Download App

Romantic Story : यही होना था – मां बाप के प्यार का क्या फायदा उठाया था राजू ने ?

Romantic Story : मध्यवर्गीय परिवार का इकलौता लङका राजकुमार उर्फ राजू किशोर उम्र से ही आवारा और बिगड़ैल हो गया था. मांबाप का लाड़प्यार भी उस पर कुछ ज्यादा ही बरसता रहा, जिस कारण वह पढ़ाईलिखाई में पिछड़ा रहता और जिद से हर जरूरी व गैर जरूरी चीजें हासिल कर लेता था. इस पर घर वालों को कभीकभी कर्ज भी लेना पड़ जाता था.

राजू की एक छोटी बहन थी नेहा, जिसे वह जान से भी ज्यादा प्यार करता था. राजू कभी इंटर कालेज बंक कर के दोस्तों के साथ सिनेमा जाता, जुआ खेलता तो कभी शराबगांजे का नशा करता था. कभी जेब खर्च न हो तो चोरियां भी वह करने लगा, मसलन चेन छीनना, पर्स लूटना, मोबाइल छीन लेना आदि.

राजू के मांबाप लाडले बेटे के अंधभक्त बन चुके थे, जिस से वह और मनबढ़ सवाशेर हो चला था.
इसी तरह समय बीतता गया. जब जवानी के दिन शुरू हुए तो राजू लड़कियों की ओर आकर्षित होने लगा. स्कूलकालेज आतीजाती लड़कियों को अश्लील कमैंट्स मारता, हाथ पकड़ता, पीछा कर के छेङखानी करता था. और कहीं सुनसान रास्ते में लङकी दिखती तो उस के साथ गंदी हरकत कर के भाग जाता था.

एक बार की बात है. राजू दोस्तों संग एक खंडहरनुमा घर में ताश खेल रहा था. तभी एक लङकी उधर से गुजरी. वह बहुत खूबसूरत थी. अकेला पा कर राजू ने उसे दबोच लिया और दोस्तों के साथ मिल कर उस के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया. वीडियो भी बना लिया. घटना के बाद लङकी ने रोते हुए सब की शिकायत पुलिस से करने की बात कही, तो राजू ने उस का वीडियो इंटरनैट पर लोड कर बदनाम करने की धमकी दे डाली.

यह सुन लङकी घबरा कर और जोरजोर से रोने लगी. कुछ दिन बाद उस ने बदनामी के डर से अपने घर में आत्महत्या कर ली.

राजू की ऐसी कारगुजारियां आगे भी चलती रहीं. उसे इस काम में ज्यादा रस आने लगा था. राजू के मांबाप को उस की इन करतूतों का कभी पता भी नहीं चला. दिन तेजी से गुजरते गए.

एक रोज शाम जब राजू मौजमस्ती कर के घर लौटा तो उस की प्यारी बहन नेहा रोते हुए मिली. मांबाप भी आंसू लिए दुखी नजर आए. जब उस ने इस बारे में जानना चाहा तो सचाई सुन कर जैसे उस के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई. उस ने अपनी बहन के साथ ऐसी घटना की कल्पना कभी सपने में भी नहीं की थी.

‘नेहा के साथ दुष्कर्म. नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. कोई मेरी बहन के साथ ऐसा कैसे कर सकता है…’ बारबार मन में कौंधते इन सब विचारों से राजू परेशान हो गया था. सारी रात उसे नींद नहीं आई.

दूसरे सुबह थाने जा कर राजू के पिता ने बेटी नेहा से हुई दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखानी चाही, तो मां ने बदनामी की दुहाई दे कर उन्हें जाने से रोक लिया.
अब राजू घर में मच रही हलचल को चुपचाप सिर्फ देखता ही रहा और कुछ न कर सका.

Best Love Story : इन्द्रधनुष

Best Love Story : आज बैंक में बहुत भीड़ थी। दो स्टाफ की अनुपस्थिति के कारण कैश काउंटर (रूपयों का लेन- देन) पायल को ही देखना पड़ रहा था। एक जानी – पहचानी आवाज उसके कानों में पड़ी -” मैडम, मुझे 500 की गड्डियाँ ही दीजिएगा ।” उसने झट से ऊपर देखा। देखते ही उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। सामने ऋषि खड़ा था। वो भी उसे एकटक देख रहा था। पायल ने काँपते हाथों से 500 के नोटों के तीन गड्डी निकाल कर देते हुए कहा, ये लीजिए, और चेक के पीछे हस्ताक्षर कर दीजिए। हस्ताक्षर करते वक्त पायल की नजर पेन पर पड़ते ही वो समझ गई कि ये वही पेन है, जो उसने जन्मदिन पर ऋषि को उपहार में दिया था।

उस पेन को देखते ही यादों के तूफान बादल बन कर उसके दिलो – दिमाग में घुमड़ने लगे। ऋषि का जन्मदिन था। सभी मिलकर उसे कुछ देना चाहते थे। उपहार खरीदने का काम पायल और सोनल को सौंपा गया था। सोनल उससे जुनियर थी, और ऋषि के घर के पास ही रहती थी। सोनल ने ही उसे बताया था, कि ऋषि भईया को विभिन्न प्रकार के पेन इकट्ठा करना बहुत पसंद है। वो लिखने और हस्ताक्षर करने के लिए अलग – अलग प्रकार के पेन इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने अपने कमरे में पेन को कुछ इस तरह से सजा कर रखा है। जैसे कि उनका कमरा नहीं, कोई पेन की दुकान हो। इतना सुनते ही पायल ने कहा – ” तो पेन का सेट ही ले लेते है।” पेन का सेट लेते समय पायल की निगाह बार – बार एक खूबसूरत से पेन पर जाकर ठहर रही थी। पर क्यों? ये वो समझ नहीं पा रही थी। उसने सोनल से कहा – ” तू जाकर केक का आर्डर दे कर आ। मैं इस पर रैपर लगवाती हूँ।” सोनल के जाते ही उसने अपनी पसंद की भी एक पेन ले ली, और साथ ही डंठल में लगा एक लाल गुलाब भी ले लिया। जिस पर लिखा हुआ था… some one special. पढ़ते ही उसके होठों पर एक मुस्कुराहट फैल गई।

इधर ऋषि भी पायल के प्रति एक आकर्षण महसूस कर रहा था। जिस दिन पायल नहीं आती थी। उसका लाइब्रेरी में मन नहीं लगता था। ऋषि अपने में आए इस बदलाव को समझने की कोशिश कर रहा था। पायल एक साधारण से व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। पर उसकी निश्छल सी मुस्कान और सादगीपूर्ण बातें ऋषि को बहुत अच्छी लगती थी । उसके छरहरे बदन पर काले – लम्बे घने बाल के सामने सभी लड़कियाँ उसे फीकी लगती थी।

आज ऋषि का जन्मदिन है। उसने नीली जींस पर लाल शर्ट पहन रखी थी। वो बहुत आकर्षक लग रहा था। केक कटा, सबने ऋषि को जन्मदिन की बधाई दी। पायल ने भी लाल गुलाब के साथ अपने पसंद की पेन उसे दी। ऋषि ने धीरे से कहा – “धन्यवाद” । दोनों की नजरें टकराई, और एक प्यार भरी मुस्कुराहट दोनों के होठों पर फैल गई। ऋषि ने सबके कहने पर एक गाना भी गाया था।

भोली सी सूरत, आँखों में मस्ती,
दूर खड़ी शरमाए, आए – हाए…

अब दोनों लाइब्रेरी के बाद काफी हाउस जाते, और घंटों बातें करते रहते। ऋषि की शर्ट की जेब में पेन देखकर पायल खुशी से झूम जाती थी। ठीक ही तो कहा था, ऋषि ने – ” ये पेन अब हमेशा मेरे साथ रहेगा।” पायल मन ही मन सोचने लगी। वो दिन भी कितने खूबसूरत थे। उन्मुक्त जीवन, अल्हड़पन, कॉलेज, लाइब्रेरी, कॉफी हाउस और ऋषि का साथ कितना सुकून देता था। ऋषि का ख्याल आते ही उसके होठों पर एक प्यारी सी मुस्कुराहट आ गई।… “अरे! आप आधे घंटे से यही बैठी है। हमने तो लंच भी कर लिया।” बैंक में ही काम करने वाली मीना बहल की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी। पायल ने अनमने भाव से कहा – ” आज मुझे भूख नहीं है।”

घर आकर आज पायल का दिल नहीं लग रहा था। उसे कॉलेज की लाइब्रेरी याद आ रही थी। जहाँ उसकी मुलाकात ऋषि से हुई थी। स्नातक का आखिरी साल था। जहाँ सभी कोर्स की किताबों से ज्यादा बैंकिंग और सिविल सर्विसेज की किताबें ज्यादा पढ़ते थे। ऋषि बहुत मेधावी छात्र था। सभी उससे कुछ न कुछ जानकारी लेते रहते थे। वहाँ बैठकर आपस में पढ़ाई – लिखाई की ही बातें होती थी। इन सबके बीच ऋषि और पायल कब एक – दूसरे को पसंद करने लगे। उन्हें पता ही नहीं चला। पायल ने जब अपनी मम्मी से ऋषि के बारे में बात की। तो घर में हंगामा हो गया। पायल ने रूआंसी होते हुए कहा – “माँ, ऐसी कोई बात नहीं है। बस, उससे बातें करना मुझे अच्छा लगता है। हम लाइब्रेरी में पढ़ने के बाद कभी-कभी साथ में कॉफी पीते है।” इतना कहकर पायल अपने कमरे में चली गयी।

अब पायल पर हर वक्त नजर रखी जाने लगी। वो कहीं भी घर से जाने के लिए निकलती, तो माँ उसे टोकते हुए कहती – ” कहाँ जा रही है? जल्दी आ जाना।” उसके फोन पर भी उनका ध्यान कुछ इस तरह से गड़ा रहता था। जैसे फोन का रिंग टोन न होकर कोई खतरे की घंटी बजने वाली है। पायल को अपने ही घर में अजनबी सा लगने लगा था। कभी-कभी उसे घुटन सी महसूस होती थी। हर वक्त चिड़िया सी फुकदने वाली अपनी माँ की बिट्टो रानी अब एक उदास सी घूंटे में बंधी गाय के बछड़े सी हो गयी थी।

पायल के भाई की शादी को अभी दो साल ही हुए थे। उसकी भाभी उम्र में उससे बस चार साल बड़ी थी। दोनों में खूब निभती थी। सीमा (भाभी) ने पायल की मनःस्थिति को भाँप लिया था। एक दिन मौका पाते ही उसने पायल से ऋषि के बारे में जानना चाहा तो बस इतना ही पता चला कि वो पायल से सीनियर है, कॉलेज में उसका आखिरी साल है। पर सीमा को इससे संतुष्टि नहीं हुई। उसने पायल पर दबाव बनाया कि उसे ऋषि की पूरी जानकारी चाहिए। जिससे कि वो उसकी मदद कर सके। पायल ने अश्रू भरी निगाहों से सीमा की तरफ देखा, और कहा – “ऋषि अपने भाई के पास रह कर पढ़ाई कर रहा है। उसके माता-पिता गाँव में रहते हैं। मैं इतना ही जानती हूँ।”

आज पायल की माँ ने सीमा को अपने पास बुलाकर एक फोटो दिखाते हुए कहा –
” देख बहू, हमारी पायल के लिए ये कैसा रहेगा। एक बड़ी कम्पनी में काम करता है। मोटी रकम कमाता है। हमारी पायल रानी बनकर रहेगी। ”
सीमा ने हैरानी से अपनी सासू माँ की तरफ देखते हूए कहा – “माँ जी, अभी उसके कॉलेज की परीक्षा है, फिर उसके बाद बैंक की परीक्षा भी उसे देनी है। उसने कितनी मेहनत की है। ”
शारदा (पायल की माँ) ने उसे झिड़कते हुए कहा –
” हो गई, उसकी पढ़ाई-लिखाई। कल उसे सब देखने आ रहे है। उसकी तैयारी कर।”

आज एक बुजुर्ग दम्पति पायल को देखने आए थे। उन्हें अपने बेटा के लिए पायल बहुत पसंद आयी। उन्होंने उसे एक हीरे की अंगूठी दी, और कहा – “ये सागर की तरफ से है। सगाई नहीं होगी। अगले महीने ही हम शादी करना चाहते है।” फिर कुछ औपचारिक बातें करने के बाद वो लोग चले गए।

उनके जाते ही सीमा ने सासू माँ की तरफ देखते हुए कहा – “माँ जी मुझे कुछ अजीब लग रहा है। आज के समय में कोई लड़का न लड़की की फोटो देखे, न उससे बात करे, न अपने होने वाले जीवन संगिनी के बारे में जानने की कोशिश करे। ऐसा नहीं हो सकता है। मुझे तो कुछ दाल में काला लगता है।” शारदा ने प्रत्युत्तर में कहा –

“अरे! बहू ये तो कितनी अच्छी बात है। संस्कारी लड़का है। माता-पिता पर विश्वास कर रहा है। उनकी पसंद से ही शादी कर रहा है। ”

सीमा अपनी सासू माँ की बातों से संतुष्ट नहीं हुई। उसने अपने पति से भी इस बारे में बात की। पति ने भी दो टूक जवाब देते हुए कहा – “पापा – मम्मी ने रिश्ता ठीक किया है,तो सब ठीक ही होगा ।”

सीमा वहाँ से निकलकर पायल के कमरे में गयी। पायल वहाँ नहीं थी। उसके बिस्तर पर एक डायरी और पेन रखा था। सीमा ने इधर-उधर नजरें दौड़ाई तो देखा कि पायल बरामदे में चुपचाप बैठी थी। उसने पायल से कहा तुम कुछ बोलती क्यों नहीं हो। पायल ने एक कागज का टुकड़ा अपनी भाभी की तरफ बढ़ा दिया। जिसमें लिखा था

जिंदगी मेरे इतने करीब आई
फिर रूठ कर बेवजह चली गई।।
तुम्हारा ऋषि

पायल ने झकझोरते हुए कहा – “तुम ऋषि से बात क्यों नहीं करती हो।”
” जब तक उसका कैरियर नहीं बन जाता है। वो कुछ नहीं कर सकता है। उसने दो साल रूकने को बोला है। अब मैं उसे परेशान करना नहीं चाहती। ”

आज पायल के हाथों में मेहंदी लग रही थी। सभी मेहमानों के आ जाने से घर में खूब चहल-पहल थी। शारदा ने सजावट में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। दूसरे दिन बारात आयी। खूब धूमधाम से शादी हुई। बिदाई की रस्म के बाद पायल अपने ससुराल के दहलीज़ पर पहुँच गई। वहाँ पर बहू भोज हो जाने के बाद भी उसका अपने पति सागर से कोई बात नहीं हो पायी थी।

आज सागर अपनी माँ के साथ उसके कमरे में आया। सासू माँ ने पायल की तरफ देखते हुए कहा –
“सागर अपने दोस्तों और रिश्तेदारों में ही उलझा हुआ था। अब तुम दोनों भी एक – दूसरे को समझो। आपस में बातें करो। और हा पायल, कल पूजा है। सुबह जल्दी नहा लेना। प्रसाद तुम्हें ही बनाना है।”

इतना कह कर वह कमरे से चली गई। सागर अपना मोबाइल उठाया, और बाहर बरामदे में जाकर किसी से बातें करने लगा। पायल को कुछ अजीब सा लग रहा था। उसने एक बार भी उसकी तरफ आँख उठाकर नहीं देखा। पायल की कब आँख लग गई, उसे पता ही नहीं चला। जब आँख खुली तो उसने देखा कि पलंग के सामने रखे सोफे पर सागर गहरी नींद में सो रहा है। सुबह के चार बज रहे थे। उसका फोन सामने टेबल पर था। जिस पर लगातार किसी का फोन आ रहा था। पायल अपनी डायरी निकालकर उस पर कुछ पंक्तियाँ लिखने लगी।

नया सफर कुछ धुंधला सा है
दो दिल अब तक तन्हा सा है।।

पायल की नजर जैसे ही घड़ी पर पड़ी। सुबह के पाँच बज रहे थे। सागर अभी भी गहरी नींद में सो रहा था। पायल नहाने के लिए जैसे ही बाथरूम जाने को उठी। तभी उसकी नजर फोन पर पड़ी। जिस पर फोन फिर लगातार आने लगा था। उसने देखा my love Nisha लिखा है ।फोन साइलेंट मोड पर था।

पायल नहा कर निकली ही थी, कि सासू माँ की आवाज़ आयी –
“पायल जल्दी से नहा लो। प्रसाद बनाना है।”

पायल जल्दी से तैयार होकर बाहर निकल गई। लाल रंग की गोल्डन बार्डर साड़ी में पायल बहुत सुंदर लग रही थी। सासू माँ ने उसकी तरफ देखते हुए कहा –

” सागर अभी तक सो रहा है। रात देर तक जागना और सुबह देर तक सोना उसकी आदत है। तू आ गई है न, धीरे-धीरे उसकी आदत सुधार देना। पायल ने मुस्कुराते हुए हामी भर दी। पूजा की सारी तैयारियाँ हो गई। पंडित जी भी आ गए। पूजा शुरू होते ही सागर भी पजामा – कुर्ता पहन कर आया, और पूजा पर बैठ गया। पायल ने महसूस किया कि सागर कुछ बोझिल और थका – थका सा लग रहा था। उसके कुर्ते की जेब में मोबाइल रखा था, जिस पर बार – बार किसी का फोन आ रहा था। सागर उसे निकाल कर देखता, फिर अपनी पाॅकेट में रख लेता था। पूजा समाप्त हो गई। सभी मेहमान भी प्रसाद लेकर चले गए। सागर ने अपनी माँ की तरफ देखते हुए कहा –

