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Family Story : आसमां सिमट गया

Family Story : तेज सीटी के साथ ट्रेन धीरेधीरे सरकने लगी, तो धीरेधीरे हिलते हाथों ने गति पकड़ ली और फिर पीछे छूटते जा रहे प्लेटफार्म को निहारते हाथ स्वतः ही थम गए. लेकिन यादों का बवंडर था कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा था. अभी कुछ महीनों पूर्व की ही तो बात है, जब वह दिल में कुछ उत्सुकता, कुछ बेचैनी, कुछ उमंग लिए इसी स्टेशन पर उतरी थी. पहलीपहली नौकरी जैसे ससुराल में पहला पहला कदम रख रही हो. दिल में उठ रहे मिलेजुले भावों ने उसे उलझन में डाल दिया था. वह तो भला हो उस की सहेली निकिता का, जिस ने फोन पर ही उसे सीधे घर आने की हिदायत दे डाली थी.

निकिता श्वेता के कालेज की सहेली थी. किसी कारणवश श्वेता उस की शादी में सम्मिलित नहीं हो पाई थी. अब सब शिकायतें दूर कर दूंगी, सोच कर श्वेता ने कमरा मिलने तक निकिता के यहां रहने का निश्चय किया था.

निकिता उसे देख कर खुशी से लिपट गई थी. उस का उभरता पेट, भराभरा बदन देख कर श्वेता हैरान रह गई थी. “व्हाट ए प्लेंजेंट सरप्राइज… मैं तो तुम्हें एक से दो हुआ देखने आई थी. तुम तो दो से तीन होने जा रही हो.”

“अभी एक सरप्राइज तुम्हें और मिलने वाला है. पर पहले तुम फ्रैश हो लो. मैं चाय बनाती हूं. ये भी आने वाले हैं.”

नहा कर श्वेता बिलकुल तरोताजा महसूस कर रही थी. निकिता ने टेबल पर चायनाश्ता लगा दिया था. कार की आवाज सुनते ही वह दरवाजा खोलने लपकी.

“इन से मिलो, महीप मेरे पति.”

“महीप, तुम… मेरा मतलब, आप…?” अपने क्लासमेट महीप को सामने इस रूप में पा कर श्वेता हैरान थी.

“है न सरप्राइज?”

“तुम ने बताया क्यों नहीं कि तुम्हारी शादी इस महीप से हो रही है?”

“मैं क्यों बताती? तुम शादी में आती तो पता चल जाता.”

“अब झगड़ा बंद. चाय ठंडी हो रही है,” महीप के मुसकरा कर टोकने पर वे शांत हुईं. औपचारिक वार्तालाप चलता रहा. लेकिन जल्दी ही निकिता ने दोनों को झिड़क दिया, “यह क्या महीपजी, श्वेताजी और आपआप लगा रखा है. ऐसे तो मैं एक दिन में बोर हो जाऊंगी. अरे, हम कालेज के दोस्त हैं. वैसे ही खुल कर बातें करो ना?”

सचमुच थोड़ी ही देर में तीनों आपस में खुल गए. कालेज का जमाना लौट आया. घर हंसीठहाकों से गूंजने लगा. इतने बरसों बाद इस तरह मिल कर तीनों बहुत खुश थे.

एकांत मिलते ही श्वेता ने निकिता को पकड़ लिया, “तुम तो दोनों बड़े छुपे रुस्तम निकले. मुझे कभी भनक ही नहीं लगने दी कि तुम दोनों के बीच कुछ चल रहा है.”

श्वेता ने निकिता को छेड़ा, तो वह गंभीर हो गई, “ऐसा कुछ नहीं था. हमारी अरेंज्ड मैरिज है, बल्कि शादी से पूर्व महीप ने मुझे बता दिया था कि वह किसी और लड़की को प्यार करता है. लेकिन उन के घर वाले जाति के कारण इस शादी के लिए तैयार नहीं हैं.”

“फिर भी तू ने शादी कर ली?” श्वेता हैरान थी.

“क्या करती…? मेरे जैसी साधारण शक्लसूरत वाली लड़की को ले कर पिताजी वैसे ही परेशान थे. मां होती तो शायद उन्हें कुछ बता पाती. मैं पिताजी पर बोझ नहीं बने रहना चाहती थी.”

निकिता भावुक होने लगी, तो श्वेता ने स्नेह से उस के कंधे थपथपा दिए, “पर, अब तो लगता है, महीप तुम्हें खूब प्यार करता है?”

“हां शायद,” कह कर निकिता मुसकरा दी. श्वेता को उस की मुसकराहट खोखली प्रतीत हुई. वह समझ गई कि महीप अभी तक उस लड़की को नहीं भुला पाया है. निकिता के प्रति उस के दिल में हमदर्दी का सागर उमड़ पड़ा. अगले दिन से ही श्वेता ने अपने लिए कमरे की तलाश का फरमान जारी कर दिया, “मैं अपने औफिस में भी कह दूंगी और तुम दोनों भी ध्यान रखना.”

महीप चला गया तो निकिता ने अपने दिल की बात श्वेता के सामने रख दी, “मैं तो चाहती हूं कि तुम यहीं हमारे संग रहो. यह फ्लैट पिताजी मेरे नाम कर गए थे. यह दूसरा बैडरूम फिलहाल खाली ही है. तुम रहोेगी तो मुझे भी तसल्ली रहेगी. आजकल मेरी तबीयत भी ठीक नहीं रहती. तुम देख ही रही हो. महीप कितना व्यस्त रहता है. अगर एकदम तबीयत खराब हो जाए तो कोई संभालने वाला नहीं है. चार दिन औफिस जाती हूं, फिर छुट्टी ले लेती हूं.”

“पर… मैं कब तक देख सकती हूं?”

“कुछ महीने तो रह लो. फिर मैं मैटरनिटी लीव ले लूंगी. सास भी आ जाएंगी.”

“नहीं… मुझे सोच कर ही बड़ा अजीब लग रहा है. मैं तो 2-3 दिन का सोच कर आई थी.”

“प्लीज, मेरी मजबूरी समझ.”

“अच्छा तो फिर मैं पेइंगगैस्ट बन कर रहूंगी. अब यह बात तुम्हें माननी होगी, वरना मैं चली.”

“अच्छा बाबा ठीक है… जो ठीक समझे, दे देना. पर जाने का नाम मत लेना.”

सहेली का स्नेह देख श्वेता का मन भीग गया. अब जब वह यहां रह ही रही है तो प्रयास करेगी कि महीप उस लड़की को भूल कर पूरी तरह निकिता के सम्मोहन में बंध जाए. दोनों औफिस से लौट कर मिलजुल कर नए व्यंजन बनातीं, घर का इंटीरियर बदल देतीं, श्वेता निकिता को नए लुक में सजातीसंवारती. महीप देखता तो तारीफ किए बिना नहीं रह पाता. फिर श्वेता निकिता को छेड़ने लगती. उस के शरमाने, मुसकराने से वातावरण खुशनुमा हो जाता.

निकिता को श्वेता को रखने के अपने निर्णय पर संतोष होता. श्वेता को गर्व होता कि वह यहां रहते हुए पतिपत्नी को मिलाने का एक नेक काम कर रही है. महीप दोनों को खुश देख प्रसन्न होता. निकिता की देखभाल को ले कर वह बेफिक्र हो गया था.

जिंदगी यदि एक ही ढर्रे पर चलती रहे तो फिर वह जिंदगी कैसी? फिर तो वह एक गाड़ी मात्र रह जाएगी. निकिता की तबीयत खराब रहने लगी थी. चक्कर आना, जी मिचलाना वगैरह डाक्टर के लिए गर्भावस्था के सामान्य लक्षण थे. लेकिन निकिता उलटियां करतेकरते पस्त हो जाती. उस की पीठ सहलाते महीप और श्वेता के हाथ टकरा जाते. नजरें मिलती तो महीप की घूरती आंखों से सकपका कर श्वेता अपनी बेतरतीब नाइटी ठीक करने लगती. गीले बाल सुखाने श्वेता टैरेस पर जाती तो वहां महीप को टौवेल बांधे कपड़े सुखाते देख झेंप जाती.

महीप की नजरों में कुछ ऐसा सम्मोहन होता कि श्वेता समझ नहीं पाती कि वह उस की मदद करे या उलटे पैर लौट जाए. खाना बाई बनाती थी. श्वेता वैसे तो पेइंगगैस्ट थी, लेकिन महीप को अकेले चायनाश्ता या निकिता के लिए कुछ बनाते देखती तो स्वयं को रोक नहीं पाती और उस की मदद करने लगती. इस प्रयास में कभी दोनों के जिस्म छू जाते, तो गरम सांसों की टकराहट से श्वेता के कपोल रक्तिम हो उठते, नजरें स्वतः ही झुक जातीं. दोनों के बीच की पहले वाली बेतकल्लुफी जाने कहां गुम हो गई थी. दिल का चोर नजरें चुराने पर विवश करने लगा था.

यादों में खोई श्वेता की स्मृति का कांटा नरेन की शादी पर जा कर अटक गया. नरेन उन का क्लासमेट था. अपनी शादी में उस ने तीनों को बुलाया था. निकिता ने खराब तबीयत के कारण जाने में आनाकानी की, लेकिन श्वेता की जिद पर उसे उठना पड़ा. फिर तो उस ने भी जिद कर के श्वेता को अपनी कुंदन के काम वाली संतरी साड़ी पहनाई. मैचिंग सैट पहनाया. श्वेता का गोरा रंग आग की तरह दहक उठा था.

शादी में बहुत सारे पुराने दोस्त मिल जाने से सब चहक उठे थे. निकिता को भी सब से मिल कर भला लग रहा था. तभी दुलहन के आने का शोर मच गया. श्वेता का चुलबुलापन जाग उठा. वह उचकउचक कर दुलहन को देखने लगी. सब की नजरें उधर ही टिकी थीं. दुलहन सचमुच ही अप्सरा लग रही थी.

दुलहन को निहारती श्वेता को अचानक आभास हुआ कि एक जोड़ी नजरें उसी पर टिकी हुई हैं. उस ने सिहर कर नजरें घुमाईं. उस का अनुमान सही था. महीप एकटक उसे ही देखे जा रहा था. उस की आंखों में एक ऐसी कशिश थी कि श्वेता अपनी नजरें नहीं हटा पा रही थी. बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी उखड़ती सांसों को संयत किया. उस के बाद पूरी शादी में और घर आने तक भी वह महीप से नजरें चुराती रही.

निकिता को भी दोनों के बीच चल रही इस लुकाछिपी का अब कुछकुछ अहसास होने लगा था. दोनों सहेलियां बातें कर रही होतीं और महीप आ जाता तो श्वेता कुछ बहाना बना कर वहां से खिसक लेती. यदि महीप और निकिता बतिया रहे होते और श्वेता आ जाती तो दोनों यकायक चुप हो जाते. एक अव्यक्त मौन सन्नाटा पसर जाता. और इस से पूर्व कि वातावरण दमघोंटू हो जाए, श्वेता ही किसी बहाने वहां से खिसक जाती. अपने कमरे में आ कर उस का मन करता कि वह सिर पटकपटक कर रोए.

निकिता की आंखें उसे सवाल करती प्रतीत होती, ‘तुम ने तो मेरी मदद करने का आश्वासन दिया था न? फिर कुएं से निकाल कर खाई में क्यों धकेल रही हो?’ वह समझ नहीं पा रही थी कि किस से कहां चूक हुई?

इरादे नेक होने के बावजूद कभीकभी इनसान परिस्थितियों के हाथों खिलौना मात्र बन कर रह जाता है. अपनी भावनाओं पर वह चाह कर भी नियंत्रण नहीं रख पाता.

इस मोड़ पर आ कर वह अब यहां से लौट भी तो नहीं सकती. क्या कह कर लौटे? प्रत्यक्ष में किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा था. अपने बुद्धिजीवी होने पर उसे आज गर्व नहीं आक्रोश उमड़ आया था. सभ्यता के तकाजे में बुद्धिजीवी बेचारा दिल की भड़ास तक नहीं निकाल पाता. अभी गंवार, मेहनतकश मजदूर होते तो खरीखोटी सुना कर, लातघूंसे चला कर मामला निबटा लेते. और वापस दोस्त भी बन जाते, पर यहां… हुंह… चौड़ी होती खाइयों को चौड़ीचौड़ी मुसकराहटों से नापते होंठ और दिमाग दोनों थकने लगे थे. उलझनों का असीमित आसमां उस के सामने पसरा पड़ा था. वह समझ नहीं पा रही थी अपनी बांहों के छोटे से दायरे में इस आसमां को कैसे समेटे?

मम्मीपापा का फोन आया था. उन्होंने उस के लिए एक लड़का पसंद किया था. वे चाहते थे कि श्वेता आ जाए, लड़कालड़की आपस में मिल लें और शादी की बात पक्की कर लें.

नईनई नौकरी है. अभी औफिस में भी “काफी जिम्मेदारियां हैं. छुट्टी नहीं मिल पाएगी. थोड़ा सेट होने दीजिए. अभी मैं इस बारे में सोचना भी नहीं चाहती,” कह कर श्वेता ने उन्हें टाल दिया. अभी वह कुछ भी सोचनेसमझने और निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थी. उसी के कारण निकिता और महीप के संबंधों में दरार आई है. दरार पाटने के प्रयास में अनजाने ही उस ने दरार को और चौड़ा कर दिया है. यहां से जाना तो उसे है ही. पर उन के संबंधों को सामान्य बनाए बिना वह यहां से नहीं जा सकती. उसे तीनों के बीच वही दोस्ताना और बेतकल्लुफी जगानी होगी.

अनौपचारिक संबंधों की बुनियाद औपचारिक वातावरण में नहीं रखी जा सकती, इसलिए एक खुशनुमा छुट्टी के दिन श्वेता ने पिकनिक पर चलने का प्रस्ताव रख दिया.

थोड़ी आनाकानी के बाद निकिता ने हां कर दी. दोनों का मूड देख महीप भी खुशीखुशी तैयारी में हाथ बंटाने लगा. कालेकाले बादलों ने आसमां ढक रखा था. ठंडी हवा के झोंके फिजा में मस्ती घोल रहे थे. रास्ते में श्वेता ने कालेज के दोस्तों की मिमिक्री उतारने का सिलसिला शुरू किया, तो हंसतेहंसते सब के पेट में बल पड़ गए. उस ने महीप और निकिता को भी नहीं छोड़ा. फिर तो महीप और निकिता ने भी उस की जम कर नकल उतारी. कालेज के खुशनुमा मस्ती भरे पल फिर से लौट आए थे.

श्वेता सोच रही थी कि ये पल कितने अमूल्य और सहेजने योग्य हैं. इन पलों की मीठी याद में पूरी जिंदगी गुजारी जा सकती है, मजबूत संबंधों की बुनियाद रखी जा सकती है. और वह नादानी में क्षणिक आकर्षण में बंध कर इन सब से हाथ धो बैठने वाली थी. आकर्षण के ऐसे कुछ पलों का क्या लाभ, जिन्हें याद कर इनसान जिंदगीभर पछताता रहे.

