Download App

Social Story In Hindi : गोल्डन केज – दौलत के ढेर में दम तोड़ते रिश्तों की कहानी

Social Story In Hindi : शीला को शीलो और फिर शीला महतो और अंत में मैडम मेहता बनते मैं ने अपनी आंखों से देखा है. बेईमानी का पैसा फलते देखना हो तो उस के पति श्यामा महतो के दर्शन जरूर करने चाहिए. शादी हुई तो मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में एक मामूली मुलाजिम था. उस के डिपार्टमेंट में से बहुत सी मात्रा में डाटा केबल गायब हो जाने के कारण जांचपड़ताल के बाद उसे नौकरी से बरखास्त कर दिया गया. उस ने बहुतेरा कहा कि तारें धूप में पड़ीपड़ी पिघल गई होंगी या पानी के बहाव में गल गई होंगी. उन के बारे में उसे कुछ नहीं मालूम, लेकिन अधिकारियों ने सूरज की गरमी से डाटा केबलों की तारें पिघल कर पृथ्वी में समाते कभी नहीं देखा था, इसीलिए श्यामा महतो के विरुद्ध कार्यवाही करनी आवश्यक थी.

श्यामा महतो था काफी चालाक. कोई ठोस प्रमाण न मिलने के कारण उसे सजा मिली तो केवल नौकरी से निकाले जाने की.
लेकिन कइयों के लिए पत्थर भी फूल बन जाते हैं.

श्यामा महतो का नौकरी से निकाला जाना तो ऐसी बात सिद्ध हुई कि कुबड़े को लात काम आ गई. उस ने अपनी बेईमानी की दौलत को ऐसी शुभ घड़ी में शराब की ठेकेदारी के काले धंधे में लगाया कि दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुई. धंधे में तरक्की हुई तो घर में खुशहाली होने लगी.

वह दो कमरों से निकल कर फ्लैट में रहने चला गया. दो साल बाद फ्लैट में अमीरी का दम घुटने लगा, तो शहर की भीड़भाड़ से दूर नई कालोनी में ढंग का बंगला खड़ा हो गया.

फाटक पर गोरखा नियुक्त कर दिया गया, जो हर ऐरेगैरे को अंदर जाने से रोकता था. घर में हर वह चीज मौजूद थी, जो पैसे से खरीदी जा सके. दीवार से दीवार तक सटे गलीचे, मखमली परदे और हीरों की चमक.

नौकरचाकरों का भी मेला लगा रहता था. शीला ने अपनी पुरानी धोतियां अपनी महरी को दे कर उसे एक नई फुलटाइम आया को रख लिया. फिर कुक और सर्वेंट भी रखा गया.

जो काम शीला अपने हाथों से किया करती थी, वह नौकरों से न करवाना अब अपना अपमान समझने लगी. उसे बैठेबैठे हुक्म चलाने की आदत पड़ गई.
पहले साल आई 10 कार खरीदी गई. श्यामानारायण उसे दफ्तर ले जाता था तो शीला को सैरसपाटे, क्लब और काफी पार्टियों में जाने में तकलीफ होती थी. एक दिन श्यामानारायण बोला, ‘‘आज तुम्हारे लिए दूसरी मोटर खरीद देता हूं.’’ और शाम तक डिजायर आ गई.

‘‘इतनी जल्दी कैसे मिल गई नई गाड़ी,’’ शीला ने खुशी और आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या बात करती हो? पैसा खर्च करो तो क्या नहीं मिलता. तुम कहो तो आकाश के तारे भी खरीद लाऊं,’’ उत्तर में श्यामा महतो ने कहा, तो शीला मुसकरा कर चुप हो गई. श्यामा महतो भी अब श्याम मेहता कहलाते थे.

शायद उसे वे दिन याद आ गए, जब हाथों की मेहंदी भी न उतरी थी कि एक दिन बरतन मांजते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए थे. उन्हें पोंछती हुई, सिसक कर उस ने पति से कहा था, ‘‘एक नौकर रख दीजिए, मुझ से इतना काम नहीं होता.’’

तब श्याम ने नाराज हो कर कहा, ‘‘नौकर रख दूं. तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे मुझे बड़ी तनख्वाह मिलती है. नौकर रख कर सारा दिन तुम क्या करोगी. मक्खियां मारोगी क्या…?’’

राकेट में बैठ कर चांद पर पहुंचते देर लगती है, लेकिन श्याम की बेईमानी फलते देर न लगी. उस से उस की किस्मत बदली. उस का दर्जा बदला और उस की पत्नी शीलो से शीला मैडम बन गई.

शीला मैडम या मैडम मेहता हर पार्टी के लिए नया लिबास बनवाती. साथ ही, सफेद लिबास के साथ हीरों के, लाल के साथ पुखराज, हरे पर पन्ना और नीले पर नीलम के जेवर पहने जब वह महफिल में प्रवेश करती, तो लोग उठ खड़े होते थे. उस की खूबसूरती की झूठी प्रशंसा करते और मीठीमीठी बातों से उसे प्रसन्न करते.

क्यों न करते, धनदौलत की चमक ही ऐसी होती है. सब ही उस के साथ रिश्ता जोड़ना चाहते थे. शीला लोगों के झूठे प्रेम और दिखावे से बहकती रही. वह सोनेचांदी की दीवारों में ऐसी कैद हुई कि धीरेधीरे सारे रिश्तेनाते टूट गए. लेकिन उस ने इस की कोई परवाह न की. उसे दौलत का ऐसा नशा चढ़ा कि वह प्रेम और आदर भूल गई. अपनों का सच्चा प्यार भूल गई. उन के सुखदुख में शामिल होना भी अब उस की शान के खिलाफ हो गया.

शीला की पिछली जिंदगी बहुत पीछे रह गर्ई थी. उस की स्मृति इतनी धुंधली पड़ गई कि वह उस का जिक्र तक न करती थी. ज्योंज्यों दौलत बढ़ती गई, त्योंत्यों रिश्तेदारों के साथ उस के प्यार में खाई बढ़ती गई. एकएक कर के सब छूट गए. भाईबहन तक दूर हो गए.

शीला मेरी बचपन की सखी है. मेरे पिता एक छोटे शहर में किराने का व्यवसाय चलाते थे. हमारी पुश्तैनी कोठी के पिछवाड़े कुछ क्वार्टर खाली पड़े रहते थे. उन्हीं में से एक क्वार्टर मां ने उस के पिता को दे दिया था. शीला के पिता जूनियर स्कूल में मास्टर थे और उन की माली हालत ज्यादा अच्छी न होने पर भी मां उन का बड़ा मान करती थी. मुझे और भाई को पढ़ा देने का जिम्मा उन्होंने ले लिया था और उन के कारण हम दोनों के नंबर अच्छे आने लगे थे.

‘‘आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगा,’’ शिवदासजी ने कहा था.

‘‘आप ऐसा बिलकुल न सोचें,’’ मां ने जवाब दिया, ‘‘इसे अपना ही घर समझिए.’’

शीला और मैं एकसाथ बड़ी हुईं. खेलतीकूदती और चिड़िया की तरह खूब लड़ती थीं. फिर भी स्कूल एकसाथ जातीं और घर में आया हुआ भोजन मिल कर खाती थीं.

‘‘थोड़ा ज्यादा खाना भेजा करो, मां,’’ मैं घर पर कहती, तो मां पूछती, ‘‘क्यों, बहुत भूख लगती है क्या?’’

‘‘हां, दो के बराबर भूख लगती है,’’ मैं कहती और मां की मंद मुसकराहट से समझ जाती कि उन्हें मालूम है कि मैं खाना शीला के साथ बांट लेती थी.

दो वर्ष हुए मैं शीला से मिलने गई. बीते वर्षों की याद ताजा करने को जी चाह रहा था. मेरे पति तो जाना ही नहीं चाहते थे, कहने लगे, ‘‘तुम हो आओ. मैं तो शीला देवी को जानता भी नहीं और मैं ठहरा गरीब फौजी कैप्टन, वह ठहरी रईस. हमारा क्या मेल.’’

पति की बात मुझे अच्छी नहीं लगी. मैं ने कहा, ‘‘कैसी बातें करते हैं आप? जानने में क्या देर लगती है? शीला तो यों भी अपनी है. दो दिन में अच्छी तरह जान जाओगे.’’

स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो मैं ने उत्सुकतापूर्वक चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई. मुझे विश्वास था कि शीला हमें लेने जरूर आई होगी. लेकिन उस के बदले एक वरदीधारी व्यक्ति खड़ा कह रहा था, ‘‘जी, मैं आप के लिए गाड़ी लाया हूं.’’

शीला घर पर नहीं थी. एक अन्य वरदीधारी व्यक्ति ने बताया, ‘‘जी, मेम साहिबा आती ही होंगी. आप का कमरा तैयार है.’’

कमरा बड़ा शानदार था. चीजों को हाथ लगाने में भी मुझे डर लग रहा था कि वे मैली हो जाएंगी.

शीला आई तो उस की चालढाल में जो अभिमान था, वह मुझे अच्छा नहीं लगा. आ कर वह न गले लगी, न बचपन को याद किया. पूछा तो बस इतना, ‘‘तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं हुई. मुझे जरूरी पार्टी में जाना पड़ गया था.’’

कहना तो चाहती थी वह कि तकलीफ तो कोई नहीं हुई. सब ही कुछ तो मौजूद था मेरे स्वागत के लिए. नहीं था तो प्रेम, वह प्यार और आदर, वह सुखद नाता, जिस की खोज में मैं चली आई थी. उसी की कमी थी. हम ने बड़ी मुश्किल से वहां दो दिन काटे. वहां की हर चीज चुभने लगी. उस वातावरण में मेरा दम घुटने लगा.

यही हालत शीला के अपने भाईबहनों की हुई. उन के साथ अपना रिश्ता बताते हुए उसे लाज आती थी. उन के कपड़े, उन का सामान शीला बड़े गौर से देखती. अब कुर्मी परिवारों में ऐसा हर कोई तो नहीं होता कि मोटी खान मिल जाए. जब तक कोई ऐसा अतिथि उन के घर रहता, शीला किसी को अपने घर आमंत्रित न करती. उन्हें अपनी कार में बाहर न जाने देती कि कहीं कोई पहचान न ले कि यह उस की गाड़ी है. उन्हें कमरे में ही भोजन परोस दिया जाता. डाइनिंग हाल में बुलाने की भी वह जरूरत नहीं समझती थी.

लोगों का आनाजाना छूट गया. जो गरीब रिश्तेदार थे, उन्हें भी अपनी इज्जत प्यारी थी, शीला मैडम की दौलत से भी ज्यादा.
लेकिन वह दौलत तो शीला को भी रास न आई. कुछ सालों बाद घर में एक अजीब सा वातावरण हो गया.

श्याम और शीला नदी के दो किनारों के समान हो गए. कई दिनों तक वे एकदूसरे को देख न पाते. श्याम घर आता तो शीला बाहर गई होती. शीला घर होती तो श्यामनारायण गायब होता. भिन्न मित्र और मनोरंजन के अपनेअपने ढंग चुन लिए गए. क्लब इकट्ठे जा कर एकसाथ लौटना जरूरी न होता. श्याम अपने मित्रों के साथ ‘बार’ में चला जाता. उधर शीला अपनी टोली में बैठ कर पीने लगती.

एक दिन दोनों में बहुत तूतू, मैंमैं हुई. नौकरों ने सुना. लोगों में चर्चा हुई. श्याम का अपनी युवा सेक्रेटरी में दिलचस्पी लेना शीला को अच्छा न लगा. उस ने आपत्ति की, तो पति आगबबूला हो उठा, ‘‘मैं जो चाहूं कर सकता हूं. तुम रोकटोक करने वाली कौन होती हो,’’ उस ने तड़प कर कहा, ‘‘और फिर तुम्हें किस बात की कमी है. इतनी दौलत तुम्हारे कदमों में पड़ी है. मैं दो घड़ी दिल बहला लेता हूं तो तुम से वह भी नहीं देखा जाता.’’

उस के बाद श्याम ने समय पर घर आना भी छोड़ दिया, जैसे शीला के जीवन से उसे कोई सरोकार ही न था. पैसा आया तो ऐश बढ़ी. ऐश बढ़ी तो ऐब भी बढ़ने लगे. एक के बाद एक बुरी आदतें पड़ती गईं.

पतिपत्नी में बहुत झगड़ा होने लगा. दोनों मुंह फुलाए रहते. इज्जत करना और करवाना तक भूल गए. इस वातावरण में बच्चे सही पथ से भटक कर गलत रास्तों पर चलने लगे. मांबाप यह भी न देखते कि वे क्या कर रहे हैं. अनिल और वीणा की जेबें पैसों से भरी रहतीं. दिन में घर से गायब रहना और रात में देर से लौटना, उन का नित्य का क्रम बन गया.

यों तो शीला को उन का कोई ध्यान न था, लेकिन भूलेबिसरे कुछ कहती तो वे भी जवाब में सौसौ बात कहते, ‘‘आप को क्या.’’

एक दिन अनिल ने कहा, ‘‘आप को तो कुछ देखने की फुरसत नहीं. हमारा क्या है. हम तो जैसेतैसे इतने बड़े हो गए हैं, आप ने हमारे लिए क्या किया. आप के पास तो समय ही नहीं था, न यह देखने की इच्छा थी कि हमारी आवश्यकताएं क्या हैं.’’

‘‘तुम बहुत बोल रहे हो, अनिल. जानते नहीं, मैं तुम्हारी मां हूं,’’ शीला ने कहा.

‘‘मां जरूर हैं, लेकिन आप ने मां का कर्तव्य कभी नहीं निभाया. क्या दौलत यह सिखाती है कि कोई अपनी जिम्मेदारियां भूल जाए? ऐश्वर्य और विलास को अपनी जिंदगी बना ले. अपनों से नाता तोड़ लें.’’

सत्य कड़वा होता है, उसे निगलना कठिन होता है. अनिल की बातों से शीला तिलमिला उठी, बोली, ‘‘तुम जरूरत से ज्यादा बोल रहे हो, अनिल. बड़ों का मानसम्मान, सब भूल गए क्या,’’ सुन कर हंस पड़ा अनिल. एक दुखभरी हंसी. ‘‘हां, मां, मैं ही भूल गया सबकुछ. यह भी भूल गया कि मां का प्यार कैसा होता है. मां किस तरह अपने बच्चे से लाड़ करती है. गोद में बैठा कर खिलाती है. लोरी सुनाती है. हमें तो नौकरों के सुपुर्द कर दिया गया था. जो सीखा हम ने उन्हीं से सीखा. आप को फुरसत न थी. हमारे आंसू पोंछने तक का समय न था. आप क्लब और पार्टियों में व्यस्त रहती थीं.