“माँ आने में थोड़ी देर हो जाएगी। दोस्त के यहाँ पार्टी है।” माँ के कुछ कहने से पहले ही निकल गया।

पायल ने अपनी सासू माँ से सीधे – सीधे सवाल करते हुए कहा – “मम्मी जी ये निशा कौन है? कल रात भर सागर को फोन कर रही थी।” विनीता (सागर की माँ) उसे हक्की – बक्की उसे देखने लगी। फिर अपने को सम्हालते हुए बोली – “आओ आराम से बैठकर बात करते है। तुम अब सागर की पत्नी हो। तुम्हें समझदारी से काम लेना होगा। निशा और सागर एक साथ पढ़ते थे। नौकरी भी दोनों की एक ही शहर में लग गयी। दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं। शादी करना चाहते थे। पर हम लोगों ने सहमति नहीं दी। बस इतनी सी बात है। ”

पायल चुपचाप सासू माँ की बातें सुनती रही। कोई जवाब नहीं दिया। दोनों कुछ देर खामोश बैठे रहे। विनीता (सागर की माँ) ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा –

” कल तुझे पग फेरा के लिए मायका जाना है। उसकी तैयारी कर ले। सागर तुझे छोड़ आएगा। ”

दूसरे दिन पायल को उसका भाई लेने आया। मायका पहुँचते ही पायल अपनी भाभी से लिपटकर रोने लगी। घर में हंगामा मच गया। सारी बात जानने के बाद सीमा जोर – जोर से बोलने लगी -” मैंने तो पहले ही कहा था कि लड़के के बारे में पूरा पता करो। पर किसी ने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया।”… “मैं उसे छोड़ूँगा नहीं, जिसने मेरी बहन की जिंदगी बर्बाद की है। शारदा भी रोते हुए कहने लगी -” मैं अभी विनीता को फोन लगाती हूँ। ”

इतना सुनते ही पायल ने कहा –

” नहीं, कोई किसी को फोन नहीं करेगा। मैं किस माँ को दोष दूँ। जिसने मुझे जन्म दिया, या जो कुछ दिन पहले मेरी माँ बनी थी। मेरी दोनों माँ ने बस समाज और रिश्तेदारों की परवाह की। मेरे बारे में किसी ने नहीं सोचा। मम्मी हम आज के जमाने के बच्चे है। हम चाहते हैं कि हमारा जीवनसाथी हमारी सोच का हो। हम एक-दूसरे को समझे और उनका सम्मान करें। हम बगावत करना नहीं चाहते है। हम अपने माता-पिता की सहमति चाहते है। अगर आपकी पारखी नजर में ऋषि खरा नहीं उतरता तो मैं खुशी-खुशी आपकी बात मान लेती। पर आपने तो मेरी कोई बात ही नहीं सुनी। सबसे बड़ी बात कि आपने मेरी पढ़ाई छुड़ा कर मुझे अंदर से खोखला बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ा। अब मेरे लिए कोई कुछ नहीं करेगा। जो कुछ करूंगी, मैं खुद करूंगी। मैं पहले कॉलेज की परीक्षा और फिर बैंक नियुक्ति की परीक्षा दूँगी।”

सीमा दूर खड़ी पायल की बातें सुनकर मन ही मन खुश हो रही थी। वो पायल में यही हिम्मत देखना चाहती थी। आज उसे ऐसा लग रहा था कि कॉलेज में ” नारी सशक्तिकरण ” विषय पर हुए डिबेट में उसे जो शिल्ड मिला था। उसकी असली हकदार तो पायल जैसी लड़कियाँ है, जो इतना कुछ हो जाने के बाद भी इतना साहस दिखाती है।

पायल फिर पलटकर ससुराल नहीं गई। बैंक की परीक्षा पास करते ही उसने सागर से मिलकर इस शादी को खत्म करना चाहा। दोनों अपनी सहमति आपसी सहमति से अलग हो गए। पायल को बैंक में नौकरी करते हुए दो साल हो चुके थे। वो ऋषि को आज तक नहीं भूल पायी थी। आज अचानक बैंक में उसे देखकर पिछली सारी बातें चलचित्र की भांति उसकी आँखो के सामने घूमने लगे।

दूसरे दिन बैंक पहुँचते ही पायल ने देखा कि ऋषि बाहर उसका इंतजार कर रहा है। पायल को देखते ही उसने कहा – ” इतना कुछ हो गया, और तुमने मुझे बताया ही नहीं।”…

” क्या बताती? कुछ कहने को था ही नहीं।”
ऋषि कुछ देर तो पायल को निहारता रहा, फिर धीरे से बोला- “अगले महीने मेरी शादी होने वाली थी। मैं अपनी सगाई तोड़ कर आया हूँ। मेरे साथ चलोगी।”

पायल की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे रास्ते में उसने इतनी सारी बातें कह दी। उसकी आँखों से अश्रू बह रहे थे। जो उसकी सहमति प्रकट कर रहे थे।

शाम को ऋषि घर आया। अब पायल की मम्मी को कोई एतराज नहीं था। बल्कि पायल की पढ़ाई बीच में छुड़वाने का पछतावा था। वो मान गई। अब दोनों एक साथ नए सफर की ओर चल पड़े थे। जहाँ बाँहें फैलाए सतरंगी सपने उनका इंतजार कर रहे थे।

लेखिका : कल्याणी झा कनक

Family Story : कुरसी का करिश्मा – कभी आपने देखा है ऐसा करिश्मा

Family Story : दीपू के साथ आज मालिक भी उस के घर पधारे थे. उस ने अंदर कदम रखते ही आवाज दी, ‘‘अजी सुनती हो?’’

‘‘आई…’’ अंदर से उस की पत्नी कलावती ने आवाज दी.

कुछ ही देर बाद कलावती दीपू के सामने खड़ी थी, पर पति के साथ किसी अनजान शख्स को देख कर उस ने घूंघट कर लिया.

‘‘कलावती, यह राजेश बाबू हैं… हमारे मालिक. आज मैं काम पर निकला, पर सिर में दर्द होने के चलते फतेहपुर चौक पर बैठ गया और चाय पीने लगा, पर मालिक हालचाल जानने व लेट होने के चलते इधर ही आ रहे थे.

‘‘मुझे चौक पर देखते ही पूछा, ‘क्या आज काम पर नहीं जाना.’

‘‘इन को सामने देख कर मैं ने कहा, ‘मेरे सिर में काफी दर्द है. आज नहीं

जा पाऊंगा.’

‘‘इस पर मालिक ने कहा, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

‘‘देखो, आज पहली बार मालिक हमारे घर आए हैं, कुछ चायपानी का इंतजाम करो.’’

कलावती थोड़ा सा घूंघट हटा कर बोली, ‘‘अभी करती हूं.’’

घूंघट के हटने से राजेश ने कलावती का चेहरा देख लिया, मानो उस पर आसमान ही गिर पड़ा. चांद सा दमकता चेहरा, जैसे कोई अप्सरा हो. लंबी कदकाठी, लंबे बाल, लंबी नाक और पतले होंठ. सांचे में ढला हुआ उस का गदराया बदन. राजेश बाबू को उस ने झकझोर दिया था.

इस बीच कलावती चाय ले आई और राजेश बाबू की तरफ बढ़ाती हुई बोली, ‘‘चाय लीजिए.’’

राजेश बाबू ने चाय का कप पकड़ तो लिया, पर उन की निगाहें कलावती के चेहरे से हट नहीं रही थीं. कलावती दीपू को भी चाय दे कर अंदर चली गई.

‘‘दीपू, तुम्हारी बीवी पढ़ीलिखी कितनी है?’’ राजेश बाबू ने पूछा.

‘‘10वीं जमात पास तो उस ने अपने मायके में ही कर ली थी, लेकिन यहां मैं ने 12वीं तक पढ़ाया है,’’ दीपू ने खुश होते हुए कहा.

‘‘दीपू, पंचायत का चुनाव नजदीक आ रहा है. सरकार ने तो हम लोगों के पर ही कुतर दिए हैं. औरतों को रिजर्वेशन दे कर हम ऊंची जाति वालों को चुनाव से दूर कर दिया है. अगर तुम मेरी बात मानो, तो अपनी पत्नी को उम्मीदवार बना दो.

‘‘मेरे खयाल से तो इस दलित गांव में तुम्हारी बीवी ही इंटर पास होगी?’’ राजेश बाबू ने दीपू को पटाने का जाल फेंका.

‘‘आप की बात सच है राजेश बाबू. दलित बस्ती में सिर्फ कलावती ही इंटर पास है, पर हमारी औकात कहां कि हम चुनाव लड़ सकें.’’

‘‘अरे, इस की चिंता तुम क्यों करते हो? मैं सारा खर्च उठाऊंगा. पर मेरी एक शर्त है कि तुम दोनों को हमेशा मेरी बातों पर चलना होगा,’’ राजेश बाबू ने जाल बुनना शुरू किया.

‘‘हम आप से बाहर ही कब थे राजेश बाबू? हम आप के नौकरचाकर हैं. आप जैसा चाहेंगे, वैसा ही हम करेंगे,’’ दीपू ने कहा.

‘‘तो ठीक है. हम कलावती के सारे कागजात तैयार करा लेंगे और हर हाल में चुनाव लड़वाएंगे,’’ इतना कह कर राजेश बाबू वहां से चले गए.

कुछ दिन तक चुनाव प्रचार जोरशोर से चला. राजेश बाबू ने इस चुनाव में पैसा और शराब पानी की तरह बहाया. इस तरह कलावती चुनाव जीतने में कामयाब हो गई.

कलावती व दीपू राजेश बाबू की कठपुतली बन कर हर दिन उन के यहां दरबारी करते. खासकर कलावती तो कोई भी काम उन से पूछे बिना नहीं करती थी.

एक दिन एकांत पा कर राजेश बाबू ने घर में कलावती के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कलावती, एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए मालिक,’’ कलावती राजेश बाबू के हाथ को कंधे से हटाए बिना बोली.

‘‘जब मैं ने तुम्हें पहली बार देखा था, उसी दिन मेरे दिल में तुम्हारे लिए प्यार जाग गया था. तुम को पाने के लिए ही तो मैं ने तुम्हें इस मंजिल तक पहुंचाया है. आखिर उस अनपढ़ दीपू के हाथों

की कठपुतली बनने से बेहतर है कि तुम उसे छोड़ कर मेरी बन जाओ. मेरी जमीनजायदाद की मालकिन.’’

‘‘राजेश बाबू, मैं कैसे यकीन कर लूं कि आप मुझ से सच्चा प्यार करते हैं?’’ कलावती नैनों के बाण उन पर चलाते हुए बोली.

‘‘कल तुम मेरे साथ चलो. यह हवेली मैं तुम्हारे नाम कर दूंगा. 5 बीघा खेत व 5 लाख रुपए नकद तुम्हारे खाते में जमा कर दूंगा. बोलो, इस से ज्यादा भरोसा तुम्हें और क्या चाहिए.’’

‘‘बस… बस राजेश बाबू, अगर आप इतना कर सकते हैं, तो मैं हमेशा के लिए दीपू को छोड़ कर आप की हो जाऊंगी,’’ कलावती फीकी मुसकान के साथ बोली.

‘‘तो ठीक है,’’ राजेश ने उसे चूमते हुए कहा, ‘‘कल सवेरे तुम तैयार रहना.’’

दूसरे दिन कलावती तैयार हो कर आई. राजेश बाबू के साथ सारा दिन बिताया. राजेश बाबू ने अपने वादे के मुताबिक वह सब कर दिया, जो उन्होंने कहा था.

2 दिन बाद राजेश बाबू ने कलावती को अपने हवेली में बुलाया. वह पहुंच गई, तो राजेश बाबू ने उसे अपने आगोश में भरना चाहा, तभी कलावती अपने कपड़े कई जगह से फाड़ते हुए चीखी, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’

कुछ पुलिस वाले दौड़ कर अंदर आ गए, तो कलावती राजेश बाबू से अलग होते हुए बोली, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, यह शैतान मेरी आबरू से खेलना चाह रहा था. देखिए, मुझे अपने घर बुला कर किस तरह बेइज्जत करने पर तुल गया. यह भी नहीं सोचा कि मैं इस पंचायत की मुखिया हूं.’’

इंस्पैक्टर ने आगे बढ़ कर राजेश बाबू को धरदबोचा और उस के हाथों में हथकड़ी डालते हुए कहा, ‘‘यह आप ने ठीक नहीं किया राजेश बाबू.’’

राजेश बाबू ने गुस्से में कलावती को घूरते हुए कहा, ‘‘धोखेबाज, मुझ से दगाबाजी करने की सजा तुम्हें जरूर मिलेगी. आज तू जिस कुरसी पर है, वह कुरसी मैं ने ही तुझे दिलाई है.’’

‘‘आप ने ठीक कहा राजेश बाबू. अब वह जमाना लद गया है, जब आप लोग छोटी जातियों को बहलाफुसला कर खिलवाड़ करते थे. अब हम इतने बेवकूफ नहीं रहे.

‘‘देखिए, इस कुरसी का करिश्मा, मुखिया तो मैं बन ही गई, साथ ही आप ने रातोंरात मुझे झोंपड़ी से उठा कर हवेली की रानी बना दिया. लेकिन अफसोस, रानी तो मैं बन गई, पर आप राजा नहीं बन सके. राजा तो मेरा दीपू ही होगा इस हवेली का.’’

राजेश बाबू अपने ही बुने जाल में उलझ गए.

Constitution : सेक्युलरिज्म क्यों जरूरी है?

Constitution : कांग्रेस के लिए सेक्युलरिज्म का मतलब कुछ और है तो बीजेपी अपने तरीके से सेक्युलरिज्म की व्याख्या करती है. राजनीति के पक्षविपक्ष के खेल में आम जनता सेक्युलरिज्म को ले कर हमेशा भ्रमित ही रहता है. क्या है सेक्युलरिज्म की वास्तविकता? क्या यह भारत जैसे देश के लिए जरूरी है?

जब भी “सेक्युलरिज्म” की बात होती है कुछ लोगों के कान खड़े हो जाते हैं. तमाम राजनैतिक दल सेक्युलरिज्म शब्द को अपने हिसाब से परिभाषित करते हैं. दिनरात चलते टेलीविजन डिबेट्स ने तो सेक्युलरिज्म शब्द की गरिमा को लगभग नष्ट ही कर दिया है. यही कारण है कि कुछ लोग सेक्युलर होने को सिक्कुलर होना कहने लगे हैं. हिंदू धर्मगुरुओं को तो सेक्युलरिज्म से नफरत है ही सत्ताधारी दल की विचारधारा में भी सेक्युलरिज्म के लिए कोई जगह नहीं है.

क्या है सेकुलरिज्म?

 

बीजेपी के कई नेता कान्स्टिट्यूशन के प्रियम्बल में लिखे गए “सेक्युलर” शब्द को हटाने की बात करते हैं. पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने कान्स्टिट्यूशन के प्रियम्बल से “सेक्युलर” शब्द को हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. याचिका में कहा गया “1976 में 42वें संशोधन के जरिए संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द जोड़ा गया और इस बदलाव पर संसद में कभी बहस नहीं हुई इस वजह से “सेक्युलर” शब्द को संविधान की प्रस्तावना से हटा देना चाहिए.”

सुप्रीम कोर्ट में 20 अक्टूबर 2024 को कान्स्टिट्यूशन के प्रियम्बल से ‘सेक्युलर’ शब्द हटाने की मांग वाली इस याचिका पर सुनवाई के दौरान जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा “इस अदालत ने कई फैसलों में माना है कि सेक्युलरिज्म हमेशा से संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा रही है. अगर संविधान में समानता और बंधुत्व शब्द का इस्तेमाल किया गया है तो यह स्पष्ट संकेत है कि सेक्युलरिज्म संविधान की मुख्य विशेषता है.”

2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से ही सेक्युलर होने पर या सेक्युलरिज्म शब्द पर गहरी आपत्तियां दर्ज की जाती रही हैं. इस का कारण यह है कि बीजेपी हिंदुत्व की राजनीति करती है. बीजेपी इस देश के 80 फीसदी लोगों को हिंदू मानती है और इस बड़ी आबादी को वोटबैंक के रूप में हथियाने की कोशिश करती है.

इस के लिए हर वह हथकंडा अपनाती है जिस से 80 प्रतिशत हिंदुओं को बाकी के धर्मों से अलग किया जा सके. यही वजह है कि सेक्युलरिज्म शब्द बीजेपी की राजनीति में फिट नहीं बैठ पाता इसलिए बीजेपी सेक्युलर शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करती है और समयसमय पर कान्स्टिट्यूशन के प्रियम्बल से ही इस शब्द को हटाने का प्रोपगंडा करती नजर आती है.

कान्स्टिट्यूशन में सेक्युलरिज्म की अहमियत

कान्स्टिट्यूशन के प्रियम्बल में लिखा है “हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उस के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित हो कर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.”

दुनिया के किसी भी धार्मिक ग्रंथ में इतने उत्कृष्ट विचार देखने को नहीं मिलेंगे. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखी यह कुछ लाइनें दुनिया के सारे पवित्र ग्रंथों से कहीं ज्यादा पवित्र हैं. यह किताब भारत के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करने के साथ विचार अभिव्यक्ति धर्म और उपासना की स्वतंत्रता भी देती है.