गंतव्य तक पहुंच कर वे खूब घूमे, खायापीया और फिर थक कर बैठ गए. निकिता तो लेट ही गई. श्वेता को कुछ दूरी पर झरना बहने का स्वर सुनाई दिया. वह फिर मचल उठी, “चलो, वहां चलते हैं. पानी में भीगेंगे, मस्ती करेंगे.”

महीप भी तैयार हो गया. लेकिन निकिता ने हाथ झटक दिए. वह बहुत थक चुकी थी, “प्लीज, तुम लोग जाओ. मैं यहीं रैस्ट कर रही हूं.”

श्वेता का मन तो हुआ महीप का हाथ थाम कर उधर हो आए. लेकिन फिर कुछ सोच कर वह बैठ गई.

“अगली बार चलेंगे. आज हम भी बहुत थक गए हैं. है न महीप?” स्थिति की नजाकत भांपते हुए महीप चुप बैठा रहा. वातावरण स्तब्ध और बोझिल हो उठा था. इस से पूर्व कि वह दमघोंटू हो जाए, श्वेता ने निकिता से गाना सुनाने का आग्रह किया, पर वह टालने लगी.

“सुनाओ न निकिता, मैं तो भूल ही गया था कि तुम कालेज में इतना अच्छा गाती थी,” महीप ने आग्रह किया तो निकिता और इनकार न कर सकी. फिजा में ‘मेरे नैना सावनभादों, फिर भी मेरा मन प्यासा…’ की स्वरलहरी गूंज उठी.

निकिता के दिल का सारा दर्द गीत में मुखर हो उठा था. न चाहते हुए भी श्वेता की आंखें डबडबा उठीं. महीप किसी सम्मोहन में बंधा निकिता को निहारे जा रहा था. उस के चेहरे के उतारचढ़ाव बता रहे थे कि निकिता के दर्द को आज उस ने शिद्दत से महसूस किया है. स्वयं निकिता का चेहरा आंसुओं से तर हो चुका था. गीत के समाप्त होने के साथ ही आसमां से ठंडे पानी की दोचार बूंदें टपक पड़ीं.

“देखो तुम्हारी आवाज के दर्द से आसमां भी रोने लगा,” बोझिल वातावरण को हलका बनाने का प्रयास करते हुए श्वेता ने सामान समेटना शुरू किया.

महीप ने आहिस्ता से निकिता को सहारा दे कर उठाया और फिर अपनी बांहों के घेरे में ले कर उसे आहिस्ताआहिस्ता कार की ओर ले जाने लगा, मानो किसी बहुत कीमती चीज के हाथ से फिसल या छिटक जाने का भय हो. श्वेता मंत्रमुग्ध सी उन्हें पीछे से निहार रही थी. उस के चेहरे पर अपूर्व आत्मसंतुष्टि के भाव थे.

“मौछी, मैं यहां बैठ जाऊं?” एक तुतलाती आवाज से श्वेता की तंद्रा भंग हुई. और वह वर्तमान में लौट आई.
“अं… आप इस की मौसी जैसी दिखती हैं न, इसलिए ऐसे बोल रहा है,” बच्चे की मां ने सफाई दी.

“नहींनहीं, मुझे तो बहुत अच्छा लगा. इस संबोधन में कहीं ज्यादा मिठास है.”

‘निकिता और महीप का बच्चा भी मुझे मौसी ही कह कर बुलाएगा,’ सोचते हुए श्वेता मुसकरा दी. वह पर्स से विवेक का फोटो निकालने लगी, जो पापा ने भेजा था. निकिता और महीप को वह यही तो कह कर आई थी कि यदि लड़का उसे पसंद आ गया, तो वह नहीं लौटेगी. वहीं दूसरी नौकरी तलाश लेगी.

‘कहना तो नहीं चाहिए, पर हम कह रहे हेैं कि काश, तुम वापस न लौटो,’ स्टेशन पर दोनों ने हंसते हुए उसे विदा किया था.

‘मैं न लौटने के लिए ही निकली हूं… आकर्षण की लपट को विवेक के छींटे ही शांत कर सकते हैं,’ सोचते हुए श्वेता प्यार से फोटो को निहारने लगी. आसमां उस की मुट्ठी में सिमट आया था. Family Story 

Social Story In Hindi : समय चक्र – बिल्लू भैया ने क्या लिखा था पत्र में?

Social Story In Hindi : शिमला अब केवल 5 किलोमीटर दूर था…यद्यपि पहाड़ी घुमाव- दार रास्ते की चढ़ाई पर बस की गति बेहद धीमी हो गई थी…फिर भी मेरा मन कल्पनाओं की उड़ान भरता जाने कितना आगे उड़ा जा रहा था. कैसे लगते होंगे बिल्लू भैया? जो घर हमेशा रिश्तेदारों से भरा रहता था…उस में अब केवल 2 लोग रहते हैं…अब वह कितना सूना व वीरान लगता होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए बेहद पीड़ादायक था. अब लग रहा था कि क्यों यहां आई और जब घर को देखूंगी तो कैसे सह पाऊंगी?

जैसे इतने वर्ष कटे, कुछ और कट जाते. कभी सोचा भी न था कि ‘अपने घर’ और ‘अपनों’ से इतने वर्षों बाद मिलना होगा. ऐसा नहीं था कि घर की याद नहीं आती थी, कैसे न आती? बचपन की यादों से अपना दामन कौन छुड़ा पाया है? परंतु परिस्थितियां ही तो हैं, जो ऐसा करने पर मजबूर करती हैं कि हम उस बेहतरीन समय को भुलाने में ही सुकून महसूस करते हैं. अगर बिल्लू भैया का पत्र न आया होता तो मैं शायद ही कभी शिमला आने के लिए अपने कदम बढ़ाती. 4 दिन पहले मेरी ओर एक पत्र बढ़ाते हुए मेरे पति ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिल्लू भैया इतने भावुक व कमजोर दिल के कैसे हो गए?

मैं ने तो इन के बारे में कुछ और ही सुना था…’’ पत्र में लिखी पंक्तियां पढ़ते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए, गला भर आया. लिखा था, ‘छोटी, तुम लोग कैसे हो? मौका लगे तो इधर आने का प्रोग्राम बनाना, बड़ा अकेलापन लगता है…पूरा घर सन्नाटे में डूबा रहता है, तेरी भाभी भी मायूस दिखती है, टकटकी लगा कर राह निहारती रहती है कि क्या पता कहीं से कोई आ जाए…’ समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे आज बिल्लू भैया जैसा इनसान एक निरीह प्राणी की तरह आने का निमंत्रण दे रहा है और वह भी ‘अकेलेपन’ का वास्ता दे कर. यादों पर जमी परत पिघलनी शुरू हुई. वह भी बिल्लू भैया के प्रयास से क्योंकि यदि देखा जाए तो यह परत भी उन्हीं के कारण जमानी पड़ी थी.

बचपन में बिल्लू भैया जाड़ों के दिनों में अकसर पानी पर जमी पाले की परत पर हाकी मार कर पानी निकालते और हम सब ठंड की परवा किए बिना ही उस पानी को एकदूसरे पर उछालने का ‘खेल’ खेलते. एक बार बिल्लू भैया, बड़े गर्व से हम को अपनी उपलब्धि बता ही रहे थे कि अचानक उन से बड़े कन्नू भैया ने उन का कान जोर से उमेठ कर डांट लगाई… ‘अच्छा, तो ये तू है, जो मेरी हाकी का सत्यानाश कर रहा है…मैं भी कहूं कि रोज मैच खेल कर मैं अपनी हाकी साफ कर के रखता हूं और वह फिर इतनी गंदी कैसे हो जाती है.’ और बिल्लू भैया भी अपमान व दर्द चुपचाप सह कर, बिना आंसू बहाए कन्नू भैया को घूरते रहे पर ‘सौरी’ नहीं कहा.

बचपन से ही वे रोना या अपना दर्द दूसरे से कहना अच्छा नहीं समझते थे, कभीकभी तो वे नाटकीय अंदाज में कहते थे, ‘आई हेट टियर्स…’ दूसरों से निवेदन करना जो इनसान अपनी हेठी समझता हो आज वह इस तरह…इस स्थिति में. कितना अच्छा समय था. जब हम छोटे थे और एकता के धागे से बंधा कुल मिला कर लगभग 20 सदस्यों का हमारा संयुक्त परिवार था, जिस में दादी, एक विधवा व निसंतान चचेरी बूआ, हमारे पिता, उन से बड़े 3 भाई, सब के परिवार, हम 10 भाईबहन जोकि अपनीअपनी उम्र के भाईबहनों के साथ दोस्त की तरह रहते थे. सगे या चचेरे का कोई भाव नहीं, ताऊजी की दुकान थी…

जहां पर ग्राहक को सामान से ज्यादा ताऊजी की ईमानदारी पर विश्वास था. मेरे पिता, ताऊजी के साथ दुकान पर काम करते थे और उन के अन्य 2 भाइयों में से एक स्थानीय डिगरी कालेज में तथा एक आयकर विभाग में क्लर्क के पद पर थे जोकि निसंतान थे. कन्नू व बिल्लू भैया ताऊजी के बेटे थे. उस के बाद नन्हू व सोनू भैया थे. हम 3 बहनें, 1 भाई थे. अध्यापन का कार्य करने वाले ताऊजी के 2 बच्चे अभी छोटे थे क्योंकि वे उन की शादी के लगभग 10 साल बाद हुए थे.

आयकर विभाग वाले ताऊजी निसंतान थे. समय के साथ घर में परिवर्तन आने शुरू हुए, दादी व बूआ की मौत एक के बाद एक कर हो गई. घर के लड़के शहर छोड़ कर बाहर जाने लगे. कोई डाक्टरी की पढ़ाई के लिए, तो कोई नौकरी के लिए. मेरी भी बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी. बिल्लू भैया की भी नागपुर में एक दवा की कंपनी में नौकरी लग गई, जब वे भी चले गए तब अचानक एक दिन ताऊजी पापा से बोले, ‘छोटे, अच्छा हुआ कि सभी अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं, मैं चाहता भी नहीं था कि आने वाले समय में नई पीढ़ी यहां बसे. हम ने तो निभा लिया पर ये बच्चे हमारी तरह साथ नहीं रह सकते.

बड़ी मुश्किल से परिवार जुड़ता है और उस में किसी एक का योगदान नहीं होता बल्कि सभी का धैर्य, निस्वार्थ त्याग, स्नेह व समर्पण मिला कर ही एकतारूपी मजबूत धागे की डोर सब को जोड़ पाती है, वर्षों लग जाते हैं…यह सब होने में.’ वैसे तो दूसरे लोग भी घर से गए थे पर ताऊजी ने यह बात बिल्लू भैया के जाने के बाद ही क्यों कही? यह विचार मेरे मन में कौंधा और उस का उत्तर मुझे मात्र 6 महीने बाद ही मिल गया. वह भी एक तीव्र प्रहार के रूप में. ऐसी चोट मिली कि आज तक उस की कसक अंदर तक पीड़ा पहुंचा देती है. बात यह हुई कि मात्र 6 महीने बाद ही बिल्लू भैया नौकरी छोड़ कर घर वापस आ गए. ‘मैं भी दुकान संभाल लूंगा क्योंकि मुझे लगता है कि बुढ़ापे में आप लोग अकेले रह जाएंगे, आप लोगों की देखभाल के लिए भी तो कोई चाहिए,’ कहते हुए जब बिल्लू भैया ने अपना सामान अंदर रखना शुरू किया तो घर के सभी सदस्य बहुत खुश हुए किंतु ताऊजी अपने चेहरे पर निर्लिप्त भाव लिए अपना कार्य करते रहे. मुझे जीवन की कड़वी सचाइयों का इतना अनुभव न था अन्यथा मैं भी समझ जाती कि यह चेहरा केवल निर्लिप्तता लिए हुए नहीं है बल्कि इस के पीछे आने वाले तूफान के कदमों की आहट पहचानने की चिंता व्याप्त है और यही सत्य था.

तूफान ही तो था, जिस का प्रभाव आज तक महसूस होता रहा. धमाका उस दिन महसूस हुआ जब मैं अलसाई सी अपने बिस्तर पर आंखें मूंदे पड़ी थी कि एक तेज आवाज मेरे कानों में पड़ी : ‘चाचाजी, कभीकभी मुझे लगता है कि आप अपने फायदे के लिए हमारे पिताजी के साथ रह रहे हैं. आप को अपनी बेटियों की शादी के लिए पैसा चाहिए न इसीलिए…’ यह क्या, मैं ने आंखें खोल कर देखा तो अपने पापा के सामने बिल्लू भैया को खड़ा देखा… ‘यह क्या कह रहे हो? हमारे बीच में ऐसी भावना होती तो हम इतने वर्षों तक कभी साथ न रह पाते. संयुक्त परिवार है हमारा, जहां हमारेतुम्हारे की कोई जगह नहीं.

इतनी छोटी बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे?’ पापा लगभग चिल्लाते हुए बोले. पापा की एक आवाज पर थर्राने वाले बिल्लू भैया की आज इतनी हिम्मत हो गई कि उम्र का लिहाज ही भूल गए थे. मैं सिहर कर चुपचाप पड़ी सोने का नाटक करने लगी पर ताऊजी के उस वाक्य का अर्थ मेरी समझ में आ गया था. नई पीढ़ी का रंग सामने आ रहा था. पिता होने के नाते वे अपने बेटे की नीयत जानते थे और अपने संयुक्त परिवार को हृदय से प्यार करने वाले ताऊजी इस की एकता को हर खतरे से बचाना चाहते थे. हतप्रभ से मेरे पापा ने जब यह बात मेरे ताऊजी से कही तो वे केवल एक ही वाक्य बोल पाए, ‘शतरंज की बाजी में, दूसरे के मजबूत मोहरे पर ही सब से पहले वार किया जाता है. वही हो रहा है.

तुम मुझ पर विश्वास रखोगे तो कुछ नहीं बिगड़ेगा.’ कही हुई बात इतनी कड़वी थी कि उस की कड़वाहट धीरेधीरे घर के वातावरण में घुलने लगी…उस का प्रभाव धीरेधीरे अन्य लोगों पर भी दिखने लगा और एक अदृश्य सी सीमारेखा में सभी परिवार सिमटने लगे. एक ताऊजी कालेज के वार्डन बन कर वहीं होस्टल में बने सरकारी घर में चले गए. दूसरे भी मन की शांति के लिए घर के पीछे बने 2 कमरों में रहने लगे. अपमान से बचने के लिए उन्होंने रसोई भी अलग कर ली. अलगाव की सीमारेखा को मिटाने वाले सशक्त हाथ भी उम्र के साथ धीरेधीरे अशक्त होते चले गए. ताऊजी को लकवा मार गया और पापा भी अपने सबल सहारे को कमजोर पा कर परिस्थितियों के आगे झुकने को मजबूर हो गए, परंतु अंत समय तक उन्होंने ताऊजी का साथ न छोड़ा. अब घर बिल्लू भैया व उन की पत्नी के इशारे पर चलने लगा, समय आने पर मेरी भी शादी हो गई और मैं शिमला के अपने इस प्यारे से घर को भूल ही गई. ताऊजी, ताईजी, पापा का इंतकाल हो गया.

