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Online Hindi Story : वे सूखे पत्ते – कमसिन उम्र की नादान दोस्ती

Online Hindi Story : आज से 15 साल पहले की बात है. मैं 11वीं जमात में पढ़ता था. वह लड़की हमारी क्लास में नईनई आई थी. उस के पैर में कुछ लचक थी. शायद कुछ चोट लगी हो, इसलिए वह थोड़ा लंगड़ा कर चल रही थी. उस ने 10वीं क्लास में पूरे उदयपुर में टौप किया था और मैं ने अपने स्कूल में.

दिखने में तो वह बला की खूबसूरत थी. मगर कहते हैं न कि चांद में भी दाग होता है, बिलकुल ऐसे ही उस के पैर की वह चोट उस चांद से हुस्न का दाग बन गई थी.

उस ने पहले दिन से ही क्लास के मनचले लड़कों को अपनी खूबसूरती का दीवाना बना दिया था. उस की सादगी की चर्चा हर जबान पर थी.

शुरुआत के चंद महीनों में ही क्लास के आधे से ज्यादा लड़के उसे प्रपोज कर चुके थे. सब को उस के हुस्न से मतलब था, उस से नहीं. हम लड़कों की सोच गिरी हुई होती है. लड़की को इस्तेमाल करने की चीज समझते हैं. इस्तेमाल किया और फेंक दिया. मगर सबकुछ जानते हुए भी उस ने कभी किसी को जवाब नहीं दिया. न ही नाराजगी से और न ही खुशी से.

और एक मैं था, जो अभी तक उस का नाम भी नहीं जानता था. सच कहूं, तो मैं ने कभी कोशिश भी नहीं की थी. नाम जान कर करना भी क्या था, जब दोनों की दुनिया और रास्ते ही अलग थे. हर कोई उसे अलगअलग नाम से पुकारता था, इसलिए कभी सुनने में भी नहीं आया उस का असली नाम.

मैं ने उस की आंखें देखी थीं. कुछ बोलती थीं उस की आंखें, मगर क्या बोलती थीं, यह जानने के लिए कभी सोचा ही नहीं. मेरे लिए पढ़ाई ज्यादा जरूरी थी. अनाथ था न मैं. अपना सबकुछ खुद ही देखना था. अपना भविष्य खुद बनाना था. जिस उम्र में लड़के तरहतरह के शौक पूरे करने में लगे होते हैं, उस उम्र में मैं खुद को एक सांचे में ढालने चला था. भला हो उस गैरसरकारी संस्था का, जो मुझे इस स्कूल में पढ़ा रही थी.

कुछ दिनों के बाद इम्तिहान हो गए. उस लड़की ने क्लास में फिर से टौप कर दिया. मेरी सालों से चली आ रही क्लास में पहली पोजीशन की हुकूमत को उस ने खत्म कर दिया था. हमारे क्लास टीचर क्लास में आए और बोले, ‘‘सरोज, तुम ने 96 फीसदी नंबर ला कर क्लास में टौप किया है.’’ मुझे धक्का लगा कि मैं पीछे कैसे रह गया. मैं इतनी मेहनत से तो पढ़ा था.

टीचर दोबारा बोले, ‘‘राघव, तुम्हारे  95.8 फीसदी नंबर आए हैं. तुम दूसरे नंबर पर हो.’’

इस पर मुझे राहत सी मिली कि बस थोड़ा सा फर्क है. मगर फर्क क्यों है, इस का जवाब मुझे खुद को देना था. यह जवाब मैं कहां से लाता? मैं पूरी क्लास में यही सोचता रहा. सब लड़के खुश थे. जो फेल थे वे भी, क्योंकि उन्हें उस का असली नाम पता लग गया था. क्लास खत्म होने पर मैं उस से मिला और बधाई दी. वह इस की हकदार भी थी, इसलिए उस ने भी मुझे बधाई दी.

यह हमारी पहली मुलाकात थी. इस के बाद आगे के दिनों में धीरेधीरे बातें होने लगीं, मगर जबान से नहीं, बस इशारों से. दूर से देख कर हाथ हिला देना, मगर सामने होने पर चुपचाप निकल जाना, यह हमारे लिए बहुत आम हो गया था.

फाइनल इम्तिहान आने वाले थे. हमारी बातें अब शुरू होने लगी थीं.

मगर मैं ने कभी सरोज के बारे में जानने की कोशिश नहीं की, बस हालचाल पूछ लिया करता था.

फिर एक दिन वह बोली, ‘‘इम्तिहान के बाद मिलना.’’

मगर कहां मिलना, यह नहीं बताया. मैं कुछ देर सोचता ही रहा कि कहां और क्यों? क्यों का जवाब तो यह था कि हम दोस्त थे, मगर कहां का जवाब मुझे नहीं मिल रहा था. क्या मेरे घर में? मगर मैं तो अनाथ आश्रम में रहता हूं. तो क्या फिर उस के घर में? मगर उस का घर तो मुझे पता ही नहीं. तो कहां? फिर उसी ने बताया कि स्कूल के पास वाले बाग में मिलना. मेरे अंदर के सवालों का तूफान थाम दिया था उस के इस जवाब ने.

इम्तिहान खत्म हुए. हम मिले, हम फिर मिले, हम बारबार मिले. एक अजीब सी, मगर बहुत प्यारी सी धुन लग गई थी दोनों को एकदूसरे के साथ की.

फिर एक दिन मैं ने उसे बताया कि मैं अनाथ हूं, तो जवाब मिला कि वह भी अनाथ है. मेरी तो यह जान कर जैसे सांसें ही थम गई थीं कि इतनी प्यारी लड़की के मांबाप नहीं हैं.  बला की खूबसूरत लड़की इस नोच खाने वाले समाज में अपना वजूद बनाए हुए थी. समझ आ गया था मुझे कि उस की आंखें क्या बोलती थीं और क्यों वह इतनी नरम मिजाज थी. मुझे आज उन सवालों के जवाब भी मिल गए थे, जिन सवालों को मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

फिर कुछ देर चुप रहने के बाद मैं ने बड़ी हसरत से उस से पूछा, ‘‘क्या अब तक तुम्हारा कभी कोई दोस्त रहा है?’’

वह हथेली भर के सूखे पत्ते ले आई और बोली, ‘‘ये हैं मेरे दोस्त.’’ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि सरोज क्या बोल रही है. मैं हंस भी नहीं सकता था, क्योंकि उस के चेहरे पर हंसी  नहीं दिख रही थी.

‘‘सरोज, मैं कुछ समझा नहीं?’’ मैं ने बहुत जिज्ञासा से पूछा.

जब उस की आंखें सबकुछ बोलती ही थीं, तो क्यों आज मैं उस की जबान का बोला हुआ शब्द समझ नहीं पा रहा था. वह चाह रही थी कि उस का यह दोस्त उस की आंखें पढ़ कर जान जाए कि क्यों ये सूखे पत्ते उस के दोस्त थे. मगर उस ने नहीं बताया और मैं ने भी मान लिया कि शायद

दुनिया में कहीं उस का भरोसा टूटा होगा, इसलिए वह ऐसी बातें करती है. हमारी बातों के सिलसिले अब काफी बढ़ गए थे और हम धीरेधीरे बहुत करीब आ गए थे. एक लगाव था, एक अधूरापन था, जो साथ रह कर ही पूरा होता था. मैं जानना चाहता था उस का और उस के सूखे पत्तों का रिश्ता. मैं इतना करीब तो था उस के, मगर उस के दोस्त अब भी सूखे पत्ते ही थे.

फिर एक दिन मेरे मन में यह सवाल उठा कि स्कूल से पढ़ाई खत्म होने के बाद हम कैसे मिलेंगे? मगर यह सवाल मैं उस से सुनना चाहता था और यह भी जानता था कि वह नहीं पूछेगी, क्योंकि उसे मुझ से ज्यादा उन सूखे पत्तों से जो लगाव था. स्कूल की पढ़ाई खत्म हो गई. उस से मिले हुए काफी दिन गुजर गए. अकेलापन महसूस होने लगा था और यह अकेलापन मुझे काटने को दौड़ता था. सरोज लौट गई थी अपनी दुनिया में, अपने उन सूखे पत्तों के पास या फिर कहीं और.

फर एक दिन मैं ने स्कूल जा कर पता किया. कितना बेवकूफ था मैं. इतना वक्त साथ रहे, मगर कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह रहती कहां थी.

मैं अपने टीचर के पास गया और सरोज का पता पूछा. टीचर बोले, ‘‘राघव, पता तो मुझे भी नहीं मालूम, मगर सरोज तुम्हारे लिए एक चिट्ठी छोड़ गई है.’’ मैं बहुत खुश हुआ, मगर न जाने क्यों मेरे हाथ कांप रहे थे उस चिट्ठी को खोलने में. जिंदगी में पहली बार किसी ने मुझ अनाथ को चिट्ठी लिखी थी.

टीचर बोले, ‘‘अरे, यह क्या? जो राघव हमेशा पढ़ने में अव्वल रहा, आज उस के हाथ इस मामूली सी चिट्ठी को लेने में कांप क्यों रहे हैं?’’‘‘पता नहीं, सर. मगर यह मामूली नहीं है,’’ इतनकह कर मैं वहां से बहुत तेजी से भाग निकला. और क्या भागा यह मैं भी नहीं जानता. शायद मुझ में हिम्मत नहीं थी उस वक्त का सामना करने की.

मैं बहुत भागा और न जाने क्यों मेरे कदम उस बाग की ओर बढ़ते चले गए, जहां हम अकसर मिलते थे. मेरी सांसें बहुत तेज चल रही थीं. थकने की वजह से नहीं, डर की वजह से. और डर था उसे खो देने का. डर था मुझे कि यह चिट्ठी पढ़ते ही मैं उसे खो दूंगा. या उस का मेरे लिए पहला और आखिरी खत था. क्या करूं, कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. अभी पढ़ूं कि नहीं.

मन में हजारों बुरे खयाल आ रहे थे. सांसें भी थमने का नाम नहीं ले रही थीं. फिर सोचा, ‘शायद उस ने इस में अपना नया पता लिखा हो.’ बहुत हिम्मत कर के मैं ने वह खत खोल ही दिया और वह कुछ यों था:

‘प्यारे दोस्त राघव,

‘मैं जानती हूं कि यह खत पढ़ने से पहले तुम ने हजार बार सोचा होगा. तुम्हारे हाथ कांपे होंगे, धड़कनों का शोर कुछ ज्यादा हो गया होगा. मन में हजारों तरह के खयाल आ रहे होंगे और उन में सब से बड़ा सवाल यह होगा कि मेरे दोस्त सूखे पत्ते ही क्यों?

‘राघव, मैं ने तुम्हें कभी नहीं बताया, पर अब बताती हूं. मैं अपने मातापिता की एकलौती लड़की थी. जिस घर में मैं पैदा हुई, वहां लड़की का पैदा होना जुर्म माना जाता था. जब मैं 4 साल की थी, तब मेरे पिता ने मुझे छत से नीचे फेंक दिया था. मैं आंगन में रखे उन सूखे पत्तों के ढेर पर गिरी थी, जिसे कुछ देर पहले मेरी मां ने जमा किया था. तब मैं तो बच गई, मगर मेरा पैर टूट गया था.

‘पिताजी की ऐसी गिरी हुई हरकत देख कर मां ने वहीं पर रखी कुल्हाड़ी से उन की जान ले ली. उन्होंने मुझे बहुत प्यार से गले लगाया, खूब रोईं. मैं भी रो रही थी. फिर मां ने मुझे छोड़ा और घर बंद कर के खुद को आग लगा ली. मां भी मर गईं और मैं छोटी सी लड़की 4 साल की उम्र में ही अनाथ हो गई.

‘किसी रिश्तेदार ने मेरी जिम्मेदारी नहीं ली. जिस उम्र में औलाद को उस की मां के सहारे की सब से ज्यादा जरूरत होती है, वह सहारा मुझ से छिन गया था. मां के आंचल में खेलने की उम्र में मुझे अनाथालय वाले ले गए.‘वहां जब मैं गई, तो हर बार बस अपना गिरना याद आता था उस वक्त मुझे बचाने वोल वे सूखे पत्ते ही थे, जिन से मैं ने कभी बात तक नहीं की थी. उन बेजबानों ने मुझे एक नई जिंदगी दे दी थी. मेरा पैर हमेशा के लिए खराब हो गया था.

