लेखिका– सरिता भूषण

शाम के 4 बजे थे, लेकिन आसमान में घिर आए गहरे काले बादलों ने कुछ अंधेरा सा कर दिया था. तेज बारिश के साथ जोरों की हवाएं और आंधी भी चल रही थी. सामने के पार्क में पेड़ घूमतेलहराते अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे थे.

सुशांत का मन हुआ कि कमरे के सामने की बालकनी में कुरसी लगा कर मौसम का लुत्फ उठाया जाए, लेकिन फिर उन्हें लगा कि नीरजा का कमजोर दुर्बल शरीर तेज हवा सहन नहीं कर पाएगा.

उन्होंने नीरजा की ओर देखा. वह पलंग पर आंखें मूंद कर लेटी हुई थी.

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सुशांत ने नीरजा से पूछा, ‘‘अदरक वाली चाय बनाऊं, पियोगी?’’

अदरक वाली चाय नीरजा को बहुत पसंद थी. उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुसकराई, ‘‘मोहन से कहिए ना वह बना देगा,’’ उखड़ती सांसों से वह इतना ही कह पाई.

‘‘अरे मोहन से क्यों कहूं, यह क्या मुझ से ज्यादा अच्छी चाय बनाएगा, तुम्हारे लिए तो चाय मैं ही बनाऊंगा,’’ कह कर सुशांत किचन में चले गए. जब वह वापिस आए तो ट्रे में 2 कप चाय के साथ कुछ बिसकुट भी रख लाए, उन्होंने सहारा दे कर नीरजा को उठाया और हाथ में चाय का कप पकड़ा कर बिसकुट आगे कर दिए.

‘‘नहीं जी… कुछ नहीं खाना,’’ कह कर नीरजा ने बिसकुट की प्लेट सरका दी.

‘‘बिसकुट चाय में डुबो कर…’’ उन की बात पूरी होने से पहल ही नीरजा ने सिर हिला कर मना कर दिया.

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नीरजा की हालत देख कर सुशांत का दिल भर आया. उस का खानापीना लगभग न के बराबर हो गया था. आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे हो गए थे, वजन एकदम घट गया था. वह इतनी कमजोर हो गई थी कि उस की हालत देखी नहीं जाती थी. स्वयं को अत्यंत विवश महसूस कर रहे थे, अपनी किस्मत के आगे हारते चले जा रहे थे सुशांत.

कैसी विडंबना थी कि डाक्टर हो कर उन्होंने ना जाने कितने मरीजों को स्वस्थ किया था, किंतु खुद अपनी पत्नी के लिए कुछ नहींं कर पा रहे थे. बस धीरेधीरे अपने प्राणों से भी प्रिय पत्नी नीरजा को मौत की ओर जाते हुए भीगी आंखों से देख रहे थे.

सुशांत के जेहन में वह दिन उतर आया, जिस दिन वह नीरजा को ब्याह कर अपने घर ले आए थे.

अम्मां अपनी सारी जिम्मेदारियां बहू नीरजा को सौंप कर निश्चित हो गई थीं. कोमल सी दिखने वाली नीरजा ने भी खुले दिल से अपनी हर जिम्मेदारी को पूरे मन से स्वीकारा और किसी को भी शिकायत का मौका नहीं दिया.

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उस के सौम्य व सरल स्वभाव ने परिवार के हर सदस्य को उस का कायल बना दिया था. सारे सदस्य नीरजा की तारीफ करते नहीं थकते थे.

सुशांत उन दिनों मैडिकल कालेज में लेक्चरार के पद पर थे, साथ ही घर के अहाते में एक छोटा सा क्लिनिक भी खोल रखा था. स्वयं को एक योग्य व नामी डाक्टर के रूप में देखने की व शोहरत पाने की उन की बड़ी दिली तमन्ना था.

घर का मोरचा अकेली नीरजा पर डाल कर वह सुबह से रात तक अपने कामों में व्यस्त रहते. नईनवेली पत्नी के साथ प्यार के मीठे पल गुजारने की फुरसत उन्हें ना थी… या फिर शायद सुशांत ने जरूरत ही नहीं समझी.

या यों कहिए कि ये अनमोल क्षण उन दोनों की ही किस्मत में नहीं थे, उन्हें लगता था कि नीरजा को तमाम सुखसुविधा व ऐशोआराम में रख कर वह पति होने का फर्ज बखूबी निभा रहे हैं, जबकि सच तो यह था कि नीरजा की भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति से उन्हें कोई सरोकार नहीं था.

नीरजा का मन तो यही चाहता था कि सुशांत उस के साथ सुकून व प्यार के दो पल गुजारे. वह तो यह भी सोचती थी कि सुशांत मेरे साथ जितना भी समय बिताएंगे, उतने ही पल उस के जीवन के अनमोल पल कहलाएंगे, लेकिन अपने मन की यह बात सुशांत से कभी नहीं कह पाई, जब कहा तब सुशांत समझ नहीं पाए और जब समझे तब बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त के साथसाथ सुशांत की महत्त्वाकांक्षा भी बढऩे लगी. अपनी पुश्तैनी जायदाद बेच कर और सारी जमापूंजी लगा कर उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त नर्सिंगहोम खोल लिया.

नीरजा ने तब अपने सारे गहने उन के आगे रख दिए थे. हर कदम पर वह सुशांत का मौन संबल बनी रही. उन के जीवन में एक घने वृक्ष सी शीतल छांव देती रही. सुशांत की मेहनत रंग लाई, कुछ समय बाद सफलता सुशांत के कदम चूमने लगी थी. कुछ ही समय में उन के नर्सिंगहोम का काफी नाम हो गया, वहां उन की व्यस्तता इतनी बढ़ गई कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सिर्फ अपने नर्सिंगहोम पर ही ध्यान देने लगे.

इस बीच नीरजा ने भी रवि और सुनयना को जन्म दिया और वह उन की परवरिश में ही अपनी खुशी तलाशने लगी. जिंदगी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चल रही थी.

सुशांत के लिए उस का अपना काम था और नीरजा के लिए उस के बच्चे व सामाजिकता का निर्वाह. अम्मांबाबूजी के देहांत और ननद की शादी के बाद नीरजा और भी अकेलापन महसूस करने लगी. बच्चे भी बड़े हो कर अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए थे. सुशांत के लिए पत्नी का अस्तित्व सिर्फ इतना भर था कि सुशांत समयसमय पर उसे ज्वेलरी, कपड़े गिफ्ट कर देते थे. नीरजा का मन किस बात के लिए लालायित था, यह जानने की सुशांत ने कभी कोशिश नहीं की.
जिंदगी ने सुशांत को एक मौका दिया था, कभी कोई फरमाइश न करने वाली उन की पत्नी नीरजा ने एक बार उन्हें अपने दिल की गहराइयों से वाकिफ भी कराया था, लेकिन वे ही उस के दिल का दर्द और आंखों के सूनेपन को अनदेखा कर गए थे.

उस दिन नीरजा का जन्मदिन था. उन्होंने प्यार जताते हुए उस से पूछा था, ‘बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या तोहफा लाया हूं?’ तब नीरजा के चेहरे पर फीकी सी मुसकान आ गई थी. उस ने धीमी आवाज में बस इतना ही कहा, ‘‘तोहफे तो आप मुझे बहुत दे चुके हो, अब तो बस आप का सान्निध्य मिल जाए… ‘‘

सुशांत बोले, “वह भी मिल जाएगा, सिर्फ कुछ साल मेहनत कर लूं और अपनी और बच्चों की लाइफ सेटल कर लूं, फिर तो तुम्हारे साथ समय ही समय गुजारना है,’’ कहते हुए सुशांत ने नीरजा को एक कीमती साड़ी का पैकेट थमा कर काम पे चला गया.

नीरजा ने फिर भी कभी सुशांत से कुछ नहीं कहा था. रवि भी सुशांत के नक्शेकदम पर चल कर डाक्टर ही बना. उस ने अपनी कलीग गीता से विवाह की इच्छा जाहिर की, जिस की उसे सहर्ष अनुमति भी मिल गई.

अब सुशांत को बेटेबहू का सहयोग भी मिलने लगा, फिर सुनयना का विवाह भी हो गया. सुशांत व नीरजा अपनी जिम्मेदारी से निवृत्त हो गए, लेकिन परिस्थिति आज भी पहले की ही तरह थी.

नीरजा अब भी सुशांत के सान्निध्य को तरस रही थी, लेकिन सुशांत कुछ वर्ष और काम करना चाहते थे, अभी और सेटल होना चाहते थे.
शायद सबकुछ इसी तरह चलता रहता, अगर नीरजा बीमार न पड़ती.

एक दिन जब सब लोग नर्सिंगहोम में थे, तब नीरजा चक्कर खा कर गिर पड़ी. घर के नौकर मोहन ने जब फोन पर बताया, तो सब घबड़ा कर घर आए, फिर शुरू हुआ टेस्ट कराने का सिलसिला, जब रिपोर्ट आई तो पता चला कि नीरजा को ओवेरियन कैंसर है.

सुशांत यह सुन कर घबरा गए, मानो उन के पैरों तले जमीन खिसकने लगी. उन्होंने अपने मित्र कैंसर स्पेशलिस्ट डा. भागवत को नीरजा की रिपोर्ट दिखाई. उन्होंने देखते ही साफ कह दिया, ‘‘सुशांत, तुम्हारी पत्नी को ओवेरियन कैंसर ही हुआ है. इस में कुछ तो बीमारी के लक्षणों का पता ही देरी से चलता है और कुछ इन्होंने अपनी तकलीफें छिपाई होंगी, अब तो इन का कैंसर चौथे स्टेज पर है, यह शरीर के दूसरे अंगों तक भी फैल चुका है, चाहो तो सर्जरी और कीमियोथेरेपी कर सकते हैं, लेकिन कुछ खास फायदा नहीं होने वाला. अब तो जो शेष समय है इन के पास, उस में ही इन को खुश रखो.’’

यह सुन कर सुशांत को लगा कि उस के हाथपैरों से दम ही निकल गया है. उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि नीरजा इतनी जल्दी इस तरह उन्हें दुनिया में अकेली छोड़ कर चली जाएगी. वह तो हर वक्त एक खामोश साए की तरह उन के साथ रहती थी. सुशांत की हर छोटी जरूरतों को उन के कहने के पहले ही पूरा कर देती थी. फिर यों अचानक उस के बिना…

अब जा कर सुशांत को लगा कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कितनी बड़ी गलती कर दी थी. नीरजा के अस्तित्व की कभी कोई कद्र नहीं की, उसे कभी महत्त्व ही नहीं दिया सुशांत ने, उन के लिए तो वह बस एक मूक सहचरी ही थी, जो उन की जरूरत के लिए हर वक्त उन की नजरों के सामने मौजूद रहती थी, इस से ज्यादा कोई अहमियत नहीं दी सुशांत ने नीरजा को.

आज प्रकृति ने न्याय किया था. सुशांत को अपनी की हुई गलतियों की कड़ी सजा मिल रही थी. जिस महत्त्वाकांक्षा के पीछे भागतेभागते उन की जिंदगी गुजरी थी, जिस का उन्हें बेहद गुमान भी था, आज उन का सारा गुमान व शान तुच्छ लग रहा था.

अब जब उन्हें पता चला कि नीरजा के जीवन का बस थोड़ा ही समय बाकी रह गया था, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह उन के जीवन का कितना बड़ा अहम हिस्सा थीं. नीरजा के बिना जीने की कल्पनामात्र से ही वे सिहर उठे.

महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे भागने में वे हमेशा नीरजा को उपेक्षित करते रहे, लेकिन अब अपनी सारी सफलताएं उन्हें बेमानी लगने लगी थीं.

‘‘पापा, आप चिंता मत कीजिए. मैं अब नर्सिंगहोम नहीं आऊंगी. घर पर ही रह कर मम्मी का ध्यान रखूंगी,’’ उन की बहू गीता कह रही थी.

सुशांत ने एक गहरी सांस ली और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटा नर्सिंगहोम अब तुम्हीं लोग संभालो, तुम्हारी मम्मी को इस वक्त सब से ज्यादा मेरी ही जरूरत है, उस ने मेरे लिए बहुतकुछ त्याग किया है. उस का ऋण तो मैं किसी भी हालत में नहीं चुका पाऊंगा, लेकिन कम से कम अंतिम समय में उस का साथ तो निभाऊं.’’

उस के बाद से सुशांत ने नर्सिंगहोम जाना छोड़ दिया. वे घर पर ही रह कर नीरजा की देखभाल करते, उस से दुनियाजहान की बातें करते, कभी कोई बुक पढ़ कर सुनाते, तो कभी साथ बैठ कर टीवी देखते. वे किसी भी तरह नीरजा के जाने के पहले बीते वक्त की भरपाई करना चाहते थे. मगर वक्त उन के साथ नहीं था.

धीरेधीरे नीरजा की तबीयत और भी बिगड़ने लगी थी. सुशांत उस के सामने तो संयत रहते, मगर अकेले में उन के दिल की पीड़ा आंसुओं की धारा बन कर बहती थी.

नीरजा की कमजोर काया और सूनी आंखें सुशांत के हृदय में शूल की तरह चुभती रहती. वे स्वयं को नीरजा की इस हालत का दोषी मानने लगे थे व उन के मन में नीरजा को खो देने का डर भी रहता. वे जानते थे कि दुर्भाग्य तो उन की नियति में लिखा जा चुका था, लेकिन उस मर्मांतक क्षण की कल्पना करते हुए हमेशा भयभीत रहते.

‘‘अंधेरा होगा जी,’’ नीरजा की आवाज से सुशांत की तंद्रा टूटी. उन्होंने उठ कर लाइट जला दी. देखा कि नीरजा का चाय का कप आधा भरा हुआ रखा था और वह फिर से आंखें मूंदे टेक लगा कर बैठी थी. चाय ठंडी हो चुकी थी.

सुशांत ने चुपचाप चाय का कप उठाया, किचन में जा कर सिंक में चाय फेंक दी. उन्होंने खिड़की से बाहर देखा, बाहर अभी भी तेज बारिश हो रही थी. हवा का ठंडा झोंका आ कर उन्हें छू गया, लेकिन अब उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. उन्होंने अपनी आंखों के कोरों को पोंछा और मोहन को आवाज लगा कर खिचड़ी बनाने को कहा. खिचड़ी भी मुश्किल से दो चम्मच ही खा पाई थी नीरजा ने. आखिर में सुशांत उस की प्लेट उठा कर किचन में रख आए. तब तक रवि और गीता भी नर्सिंगहोम से लौट आए थे.’’

‘‘कैसी हो मम्मा?’’ रवि प्यार से नीरजा की गोद में लेटते हुए बोला.

‘‘ठीक ही हूं मेरे बच्चे,’’ मुसकराते हुए नीरजा उस के सिर पर हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में बोली.

सुशांत ने देखा कि नीरजा के चेहरे पे असीम संतोष था. अपने पूरे परिवार के साथ होने की खुशी थी उसे. वह अपनी बीमारी से अनजान नहीं थी, परंतु फिर भी वह प्रसन्न ही रहती थी. जिस अनमोल सान्निध्य की आस ले कर वह वर्षों से जी रही थी, वह अब उसे बिना मांगे ही मिल रही थी. अब वह तृप्त थी, इसलिए आने वाली मौत के लिए कोई डर या अफसोस नीरजा के चेहरे पे दिखाई नहीं दे रहा था.

