देख कर चौंकी भी थी. अब हमें उस के

मांबाप की तलाश है. कागजात से यह मालूम हो जाएगा कि यह मकान वाकई हाजी फरीद का था, जो नरगिस के बाप हैं.

यह तस्दीक हो जाए तो सरफराज उन्हें भी तलाश कर लेगा.”

“अच्छा, मैं कागजात ले कर आती हूं.”

सरफराज ने कागजात देखे. मकान वाकई हाजी फरीद अहमद के नाम पर था, लेकिन बेचने वाले रशीद अहमद और हमीद

अहमद थे, जिन की वल्दियत हाजी फरीद अहमद मरहूम लिखी हुई थी. इस का मतलब था कि हाजी साहब का इंतकाल हो

गया था और उन के बेटों यानी नरगिस के दोनों बड़े भाइयों ने यह मकान बेच दिया था.

“मामला बिलकुल साफ है. हम नरगिस के वारिसों के बहुत करीब पहुंच चुके हैं. अब गुत्थी सिर्फ यह है कि वे दोनों शख्स इस

वक्त कहां हैं? मुलतान में या मुलतान के बाहर? अगर मुल्क में ही हैं तो मैं उन्हें जरूर तलाश लूंगा.”

अगले दिन सरफराज ने पूरे मुल्क के अखबारों में टेलीङ्क्षप्रटर से यह खबर पहुंचा दी कि 15 साल पहले गुम होने वाली बच्ची

नजमा वल्द हाजी फरीद मरहूम, जिस के भाइयों के नाम रशीद अहमद और हमीद अहमद हैं, हमारे पास मौजूद है और अपने

भाइयों को तलाश रही है. ये लोग खबर को पढ़ते ही हम से संपर्क करें. इसी किस्म का इश्तिहार उस ने टीवी को भी दिया.

तीसरे दिन सरफराज के पास टेलीफोन आया, ‘हम ने खबर पढ़ी. हम कल आप के पास आ रहे हैं.’

यह टेलीफोन कराची से रशीद अहमद की तरफ से था. दूसरे दिन रशीद अहमद और उस की बेगम सरफराज के घर पहुंच

गए. उस के लिबास और हुलिए से जाहिर हो रहा था कि वे निहायत दौलतमंद हैं. सरफराज को यह देख कर इत्मीनान हुआ

कि दौलतमंद होने के बावजूद रशीद अपनी गुमशुदा बहन को भूला नहीं था. उस के चेहरे पर घबराहट और खुशी के मिलेजुले

भाव साफ बता रहे थे कि वे नरगिस से मिलने के लिए बेचैन हैं.

“पहले यह साबित कीजिए कि आप ही रशीद अहमद वल्द हाजी फरीद अहमद हैं.” सरफराज ने कहा.

“मुझे मालूम था कि आप यह सबूत जरूर चाहेंगे, इसलिए मैं अपना पासपोर्ट साथ ले आया हूं. इस के अलावा मैट्रिक का

सर्टीफिकेट भी है. मैं ने मैट्रिक मुलतान से ही किया था. अब्बाजी की तसवीर भी है, जिस में हम दोनों भाई उन के साथ बैठे

हुए हैं. और एक सब से अहम सबूत यह है कि नजमा की जो तसवीर उस वक्त अखबार में छपी थी, वह मेरे अलबम में थी, जो

मैं अपने साथ लाया हूं, यह देखिए.”

“आप ने इस तसवीर को बहुत संभाल कर रखा है.” सरफराज ने तसवीर को देखते हुए कहा.

“क्यों न रखते साहब. कोई दिन ऐसा नहीं गया, जब हम ने इसे याद न किया हो. एक ही तो हमारी बहन थी. वह भी ऐसी,

जो हम दोनों भाइयों के जवान होने के बाद पैदा हुई थी. मेरे छोटे भाई हमीद की शादी पर ही वह गुम हुई थी. उसे कहांकहां

 

नहीं ढूंढ़ा हम ने. अब्बाजी तो ऐसे बिस्तर से लगे कि फिर उठ ही न सके. मां भी कुछ अरसे बाद ही हम से रूठ गईं. नजमा

क्या गई, हमारा तो घर ही उजड़ गया. हम दोनों भाइयों का दिल भी उचाट हो गया. लिहाजा हम ने वह मकान बेच दिया.

हमीद तो बाहर निकल गया. आजकल जापान में है. मैं कराची चला गया. अब वह मिली है तो ऐसे वक्त कि अम्माजी…” उस

की आवाज आंसुओं में बह गई. वह बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा.

“रशीद साहब, हौसला रखिए. अल्लाह ने इतनी बड़ी खुशी दी है कि आप का दामन भर जाएगा. उसे समेटिए और खुदा का

शुक्रिया अदा कीजिए. मैं नजमा को बुलाता हूं.” सरफराज ने कहा.

“ठहरिए सरफराज साहब, मैं यह कैसे यकीन कर लूं कि वह नजमा मेरी बहन ही है?”

“इस की गवाही आप का दिल दे रहा है. आप के आंसू शहादत दे रहे हैं.”

“वह तो है, लेकिन मैं एक इत्मीनान करना चाहता हूं.”

“फरमाइए.”

“हमारे घर में एक मुर्गा था, जो कटखना हो गया था. उस ने नजमा की पीठ पर चोंच मार दी थी. जख्म बहुत दिन पका था

और कंधे से कुछ नीचे निशान छोड़ गया था. वह निशान अब भी होगा.”

“यकीनन होगा.” सरफराज ने कहा.

“आप मेरी बेगम को अंदर से जाइए. यह उस निशान को देख लेंगी. फिर कोई शक नहीं रहेगा.”

“बेशक.”

रशीद अहमद की बेगम अंदर चली गई. कुछ देर बाद वह इस खुशखबरी के साथ बाहर आई कि निशान मौजूद है. रशीद

अहमद की आंखें एक बार फिर भीग गईं.