‘मैं आज भी हर रोज जब सड़कों पर गिरे सूखे पत्ते देखती हूं, तो मुझे वही ढेर याद आता है. मैं उन का कुछ इसी तरह एहसान मानती हूं कि जब मेरा अपना पिता मेरा अपना नहीं हो सका, तब इन गैर और बेजबान पत्तों ने मुझे सहारा दिया. ‘मुझे जब भी इस बेहया दुनिया से डर लगता है, मैं अकसर इन्हें खत लिखती हूं. मैं इन का एक ढेर बनाती हूं, फिर एक हवा का झोंका आता है और उस ढेर के सब पत्तों को मेरे चारों ओर फैला कर कहता है कि भरोसा रखना सरोज… ये सूखे पत्ते हमेशा तेरे साथ हैं… हमेशा.

‘मैं जानती हूं राघव कि तुम यह खत अभी उसी बाग में बैठ कर पढ़ रहे हो, और तुम्हारी आंखें भीग गई हैं. मुझे माफ कर देना तुम्हें चुपचाप छोड़ कर जाने के लिए. मगर महसूस कर के देखना… मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं, इन सूखे पत्तों की तरह.

‘तुम्हारी सरोज.’

मेरी आंखें सच में भर आई थीं. एक आह निकल गई थी मेरे दिल से. आज समझ आ गया था कि क्यों हैं ये सूखे पत्ते उस के दोस्त… कितना जानती थी वह मुझे… उसे पता था कि मैं यह खत उस बाग में ही पढ़ूंगा. अब समझ आया कि क्यों मेरे पैर भागतेभागते मुझे इस बाग में ले आए थे.

मैं सरोज के दोस्तों को लेकर बनाए हुए ढेर में सरोज की दुनिया को बड़े गौर से देख रहा था कि न जाने कहां से अचानक एक हवा का झोंका आया, जिस ने उन पत्तों को मेरे चारों ओर फैला दिया और मुझे सच में एहसास होने लगा कि सरोज मेरे बहुत करीब है… बहुत ही करीब…

Best Hindi Story : कितनी रंजिश – दादू ने कैसे सुलझाई नन्हे की समस्या

Best Hindi Story : मेरा एक मित्र था गजलों का बड़ा शौकीन. हर जुमले पर वह झट से कोई शेर पढ़ देता या मुहावरा सुनाने लगता. मुझे कई बार हैरानी भी होती थी उस की हाजिरजवाबी पर. इतना बड़ा खजाना कहां सहेज रखा है, सोच कर हैरत होती थी. कभी किसी चीज को लेने की चाह व्यक्त करता तो अकसर कहने लगता, ‘‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी हर ख्वाहिश पे दम निकले…’’

‘‘ऐसी भी क्या ख्वाहिश पाल ली है यार, हर बात पर तुम्हारा प्रवचन मुझे पसंद नहीं,’’ मैं टोकता था.

‘‘चादर अनुसार पैर पसारो, बेटा.’’

‘‘कोई ताजमहल खरीदने की बात तो की नहीं मैं ने जो लगे हो भाषण देने. यही तो कह रहा हूं न, नया मोबाइल लेना है, मेरा मोबाइल पुराना हो गया है.’’

‘‘कहां तक दौड़ोगे इस दौड़ में. मोबाइल तो आजकल सुबह खरीदो, शाम तक पुराना हो जाता है. यह तो अंधीदौड़ है जो कभी खत्म नहीं हो सकती. पूर्णविराम या अर्धविराम तो हमें ही लगाना पड़ेगा न,’’ वह बोला.

उस की हाजिरजवाबी के आगे मेरे सार तर्क समाप्त हो जाते थे. बेहद संतोषी और ठंडी प्रकृति थी उस की. एक बार मेरी उस से कुछ अनबन सी हो गई. हमारे एक तीसरे मित्र की वजह से कोई गलतबयानी हुई जिस पर मुझे बुरा लगा. उस मामले में मैं ने कोई सफाई नहीं मांगी, न ही दी. बस, चुप रहा और उसी चुप्पी ने बात बिगाड़ दी.

आज बहुत अफसोस होता है अपनी इस आदत पर. कम से कम पूछता तो सही. उस ने कई बार कोशिश भी की थी मगर मेरा ही व्यवहार अडि़यल रहा जो उसे नकारता रहा. सहसा एक हादसे में वह संसार से ही विदा हो गया और मैं रह गया हक्काबक्का. यह क्या हो गया भला. ऐसा क्या हो गया जो वह चला ही गया. चला वह गया था और नाराज था मैं. रो नहीं पा रहा था. रोना आ ही नहीं रहा था. ऐसा बोध हो रहा था जैसे उसे नहीं मुझे जाना चाहिए था. आत्मग्लानि थी जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था. जिंदा था वह और मैं नकारता रहा. और अब जब वह नहीं है तो कहां जाऊं मैं उसे मनाने. जिस रास्ते वह चला गया उस रास्ते का नामोनिशान है ही कहां जो पीछेपीछे जाऊं और उस की बात सुन, अपनी सुना पाऊं.

आज कल में बदल गया और जो कल चला गया वह कभी नहीं आता. गया वक्त बहुत कुछ सिखा गया मुझे. उन दिनों हम जवान थे, तब इतना तजरबा नहीं होता जो उम्र बीत जाने के बाद होता है. आज बालों में सफेदी छलकने लगी है और जिंदगी ने मुझे बहुतकुछ सिखा दिया है. सब से बड़ी बात यह है कि रंजिश हमारे जीवन से बड़ी कभी नहीं हो सकती. कोई नाराजगी, कोई रंजिश तब तक है जब तक हम हैं. हमारे बाद उस की क्या औकात. हमारी जिद क्या हमारी जिंदगी से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि उसे हम जिंदगी से ऊपर समझने लगें.

मन में आया मैल इतना बलवान कभी न हो कि रिश्ते और प्यारमुहब्बत ही उस के सामने गौण हो जाएं. प्रेम था मुझे अपने मित्र से, तभी तो उस का कहा मुझे बुरा लगा था न. किस संदर्भ में उस ने कहा था, जो भी कहा था, तीसरे इंसान ने उसे क्या समझा और मुझे क्या बना कर बताया होगा, कम से कम विषय की गहराई में तो मुझे ही जाना चाहिए था न. मेरा मित्र इतना भी बचकाना, इतना नादान तो नहीं था जो मेरे विषय में इतनी हलकी बात कर जाता जिस का मुझे बेहद अफसोस हुआ था. उसी अफसोस को मैं ने नाजायज नाराजगी का जामा पहना कर इतना खींचा कि मेरा प्रिय मित्र समय से भी आगे निकल गया और मेरे सफाई लेनेदेने का मौका हाथ से निकल गया.

हमारा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है कि इसे बेकार, बचकानी बातों पर बरबादकर दिया जाए. रंजिश हो तो भी बात करने की गुंजाइश बंद कर देने की भला क्या जरूरत है. मिलो, कुछ कहो, कुछ सुनो, बात को समाप्त करो और आगे बढ़ो. गजल सम्राट मेहंदी हसन की गाई एक गजल मेरा मित्र बहुत गाया करता था-

‘‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,

तू मुझ से खफा है तो जमाने के लिए आ,

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ…’’

छोटेछोटे अहंकार, छोटेछोटे दंभ हमें कभीकभी उस रसातल पर ला कर पटक देते हैं जहां से ऊपर आने का कोई रास्ता ही नहीं होता. अगर हमें अपनी गलती का बोध हो जाए तो इतना अवश्य हो कि किसी और को समझा सकें. जिसे स्वयं भोग कर सीखा जाए उस से अच्छा तजरबा और क्या होगा. समझदार लोग अकसर समझाते हैं, या जान कर चलो या मान कर चलो.

जीवन पहले से ही फूलों की सेज नहीं है. हर किसी के मन पर कहीं न कहीं, कोई न कोई बोझ रहता है. जरा से बच्चे की भी कोई न कोई प्यारी सी, सलोनी सी समस्या होती है जिस से वह जूझता है. नन्हे, मेरा प्यारा पोता है. बड़ा उदास सा मेरे पास आया.

‘‘आज मोनू मेरे से बोला ही नहीं,’’ रोंआसा सा हो गया नन्हे.

‘‘तो आप बुला लेते बेटा. वैसे, बात क्या हुई थी? कोई झगड़ा हो गया था क्या?’’

‘‘उस ने मेरी कौपी पर लकीरें डाल दी थीं. मेरा इरेजर भी नीचे फेंक दिया. मेरी ड्राइंगशीट भी फाड़ दी.’’

‘‘वह तुम्हारा दोस्त है न. बैस्ट फ्रैंड है तो उस ने ऐसा क्यों किया. आप ने पूछा नहीं?’’

‘‘वह कहता है उस ने नहीं किया. वह तो लंचब्रैक में क्लास में आया ही नहीं था. झूले पर था.’’

‘‘और तुम कहां थे? तब तुम उस के साथ थे न?’’

‘‘हां, मैं उस के साथ था.’’

‘‘फिर तुम क्यों कहते हो? उसी ने सब किया है. तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘मुझे राशि ने बताया कि उस ने देखा था मोनू को मेरा बैग खोलते हुए.’’

‘‘राशि भी तुम्हारी फ्रैंड है, तुम्हारे साथ ही बैठती है.’’

‘‘नहीं, वह पीछे बैठती है. मोनू की उस से कट्टी है न, इसलिए मोनू उस से बोलता नहीं है,’’ नन्हे ने झट जवाब दिया.

सारा माजरा समझ गया था मैं. छोटेछोटे बच्चे भी कैसीकैसी चालें चल जाते हैं.

‘‘कल सुबह जब जाओगे न, मोनू को गले से लगा लेना, सौरी कह देना. झगड़ा खत्म हो जाएगा.’’

मेरे पोते नन्हे के चेहरे पर ऐसी मुसकान चली आई जिस में एक विश्वास था, एक प्यारा सा, मीठा सा भाव.

दूसरी दोपहर स्कूल से आते ही नन्हे झट से मेरे पास चला आया. ‘‘दादू, आज मोनू मेरे साथ बोला, हम ने खाना भी साथ खाया, झूला भी झूला. थैंक्यू दादू, आप ने मेरी समस्या हल कर दी. मैं ने मोनू को गले से भी लगाया, किस भी किया,’’ नन्हे ने खुश होते हुए बताया.

सारे संसार का सुख नन्हें की आंखों में था जिन में कल उदासी छाई थी. बच्चे का छोटा सा संसार उस का स्कूल, उस का मित्र और उस की मासूम सी चाह थी कि मोनू उस से बात करे. मोनू को नन्हे खोना नहीं चाहता था, वह उदास था. आज मोनू मिल गया तो उसे लग रहा है सारी कायनात की खुशी मोनू के मिलने से उसे मिल गई. मेरे चाचा मेरे अच्छे मित्र भी थे. उन्होंने समझाया था मुझे, कभी जीवन में एकतरफा फैसला न करो. फांसी पर चढ़ने वाले को भी कानून एक बार तो बोलने का अवसर देता है न. मैं अपने पोते नन्हे जैसा मासूम होता तो शायद चाचा का कहना मान लेता. बढ़ती उम्र शीशे से मन पर मैल के साथसाथ जिद भी ले आती है. धुंधले शीशे में कुछ भी साफ नहीं दिखता. क्यों जिद पर अड़ा रहा मैं और झूठा दंभ पालता रहा. आज सोचता हूं कि क्या मिला मुझे. हर पल कलेजे में एक फांस सी धंसी रहती है, बस.

Love Story : नवंबर का महीना – एक अधूरा हसीन ख्वाब

Love Story : नवंबर का महीना, सर्द हवा, एक मोटी किताब को सीने से चिपका, हलके हरे ओवरकोट में तुम सीढि़यों से उतर रही थी. इधरउधर नजर दौड़ाई, पर जब कोई नहीं दिखा तो मजबूरन तुम ने पूछा था, ‘कौफी पीने चलें?’