मां मेरे भाई के पास आ गईं. अब मेरे लिए उस घर में बचपन की यादों के सिवा कुछ न था. समय का चक्र अविरल गति से घूम रहा था…और आज बिल्लू भैया भी उम्र के उसी पड़ाव पर खड़े थे, जिस पड़ाव पर कभी मेरे पापा अपमानित हुए थे, पर उन्होंने ऐसा पत्र क्यों लिखा? क्या कारण होगा? अचानक कानों में पति के स्वर पड़े तो मेरी तंद्रा भंग हुई थी. ‘‘तुम शिमला क्यों नहीं चली जातीं, तुम्हारा घूमना भी हो जाएगा और उन का अकेलापन भी दूर होगा…चाहे थोड़े दिनों के लिए ही सही,’’ अचानक अपने पति की बातें सुन कर मैं ने सोचा कि मुझे जाना चाहिए…और मैं तैयारी करने लग गई थी. शिमला पहुंचते ही, मैं अपनी थकान भूल गई. तेज चाल से अपने मायके की ओर बढ़ते हुए मुझे याद ही नहीं रहा कि दिल्ली में रोज मुझे अपने घुटनों के दर्द की दवा खानी पड़ती है.

कौलबेल पर हाथ रखते ही, बिल्लू भैया की आवाज सुनाई पड़ी, मानो वे मेरे आने के इंतजार में दरवाजे के पीछे ही खड़े थे… ‘‘छोटी, तू आ गई…बहुत अच्छा किया.’’ मुझे ऐसा लगा मानो ताऊजी सामने खड़े हों. ‘‘तेरी भाभी तो तेरे लिए पकवान बनाने में व्यस्त है…’’ तब तक भाभीजी भी डगमग चाल से चल कर मुझ से लिपट गईं. सच कहूं तो उन के प्यार में आज भी वह आकर्षण नहीं था, जो किसी ‘अपने’ में होता है. आज हम सब को अपने पास बुलाना उन की मजबूरी थी. अकेलेपन के अंधेरे से बाहर निकलने का एक प्रयास मात्र था…उस में अपनापन कहां से आएगा. ‘‘चलचल, अंदर चल,’’ बिल्लू भैया मेरा सामान अंदर रखने लगे, घर में घुसते ही मेरी आंखें भर आईं. यों तो चारों ओर सुंदरसुंदर फर्नीचर व सामान सजा हुआ था. पर सबकुछ निर्जीव सा लगा. काश, बिल्लू भैया व भाभीजी सम?ा पाते कि रौनक इनसानों से होती है, कीमती सामान से नहीं. घर से हमारे बचपन की यादें मिट चुकी थीं.

आज मां के हाथ के बने आलू की खुशबू, मात्र कल्पना में महसूस हो रही थी. मकान की शक्ल बदल चुकी थी… दुकान से मिसरी, गुड़, किशमिश गायब थी. बिल्लू भैया भी तो वे बिल्लू भैया कहां थे? ‘‘कितना बदल गया सबकुछ…’’ मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया. ‘‘सच कहती है तू…वाकई सब बदल गया, देख न, तनय, जिसे बच्चे की तरह गोद में खिलाया था…आज मुझ से कितनी ऊंची आवाज में बात करने लगा,’’ बिल्लू भैया के मन का गुबार मौका मिलते ही बाहर आ गया. ‘‘तनय, कन्नु भैया का बेटा… क्यों, क्या हो गया?’’ ‘‘कहता है, मैं जायदाद पर अपना अधिकार जमाने के लिए, नौकरी छोड़ कर यहां आया था,’’ बता भला, मैं ऐसा क्यों करने लगा. जानता है न कि मैं कमजोर हो गया हूं तो जो चाहे कह जाता है, अपना हिस्सा मांग रहा है… कौन सा हिस्सा दूं और लोग भी तो हैं,’’ कहतेकहते बिल्लू भैया हांफने लगे, ‘‘बंटवारे का चक्कर होगा तो मैं और तेरी भाभी कहां जाएंगे.’’ विनी (भैया की बेटी) भी अमेरिका में बस गई थी. असुरक्षा व भय का भाव भैया की आवाज में साफ झलक रहा था.

मेरे कदम जम गए… कानों में दोनों आवाजें गूजने लगीं… एक जो मेरे पापा से कही गई थी और दूसरी आज ये बिल्लू भैया की. कितनी समानता है. न्याय मिलने में सालों तो लगे पर मिला. शायद इसीलिए परिस्थितियों ने बिल्लू भैया से मुझे ही चिट्ठी लिखवाई, क्योंकि उस दिन अपने पापा को मिलने वाली प्रत्यक्ष पीड़ा की प्रत्यक्षदर्शी गवाह मैं ही थी. इसीलिए आज न्याय प्राप्त होने की शांति भी मैं ही महसूस कर सकती थी. आंखें बंद कर मन ही मन मैं ने ऊपर वाले को धन्यवाद दिया. आज बिल्लू भैया को इस स्थिति में देख कर मुझे अपार दुख हो रहा था… बचपन के सखा थे वे हमारे. ‘‘भैया, हम आप के साथ हैं.

हमारे होते हुए आप अकेले नहीं हैं. मैं वादा करती हूं कि तीजत्योहारों पर और इस के अलावा भी जब मौका लगेगा हम एकदूसरे से मिलते रहेंगे,’’ मैं ने अपनी आवाज को सामान्य करते हुए कहा क्योंकि मैं किसी भी हालत में अपने हृदय के भाव भैया पर जाहिर नहीं करना चाहती थी. मेरे इतने ही शब्दों ने भैया को राहत सी दे दी थी…उन के चेहरे से अब तनाव की रेखाएं कम होने लगी थीं. आखिर मेरे चलने का दिन आ गया. पूरे घर का चक्कर लगा कर एक बार फिर अपने मन की उदासी को दूर करने का प्रयास किया पर प्रयास व्यर्थ ही गया. बस स्टैंड पर भैया की आंखों में आंसू देख कर मेरे सब्र का बांध टूट गया क्योंकि ये आंसू सचाई लिए हुए थे. पश्चात्ताप था उन में, पर अब खाइयां इतनी गहरी थीं कि उन को पाटने में वर्षों लग जाते… ताऊजी की सहेजी गई अमानत अब पहले जैसा रूप कैसे ले सकती थी.

बस चल पड़ी और भैया भी लौट गए. मन में एक टीस सी उठी कि काश, यदि बिल्लू भैया जैसे लोग कोई भी ‘दांव’ लगाने से पहले समय के चक्र की अविरल गति का एहसास कर लें तो वे कभी भी ऐसे दांव लगाने की हिम्मत न करें… यह अटल सत्य है कि यही चक्र एक दिन उन्हें भी उसी स्थिति पर खड़ा करेगा जिस पर उन्होंने दूसरे व्यक्ति को कमजोर समझ कर खड़ा किया है. इस तथ्य को भुलाने वाले बिल्लू भैया आज दोहरी पीड़ा झेल रहे थे… निजी व पश्चात्ताप की. Social Story In Hindi

Family Story In Hindi : अपराधबोध – उस दिन क्या हुआ था अंजु के साथ ?

Family Story In Hindi : अपने मकान के दूसरे हिस्से में भारी हलचल देख कर अंजु हैरानी में पड़ गई थी कि इतने लोगों का आनाजाना क्यों हो रहा है. जेठजी कहीं बीमार तो नहीं पड़ गए या फिर जेठानी गुसलखाने में फिसल कर गिर तो नहीं गईं.

जेठानी की नौकरानी जैसे ही दरवाजे से बाहर निकली, अंजु ने इशारे से उसे अपनी तरफ बुला लिया.

चूंकि देवरानी और जेठानी में मनमुटाव चल रहा था इसलिए जेठानी के नौकर इस ओर आते हुए डरते थे.

अंजु ने चाय का गिलास नौकरानी को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘थोड़ी देर बैठ कर कमर सीधी कर ले.’’

चाय से भरा गिलास देख कर नौकरानी खुश हो उठी, फिर उस ने अंजु को बहुत कुछ जानकारी दे दी और यह कह कर उठ गई कि मिठाई लाने में देरी हुई तो घर में डांट पड़ जाएगी.

यह जान कर अंजु के दिल पर सांप लोटने लगा कि जेठानी की बेटी निन्नी का रिश्ता अमेरिका प्रवासी इंजीनियर लड़के से पक्का होने जा रहा है.

जेठानी का बेटा डाक्टर बन गया. डाक्टर बहू घर में आ गई.

अब तो निन्नी को भी अमेरिका में नौकरी करने वाला इंजीनियर पति मिलगया.

ईर्ष्या से जलीभुनी अंजु पति और पुत्र दोनों को भड़काने लगी, ‘‘जेठजेठानी तो शुरू से ही हमारे दुश्मन रहे हैं. इन लोगों ने हमें दिया ही क्या है. ससुरजी की छोड़ी हुई 600 गज की कोठी में से यह 100 गज में बना टूटाफूटा नौकर के रहने लायक मकान हमें दे दिया.’’

हरीश भी भाई से चिढ़ा हुआ था. वह भी मन की भड़ास निकालने लगा, ‘‘भाभी यह भी तो ताने देती कहती हैं कि भैया ने अपनी कमाई से हमें दुकान खुलवाई, मेरी बीमारी पर भी खर्चा किया.’’

‘‘दुकान में कुछ माल होता तब तो दुकान चलती, खाली बैठे मक्खी तो नहीं मारते,’’ बेटे ने भी आक्रोश उगला.

अंजु के दिल में यह बात नश्तर बन कर चुभती रहती कि रहन- सहन के मामले में हम लोग तो जेठानी के नौकरों के बराबर भी नहीं हैं.

जेठजेठानी से जलन की भावना रखने वाली अंजु कभी यह नहीं सोचती थी कि उस का पति व्यापार करने के तौरतरीके नहीं जानता. मामूली बीमारी में भी दुकान छोड़ कर घर में पड़ा रहता है.

बच्चे इंटर से आगे नहीं बढ़ पाए. दोनों बेटियों का रंग काला और शक्लसूरत भी साधारण थी. न शक्ल न अक्ल और न दहेज की चाशनी में पगी सुघड़ता, संपन्नता तो अच्छे रिश्ते कहां से मिलें.

अंजु को सारा दोष जेठजेठानी का ही नजर आता, अपना नहीं.

थोड़ी देर में जेठानी की नौकरानी बुलाने आ गई. अंजु को बुरा लगा कि जेठानी खुद क्यों नहीं आईं. नौकरानी को भेज कर बुलाने की बला टाल दी. इसीलिए दोटूक शब्दों में कह दिया कि यहां से कोई नहीं जाएगा.

कुछ देर बाद जेठ ने खुद उन के घर आ कर आने का निमंत्रण दिया तो अंजु को मन मार कर हां कहनी पड़ी.

जेठानी के शानदार ड्राइंगरूम में मखमली सोफों पर बैठे लड़के वालों को देख कर अंजु के दिल पर फिर से सांप लोट गया.

लड़का तो पूरा अंगरेज लग रहा है, विदेशी खानपान और रहनसहन अपना-कर खुद भी विदेशी जैसा बन गया है.

लड़के के पिता की उंगलियों में चमकती हीरे की अंगूठियां व मां के गले में पड़ी मोटी सोने की जंजीर अंजु के दिल पर छुरियां चलाए जा रही थी.

एकाएक जेठानी के स्वर ने अंजु को यथार्थ में ला पटका. वह लड़के वालों से उन लोगों का परिचय करा रहे थे.

लड़के वालों ने उन की तरफ हाथ जोड़ दिए तो अंजु के परिवार को भी उन का अभिवादन करना पड़ा.

जेठजी कितने चतुर हैं. लड़के वालों से अपनी असलियत छिपा ली, यह जाहिर नहीं होने दिया कि दोनों परिवारों के बीच में बोलचाल भी बंद है. माना कि जेठजी के मन में अब भी अपने छोटे भाई के प्रति स्नेह का भाव छिपा हुआ है पर उन की पत्नी, बेटा और बेटी तो दुश्मनी निभाते हैं.

भोजन के बाद लड़के वालों ने निन्नी की गोद भराई कर के विवाह की पहली रस्म संपन्न कर दी.

लड़के की मां ने कहा कि मेरा बेटा विशुद्ध भारतीय है. वर्षों विदेश में रह कर भी इस के विचार नहीं बदले. यह पूरी तरह भारतीय पत्नी चाहता था. इसे लंबी चोटी वाली व सीधे पल्लू वाली निन्नी बहुत पसंद आई है और अब हम लोग शीघ्र शादी करना चाहते हैं.

अंजु को अपने घर लौट कर भी शांति नहीं मिली.

निन्नी ने छलकपट कर के इतना अच्छा लड़का साधारण विवाह के रूप में हथिया लिया. इस चालबाजी में जेठानी की भूमिका भी रही होगी. उसी ने निन्नी को सिखापढ़ा कर लंबी चोटी व सीधा पल्लू कराया होगा.

अंजु के घर में कई दिन तक यही चर्चा चलती रही कि जीन्सशर्ट पहन कर कंधों तक कटे बालों को झुलाती हुई डिस्को में कमर मटकाती निन्नी विशुद्ध भारतीय कहां से बन गई.

एक शाम अंजु अपनी बेटी के साथ बाजार में खरीदारी कर रही थी तभी किसी ने उस के बराबर से पुकारा, ‘‘आप निन्नी की चाची हैं न.’’

अंजु ने निन्नी की होने वाली सास को पहचान लिया और नमस्कार किया. लड़का भी साथ था. वह साडि़यों केडब्बों को कार की डिग्गी में रखवा रहा था.

‘‘आप हमारे घर चलिए न, पास मेंहै.’’

अंजु उन लोगों का आग्रह ठुकरा नहीं पाई. थोड़ी नानुकुर के बाद वह और उस की बेटी दोनों कार में बैठ गईं.

लड़के की मां बहुत खुश थी. उत्साह भरे स्वर में रास्ते भर अंजु को वह बतातीरहीं कि उन्होंने निन्नी के लिए किस प्रकारके आभूषण व साडि़यों की खरीदारी की है.

लड़के वालों की भव्य कोठी व कई नौकरों को देख अंजु फिर ईर्ष्या से जलने लगी. उस की बेटी के नसीब में तो कोई सर्वेंट क्वार्टर वाला लड़का ही लिखा होगा.

अंजु अपने मन के भाव को छिपा नहीं पाई. लड़के की मां से अपनापन दिखाती हुई बोली, ‘‘बहनजी, कभीकभी आंखों देखी बात भी झूठी पड़ जाती है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

अंजु ने जो जहर उगलना शुरू किया तो उगलती ही चली गई. कहतेकहते थक जाती तो उस की बेटी कहना शुरू कर देती.

लड़के की मां सन्न बैठी थी, ‘‘क्या कह रही हो बहन, निन्नी के कई लड़कों से चक्कर चल रहे हैं. वह लड़कों के साथ होटलों में जाती है, शराब पीती है, रात भर घर से बाहर रहती है.’’