जहां तमाम धर्मों के धर्मग्रंथ सिर्फ अपने कुछ खास लोगों को ही इंसान मानते हैं वहीं भारत का कान्स्टिट्यूशन न्याय की कसौटी पर भारत के तमाम इंसानों को बराबर मानता है और व्यक्ति की गरिमा को महत्व देता है.

भारत का कान्स्टिट्यूशन, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने की बात करता है.

अलगअलग पंथ, मत, विचारधारा, धर्म, परंपराओं और मान्यताओं के होते हुए भारत के समस्त नागरिकों के बीच बंधुता कैसे कायम हो? और नागरिकों के बीच बंधुता नहीं होगी तो राष्ट्र की एकता कैसे कायम रह सकती है? कान्स्टिट्यूशन में इस के लिए ही “सेक्युलर” शब्द का प्रयोग किया गया है.

यह सच है कि 42वें संविधान संशोधन के बाद भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया, लेकिन संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद मौजूद हैं जो कान्स्टिट्यूशन के बनने के समय से मौजूद हैं जिन के आधार पर भारत को एक सेक्युलर देश कहा जाता है.

संविधान में भारत का कोई धर्म घोषित नहीं किया गया है और न ही किसी खास धर्म का समर्थन किया गया है. संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत में सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि से समान होगें और धर्म, जाति अथवा लिंग के आधार पर उन के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा.

अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव पर पाबंदी लगाई गई है. अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक रोजगार के क्षेत्र में सब को एक समान अवसर प्रदान करने की बात की गई है.

इस के साथ भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता का मूल अधिकार भी प्रदान किया गया है. अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को अपने धार्मिक विश्वास और सिद्धांतों का प्रसार करने का अधिकार दिया गया है.

अनुच्छेद 26 धार्मिक संस्थाओं की स्थापना का अधिकार देता है. अनुच्छेद 27 के अनुसार नागरिकों को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की स्थापना या पोषण के बदले में कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. अनुच्छेद 28 के द्वारा सरकारी शिक्षण संस्थाओं में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दिए जाने का प्रावधान किया गया है. संविधान के अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यक समुदायों को अपने शैक्षणिक संस्थान खोलने एवं उन का प्रशासन करने का अधिकार दिया गया है.

सेक्युलरिज्म को समझना क्यों जरूरी है?

अकसर लोग सेक्युलरिज्म का हिंदी अर्थ “धर्मनिरपेक्षता” से करते हैं और इसे धार्मिक आजादी का मामला समझ लेते हैं. यहीं से प्रोपगैंडा शुरू हो जाता है. ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि इस शब्द का कोई सटीक हिंदी पर्यावाची शब्द है ही नहीं. सेक्युलरिज्म का हिंदी अनुवाद करना ही हो तो यह धर्मनिरपेक्षता की बजाए पंथनिरपेक्षता के ज्यादा करीब होगा.

दोनों में बुनियादी अंतर है. आप इस बात को इस तरह समझ सकते हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता की अपेक्षा पंथवाद या इज्म की स्वतंत्रा ज्यादा महत्वपूर्ण होती है. एक ही धर्म में अनेकों पंथ विचारधाराएं या इज्म मौजूद हो सकते हैं इसलिए धर्म की स्वतंत्रता से पहले पंथ की स्वतंत्रा ज्यादा महत्व रखती है.

मान लीजिए एक संयुक्त परिवार है जिस में बहुत सारे लोग रहते हैं लेकिन धर्म को ले कर सब की राय एक जैसी नहीं है. कोई प्रतिदिन पूजा करता है. कोई साल में एकाध बार ही मंदिर जाता है. किसी को मांस पसंद है. कोई शाकाहारी है. किसी को रंगों से प्यार है तो किसी को रंगों से एलर्जी है. कोई पुराने गाने पसंद करता है. किसी को नए गाने अच्छे लगते हैं. ऐसे परिवार को एक डैमोक्रेटिक परिवार तभी माना जाएगा जब यहां सभी को अपने तरीके से जीने की आजादी हासिल होगी.

इसी को सही मायने में एक सेक्युलर परिवार कहा जा सकता है. यहां समस्या तब आएगी जब परिवार का मुखिया धर्म को परिवार पर थोपने लगे या परिवार के कुछ खास सदस्यों को दूसरों से ज्यादा तरजीह देने लगे या किसी के इज्म को बढ़ावा देते हुए किसी की विचारधारा के खिलाफ खड़ा हो जाए.

ऐसे में यह परिवार अपने सेक्युलर होने की पहचान तो खोएगा ही साथ ही यह अपनी डैमोक्रेसी को भी खो देगा क्योंकि सेक्युलरिज्म किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी होती है.

सेक्युलरिज्म यह कोई मामूली शब्द भर नहीं है बल्कि अपनेआप में संपूर्ण दर्शन है. सेक्युलरिज्म वह दर्शन है जो धर्म के नाम पर करोड़ों लोगों की मौत के बाद शांति सौहार्द प्रेम सहिष्णुता और परस्पर सहयोग के रूप में आस्तित्व में आया.

सोलहवीं सदी तक पूरा यूरोप कैथोलिक चर्च के द्वारा कंट्रोल होता था. चर्च इतना ताकतवर हो चुका था कि कोई भी राजा सीधे तौर चर्च के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था. 1522 में मार्टिन लूथर के नेतृत्व में चर्च के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ.

मार्टिन का यह आंदोलन राजा हेनरी के समर्थन के बाद इतना ताकतवर हुआ कि चर्च के खिलाफ पूरे यूरोप में बगावत शुरू हो गई और अगले 200 वर्षों तक यह लगातार जारी रहा. इस में सब से ज्यादा तबाही 1618 से 1648 के बीच हुई जिसे “थर्टी इयर्स वौर” भी कहा जाता है. 30 साल लंबी इस लड़ाई में तकरीबन 80 लाख ईसाई आपस में लड़लड़ कर खत्म हो गए. इस बीच यूरोप में कोई तरक्की नहीं हुई.

धर्म की इस लड़ाई में ज्ञानविज्ञान प्रगति और मानवता के लिए कोई जगह बची ही नहीं थी. आखिरकार जब लड़लड़ कर पूरा यूरोप तबाह हो गया तब लोगों को सूझी की धर्म और सत्ता का गठजोड़ सिर्फ और सिर्फ बरबादी ही दे सकता है इसलिए दोनों का सैपरेशन जरूरी है यहीं से “सैपरेशन औफ रिलीजन फ्रौम स्टेट” के विचार का उदय हुआ.

30 जनवरी 1648 को फ्रांस, डेनमार्क और स्वीडन और रोमन कैथोलिक स्टेट के तमाम छोटीबड़ी रियासतों के बीच एक समझौता हुआ जिसे “ट्रीटी औफ वेस्ट फेलिया” कहते हैं. इस समझौते के अनुसार यूरोपियन महाद्वीप के तमाम देशों ने यह तय किया कि धर्म का रिलीजन से कोई संबंध नहीं होगा.

यहीं से सेक्युलर स्टेट का कान्सेप्ट दुनिया को मिला. जिसपर चलते हुए जल्द ही यूरोप में पुनर्जागरण या “एनलाइटमेंट” का दौर शुरू हुआ. इस की बदौलत ही यूरोप साइंस ह्यूमैनिटी फिलौसफी और राजनीति का सब से ताकतवर केंद्र बन पाया और दुनिया ने वह सब कुछ हासिल किया जिसे आज हम ह्यूमैनिटी डैमोक्रेसी साइंस और टैक्नोलौजी कहते हैं.

बर्मिंघम के जार्ज जेकब हालीयाक ने सन् 1846 में सेक्युलरिज्म शब्द को परिभाषित करते हुए लिखा था, “सत्ता द्वारा आस्तिकता नास्तिकता धर्म और धर्मग्रंथों में उलझे बगैर मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक एवं बौद्धिक स्वभाव को मानवता के उच्चतम बिंदु तक विकसित करने के लिए स्थापित किया गया न्याय ज्ञान और सेवा का दर्शन ही सेक्युलरिज्म है.”

आज पूरी दुनिया के लगभग सभी देश जार्ज जेकब के इसी सेक्युलर मूल्यों पर चलते हैं.

यूरोप, अमेरिका, कनाडा, रशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका जैसे तमाम देशों ने सेक्युलरिज्म को अपने देश और समाज का अभिन्न हिस्सा बनाया है क्योंकि उन्हें मालूम है कि एक बेहतर सामाजिक व्यवस्था की कल्पना सेक्युलरिज्म के बिना अधूरी है.

सेक्युलरिज्म डैमोक्रेसी की रीढ़ की हड्डी है इस के बिना लोकतंत्र का वजूद ही नहीं. यही कारण है कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के वे कट्टर लोग भी पश्चिम की ओर भागते हैं जो अपने देश में सेक्युलरिज्म को दिनरात कोसते हैं.

पाकिस्तान और बांग्लादेश के जो मुल्लामौलवी उलेमा दिनरात सेक्युलर लिबरल लोगों को गालियां बकते हैं वही लोग पश्चिम के सेक्युलरिज्म की बदौलत वहां बड़ीबड़ी मसजिदें खड़ी कर रहे हैं. इसी सेक्युलरिज्म की बदौलत ही भारतीय उपमहाद्वीप से हर साल हजारों परिवार पश्चिम में जा कर बस जाते हैं और वहां का हिस्सा हो जाते हैं.

पिछले 20 सालों में केवल यूरोप के अंदर भारत के 300 से ज्यादा धार्मिक संस्थानों ने अपने कार्यालय खोले हैं. 135 से ज्यादा इस्कौन टेम्पल, 300 से ज्यादा मसजिदें और 167 मदरसे यह सब इसलिए नहीं की वे दूसरे धर्म से प्रभावित होते हैं बल्कि इसी सेक्युलरिज्म की बदौलत ही इसलाम और हिंदुत्व जैसे धर्म अपने धार्मिक प्रोपगैंडों को वहां स्थापित कर पा रहे हैं.

सेक्युलरिज्म का दूसरा पहलू भी है जिस की वजह से सेक्युलरिज्म आज पूरी दुनिया में अपनी उपयोगिता खोता जा रहा है. जबतक सेक्युलरिज्म पंथनिरपेक्षता का पर्यायवाची बना रहता है यह लोकतंत्र और मानवता के लिए सब से उपयोगी दर्शन होता है लेकिन जैसे ही यह अपना वास्तविक मूल्य पंथनिरपेक्षता को छोड़ कर धर्मनिरपेक्ष हो जाता है समस्याएं खड़ी होनी शुरू हो जाती हैं क्योंकि तब यह पंथवाद या इज्म की आजादी के बजाए सीधे तौर पर धार्मिक आजादी देना शुरू कर देता है.

यूरोप का सेक्युलरिज्म जैसे ही धार्मिक आजादी की ओर गया इस का नाजायज फायदा उठाते हुए इसलाम ने वहां अपनी जड़ें कायम करनी शुरू कर दीं. इस का नुकसान यह हुआ कि इसलाम के रिएक्शन में दूसरे सोए हुए धार्मिक गिरोहों को भी मौका मिल गया और वे भी सेक्युलरिज्म के नाम पर मिली आजादी से उदंडता की ओर निकल पड़े हैं.

सेक्युलरिज्म लोकतंत्र और मानवता के लिए एक उत्कृष्ट दर्शन तभी है जब यह पंथनिरपेक्ष बना रहे लेकिन सेक्युलरिज्म जब धर्मनिरपेक्षता का पर्यायवाची हो जाता है तब यह खुद में एक समस्या बन जाता है.

सेक्युलरिज्म के बारे में मीडिया और राजनीति द्वारा गढ़ी गई तमाम गलतफहमियों को दिमाग से निकाल कर फेंक दीजिए क्योंकि सेक्युलरिज्म के बिना कोई भी लोकतंत्र बचेगा ही नहीं. हमें पंथनिरपेक्षता के रूप में सेक्युलरिज्म को बचाने की दिशा में काम करना चाहिए ताकि लोकतंत्र जिंदा रह सके.

सेक्युलरिज्म से जनता का कितना फायदा?

सेक्युलरिज्म का मतलब यह भी है कि देश की सरकार जनता से लिया गया टैक्स का पैसा अपने द्वारा समर्थित धर्म पर खर्च नहीं करेगी और न ही अपने धर्म को सुविधा देने के लिए कोई कानून बनाएगी लेकिन सेक्युलरिज्म का इस्तेमाल सभी राजनैतिक दल और सत्ताधारी पार्टी अपने अनुरूप करते आए हैं.

कांग्रेस ने सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलिम तुष्टिकरण की नीति अपनाई. शाहबानो जैसे कई मामलों में कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति साफ दिखाई देती है जब कांग्रेस ने मुसलमानों को खुश करने के लिए कानून बनाने का सहारा लिया. 2014 के बाद बीजेपी सत्ता में आई और उस ने कांग्रेस से उलट बहुसंख्यक हिंदुओं के तुष्टिकरण की नीति अपनाई. हिंदू तुष्टिकरण की इसी नीति के तहत बीजेपी सरकार तीन तलाक और राममंदिर जैसे मुद्दों को खड़ा करती रही है.

2025 की शुरुआत महाकुंभ के विशाल आयोजन से हुआ जिस में उत्तर प्रदेश सरकर ने लगभग 7,000 करोड़ रुपए से ज्‍यादा का बजट आवंटित किया. 2018 तक हज सब्सिडी के नाम पर मुसलमानों को हर साल करोड़ों रुपयों की सब्सिडी दी जाती रही. दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों में “मुख्यमंत्री तीर्थ यात्रा” जैसी योजनाएं हैं जिस में 60 साल से ऊपर के लोगों को सरकारी रुपयों से तीर्थ यात्रा करवाई जाती है. जिस देश पर 2 लाख करोड़ का विदेशी कर्ज हो वहां धर्म के नाम पर इतनी फिजूलखर्ची किसी भी रूप में जायज नहीं.

जिस देश में 80 प्रतिशत जनता 5 किलो राशन पर गुजारा करती हो वहां जनता के टैक्स के पैसों से धर्म को भरपूर पोषण दिया जाए यह देश का दुर्भाग्य ही है साथ ही यह भारत के सेक्युलरिज्म की सब से बड़ी खामी भी है.

भारतीय कान्स्टिट्यूशन के प्रियम्बल के अनुसार भारत एक पंथनिरपेक्ष यानी सेक्युलर देश हैं लेकिन भारतीय सेक्युलरिज्म पश्चिमी देशों के सेक्युलरिज्म से अलग है. पश्चिमी देशों का सेक्युलरिज्म धर्म और सत्ता को पूरी तरह अलग रखता है. वहीं भारत में यह सभी धर्मों का सम्मान करने की वकालत करता है.

अब सरकार को अगर धर्म का सम्मान ही करना है तो वह कैसे करे? यह सरकारी सम्मान धार्मिक आयोजनों पर जनता के टैक्स का पैसा लुटाकर ही संभव है.

तिरुपति बालाजी जैसे सैंकड़ों मंदिरों में हर साल अरबों रुपए दान के रूप में इकट्ठा होते हैं जिन का उपयोग जनता के हितों में कम और मंदिरों के ट्रस्ट के कामों में ज्यादा होता है. ऐसे मंदिरों के कलैक्शन में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता. यह धन जनता का ही होता है लेकिन जनता के हितों में इस्तेमाल नहीं होता. कुछ मंदिरों ने धर्मशाला और अस्पताल जैसी व्यवस्थाएं उपलब्ध करवाई हैं लेकिन यह सब सिर्फ दिखावे के लिए होता है.

भारत को छोड़ कर किसी भी सेक्युलर देश में किसी भी धर्म को इतनी छूट नहीं दी जाती की वह अपनी मनमानी कर सके. वहां सार्वजनिक जगहों पर कब्जा कर कोई भी धार्मिक स्थल नहीं बनाया जा सकता लेकिन भारत में हर सड़क, फुटपाथ, पार्क और गलीमहल्ले में सरकारी जमीनों को कब्जा कर छोटेबड़े धर्मस्थल बनाए गए हैं. यह भी सेक्युलरिज्म के नाम पर धर्मों का सम्मान करने की नीति का दुष्परिणाम ही है.

धर्म के नाम पर लाखों संस्थाएं काम कर रहीं है और ये धार्मिक संस्थाएं सेक्युलरिज्म की सरकारी नीतियों का फायदा उठा कर करोड़ों रुपयों का अनुदान प्राप्त करती हैं. अगर सरकार सेक्युलरिज्म की वास्तविक नीतियों पर चलने लगे और किसी भी धर्म को बढ़ावा देने की राजनीति न करे तो यह देश बहुत सी समस्याओं से मुक्त हो जाएगा लेकिन ऐसा होने पर सत्ताधारी पार्टी के लाखों समर्थक अगली सुबह कंगाल हो जाएंगे.

विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण के 2023 के आंकड़ों के अनुसार भारत की लगभग 74% आबादी स्वस्थ आहार नहीं ले पाती और 39% आबादी को तो भूखे पेट सोना पड़ता है.

वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हैंगर इंडेक्स) 2023 के अनुसार 2023 में भारत का वैश्विक भुखमरी स्कोर 28.7 रहा. जो सेवेरिटी औफ हंगर स्केल के अनुसार गंभीर स्थिति है. भारत के 35.5% बच्चे स्टंटिंग से पीड़ित हैं. 19.3% बच्चे वेस्टिंग से पीड़ित हैं. 32.1% बच्चे कम वजन के हैं. 57% बच्चे विटामिन A की कमी से पीड़ित हैं.

75% बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं. भारत की 18.7% महिलाएं कुपोषण से पीड़ित हैं. 57% महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. भारत की लगभग 14.37% आबादी कुपोषित है. भारत में लगभग 30% लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करते हैं. वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) 2022 में भारत 107वें स्थान पर था, जो भारत की गंभीर स्थिति को दर्शाता है.

अगर सरकारें सेक्युलरिज्म के नाम पर धार्मिक तुष्टिकरण की राजनीति से ऊपर उठ कर काम करें तो इस देश का कायाकल्प होते देर नहीं लगेगी. जनता के टैक्स के पैसों का धर्म के नाम पर नाजायज उपयोग नहीं होगा और धर्म के नाम पर नफरत की घिनौनी राजनीति भी समाप्त हो जाएगी.

Romantic Story : प्रीत पावनी – मोहित के बारे में क्या जान गई है महक?

Romantic Story : महकअपनी ही मस्ती में झूमती, गुनगुनाती चली आ रही थी. अपार खुशी से उस का मन गुलाब की तरह खिल उठा था. वह मोहित से मिल कर जो आ रही थी. मोहित, जिस के लिए बचपन से उस का दिल धड़कता था. जब वह मात्र 10 वर्ष की थी, तब मोहित उस के पड़ोस में रहने आया था. उस के और मोहित के परिवार में अच्छी दोस्ती हो गई थी.

एक दिन मोहित की मम्मी ने मजाक में कह दिया, ‘‘महक तो सचमुच बड़ी प्यारी है. इसे तो मैं अपने घर की बहू बनाऊंगी.’’

बस फिर क्या था, सब हंस दिए थे. मोहित और महक तो मारे शर्म के लाल हो गए थे.

‘‘मुझे शादी ही नहीं करनी,’’ कहते हुए महक अपने घर भाग गई.

मगर यह बात यहीं समाप्त नहीं हुई थी. तभी से मोहित और महक के मन में प्रेम का बीज आरोपित हो गया था. यह बीज समय के साथ धीरेधीरे पनपने लगा था और फिर प्रीत का एक हराभरा वृक्ष बन कर तैयार हो गया था. बचपन दोनों का साथ खेलते बीता था.

12वीं कक्षा के बाद मोहित मैडिकल की पढ़ाई करने के लिए लखनऊ चला गया. दूर रहने पर भी दोनों अनकहे प्रेम की मधुर डोर से बंधे रहे थे. जब मोहित रुड़की आता तो दोनों सारा दिन साथ ही गुजारते. ऐसा लगता जैसे महक और मोहित दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं. महक तो मोहित के प्यार में राधा की तरह दिनरात डूबी रहती थी.

मोहित की मैडिकल की पढ़ाई पूरी होने पर एक दिन मोहित और महक बगीचे में हरसिंगार के वृक्ष के नीचे बैठे थे. तभी मोहित ने महक को बड़े सीधे शब्दों में प्रोपोज करते हुए कहा, ‘‘महक, क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

महक के गाल शर्म से लाल हो गए. वह नजर नीची किए मुसकरा रही थी. बिना कुछ बोले ही महक ने आंखों ही आंखों में स्वीकृति दे दी थी. हवा के एक झोंके के साथ हरसिंगार के कुछ फूल उन के ऊपर आ गिरे. महकते हुए फूलों से उन की प्रीत महक उठी. प्रकृति भी उन दोनों को मानो आशीर्वाद दे रही थी.

महक अपने प्रेम के विषय में अपने मातापिता को सबकुछ सच बता देना चाहती थी. उसे पूरी आशा थी कि उस के मातापिता भी उस के निर्णय से बहुत खुश होंगे, क्योंकि मोहित था ही इतना प्यारा और व्यवहारकुशल.

अनेक सपने संजोती हुई वह घर पहुंची ही थी कि उस के पिता सुरेंद्रजी का फोन आ गया. उन्होंने महक से कहा, ‘‘बेटा, मेरी अलमारी में एक ब्लू फाइल रखी है उसे निकाल कर ड्राइवर को दे दो. तुम्हारी मां अभी कहीं गई हुई हैं.’’

‘‘जी पापा,’’ महक ने कह वह अलमारी में फाइल ढूंढ़ने लगी. फाइल ढूंढ़ते समय उसे एक फाइल पर अपना नाम दिखाई दिया. वह थोड़ा रुकी. उस ने वह फाइल ड्राइवर को दे दी, पर अपने नाम की फाइल के विषय में उस की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी. उसे लगा ऐसे चोरी से पापा के पेपर देखना गलत है, पर वह अपने मन को न रोक सकी.

उस ने अलमारी से वह फाइल निकाली और देखने लगी. इस में एक पुराने मुकदमे के पेपर्स थे, जिन में पीडि़ता का नाम महक लिखा था और अभियुक्त कोई जोगेंद्र सिंह था. स्तब्ध सी वह बारबार उलटपलट कर कागजात देख रही थी. उस फाइल से उसे पता चला कि जब वह मात्र 3 वर्ष की थी तब उस अपराधी ने उस के साथ दुष्कर्म किया था. उस का दिल धक से रह गया. महक की सारी खुशी काफूर हो गई थी.

उसे इस फाइल पर विश्वास नहीं हो रहा था. उसे लगा कोई और महक होगी, पर पीडि़ता के मातापिता का नाम लिखा था. उसी के मातापिता का नाम था. उस के हाथपैर कांपने लगे थे. वह जमीन में बैठ कर जोरजोर से रोने लगी. उस की आंखों के समाने अंधेरा छा गया. उस ने अपने शरीर को कभी मोहित को भी छूने की इजाजत नहीं दी थी. फिर वह कौन दुष्ट था, जिस ने उसे दूषित किया? उसे अपनेआप से नफरत होने लगी थी.

उस के प्यार के हरेभरे वृक्ष पर अचानक बिजली गिर पड़ी और लहलहाते वृक्ष के पत्ते और टहनियां जल उठीं. उसे लगा कि वह अब अपने प्यारे मोहित के योग्य ही नहीं रही. उसे अपने ही शरीर से घिन हो रही थी. अपनी जिस पावनता पर उसे फख्र था, वही आज न जाने कहां गायब हो गई थी. महक रोतेरोते उस फाइल को देख रही थी.

तभी उस ने डाक्टर का भी एक नोट पढ़ा, जिस में लिखा था, ‘‘अंदरूनी चोट के कारण महक अब कभी मां नहीं बन सकेगी.’’

महक को अपनी दुनिया समाप्त होती नजर आने लगी थी. उसे अपनी जिंदगी व्यर्थ लगने लगी थी. वह सोच रही थी कि आखिर किस के लिए और क्यों जीएं? उसे ऐसा लग रहा था जैसे उस का सबकुछ लुट गया हो. वह बहुत देर तक रोती रही. जब उस की मां मनीषा घर आईं, तो उन्होंने उस के हाथ में वह फाइल देखी. उन्हें पूरी स्थिति समझते देर नहीं लगी. वे उसे उठाते हुए बोलीं, ‘‘उठ बेटा.’’

महक जोरजोर से चिल्लाने लगी, ‘‘मुझे हाथ मत लगाओ, मैं गंदी हूं.’’

मां ने उसे बहुत समझाया, ‘‘बेटा, इस में तुम्हारा क्या दोष है?’’

महक को एक गहरा आघात पहुंचा था. उस राक्षस की कल्पना मात्र से वह बुरी तरह डर गई थी. महक अपनी मां के सीने से चिपक कर रोए जा रही थी. दोनों मांबेटियों के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे.

कुछ देर बाद पिता भी घर आ गए पर महक ने अपनेआप को एक कमरे में बंद कर लिया था. उस में पिता का सामना करने की हिम्मत नहीं थी. पिता को जब सारी बात पता चली तो उन के पैरों के नीचे से जमीन सरक गई. जिस सत्य को उन्होंने इतने वर्षों से छिपा रखा था, आज वह महक के सामने अचानक प्रकट हो गया. सुरेंद्र इस सच को आजीवन महक से छिपाना चाहते थे ताकि उन की फूल सी बच्ची को कभी आघात न पहुंचे. उन्हें अपने ऊपर बहुत क्रोध आ रहा था कि क्यों उन्होंने महक से फाइल देने के लिए कहा, पर होनी को कौन टाल सकता है?

महक इस आघात से बहुत परेशान हो गई. वह बहुत उदास हो गई. न किसी से बात करती और न किसी के सामने आती.

दूसरे दिन मोहित उस के घर आया. मनीषा ने महक का दरवाजा खटखटाते हुए कहा, ‘‘महक, देख तो मोहित आया है.’’

पहले तो महक ने कोई जवाब नहीं दिया पर मां के बारबार खटखटाने पर उस ने कह दिया, ‘‘मेरा सिर दुख रहा है. मैं दवा खा कर सो रही हूं.’’

निराश मोहित घर लौट गया और महक तकिए में मुंह छिपा कर रोती रही. पूरा तकिया आंसुओं से भीग गया. उस का रोना बंद ही नहीं हो रहा था.

महक की हालत देख कर मनीषा बहुत दुखी थीं. उन की आंखों के सामने वह पुरानी घटना चित्रवत घूमने लगी…

एक दिन जब वे नन्ही महक को एक पार्क में ले गई थीं तब कुछ पलों के लिए वे महक को अकेला छोड़ कर उस के लिए गुब्बारा लेने चली गईं. बस उसी समय महक को कोई चुरा ले गया. मनीषा चिंतित सी उसे सब जगह ढूंढ़ती रहीं. सुरेंद्र भी अपनी बच्ची को ढूंढ़ने के लिए तुरंत वहां पहुंच गए. पुलिस में भी रिपोर्ट लिखवा दी. मातापिता का रोरो कर बुरा हाल हो गया था.

सुबह से दोपहर हो गई पर महक का कोई पता नहीं चल रहा था. बहुत देर बाद अचानक पार्क के एक कोने में खून से लथपथ महक अचेतावस्था में पड़ी मिली. उसे देख

कर मातापिता को समझते देर नहीं लगी कि उस के साथ क्या हुआ है. वे उसे डाक्टर के पास ले गए.

डाक्टर ने कहा, ‘‘इतनी छोटी बच्ची के साथ किसी ने बड़ी निर्दयता से दुष्कर्म किया है. मुझे यह बताते हुए बहुत अफसोस है कि अब यह बच्ची कभी मां नहीं बन सकेगी.’’

मातापिता के दुख और क्रोध का कोई ठिकाना नहीं था. सुरेंद्र ने तभी प्रण कर लिया कि अपराधी को उस के किए की सजा अवश्य दिलाएंगे.

कुछ समय बाद वह अपराधी पुलिस की गिरफ्त में आ गया था. उसे जेल में डाल दिया गया. फिर मुकदमे की तारीखें चलती रहीं. सुरेंद्र को बहुत परेशानी झेलनी पड़ी, पर उन्होंने अपराधी को सजा दिलवाने की ठान रखी थी. सालों कोशिश करने पर भी मुकदमे का निर्णय न होने से कभीकभी तो मनीषा और सुरेंद्र बहुत निराश हो जाते थे.

अंतत: उन के लिए वह दिन बड़े ही संतोष और चैन का दिन था, जब नाबालिग बच्ची के साथ ऐसा कुकृत्य करने वाले उस अपराधी को सजा ए मौत सुनाई.

सुरेंद्र और मनीषा महक को इन सब बातों से दूर रखना चाहते थे. अत: उन्होंने अलीगढ़ शहर छोड़ कर रुड़की में रहना शुरू कर दिया था.

मनीषा अपनी ही दुनिया में खोई हुई थी कि अचानक घंटी बज उठी. उस ने देखा दरवाजे पर मोहित खड़ा था.

‘‘आओ बेटा,’’ मनीषा ने उसे अंदर आने को कहा.

मोहित को देखते ही महक उठ कर चुपचाप अपने कमरे में चली गई. मोहित महक के बदले व्यवहार से बहुत आश्चर्यचकित था. उसे महक का उदास चेहरा परेशान कर रहा था. वह सोच रहा था कि महक 2 दिन पहले तो कितनी खुश थी, कितनी चहक रही थी, फिर ऐसा क्या हो गया कि वह इतनी उदास हो गई

है? मुझ से बात क्यों नहीं कर रही है?

फिर उस ने मनीषा से पूछा, ‘‘आंटी, क्या बात है महक इतनी बुझीबुझी क्यों है? मुझ से मिलती क्यों नहीं है?’’

मनीषा मोहित की परेशानी समझ रही थीं. वे मन ही मन मोहित और महक के प्यार के विषय में भी जानती थीं, हालांकि मोहित और महक ने उन्हें अपने प्यार के विषय में कभी नहीं बताया था. पर मां तो आखिर मां होती है. वह तो आंखों की भाषा से ही सबकुछ समझ जाती है.

मनीषा जानती थीं कि मोहित ही महक को इस अंधेरे से निकाल सकता है. अत: उन्होंने मोहित को महक के जीवन में घटित घटना के बारे में संक्षेप में बताते हुए कहा, ‘‘मोहित, तुम महक के बहुत अच्छे मित्र हो. मेरा विश्वास है कि तुम ही उसे इस कठिन स्थिति से निकाल सकते हो.’’

मोहित ने पूरी घटना सुनी. उस के तनबदन में आग लग गई. उस की जान महक के साथ यह कैसा बहशीपन? उस ने अपनेआप को संयत करने का प्रयास किया. वह महक से बात करने की कोशिश करने लगा, पर महक तो अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकलती. वह 1 महीने तक कोशिश करता रहा.

महक के मातापिता भी उसे समझासमझा कर परेशान हो गए पर उसे उस सदमे से बाहर लाने में असमर्थ रहे. डिप्रैशन बढ़ता ही जा रहा था. सुरेंद्र और मनीषा उसे मनोवैज्ञानिक के पास भी ले गए पर कोई आशाजनक सुधार नहीं हुआ.

मोहित इस बिगड़ी स्थिति से बहुत परेशान हो गया था. महक का दर्द उसे अंदर तक व्यथित कर देता. वह महक को भरपूर प्यार दे कर वापस अपनी दुनिया में लाना चाहता था.

एक दिन जब घर में सुरेंद्र और मनीषा नहीं थे, तब मोहित का महक से आमनासामना हो गया. मोहित ने उस का हाथ पकड़ लिया. बोला, ‘‘महक प्लीज…’’

महक अपना हाथ छुड़ा कर भागने लगी. उस की आंखों से टपटप आंसू बह रहे थे. पर मोहित उस का रास्ता रोक कर खड़ा हो गया. कहने लगा, ‘‘महक तुम मुझ से बात क्यों नहीं कर रहीं? मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.

तुम्हारी यह उदासी मेरी जान ले लेगी. तुम ही मेरी जिंदगी हो.’’

महक कुछ नहीं बोली. वह तो बस लुटी सी रोती रोती जा रही थी.

मोहित ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ ही जीवन के सारे सपने पूरे करना चाहता हूं. तुम्हारे बिना तो मैं जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’

महक फूटफूट कर रोने लगी, मोहित,

मैं तुम्हारे काबिल नहीं हूं. किसी के गंदे हाथों ने मुझे…’’

मोहित ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया और कहने लगा, ‘‘बस महक, कुछ मत बोलो. मुझे सब पता है. मनीषा आंटी ने मुझे सब बता दिया है.’’

महक की हिचकियां और तेज हो गईं. वह मोहित को फटीफटी आंखों से देख रही थी.

फिर बोली, ‘‘मोहित, मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकती. मैं मां भी नहीं बन सकती. मेरा जीना बेकार है. प्लीज मुझे भूल जाओ. अपनी नई दुनिया बसा लो.’’

मोहित ने उसे एक प्यार की झप्पी दी और कहा, ‘‘महक, मुझे कुछ नहीं चाहिए. अगर तुम मेरे साथ हो तो दुनिया की सारी खुशियां मेरे साथ हैं. क्या तुम मुझे अपने से अलग कर के मुझे दुखी देखना चाहती हो? अपनी जान से दूर रह कर मैं कैसे जिंदा रह पाऊंगा?’’

महक मोहित के पास खड़ी रोती रही.

फिर बोली, ‘‘मोहित तुम से शादी कर के मेरा मन मुझे कचोटता रहेगा. मुझे हमेशा ऐसा लगेगा जैसे मैं ने तुम्हें जूठी पत्तल दी. मैं अपवित्र हूं.’’

मोहित ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘तुम कैसे अपवित्र हो सकती हो? अपवित्र, मक्कार दुष्ट तो वह राक्षस है, जिस ने तुम्हारे साथ यह दुष्कृत्य किया था. वह दुष्ट, जिस ने शिशु

कन्या को भी नहीं छोड़ा… वह सब से बड़ा दानव है. तुम अपने को क्यों कोस रही हो? तुम परमपवित्र हो.’’

‘‘ये सब तुम मुझे झूठी सांत्वना देने के लिए कह रहे हो न? मुझे तुम्हारी दया नहीं चाहिए. अब तो मैं तुम्हें बच्चा भी नहीं दे सकती… तुम्हें तो बच्चे इतने पसंद हैं,’’ महक ने तीखे स्वर में कहा. उस की आंखें रोतेरोते लाल हो गई थीं. उस की कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उस का भविष्य क्या होगा.

मोहित ने उसे पुन: समझाया, ‘‘महक, तुम चिंता मत करो. हम कोई बच्चा गोद ले लेंगे या फिर सैरोगेट मदर से बच्चा पैदा कर लेंगे. आज के विज्ञान के युग में बहुत कुछ संभव हो सकता है. हम मातापिता जरूर बनेंगे. बस तुम मेरी खुशी के लिए पहले जैसी बन जाओ. मैं तुम्हें ऐसे उदास नहीं देख सकता.