“याद है, हमें छोड़ कर आप किस तरह यूरोपअमेरिका की महीनों सैर को चली जाती थीं. हम ने वे दिन कैसे बिताए, आप ने तो कभी पूछा तक न था.’’

और अनिल अपने दिल का दर्द लिए घर से चला गया.

‘‘चला गया है तो जाने दो. हमें उस की परवाह नहीं,’’ श्याम महतो उर्फ मिस्टर मेहता ने गरज कर कहा.

‘‘उसे क्या कमी थी. सबकुछ तो था. ऐशोआराम, नौकरचाकर और यह सारी धनदौलत.’’

श्याम ने अहंकार में यह भी न सोचा कि अनिल को केवल दौलत और झूठे दिखावे की ही जरूरत नहीं, उसे प्यार चाहिए. उसे आलीशान बंगला नहीं, एक घर चाहिए जो छोटा भले ही हो, लेकिन उस में उस का परिवार हो, न कि यंत्रचालित से नौकरचाकर.

अनिल के चले जाने से बेटी वीणा अकेली पड़ गई. एक दिन घबरा कर एक मामूली युवक से उस ने शादी कर ली. न बैंडबाजे, न कोई शोरगुल. श्यामानारायण गरजा, ‘‘इसे भी जाने दो.’’
शीला का कहना था कि वीणा ने उन की नाक काट दी. कहीं मुंह दिखाने योग्य नहीं छोड़ा. ऐसी संतान से तो वह निस्संतान ही अच्छी थी.

वीणा तो प्यार और खुशी की तलाश में थी. दौलत और ऊंची सोसाइटी अगर ये दे सकते तो उस के मांबाप के घर दोनों की बरखा होती. लेकिन वहां तो सोनेचांदी की खनक थी और धनदौलत का अभिमान. मानव और उस के हृदय का कोई मूल्य न था. हर चीज वहां दौलत से तोली जाती थी, इसीलिए प्यार के रिश्तेनाते टूट चुके थे. बच्चे भी मांबाप के प्यार से वंचित पलते रहे. उन्हें यह भी याद नहीं कि कभी किसी ने प्यार भरा हाथ उन के सिर पर रखा हो.

पिछले दिनों अचानक शीला से भेंट हो गई. कोलकाता के न्यू मार्केट से निकल मैं खड़ी टैक्सी का इंतजार कर रही थी कि एक बहुत बड़ी मोटर आ कर मेरे पास रुकी. शीला ने मुझे पहचान लिया, यह देख कर मुझे आश्चर्य हुआ. मेरे न चाहते हुए भी वह मजबूर कर के मुझे अपने घर ले गई. वहां एक अजीब सी खामोशी छाई हुई थी. मोटेमोटे गलीचों पर तो नौकरों के कदमों की आवाज भी नहीं आती. वे चुपचाप अपने काम में लग हुए थे.

श्याम महतो कर्ई दिनों से शहर में नहीं था. कहां गया था, कब लौटेगा, यह भी नहीं मालूम, शीला ने बताया. अनिल और वीणा भी जब से गए हैं, लौट कर नहीं आए.

‘‘मेरे बच्चे हो कर भी उन्हें मुझ से प्यार नहीं,’’ शीला ने कहा.

पता नहीं, उसे कोई दुख है या नहीं. लेकिन, मैं जरूर सोचने लगी कि धनदौलत की चमक से अंधी हो कर शीला ने प्यार और आदर की असली जायदाद को जीवन के पथ पर ही कहीं खो दिया. अमीरी के तूफान में तिनकातिनका हो कर वह कब की बिखर चुकी थी. भरे घर में भी आज कितनी अकेली है वह. वह मेरी गोदी में सिर रख कर रोने लगी, ‘‘मैं ने जिंदगी में बहुत संघर्ष भी देखे, फिर सालों सुख भी भोगा. पर अब क्या होगा, मालूम नहीं.

श्यामा महतो 69 साल के होने लगे हैं और मैं 61 की. बुढ़ापे में हमारी कोई सुध लेगा या नहीं, पता नहीं. हो सकता है कि वे इस घर में तभी आएं, जब इसे फालतू समझ कर बेचना चाहे,’’ कह कर वह फफकफफक कर रोने लगी. मुझे अभी भी विश्वास नहीं था कि ये घड़ियालू आंसू हैं या असली. Social Story In Hindi

Family Story : अनमोल रिश्ता- रंजना को संजय से क्या दिक्कत थी?

Family Story : फेसबुक पर फाइंड फ्रैंड में नाम डालडाल कर कई बार सर्च किया, लेकिन संजय का कोई पता न चला. ‘पता नहीं फेसबुक पर उस का अकाउंट है भी कि नहीं,’ यह सोच कर मैं ने लौगआउट किया ही था कि स्मार्टफोन पर व्हाट्सऐप की मैसेज ट्यून सुनाई दी. फोन की स्क्रीन पर देखा तो जानापहचाना चेहरा लगा. डबल क्लिक कर फोटो को बड़ा किया तो चेहरा देख दंग रह गई. फिर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. ‘बिलकुल वैसा ही लगता है संजय जैसा पहले था.’

मैं अपने मातापिता की एकलौती संतान थी और 12वीं में पढ़ती थी. पिताजी रेलवे में टीटीई के पद पर कार्यरत थे. इस कारण अकसर बाहर ही रहते. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण हम ने डिसाइड किया कि घर का एक कमरा किराए पर दे दिया जाए. बहुत सोचविचार कर पापा ने 2 स्टूडैंट्स जो ग्रैजुएशन करने के बाद आईएएस की तैयारी करने केरल से दिल्ली आए हुए थे, को कमरा किराए पर दे दिया. जब वे हमारे यहां रहने आए तो आपसी परिचय के बाद उन्होंने मुझे कहा, ‘पढ़ाई के सिलसिले में कभी जरूरत हो तो कहिएगा.’

उन में से एक, जिस का नाम संजय था अकसर मुझ से बातचीत करने को उत्सुक रहता. कभी 10वीं की एनसीईआरटी की किताब मांगता तो कभी मेरे कोर्स की. मुझे उस का इस तरह किताबें मांगना बात करने का बहाना लगता. एक दिन जब वह किताब मांगने आया तो मैं ने उसे बुरी तरह डांट दिया, ‘क्या करोगे 10वीं की किताब का. मुझे सब पता है, यह सब बहाने हैं लड़कियों से बात करने के. मुझ से मेलजोल बढ़ाने की कोशिश न करो. आगे से मत आना किताब मांगने.’ उस ने अपने पक्ष में बहुत दलीलें दीं लेकिन मैं ने नकारते हुए सब खारिज कर दीं. उस दिन मुझे स्कूल से ही अपनी फ्रैंड के घर जाना था. मैं मम्मी को बता भी गई थी, लेकिन जब घर आई तो जैसे सभी मुझे शक की निगाह से देखने लगे.

बस्ता रखा ही था कि मम्मी पूछने लगीं, ‘आज तुम रमेश के साथ क्या कर रही थीं?’

‘रमेश,’ मैं समझ गई कि यह आग संजय की लगाई हुई है. मैं ने जैसेतैसे मम्मी को समझाया, लेकिन संजय से बदला लेने उसी के रूम में चली गई. ‘तुम होते कौन हो मेरे मामले में टांग अड़ाने वाले. मैं चाहे किसी के साथ जाऊं, घूमूंफिरूं तुम्हें क्या. तुम किराएदार हो, किराया दो और चुपचाप रहो. आइंदा मेरे बारे में मां से बात करने की कोई जरूरत नहीं, समझे,’ मैं संजय को कह कर बाहर निकल गई. दरअसल, रमेश मेरी कक्षा में पढ़ता था. अच्छी पर्सनैलिटी होने के कारण सभी लड़कियां उस से दोस्ती करना चाहती थीं. मेरे दिल में भी उस के लिए प्यार था और मैं उसे चाहती थी. सो फ्रैंड के घर जाते समय उसी ने मुझे ड्रौप किया था, लेकिन संजय ने मुझे उस के साथ जाते हुए देख लिया था.

थोड़ी देर बाहर घूम कर आई तो संजय मम्मी के पास बैठा दिखा. मुझे उसे देखते ही गुस्सा आ गया, लेकिन मेरे आते ही वह उठ कर चला गया. बाद में मम्मी ने मुझे समझाया,  ‘संजय ने मुझे उस लड़के के बारे में बताया है. वह लड़कियों से फ्लर्ट करता है. उस का तुम्हारे स्कूल की 11वीं में पढ़ने वाली रंजना से भी संबंध है. तुम उस से ज्यादा दोस्ती न ही बढ़ाओ तो ठीक है.’ ‘ठीक है मां,’ मैं ने उन्हें कह दिया, लेकिन संजय पर बिफर पड़ी, ‘अब तुम मेरी जासूसी भी करने लगे. मैं किस से मिलती हूं, कहां जाती हूं इस से तुम्हें क्या?’

इस पर वह चुप ही रहा. शाम को मुझे मैथ्स का एक सवाल समझ नहीं आ रहा था तो मैं ने संजय से ही पूछा. उस ने भी बिना हिचक मुझे समझा दिया, लेकिन ज्यों ही वह सुबह की बात छेड़ने लगा मैं ने फिर डांट दिया, ‘मेरी जासूसी करने की जरूरत नहीं. रमेश को मैं जानती हूं वह अच्छा लड़का है और बड़ी बात है कि मैं उसे चाहती हूं. तुम अपने काम से काम रखो.’ कुछ दिन बाद मैं स्कूल पहुंची तो हैरान रह गई. स्कूल में पुलिस आई हुई थी. पता चला कि रमेश और रंजना घर से भाग गए हैं. अभी तक उन का कुछ पता नहीं चला. पुलिस ने पूछताछ वाले लोगोें में मेरा नाम भी लिख लिया व मुझे थाने आने को कहा. पापा दौरे पर गए हुए थे सो मम्मी ने और कोई सहारा न देख संजय से बात की. फिर न चाहते हुए भी मैं संजय के साथ थाने गई. वहां इंस्पैक्टर ने जो पूछा बता दिया. संजय ने इंस्पैक्टर से मेरी तारीफ की. रमेश से सिर्फ क्लासफैलो होने का नाता बताया और ऐसे बात की जैसे मेरा बड़ा भाई मुझे बचा रहा हो. उस की बातचीत से इंप्रैस हो इंस्पैक्टर ने उस केस से मेरा नाम भी हटा दिया. घर आए तो संजय ने मुझे समझाया, ‘ऐसे लड़कों से दूर ही रहो तो अच्छा है. वैसे भी अभी तुम्हारी उम्र पढ़ने की है. पढ़लिख कर कुछ बन जाओ तब बनाना ऐसे रिश्ते. तब तुम्हें इन की समझ भी होगी,’ साथ ही उस ने मुझे दलील भी दी, ‘‘मैं तुम्हारे भाई जैसा हूं तुम्हारे भले के लिए ही कहूंगा.’’

दरअसल, गुस्सा तो मुझे खुद पर था कि मैं रमेश को समझ न पाई और मुझे प्यार में धोखा हुआ, लेकिन खीज संजय पर निकल गई. मेरी इस बात का संजय पर गहरा असर हुआ. राखी का त्योहार नजदीक था सो शाम को आते समय संजय राखी ले आया और मम्मी के सामने मुझ से रमेश के बारे में बताने व समझाने के लिए क्षमा मांगता हुआ राखी बांध कर भाई बनाने की पेशकश कर खुद को सही साबित करने लगा. मैं कहां मानने वाली थी. मैं पैर पटकती हुई बाहर निकल गई. उस ने राखी वहीं टेबल पर रख दी. पापा अगले दिन जम्मू से लौटने वाले थे. मैं और मम्मी घर में अकेली थीं. रात के लगभग 12 बजे थे कि अचानक मुझे आवाज मारती हुई मम्मी उठ बैठीं.

मैं भी हड़बड़ा कर उठी और देखा कि मम्मी की नाक से खून बह रहा था. मैं कुछ समझ न पाई, बस जल्दी से दराज से रूई निकाल कर नाक में ठूंस दी और खून बंद करने की कोशिश करने लगी. इधरउधर देखा, कुछ समझ न आया कि क्या करूं. लेकिन अचानक संजय के कमरे की बत्ती जलती देखी. कल उन का ऐग्जाम होने के कारण वे दोनों काफी देर तक पढ़ रहे थे. तभी मम्मी बेसुध हो कर गिर पड़ीं. मैं ने उन्हें गिरते देखा तो मेरी चीख निकल गई, ‘मम्मी…’ मेरी चीख सुनते ही संजय के कमरे का दरवाजा खुला. सारी स्थिति भांपते हुए संजय बोला, ‘आप घबराइए नहीं, हम देखते हैं,’ फिर अपने दोस्त कार्तिक से बोला कि औटो ले कर आए. इन्हें अस्पताल ले जाना होगा.

औटो ला कर उन दोनों ने मिल कर मम्मी को उठाया और मुझे चिंता न करने की हिदायत दे कर मम्मी को औल इंडिया मैडिकल हौस्पिटल की इमरजैंसी में ले गए. वहां उन्हें डाक्टर ने बताया कि हाइपरटैंशन के कारण इन के नाक से खून बह रहा है. आप सही वक्त पर ले आए ज्यादा देर होने पर कुछ भी हो सकता था. फिर उन्हें 2 इंजैक्शन दिए गए और अधिक खून बहने के कारण खून चढ़वाने को कहा गया. संजय ने ब्लड बैंक जा कर रक्तदान किया तब जा कर मम्मी के लिए उन के ग्रुप का खून मिला. कार्तिक ने ब्लड बैंक से खून ला कर मम्मी को चढ़वाया. सुबह करीब 6 बजे वे दोनों मम्मी को वापस ले कर आए तो मेरी भी जान में जान आई. अब मम्मी ठीक लग रही थीं. संजय ने बताया कि घबराने की बात नहीं है आप आराम से सो जाएं. हम हफ्ते की दवाएं भी ले आए हैं. आज हमारा पेपर है लेकिन रातभर जगे हैं अत: हम भी थोड़ा आराम कर लेते हैं. मम्मी को सलामत पा मैं बहुत खुश थी. मेरे इतना भलाबुरा कहने के बावजूद संजय ने मुझ पर जो उपकार किया उस ने मुझे अपनी ही नजरों में गिरा दिया था. मैं इन्हीं विचारों में खोई बिस्तर पर लेटी थी कि कब सुबह के 8 बज गए पता ही न चला. मैं ने देखा संजय के कमरे का दरवाजा खुला था और वे दोनों घोड़े बेच कर सोए थे.