‘‘अब क्या बताऊं बहनजी, आप ठहरीं सीधीसच्ची. आप से झूठ क्या बोलना. निन्नी के दुर्गुणों के कारण पहले भी उस का एक जगह से रिश्ता टूट चुका है.’’

अंजु की बातों को सुन कर लड़के की मां भड़क उठी, ‘‘ऐसी बिगड़ी हुई लड़की से हम अपने बेटे का विवाह नहीं करेंगे. हमारे लिए लड़कियों की कमी नहीं है. सैकड़ों रिश्ते तैयार रखे हैं.’’

अंजु का मन प्रसन्न हो उठा. वह यही तो चाहती थी कि निन्नी का रिश्ता टूट जाए.

लोहा गरम देख कर अंजु ने फिर से चोट की, ‘‘बहनजी, आप मेरी मानें तो मैं आप को एक अच्छे संस्कार वाली लड़की दिखाती हूं, लड़की इतनी सीधी कि बिलकुल गाय जैसी, जिधर कहोगे उधर चलेगी.’’

‘‘हमें तो बहन सिर्फ अच्छी लड़की चाहिए, पैसे की हमारे पास कमी नहीं है.’’

लड़के की मां अगले दिन लड़की देखने के लिए तैयार हो गईं.

एक तीर से दो निशाने लग रहे थे. निन्नी का रिश्ता भी टूट गया और अपनी गरीब बहन की बेटी के लिए अच्छा घरपरिवार भी मिल गया.

अंजु ने उसी समय अपनी बहन को फोन कर के उन लोगों को बेटी सहित अपने घर में बुला लिया.

फिर बहन की बेटी को ब्यूटीपार्लर में सजाधजा कर उस ने खुद लड़के वालों के घर ले जा कर उसे दिखाया पर लड़के को लड़की पसंद नहीं आई.

अंजु अपना सा मुंह ले कर वापस लौट आई.

फिर भी अंजु का मन संतुष्ट था कि उस के घर शहनाई न बजी तो जेठानी के घर ही कौन सी बज गई.

निन्नी का रिश्ता टूटने की खुशी भी तो कम नहीं थी.

एक दिन निन्नी रोती हुई उस के घर आई, ‘‘चाची, तुम ने उन लोगों से ऐसा क्या कह दिया कि उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया.’’

अंजु पहले तो सुन्न जैसी खड़ी रही, फिर आंखें तरेर कर निन्नी की बात को नकारती हुई बोली, ‘‘तुम्हारा रिश्ता टूट गया, इस का आरोप तुम मेरे ऊपर क्यों लगा रही हो. तुम्हारे पास क्या सुबूत है कि मैं ने उन लोगों से तुम्हारी बातें लगाई हैं.’’

‘‘लेकिन वे लोग तो तुम्हारा ही नाम ले रहे हैं.’’

‘‘मैं भला उन लोगों को क्या जानूं,’’ अंजु निन्नी को लताड़ती हुई बोली, ‘‘तुम दोनों मांबेटी हमेशा मेरे पीछे पड़ी रहती हो, रिश्ता टूटने का आरोप मेरे सिर पर मढ़ कर मुझे बदनाम कर रही हो. यह भी तो हो सकता है कि तुम्हारी किसी गलती के कारण ही रिश्ता टूटा हो.’’

‘‘गलती… कैसी गलती? मेरी बेटी ने आज तक निगाहें उठा कर किसी की तरफ नहीं देखा तो कोई हरकत या गलती भला क्यों करेगी?’’ दीवार की आड़ में खड़ी जेठानी भी बाहर निकल आई थीं.

जेठानी की खूंखार नजरों से घबरा कर अंजु ने अपना दरवाजा बंद कर लिया.

इस घटना को ले कर दोनों घरों में तनाव की अधिकता बढ़ गई थी. फिर जेठजी ने अपनी पत्नी को समझा कर मामला रफादफा कराया.

एक रात अंजु का बेटा दफ्तर से घर लौटा तो उस के पास 500 और 1 हजार रुपए के नएनए नोट देख कर पूरा परिवार हैरान रह गया.

अंजु ने जल्दी से घर का दरवाजा बंद कर लिया और धीमी आवाज में रुपयों के बारे में पूछने लगी.

बेटे ने भी धीमी आवाज में बताया कि आज सेठजी अपना पर्स दुकान में ही भूल गए थे.

हरीश को बेटे की करतूत नागवार लगी, ‘‘तू ने सेठजी का पर्स घर में ला कर अच्छा नहीं किया. उन्हें याद आएगा तो वे तेरे ही ऊपर शक करेंगे. तू इन रुपयों को अभी उन्हें वापस कर आ.’’

आंखें तरेर कर अंजु ने पति से कहा, ‘‘तुम सचमुच के राजा हरिश्चंद्र हो तो बने रहो. हमें सीख देने की जरूरत नहीं है.’’

मांबेटा दोनों देर रात तक रुपयों को देखदेख कर खुश होते रहे और रंगीन टेलीविजन खरीदने के मनसूबे बनाते रहे.

सुबह किसी ने घर का दरवाजा जोरों से खटखटाया.

अंजु ने दरवाजा खोलने से पहले खिड़की से बाहर देखा तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. बेटे की दुकान का मालिक कई लोगों के साथ खड़ा था.

अंजु घबरा कर पति को जगाने लगी, ‘‘देखो तो, यह कौन लोग हैं?’’

बाहर खड़े लोग देरी होते देख कर चिल्लाने लगे थे, ‘‘दरवाजा खोलते क्यों नहीं? मुंह छिपा कर इस तरह कब तक बैठे रहोगे. हम दरवाजा तोड़ डालेंगे.’’

शोर सुन कर जेठजेठानी का पूरा परिवार बाहर निकल आया. उन को बाहर खड़ा देख कर अंजु का भी परिवार बाहर निकल आया.

‘‘आप लोग इस प्रकार से हंगामा क्यों मचा रहे हैं?’’ हरीश ने साहस कर के प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारा लड़का दुकान से रुपए चुरा कर ले आया है,’’ मालिक क्रोध से आगबबूला हो कर बोला.

‘‘सेठजी, आप को कोई गलत- फहमी हुई है. मेरा बेटा ऐसा नहीं है. इस ने कोई रुपए नहीं चुराए हैं,’’ अंजु घबराहट से कांप रही थी.

‘‘हम तुम्हारे घर की तलाशी लेंगे अभी दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा,’’ सारे लोग जबरदस्ती घर में घुसने लगे.

तभी जेठजी अंजु के घर के दरवाजे में अड़ कर खड़े हो गए, ‘‘तुम लोग अंदर नहीं जा सकते, हमारी इज्जत का सवालहै.’’

‘‘हमारे रुपए…’’

‘‘हम लोग चोर नहीं हैं, हमारे खानदान में किसी ने चोरी नहीं की.’’

‘‘यह लड़का चोर है.’’

‘‘आप लोगों के पास क्या सुबूत है कि इस ने चोरी की?’’ जेठजी की कड़क आवाज के सामने सभी निरुत्तर रह गए थे.

तभी जेठजी का डाक्टर बेटा सामने आ गया, उस के हाथों में नोटों की गड्डियां थीं. आक्रोश से बोला, ‘‘बोलो, कितने रुपए थे आप के. जितने थे इस में से ले जाओ.’’

वे लोग चुपचाप वापस लौट गए.

जेठजी व उन के बेटे के प्रति अंजु कृतज्ञता के भार से दब गई थी. अगर जेठजी साहस नहीं दिखाते तो आज उन सब की इज्जत सरे बाजार नीलाम हो जाती.

अंजु रोने लगी. लालच में अंधी हो कर वह कितनी बड़ी गलती कर बैठी थी. उस ने वे सारे रुपए निकाल कर बेटे के मुंह पर दे मारे, ‘‘ले, दफा हो यहां से, चोरी करेगा तो इस घर में नहीं रह पाएगा. मालिक को रुपए लौटा कर माफी मांग कर आ नहीं तो मैं तुझे घर में नहीं घुसने दूंगी,’’ फिर वह जेठजेठानी के पैरों पर गिर कर बोली, ‘‘आप लोगों ने आज हमारी इज्जत बचा ली.’’

‘‘तुम लोगों की इज्जत हमारी इज्जत है. खून तो एक ही है, आपस में मनमुटाव होना अलग बात है पर बाहर वाले आ कर तुम्हें नीचा दिखाएं तो हम कैसे देख सकते हैं,’’ जेठजी ने कहा.

अंजु शरम से पानीपानी हो रही थी. जेठजी के मन में अब भी उन लोगों के प्रति अपनापन है और एक वह है कि…उस ने जेठजी के प्रति कितना बड़ा अपराध कर डाला. उफ, क्या वह अपनेआप को कभी माफ कर सकेगी.

अंजु मन ही मन घुलती रहती. निन्नी का कुम्हलाया हुआ चेहरा उसे अंदर तक कचोटता रहता.

निन्नी छोटी थी तो उस का आंचल थामे पूरे घर में घूमती फिरती. मां से अधिक वह चाची से हिलीमिली रहती.

अपने बच्चे हो गए तब भी अंजु निन्नी को अपनी गोद में बैठा कर खिलातीपिलाती रहती. और अब ईर्ष्या की आग में जल कर उस ने अपनी उसी प्यारी सी निन्नी की भावनाओं का गला घोंट दिया था.

एक दिन अंजु के मन में छिपा अपराधबोध, सहनशक्ति से बाहर हो गया तो वह निन्नी को पकड़ कर अपने घर में ले आई, उस पर अपनापन जताती हुई बोली, ‘‘खानापीना क्यों बंद कर दिया पगली, क्या हालत बना डाली अपनी. लड़कों की कमी है क्या…’’

निन्नी उस की गोद में गिर कर बच्चों की भांति फूटफूट कर रो पड़ी, ‘‘चाची, मुझे माफ कर दो, मैं उस दिन आप से बहुत कुछ गलत बोल गई थी, उन लोगों की बातों पर विश्वास कर के मैं ने आप को गलत समझ लिया, मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत प्यार करती हैं.’’

‘‘हां, बेटी मैं तुझे बहुत प्यार करती हूं, पर मुझ से भी गलती हो सकती है. इनसान हूं न, फरिश्ता थोड़े ही हूं,’’ अंजु की आंखों से आंसू बहने लगे थे, ‘‘पता नहीं इनसानों को क्या हो जाता है जो कभी अपने होते हैं वे पराए लगने लगते हैं पर तू चिंता मत कर, मैं तेरे लिए उस विदेशी इंजीनियर से भी अच्छा लड़का ढूंढ़ निकालूंगी. बस, तू खुश रहा कर, वैसे ही जैसे बचपन में रहती थी. मैं तुझे अपने हाथों से दुलहन बना कर तैयार करूंगी, ससुराल भेजूंगी, मेरी अच्छी निन्नी, तू अब भी वही बचपन वाली गुडि़या लगती है.’’

जेठानी छत पर खड़ी हो कर देवरानी की बातें सुन रही थी.

अंजु के शब्दों ने उस के अंदर जादू जैसा काम किया. नीचे उतर कर पति से बोली, ‘‘झगड़ा तो हम बड़ों के बीच चल रहा है, बच्चे क्यों पिसें. तुम अंजु के बेटे की कहीं अच्छी सी नौकरी लगवा दो न.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो.’’

‘‘अंजु की लड़कियां पूरे दिन घर में खाली बैठी रहती हैं. एक बिजली से चलने वाली सिलाई मशीन ला कर उन्हें दे दो. मांबेटियां सिलाई कर के कुछ आर्थिक लाभ उठा लेंगी.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम कहती हो वैसा ही करेंगे. इन लोगों का और है ही कौन.’’

अंजु ने निन्नी पर प्यार जताया तो जेठानी के मन में भी उस के बच्चों के प्रति ममता का दरिया उमड़ पड़ा था. Family Story In Hindi

Religion : मजहब को सीरियसली मत लो

Religion : सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुई जिस में कुछ मलेशियाई मुसलिम लड़कियां बिना हाथ लगाए निक्कर पहनने की कोशिश करती हुई दिख रहीं हैं. माहौल किसी कम्पटीशन का है. जिस में चार या पांच लड़कियां हिस्सा लेती दिख रही हैं. लड़कियों के चारों ओर अच्छी खासी भीड़ है. लोग तालियां पीट रहे हैं. इस भीड़ में पुरुष भी शामिल हैं. जो सहजता से मुसलिम लड़कियों के इस कम्पिटिशन में उन्हें अप्रिशिएट कर रहे हैँ.

भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की मुसलिम लड़कियों के बीच क्या इस तरह के कम्पटीशन की कल्पना की जा सकती है? नहीं, क्योंकि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे कुछ देशों को छोड़ कर बाकी मुसलिम देशों ने इसलाम को कभी सीरियसली लिया ही नहीं. यही कारण है कि आप तमाम मुसलिम मुल्कों में घूम आइए आप को दाढ़ी का कल्चर कहीं नहीं मिलेगा. यहां तक की सऊदी अरब में भी बिन मूछों की लम्बी दाढ़ी का रिवाज़ नहीं है. तुर्की, ईरान, इराक, यमन, ओमान, जौर्डन और फिलिस्तीन में भी नहीं है.

मलेशिया, इंडोनेशिया और सिंगापुर में भी 95 फीसदी मुसलिम आबादी क्लीन शेव में नजर आएगी. दाढ़ी के बोझ के साथ ही बहुत से इसलामिक रूल्स यहां बेमतलब होते हैं जैसे लाउडस्पीकर पर अजान, पांच वक्त नमाज, कुर्बानी, तिलावत, हकीका, जियारत, मिलाद और कुरानखानी वगैरह लेकिन भारत पाकिस्तान बांग्लादेश वो मुल्क हैं जो नएनए मुल्ला हुए हैं. यहां दाढ़ी के लंबे बोझ के साथसाथ तमाम तरह के इसलामिक अकीदों का भार मुसलमानों ने अपने ऊपर लादा हुआ है यह जानते हुए भी की सऊदी अरब तक अब इन बातों को सीरियसली नहीं लेता क्योंकि इसलाम सऊदी अरब के लिए धर्म बाद में है पहले इकोनोमी का सब से बड़ा साधन है.

Sperm Count : लैपटौप लैप पर, मोबाइल जेब में, घटा रहा है स्पर्म काउंट

Sperm Count : मोबाइल फोन और लैपटौप के अत्यधिक उपयोग से शुक्राणुओं की संख्या और गुणवत्ता में कमी हो सकती है. आज के दौर में जब औनलाइन काम बढ़ गया है इस का खतरा बढ़ता जा रहा है. लैपटौप को गोद में रख कर और मोबाइल को जेब में रख कर काम करना अंडकोष के तापमान को बढ़ा सकती है, जिस से शुक्राणुओं की संख्या और गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पडता है.

मोबाइल और लैपटौप से निकलने वाली रेडियोफ्रीक्वेंसी विद्युत चुम्बकीय तरंगें शुक्राणुओं की संख्या और गुणवत्ता पर प्रभाव डालती है. यह स्पर्म काउंट को घटा सकती है. स्पर्म काउंट का मतलब है वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या.