“आप लोग बैठें. मैं नजमा को ले कर आता हूं.” सरफराज ने कहा और कमरे से निकल गया.

रशीद अहमद की आंखें दरवाजे पर लगी थीं. उसे सांस लेने की फुरसत भी नहीं थी. पलक झपकाना भूल गया था. फिर कुछ

आउट हुई. सरफराज की वालिदा के साथ नरगिस कमरे में दाखिल हुई. रशीद अहमद अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ. कुछ देर

दोनों भाईबहन एकदूसरे को देखते रहे, फिर जैसे नरगिस को होश आ गया.

“भाई जान.” उस ने कहा और दौड़ कर रशीद अहमद के गले से लग कर रोने लगी. रोरो कर मन कुछ हलका हुआ तो पूछा,

“अम्मा को नहीं लाए और अब्बाजी भी नहीं आए?”

“तू घर चल, सब से मुलाकात हो जाएगी. अभी तो मैं और तेरी भाभी आए हैं तुझे लेने.”

“मुझे अम्मा बहुत याद आती हैं. मुझे जल्दी से घर ले चलें.”

“चलते हैं. जरा इन लोगों का शुक्रिया अदा कर लूं.”

“भाईजान, इन का शुक्रिया जरूर अदा कीजिए. ये न होते तो और न जाने कितने दिन ठोकरें खाती.” कह कर नरगिस फिर

रोने लगी.

“रशीद साहब, यह मेरी वालिदा हैं.” सरफराज ने बड़ी बी का परिचय कराया.

“मांजी, मैं किस मुंह से आप लोगों का शुक्रिया अदा करूं.”

“शुक्रिया कैसा बेटा, तुझे तेरी बहन मिल गई, हमें तो खुदा ने एक जरिया बनाया था. तेरी बहन बहुत प्यारी है. इस का

खयाल रखना. इसे कोई तकलीफ न पहुंचे.”

“यह मेरी जान है मांजी. मेरे पास अल्लाह का दिया सब कुछ है. मैं इसे सोने में तौल दूंगा.”

“बेटा, बहनें मोहब्बत की भूखी होती हैं, दौलत की नहीं.” बड़ी बी ने कहा.

“मैं आप की नसीहत याद रखूंगा.”

“मैं अपनी बच्ची को तैयार कर दूं. आप की अमानत है, ले जाइएगा.”

बड़ी बी नरगिस को अंदर ले गईं. तैयार करने का तो बहाना था. उन्हें दरअसल उसे यह नसीहत करनी थी, “मेरी एक बात

याद रखना. अपने अतीत को भूल जाना. कभी किसी पर जाहिर मत करना कि तुम कोठे पर रही हो. यह ऐसी तोहमत है, जो

तुम्हारे भाई की मोहब्बत को आधा कर देगी. भाई अगर बर्दाश्त कर भी लेगा तो भाभी आज नहीं, तो कल तुम्हें ताने जरूर

देगी.”

“लेकिन भाई पूछेंगे जरूर कि 15 साल कहां रही? किस माहौल में जवान हुई? मैं उन से क्या कहूंगी?”

“बेटी, यह तुम्हारी मरजी पर निर्भर है. तुम समझदार हो. कोई कहानी गढ़ लेना. इसी में तुम्हारी बेहतरी है.”

“ठीक है, अम्मा. मैं समझ गई.”

“अब जाओ अपने भाई के साथ.”

“आप लोग मुझे बहुत याद आएंगे.”

“अरे, तुम्हें वहां ऐसा प्यार मिलेगा कि भूल जाएगी. फिर भी अगर मैं याद आऊं तो चली आना मुझ से मिलने. कराची कौन

सा दूर है.”

नरगिस उस घर से इस तरह रुखसत हुई, जैसे कोई बेटी अपनी मां के घर से ससुराल जाती है.

नरगिस ने सोचा भी नहीं था कि रशीद भाई इतने दौलतमंद होंगे. वह उन का मकान देख कर हैरान रह गई. उन की कोठी,

कमरों की सजावट, अमीराना ठाठबाट, ये सब चीजें उस के लिए विस्मयकारी थीं. उसे भाई से मिलने की खुशी तो थी ही,

भाई को खुशहाल देख कर उस का दिल और भी ज्यादा खुश हुआ.

घर पहुंचते ही वह एक बार फिर जानपहचान की मंजिल से गुजरी. रशीद अहमद की 2 बेटियां और एक बेटा था. बेटियां तो

नरगिस की तरकीबन हमउम्र थी, लेकिन बेटा छोटा था. नरगिस के पहुंचते ही इमराना उस से मिलते आई, “हैलो.”

“यह मेरी बड़ी बेटी इमराना है,” रशीद ने परिचय कराया, “तुम से कोई 2 साल बड़ी होगी.”

इस के बाद एक और लडक़ी अंदर दाखिल हुई. उस का नाम फरहाना था. बेटे का नाम इमरान था.

नरगिस उन लड़कियों को देख कर ज्यादा खुश नहीं हुई. उन के कपड़े, तराशे हुए बाल और लज्जाहीनता उस के लिए

निराशाजनक थी. उसे पहली नजर में अंदाजा हो गया कि इस घर का रहनसहन अंग्रेजी तर्ज का है, लेकिन यह कोई ऐसी

खराब बात नहीं थी. बड़े घराने ऐसे ही ङ्क्षजदगी गुजारते हैं.

औचारिक परिचय के बाद रशीद अहमद नरगिस से मुखातिब हुए, “इतने दिनों कहां रहीं? तुम पर गुजरी क्या? कुछ हमें भी

तो बताओ.”

“हां, नजमा, कुछ तो बताओ.” भाभी बोलीं.