बच्चे काफी देर तक मां का हालचात पूछते रहे. उसे अपने दिनभर के काम के बारे में बताते रहे, फिर नीरजा का रुख देख कर सुशांत ने उन से कहा, ‘‘अब खाना खा कर आराम करो. दिनभर काम कर के थक गए होंगे.’’

‘‘पापा, आप भी खाना खा लीजिए,’’ गीता ने कहा.

‘‘मुझे अभी भूख नहीं है बेटा. मैं बाद में खा लूंगा.’’

बच्चों के जाने के बाद नीरजा फिर आंखें मूंद कर लेट गई. सुशांत ने धीमी आवाज में टीवी औन कर दिया, लेकिन थोड़ी देर में ही उन का मन ऊब गया. अब उन्हें थोड़ी भूख लग गई थी, लेकिन खाना खाने का मन नहीं किया. उन्होंने सोचा, नीरजा और अपने लिए दूध ही ले आएं. किचन में जा कर सुशांत ने 2 गिलास दूध गरम किया, तब तक रवि और गीता खाना खा कर अपने कमरे में जा कर सो चुके थे.

‘‘नीरजा, दूध लाया हूं,’’ कमरे में आ कर सुशांत ने धीरे से आवाज लगाई, लेकिन नीरजा ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्हें लगा कि वह सो रही है. उन्होंने उस के गिलास को ढक कर रख दिया और खुद पलंग के दूसरी ओर बैठ कर दूध पीने लगे.

सुशांत ने नीरजा की तरफ देखा. उस के सोते हुए चेहरे पर कितनी शांति झलक रही थी. सुशांत का हाथ बरबस ही उस का माथा सहलाने के लिए आगे बढ़ा, फिर वह चौंक पड़े, दोबारा माथेगालों को स्पर्श किया, तब उन्हें एहसास हुआ कि नीरजा का शरीर ठंडा था. वह सो नहीं रही थी, बल्कि हमेशा के लिए चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी.

सुशांत को जो डर इतने महीनों से डरा रहा था, आज वे उस के वास्तविक रूप का सामना कर रहे थे. कुछ समय के लिए वे एकदम सुन्न से हो गए. उन्हें समझ ही नहीं आया कि वे क्या करें, फिर धीरेधीरे सुशांत की चेतना जागी, पहले सोचा कि जा कर बच्चों को खबर कर दें, लेकिन कुछ सोच कर रुक गए. सारी उम्र नीरजा सुशांत के सान्निध्य के लिए तड़पी थी, लेकिन आज सुशांत एकदम तनहा हो गए थे. अब वे नीरजा के सामीप्य के लिए तरस रह थे. अश्रुधारा उन की आंखों से अविरल बहे जा रही थी. वे नीरजा की मौजूदगी को अपने दिल में महसूस करना चाह रहे थे, इस एहसास को अपने अंदर समेट लेना चाहते थे, क्योंकि बाकी की तनहा जिंदगी उन्हें अपने इसी दुखभरे एहसास के साथ व पश्चाताप के दर्द के साथ ही तो गुजारनी थी. सुशांत के पास केवल एक रात ही थी. अपने और अपनी प्राणों से भी प्रिय पत्नी के सान्निध्य के इन आखिरी पलों में वे किसी और की दखलअंदाजी नहीं चाहते थे. उन्होंने लाइट बुझा दी और निर्जीव नीरजा को अपने हृदय से लगा कर फूटफूट कर रोने लगे.

बारिश अब थम चुकी थी, लेकिन सुशांत की आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही थी…
काश, सुशांत अपने जीवन के व्यस्त क्षणों में से कुछ पल अपनी प्रेयसी नीरजा के साथ गुजार लेते तो शायद आज नीरजा सुशांत को छोड़ कर दूर बहुत दूर नील गगन के पार नहीं जाती.

सुशांत के सान्निध्य की तड़प अपने साथ ले कर नीरजा हमेशा के लिए चली गई और सुशांत को दे गई पश्चाताप का असहनीय दर्द.

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