सामान्य स्पर्म काउंट 15 मिलियन से 200 मिलियन शुक्राणु प्रति मिलीलीटर वीर्य माना जाता है. यदि शुक्राणुओं की संख्या इस से कम है, तो इसे कम स्पर्म काउंट या ओलिगोस्पर्मिया कहा जाता है. जो गर्भधारण में समस्या पैदा कर सकता है.

स्पर्म काउंट के लिए वीर्य का नमूना लिया जाता है और शुक्राणुओं की संख्या प्रति मिलीलीटर वीर्य के रूप में मापा जाता है. हार्मोनल असंतुलन, अनुवांशिक समस्याएं, टेस्टिकल्स (अंडकोष) में समस्या, नसों की समस्याएं, चोट, कुछ दवाएं, तनाव, मोटापा, शराब और धूम्रपान भी स्पर्म कांउट को घटाने का कारण होते है.

इस परेशानी से बचने के लिए मोबाइल और लैपटौप के उपयोग को सीमित करें. लैपटौप को गोद में रखने से और मोबाइल को जेब में रखने से बचें. संतुलित आहार लें, नियमित व्यायाम करें, तनाव कम करें, धूम्रपान और शराब का सेवन न करें. डाक्टर से सलाह लें. केवल शुक्राणुओं की संख्या ही गर्भधारण की संभावना को प्रभावित नहीं करती है, बल्कि शुक्राणुओं की गुणवत्ता, गतिशीलता और आकार भी महत्वपूर्ण हैं.

Article 21 : तब पुलिस से डरे नहीं, जब लड़कालड़की होटल के कमरे में अकेले रुकें

Article 21 : आमतौर पर यह देखा गया है कि लड़कालड़की किसी होटल के कमरे में अकेले रुकते हैं तो होटल के ही कुछ कर्मचारी पुलिस की मिली भगत से उन को डरा कर पैसे वसूलने का काम करते हैं. ऐसे में कानून क्या कहता है ?

संविधान का आर्टिकल 21 बालिग लड़कालड़के के अधिकारों को संरक्षण देता है. जिस के तहत आप अपने हिसाब से रह सकते हैं, खा सकते हैं, पहन सकते हैं और किसी भी होटल में ठहर सकते हैं.

होटल का मामला निजता का मामला है, जहां आप अपनी प्राइवेसी को अपने हिसाब से जीते हैं. प्राइवेसी का इस्तेमाल आप पब्लिक पैलेस पर नहीं कर सकते, ऐसे में होटल रूम पब्लिक प्रोपर्टी का हिस्सा नहीं है, वो निजी संपत्ति में आता है और प्राइवेसी का पूरी तरह से उपभोग करता है. लिहाजा निजता और स्वतंत्रता के चलते आप, बालिग हो कर होटल में ठहर सकते हैं, देश का कोई कानून आप को इस से नहीं रोक सकता. इस के लिए आप को अपना वैलिड पहचान पत्र दिखाना जरूरी हो जाता है.

हर वो शख्स जो बालिग है उसे अपने हिसाब से रहने, ठहरने और शादी करने का अधिकार देश के संविधान ने दिया हुआ है. ऐसे में पुलिस कुछ नहीं कर सकती. बालिग होने या पहचान पत्र दिखाने को कह सकती है. डरे नहीं पुलिस से पर व्यवहारिक रूप से इस तरह की हालत में अच्छे होटल में रुकना चाहिए वहां पुलिस का खतरा कम होता है.

Hindi Love Stories : अनमोल क्षण – नीरजा सुशांत से क्या चाहती थी ?

Hindi Love Stories : शाम के 4 बजे थे, लेकिन आसमान में घिर आए गहरे काले बादलों ने कुछ अंधेरा सा कर दिया था. तेज बारिश के साथ जोरों की हवाएं और आंधी भी चल रही थी. सामने के पार्क में पेड़ घूमतेलहराते अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे थे.

सुशांत का मन हुआ कि कमरे के सामने की बालकनी में कुरसी लगा कर मौसम का लुत्फ उठाया जाए, लेकिन फिर उन्हें लगा कि नीरजा का कमजोर दुर्बल शरीर तेज हवा सहन नहीं कर पाएगा.

उन्होंने नीरजा की ओर देखा. वह पलंग पर आंखें मूंद कर लेटी हुई थी.

सुशांत ने नीरजा से पूछा, ‘‘अदरक वाली चाय बनाऊं, पियोगी?’’

अदरक वाली चाय नीरजा को बहुत पसंद थी. उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुसकराई, ‘‘मोहन से कहिए ना वह बना देगा,’’ उखड़ती सांसों से वह इतना ही कह पाई.

‘‘अरे मोहन से क्यों कहूं, यह क्या मुझ से ज्यादा अच्छी चाय बनाएगा, तुम्हारे लिए तो चाय मैं ही बनाऊंगा,’’ कह कर सुशांत किचन में चले गए. जब वह वापिस आए तो ट्रे में 2 कप चाय के साथ कुछ बिसकुट भी रख लाए, उन्होंने सहारा दे कर नीरजा को उठाया और हाथ में चाय का कप पकड़ा कर बिसकुट आगे कर दिए.

‘‘नहीं जी… कुछ नहीं खाना,’’ कह कर नीरजा ने बिसकुट की प्लेट सरका दी.

‘‘बिसकुट चाय में डुबो कर…’’ उन की बात पूरी होने से पहल ही नीरजा ने सिर हिला कर मना कर दिया.

नीरजा की हालत देख कर सुशांत का दिल भर आया. उस का खानापीना लगभग न के बराबर हो गया था. आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे हो गए थे, वजन एकदम घट गया था. वह इतनी कमजोर हो गई थी कि उस की हालत देखी नहीं जाती थी. स्वयं को अत्यंत विवश महसूस कर रहे थे, अपनी किस्मत के आगे हारते चले जा रहे थे सुशांत.

कैसी विडंबना थी कि डाक्टर हो कर उन्होंने ना जाने कितने मरीजों को स्वस्थ किया था, किंतु खुद अपनी पत्नी के लिए कुछ नहींं कर पा रहे थे. बस धीरेधीरे अपने प्राणों से भी प्रिय पत्नी नीरजा को मौत की ओर जाते हुए भीगी आंखों से देख रहे थे.

सुशांत के जेहन में वह दिन उतर आया, जिस दिन वह नीरजा को ब्याह कर अपने घर ले आए थे.

अम्मां अपनी सारी जिम्मेदारियां बहू नीरजा को सौंप कर निश्चित हो गई थीं. कोमल सी दिखने वाली नीरजा ने भी खुले दिल से अपनी हर जिम्मेदारी को पूरे मन से स्वीकारा और किसी को भी शिकायत का मौका नहीं दिया.

उस के सौम्य व सरल स्वभाव ने परिवार के हर सदस्य को उस का कायल बना दिया था. सारे सदस्य नीरजा की तारीफ करते नहीं थकते थे.

सुशांत उन दिनों मैडिकल कालेज में लेक्चरार के पद पर थे, साथ ही घर के अहाते में एक छोटा सा क्लिनिक भी खोल रखा था. स्वयं को एक योग्य व नामी डाक्टर के रूप में देखने की व शोहरत पाने की उन की बड़ी दिली तमन्ना था.

घर का मोरचा अकेली नीरजा पर डाल कर वह सुबह से रात तक अपने कामों में व्यस्त रहते. नईनवेली पत्नी के साथ प्यार के मीठे पल गुजारने की फुरसत उन्हें ना थी… या फिर शायद सुशांत ने जरूरत ही नहीं समझी.

या यों कहिए कि ये अनमोल क्षण उन दोनों की ही किस्मत में नहीं थे, उन्हें लगता था कि नीरजा को तमाम सुखसुविधा व ऐशोआराम में रख कर वह पति होने का फर्ज बखूबी निभा रहे हैं, जबकि सच तो यह था कि नीरजा की भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति से उन्हें कोई सरोकार नहीं था.

नीरजा का मन तो यही चाहता था कि सुशांत उस के साथ सुकून व प्यार के दो पल गुजारे. वह तो यह भी सोचती थी कि सुशांत मेरे साथ जितना भी समय बिताएंगे, उतने ही पल उस के जीवन के अनमोल पल कहलाएंगे, लेकिन अपने मन की यह बात सुशांत से कभी नहीं कह पाई, जब कहा तब सुशांत समझ नहीं पाए और जब समझे तब बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त के साथसाथ सुशांत की महत्त्वाकांक्षा भी बढऩे लगी. अपनी पुश्तैनी जायदाद बेच कर और सारी जमापूंजी लगा कर उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त नर्सिंगहोम खोल लिया.

नीरजा ने तब अपने सारे गहने उन के आगे रख दिए थे. हर कदम पर वह सुशांत का मौन संबल बनी रही. उन के जीवन में एक घने वृक्ष सी शीतल छांव देती रही. सुशांत की मेहनत रंग लाई, कुछ समय बाद सफलता सुशांत के कदम चूमने लगी थी. कुछ ही समय में उन के नर्सिंगहोम का काफी नाम हो गया, वहां उन की व्यस्तता इतनी बढ़ गई कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सिर्फ अपने नर्सिंगहोम पर ही ध्यान देने लगे.

इस बीच नीरजा ने भी रवि और सुनयना को जन्म दिया और वह उन की परवरिश में ही अपनी खुशी तलाशने लगी. जिंदगी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चल रही थी.

सुशांत के लिए उस का अपना काम था और नीरजा के लिए उस के बच्चे व सामाजिकता का निर्वाह. अम्मांबाबूजी के देहांत और ननद की शादी के बाद नीरजा और भी अकेलापन महसूस करने लगी. बच्चे भी बड़े हो कर अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए थे. सुशांत के लिए पत्नी का अस्तित्व सिर्फ इतना भर था कि सुशांत समयसमय पर उसे ज्वेलरी, कपड़े गिफ्ट कर देते थे. नीरजा का मन किस बात के लिए लालायित था, यह जानने की सुशांत ने कभी कोशिश नहीं की.
जिंदगी ने सुशांत को एक मौका दिया था, कभी कोई फरमाइश न करने वाली उन की पत्नी नीरजा ने एक बार उन्हें अपने दिल की गहराइयों से वाकिफ भी कराया था, लेकिन वे ही उस के दिल का दर्द और आंखों के सूनेपन को अनदेखा कर गए थे.

उस दिन नीरजा का जन्मदिन था. उन्होंने प्यार जताते हुए उस से पूछा था, ‘बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या तोहफा लाया हूं?’ तब नीरजा के चेहरे पर फीकी सी मुसकान आ गई थी. उस ने धीमी आवाज में बस इतना ही कहा, ‘‘तोहफे तो आप मुझे बहुत दे चुके हो, अब तो बस आप का सान्निध्य मिल जाए… ‘‘

सुशांत बोले, “वह भी मिल जाएगा, सिर्फ कुछ साल मेहनत कर लूं और अपनी और बच्चों की लाइफ सेटल कर लूं, फिर तो तुम्हारे साथ समय ही समय गुजारना है,’’ कहते हुए सुशांत ने नीरजा को एक कीमती साड़ी का पैकेट थमा कर काम पे चला गया.

नीरजा ने फिर भी कभी सुशांत से कुछ नहीं कहा था. रवि भी सुशांत के नक्शेकदम पर चल कर डाक्टर ही बना. उस ने अपनी कलीग गीता से विवाह की इच्छा जाहिर की, जिस की उसे सहर्ष अनुमति भी मिल गई.

अब सुशांत को बेटेबहू का सहयोग भी मिलने लगा, फिर सुनयना का विवाह भी हो गया. सुशांत व नीरजा अपनी जिम्मेदारी से निवृत्त हो गए, लेकिन परिस्थिति आज भी पहले की ही तरह थी.

नीरजा अब भी सुशांत के सान्निध्य को तरस रही थी, लेकिन सुशांत कुछ वर्ष और काम करना चाहते थे, अभी और सेटल होना चाहते थे.
शायद सबकुछ इसी तरह चलता रहता, अगर नीरजा बीमार न पड़ती.

एक दिन जब सब लोग नर्सिंगहोम में थे, तब नीरजा चक्कर खा कर गिर पड़ी. घर के नौकर मोहन ने जब फोन पर बताया, तो सब घबड़ा कर घर आए, फिर शुरू हुआ टेस्ट कराने का सिलसिला, जब रिपोर्ट आई तो पता चला कि नीरजा को ओवेरियन कैंसर है.

सुशांत यह सुन कर घबरा गए, मानो उन के पैरों तले जमीन खिसकने लगी. उन्होंने अपने मित्र कैंसर स्पेशलिस्ट डा. भागवत को नीरजा की रिपोर्ट दिखाई. उन्होंने देखते ही साफ कह दिया, ‘‘सुशांत, तुम्हारी पत्नी को ओवेरियन कैंसर ही हुआ है. इस में कुछ तो बीमारी के लक्षणों का पता ही देरी से चलता है और कुछ इन्होंने अपनी तकलीफें छिपाई होंगी, अब तो इन का कैंसर चौथे स्टेज पर है, यह शरीर के दूसरे अंगों तक भी फैल चुका है, चाहो तो सर्जरी और कीमियोथेरेपी कर सकते हैं, लेकिन कुछ खास फायदा नहीं होने वाला. अब तो जो शेष समय है इन के पास, उस में ही इन को खुश रखो.’’

यह सुन कर सुशांत को लगा कि उस के हाथपैरों से दम ही निकल गया है. उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि नीरजा इतनी जल्दी इस तरह उन्हें दुनिया में अकेली छोड़ कर चली जाएगी. वह तो हर वक्त एक खामोश साए की तरह उन के साथ रहती थी. सुशांत की हर छोटी जरूरतों को उन के कहने के पहले ही पूरा कर देती थी. फिर यों अचानक उस के बिना…

अब जा कर सुशांत को लगा कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कितनी बड़ी गलती कर दी थी. नीरजा के अस्तित्व की कभी कोई कद्र नहीं की, उसे कभी महत्त्व ही नहीं दिया सुशांत ने, उन के लिए तो वह बस एक मूक सहचरी ही थी, जो उन की जरूरत के लिए हर वक्त उन की नजरों के सामने मौजूद रहती थी, इस से ज्यादा कोई अहमियत नहीं दी सुशांत ने नीरजा को.

आज प्रकृति ने न्याय किया था. सुशांत को अपनी की हुई गलतियों की कड़ी सजा मिल रही थी. जिस महत्त्वाकांक्षा के पीछे भागतेभागते उन की जिंदगी गुजरी थी, जिस का उन्हें बेहद गुमान भी था, आज उन का सारा गुमान व शान तुच्छ लग रहा था.

अब जब उन्हें पता चला कि नीरजा के जीवन का बस थोड़ा ही समय बाकी रह गया था, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह उन के जीवन का कितना बड़ा अहम हिस्सा थीं. नीरजा के बिना जीने की कल्पनामात्र से ही वे सिहर उठे.

महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे भागने में वे हमेशा नीरजा को उपेक्षित करते रहे, लेकिन अब अपनी सारी सफलताएं उन्हें बेमानी लगने लगी थीं.

‘‘पापा, आप चिंता मत कीजिए. मैं अब नर्सिंगहोम नहीं आऊंगी. घर पर ही रह कर मम्मी का ध्यान रखूंगी,’’ उन की बहू गीता कह रही थी.

सुशांत ने एक गहरी सांस ली और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटा नर्सिंगहोम अब तुम्हीं लोग संभालो, तुम्हारी मम्मी को इस वक्त सब से ज्यादा मेरी ही जरूरत है, उस ने मेरे लिए बहुतकुछ त्याग किया है. उस का ऋण तो मैं किसी भी हालत में नहीं चुका पाऊंगा, लेकिन कम से कम अंतिम समय में उस का साथ तो निभाऊं.’’

उस के बाद से सुशांत ने नर्सिंगहोम जाना छोड़ दिया. वे घर पर ही रह कर नीरजा की देखभाल करते, उस से दुनियाजहान की बातें करते, कभी कोई बुक पढ़ कर सुनाते, तो कभी साथ बैठ कर टीवी देखते. वे किसी भी तरह नीरजा के जाने के पहले बीते वक्त की भरपाई करना चाहते थे. मगर वक्त उन के साथ नहीं था.

धीरेधीरे नीरजा की तबीयत और भी बिगड़ने लगी थी. सुशांत उस के सामने तो संयत रहते, मगर अकेले में उन के दिल की पीड़ा आंसुओं की धारा बन कर बहती थी.

नीरजा की कमजोर काया और सूनी आंखें सुशांत के हृदय में शूल की तरह चुभती रहती. वे स्वयं को नीरजा की इस हालत का दोषी मानने लगे थे व उन के मन में नीरजा को खो देने का डर भी रहता. वे जानते थे कि दुर्भाग्य तो उन की नियति में लिखा जा चुका था, लेकिन उस मर्मांतक क्षण की कल्पना करते हुए हमेशा भयभीत रहते.

‘‘अंधेरा होगा जी,’’ नीरजा की आवाज से सुशांत की तंद्रा टूटी. उन्होंने उठ कर लाइट जला दी. देखा कि नीरजा का चाय का कप आधा भरा हुआ रखा था और वह फिर से आंखें मूंदे टेक लगा कर बैठी थी. चाय ठंडी हो चुकी थी.

सुशांत ने चुपचाप चाय का कप उठाया, किचन में जा कर सिंक में चाय फेंक दी. उन्होंने खिड़की से बाहर देखा, बाहर अभी भी तेज बारिश हो रही थी. हवा का ठंडा झोंका आ कर उन्हें छू गया, लेकिन अब उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. उन्होंने अपनी आंखों के कोरों को पोंछा और मोहन को आवाज लगा कर खिचड़ी बनाने को कहा. खिचड़ी भी मुश्किल से दो चम्मच ही खा पाई थी नीरजा ने. आखिर में सुशांत उस की प्लेट उठा कर किचन में रख आए. तब तक रवि और गीता भी नर्सिंगहोम से लौट आए थे.’’

‘‘कैसी हो मम्मा?’’ रवि प्यार से नीरजा की गोद में लेटते हुए बोला.

‘‘ठीक ही हूं मेरे बच्चे,’’ मुसकराते हुए नीरजा उस के सिर पर हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में बोली.

सुशांत ने देखा कि नीरजा के चेहरे पे असीम संतोष था. अपने पूरे परिवार के साथ होने की खुशी थी उसे. वह अपनी बीमारी से अनजान नहीं थी, परंतु फिर भी वह प्रसन्न ही रहती थी. जिस अनमोल सान्निध्य की आस ले कर वह वर्षों से जी रही थी, वह अब उसे बिना मांगे ही मिल रही थी. अब वह तृप्त थी, इसलिए आने वाली मौत के लिए कोई डर या अफसोस नीरजा के चेहरे पे दिखाई नहीं दे रहा था.

बच्चे काफी देर तक मां का हालचात पूछते रहे. उसे अपने दिनभर के काम के बारे में बताते रहे, फिर नीरजा का रुख देख कर सुशांत ने उन से कहा, ‘‘अब खाना खा कर आराम करो. दिनभर काम कर के थक गए होंगे.’’

‘‘पापा, आप भी खाना खा लीजिए,’’ गीता ने कहा.

‘‘मुझे अभी भूख नहीं है बेटा. मैं बाद में खा लूंगा.’’

बच्चों के जाने के बाद नीरजा फिर आंखें मूंद कर लेट गई. सुशांत ने धीमी आवाज में टीवी औन कर दिया, लेकिन थोड़ी देर में ही उन का मन ऊब गया. अब उन्हें थोड़ी भूख लग गई थी, लेकिन खाना खाने का मन नहीं किया. उन्होंने सोचा, नीरजा और अपने लिए दूध ही ले आएं. किचन में जा कर सुशांत ने 2 गिलास दूध गरम किया, तब तक रवि और गीता खाना खा कर अपने कमरे में जा कर सो चुके थे.

‘‘नीरजा, दूध लाया हूं,’’ कमरे में आ कर सुशांत ने धीरे से आवाज लगाई, लेकिन नीरजा ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्हें लगा कि वह सो रही है. उन्होंने उस के गिलास को ढक कर रख दिया और खुद पलंग के दूसरी ओर बैठ कर दूध पीने लगे.

सुशांत ने नीरजा की तरफ देखा. उस के सोते हुए चेहरे पर कितनी शांति झलक रही थी. सुशांत का हाथ बरबस ही उस का माथा सहलाने के लिए आगे बढ़ा, फिर वह चौंक पड़े, दोबारा माथेगालों को स्पर्श किया, तब उन्हें एहसास हुआ कि नीरजा का शरीर ठंडा था. वह सो नहीं रही थी, बल्कि हमेशा के लिए चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी.

सुशांत को जो डर इतने महीनों से डरा रहा था, आज वे उस के वास्तविक रूप का सामना कर रहे थे. कुछ समय के लिए वे एकदम सुन्न से हो गए. उन्हें समझ ही नहीं आया कि वे क्या करें, फिर धीरेधीरे सुशांत की चेतना जागी, पहले सोचा कि जा कर बच्चों को खबर कर दें, लेकिन कुछ सोच कर रुक गए. सारी उम्र नीरजा सुशांत के सान्निध्य के लिए तड़पी थी, लेकिन आज सुशांत एकदम तनहा हो गए थे. अब वे नीरजा के सामीप्य के लिए तरस रह थे. अश्रुधारा उन की आंखों से अविरल बहे जा रही थी. वे नीरजा की मौजूदगी को अपने दिल में महसूस करना चाह रहे थे, इस एहसास को अपने अंदर समेट लेना चाहते थे, क्योंकि बाकी की तनहा जिंदगी उन्हें अपने इसी दुखभरे एहसास के साथ व पश्चाताप के दर्द के साथ ही तो गुजारनी थी. सुशांत के पास केवल एक रात ही थी. अपने और अपनी प्राणों से भी प्रिय पत्नी के सान्निध्य के इन आखिरी पलों में वे किसी और की दखलअंदाजी नहीं चाहते थे. उन्होंने लाइट बुझा दी और निर्जीव नीरजा को अपने हृदय से लगा कर फूटफूट कर रोने लगे.

बारिश अब थम चुकी थी, लेकिन सुशांत की आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही थी…
काश, सुशांत अपने जीवन के व्यस्त क्षणों में से कुछ पल अपनी प्रेयसी नीरजा के साथ गुजार लेते तो शायद आज नीरजा सुशांत को छोड़ कर दूर बहुत दूर नील गगन के पार नहीं जाती.

सुशांत के सान्निध्य की तड़प अपने साथ ले कर नीरजा हमेशा के लिए चली गई और सुशांत को दे गई पश्चाताप का असहनीय दर्द. Hindi Love Stories

Romantic Story in Hindi : दिल पे न जोर कोई

Romantic Story in Hindi : रीमा जल्दी से जूस दे दो, बहुत थकान हो रही है, आशीष ने अपना पसीना पोंछते हुए कहा.

‘‘हां, अभी लाई,’’ कह रीमा रसोई में चली गई.

यह आशीष का रोज का काम था. अगले दिन आशीष बोला, ‘‘सुनो रीमा, मेरा कालेज का दोस्त मनीष अपने अपार्टमैंट में शिफ्ट हो गया है… वही जिस के बेटे के जन्मदिन पर हम गए नहीं थे… आज मिला, जब मैं जिम से आ रहा था. वह तो झल्ला सा है, लेकिन उस की बीवी गजब की खूबसूरत है, आशीष बोला.

‘‘हमें क्या वह जाने और उस की बीवी,’’ रीमा बोली.

‘‘तुम जल्दी से नहा लो मैं नाश्ता तैयार करती हूं.’’

रीमा नोट कर रही थी कि आजकल आशीष जिम में ज्यादा देर लगा रहा है. अत: एक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है देर कैसे हो गई? आज क्या खास बात है… जिम से पसीनापसीना हो कर आए, फिर भी चेहरे पर अलग ही खुशी झलक रही है? रोज की तरह अपनी थकान का रोना नहीं?’’ रीमा ने चुटकी लेते हुए आशीष से कहा.

‘‘क्या मैं रोज थकान का रोना रोता हूं?

अरे अपनेआप को फिट रखना क्या इतना आसान है? कभी जिम जा कर देख आओ कि अपनेआप को मैंटेन करने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है. लो हो गए शुरू…. मेरी तरह 2 बच्चे पैदा करो पहले, फिर फिटनैस की बात करो मुझ से,’’ रीमा ने कहा.

‘‘पर आज तुम देर से आए… कोई खास बात?’’

‘‘नहीं कुछ खास नहीं,’’ आशीष बोला.

‘‘अरे वह मेरे दोस्त की पत्नी जिया जिम आती है आजकल, तो बस बातों में टाइम लग गया. क्या ऐक्सरसाइज करती है. तभी इतनी फिट है… कोई उस की उम्र का अंदाजा भी नहीं लगा सकता,’’ कह आशीष नहाने चला गया.

रीमा को आशीष के इरादे नेक न लगे. अब यह रोज का काम हो गया था.

आशीष रोज अपनी बेटी को स्कूल बस में छोड़ने जाता. उधर से जिया अपने बेटे को ले कर आती. दोनों बातें करते और देर हो जाती. कभी आशीष स्विमिंग पूल जाता तो जिया वहां मिल जाती… जब रीमा उन्हें आते बालकनी से देखती तो कुढ़ जाती.

कुछ दिन पहले अपार्टमैंट में न्यू ईयर पार्टी थी. दोनों दोस्त अपने परिवारों के साथ पार्टी हौल में आए. जिया को देख आशीष के चेहरे की मुसकराहट दोगुनी हो गई और रीमा उन्हें देख कर अपनी सहेलियों की तरफ बढ़ने लगी. ये मेरी सब से अच्छी सहेलियां हैं. हम इन्हीं के साथ रहेंगे. तुम्हारा दोस्त तो झल्ला सा है पर ये लोग तो बहुत अच्छी हैं.’’

आशीष बोला, ‘‘बस दोस्त ही झल्ला है, जिया को देखो… आज भी कितनी सुंदर ड्रैस पहन कर आई है. पूरी फिगर निखर कर आ रही है और उस लंगूर को देखो… वही कपड़े जो औफिस में पहन कर जाता है.’’

रीमा आशीष को वहां से खींच कर ले गई. आशीष था तो रीमा के साथ, लेकिन नजरें जिया पर ही टिकी थीं. जिया भी आशीष की प्लैंजेंट पर्सनैलिटी से बहुत प्रभावित थी सो जब आशीष उसे देखता तो मुसकरा देती. उस का अपना पति तो किसी चीज का शौकीन नहीं था. उसे तो पार्टी में भी खींच कर लाना पड़ता. न तो वह कपड़े ढंग से पहनता न ही जूते. जबकि जिया हर वक्त मौसम के हिसाब से बनीठनी रहती. तभी तो आशीष मनीष के लिए लंगूर के हाथ में अंगूर बोलता.

एक दिन आशीष ने मनीष की फैमिली को डिनर पर बुलाया. रीमा कहने लगी,

‘‘जब तुम्हें अपना दोस्त पसंद ही नहीं तो क्यों बुलाते हो उसे?’’

आशीष बोला, ‘‘अच्छा नहीं लगता… इतने दिन हुए यहां आए उन्हें… हम ने एक बार भी अपने घर नहीं बुलाया?’’

‘‘तो उन्होंने कौन सा बुलाया?’’ रीमा चिढ़ कर बोली.

संडे को जिया पूरे परिवार के साथ आशीष के घर थी. जब आशीष ने उस से औैर बातें कीं तो वह उस के नौलेज को देखता ही रह गया. उसे मन ही मन लगने लगा कि कहां मनीष कहां जिया. उस ने जिया की बहुत तारीफ  की. रीमा को यह सब फूटी आंख नहीं सुहा रहा था.

मनीष का परिवार खाना खा कर चला गया. उन के जाने के बाद आशीष बोला, ‘‘जिया ने अपने बच्चों की परवरिश बहुत सही तरीके से की है. कितने सलीके से बात करते हैं और पढ़ाई में भी अच्छे हैं.’’

‘‘तो हमारे कौन से कम हैं?’’ रीमा का जवाब सुन आशीष ने चुप्पी लगा ली.

अब आशीष के घर अकसर जिया की बात होती जो रीमा को जरा भी न सुहाती. उसे ऐसा लगता जैसे आशीष के दिलोदिमाग में जिया रचबस गई है.

उधर जिया भी मनीष से अकसर आशीष की ही बातें करती. कहती, कितना शौकीन है तुम्हारा दोस्त आशीष. हर वक्त हंसीठहाके लगाता रहता है… सोसायटी के कार्यक्रमों में भी कितना आगे रहता है… हर प्रोग्राम में उस का नाम अनाउंस होता है, स्पोर्ट्स में, कल्चरल्स में.

शायद जिया और आशीष एकदूसरे को मन ही मन चाहने लगे थे. इसीलिए दोनों अपनेअपने परिवार में एकदूसरे की बात किया करते. मनीष का तो इस तरफ ध्यान नहीं पड़ा क्योंकि वह अपनी ही दुनिया में मस्त रहता, लेकिन रीमा मन ही मन जिया से जलने लगी थी. यहां तक कि अपने बच्चों से भी कहती कि जिया के बच्चों के साथ न खेलें.

जिया के बच्चे जब उन से खेलने को कहते तो रीमा की बेटी कहती, ‘‘नहीं मम्मी डांटेंगी.’’ जब यह बात जिया को पता चली तो उसे बहुत बुरा लगा.

एक दिन स्कूल बस जल्दी आ गई और जिया व आशीष दोनों के बच्चों की बस छूट गई. आशीष बोला, ‘‘मैं कार से ड्रौप कर आता हूं.’’

‘‘ओके,’’ जिया बोली लेकिन जिया का बेटा नए अंकल के साथ जाने को तैयार नहीं. अत: जिया भी उस के साथ कार में पीछे की सीट पर बैठ गई.

आशीष ने कहा,‘‘ जिया, यू कैन कम टू फ्रंट सीट.’’

‘‘आई डौंट माइंड,’’ जिया ने कहा और कार की अगली सीट पर आ कर बैठ गई.