नरगिस ने अपनी कहानी सुनाई, लेकिन कुछ तब्दीली के साथ, “भाईजान, मुझे तो कुछ याद नहीं रहा था. यह कहानी मरते

वक्त मुझे मेरे मोहमिन (उपकारी) ने सुनाई. उस ने मुझे बताया कि कोई शख्स तुम्हें मुलतान से लाहौर ले आया था. जाहिर है

कि किसी गलत इरादे से ले कर आया होगा. लेकिन खुदा को कुछ और ही मंजूर था. वह अभी रेलवे स्टेशन से बाहर आया था

कि उस पर दिल का दौरा पड़ा. जिस ने मुझे पालापोसा, टैक्सी चलाता था. खैर, जब उस शख्स को हार्टअटैक हुआ तो उस ने

टैक्सी को हाथ दिया. टैक्सी में बैठने से पहले ही उसे यकीन हो गया था कि वह अब बचेगा नहीं. उस ने मुझे सुपुर्द कर

अटकअटक कर उस के अब्बू का पता बताया कि वह मुझे वहां पहुंचा दे.

“उस के मरने के बाद उस ने बहुत चाहा कि मुझे मेरे घर पहुंचा दे, लेकिन उस के दिल में बेईमानी आ गई. उस वक्त वह

बेऔलाद था. उस की अपनी बेटी मेरे आने के बाद पैदा हुई. उस ने और उस की बीवी ने तय किया कि जब खुदा ने यह तोहफा

उसे दिया है तो वे हमें वापस नहीं करेंगे.

फ्रंटियर मेल, भाग 3 : क्या था मंजू का कारगर हथियार ?

मेरे सिर से मानो एक भारी बोझ उतरा और संतोष की सांस ले कर मैं घर वापस पहुंचा. मंजू ने दिल्ली पहुंच कर सब हाल विस्तारपूर्वक लिखा : घर से वे लोग ठीक समय पर टैक्सी द्वारा निकल पड़े थे पर जब वह अपना सफर तय कर के मुंबई सैंट्रल के अंदर घुसने को हुई तो दिनेश बोल पड़ा, ‘‘यह कहां ले जा रहे हो. यह तो सैंट्रल है सैंट्रल. हमें जाना है वैस्टर्न रेलवे से.’’ उसे वहम था कि बड़े शहरों के टैक्सी वाले सब बदमाश होते हैं और यात्रियों को गलत जगह ले जाया करते हैं.

टैक्सी वाला कुछ बोलने को हुआ, ‘‘मगर…’’

और आगे के शब्द उस के मुंह में ही रह गए. दिनेश के शब्दकोघ में ‘मगर’ का अर्थ है उस के ज्ञान को चुनौती देना. एक दो कौड़ी के टैक्सी वाले ही यह हिम्मत कि उस के आगे ‘मगर’ कहे, वह जिस ने अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वानों के भी छक्के छुड़ा दिए थे.

‘‘मगरवगर की बकवास बंद करो,’’ टैक्सी वाले पर मानो पहाड़ टूटा, ‘‘तुम से कह दिया कि हमें मुंबई सैंट्रल नहीं जाना है. चलो, सीधे वीटी.’’

दबे स्वर में मंजू ने कहा, ‘‘न हो तो अंदर जा कर पूछ क्यों नहीं लेते कि फ्रंटियर मेल कहां से जाती है. अभी तो बहुत समय है.’’ पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है.

‘‘अब तुम मेरा भेजा मत चाटो,’’ दिनेश चिल्लाया, ‘‘क्यों जाऊं अंदर. साफ लिखा है सैंट्रल. आंखें नहीं हैं तुम्हारे,’’ और उस ने गुर्रा कर फिर ड्राइवर की तरफ देखा.

वह बेचारा सिट्टीपिट्टी भूल कर वीटी की ओर चल पड़ा. स्टेशन पहुंच कर कुली ने सामान उतार कर ठेले पर रख कर पूछा, ‘‘कौन सी गाड़ी, बाबू?’’

‘‘फ्रंटियर मेल,’’ उत्तर मिला.

कुली को सहसा अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘फ्रंटियर मेल,’’ वह कुछ चक्कर में आ कर बोला, ‘‘पर वह तो सैंट्रल से जाती है. जरूर इस में टैक्सी ड्राइवर की बदमाशी है. आप को नया जान कर साला गलत स्थान पर ले आया है.’’

अब दिनेश को काटो तो खून नहीं. अपनी इज्जत मानो स्वयं ही उस ने धूल में मिला ली थी. सवा 8 बज रहे थे और उस की रहीसही सोचने की शक्ति भी जवाब दे रही थी. ऐसे में स्थिति संभाली मंजू ने.

‘‘हमें अफसोस है,’’ उस ने टैक्सी ड्राइवर से कहा, ‘‘जो हम ने आप की बात नहीं सुनी. खैर, जो हुआ सो हुआ, अब जल्दी से हमें वापस पहुंचाइए.’’

ड्राइवर रास्तेभर भुनभुनाता रहा, ‘लोगबाग सूट पहन कर टाई क्या लगा लेते हैं कि अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं. 20 साल से टैक्सी चला रहा हूं, कोई भाड़ तो नहीं झोंकता रहा. आप बीच में नहीं बोलतीं, बाई साहब, तो आज साहब वीटी पर ही रहता. हम भी देखता कि फ्रंटियर मेल वीटी पर कैसा आता है.’ अब वह अपनी मूंछें भी धीरेधीरे ऐंठ रहा था.

दिनेश भीगी बिल्ली की भांति बैठाबैठा सबकुछ चुपचाप सुनता रहा. उस के अहं को इतना धक्का पहली बार लगा था.

मैं ने मंजू को प्रयुत्तर में पत्र लिखा था, “जो अपना अहं नाक पर रखती है उन को कहीं न कहीं पटखी मिलती ही है. जैसे घोड़े को लगाम तथा नकेल से ही संभाला जा सकता है वैसे ही दिनेश को काबू में रखने के लिए ही विधाता ने मानो तुम्हें एक मंत्र दे दिया है. आगे जब भी आपे से बाहर होते हुए तुम उसे लगाम तुड़ा कर भागते देखो तो किसी वाक्य में ‘फ्रंटियर मेल’ जोड़ देना. हो सकता है इन शब्दों के सहारे तुम उस पर राज कर सकोगी. फ्रंटियर मेल के रूप में यह ‘ब्लैकमेल’ तुम्हारे लिए सर्वथा न्यायपूर्ण है.’’

इस वशीकरण मंत्र की आश्चर्यजनक सफलता पर हम दोनों जब मिलते, कुछ नया सुनने को मिलता. पर आज जो मैसेज मिला उस ने फ्रंटियर मेल को ही बंद करा दिया था. मंजू बीमार थी, यह मैं जानता था पर हर दोस्त की अजीज पत्नी के जाने का दुख होता है वह मैं खुद भुगत चुका हूं. जब से उमा गई है. मेरी हर गाड़ी उतरी हुई है.

छिताई का कन्यादान- भाग 3

विदाई के समय राजा ने देवगिरि के राजप्रासाद को सज्जित कराने की दृष्टि से एक चित्रकार की मांग की, क्योंकि दिल्ली के महलों में चित्रकारी देख कर वह प्रफुल्लित हुआ था. सुलतान ने अपना खास चित्रकार साथ भेजा. लौट कर राजा ने जब बेटी को देखा तो चौंका. 3 साल में ही राजकुमारी कितनी यौवन संपन्न हो गई थी.

राजा ने पुराने भवनों के साथ नए प्रासाद का भी निर्माण करा कर पौराणिक ग्रंथों के विविध प्रसंगों को अपनी इच्छा से चित्रित कराया. चित्रकार नए चित्रों में नए रंग भरता तथा नई आकृतियां अंकित करता रहता था. मन में बसे चित्रों की छवि को वह तूलिका के जादू से अधिक ललित, जीवंत एवं मनोहर बना कर प्रस्तुत कर देता था.

एक दिन वह तन्मय हो कर चित्र बना रहा था कि उस की दृष्टि पाश्र्व के द्वार पर गई. दमकते सौंदर्य तथा छलकते यौवन की साक्षात स्वामिनी खड़ी थी. उस ने बहुत सुंदरता को सिरजा था, मगर आज विधाता की इस चपल, नवल तथा विरल सृष्टि को निहार कर चकित रह गया था. जिस तन्मयता से वह चित्र की सृष्टि में लीन था, उतना ही वह लालित्य की देवी उस क्षणक्षण संवरती कृति को निहारने में खोई थी. जैसे ही चित्रकार का ध्यान भंग हुआ और उस ने पीछे देखा, वैसे ही वह सुंदरी जल में फिसलती मीन की तरह अंतराल में विलीन हो गई. चित्रकार के मन में उस अनुपम सौंदर्य को चित्रित करने की लालसा घर कर गई.

चित्रकार को यह आभास हो गया था कि वह राजकुमारी छिताई थी. चित्रकार दरबार के साथ ही अंत:पुर में भी चित्र बना रहा था. अतएव उस ने फिर से उस दमकते सौंदर्य का दर्शन कर लिया और इस बार उस ने पूरी सजगता से चुपचाप छिताई की छवि अपनी तूलिका से उतार ली और चित्र को अपने पास रख लिया.

इस बीच राजा ने बेटी हेतु वर की तलाश जारी रखी. उस ने पुत्री का विवाह द्वारसमुद्र के राजा भगवान नारायण के पुत्र राजकुमार सौंरसी के साथ निश्चित कर दिया. चित्रांकन का कार्य समाप्त होने के पश्चात विवाह का मंडप सजाया गया और विवाह कार्य सकुशल संपन्न हो गया.

राजकुमारी पति के साथ डोली में ससुराल चली गई. चित्रकार भी पुरस्कार पा कर और अपने स्वामी हेतु उपहार ले कर दिल्ली चला गया. कुछ ही दिनों बाद प्रिय पुत्री के बिना घर सूना पा कर राजा रामदेव ने छिताई को बुला लिया. छिताई और सौंरसी, दोनों देवगिरि आ गए. वैभव और दुलार की कमी न थी. युवक सौंरसी रात्रि में छिताई के साथ रमण करता और दिन में ऊबने लगता तो आखेट के लिए निकल जाता.

राजा रामदेव दामाद को अनजाने क्षेत्र में अकेले जाने से रोकते थे. मगर नवयौवन के अल्हड़पन में सौंरसी परवाह नहीं करता था. एक दिन मृग के पीछे घोड़ा दौड़ाता वह जंगल में घुस गया. मृग आश्रय पा कर एक आश्रम में घुस गया. आश्रमवासी बाहर निकल आए और दयावश राजकुमार से मृग को छोड़ देने का अनुरोध किया. राजकुमार जोश में था. उस ने हिरण को नहीं छोड़ा. तब उस आश्रमवासी ने कुपित हो कर कहा, ‘‘जैसे तुम ने मृगी को दुखी किया है, उसी प्रकार तुम जिस स्त्री के मोह में पड़े हो, वह दूसरे पुरुष के वश में पड़ेगी और तुम दुख भोगोगे.’’

सुन कर सौंरसी अवाक रह गया. उस के प्रार्थना करने पर आश्रमवासी बोले, ‘‘तुम पश्चाताप करोगे तो तुम्हारा दुख दूर होगा.’’

सौंरसी लौट तो आया मगर उस का मन शंकित रहने लगा. उस ने आखेट पर जाना एकदम बंद कर दिया. इस से छिताई और राजा प्रसन्न रहने लगे. राजकुमार को बचपन से संगीत से लगाव था. अब दिन में वह अपनी वीणा ले कर बैठ जाता और छिताई जहां भी होती, वीणा का स्पंदन सुनते ही हिरणी की तरह खिंच आती. सौंरसी ने अपनी प्रणयिनी छिताई को वीणा सिखाना शुरू किया. धीरेधीरे संगीत ने उन की संगति में ऐसा माधुर्य घोल दिया कि लययुक्त स्वरलहरियां उन के एकांत की निर्विघ्न साधना बन गईं. सुख के ये सरकते दिन आनंद के नित नूतन सोपान बनते चले गए.

उधर चित्रकार जब काम पूरा कर के दिल्ली पहुंचा तो उस ने राजा रामदेव के व्यवहार की प्रशंसा करते हुए राजा के उपहार बादशाह अलाउद्दीन को दिए. अलाउद्दीन ने अपने मित्र की प्रशंसा की. एक दिन अवसर पा कर चित्रकार ने एकांत में संजो कर बनाए और रखे गए राजकुमारी छिताई के चित्र को सम्राट अलाउद्दीन को दिखाया.

बादशाह एकटक उसे निहारते हुए कल्पना के नवीन संसार में विलुप्त हो गया. उस ने तय कर लिया कि ऐसी सुकुमारी सुंदरी कन्या का भोग अवश्य करना चाहिए. वह यह तय नहीं कर पा रहा था कि आक्रमण किस बहाने किया जाए क्योंकि अपनी खुशी से तो अपनी ब्याहता कन्या अथवा पत्नी न राजा रामदेव दे पाते और न सौंरसी. जब उसे पता चला कि सौंरसी और छिताई देवगिरि में हैं तो उसे लगा कि देवगिरि पर इस समय आक्रमण से जहां छिताई मिलेगी, वहीं फिर से दौलत हासिल होगी.

मैं भारतीय हूं- भाग 3

उस के कालेज में ऐसा कुछ ग़लत हो रहा है, उन के कालेज का कोई भी बच्चा ड्रग्स या किसी अन्य गलत गतिविधियों में लिप्त है. इतना ही नहीं, मैनेजमैंट ने साफतौर पर आहान का रूम बदलने से भी इनकार कर दिया. मैनेजमैंट के आगे आहान और उस के अभिभावक को घुटने टेकने पड़े और वे आहान को वहीं कालेज में भारीमन से डरते हुए छोड़ कर चले ग‌ए.

आहान सही होते हुए भी तथा उन सभी लड़कों की गलतियां सिद्ध करने के बावजूद खुद को सही साबित नहीं कर पाया और उसे रोहन व शशांक संग उसी कमरे में मजूबरन रहना पड़ा. आहान के मातापिता को अभी कालेज कैंपस छोड़े चंद घंटे ही हुए थे कि रोहन, शशांक, मोहित, ऋषभ और कुछ लड़के आहान के रूम में आ धमके और पढ़ाई कर रहे आहान से शशांक बोला-

“क्यों बे पाकिस्तानी, तुझे हमारे साथ नहीं रहना है, तू हमारी कंप्लेन मैनेजमैंट से करने गया था कि हम तुझे परेशान करते हैं, हम ड्रग्स लेते हैं.” तभी रोहन बोला-

“साले, तुम सभी आतंकवादी, देशद्रोही हमारे ही देश में रह कर हमें आंख दिखाते हो”

आहान को समझ ही नहीं आ रहा था कि अचानक ये सभी पाकिस्तानी, आंतकवादी और देशद्रोही जैसे शब्दों का इस्तेमाल उस के लिए क्यों कर रहे हैं. उस दिन के बाद आहान को इस तरह से ही पुकारे जाने का सिलसिला शुरू हो गया जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था बल्कि बढ़ते ही जा रहा था. ये सभी लड़के आहान को मानसिक रूप से परेशान करने लगे. उसे पढ़ने भी नहीं देते. हमेशा उस के आसपास ही मंडराते रहते और जब भी आहान पढ़ने बैठता, उसे परेशान करने की मंशा से कभी लाइट बंद कर देते तो कभी बेवजह शोर मचाने लगते, कभी म्यूजिक चलाने लगते.

आहान मानसिक तौर पर डरने और परेशान रहने लगा. वह डरासहमा सारा दिन अपने कमरे में ही बैठा रहता, किसी से कुछ न कहता. आहान इस डर से कमरे से बाहर भी नहीं निकलता कि कहीं कोई उसे देशद्रोही, पाकिस्तानी या आंतकवादी कह कर न पुकार दे. रोहन, शशांक, मोहित, ऋषभ और उस के सारे बदमाश दोस्त आहान के धर्म को निशाना बना कर उसे भलाबुरा कहने लगे थे. उस के कौम को धोखेबाज और देशद्रोही भी कहते. पूरे कालेज में यह बात फैला दी गई कि आहान टुकड़ेटुकड़े गैंग का सदस्य है और वह उन के साथ इसलिए नहीं रहना चाहता क्योंकि वे उस के धर्म के नहीं हैं, आहान अपने धर्म के लड़कों के संग रहना चाहता है.

रोहन, शशांक, मोहित और ऋषभ ने अपने दोस्तों संग मिल कर खुद को बचाने और निर्दोष सिद्ध करने के लिए पूरे घटनाक्रम को इस तरह से एक सांप्रदायिक रंग दे दिया कि सभी आहान को ही दोषी ठहराने लगे.

आज पूरे देश में जाति, संप्रदाय और धर्म के नाम पर जो जहर कुछ राजनीतिक दलों द्वारा घोला जा रहा है, यहां इस कालेज में उसी की एक झलक दिखाई दे रही थी. बिना सोचेसमझे कालेज के सभी विद्यार्थियों ने आहान को केवल उस के धर्म के आधार पर ग़लत समझ लिया और मैनेजमैंट सारी सचाई जानते हुए भी चुप्पी साधे सारा तमाशा देख रहा था. एक बंदा और था जो सारी सचाई जानता था और वह था अरविंद, जो आहान की मदद भी करना चाहता था लेकिन वह भी मजबूर था क्योंकि न तो वह किसी रसूखदार का बेटा था और न ही किसी उच्च कुल से ताल्लुक रखता था.

दिनप्रतिदिन आहान का मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा था. वह इतना डरासहमा हुआ था कि वह अपने मातापिता से भी फोन पर अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार की खबर देने से घबरा रहा था. आहान की स्थिति देख अरविंद अंदर ही अंदर दुखी व विचलित होने लगा लेकिन वह यह भी जानता था यदि उस ने किसी के विरुद्ध मुंह खोला या किसी से भी कुछ सचाई बताने की कोशिश भी की तो ये सारे लड़के उसे भी नहीं बख्शेंगे. इसी बीच, एक दिन आहान से मिलने और उसे संबल देने की चाह से जब अरविंद उस के रूम में पहुंचा तो उस ने देखा, आहान उस से बड़ी अजीब तरह से व्यवहार कर रहा है, बारबार आहान, बस, यही दोहरा रहा है-

“नहीं, मैं देशद्रोही नहीं हूं, मैं किसी टुकड़ेटुकड़े गैंग का सदस्य नहीं हूं, मैं पाकिस्तानी नहीं, मैं भारतीय हूं.”

आहान की हालत देख अरविंद ने यह तय किया कि वह कैसे भी कर के आहान के परिवार को उस की बिगड़ती मानसिक स्थिति की खबर दे कर ही रहेगा. उसी दिन अरविंद ने आहान के पिता को फोन पर सारी बातें विस्तार से कह दीं. आहान की नाज़ुक स्थित की जानकारी मिलते ही दूसरे दिन आहान के पिता होस्टल आ पहुंचे. पिता को सामने देख आहान उन से लिपट गया और कहने लगा-

“पापा, मुझे यहां से ले चलिए, मैं यहां नहीं रहना चाहता. आप सब से कह दीजिए कि मैं इंडियन हूं और मैं अपने वतन से प्यार करता हूं.”

आहान की हालत देख उस के पिता की आंखें नम हो गईं. अपने बेटे को कालेज भेजते वक्त उन्होंने क‌ई सुनहरे ख्वाब अपनी पलकों पर सजा रखे थे लेकिन आज अपने बेटे की यह दशा देखने के बाद उन की सारी उम्मीदें ताश के पत्तों के ढेर की तरह गिर कर बिखर गईं. आहान के पिता के लिए यह वक्त कालेज मैनेजमैंट से सवालजवाब या आहान पर धर्म के नाम पर निशाना साधते उन लड़कों के खिलाफ आवाज़ उठाने का नहीं था. इस वक्त उन के लिए ज्यादा जरूरी आहान को वापस सही स्थिति में लाना था, इसलिए वे भारीमन से आहान को घर ले आए.

साइकोलौजिस्ट के चैंबर के बाहर बैठे आहान के पिता आज 6 महीने बाद भी आहान को सामान्य स्थिति में लाने की जद्दोजहेद में लगे हुए थे. आहान आज भी किसी को अपना नाम बताने से डरता था क्योंकि उसे लगता था कहीं कोई उसे पाकिस्तानी, देशद्रोही या आतंकवादी न समझ बैठे.

आहान की इस स्थिति का जिम्मेदार केवल कालेज मैनेजमैंट ही नहीं है और न ही वे मुठ्ठीभर बदमाश लड़के हैं. इस का जिम्मेदार हमारा वह समाज है, हमारे वे राजनीतिक दल हैं जिन्होंने भाषा, जाति, ऊंचनीच और धर्म के नाम पर पूरे देश को बांट रखा है. जिस की आड़ में चंद स्वार्थी लोग अपना स्वहित साध रहे हैं और लोगों को भ्रमित कर रहे हैं.

रहिमन धागा प्रेम का- भाग 3

मातापिता के सामने वसु के दुविधापूर्ण व्यवहार को भारतीय पुरुषों का डबल स्टैंडर्ड समझ कर झरना के मातापिता ने उसे उस से दूरी बरतने की सलाह दी थी. वे उस पर किसी भी प्रकार की जोरजबरदस्ती करने से बचते थे क्योंकि अंत में उन को अपनी बेटी का जीवन प्यारा था.

इतने सालों के बाद आज इन सब बातों को मन ही मन सोचते हुए कुछ चिंतित और लज्जित होते हुए वसु ने झरना से कहा, “मैं तुम्हारा दोषी हूं झरना. मैं ही कारण हूं तुम्हारे एकाकी जीवन का,” यह सुन कर झरना ने बिना विचलित हुए सधे स्वरों में उत्तर  दिया, “2 बाते हैं बसु- पहला, तुम्हारे कठोर निर्णय से मैं हिल जरूर गई थी पर तुम्हारे साथ संबंध को मैं ने कभी रिग्रेट नहीं किया. तुम्हारे साथ बिताए क्षण मेरे लिए मधुर स्मृतियां बन गए क्योंकि उन पलों को मैं ने तुम्हारे साथ भरपूर जिया था और उस में हम दोनों की स्वीकृति और समर्पण था, दूसरा, तुम ने हमारे विवाह के लिए कोशिश तो की पर तुम मेरे लिए उतनी दृढ़ता से अपने मातापिता के सामने खड़े न हो सके जिस के लिए मैं इस निष्ठुर पितृसत्तात्मक और धनलोलुप समाज को ज्यादा दोषी मानती हूं, जो आज भी तुम्हारे जैसे पुरुषों को जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं और जहां तक मेरे एकाकी जीवन का सवाल है तो मैं अपनी इच्छा से अकेली रह रही हूं।

“मेरा काम, मेरे स्टूडैंट्स, मेरा परिवार मुझे हौसला देते हैं। कम से कम मैं जो कर रही हूं उसे अपनी पूरी क्षमता से और संतोषपूर्ण ढंग से कर रही हूं. वसु, शायद मैं आज भी तुम से उतना ही प्रेम करती हूं जितना पहले करती थी पर अब उस प्रेम की स्वीकृति के लिए बारबार मैं खुद को न्यौछावर नहीं कर सकती. शुरुआती दिनों में मैं ने कभी तुम को कोसा, कभी खुद को और फिर मन आत्मग्लानि से भर गया तो मैं ने प्रण लिया कि मुझे अपनी उड़ान खुद ही भरनी है जिस के लिए मुझे किसी से पंख उधार लेने की जरूरत नहीं।”

वसु को झरना की बात में तंज का आभास हुआ और वह बोल उठा, “ठीक ही कह रही हो, मैं एक असफल व्यक्ति ही रहा, न तो मैं व्यक्तिगत जीवन में अपनी जिम्मेदारियां ठीक से निभा पाया और न ही व्यावसायिक जीवन में कुछ खास अर्जित कर पाया. इस पूरे घटनाक्रम की परिणति यह रही कि मेरे मातापिता मेरी जिंदगी का सब से महत्त्वपूर्ण निर्णय ले कर मुझ से दूर हो गए. किसी समय उन्हें बेटे की खुशियों से ज्यादा उस की उपलब्धियां और उन से मिलता स्टैटस प्यारा था.

“मेरी परेशानियां देख कर उन्होंने मुझे इग्नोर करना शुरू कर दिया. एक समय के बाद तुम ने भी मुझ से दोस्ती छोड़ दी और मैं एक बेमेल शादी में झुंझलाता रहा, अंदर ही अंदर घुटता रहा. पर एक पुरुष होने के नाते मुझे कमजोर दिखने का अधिकार नहीं था.”

सहसा पुणे से दिल्ली की फ्लाइट का अनाउंसमैंट सुन कर दोनों जैसे किसी गहरी निद्रा से जागे और उठ कर लाइन में लग गए और फ्लाइट बोर्ड करी. एक ही प्लेन में सफर करते हुए भी दूरदूर बैठे वे दोनों कितनी ही बातें सोचते रहे. एक तरफ वसु पश्चाताप और ग्लानि की आग में जल रहा था, तो दूसरी तरफ झरना का मन एक बार फिर से पुरानी बातों में पड़ने से उपजी अनचाही कटुता से खिन्न हो आया था. वह सोचने लगी कि क्यों  आती हैं जीवन में ऐसी चुनौतियां? पहले एक असफल प्रेम और फिर उस की हृदय विदारक यादें। कभी अकेलेपन में अपने जीवन के मधुरतम क्षणों को याद कर के जब उसे सुख की अनुभूति होती थी तो वसु से विलगाव उस के हृदय को बेध जाता था. पर विवश थी वह अपने ही स्वभाववश. कभी उस ने किसी अन्य पुरुष को इस योग्य ही न समझा कि उसे अपने प्रेम का अधिकारी बना सकती और दूसरी तरफ वसु से मन इतना फट चुका था कि उसे याद भी न करना पड़े यही कोशिश करती थी पर आज का दिन तो प्रलय से कम नहीं था।

दिल्ली पहुंच कर बैगेज काउंटर से बैग ले कर वे दोनों साथ ही शहर की ओर रवाना हुए. वसु ने अपना नंबर झरना को दिया और उस का अपने मोबाइल में सेव कर किया. फिर तो गाहेबगाहे झरना को उस के फोन आने लगे. कभी चाय पर निमंत्रण, कभी डिनर का निमंत्रण, कभी प्ले देखने के लिए निवेदन इत्यादि कई तरीकों से वसु झरना के हृदय पर चढ़ी कठोरता की परत को पिघलाने की कोशिश करता रहा पर उसे कहीं कोई सफलता न मिली. झरना हर बार विनम्रता से कोई न कोई बहाना बना देती.

एक दिन तो वसु ने हद ही कर दी. वह उस के औफिस में अचानक बुके ले कर पहुंच गया. बिना किसी औपचारिकता के खुद को उस का मित्र बता कर वह उस के सहकर्मियों से भी घुलनेमिलने की कोशिश करने लगा पर झरना अब दोबारा दुख का कड़वा घूंट नहीं पीना चाहती थी, तभी तो उस ने अपनी दिल्ली हाट की मुलाकात में वसु को यह स्पष्ट कर दिया कि एक बार जो क्षति हो गई उस की पूर्ति संभव नहीं थी इसलिए उस दिशा में कोशिश भी नहीं हो.

“वसु, तुम यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते कि मैं अपने जीवन में सुखी हूं. मुझे जीवन में बहुत कम लोगों और चीजों की आवश्यकता है. आज मुझे किसी भी बात से डर नहीं लगता पर अपना आत्मविश्वास और स्वाभिमान खोना मेरे लिए सब से बड़ा दुख का विषय होगा और ताउम्र मैं इस डर में नहीं जीना चाहती हूं कि तुम ने मुझे एक सुविधा के तौर पर या फिर किसी समझौते या सहानुभूतिवश स्वीकार किया है.”

वसु ने अनेक बार से उसे यह विश्वास दिलाना चाहा कि वह भी अपने जीवन में फिर कभी वह सुख नहीं अनुभव कर पाया जो कभी उन दोनों के बीच रहा था. महादेवी की पंक्तियों से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए कार्ड पर, “जो तुम आ जाते एक बार, आंखें देती सर्वस्व वार…” और फूलों के गुलदस्ते के साथ उस ने उसे मनाना चाहा पर झरना अपने अकेलेपन में और अपने परिवार के साथ जीवन में खुश थी और उस ने वसु को एक जानपहचान से ज्यादा तवज्जो न देने का मन बना लिया था.

झरना का दिल अब ताल के जल सा थम सा गया था. न तो उस में गुस्से और प्रतिरोध की कोई हिलोरें आती थीं और न ही इच्छाएं और आकांक्षाएं करवट लेती थीं. सब से ज्यादा दुख की बात यह थी कि उस की देह से ज्यादा उस के विश्वास का अतिक्रमण हुआ था और वह इस बात के साथ कोई नई शुरुआत नहीं करना चाहती थी.

जीवन के कितने ही वसंत उस ने अपने प्रेम को समझने में लगा दिए. उसे अब किसी से भी उस प्रीत की कामना भी न रही जो कभी वसु ने उस पर बरसाई थी। सच ही तो है, “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे पे फिर न जुङे, जुङे गांठ परि जाए…”

सहारा- भाग 3 : रुद्रदत्त को अपने बेटों से क्यों थी नफरत ?

आज सालों बाद किसी स्त्री का यह स्पर्श उन्हें अंदर से गुदगुदा रहा था. उन की नसों में खून का संचार तेज होने लगा था. उन के भीतर का पुरुष जाग रहा था. उन्होंने गिरिजा को अपनी ओर करते हुए उस का घुंघट उठा दिया और बोले, “तुम ठीक कहती हो गिरिजा, हमें भी अपने लिए जीना चाहिए, जब किसी को हमारी परवाह नहीं, जब समय पर कोई हमारा सहारा नहीं बनना चाहता तो क्यों न हम अपना सहारा खुद ही खोज लें और अपने सहारे का सच्चा सहारा बनें,” कहते हुए रुद्रदत्त ने गिरिजा का माथा चूम लिया.

गिरिजा भी अब उनकी बाहों में सिमट गई थी. रुद्रदत्त जी के होंठ गिरिजा के माथे से आंखों पर फिसलते हुए उस के होंठों पर पहुंच गए थे और उन के हाथ उस के गले से फिसल कर उस की पर्वत चोटियों की बर्फ हटाने लगे थे.

उन के हाथों का गरम स्पर्श पा कर गिरिजा पिघल उठी और रुद्रदत्त उस की पर्वत चोटियों का अमृतरस पीने लगे. गिरिजा को यह सब बहुत अच्छा लग रहा था और वह चाहती थी कि रुद्र उस में समा जाएं और यह रात कभी खत्म ही न हो. वह रुद्रदत्त से लिपटी जा रही थी और उन्होंने उसे किसी लता की भांति मजबूत वृक्ष बन कर सहारा दे रखा था.

उन के चुंबन की गति और दबाब दोनों बढ़ चुके थे. उन के बीच के सारे परदे हट चुके थे. रुद्रदत्त के हाथ अब बिना रुकावट गिरिजा के संगमरमरी जिस्म पर फिसल रहे थे. इन दोनों की ही सांसें बहक चुकी थीं। तूफान अपने चरम पर था। तभी रुद्रदत्त गिरिजा से लिपट कर वह पा गए जिसे पाने के लिए यह सारा तूफान उठाया जा रहा था. वे उस के अंदर समाते चले गए जिसे गिरिजा ने भी पूरे मन से स्वीकार किया और जब यह तूफान थमा तो दोनों के चेहरे संतुष्टि से चमक रहे थे. थोड़ी देर ऐसे ही पड़े रह कर सासें ठीक करने के बाद दोनों को होश आया कि कुछ देर पहले उन के बीच से क्या तूफान गुजरा है, जिस ने एक ज्वालामुखी को पिघला दिया था.

गिरिजा के यौवन पर सालों से जमी बर्फ पिघल चुकी थी. रुद्रदत्त भी काफी सालों बाद अपने पुरुष होने पर गर्व कर रहे थे. इस उम्र में भी उन की शक्ति क्षीण नहीं हुई थी. गिरिजा उन से पूरी तरह खुश थी.

“क्या हम विवाह कर लें गिरिजा?” गिरिजा के बालों में उंगलियां घुमाते हुए रुद्रदत्त ने धीरे से पूछा.

“नहीं, उस की कोई जरूरत नहीं है,” गिरिजा ने उन के सीने पर से अपना सिर उठाते हुए कहा.

“लेकिन क्यों? अब जब हमारे बीच यह संबंध बन ही गया है तो तुम्हें नहीं लगता हमें इस के लिए सामाजिक मान्यताओं को मानते हुए हमारे रिश्ते की औपचारिक घोषणा कर देनी चाहिए?” रुद्रदत्त ने प्रश्न किया.

“नहीं, मुझे नहीं लगता. हमें एकदूसरे का सहारा चाहिए सो हमें मिल गया, इस के लिए हमें हमारे रिश्ते को कोई नाम देने की कोई जरूरत नहीं है और फिर जब हमें भावनात्मक स्पोर्ट चाहिए था तब तो यही जमाना हमारा मजाक उड़ा रहा था न, तो अब हम इस की परवाह क्यों करें…

“ऐसे भी आप विवाह कर के, परिवार बना कर देख चुके हो, कौन है आज आप के पास? मैं ने भी प्रयास किया था लेकिन मेरा प्रेमी विवाह के मंडप तक भी नहीं आया था. तब जब मुझे लोगों से मोरल सपोर्ट की आशा थी, लोग उलटे मेरा ही मजाक उड़ा रहे थे कि शायद उसे मेरी किसी बात का पता चल गया होगा इसलिए वह मुझ से विवाह करने नहीं आया. जिस लड़के के लिए मैं दुनिया से लड़ी, अपने पेरैंट्स को छोड़ दिया, वह उस समय भाग गया जब मुझे सहारा चाहिए था. उस ने मुझे धोखा दिया तो मुझे नफरत हो गई विवाह के नाम से ही,” गिरिजा ने गंभीर आवाज में कहा.

रुद्रदत्त अवाक उस का मुंह ताकते रहे और फिर उसे अपनी बांहों में कसते हुए बोले, “हम हमेशा एकदूसरे का सहारा रहेंगे गिरिजा.”

गिरिजा ने भी उन्हें कस लिया और दोनों सो गए. ये दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर बहुत खुश थे। दोनों के हृदय की धड़कनें मानो गा रही थीं, “तुम जो मिल गए हो…”

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