अचानक मुझे याद आया कि आज तो इन का पेपर है. अत: मैं तेजी से उन के कमरे में गई और उन्हें उठा कर कहा, ‘पेपर देने नहीं जाना क्या?’ हड़बड़ा कर उठते हुए संजय ने घड़ी देखी तो उन की नींद काफूर हो गई. दोनों फटाफट तैयार हो कर बिना खाएपीए ही पेपर देने चल दिए. मैं ने पीछे से आवाज दे कर उन्हें रोका, ‘भैया रुको,’ भैया शब्द सुन कर संजय अजीब नजरों से मुझे देखने लगा. लेकिन मैं ने बिना समय गंवाए उस की कलाई पर वही राखी बांध दी जो वह सुबह लाया था. फिर मैं ने कहा, ‘जल्दी जाओ, कहीं पेपर में देर न हो जाए.’ शाम को जब पापा आए और उन्हें सारी बात पता चली तो उन्होंने जा कर उन्हें धन्यवाद दिया. मैं ने भी पूछा, ‘पेपर कैसा हुआ?’ तो संजय ने हंस कर कहा, ‘‘अच्छा कैसे नहीं होता. बहन की शुभकामनाएं जो साथ थीं.’

अब मैं और संजय अनमोल रिश्ते में बंध गए थे. जहां बिगर दुरावछिपाव के एकदूसरे के लिए कुछ करने की तमन्ना थी. मेरा अपना तो कोई भाई नहीं था सो मैं संजय को ही भाई मानती. स्कूल से आती तो सीधा उस के पास जाती और बेझिझक उस से कठिन विषयों के बारे में पूछती. कुछ ही दिन में संजय के तरीके से पढ़ने पर मुझे वे विषय भी आसान लगने लगे जो अब तक कठिन लगते थे. घर का कोई सामान लाना हो या अपनी जरूरत का मैं संजय को ही कहती. कभी किसी काम से बाहर जाती तो संजय को साथ ले लेती. वह जैसे मेरा सुरक्षा कवच भी बन गया था. कभीकभी लोग बातें बनाते तो संजय उन को भी बड़े तरीके से हैंडिल करता.

एक बार एक अंकल ने कुछ कह दिया तो संजय बेझिझक उन के पास गया और बताया, ‘यह मेरी मुंहबोली बहन है, गलत न समझें. अगर आप की लड़की अपने भाई के साथ जाती दिखे और लोग गलत समझें तो आप क्या करेंगे.’ उन की बोलती बंद हो गई लेकिन फायदा हमें हुआ, अब गली के लोग हमें सही नजरों से देखने लगे. कुछ दिन बाद मेरा जन्मदिन था. मैं काफी समय से पापा से मोबाइल लेने की जिद कर रही थी, लेकिन हाथ तंग होने के कारण वे नहीं खरीद पा रहे थे. मेरे केक काटते ही संजय ने मुझे केक खिलाया और मेरे हाथ में मेरा मनपसंद तोहफा यानी मोबाइल रख दिया तो मैं इसे पा कर फूली नहीं समाई. उस समय नएनए मोबाइल चले थे. मैं खुश थी कि मैं कालेज जाऊंगी तो मोबाइल के साथ. कुछ दिन बाद उन की प्रतियोगी परीक्षा समाप्त हुई तो पता चला कि वे वापस जाने वाले हैं, यह जान कर मुझे दुख हुआ लेकिन मेरी भी मति मारी गई थी कि मैं ने उन का पता, फोन नंबर कुछ न पूछा. बस यही कहा, ‘भूलना मत इस अनमोल रिश्ते को.’

जिस दिन उन्होंने जाना था उसी दिन मेरी सहेली का बर्थडे था. मैं उस के घर गई हुई थी और पीछे से संजय ने कमरा खाली किया और दोनों केरल रवाना हो गए. वापस आने पर मैं ने पापा से पूछा तो पता चला कि उन्होंने भी उस का पताठिकाना नहीं पूछा था. इस पर मैं पापा से नाराज भी हुई. मैं संजय द्वारा बताए गए परीक्षा के टिप्स अपना कर 12वीं में अव्वल दर्जे से पास हुई और कालेज मोबाइल के साथ गई, जिस में हमारे अनमोल रिश्ते के क्षण छिपे थे. फिर कालेज के साथसाथ जब प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी तो मुझे ज्ञात हुआ कि एनसीईआरटी की किताबें इन में कितनी सहायक होती हैं. तब मुझे अपनी नादानी भरी भूल का भी एहसास हुआ. अब मैं हर साल राखी के सीजन में संजय को मिस करती. जब बाजार में राखियां सजने लगतीं तो मुझे अनबोला भाई याद आ जाता. समय के साथ मोबाइल तकनीक में भी तेजी से बदलाव आया और फोन के टचस्क्रीन और स्मार्टफोन तक के सफर में न जाने कितने ऐप्स भी जुड़े, लेकिन मैं ने अपना नंबर वही रखा जो संजय ने ला कर दिया था, भले मोबाइल बदल लिए. मैं हर बार फेसबुक पर फ्रैंड सर्च में संजय का नाम डालती, लेकिन नतीजा सिफर रहता. कुछ पता चलता तो राखी जरूर भेजती. इस बीच संजय ने भी कोई फोन नहीं किया था. लेकिन अचानक व्हाट्सऐप पर मैसेज देख दंग रह गई. तभी व्हाट्सऐप के मैसेज की टोन बजी और मेरी तंद्रा भंग हुई. संजय ने चैट करते हुए लिखा था, ‘‘नया स्मार्टफोन खरीदा तो पुरानी डायरी में नंबर देख सेव करते हुए जब तुम्हारा नंबर भी सेव किया तो व्हाट्सऐप में तुम्हारा फोटो सहित नंबर सेव हुआ देख मन खुश हो गया.

‘‘फिर फटाफट व्हाट्सऐप पर अपना परिचय दिया. तुम्हें मैं याद हूं न या भूल गई.’’ संजय के शब्दों से मेरी आंखें भर आईं. तुम्हें कैसे भूल सकती हूं निस्वार्थ रिश्ता. अगर तुम न होते तो शायद उस दिन पता नहीं मम्मी के साथ क्या होता. मेरे किशोरावस्था में भटके पांव कौन रोकता. मैं ने फट से मैसेज टाइप किया, ‘‘राखी भेजनी है भैया, फटाफट अपना पता व्हाट्सऐप करो.’’ मिनटों में व्हाट्सऐप पर ही पता भी आ गया और साथ ही  पेटीएम के जरिए राखी का शगुन भी, साथ ही लिखा था, ‘‘इस अनमोल रिश्ते को जिंदगी भर बनाए रखना.’’ मैं ने पढ़ा और अश्रुपूरित नेत्रों से बाजार में राखी पसंद करने चल दी अपने मुंहबोले भाई के लिए. Family Story

71st National Film Awards : पुरस्कार या सरकार की सेवा का प्रतिफल या अपनों की सेवा

71st National Film Awards : फिल्म जगत से जुड़ा 71वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के विजेताओं की घोषणा हुई. इस घोषणा के साथ ही देशभर में दबी अस्वीकृति देखने को मिली है, फिर चाहे वह ‘जवान’ के लिए शाहरुख़ खान को मिला पुरस्कार हो या केरला स्टोरी जैसी एजेंडेधारी भड़काऊ फिल्म हो.

‘अंधा बांटे रेवड़िया, अपनोंअपनों को दे’. 71वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की सूची देखने पर यही कहावत याद आती है. यूं तो देश की सरकारें बदलती रही हैं, मगर हर बार फिल्म पुरस्कार घोषित होने पर विवाद जरुर उठते रहे हैं. अब देश के हालात व सरकार के हालात भी बदले हुए हैं, जिस के चलते 90 प्रतिशत लोगों के मुंह पर ताले पड़ गए हैं. सभी को डर सता रहा है कि कहीं उन्हें देशद्रोही न करार दिया जाए. इसलिए सोशल मीडिया पर भी खामोशी छाई हुई है.

अगर शशि थरुर को नजरंदाज कर दिया जाए तो दक्षिण भारत वह भी केरला राज्य से जरुर विरोध के स्वर उठ रहे हैं, जिन पर इस बार की ज्यूरी के अध्यक्ष आशुतोष गोवारीकर ने भी चुप्पी साध रखी है. उन की तरफ से अब तक कोई सफाईनामा पेश नहीं किया गया. यानी कि नक्कार खाने में कोई आवाज सुनाई नहीं देती. शशि थरुर ने जरुर अभिनेता शाहरुख खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार पाने पर बधाई दी है, जबकि उन्हीं के राज्य केरला से तमाम विरोध के स्वर उठ रहे हैं.

हम ने पहले ही कहा कि देश में चाहे जिस दल की सरकार रही हो, पर राष्ट्रीय पुरस्कार निष्पक्ष कभी नहीं रहे. हम आगे बढ़ें उस से पहले एक कटु सत्य की तरफ ध्यान आकर्षित करा देना चाहिए.

पान, गुटका, तंबाकू व सिगरेट को हर इंसान के स्वास्थ्य का दुश्मन माना जाता है. सरकार विज्ञापन करती है, हर सिगरेट के पैकेट पर लिखा होता है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और इस से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी हो सकती है. पर अफसोस हमारे देश में गुटका बेचने वाले तीनों फिल्म कलाकारों को सरकार पुरस्कृत करती आ रही है तो क्या गुटका बेचना अच्छा काम है?

गुटका बेचने वाले पहले कलाकार अजय देवगन को 1998 में फिल्म ‘जख्म’, 2002 में फिल्म ‘द लीजेंड औफ भगत सिंह’, 2020 में फिल्म ‘तान्हाजी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार, 2020 में ही फिल्म ‘तान्हाजी’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था, जिस का निर्माण अजय देवगन ने ही किया था. इतना ही नहीं 2016 में अजय देवगन को पद्मश्री से भी सम्मनित किया गया.

गुटका बेचने वाले दूसरे कलाकार अक्षय कुमार को 2016 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2017 में अक्षय कुमार द्वारा निर्मित व अभिनीत फिल्म ‘पैडमैन’ को ‘बेस्ट फिल्म औन अदर सोशल इशू’ का पुरस्कार दिया गया था और इस ज्यूरी के अध्यक्ष फिल्मकार प्रियदर्शन थे. इन दिनों प्रियदर्शन के निर्देशन में अक्षय कुमार 4 फिल्मों में अभिनय कर रहे हैं. इस से पहले भी प्रियदर्शन के निर्देशन में अक्षय कुमार कई फिल्में कर चुके थे. 2009 में अक्षय कुमार को पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया. गुटका का एड करने वाले तीसरे कलाकार शाहरुख खान को इस वर्ष फिल्म ‘जवान’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया है, यह निर्णय फिल्मकार आशुतोष गोवारीकर की अध्यक्षता वाली ज्यूरी ने दिया है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि आशुतोष गोवारीकर ने बतौर लेखक, निर्माता व निर्देशक फिल्म ‘स्वदेश’ बनाई थी, जिस में शाहरुख खान की अहम भूमिका थी. यह फिल्म 17 दिसंबर, 2004 को रिलीज हुई थी. फिल्म को काफी सराहा गया था और फिल्म को बौक्स औफिस पर भी सफलता मिली थी. लेकिन इस फिल्म के बाद शाहरुख खान ने आशुतोष गोवारीकर के संग काम नहीं किया. बौलीवुड के गलियारों में चर्चा है कि अब बहुत जल्द शाहरुख खान, आशुतोष गोवारीकर के निर्देशन में फिल्म कर सकते हैं.

जी हां! यही वजह है कि सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए शाहरुख खान को फिल्म ‘जवान’ के लिए चुना जाना रास नहीं आ रहा है. दक्षिण भारत की उर्वशी सहित कई कलाकारों की राय में इस पुरस्कार का हक निर्देशक ब्लेसी की फिल्म ‘अदूजीवितम’ (द गोट लाइफ) के लिए पृथ्वीराज सुकुमारन थे. लेकिन ज्यूरी ने पक्षपात कर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार शाहरुख खान को दे दिया.

बौलीवुड के गलियारों में दबे स्वर में कहा जा रहा है कि ज्यूरी के अध्यक्ष आशुतोष गोवारीकर ने अपने कैरियर की गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए यह कदम उठाया. तभी को शाहरुख खान द्वारा निर्मित फिल्म ‘जवान’ के लिए शाहरुख खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और फिल्म ‘जवान के गीत ‘चलैया’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गायिका का पुरस्कार शिल्पा राव को दिया गया. तो वहीं यह चर्चा भी गरम है कि फिल्म ‘जवान’ में जिस तरह से शाहरुख खान का आजाद का किरदार भ्रष्टाचार व अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ता है, आजाद अपने तरीके से सरकार को 7 लाख किसानों का कर्ज माफ करने पर मजबूर करता है. फिल्म में वोट देने से पहले नेता से सवाल करने की बात कही गई है. उस के मद्देनजर सरकार के इशारे पर शाहरुख खान का चयन किया गया है. आखिरकार वर्तमान सरकार भी यही दावा करती है कि वह भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए कार्यरत है मगर हकीकत में फिल्म ‘जवान’ प्रतिशोध पर आधारित सतही फिल्म है.

इंटरवल से पहले रौबिनहुड की कहानी लगती है, पर इंटरवल के बाद एक बिखरी हुई फिल्म है. इतना ही नहीं, बतौर अभिनेता शाहरुख खान अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाए थे, इस के बावजूद उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से नवाजा गया. एटली निर्देशित और शाहरुख खान की कंपनी ‘रेड चिल्ली’ निर्मित फिल्म ‘जवान’ में शाहरुख खान की पिता व पुत्र की दोहरी भूमिका है.

हम ने ‘जवान’ के साथ ही पृथ्वीराज सुकुमारन की फिल्म ‘अदूजीवितम’ (द गोट लाइफ) भी देखी हुई है. इस फिल्म में खाड़ी देशों में जानवर की तरह जिंदगी जी रहे अप्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधि रूपी नजीब के किरदार को पृथ्वीराज सुकुमारन ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. इस किरदार को निभाने के लिए पृथ्वीराज सुकुमारन ने जिस तरह से अपने शरीर में बदलाव लाया, हर कलाकार के वश की बात नहीं है. किरदार के प्रति उन का समर्पण ही फिल्म में जान फूंकता है.