रीमा की सहेली ने जब यह बात रीमा को बताई तो उस के तो जैसे होश उड़ गए. अत: अगले दिन वह आशीष से बोली, ‘‘बच्चों को स्कूल बस तक मैं ही छोड़ जाऊंगी. तुम्हें वहां बहुत समय लग जाता है.’’

आशीष को कुछ समझ न आया कि रीमा क्या कहना चाहती है. लेकिन जब वह बस स्टौप पर गई तो उसे जिया फूटी आंख न सुहाई. दूसरी सहेलियों के साथ खड़ी बातों ही बातों में वह जिया को ताने मारने लगीं. जिया को भी समझते देर न लगी. लेकिन क्या करती. पहले दिन वही तो उस के पति के साथ कार की आगे की सीट पर बैठ कर गई थी. वह चुपचाप अपने बेटे को बस में बैठा कर वहां से चली गई.

रीमा जब लौट कर आई तो देखा आशीष बालकनी में खड़ा जिया से जोरजोर से बातें कर रहा था.

रीमा जिया के पास पहुंच कर बोली, ‘‘जिया के घर में ही आ जाओ न… ऐसे जोरजोर से बातें करना अच्छा नहीं लगता न.’’

कहने को तो रीमा घर आने का आग्रह कर रही थी, लेकिन उस के चेहरे की कुटिल मुसकान देख जिया समझ गई थी कि रीमा क्या कहना चाह रही है. अत: वह वहां से चुपचाप चल दी. पीछे मुड़ कर देखा तो आशीष बालकनी से उसे हाथ हिला कर बायबाय कर रहा था.

घर आ कर जिया बहुत उदास थी. मन ही मन सोच रही थी कि रीमा की गलती भी तो नहीं… आखिर उस का पति है आशीष… पर स्वयं भी क्या करे? बस बात ही तो कर रही थी उस से… अगर उसे आशीष से बात करना अच्छा लगता है तो उस में बुराई भी क्या है? क्या किसी के पति से बात करना गुनाह है? रीमा इतनी चिढ़ क्यों गई?

एक दिन जब आशीष औफिस चला गया तो जिया ने रीमा को इंटरकौम किया, ‘‘रीमा, इस रविवार तुम सपरिवार हमारे घर आओ, डिनर साथ ही करेंगे.

रीमा ने बहाना बनाते हुए कहा, ‘‘दरअसल, उस दिन के हमारे मूवी टिकट आए हैं. हम पिक्चर देखने जाएंगे, इसलिए नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘ओके, नो प्रौब्लम… फिर कभी,’’ औैर इंटरकौम रख दिया.

शाम के समय जब जिया अपने बेटे के साथ स्विमिंग के लिए गई तो आशीष नीचे ही मिल गया. जिया ने पूछा, ‘‘गए नहीं मूवी के लिए?’’

आशीष बोला, ‘‘कौन सी मूवी?’’

जिया बोली, ‘‘रीमा ने कहा था कि तुम लोग आज मूवी देखने जा रहे हो.’’

आशीष को कुछ समझ न आया कि ऐसा क्यों बोला रीमा ने. लेकिन जिया सब समझ गई थी कि रीमा उसे पसंद नहीं करती. आशीष ने

घर आ कर रीमा से पूछा तो बोली, ‘‘हां कह दिया ऐसे ही… जब वह मुझे पसंद नहीं, तो क्यों दोस्ती बढ़ाऊं?’’

आशीष मन ही मन तड़प उठा कि यह जिया के लिए कितना इनसल्टिंग है? पर क्या करता.

अब रोज रीमा ही बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने जाती. जिया आशीष से मिलने को तरस गई थी. कभी नीचे मिलती तो रीमा की घूरती नजरें देख वह बात न कर पाती. बस अपना रास्ता बदल लेती. आखिर रीमा आशीष की पत्नी है, सो आशीष पर हक तो उसी का है. अब जिया को आशीष को देखे बगैर चैन न मिलता. रीमा को जब भी मौका मिलता जिया को ताना मार ही देती. एक बार तो किट्टी पार्टी में जब सब महिलाएं बोलीं कि बच्चों को संभालने में ही सारा वक्त बीत जाता है. तो रीमा ने जिया की तरफ आंखें मटकाते हुए कहा, ‘‘बच्चों को ही नहीं पति को भी तो संभालना पड़ता है… बहुत शूर्पणखा हैं यहां जो डोरे डालने आ जाती हैं.’’

अपने लिए शूर्पणखा शब्द सुन जिया को बहुत बुरा लगा. उस की आंखें भर आईं. लेकिन दिल से मजबूर थी. सो पलट कर कुछ न बोली. आखिर रीमा पत्नी का हक रखती है. इसीलिए बोल रही है. फिर क्या पता उस के दिल में बसी यह चाहत एकतरफा हो… पता नहीं आशीष उसे चाहता भी है या नहीं? फिर मन ही मन सोचने लगी काश, मुझे आशीष जैसा पति मिला होता तो शायद यह न होता. कहने को तो मनीष बहुत ठीक है, लेकिन इतना पढ़ाकू , कैरियर कौंशस, न ही कोई शौक न इच्छाएं. पर उस में मनीष का दोष भी तो नहीं. सब देखभाल कर ही तो जिया ने इस विवाह के लिए हामी भरी थी. मनीष तो घर के लिए अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह निभा ही रहा है. बस उस का ही दिल है कि न जाने क्यों आशीष की तरफ खिंचा जाता है.

अब जिम ही बस एकमात्र ठिकाना था जहां दोनों मिल सकते थे. सो वहीं थोड़ी देर मिल कर बात कर लेते. लेकिन कहते हैं न इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते सो जिम में आसपास वर्कआउट करते लोग उन्हें बातें करते चोर नजरों से देखते और कभीकभी तो कोई टौंट भी मार देते.

अब जिया को लगने लगा कि पानी सिर से ऊपर जा रहा है. अत: उस ने अपने जिम का टाइम चेंज करा लिया. आशीष से बात न करने की ठान ली.

कई दिन जब जिया दिखाई न दी तो आशीष अनमना सा हो गया. फिर एक दिन अपने दोस्त से मिलने के बहाने जिया के घर चला गया. घर में जिया अकेली थी. आशीष ने जिया से अपने दिल की बात कह डाली. सुन कर जिया खिल उठी. अब दोनों ने तय किया कि अपार्टमैंट के बाहर मिला करेंगे. रीमा ने अपार्टमैंट की सभी महिलाओं को भी बता दिया था कि जिया कैसे उस के पति पर डोरे डाल रही है. अत: सभी महिलाओं ने उस से दूरी बना ली थी.

एक दिन आशीष औफिस से जल्दी निकल गया और फिर जिया को फोन कर पास ही की कौफी शौप में बुला लिया. जिया भी झट से बनठन कर उस से मिलने चली आई. कहने को तो कौफी शौप खचाखच भरा था, लेकिन उन दोनों के लिए तो जैसे पूरा एकांत था. दोनों आंखों में आंखें डाले मुसकरा कर बातें कर रहे थे कि तभी जिया की नजर रीमा की सहेली पर पड़ी.

वह वहां अपने पति के साथ आई थी. दोनों को साथ देख कर बोली, ‘‘हैलो, आप दोनों यहां?

नो प्रौब्लम ऐंजौय. ऐंजौय पर उस ने जो जोर डाला जिया समझ गई कि टौंट मार कर गई है. आशीष और जिया भी शीघ्र ही अपने घर रवाना हो गए. अगले दिन बच्चों को स्कूल बस में छोड़ने बस स्टौप पर जिया नहीं गईर् और मनीष को भेजा. वह जानती थी कि आज रीमा उसे नहीं छोड़ने वाली. मनीष जब घर आए तो कुछ उखड़े हुए दिखाई दिए.

जिया ने पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’

‘‘रीमा तुम्हारी शिकायत कर रही थी. सब लोगों के सामने मुझे बहुत बुराभला कहा.’’

जिया के तो मानो पैरों तले की जमीन खिसक गई हो. झट से नहाने का बहाना कर बाथरूम में चली गई. क्या करती बेचारी. एक तरफ पति तो दूसरी तरफ प्यार. वहीं खड़े कुछ आंसू बहा आई.

उस दिन मनीष दफ्तर नहीं गया. बोला, ‘‘ हम घर बदल लेते हैं जिया.’’

अगले ही महीने वे नए अपार्टमैंट में शिफ्ट हो गए. इतना ही नहीं मनीष ने दूसरे शहर में ट्रांसफर के लिए दफ्तर में रिक्वैस्ट भी दे दी. शहर तो बदल गया, लेकिन जिया के मन में आशीष की याद सदा के लिए रह गई. कोशिश करती कि भूल जाए, किंतु भुलाए न भूलती. दिल के हाथों मजबूर थी. उस ने तो सोचा भी न था कि कभी प्यार इतने दबे कदमों आएगा और उस के दिल पर सदा के लिए अपना राज कर लेगा.  बरस बीते, किंतु चंद लमहे जो आशीष के साथ बिताए थे, उस के मन को तरोताजा कर जाते. वह मुसकरा उठती और मन ही मन कहती दिल पे न जोर कोई. Romantic Story in Hindi

Social Story : मुझे डाकू बनाया गया

Social Story : हरसिंगार अपने छोटे से दवाखाने में एक मरीज को देख रहा था कि अचानक सबइंस्पैक्टर चट्टान सिंह अपने कुछ साथियों के साथ वहां आ गया और उसे गाली देते हुए बोला, ‘‘डाक्टर के बच्चे, तुम डकैत नारायण को अपने घर में जगह देते हो और डाके की रकम में हिस्सा लेते हो?’’ हरसिंगार गालीगलौज सुन कर सन्न रह गया. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस के ऊपर इतना गंभीर आरोप लगाया जाएगा.

हरसिंगार खुद को संभालता हुआ बोला, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, मुझे अपने पेशे से छुट्टी नहीं मिलती, फिर चोरडकैतों से मेलजोल कैसे करूंगा? शायद आप को गलतफहमी हो गई है या किसी ने आप के कान भर दिए हैं.’’ चट्टान सिंह का पारा चढ़ गया. उस ने हरसिंगार को पीटना शुरू कर दिया. जो भी बीचबचाव करने पहुंचा, उसे भी 2-4 डंडे लगे.

मारपीट कर हरसिंगार को थाने में बंद कर दिया गया. उस पर मुकदमा चलाया गया. गवाही के कमी में फैसला उस के खिलाफ गया. उसे एक साल की कड़ी सजा मिली. गवाही पर टिका इंसाफ कितना बेकार, कमजोर और अंधा होता है. हरसिंगार करनपुर गांव का रहने वाला था, पढ़ाई पूरी करने के बाद वह लाइसैंसशुदा डाक्टर बन गया था और उस ने बिजरा बाजार में अपना काम शुरू कर दिया था.

हरसिंगार बहुत ही नेक इनसान था. वह हर किसी के सुखदुख में शामिल होने की कोशिश करता था. हरसिंगार के गांव का पंडित शिवकुमार एक टुटपुंजिया नेता और पुलिस का दलाल था. हरसिंगार उसे फूटी आंख नहीं सुहाता था. वह उसे नीचा दिखाने के लिए मौके की तलाश में लगा रहता. डकैत नारायण की हलचलों ने उस के मनसूबों को हवा दी और हरसिंगार उस की साजिश का शिकार बन गया.

पंडित शिवकुमार का तमाम नामी डाकुओं से संबंध था. डकैती के माल के बंटवारे में भी उस का हिस्सा होता था. डाकू नारायण की हलचलें आसपास के गांवों में लोगों की नींद हराम किए हुए थीं. लोकल थाने को खानापूरी तो करनी थी. पंडित शिवकुमार के इशारे

पर झूठ ने सच का गला दबोचा और हरसिंगार निशाना बना दिया गया. हरसिंगार को कारागार की जिस कोठरी में रखा गया था, उसी में दूसरा फर्जी अपराधी रामदास बंद था. उस का कोई अपराध नहीं था. वह शहर के एक अमीर अपराधी की साजिश का शिकार बना था.

कुछ दिनों में ही हरसिंगार और रामदास दोस्त बन गए. एकदूसरे को समझने में उन्हें देर नहीं लगी. एक दिन रामदास हरसिंगार से बोला, ‘‘तुम मुझ से बहुत छोटे हो. मुझे अंगरेजों के जमाने की बहुत सी बातें याद हैं. नेता कहते हैं कि अंगरेज भारत की धनदौलत लूट कर ले गए और देश को कंगाल

बना दिया. ‘‘मैं भी मानता हूं कि देश कंगाल हो गया है. जमींदारों के जरीए अंगरेजों ने जनता को बहुत दबाया. अंगरेजों के भारत से चले जाने और जमींदारी खत्म हो जाने के बाद नेताओं, अफसरों और कारोबारियों ने जनता का खून चूसना शुरू कर दिया. शासक तो बदल गए, पर शासन के तौरतरीके में खास बदलाव नहीं हुआ.

‘‘आजादी मिलने से पहले लोग सोचते थे कि जब हम आजाद होंगे तो खुली हवा में सांस लेंगे. जोरजुल्म से छुटकारा पा जाएंगे, पर सबकुछ ख्वाब बन कर रह गया. ‘‘अंगरेजों के राज में चोरियां बहुत कम होती थीं, डकैतियां न के बराबर थीं. राहजनी का नामोनिशान नहीं था. यह अलग बात है कि वे अपने देश के फायदे के लिए गलत काम करते थे पर उन्होंने नियमकानूनों को ताक पर नहीं रख दिया था…’’ बोलतेबोलते रामदास जोश से भर उठा और अचानक उसे जोरों की खांसी आने लगी. खांसतेखांसते उस की सांस फूलने लगी.

हरसिंगार ने रामदास का सिर अपनी गोद में रख लिया और धीरेधीरे सहलाने लगा. कुछ देर बाद खांसी बंद हुई. हरसिंगार ने उसे एक गिलास पानी पिलाया, तब कहीं जा कर उस की हालत सुधरी. जेल का कामकाज करने में वे दोनों ज्यादातर साथ रहा करते थे. अच्छा साथी मिल जाने पर समय भी अच्छी तरह कट जाता है.

एक साल बाद हरसिंगार को जेल से रिहा कर दिया गया. इस एक साल में ही उसे चारों ओर काफी बदलाव दिखाई देने लगा. उस की घर लौटने की इच्छा मर चुकी थी. वह जानता था कि घर पहुंचने पर गांव व पासपड़ोस के लोग ताने मार कर उस का कलेजा छलनी कर देंगे और उस का जीना दूभर हो जाएगा. बहुत देर सोचने के बाद हरसिंगार अनजानी मंजिल की ओर चल पड़ा. घर वाले इंतजार कर रहे थे कि सजा खत्म होने पर जेल से छूटते ही वह घर लौट आएगा पर उन के जेल के फाटक

पर पहुंचने से पहले ही वह वहां से जा चुका था. महीनों बीत गए पर हरसिंगार का कहीं अतापता नहीं था. उस की बीवी उस का रास्ता देखती रही. बेटे के बहुत पूछने पर वह जवाब देती, ‘‘तुम्हारे बापू परदेश गए हैं. छुट्टी मिलने पर घर वापस आएंगे.’’

एक दिन रतीपुर थाने का असलहाघर लुट जाने और वहां के थाना इंचार्ज चट्टान सिंह की लाश के 4 टुकड़े कर दिए जाने की खबर ने आसपास के पूरे इलाके में दहशत फैला दी. 2 सिपाहियों के शरीर भी कई टुकड़ों में काट दिए गए थे. बेरहम हत्यारे छोटे से छोटा असलहा तक नहीं छोड़ गए थे. कई महीने तक लोगों की नींद हराम रही.

पुलिस वालों की ऐसी दर्दनाक हत्या पहले कभी सुनने में नहीं आई थी. प्रशासन थर्रा उठा. काफी छानबीन के बाद भी हत्यारे का कोई सुराग नहीं मिल पाया था. शक के आधार पर लोग पकड़े जाते और ठोस सुबूत न होने के चलते छोड़ दिए जाते. महीनों तक यही सिलसिला चलता रहा.

लोग अब खुल कर कहने लगे थे कि जब पुलिस अपनी हिफाजत करने में नाकाम है, तो वह जनता की हिफाजत कैसे कर पाएगी. रतीपुर थाने की वारदात के महीनों बाद भी उस इलाके के लोगों का डर दूर नहीं हुआ. सेठों, महाजनों और रईसों के घरों में डाके पड़ने लगे. डकैतों का एक नया गिरोह हरकत में आ गया था. पासपड़ोस के सभी जिले इस गिरोह की चपेट में थे. कभीकभी महीनों तक खामोशी रहती और अचानक धड़ाधड़ डकैतियों का सिलसिला चल पड़ता. इस गिरोह का सरदार लखना था. उस में गजब

की फुरती थी. जो पुलिस वाला उस के सामने पड़ता, वह जिंदा न बचता. लखना कभी किसी गरीब और बेसहारा को नहीं सताता था. समय और जरूरत के मुताबिक वह उन की मदद भी करता था. धीरेधीरे गरीब लोग उस को बेहद चाहने लगे और वक्तजरूरत पर इस गिरोह के लोगों को पनाह भी देने लगे.

गरीब जनता का भरोसा लखना पर जितना जमता गया, पुलिस महकमे पर उतना ही घटता गया. लखना पुलिस स्टेशन को सूचित कर देता कि आज फलां जगह डकैती डालूंगा. मगर पुलिस लखना के डर से उस के जाने के बाद ही मौके पर पहुंचती थी.

गरीबों का दुखदर्द जानने के लिए लखना हुलिया बदल कर गांवों में घूमता रहता था. एक दिन वह तड़के ही किसान के रूप में विशनपुर गांव के उत्तरी छोर से निकला. विशनपुर और महिलापुर की सरहद पर नीम का एक पेड़ था जिस के नीचे एक छोटा सा चबूतरा बना था. चबूतरे पर बैठी एक अधेड़ विधवा फूटफूट कर रो रही थी.

लखना का ध्यान उस की ओर गया तो वह उस के पास पहुंच कर बोला, ‘‘माई, तुम क्यों रो रही हो?’’ वह विधवा रुंधे गले से बोली,

‘‘5 साल पहले मेरे पति और बेटे को हैजा हो गया था. मैं अपनी बेटी के साथ बच गई. अब बेटी जवान हो चली है. उस के हाथ पीले करने की चिंता मुझे खाए जा रही है. शादी कोई हंसीखेल नहीं है. कहां से इतने रुपए इकट्ठे कर पाऊंगी?’’ विधवा की बातें सुन कर लखना का दिल भर आया और वह बोला, ‘‘माई, तुम लड़की ढूंढ़ो. आज से ठीक एक महीने बाद मैं इसी जगह पर मिलूंगा. पर ध्यान रखना कि यह बात किसी को पता न चले.’’

तय दिन और तय समय पर लखना नीम के चबूतरे पर पहुंचा. वहां विधवा पहले से ही मौजूद थी. लखना ने उसे कुछ रुपए दिए और जातेजाते कहा, ‘‘2 दिन बाद जरूरी सामान पहुंचना शुरू हो जाएगा.’’

आटा, चावल, दाल, चीनी, घी, तेल, बेसन, मैदा और लकड़ी समेत शादी में इस्तेमाल होने वाले सभी सामान तांगे पर लद कर विधवा के घर पहुंचने लगे. गांव वाले अचरज में पड़ गए. शादी के दिन कन्यादान का इरादा कर के लखना भी वहां पहुंचा और समय पर कन्यादान किया.

पुलिस को लखना के गांव में होने की खबर मिल चुकी थी. लखना के खिलाफ गई सभी मुहिमों में नाकाम होने के चलते पुलिस बहुत ही बदनाम हो चुकी थी. लेकिन वह इस सुनहरे मौके को गंवाना नहीं चाहती थी. लखना भी बहुत चौकन्ना था. अपने साथियों के साथ वह गांव के बाहर के बगीचे में पहुंच गया.

पुलिस दल ने उसे ललकारा. दोनों ओर से गोलियों की बरसात होने लगी. पुलिस के कई जवान हताहत हुए. लखना के 2 साथी मारे गए और 2 उस के इशारे पर भाग निकले.

एक सनसनाती गोली लखना के सीने में लगी और वह वहीं जमीन पर गिर गया. गिरते समय उस की पगड़ी और मुंह पर बंधी काली पट्टी खिसक गई. सिपाही सूर्यपाल ने उसे पहचान लिया और हड़बड़ा कर बोला, ‘‘हरसिंगार भैया, तुम…’’

हरसिंगार ने टूटती आवाज में जवाब दिया, ‘‘हां सूर्यपाल, मैं ही हूं. तुम तो पुलिस में भरती हो गए. मैं भी अच्छी जिंदगी जीना चाहता था और उस दिशा में कदम बढ़े भी थे पर तुम्हारी खाकी वरदी ने मुझे डाकू बनने के लिए मजबूर कर दिया.’’ लखना के शरीर से बहुत ज्यादा खून निकल चुका था. वह कुछ और कहना चाहता था. उस के होंठ कुछकुछ हिले पर धड़कन अचानक रुक गई. Social Story 

Family Story In Hindi : इंटरव्यू – क्या दामोदर के जानें का दुख सभी को था ?

Family Story In Hindi : पिताजी औफिस से आए तो उन के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी. यह देख कर उन के बेटे मुकुल ने पूछा, ‘‘पापा, क्या बात है, आज आप बहुत उदास नजर आ रहे हैं ’’\‘‘हां बेटा, दरअसल, हमारे साथ काम करने वाले हमारे पुराने सहयोगी दामोदर की अचानक मृत्यु हो गई है जिस कारण मैं उदास हूं,’’ पापा ने बताया. यह सुन कर मुकुल सोचने लगा, ‘सैकड़ों लोग पापा के साथ काम करते हैं, आखिर दामोदर अंकल में क्या खास बात थी कि उन की मृत्यु से वे इतने उदास हैं.’ कुछ सोच कर मुकुल ने इस का कारण पूछ ही लिया, तो पापा ने बताया, ‘‘बेटे, मुझे दामोदर की मृत्यु का बहुत दुख है क्योंकि इतने अच्छे, योग्य और ईमानदार आदमी आजकल बहुत कम मिलते हैं जिन पर पूरी तरह भरोसा किया जा सके.’’

मुकुल के पिता मुंबई के बहुत बड़े व्यवसायी थे. उन का व्यवसाय देश से ले कर विदेशों तक फैला हुआ था.

‘‘लेकिन पिताजी, आप तो अपने कर्मचारियों को अच्छा वेतन देते हैं. फिर आजकल तो पढ़ेलिखे लोगों को भी नौकरी नहीं मिलती.’’

‘‘ठीक कहते हो बेटा, आजकल बहुत से पढ़ेलिखे बेरोजगार हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि हर पढ़ालिखा व्यक्ति योग्य नहीं होता… और मुझे योग्य व्यक्ति चाहिए. दामोदर की तरह.’’

मुकुल समझ नहीं पा रहा था कि आखिर दामोदर अंकल में खास बात क्या थी और योग्य आदमी के सही माने क्या होते हैं एक दिन मुकुल को पापा ने बताया कि उन्होंने कई लोगों को साक्षात्कार के लिए बुला रखा है. वे उन में से किसी एक को दामोदर की जगह काम पर रखेंगे. मुकुल को जिझासा हुई कि पापा इतने लोगों के बीच से किसी एक को भला कैसे चुनेंगे  अत: उस ने आग्रह कर के पापा के पास चुपचाप एक कुरसी पर बैठे रहने की अनुमति मांग ली.

साक्षात्कार वाले दिन मुकुल ने देखा कि बहुत से लोग पापा के कैबिन के बाहर बैठे हैं. पापा जिस का नाम पढ़ते, उसे अंदर बुलाया जाता. कई लोग कैबिन में आए. सभी के चेहरों पर एक ही तरह की लालसा थी कि किसी तरह नौकरी मिल जाए. मुकुल ने अभी तक सिर्फ सुना और अखबारों में पढ़ा था कि आजकल बड़ीबड़ी डिगरियों वाले लोग भी बेरोजगार हैं. अब वह यह सब स्वयं देखरहा था कि एक पद के लिए कितने ज्यादा लोग आए हैं. उन में से कइयों के पास तो बड़ीबड़ी डिगरियां थीं.

कितने ही लोग कमरे में आए. पापा ने उन से कईर् प्रश्न पूछे और यह कह कर भेज दिया कि चयनित होने पर सूचित कर देंगे. लेकिन मुकुल को अपने पिता के चेहरे पर निश्चिंतता नहीं दिखाई दी. उसे हैरानी थी कि इतने सारे लोगों में उन्हें अभी तक दामोदर अंकल की तरह कोई व्यक्ति नहीं मिल पाया.

मुकुल को ऊब होने लगी. अपने पापा के प्रति खीज भी होने लगी. कमरे में आने के बाद वापस जाते हुए लोगों को देख कर उसे दया भी आ रही थी. एक बार तो उस ने यह सोचा कि बड़ा हो कर पढ़लिख कर शायद वह भी इसी तरह लाइन में लगेगा, जिस तरह आज उस के पापा लोगों का इंटरव्यू ले रहे हैं, वैसे ही उस का इंटरव्यू लिया जाएगा.

तभी पापा ने एक औैर नाम पुकारा. कुछ ही क्षणों में एक साधारण वेशभूषा वाला व्यक्ति अंदर आया. हर बार की तरह पापा ने उस से भी प्रश्न किया, ‘‘आप की योग्यता ’’ अभी तक आए सभी लोगों ने इस प्रश्न के उत्तर में अपनी बड़ीबड़ी डिगरियां तथा अतिरिक्त योग्यताएं बताईर् थीं. परंतु इस व्यक्ति ने कुछ पल सोच कर जवाब दिया, ‘‘जी, मेरे पास केवल 3 योग्यताएं हैं.’’

‘‘यानी ’’ पिताजी ने सवाल किया.

वह व्यक्ति धीरे से बोला, ‘‘जी, मेरी पहली योग्यता है, सोचसमझ कर काम करना, दूसरी योग्यता है, कितना भी समय बीत जाए, भोजन किए बगैर रह सकना और तीसरी योग्यता है, असफलता से निराश हो कर धीरज न खोना.’’

मुकुल ने देखा, उस के पापा के चेहरे पर नई चमक आ गईर् है. वह मुसकरा उठे और उस व्यक्ति से हाथ मिलाते हुए बोले, ‘‘जो कुछ तुम ने कहा है, उसे भूलोगे तो नहीं ’’

‘‘कभी नहीं… सर,’’ वह बोला.

‘‘ठीक है, तुम्हें इस पद पर अपौइंट किया जाता है, कल से काम पर आ जाओ.’’

पापा के चेहरे पर निश्चिंतता के भाव देख कर मुकुल को आश्चर्य हुआ. वह अभी तक नहीं समझ पा रहा था कि इतने पढ़ेलिखे लोगों के बीच पापा ने एक उस आदमी को चुना, जिस ने डिगरियों की कोई बात भी नहीं की थी. उस से पूछा, ‘‘पापा, यह तो बहुत अजीब बात है, इतने पढ़ेलिखोें को आप ने लौटा दिया और…’’

‘‘बेटे, पढ़नेलिखने से अधिक जरूरी है कि इंसान खुद अपने को पहचानता हो, अपने गुणों और अवगुणों को जानता हो और उन को याद रखता हो. संसार में पढ़नालिखना भी जरूरी है, लेकिन उस से अधिक जरूरी है, व्यावहारिक ज्ञान…’’

‘‘यह व्यावहारिक ज्ञान क्या होता है ’’ मुकुल ने एक और प्रश्न कर डाला.

उस के पिता समझाने लगे, ‘‘देखो, ध्यान से सुनना मेरी बात. व्यावहारिक ज्ञान वह कला है, जिस के सहारे व्यक्ति अपने काम में सफल होता है, सुखी रहता है और सब का आदर पाता है.’’

‘‘लेकिन उस आदमी ने तो इस ज्ञान की कोई बात भी नहीं की थी… यह ज्ञान तो स्कूल में पढ़ाया जाता है.’’

‘‘नहीं बेटा, यह ज्ञान अनुभव से आता है. उस आदमी ने अपनी जो 3 योग्यताएं बताई थीं, उस से स्पष्ट था कि उसे भरपूर व्यावहारिक ज्ञान है.’’

‘‘क्या मतलब ’’

‘‘देखो, उस ने पहली बात बताई कि वह सोचसमझ कर काम करता है. इस का अर्थ यह हुआ कि वह किसी काम को उतावलेपन और जल्दबाजी में नहीं करता… और सोचसमझ कर किए गए काम में निश्चित ही सफलता मिलती है.

‘‘दूसरी बात उस ने यह बताई कि वह काफी समय तक भोजन किए बगैर भी रह सकता है. इस का अर्थ यह हुआ कि वह अपना काम पूरी लगन और जिम्मेदारी के साथ करता है. काम के समय यदि उसे भूखा भी रहना पड़े तो वह चिंता नहीं करता. जिस आदमी में ऐसी आदत होती है, वह निश्चय ही ईमानदार और परिश्रमी होता है.

‘‘तीसरी सब से अच्छी बात उस ने यह कही कि वह असफलता से निराश हो कर धीरज नहीं खोता. कई बार लोग जरा सी असफलता और परेशानी से हार मान लेते हैं. ऐसे लोग आगे नहीं बढ़ पाते. धीरज के साथ सफलता की राह देखना और अपने पर विश्वास रखना बहुत अच्छे गुण हैं. सच पूछो तो दामोदर में भी यह सारे गुण थे. इसीलिए मुझे उन की कमी खल रही थी. चलो, भूख लगी है, घर चल कर खाना खाएं. तुम्हारी मां राह देख रही होंगी.’’

रास्तेभर मुकुल सोचता रहा कि उस ने आज बहुत सी चीजें सीखी हैं. वह कोशिश करेगा कि जीवनभर इन बातों को याद रखे और दामोदर अंकल की तरह सफल व्यक्ति बने. Family Story In Hindi

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