अंकल और आंटी भी कितने परेशान हैं. प्लीज, तुम अपनी सोच बदलो. मुझे अपनी

पहले वाली हंसमुख, चुलबुली, प्यारी सी महक चाहिए. अपनी महक से मिलने के लिए मैं बेचैन हूं.’’

मोहित कई दिनों तक महक को समझाता रहा. मोहित घर आता फिर मनीषा से पूछता, ‘‘आंटी, मैं महक को अपने साथ घुमाने ले जाऊं?’’

मनीषा भी सहर्ष उसे मोहित के साथ भेज देतीं. मनीषा और सुरेंद्र को मोहित से बहुत आशा थी.

मोहित हर दिन एक नए अंदाज में महक से प्यार की बातें करता. उस के खोए आत्मसम्मान और विश्वास को जगाता. उस में प्रेम की भावना के प्राण फूंकता. धीरेधीरे उस का प्रयास रंग लाने लगा.

समय बदलने लगा था. उन के प्रेम के वृक्ष पर आत्मसम्मान और विश्वास की कोंपलें फूटने लगी थीं. उस की शाखाओं पर फिर मुसकराहट के फूल खिल उठे थे. चहकती चिडि़यां फिर आ कर नीड़ बनाने लगी थीं. पावनी प्रीत की मधुरता और प्रसन्नता से वह वृक्ष पुन: लहलहाने लगा था.

महक और मोहित को पुन: प्रसन्न देख कर सुरेंद्र और मनीषा भी बहुत खुश थे.

एक दिन मोहित ने सुरेंद्र और मनीषा से कहा, ‘‘अंकल मैं महक से विवाह करना चाहता हूं.’’

मोहित की बात सुनते ही सुरेंद्र और मनीषा की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे. महक खुशी से खिल उठी थी.

सुरेंद्र और मनीषा ने प्रसन्नता से कहा, ‘‘यह तो हमारे लिए दुनिया की सब से बड़ी खुशी है. महक और तुम्हारी जोड़ी बहुत सुंदर है. तुम दोनों ही एकदूसरे के पूरक हो.’’

सुरेंद्र और मनीषा ने मोहित के मातापिता के सामने महक और मोहित के विवाह का प्रस्ताव रखा तो वे तुरंत तैयार हो गए. मुंह मीठा कराते हुए मोहित की मां दीप्ति बेहद खुशी से बोलीं, ‘‘मनीषाजी, मैं ने तो बचपन में ही इसे अपनी बहू मान लिया था.’’

सब के मन में शहनाई की धुन बज उठी थी.

Online Hindi Story : वे सूखे पत्ते – कमसिन उम्र की नादान दोस्ती

Online Hindi Story : आज से 15 साल पहले की बात है. मैं 11वीं जमात में पढ़ता था. वह लड़की हमारी क्लास में नईनई आई थी. उस के पैर में कुछ लचक थी. शायद कुछ चोट लगी हो, इसलिए वह थोड़ा लंगड़ा कर चल रही थी. उस ने 10वीं क्लास में पूरे उदयपुर में टौप किया था और मैं ने अपने स्कूल में.

दिखने में तो वह बला की खूबसूरत थी. मगर कहते हैं न कि चांद में भी दाग होता है, बिलकुल ऐसे ही उस के पैर की वह चोट उस चांद से हुस्न का दाग बन गई थी.

उस ने पहले दिन से ही क्लास के मनचले लड़कों को अपनी खूबसूरती का दीवाना बना दिया था. उस की सादगी की चर्चा हर जबान पर थी.

शुरुआत के चंद महीनों में ही क्लास के आधे से ज्यादा लड़के उसे प्रपोज कर चुके थे. सब को उस के हुस्न से मतलब था, उस से नहीं. हम लड़कों की सोच गिरी हुई होती है. लड़की को इस्तेमाल करने की चीज समझते हैं. इस्तेमाल किया और फेंक दिया. मगर सबकुछ जानते हुए भी उस ने कभी किसी को जवाब नहीं दिया. न ही नाराजगी से और न ही खुशी से.

और एक मैं था, जो अभी तक उस का नाम भी नहीं जानता था. सच कहूं, तो मैं ने कभी कोशिश भी नहीं की थी. नाम जान कर करना भी क्या था, जब दोनों की दुनिया और रास्ते ही अलग थे. हर कोई उसे अलगअलग नाम से पुकारता था, इसलिए कभी सुनने में भी नहीं आया उस का असली नाम.

मैं ने उस की आंखें देखी थीं. कुछ बोलती थीं उस की आंखें, मगर क्या बोलती थीं, यह जानने के लिए कभी सोचा ही नहीं. मेरे लिए पढ़ाई ज्यादा जरूरी थी. अनाथ था न मैं. अपना सबकुछ खुद ही देखना था. अपना भविष्य खुद बनाना था. जिस उम्र में लड़के तरहतरह के शौक पूरे करने में लगे होते हैं, उस उम्र में मैं खुद को एक सांचे में ढालने चला था. भला हो उस गैरसरकारी संस्था का, जो मुझे इस स्कूल में पढ़ा रही थी.

कुछ दिनों के बाद इम्तिहान हो गए. उस लड़की ने क्लास में फिर से टौप कर दिया. मेरी सालों से चली आ रही क्लास में पहली पोजीशन की हुकूमत को उस ने खत्म कर दिया था. हमारे क्लास टीचर क्लास में आए और बोले, ‘‘सरोज, तुम ने 96 फीसदी नंबर ला कर क्लास में टौप किया है.’’ मुझे धक्का लगा कि मैं पीछे कैसे रह गया. मैं इतनी मेहनत से तो पढ़ा था.

टीचर दोबारा बोले, ‘‘राघव, तुम्हारे  95.8 फीसदी नंबर आए हैं. तुम दूसरे नंबर पर हो.’’

इस पर मुझे राहत सी मिली कि बस थोड़ा सा फर्क है. मगर फर्क क्यों है, इस का जवाब मुझे खुद को देना था. यह जवाब मैं कहां से लाता? मैं पूरी क्लास में यही सोचता रहा. सब लड़के खुश थे. जो फेल थे वे भी, क्योंकि उन्हें उस का असली नाम पता लग गया था. क्लास खत्म होने पर मैं उस से मिला और बधाई दी. वह इस की हकदार भी थी, इसलिए उस ने भी मुझे बधाई दी.

यह हमारी पहली मुलाकात थी. इस के बाद आगे के दिनों में धीरेधीरे बातें होने लगीं, मगर जबान से नहीं, बस इशारों से. दूर से देख कर हाथ हिला देना, मगर सामने होने पर चुपचाप निकल जाना, यह हमारे लिए बहुत आम हो गया था.

फाइनल इम्तिहान आने वाले थे. हमारी बातें अब शुरू होने लगी थीं.

मगर मैं ने कभी सरोज के बारे में जानने की कोशिश नहीं की, बस हालचाल पूछ लिया करता था.

फिर एक दिन वह बोली, ‘‘इम्तिहान के बाद मिलना.’’

मगर कहां मिलना, यह नहीं बताया. मैं कुछ देर सोचता ही रहा कि कहां और क्यों? क्यों का जवाब तो यह था कि हम दोस्त थे, मगर कहां का जवाब मुझे नहीं मिल रहा था. क्या मेरे घर में? मगर मैं तो अनाथ आश्रम में रहता हूं. तो क्या फिर उस के घर में? मगर उस का घर तो मुझे पता ही नहीं. तो कहां? फिर उसी ने बताया कि स्कूल के पास वाले बाग में मिलना. मेरे अंदर के सवालों का तूफान थाम दिया था उस के इस जवाब ने.

इम्तिहान खत्म हुए. हम मिले, हम फिर मिले, हम बारबार मिले. एक अजीब सी, मगर बहुत प्यारी सी धुन लग गई थी दोनों को एकदूसरे के साथ की.

फिर एक दिन मैं ने उसे बताया कि मैं अनाथ हूं, तो जवाब मिला कि वह भी अनाथ है. मेरी तो यह जान कर जैसे सांसें ही थम गई थीं कि इतनी प्यारी लड़की के मांबाप नहीं हैं.  बला की खूबसूरत लड़की इस नोच खाने वाले समाज में अपना वजूद बनाए हुए थी. समझ आ गया था मुझे कि उस की आंखें क्या बोलती थीं और क्यों वह इतनी नरम मिजाज थी. मुझे आज उन सवालों के जवाब भी मिल गए थे, जिन सवालों को मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

फिर कुछ देर चुप रहने के बाद मैं ने बड़ी हसरत से उस से पूछा, ‘‘क्या अब तक तुम्हारा कभी कोई दोस्त रहा है?’’

वह हथेली भर के सूखे पत्ते ले आई और बोली, ‘‘ये हैं मेरे दोस्त.’’ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि सरोज क्या बोल रही है. मैं हंस भी नहीं सकता था, क्योंकि उस के चेहरे पर हंसी  नहीं दिख रही थी.

‘‘सरोज, मैं कुछ समझा नहीं?’’ मैं ने बहुत जिज्ञासा से पूछा.

जब उस की आंखें सबकुछ बोलती ही थीं, तो क्यों आज मैं उस की जबान का बोला हुआ शब्द समझ नहीं पा रहा था. वह चाह रही थी कि उस का यह दोस्त उस की आंखें पढ़ कर जान जाए कि क्यों ये सूखे पत्ते उस के दोस्त थे. मगर उस ने नहीं बताया और मैं ने भी मान लिया कि शायद

दुनिया में कहीं उस का भरोसा टूटा होगा, इसलिए वह ऐसी बातें करती है. हमारी बातों के सिलसिले अब काफी बढ़ गए थे और हम धीरेधीरे बहुत करीब आ गए थे. एक लगाव था, एक अधूरापन था, जो साथ रह कर ही पूरा होता था. मैं जानना चाहता था उस का और उस के सूखे पत्तों का रिश्ता. मैं इतना करीब तो था उस के, मगर उस के दोस्त अब भी सूखे पत्ते ही थे.

फिर एक दिन मेरे मन में यह सवाल उठा कि स्कूल से पढ़ाई खत्म होने के बाद हम कैसे मिलेंगे? मगर यह सवाल मैं उस से सुनना चाहता था और यह भी जानता था कि वह नहीं पूछेगी, क्योंकि उसे मुझ से ज्यादा उन सूखे पत्तों से जो लगाव था. स्कूल की पढ़ाई खत्म हो गई. उस से मिले हुए काफी दिन गुजर गए. अकेलापन महसूस होने लगा था और यह अकेलापन मुझे काटने को दौड़ता था. सरोज लौट गई थी अपनी दुनिया में, अपने उन सूखे पत्तों के पास या फिर कहीं और.

फर एक दिन मैं ने स्कूल जा कर पता किया. कितना बेवकूफ था मैं. इतना वक्त साथ रहे, मगर कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह रहती कहां थी.

मैं अपने टीचर के पास गया और सरोज का पता पूछा. टीचर बोले, ‘‘राघव, पता तो मुझे भी नहीं मालूम, मगर सरोज तुम्हारे लिए एक चिट्ठी छोड़ गई है.’’ मैं बहुत खुश हुआ, मगर न जाने क्यों मेरे हाथ कांप रहे थे उस चिट्ठी को खोलने में. जिंदगी में पहली बार किसी ने मुझ अनाथ को चिट्ठी लिखी थी.

टीचर बोले, ‘‘अरे, यह क्या? जो राघव हमेशा पढ़ने में अव्वल रहा, आज उस के हाथ इस मामूली सी चिट्ठी को लेने में कांप क्यों रहे हैं?’’‘‘पता नहीं, सर. मगर यह मामूली नहीं है,’’ इतनकह कर मैं वहां से बहुत तेजी से भाग निकला. और क्या भागा यह मैं भी नहीं जानता. शायद मुझ में हिम्मत नहीं थी उस वक्त का सामना करने की.

मैं बहुत भागा और न जाने क्यों मेरे कदम उस बाग की ओर बढ़ते चले गए, जहां हम अकसर मिलते थे. मेरी सांसें बहुत तेज चल रही थीं. थकने की वजह से नहीं, डर की वजह से. और डर था उसे खो देने का. डर था मुझे कि यह चिट्ठी पढ़ते ही मैं उसे खो दूंगा. या उस का मेरे लिए पहला और आखिरी खत था. क्या करूं, कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. अभी पढ़ूं कि नहीं.

मन में हजारों बुरे खयाल आ रहे थे. सांसें भी थमने का नाम नहीं ले रही थीं. फिर सोचा, ‘शायद उस ने इस में अपना नया पता लिखा हो.’ बहुत हिम्मत कर के मैं ने वह खत खोल ही दिया और वह कुछ यों था:

‘प्यारे दोस्त राघव,

‘मैं जानती हूं कि यह खत पढ़ने से पहले तुम ने हजार बार सोचा होगा. तुम्हारे हाथ कांपे होंगे, धड़कनों का शोर कुछ ज्यादा हो गया होगा. मन में हजारों तरह के खयाल आ रहे होंगे और उन में सब से बड़ा सवाल यह होगा कि मेरे दोस्त सूखे पत्ते ही क्यों?

‘राघव, मैं ने तुम्हें कभी नहीं बताया, पर अब बताती हूं. मैं अपने मातापिता की एकलौती लड़की थी. जिस घर में मैं पैदा हुई, वहां लड़की का पैदा होना जुर्म माना जाता था. जब मैं 4 साल की थी, तब मेरे पिता ने मुझे छत से नीचे फेंक दिया था. मैं आंगन में रखे उन सूखे पत्तों के ढेर पर गिरी थी, जिसे कुछ देर पहले मेरी मां ने जमा किया था. तब मैं तो बच गई, मगर मेरा पैर टूट गया था.

‘पिताजी की ऐसी गिरी हुई हरकत देख कर मां ने वहीं पर रखी कुल्हाड़ी से उन की जान ले ली. उन्होंने मुझे बहुत प्यार से गले लगाया, खूब रोईं. मैं भी रो रही थी. फिर मां ने मुझे छोड़ा और घर बंद कर के खुद को आग लगा ली. मां भी मर गईं और मैं छोटी सी लड़की 4 साल की उम्र में ही अनाथ हो गई.

‘किसी रिश्तेदार ने मेरी जिम्मेदारी नहीं ली. जिस उम्र में औलाद को उस की मां के सहारे की सब से ज्यादा जरूरत होती है, वह सहारा मुझ से छिन गया था. मां के आंचल में खेलने की उम्र में मुझे अनाथालय वाले ले गए.‘वहां जब मैं गई, तो हर बार बस अपना गिरना याद आता था उस वक्त मुझे बचाने वोल वे सूखे पत्ते ही थे, जिन से मैं ने कभी बात तक नहीं की थी. उन बेजबानों ने मुझे एक नई जिंदगी दे दी थी. मेरा पैर हमेशा के लिए खराब हो गया था.

‘मैं आज भी हर रोज जब सड़कों पर गिरे सूखे पत्ते देखती हूं, तो मुझे वही ढेर याद आता है. मैं उन का कुछ इसी तरह एहसान मानती हूं कि जब मेरा अपना पिता मेरा अपना नहीं हो सका, तब इन गैर और बेजबान पत्तों ने मुझे सहारा दिया. ‘मुझे जब भी इस बेहया दुनिया से डर लगता है, मैं अकसर इन्हें खत लिखती हूं. मैं इन का एक ढेर बनाती हूं, फिर एक हवा का झोंका आता है और उस ढेर के सब पत्तों को मेरे चारों ओर फैला कर कहता है कि भरोसा रखना सरोज… ये सूखे पत्ते हमेशा तेरे साथ हैं… हमेशा.

‘मैं जानती हूं राघव कि तुम यह खत अभी उसी बाग में बैठ कर पढ़ रहे हो, और तुम्हारी आंखें भीग गई हैं. मुझे माफ कर देना तुम्हें चुपचाप छोड़ कर जाने के लिए. मगर महसूस कर के देखना… मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं, इन सूखे पत्तों की तरह.

‘तुम्हारी सरोज.’

मेरी आंखें सच में भर आई थीं. एक आह निकल गई थी मेरे दिल से. आज समझ आ गया था कि क्यों हैं ये सूखे पत्ते उस के दोस्त… कितना जानती थी वह मुझे… उसे पता था कि मैं यह खत उस बाग में ही पढ़ूंगा. अब समझ आया कि क्यों मेरे पैर भागतेभागते मुझे इस बाग में ले आए थे.

मैं सरोज के दोस्तों को लेकर बनाए हुए ढेर में सरोज की दुनिया को बड़े गौर से देख रहा था कि न जाने कहां से अचानक एक हवा का झोंका आया, जिस ने उन पत्तों को मेरे चारों ओर फैला दिया और मुझे सच में एहसास होने लगा कि सरोज मेरे बहुत करीब है… बहुत ही करीब…

Best Hindi Story : कितनी रंजिश – दादू ने कैसे सुलझाई नन्हे की समस्या

Best Hindi Story : मेरा एक मित्र था गजलों का बड़ा शौकीन. हर जुमले पर वह झट से कोई शेर पढ़ देता या मुहावरा सुनाने लगता. मुझे कई बार हैरानी भी होती थी उस की हाजिरजवाबी पर. इतना बड़ा खजाना कहां सहेज रखा है, सोच कर हैरत होती थी. कभी किसी चीज को लेने की चाह व्यक्त करता तो अकसर कहने लगता, ‘‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी हर ख्वाहिश पे दम निकले…’’

‘‘ऐसी भी क्या ख्वाहिश पाल ली है यार, हर बात पर तुम्हारा प्रवचन मुझे पसंद नहीं,’’ मैं टोकता था.

