पेरैंट्स अपने बच्चों का बुरा नहीं चाहते, सभी अपने बच्चों का बेहतर भविष्य बनते देखना चाहते हैं. हो सकता है समझनेसमझाने के तरीकों में अंतर हो, पर सभी मातापिता बच्चे की खुशी चाहते हैं. अब तय यह करना है कि पेरैंट्स से बढ़ रही दूरी को नजदीकियों में कैसे तबदील करें.

इतना सबकुछ सोचने के बाद मूड हलका हो गया है कि क्यों हम लोग कभीकभी कितनी छोटीछोटी बातों को जरूरत से ज्यादा गंभीरता से ले लेते हैं और जाने क्याक्या ऊटपटांग सोच डालते हैं. अब वक्त है कि हमें भी रिश्तों को समझना चाहिए जो हमारी जिंदगी की धुरी है. पेरैंट्स क्या नहीं करते हम बच्चों के लिए और हम हैं कि जरा सी बात पर उन्हें दुश्मन समझने लगते हैं.

जितनी आजादी और सहूलियतें हमें मिली हैं उतनी उन्हें नहीं मिलीं, इसलिए उन की हर मुमकिन कोशिश रहती है कि हमारे बच्चे को वह सब मिले जिस के लिए वे तरस जाते थे, फिर चाहे वह एजुकेशन हो, आजादी हो या कि पैसा हो.

कई बार तो लगता है कि पेरैंट्स को दकियानूसी कहना अपना उल्लू सीधा करने का बहाना और हथियार हो चला है. वे हमें समझें, यह जिद पालने से पहले हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि हम उन्हें कितना समझ पा रहे हैं.

दरअसल, आज सुबहसुबह ही फिर पापा से पंगा हो गया. हमेशा की तरह यह उन की नजर में मेरी गलती है. क्या दोस्तों के साथ पार्टी के लिए पैसे मांगना कोई गलत बात थी, जो सुबहसुबह ही वे चटक कर बोले, ‘‘तुम्हें कुछ और सूझता भी है सिवा फालतू कामों के लिए पैसे मांगने और मोबाइल पर चैटिंग करते रहने व गेम खेलते रहने के, और फिर एक हजार रुपए... यह तो हद है फुजूलखर्ची और पैसों की बरबादी की.’

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