तुम्हें इतना पता था कि मैं तुम्हारी क्लास में ही पढ़ता हूं और मुझे पता था कि तुम्हारा नाम सोनाली राय है. तुम बंगाल के एक जानेमाने वकील अनिरुद्ध राय की इकलौती बेटी हो. तुम लाल रंग की स्कूटी से कालेज आती हो और क्लास के अमीरजादे भी तुम पर उतने ही मरते हैं, जितने हम जैसे मिडल क्लास के लड़के जिन्हें सिगरेट, शराब, लड़की और पार्टी से दूर रहने की नसीहत हर महीने दी जाती है. उन का एकमात्र सपना होता है, मांबाप के सपनों को पूरा करना. ये तुम जैसी युवतियों से बात करने से इसलिए हिचकते हैं, क्योंकि हायहैलो के बाद की अंगरेजी बोलना इन्हें भारी पड़ता है.

तुम रास्ते भर बोलती रही और मैं सुनता रहा. तुम ने मौका ही नहीं दिया मुझे बोलने का. तुम मिश्रा सर, नसरीन मैम की बकबक, वीणा मैम के समाचार पढ़ने जैसा लैक्चर और न जाने कितनी कहानियां तेजी से सुना गई थीं और मैं बस मुसकराते हुए तुम्हारे चेहरे पर आए हर भाव को पढ़ रहा था. तुम्हारे होंठों के ऊपर काला तिल था, जिस पर मैं कुछ कविताएं सोच रहा था, तब तक तुम्हारी कौफी और मेरी चाय आ गई.

तुम ने पूछा था, ‘तुम कौफी क्यों नहीं पीते?’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘चाय की आदत कभी छूटी नहीं.’ तुम यह सुन कर काफी जोर से हंसी थी. ‘शायरी भी करते हो.’ मैं झेप गया.

तुम इतने समय से कुछ भूल रही थी, मेरा नाम पूछना, क्योंकि मैं तुम्हारी आवाज में अपने नाम को सुनना चाह रहा था, तुम ने तब भी नहीं पूछा था.

हम दोनों उठ कर चल दिए थे, कैंपस से विश्वविद्यालय मैट्रो स्टेशन की ओर…

बात करते हुए तुम ने कहा था, ‘सज्जाद, पता है, मैं अकसर सपना देखती थी कि मैं फोटोग्राफर बनूंगी. पूरी दुनिया का चक्कर लगाऊंगी और सारे खूबसूरत नजारे अपने कैमरे में कैद करूंगी, लेकिन आज मैं मील, मार्क्स और लेनिन की किताबों में उलझी हुई हूं. कभी जी करता है तो ब्रेख्त पढ़ लेती हूं, तो कभी कामू को…’

हम अकसर जो चाहते हैं, वैसा नहीं होता है और शायद अनिश्चितता ही जीवन को खूबसूरत बनाती है, अकसर सबकुछ पहले से तय हो तो जिंदगी से रोमांच खत्म हो जाएगा. हम उम्र से पहले बूढ़े हो जाएंगे, जो बस यही सोचते हैं, उन के लिए मरना ही एकमात्र लक्ष्य है.

‘सज्जाद, तुम ने क्या पौलिटिकल साइंस अपनी मरजी से चुना,’ तुम ने पूछा था.

‘हां,’ मैं ने कहा. नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था उस समय. मैं खुद को बताने से ज्यादा, तुम्हें जानना चाह रहा था.

‘और हां, मेरा नाम सज्जाद नहीं, आदित्य है, आदित्य यादव,’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘ओह, तो तुम लालू यादव के परिवार से तो नहीं हो?’

‘बिलकुल नहीं, पता नहीं क्यों बिहार का हर यादव लालू यादव का रिश्तेदार लगता है लोगों को.’

कुछ पल के लिए दोनों चुप हो गए. कई कदम चल चुके थे. मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘वैसे यह सज्जाद है कौन?’

‘कोई नहीं, बस गलती से बोल गई थी.’

तुम्हारे चेहरे के भाव बदल गए थे.

‘कहां रहते हो तुम?’

हम बात करतेकरते मानसरोवर होस्टल आ गए थे, मैं ने इशारा किया, ‘यहीं.’

मैट्रो स्टेशन पास ही था, तुम से विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया.

मैं ने पूछा, ‘यह निशान कैसा?’

‘अरे, वह कल खाना बनाने वाली नहीं आई तो खुद रोटी बनाते समय हाथ जल गया. अभी आदत नहीं है न.’

मैं ने हाथ मिलाया. ओवरकोट की गरमी अब भी उस के हाथों में थी.इस खूबसूरत एहसास के साथ मैं सो नहीं पाया था, सुबह जल्दी उठ कर तुम से ढेर सारी बातें करनी थी.मैं कालेज गया था अगले दिन. कालेज में इस बात की चर्चा जरूर होने वाली थी, क्योंकि हम दोनों को साथ घूमते क्लास के लड़केलड़कियों ने देख लिया था.

उस दिन तुम नहीं आई थी. मुझे हर सैकंड बोझिल लग रहा था. तुम ने कालेज छोड़ दिया था. 2 वर्षों बाद दिखी थी, उसी नवंबर महीने में कनाट प्लेस के इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों से उतरते हुए.

मेरा मन जब भी उदास होता है, मैं निकल पड़ता था, इंडियन कौफी हाउस. दिल्ली की शोरभरी जगहों में एक यही जगह थी जहां मैं सुकून से उलझनों को जी सकता था और कल्पनाओं को नई उड़ान देता.

हलकी मुसकराहट के साथ तुम मिली थीं उस दिन, कोई तुम्हारे साथ था. तुम पहले जैसे चहक नहीं रही थीं. एक चुप्पी थी तुम्हारे चेहरे पर.

तुम्हारा इस तरह मिलना मुझे परेशान कर रहा था. तुम बस, उदास मुसकराहट के साथ मिलोगी और बिना कुछ बात किए सीढि़यों से उतर जाओगी, यह बात मुझे अंदर तक कचोट रही थी. इसी उधेड़बुन में सीढि़यां चढ़ते मुझे एक पर्स मिला. खोल कर देखा तो किसी अंजुमन शेख का था, बुटीक सैंटर, साउथ ऐक्सटेंशन का पता था, दिए हुए नंबर पर कौल किया तो स्विच औफ था.

तुम्हारे बारे में सोचतेसोचते रात के 8 बज गए थे. अचानक याद आया कि किसी का पर्स मेरे पास है, जिस में 12 सौ रुपए और डैबिट कार्ड है. मैं ने फिर एक बार कौल लगाई, इस बार रिंग जा रही थी.

‘हैलो,’ एक खूबसूरत आवाज सुनाई दी.

‘जी, आप का पर्स मुझे इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों पर गिरा मिला. आप बताएं इसे कहां आ कर लौटा दूं.’

‘आदित्य बोल रहे हो,’ उधर से आवाज आई.

‘सोनाली तुम,’ मैं आश्चर्यचकित था.

‘कैसी हो तुम और यह अंजुमन शेख का कार्ड? तुम हो कहां? तुम ने कालेज क्यों छोड़ दिया?’ मैं उस से सारे सवालों का जवाब जान लेना चाहता था, क्योंकि मुझे कल पर भरोसा नहीं था.

तुम ने बस इतना कहा था, ‘कल कौफी हाउस में मिलो 11 बजे.’

अगले दिन मैं ने कौफी हाउस में तुम्हें आते हुए देखा. 2 वर्ष पहले उस हरे ओवरकोट में सोनाली मिली थी, सपनों की दुनिया में जीने वाली सोनाली, बेरंग जिंदगी में रंग भरने वाली सोनाली. पर 2 वर्षों में तुम बदल गई थीं, तुम सोनाली नहीं थी. तुम एक हताश, उदास, सहमी अंजुमन शेख थी, जिस ने 2 वर्षों पहले घर छोड़ कर अपने प्रेमी सज्जाद से शादी कर ली थी. वही सज्जाद जिस के बारे में तुम ने मुझ से छिपाया था.

जिस से प्रेम करो, उस के साथ यदि जिंदगी का हर पल जीने को मिले, तो इस से खूबसूरत और क्या हो सकता है. इस गैरमजहबी प्रेमविवाह में निश्चित ही तुम ने बहुतकुछ झेला होगा पर प्रेम सारे जख्मों को भर देता है, लेकिन तुम्हारे और सज्जाद के बीच आए रिश्तों की कड़वाहट वक्त के साथ बदतर हो रही थी.

शादी के बाद प्रेम ने बंधन का रूप ले लिया था. आधिपत्य के बोझ तले रिश्ते बोझिल हो रहे थे. तुम तो दुनिया का चक्कर लगाने वाली युवती थी, तुम रिश्तों को जीना चाहती थी. उन्हें ढोना नहीं चाहती थी. जिसे तुम प्रेम समझ रही थी, वह घुटन बन गया था.

तुम सबकुछ कहती चली गई थीं और मैं तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को वैसे ही पढ़ना चाह रहा था, जैसे पहली बार पढ़ा था.

तुम ने सज्जाद के लिए अपना नाम बदला था, अपनी कल्पनाएं बदलीं. तुम ने खुद को बदल दिया था. प्रेम में खुद को बदलना सही है या गलत, नहीं मालूम, पर खुद को बदल कर तुम ने प्रेम भी तो नहीं पाया था.

वक्त हो गया था फिर एक बार तुम्हारे जाने का, ‘सज्जाद घर पहुंचने वाला होगा, तुम ने कहा था.’

तुम ने पर्स लिया और हाथ आगे बढ़ा कर बाय कहा.

मैं ने जल्दी से तुम्हारा हाथ थामा, वही 2 वर्षों पुराने ओवरकोट की गरमी महसूस करने को. तुम्हारे हाथ के पुराने जख्म तो भर गए थे, लेकिन नए जख्मों ने जगह ले ली थी.

इस बीच, हमारी फोन पर बातें होती रहीं, राजीव चौक और नेहरू प्लेस पर 2 बार मुलाकातें हुईं.

सबकुछ सहज था तुम्हारी जिंदगी में, लेकिन मैं असहज था. इस बीच मैं लिखता भी रहा था, तुम्हें कविताएं भी भेजता था, पढ़ कर तुम रोती थीं, कभी हंसती भी थीं.

एक दिन तुम्हारा मैसेज आया था, ‘मुझ से बात नहीं हो पाएगी अब.’

मैं ने एकदम कौलबैक किया, मेरा नंबर ब्लौक हो चुका था. तुम्हारा फेसबुक एकाउंट चैक किया तो वह डिलीट हो चुका था. मैं घबरा गया था, तुम्हारे साउथ ऐक्स वाले बुटीक पर फोन किया तो पता चला कि तुम एक हफ्ते से वहां नहीं गई हो. इसी बीच मेरा नया उपन्यास ‘नवंबर की डायरी’ बाजार में छप कर आ चुका था. मैं सभाओं और गोष्ठियों में जाने में व्यस्त हो गया, पर तुम्हारा खयाल मन में हमेशा बना रहा.

समय करवटें ले रहा था. सूरज रोज डूबता था, रोज उगता था. धीरेधीरे 1 साल गुजर गया. शाम के 7 बज रहे थे. मैं कमरे में अपनी नई कहानी ‘सोना’ के बारे में सोच रहा था. तब तक दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो देखा कोई युवती मेरी ओर पीठ किए खड़ी है.

मैं ने कहा, ‘जी…’

वह जैसे ही मुड़ी, मैं आश्चर्यचकित रह गया. वह सोनाली थी.

हम दोनों गले लग गए. मैं ने सीने से लगाए हुए पूछा, ‘तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?’

‘तुम्हारा उपन्यास पढ़ा, ‘नवंबर की डायरी’ उस के पीछे तुम्हारा नंबर और पता भी था.’

आदित्य तुम ने सही लिखा है इस उपन्यास में, ‘जिन रिश्तों में विश्वास की जगह  हो, उन का टूट जाना ही बेहतर है. मैं ने सज्जाद को तलाक दे दिया था. हमारी फेसबुक चैट सज्जाद ने पढ़ ली थी. फिर यहीं से बचे रिश्ते भी टूटते चले गए थे.

तुम मेरे अस्तव्यस्त घर को देख रही थी, अस्तव्यस्त सिर्फ घर ही नहीं था, मैं भी था. जिसे तुम्हें सजाना और संवारना था, पता नहीं तुम इस के लिए तैयार थीं या नहीं.

तभी तुम ने कहा, ‘ये किताबें इतनी बिखरी हुई क्यों हैं? मैं सजा दूं?’ मुसकरा दिया था मैं.