‘‘चादर अनुसार पैर पसारो, बेटा.’’

‘‘कोई ताजमहल खरीदने की बात तो की नहीं मैं ने जो लगे हो भाषण देने. यही तो कह रहा हूं न, नया मोबाइल लेना है, मेरा मोबाइल पुराना हो गया है.’’

‘‘कहां तक दौड़ोगे इस दौड़ में. मोबाइल तो आजकल सुबह खरीदो, शाम तक पुराना हो जाता है. यह तो अंधीदौड़ है जो कभी खत्म नहीं हो सकती. पूर्णविराम या अर्धविराम तो हमें ही लगाना पड़ेगा न,’’ वह बोला.

उस की हाजिरजवाबी के आगे मेरे सार तर्क समाप्त हो जाते थे. बेहद संतोषी और ठंडी प्रकृति थी उस की. एक बार मेरी उस से कुछ अनबन सी हो गई. हमारे एक तीसरे मित्र की वजह से कोई गलतबयानी हुई जिस पर मुझे बुरा लगा. उस मामले में मैं ने कोई सफाई नहीं मांगी, न ही दी. बस, चुप रहा और उसी चुप्पी ने बात बिगाड़ दी.

आज बहुत अफसोस होता है अपनी इस आदत पर. कम से कम पूछता तो सही. उस ने कई बार कोशिश भी की थी मगर मेरा ही व्यवहार अडि़यल रहा जो उसे नकारता रहा. सहसा एक हादसे में वह संसार से ही विदा हो गया और मैं रह गया हक्काबक्का. यह क्या हो गया भला. ऐसा क्या हो गया जो वह चला ही गया. चला वह गया था और नाराज था मैं. रो नहीं पा रहा था. रोना आ ही नहीं रहा था. ऐसा बोध हो रहा था जैसे उसे नहीं मुझे जाना चाहिए था. आत्मग्लानि थी जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था. जिंदा था वह और मैं नकारता रहा. और अब जब वह नहीं है तो कहां जाऊं मैं उसे मनाने. जिस रास्ते वह चला गया उस रास्ते का नामोनिशान है ही कहां जो पीछेपीछे जाऊं और उस की बात सुन, अपनी सुना पाऊं.

आज कल में बदल गया और जो कल चला गया वह कभी नहीं आता. गया वक्त बहुत कुछ सिखा गया मुझे. उन दिनों हम जवान थे, तब इतना तजरबा नहीं होता जो उम्र बीत जाने के बाद होता है. आज बालों में सफेदी छलकने लगी है और जिंदगी ने मुझे बहुतकुछ सिखा दिया है. सब से बड़ी बात यह है कि रंजिश हमारे जीवन से बड़ी कभी नहीं हो सकती. कोई नाराजगी, कोई रंजिश तब तक है जब तक हम हैं. हमारे बाद उस की क्या औकात. हमारी जिद क्या हमारी जिंदगी से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि उसे हम जिंदगी से ऊपर समझने लगें.

मन में आया मैल इतना बलवान कभी न हो कि रिश्ते और प्यारमुहब्बत ही उस के सामने गौण हो जाएं. प्रेम था मुझे अपने मित्र से, तभी तो उस का कहा मुझे बुरा लगा था न. किस संदर्भ में उस ने कहा था, जो भी कहा था, तीसरे इंसान ने उसे क्या समझा और मुझे क्या बना कर बताया होगा, कम से कम विषय की गहराई में तो मुझे ही जाना चाहिए था न. मेरा मित्र इतना भी बचकाना, इतना नादान तो नहीं था जो मेरे विषय में इतनी हलकी बात कर जाता जिस का मुझे बेहद अफसोस हुआ था. उसी अफसोस को मैं ने नाजायज नाराजगी का जामा पहना कर इतना खींचा कि मेरा प्रिय मित्र समय से भी आगे निकल गया और मेरे सफाई लेनेदेने का मौका हाथ से निकल गया.

हमारा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है कि इसे बेकार, बचकानी बातों पर बरबादकर दिया जाए. रंजिश हो तो भी बात करने की गुंजाइश बंद कर देने की भला क्या जरूरत है. मिलो, कुछ कहो, कुछ सुनो, बात को समाप्त करो और आगे बढ़ो. गजल सम्राट मेहंदी हसन की गाई एक गजल मेरा मित्र बहुत गाया करता था-

‘‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,

तू मुझ से खफा है तो जमाने के लिए आ,

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ…’’

छोटेछोटे अहंकार, छोटेछोटे दंभ हमें कभीकभी उस रसातल पर ला कर पटक देते हैं जहां से ऊपर आने का कोई रास्ता ही नहीं होता. अगर हमें अपनी गलती का बोध हो जाए तो इतना अवश्य हो कि किसी और को समझा सकें. जिसे स्वयं भोग कर सीखा जाए उस से अच्छा तजरबा और क्या होगा. समझदार लोग अकसर समझाते हैं, या जान कर चलो या मान कर चलो.

जीवन पहले से ही फूलों की सेज नहीं है. हर किसी के मन पर कहीं न कहीं, कोई न कोई बोझ रहता है. जरा से बच्चे की भी कोई न कोई प्यारी सी, सलोनी सी समस्या होती है जिस से वह जूझता है. नन्हे, मेरा प्यारा पोता है. बड़ा उदास सा मेरे पास आया.

‘‘आज मोनू मेरे से बोला ही नहीं,’’ रोंआसा सा हो गया नन्हे.

‘‘तो आप बुला लेते बेटा. वैसे, बात क्या हुई थी? कोई झगड़ा हो गया था क्या?’’

‘‘उस ने मेरी कौपी पर लकीरें डाल दी थीं. मेरा इरेजर भी नीचे फेंक दिया. मेरी ड्राइंगशीट भी फाड़ दी.’’

‘‘वह तुम्हारा दोस्त है न. बैस्ट फ्रैंड है तो उस ने ऐसा क्यों किया. आप ने पूछा नहीं?’’

‘‘वह कहता है उस ने नहीं किया. वह तो लंचब्रैक में क्लास में आया ही नहीं था. झूले पर था.’’

‘‘और तुम कहां थे? तब तुम उस के साथ थे न?’’

‘‘हां, मैं उस के साथ था.’’

‘‘फिर तुम क्यों कहते हो? उसी ने सब किया है. तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘मुझे राशि ने बताया कि उस ने देखा था मोनू को मेरा बैग खोलते हुए.’’

‘‘राशि भी तुम्हारी फ्रैंड है, तुम्हारे साथ ही बैठती है.’’

‘‘नहीं, वह पीछे बैठती है. मोनू की उस से कट्टी है न, इसलिए मोनू उस से बोलता नहीं है,’’ नन्हे ने झट जवाब दिया.

सारा माजरा समझ गया था मैं. छोटेछोटे बच्चे भी कैसीकैसी चालें चल जाते हैं.

‘‘कल सुबह जब जाओगे न, मोनू को गले से लगा लेना, सौरी कह देना. झगड़ा खत्म हो जाएगा.’’

मेरे पोते नन्हे के चेहरे पर ऐसी मुसकान चली आई जिस में एक विश्वास था, एक प्यारा सा, मीठा सा भाव.

दूसरी दोपहर स्कूल से आते ही नन्हे झट से मेरे पास चला आया. ‘‘दादू, आज मोनू मेरे साथ बोला, हम ने खाना भी साथ खाया, झूला भी झूला. थैंक्यू दादू, आप ने मेरी समस्या हल कर दी. मैं ने मोनू को गले से भी लगाया, किस भी किया,’’ नन्हे ने खुश होते हुए बताया.

सारे संसार का सुख नन्हें की आंखों में था जिन में कल उदासी छाई थी. बच्चे का छोटा सा संसार उस का स्कूल, उस का मित्र और उस की मासूम सी चाह थी कि मोनू उस से बात करे. मोनू को नन्हे खोना नहीं चाहता था, वह उदास था. आज मोनू मिल गया तो उसे लग रहा है सारी कायनात की खुशी मोनू के मिलने से उसे मिल गई. मेरे चाचा मेरे अच्छे मित्र भी थे. उन्होंने समझाया था मुझे, कभी जीवन में एकतरफा फैसला न करो. फांसी पर चढ़ने वाले को भी कानून एक बार तो बोलने का अवसर देता है न. मैं अपने पोते नन्हे जैसा मासूम होता तो शायद चाचा का कहना मान लेता. बढ़ती उम्र शीशे से मन पर मैल के साथसाथ जिद भी ले आती है. धुंधले शीशे में कुछ भी साफ नहीं दिखता. क्यों जिद पर अड़ा रहा मैं और झूठा दंभ पालता रहा. आज सोचता हूं कि क्या मिला मुझे. हर पल कलेजे में एक फांस सी धंसी रहती है, बस.

Love Story : नवंबर का महीना – एक अधूरा हसीन ख्वाब

Love Story : नवंबर का महीना, सर्द हवा, एक मोटी किताब को सीने से चिपका, हलके हरे ओवरकोट में तुम सीढि़यों से उतर रही थी. इधरउधर नजर दौड़ाई, पर जब कोई नहीं दिखा तो मजबूरन तुम ने पूछा था, ‘कौफी पीने चलें?’

तुम्हें इतना पता था कि मैं तुम्हारी क्लास में ही पढ़ता हूं और मुझे पता था कि तुम्हारा नाम सोनाली राय है. तुम बंगाल के एक जानेमाने वकील अनिरुद्ध राय की इकलौती बेटी हो. तुम लाल रंग की स्कूटी से कालेज आती हो और क्लास के अमीरजादे भी तुम पर उतने ही मरते हैं, जितने हम जैसे मिडल क्लास के लड़के जिन्हें सिगरेट, शराब, लड़की और पार्टी से दूर रहने की नसीहत हर महीने दी जाती है. उन का एकमात्र सपना होता है, मांबाप के सपनों को पूरा करना. ये तुम जैसी युवतियों से बात करने से इसलिए हिचकते हैं, क्योंकि हायहैलो के बाद की अंगरेजी बोलना इन्हें भारी पड़ता है.

तुम रास्ते भर बोलती रही और मैं सुनता रहा. तुम ने मौका ही नहीं दिया मुझे बोलने का. तुम मिश्रा सर, नसरीन मैम की बकबक, वीणा मैम के समाचार पढ़ने जैसा लैक्चर और न जाने कितनी कहानियां तेजी से सुना गई थीं और मैं बस मुसकराते हुए तुम्हारे चेहरे पर आए हर भाव को पढ़ रहा था. तुम्हारे होंठों के ऊपर काला तिल था, जिस पर मैं कुछ कविताएं सोच रहा था, तब तक तुम्हारी कौफी और मेरी चाय आ गई.

तुम ने पूछा था, ‘तुम कौफी क्यों नहीं पीते?’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘चाय की आदत कभी छूटी नहीं.’ तुम यह सुन कर काफी जोर से हंसी थी. ‘शायरी भी करते हो.’ मैं झेप गया.

तुम इतने समय से कुछ भूल रही थी, मेरा नाम पूछना, क्योंकि मैं तुम्हारी आवाज में अपने नाम को सुनना चाह रहा था, तुम ने तब भी नहीं पूछा था.

हम दोनों उठ कर चल दिए थे, कैंपस से विश्वविद्यालय मैट्रो स्टेशन की ओर…

बात करते हुए तुम ने कहा था, ‘सज्जाद, पता है, मैं अकसर सपना देखती थी कि मैं फोटोग्राफर बनूंगी. पूरी दुनिया का चक्कर लगाऊंगी और सारे खूबसूरत नजारे अपने कैमरे में कैद करूंगी, लेकिन आज मैं मील, मार्क्स और लेनिन की किताबों में उलझी हुई हूं. कभी जी करता है तो ब्रेख्त पढ़ लेती हूं, तो कभी कामू को…’

हम अकसर जो चाहते हैं, वैसा नहीं होता है और शायद अनिश्चितता ही जीवन को खूबसूरत बनाती है, अकसर सबकुछ पहले से तय हो तो जिंदगी से रोमांच खत्म हो जाएगा. हम उम्र से पहले बूढ़े हो जाएंगे, जो बस यही सोचते हैं, उन के लिए मरना ही एकमात्र लक्ष्य है.

‘सज्जाद, तुम ने क्या पौलिटिकल साइंस अपनी मरजी से चुना,’ तुम ने पूछा था.

‘हां,’ मैं ने कहा. नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था उस समय. मैं खुद को बताने से ज्यादा, तुम्हें जानना चाह रहा था.

‘और हां, मेरा नाम सज्जाद नहीं, आदित्य है, आदित्य यादव,’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘ओह, तो तुम लालू यादव के परिवार से तो नहीं हो?’

‘बिलकुल नहीं, पता नहीं क्यों बिहार का हर यादव लालू यादव का रिश्तेदार लगता है लोगों को.’

कुछ पल के लिए दोनों चुप हो गए. कई कदम चल चुके थे. मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘वैसे यह सज्जाद है कौन?’

‘कोई नहीं, बस गलती से बोल गई थी.’

तुम्हारे चेहरे के भाव बदल गए थे.

‘कहां रहते हो तुम?’

हम बात करतेकरते मानसरोवर होस्टल आ गए थे, मैं ने इशारा किया, ‘यहीं.’

मैट्रो स्टेशन पास ही था, तुम से विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया.

मैं ने पूछा, ‘यह निशान कैसा?’

‘अरे, वह कल खाना बनाने वाली नहीं आई तो खुद रोटी बनाते समय हाथ जल गया. अभी आदत नहीं है न.’

मैं ने हाथ मिलाया. ओवरकोट की गरमी अब भी उस के हाथों में थी.इस खूबसूरत एहसास के साथ मैं सो नहीं पाया था, सुबह जल्दी उठ कर तुम से ढेर सारी बातें करनी थी.मैं कालेज गया था अगले दिन. कालेज में इस बात की चर्चा जरूर होने वाली थी, क्योंकि हम दोनों को साथ घूमते क्लास के लड़केलड़कियों ने देख लिया था.

उस दिन तुम नहीं आई थी. मुझे हर सैकंड बोझिल लग रहा था. तुम ने कालेज छोड़ दिया था. 2 वर्षों बाद दिखी थी, उसी नवंबर महीने में कनाट प्लेस के इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों से उतरते हुए.

मेरा मन जब भी उदास होता है, मैं निकल पड़ता था, इंडियन कौफी हाउस. दिल्ली की शोरभरी जगहों में एक यही जगह थी जहां मैं सुकून से उलझनों को जी सकता था और कल्पनाओं को नई उड़ान देता.

हलकी मुसकराहट के साथ तुम मिली थीं उस दिन, कोई तुम्हारे साथ था. तुम पहले जैसे चहक नहीं रही थीं. एक चुप्पी थी तुम्हारे चेहरे पर.

तुम्हारा इस तरह मिलना मुझे परेशान कर रहा था. तुम बस, उदास मुसकराहट के साथ मिलोगी और बिना कुछ बात किए सीढि़यों से उतर जाओगी, यह बात मुझे अंदर तक कचोट रही थी. इसी उधेड़बुन में सीढि़यां चढ़ते मुझे एक पर्स मिला. खोल कर देखा तो किसी अंजुमन शेख का था, बुटीक सैंटर, साउथ ऐक्सटेंशन का पता था, दिए हुए नंबर पर कौल किया तो स्विच औफ था.

तुम्हारे बारे में सोचतेसोचते रात के 8 बज गए थे. अचानक याद आया कि किसी का पर्स मेरे पास है, जिस में 12 सौ रुपए और डैबिट कार्ड है. मैं ने फिर एक बार कौल लगाई, इस बार रिंग जा रही थी.

‘हैलो,’ एक खूबसूरत आवाज सुनाई दी.

‘जी, आप का पर्स मुझे इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों पर गिरा मिला. आप बताएं इसे कहां आ कर लौटा दूं.’

‘आदित्य बोल रहे हो,’ उधर से आवाज आई.

‘सोनाली तुम,’ मैं आश्चर्यचकित था.

‘कैसी हो तुम और यह अंजुमन शेख का कार्ड? तुम हो कहां? तुम ने कालेज क्यों छोड़ दिया?’ मैं उस से सारे सवालों का जवाब जान लेना चाहता था, क्योंकि मुझे कल पर भरोसा नहीं था.

तुम ने बस इतना कहा था, ‘कल कौफी हाउस में मिलो 11 बजे.’

अगले दिन मैं ने कौफी हाउस में तुम्हें आते हुए देखा. 2 वर्ष पहले उस हरे ओवरकोट में सोनाली मिली थी, सपनों की दुनिया में जीने वाली सोनाली, बेरंग जिंदगी में रंग भरने वाली सोनाली. पर 2 वर्षों में तुम बदल गई थीं, तुम सोनाली नहीं थी. तुम एक हताश, उदास, सहमी अंजुमन शेख थी, जिस ने 2 वर्षों पहले घर छोड़ कर अपने प्रेमी सज्जाद से शादी कर ली थी. वही सज्जाद जिस के बारे में तुम ने मुझ से छिपाया था.

जिस से प्रेम करो, उस के साथ यदि जिंदगी का हर पल जीने को मिले, तो इस से खूबसूरत और क्या हो सकता है. इस गैरमजहबी प्रेमविवाह में निश्चित ही तुम ने बहुतकुछ झेला होगा पर प्रेम सारे जख्मों को भर देता है, लेकिन तुम्हारे और सज्जाद के बीच आए रिश्तों की कड़वाहट वक्त के साथ बदतर हो रही थी.

शादी के बाद प्रेम ने बंधन का रूप ले लिया था. आधिपत्य के बोझ तले रिश्ते बोझिल हो रहे थे. तुम तो दुनिया का चक्कर लगाने वाली युवती थी, तुम रिश्तों को जीना चाहती थी. उन्हें ढोना नहीं चाहती थी. जिसे तुम प्रेम समझ रही थी, वह घुटन बन गया था.

तुम सबकुछ कहती चली गई थीं और मैं तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को वैसे ही पढ़ना चाह रहा था, जैसे पहली बार पढ़ा था.

तुम ने सज्जाद के लिए अपना नाम बदला था, अपनी कल्पनाएं बदलीं. तुम ने खुद को बदल दिया था. प्रेम में खुद को बदलना सही है या गलत, नहीं मालूम, पर खुद को बदल कर तुम ने प्रेम भी तो नहीं पाया था.

वक्त हो गया था फिर एक बार तुम्हारे जाने का, ‘सज्जाद घर पहुंचने वाला होगा, तुम ने कहा था.’

तुम ने पर्स लिया और हाथ आगे बढ़ा कर बाय कहा.

मैं ने जल्दी से तुम्हारा हाथ थामा, वही 2 वर्षों पुराने ओवरकोट की गरमी महसूस करने को. तुम्हारे हाथ के पुराने जख्म तो भर गए थे, लेकिन नए जख्मों ने जगह ले ली थी.

इस बीच, हमारी फोन पर बातें होती रहीं, राजीव चौक और नेहरू प्लेस पर 2 बार मुलाकातें हुईं.

सबकुछ सहज था तुम्हारी जिंदगी में, लेकिन मैं असहज था. इस बीच मैं लिखता भी रहा था, तुम्हें कविताएं भी भेजता था, पढ़ कर तुम रोती थीं, कभी हंसती भी थीं.

एक दिन तुम्हारा मैसेज आया था, ‘मुझ से बात नहीं हो पाएगी अब.’

मैं ने एकदम कौलबैक किया, मेरा नंबर ब्लौक हो चुका था. तुम्हारा फेसबुक एकाउंट चैक किया तो वह डिलीट हो चुका था. मैं घबरा गया था, तुम्हारे साउथ ऐक्स वाले बुटीक पर फोन किया तो पता चला कि तुम एक हफ्ते से वहां नहीं गई हो. इसी बीच मेरा नया उपन्यास ‘नवंबर की डायरी’ बाजार में छप कर आ चुका था. मैं सभाओं और गोष्ठियों में जाने में व्यस्त हो गया, पर तुम्हारा खयाल मन में हमेशा बना रहा.

समय करवटें ले रहा था. सूरज रोज डूबता था, रोज उगता था. धीरेधीरे 1 साल गुजर गया. शाम के 7 बज रहे थे. मैं कमरे में अपनी नई कहानी ‘सोना’ के बारे में सोच रहा था. तब तक दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो देखा कोई युवती मेरी ओर पीठ किए खड़ी है.

मैं ने कहा, ‘जी…’

वह जैसे ही मुड़ी, मैं आश्चर्यचकित रह गया. वह सोनाली थी.

हम दोनों गले लग गए. मैं ने सीने से लगाए हुए पूछा, ‘तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?’

‘तुम्हारा उपन्यास पढ़ा, ‘नवंबर की डायरी’ उस के पीछे तुम्हारा नंबर और पता भी था.’

आदित्य तुम ने सही लिखा है इस उपन्यास में, ‘जिन रिश्तों में विश्वास की जगह  हो, उन का टूट जाना ही बेहतर है. मैं ने सज्जाद को तलाक दे दिया था. हमारी फेसबुक चैट सज्जाद ने पढ़ ली थी. फिर यहीं से बचे रिश्ते भी टूटते चले गए थे.

तुम मेरे अस्तव्यस्त घर को देख रही थी, अस्तव्यस्त सिर्फ घर ही नहीं था, मैं भी था. जिसे तुम्हें सजाना और संवारना था, पता नहीं तुम इस के लिए तैयार थीं या नहीं.

तभी तुम ने कहा, ‘ये किताबें इतनी बिखरी हुई क्यों हैं? मैं सजा दूं?’ मुसकरा दिया था मैं.

रात के 9 बज गए थे. हम दोनों किचन में डिनर तैयार कर रहे थे. तुम ने कहा कि खिड़की बंद कर दो, सर्द हवा आ रही है. मैं ने महसूस किया नवंबर का महीना आ चुका था.

Hindi Kahani : टिकट चोर – महेश ट्रेन में किससे मदद मांग रहा था

Hindi Kahani : काफी देर सोचने के बाद महेश ने फैसला किया कि उसे बिना टिकट खरीदे ही रेल में बैठ जाना चाहिए, बाद में जोकुछ होगा देखा जाएगा, क्योंकि रेल कुछ ही देर में प्लेटफार्म पर आने वाली है. महेश रेल में बिना टिकट के बैठना नहीं चाहता था. जब वह घर से चला था, तब उस की जेब में 2 हजार के 2 कड़क नोट थे, जिन्हें वह कल ही बैंक से लाया था. घर से निकलते समय सौसौ के 2 नोट जरूर जेब में रख लिए थे कि 2 हजार के नोट को कोई खुला नहीं करेगा.

जैसे ही महेश घर से बाहर निकला कि सड़क पर उस का दोस्त दीनानाथ मिल गया, जो उस से बोला था, ‘कहां जा रहे हो महेश?’

महेश ने कहा था, ‘उदयपुर.’

दीनानाथ बोला था, ‘जरा 2 सौ रुपए दे दे.’

‘क्यों भला?’ महेश ने चौंकते हुए सवाल किया था.

‘अरे, कपड़े बदलते समय पैसे उसी में रह गए…’ अपनी मजबूरी बताते हुए दीनानाथ बोला था, ‘अब घर जाऊंगा, तो देर हो जाएगी. मिठाई और नमकीन खरीदना है. थोड़ी देर में मेहमान आ रहे हैं.’

‘मगर, मेरे पास तो 2 सौ रुपए ही हैं. मुझे भी खुले पैसे चाहिए और बाकी

2 हजार के नोट हैं,’ महेश ने भी मजबूरी बता दी थी.

‘देख, रेलवे वाले खुले पैसे कर देंगे. ला, जल्दी कर,’ दीनानाथ ने ऐसे कहा, जैसे वह अपना कर्ज मांग रहा है.

महेश ने सोचा, ‘अगर इसे 2 सौ रुपए दे दिए, तो पैसे रहते हुए भी मेरी जेब खाली रहेगी. अगर टिकट बनाने वाले ने खुले पैसे मांग लिए, तब तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी. कोई दुकानदार भी कम पैसे का सामान लेने पर नहीं तोड़ेगा.’

दीनानाथ दबाव बनाते हुए बोला था, ‘क्या सोच रहे हो? मत सोचो भाई, मेरी मदद करो.’

‘मगर, टिकट बाबू मेरी मदद नहीं करेगा,’ महेश ने कहा, पर न चाहते हुए भी उस का मन पिघल गया और जेब से निकाल कर उस की हथेली पर 2 सौ रुपए धर दिए.

दीनानाथ तो धन्यवाद दे कर चला गया. जब टिकट खिड़की पर महेश का नंबर आया, तो उस ने 2 हजार का नोट पकड़ाया.

टिकट बाबू बोला, ‘खुले पैसे लाओ.’

महेश ने कहा कि खुले पैसे नहीं हैं, पर वह खुले पैसों के लिए अड़ा रहा. उस की एक न सुनी.

इसी बीच गाड़ी का समय हो चुका था. खुले पैसे न होने के चलते महेश को टिकट नहीं मिला, इसलिए वह प्लेटफार्म पर आ गया.

प्लेटफार्म पर बैठ कर महेश ने काफी विचार किया कि उदयपुर जाए या वापस घर लौट जाए. उस का मन बिना टिकट के रेल में जाने की इजाजत नहीं दे रहा था, फिर मानो कह रहा था कि चला जा, जो होगा देखा जाएगा. अगर टिकट चैकर नहीं आया, तो उदयपुर तक मुफ्त में चला जाएगा.

इंदौरउदयपुर ऐक्सप्रैस रेल आउटर पर आ चुकी थी. धीरेधीरे प्लेटफार्म की ओर बढ़ रही थी. महेश ने मन में सोचा कि बिना टिकट नहीं चढ़ना चाहिए, मगर जाना भी जरूरी है. वहां वह एक नजदीकी रिश्तेदार की शादी में जा रहा है. अगर वह नहीं जाएगा, तो संबंधों में दरार आ जाएगी.

जैसे ही इंजन ने सीटी बजाई, महेश यह सोच कर फौरन रेल में चढ़ गया कि जब ओखली में सिर दे ही दिया, तो मूसल से क्या डरना?

रेल अब चल पड़ी. महेश उचित जगह देख कर बैठ गया. 6 घंटे का सफर बिना टिकट के काटना था. एक डर उस के भीतर समाया हुआ था. ऐसे हालात में टिकट चैकर जरूर आता है.

भारतीय रेल में यों तो न जाने कितने मुसाफिर बेटिकट सफर करते हैं. आज वह भी उन में शामिल है. रास्ते में अगर वह पकड़ा गया, तो उस की कितनी किरकिरी होगी.

जो मुसाफिर महेश के आसपास बैठे हुए थे, वे सब उदयपुर जा रहे थे. उन की बातें धर्म और राजनीति से निकल कर नोटबंदी पर चल रही थीं. नोटबंदी को ले कर सब के अपनेअपने मत थे. इस पर कोई विरोधी था, तो कोई पक्ष में भी था. मगर उन में विरोध करने वाले ज्यादा थे.

सब अपनेअपने तर्क दे कर अपने को हीरो साबित करने पर तुले हुए थे. मगर इन बातों में उस का मन नहीं लग रहा था. एकएक पल उस के लिए घंटेभर का लग रहा था. उस के पास टिकट नहीं है, इस डर से उस का सफर मुश्किल लग रहा था.

नोटबंदी के मुद्दे पर सभी मुसाफिर इस बात से सहमत जरूर थे कि नोटबंदी के चलते बचत खातों से हफ्तेभर के लिए 24 हजार रुपए निकालने की छूट दे रखी है, मगर यह समस्या उन लोगों की है, जिन्हें पैसों की जरूरत है.

महेश की तो अपनी ही अलग समस्या थी. गाड़ी में वह बैठ तो गया, मगर टिकट चैकर का भूत उस की आंखों के सामने घूम रहा था. अगर उसे इन लोगों के सामने पकड़ लिया, तो वह नंगा हो जाएगा. उस का समय काटे नहीं कट रहा था.

फिर उन लोगों की बात रेलवे के ऊपर हो गई. एक आदमी बोला, ‘‘आजादी के बाद रेलवे ने बहुत तरक्की की है. रेलों का जाल बिछा दिया है.’’

दूसरा आदमी समर्थन करते हुए बोला, ‘‘हां, रेल व्यवस्था अब आधुनिक तकनीक पर हो गई है. इक्कादुक्का हादसा छोड़ कर सारी रेल व्यवस्था चाकचौबंद है.’’

‘‘हां, यह बात तो है. काम भी खूब हो रहा है.’’

‘‘इस के बावजूद किराया सस्ता है.’’

‘‘हां, बसों के मुकाबले आधे से भी कम है.’’

‘‘फिर भी रेलों में लोग मुफ्त में चलते हैं.’’

‘‘मुफ्त चल कर ऐसे लोग रेलवे का नुकसान कर रहे हैं.’’

‘‘नुकसान तो कर रहे हैं. ऐसे लोग समझते हैं कि क्यों टिकट खरीदें, जैसे रेल उन के बाप की है.’’

‘‘हां, सो तो है. जब टिकट चैकर पकड़ लेता है, तो लेदे कर मामला रफादफा कर लेते हैं.’’

‘‘टिकट चैकर की यही ऊपरी आमदनी का जरीया है.’’

‘‘इस रेल में भी बिना टिकट के लोग जरूर बैठे हुए मिलेंगे.’’

‘हां, मिलेंगे,’ कई लोगों ने इस बात का समर्थन किया.

महेश को लगा कि ये सारी बातें उसे ही इशारा कर के कही जा रही हैं. वह बिना टिकट लिए जरूर बैठ गया, मगर भीतर से उस का चोर मन चिल्ला कर कह रहा है कि बिना टिकट ले कर रेल में बैठ कर उस ने रेलवे की चोरी की है. सरकार का नुकसान किया है.

रेल अब भी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी. मगर रेल की रफ्तार से तेज महेश के विचार दौड़ रहे थे. उसे लग रहा था कि रेल अब भी धीमी रफ्तार से चल रही है. उस का समय काटे नहीं कट रहा था. भीतरी मन कह रहा था कि उदयपुर तक कोई टिकट चैकर न आए.

अभी रेल चित्तौड़गढ़ स्टेशन से चली थी. वही हो गया, जिस का डर था. टिकट चैकर आ रहा था. महेश के दिल की धड़कनें बढ़ गईं. अब वह भी इन लोगों के सामने नंगा हो जाएगा. सब मिल कर उस की खिल्ली उड़ाएंगे, मगर उस के पास तो पैसे थे.

टिकट खिड़की बाबू ने खुले पैसे न होने के चलते टिकट नहीं दिया था. इस में उस का क्या कुसूर? मगर उस की बात पर कौन यकीन करेगा? सारा कुसूर उस पर मढ़ कर उसे टिकट चोर साबित कर देंगे और इस डब्बे में बैठे हुए लोग उस का मजाक उड़ाएंगे.

टिकट चैकर ने पास आ कर टिकट मांगी. उस का हाथ जेब में गया. उस ने 2 हजार का नोट आगे बढ़ा दिया.

टिकट चैकर गुस्से से बाला, ‘मैं ने टिकट मांगा है, पैसे नहीं.’’

‘‘मुझे 2 हजार के नोट के चलते टिकट नहीं मिला. कहा कि खुले पैसे दीजिए. आप अपना जुर्माना वसूल कर के उदयपुर का टिकट काट दीजिए,’’ कह कर महेश ने अपना गुनाह कबूल कर लिया.

मगर टिकट चैकर कहां मानने वाला था. वह उसी गुस्से से बोला, ‘‘सब टिकट चोर पकड़े जाने के बाद यही बोलते हैं… निकालो साढ़े 5 सौ रुपए खुले.’’

‘‘खुले पैसे होते तो मैं टिकट ले कर नहीं बैठता,’’ एक बार फिर महेश आग्रह कर के बोला, ‘‘टिकट के लिए  मैं उस बाबू के सामने गिड़गिड़ाया,

मगर उसे खुले पैसे चाहिए थे. मेरा उदयपुर जाना जरूरी था, इसलिए

बिना टिकट लिए बैठ गया. आप मेरी मजबूरी क्यों नहीं समझते हैं.’’

‘‘आप मेरी मजबूरी को भी क्यों नहीं समझते हैं?’’ टिकट चैकर बोला, ‘‘हर कोई 2 हजार का नोट पकड़ाता रहा, तो मैं कहां से लाऊंगा खुले पैसे. अगर आप नहीं दे सकते हो, तो अगले स्टेशन पर उतर जाना,’’ कह कर टिकट चैकर आगे बढ़ने लगा, तभी पास बैठे एक मुसाफिर ने कहा, ‘‘रुकिए.’’

उस मुसाफिर ने महेश से 2 हजार का नोट ले कर सौसौ के 20 नोट गिन कर दे दिए. उस टिकट चैकर ने जुर्माना सहित टिकट काट कर दे दिया.

टिकट चैकर तो आगे बढ़ गया, मगर उन लोगों को नोटबंदी पर चर्र्चा का मुद्दा मिल गया.

अब महेश के भीतर का डर खत्म हो चुका था. उस के पास टिकट था. उसे अब कोई टिकट चोर नहीं कहेगा. उस ने उस मुसाफिर को धन्यवाद दिया कि उस ने खुले पैसे दे कर उस की मदद की. रेल अब भी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी.

वह सरकार की मनमानी की वजह से टिकट चोर बन जाता. गनीमत है कि कुछ लोग सरकार और प्रधानमंत्री से ज्यादा समझदार थे और इस बेमतलब की आंधी में अपनी मुसीबतों की फिक्र करे बिना ही दूसरों की मदद करने वाले थे.

Hindi Story : आखिर कब तक और क्यों – क्या हुआ था रिचा के साथ

Hindi Story : ‘‘क्या बात है लक्ष्मी, आज तो बड़ी देर हो गई आने में?’’ सुधा ने खीज कर अपनी कामवाली से पूछा.

‘‘क्या बताऊं मेमसाहब आप को कि मुझे क्यों देरी हो गई आने में… आप तो अपने कामों में ही लगी रहती हैं. पता भी है मनोज साहब के घर में कैसी आफत आ गई है? उन की बेटी रिचा के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया है… बड़ी शांत, बड़े अच्छे तौरतरीकों वाली है.’’

लक्ष्मी से रिचा के बारे में जान कर सुधा का मन खराब हो गया. बारबार उस का मासूम चेहरा उस के जेहन में उभर कर मन को बेधने लगा कि पता नहीं लड़की के साथ क्या हुआ? फिर भी अपनेआप पर काबू पाते हुए लक्ष्मी के धाराप्रवाह बोलने पर विराम लगाती हुई वह बोली, ‘‘अरे कुछ नहीं हुआ है. खेलते वक्त चोट लग गई होगी… दौड़ती भी तो कितनी तेज है,’’ कह कर सुधा ने लक्ष्मी को चुप करा दिया, पर उस के मन में शांति कहां थी…

कालेज से अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद सुधा बिल्डिंग के बच्चों की मैथ्स और साइंस की कठिनाइयों को सुलझाने में मदद करती रही है. हिंदी में भी मदद कर उन्हें अचंभित कर देती है. किस के लिए कौन सी लाइन ठीक रहेगी. बच्चे ही नहीं उन के मातापिता भी उसी के निर्णय को मान्यता देते हैं. फिर रिचा तो उस की सब से होनहार विद्यार्थी है.

‘‘आंटी, मैं भी भैया लोगों की तरह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहती हूं. उन की तरह आप मेरा मार्गदर्शन करेंगी न?’’

सुधा के हां कहते ही वह बच्चों की तरह उस के गले लग जाती थी. लक्ष्मी के जाते ही सारे कामों को जल्दी से निबटा कर वह अनामिका के पास गई. उस ने रिचा के बारे में जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा कांप उठी. कल सुबह रिचा अपने सहपाठियों के साथ पिकनिक मनाने गंगा पार गई थी. खानेपीने के बाद जब सभी गानेबजाने में लग गए तो वह गंगा किनारे घूमती हुई अपने साथियों से दूर निकल गई. बड़ी देर तक जब रिचा नहीं लौटी तो उस के साथी उसे ढूंढ़ने निकले. कुछ ही दूरी पर झाडि़यों की ओट में बेहोश रिचा को देख सभी के होश गुम हो गए. किसी तरह उसे नर्सिंगहोम में भरती करा कर उस के घर वालों को खबर की. घर वाले तुरंत नर्सिंगहोम पहुंचे.

अनामिका ने जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा स्तब्ध रह गई. अब वह असमंजस में थी कि वह रिचा को देखने जाए या नहीं. फिर अनमनी सी हो कर उस ने गाड़ी निकाली और नर्सिंगहोम चल पड़ी, जहां रिचा भरती थी. वहां पहुंच तो गई पर मारे आशंका के उस के कदम आगे बढ़ ही नहीं रहे थे. किसी तरह अपने पैरों को घिसटती हुई उस के वार्ड की ओर चल पड़ी. वहां पहुंचते ही रिचा के पिता से उस का सामना हुआ. इस हादसे ने रात भर में ही उन की उम्र को10 साल बढ़ा दिया था. उसे देखते ही वे रो पड़े तो सुधा भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाई. ऐसी घटनाएं पूरे परिवार को झुलसा देती हैं. बड़ी हिम्मत कर वह कमरे में अभी जा ही पाई थी कि रिचा की मां उस से लिपट कर बेतहासा रोने लगीं. पथराई आंखों से जैसे आंसू नहीं खून गिर रहा हो.

रिचा को नींद का इंजैक्शन दे कर सुला दिया गया था. उस के नुचे चेहरे को देखते ही सुधा ने आंखों से छलकते आंसुओं को पी लिया. फिर रिचा की मां अरुणा के हाथों को सहलाते हुए अपने धड़कते दिल पर काबू पाते हुए कल की दुर्घटना के बारे में पूछा, ‘‘क्या कहूं सुधा, कल घर से तो खुशीखुशी सभी के साथ निकली थी. हम ने भी नहीं रोका जब इतने बच्चे जा रहे हैं तो फिर डर किस बात का… गंगा के उस पार जाने की न जाने कब से उस की इच्छा थी. इतने बड़े सर्वनाश की कल्पना हम ने कभी नहीं की थी.’’

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर सुधा उस लेडी डाक्टर के पास गई, जो रिचा का इलाज कर रही थी. सुधा ने उन से आग्रह किया कि इस घटना की जानकारी वे किसी भी तरह मीडिया को न दें, क्योंकि इस से कुछ होगा नहीं, उलटे रिचा बदनाम हो जाएगी. फिर पुलिस के जो अधिकारी इस की घटना जांचपड़ताल कर रहे हैं, उन की जानकारी डाक्टर से लेते हुए सुधा उन से मिलने के लिए निकल गई. यह भी एक तरह से अच्छा संयोग रहा कि वे घर पर थे और उस से अच्छी तरह मिले. धैर्यपूर्वक उस की सारी बातें सुनीं वरना आज के समय में इतनी सज्जनता दुर्लभ है.

‘‘सर, हमारे समाज में बलात्कार पीडि़ता को बदनामी एवं जिल्लत की किनकिन गलियों से गुजरना पड़ता है, उस से तो आप वाकिफ ही होंगे… इतने बड़े शहर में किस की हैवानियत है यह, यह तो पता लगने से रहा… मान लीजिए अगर पता लग जाने पर अपराधी पकड़ा भी जाता है तो जरा सोचिए रिचा को क्या पहले वाला जीवन वापस मिल जाएगा? उसे जिल्लत और बदनामी के कटघरों में खड़ा कर के बारंबार मानसिक रूप से बलात्कार किया जाएगा, जो उस के जीवन को बद से बदतर कर देगा. कृपया इसे दुर्घटना का रूप दे कर इस केस को यहीं खारिज कर के उसे जीने का एक अवसर दीजिए.’’

सुधा की बातों की गहराई को समझते हुए पुलिस अधिकारी ने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया. वहां से आश्वस्त हो कर सुधा फिर नर्सिंगहोम पहुंची और रिचा के परिवार से भी रोनाधोना बंद कर इस आघात से उबरने का आग्रह किया.

शायद रिचा को होश आ चुका था. सुधा की आवाज सुनते ही उस ने आंखें खोल दीं. किसी हलाल होते मेमने की तरह चीख कर वह सुधा से लिपट गई. सुधा ने किसी तरह स्वयं पर काबू पाते हुए रिचा को अपने सीने से लगा लिया. फिर उस की पीठ को सहलाते हुए कहा, ‘‘धैर्य रख मेरी बच्ची… जो हुआ उस से बुरा तो कुछ और हो ही नहीं सकता, लेकिन इस से जीवन समाप्त थोड़े हो जाता है? इस से उबरने के लिए तुम्हें बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है मेरी बच्ची… उसे यों बेहाल हो कर चीखने में जाया नहीं करना है… जितना रोओगी, चीखोगी, चिल्लाओगी उतना ही यह निर्दयी दुनिया तुम्हें रुलाएगी, व्यंग्यवाणों से तुझे बेध कर जीने नहीं देगी.’’

‘‘आंटी, मेरा मर जाना ठीक है… अब मैं किसी से भी नजरें नहीं मिला सकती… सारा दोष मेरा है. मैं गई ही क्यों? सभी मिल कर मुझ पर हसेंगे… मेरा शरीर इतना दूषित हो गया है कि इसे ढोते हुए मैं जिंदा नहीं रह सकती.’’

फिर चैकअप के लिए आई लेडी डाक्टर से गिड़गिड़ा कर कहने लगी, ‘‘जहर दे कर मुझे मार डालिए डाक्टर… इस गंदे शरीर के साथ मैं नहीं जी सकती. अगर आप ने मुझे मौत नहीं दी तो मैं इसे स्वयं समाप्त कर दूंगी,’’ रिचा पागल की तरह चीखती हुई बैड पर छटपटा रही थी.

‘‘ऐसा नहीं कहते… तुम ने बहुत बहादुरी से सामना किया है… मैं कहती हूं तुम्हें कुछ नहीं हुआ है,’’ डाक्टर की इस बात पर रिचा ने पथराई आंखों से उन्हें घूरा.बड़ी देर तक सुधा रिचा के पास बैठी उसे ऊंचनीच समझाते हुए दिलाशा देती रही लेकिन वह यों ही रोतीचिल्लाती रही. उसे नींद का इंजैक्शन दे कर सुलाना पड़ा. रिचा के सो जाने के बाद सुधा अरुण को हर तरह से समझाते हुए धैर्य से काम लेने को कहते हुए चली गई. किसी तरह ड्राइव कर के घर पहुंची. रास्ते भर वह रिचा के बारे में ही सोचती रही. घर पहुंचते ही वह सोफे पर ढेर हो गई. उस में इतनी भी ताकत नहीं थी कि वह अपने लिए कुछ कर सके.

रिचा के साथ घटी दुर्घटना ने उसे 5 दशक पीछे धकेल दिया. अतीत की सारी खिड़कियां1-1 कर खुलती चली गईं…

12 साल की अबोध सुधा के साथ कुछ ऐसा हुआ था कि वह तत्काल उम्र की अनगिनत दहलीजें फांद गई थी. कितनी उमंग एवं उत्साह के साथ वह अपनी मौसेरी बहन की शादी में गई थी. तब शादी की रस्मों में सारी रात गुजर जाती थी. उसे नींद आ रही थी तो उस की मां ने उसे कमरे में ले जा कर सुला दिया. अचानक नींद में ही उस का दम घुटने लगा तो उस की आंखें खुल गईं. अपने ऊपर किसी को देख उस ने चीखना चाहा पर चीख नहीं सकी. वह वहशी अपनी हथेली से उस के मुंह को दबा कर बड़ी निर्ममता से उसे क्षतविक्षत करता रहा.

अर्धबेहोशी की हालत में न जाने वह कितनी देर तक कराहती रही और फिर बेहोश हो गई. जब होश आया तो दर्द से सारा बदन टूट रहा था. बगल में बैठी मां पर उस की नजर पड़ी तो पिछले दिन आए उस तूफान को याद कर किसी तरह उठ कर मां से लिपट कर चीख पड़ी. मां ने उस के मुंह पर हाथ रख कर गले के अंदर ही उस की आवाज को रोक दिया और आंसुओं के समंदर को पीती रही. बेटी की बिदाई के बाद ही उस की मौसी उस के सर्वनाश की गाथा से अवगत हुई तो अपने माथे को पीट लिया. जब शक की उंगली उन की ननद के 18 वर्षीय बेटे की ओर उठी तो उन्होंने घबरा कर मां के पैर पकड़ लिए. उन्होंने भी मां को यही समझाया कि चुप रहना ही उस के भविष्य के लिए हितकर होगा.

हफ्ते भर बाद जब वह अपने घर लौटी तो बाबूजी के बारबार पूछने के बावजूद भी अपनी उदासी एवं डर का कारण उन्हें बताने का साहस नहीं कर सकी. हर पल नाचने, गाने, चहकने वाली सुधा कहीं खो गई थी. हमेशा डरीसहमी रहती थी.

आखिर उस की बड़ी बहन ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘बताओ न मां, वहां सुधा के साथ हुआ क्या जो इस की ऐसी हालत हो गई है? आप हम से कुछ छिपा रही हैं?’’

सुधा उस समय बाथरूम में थी. अत: मां उस रात की हैवानियत की सारी व्यथा बताते हुए फूट पड़ी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. बाबूजी भैया के साथ बाजार से लौट आए थे. मां को इस का आभास तक नहीं हुआ. सारी वारदात से बाबूजी और भैया दोनों अवगत हो चुके थे और मारे क्रोध के दोनों लाल हो रहे थे. सब कुछ अपने तक छिपा कर रख लेने के लिए बाबूजी ने मां को बहुत धिक्कारा. सुधा बाथरूम से निकली तो बाबूजी ने उसे सीने से लगा लिया.

बलात्कार किसी एक के साथ होता है पर मानसिक रूप से इस जघन्य कुकृत्य का शिकार पूरा परिवार होता है. अपनी तेजस्विनी बेटी की बरबादी पर वे अंदर से टूट चुके थे, लेकिन उस के मनोबल को बनाए रखने का प्रयास करते रहे.

सुधा ने बाहर वालों से मिलना या कहीं जाना एकदम छोड़ दिया था. लेकिन पढ़ाई को अपना जनून बना लिया था. भौतिकशास्त्र में बीएसी औनर्स में टौप करने के 2 साल बाद एमएससी में जब उस ने टौप किया तो मारे खुशी के बाबूजी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. 2 महीने बाद उसी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई. सभी कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन शादी से उस के इनकार ने बाबूजी को तोड़ दिया था. एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे थे, लेकिन सुधा शादी न करने के फैसले पर अटल रही. भैया और दीदी की शादी किसी तरह देख सकी अन्यथा किसी की बारात जाते देख कर उसे कंपकंपी होने लगती थी.

सुधा के लिए जैसा घरवर बाबूजी सोच रहे थे वे सारी बातें उन के परम दोस्त के बेटे रवि में थी. उस से शादी कर लेने में अपनी इच्छा जाहिर करते हुए वे गिड़गिड़ा उठे तो फिर सुधा मना नहीं कर सकी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर वह कई वर्षों बाद भी बच्चे का सुख रवि को दे सकी. वह तो रवि की महानता थी कि इतने दिनों तक उसे सहन करते रहे अन्यथा उन की जगह कोई और होता तो कब का खोटे सिक्के की तरह उसे मायके फेंक आया होता.

रवि के जरा सा स्पर्श करते ही मारे डर के उस का सारा बदन कांपने लगता था. उस की ऐसी हालत का सबब जब कहीं से भी नहीं जान सके तो मनोचिकित्सकों के पास उस का लंबा इलाज चला. तब कहीं जा कर वह सामान्य हो सकी थी. रवि कोई वेवकूफ नहीं थे जो कुछ नहीं समझते. बिना बताए ही उस के अतीत को वे जान चुके थे. यह बात और थी कि उन्होंने उस के जख्म को कुरेदने की कभी कोशिश नहीं की.

2 बेटों की मां बनी सुधा ने उन्हें इस तरह संस्कारित किया कि बड़े हो कर वे सदा ही मर्यादित रहे. अपने ढंग से उन की शादी की और समय के साथ 2 पोते एवं 2 पोतियों की दादी बनी.

जीवन से गुजरा वह दर्दनाक मोड़ भूले नहीं भूलता. अतीत भयावह समंदर में डूबतेउतराते वह 12 वर्षीय सुधा बन कर विलख उठी. मन ही मन उस ने एक निर्णय लिया, लेकिन आंसुओं को बहने दिया. दूसरे दिन रिचा की पसंद का खाना ले कर कुछ जल्दी ही नर्सिंगहोम जा पहुंची. समझाबुझा कर मनोज दंपती को घर भेज दिया. 2 दिन से वहीं बैठे बेटी की दशा देख कर पागल हो रहे थे. किसी से भी कुछ नहीं कहने को सुधा ने उन्हें हिदायत भी दे दी. फिर एक दृढ़ निश्चय के साथ रिचा के सिरहाने जा बैठी.

सुधा को देखते ही रिचा का प्रलाप शुरू हो गया, ‘‘अब मैं जीना नहीं चाहती. किसी को कैसे मुंह दिखाऊंगी?’’

सुधा ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ वह कोई नई बात नहीं है. सदियों से स्त्रियां पुरुषों की आदम भूख की शिकार होती रही हैं और होती रहेंगी. कोई स्त्री दावे से कह तो दे कि जिंदगी में वह कभी यौनिक छेड़छाड़ की शिकार नहीं हुई है. अगर कोई कहती है तो वह झूठ होगा. यह पुरुष नाम का भयानक जीव तो अपनी आंखों से ही बलात्कार कर देता है. आज तुम्हें मैं अपने जीवन के उस भयानक सत्य से अवगत कराने जा रही हूं, जिस से आज तक मेरा परिवार अनजान है, जिसे सुन कर शायद तुम्हारी जिजिविषा जाग उठे,’’ कहते हुए सुधा ने रिचा के समक्ष अपने काले अतीत को खोल दिया. रिचा अवाक टकटकी बांधे सुधा को निहारती रह गई. उस के चेहरे पर अनेक रंग बिखर गए, बोली, ‘‘तो क्या आंटी मैं पहले जैसा जी सकूंगी?’’

‘‘एकदम मेरी बच्ची… ऐसी घटनाओं से हमारे सारे धार्मिक ग्रंथ भरे पड़े हैं… पुरुषों की बात कौन करे… अपना वंश चलाने के लिए स्वयं स्त्रियों ने स्त्रियों का बलात्कार करवाया है. कोई शरीर गंदा नहीं होता. जब इन सारे कुकर्मों के बाद भी पुरुषों का कौमार्य अक्षत रह जाता है तो फिर स्त्रियां क्यों जूठी हो जाती हैं.

‘‘इस दोहरी मानसिकता के बल पर ही तो धर्म और समाज स्त्रियों पर हर तरह का अत्याचार करता है. सारी वर्जनाएं केवल लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़के छुट्टे सांड़ की तरह होेंगे तो ऐसी वारदातें होती रहेंगी. अगर हर मां अपने बेटों को संस्कारी बना कर रखे तो ऐसी घटनाएं समाज में घटित ही न हों. पापपुण्य के लेखेजोखे को छोड़ते हुए हमें आगे बढ़ कर समाज को ऐसी घृणित सोच को बदलने के लिए बाध्य करना है. जो हुआ उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ और कल तुम यहां से अपने घर जा रही हो. सभी की नजरों का सामना इस तरह से करना है मानो कुछ भी अनिष्ट घटित नहीं हुआ है. देखो मैं ने कितनी खूबसूरती से जीवन जीया है.’’

रिचा के चेहरे पर जीवन की लाली बिखरते देख सुधा संतुष्ट हो उठी. उस के अंतर्मन में जमा वर्षों की असीम वेदना का हिम रिचा के चेहरे की लाली के ताप से पिघल कर आंखों में मचल रहा था. अतीत के गरल को उलीच कर वह भी तो फूल सी हलकी हो गई थी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें