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होस्टल और पेइंग गैस्ट, कमाई बैस्ट

बढ़ती महंगाई और खर्चों में तालमेल बैठाने के लिए हर कोई कमाई के नए साधन और तरीके खोजने में लगा हुआ है. चाहे नौकरीपेशा आदमी हो या बिजनैसमैन, महंगाईर् ने सभी की कमर तोड़ दी है. अपने बजट को बैलेंस में रखने के लिए आप अपनी नौकरी या बिजनैस के साथ कुछ ऐसा कर सकते हैं जिस में न तो आप को ज्यादा मेहनत की जरूरत है और न ही ज्यादा लागत की. जरूरत है तो सिर्फजगह की. अगर आप का घर बड़ा है औैर परिवार छोटा तो आप घर में बची हुईर् जगह को आमदनी का जरिया बना सकते हैं. होस्टल, पेइंगगैस्ट यानी पीजी के बारे में तो आप ने सुना ही होगा. आजकल बड़े शहरों में घर बैठे कमाई के साधनों में घर पर ही किराए पर कमरों को देने का काम बहुत प्रचलित है. खासतौर पर दिल्ली और दूसरे बड़े शहरों जहां कोचिंग, कालेज या नौकरी के लिए बड़ी संख्या में दूसरे शहरों से लोग आते हैं वहां इस क्षेत्र में कमाई की बड़ी संभावनाएं हैं.

इस काम में न तो मैंटल प्रैशर है, न फिजिकल. दिल्ली के लक्ष्मीनगर स्थित गुरु कृपा गर्ल्स होस्टल के संचालक गुरु चरण सिंह कहते हैं, ‘‘घर में होस्टल खोलने में कौन सी बुराईर् है. अगर घर में एक कमरा भी खाली है तो उसे किराए पर चढ़ा देने से 2 फायदे हैं. एक, घर बैठे बिना किसी टैंशन के आप को आमदनी होती है और दूसरा, घर के खाली पड़े स्थान का इस्तेमाल होने लगता है.’’ पीजी या होस्टल खोलने का काम कामकाजी पुरुषों की अपेक्षा घरेलू महिलाएं ज्यादा अच्छे से कर सकती हैं. क्योंकि वे पूरे दिन घर में उपस्थित रहती हैं, इसलिए वे किराए पर दिए कमरों और कमरों में रहने वालों की निगरानी अच्छी तरह कर सकती हैं.

दिल्ली के निर्माण विहार स्थित एक पेइंगगैस्ट की मालकिन मधु डोगरा कहती हैं, ‘‘यह बहुत ही आसान काम है. हमारे घर के एक पूरे फ्लोर पर हम ने पीजी खोल रखा है. लड़कियों का पीजी है, इसलिए उन के हिसाब से सारी सुविधाएं भी उन्हें दे रखी हैं. मैं दिनभर घर पर रहती हूं, किसी भी लड़की की कोई भी समस्या होती है तो उसे जल्द ही निबटा देती हूं.’’

पीजी खोलने की प्रक्रिया

यह आसान काम है लेकिन एक प्रक्रिया के तहत किया जाए तो ही इस में सफलता मिलती है. यदि आप घर पर या अपनी किसी भी प्रौपर्टी पर पीजी या होस्टल खोलने की सोच रहे हैं तो सब से पहले आप को यह तय करना होगा कि आप लड़कियों के लिए सुविधा मुहैया करवा सकते हैं या फिर लड़कों के लिए. इस के बाद ही आप को यह सुनिश्चित करना होगा कि आप के पास कितने रूम हैं और आप के हर रूम में 1, 2 या 3, कितने लोग रह सकते हैं. फिर आप यह देखिए कि आप को प्रति व्यक्ति कितना किराया रखना है.

कितने व्यक्ति :

इस काम में कितने लोगों की जरूरत है, यह बात आप के पीजी या होस्टल में रह रहे लोगों की संख्या पर निर्भर करती है. यदि आप ने अपने घर में ही पीजी या होस्टल खोल रखा है तो एक सफाई कर्मचारी के अलावा ज्यादा किसी की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन आप ने एक बड़ा होस्टल खोलने का विचार किया है तो इस के लिए आप को कई लोगों की जरूरत पड़ती है. 1 सिक्योरिटी गार्ड, 1 रिसैप्शनिस्ट, 1 कुक, 2 सफाई कर्मचारी, 1 चपरासी और सभी चीजों की देखरेख व लोगों की समस्याओं को सुलझाने वाला केयरटेकर.

जरूरी सामान :

इस के लिए आप को कुछ जरूरी सामान भी खरीदना पड़ सकता है. कूलर, टेबल, चेयर, बैड और अलमारी जैसी बेसिक चीजें तो आप को पीजी या होस्टल में रहने वाले को उपलब्ध करानी ही होंगी. यदि पहले से ही आप के घर में एक्स्ट्रा सामान है तो आप उसी से कुछ सामान अपने पीजी या होस्टल में रहने वाले को दे सकते हैं.

कुक और गैस्ट में लड़ाई :

पेइंगगैस्ट में अगर आप ने गैस्ट को खाने की सुविधा दे रखी है तो एक परमानैंट कुक भी रखा होगा. कई बार गैस्ट और कुक के मध्य खाने में वैराइटी और मनपसंद खाना बनाने की बात को ले कर बहस हो जाती है. यह बहस कभीकभी झगड़े का भी रूप ले लेती है. ऐसी परिस्थिति में पेइंगगैस्ट के मालिक को झगड़ा सुलझाना पड़ता है. इस बाबत गुरु चरण सिंह कहते हैं, ‘‘बहुत ही असमंजस वाली परिस्थिति होती है. क्योंकि न तो आप गैस्ट के विरोध में बोल सकते हैं और न ही अपने कुक को निकाल सकते हैं. क्योंकि एक अच्छा कुक खोजना बेहद मुश्किल काम है. इसलिए ऐसी परिस्थिति में आप का दोनों के बीच तालमेल बैठाने के लिए कुक और गैस्ट दोनों को समझना भी पड़ेगा और समझाना भी.’’

जब एक दूसरे पर चोरी का इलजाम लगाएं :

कई बार एक ही कमरे में रहने वाले एक दूसरे पर चोरी का इलजाम लगा देते हैं. ऐसे में पीजी या होस्टल मालिक के लिए असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है. इसलिए उस में व्यक्ति को परखने का गुण होना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति एक सा नहीं होता है. खासतौर पर यदि आप ने पीजी के कमरों को शेयरिंग पर दे रखा हो. एक ही कमरे में रहने वाले 2 व्यक्तियों की आपस में पटे, यह जरूरी नहीं. कई बार मनमाफिक रूमपार्टनर न मिलने पर दोनों के बीच कई तरह के मनमुटाव हो सकते हैं, जैसे कि ऊंची और नीची जाति को ले कर छुआछूत की समस्या होना, एकदूसरे का बिना पूछे सामान इस्तेमाल करने पर झगड़े और सब से बड़ी समस्या एक गैस्ट द्वारा दूसरे गैस्ट के पैसे या सामान चुरा लेने पर हंगामा खड़ा करना. इन सब से बचने के लिए आप को सब से पहले यह तय कर लेना होगा कि आप को किस तरह के व्यक्ति को पीजी में रखना है, फिर आप को कमरे में बैड से ले कर अलमारी, यहां तक कि टेबलचेयर भी दोनों को अलगअलग देनी होगी. इन सब के बावजूद यदि किसी के पैसे या सामान चोरी हो तो आप को इस के लिए पहले से गैस्ट को ‘अपने सामान की सुरक्षा खुद करें’ जैसी चेतावनी देनी होगी ताकि सामान या पैसे खोने पर मालिक को जिम्मेदारी न लेनी पड़े.

गैस्ट लड़केलड़कियां लाएं तो :

कई बार गैस्ट अपने दोस्तों, गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड को अपने कमरे में ले आते हैं. कभीकभी उन के दोस्त उन के कमरे में ही रुक भी जाते हैं. दोस्तों के साथ मस्ती करते वक्त वे यह भूल जाते हैं कि आसपास दूसरे परिवार रहते हैं जिन्हें उन के शोरशराबे से परेशानी हो रही है. कईर् दोस्तों के आपसी झगड़ों की वजह से भी पूरे घर और उस के आसपास का माहौल खराब होता है. अगर आप लड़कों को पेइंगगैस्ट रख रहे हैं तो इस बात का विशेष ध्यान रखें कि वे खराब नीयत और नजर के न हों. वरना आसपास की तो छोडि़ए, आप के अपने घर की लड़कियों व महिलाओं का रहना दूभर हो जाएगा.

लड़कियों को रखने पर भी आप को कुछ बातों पर ध्यान देना होगा, जैसे कि वे देर रात तक घर के बाहर न रहती हों और न ही किसी लड़के को पीजी के अंदर बुलाती हों. दरअसल, कई बार लड़कियां घर से भाग कर आती हैं, ऐसी परिस्थिति में पीजी के मालिक को बेवजह के कानूनी पचड़ों में पड़ना पड़ता है और पैसे खर्च करने पड़ते हैं. इन सब से बचने के लिए पहले से ही जिसे पेइंगगैस्ट रख रहे हैं उसे अपने कमरे में किसी को भी न रोकने की हिदायत दे दें और किसी भी तरह के अभद्र व्यवहार पर तुरंत पीजी खाली करवाने का नियम भी बता दें. लड़की है तो उसे लड़कों को कमरे में न लाने को कहें और लड़कों को लड़की की एंट्री के लिए पहले से ही मना कर दें.

जांच के बहाने पुलिस आने लगे तो:

इस बात का विशेष ध्यान रखें कि किसी भी व्यक्ति को पेइंगगैस्ट रखने से पहले उस का पुलिस वैरिफिकेशन जरूर करवा लें. पुलिस वैरिफिकेशन अब अनिवार्य हो गया है. इस के लिए पुलिस स्टेशन से एक वैरिफिकेशन फौर्म लाना होता है जो निशुल्क मिलता है. इस फौर्म को अपने सभी पेंइगगैस्ट से भरवाना होता है और उसे अपने नजदीकी पुलिस स्टेशन में जमा करना होता है. पुलिस वाले  समयसमय पर पीजी और होस्टल के चक्कर काटते रहते हैं और गैस्टों का वैरिफिकेशन चैक करते रहते हैं. यदि पीजी में रहने वाले किसी भी व्यक्ति का वैरिफिकेशन नहीं हुआ होता है तो इस के लिए पीजी के मालिक को जेल और जुर्माना भरना पड़ सकता है.

कई बार पुलिस वैरिफिकेशन होने के बावजूद पीजी और होस्टल के चक्कर काटती है. दरअसल, ऐसा तब होता है जब पुलिस को आप के पीजी या उस के आसपास का माहौल संदिग्ध नजर आता है. खासतौर पर जहां लड़के और लड़कियां दोनों साथ में रहते हैं वहां अकसर ही पुलिस चक्कर काटती रहती है. ऐसा करने के पीछे उन का मकसद पीजी के मालिक पर अनापशनाप आरोप लगा कर उन से पैसे ऐंठना होता है.

जब लड़केलड़कियां बाहर खड़े हो कर बात करें :

अधिकतर दूसरे शहरों से आए छात्रछात्राएं ही पीजी में रहते हैं. इन लोगों का एक बड़ा फ्रैंड सर्किल भी होता है. अपने फ्रैंड्स को कभी ये अपने कमरे ले आते हैं तो कभी पीजी के बाहर ही खड़े हो कर बतियाने लगते हैं. खासतौर पर गर्लफ्रैंडबौयफ्रैंड हों तो उन की बातें घंटों चलती रहती हैं. पीजी में रहने वाले अन्य लोगों या आसपास के लोगों को यह बात बुरी लग सकती है और वे इस पर आपत्ति भी कर सकते हैं.

ऐसा न हो, इस के लिए पीजी के अंदर ही एक ऐसा जोन बना दीजिए जहां आप के गैस्ट अपने दोस्त को बुला कर उन से बातचीत कर सकें. ऐसी जगहों पर कैमरा जरूर लगाएं ताकि गैस्ट और उस के दोस्त आप की नजर में रहें और कैमरे के डर से उन्हें कुछ भी गलत करने का मौका न मिले.

खाने में फीकापन हो :

बहुत कम पीजी या होस्टल होते हैं जो अच्छा और घर जैसा खाना अपने गैस्ट को परोसते हैं.  सभी पीजी में गैस्ट को खाने में फीकेपन की शिकायत होती है. ऐसे में पीजी या होस्टल चलाने वालों का यह दायित्व है कि वे गैस्ट की शिकायत को दूर करें.

मौल में लुटते हैं मंदिरों जैसे

जो लोग यह तय कर मंदिर में जाते हैं कि आज 2 रुपए ही चढ़ाएंगे, वे अंदर जा कर चकरा जाते हैं. दिल के अंदर से आस्था हिलोरें मारने लगती है और बाहर से परेशानियां उकसाने लगती हैं. मंदिर में दस तरह के देवीदेवताओं की मूर्तियां रखी हुई हों तो भक्त चढ़ावे में भेदभाव कर किसी को नाराज करने की जुर्रत नहीं कर सकता और न ही इन देवीदेवताओं का प्रकोप अफोर्ड कर सकता. लिहाजा, वह सब को 2-2 रुपए चढ़ाता है और घर आ कर अपनेआप पर खीझता फिर तय करता है कि अब सप्ताह में एकाधदो दिन ही पैसे चढ़ाऊंगा.

यही थ्योरी या मानसिकता मौल की शौपिंग पर दूसरे ढंग से लागू होती है. ग्राहक जाता तो यह कसम खा कर है कि कुछ भी हो जाए, आज सिर्फ काम के आयटम ही खरीदूंगा लेकिन दस कदम चलते ही उस की बुद्धि को ग्रहण लग जाता है और वह एक सम्मोहन की गिरफ्त में आते कई गैरजरूरी चीजों पर पैसा बरबाद कर आता है.

इस सम्मोहन का हाल तो यह है कि जिस युवती की एंगेजमैंट हो चुकी होती है वह भी नवजातों के डायपर खरीद लेती है क्योंकि 2 पैकेट खरीदने पर एक मुफ्त में मिल रहा होता है. इतना आशावान होना हर्ज की बात नहीं लेकिन इतना नादान होना बुद्धिमानी की बात कहीं से नहीं कि जब शादी होगी तो बच्चे भी होंगे तो क्यों न फ्री के डायपर अभी से ले लिए जाएं.

फ्लोरिडा और केरोलिना यूनिवर्सिटीज की एक ताजी व दिलचस्प रिसर्च में यह गड़बड़झाला बताया गया है कि ग्राहक कैसे मौल में लुटता है. रिसर्च के मुताबिक, मौल में सामान कुछ इस तरह रखा जाता है कि जरूरी आयटम तक पहुंचतेपहुंचते ग्राहक दोचार गैरजरूरी आयटम भी ले ही लेता है. ये आयटम मौसम के हिसाब से भी सजाए जाते हैं, मसलन गरमी के दिनों में आकर्षक बौट्ल्स, शरबत-कुल्फी के सांचे, आइसक्रीम पाउडर और ठंडक देने वाले टेलकम वगैरह. अब वह सचमुच का इंद्रजीत होगा या होगी जो इन्हें गैरजरूरी मानते न खरीदे.

अगर आप शौपिंग मौल की डिजायन पर गौर फरमाएं तो पाएंगे कि किसी भी मौल में खिड़कियां न के बराबर होती हैं जिस से कि आप का ध्यान बाहर न जाए, अर्जुन की चिड़िया की आंख की तरह शौपिंग पर ही रहे.

मौल वाले मनोविज्ञान के इस नियम को भी जम कर भुनाते हैं कि आदमी का ध्यान दाईं तरफ ज्यादा रहता और जाता है, लिहाजा, औफर्स वाली चीजें इसी दिशा में ज्यादा रखी जाती हैं. दाहिने हाथ से सामान उठाने में भी सहूलियत रहती है.

20 कदम बाद ही मुफ्त के या डिस्काउंट वाले आयटमों का भंडार देखते ही आप अपनी कसम भूल जाते हैं और जैसे मौल वाले चाहते हैं वैसे ही खरीदारी शुरू कर देते हैं. इस की तुलना मंदिर के आस्था वाले क्षणों से की जा सकती है. इसलिए अब जब भी मौल में जाएं तब दाहिनी तरफ कम देखें और मुफ्त के या औफर वाले आयटम्स के झांसे में तो बिलकुल न आएं क्योंकि कहीं भी कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता.

बोलने की आज़ादी !

वैचारिक स्वतंत्रता को मारने के लिए सैंसरशिप से ज्यादा कारगर पुलिस ऐक्शन होता है और आजकल जो भी लोकतंत्र, औरतों के हकों, अभिव्यक्ति की रक्षा की बात करता है, देश का मौजूदा प्रशासनिक सिस्टम उसे अर्बन नक्सल, देशद्रोही, नक्सली, विदेशी इशारों पर चलने वाला कहने लगता है.

यह कोई नर्ई बात नहीं है. पर धर्म में सब से ज्यादा डर विधर्मी से नहीं अपने धर्म के लोगों के आलोचकों से होता है. ईश निंदा को सदियों तक जघन्य अपराध माना जाता रहा है और कोई भी शख्स किन्हीं चर्च, पादरियों, मदिरों, महंतों, पंडों, मसजिदों, मुल्लाओं के बारे में कुछ भी कहता, उसे मारने की, मुंह बंद करने की धमकियां दी जाने लगतीं.

इस का कारण समझना कठिन नहीं है. धर्म एक बहुत बड़े झूठ के सहारे मकड़ी के जालों के समान बुना एक महल है जो लगता है कि मजबूत है पर अंदर से है खोखला. कोई भी आंधी उस की सारी मान्यताओं को नष्ट कर सकती है. पर आश्चर्य की बात है कि आज 5,000 साल बाद, विज्ञान, तर्क, तथ्य, अनुसंधान के युग में भी धर्म जीवित ही नहीं, इस का धंधा फलफूल भी रहा है.

इस का बड़ा कारण यह है कि मकड़ी के जालों से बुने महल ने बहुत से ऐसे परजीवियों को पालने लायक जगह दे रखी है जो कभी भी धर्म की सुरक्षा की खातिर सामने वाले का अस्तित्व नष्ट कर सकते हैं चाहे वह अपने धर्म का हो या दूसरे का. ‘अडरस्टैंडिंग फासिज्म इन प्रेजैंट इंडियन कौंटैक्स्ट’ शीर्षक से एक सैमिनार दिल्ली के हरिकृष्ण सिंह सुरजीत भवन में होना था. पुलिस ने 2 दिनों पहले उस की इजाजत कैंसिल कर दी.

हाईकोर्ट ने इजाजत तो दे दी पर कहा कि जो भी अटैंड करें उन के नाम व पते नोट किए जाएं और पुलिस के हवाले किया जाए.फासिज्म पर चर्चा किसी भी तरह से लोकतंत्र के खिलाफ नहीं हो सकती. रोक तो यहसिद्ध करती है कि नरेंद्र मोदी की सरकार फासिस्ट है और उस की पुलिस को डर है किइस चर्चा में लोग फासिस्ट सरकार की पोल न खोल दें. मुट्ठीभर लोगों के लायक बना यह मीटिंग हौल भरता भी या नहीं, पता नहीं क्योंकि आज के युग में अंधविश्वासों का बोलबाला इस कदर हो गया है कि तार्किक और अंधविश्वासी एक से हो गए हैं.

फासिज्म के बारे में बात करने वाले देश में मुट्ठीभर बचे हैं पर सरकार, पुलिस उन से डरती है, क्योंकि वे तो तथ्यों और तर्कों पर आधारित बातें करते हैं जबकि सरकार झूठी कहानियों, काल्पनिक इतिहास, पूरे न हो सकने वाले वादों, लच्छेदार वक्तव्यों, तथ्यहीन दावों पर टिकी है.

सरकार कितनी भयभीत है, इस का इस से पता चलता है कि एक छोटी सी जगह में होने वाले कार्यक्रम पर बीसियों पुलिसमेन लग जाएंगे जो हरेक के परिचयपत्र की जांच करेंगे, फोटो खींचेगे और बोलने वालों को संभावित अपराधियों में मान लेंगे. यानी, आज़ाद देश में बोलने की आज़ादी नहीं.

वैचारिक स्वतंत्रता का अंत का मतलब फिर से गुलामी. पहले मुगल शासन में भी शायद यही था और फिर बिटिश काल में. अब हम वापस जा रहे हैं, आगे नहीं. यह न भूलें कि जो गंभीर जंजीरें बन रही हैं, वे हर हाथ को जकड़ रही हैं, शासक दल के लोगों के भी. जंजीरों की आदत होती है कि कुछ देर बाद इस कदर उलझा जाती हैं कि उन्हें बांधने वाला भी उन में फंस जाता है और निकलने का रास्ता नहीं मिलता.

भारत भूमि युगे युगे प्यार, पैसा और…

जब पौराणिक काल में खीर, कान के मैल और पसीने तक से बच्चे पैदा हो जाते थे तो कलियुग  में पोस्टकार्ड से क्यों नहीं हो सकते, बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने गया में इस बात को घुमाफिरा कर यों कहा कि गरीब दंपती एकदूसरे से प्यार करते हैं और साथ रहते हैं, इसलिए उन के बच्चे ज्यादा होते हैं जबकि अमीर पतिपत्नी अलगअलग शहरों में रहते हैं, इसलिए उन के बच्चे पोस्टकार्ड से हो जाते हैं जो नाजायज होते हैं. ‘गरीब संपर्क यात्रा’ के दौरान गया में उन्होंने इस नई थ्योरी को लौंच किया तो सवर्ण महिलाओं ने उन पर चढ़ाई कर दी.

ओशो भी इस सिद्धांत पर माथा पीट लेते और कहते यह कि जमाना अब ईमेल और एसएमएस का है. भड़ास असल में आर्थिक है जिस का अपना शारीरिक पहलू भी होता है. ज्योंज्यों पौराणिकवादी हल्ला मचाते हैं त्योंत्यों जीतनराम जैसे अनुभवी नेता न्यूटन की गति के तीसरे नियम की तरह प्रतिक्रिया देते उन की कमजोरियां उधेड़ कर उन्हें और बौखला देते हैं.

 यूपी में पुलिस बा

उत्तर प्रदेश में विपक्ष का होना न होना बराबर ही है, इसलिए यह जिम्मेदारी अब जिन गिनेचुने कलाकारों को ढोना पड़ रहा है, लोकगायिका नेहा सिंह राठौर उन में से एक हैं जो ‘यूपी में का बा…’ गा कर योगी सरकार की मनमानियां और नाकामियां उजागर करती रहती हैं.

ऐसा ही उन्होंने कानपुर हादसे पर किया तो पुलिस एक अदद चिथड़ा, जिसे नोटिस कहा जाता है, ले कर उन के द्वार पहुंच गई. शुक्र तो इस बात का रहा कि पुलिस बिना बुलडोजर गई नहीं तो सारी बा बा मिमियाहट में तबदील हो जाती और कोई चूं तक न करता.

पुलिस के सहारे राज कर रहे योगी के खिलाफ बोलना भी संगीन जुर्म है फिर नेहा तो गा रही थी जिस का मनोबल तोड़ने के लिए चलताऊ टोटका अपना कर साबित कर दिया गया कि महाराज को आलोचना पसंद नहीं. जिन्हें इस बात में शक है उन्हें मुनव्वर राणा का हश्र याद कर लेना चाहिए जो मुद्दत से कुछ बोले ही नहीं.

 इंसाफ के सिपाही

यह किसी घिसीपिटी पुरानी हिंदी फिल्म का नहीं, बल्कि 75 वर्षीय दिग्गज वकील व भूतपूर्व कांग्रेसी और अब सपा नेता कपिल सिब्बल के गैरराजनीतिक मंच का नाम है जिस के जरिए वे विपक्षी एकता का दुर्लभ सपना देख रहे हैं. सिब्बल दिग्गज इसलिए हैं कि वे एक पेशी का 15 लाख रुपए लेते हैं और कोई 200 करोड़ की उन की नैट वर्थ है. वे चाहें तो पूरे ऐशोआराम से बाकी जिंदगी गुजार सकते हैं लेकिन इस मंच के जरिए वे एक और दुर्लभ सपना देख रहे हैं.

दूसरा सपना नरेंद्र मोदी के विरोध का नहीं, बल्कि उन के सुधार का है जो कभी पूरा होगा, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. फिर भी, बकौल गालिब, दिल को बहलाने खयाल अच्छा है. अब इस मुहिम के 2 ही नतीजे निकल सकते हैं. उन में से पहला और दूसरा यही है कि जल्द ही कानून के इस रखवाले के यहां भी ईडी जैसी किसी एजेंसी के चरण पड़ सकते हैं. तैयार रहें आप…

 फुस्स हुए विश्वास

जब कविताएं करने में खुद को असहाय और असमर्थ पाने लगे तो रोमैंटिक कवि कुमार विश्वास ने साहित्यिक वैराग्य का एक्सप्रैसवे चुनते रामकथा बांचना शुरू कर दिया. इस से उन्हें मोरारी बापू की तरह इतनी दौलत और शोहरत मिली कि वे अपनी हदें भूल गए. किसी मीनिया के तहत उन्होंने उज्जैन जैसी महा शिवनगरी में वामपंथियों को कुपढ़ और संघियों को अनपढ़ कह दिया. इधर वे तालियां बजने का इंतजार करते रहे और वहां भाजपाइयों ने विरोध में हाथ उठाना शुरू कर दिए तो उन्हें याद आया कि यह बंदर, भालुओं की नहीं, बल्कि भागवत सेना है. सो, झट एक वीडियो के जरिए उन्होंने क्षमा मांग ली.

बात हालांकि दमदार थी पर उस से भी दमदार साध्वी उमा भारती, जो कथावाचन में उन से सीनियर हैं, ने कहा, ‘कुमार, तुम्हारी बुद्धि विकृत है,’ तो कुमार साहब डर कर और डिप्रैस्ड हो कर ऐसे गायब हुए कि लगा कहीं सरयू किनारे न पहुंच गए हों. अब बहुत सा आत्मविश्वास इकट्ठा कर वे रामनवमी पर प्रगट हो सकते हैं.

 

फिल्म मिडिल क्लास लव को मिला एक स्टार

जो लोग खुद को मिडिल क्लास का मानते हैं उन के अंदर ही ललक होती है कि वे भी उच्चवर्ग के लोगों की तरह जीवन जिएं,अच्छा खाएंपिएं, गाड़ियों में घूमें, बगल में पैसे वाली खूबसूरत प्रेमिका हो.
खैर, सपने तो सपने होते हैं. सपने सब के सच नहीं होते, सिर्फ मेहनत कर जिंदगी में आगे बढ़ने वालों के ही सपने सच होते हैं. आज के युवा खुद को ‘मिडिल क्लोरोसिस’ जैसी खतरनाक बीमारी से ग्रसित मानते हैं. वे मिडिल क्लास की लाइफ से तंग आ जाते हैं. उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि उन की मिडिल क्लास फैमिली किनकिन परेशानियों से गुजर कर रही है.

यह फिल्म भी एक मिडिल क्लास युवक युधिष्ठिर उर्फ यूडी (प्रीत कमानी) की है जो कूल बनने के चक्कर में अपने दोस्तों तक के दिल तोड़ देता है. वह शहर के सब से महंगे कालेज में एडमिशन लेना चाहता है, जहां वह कोई पैसे वाली छात्रा को पटा कर प्रेमिका बना सके. उस का पिता किशनचंद शर्मा (मनोज पाहवा) खुद का चश्मा ठीक कराने में 200 रुपए तक खर्च नहीं करता. मां टिफिनों में खाना बनाबना कर लोगों को सर्व करती है. बड़ा भाई मां के खाना बनाने में मदद करता है. फिर भी उस का पिता डेढ़ लाख रुपए खर्च कर उस का बढ़िया कालेज में एडमिशन कराता है.

कहते हैं न, हर आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है और हर मिडिल क्लास आदमी के पीछे उस का बेटा होता है जिसे वह रोज कंजूसी वाले टिप्स देता है. निर्देशिका रत्ना सिन्हा की यह फिल्म मिडिल क्लास की तमाम परतों और विडंबनाओं को दर्शाती है जिन से मिडिल क्लास के लोग गुजरते हैं.युधिष्ठिर जुगाड़ लगा कर किसी तरह मसूरी के महशूर कालेज तो पहुंच जाता है. कालेज में उस की मुलाकात कालेज की मशहूर लड़की सायशा ओबेराय (काव्या कापूर) से होती है, जिस से डेटकर वह वीआईपी टिकट जीत सकता है. मगर सायशा उसे बौयफ्रैंड बनाने के लिए शर्त रखती है. उसे आशा त्रिपाठी (ईशा सिंह) जैसी लड़की को डेट करना होगा, जिस से साइशा बहुत नफरत करती है.

कहानी में प्रेम त्रिकोण बनता है. कई घुमावदार इंसिडैंट्स होते हैं. आखिरकार, यूडी को यह समझ आ जाता है कि अपनों का साथ कितना जरूरी होता है. क्लाइमैक्स में वह सब के सामने अपनी गलतियां स्वीकार करता है और अपने मम्मीपापा के प्यार को एक्सप्रैस करता है.

निर्देशिका रत्ना सिन्हा प्रसिद्ध निर्देशक अनुभव सिन्हा की पत्नी है. उस की पहली फिल्म ‘शादी में जरूर आना’ थी. फिल्म ‘मिडिल क्लास लव’ में उस ने मिडिल क्लास की परेशानियों को हलकेफुलके अंदाज में पेश किया है. मध्यांतर से पहले की फिल्म धीमी गति में चलती है, मध्यांतर के बाद रफ्तार पकड़ती है.
फिल्म का निर्देशन साधारण है. नए कलाकार प्रभाव नहीं छोड़ते. कहानी प्रिडक्टिबल है. फिल्म को ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’ का देसी वर्जन कह सकते हैं. फिल्म जिंदगी का आईना तो दिखाती है, मगर दिलों पर असर नहीं छोड़ पाती.

समीर आर्य और मनीष खुशलानी ने मसूरी की रमणीक लोकेशनों को फिल्माया है. हिमेश रेशमिया के संगीत में थोड़ाबहुत दम है. कुछ गाने अच्छे बन पड़े हैं.अभिनय की दृष्टि से नायक प्रीत कमानी ने आकर्षित किया है. मनोज पाहवा तो सदाबहार ऐक्टर है ही. दोनों नायिकाओं की ऐक्टिंग साधारण है. संवाद कहींकहीं अच्छे बन पड़े हैं. बीचबीच में बढ़िया कौमेडी भी की गई है.

GHKKPM: सई की जिंदगी तबाह करने आएगी ये हसीना, जानें आगे क्या होगा कहानी में

सीरियल गुम है किसी के प्यार में इन दिनों लगातार नए-नए ट्विस्ट आ रहे हैं,खास बात यह है कि हर्षद अरोड़ा की एंट्री के बाद से यह शो और भी ज्यादा खास बन चुका है, दर्शकों को इन लोगों की जोड़ी खूब पसंद आ रही है,

वहीं खबर है कि शो में जल्द तारक मेहता फेम प्रिया अहूजा की एंट्री होने वाली है, प्रिया अहूजा एक जाना पहचाना चेहरा है. जो कि डॉक्टर सत्या की बहन का किरदार अदा कर सकती हैं.

 

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इसके अलावा वह शो में बतौर लावणी डांसर के तौर पर भी नजर आएंगी, उसकी एंट्री से सत्या और साई की लव स्टोरी में नया एंग्ल मिलेगा. जहां एक तरफ विराट सई की तरफ बढ़ रहा है वहीं पत्रलेखा सई के घर से बाहर करने का वकील का सहारा लेती नजर आ रही है.

वहीं दूसरी तरफ सई और सत्या की नोक -झोंक दोस्ती में बदलने वाली है, वहीं विराट सई के सामने हाथ जोड़कर कहता है कि वह सबकुछ छोड़कर नई शुरुआत करना चाहता है.

YRKKH: अक्षरा की याद में घर परिवार से अलग होगा अभिमन्यु, जानें आगे क्या होगा?

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है दर्शकों के बीच में चर्चा में बना हुआ है, इस सीरियल में रोज एक नया ड्रामा देखने को मिल रहा है, जिसे अक्षरा या अभिमन्यु सुलझाते हुए नजर आ रहे हैं, फैंस एक बार फिर से अक्षरा और अभिमन्यु को एक साथ देखना चाहते हैं लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.

बीते एपिसोड में देखने को मिला था, कि अक्षरा अभिनव को जेल से निकलवा लेती है, वहीं अभिमन्यु शेफाली का साथ देते हुए मंजरी को एहसास दिलाता है कि मंजरी ने जो किया है अक्षरा के साथ वह काफी ज्यादा गलत किया है. वहीं अपकमिंग एपिसोड में आपको काफी ज्यादा बदलाव देखने को मिलेगा.

 

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अभिमन्यु पूरे घर में सबको बताता है कि पार्थ शेफाली के साथ मारपीट करता है,लेकिन शेफाली इस बात को लिए मना कर देती है कि ऐसा कुछ भी नहीं है, लेकिन शेफाली के चेहरे पर निशान साफ नजर आ रहा है कि शेफाली को पार्थ ने मारा है.

जिसके बाद काफी ज्यादा ड्रामा होता है और पार्थ को घर से निकाल दिया जाता है, सीरियल में आगे दिखाया जाएगा कि अभिनव और अक्षरा के बीच में सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा, अभिनव अक्षरा के नाम के आगे से जी हटा देगा.

यह सुनकर अक्षरा काफी ज्यादा खुश होगी, इसके बाद से अक्षरा को घर से बाहर कायरव दिखता है, जिसे देखते ही अक्षरा खुश हो जाएगी, कायरव सबसे मिलकर अबीर के लिए घर के अंदर मिलने जाता है, कायरव अंदर जाकर देखता है कि अक्षु अपनी जिंदगी में काफी ज्यादा खुश है, बहन को खुश देखकर वह भी काफी ज्यादा खुश हो जाता है.

भारत को औस्कर

सिनेमा जगत में प्रदान किए जाने वाले औस्कर पुरस्कार एक तरह के नोबेल पुरस्कार होते हैं. और इस साल 2 पुरस्कार भारत की फिल्म ‘आरआरआर’ के गाने ‘नाटूनाटू…’ और भारत की डौक्यूमैंट्री फिल्म ‘द एलिफैंट व्हिस्पर्स’ को मिलने से देश को बेहद खुशी हुई है. पहले ‘गांधी’ और ‘स्लमडौग मिलेनियर्स’ जैसी फिल्मों को औस्कर मिले पर वे विदेशियों द्वारा भारत में बनाई गई थीं. लेकिन ये दोनों पुरस्कार भारतीय कलाकारों की भारतीय तकनीक व कौशल के दिखाने वाले हैं जो बेहद खुशी की बात है.

‘नाटूनाटू…’ गाने की धुन, संगीत और उस के रिदम ने विश्वप्रसिद्ध गायिका रिहाना के गाने को पीछे छोड़ दिया. इसी तरह फिल्म ‘द एलिफैंट व्हिस्पर्स’ में सहज व सरल ढंग से हाथियों के बच्चों के साथ मानव का व्यवहार छू जाने वाला है.

भारतीय फिल्म जगत बहुत बड़ा है और अरबों की कमाई वाला है पर आमतौर पर आरोप लगता है कि यहां विदेशी फिल्मों को देख कर उन में देसी छौंके लगाए जाते हैं वरना हूबहू नक्ल होती हैं. इन आरोपों में दम है पर भारतीय फिल्म जगत अब दुनियाभर में पैर पसार रहा है और जैसेजैसे डबिंग तकनीक सुधर रही है, भारतीय फिल्मों का विदेशी बाजार बढ़ रहा है जहां उन्हें न केवल भूल भारतीयों द्वारा पसंद किया जा रहा है बल्कि विदेशियों द्वारा भी पसंद किया जा रहा है. चीन भारतीयों फिल्में का एक बड़ा बाजार बनता जा रहा है.

भारत चाहे गरीबों का बड़ा देश हो पर है बड़ा, यह इस फिल्म पुरस्कार का मिलना जताता है. औस्कर अब भारत में पहुंचने लगे हैं और हौलीवुड की इन पर मोनोपोली नहीं रह गई है. भारतीय कलाकार अब औस्कर पुरस्कारों में अक्सर नजर आने लगे हैं.

जरूरत यह है कि भारतीय फिल्में समाज को बदलने का काम करें. पिछले 5-7 सालों में कई प्रचारात्मक फिल्में बनी हैं जिन का उद्देश्य केवल सत्ता में जमीं पार्टी का गुणगान करना और भारत को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाना है. फिल्मों का मुख्य काम वह दिखाना होना चाहिए जो आज जनता न देख सके. फिल्मों को दर्शकों को गुदगुदाना ही नहीं चाहिए, उन्हें उत्तेजित भी कर देना चाहिए.

यह सही है कि यहां फिल्मों को ले कर राजनीतिक विवाद खूब खड़े किए जा रहे हैं, जैसे ‘पठान’ फिल्म को ले कर खड़े किए गए थे पर अंत में सब आपत्तियां बेबुनियाद साबित हुईं और फिल्म बौक्सऔफिस पर बुढिय़ाते हीरो के साथ भी बेहद सफल हुई. ‘नाटूनाटू…’ गाने वाली फिल्म हिंदी संस्करण में भी खूब चली थी, हालांकि, पुरस्कार उस के मूल तेलुगू गाने पर दिया गया है.

अंधविश्वास का भ्रमजाल

शुभम घर से कालेज जाने के लिए निकल ही रहा था कि पीछे से उस की पड़ोस वाली चाची ने टोक दिया, “अरे शुभम बेटा, कालेज जा रहो हो क्या?” चाची के टोक देने से शुभम एकदम से चिढ़ गया और कोई जवाब न दे कर चलता बना. लेकिन उस का मूड तो औफ हो ही चुका था. पूरे रास्ते वह यही सोचता रहा कि आज उस का पहला पेपर है और चाची ने पीछे से टोक दिया. कहीं कुछ अशुभ न हो जाए. कहीं पेपर खराब चला गया तो क्या करेगा वह. सिर्फ शुभम ही क्यों? ज्यादातर लोग इन सब बातों को मानते हैं. घर से निकलते समय किसी के पूछ लेने भर से कि कहां जा रहे हो? अकसर लोग चिढ़ जाते हैं. भले, उस वक्त वे वह कुछ न बोल पाते हों पर चेहरे पर खिन्नता के भाव स्पष्ट नजर आते हैं.

हमें अपने बड़ेबुजुर्गों से अकसर यह सुनने को मिलता है कि घर से निकलते वक़्त अगर कोई टोक दे तो अच्छा शगुन नहीं होता. बिल्ली रास्ता काट दे या कोई छींक दे तो बुरा होता है. ऐसे और भी बहुत से अंधविश्वास हैं जो लोगों के मुंह से या फिर घर के बड़ों द्वारा बताए गए हैं जो हमारे जेहन में घूमते हैं और हम यही सोचते हैं कि हो सकता है ये सच हों. अगर काली बिल्ली रास्ता काटे तो हम पीछे हट जाते हैं या थोड़ी देर रुक जाते हैं फिर चाहे औफिस के लिए देर ही क्यों न हो जाए. जाते समय कोई छींक दे तो हम रुक जाते हैं भले ही हमारी ट्रेन ही क्यों न छूट जाए.

24 वर्षीय सौफ्टवेयर इंजीनियर विकास का कहना है, ‘“सूर्यग्रहण के दिन बुरे ग्रहों को दूर करने के लिए हम भिखारियों को अनाज दान करते हैं ताकि बुरे ग्रहों का प्रभाव दूर हो जाए. इस सूर्यग्रहण में भी जब हम भिखारियों को अनाज दान करने गए, हालांकि, इस में मेरी मरजी शामिल नहीं थी, बल्कि अपनी मां के कहने पर मुझे ऐसा करना पड़ा. लेकिन जब मैं भिखारियों को भीख दे रहा था तब किसी ने मेरी जेब काट ली. तब मुझे लगा मां की बात न मान कर अगर मैं भिखारियों को भीख न देता तो आज मेरी जेब न कटती.’”

26 वर्षीय आर्किटैक्ट मौली एक बड़े शहर में रहती है और आधुनिक जीवन जीती है. लेकिन फिर भी वह पुराने रीतिरिवाजों व परंपराओं को मानती है. नवरात्र, शिवरात्रि, सावन, जो भी हिंदू व्रत त्योहार आते हैं, वह सब रखती है. पूछने पर कि उसे पता भी है इन परंपराओं के पीछे की क्या कहानी है और यह कैसे शुरू हुई थी? क्यों यह व्रत-उपवास किया जाता है? उस पर वह हंसती हुई कहती है कि अब शुरू से मां-दादी को करतेदेखती आई हूं तो मैं भी कर रही हूं. इस में हर्ज ही क्या है.

अधिकांश युवा जोर दे कर कहते हैं कि वे अंधविश्वासों में विश्वास नहीं करते हैं लेकिन फिर भी उन के साथ चलते हैं. कुछ अपने मातापिता की खातिर ऐसा करते हैं तो कुछ लोगों के दबाव में या दूसरों की देखादेखी ऐसा करते हैं. कालेज के दौरान मीनाक्षी नवरात्र का व्रत रखती है. कहती है कि वह ऐसा इसलिए करती है क्योंकि उस के सारे दोस्त उस समय उपवास कर रहे होते हैं, तो वह भी कर लेती है.

मनोविश्लेषक इस का श्रेय अपनेपन की चाह को देते हैं. लेकिन अधिकांश अंधविश्वासों का मूलकारण भय ही रहता है. पौराणिक कथाओं के विशेषज्ञ देवदत्त पटनायक का कहना है कि, ‘भविष्य को नियंत्रित करने की हमारी इच्छा से अंधविश्वास पैदा होता है. वे हम से ऐसे काम करवाते हैं जिन्हें हम तर्कसंगत रूप से समझने में सक्षम नहीं हो सकते.’

वैसे, आजकल के युवा काफी मौडर्न और शिक्षित हो चुके हैं लेकिन अंधविश्वास के मामले में वे भी पीछे नहीं हैं. आजकल के युवा न्यूईयर भी मना लेते हैं, दोस्तों के साथ गोवा के ट्रिप पर भी चले जाते हैं और अपनी मां के कहने पर मंदिरों में मत्था भी टेक आते हैं. उन का आश्रमों और मैडिटेशन सैंटरों में जाना भी एक फैशन बन चुका है क्योंकि तर्क ताक पर रखा जा चुका है.

जब बात युवाओं की नौकरी या शादी की आती है तो वे ज्योतिष और पंडितों के टोटके और उपायों पर भरोसा करने से भी नहीं हिचकते हैं. लाइफ में कुछ भी मुसीबतें आईं, जैसे कि लव मैरिज के लिए पेरैंट्स नहीं मान रहे हैं, या फिर सालों से बेरोजगार बैठा है तो उसे अपनी कुंडली में दोषग्रह की आशंका होने लगती है और जिस के उपाय के लिए वह बाबाओं के चक्कर लगाने लगता है.

आप को जान कर आश्चर्य होगा कि युवा अपने पुराने प्रेम को वापस पाने, तलाक को रोकने, पार्टनर को वश में करने के लिए भी ज्योतिष के टोटके और उपायों की मदद लेने के बारे में सोचते हैं. लेकिन आजकल के पंडेपुजारियों ने लोगों की परेशानियों को अपना बिजनैस बना लिया है. लोगों की परेशानी का हल निकले न निकले, पर इन बाबाओं की जेबें जरूर गरम हो जाती हैं.

युवा क्रिकेटर भी अंधविश्वासी

 युवा क्रिकेटर शुभम गिल अपने हर मैच के दौरान मैदान पर अपने साथ लाल रूमाल रखते हैं. उन का मानना है कि लाल रूमाल रखने से वे मैदान पर बेहतरीन प्रदर्शन करते हैं. कभीकभी खिलाड़ी मैदान में अच्छे प्रदर्शन के लिए तरहतरह के हथकंडे और अंधविश्वासों पर भरोसा करते हैं. कुछ खिलाड़ी अपने साथ एक निश्चित रंग और नंबर रखना पसंद करते हैं जबकि कुछ अपनी पसंदीदा चीजें अपने पास रखना पसंद करते हैं ताकि वे असुरक्षित महसूस न करें और इन तरकीबों से अच्छा प्रदर्शन कर सकें.

20 साल की निधि (बदला हुआ नाम) अंधविश्वास पर बहुत विश्वास करती है. उस के मोबाइल पर जब धर्म से जुड़ा कोई भी मैसेज आता है और उस पर लिखा होता है कि अगर आप ने एक मिनट के अंदर 20 लोगों को यह मैसेज फौरवर्ड कर दिया तो आज आप को कोई खुशखबरी सुनने को मिलेगी. बिना देर किए वह अपने दोस्तोंरिशतेदारों को वह मैसेज फौरवर्ड कर देती है.

निधि का कहना है, ‘“मुझे पता है, यह मेरा अंधविश्वास है. लेकिन इस में बुराई भी क्या है. हो सकता है खुशखबरी मिल भी जाए. इसलिए आजमाने में हर्ज ही क्या है? मैं इस तरह के मेल ज्यादा से ज्यादा लोगों को भेजती हूं.”’ एक छात्र का कहना है कि जब वह साईं बाबा का ताबीज पहनता है तो आश्वस्त रहता है कि परीक्षा में वह पास हो जाएगा.

क्या आप राक्षस जैसी बातों पर विश्वास करते हैं? आप पूरे विश्वास के साथ कहेंगे, कोई राक्षसवाक्षस नहीं होता, ये सब फालतू की बातें हैं. लेकिन भूत पर आप एक मिनट सोचेंगे जरूर कि भूत होता है. शायद डर भी जाएंगे. भूतों के अस्तित्व पर न केवल पिछड़े समाज में, बल्कि विकसित और सभ्य पश्चिमी देशों में चर्चा होती है. साहित्य में हो या फिल्मों में, भूतों को जगह दी गई है. भूतों को ले कर कई फिल्में भी बनी हैं. हम कहते हैं कि राक्षस जैसी बातें अंधविश्वास हैं लेकिन भूत जैसी बातों पर बड़े विश्वास के साथ बात करते हैं.

अंधविश्वास है क्या?

अंधविश्वास एक ऐसा विश्वास है जिस का कोई उचित कारण नहीं होता है. हमारे घरपरिवार में बचपन से ही हमें अंधविश्वास के घेरे में ऐसे पालपोस कर बड़ा किया जाता है कि बड़े हो कर हम उन्हीं का अक्षरश: पालन करते हैं. शुभअशुभ जैसी बातें हमारे दिमाग में इतनी गहरी बैठ जाती हैं कि कोई काम करने से पहले हम सोचते हैं कि यह काम हम आज करें या कल. किस दिन कौन से रंग के पकड़े पहनने हैं, कौन से दिन बालदाढ़ी नहीं बनवाना चाहिए, कौन से दिन नौनवेज नहीं खाना चाहिए आदि सब बातें बचपन से ही दिमाग में बैठा दी जाती हैं और जो पीढ़ीदरपीढ़ी आगे बढ़ता जाता है.

अंधविश्वास अकसर कमजोर व्यक्तित्व, कमजोर मनोविज्ञान एंव कमजोर मानसिकता के लोगों में देखने को मिलता है. जीवन में असफल रहे लोग अकसर अंधविश्वास में विश्वास रखने लगते हैं और ऐसा मानते हैं कि इन अंधविश्वासों को मानने और इन पर चलने से ही शायद वे सफल हो जाएं. कुछ अंधविश्वास ऐसे हैं जो परंपरागत नहीं होते बल्कि धर्म के ठेकेदारों द्वारा फैलाए गए भ्रम होते हैं जिन में पीढ़ीदरपीढ़ी फंसती चली जाती है.

अंधविश्वास को मिलता बढ़ावा

बात इसी महीने की 26 तारीख की है. अमेरिका की एक फ्लाइट 37 हजार फुट की ऊंचाई पर उड़ रही थी, तभी उस फ्लाइट में सवार एक 34 साल की महिला, एलोम एगबेग्निनौ, अचानक से फ्लाइट का दरवाजा खोलने लगी. जब उसे ऐसा करने से एक शख्स ने रोका तो उस ने उस की जांघ को काट लिया और फ्लोर पर अपना सिर पीटने लगी. फ्लाइट अटेंडैंट ने जब उस से पूछा कि वह ऐसा क्यों कर रही है, तो महिला ने जवाब दिया कि उसे ऐसा करने के लिए जीसस ने कहा. अब बताइए, इसे अंधविश्वास नहीं तो और क्या कहेंगे?

अंधविश्वासपूर्ण मान्यताओं की जड़ें केवल अशिक्षित वर्ग में ही व्याप्त नहीं है, बल्कि शिक्षित वर्ग में भी फैली हुई हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफैसर हरवंशजी मुखिया का कहना था कि यह एक भ्रामक विचार है कि शिक्षित वर्ग अधिक विवेकपूर्ण व तर्कसंगत होता है और अशिक्षित वर्ग अंधविश्वास में अधिक यकीन रखता है.

अंधविश्वास विकासशील देश ही नहीं, अपितु विकसित देशों में भी देखने को मिल जाएगा. अंधविश्वास लोगों के मन में डर पैदा करता है. यह अंधविश्वास नहीं तो और क्या है कि कहीं भगवान बीमार पड़ रहे हैं, तो कहीं ज्यादा आम खाने से भगवान की तबीयत बिगड़ जाती है और कहीं तांत्रिक विद्या के लिए बलि चढ़ाई जाती है. सब से ज्यादा दुखी करने वाली बात तो यह है कि देश के भविष्य कहे जाने वाले युवावर्ग भी जब अंधविश्वास जैसे बातों पर भरोसा करते हैं तो वे आगे चल कर देश और राष्ट्र के लिए क्या ही करेंगे.

 अंधविश्वास का जन्म

हमारी संस्कृति में भय और कुछ जगहों पर कट्टरपंथी सोच के कारण पाखंड भी देखने को मिलता है. जब किसी चीज का वैज्ञानिक आधार ज्ञात नहीं था, तो धर्मशास्त्रियों ने उन के विचारों को पुष्ट करने के लिए धर्म से जोड़ देते थे.

ऐसे समय में जब कुछ लोग शास्त्र को पढ़ सकते थे, शास्त्रों की गलत व्याख्या करने की प्रथा ने संस्कृति के भीतर अंधविश्वास को जन्म दिया. हमारी कई संस्कृतियां ऋगवैदिक काल और पूर्व की सभ्यता के बाद से हैं. लेकिन क्या उस समय के वेदों और समकालीन ग्रंथों पर भी अंधविश्वास का बोझ था? नहीं था.

इसलिए यह मान कर चलिए की सभी अंधविश्वासों की शुरुआत मध्य में परिवर्तित हुए कई व्यवहारों से हुई थी. हालांकि, हमारे समाज में देखे गए अंधविश्वास किसी भी वैदिक ग्रंथ में नहीं पाए जाते हैं. प्राचीन शास्त्रों में कहीं नहीं कहा गया है कि अगर कोई बिल्ली चलते समय रास्ता काट जाए तो वह अशुभ होता है. एक बच्चे को जन्म के बाद 8 साल तक जाति और धर्म का बोझ नहीं उठाना पड़ता है लेकिन ज्योंज्यों वह बड़ा होता जाता है, उस के अंदर धर्मजाति का बोध होने लगता है.

अंधविश्वास पर न करें विश्वास

अंधविश्वास का मतलब है किसी पर आंख मूंद कर विश्वास करना. अपने बुद्धिविवेक को ताले में बंद कर जब आप किसी के बताए रास्ते पर चलते हैं तो वह आप को प्रगति के बजाय विनाश के रास्ते पर ले जाता है. जब आप अपना रिमोट कंट्रोल दूसरों के हाथों में देते हैं तो वह उसे अपने तरीके से इस्तेमाल करता है.

अंधविश्वास की शिक्षा आप को इतने विश्वास के साथ दिलाई जाती है कि आप को वही सही लगता है. लेकिन बाद में जब आप उन के जाल में फंस जाते हैं तो फिर बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझता. आज भी गांवों में बेरोजगार युवक अंधविश्वास के भंवर में फंस कर तंत्रमंत्र को रोजगार की सीढ़ी बना रहे हैं.

कुछ युवा रोजीरोजगार के चक्कर में आसानी से ठगों के जाल में फंस कर अंगूठी, कीमती पत्थर, मूंगा मोती अपनी उंगलियों में धारण कर लेते हैं इस उम्मीद से कि कोई चमत्कार होगा. आज इंसान चांद पर बसने की सोच रहा है, इस के बावजूद देश का बड़ा वर्ग अंधविश्वास के चंगुल में आसानी से फंसा हुआ है तो यह अफसोस की ही बात है कि इस में पढेलिखे युवा भी शामिल हैं.

युवाओं को काल्पनिक और अंधविश्वास से बचने की जरूरत है. उन्हें भ्रामक कल्पना करने वाला और अंधविश्वासी हरगिज नहीं होना चाहिए. जिस वस्तु का कोई अस्तित्व न हो, ऐसी वस्तु पर विश्वास करना ही अंधविश्वास कहलाता है. आज कहीं न कहीं अधिकांश युवा पीढ़ी अपनी दिमागी तर्कशक्ति का उपयोग करने में असमर्थ है. यही वजह है कि वह पूरी तरह से अंधविश्वास की जड़ों में जकड़ी हुई है. कुछ युवा वास्तविक जीवन से ज्यादा काल्पनिक जीवन जीना पसंद करते हैं.

यदि हमें किसी विषय के बारे में पता नहीं है और लोगों की सुनीसुनाई बातों पर विश्वास कर के उसे करते चले जाते हैं तो वह हमारी अशिक्षा या अज्ञानता ही है. आखिर कौन सी किताब में लिखा है कि दही खा कर बाहर निकलने से काम में सफलता मिलती है? या तावीज पहनने से हम परीक्षा में पास हो जाएंगे? फिर तो कोई पढ़ाई ही न करे और दही व तावीज से काम चला कर अच्छे नंबरों से पास होता रहे.

यह जान लीजिए की अंधविश्वास में घिरे लोग कभी खुश नहीं हो सकते. इसलिए शिक्षा के साथसाथ पहले अपनेआप में ज्ञान का प्रकाश फैलाइए और तर्कहीन बातों से दूर रहिए. सचाई जाने बिना किसी भी बात पर भरोसा न करें. हर बात के बारे में वास्तविकता क्या है, यह जानने की कोशिश करें. लोगों से तर्क करिए. तभी आप का वास्तविक विकास और उत्थान शुरू होगा.

खुद की मेहनत पर करें विश्वास

युवा जोश और हौसले का दूसरा नाम है. युवाओं को आगे बढ़ कर अंधविश्वास जैसी कुरीतियों का बहिष्कार करना चाहिए. लोगों को इस के बारे में जागरूक करना चाहिए. ताकि, पीढ़ीदरपीढ़ी चली आ रही इस खोखली परंपरा को जड़ से खत्म किया जा सके. युवाओं को अपने साथ इस काम के लिए और भी लोगों को जोड़ना चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग जागरूक हो सकें.

रहें हमेशा सकारात्मक

नकारात्मक और नकारा जैसे लोग अंधविश्वास पर ज्यादा विश्वास करते हैं. पैसे वाले पढ़ेलिखे, सुखसुविधाओं में जीने वाले लोग भी अंधविश्वास पर भरोसा कर तांत्रिक पूजा करवाते हैं ताकि उन का यह वैभव उन से छिन न जाए. गरीब तबके के लोग इसलिए टोनाटोटका और जादुई शक्ति जैसी बातों पर विश्वास करते हैं ताकि उन की जिंदगी में वह सब आ जाए जिस की उन्हें चाह है. लेकिन ठगे दोनों जाते हैं.

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