रात के 9 बज गए थे. हम दोनों किचन में डिनर तैयार कर रहे थे. तुम ने कहा कि खिड़की बंद कर दो, सर्द हवा आ रही है. मैं ने महसूस किया नवंबर का महीना आ चुका था.

Hindi Kahani : टिकट चोर – महेश ट्रेन में किससे मदद मांग रहा था

Hindi Kahani : काफी देर सोचने के बाद महेश ने फैसला किया कि उसे बिना टिकट खरीदे ही रेल में बैठ जाना चाहिए, बाद में जोकुछ होगा देखा जाएगा, क्योंकि रेल कुछ ही देर में प्लेटफार्म पर आने वाली है. महेश रेल में बिना टिकट के बैठना नहीं चाहता था. जब वह घर से चला था, तब उस की जेब में 2 हजार के 2 कड़क नोट थे, जिन्हें वह कल ही बैंक से लाया था. घर से निकलते समय सौसौ के 2 नोट जरूर जेब में रख लिए थे कि 2 हजार के नोट को कोई खुला नहीं करेगा.

जैसे ही महेश घर से बाहर निकला कि सड़क पर उस का दोस्त दीनानाथ मिल गया, जो उस से बोला था, ‘कहां जा रहे हो महेश?’

महेश ने कहा था, ‘उदयपुर.’

दीनानाथ बोला था, ‘जरा 2 सौ रुपए दे दे.’

‘क्यों भला?’ महेश ने चौंकते हुए सवाल किया था.

‘अरे, कपड़े बदलते समय पैसे उसी में रह गए…’ अपनी मजबूरी बताते हुए दीनानाथ बोला था, ‘अब घर जाऊंगा, तो देर हो जाएगी. मिठाई और नमकीन खरीदना है. थोड़ी देर में मेहमान आ रहे हैं.’

‘मगर, मेरे पास तो 2 सौ रुपए ही हैं. मुझे भी खुले पैसे चाहिए और बाकी

2 हजार के नोट हैं,’ महेश ने भी मजबूरी बता दी थी.

‘देख, रेलवे वाले खुले पैसे कर देंगे. ला, जल्दी कर,’ दीनानाथ ने ऐसे कहा, जैसे वह अपना कर्ज मांग रहा है.

महेश ने सोचा, ‘अगर इसे 2 सौ रुपए दे दिए, तो पैसे रहते हुए भी मेरी जेब खाली रहेगी. अगर टिकट बनाने वाले ने खुले पैसे मांग लिए, तब तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी. कोई दुकानदार भी कम पैसे का सामान लेने पर नहीं तोड़ेगा.’

दीनानाथ दबाव बनाते हुए बोला था, ‘क्या सोच रहे हो? मत सोचो भाई, मेरी मदद करो.’

‘मगर, टिकट बाबू मेरी मदद नहीं करेगा,’ महेश ने कहा, पर न चाहते हुए भी उस का मन पिघल गया और जेब से निकाल कर उस की हथेली पर 2 सौ रुपए धर दिए.

दीनानाथ तो धन्यवाद दे कर चला गया. जब टिकट खिड़की पर महेश का नंबर आया, तो उस ने 2 हजार का नोट पकड़ाया.

टिकट बाबू बोला, ‘खुले पैसे लाओ.’

महेश ने कहा कि खुले पैसे नहीं हैं, पर वह खुले पैसों के लिए अड़ा रहा. उस की एक न सुनी.

इसी बीच गाड़ी का समय हो चुका था. खुले पैसे न होने के चलते महेश को टिकट नहीं मिला, इसलिए वह प्लेटफार्म पर आ गया.

प्लेटफार्म पर बैठ कर महेश ने काफी विचार किया कि उदयपुर जाए या वापस घर लौट जाए. उस का मन बिना टिकट के रेल में जाने की इजाजत नहीं दे रहा था, फिर मानो कह रहा था कि चला जा, जो होगा देखा जाएगा. अगर टिकट चैकर नहीं आया, तो उदयपुर तक मुफ्त में चला जाएगा.

इंदौरउदयपुर ऐक्सप्रैस रेल आउटर पर आ चुकी थी. धीरेधीरे प्लेटफार्म की ओर बढ़ रही थी. महेश ने मन में सोचा कि बिना टिकट नहीं चढ़ना चाहिए, मगर जाना भी जरूरी है. वहां वह एक नजदीकी रिश्तेदार की शादी में जा रहा है. अगर वह नहीं जाएगा, तो संबंधों में दरार आ जाएगी.

जैसे ही इंजन ने सीटी बजाई, महेश यह सोच कर फौरन रेल में चढ़ गया कि जब ओखली में सिर दे ही दिया, तो मूसल से क्या डरना?

रेल अब चल पड़ी. महेश उचित जगह देख कर बैठ गया. 6 घंटे का सफर बिना टिकट के काटना था. एक डर उस के भीतर समाया हुआ था. ऐसे हालात में टिकट चैकर जरूर आता है.

भारतीय रेल में यों तो न जाने कितने मुसाफिर बेटिकट सफर करते हैं. आज वह भी उन में शामिल है. रास्ते में अगर वह पकड़ा गया, तो उस की कितनी किरकिरी होगी.

जो मुसाफिर महेश के आसपास बैठे हुए थे, वे सब उदयपुर जा रहे थे. उन की बातें धर्म और राजनीति से निकल कर नोटबंदी पर चल रही थीं. नोटबंदी को ले कर सब के अपनेअपने मत थे. इस पर कोई विरोधी था, तो कोई पक्ष में भी था. मगर उन में विरोध करने वाले ज्यादा थे.

सब अपनेअपने तर्क दे कर अपने को हीरो साबित करने पर तुले हुए थे. मगर इन बातों में उस का मन नहीं लग रहा था. एकएक पल उस के लिए घंटेभर का लग रहा था. उस के पास टिकट नहीं है, इस डर से उस का सफर मुश्किल लग रहा था.

नोटबंदी के मुद्दे पर सभी मुसाफिर इस बात से सहमत जरूर थे कि नोटबंदी के चलते बचत खातों से हफ्तेभर के लिए 24 हजार रुपए निकालने की छूट दे रखी है, मगर यह समस्या उन लोगों की है, जिन्हें पैसों की जरूरत है.

महेश की तो अपनी ही अलग समस्या थी. गाड़ी में वह बैठ तो गया, मगर टिकट चैकर का भूत उस की आंखों के सामने घूम रहा था. अगर उसे इन लोगों के सामने पकड़ लिया, तो वह नंगा हो जाएगा. उस का समय काटे नहीं कट रहा था.

फिर उन लोगों की बात रेलवे के ऊपर हो गई. एक आदमी बोला, ‘‘आजादी के बाद रेलवे ने बहुत तरक्की की है. रेलों का जाल बिछा दिया है.’’

दूसरा आदमी समर्थन करते हुए बोला, ‘‘हां, रेल व्यवस्था अब आधुनिक तकनीक पर हो गई है. इक्कादुक्का हादसा छोड़ कर सारी रेल व्यवस्था चाकचौबंद है.’’

‘‘हां, यह बात तो है. काम भी खूब हो रहा है.’’

‘‘इस के बावजूद किराया सस्ता है.’’

‘‘हां, बसों के मुकाबले आधे से भी कम है.’’

‘‘फिर भी रेलों में लोग मुफ्त में चलते हैं.’’

‘‘मुफ्त चल कर ऐसे लोग रेलवे का नुकसान कर रहे हैं.’’

‘‘नुकसान तो कर रहे हैं. ऐसे लोग समझते हैं कि क्यों टिकट खरीदें, जैसे रेल उन के बाप की है.’’

‘‘हां, सो तो है. जब टिकट चैकर पकड़ लेता है, तो लेदे कर मामला रफादफा कर लेते हैं.’’

‘‘टिकट चैकर की यही ऊपरी आमदनी का जरीया है.’’

‘‘इस रेल में भी बिना टिकट के लोग जरूर बैठे हुए मिलेंगे.’’

‘हां, मिलेंगे,’ कई लोगों ने इस बात का समर्थन किया.

महेश को लगा कि ये सारी बातें उसे ही इशारा कर के कही जा रही हैं. वह बिना टिकट लिए जरूर बैठ गया, मगर भीतर से उस का चोर मन चिल्ला कर कह रहा है कि बिना टिकट ले कर रेल में बैठ कर उस ने रेलवे की चोरी की है. सरकार का नुकसान किया है.

रेल अब भी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी. मगर रेल की रफ्तार से तेज महेश के विचार दौड़ रहे थे. उसे लग रहा था कि रेल अब भी धीमी रफ्तार से चल रही है. उस का समय काटे नहीं कट रहा था. भीतरी मन कह रहा था कि उदयपुर तक कोई टिकट चैकर न आए.

अभी रेल चित्तौड़गढ़ स्टेशन से चली थी. वही हो गया, जिस का डर था. टिकट चैकर आ रहा था. महेश के दिल की धड़कनें बढ़ गईं. अब वह भी इन लोगों के सामने नंगा हो जाएगा. सब मिल कर उस की खिल्ली उड़ाएंगे, मगर उस के पास तो पैसे थे.

टिकट खिड़की बाबू ने खुले पैसे न होने के चलते टिकट नहीं दिया था. इस में उस का क्या कुसूर? मगर उस की बात पर कौन यकीन करेगा? सारा कुसूर उस पर मढ़ कर उसे टिकट चोर साबित कर देंगे और इस डब्बे में बैठे हुए लोग उस का मजाक उड़ाएंगे.

टिकट चैकर ने पास आ कर टिकट मांगी. उस का हाथ जेब में गया. उस ने 2 हजार का नोट आगे बढ़ा दिया.

टिकट चैकर गुस्से से बाला, ‘मैं ने टिकट मांगा है, पैसे नहीं.’’

‘‘मुझे 2 हजार के नोट के चलते टिकट नहीं मिला. कहा कि खुले पैसे दीजिए. आप अपना जुर्माना वसूल कर के उदयपुर का टिकट काट दीजिए,’’ कह कर महेश ने अपना गुनाह कबूल कर लिया.

मगर टिकट चैकर कहां मानने वाला था. वह उसी गुस्से से बोला, ‘‘सब टिकट चोर पकड़े जाने के बाद यही बोलते हैं… निकालो साढ़े 5 सौ रुपए खुले.’’

‘‘खुले पैसे होते तो मैं टिकट ले कर नहीं बैठता,’’ एक बार फिर महेश आग्रह कर के बोला, ‘‘टिकट के लिए  मैं उस बाबू के सामने गिड़गिड़ाया,

मगर उसे खुले पैसे चाहिए थे. मेरा उदयपुर जाना जरूरी था, इसलिए

बिना टिकट लिए बैठ गया. आप मेरी मजबूरी क्यों नहीं समझते हैं.’’

‘‘आप मेरी मजबूरी को भी क्यों नहीं समझते हैं?’’ टिकट चैकर बोला, ‘‘हर कोई 2 हजार का नोट पकड़ाता रहा, तो मैं कहां से लाऊंगा खुले पैसे. अगर आप नहीं दे सकते हो, तो अगले स्टेशन पर उतर जाना,’’ कह कर टिकट चैकर आगे बढ़ने लगा, तभी पास बैठे एक मुसाफिर ने कहा, ‘‘रुकिए.’’

उस मुसाफिर ने महेश से 2 हजार का नोट ले कर सौसौ के 20 नोट गिन कर दे दिए. उस टिकट चैकर ने जुर्माना सहित टिकट काट कर दे दिया.

टिकट चैकर तो आगे बढ़ गया, मगर उन लोगों को नोटबंदी पर चर्र्चा का मुद्दा मिल गया.

अब महेश के भीतर का डर खत्म हो चुका था. उस के पास टिकट था. उसे अब कोई टिकट चोर नहीं कहेगा. उस ने उस मुसाफिर को धन्यवाद दिया कि उस ने खुले पैसे दे कर उस की मदद की. रेल अब भी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी.

वह सरकार की मनमानी की वजह से टिकट चोर बन जाता. गनीमत है कि कुछ लोग सरकार और प्रधानमंत्री से ज्यादा समझदार थे और इस बेमतलब की आंधी में अपनी मुसीबतों की फिक्र करे बिना ही दूसरों की मदद करने वाले थे.