एक तरफ सोशल मीडिया पर मलयाली सिनेमा के फैंस पृथ्वीराज सुकुमारन और डायरेक्टर ब्लेसी की ‘आदुजीविथम’ उर्फ ‘द गोट लाइफ’ को नजरअंदाज करने का आरोप लगा रहे हैं. जबकि इस ज्यूरी में एकमात्र मलयाली प्रतिनिधि प्रदीप नायर ने एक औनलाइन पत्रिका से बात करते हुए ज्यूरी अध्यक्ष आशुतोष गोवारीकर पर आरोप मढ़ते हुए कहा है कि आशुतोष गोवारीकर को फिल्म ‘द गोट लाइफ’ की एक्टिंग-कहानी प्रमाणिक नहीं लगी. उन्होंने इस इंटरव्यू में खुलासा किया कि ब्लेसी निर्देशित फिल्म असल में पुरस्कार की दौड़ में थी, लेकिन अंतिम चरण में पीछे हो गई.

पृथ्वीराज सुकुमारन की बजाय शाहरुख खान के चयन पर अभिनेत्री उर्वशी ने नाराजगी जताई है. अपनी बेबाक राय के लिए जानी जाने वाली उर्वशी ने ‘उल्लोझुक्कू’ में पार्वती के साथ मुख्य भूमिकाओं में से एक की भूमिका निभाने के बावजूद सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार जीता. पर वह कहती हैं, ‘‘पृथ्वीराज सुकुमारन ने इस फिल्म के मुख्य किरदार नजीब के जीवन और उस की दिल दहला देने वाली पीड़ा को दिखाने के लिए समय और मेहनत दी है और शारीरिक रूप से भी बदलाव किया है.

“हम सभी जानते हैं कि यह फिल्म ‘एम्पुराण’ की वजह से है लेकिन पुरस्कार राजनीतिक नहीं हो सकते. पृथ्वीराज सुकुमारन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘एल2: एम्पुराण’ ने 2002 के गुजरात दंगों को दर्शाने वाले दृश्यों को शामिल करने के लिए सुर्खियां बटोरीं. फिल्म को दक्षिणपंथी समूहों से भारी विरोध का सामना करना पड़ा, जिस के बाद निर्माताओं ने स्वेच्छा से 2 मिनट से ज्यादा दृश्यों पर कैंची चलाने के साथ ही खलनायक का नाम भी बदल दिया. इस के बावजूद उन्हें पुरस्कृत न करना गलत है.’’ उर्वशी ने केंद्रीय राज्यमंत्री गोपी से इस की जांच करने की भी मांग की है.

वहीं जूरी के चेयरपर्सन और फिल्ममेकर आशुतोष गोवारिकर को ब्लेसी निर्देशित फिल्म की कहानी और एक्टिंग को ले कर चिंता थी. जूरी के अध्यक्ष आशुतोष गोवारीकर और अन्य लोगों को भी लगा कि एडोप्टेशन में नैचुरल नहीं है और परफौर्मेंस भी प्रामाणिक नहीं लगता.

प्रदीप नायर के अनुसार, ‘आदुजीविथम’ को सर्वश्रेष्ठ गायक और सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए भी विचार किया गया था. लेकिन किसी भी कैटेगरी में अवार्ड न जीतने का कारण ‘तकनीकी चूक’ रही. उन के अनुसार, फिल्म में हाकिम की भूमिका निभाने वाले अभिनेता केआर गोकुल के नाम पर भी विचार किया गया था, लेकिन उन्हें भी पुरस्कार नहीं दिया गया.

बेन्यामिन के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में पृथ्वीराज सुकुमारन ने नजीब की भूमिका निभाई है, जो एक मलयाली आप्रवासी मजदूर है, जिसे सऊदी अरब में गुलाम बना कर ले जाया जाता है.

सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार शाहरुख खान के साथ ही फिल्म ‘‘ट्वेल्थ फेल’ के लिए विक्रांत मैसे को भी मिला है. यानी कि इस पुरस्कार राशि को शाहरुख खान और विक्रांत मैसे में बांटा जाएगा. विक्रांत मैसे की फिल्म ‘ट्वेल्थ फेल’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का भी पुरस्कार मिला है.

यह कितनी अजीब बात है सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले अभिनेता विक्रांत मैसे की हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘‘आंखों की गुस्ताखियां’ बाक्स आफिस पर 7 दिन के अंदर महज 30 लाख रूपए ही एकत्र कर सकी. इस फिल्म की निर्माता को इस फिल्म का निर्माण करने के लिए अपने जेवर व मकान भी बेचना पड़ा.

वैसे विक्रांत मैसे को पुरस्कार मिलने से किसी को भी आश्चर्य नहीं हुआ, हां, अगर उन्हें अवार्ड न मिलता, तो यह अनहोनी कही जाती. नवंबर 2024 में जब सरकार परस्त प्रपोगंडा फिल्म ‘‘द साबरमती रिपोर्ट’ रिलीज हुई थी, तभी लोगों ने मान लिया था कि विक्रांत मैसे को जल्द ही ‘सरकारी मलाई’ मिलने वाली है. इस फिल्म के प्रमोशन के दौरान जिस तरह से विक्रांत मैसे ने गिरगिट की तरह रंग बदला था, उस से सभी लोग आश्चर्य चकित हो कर रह गए थे. जहां तक 27 फरवरी 2002 के गोधरा कांड पर आधारित फिल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ और इस में विक्रात मैसे के अभिनय का सवाल है तो इस फिल्म की रिव्यू लिखते हुए हम ने इसे एक स्टार दिया था. गोधरा स्टेशन के नजदीक ट्रैन की दो बोगियों में आग लगने के बाद भड़के दंगों पर यह फिल्म पूरी तरह से खामोश रहती है.

इस के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म के पुरस्कार से ‘धर्मा प्रोडकशन’ की फिल्म ‘रौकी और रानी की प्रेम कहानी’ को दिया जाना भी कम आश्चर्य जनक नहीं है. सभी को पता है कि धर्मा प्रोडक्शन के मालिक करण जोहर हैं, पर अब इस कंपनी की आधी हिस्सेदारी आदार पूनावाला के पास है. यह वही आदार पूनावाला हैं, जिन पर देश के प्रधानमंत्री को गर्व है. आदार पूनावाला की ही कंपनी ने प्रधान मंत्री द्वारा तय समय सीमा से पहले करोना वायरस वैक्सीन बना कर इतिहास रचा था. यह अलग बात है कि अब इसी करोना वायरस वैक्सीन को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है.

2020 में करण जोहर को पद्मश्री से नवाजा गया और अब करण जोहर निर्देशित व धर्मा प्रोडक्षन निर्मित फिल्म ‘‘रौकी और रानी की प्रेम कहानी’’ को सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म के स्वर्ण कमल पुरस्कार से नवाजा गया. ज्यूरी कितनी इमानदार रही इस का अहसास इसी बात से किया जा सकता है कि ज्यूरी ने जिसे सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म का पुरस्कार दिया, वही फिल्म यानी कि ‘रौकी और रानी की प्रेम कहानी’ बौक्स औफिस पर अपनी लागत तक वसूल नहीं पाई.

विक्की कौशल अभिनीत फिल्म ‘‘सैम बहादुर’ को बेस्ट फीचर फिल्म प्रमोटिंग नैशनल, सोशल और इनवायरमेंटल वैल्यू के पुरस्कार से नवाजा गया.

धार्मिक एनीमेशन तेलुगु फिल्म ‘हनु मान’ को सर्वश्रेष्ठ एनीमेशन फिल्म के ‘स्वर्ण कमल’ पुरस्कार के साथ ही इस फिल्म के एनीमेटर जेट्टी वेंकट कुमार को स्वर्ण कमल पुरस्कार और वीएफएक्स सुपरवाइजर के तौर पर जेट्टी वेंकट कुमार को ही रजत कमल पुरस्कार भी मिला. मतलब कि हिंदू धर्म के महिमा मंडन को सरकारी मलाई.

सर्वाधिक आश्चर्य तो सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के स्वर्ण कमल पुरस्कार से फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के निर्देशक सुदीप्तो सेन को नवाजा जाना है. इस प्रपोगंडा और धर्म के नाम पर विभाजन पैदा करने वाली फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन ही इस फिल्म के सह लेखक हैं, जिन्हें अदालत से गलत तथ्य परोसने के लिए दांत पड़ी, तब फिल्म में इन्हें डिस्क्लेमर जोड़ कर सफाई देनी पड़ी थी. मगर आशुतोष गेावारीकर जैसे निर्देशक ने सुदीप्तो सेन को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक चुन कर साबित कर दिया कि वह खुद कितने अच्छे निर्देशक हैं.

जब हम ने यह फिल्म देखी थी तो हमें सुदीप्तो सेन की अपरिपक्व व असंवेदनशील लेखक तथा अपरिपक्व निर्देशक की छवि उभरी थी. पूरी फिल्म में निर्देशक भ्रमित नजर आता है. फिल्म में संवाद है कि एक मुख्यमंत्री ने कहा था कि यदि इसी तरह से राज्य में धर्मांतरण होता रहा, तो एक दिन केरला राज्य इस्लामिक राज्य बन जाएगा. यहां पर फिल्मकार को उस मुख्यमंत्री का नाम उजागर करने से परहेज नहीं करना चाहिए था.

बहरहाल, फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के निर्देशक सुदीप्तो सेन का दावा है कि 2016 और 2018 के बीच केरल में 32,000 महिलाएं आईएसआईएस में शामिल हुई थीं. इतना ही नहीं फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन और रचनात्मक निर्माता विपुल अमृतलाल शाह जोर दे कर कहते हैं कि उन की फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ केरल की ‘32,000 युवा लड़कियों की सच्ची कहानी‘ पर आधारित है, जिन्हें इसलाम धर्म स्वीकार करवाने के बाद अफगानिस्तान-तुर्की-सीरिया की सीमा पर आईएसआईएस शिविरों में बंदी बना कर रखा गया था. जिन का काम इसलाम के जेहादियों की सैक्स भूख को शांत करना था. इन शिविरों में हर लड़की के साथ हर दिन कई बार बलात्कार किया जाता था. यदि यह सच है, तो केरला सरकार ही नहीं केंद्र सरकार की भी इस मसले पर चुप्पी समझ से परे है.

वैसे 2021 में ‘द हिंदू’ अखबार में अफगानिस्तान की जेल मे 4 लड़कियों की कहानी बताई गई थी. फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ में धार्मिक वैमनयता को बढ़ाने के साथ ही दर्शकों का ‘ब्रेनवाश’ करती है. फिल्म कहती है कि कोई भी मुसलमान अच्छा नहीं होता. नास्तिकता व साम्यवाद में अंतर नहीं है. राष्ट्रीय पुरस्कार की मर्यादा को बरकरार रखने के लिए ज्यूरी के अध्यक्ष आशुतोष गोवारीकर को खास अजेंडे के तहत बनाई गई फिल्मों से दूरी बना कर रखना चाहिए था. ‘लगान’, ‘स्वदेश’, ‘जोधा अकबर’, ‘पानीपत’, ‘मोहन जोदाड़ो’ जैसी बेहतरीन फिल्म के बेहतरीन निर्देशक आशुतोष गोवारीकर ने नैशनल अर्वाड की ज्यूरी के अध्यक्ष के तौर पर काम करते हुए किसी दबाव में काम किया हो तो बात अलग है.

फिल्म ‘द केरला स्टेारी’ को पुरस्कृत किए जाने पर केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने भी अपनी निराशा व्यक्त की. वहीं ‘काक्षी : अम्मिनिपिला’ और ‘केरल क्राइम फाइल्स 2’ से शोहरत हासिल करने वाली मशहूर अभिनेत्री फर्रा शिबला ने जूरी की आलोचना करते हुए अपने इंस्टाग्राम पर एक लंबा पोस्ट लिखा है. फर्रा ने इंस्टाग्राम पर पोस्ट किया, “राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भारतीय सिनेमा में सब से प्रतिष्ठित सम्मान है, जो फिल्म निर्माण में उत्कृष्ट योगदान और उत्कृष्टता का जश्न मनाते हैं. हालांकि, ‘द केरल स्टोरी’ इन मानकों पर खरी नहीं उतरती. फिल्म की कहानी मनगढ़ंत है, जिस का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है. यह केरल के वास्तविक सार, उसकी भाषा, रीतिरिवाजों, परंपराओं या सांस्कृतिक विरासत को दर्शाने में विफल है.’’

इतना ही नहीं ‘पुणे फिल्म संस्थान’ के छात्र संघ अध्यक्ष गीतांजलि साहू और महासचिव वर्षा दासगुप्ता द्वारा हस्ताक्षरित बयानजारी कर कड़ा विरोध जताया है. उन्होंने लिखा, “यह फैसला न केवल निराशाजनक है, बल्कि खतरनाक भी है. सरकार ने एक बार फिर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है. अगर सिनेमा के नाम पर कोई दुष्प्रचार उस के बहुसंख्यकवादी, नफरत से भरे एजेंडे से मेल खाता है, तो वह उसे पुरस्कृत करेगा. द केरल स्टोरी कोई फिल्म नहीं, बल्कि एक हथियार है. यह एक झूठा आख्यान है जिस का उद्देश्य मुसलिम समुदाय को बदनाम करना और एक ऐसे पूरे राज्य को बदनाम करना है जो ऐतिहासिक रूप से सांप्रदायिक सद्भाव, शिक्षा और प्रतिरोध के लिए खड़ा रहा है.’’
एसोसिएशन ने सिनेमा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए बताया कि कैसे एक ‘सरकार द्वारा समर्थित संस्था’ ईमानदार कला को मान्यता देने के बजाय हिंसा को वैध बना रही है.

इतना ही नहीं जूरी के एक मात्र मलयाली सदस्य प्रदीप नायर ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए ‘द केरला स्टोरी’ को चुने जाने पर आपत्ति जताई थी. प्रदीप ने एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में कहा है, ‘पैनल में एक मलयाली होने के नाते, मैं ने गंभीर आपत्तियां उठाईं. मैं ने सवाल किया कि केरल जैसे राज्य को बदनाम करने वाली और दुष्प्रचार का काम करने वाली फिल्म को राष्ट्रीय सम्मान कैसे माना जा सकता है. मैं ने अपनी चिंताएं सीधे जूरी अध्यक्ष तक भी पहुंचाई लेकिन जूरी के बाकी सदस्यों ने तर्क दिया कि भले ही फिल्म विवादास्पद थी, लेकिन इस में एक प्रासंगिक सामाजिक मुद्दे को उठाया गया है.’’

कुल मिला कर 71 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की ज्यूरी ने पूरी तरह से किसी न किसी के इशारे पर अंधभक्त हो कर काम किया है. इसी वजह से एक खास तरह की सोच रखने वाले फिल्मकारों की प्रपोगंडा व आधार हीन तथा धार्मिक वैमनस्यता बढ़ाने वाली फिल्में पुरस्कृत की गई. इतना ही नहीं पूरी सूची पर गंभीरता से नजर दौड़ाने पर यह भी बात उभर कर आती है कि ज्यूरी के अध्यक्ष व सदस्यों ने निर्णय लेते समय अपने निजी हितों व अपने भावी कैरियर को भी सर्वोपरी रखा.

Education : जो लिखेगा पढ़ेगा, वही आगे बढ़ेगा

Education : आज डिजिटल टैकनोलौजी भले ही चारों तरफ हावी हो गई हो पर जो किताबों या पत्रिकाओं से जुड़ा रहता है उस में एक स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है. वह बाकियों से ज्यादा धैर्यवान और समझदार जान पड़ता है.

आज के दौर में पेरैंट्स को सब से बड़ी शिकायत यह होती है कि उन के बच्चे मोबाइल, लैपटौप या कंप्यूटर से बाहर निकल ही नहीं रहे हैं. उन का सारा समय इसी पर बीत रहा है. बच्चे किताबे पढ़ना ही नहीं चाहते हैं. इस से उन की सेहत खराब हो रही है. आंखों में दर्द रहता है. चश्मा जल्दी लग जा रहा है. हर उम्र के बच्चों से पेरैंट्स यह एक कौमन शिकायत होती है. कई पेरैंट्स इस के समाधान के लिए मनोविज्ञानियों के पास जाते हैं. कई पेरैंट्स जल्दी चले जाते हैं तो कई बच्चों से लड़ते झगड़ते गुस्सा करने के बाद तब जाते हैं जब बच्चे उन की बात सुनने से इंकार करने लगते हैं.

मनोविज्ञानी डाक्टर मधुबाला यादव बाल मनोविज्ञान में स्पैशलिस्ट है, उन का कहना है ‘पेरैंट्स टीनएज बच्चों को ले कर ज्यादा परेशान होते हैं. इस के पीछे की वजह यह है कि इंटरनेट पर वह बहुत कुछ उपलब्ध है जो बच्चों के मन पर बुरा असर डालता है. इस में हिंसा और सैक्स भी शामिल होता है. मोबाइल, लैपटौप या कंप्यूटर के जरीये बच्चे इंटरनेट द्वारा घर के अंदर एक कमरे में रहते हुए भी पूरी दुनिया से जुड जाते हैं. बाल मन बड़ा उत्सुक होता है सब कुछ जानने के लिए. पैरेंटस इस बात को ले कर परेशान होते हैं कि पता नहीं बंद कमरे में बच्चा क्या देख सीख रहा है.’

दूसरी तरफ बच्चे अपने बचाव में तर्क देते हैं कि उन की पढ़ाई के लिए इंटरनेट, मोबाइल, लैपटौप या कंप्यूटर समय की जरूरत हो गए हैं. यह बात आंशिक रूप से सत्य हो सकती है. इस के लिए सरकार भी दोषी है. कोविड के समय औनलाइन पढ़ाई के नाम पर जिस तरह का काम किया गया उस के परिणाम सामने आ रहे हैं. यह कमजोर वर्ग के साथ एक साजिश है. कमजोर वर्ग के बच्चे जब किताबें नहीं पढेंगे तो न उन को तर्क करना आएगा न ही वह लिखना सीख पाएंगे. जब पढ़नालिखना नहीं आएगा तो वह आगे भी नहीं बढ़ पाएंगे. अमीरों के बच्चे कोचिंग कर के पढ़नालिखना सीख भी लेते हैं जबकि गरीबों के बच्चे पिछड़ते जा रहे हैं.

अभी भी डाक्टर, इंजीनियर और वकील बनने वाले युवाओं को मोटीमोटी किताबें पढ़नी पढ़ती हैं. हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा में लिखना पड़ता है. नीट और जेईई जैसे कंपटीशन वाली परीक्षाओं में सवाल के जवाब चार में से सही पर केवल टिक लगाना पड़ता है. इस के बाद जब वह डाक्टर, इंजीनियर और वकील बनने की पढ़ाई करते हैं तो किताबें ही उन की साथी होती हैं. बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है. युवा अगर राजनीति में भी जाना चाहते हैं या अपना बिजनेस करना चाहते हैं तो भी अपना काम संभालने के लिए पढ़नालिखना और समझना जरूरी होता है. इस के बिना दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है जो युवाओं को आगे बढ़ने से रोकता है.

बचपन से ही सिखाए लिखना पढ़ना

मनोविज्ञानी डाक्टर मधुबाला यादव कहती हैं ‘बचपन में सीखने की अदभुत ताकत होती है. इस समय जिस तरह की आदत पेरैंट्स अपने बच्चों की डालते हैं वही आगे चलती है. मोबाइल की आदत बच्चों में अपने मातापिता को देख कर ही पड़ती है. जब बच्चों के सामने पेरैंट्स लगातार मोबाइल चलाते रहते हैं तो बच्चे भी उस को लेना चाहते हैं. वह रोने लगते हैं तो 5-6 माह के बच्चों को मोबाइल पकड़ा दिया जाता है. जिस से बच्चा चुप हो जाता है. यही आदत लग जाती है. बच्चा मोबाइल ले कर अकेले रहना पंसद करने लगता है. यही आदत तब शिकायत में बदल जाती है जब बच्चा टीनएज का होता है. अगर पेरैंट्स बचपन से ही सावधान रहे तो परेशानी कम होगी.’

डाक्टर मधुबाला यादव ने इस के कुछ टिप्स दिए हैं- घर पर किताबों से कराए पढ़ाई

बचपन से ही बच्चे के साथ रोजाना किताबों से पढ़ने का लक्ष्य रखना चाहिए. सप्ताह में चार बार उन्हें पढ़ कर सुनाने की कोशिश करें. उन से भी पढ़ कर सुनाने को कहे. यह किताबें उन की स्कूल बुक्स न भी हो तो कोई दिक्कत नहीं है. आज के समय में उम्र के हिसाब की किताबें और पत्रिकाएं बाजार में मिल रही है. जैसे चंपक पत्रिका को कक्षा 3 से 8 तक के बच्चों के हिसाब से तैयार किया जाता है. अक्षर थोड़ा बड़े होते हैं. बौक्स सरल होते हैं जिन को पढ़ना आसान होता है. कहानियों के अलावा भी रोचक सामाग्री इस में होती है.

बच्चों को चुनने दें मनपंसद किताबें

कई बार देखा गया है कि पेरैंट्स अपनी पंसद की किताबें ले आते हैं. जो बच्चों को पसंद नहीं आती और वह नहीं पढ़ते हैं. पेरैंट्स जब भी किताबें खरीदने जाए बच्चों किताबें चुनने में शामिल करें. इस से उन्हें अपनी रुचि की किताबें चुनने का मौका मिलेगा और उन्हें पढ़ने के समय का बेसब्री से इंतजार रहेगा. उन की आदत किताबें पढ़ने की होने लगेगी.

बच्चों को सिखाएं नए शब्दों

पढ़ने के लिए नए नए शब्दों को जानना जरूरी होता है. विभिन्न प्रकार की किताबें पढ़ने या नियमित बातचीत में नए शब्दों को शामिल करने से आप के बच्चे की शब्दावली विकसित करने में मदद मिलेगी. स्कूल शुरू होने से पहले वे जितने ज्यादा शब्द जानेंगे, उतनी ही आसानी से वे स्कूल स्तर की किताबें पढ़ पाएंगे. इस को सिखाने का आधार रोचक होना चाहिए जिस से बच्चों का मन लग सके.

लिखने की आदत डालें

पढ़ना तब तक अधूरा है जब तक कि लिखना न सीख लें. बच्चे को लिखना सिखाने के लिए एक बेहतरीन गतिविधि है बिंदीदार रेखाओं पर अक्षरों का आकार बनाना. इस से उन्हें अक्षर बनाना सीखने में मदद मिलती है. लिखने के लिए जरूरी है कि पेंसिल पकड़ने का सही तरीका उन को सिखाएं. इस का सही तरीका अंगूठे, तर्जनी और मध्यमा उंगलियों से पेंसिल पकड़ना है, जिसे ‘ट्राइपोड ग्रैस्प’ कहते हैं. इस तरह पेंसिल पकड़ने से पेंसिल की गति बेहतर होती है और हाथ स्थिर रहता है.

शब्दों और वाक्यों को लिखना शुरू करते समय, छोटे बच्चों के लिए शब्दों की वर्तनी का अंदाजा लगाना कोई असामान्य बात नहीं है. अकसर बच्चे शब्दों की वर्तनी उन के उच्चारण के अनुसार ही लिखते हैं. यह प्रयोग पूरी तरह से सामान्य है और लिखना सीखने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. कई बच्चों को लिखने में दिक्कत होती है क्योंकि वे बहुत जल्दीजल्दी लिखने की कोशिश करते हैं. बच्चे को अक्षर लिखने में समय लेने के लिए प्रोत्साहित करें और उन्हें समझाए कि गलतियां करना ठीक है. यानी उन्हें रबड़ का इस्तेमाल करना भी सिखाएं. वह शब्द को पूरा पूरा लिखें. बीच में अधूरा छोड़ने की आदत राइटिंग को बिगाड़ने का काम करती है.

घर में पुस्तकालय

जिन बच्चों में बचपन से ही पढ़नेलिखने की आदत पड़ जाती है वह युवा होने पर भी किताबें पढ़ने में रूचि रखते हैं. ऐसे में जरूरी है कि घर में मंदिर की जगह पुस्तकालय बनाएं. उन में अच्छीअच्छी खूबसूरत किताबें रखें. उन का सही रखरखाव करें. इस से देखने वाले पर प्रभाव तो पड़ता ही है न चाहते हुए भी किताबें पढ़ने का मन होने लगता है. पहले घर में किताबें रखने के लिए केवल लोहे या लकड़ी की अलमारी ही होती थी. बदलते दौर में इंटीरियर ने किताबों को रखने के लिए खूबसूरत प्रयोग करने शुरू कर दिए हैं. यह हल्के, टिकाऊ और देखने में सुदंर होते हैं. देखने वाले पर प्रभाव डालते हैं. सही लाइट और चेयर का प्रयोग इस अंदाज को और बेहतरीन बनाता है. एक छोटा घर किताबों के बिना घर जैसा नहीं लगता है. घर में किताबें रखने की जगह बनाए. इंटीरियर डिजाइनर रश्मि गुप्ता ने इस के लिए कुछ टिप्स दिए हैं.

• हर घर गलियारे आमतौर पर बनाये ही जाते हैं. इन का प्रयोग एक जगह से दूसरी जगह जाने में ही होता है. इस गलियारे की दीवारों पर अलमारियां लगा कर इस को पुस्तकालयों में बदला जा सकता है. जिस से जगह का अधिकतम उपयोग होगा पुस्तकालय भी बन जाएगा. किताबों की अलमारियों का दीवार से दीवार, फर्श से छत तक होना जरूरी नहीं है. इन को बीच में भी बनाया जा सकता है. जिस से उपर नीचे की खाली जगह को खाली रखा जा सकता है. नीचे गमलों में पौधे रखे जा सकते हैं. जो अलग लुक देंगे.

• किताबों को रखने के लिए कई तरह के बुककेस, हेडबोर्ड बाजार में उपलब्ध हैं. जिन का प्रयोग वहां पर कर सकते हैं जहां पर आप बैठ कर पढ़ना चाहते हैं. अपार्टमेंट में बालकनी का प्रयोग चाय पीने के लिए करते हैं वहीं बैठ कर किताबों का भी आनंद ले सकते हैं. इन को रखने के बने बनाए रैक जरूरत और जगह के अनुसार से खरीद सकते हैं. कुछ लोग अपने बिस्तर के नीचे किताबें रखना पंसद करते हैं. ऐसे में नया बिस्तर खरीदने की जरूरत नहीं है. कोई भी छोटी और चैड़ी बुकशेल्फ या बेंच इस काम को कर सकती है.

• आप किताबों को सीढ़ियों में रखें या फिर फ्रेम में बनी अलमारियों में, जगह बचाने वाले बिस्तर किताबों के भंडारण के लिए एक बेहतरीन समाधान हो सकते हैं. घर अपार्टमेंट में कुछ न कुछ बेकार जगह होती है. चाहे वह दीवार का कोई कोना हो जहां कुर्सी नहीं रखी जा सकती या कोई दूर-दराज का कोना, एक बुकशेल्फ उस जगह का अच्छा इस्तेमाल कर सकती है. पुस्तक अलमारियों की खूबसूरती यह है कि वे विभिन्न आकारों और आकारों में आती हैं.

किताबें घर के इंटीरियर का हिस्सा हो सकती हैं. अलमारी या बुकसेल्फ में करीने से लगी किताबें बेहद खूबसूरत दिखती हैं. यह देखने वाले पर प्रभाव डालती हैं. किताबों का देख कर वह आप के बारे में अपनी धारणा बदलने को मजबूर हो जाता है. बड़े नेता, वकील और डाक्टरों के घरों में किताबों से सजी जगह देखने को जरूर मिल जाती है. यह न केवल पढ़ने की आदत डालती है किताबों की महक माहौल को जीवंत बनाए रखने का काम करती है. सुकून के साथ किताबें पढ़ने से जानकारी ही नहीं मानसिक शांति भी मिलती है. ऐसे में अपने घर में किताबों की जगह बनाए और उन को रखिए. देखिए आप के और परिवार के जीवन में कैसा बदलाव आता है.

Religion : श्री बांके बिहारी मंदिर विवाद – खतरे की घंटी हैं ये कौरिडोर

Religion : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत पर टैरिफ का बोझ लाद रहा है और सरकार मंदिर के कौरिडोर बनाने में अपना कीमती समय बरबाद कर रही है. पर उत्तर प्रदेश के वृंदावन में बने श्री बांके बिहारी मंदिर पर अलग ही विवाद खड़ा हो गया है. विवाद यह है कि क्या श्री बांके बिहारी मंदिर एक निजी धार्मिक संस्था है और सरकार बिना अनुमति इस के प्रबंधन में दखल दे रही है?

इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने श्री बांके बिहारी मंदिर के प्रबंधन विवाद पर सुनवाई की. दरअसल, याचिकाकर्ता ने उत्तर प्रदेश सरकार के उस नए कानून को चुनौती दी है, जो मंदिर का प्रबंधन एक ट्रस्ट को देने की बात करता है. वकील श्याम दीवान ने आरोप लगाया कि सरकार मंदिर की आय से जमीन खरीदने और निर्माण जैसे काम करना चाहती है, जो कि अनुचित है. यह हमारा निजी धन है, सरकार इसे जबरन ले रही है.

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि कोई भी देवता पूरी तरह निजी नहीं हो सकते. जब लाखों लोग दर्शन करने आते हैं, तो मंदिर को केवल निजी संस्था कैसे कहा जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि मंदिर की कमाई सिर्फ प्रबंधन के लिए नहीं, बल्कि श्रद्धालुओं और मंदिर क्षेत्र के विकास के लिए भी होनी चाहिए. सरकार की ओर से वकील नवीन पाहवा ने बताया कि सरकार यमुना तट से मंदिर तक एक कौरिडोर बनाना चाहती है, ताकि दर्शन करने वालों को सुविधा मिले. उन्होंने यह भी कहा कि मंदिर का पैसा केवल मंदिर से जुड़ी गतिविधियों पर ही खर्च किया जाएगा.

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया कि मंदिर फंड के उपयोग की निगरानी के लिए हाईकोर्ट के किसी रिटायर्ड जज को नियुक्त किया जा सकता है, जो एक न्यूट्रल समिति के अध्यक्ष होंगे.

इस मामले में जो भी अंतिम निर्णय होगा, वह तो भविष्य में पता चलेगा, पर सरकार द्वारा धार्मिक स्थलों को लोगों की भलाई के नाम पर पिकनिक स्पौट बनाना किसी लिहाज से सही नहीं है. उत्तराखंड में हाल ही में जो कुदरती कहर हुआ है, वह धार्मिक स्थलों के कौरिडोर बनाने के नाम पर ही हुआ है. पहाड़ों पर 4 लेन के हाईवे बनाने का क्या तुक है? पहाड़ों पर धमाके कर के निर्माण करना कुदरत को चुनौती देने जैसा है, जिसे वह स्वीकार कर लेती है और उत्तरकाशी के धराली जैसे गांव को लील जाती है.

Kanwar Yatra : श्रद्धा, सियासत और समाज का द्वंद्व

Kanwar Yatra : भारत एक ऐसा देश है जहां अंधविश्वास, आस्था और संस्कृति सदियों से अपनी जड़े जमाई बैठी है. यह जड़ें इतनी गहरी हैं कि इसे जब छेड़ा गया तो लोगों के खून बहे हैं. पूरी दुनिया में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहां धर्म सिर्फ पूजापाठ तक ही सिमित नहीं है बल्कि राजनीतिक रणनीति, समाजिक व्यवस्था और जनमानस की चेतना का हिस्सा है. हिंदू धर्म की जीवंत अभिव्यक्तियों में से एक है कांवड़ यात्रा. श्रावण मास में हर साल लाखों श्रद्धालु सुल्तानगंज एवं अन्य नदियों से जल ले कर देवघर के बाबा बैद्यनाथ में जल अर्पण करते हैं. इस के साथ ही वे इस दौरान पैदल कांवड़ यात्रा पर रहते हैं.

कहां से शुरू होती है कांवड़ यात्रा ?

कांवड़ यात्रा की शुरुआत बिहार के सुल्तानगंज में, गंगा उत्तरवाहिनी से बड़ी भारी मात्रा में श्रद्धालु बाबा बैद्यनाथ धाम के लिए जल भरते हैं. इस के साथ ही पूरे देश भर से लाखों श्रद्धालु अपने अपने गांव और शहर से कांवड़ ले कर निकलते हैं. कुछ मोटर साइकल से, कुछ ट्रेक्टरों से और ज्यादातर लोग पैदल ही बोल बम के जयघोष के साथ देवघर के लिए प्रस्थान करते हैं.

नियम के मुताबिक जल गिराते समय सभी कांवड़िए नंगे पांव होते हैं, चप्पल नहीं पहनते हैं, व्रत रखते हैं. इस के साथ ही धार्मिक अनुशासन का पालन करते हैं. लेकिन क्या सचमुच यह धार्मिक यात्रा का उदहारण है?

हर साल कांवड़ यात्रा से पहले शासन प्रशासन पूरी व्यवस्था करता है. सड़कों की मरम्मत की जाती, बिजली की व्यवस्था, पानी, चिकित्सा, पुलिस के साथ साथ आज कल ड्रोन कैमरों को भी ड्यूटी पर लगाया जाता है. इस के साथ ही कांवड़ियों के लिए विशेष रूट की व्यवस्था और यातायात प्रबंधन एवं शिविर, शौचालय, भोजन, लाउड स्पीकर व सजावट भी की जाती है.

झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा में प्रशासन के साथसाथ हिंदू संगठनों की भी भागीदारी रहती है. यात्रा मार्ग पर वीआईपी ट्रीटमेंट भी मिलता है. इस साल भी कांवड़ यात्रा के मद्देनजर कई हाइवे को वन-वे किया गया. इस वजह से आम लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है और एम्बुलैंस घंटों जाम में फंसी रहती है.

आस्था या शक्ति प्रदर्शन

हजारों की संख्या में कांवड़ यात्रा पर निकले समूह के पास पैसा कहां से आता है इस का सीधा और साफ जवाब है ‘चंदा’. स्थानीय दुकानदार, व्यापारी समूह, तथाकथित समाजसेवी और धर्म आधारित संगठन और राजनीतिक दल से चंदा इकट्ठा किया जाता है. इस के साथ ही अन्य लोग अपने पैसों पर कांवड़ यात्रा पर जाते हैं.

बड़ी संख्या में धार्मिक ट्रस्ट, अखाड़े, स्वयंसेवी संगठन और स्थानीय राजनेता भी कावड़ यात्रा को फंडिंग करते हैं. इस की वजह साफ है, क्योंकि धार्मिक यात्रा में भीड़ जुटा कर शक्ति प्रदर्शन करना होता है. चंदा देने वाले भीड़ में अपनी दुकान का बैनर या पार्टी का झंडा लगवा लेते हैं ताकि प्रचार भी हो और प्रभाव भी.

कावड़ यात्रा के खर्च का अनुमान लगाया जाए तो मोटे तौर पर एक शिविर में 50,000 से 5 लख रुपए तक का खर्च बैठता है. बड़े शहरों में भाव पंडाल, डीजे, लाइटिंग जनरेटर, भोजन, चिकित्सा आदि का कुल खर्च करोड़ में चला जाता है.

उत्तर भारत में कावड़ यात्रा का बजट अब दुर्गा पूजा या गणेश उत्सव जैसा हो चला है हाल के वर्षों में कुछ कावड़ यात्रा समितियां ने 40 से 50 लख रुपए तक का बजट घोषित किया है. सवाल यह उठता है कि यह आस्था है या धार्मिक बाजारवाद?

धर्म किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत श्रद्धा होती है, लेकिन जब यह सार्वजनिक शक्ति का प्रदर्शन बन जाए तो समस्याएं उत्पन्न होती है. कावड़ यात्रा के दौरान अब डीजे पर सिर्फ कांवरिया ही नहीं नाच रहे हैं बल्कि अब इस में अश्लील डांस भी पेश किया जा रहा है ताकि कांवड़ियों का मनोरंजन किया जा सके. 21 वीं सदी में लोग धर्म तो ठीक से मान नहीं पा रहे हैं लेकिन धार्मिक उन्माद उन के मस्तिस्क पर एक गहरा प्रभाव डाल चुकी है जिस वजह से आज धर्म कहीं का नहीं रह गया. धार्मिक उन्माद समाज में होना यह समाज के लिए सब से शर्मिंदगी की बात है. और इस से भी शर्मिंदगी की बात यह है कि लोग आजकल धार्मिक उन्माद का समर्थन भी कर रहे हैं. लेकिन लोगों को यह समझ नहीं आ रहा कि यही धार्मिक उन्माद उन की मौत की कारण बनती है, इस धार्मिक उन्माद में मौत की तस्वीर बनी महाकुंभ.

सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो आजकल वायरल है जिस में कावड़िया लाठी डंडे पुलिस की पिटाई कर देते हैं. वायरल वीडियो में यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि आस्था के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति को भी किस तरह नुकसान पहुंचाया जाता है.

क्या धर्म यही सिखाता है? क्या यही धर्म है? या फिर धार्मिक उन्माद की परिभाषा ही धर्म की परिभाषा है, एंबुलेंस रोकना, सड़क पर नाचना और लोगों को गालियां देना यह किस धर्म में जायज है.

धर्म क्या सिखाता है, लोग क्या करते हैं?

महादेव को भोला भंडारी कहते हैं. वे तपस्वी हैं और त्याग के प्रतीक हैं. उन की पूजा में संयम शांति, व्रत और साधना का स्थान है. लेकिन जब कावड़ यात्रा डीजे पर चल रहा है और ब्रांडेड कपड़े पहन कर सोशल मीडिया पर रील बनाए जा रहे हैं तब सवाल उठता है क्या यह भक्ति है या फैशन है?

धर्म आत्मचिंतन का रास्ता है, लेकिन सामूहिक जोश का जरिया बन गया है आजकल, कावड़ यात्रा मर्दानगी और धार्मिक वर्चस्व के साथसाथ मनोरंजन का भी प्रतीक बनती जा रही है. अगर लोग धर्म को मानना शुरू कर दें तो सही मायने में तो न जाति का झगड़ा रहेगा, न ऊंच नीच का झगड़ा रहेगा और न ही कालेगोरे का भेद रहेगा. धार्मिक किताबों में उन्माद का जिक्र कहीं भी नहीं है लेकिन फिर भी आजकल धार्मिक उन्माद को ही धर्म माना जा रहा है. मेनस्ट्रीम मीडिया ने भी धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

छतरपुर के एक बहुत बड़े पीठाधीश्वर पर्ची लिख कर सब का भूत, भविष्य, वर्तमान बता देते है और ऐसे टोनाटोटका बताते हैं कि जिस से सब का कल्याण हो जाता है. क्या धाम की पेशी लगाने से लोगों की परेशानियां खत्म हो जाएंगी? उन का कल्याण हो जाएगा और उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाएंगे? लोग इतने अंधविश्वासी कैसे हो सकते हैं? भगवान के नाम का इस्तेमाल कर आजकल बड़ा से बड़ा बिजनेस खड़ा किया जा रहा है. आज के बाबा कल के तथाकथित भगवान बनेंगे और उन के नाम पर यह धंधा जो आज करोड़ों में चल रहा है वह कल अरबों में चलेगा.

लोगों को कौन बरगला रहा है?

धार्मिक यात्रा अब केवल आस्था नहीं बल्कि राजनीतिक शक्ति के प्रदर्शन का माध्यम बन चुकी है. राजनीतिक दल में विशेष कर भाजपा, धर्म के नाम पर जन भावनाओं को भड़काती है. धार्मिक यात्रा में भाजपा शामिल होती है, नेताओं को मुख्य अतिथि बनती है और मीडिया के जगह इस महिमामंडित करती है. और इस का सीधा और स्पष्ट कारण यह है कि भाजपा को सत्ता में बने रहने के लिए यह करना ही पड़ेगा क्योंकि भाजपा विकास की राजनीति कर नहीं सकती क्योंकि विकास उन के आसपास भी नहीं भटकता है. भाजपा सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए काम करती है, जो उन की पार्टी को चंदा देते हैं अब इस में चाहे वह कंपनी बीफ एक्सपोर्ट करने का बिजनेस ही क्यों ना करती हो.

भाजपा की राजनीति विकास के नाम से कभी भी शुरू नहीं हुई थी उस का मुख्य एजेंडा धार्मिक उन्माद ही था. सरकार सड़कों अस्पतालों और स्कूलों के बजाय मंदिर, मूर्तियां, धार्मिक मार्ग और यात्राओं पर ज्यादा निवेश कर रही है. राम मंदिर, ब्रज यात्रा, कावड़ यात्रा और बुलडोजर, यह सभी एक ही दिशा में इशारा करते हैं कि धार्मिक यात्रा को मुख्य एजेंडा बना कर जनमानस को भावनात्मक रूप से नियंत्रित किया जाए.

धार्मिक यात्रा या न्याय यात्रा?

उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड व दिल्ली जैसे राज्यों में बेरोजगारी शिक्षा की गिरती स्थित महिला सुरक्षा महंगाई भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे प्रमुख हैं. लेकिन इन मुद्दों पर भाजपा कभी भी न्याय यात्रा नहीं निकलती. वह सिर्फ और सिर्फ धर्म की यात्रा पर जोर देती है.

आखिर कावड़ यात्रा को इतनी प्राथमिकता क्यों मिलती है किसी बेरोजगार के लिए कोई यात्रा क्यों नहीं निकलती? किसानों के अधिकारों के लिए कोई यात्रा क्यों नहीं निकलते बल्कि उन के लिए तो सड़के बंद कर दी जाती हैं. देश को न्याय की जरूरत है या धार्मिक यात्रा की जरूरत है यह अब देश के लोगों को तय करना होगा. धार्मिक यात्रा में पैसा फूंकना कितना सही है और विकास पर पैसा ना फूंकना कितना सही है. देश धार्मिक यात्राओं से आगे बढ़ेगा या इनोवेशन, स्टार्टअप, स्किल्स और शिक्षा से आगे बढ़ेगा? धरती खोदने से देश आगे बढ़ेगा या देश अपने लोगों को जोड़ कर आगे बढ़ेगा?

देश के सामने इस वक्त सब से बड़ी चुनौती है बेरोजगारी. 12वीं, ग्रेजुएशन यहां तक की पोस्ट ग्रेजुएट युवाओं को नौकरी नहीं मिल पा रही है. शिक्षा की गुणवत्ता गिर रही है स्टार्टअप्स को पूंजी नहीं, विचार नहीं और मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है. देश के प्रधानमंत्री ट्रंप के सामने कमजोर नजर आते हैं और विदेश नीति औंधेमुंह गिरी हुई है. डंका पीट कर और चिल्लाचिल्ला कर मेनस्ट्रीम मीडिया सिर्फ एक ही बात कह रहा है कि हम विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था बन गए हैं. लेकिन क्या मेनस्ट्रीम मीडिया यह बताया कि हम प्रेस फ्रीडम आफ इंडेक्स में कितने नंबर पर हैं? हम हंगर इंडेक्स में कितने नंबर पर है? और प्रति व्यक्ति आय के रूप में हमारा नंबर कितना है?

कावड़ यात्रा इस देश की समस्याओं का समाधान नहीं है, धार्मिक उन्माद से किसी का पेट नहीं भरने वाला. देश को चाहिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, रोजगार नीति, डिजिटल नवाचार और वैज्ञानिक सोच. देश को आगे बढ़ाने के लिए सरकार को इनोवेशन और तकनीकी विकास पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. सरकार को प्रोत्साहन अपने इंजीनियर, साइंटिस्ट और अपने युवाओं को देना चाहिए न कि धार्मिक यात्राओं को प्रोत्साहित करना चाहिए.

लोगों का साइंटिफिक टेम्परामेंट बढ़ाने की जरूरत है, उन्हें आर्थिक रूप से काबिल बनाया जाए. सरकार को धर्म का प्रचारप्रसार करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए, यह लोगों की निजी आस्था का विषय होना चाहिए.

धार्मिक यात्रा के लिए सड़कें खाली, लेकिन स्कूल बंद ?

दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और झारखंड में देखा गया की कावड़ यात्रा के लिए ट्रैफिक को रोका गया. सड़कें खाली करवाई गईं. कई जगहों पर स्कूल में अवकाश घोषित किया गया ताकि सड़क पर कांवड़ियां ही निकल सके. सरकार जितना त्वरित विकास कावड़ यात्रियों के लिए कर रही है शायद उतना ही त्वरित विकास सरकारी स्कूलों, सरकारी अस्पतालों और सरकारी सड़कों के लिए किया जाता तो बेहतर होता.

देश में आज भी ऐसे नक्सल प्रभावित कई गांव हैं जहां बिजली नहीं है, पानी नहीं है और वहां के आदिवासी आज भी जंगल पर ही निर्भर हैं और उसी से अपना जीवन यापन करते हैं. देश में शिक्षकों की भारी कमी है जिसे नहीं भरा जा रहा है. कांवड़ यात्रा भारतीय जनता पार्टी के लिए इसलिए भी स्पैशल है क्योंकि अगर कावड़ यात्रा में कहीं भी ऊंचनीच हो गई तो बिहार की सत्ता हाथ से जा सकती है और इसे और बेहतर इसलिए किया जा रहा है ताकि बिहार की जनता को यह विश्वास दिलाया जाए कि भाजपा नई धर्म की परिभाषा है. भाजपा धर्म की रक्षक है और भाजपा ही सनातन धर्म और सनातन धर्म के लोगों की कर्ताधर्ता है.

धर्म या शिक्षा: कौन सा रास्ता सही

कई लोगों का यह मानना है कि धर्म आत्मिक शांति देती है जो कि खुद को तस्सली देने भर की बात है. दरअसल, शिक्षा जीवन के संघर्ष में टिकने की ताकत देती है. शिक्षा से रोजगार, अधिकार, संविधान की समझ और स्वतंत्रता मिलती है. समाज के विकास के लिए जरूरी है कि धर्म को निजी आस्था तक ही सीमित रखा जाए और शिक्षा, विज्ञान, चिकित्सा और नवाचार को प्राथमिकता दी जाए.

वो ठीक है कि कावड़ यात्रा आस्था का प्रतीक है मगर इस पर राजनीतिक लाभ उठाना और धार्मिक उन्माद फैलाना सरासर रोका जाना चाहिए. सरकार को धार्मिक यात्राओं से अधिक सामाजिक विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पर ध्यान देना चाहिए. देश को चाहिए न्याय यात्रा, विकास यात्रा न कि धार्मिक यात्रा.

Skincare Routine : मेरे चेहरे का रंग डार्क हो रहा है, मेरी उम्र 24 साल है

Skincare Routine : पहले मेरा रंग साफ था. मैं खानेपीने, नहाने का ध्यान भी रखता हूं. ऐसा क्यों हो रहा है?

जवाब : आप ध्यान रखें कि धूप में जा रहे हैं तो सनस्क्रीन जरूर लगाएं. ज्यादा देर धूप में रहने से त्वचा में मेलानिन तत्त्व बढ़ जाता है जिस से रंग गहरा होने लगता है. पानी खूब पिएं. आप के खाने में अगर विटामिन सी, आयरन या अन्य पोषक तत्त्वों की कमी है तो त्वचा मुरझाई और डार्क दिखने लगती है. हरी सब्जियां, फल, खासकर पपीता, संतरा, अनार और मेवे, विटामिन युक्त चीजें लें. जंक फूड, ज्यादा तेलमसाले और मीठा कम करें.

पूरी नींद न लेना या मानसिक तनाव भी चेहरे की रंगत को प्रभावित करता है. रोजाना 7-8 घंटे की नींद लें. आधा टमाटर काट कर सीधे चेहरे पर रगड़ें.

10 मिनट बाद धो लें. इस में लाइकोपीन होता है जो स्किन ब्राइट करता है. अगर आप कैमिकल वाली क्रीम्स, ब्लीच या सस्ते प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल कर रहे हैं तो उस से त्वचा को नुकसान हो सकता है. और्गेनिक या डाक्टर द्वारा सुझाए उत्पादों का उपयोग करें. एलोवेरा, नीम, हल्दी युक्त फेसवाश बेहतर होता है.

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Parenting Teenagers : मेरा बेटा स्वभाव से बहुत चिड़चिड़ा है, उम्र 16 साल है

Parenting Teenagers : उसे खुद पर किया हुआ मजाक जरा भी पसंद नहीं आता और वह नाराज हो जाता है. पति तो औफिशियल टूर पर ज्यादातर बाहर रहते हैं. बेटे के सारे नखरे मां के नाते मुझे ही उठाने पड़ते हैं. उस के चिड़चिड़ेपन से कई बार बहुत परेशान हो जाती हूं. क्या करूं?

जवाब : 16 साल की उम्र में बच्चे अकसर संवेदनशील हो जाते हैं. अपने बेटे से शांत माहौल में बात करें. हो सकता है कि उस के मन में कोई दबाव, चिंता या असुरक्षा हो, जिसे वह ठीक से व्यक्त नहीं कर पा रहा हो. फ्रैंडली हो कर उस से बात करें.

हालांकि आप के पति ज्यादातर बाहर रहते हैं, फिर भी उन्हें इस स्थिति से अवगत कराएं. अगर संभव हो तो वीडियो कौल के जरिए बेटे से नियमित रूप से बात करवाएं. उस से बेटे को एहसास होगा कि वे भी उस की परवा करते हैं. पिता की मौजूदगी उसे इमोशनली स्टेबल करने में मदद कर सकती है.

अगर उसे अपने ऊपर मजाक पसंद नहीं तो घर में यह नियम बना दें कि कोई भी किसी का अपमानजनक मजाक नहीं उड़ाएगा, खासकर उस के सामने. उसे सुरक्षित महसूस कराना जरूरी है.

उस की दिनचर्या तय करें. नियमित नींद, संतुलित भोजन, मोबाइल, वीडियो गेम की सीमित समयसीमा और थोड़ीबहुत शारीरिक गतिविधि जैसे मौर्निंग वाक या साइक्ंिलग से उस के मूड में सुधार हो सकता है.

आप हर समय उस के मूड को संभाल नहीं सकतीं. आप एक मां हैं लेकिन एक इंसान भी हैं. जब बहुत तनाव लगे तो थोड़ी देर खुद को समय दें. किताब पढ़ें, किसी दोस्त से बात करें, टहलने जाएं.

धीरेधीरे संवाद, प्यार और अनुशासन से आप अपने बेटे के साथ बेहतर रिश्ता बना सकती हैं.

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Family Problem : मुझे भाभी के साथ पति का हंसीमजाक करना पसंद नहीं

Family Problem : हमारी शादी हुए 3 साल हो चुके हैं. अभी तक संतान नहीं हुई. पति अकसर शाम को अपने बड़े भाई के घर खानेपीने चले जाते हैं. भाभी भी उन के साथ शराब पीती है, और वे लोग खुल कर हंसीमजाक, नौनवेज जौक्स सुनाते हैं. मैं पति को वहां आएदिन जाने के लिए मना करती हूं तो वे कहते हैं, तुम भी चलो. लेकिन मुझे शराब पीना बिलकुल पसंद नहीं, न ही मुझे उस घर का माहौल अच्छा लगता है. भाभी का मेरे पति के साथ खुला व्यवहार मुझे खलता है, कभीकभी दोनों पर शक भी होता है. मैं क्या करूं कि जिस से पति वहां जाना कम कर दें?

जवाब : आप की चिंता बिलकुल स्वाभाविक है. किसी भी पत्नी का पति अगर इस तरह किसी और महिला (चाहे वह रिश्तेदार ही क्यों न हो) के साथ ज्यादा समय बिताए तो असहजता होना लाजिमी है. अपने पति से लड़ाई झगड़े के बिना बहुत शांति और प्यार से अपनी बात रखें. आप कह सकती हैं कि मैं चाहती हूं कि तुम अपने भाई से मिलो, लेकिन आएदिन वहां जाना और उस माहौल में समय बिताना मुझे अच्छा नहीं लगता.

पति के नजरिए को भी समझें उन से पूछें कि वे भाई के घर क्यों जाना पसंद करते हैं. उन की बात सुनें और फिर कोई ऐसा रास्ता निकालें जो आप को भी पसंद हो जैसे कि साथ में बाहर घूमने जाना, घर पर कोई खास समय बिताना जैसे फिल्म देखना या साथ में खाना बनाना. इस से उन की जरूरत भी पूरी होगी और आप भी सहज रहेंगी.

अगर आप को भाईभाभी के घर जाना पसंद नहीं तो उन्हें अपने घर बुलाएं. वे आप के घर पर मेहमान बन कर आएंगे तो उन्हें अपने हिसाब से खिलाएंपिलाएं, जिस में आप कंफर्टेबल महसूस करेंगी.

बच्चा न होना भी मानसिक दबाव और रिश्तों में दूरी का कारण बन सकता है. आप दोनों को मिल कर डाक्टर से मिलना चाहिए ताकि पता चल सके कि समस्या क्या है.

इस रिश्ते को बचाने के लिए संवाद सब से जरूरी है. अपने मन की बात दबाइए मत, समय और समझदारी का सहारा लीजिए. और हां, खुद की भावनाओं और आत्मसम्मान की अनदेखी मत कीजिए. अपने मानसिक स्वास्थ्य का खयाल रखें. किसी भरोसेमंद फ्रैंड या बहन से भी बात कर सलाह ले सकती हैं. यदि संभव हो तो विवाह सलाहकार से मिल कर बातचीत करें. कई बार तीसरे पक्ष की सलाह से चीजें साफ हो जाती हैं.

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Family Story In Hindi : सोचा न था – क्यों पछता रही थी सुरभि

Family Story In Hindi : ‘बेटी है. एक दिन पराए घर जाना है, अभी तो सब सुखसुविधाएं भोग ले.’ यही सब सोच कर सुरभि को छूट देती रही थी सुनंदा लेकिन उस के प्यारलाड़ का यह नतीजा निकलेगा किस ने सोचा था.

सुबह 9 बजे डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करते हुए आलोक को गंभीर, चिंतामग्न देख कर सुनंदा ने पूछा, ‘‘क्या सोच रहे हो?’’ गहरी सांस लेते हुए कुछ न कह कर आलोक चुपचाप चाय पीते रहे.
‘‘बताओ, परेशान लग रहे हो, कुछ तो है.’’
बेहद गंभीर स्वर में आलोक ने कहा, ‘‘मैं रात में 3 बजे उठा था, बच्चों के कमरे की लाइट जलती देख जा कर देखा, तुम्हारी लाड़ली लैपटौप पर कुछ देख रही थी. मैं उसे डांटने वाला था लेकिन चुपचाप वापस आ गया वरना सौरभ की नींद डिस्टर्ब हो जाती. तुम्हारी लाडली की वजह से वैसे भी रात को उस की नींद खराब होती रहती है. तुम्हारी ही जिद पर मैं ने सुरभि को लैपटौप ले कर दिया था कि उसे प्रोजैक्ट बनाने होते हैं. मैं ने तो लैपटौप पर उसे हमेशा कोई न कोई शो ही देखते देखा है.’’
सुनंदा चुप रही, जानती है कि सुरभि को रात में कोई न कोई शो देखने का चस्का लग गया है. वह भी गुस्सा होती है पर जब सुरभि का चेहरा देखती है, उसे डांटने का मन नहीं करता.
आलोक फिर बोले, ‘‘मुझे उस की आदतें बिलकुल पसंद नहीं हैं, फिर कह रहा हूं, उसे समझाओ कि यह कैरियर बनाने का समय है.’’
‘‘हां, समझाऊंगी उसे.’’
‘‘तुम समझ चुकीं,’’ कह कर आलोक औफिस चले गए.
सुनंदा रोज के काम निबटाती हुई बच्चों के रूम में गई. स्कूल जाने से पहले सौरभ रोज की तरह अपना सारा सामान संभाल कर रख गया था लेकिन पूरे कमरे में सुरभि का सामान यहांवहां बिखरा पड़ा था. सीख लेगी, बच्ची ही तो है, सोच कर सुनंदा ने ही रोज की तरह उस का सामान संभाला पर साथ ही साथ यह भी सोच रही थी, सौरभ से 3 साल बड़ी है सुरभि पर दोनों के स्वभाव, आदतों में जमीनआसमान का अंतर है. कोई बात नहीं, सब सीख ही लेती हैं लड़कियां समय के साथ.