Hindi Story : आखिर कब तक और क्यों – क्या हुआ था रिचा के साथ

Hindi Story : ‘‘क्या बात है लक्ष्मी, आज तो बड़ी देर हो गई आने में?’’ सुधा ने खीज कर अपनी कामवाली से पूछा.

‘‘क्या बताऊं मेमसाहब आप को कि मुझे क्यों देरी हो गई आने में… आप तो अपने कामों में ही लगी रहती हैं. पता भी है मनोज साहब के घर में कैसी आफत आ गई है? उन की बेटी रिचा के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया है… बड़ी शांत, बड़े अच्छे तौरतरीकों वाली है.’’

लक्ष्मी से रिचा के बारे में जान कर सुधा का मन खराब हो गया. बारबार उस का मासूम चेहरा उस के जेहन में उभर कर मन को बेधने लगा कि पता नहीं लड़की के साथ क्या हुआ? फिर भी अपनेआप पर काबू पाते हुए लक्ष्मी के धाराप्रवाह बोलने पर विराम लगाती हुई वह बोली, ‘‘अरे कुछ नहीं हुआ है. खेलते वक्त चोट लग गई होगी… दौड़ती भी तो कितनी तेज है,’’ कह कर सुधा ने लक्ष्मी को चुप करा दिया, पर उस के मन में शांति कहां थी…

कालेज से अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद सुधा बिल्डिंग के बच्चों की मैथ्स और साइंस की कठिनाइयों को सुलझाने में मदद करती रही है. हिंदी में भी मदद कर उन्हें अचंभित कर देती है. किस के लिए कौन सी लाइन ठीक रहेगी. बच्चे ही नहीं उन के मातापिता भी उसी के निर्णय को मान्यता देते हैं. फिर रिचा तो उस की सब से होनहार विद्यार्थी है.

‘‘आंटी, मैं भी भैया लोगों की तरह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहती हूं. उन की तरह आप मेरा मार्गदर्शन करेंगी न?’’

सुधा के हां कहते ही वह बच्चों की तरह उस के गले लग जाती थी. लक्ष्मी के जाते ही सारे कामों को जल्दी से निबटा कर वह अनामिका के पास गई. उस ने रिचा के बारे में जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा कांप उठी. कल सुबह रिचा अपने सहपाठियों के साथ पिकनिक मनाने गंगा पार गई थी. खानेपीने के बाद जब सभी गानेबजाने में लग गए तो वह गंगा किनारे घूमती हुई अपने साथियों से दूर निकल गई. बड़ी देर तक जब रिचा नहीं लौटी तो उस के साथी उसे ढूंढ़ने निकले. कुछ ही दूरी पर झाडि़यों की ओट में बेहोश रिचा को देख सभी के होश गुम हो गए. किसी तरह उसे नर्सिंगहोम में भरती करा कर उस के घर वालों को खबर की. घर वाले तुरंत नर्सिंगहोम पहुंचे.

अनामिका ने जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा स्तब्ध रह गई. अब वह असमंजस में थी कि वह रिचा को देखने जाए या नहीं. फिर अनमनी सी हो कर उस ने गाड़ी निकाली और नर्सिंगहोम चल पड़ी, जहां रिचा भरती थी. वहां पहुंच तो गई पर मारे आशंका के उस के कदम आगे बढ़ ही नहीं रहे थे. किसी तरह अपने पैरों को घिसटती हुई उस के वार्ड की ओर चल पड़ी. वहां पहुंचते ही रिचा के पिता से उस का सामना हुआ. इस हादसे ने रात भर में ही उन की उम्र को10 साल बढ़ा दिया था. उसे देखते ही वे रो पड़े तो सुधा भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाई. ऐसी घटनाएं पूरे परिवार को झुलसा देती हैं. बड़ी हिम्मत कर वह कमरे में अभी जा ही पाई थी कि रिचा की मां उस से लिपट कर बेतहासा रोने लगीं. पथराई आंखों से जैसे आंसू नहीं खून गिर रहा हो.

रिचा को नींद का इंजैक्शन दे कर सुला दिया गया था. उस के नुचे चेहरे को देखते ही सुधा ने आंखों से छलकते आंसुओं को पी लिया. फिर रिचा की मां अरुणा के हाथों को सहलाते हुए अपने धड़कते दिल पर काबू पाते हुए कल की दुर्घटना के बारे में पूछा, ‘‘क्या कहूं सुधा, कल घर से तो खुशीखुशी सभी के साथ निकली थी. हम ने भी नहीं रोका जब इतने बच्चे जा रहे हैं तो फिर डर किस बात का… गंगा के उस पार जाने की न जाने कब से उस की इच्छा थी. इतने बड़े सर्वनाश की कल्पना हम ने कभी नहीं की थी.’’

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर सुधा उस लेडी डाक्टर के पास गई, जो रिचा का इलाज कर रही थी. सुधा ने उन से आग्रह किया कि इस घटना की जानकारी वे किसी भी तरह मीडिया को न दें, क्योंकि इस से कुछ होगा नहीं, उलटे रिचा बदनाम हो जाएगी. फिर पुलिस के जो अधिकारी इस की घटना जांचपड़ताल कर रहे हैं, उन की जानकारी डाक्टर से लेते हुए सुधा उन से मिलने के लिए निकल गई. यह भी एक तरह से अच्छा संयोग रहा कि वे घर पर थे और उस से अच्छी तरह मिले. धैर्यपूर्वक उस की सारी बातें सुनीं वरना आज के समय में इतनी सज्जनता दुर्लभ है.

‘‘सर, हमारे समाज में बलात्कार पीडि़ता को बदनामी एवं जिल्लत की किनकिन गलियों से गुजरना पड़ता है, उस से तो आप वाकिफ ही होंगे… इतने बड़े शहर में किस की हैवानियत है यह, यह तो पता लगने से रहा… मान लीजिए अगर पता लग जाने पर अपराधी पकड़ा भी जाता है तो जरा सोचिए रिचा को क्या पहले वाला जीवन वापस मिल जाएगा? उसे जिल्लत और बदनामी के कटघरों में खड़ा कर के बारंबार मानसिक रूप से बलात्कार किया जाएगा, जो उस के जीवन को बद से बदतर कर देगा. कृपया इसे दुर्घटना का रूप दे कर इस केस को यहीं खारिज कर के उसे जीने का एक अवसर दीजिए.’’

सुधा की बातों की गहराई को समझते हुए पुलिस अधिकारी ने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया. वहां से आश्वस्त हो कर सुधा फिर नर्सिंगहोम पहुंची और रिचा के परिवार से भी रोनाधोना बंद कर इस आघात से उबरने का आग्रह किया.

शायद रिचा को होश आ चुका था. सुधा की आवाज सुनते ही उस ने आंखें खोल दीं. किसी हलाल होते मेमने की तरह चीख कर वह सुधा से लिपट गई. सुधा ने किसी तरह स्वयं पर काबू पाते हुए रिचा को अपने सीने से लगा लिया. फिर उस की पीठ को सहलाते हुए कहा, ‘‘धैर्य रख मेरी बच्ची… जो हुआ उस से बुरा तो कुछ और हो ही नहीं सकता, लेकिन इस से जीवन समाप्त थोड़े हो जाता है? इस से उबरने के लिए तुम्हें बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है मेरी बच्ची… उसे यों बेहाल हो कर चीखने में जाया नहीं करना है… जितना रोओगी, चीखोगी, चिल्लाओगी उतना ही यह निर्दयी दुनिया तुम्हें रुलाएगी, व्यंग्यवाणों से तुझे बेध कर जीने नहीं देगी.’’

‘‘आंटी, मेरा मर जाना ठीक है… अब मैं किसी से भी नजरें नहीं मिला सकती… सारा दोष मेरा है. मैं गई ही क्यों? सभी मिल कर मुझ पर हसेंगे… मेरा शरीर इतना दूषित हो गया है कि इसे ढोते हुए मैं जिंदा नहीं रह सकती.’’

फिर चैकअप के लिए आई लेडी डाक्टर से गिड़गिड़ा कर कहने लगी, ‘‘जहर दे कर मुझे मार डालिए डाक्टर… इस गंदे शरीर के साथ मैं नहीं जी सकती. अगर आप ने मुझे मौत नहीं दी तो मैं इसे स्वयं समाप्त कर दूंगी,’’ रिचा पागल की तरह चीखती हुई बैड पर छटपटा रही थी.

‘‘ऐसा नहीं कहते… तुम ने बहुत बहादुरी से सामना किया है… मैं कहती हूं तुम्हें कुछ नहीं हुआ है,’’ डाक्टर की इस बात पर रिचा ने पथराई आंखों से उन्हें घूरा.बड़ी देर तक सुधा रिचा के पास बैठी उसे ऊंचनीच समझाते हुए दिलाशा देती रही लेकिन वह यों ही रोतीचिल्लाती रही. उसे नींद का इंजैक्शन दे कर सुलाना पड़ा. रिचा के सो जाने के बाद सुधा अरुण को हर तरह से समझाते हुए धैर्य से काम लेने को कहते हुए चली गई. किसी तरह ड्राइव कर के घर पहुंची. रास्ते भर वह रिचा के बारे में ही सोचती रही. घर पहुंचते ही वह सोफे पर ढेर हो गई. उस में इतनी भी ताकत नहीं थी कि वह अपने लिए कुछ कर सके.

रिचा के साथ घटी दुर्घटना ने उसे 5 दशक पीछे धकेल दिया. अतीत की सारी खिड़कियां1-1 कर खुलती चली गईं…

12 साल की अबोध सुधा के साथ कुछ ऐसा हुआ था कि वह तत्काल उम्र की अनगिनत दहलीजें फांद गई थी. कितनी उमंग एवं उत्साह के साथ वह अपनी मौसेरी बहन की शादी में गई थी. तब शादी की रस्मों में सारी रात गुजर जाती थी. उसे नींद आ रही थी तो उस की मां ने उसे कमरे में ले जा कर सुला दिया. अचानक नींद में ही उस का दम घुटने लगा तो उस की आंखें खुल गईं. अपने ऊपर किसी को देख उस ने चीखना चाहा पर चीख नहीं सकी. वह वहशी अपनी हथेली से उस के मुंह को दबा कर बड़ी निर्ममता से उसे क्षतविक्षत करता रहा.

अर्धबेहोशी की हालत में न जाने वह कितनी देर तक कराहती रही और फिर बेहोश हो गई. जब होश आया तो दर्द से सारा बदन टूट रहा था. बगल में बैठी मां पर उस की नजर पड़ी तो पिछले दिन आए उस तूफान को याद कर किसी तरह उठ कर मां से लिपट कर चीख पड़ी. मां ने उस के मुंह पर हाथ रख कर गले के अंदर ही उस की आवाज को रोक दिया और आंसुओं के समंदर को पीती रही. बेटी की बिदाई के बाद ही उस की मौसी उस के सर्वनाश की गाथा से अवगत हुई तो अपने माथे को पीट लिया. जब शक की उंगली उन की ननद के 18 वर्षीय बेटे की ओर उठी तो उन्होंने घबरा कर मां के पैर पकड़ लिए. उन्होंने भी मां को यही समझाया कि चुप रहना ही उस के भविष्य के लिए हितकर होगा.

हफ्ते भर बाद जब वह अपने घर लौटी तो बाबूजी के बारबार पूछने के बावजूद भी अपनी उदासी एवं डर का कारण उन्हें बताने का साहस नहीं कर सकी. हर पल नाचने, गाने, चहकने वाली सुधा कहीं खो गई थी. हमेशा डरीसहमी रहती थी.

आखिर उस की बड़ी बहन ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘बताओ न मां, वहां सुधा के साथ हुआ क्या जो इस की ऐसी हालत हो गई है? आप हम से कुछ छिपा रही हैं?’’

सुधा उस समय बाथरूम में थी. अत: मां उस रात की हैवानियत की सारी व्यथा बताते हुए फूट पड़ी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. बाबूजी भैया के साथ बाजार से लौट आए थे. मां को इस का आभास तक नहीं हुआ. सारी वारदात से बाबूजी और भैया दोनों अवगत हो चुके थे और मारे क्रोध के दोनों लाल हो रहे थे. सब कुछ अपने तक छिपा कर रख लेने के लिए बाबूजी ने मां को बहुत धिक्कारा. सुधा बाथरूम से निकली तो बाबूजी ने उसे सीने से लगा लिया.

बलात्कार किसी एक के साथ होता है पर मानसिक रूप से इस जघन्य कुकृत्य का शिकार पूरा परिवार होता है. अपनी तेजस्विनी बेटी की बरबादी पर वे अंदर से टूट चुके थे, लेकिन उस के मनोबल को बनाए रखने का प्रयास करते रहे.

सुधा ने बाहर वालों से मिलना या कहीं जाना एकदम छोड़ दिया था. लेकिन पढ़ाई को अपना जनून बना लिया था. भौतिकशास्त्र में बीएसी औनर्स में टौप करने के 2 साल बाद एमएससी में जब उस ने टौप किया तो मारे खुशी के बाबूजी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. 2 महीने बाद उसी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई. सभी कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन शादी से उस के इनकार ने बाबूजी को तोड़ दिया था. एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे थे, लेकिन सुधा शादी न करने के फैसले पर अटल रही. भैया और दीदी की शादी किसी तरह देख सकी अन्यथा किसी की बारात जाते देख कर उसे कंपकंपी होने लगती थी.

सुधा के लिए जैसा घरवर बाबूजी सोच रहे थे वे सारी बातें उन के परम दोस्त के बेटे रवि में थी. उस से शादी कर लेने में अपनी इच्छा जाहिर करते हुए वे गिड़गिड़ा उठे तो फिर सुधा मना नहीं कर सकी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर वह कई वर्षों बाद भी बच्चे का सुख रवि को दे सकी. वह तो रवि की महानता थी कि इतने दिनों तक उसे सहन करते रहे अन्यथा उन की जगह कोई और होता तो कब का खोटे सिक्के की तरह उसे मायके फेंक आया होता.

रवि के जरा सा स्पर्श करते ही मारे डर के उस का सारा बदन कांपने लगता था. उस की ऐसी हालत का सबब जब कहीं से भी नहीं जान सके तो मनोचिकित्सकों के पास उस का लंबा इलाज चला. तब कहीं जा कर वह सामान्य हो सकी थी. रवि कोई वेवकूफ नहीं थे जो कुछ नहीं समझते. बिना बताए ही उस के अतीत को वे जान चुके थे. यह बात और थी कि उन्होंने उस के जख्म को कुरेदने की कभी कोशिश नहीं की.

2 बेटों की मां बनी सुधा ने उन्हें इस तरह संस्कारित किया कि बड़े हो कर वे सदा ही मर्यादित रहे. अपने ढंग से उन की शादी की और समय के साथ 2 पोते एवं 2 पोतियों की दादी बनी.

जीवन से गुजरा वह दर्दनाक मोड़ भूले नहीं भूलता. अतीत भयावह समंदर में डूबतेउतराते वह 12 वर्षीय सुधा बन कर विलख उठी. मन ही मन उस ने एक निर्णय लिया, लेकिन आंसुओं को बहने दिया. दूसरे दिन रिचा की पसंद का खाना ले कर कुछ जल्दी ही नर्सिंगहोम जा पहुंची. समझाबुझा कर मनोज दंपती को घर भेज दिया. 2 दिन से वहीं बैठे बेटी की दशा देख कर पागल हो रहे थे. किसी से भी कुछ नहीं कहने को सुधा ने उन्हें हिदायत भी दे दी. फिर एक दृढ़ निश्चय के साथ रिचा के सिरहाने जा बैठी.

सुधा को देखते ही रिचा का प्रलाप शुरू हो गया, ‘‘अब मैं जीना नहीं चाहती. किसी को कैसे मुंह दिखाऊंगी?’’

सुधा ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ वह कोई नई बात नहीं है. सदियों से स्त्रियां पुरुषों की आदम भूख की शिकार होती रही हैं और होती रहेंगी. कोई स्त्री दावे से कह तो दे कि जिंदगी में वह कभी यौनिक छेड़छाड़ की शिकार नहीं हुई है. अगर कोई कहती है तो वह झूठ होगा. यह पुरुष नाम का भयानक जीव तो अपनी आंखों से ही बलात्कार कर देता है. आज तुम्हें मैं अपने जीवन के उस भयानक सत्य से अवगत कराने जा रही हूं, जिस से आज तक मेरा परिवार अनजान है, जिसे सुन कर शायद तुम्हारी जिजिविषा जाग उठे,’’ कहते हुए सुधा ने रिचा के समक्ष अपने काले अतीत को खोल दिया. रिचा अवाक टकटकी बांधे सुधा को निहारती रह गई. उस के चेहरे पर अनेक रंग बिखर गए, बोली, ‘‘तो क्या आंटी मैं पहले जैसा जी सकूंगी?’’

‘‘एकदम मेरी बच्ची… ऐसी घटनाओं से हमारे सारे धार्मिक ग्रंथ भरे पड़े हैं… पुरुषों की बात कौन करे… अपना वंश चलाने के लिए स्वयं स्त्रियों ने स्त्रियों का बलात्कार करवाया है. कोई शरीर गंदा नहीं होता. जब इन सारे कुकर्मों के बाद भी पुरुषों का कौमार्य अक्षत रह जाता है तो फिर स्त्रियां क्यों जूठी हो जाती हैं.

‘‘इस दोहरी मानसिकता के बल पर ही तो धर्म और समाज स्त्रियों पर हर तरह का अत्याचार करता है. सारी वर्जनाएं केवल लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़के छुट्टे सांड़ की तरह होेंगे तो ऐसी वारदातें होती रहेंगी. अगर हर मां अपने बेटों को संस्कारी बना कर रखे तो ऐसी घटनाएं समाज में घटित ही न हों. पापपुण्य के लेखेजोखे को छोड़ते हुए हमें आगे बढ़ कर समाज को ऐसी घृणित सोच को बदलने के लिए बाध्य करना है. जो हुआ उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ और कल तुम यहां से अपने घर जा रही हो. सभी की नजरों का सामना इस तरह से करना है मानो कुछ भी अनिष्ट घटित नहीं हुआ है. देखो मैं ने कितनी खूबसूरती से जीवन जीया है.’’

रिचा के चेहरे पर जीवन की लाली बिखरते देख सुधा संतुष्ट हो उठी. उस के अंतर्मन में जमा वर्षों की असीम वेदना का हिम रिचा के चेहरे की लाली के ताप से पिघल कर आंखों में मचल रहा था. अतीत के गरल को उलीच कर वह भी तो फूल सी हलकी हो गई थी.

Education : बचपन से भेदभावी शिक्षा

Education : स्कूलों में भेदभाव बढ़ता जा रहा है. बच्चों को छुटपन से गरीबीअमीरी की दीवारों के पीछे बंद किया जा रहा है. वर्ष 1950 के बाद शिक्षा फैली और गांवगांव महल्लेमहल्ले में स्कूल खुले. शुरुआती कुछ सालों के बाद ही स्कूल नाम, जाति, धर्म, आर्थिक स्तर की पहचान बनने लगे.

गंदे, मैले, कुचैले, टूटे फर्नीचर वाले सरकारी स्कूलों और फूलों की क्यारियों वाले, लिपेपुते, शानदार व हवादार कमरे वाले इंग्लिश मीडियम स्कूलों ने जो खाइयां पैदा कीं वे स्कूली शिक्षा के 10-12 साल तक के लिए ही नहीं थीं, जिंदगीभर साथ रहती रहीं. सरकारी स्कूलों से निकले स्टूडैंट्स हर कोशिश करने के बाद भी उन खाइयों को जिंदगीभर पाट नहीं सके.

भारतीय जनता पार्टी हरेक को एक ही भगवान की दुकान तक धकेलने में तो सफल है, स्कूलों के मामलों में जाति और पैसे दोनों का पूरा ध्यान रख रही है. एक ही संस्कार, संस्कृति, एक ही इतिहास की बात तो ढोल पीटपीट कर की जाती है पर पढ़ाई के मामले में ऊंचनीच का पूरा ध्यान रखा जा रहा है.

अब इंग्लिश मीडियम व हिंदी मीडियम की खाइयां तो हैं ही, इंग्लिश मीडियम में भी देशीविदेशी लैवल वाले बोर्ड्स का ठप्पा भी लगना शुरू हो गया है. अपने को इंटरनैशनल स्कूलों से जोड़ कर बहुत से स्कूलों ने मोटी फीस वसूलना शुरू कर दिया है ताकि लोग अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में भेज सकें जहां मजदूरों को तो छोडि़ए, उन के मैनेजरों और पड़ोस के आम अमीर दुकानदारों के बच्चे भी न जा सकें.

देश में आजकल 972 इंटरनैशनल स्कूल चल रहे हैं जहां हर छात्र की फीस 10 से 20 लाख रुपए सालाना है. अमेरिका और इंगलैंड के भारीभरकम नामों वाली पुरानी सस्थाएं पिछड़े देशों को बहकाने में पूरी तरह सफल हैं कि उन के यहां से निकले बच्चे बिलकुल अलग तरह की शिक्षा पा कर निकलेंगे और वे बच्चे जीवन में सफल होंगे. उन्हें विदेशी कालेजों में आसानी से एडमिशन मिल जाएगा और वे देशी जनता से हमेशा दूर रहेंगे.

छूत की बीमारी ऐसी है कि अब नए इंटरनैशनल स्कूल महाराष्ट्र के सांगली में भी खुल रहे हैं और बेतुल में भी. अमीर मांबाप अपने बच्चों को अभूतपूर्व सुख देने के लिए हर तरह से पैसा खर्च करने को तैयार हैं.

पढ़ाई पढ़ाई होती है. यह क्लासरूम से नहीं चलती. यह पढऩे वाले की इच्छा से अच्छी-बुरी होती है. टूटी मेज पर भरी क्लास में भी अच्छी पढ़ाई हो सकती है क्योंकि ज्ञान और जानकारी तो उन किताबों में है जो हरेक को उपलब्ध हैं. स्कूलों को महंगा कर के सिर्फ एक बनावटी दीवारों के पीछे छात्रों को धकेला जा रहा है. छात्रों को बताया जा रहा है कि उन्हें अपने घर की माली हालत का एहसास हमेशा रहना चाहिए. गरीब छात्रों को समझाया जा रहा है कि वे कीचड़ में पैदे हुए, कीचड़ में रहेंगे. उन्हें सपने देखने का भी हक नहीं है.

दूसरी ओर अमीरों के बच्चों को समझाया जा रहा है कि वे खास हैं और समाज उन की खासीयत की हमेशा सुरक्षा करेगा. न्यू एजुकेशन पौलिसी का ढोल केवल गरीबों को लौलीपौप देने के लिए है. अमीरों के बच्चों को चिंता नहीं करनी चाहिए. वे रेस में पहले से ही आगे है, आगे रहेंगे.

Donald Trump : लोकतंत्र और सिरफिरा शासक

Donald Trump : अमेरिका में लोकतांत्रिक शक्तियों ने मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) गुट का मुकाबला करने की ठान ली है. बजाय दूसरे बहुत से देशों के जहां वोट के खेल से सत्ता हथियार कर बने तानाशाहों के सामने लोगों ने हथियार डाल दिए हैं, अमेरिका में पिछले 5 अप्रैल को वहां के 1,200 शहरों की राज्य विधानसभाओं, फैडरल सरकार के दफ्तरों, पोस्टऔफिसों, शहर के चौराहों आदि पर हजारोंहजारों की संख्या में जमा हुए लोगों ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ नारे लगा व पोस्टर दिखा कर यह जता दिया कि डैमोक्रेसी को बचाने के लिए वे कुछ कर सकते हैं.

ये आंदोलनकारी फिर जमा होंगे और शायद तब तक आंदोलन जारी रखेंगे जब तक राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को समझ न आ जाए कि 4 नवंबर, 2024 को चुनाव जीतने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें अमेरिका का तानाबाना पलटने का हक मिल गया है. अमेरिका की 5 अप्रैल की जन मुहिम की सफलता को देख कर यूरोप के कई देश, जहां चर्च और कट्टरपंथियों की मिलीजुली ताकतों ने कुछ पार्टियों पर कब्जा कर लिया है और वे सैंसिटिव मामलों की आड़ में वोटरों को उकसा कर लोकतंत्र की समाप्ति की तैयारी कर रहे थे, चौकन्ने हो गए हैं.

डोनाल्ड ट्रंप को मनमरजी के बहुत से फैसले लेने की छूट थी पर उन्होंने एकसाथ कई मोरचे खोल दिए, विदेशियों के खिलाफ ही नहीं बल्कि अमेरिकियों के खिलाफ भी. जैसे भारत में भारतीय मुसलिमों के खिलाफ लगातार माहौल बनाया जा रहा है कुछ वैसा ही डोनाल्ड ट्रंप की पिट्ठू सेना मागा ने इमीग्रैंट्स के खिलाफ बनाया जिन में दक्षिणी अमेरिका, पश्चिम एशिया, भारत, फिलीपींस जैसे देशो से कागजों या बिना कागजों के अमेरिका में घुसे लोगों को अमेरिका का दुश्मन घोषित कर दिया जबकि वे वहां के खेतों, फैक्ट्रियों, रैस्तरांओं, सडक़ों की सफाई, कंस्ट्रक्शन में लगे थे और अमेरिका को अमीर बना रहे थे.

यह नहीं, ट्रंप ने दूसरे देशों से कस्टम ड्यूटी का लफड़ा भी ले लिया जिस से आयात महंगा हो गया और निर्यात बढ़ा नहीं. तीसरी ओर आम अमेरिकी से मैडिकेयर की सुविधा छीन ली. ओबामा के युग में जो सस्ती मैडिकल हैल्प मिलनी शुरू हुई थी, वह बंद कर दी.

अमेरिकी मागा ने स्कूलों की किताबों को बदलना शुरू कर दिया और कहलवाना शुरू कर दिया कि न तो कभी गोरों ने कालों पर अत्याचार किए थे और न हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ मुहिम में लाखों मारे थे. यही हमारे यहां भारत में भी हो रहा है. सारी किताबें दोबारा लिखाई जा रही हैं. चिकित्सा के नाम पर आयुर्वेदिक इलाज थोपा जा रहा है. असली चिकित्सा महंगी होती जा रही है.

ट्रंप के कदम अमेरिका के लोकतांत्रिक तानेबाने को तोड़ रहे हैं जो यूरोप के कितने ही देशों में हो रहा है और हमारे भारत में भी हो रहा है. अमेरिका के डैमोक्रेट्स ने 1,200 शहरों में 1,400 जगह आंदोलन कर के, धरनेप्रदर्शन कर के सोते हुए लोकतांत्रिक लोगों को नींद से जगा दिया है. जागनेजगाने की यह गोली क्या यूरोप, भारत, एशिया के दूसरे लोकतांत्रिक देश लेंगे?

1977 में जनता ने जता दिया था कि भारत में इमरजैंसी जैसी हालत स्वीकार नहीं है. 1989 में कांग्रेस को भारी बहुमत दिला कर यह बता दिया था कि भारत की अखंडता से खिलवाड़ संभव नहीं है. अमेरिका ने लोकतंत्र को बचाने और फैलाने में पिछले 200 सालों में बहुतकुछ किया है. उसे हाथ से निकलने न दें. दूसरे देश लोकतंत्र की कीमत समझें. एक सिरफिरी पार्टी लोकतंत्र को नष्ट कर सकती है.

Digital Era : पढ़ना, सुनना और हस्ताक्षर

Digital Era : पढ़ने और सुनने में एक बड़ा फर्क यह है कि लिखा हुआ ज्यादा गहराई तक समझ आता है और उस की बारीकियां पता चलती हैं जबकि सुनने में लोग बोलने वाले की शक्लसूरत पर ज्यादा मरते हैं, शब्दों का गहराई तक विश्लेषण नहीं कर पाते. आजकल बैंक, अच्छेखासे विदेशी नामों वाले बैंक भी, फोन कर के अपनी नई स्कीमों के बारे में बताते हैं. कुछ आप से कह देते हैं कि वे सारी बात रिकौर्ड कर रहे हैं. लेकिन वे आप को कुछ रिकौर्ड नहीं करने देते.

उन को पता है कि फोन पर या मुंहजबानी कही गई बात को गहराई तक भांपना आसान नहीं है. वे फायदे ही फायदे बताते रहते हैं. इस के लिए वे लच्छेदार कहानियां भी बना सकते हैं. यह तो रही सुन कर फैसला लेने की बात, लेकिन अगर पढ़ कर आप को फैसला लेना होगा तो आप बीसियों लोगों से महीनों पूछ सकेंगे, जो आज के बैंक नहीं चाहते. मार्केटिंग आजकल फेसबुक, यूट्यूब टीवी पर ज्यादा इसीलिए होनी शुरू हो गई है क्योंकि इन पर बेवकूफ बनाना ज्यादा आसान है.

नेता लोग भी अब अपने बयान छपवाते नहीं हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जो उन्होंने भाषणों में कहा वह किसी को पूरी तरह याद नहीं रहेगा. सिलैक्टिव मैमोरी इसी का नाम है. एक स्मरणशक्ति उसी अंश को मस्तिष्क में रखती है जो काम का लगता है. उस समय मस्तिष्क तर्कवितर्क नहीं कर सकता, विश्लेषण नहीं कर सकता, कही गईं बातों में कमियां नहीं निकाल सकता.

जब से ज्ञान का डिजिटलीकरण हुआ है और लिखे हुए को सुनाने की कला भी विकसित हुई है, अधिकांश नेताओं को आराम हो गया है. विचारक भी पौडकास्टों पर भरोसा करने लगे हैं. मार्केटियर की चांदी हो गई है. फ्रौड करने वाले जम कर कमाई करने लगे हैं. ये सब धाराप्रवाह ढंग से बोलते चले जाते हैं और कोई उन्हें रोकताटोकता नहीं है.

यदि ये लोग अपनी बात लिख कर, छपवा कर बंटवाएं तो लोग हर लाइन में सवाल ढूंढ सकेंगे, गलतियां पकड़ सकेंगे. तर्कवितर्क कर सकेंगे, एक ही लाइन को चार बार पढ़ कर अच्छे से समझ सकेंगे.

डिजिटल लिखित शब्द जो स्क्रीन पर आते हैं वे भी इतने अधिक प्रभावशाली नहीं रह पाते क्योंकि चाहे उन्हें पढ़ते हुए जाना जा सकता है लेकिन उन का संशोधन करना, हाईलाइट करना, हाशिए में अपनी टिप्पणी करना मुश्किल होता है. छोटी स्क्रीन पर ही सब जानकारी देने की तकनीक असल में एक षड्यंत्र है जिस से पूरी दुनिया को बेवकूफ बनाया जा रहा है.

पढ़ना बंद हो गया है, इसीलिए फ्रौड के मामले बढ़ रहे हैं. नेता भी फ्रौड कर रहे हैं, भारतीय रिज़र्व बैक के अनुमोदित बैंक भी जम कर फ्रौड कर रहे हैं, मार्केटियर भी फ्रौड कर रहे हैं. और सब से बड़ी बात यह कि वे फ्रौड कर रहे हैं जो फोन कर के डिजिटल अरैस्ट तक कर के लाखोंकरोड़ों लूट लेते हैं. यह सब न पढ़ पाने का नतीजा है.

लिखा हुआ पढ़ना जरूरी है. डाक्टर, वकील, चार्टर्ड अकाउंटैंट आप से सबकुछ लिखित में लेते हैं. वे आप को पढ़ने का मौका चाहे न दें लेकिन आप के हस्ताक्षर लिखे हुए पर ले लेते हैं.

Fitness Centers : संस्कृति, सेहत और जिम

Fitness Centers : जिस संस्कृति की रक्षा का ढोल दिनरात सनातनी पीटा करते हैं वह दरअसल में निकम्मों आलसियों और मुफ्तखोरों से भरी पड़ी थी. अब यह फिर जोर पकड़ रही है तो चिंता होना स्वाभाविक बात है. अच्छा स्वास्थ बेकार की कवायद से बचा सकता है जो इन दिनों जिम और फिटनेस सेंटर्स में उपलब्ध है.

अव्वल तो सदियों से करते आ रहे हैं लेकिन बीते 11 सालों से धर्म और संस्कृति की चिंता करने वालों की तादाद कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है. संस्कृति के रक्षक दुबलाए जा रहे हैं. उन के पास सिवाय संस्कृति की रक्षा के कोई और काम नहीं है. वे इतने चिंतित और व्यस्त हैं कि अपनी सेहत का ख्याल ही नहीं रख पा रहे हैं. सुबह उठ कर कुल्ला, दातून, ब्रश और शौच वगैरह बाद में करते हैं. पहले संस्कृति की रक्षा के लिए स्मार्टफोन हाथ में ले कर संस्कृति रक्षक पोस्टें इधर से उधर किया करते हैं.

ये लोग सही मानों में परंपरावादी हैं. क्योंकि इन के ग्रांड पूर्वज भी यही किया करते थे. वे किसी जंगल में बनी अपनी कुटिया में बैठ कर तपस्या करते थे और इतनी यानी सालोंसाल सदियों तक करते थे कि इंद्र का सिंहासन भी डोलने लगता था. उन की भौंहे जमीन तक बढ़ जाती थीं, बालों के झुतरे में पक्षी अपना घोंसला बना लेते थे. लेकिन इस के बाद भी इन्हें खानेपीने की कमी नहीं थी.

तब भी संस्कृति के ग्राहक इन्हें घी, दूध, मक्खन, फल, अनाज वगैरह पहुंचा देते थे. जिस से इन की तपस्या में कोई विध्न बाधा न आए. यही निठल्लापन आज भी दूसरे तरीकों से फलफूल रहा है.

तप बड़े आराम का काम है इस की सब से बड़ी खासियत है कि इस में मेहनत नहीं करनी पड़ती. मुफ्त का खाना भक्त यानी संस्कृति के ग्राहक दे जाते हैं. क्योंकि इस का घोषित मकसद इश्वर को खोजते रहना होता था यह और बात है कि वह इन्हें तो क्या आज तक किसी को नहीं मिला क्योंकि उस का कोई अस्तित्व है ही नहीं. पौराणिक साहित्य किस्मकिस्म के तपस्वियों से भरा पड़ा है. इन्हें सम्मान से ऋषिमुनि कहा जाता है.

आज के दौर के कुकुरमुत्ते से उग आए उच्च और मध्यमवर्गीय ऋषिमुनि जंगलों में नहीं जाते वे घर पर बैठ कर ही तपस्या करते हैं. तपस्या यानी संस्कृति की रक्षा में अनवरत सोशल मीडिया पर बने रहना.

इस चक्कर में वे वक्त पर खा और पी नहीं पा रहे, ढंग से सो नहीं पा रहे क्योंकि बिस्तर पर जाते ही इन्हें संस्कृति के नष्टभ्रष्ट हो जाने का खौफ सताने लगता है. सामान्य स्वास्थ नियमों का भी पालन न करने वाले महानुभावों की चिंता जिम वालों को है.

ये जिम कैसे इन संस्कृति के सैनिकों की रक्षा करते हैं. आइए देखें कि भोपाल के तथास्तु हैल्थ सेंटर की मुखिया अंकिता प्रधान क्या बताती हैं.

– मसल्स को मजबूत करने और मेटाबौलिज्म बढ़ाने के लिए स्ट्रेंथ ट्रेनिंग ट्रेंड में है.
– योग अभी भी लोगों का पीछा नहीं छोड़ रहा है अब इस का इस्तेमाल लचीलापन बढ़ाने और हार्मोनल बेलेंस के लिए भी किया जाने लगा है.
– बेलेंस और फंक्शनल ट्रेनिंग, बेलेंस और पोश्चर सुधारने के लिए इस्तेमाल की जा रही है.
– कार्डियो वर्क आउट मसलन जुम्बा, वाकिंग और डांस आदि चलन में हैं.
– आजकल की बहुत कामन प्रौब्लम जोड़ों, घुटनों और कमर दर्द के लिए फिजियोथेरैपी आधारित एक्सरसाइज भी ट्रेंड में हैं.

बकौल अंकिता इन सब का मकसद सिर्फ फिट दिखना नहीं बल्कि खुद को लंबे समय तक स्वस्थ और एक्टिव रखना भी है. ग्रुप क्लासेस जैसे जुम्बा मेट, पिलेट्स और वैलनेस बौक्स भी कम्प्लीट हैल्थ और वेलनेस सिस्टम में शामिल हैं. फिटनेस सेंटर पीसीओडी, मेनौपाज, डाईबिटीज और थायराइड जैसी बीमारियों को भी मैनेज करने टिप्स देते हैं और व्यायाम भी करवाते हैं.

सेहत में हर रोज नया कुछ न कुछ हो रहा है जो बताता है कि लोग जागरूक हो रहे हैं और तगड़ा पैसा भी खर्च कर रहे हैं. डाइट और ड्रैस पर भी लोगों खासतौर से महिलाओं का खासा ध्यान है.

जो लोग जिम जा रहे हैं उन के लिए सेहत ही धर्म और संस्कृति है. जिस की अहमियत का उन्हें एहसास है इसलिए वे पौराणिक संस्कृति के रक्षक भक्तों की जमात में शामिल नहीं होते क्योंकि उस से शारीरिक व मानसिक तनाव ज्यादा होते हैं.

हासिल कुछ नहीं होता सिवाय कुंठाओं और अवसाद के आलसियों निक्क्मों और अलालों वाली संस्कृति का हिस्सा बनने से बेहतर है कि फिटनैस और जिम कल्चर का पार्ट बन कर स्वस्थ रहते जिंदगी गुजर की जाए.

Romantic Story : पासवर्ड – क्या आगे बढ़ पाया प्रकाश और श्रुति का रिश्ता

Romantic Story : लिफ्ट की साफसफाई चल रही थी, इसलिए प्रकाश तीसरी मंजिल पर स्थित अपने फ्लैट में जाने के लिए सीढि़यां चढ़ने लगा. वह 2-4 सीढि़यां चढ़ा ही था कि उसे लगा उस के पीछे कोई आ रहा है.

उस ने पलट कर देखा तो उस के पीछे एक लड़की सीढि़यां चढ़ रही थी. उस ने उसे देखा तो उस की नजर उस के चेहरे से फिसल कर कहीं और ही मुड़ गई. उसे यह अनुभव पहली नजर में ही नहीं बल्कि उस ने जब भी लड़की को देखा, तबतब हुआ था. पता नहीं उस के चेहरे में ऐसा क्या था कि वह जब भी दिखाई दे जाती, अनायास प्रकाश की आंखें उस की ओर चली जाती थीं. मगर टिकी नहीं रहती थीं. क्या यह उस के आकर्षण की वजह से था. लेकिन उसे लगता था, आकर्षण के अलावा भी उस में कुछ और था.

सहज आत्मविश्वास और हर किसी के प्रति अवहेलना का भाव. अपने आकर्षक होने की सहज अनुभूति और मिलीजुली मासूमियत. जैसे उसे इस बात का गहरा अहसास हो कि वह युवा है, पर उसे इस का अहसास न हो कि जवानी क्या है. उस के चेहरे का खोजता हुआ भाव उस की सुंदरता को और बढ़ा देता था. उस की आंखों से ऐसा लगता था, जैसे वह बाहर कम अपने अंदर ज्यादा देखती है. चुस्त जींस और चुस्त टौप, मानो उस ने अपनी नजरों से नहीं, दूसरों की नजरों से प्रकाश की ओर देखा हो.

उस के बड़ेबड़े बालों और सुंदर चेहरे की बड़ीबड़ी आंखों के अलावा प्रकाश की नजर फिसल कर जहां मुड़ी थी, वह उसी में खो गया था, जिस की वजह से उस की चाल धीमी हो गई थी. पर उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा था. वह उसी तरह तेजी से सीढि़यां चढ़ती हुई उस के बगल से निकल गई.

प्रकाश को लगा, अब उसे भी चाल बढ़ानी होगी. क्योंकि अब वह यह देखे बिना नहीं रह सकता था कि वह किस फ्लैट में जाती है.यह जानने के लिए प्रकाश ने अपनी चाल बढ़ा दी. वह उसी तीसरी मंजिल पर पहुंच कर रुक गई, जहां प्रकाश को जाना था. वह फ्लैट नंबर था 303. प्रकाश का फ्लैट नंबर 301 था. वह लड़की सामने वाले फ्लैट में आई है, यह जान कर उसे बहुत खुशी हुई. पर यह कौन है, क्योंकि उस फ्लैट में प्रकाश ने उसे आज पहली बार देखा था.

उसे लगा, कोई रिश्तेदार होगी, किसी काम से आई होगी. वह प्रकाश के मन को भा गई थी, इसलिए एक बार और देखने के लोभ में उस ने अपने फ्लैट का मुख्य दरवाजा खुला छोड़ दिया. इस में वक्त ने उस का साथ यह दिया कि उस दिन उस के फ्लैट में कोई नहीं था. सभी एक शादी में गए हुए थे. प्रकाश दरवाजे के बाहर नजरें टिकाए बेचैनी से ताक रहा था कि वह बाहर निकले ताकि वह उसे एक नजर देख ले.

घंटों बीत गए, पर वह नहीं निकली. वह टकटकी लगाए उस के फ्लैट का दरवाजा ताकता रहा. धीरेधीरे वह निराश होने लगा.

पर शाम होते ही फ्लैट का दरवाजा खुला. प्रकाश के शरीर में जैसे जान आ गई. एक बार उसे और देखने के लिए वह फुरती से उठा और बाहर आ गया. तब तक वह लिफ्ट में घुस गई थी. प्रकाश ने फटाफट दरवाजा लौक किया और लिफ्ट के चक्कर में न पड़ कर तेजी से सीढि़यां उतरने लगा. उस के ग्राउंड फ्लोर पर पहुंचने के साथ ही लिफ्ट भी नीचे पहुंच गई थी. लिफ्ट का दरवाजा खोल कर वह बाहर निकली और सामने सड़क की ओर चल पड़ी.

लड़की के रेशम जैसे काले लंबे बाल, सुडौल देह, वह लड़की सुंदर ही नहीं प्रकाश को अद्भुत भी लगी. उस की चाल गजब की थी. उसे देख कर कोई भी उस के प्रेम में पड़ सकता था. प्रकाश की नजर उस पर से हट नहीं रही थी. वह मेनरोड पार कर के सामने दुकान पर पहुंच गई. अब प्रकाश उसे सामने से मन भर कर देखना चाहता था. इसलिए वह वहीं सोसाइटी के गेट पर खड़ा रहा. उसे सामने से आता देख वह खो गया.

इस के बाद तो क्रम सा बन गया. प्रकाश उस के आगेपीछे चक्कर लगाने लगा. इसी के साथ उस ने लड़की के बारे में एकएक जानकारी जुटा ली. उस का नाम श्रुति था. उस के सामने वाले फ्लैट में उस की मौसी रहती थीं. वह मौसी के यहां रह कर बीटेक की अपनी पढ़ाई कर रही थी. इस के पहले वह हौस्टल में रह कर पढ़ रही थी. वहां कोई बवाल हो गया था, जिस की वजह से वह मौसी के यहां रहने आ गई थी.

प्रकाश ने उस से बात करने की कोशिश शुरू कर दी. पर उस की बातों का वह छोटा सा जवाब दे कर उसे टाल देती थी. फिर भी वह उस के पीछे पड़ा रहा. प्रकाश अकसर देखता, वह उस के फ्लैट के दरवाजे के पास खड़ी हो कर अपने मोबाइल में कुछ करती रहती थी. ऐसे में जब प्रकाश से उस का सामना होता तो धीरे से मुसकरा देती. इस से प्रकाश को लगा कि शायद वह उसे पसंद करने लगी है. पर क्यों, यह उसे पता नहीं था.

पर एक दिन जब प्रकाश ने अपने ओपन वाईफाई में पासवर्ड सेट कर दिया तो सच्चाई का पता चल गया. उस के पासवर्ड सेट करने के बाद जब वह बाहर निकला तो वह उस की ओर बढ़ी. उसे अपनी ओर आते देख प्रकाश के दिल की धड़कन बढ़ गई. शरीर में रोमांच सा हुआ.

प्रकाश के पास आ कर उस ने अपनी आवाज में शहद सी मिठास लाते हुए कहा, ‘‘आप अपने वाईफाई का पासवर्ड दे देंगे क्या?’’

‘‘क्यों नहीं, श्योर. लाइए, मैं आप के मोबाइल में कनेक्ट कर देता हूं.’’

श्रुति ने मोबाइल दिया, तो प्रकाश ने कांपते हाथों से वाईफाई का पासवर्ड सेट कर दिया. उस ने थैंक्स कहते हुए उस का मोबाइल नंबर मांगा तो प्रकाश ने फटाफट अपना नंबर सेव करा दिया. प्रकाश ने उस का नंबर मांगा तो उस ने भी बेहिचक अपना नंबर बता दिया. प्रकाश को उस का नाम पता था, फिर भी बात को आगे बढ़ाने के लिए उस ने उस का नाम पूछा.

‘‘मेरा नाम श्रुति है.’’ कह कर वह चली गई.

नंबर मिलने के बाद प्रकाश वाट्सऐप पर गुडमौर्निंग और गुडनाइट के मैसेज भेजने लगा. श्रुति की ओर से बराबर जवाब भी आता था. अकसर जानबूझ कर प्रकाश पासवर्ड बदल देता था. श्रुति का तुरंत फोन आ जाता था. कभीकभार वह वाट्सऐप पर मैसेज कर के पूछ लेती थी. एक दिन पासवर्ड बदल कर जैसे ही प्रकाश बाहर निकला, श्रुति सामने आ गई. उस ने पासवर्ड पूछा तो जवाब में प्रकाश ने कहा, ‘‘आई लव यू.’’

गुस्सा हो कर श्रुति ने कहा, ‘‘मैं वाईफाई का पासवर्ड पूछ रही हूं और तुम ‘आई लव यू’ कह रहे हो. तुम इस तरह की बात करोगे, मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.’’

इस के अलावा भी श्रुति ने बहुत कुछ कहा. प्रकाश जवाब में जो कुछ कहना चाहता था, वह उसे सुनने को तैयार ही नहीं थी. अपनी बात कह कर वह पैर पटकती हुई चली गई. प्रकाश ने वाट्सऐप पर रिक्वेस्ट की, पर उस ने मैसेज खोल कर देखा ही नहीं. अंत में प्रकाश ने टेक्स्ट मैसेज भेजा कि ‘आई लव यू’ मैं ने तुम्हें नहीं कहा, वह तो वाईफाई का पासवर्ड है.

अगले दिन श्रुति मिली तो उस ने कहा, ‘‘तुम ने ऐसा जानबूझ कर किया था न? ऐसा कर के मुझे परेशान किया. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. तुम्हें बता दूं कि मुझे ऐसी बातों में रुचि नहीं है.’’

‘‘अगर किसी को किसी से पहली नजर में प्यार हो जाए तो…’’ प्रकाश ने कहा.

‘‘और दूसरी नजर में ब्रेकअप हो जाए तो…’’ जवाब में श्रुति ने कहा.

‘‘यह तुम्हारा वहम है.’’

‘‘और प्रेम हो जाए यह?’’ श्रुति ने कहा.

‘‘यह मेरा अनुभव है. किस से हुआ है प्रेम?’’ प्रकाश ने पूछा.

‘‘मैं यह नहीं बताऊंगी. पर हुआ है, यह निश्चित है.’’

‘‘क्यों नहीं बता सकती?’’ प्रकाश ने सवाल कर दिया.

‘‘अगर वह मांगे तो जीवन ही नहीं, सांसें भी दे दूं,‘‘ श्रुति ने कहा, ‘‘तुम ने कभी किसी से प्यार किया है या सिर्फ वाईफाई का पासवर्ड ही ‘आई लव यू’ रखा है?’’

‘‘किया है न, तभी तो  ‘आई लव यू’ पासवर्ड रखा है. सीधेसीधे कहने की हिम्मत नहीं पड़ी तो पासवर्ड के बहाने कह दिया. अब तुम कहो, उस दिन तो तुम ने बहुत कुछ कह दिया. उस से तो..’’

‘‘मुझे अच्छे तो तुम भी लगते थे, पर तब तक इस बारे में कुछ सोचा नहीं था. पर जब सोचा तो लगा कि तुम ने यह पासवर्ड सेट करने के बजाय सच में ‘आई लव यू’ कहा होता तो…’’ श्रुति ने कहा.

उस की बात बीच में ही काट कर प्रकाश ने कहा, ‘‘तो क्या तुम भी..?’’

‘‘हां, पर अब यह पासवर्ड किसी दूसरी लड़की को मत बताना.’’ श्रुति ने कहा.

इसी के साथ दोनों हंस पड़े.

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