दोनों स्कूल से 4 बजे तक वापस आए. सुरभि आते ही शुरू हो गई, ‘‘क्या बोरिंग जगह है स्कूल, कितनी बोरियत होती है क्लास में बैठेबैठे. मैं तो आज आखिर के तीन पीरियड लाइब्रेरी में छिप कर नौवेल ही पढ़ती रही.’’
‘‘क्या?’’
‘‘हां मां, बिलकुल मन नहीं कर रहा था पढ़ने का.’’
‘‘एक दिन तो ठीक है, अब रोजरोज यह मत करना.’’
‘‘क्या फर्क पड़ जाएगा, किसी फ्रैंड से नोट्स ले लूंगी.’’
‘‘नहीं बेटा, पढ़ाई पर ध्यान दो, तुम रात में शो क्यों देख रही थीं, तुम्हारे पापा बहुत नाराज हैं तुम से.’’
‘‘उन्हें तो मेरी हर बात पर गुस्सा आता है.’’
‘‘पर 2 महीने बाद ही तो तुम्हारी 12वीं की बोर्ड परीक्षाएं हैं, अब पढ़ना ही चाहिए.’’
‘‘मां, मुझे मत बताओ मुझे क्या करना है, जब मन होगा, पढ़ लूंगी.’’
सौरभ इस बीच फ्रैश हो कर अपना हर सामान यथास्थान रख टेबल पर रखा दूध और नाश्ता खा कर खेलने जाने की तैयारी करने लगा. बीचबीच में सुनंदा को अपने टैस्ट के नंबर बताता जा रहा था. पूरे ड्राइंगरूम में सुरभि के जूते, मोजे, बैग, रिबन फैले थे. सुनंदा ने कहा, ‘‘सुरभि, आज से अपना सामान तुम ही रखोगी.’’
‘‘प्लीज मां, आप ही रख दो न,’’ कहते हुए सुनंदा के गले में बांहें डाल कर चिपट गई तो सुनंदा हमेशा की तरह पिघलती चली गई, ‘‘अच्छा, ठीक है.’’
‘‘मेरी प्यारी मम्मा,’’ कह कर टीवी देखते हुए नाश्ता करने लगी. सुरभि 5 बजे सोने के लिए लेट गई. आलोक 6 बजे औफिस से आए, पूछा, ‘‘बच्चे कहां हैं?’’
‘‘सौरभ खेलने गया है, सुरभि सो रही है.’’
‘‘इस समय उसे मत सोने दिया करो, रात में सोने या पढ़ने के बजाय लैपटौप पर बैठी रहती है या फोन रहता है हाथ में. पता नहीं मैं ने तुम्हारे कहने पर लैपटौप और फोन क्यों खरीद कर दे दिया?’’
‘‘आप चिंता मत करो, पढ़ लेगी. अभी आराम करने दो उसे.’’
‘‘जीवन में वह आराम ही तो कर रही है.’’
सुरभि साढ़े 6 बजे सो कर उठी, फिर टीवी देखने बैठ गई. आलोक ने कहा, ‘‘सुरभि, अब पढ़ाई पर ध्यान दो, बहुत कम समय बचा है.’’
‘‘पढ़ लूंगी, पापा, अभी बहुत दिन है.’’ सौरभ आ कर होमवर्क करने को बैठ चुका था. आलोक ने कहा, ‘‘सुरभि, अब मैं तुम्हें लैपटौप पर या फोन पर टाइम खराब करते न देखूं, समझे?’’
‘‘मम्मी, देखो न.’’
‘‘अरे, पढ़ लेगी, 10वीं में भी तो उस के 95 फीसदी मार्क्स आए थे.’’
‘‘हां, तब वह पढ़ती थी, उस का दिमाग तेज है, जानता हूं पढ़ेगी तो अच्छे मार्क्स ही आएंगे पर पढ़े तो, मैं तो उसे हमेशा टाइम खराब करते ही देखता हूं.’’
‘‘अच्छा, अभी यह टौपिक बंद करो, सुरभि अब पढ़ना शुरू करो,’’ सुनंदा ने कहा तो सुरभि का मुंह लटक गया, ‘‘मम्मी, आप भी पापा की तरह शुरू हो गईं.’’ सुनंदा फिर नरम पड़ गई, ‘‘अच्छा, चलो, यह टौपिक अब खत्म करो.’’ आलोक ने सुनंदा को नाराज निगाहों से देखा जिसे नजरअंदाज कर सुनंदा किचन में चली गई.

सुनंदा किचन में काम करते हुए सोचती रही कि उस ने दोनों बच्चों की परवरिश में रातदिन एक किए हैं, उच्चशिक्षित होते हुए भी सिर्फ बच्चों पर ध्यान देने के लिए कभी कहीं जौब करने की भी नहीं सोची. दोनों बच्चों को एकजैसे प्यार और देखरेख से पाला है, फिर दोनों बच्चों में इतना फर्क क्यों है. सुरभि जहां हर बात में निराश करती है वहीं सौरभ की हर आदत, हर बात प्रशंसनीय है. पर हां, जब सुरभि की बात होती है, वह सचमुच उस का जायजनाजायज साथ देती है, हर बार यही सोच लेती है, लड़की है, कल विवाह कर चली जाएगी, फिर कहां, कैसे रहेगी, क्या पता, कम से कम यहां तो हर सुखसुविधा में पलेबढ़े.

परीक्षा के एक महीने पहले सुरभि ने ऐलान किया, ‘‘मुझे मैथ्स की ट्यूशन चाहिए.’’ आलोक चौंक पड़े, ‘‘अब? जब सारे बच्चे आराम से रिवीजन कर रहे हैं, तुम्हें ट्यूशन याद आई? मैं ने तुम से कितनी बार पूछा था, तुम ने यही कहा कि मैं सब कर लूंगी, अब क्या हो गया?’’
‘‘बाकी लोगों ने जहां ट्यूशन लगाई थी वहां 7 बजे का टाइम था, ट्यूशन के लिए मुझे इतनी सुबह नहीं उठना था.’’ आलोक को बहुत तेज गुस्सा आया, सुनंदा ने फौरन बात संभाली, ‘‘चलो, जो हो गया सो हो गया. अब कहां और कब हैं क्लासेज?’’
‘‘अब 10 बजे का टाइम है.’’ आलोक को किसी तरह समझबुझ कर सुनंदा ने फीस जमा करवा दी पर अब भी सुरभि का आलसी, लापरवाह स्वभाव बना रहा. अकसर ट्यूशन का टाइम निकल जाता. सुनंदा उसे उठाउठा कर थक जाती पर सुरभि के कानों पर जूं न रेंगती. 1 महीने में 15 दिन ही गई.
सुरभि के तौरतरीके देख आलोक सिर पकड़ लेते. दिनरात टोकने पर जितना पढ़ती, उस से 65 फीसदी मार्क्स ही आए. आलोक और सुनंदा को बहुत निराशा हुई. आलोक ने कहा, ‘‘बच्चे रातदिन आगे बढ़ते हैं और यह 95 फीसदी से 65 फीसदी पर पहुंच गई. सारी सुखसुविधा मिली हुई है, मां आगेपीछे घूमती है, घर में पढ़ने के अलावा कोई काम नहीं रहता फिर भी मेहनत से भागती है. कोई औसत स्टूडैंट होती तो बात और थी. दिमाग तेज होते हुए भी जो न पढ़े, उस का क्या किया जा सकता है.’’
सुरभि ने झट से जवाब दिया, ‘‘पापा, मैं खुश हूं अपने नंबरों से. आप को कुछ ज्यादा ही उम्मीद रहती है तो मैं क्या करूं.’’
‘‘हां, तो अपनी बेटी के भविष्य के लिए कुछ उम्मीद करता हूं तो क्या बुरा है.’’
सुनंदा हमेशा की तरह यह बहस बंद करवा कर आलोक को ही समझती रही.

बचपन से ही सुरभि का पांच दोस्तों का ग्रुप था, उस में 2 लड़के थे. 12वीं के बाद सब अलगअलग कालेज में चले गए थे. अब वीकैंड पर ही मिलते थे. सब आसपास की सोसाइटी में ही रहते थे. अब तो स्लीपओवर भी शुरू हो गया था, किसी एक के घर रात में रुक कर मूवी देखते, खातेपीते और बातें करते. अकसर यह प्रोग्राम शनिवार की रात को होता था. सुबह अपनेअपने घर पहुंच कर दिनभर सोते.

आलोक ने कहा, ‘‘सुनंदा, यह स्लीपओवर का चक्कर मुझे पसंद नहीं है. बच्चे दिन में जितना मिलें, घूमेफिरें पर रात को क्या किसी के घर में रुकते हैं?’’
‘‘अब जमाना बदल गया है, आलोक. हर बात के लिए बच्चों को टोकना अच्छा नहीं. सब को जानते ही हैं हम. सब अच्छे घरों के अच्छे बच्चे हैं.’’
‘‘जमाना कितना भी बदल जाए, बच्चों की फिक्र तो होती ही है न.’’
‘‘तुम चिंता मत करो, कहीं कुछ गलत नहीं है.’’
सुरभि ने बीएमएम के लिए एडमिशन लिया था. वहां भी सुरभि का पढ़ने में मन नहीं लग रहा था. आलोक उस के गिरते ग्राफ पर बहुत चिंतित थे. सुनंदा का कहना था, ‘‘कर लेगी धीरेधीरे सब. अब हर बच्चा तो टौप नहीं कर सकता न.’’
‘‘सुनंदा, ऐसा नहीं है कि उस का दिमाग कमजोर है. उस का दिमाग तेज है, इसलिए उस के खराब नंबर मुझ से सहन नहीं होते और एक सौरभ है, अपने स्वभाव, हर आदत में एक शानदार बच्चा. उसे पढ़ने के लिए कहने की भी जरूरत नहीं पड़ती. उस की फर्स्ट पोजीशन लगातार बनी हुई है. सुरभि ने आलस, कामचोरी की हद कर रखी है.’’
सुनंदा भी इस बार गंभीर थी. वह भी तो थकने लगी थी. उसे चुप देख आलोक ने फिर कहा, ‘‘तुम उसे बहुत लाड़प्यार करती हो, सुनंदा. उसी का फायदा उठाती है वह. क्या किया जाए, तुम उस की साइड ले कर खड़ी हो जाती हो.’’
इस के बाद काफी सोचविचार के बाद सुनंदा ने सुरभि से बातें कीं. लैपटौप पर देखे गए शोज, मूवीज, किस ने क्या ट्वीट किया, यही सब सुरभि के शौक थे. उस की दुनिया यही चीजें थीं. वह अपने चार दोस्तों को छोड़ कर बाकी सब की कमियां गिनाती. वह अपनेआप को बिलकुल परफैक्ट समझने वाली एक जिद्दी व गुस्सैल लड़की हो चुकी थी. पिता का जिक्र छिड़ते ही चिढ़ जाती, ‘‘मम्मी, आप पापा की बात तो रहने ही दो. उन्हें तो मुझ में बस कमियां ही दिखती हैं.’’
‘‘पर बेटा, वे तुम्हारे दुश्मन तो हैं नहीं.’’
‘‘बातें तो वे वैसी ही करते हैं, उन्हें मेरा चैन से जीना पसंद ही नहीं है.’’

जब भी सुरभि को समझने की कोशिश की जाती, घर का माहौल खराब हो जाता. सुनंदा सिर पकड़ लेती. सौरभ पर भी सुरभि चिल्ला पड़ती, मां से भाई की भी बुराई, शिकायतें करने के लिए उस के पास बहुत सी निरर्थक बातें थी. उस का मन होता तो कालेज जाती नहीं, दिनभर आराम करती. रात में फिर ही चीजें ले कर बैठ जाती. मातापिता दिनरात क्या कह रहे हैं, इस की चिंता नहीं थी उसे. किस सैलिब्रिटी ने क्या ट्वीट किया है, उस में ज्यादा रुचि थी. सुनंदा अकसर परेशान हो जाती, कहां गलती हो गई, यह क्या होता जा रहा था.
एक दिन सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी, कालेज के एक नए दोस्त ने हम 15 लोगों को बर्थडे पार्टी पर बुलाया है, डिनर पर.’’
‘‘कहां?’’
‘‘एक क्लब में.’’
‘‘नहीं जाना है.’’
‘‘मम्मी, प्लीज, कभी इस तरह कहीं नहीं गई. लड़कियां तो पता नहीं कहांकहां घूमती हैं, जाने दो न.’’
‘‘नहीं, तुम्हारे पापा मना करेंगे.’’
‘‘उन्हें मत बताना, मम्मी, प्लीज, प्लीज, आप ही तो मेरी हर बात समझती हैं, प्लीज, जाने दो न,’’ कह कर सुरभि सुनंदा से चिपट ही गई. सुरभि का प्लीजप्लीज जारी रहा तो सुनंदा ढीली पड़ गई, बोली, ‘‘मुझे सोचने दो.’’
‘‘नहीं, मां, मैं जा रही हूं, बस. पापा पूछेंगे तो बता देना कि आज रिया के घर में स्लीपओवर है.’’
‘‘तो क्या तुम सुबह आओगी?’’
‘‘ओह, नहीं, आप कहना रिया के घर डिनर है, लेट आएगी, चाबी ले कर गई है.’’ सुनंदा ने बेमन से ही सही, हां में सिर हिला दिया. पता था अब वह जा कर ही मानेगी. ज्यादा मना किया तो झुठ बोलना शुरू कर देगी. सौरभ इस समय घर पर नहीं है, सुरभि तैयार हो कर निकल गई.
आलोक ने पूछा तो सुनंदा ने झुठ बोल दिया. साढ़े 10 बजे के आसपास आलोक और सुनंदा सोने लेट गए. सौरभ भी सोने के लिए लेट चुका था.
आलोक ने कहा, ‘‘सुनंदा, तुम ने सुरभि को कुछ ज्यादा ही छूट दे रखी है.’’ सुनंदा चुप ही रही.
‘‘और यह स्लीपओवर तो मुझे बिलकुल ही पसंद नहीं है.’’ सुनंदा अब भी चुप ही रही. उस का मन आज उदास था. पहली बार आलोक से झुठ बोलने का अपराधबोध उसे खा रहा था. वह बेटी के लाड़प्यार के हाथों सचमुच मजबूर हो गई थी.

आंख लगी ही थी कि घर का लैंडलाइन फोन बज उठा. रात के सन्नाटे में असमय फोन की घंटी से आलोक को कुछ चिंता सी हुई. वे भागे, फोन उठाया. उधर से जो भी कहा गया, आलोक के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. वे बुत बने सुनंदा को आते देखते रहे और ‘हम आ रहे हैं,’ कह कर फोन रख दिया. सुनंदा अब घबराई, क्या हुआ?’’ आलोक कुछ नहीं बोले, ?ाटके से उठ कर कमरे में गए और जल्दीजल्दी कपड़े बदलने लगे. सुनंदा पीछेपीछे आई, ‘‘क्या हुआ, बताओ न, आलोक.’’
‘‘तुम्हारी लाड़ली जिस पार्टी में गई थी, वहां रेड की है पुलिस ने, ड्रग्स मिले हैं बच्चों के पास, पुलिस सब को थाने ले गई है, वहीं से फोन था,’’ कहते हुए आलोक ने जलती निगाहों से सुनंदा को घूरा. वह अपमानित, शर्मिंदा सी बिलखबिलख कर रो पड़ी.
‘‘अब मांबेटी खुश हो न, ऐसा कुछ तो होना ही था.’’
‘‘मैं भी चल रही हूं.’’
‘‘नहीं, तुम रहने ही दो.’’
‘‘प्लीज,’’ कह कर रोती हुई सुनंदा झटपट कपड़े बदल कर बोली, ‘‘सौरभ को उठा दूं?’’
‘‘नहीं, उसे सोने दो, बहन की करतूत पता न चले तो ही अच्छा है.’’

आलोक के पीछेपीछे चल पड़ी सुनंदा. उस की आंखों से पश्चात्ताप के आंसू बहे चले जा रहे थे. वह बारबार आलोक से माफी मांग रही थी. कार में बैठते हुए भी बारबार एहसास हो रहा था कि ये सब उसी के जरूरत से ज्यादा लाड़प्यार के कारण हुआ है.

जरूरत से ज्यादा खादपानी से तो पौधा भी गल जाता है. सुरभि अभी तक ड्रग्स वगैरह के चक्करों से दूर है, यह विश्वास तो था सुनंदा को लेकिन बात यहां तक पहुंचेगी, यह तो आशा भी न थी. अनावश्यक लाड़प्यार का यह परिणाम सामने आएगा, ऐसा तो कभी सोचा ही न था. Family Story In Hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें