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Magazines On The Move : अब सरिता और चंपक तेजस एक्सप्रेस के पैसेंजर्स को भी मिलेंगे

Magazines on the Move : पुराने दिनों की यादें फिर से ताजा होने जा रही है. रेलयात्रा के दौरान पैसेंजर्स पत्रिकाओं को एंजौय कर सकेंगे.

एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजीन्स ( AIM ) ने प्रसार भारती के WAVES OTT और ONDC (ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स) डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर मैगजीन स्टोर को लॉन्च किया. इस स्टोर में 100 से अधिक मैगजीन ब्रांड्स पूरे भारत में उपलब्ध होंगे. इसे क्लिक करते ही आप अपनी पसंदीदा पत्रिका को एंजौय कर सकेंगे.

8 अगस्त 2025 को दिल्ली में 14वां इंडियन मैगज़ीन कांग्रेस 2025 का आयोजन किया गया. इस अवसर पर कई मशहूर प्रकाशन समूहों के प्रकाशक, संपादक, डिजिटल मीडिया प्रमुख, नीति निर्माता, मार्केटर मौजूद थे. The Deep Connect – Building Communities. Nurturing Trust. Re-imagining the Future विषय पर आयोजित कांग्रेस में इस बात पर जोर दिया गया कि आज भी पत्रिकाएं तेजी से भाग रही डिजिटल दुनिया की नकल करने की बजाय गहराई से जुड़ने में यकीन करती है और इसी वजह से उसने अपने रीडर्स का भरोसा कायम कर रखा है.

एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजीन्स यानि ‘एआईएम’, देशभर में 40 से अधिक पब्लिशर्स और 300 से भी अधिक मैगजीन्स का प्रतिनिधित्व करती है. एआईएम की ओर से आयोजित इस कांग्रेस में 3 ऐतिहासिक डिजिटल और भौतिक वितरण पहल की घोषणा की गई. वे हैं –

1. WAVES OTT पर मैगजीन स्टोर – यह सौ से अधिक मैगजीन को एक क्लिक में रीडर्स को उपलब्ध कराएगा.

2. ONDC पर सेलर-साइड ऐप लॉन्च किया गया, इसकी मदद से विक्रेता यानि सेलर्स सीधे प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रिंट या डिजिटल मैगजीन बेच सकेंगे. DigiHaat पर भी मैगजीन की शुरुआत की गई है. यह ओएनडीसी आधारित डिजिटल बाजार है.

3. “Magazines on the Move” नाम से एक बेहद रोचक पहल की शुरुआत IRCTC (भारतीय रेलवे खान-पान एवं पर्यटन निगम) के साथ की गई है. इसके तहत तेजस एक्सप्रेस के यात्रियों को उनकी सीट पर ही पत्रिकाएं उपलब्ध कराई जाएगी. फिलहाल यह सुविधा मुंबई–अहमदाबाद और दिल्ली–लखनऊ रूट के तेजस ट्रेनों में उपलब्ध है. इस सुविधा के तहत पैसेंजर्स को एक क्यूरेटेड मेन्यू मिलेगा, जिससे वे अपनी पसंद की मैगजीन चुन सकेंगे. इन्हें आईआरसीटीसी स्टाफ के जरिए पैसेंजर की सीट तक पहुंचाया जाएगा. जल्दी ही इस पहल को 100 से अधिक प्रीमियम ट्रेनों में उपलब्ध कराए जाने की योजना है.

एआईएम के प्रेसिडेंट और दिल्ली प्रेस के एग्जीक्यूटिव पब्लिशर अनंत नाथ ने कहा कि ‘द इंडियन मैगजीन कांग्रेस’ हमेशा से विचारों और अवसरों को जोड़ने का जरिया रहा है. इन नई पहलों का उद्देश्य हर किसी के लिए मैगजीन उपलब्ध करना है फिर चाहे वह प्रिंट हो या डिजिटल. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एआईएम का उद्देश्य वितरण के अलग अलग माध्यमों का इस्तेमाल कर रीडर्स से कनेक्ट करना है.

प्रसार भारती के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और अध्यक्ष गौरव द्विवेदी ने WAVES OTT पर मैगजीन स्टोर शुरू किए जाने को एक ऐतिहासिक पल बताया. वहीं आरआरसीटीसी के निदेशक राहुल हिमालयन ने मैग्जीन्स ऑन द मूव पहल की शुरआत की. इस अवसर पर दिल्ली प्रेस के एडिटर इन चीफ परेश नाथ, बी डब्लू बिजनेस वर्ल्ड और एक्सचेंज 4 मीडिया ग्रुप के चेयरमैन डॉ अनुराग बत्रा भी उपस्थित रहे.

Romantic Story In Hindi : देरसबेर पर खुशी घनेर – हरदीप भाभी के लिए परेशान क्यों था

Romantic Story In Hindi : क्या करे वह. पिछली बार पंजाब गया था तो पक्का सोच कर गया था कि सब बताएगा पर हिम्मत नहीं जुटा पाया और अब फिर जाना पड़ेगा. बहन, गुरमीत की शादी जो है. शेरीपोवा व डेढ़ वर्षीय बेटे माइकल को ले जाए तो क्या बताए वहां कि बिना बताए रशियन लड़की से कोर्ट मैरिज कर ली थी और अब उन का एक बेटा भी है. उन को न ले जाए, न बताए तो जब उस के मातापिता उस की शादी की इंडिया में बात चलाएंगे तो क्या करेगा, क्या कहेगा. पति जीत की चिंता जान शेरी ने सुझाया कि शादी में वह भी जाएगी. वह जीत के परिवार से मिलना चाहती है और जैसा उस ने सुन रखा है, इंडियन मैरिजज आर अ ग्रेट फन, वह भी देखना चाहती है.

उस ने जीत को साथ ले जा अपने लिए सुंदर से 4 सलवार सूट खरीदे. रंग गोरा और तीखे नैननक्श वाली शेरीपोवा ने जब वे पहने तो सच में भारतीय दिखने लगी. लंबे बालों में चोटी गूंथ, थोड़ा शृंगार कर गोदी में माइकल को ले और जीत को जबरदस्ती साथ खड़ा कर शेरी ने कैमरे से फोटो खींच ली. फोटो देख जीत हंसा, ‘‘नकली इंडियन.’’ शेरी ने जवाब दिया, ‘‘मीत की शादी पर जाऊंगी तो तुम्हें असली इंडियन बन कर बताऊंगी.’’

शेरी ने एक फोटो अपने मातापिता को भेज दी और दूसरी फ्रेम में सजा दी. तय हुआ सब चलेंगे तो शेरी ने अपनी मरजी से मीत के लिए सुंदरसुंदर चीजें व शृंगार का सामान खरीदा और एक सुंदर महंगी सी घड़ी मीत के होने वाले पति के लिए ली. जीत ने घर में विशेष रूप से फोन कर बता दिया कि एअरपोर्ट केवल छोटा भाई हरदीप ही आए. जीत को डर था कि घर के बाकी सदस्य शेरी और बच्चे को उस के साथ देख पता नहीं कैसा व्यवहार करें. फ्लाइट समय पर पहुंची. छोटा भाई हरदीप पहले तो नहीं समझा पर फिर उस के दिमाग का शक ठीक निकला. जीत ने जब सब बताया कि कैसे एक ही जगह नौकरी करते, बाद में साथ रहते, उन्होंने शादी कर ली पर डर के कारण घर में नहीं बताया. हरदीप ने शेरी के कंधे पर हाथ रख कहा, ‘‘डोंट वरी, एवरीथिंग विल बी फाइन.’’

बेबी माइकल को जीत की गोद से ले कार में बिठाया. घर पहुंच योजना के अनुसार, पहले जीत माइकल को गोद लिए कार से निकला. सब घर के दरवाजे पर खडे़ इंतजार कर रहे थे. हरदीप ने कार से सामान निकाल भाभी को बाहर आने को कहा. सब हैरान पर मीत भाग कर कार के पास आई और हाथ बढ़ा भाभी का हाथ थाम उसे दरवाजे तक लाई. शेरी ने झुक कर पहले जीत के पिता, फिर मां के पैर छुए. जब कोई कुछ न बोला तो हरदीप ने माइकल को गोदी उठा नाचना शुरू किया, ‘‘बधाई जी बधाई भाभी आई भाभी आई.’’

मां को जब समझ आया तो आगे बढ़ शेरी को गले लगाया. सब अंदर आए पर जीत एकदम चुप था. पिता ने माइकल के सिर पर हाथ रखा तो जीत ने समझ लिया कि सब ठीक है. पिता के सामने हाथ जोड़ माफी मांगते उसे अफसोस हुआ कि उसे पहले ही बता देना चाहिए था, जैसा शेरी ने किया था. उस ने जब शादी के निर्णय को अपने मातापिता को बताया था तो वे खुश तो नहीं थे पर कहा था, ‘तुम्हारी मरजी.’

घर में शादी की सब तैयारी हो चुकी थी. हरदीप ने जीत को अपने साथ लगाया और शादी में लेनदेन, रीतिरिवाज के बारे में समझाया. लड़की की शादी है, सब ठीकठाक होना चाहिए. माइकल को सब उठाए फिरते थे. जीत व्यस्त था, शेरी अकेली सी पड़ गई थी. बस, मीत ही शेरी के आसपास रहती. वह उसे सब अंगरेजी में बता रही थी. घर में कुछ औरतें काम में हाथ बंटा रही थीं. उन में से एक मीत की सहेली वीरा की मां थीं जो शेरी का विशेष ध्यान रख रही थीं. मीत के कहने पर वीरा भी अपने कपड़े आदि ले 4 दिन पहले ही आ गई थी. मीत ने सहेली को समझाते हुए कहा कि भाभी शेरी को अंगरेजी में बात कर हर रीतिरिवाज व शादी में होने वाली रस्मों के बारे में बताए. जो कुछ भी वे जानना चाहें, उन्हें बताए. शेरी के लिए शादी के मौके पर पहनने वाले कपड़े सलवार सूट, लहंगा, चोली कुरती आदि मंगवा लिए गए और अब वीरा उन्हें उसे पहना कर साइज देख रही थी. शेरी, जो स्कर्ट पहनने की आदी थी, के लिए ये सब कुछ ज्यादा ही था पर वह खुश थी.

शुरू हुआ मेहमानों का आना, खातिरदारी, रस्में, जिन में शेरी भी संकोच से ही सही, भाग ले रही थी. मिलने वालों से वह बस, मुसकरा कर ही अभिनंदन कर पा रही थी. जीत का तो कुछ पता ही नहीं, बस रात को ही देख पाती थी. शादी के घर में इतने काम जो होते हैं. और फिर बड़ा भाई होने के नाते उस की जिम्मेदारी भी ज्यादा थी. माइकल तो सब से बहुत हिलमिल गया था, जैसे उसे मां की जरूरत ही नहीं. आज मेहंदी की रात थी. महिलाएं मेहंदी लगवा रही थीं. गानाबजाना, नाचना, हंसीमजाक चल रहा था. शेरी के लिए सब नया था. पर वह अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रही थी सब का साथ देने की. वीरा ने हाथ पकड़ शेरी को नाचने के लिए उकसाया. शेरी भी सब की देखादेखी पैर थिरकाने व हाथ मटकाने लगी. सब ने जोरदार गाने के साथ ताली बजा कर उस की सराहना की. जीत भी अब रुक न सका. माइकल को गोद में उठा कर शेरी के साथ नाचने लगा. हरदीप तो कभी इधर तो कभी उधर घूम कैमरे से सब की फोटो खींचने में लगा रहा.

सुबह से ही हलदी लगाने, चूड़ा चढ़ाने, कलीरे बांधने की रस्में शुरू हो गई थीं. शेरी अपना कैमरा निकाल सब की फोटो खींचने लगी. उसे ये सब देख उत्सुकता हो रही थी. दोपहर के खाने के बाद मीत को दुलहन के रूप में शृंगार के लिए पार्लर जाना था. उस ने भाभी और वीरा को भी साथ लिया. माइकल को जीत ने संभाला. शेरी को भी दुलहन की तरह  सजाया गया. सुंदर मेकअप, हेयरस्टाइल, हरेपीले रंग का भारीभरकम, अति सुंदर लहंगाचोली, ओढ़नी और आभूषणों से सज्जित शेरी का तो जैसे रूप ही बदल गया. वीरा की सज्जा दूसरी तरह की थी, सुंदर सलवारकमीज व लंबी वेणी हेयरस्टाइल में वह पक्की पंजाबन दिखना चाहती थी. जब दुलहन मीत सजसंवर कर बाहर आई तो शेरी अचंभित थी, इतना बदलाव, इतनी सुंदर. उस ने मीत का हाथ थाम कहा, ‘‘वैरी ब्यूटीफुल.’’

मीत का उत्तर था, ‘‘यू टू.’’

पार्लर में काम करती एक लड़की ने तीनों की फोटो खींची. जब तीनों को कार से घर लाया गया तो सब ने उन की बलाएं लीं. सासूजी ने शेरी को सोने के जड़ाऊ कंगन पहना, उस की कलाइयां चूमीं. उन के पीछे खड़े जीत से जब शेरी की आंख मिली तो एक के चेहरे पर अचरज था और दूसरे के चेहरे पर शर्म के भाव. सब तैयार हो पंडाल में इकट्ठे हुए. जीत और दीप इधरउधर इंतजाम देख रहे थे. शेरी ने जीत के साथ कई हिंदी फिल्में देखी थीं पर यह कभी नहीं सोचा था कि उसे यह सब वास्तव में देखने को मिलेगा. शोरशराबे, गानेबजाने, नाचने का जोरदार दौर चल रहा था. बरात द्वार पर थी. जयमाला, मिलनी आदि की रीति के बाद मीत और दूल्हे पुनीत को सजे स्टेज पर बैठाया गया. खाने का दौर शुरू हुआ तो मां ने जीत को समझाया कि माइकल को गोदी में ले शेरी को बारीबारी से सभी रिश्तेदारों से मिलवाओ. कौन कहेगा, यह रूसी लड़की है, एकदम भारतीय वेश में सब के पास जा चरणस्पर्श करती, गले मिलती, हाथ मिलाती मुसकराती शेरी सब की सराहना का केंद्र बनी रही.

माइकल थक कर सो गया था. रात को फेरों और फिर विदाई का समय होते लगभग सुबह होने वाली थी. मीत सब के गले मिल रो रही थी. शेरी ने भी आगे बढ़ इस रस्म को पूरा करना चाहा तो मीत ने भाभी का माथा चूमा और गाल सहलाया. मीत के पति पुनीत ने जीत और शेरी से गले मिल विदा ली. सब बहुत थके हुए थे. कुछ लोग सो गए थे पर जीत और दीप अभी भी सब समेटने में लगे हुए थे. सबकुछ ठीकठाक देख जीत कमरे में आया और पाया कि शेरी माइकल को लिए, सो रही है. आज उसे देख उस में एक नया रूप दिखा. कैसे वह उन की भाषा न जानते हुए भी सब से घुलमिल गई थी. कैसे उस के परिवार ने उसे सहज स्वीकार कर लिया था. माइकल तो सब का दुलारा बच्चा बन गया था. जीत ने झुक कर शेरी का माथा चूमा. स्पर्श पाते ही शेरी ने आंखें खोल जीत को आलिंगनबद्ध किया और दोनों असीमित सुख के संसार में डूब गए.

अब जीत वापस जाने की तैयारी में था. 2 दिन बाद उन की फ्लाइट थी. मीत और  उस के पति पुनीत भी आ गए थे. जाने वाले दिन सब ने साथ बैठ चाय पी. सब उदास थे. कार में सामान रखा जा रहा था. माइकल तो चाचा दीप की गोदी से उतरना ही नहीं चाहता था. गले मिलते शेरी की आंखें गीली थीं. ससुरजी के पैर छुए तो उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘जल्दी आना.’’ फ्लाइट समय पर थी. सारे रास्ते सो कर थकावट उतारी. शनिवार रात काफी देर से घर पहुंचे. इतवार सुबह उठ दोनों ने मिल कर घर को व्यवस्थित किया. शेरी ने अपनी मां को फोन पर शादी का हाल बताया और जीत के परिवार की बहुत प्रशंसा की. पिता से भी बात हुई. उन्होंने भी एक अच्छा समाचार सुनाया कि शेरी की छोटी बहन के लिए अमेरिका से एक लड़के का विवाह प्रस्ताव आया है. रशियन लड़का सिनयोन वहां काफी समय से कार्यरत है. और उस के मातापिता सिनयोन के मातापिता से वहां मिल चुके हैं.

मां ने कहा कि यदि जीत ठीक समझे तो दोनों जा कर सिनयोन से मिल आएं. अगले हफ्ते समय तय कर दोनों एक अच्छे रैस्टोरैंट में उस से मिले. जीत को सिनयोन बहुत अच्छा लड़का लगा. शेरी को भी सिनयोन सलीकेदार और बुद्धिमत्ता में बहुत आगे लगा. सिनयोन ने बताया कि मलवीना की इंटर्नशिप 6 माह में पूरी हो जाएगी. शादी अमेरिका में होगी और इसी बीच पासपोर्ट वीजा आदि का प्रबंध भी हो जाएगा. शेरी खुश थी कि उस की बहन भी अमेरिका में रहेगी तो मिलना होता रहेगा  शादी का पूरा प्रबंध सिनयोन ने अपने हाथ में लिया. 6 माह का समय बीतने से पहले ही वीजा मिल जाने से शेरी के मातापिता आ गए. सिनयोन के मातापिता को वीजा न मिल पाया. मलवीना शादी की तारीख से एक सप्ताह पहले आ गई और उस के लिए वैडिंग गाउन और बाकी की शौपिंग पूरी हो गई. शादी बहुत ही शानदार ढंग से हुई. सिनयोन के मातापिता वहां बैठे ही पूरी शादी का आनंद वीडियो से देख खुश थे.

3 महीने का समय बीता और शेरी के मातापिता के वापस लौटने का समय हो गया. इस दौरान सब से अच्छी बात यह रही कि उन्हें जीत व शेरी को खुश देख बहुत खुशी हुई. अब दोनों बेटियां यहां होने से उन का भी आनाजाना लगा रहेगा. शेरी के मातापिता अपनी भाषा में ही बातचीत करते थे पर जरूरी बात को शेरी अंगरेजी में जीत को बता देती. शेरी जीत की भाषा जानती नहीं, इसलिए उस ने माइकल को रशियन भाषा सिखाने की कोशिश की पर विफल रही. जब कभी जीत या शेरी के घर से फोन पर बात होती तो कुछ समय के लिए फोन माइकल को भी दिया जाता. वह कुछ समझता तो नहीं पर अपनी हंसी से सब को खुश कर देता. फेसबुक पर फोटो देख वह अपने नानानानी, दादादादी को पहचान लेता था. जीत ने फिर सोचा कि शेरी को सब से मिलाने में देरी अवश्य हुई पर सब को खुश देख उसे भी ढेरों खुशियां मिलीं. यह तो और भी अच्छा हुआ कि शेरी का परिवार भी उस से बहुत खुश है क्योंकि वह उन की बेटी को जो खुश रखता है. उन की बेटी थी ही इतनी अच्छी कि खुशी उस के पास स्वयं आ जाती है. इस बार जब शेरी की बहन मलवीना के ससुराल वालों का आना और मिलना हुआ तो लगा जैसे वे सब अपने ही हैं. अब उन के परिवार का दायरा बढ़ गया है. मन ही मन सोचा कि सब का प्यार और मेलजोल बना रहे तो सब का फायदा है. हमारा तो सब से ज्यादा क्योंकि शेरी अब प्रैगनैंट है और डिलीवरी के समय उस की मां आ कर सब संभाल लेंगी. Romantic Story In Hindi 

Hindi Love Stories : सिर्फ अफसोस

Hindi Love Stories : शैलेश यही कुछ 4 दिन के लिए मसूरी में अपनी कंपनी के काम के लिए आया था. काम 3 दिन में ही निबट गया तो सोचा कि क्यों न आखिरी दिन मसूरी की हसीन वादियों को आंखों में समेट लिया जाए और निकल पड़ा अपने होटल से. होटल से निकल कर उस ने फोन से औनलाइन ही कैब बुक कर दी और निकल गया मसूरी की सुंदरता को निहारने. कैब का ड्राइवर मसूरी का ही निवासी था, ऐसा उस की भाषा से लग रहा था. शायद इसीलिए उसे शैलेश को मसूरी घुमाने में किसी भी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ रहा था.

वह उन रास्तों से अच्छी तरह परिचित था जो उस की यात्रा को तीव्र और आरामदायक बनाएंगे. कैब का ड्राइवर पहाड़ों में रहने वाला सीधासाधा पहाड़ी व्यक्ति था. वह बिना अपना फायदा या नुकसान देखे खुद भी शैलेश के साथ निकल पड़ा और शैलेश को हर जगह की जानकारी पूरे विस्तार से देने लगा था. अब शैलेश भी ड्राइवर के साथ खुल चुका था. शैलेश ने पूछा, ‘‘भाईसाहब, आप का नाम क्या है?’’

‘‘मेरा नाम महिंदर,’’ ड्राइवर ने बताया.

अब दोनों मानो अच्छे मित्र बन गए हों. महिंदर ने शैलेश को सारी जानीमानी जगहों पर घुमाया. समय कम था, इसीलिए शैलेश हर जगह नहीं घूम सका. मौसम काफी खुशनुमा था पर शैलेश को नहीं पता था कि मसूरी में मौसम को करवट बदलते देर नहीं लगती. देखते ही देखते  झमा झम बारिश होने लगी. महिंदर को इन सब की आदत थी, उस ने शैलेश से कहा, ’’घबराइए मत साहब, यहां आइए इस होटल में.’’

शैलेश ने देखा कि महिंदर जिस को होटल बोल रहा था वह असल में एक ढाबा था. शैलेश को महिंदर के इस भोलेपन पर थोड़ी हंसी आई पर उस ने अपनी हंसी को होंठों पर नहीं आने दिया क्योंकि वह ढाबा भी प्रकृति की गोद में इतना सुंदर लग रहा था कि पूछो मत.

शैलेश ने महिंदर से कहा, ’’सच में भाईसाहब, इस के आगे तो हमारी दिल्ली के बड़ेबड़े पांचसितारा वाले होटल भी फीके हैं.’’

ठंडा मौसम था. शैलेश थोड़ा सिकुड़ सा रहा था. महिंदर सम झ गया था कि शैलेश को इस ठंड की आदत नहीं है. उस ने अपने और शैलेश के लिए 2 गरमागरम कौफी का आर्डर दे दिया.

महिंदर ने अब शैलेश की चुटकी लेना शुरू कर दिया, ‘‘और भाईसाहब, शादीवादी हुई कि नहीं अभी तक?’’

‘‘क्या लगता है?’’ शैलेश ने प्रश्न के बदले प्रश्न किया.

‘‘लगते तो धोखा खाए आशिक हो.’’

शैलेश ने महिंदर की बात का बुरा नहीं माना, बल्कि धीरे से हंस दिया.

शैलेश के चेहरे पर हंसी देख महिंदर तपाक से उस की तरफ उंगली दिखाता हुआ बोला, ‘‘है ना? सही बोला ना साब?’’

ढाबे के कर्मचारी ने उन के सामने उन की कौफियों के कप रख दिए और चलता बना.

महिंदर ने फिर उसी बात को छेड़ते हुए पूछा, ‘‘बताओ न साब, क्या किस्सा था वह.’’

शैलेश पहले तो थोड़ा झिझका, फिर अपना किस्सा सुनाने को तैयार हो गया.

शैलेश ने बताना शुरू किया, ‘‘उस वक्त मैं 11वीं जमात में दाखिल हुआ था. मैट्रिक पास करने के बाद 11वीं जमात में वह मेरा पहला दिन था. उस दिन कई न्यूकमर्स भी पहली बार स्कूल आए थे. उन्हीं में से एक थी रबीना. रबीना को पहली बार देख कर मेरे दिल में उस के लिए किसी प्रकार की कोई भावना तो नहीं उमड़ी पर धीरेधीरे हम दोनों में दोस्ती होनी शुरू हो गई और वह मु झे अपने बाकी दोस्तों से ज्यादा प्यारी भी हो गई. रबीना का बदन काफी गोरा था जो धूप में जाने से और गुलाबी हो उठता. उस के हाथों पर छोटेछोटे भूरे रंग के रोएं, बाल भी कहींकहीं से भूरे, भराकसा जिस्म, ऊपर से सजसंवर के उस का स्कूल में आना मु झे बड़ा आकर्षित करता था. रबीना के प्रति मेरी नजदीकियां बढ़ती चली जा रही थीं पर एक लड़की थी जो अकसर मेरे और रबीना के बीच आ जाती, वह थी संजना.’’

‘‘संजना कौन हैं साब?’’ जिज्ञासु महिंदर ने शैलेश से पूछा.

‘‘संजना तो वह थी जिस की बात मैं ने मानी होती तो आज पछताना नहीं पड़ता.’’

महिंदर अब और सतर्क हो कर किस्सा सुनने लगा.

‘‘रबीना तो अभी कुछ ही दिनों पहले मेरी जिंदगी में आई थी पर संजना तो बचपन से ही मेरे दिल में बसती थी. संजना और मैं ने जब से पढ़ना शुरू किया तब से हम साथ ही थे. हमारे घर वाले भी एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते थे. संजना मेरा पहला प्यार थी और मैं उस का. पर जब से रबीना मेरी जिंदगी में आई, मैं हर दिन रबीना के थोड़ा और पास आता गया और संजना से दूर होता गया. मु झे रबीना के नजदीक देख कक्षा के तमाम छात्र जलते थे. लड़कियों को रबीना से जलन होती और लड़कों को मु झ से. पर सब से ज्यादा कोई जलता था तो वह थी मेरी संजना. उस का जलना मु झे जब फुजूल का लगता था पर अब वाजिब लगता है. भला आप जिसे चाहते हों अगर वह आप के सामने ही किसी और का होने लगे तो इंसान का खून तो वैसे ही जल जाए. संजना मु झ से हमेशा कहती थी.’’

शैलेश की नजर बाहर गई, बारिश थम चुकी थी पर उस का किस्सा और उन की कौफी अभी आधी बची थी.

महिंदर ने पूछा, ‘‘क्या कहती थी?’’

शैलेश ने किस्सा चालू रखा, ‘‘संजना जब भी मु झ से ज्यादा चिढ़ जाती तो बोलती, ‘तुम भूलो मत वह एक मुसलमान है. तुम्हारा आगे एकसाथ कोई भविष्य नहीं है, काम तो मैं ही आऊंगी, इसीलिए संभल जाओ वरना बाद में बहुत पछताना पड़ेगा.’ पर रबीना के इश्क में मैं ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी, कुछ और दिखता ही नहीं था. देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. मैं ने और रबीना ने एक ही कालेज में दाखिला लेने की पूरी तैयारी भी कर ली. पर 12वीं जमात के बाद संजना आगे क्या करेगी, न तो मैं ने कभी जानने की कोशिश की और न उस ने कभी बताने की.

देखते ही देखते समय बीतता गया. संजना का नंबर भी अब उस की यादों की तरह मेरे फोन से मिट गया. अब मेरी फोन की कौल हिस्ट्री में सिर्फ रबीना के नाम की ही एक लंबी लिस्ट होती और उस से घंटों बात करने का रिकौर्ड. हमारे इश्क के चर्चे पूरे कालेज में होने लगे और रबीना भी मु झे उतना ही पसंद करती थी जितना मैं उसे.

‘‘न तो मैं ने कभी सोचा कि वह पराए धर्म की है और न उस ने. स्कूल के समय में तो मैं रबीना के जिस्म की तरफ आकर्षित था. उस की खूबसूरती के लिए उसे चाहता था पर अब मैं उसे दिल से चाहने लगा था. मैं ने कालेज में होस्टल में रहने के बावजूद कभी रबीना से जिस्मानी रिश्ता नहीं बनाना चाहा. अब मु झे पता चला दिल से प्यार करना किसे कहते हैं. मु झे अब रबीना कैसे भी स्वीकार थी. चाहे वह पराए धर्म की हो या कभी उस की सुंदरता चली भी जाए तो भी मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता था.’’

शैलेश किस्सा बीच में रोक बाहर देखने लगा. मौसम फिर करवट बदल रहा था. हलकीहलकी बूंदाबांदी फिर शुरू हो गई.

शैलेश फिर अपने अधूरे किस्से पर वापस आया और महिंदर से पूछा, ‘‘हां, तो मैं कहां पर था.’’

‘‘आप रबीना को दिल से चाहने लगे थे,’’ महिंदर ने याद दिलाया.

‘‘हां, अब हम एकदूसरे को अपना जीवनसाथी बनाना चाहते थे, पर अब एक सब से बड़ी अड़चन थी जिसे हम हमेशा से नजरअंदाज करते रहे थे. वह थी हमारी अलगअलग कौमें. चलो और कोई बिरादरी या जात होती तो चलता पर एक हिंदू और मुसलिम की जात को हमारा समाज हमेशा से एकदूसरे का दुश्मन सम झता है. हमें अच्छी तरह से मालूम था कि न तो मेरे घर वाले इस शादी के लिए मानेंगे और न ही रबीना के. मैं ने रबीना से कहा था कि ‘तुम हिंदू हो जाओ न.’

‘‘तब उस ने मु झ से धीरे से कहा, ‘तुम मुसलमान हो जाओ. मैं अपने अम्मीअब्बा की इकलौती हूं. मैं हिंदू हो गई तो उन का क्या होगा.’

‘‘मैं ने कहा, ‘ऐसे तो मैं भी इकलौता हूं अपने मांबाप का और तुम सम झती क्यों नहीं, हिंदू धर्म एक शुद्ध और सात्विक धर्म है और तुम एक बार हिंदू बन गई तो मैं अपने मांबाप को मना ही लूंगा.’

‘‘‘और मेरे अम्मीअब्बा का क्या? अरे, इकलौती बेटी के लिए कितने सपने देखते हैं. उस के वालिद पता है? एक वालिद उस के लिए अच्छा शौहर ढूंढ़ने के सपने देखते हैं, उस के निकाह के सपने देखते हैं, उस के लिए अपनी सारी जमापूंजी लगा देते हैं और बदले में सिर्फ समाज के सामने इज्जत से उठी नाक चाहते हैं जो मेरे हिंदू बनने पर शर्म से कट जाएगी,’ रबीना ने भी अपना पक्ष साफसाफ मेरे सामने रख दिया.

‘‘‘और अगर मैं मुसलमान बन गया तो मेरे मांबाप का तो सिर गर्व से उठ जाएगा न?’ मैं ने भी गरम दिमाग में बोल दिया पर अगले ही पल लगा कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए था.

‘‘वह उठ कर चली गई. मु झे लगा कि अभी गुस्सा है, जब शांत हो जाएगी, फिर आ जाएगी मेरे पास. पर मु झे क्या पता था कि वह मु झ से वास्ता ही छोड़ देगी और इतनी आसानी से मु झे भुला देगी. स्कूल के समय में जिस तरह रबीना के पीछे मरने वालों की कोई कमी नहीं थी उसी प्रकार कालेज में भी लड़के रबीना के प्रति आकर्षित रहते. मु झ से मनमुटाव होने के बाद उस ने अपना नया साथी ढूंढ़ लिया जो उसी की कौम का था और हमारे ही कालेज का था. कालेज भी अब खत्म हो चुका था और हमारा एकदूसरे से वास्ता भी. मैं ने कई महीनों तक उस को सोशल मीडिया पर मैसेज करने की कोशिश की पर हर जगह से खुद को ब्लौक पाया. मेरा नंबर उस ने ब्लैक लिस्ट में डाल दिया. अब मेरे कानों में संजना की उस दिन वाली बात गूंजने लगी, ‘काम तो मैं ही आऊंगी.’ कुछ दिन उदास रहा और खुद को यही तसल्ली देता रहा कि वह तो वैसे भी मुसलिम थी, चली गई तो क्या हुआ, पर मैं ने अपने मांबाप को तो नहीं छोड़ा न.

‘‘मु झे आज सम झ में आया कि जिसे तुम चाहो अगर वह तुम्हारे सामने ही किसी और की हो जाए तो कैसा लगता है, और कुछ ऐसा ही लगता होगा मेरी संजना को उस वक्त. मैं ने तय किया कि फिर संजना का हाथ पकड़ं ूगा. पर मन में ही विचार किया कि किस मुहं से जाऊंगा उस के पास? क्या कहूंगा उस से कि क्या हुआ मेरे साथ और मान लो कह भी दिया तो क्या वह फिर से स्वीकार करेगी मु झे?

‘‘मैं ने अपना स्वाभिमान छोड़ कर सोच लिया कि जो कुछ हुआ सब बता दूंगा उसे, उसे ही जीत जाने दूंगा. अगर अपनेआप को गलत साबित कर के मैं फिर उस का हो जाऊं तो क्या बुराई है? पर उसे ढूंढ़ने पर पता चला कि अब वह दिल्ली में नहीं रहती. सारे सोशल मीडिया को छान मारा पर वह वहां पर भी कहीं नहीं मिली. फिर हताश हो कर अपनी जिंदगी को रुकने नहीं दिया बल्कि एक कंपनी में जौब कर लिया. और संजना का मिलना न मिलना प्रकृति के ऊपर छोड़ दिया.’’

‘‘फिर क्या हुआ साब?’’ महिंदर सुनना चाहता था कि आगे क्या हुआ.

‘‘फिर क्या होगा? जिंदगी चल ही रही है. आज नहीं तो कल वह मिल जाएगी, अगर न भी मिली तो भी सम झ लूंगा कि मेरी ही गलती की सजा है जो उस वक्त उस की कद्र नहीं कर पाया.’’

शैलेश ने बाहर देखा, मौसम की मार और जोर से पड़ने लगी और जिस तरह से वह और महिंदर मौसम की मार से बचने के लिए ढाबे में घुसे थे उसी तरह और पर्यटक भी ढाबे के अंदर पनाह लेने लगे. ढाबे का कर्मचारी फटाफट अपनी सारी टेबलों पर कपड़ा मारने लगा और उन से बैठने को कहने लगा.

तभी शैलेश की नजर एक नौजवान औरत पर पड़ी जो उसी बरसात से बचते हुए ढाबे में आई थी. उस औरत को देख शैलेश की आंखें उस पर गड़ी की गड़़ी रह गईं. मानो दिमाग पर जोर दे कर कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो.

शैलेश को पराई औरत को ऐसे घूरते देख महिंदर बोला, ‘‘अरे साब, ऐसे मत देखो वरना बिना बात में दोनों को खुराक मिल जाएगी अभी.’’

‘‘क्यों?’’ शैलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘दिखता नहीं क्या, नईनई शादी हुई है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘अरे साब, आधे हाथ चूडि़यों से भरे हैं और माथे पे सिंदूर नहीं दिखता क्या?’’ महिंदर भोलेपन में फिर से बोला, ‘‘कोई बात नहीं साब, आप को कैसे पता होगा, पर मु झे सब पता है नईनई शादी के बाद लड़कियां ऐसे ही फैशन करती हैं. मेरी वाली भी करती थी न,’’ कह कर महिंदर शरमा गया.

शैलेश अनबना सा रह गया मानो महिंदर की बात वह मानना नहीं चाहता था.

‘‘अरे क्या हुआ साब? जानते हो क्या इसे?’’ महिंदर ने पूछा.

‘‘अरे यही तो मेरी संजना है. पर यह शादी और मसूरी का क्या चक्कर?’’ संजना अब पहले से ज्यादा खूबसूरत दिखने लगी थी. उस का जिस्म भी भर गया था, चेहरे पर ऐसी चमक मानो जिंदगी में कोई चिंता ही न हो. पर संजना के माथे का सिंदूर और कलाइयों पर चूडि़यां शैलेश को अंदर से खाए जा रही थीं. कुछ सम झ में भी नहीं आ रहा था कि वह यहां कैसे.

शैलेश अपनी टेबल से उठ खड़ा हुआ और जा कर संजना के सामने अचानक से प्रकट हो गया. दोनों एकदूसरे को मसूरी में देख चौंक गए. उन्होंने ऐसा इत्तफाक सिर्फ कहानियों और फिल्मों में ही देखा था.

संजना ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘तुम? और यहां?’’

‘‘मैं तो काम से आया था कल निकल जाऊंगा, लेकिन तुम यहां कैसे?’’ शैलेश ने पूछा.

‘‘मेरी कुछ दिनों पहले ही शादी हुई है,’’ संजना ने एक नौजवान की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘इन्होंने ही प्लान बनाया था हमारा हनीमून मसूरी में ही मनेगा.’’

संजना ने आगे बड़े ही मजाकिया लहजे में पूछा मानो उसे सब पता हो, ‘‘और अपना सुनाओ कैसी चल रही है तुम्हारी और रबीना की जिंदगी, शादीवादी हुई?’’ यह कह कर संजना मुसकरा गई.

बरसात फिर से थम गई. शैलेश इस से पहले कुछ बोलता, संजना के पति ने उसे इशारा कर जल्दी से चलने को कहा. संजना ने भी जवाब सुने बिना ही शैलेश को अलविदा कर दिया और आगे बढ़ गई. संजना ने पीछे मुड़ कर शैलेश को देखा और बड़ी ही बेरहमी से कहा, ‘‘क्यों, आना पड़ा न मेरे ही पास.’’

भोले महिंदर ने शैलेश को दिलासा दिलाते हुए उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘चलो साब, वरना फिर बारिश शुरू हो जाएगी, वापस भी तो जाना है न.’’

शैलेश दूर जाती संजना को देख रहा था. वक्त उस के हाथ से निकल चुका था. अब कभी वापस नहीं आएगा.

लेखक : हेमंत कुमार

Social Story : प्रायश्चित्त – अनुभा के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था

Social Story : रात के 2 बजे के करीब अनुभा की आंखें खुलीं तो उस ने देखा, सुगम बिस्तर पर नहीं है. 5-7 मिनट बाद जब सुगम वापस नहीं आया तो अनुभा को कुछ चिंता हुई. वह उठ कर बाहर की तरफ जाने वाले दरवाजे पर गई तो उस ने पाया दरवाजे की सांकल खुली हुई है. सुगम को अचानक बाहर जाने की क्या जरूरत आ पड़ी. अनुभा यह सोच ही रही थी कि पास के कमरे से खुसुरफुसुर की आवाजें आईं. संभवतया सुलभा की बच्ची को कोई परेशानी हुई होगी. यही सोच कर शायद उस ने सामने वाला दरवाजा न खोल कर कमरों को जोड़ने वाला दरवाजा खोलने का निर्णय लिया होगा. निश्चित रूप से कोई बड़ी परेशानी रही होगी. वरना यह दरवाजा तो दिन के समय तक दोनों तरफ से बंद रहता है. आशंकाओं से भरी अनुभा ने कुछ झिझकते हुए दरवाजा खोल दिया.

आंखों के सामने का दृश्य अविश्वसनीय था. सुगम और सुलभा अंतरंग प्रणय की अवस्था में थे. अनुभा को कुछ समझ में नहीं आया की वह क्या करे. उसे चक्कर सा आ गया, वह गिरने लगी. ‘सुगम…’ अनुभा गिरने से पहले पूरी ताकत लगा कर चीखी. अनुभा की चीख में इतनी तेजी तो थी ही कि वह प्रगत प्रताप और जैविका की नींद खोल सके.

‘‘यह तो अनुभा की आवाज है. पेट से है. कहीं कुछ गड़बड़,’’ कहते हुए आशंकित जैविका उठ बैठी.

‘‘चलो,चल कर कर देखते हैं,’’ प्रगत प्रताप बिस्तर छोड़ते हुए बोले.

तेज कदमों से दोनों सुगम के कमरे की तरफ चल दिए. चूंकि आगे वाले दरवाजे का सांकल खुला हुआ ही था, इसलिए ढकेलते ही खुल गया. कमरे में सुगम व अनुभा दोनों को न पा कर वे भी कमरों को जोड़ने वाले दरवाजे की तरफ दौड़े.

फर्श पर अनुभा को लगभग बेहोश व सुगम और सुलभा को साथ खड़ा देख कर प्रगत प्रताप और जैविका को माजरा समझते देर न लगी.

‘‘यह क्या सुगम? कितना नीचे गिर गए हो तुम? अपने बड़े भाई की पत्नी के साथ इस तरह के संबंध रखते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती,’’ प्रगत प्रताप सुगम को डांटते हुए बोले.

‘‘सुलभा तुम? तुम तो सुगम से बड़ी हो, उम्र में भी और ओहदे व मानमर्यादा में भी,’’ जैविका सुलभा को डांटते हुए बोली, ‘‘डायन भी सात घर छोड़ कर बच्चे खाती है.’’

‘‘वाह, सुगम, खूब नाम रोशन किया है हमारा. इंग्लिश स्कूल में तुम को शिक्षा दिलवाई थी परंतु देशी सभ्यता और संस्कृति को भूलने को नहीं कहा था. दुनिया को अब क्या मुंह दिखाऊंगा,’’ प्रगत प्रताप की आंखों में आंसू आ गए. आवाज भर्रा गई.

सुगम व सुलभा मुजरिमों की तरह सिर झुकाए खड़े थे. अब तक अनुभा भी कुछकुछ होश में आ गई थी.

प्रगत प्रताप इस शहर के जानेमाने उद्योगपति हैं. इन्होंने अपनी काबिलीयत के दम पर अपने पुरखों से विरासत में मिले ब्याजबट्टे के धंधे को छोड़ कर कारखाना डालने की हिम्मत की. और आज सफलता के उस मुकाम पर हैं जहां पहुंचने की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. परिवार में पत्नी जैविका और 3 बच्चे हैं. सब से बड़ी लड़की सरला की शादी हो चुकी है जो अपनी ससुराल में सुखी है. उस से छोटा लड़का अगम है. अगम की उम्र 34 साल है. अगम की पत्नी का नाम सुलभा है और दोनों की शादी 5 साल पहले हुई है. इन दोनों की एक बेटी है जिस का नाम विधा है. सब से छोटा बेटा सुगम है जो लगभग 27 साल का है जो यह नई वाली फैक्टरी को संभालता है. सुगम भी शादीशुदा है और अभी पिछले महीने ही शादी की पहली सालगिरह बड़ी धूमधाम से मनाई है. इस की पत्नी अनुभा अभी एक माह की गर्भवती है.

प्रगत प्रताप अपने नाम के अनुरूप प्रगतिशील विचारधारा के तो हैं ही, साथ ही अपने पुरखों द्वारा दी गई सीख का सम्मान करने वाले भी हैं. शायद यह ही कारण है कि नए व्यवसाय को अपनाने के बावजूद उन्होंने अपनी हवेली के नवीनीकरण के समय पुरखों की मान्यता को ध्यान में रखते हुए हवेली की आमूलचूल डिजाइन पुरानी ही रखी. 20 कमरों वाली इस हवेली की खासीयत यह है कि यदि इस के सभी दरवाजे खोल दिए जाएं तो सब कमरे अंदर ही अंदर एकदूसरे से जुड़ जाएं.

इन सब के अतिरिक्त, प्रगत प्रताप की खासीयत और थी. वे बेहद न्यायप्रिय थे. यही कारण था कि उन की फैक्टरियों में एक भी मजदूर मैनेजमैंट विरोधी नहीं था. सभी कर्मचारी उन के फैसलों का सम्मान करते थे.

अगम पिछले 2 दिनों से कारखाने के काम के सिलसिले में शहर से बाहर गया हुआ था. उस का सप्ताहभर बाद लौटने का प्रोग्राम था. पिछले 6 महीनों से कारखाने के विस्तारीकरण का काम चल रहा था. इसी कारण अगम ज्यादातर बाहर ही रहता था.

‘‘क्यों किया तुम ने ऐसा सुगम?’’ अनुभा की रुलाई अब फूट पड़ी थी.

‘‘जवाब दो सुगम, असली गुनाहगार तो तुम अनुभा के ही हो? और सुलभा, तुम अगम को क्या जवाब दोगी? किस मुंह से उस के सामने जाओगी. क्या उस के विश्वास का जवाब यह अविश्वास, फरेब और धोखेबाजी ही है?’’ जैविका की रुलाई भी अब फूट पड़ी थी.

‘‘जवाब दो सुगम, जवाब दो. तुम्हें हमारे होने वाले बच्चे की कसम, बताओ, मुझ में क्या कमी थी जो तुम ने मेरे साथ यह दगाबाजी की,’’ अनुभा बच्चों की तरह बिलख कर रोते हुए सुगम से प्रश्न करती रही.

सुगम व सुलभा मूर्ति की तरह निश्चल खड़े रहे.

‘‘जवाब दो सुगम. तुम्हें अपने होने वाले बच्चे की कसम है,’’ अनुभा ने अपना प्रश्न फिर जोर दे कर दोहरा दिया. अनुभा ने अपना प्रश्न 3-4 बार दोहरा दिया.

‘‘नहीं अनुभा, तुम में या तुम्हारे प्यार में कोई कमी नहीं है. लेकिन कुछ ‘अतिरिक्त’ पाने की चाह में हम दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षित हो गए,’’ सुगम दबी आवाज में सफाई देते हुए बोला.

‘‘क्या हर स्त्री और पुरुष के अंगों की बनावट अलगअलग होती है? कहां से तुम्हें कुछ ‘अतिरिक्त’ मिलेगा? आखिर यह ‘अतिरिक्त’ क्या है? और सब से बड़ा प्रश्न यह ‘अतिरिक्त’ पा कर समाज में कितना सम्मान मिलेगा? समाज में तुम्हारा ओहदा कितना बढ़ जाएगा? अपनी पत्नी के अलावा कितनी और स्त्रियों से संबंध रखे हैं तुम ने? और कितना कुछ ‘अतिरिक्त’ पाया तुम ने. यह जानने के बाद कौन सी संस्था पुरस्कृत करने वाली है तुम्हें? मुझे बताओ तो जरा,’’ प्रगत प्रताप गुस्से से भर कर सुगम से पूछ बैठे.

‘‘सुगम, तुम्हें एक बार भी नहीं लगा कि तुम मुझ से विश्वासघात कर के कितना बड़ा गुनाह कर रहे हो. मैं तुम्हारा साथ और संबंल पाने की खातिर अपने मां, बाप, भाई, बहन सभी को छोड़ कर आई हूं सिर्फ तुम्हारे भरोसे पर…’’ अनुभा रोए जा रही थी.

‘‘गुनाह तो इस कुलटा का भी है. यह भी इस गुनाह में बराबर की साझीदार है,’’ जैविका सुलभा की तरफ इशारा कर के बोलीं.

सुगम अपना अपमान सहन कर रहा था लेकिन जैसे ही जैविका ने सुलभा के प्रति सख्त शब्दों का इस्तेमाल किया तो वह तिलमिला उठा. उस की सुलभा के प्रति यह सहानुभूति शायद तात्कालिक शारीरिक संबंधों की वजह से थी.

‘‘गुनाह, कौन सा गुनाह मम्मी?

2 शादीशुदा स्त्रीपुरुष के बीच आपसी संबंध को तो अदालत भी गुनाह नहीं मानती. इन संबंधों के आधार पर किसी को सजा नहीं मिल सकती है, न ही किसी को परेशान किया जा सकता है,’’ सुगम अब अपनी बेशर्मी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का जामा पहनाने लगा.

सुगम की इस दलील को सुन कर प्रगत प्रताप सुन्न रह गए. उन्हें लगा यह उन के दिए गए संस्कारों की हार है. अब तक अपनेआप को संभाले हुए प्रगत प्रताप और अधिक सहन नहीं कर पाए, फूटफूट कर रो पड़े.

सुगम को अपने मजबूत पिता से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद न थी. वह सोच रहा था. प्रगत प्रताप उसे डांटेंगे और शायद एकदो चांटें भी रसीद कर दें. उस ने अपनी मां जैविका को कई बार रोते हुए देखा था, किंतु अपने पिता का इस प्रकार बिलखबिलख कर रोना वह पहली बार देख रहा था. वह मन ही मन अपनेआप को धिक्कारने लगा. अपने पिता से नजरें मिलाने की हिम्मत उस में नहीं थी.

रोते हुए प्रगत प्रताव व जैविका अनुभा को अपने साथ ले कर कमरे से बाहर निकल गए.

सुगम व सुलभा कुछ समय तक चुपचाप खड़े रहे. शायद दोनों को ही अपनी गलती का एहसास हो गया था.

कुछ मिनटों के बाद सुगम भी वापस कमरे में आ गया. अनुभा पहले ही अपने सासससुर के साथ उन के कमरों में चली गई थी.

दूसरे दिन सुबह हमेशा की तरह प्रगत प्रताप के पास अगम का फोन आया. वह बड़े उत्साह के साथ अपने व्यवसाय की सफलता की बातें बता रहा था. उसे कई छोटेछोटे औडर्स मिल चुके थे. एक बहुत बड़े और्डर के लिए बातचीत चल रही थी. यदि यह और्डर उसे मिल जाता है तो फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखना होगा. किंतु इसे पाने के लिए उसे कम से कम एक सप्ताह और रुकना होगा.

प्रगत प्रताप नहीं चाहते थे कि इस घटना के कारण से अगम के व्यवसाय पर कोई उलटा असर पड़े, सो उन्होंने उसे जरूरत के मुताबिक काम करने की सलाह दी.

2 दिनों तक घर में मुर्दनी सी छायी रही. सभी सदस्य एकदूसरे से कटते से रहे. कोई किसी से नजरें मिलाने की स्थिति में नहीं था. सभी अपनेअपने कमरों में बंद थे. कोई भी काम पर नहीं गया. तीसरे दिन नाश्ते की टेबल पर सुगम ने सभी को बुलवाया. सभी की आंखों में एक अजीब तरह की उदासी थी. सुलभा की आंखों से भी पछतावे के आंसू बह रहे थे.

‘‘पिताजी, मैं अपनी गलती स्वीकार करती हूं. मुझ से बहुत ही बड़ी गलती हुई है. मैं ने आप की शिक्षा व सामाजिकता और अनुभा के विश्वास को गहरी चोट पहुंचाई है.’’

मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है मैं अनुभा को ले कर दूसरे घर में शिफ्ट हो जाता हूं, क्योंकि यहां रहने पर मैं हमेशा अपराधबोध से ग्रस्त रहूंगा. इस अवस्था में साथ रहना दोनों परिवारों के लिए ठीक नहीं होगा. मैं अनुभा को वचन देता हूं कि भविष्य में मुझ से इस तरह की कोई गलती नहीं होगी,’’ यह सब कहते समय सुगम की आंखें भीगी हुई थीं.

‘‘लेकिन अगम को क्या कहेंगे?’’ प्रगत प्रताप ने पूछा.

‘‘उस से शहर में हमारा जो दूसरा घर है उस पर कुछ लोग कब्जा करना चाहते थे. सो, आननफानन यह फैसला लेना पड़ा वरना प्रौपर्टी हाथ से चली जाती. उन्हें असली बात मत बताइए वरना कोई भी अपने भाई व पत्नी पर विश्वास नहीं करेगा,’’ सुगम लगभग रोते हुए बोला.

‘‘तुम क्या कहती हो अनुभा? वैसे, पहली गलती तो सभी माफ कर देते है,’’ प्रगत प्रताप ने अनुभा की तरफ देख कर पूछा.

‘‘जैसा आप उचित समझें, पिताजी,’’ कहते हुए अनुभा की आंखों में भी आंसू थे पर घाव तो गहरा था और भरे या न भरे, पता नहीं. Social Story

Family Story : अब बस पापा – जब एक बेटी बनी मां की ढाल

Family Story : आशा का मन बहुत परेशान था. आज पापा ने फिर मां के ऊपर हाथ उठाया था. विमला, उस की मां 70 साल की हो चली थी. इस उम्र में भी उस के 76 वर्षीय पिता जबतब अपनी पत्नी पर हाथ उठाते थे. अभीअभी मोबाइल पर मां से बात कर के उस का मन आहत हो चुका था. पर उस की मजबूरी यह थी कि वह अपनी यह परेशानी किसी को बता नहीं सकती थी. अपने पति व बच्चों को भी कैसे बताती कि इस उम्र में भी उस के पिता उस की मां पर हाथ उठाते हैं.

मां के शब्द अभी भी उस के दिमाग में गूंज रहे थे, ‘बेटा, अब और नहीं सहा जाता है. इन बूढ़ी हड्डियों में अब इतनी जान नहीं बची है कि तुम्हारे पापा के हाथों से बरसते मुक्कों का वेग सह सकें. पहले शरीर में ताकत थी. मार खाने के बाद भी लगातार काम में लगी रहती थी. कभी तुम लोगों पर अपनी तकलीफ जाहिर नहीं होने दी. पर अब मार खाने के बाद हाथ, पैर, पीठ, गरदन पूरा शरीर जैसे जवाब दे देता है. दर्द के कारण रातरात भर नींद नहीं आती है. कराहती हूं तो भी चिल्लाते हैं. शरीर जैसे जिंदा लाश में तबदील हो गया है. जी करता है, या तो कहीं चली जाऊं या फिर मौत ही आ जाए ताकि इस दर्द से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए. पर दोनों ही बातें नहीं हो पातीं. चलने तक को मुहताज हो गई हूं.’

आशा मां के दर्द, पीड़ा और बेबसी से अच्छी तरह वाकिफ थी, लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. मां को अपने घर ले आना भी तो समस्या का समाधान नहीं था, और आखिर कब तक मां को वह अपने घर रख सकती थी? अपनी घरगृहस्थी के प्रति भी तो उस की कोई जिम्मेदारी थी. ऊपर से भाइयों के ताने सुनने को मिलते, सो अलग. उस के दोनों भाई अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्त थे. अलग रह रहे मांबाप की भी कभीकभी टोह ले लिया करते थे.

वैसे तो बचपन से उस ने अपनी मां को पापा से मार खाते देखा था. घर के हर छोटेबड़े निर्णय पर मां की चुप्पी व पिता के कथन की मुहर लगते देखा था. वह दोनों के स्वभाव से परिचित थी. वह जानती थी कि सदा से ही घरगृहस्थी के प्रति बेपरवाह व लापरवाह पापा के साथ मां ने कितनी तकलीफें सही हैं और बड़ी मेहनत से तिनकातिनका जोड़ कर अपनी गृहस्थी बसाई व बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया. वरना पापा को तो यह तक नहीं मालूम था कि कौन सा बच्चा किस क्लास में पढ़ रहा है. वे तो अपनी मौजमस्ती में ही सदा रमे रहे.

उन दोनों के व्यक्तित्व व व्यवहार में जमीनआसमान का फर्क था. एक तरफ जहां मां आत्मविश्वासी, ईमानदार, मेहनती, कुशल और सादगीपसंद महिला थीं, वहीं दूसरी ओर उस के पिता मस्तमौला, स्वार्थी, लालची और रसिया किस्म के इंसान थे, जो स्थिति के अनुसार अपना रंग बदलने में भी माहिर थे. आज भी दोनों के व्यक्तित्व में इंचमात्र भी अंतर नहीं आया था. हां, शारीरिक रूप से अस्वस्थ व कमजोर होने के कारण मां थोड़ी चिड़चिड़ी अवश्य हो गई थीं. इसलिए अब जब भी उन के बीच वादविवाद की स्थिति बनती थी तो वे प्रत्युत्तर में पापा को बुराभला जरूर कहती थीं. यह बात पापा को कतई बरदाश्त नहीं होती थी. आखिर सालों से वे उन होंठों पर चुप्पी की मुहर देखते आए थे, सो, इस बात को हजम करने में उन्हें बहुत मुश्किल होती थी कि उन की पत्नी उन से जबान लड़ाती है. दोनों भाई भी यों तो मां को बहुत प्यार करते थे लेकिन उन की आपसी लड़ाई में अकसर पापा का ही पक्ष लिया करते थे.

आशा को मालूम था कि पिछली बार जब पापा ने मां पर हाथ उठाया था तो अत्यधिक आवेश व क्षोभ में मां ने भी उन का हाथ पकड़ कर उन्हें झिंझोड़ दिया था, और सख्त ताकीद की थी कि वे अब ये सब नही सहेंगी. तब आननफानन पापा ने सभी बच्चों को फोन लगा कर उन्हें उन की मां द्वारा की गई इस हरकत के बारे में बताया था. तब छोटे भैया ने घर पहुंच कर मां को खूब लताड़ लगाई थी और यह तक कह दिया था कि आप की बहू आप से सौ गुना अच्छी है, जो अपने पति से इस तरह का व्यवहार तो नहीं करती है. पता नहीं, पर शायद उन की भी पुरुषवादी सोच मां के इस कृत्य से आहत हो गई थी.

आशा को बहुत बुरा लगा था, आखिर इन मर्दों को यह क्यों नहीं समझ आता कि औरत भी हाड़मांस से बनी एक इंसान है, वह कोई मशीन नहीं जिस में कोई संवेदना न हो. उसे भी दर्द और तकलीफ होती है, वह भी कितना और कब तक सहे? और आखिर सहे भी क्यों?

भैया ने उस से भी फोन कर मां की शिकायत की थी, इस उद्देश्य से कि वह मां को समझाए कि इस उम्र में ये बातें उन्हें शोभा नहीं देतीं. बोलना तो वह भी बहुतकुछ चाहती थी, पर इस डर से कि बात कहीं और न बिगड़ जाए, सिर्फ हांहूं कर के फोन रख दिया था. काश, उस वक्त उस ने भी सचाई बोल कर भाई का मुंह बंद कर दिया होता, कि भैया, मां से तो आप की पत्नी की तुलना हो भी नहीं सकती है. क्योंकि न ही वे भाभी जैसे झूठ बोलने में यकीन रखती हैं और न अपना आत्मसम्मान कभी गिरवी रख सकती हैं. उन्होंने तो सदा सिर्फ अपनी जिम्मेदारियां ही निभाई हैं, बिना अपने अधिकारों की परवा किए. पर आप की पत्नी तो हमेशा से ही मस्त व बिंदास रही हैं, जबजब आप ने उन की मरजी के खिलाफ कोई भी काम किया है तबतब उन्होंने क्याक्या तांडव किए हैं, क्या आप को याद नहीं है? और अब जबकि आप उन की जीहुजूरी में हमेशा ही लगे रहते हो तो वे आप का विरोध करेंगी ही क्यों? भाभी की याद करतेकरते आशा के मुंह में जैसे कड़वाहट सी घुल गई.

विचारों के भंवर में इसी तरह गोते लगाती हुई आशा की तंद्रा दरवाजे की घंटी की आवाज से टूट गई. घड़ी की ओर निगाहें घुमा कर वह मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘अब कैसे होगा काम, बच्चे आ गए, आज उस का सारा काम पड़ा हुआ है.’ भारी मन से उठते हुए उस ने दरवाजा खोला, तो चहकते हुए दोनों बच्चों ने घर में प्रवेश किया, ‘‘ममा, पता है, आज ड्राइंग टीचर को मेरी ड्राइंग बहुत अच्छी लगी, पूरी क्लास ने मेरे लिए क्लैप किया. टीचर ने मुझे टू स्टार्स भी दिए हैं. देखो,’’ नन्हीं परी ने मां को अपनी ड्राइंग शीट दिखाते हुए कहा.

‘‘ओहो, मेरी रानी बिटिया तो बड़ी होशियार है, आई एम प्राउड औफ यू,’’ कहते हुए उस ने नन्हीं परी को गले लगा लिया. परी अभी 7 साल की थी व दूसरी कक्षा में पड़ती थी. उस से बड़ा सौरभ था. जो कि 7वीं क्लास में पढ़ता था.

‘‘ममा, बहुत भूख लगी है, मेरे लिए पहले खाना लगा दो प्लीज,’’ सौरभ अपना बैग रखते हुए बोला.

‘‘ओके, बच्चो, आप फ्रैश हो कर आओ, तब तक मैं जल्दी से आप के लिए खाना परोसती हूं,’’ कह कर आशा किचन की तरफ चल दी. उस ने अभी तक कुछ भी खाने को नहीं बनाया था. बस, कामवाली काम कर के जा चुकी थी, लेकिन उस ने घर भी नहीं समेटा था. बच्चों की पसंद ध्यान में रखते हुए उस ने जल्दी से गरमागरम परांठे और आलू फ्राई बना कर सौस के साथ परोस दिया. बच्चों को खिलातेखिलाते भी उस के दिमाग में कुछ उधेड़बुन चल रही थी.

कुछ देर बाद उस ने दोनों बच्चों को तैयार कर अपनी पड़ोसिन सीमा के पास छोड़ा. और खुद सीधा अपनी मां के घर चल दी. वहां पहुंच कर पता चला कि पापा कहीं बाहर गए हैं. मां की हालत देख उस की रुलाई फूट पड़ी, पर अपने आंसुओं को जब्त कर वह बड़े ही शांत स्वर में बोली, ‘‘मां, चलो तैयार हो जाओ, हमें पुलिस स्टेशन चलना है.’’

‘‘लेकिन बेटा, एक बार और सोच

ले. अभी बात ढकी हुई है, कल को आसपड़ोस, समाजबिरादरी, नातेरिश्तेदारों तक फैल जाएगी. लोग क्या कहेंगे? बहुत बदनामी होगी हमारी. सब क्या सोचेंगे?’’ मां ने कुछ अनुनयपूर्वक कहा.

‘‘जिस को जो सोचना है सोच ले, मगर अब मैं आप को और जुल्म सहने नहीं दूंगी. मां, तुम समझती क्यों नहीं हो, जुल्म सहना भी एक बहुत बड़ा अपराध है और आज तक आप सब सहती आई हो. आप की इसी सहनशीलता ने पापा को और प्रोत्साहित किया. मगर अब, पापा को यह बात समझनी ही होगी कि आप पर हाथ उठाना उन के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है.’’

मां को तैयार कर आटो में उन का हाथ थाम कर उन के साथ बैठती आशा ने जैसे मन ही मन ठान लिया था, अब बस, पापा. Family Story

Social Story In Hindi : बरात के चस्के

Social Story In Hindi : चाहे रात भर खाना न मिले लेकिन बरात का अपना एक अलग मजा है. ऐसा मजा जो न सेब में है न सेब के जूस में. बरात के आनंद को महसूस किया जाता है. उस का सहीसही वर्णन किया जाना उतना ही मुश्किल है जितना गधे को स्वीमिंग पूल में नहलाना.

घर में शादी का कार्ड देख कर मन राष्ट्रीय चैनल से एम टीवी में अपनेआप बदल गया. कार्ड सुंदर था. हिंदुस्तान में वरवधू चाहे खूबसूरत, सुघड़ हों न हों, लेकिन उन की शादी के कार्ड जरूर ही सुंदर होते हैं. लड़की के हाथों की मेहंदी का डिजाइन भले ही टेढ़ामेढ़ा, आड़ातिरछा क्यों न हो लेकिन कार्ड की छपाई बहुत ही आकर्षक होती है.

शादी का कार्ड फ्रिज के ऊपर रखा था. आमतौर पर मध्यवर्गीय घरों में शादी के कार्ड, राशनकार्ड, बिजली का बिना जमा किया बिल, बच्चों के रिजल्टकार्ड…सब के सब फ्रिज के ऊपर ही रखे जाते हैं. फ्रिज, अंदर का सामान तो ठंडा रखता ही है, ऊपर रखे टैंशन वाले कागजात भी ठंडा कर देता है. ठंडे बस्ते में डालना कहावत पुरानी हो गई है, नए जमाने की कहावत ‘फ्रिज के ऊपर रखना’ हो सकती है.

हमें मालूम था कि पड़ोसी शर्माजी के छोटे साहबजादे लल्लू की शादी है. बड़े वाले कल्लू की शादी तो हम 3 साल पहले ही निबटा चुके थे. कल्लू की शादी की यादें मन में जीवंत हो उठीं. खासतौर पर पनीर और छोले के स्वाद जीभ पर ताजा हो गए. मन में स्वाद ध्यान आते ही लगभग 10 प्रतिशत स्वाद तो मिल ही गया.

हम ने जानबू  झ कर श्रीमतीजी से पूछा, ‘‘यह किस की शादी का कार्ड आया है?’’

पत्नीश्री   झल्ला गईं, बोलीं, ‘‘यह कार्ड कोई तमिल या मलयालम भाषा में तो छपा नहीं है. न ही फारसी या अरबी भाषा में प्रिंट हुआ है, जो तुम्हारे पढ़ने में नहीं आ रहा है.’’

हम ने भी मोर्चा नहीं छोड़ा. कहा, ‘‘कार्ड है तो शादी ही होगी. शादी होगी तो उस में दूल्हे का होना भी निहायत जरूरी है. हमें तो खाली इतना बता दो कि दूल्हा कौन बन रहा है?’’

पत्नीश्री का मूड कुछ नौरमल हुआ तो हमारे चेहरे पर भी मुसकान तैर गई. जैसे बढ़ते शेयर सूचकांक को देख कर दलालों के चेहरों पर चमक आ जाती है. कुछ मजाक का पुट ले कर बोलीं, ‘‘कम से कम तुम तो नहीं बन रहे हो.’’

हम ने कहा, ‘‘हम तो एक बार ही वर बने थे. उस के बाद तो कुंवर, सुवर जानवर, दुष्टवर और न जाने कौनकौन से वर बन गए. हम तो शादी के समय जिस घोड़ी पर बैठे थे वह घोड़ी भी बरात के बाद जमीन पर धूल में खूब लोटी थी. शायद हमारे बैठने से उस की पीठ अपवित्र हो गई हो. जब घोड़ी तक हमारी बेइज्जती कर चुकी है तो फिर तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानें? फिर शादी के बाद तो हमारी इज्जत धोने का लाइसेंस तुम्हें मिल ही चुका है.’’

इस पर पत्नीश्री ‘हीही’ कर के हंसती रहीं.

मूड ठीक होने पर बताया कि लल्लू की 13 को शादी है. हम ने कहा कि हमारी शादी भी 13 को हुई थी, तभी से हमारी जिंदगी तीनतेरह हो गई है. कम से कम लल्लू को तो रोका जाना चाहिए. रोक नहीं सकते तो कम से कम शादी 12 या 14 तारीख को कर ले.

हमारी न चलनी थी और न चली.

13 तारीख को हम पत्नी और बच्चों के साथ रिकशे पर बैठ कर सीधे लल्लू के घर पहुंच गए. वहां पहुंच कर हमें पता चला कि शादी का कार्यक्रम घर पर नहीं है बल्कि शहर से दूर बने एक फार्महाउस में है. अब रिकशा वालों से फिर तूतू, मैंमैं. कोई जाने को तैयार नहीं तो कोई पैसे इतने मांग रहा था कि हमें लग रहा था कि हम अपने छोटे शहर में नहीं, बल्कि लोखंडवाला में खड़े हैं.

जैसेतैसे हम परिवार समेत फार्महाउस पहुंचे. वहां रिकशे से उतरते ही हम ने रोब   झाड़ा, ‘‘क्या करें, गाड़ी निकाली थी लेकिन आगे का एक पहिया पंक्चर निकला. सोचा, स्टैपनी बदल लें लेकिन तब ध्यान आया कि परसों ही तो स्टैपनी मिस्त्री के यहां डाली थी. मजबूरी में रिकशा पकड़ कर आना पड़ा.’’

पत्नीश्री दो कदम आगे बढ़ गईं, बोलीं, ‘‘मैं ने तो इन से कई बार कहा है कि एक नई गाड़ी ले लो. मेरी मान कर एक नई गाड़ी ले ली होती तो कम से कम आज रिकशे पर तो न बैठना पड़ता. मैं तो आज पहली बार रिकशे पर बैठी हूं,’’ हालांकि सुनने वाले मुंह दबा कर हंसने लगे.

थोड़ी देर में बरात चलने का माहौल बनने लगा. बरात रवाना होने से पहले माहौल बनाया जाता है. सब से पहले तो मामा या मौसा रूठ जाते हैं कि उन्हें स्टेशन पर लेने के लिए किसी को भेजा क्यों नहीं? उन की बेइज्जती करनी थी तो बुलाया ही क्यों? फिर बाकी रिश्तेदार मिल कर उन्हें मनाते हैं.

बरात के चलने से थोड़ा पहले अफरातफरी का माहौल बन जाता है. दूल्हे के चाचा ने जो नई शर्ट सिलवाई थी वह अब मिल ही नहीं रही है.

महिलाएं एक कमरा अलग से घेर लेती हैं जिस में वे तैयार होती हैं. उस कमरे में छोटीछोटी लड़कियां सब से ज्यादा चिल्लपों करती हैं. उस में कंघा ढूंढ़े नहीं मिलता है. क्रीम पर छीना  झपटी होती है. तेल की शीशी फर्श पर फैल जाती है. मैचिंग दुपट्टा खोजने पर मिलता ही नहीं है. बाद में याद आता है कि उसे तो अटैची में रखा ही नहीं था. वह तो घर पर ही रह गया.

जैसेतैसे बरात चलना शुरू करती है. जैसे ही बरात निकली, लड़कियां फैशन परेड का आयोजन करती चलती हैं. कुछ तो ऐसे चलती हैं जैसे वे रैंप पर कैटवाक कर रही हों. जिन्हें अगर सरोज खान या फरहा खान देख लें तो वे भी भौचक रह जाएं कि ऐसे डांस के स्टैप के आइडिया आखिर उन के दिमाग में क्यों नहीं आए?

अब जिन्हें डांस नहीं आता है उन्हें सिर्फ एक काम आता है कि वे बैंड वाले के पास जा कर रौब   झाड़ते हैं कि गाना बदलो. क्या बकवास गाने लगा रखे हैं. कुछ शकीला, टकीला बजाओ और खुद ताली बजाने लगते हैं. जब कुछ सम  झ में नहीं आता है तो जेब से 10 का नोट निकाल कर थोड़ी देर हवा में लहराते हैं. जब वे मुतमईन हो जाते हैं कि सभी ने उन के हाथ में 10 का नोट देख लिया है तो फिर वे उस नोट को अपने मुंह में दबा लेते हैं. जब बैंड वाला उस नोट को   झपटने की कोशिश करता है तो वे हरगिज उस नोट को नहीं देते हैं. फिर वे बैंड वाले को इशारा कर देते हैं कि डांस करते हुए आओ, तो ही नोट मिलेगा.

बैंड वाले भी कम उस्ताद नहीं होते हैं. उन की नजर लोगों के हाथों पर होती है कि किस की उंगली में नोट फंसा है. फिर वे क्लीरिनेट से तूतू तूतू की धुन निकालते हुए, थोड़ी सी कमर मटका कर अपनी 2 उंगलियां बगले की चोंच की तरह बना कर नोट   झपट ले जाते हैं.

बरात में सब से पीछे बुजुर्ग चलते हैं और वे भी चलते हैं जो अपने को शरीफ सम  झते हैं. बीच में नर्तक दल पूरे जोश में होता है. जहां भी बैंड वाले रुके, नर्तक सड़क घेर कर उस पर कब्जा कर लेते हैं, मानो नगर निगम से उन्होंने सड़क के इस टुकड़े का बैनामा करा लिया हो. सड़क पर जूते इतने घिसते हैं कि जूता सुधारने वाले खुश हो जाते हैं कि कम से कम दोचार जोड़ी तो मरम्मत के लिए जरूर आएंगे.

जहां पर नृत्य का अखिल भारतीय कार्यक्रम चल रहा होता है वहां किनारे पर जीजाजी सूटबूट में सजे खड़े हो जाते हैं. वे सोचते हैं कि सालों और उन के दोस्तों की नजर पड़ जाए तो उन्हें भी डांस के लिए खींचा जाए. उन्हें डांस करने के लिए मनाया जाए. ध्यान खींचने को वे डांस को सपोर्ट करते हुए ताली बजाने लगते हैं. तभी साले उन के पास डांस करते हुए आते हैं और डांस के डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. फ्लोर पर खींचने लगते हैं. अब एक बार में मान जाएं तो काहे के जीजाजी. पहले तो वे नानुकर करते हैं फिर एकदम हरकत में आते हुए डांस जैसी हरकत करने लगते हैं.

उन के डांस पर ससुरालीजन नोटिस लेते हुए तारीफें करते हैं, सालियां मुंह बना कर हंसती हैं. हालांकि वे मन ही मन कहती हैं कि डांस करते हुए कैसे बंदर लग रहे हैं और उछल तो भालू की तरह रहे हैं लेकिन कुछ स्टैप चिंपैंजी से भी मेल खा रहे हैं…

बरात सफर तय करती हुई फार्म हाउस के गेट पर पहुंच जाती है. बस, यही वह स्थान है जहां पर पूरी ताकत दिखाई जानी है. सभी हथियार चलाए जाने हैं. लास्ट में ब्लास्ट भी करना है ताकि पता चल सके कि हमारे पास परमाणु बम भी है. यहां पर तो जवान, नौजवान, बूढ़े, महिला, बच्चे…सभी को डांस करना जरूरी है. मान्यता है कि लड़की वाले के गेट पर डांस करने से कुंभ नहाने का पुण्य मिलता है. यहां पर भीड़भाड़ कुंभ के समान ही होती है, जिस में छोटे बच्चे बिछड़ जाते हैं जो बाद में चाउमिन के स्टाल पर मिलते हैं.

जम कर नृत्य प्रतियोगिता के बाद अब अंदर घुसते ही बरातियों की नजर भोजन वाले पंडाल को ढूंढ़ती है. एक तरफ कुछ डोंगे मेजों पर सजे दिखाई देते हैं. मगर यह क्या? डोंगे अभी ढके हुए हैं. उन के आसपास वरदीधारी वेटर टहलटहल कर पहरा दे रहे हैं जिस से कि कोई डोंगा खोल कर शुरू न हो जाए. डोंगा खुलते ही संग्राम शुरू. ‘हम लाए हैं तूफान से पूड़ी निकाल के – मेरे देश के बच्चो इसे खाना संभाल के’ की तर्ज पर एक बार में ही फाइबर की प्लेट में इतना कुछ भर लाए कि कौन जाने दोबारा भरने का मौका भीड़ में मिले या न मिले.

बरात का आनंद उठा कर हम घर लौटे तो देखा कि साहबजादे ने एक पौलिथीन खोल कर मेज पर रख दी जिस में बरात का खाना था. हम ने पूछा तो बोले, ‘‘हम से वहां खाया नहीं गया तो हम चुपचाप परोसा ले आए.’’ ऊपर से हम गुस्सा हुए लेकिन मन ही मन अच्छा लगा. बरात का खाना घर ला कर गरम कर के खाओ तो स्वाद ऐसे बढ़ जाता है जैसे शरबती चावल, बासमती चावल के रूप में बदल गया हो.

बरात में चाहे जितनी फजीहत हो लेकिन हर बार मन नहीं मानता है. हम हर बार कहते हैं कि अब बरात में नहीं जाएंगे लेकिन ये बात नई बरात के निमंत्रण से पहले तक ही याद रह पाती है. हम ने श्रीमतीजी को आवाज लगाई, ‘‘देखना, अब किस की शादी पड़ रही है?’’

श्रीमतीजी गुस्से से बोलीं, ‘‘अब तो हमारी शादी है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘आखिर किस से?’’

हमारी पत्नी हंस कर बोलीं, ‘‘तुम से और किस से.’’ Social Story In Hindi

Family Story In Hindi : सब को साथ चाहिए

Family Story In Hindi : पति की मौत के बाद माधुरी क्षतविक्षत हो चुकी थी लेकिन उस के जीवन में एक ऐसा व्यक्ति आया कि न सिर्फ वह अपने गमों को भुला सकी बल्कि उसे एक ऐसा खुशहाल परिवार मिला कि वह निहाल हो गई. आखिर यह सब हुआ कैसे?

सुधीर के औफिस के एक सहकर्मी रवि के विवाह की 25वीं वर्षगांठ थी. उस ने एक होटल में भव्य पार्टी का आयोजन किया था तथा बड़े आग्रह से सभी को सपरिवार आमंत्रित किया था. सुधीर भी अपनी पत्नी माधुरी और बच्चों के साथ ठीक समय पर पार्टी में पहुंच गए. सुधीर और माधुरी ने मेजबान दंपती को बधाई और उपहार दिया. रविजी ने अपनी पत्नी विमला से माधुरी का और उन के चारों बच्चों का परिचय करवाया, ‘‘विमला, इन से मिलो. ये हैं सुधीरजी, इन की पत्नी माधुरी और चारों बच्चे सुकेश, मधुर, प्रिया और स्नेहा.’’

‘‘नमस्ते,’’ कह कर विमला आश्चर्य से चारों को देखने लगी. आजकल तो हम दो हमारे दो का जमाना है. भला, आज के दौर में 4-4 बच्चे कौन करता है? माधुरी विमला के चेहरे से उन के मन के भावों को समझ गई पर क्या कहती.

तभी प्रिया ने सुकेश की बांह पकड़ी और मचल कर बोली, ‘‘भैया, मुझे पानीपूरी खानी है. भूख लगी है. चलो न.’’

‘‘नहीं भैया, कुछ और खाते हैं, यह चटोरी तो हमेशा पहले पानीपूरी खिलाने ही ले जाती है. वहां दहीबड़े का स्टौल है. पहले उधर चलो,’’ स्नेहा और मधुर ने जिद की.

‘‘भई, पहले तो वहीं चला जाएगा जहां हमारी गुडि़या रानी कह रही है. उस के बाद ही किसी दूसरे स्टौल पर चलेंगे,’’ कह कर सुकेश प्रिया का हाथ थाम कर पानीपूरी के स्टौल की तरफ बढ़ गया. मधुर और स्नेहा भी पीछेपीछे बढ़ गए.

‘‘यह अच्छा है, छोटी होने के कारण हमेशा इसी के हिसाब से चलते हैं भैया,’’ मधुर ने कहा तो स्नेहा मुसकरा दी. चाहे ऊपर से कुछ भी कह लें पर अंदर से सभी प्रिया को बेहद प्यार करते थे और सुकेश की बहुत इज्जत करते थे. क्यों न हो वह चारों में सब से बड़ा जो था. चारों जहां भी जाते एकसाथ जाते. मजाल है कि स्नेहा या मधुर अपनी मरजी से अलग कहीं चले जाएं. थोड़ी ही देर में चारों अलगअलग स्टौल पर जा कर खानेपीने की चीजों का आनंद लेने लगे और मस्ती करने लगे.

सुधीर और माधुरी भी अपनेअपने परिचितों से बात करने लगे. किसी काम से माधुरी महिलाओं के एक समूह के पास से गुजरी तो उस के कानों में विमला की आवाज सुनाई दी. वह किसी से कह रही थी, ‘‘पता है, सुधीरजी और माधुरीजी के 4 बच्चे हैं. मुझे तो जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ. आजकल के जमाने में तो लोग 2 बच्चे बड़ी मुश्किल से पाल सकते हैं तो इन्होंने 4 कैसे कर लिए.’’

‘‘और नहीं तो क्या, मैं भी आज ही उन लोगों से मिली तो मुझे भी आश्चर्य हुआ. भई, मैं तो 2 बच्चे पालने में ही पस्त हो गई. उन की जरूरतें, पढ़ाई- लिखाई सबकुछ. पता नहीं माधुरीजी 4 बच्चों की परवरिश किस तरह से मैनेज कर पाती होंगी?’’ दूसरी महिला ने जवाब दिया.

माधुरी चुपचाप वहां से आगे बढ़ गई. यह तो उन्हें हर जगह सुनने को मिलता कि उन के 4 बच्चे हैं. यह जान कर हर कोई आश्चर्य प्रकट करता है. अब वह उन्हें क्या बताए? घर आ कर चारों बच्चे सोने चले गए. सुधीर भी जल्दी ही नींद के आगोश में समा गए. मगर माधुरी की आंखों में नींद नहीं थी. वह तो 6 साल पहले के उस दिन को याद कर रही थी जब माधुरी के लिए सुधीर का रिश्ता आया था. हां, 6 साल ही तो हुए हैं माधुरी और सुधीर की शादी को. 6 साल पहले वह दौर कितना कठिन था. माधुरी को बड़ी घबराहट हो रही थी. पिछले कई दिनों से वह अपने निर्णय को ले कर असमंजस की स्थिति में जी रही थी.

माधुरी का निर्णय अर्थात विवाह का निर्णय. अपने विवाह को ले कर ही वह ऊहापोह में पड़ी हुई थी. घबरा रही थी. क्या होगा? नए घर में सब उसे स्वीकारेंगे या नहीं?

विवाह को ले कर हर लड़की के मन में न जाने कितनी तरह की चिंताएं और घबराहट होती है. स्वाभाविक भी है, जन्म के चिरपरिचित परिवेश और लोगों के बीच से अचानक ही वह सर्वथा अपरिचित परिवेश और लोगों के बीच एक नई ही जमीन पर रोप दी जाती है. अब इस नई जमीन की मिट्टी से परिचय बढ़ा कर इस से अपने रिश्ते को प्रगाढ़ कर यहां अपनी जड़ें जमा कर फलनाफूलना मानो नाजुक सी बेल को अचानक ही रेतीली कठोर भूमि पर उगा दिया जाए.

लेकिन माधुरी की घबराहट अन्य लड़कियों से अलग थी. नई जमीन पर रोपे जाने का अनुभव वह पहले भी देख चुकी थी. उस जमीन पर अपनी जड़ें जमा कर खूब पल्लवित हो कर नाजुक बेल से एक परिपक्व लताकुंज में परिवर्तित भी हो चुकी थी, लेकिन अचानक ही एक आंधी ने उसे वहां से उखाड़ दिया और उस की जड़ों को क्षतविक्षत कर के उस की जमीन ही उस से छीन ली.

2 वर्ष पहले मात्र 43 वर्ष की आयु में ही माधुरी के पति की हृदयगति रुक जाने से आकस्मिक मृत्यु हो गई. कौन सोच सकता था कि रात में पत्नी और बच्चों के साथ खुल कर हंसीमजाक कर के सोने वाला व्यक्ति फिर कभी उठ ही नहीं पाएगा. इतना खुशमिजाज, जिंदादिल इंसान था प्रशांत कि सब के दिलों को मोह लेता था, लेकिन क्या पता था कि उस का खुद का ही दिल इतनी कम उम्र में उस का साथ छोड़ देगा.

माधुरी तो बुरी तरह टूट गई थी. 18 सालों का साथ था उन का. 2 प्यारे बच्चे हैं, प्रशांत की निशानी, प्रिया और मधुर. मधुर तो तब मात्र 16 साल का हुआ ही था और प्रिया अपने पिता की अत्यंत लाडली बस 12 साल की ही थी. सब से बुरा हाल तो प्रिया का ही हुआ था.

एक खुशहाल परिवार एक ही झटके में तहसनहस हो गया. महीनों लगे थे माधुरी को इस सदमे से बाहर आ कर संभलने में. उम्र ही क्या थी उस की. मात्र 37 साल. वह तो उस के मातापिता ने अपना कलेजा मजबूत कर के उसे सांत्वना दे कर इतने बड़े दुख से उबरने में उस की मदद की. प्रिया और मधुर के कुम्हलाए चेहरे देख कर माधुरी ने सोचा था कि अब ये दोनों ही उस का जीवन हैं. अब इन के लिए उसे मजबूत छत बनानी है.

साल भर में ही वह काफी कुछ स्थिर हो गई थी. जीवन आगे बढ़ रहा था. मधुर मैडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था. प्रिया भी पढ़ने में तेज थी. स्कूल में अव्वल आती, लेकिन माधुरी की सूनी मांग और माथा देख कर उस की मां के कलेजे में मरोड़ उठती, इतना लंबा जीवन अकेले वह कैसे काट पाएगी?

‘अकेली कहां हूं मां, आप दोनों हो, बच्चे हैं,’ माधुरी जवाब देती.

‘हम कहां सारी उम्र तुम्हारा साथ दे पाएंगे बेटा. बेटी शादी कर के अपने घर चली जाएगी और मधुर पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में न जाने कौन से शहर में रहेगा. फिर उस की भी अपनी दुनिया बस जाएगी. तब तुम्हें किसी के साथ की सब से ज्यादा जरूरत पड़ेगी. यह बात तो मैं अपने अनुभव से कह रही हूं. अपने निजी सुखदुख बांटनेसमझने वाला एक हमउम्र साथी तो सब को चाहिए होता है, बेटी,’ मां उदास आवाज में कहतीं.

माधुरी उस से भी गहरी उदास आवाज में कहती, ‘मेरी जिंदगी में वह साथ लिखा ही नहीं है, मां.’

माधुरी का जवाब सुन कर मां सोच में पड़ जातीं. माधुरी को तो पता ही नहीं था कि उस के मातापिता इस उम्र में उस की शादी फिर से करवाने की सोच रहे हैं. 3 महीने पहले ही उन्हें सुधीर के बारे में पता चला था. सुधीर की उम्र 45 वर्ष थी. 2 वर्ष पूर्व ही ब्रेन ट्यूमर की वजह से उन की पत्नी की मृत्यु हो गई थी. 2 बच्चे 19 वर्ष का बेटा और 15 वर्ष की बेटी है. घर में सुधीर की वृद्ध मां भी है. नौकरचाकरों की मदद से पिछले 2 वर्षों से वह 68 साल की उम्र में जैसेतैसे बेटे की गृहस्थी चला रही थीं.

माधुरी की मां ने सुधीर की मां को माधुरी के बारे में बता कर विवाह का प्रस्ताव रखा. सुधीर की मां ने सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया. वयस्क होती बेटी को मां की जरूरत का हवाला दे कर और अपने बुढ़ापे का खयाल करने को उन्होंने सुधीर को विवाह के लिए मना लिया.

‘मैं बूढ़ी आखिर कब तक तेरी गृहस्थी की गाड़ी खींच पाऊंगी. और फिर कुछ सालों बाद तेरे बच्चों का ब्याह होगा. कौन करेगा वह सब भागदौड़ और उन के जाने के बाद तेरा ध्यान रखने को और सुखदुख बांटने को भी तो कोई चाहिए न. अपनी मां की इस बात पर सुधीर निरुत्तर हो गए और वही सब बातें दोहरा कर माधुरी की मां ने जैसेतैसे उसे विवाह के लिए तैयार करवा लिया.

‘बेटी अकेलापन बांटने कोई नहीं आता. यह मत सोच कि लोग क्या कहेंगे? लोग तो अच्छेबुरे समय में बस बोलने आते हैं. साथ देने के लिए आगे कोई नहीं आता. अपना बोझ आदमी को खुद ही ढोना पड़ता है. सुधीर अच्छा इंसान है. वह भी अपने जीवन में एक त्रासदी सह चुका है. मुझे पूरा विश्वास है कि वह तेरा दुख समझ कर तुझे संभाल लेगा. तुम दोनों एकदूसरे का सहारा बन सकोगे.’

माधुरी ने भी मां के तर्कों के आगे निरुत्तर हो कर पुनर्विवाह के लिए मौन स्वीकृति दे दी. वैसे भी वह अब अपनी वजह से मांपिताजी को और अधिक दुख नहीं देना चाहती थी.

लेकिन तब से वह मन ही मन ऊहापोह में जी रही थी. सवाल उस के या सुधीर के आपस में सामंजस्य निभाने का नहीं था. सवाल उन 4 वयस्क होते बच्चों के आपस में तालमेल बिठाने का है. वे आपस में एकदूसरे को अपने परिवार का अंश मान कर एक घर में मिलजुल कर रह पाएंगे? सुधीर और माधुरी को अपना मान पाएंगे?

यही सारे सवाल कई दिनों से माधुरी के मन में चौबीसों घंटे उमड़तेघुमड़ते रहते. जैसेजैसे विवाह के लिए नियत दिन पास आता जा रहा था ये सवाल उस के मन में विकराल रूप धारण करते जा रहे थे.

माधुरी अभी इन सवालों में उलझ बैठी थी कि मां ने उस के कमरे में आ कर सुधीर की मां के आने की खबर दी. माधुरी पलंग से उठ कर बाहर जाने के लिए खड़ी ही हुई थी कि सुधीर की मां स्वयं ही उस के कमरे में चली आईं. उन के साथ 14-15 साल की एक प्यारी सी लड़की भी थी. माधुरी को समझते देर नहीं लगी कि यह सुधीर की बेटी स्नेहा है. माधुरी ने उठ कर सुधीर की मां को प्रणाम किया. उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘मैं समझती हूं माधुरी बेटा, इस समय तुम्हारी मनोस्थिति कैसी होगी? मन में अनेक सवाल घुमड़ रहे होंगे. स्वाभाविक भी है.

‘मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि अपने मन से सारे संशय दूर कर के नए विश्वास और पूर्ण सहजता से नए जीवन में प्रवेश करो. हम सब अपनीअपनी जगह परिस्थिति और नियति के हाथों मजबूर हो कर अधूरे रह गए हैं. अब हमें एकदसूरे को पूरा कर के एक संपूर्ण परिवार का गठन करना है. इस के लिए हम सब को ही प्रयत्न करना है. मेरा विश्वास है कि इस में हम सफल जरूर होंगे. आज मैं अपनी ओर से पहली कड़ी जोड़ने आई हूं. एक बेटी को उस की मां से मिलाने लाई हूं. आओ स्नेहा, मिलो अपनी मां से,’ कह कर उन्होंने स्नेहा का हाथ माधुरी के हाथ में दे दिया.

स्नेहा सकुचा कर सहमी हुई सी माधुरी की बगल में बैठ गई तो माधुरी ने खींच कर उसे गले से लगा लिया. मां के स्नेह को तरस रही स्नेहा ने माधुरी के सीने में मुंह छिपा लिया. दोनों के प्रेम की ऊष्मा ने संशय और सवालों को बहुत कुछ धोपोंछ दिया.

‘बस, अब आगे की कडि़यां हम मां- बेटी मिल कर जोड़ लेंगी,’ सुधीर की मां ने कहा तो पहली बार माधुरी को लगा कि उस के मन पर पड़े हुए बोझ को मांजी ने कितनी आसानी से उतार दिया.

जल्द ही एक सादे समारोह में माधुरी और सुधीर का विवाह हो गया. माधुरी के मन का बचाखुचा भय और संशय तब पूरी तरह से दूर हो गया, जब सुधीर से मिलने वाले पितृवत स्नेह की छत्रछाया में उस ने प्रिया को प्रशांत के जाने के बाद पहली बार खुल कर हंसते देखा. अपने बच्चों को ले कर माधुरी थोड़ी असहज रहती, मगर सुधीर ने पहले दिन से ही मधुर और प्रिया के साथ एकदम सहज पितृवत व स्नेहपूर्ण व्यवहार किया. सुधीर बहुत परिपक्व और सुलझे हुए इंसान थे और मांजी भी. घर में उन दोनों ने इतना सहज और अनौपचारिक अपनेपन का वातावरण बनाए रखा कि माधुरी को लगा ही नहीं कि वह बाहर से आई है. सुधीर का बेटा सुकेश और मधुर भी जल्दी ही आपस में घुलमिल गए. कुछ ही महीनों में माधुरी को लगने लगा कि जैसे यह उस का जन्मजन्मांतर का परिवार है.

माधुरी के मातापिता भी उसे अपने नए परिवार में खुशी से रचाबसा देख कर संतुष्ट थे. दिन पंख लगा कर उड़ते गए. सुधीर का साथ पा कर माधुरी के मन की मुरझाई लता फिर हरी हो गई. ऐसा नहीं कि माधुरी को प्रशांत की और सुधीर को अपनी पत्नी की याद नहीं आती थी, लेकिन उन दोनों की याद को वे लोग सुखद रूप में लेते थे. उस दुख को उन्होंने वर्तमान पर कभी हावी नहीं होने दिया. उन की याद में रोने के बजाय वे उन के साथ बिताए सुखद पलों को एकदूसरे के साथ बांटते थे.

सोचतेसोचते माधुरी गहरी नींद में खो गई. इस घटना के 10-12 दिन बाद ही सुधीर ने माधुरी को बताया कि रविजी और उन की पत्नी उन के घर आने के इच्छुक हैं. माधुरी उन के आने के पीछे की मंशा समझ गई. उस ने सुधीर से कह दिया कि वे उन्हें रात के खाने पर सपरिवार निमंत्रित कर लें.

2 दिन बाद ही रविजी अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को ले कर डिनर के लिए आ गए. विमला माधुरी की हैल्प करवाने के बहाने किचन में आ गई और माधुरी से बातें करने लगी. माधुरी ने स्नेहा से कहा कि प्रिया को बोल दे, डायनिंग टेबल पर प्लेट्स लगा कर रख देगी.

‘‘उसे आज बहुत सारा होमवर्क मिला है मां. उसे पढ़ने दीजिए. मैं आप की हैल्प करवा देती हूं,’’ स्नेहा ने जवाब दिया.

‘‘पर बेटा, तुम्हारे तो टैस्ट चल रहे हैं. तुम जा कर पढ़ाई करो. मैं मैनेज कर लूंगी,’’ माधुरी ने स्नेहा से कहा.

‘‘कोई बात नहीं मां. कल अंगरेजी का टैस्ट है और मुझे सब आता है,’’ स्नेहा प्लेट पोंछ कर टेबल पर सजाने लगी. तभी सुकेश और मधुर बाजार से आइसक्रीम और सलाद के लिए गाजर और खीरे वगैरह ले आए. सुकेश ने तुरंत आइसक्रीम फ्रीजर में रखी और मां से बोला, ‘‘मां, और कुछ काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बेटा. अब तुम आनंद और अमृता को अपने रूम में ले जाओ. वे लोग बाहर अकेले बोर हो रहे हैं,’’ माधुरी ने कहा तो सुकेश बाहर चला गया.

‘‘ठीक है मां, कुछ काम पड़े तो बुला लेना,’’ स्नेहा भी अपना काम खत्म कर के चली गई. अब किचन में सिर्फ माधुरी और विमला ही रह गईं. अब विमला ज्यादा देर तक अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाई और उस ने माधुरी से सवाल किया, ‘‘हम तो 2 ही बच्चों को बड़ी मुश्किल से संभाल पा रहे हैं. आप ने 4-4 बच्चों को कैसे संभाला होगा? चारों में अंतर भी ज्यादा नहीं लगता. स्नेहा और मधुर तो बिलकुल एक ही उम्र के लगते हैं.’’

माधुरी इस सवाल के लिए तैयार ही थी. वह अत्यंत सहज स्वर में बोली, ‘‘हां, स्नेहा और मधुर की उम्र में बस 8 महीनों का ही फर्क है.’’

‘‘क्या?’’ विमला बुरी तरह से चौंक गई, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’

तब माधुरी ने बड़ी सहजता से मुसकराते हुए संक्षेप में अपनी और सुधीर की कहानी सुना दी.

अब तो विमला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.

‘‘तब भी आप के चारों बच्चों में इतना प्यार है जबकि वे आपस में सगे भी नहीं हैं. मेरे तो दोनों बच्चे सगे भाईबहन होने के बाद भी आपस में इतना झगड़ते हैं कि बस पूछो मत. एक मिनट भी नहीं पटती है उन में. मैं तो इतनी तंग आ गई हूं कि लगता है इन्हें पैदा ही क्यों किया? लेकिन आप के चारों बच्चों में तो बहुत प्यार और सौहार्द दिखता है. चारों आपस में एकदूसरे पर और आप पर तो मानो जान छिड़कते हैं,’’ विमला बोली.

तभी सुधीर की मां किचन में आईं और विमला से बोलीं, ‘‘बात सगेसौतेले की नहीं, प्यार होता है आपसी सामंजस्य से. दरअसल, हम सब अपने जीवन में कुछ अपनों को खोने का दर्द झेल चुके हैं इसलिए हम सभी अपनों की कीमत समझते हैं. इस दर्द और समझ ने ही मेरे परिवार को प्यार से एकसाथ बांध कर रखा है. चारों बच्चे अपनी मां या पिता को खोने के बाद अकेलेपन का दंश झेल चुके थे, इसलिए जब चारों मिले तो उन्होंने जाना कि घर में जितने ज्यादा भाईबहन हों उतना ही मजा आता है. यही राज है हमारे परिवार की खुशियों का. हम दिल से मानते हैं कि सब को साथ चाहिए.’’

विमला उन की बातें सुन कर मुग्ध हो गई, ‘‘सचमुच मांजी, आप के परिवार के विचार और सौहार्द तो अनुकरणीय हैं.’’

समय बीतता गया. सुकेश पढ़लिख कर इंजीनियर बना तो मधुर डाक्टर बन गया. मधुर ने एमडी किया और सुकेश ने बैंगलुरु से एमटेक. प्रिया और स्नेहा ने भी अपनेअपने पसंदीदा क्षेत्र में कैरियर बना लिया और फिर उन चारों के विवाह, फिर नातीपातों का जन्म, नामकरण मुंडन आदि की भागदौड़ में बरसों बीत गए. फिर एकएक कर सब पखेरू अपनेअपने नीड़ों में बस गए. सुकेश और प्रिया दोनों इंगलैंड चले गए. जहां दोनों भाईबहन पासपास ही रहते थे. मधुर बेंगलुरु में सैटल हो गया और स्नेहा मुंबई में. मांजी और माधुरी के मातापिता का निधन हो गया.

अब इतने बड़े घर में सुधीर और माधुरी अकेले रह गए. जब बच्चे और नातीपोते आते तो घर भर जाता. कभी ये लोग बारीबारी से सारे बच्चों के पास रह आते, लेकिन अधिकांश समय दोनों अपने घर में ही रहते. अपनी दिनचर्या को उन्होंने इस तरह से ढाला कि सुबह की चाय बगीचे की ताजी हवा में साथ बैठ कर पीते, साथ बागबानी करते. साथसाथ घर के सारे काम करने में दिन कब गुजर जाता, पता ही नहीं चलता. दोनों पल भर कभी एकदूसरे से अलग नहीं रह पाते. अब जा कर माधुरी और सुधीर को एहसास होता कि अगर उन्होंने उस समय अपने मातापिता की बात न मान कर विवाह नहीं किया होता तो आज जीवन की इस संध्याबेला में दोनों इतने माधुर्यपूर्ण साथ से वंचित हो कर बिलकुल अकेले रह जाते. जीवन की सुबह मातापिता की छत्रछाया में गुजर जाती है, दोपहर भागदौड़ में बीत जाती है मगर संध्याबेला की इस घड़ी में जब जीवन में अचानक ठहराव आ जाता है तब किसी के साथ की सब से अधिक आवश्यकता होती है. सुधीर के कंधे पर सिर टिकाए हुए माधुरी यही सोच रही थी. सचमुच, बिना साथी के जीवन अत्यंत कठिन और दुखदायक है. साथ सब को चाहिए. Family Story In Hindi

Romantic Story in Hindi : एक बार तो पूछा होता

Romantic Story in Hindi : ‘‘कहीं तुम्हें दमा का रोग तो नहीं हो गया?’’ मैं ने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया.

मेरा मजाक उस के गले में फांस जैसा अटक जाएगा, मुझे नहीं पता था.

‘‘तुम्हें लग रहा है कि मैं तमाशा कर रही हूं, मैं अपने मन की बात समझाना चाह रही हूं और तुम समझ रहे हो…’’

सीमा का स्वर रुंध जाएगा मुझे पता नहीं था. सहसा मुझे रुकना पड़ा. हंसती खेलती सीमा इतनी परेशान भी हो सकती है मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

सीमा मेरे पापा के दोस्त की बेटी है और मेरे बचपन की साथी है. हम ने साथसाथ अपनी पढ़ाई पूरी की और जीवन के कई उतारचढ़ाव भी साथसाथ पार किए हैं. ऐसा क्या हो गया उस के साथ. हो सकता है उस के पापा ने कुछ कहा हो, लेकिन पापा के साथ पूरी उम्र दम नहीं घुटा तो अब क्यों दम घुटने लगा.

2 दिन बाद मैं फिर सीमा से मिला तो क्षमायाचना कर कुछ जानने का प्रयास किया.

‘‘ऐसा क्या है, सीमा…मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं. अब क्या मुझे भी रुलाओगी तुम?’’

‘‘मेरी वजह से तुम क्यों रोओगे?’’

तनिक रुकना पड़ा मुझे. सवाल गंभीर और जायज भी था. भला मैं क्यों रोऊंगा? मेरा क्या रिश्ता है सीमा से? सीमा की मां का एक्सीडेंट, उन का देर तक अस्पताल में इलाज और फिर उन की मौत, सीमा का अकेलापन, सीमा के पापा का पुनर्विवाह और फिर उन का भी अलगाव. कोई नाता नहीं है मेरा सीमा से, फिर भी कुछ तो है जो मुझे सीमा से बांधता है.

‘‘तुम मेरे कौन हो, राघव?’’

‘‘पता नहीं, तुम्हारे सवाल से तो मुझे दुविधा होने लगी है और विचार करना पड़ेगा कि मैं कौन हूं तुम्हारा.’’

तनिक क्रोध आ गया मुझे. यह सोच कर कि कौन है जो हमारे रिश्ते पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है?

‘‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं घूम गया. अच्छी बात है, नहीं मिलूंगा मैं तुम से. पता नहीं कैसे लोगों में उठतीबैठती हो आजकल, लगता है किसी मानसिक रोगी की संगत में हो जो खुद तो बीमार होगा ही तुम्हारा भी दिमाग खराब कर रहा है,’’ और इतना कह कर मैं ने हाथ में पकड़ी किताब पटक दी.

‘‘यह लाया था तुम्हारे लिए. पढ़ लो और अपनी सोच को जरा स्वस्थ बनाओ.’’

मैं तैश में उठ कर चला तो आया पर पूरी रात सो नहीं सका. भैयाभाभी और पिताजी पर भी मेरी बेचैनी खुल गई. बातोंबातों में उन के होंठों से निकल गया, ‘‘सीमा के रिश्ते की बात चल रही थी, क्या हुआ उस का? उस दिन भाई साहब बात कर रहे थे कि जन्मपत्री मिल गई है. लड़के को लड़की भी पसंद है. दोनों अच्छी कंपनी में काम करते हैं, क्या हुआ बात आगे बढ़ी कि नहीं…’’

‘‘मुझे तो पता नहीं कि सीमा के रिश्ते की बात चल रही है?’’

‘‘क्या सीमा ने भी नहीं बताया? भाई साहब तो बहुत उतावले हैं इस रिश्ते को ले कर कि लड़का उसी के साथ काम करता है. मनीष नाम है उस का, जाति भी एक है.’’

‘‘अरे, भाभी, आप को इतना सब पता है और मुझे इस का क ख ग भी पता नहीं,’’ इतना कह कर मैं भाभी का चेहरा देखने लगा और भौचक्का सा अपने कमरे में चला आया. पता नहीं चला कब भाभी भी मेरे पीछे कमरे में चली आईं.

‘‘राघव, क्या सचमुच तुम कुछ नहीं जानते?’’

‘‘हां, भाभी, बिलकुल सच कह रहा हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता.’’

‘‘क्यों, सीमा ने नहीं बताया. तुम से तो उस की अच्छी दोस्ती है. जराजरा सी बात भी एकदूसरे के साथ तुम बांटते हो.’’

‘‘भाभी, यही तो मैं भी सोच रहा हूं मगर यह सच है. आजकल सीमा परेशान बहुत है. पिछले 3-4 दिनों में हम जब भी मिले हैं बस, हम में झगड़ा ही हुआ है. मैं पूछता हूं तो कुछ बताती भी नहीं है. हो सकता है वह लड़का मनीष ही उसे परेशान कर रहा हो…उस ने कहा भी था कुछ…’’

सहसा याद आया मुझे. दम घुटने जैसा कुछ कहा था. उसी बात पर तो झगड़ा हुआ था. सब समझ आने लगा मुझे. हो सकता है वह लड़का सीमा को पसंद न हो. वह सीमा की हर सांस पर पहरा लगा रहा हो. बचपन से जानता हूं न सीमा को, जरा सा भी तनाव हो तो उस की सांस ही रुकने लगती है.

‘‘तुम से कुछ पूछना चाहती हूं, राघव,’’ भाभी बड़ी बहन का रूप ले कर बोलीं, ‘‘सीमा तुम्हारी अच्छी दोस्त है या उस से ज्यादा भी है कुछ?’’

‘‘अच्छी मित्र है, यह कैसी बातें कर रही हैं आप? कल सीमा भी पूछ रही थी कि मैं उस का क्या लगता हूं… जैसे वह जानती नहीं कि मैं उस का क्या हूं.’’

‘‘तुम तो पढ़ेलिखे हो न,’’ भाभी बोलीं, ‘‘एमबीए हो, बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हो. सब को समझा कर चलते हो, क्या मुझे समझा सकते हो कि तुम सीमा के क्या हो?’’

‘‘हम दोनों बचपन के साथी हैं. बहुत कुछ साथसाथ सहा भी है…’’

भाभी बात को बीच में काट कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या 2 पल भी बिना सीमा को सोचे कभी रहे हो?’’

‘‘न, नहीं रहा.’’

‘‘तो क्या उस के बिना पूरा जीवन जी लोगे? उस की शादी कहीं और हो गई तो…’’

‘‘भाभी, मैं सीमा को किसी धर्मसंकट में नहीं डालना चाहता था इसीलिए ऐसा सपना ही नहीं देखा. उस का सुख ही मेंरे लिए सबकुछ है. वह जहां रहे सुखी रहे, बस.’’

‘‘तुम ने उस से पूछा, वह मनीष को पसंद करती है? नहीं न, तुम्हें कुछ पता ही नहीं है. जिस के साथ उस के पिता ने जन्मकुंडली मिलाई है क्या उस के साथ उस के विचार भी मिलते हैं. नहीं जानते न तुम…तुम उस का सुखदुख जानते ही नहीं तो उसे सुखी रखने की कल्पना भी कैसे कर सकते हो. एक बार तो उस से खुल कर बात कर लो. बहुत देर न हो जाए, मुन्ना.’’

भाभी का हाथ मेरे सिर पर आया तो लगा एक ममतामई सुरक्षा कवच उभर आया मन के आसपास. क्या भाभी मेरा मन पहचानती हैं. लगा चेतना पर से कुछ हट सा रहा है.

‘‘ज्यादा से ज्यादा सीमा ना कर देगी,’’ भाभी बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, हम बुरा नहीं मानेंगे. कम से कम दिल की बात कहो तो सही. तुम डरते हो तो मैं अपनी तरफ से बात छेड़ं ू.’’

‘‘मुझे डर है राघव कहीं ऐसा न हो कि वह इतनी दूर चली जाए कि तुम उसे देख भी न पाओ. सवाल अनपढ़ या पढ़ेलिखे होने का नहीं है, कुछ सवाल इतने भी आसान नहीं होते जितना तुम सोचते हो. क्योंकि बड़ेबड़े पढ़ेलिखे भी अकसर कुछ प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते. सीमा को तो अनपढ़ कह दिया, तुम्हीं कौन से पढ़ेलिखे हो, जरा समझाओ मुझे.’’

किंकर्तव्यविमूढ़ मैं भाभी को देखता रहा. मेरा मन भर आया. अपने भाव छिपाने चाहे लेकिन प्रयास असफल रहा. भाभी से क्या छिपाऊं. शायद भाभी मुझ से ज्यादा मुझे जानती हैं और सीमा को भी.

‘‘मुन्ना, तुम आज ही सीमा से बात करो. मैं शाम तक का समय तुम्हें देती हूं, वरना कल सुबह मैं सीमा से बात करने चली जाऊंगी. अरे, जाति नहीं मिलती न सही, दिल तो मिलता है. वह ब्राह्मण है हम ठाकुर हैं, इस से क्या फर्क पड़ता है? जब उसे साथ ही लेना है तो उस के  लायक बनने की जरूरत ही क्या है?

‘‘जिंदगी इतनी सस्ती नहीं होती बच्चे कि तुम इसे यों ही गंवा दो और इतनी छोटी भी नहीं कि सोचो बस, खत्म हुई ही समझो. पलपल भारी पड़ता है जब कुछ हाथ से निकल जाए. मुन्ना, तुम मेरी बात सुन रहे हो न.’’

मैं भाभी की गोद में समा कर रो पड़ा. पिछले 10 सालों में मां बन कर भाभी ने कई बार दुलारा है. जब भाभी इस घर में आई थीं तब मैं 16-17 साल का था. डरता भी था, पता नहीं कैसी लड़की घर में आएगी, घर को घर ही रहने देगी या श्मशान बना देगी. और अब सोचता हूं कि मेरी यह नन्ही सी मां न होती तो मैं क्या करता.

‘‘तुम बडे़ कब होगे, राघव?’’ चीखी थीं भाभी.

‘‘मुझे बड़े होने की जरूरत ही नहीं है, आप हैं न. अगर आप को लगता है बात करनी चाहिए तो आप बात कर लीजिए, मुझ में हिम्मत नहीं है. उन की ‘न’ उन की ‘हां’ आप ही पूछ कर बता दें. डरता हूं, कहीं दोस्ती का यह रिश्ता हाथ से ही न फिसल जाए.’’

‘‘इस रिश्ते को तो यों भी तुम्हारे हाथ से फिसलना ही है. जितनी पीड़ा तुम्हें सीमा की वजह से होती है वह तब तक कोई अर्थ रखती है जब तक उस की शादी नहीं हो जाती. उस के बाद यह पीड़ा तुम्हारे लिए अभिशाप बन जाएगी और सीमा के लिए भी. राघव, तुम एक बार तो सीमा से खुद बात कर लो. अपने मन की कहो तो सही.’’

‘‘भाभी, आप सोचिए तो, उस के पापा नहीं मानेंगे तो क्या सीमा उन के खिलाफ जाएगी? नहीं जाएगी. इसलिए कि अपने पापा का कहना वह मर कर भी निभाएगी. मेरे प्रति अगर उस के मन में कुछ है भी तो उसे हवा देने की क्या जरूरत?’’

‘‘क्या सीमा यह सबकुछ सह लेगी? इतना आसान होगा नहीं, जितना तुम मान बैठे हो.’’

भाभी गुस्से से मेरे हाथ झटक कर चली गईं और सामने चुपचाप कुरसी पर बैठे अपने भाई पर मेरी नजर पड़ी, जो न जाने कब से हमारी बातें सुन रहे थे.

‘‘क्या लड़के हो तुम? भाभी का पल्ला पकड़ कर रो तो सकते हो पर सीमा का हाथ पकड़ एक जरा सा सवाल नहीं पूछ सकते. आदमी बनो राघव, हिम्मत करो बच्चे, चलो, उठो, नहाधो कर नाश्ता करो और निकलो घर से. आज इतवार है और सीमा भी घर पर ही होगी. हाथ पकड़ कर सीमा को घर ले आओगे तो भी हमें मंजूर है.’’

भैयाभाभी के शब्दों का आधार मेरे लिए एक बड़ा प्रोत्साहन था, लेकिन एक पतली सी रेखा संकोच और डर की मैं पार नहीं कर पा रहा था. किसी तरह सीमा के घर पहुंचा. बाहर ही उस के पापा मिल गए. पता चला सीमा की तबीयत अच्छी नहीं है.

‘‘कभी ऐसा नहीं हुआ उसे. कहती है सांस ही नहीं आती. रात भर फैमिली डाक्टर पास बैठे रहे. क्या करूं मैं, अच्छीभली थी, पता नहीं क्या होता जा रहा है इसे.’’

‘‘अंकल, आप को पता तो है कि घबराहट में सीमा को दम घुटने जैसा अनुभव होता है. उस दिन मुझ से बात करनी भी चाही थी पर मैं ने ही मजाक में टाल दिया था.’’

‘‘तो तुम उस से पूछो, बात करो.’’

मैं सीमा के पास चला आया और उस की हालत देख घबरा गया. 3-3 तकिए पीठ के पीछे रखे वह किसी तरह शरीर को सीधा रख सांस खींचने का प्रयास कर रही थी. एकएक सांस को तरसता इनसान कैसा दयनीय लगता है, मैं ने पहली बार जाना था. आंखें बाहर को फट रही थीं मानो अभी पथरा जाएंगी.

उस की यह हालत देख कर मैं रो पड़ा था. सच ही कहा था भाभी ने कि मेरा सीमा के प्रति स्नेह और ममता इतनी भी सतही नहीं जिसे नकारा जा सके. दोनों हाथ बढ़ा कर किसी तरह हांफते शरीर को सहारा देना चाहा. क्या करूं मैं जो सीमा को जरा सा आराम दे पाऊं. माथा सहला कर पसीना पोंछा. ऐसा लग रहा था मानो अभी सीमा के प्राणपखेरू उड़ जाएंगे. दम घुट जो रहा था.

‘‘सीमा, सीमा क्या हो रहा है तुम्हें, बात करो न मुझ से.’’

दोनों हाथों में उस का चेहरा ले कर सामने किया. आत्मग्लानि से मेरा ही दम घुटने लगा था. उस दिन सीमा कुछ बताना चाह रही थी तो क्यों नहीं सुना मैं ने. अचानक ही भीतर आते पापा की आवाज सुनाई दी.

‘‘सीमा, देखो, तुम से मिलने मनीष आया है.’’

पापा के स्वर में उत्साह था. शायद भावी पति को देख सीमा को चैन आएगा.

एक नौजवान पास चला आया और उस का अधिकारपूर्ण व्यवहार ऐसा मानो बरसों पुराना नाता हो. मेरे मन में एक विचित्र भाव जाग उठा, जैसे मैं सीमा के आसपास कोई अवांछित प्राणी था.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ कल अच्छीभली तो थीं तुम. अचानक ऐसा कैसे हो गया?’’

सवाल पर सवाल, उत्तर न मिलने पर भी एक और सवाल.

‘‘कल शाम तुम्हारा इंतजार करता रहा. नहीं आना था तो एक फोन तो कर देतीं. दीदी और जीजाजी तुम्हारी वजह से नाराज हो गए हैं. उन्हें फोन कर के ‘सौरी’ बोल देना. जीजाजी को कह कर न आने वालों से बहुत चिढ़ है.’’

मुझे मनीष एक संवेदनहीन इनसान लगा. सीमा पर पड़ती उस की नजरों में अधिकार- भावना अधिक थी और चिंता कम. यह इनसान सीमा से प्यार ही कहां कर पाएगा जिसे उस की तकलीफ पर जरा भी चिंता नहीं हो रही. सीमा रो पड़ी थी और अगले पल उस का समूचा अस्तित्व मेरी बांहों में आ समाया और मेरी छाती में चेहरा छिपा कर वह चीखचीख कर रोने लगी.

सीमा के पापा अवाक्थे. मनीष की पीड़ा को मैं नकार नहीं सकता…जिस की होने वाली बीवी उसी की ही नजरों के सामने किसी और की बांहों में समा जाए.

कुछ प्रश्न और कुछ उत्तर शायद इसी एक पल का इंतजार कर रहे थे. सीमा ने पीड़ा की स्थिति में अपना समूल मुझे सौंप दिया था और मेरे शरीर पर उस के हाथों की पकड़ इतनी मजबूत थी कि मेरे लिए विश्वास करना मुश्किल था. स्पर्श की भाषा कभीकभी इतनी प्रभावी होती है कि शब्दों का अर्थ ही गौण हो जाता है.

मेरे हाथों में क्या था, मैं नहीं जानता. लेकिन कुछ ऐसा अवश्य था जिस ने सीमा की उखड़ी सांसों को आसान बना दिया था. मेरे दोनों हाथों को कस कर पकड़ना उस का एक उत्तर था जिस की मुझे भी उम्मीद थी.

मुझे पता ही नहीं चला कब मनीष और पापा कमरे से बाहर चले गए. गले में ढेर सारा आवेग पीते हुए मैं ने सीमा के बालों में उंगलियां डाल सहला दिया. देर तक सीमा मेरी छाती में समाई रही. सांस पूरी तरह सामान्य हो गई थी, जिस पर मैं भी हैरान था और सीमा के पापा भी.

‘‘तुम ने पूछा था न, मैं तुम्हारा कौन हूं? कल तक पता नहीं था. आज बता सकता हूं.’’

चुप थी सीमा, और उस के पापा भी चुप थे. मुझे वे प्रकृति के आगे नतमस्तक से लगे. सीमा की सांसें अगर मेरी नजदीकियों की मोहताज थीं तो इस सच से वे आंखें कैसे मोड़ लेते.

‘‘मुझे बताया क्यों नहीं तुम दोनों ने? बचपन से साथसाथ हो और एकदूसरे पर इतना अधिकार है तो…’’

‘‘अंकल, मुझे भी पता नहीं था. आज ही जान पाया,’’ और इसी के साथ मेरा गला रुंध गया था.

मुझे अच्छी तरह याद है जब सीमा की मां की मौत के कुछ साल बाद उस के पापा ने अपनी बहन के दबाव में आ कर पुनर्विवाह कर लिया था तब वह कितने परेशान थे. सीमा और उस की नई मां के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे. तब अकसर मेरे सामने रो दिया करते थे.

‘‘अपनी जाति अपनी ही जाति होती है. यह औरत हमारी जाति की नहीं है, इसीलिए हम में घुलमिल नहीं पाती.’’

‘‘अंकल, आप अपनी जाति से बाहर भी तो जाना नहीं चाहते थे न. और मैं भी नहीं चाहता था मेरी वजह से सीमा आप से दूर हो जाए. क्योंकि आप ने सीमा के लिए अपने सारे सुख भुला दिए थे.’’

‘‘तो क्या उस का बदला मैं सीमा के जीवन में जहर घोल कर  लूंगा. मैं उस का बाप हूं. जो मैं ने किया वह कोई एहसान नहीं था. कैसे नादान हो, तुम दोनों.’’

सीमा को गले लगा कर अंकल रो पड़े थे. हम तीनों ही अंधेरे में थे. कहीं कोई परदा नहीं था फिर भी एक काल्पनिक आवरण खुद पर डाले बस, जिए जा रहे थे हम.

डरने लगा हूं अब वह पल सोच कर, जब सीमा सदासदा के लिए जीवन से चली जाती. तब शायद यही सोचसोच कर जीवन नरक बन जाता कि एक बार मैं ने बात तो की होती, एक बार तो पूछा होता, एक बार तो पूछा होता. Romantic Story in Hindi

Hindi Love Stories : अभिनेत्री – जीवन का किरदार जिसे प्रेम के छलावे से दोचार होना पड़ा

Hindi Love Stories : सैकड़ों आंखें उसे एकटक निहार रही थीं. उन सभी आंखों से छलकते खारे पानी को वह अपनी आंखों में महसूस कर रही थी. रुलाई फूटने से पहले उस का गला भर आया. वह बोलना चाह रही थी पर शब्द उस के गले में बर्फ की तरह जम गए थे. जमे हुए वे शब्द ही तरल हो कर जब आंखों की राह बहने लगे तो फिर उन्हें थामना मुश्किल हो गया.

अपने आंसुओं को रोकने के लिए उस ने पूरी ताकत लगा दी. वह चाह रही थी कि अपना आखिरी संवाद पूरा कहे. अक्षर उस के मस्तिष्क में पालतू कबूतरों के झुंड की तरह उड़ रहे थे. उसे महसूस हो रहा था कि वह उन्हें पकड़ सकती है पर वह बोल क्यों नहीं पा रही? बस 5-7 पंक्तियां ही तो हैं. उसे बोलना ही होगा, यह बहुत जरूरी है.

अभिनेत्री ने पूरी शिद्दत से अपनी रुलाई रोकी. एक बार जो शब्दों को हवा में उछालना शुरू किया तो फिर वह बोलती ही गई. वह समझ नहीं पा रही थी कि जो संवाद उस के लिए तय थे, वही बोल रही है या दूसरे. बस, वह बोले जा रही थी.

अपनी भूमिका समाप्त होते ही वह चित्रवत खड़ी हो गई. धीरेधीरे प्रकाश उस पर कम से कमतर होता चला गया और पूरी रंगशाला में अंधकार छा गया. वह मंच से भागी. अब वह जी भर कर रोना चाह रही थी, सचमुच रोना. दौड़ कर वह रंगमंच के पिछले हिस्से में चली गई. दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

कुछ पल के बाद उसे लगा कि तालियों की गूंज से सारी रंगशाला हिल उठी हो. वहां बेतहाशा शोर मच रहा था और रंगमंच के परदे के पीछे की एक कोने में बैठी अभिनेत्री की आंखों का पानी रुक नहीं पा रहा था.

अचानक दरवाजे पर थापें पड़ने लगीं, ‘‘प्रीताजी…प्रीताजी बाहर आइए, दर्शक आप से मिलने को बेताब हैं.’’

वह उठना नहीं चाह रही थी. दरवाजा लगातार भड़भड़ाए जाने से झुंझला सी गई. जोर से चीखी, ‘‘क्या है, मैं पोशाक तो बदल लूं.’’

‘‘बस, कुछ देर की ही बात है, कृपया आप जल्द बाहर आइए.’’

हार कर उसे दरवाजा खोलना पड़ा और अचानक उस छोटे से कमरे में भीड़ का सैलाब उमड़ आया. लोग उसे बधाइयां देने लगे, ‘‘क्या बात है, कैसा स्वाभाविक अभिनय था! आप ने तो सभी को रुला ही दिया.’’

‘‘क्या आप नाटक में सचमुच रोती हैं?’’ एक बच्चे ने जब उस से पूछा तो उस ने मुसकरा कर बच्चे का गाल थपथपा दिया.

‘कैसी अजीब जिंदगी है, उस का मन तो अब भी रोना चाह रहा है पर उसे जबरन मुसकराना पड़ रहा है,’ वह सोच रही थी.

‘रोना और हंसना तो अभिनय के बड़े स्थूल रूप हैं. सूक्ष्म मनोभावों को सहजता से चेहरे पर लाना उतना ही मुश्किल है जितना आंधी में उड़ते हुए पत्तों को बटोरना.’ इसी तरह की बहुत सारी बातें रविशेखर उस से किया करता था. उसे याद आया कि कितना तनावग्रस्त रहता था वह हर समय. रिहर्सल, पटकथा, पोस्टर, लाल रंग, सौंदर्यशास्त्र, वेशभूषा और न जाने क्याक्या? बस, हमेशा नाटक के बारे में ही सोचता रहता था.

घनी दाढ़ी, खादी का कुरता, अधघिसी जींस, गले में रुद्राक्ष की माला, कंधे पर खादी का थैला यानी विचित्र सा स्वरूप था रविशेखर का. बोलता तो बोलता ही जाता और चुप रहता तो घंटों ‘हूंहां’ ही करता रहता. अपनेआप को कुछ अधिक समझने की आदत तो थी ही उसे.

प्रीता नाटकों में अभिनय करेगी, यह तो उस ने कभी सोचा भी न था. सब कुछ अचानक ही हुआ.

उसे याद आया, एक दिन सांझ को रविशेखर उस की मां के सामने आ खड़ा हुआ था. कहने लगा, ‘चाचीजी, आप के पास बड़ी उम्मीदों से आया हूं. 4 दिन बाद हमारे नाटक का मंचन होना है. जो लड़की उस की हीरोइन थी, परसों उसे लड़के वाले देखने आए. जब उन्हें पता चला कि लड़की नाटकों में हिस्सा लेती है तो कहने लगे कि हम नहीं चाहेंगे कि हमारी होने वाली बहू नाटकवाटक करे. बस, उस के घर वालों ने उसी वक्त से उस के थिएटर आने पर रोक लगा दी. 2 दिन जब वह रिहर्सल में नहीं आई तब मुझे पता लगा. अब आप के पास आया हूं. मेरे जीवन का यह महत्त्वपूर्ण नाटक है. निमंत्रणपत्र बंट चुके हैं. अब सबकुछ आप के हाथों में है. अगर प्रीताजी को आप आज्ञा दे दें तो मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा,’ कहतेकहते वह भावुक हो उठा था.

प्रीता जब चाय बना कर लाई तब यही बातें चल रही थीं. रविशेखर का प्रस्ताव सुन कर वह एकदम ठंडी पड़ गई. ठीक है, कालेज में वह गाना गाती रही है, पर नाटक. गाने और अभिनय करने में तो बेहद फर्क है.

मां ने तो यह कह कर पल्लू झाड़ लिया कि अगर प्रीता चाहे तो मुझे कोई एतराज नहीं. उस ने भी रविशेखर से साफ कह दिया था कि न तो उस ने कभी अभिनय किया है और न ही वह कर सकती है. तब कैसा रोंआसा हो गया था वह. कहने लगा, ‘यह सब आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए.’

उस के बाद बचे 4 दिनों में 5-5, 6-6 घंटे रिहर्सल चलती रही. एक से संवादों को बारबार बोलतेबोलते वह तो उकता सी गई.

शुरूशुरू में तो वह समझ ही नहीं पाई कि नाटक के प्रदर्शन के बाद जो तालियां बजी थीं उन में से आधी उसी के लिए थीं. लोग लगातार उसे मुबारकबाद दे रहे थे. रविशेखर की आंखों में सफलता के आंसू चमक रहे थे. परंतु प्रीता स्वयं समझ नहीं पा रही थी कि आखिर उस ने किया क्या है? नाटक ही कुछ ऐसा था जो उस की जिंदगी से बेहद मेल खाता था.

इस नाटक में एक ऐसी युवती की कहानी थी जो अपने पिता और मां के अहं के टकराव में ‘शटलकौक’ बनी हुई थी. इस पाले से उस पाले में उसे फेंका जा रहा था. कुछ तमाशबीन उस खेल को देख रहे थे और एक निर्णायक उस तमाशे का फैसला दे रहा था. जिंदगी के असली नाटक में शटलकौक प्रीता स्वयं थी और दर्शक के रूप में उस के रिश्तेदार व मातापिता के पारिवारिक मित्र थे.

अंतर सिर्फ यह था कि मंच पर खेले गए नाटक का अंत सुखद था. जिस युवती का अभिनय उस ने किया था वह अपने प्रयासों से अपने मातापिता को मिला देती है. पर वास्तविक जिंदगी में कितनी ही कोशिशों के बाद प्रीता अपने मातापिता को एक नहीं कर पाई थी.

कभीकभी वह सोचती कि ये लेखक यथार्थ पर नाटक लिखते हैं तो फिर उस का अपना यथार्थ और उस नाटक का अंत इतना उलट क्यों? कहां खुशी के आंसू और कहां जीवन भर का अवसाद. कभी प्रीता को लगता कि यह जीवन रंगमंच ही तो है. इतने सारे पात्र, हरेक पात्र की अपनी पीड़ा, हरेक पीड़ा की अपनी कहानी, हर कहानी का अपना अंत और हर अंत के अपने परिणाम.

पर कितना खुदगर्ज निकला रविशेखर. जब तक उसे प्रीता की जरूरत थी, कैसा भावुक बना रहा. रिहर्सल में वह अकसर पहले आ जाती थी क्योंकि उस का रोल हमेशा बड़ा रहता था. वह उस के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में भर कर थरथराते स्वर में कहता, ‘प्रीता, तुम्हारा संग रहा तो हम राष्ट्रीय स्तर पर जा पहुंचेंगे.’

उस नितांत भावुक व्यक्ति की बातें शुरूशुरू में तो प्रीता को बेहद सतही लगतीं पर धीरेधीरे ये संवाद उसे भले लगने लगे. रवि के संग प्रीता ने कई नाटक किए. वह निर्देशक रहता और प्रीता नायिका. बूढ़ी, ब्याहता, पागल युवती, विधवा, अभिसारिका, तनावग्रस्त प्रौढ़ा, हंसोड़, बिंदास आदि न जाने कितनेकितने चरित्रों को उस ने मंच पर जिया.

एक दिन रविशेखर खुशी में झूमता हुआ मिठाई का बड़ा सा डब्बा ले कर उन के घर आया और बोला कि उसे फाउंडेशन की छात्रवृत्ति मिल गई है. फिर वह उस बेमुरव्वत हवाईजहाज की तरह अमेरिका उड़ गया, जिसे ‘रनवे’ पर लगी उन बत्तियों से कोई सरोकार ही नहीं होता,  जिन की मदद से वह आसमान में परवान चढ़ता है.

रविशेखर के अमेरिका जाने के बाद उसे सहारा देने को कई हाथ बढ़े. पर तब तक प्रीता तरहतरह की भूमिकाएं और विभिन्न कलाकारों के संग रिहर्सल और शो करतेकरते जान चुकी थी कि हाथों की थरथराहट का मतलब क्या होता है. उंगलियों के दबाव और हथेली की उष्णता के विभिन्न अर्थ उस की समझ में आ चुके थे. एक कुशल अदाकारा की तरह मंच पर हीर बन कर प्रेमरस में डूबी नायिका रहती तो नेपथ्य में उसी रांझा को न पहचानने का अभ्यास भी उसे हो गया था.

पर बारबार उसे लगता कि उसे पुरुष की जरूरत है. ऐसे पुरुष की जो उस के मस्तिष्क में उमड़ते विचारों को बांध सके, ऐसे पुरुष की जो उस की अभिव्यक्ति के सैलाब को सही दिशा दे सके. वह बिजली बन कर उस पुरुष के आकाश में चमकना चाहती थी. वह चाहती थी कि एक ऐसा संपूर्ण पुरुष जो उसे नारीत्व की गरिमा प्रदान कर सके.

उन्हीं दिनों सुकांत आया. अचानक धूमकेतु की तरह मंच पर वह प्रकट हुआ. सुदर्शन, चमकीली आंखें, लंबी नाक, खिला हुआ रंग. बोलता तो बोलता ही चला जाता, फ्रायड से राधाकृष्णन तक, यूजीन ओ नील से अब्दुल बिस्मिल्लाह तक और अंडे की सब्जी से अरहर की दाल तक. पर इस का अर्थ यह नहीं कि उसे इन सब बातों के बारे में जानकारी थी.

शुरूशुरू में जब इतने सारे भारीभारी नाम सुकांत ने उस के सामने बोलने शुरू किए तो वह सहम सी गई. इतना पढ़ालिखा, इतना प्रखर. पर धीरेधीरे वह जान गई कि जैसे कुछ लोगों को दुनिया के सारे देशों की राजधानियों के नाम रटे होते हैं, पर उन से पूछा जाए कि एफिल टावर कहां है तो जवाब नहीं बनता, सुकांत भी कुछकुछ इसी किस्म का था. पर वह उसे अच्छा लगने लगा. शायद इसलिए कि सुकांत की बातों से उसे एहसास होता कि वह बहुत भोला है.

रविशेखर प्रतिभाशाली था, पर उतना ही खुदगर्ज. कभीकभी वह रविशेखर और सुकांत की तुलना करने लगती तो सुकांत उसे भोला, सुंदर और थोड़ाथोड़ा मूर्ख लगता. अभिनय का शौक सुकांत को भी था, पर वह फिल्मी दुनिया में जाने को उतावला था. उस के मनोहर रूप और लंबेचौड़े व्यक्तित्व से उसे लगने लगा कि सुकांत जरूर हीरो बनेगा.

एक दिन नवंबर की एक शाम की हलकीहलकी ठंड में सुकांत ने उस के दोनों हाथों को अपनी गरम हथेलियों में भर के विवाह का प्रस्ताव रख ही दिया तो वह इनकार न कर सकी.

दूर के ढोल सुहावने होते हैं. सुकांत की जो बेवकूफियां विवाह से पहले उसे हंसातीं और गुदगुदाती थीं, अब वही असहनीय होने लगीं. बातबात में वह उस से अपनी तुलना करने लगता. सुकांत को मंच पर नाटक करने में कोई रुचि नहीं थी. वह थिएटर का इस्तेमाल सीढ़ी की तरह करना चाहता था.

उस के बहुत कहने पर एक बार उन दोनों ने एक नाटक में अभिनय किया. सुकांत ने उस नाटक में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया, पर बधाई देने वाले प्रीता के इर्दगिर्द ही ज्यादा थे. उस दिन से सुकांत कुछ अधिक ही उखड़ाउखड़ा रहने लगा. उस के बाद वह जानबूझ कर उन अवसरों को टालने लगी, जब उसे और सुकांत को एकसाथ अभिनय करना होता.

एक बार थिएटर में उस के नए नाटक का प्रदर्शन था. एक गूंगी लड़की की भूमिका उसे करनी थी. उस के हिस्से में संवाद नहीं थे, पर इतने दिनों के अनुभव से वह जान गई थी कि आंखों और चेहरे की भावभंगिमा से कैसे मन की बात कही जाती है. संयोग ही था कि यह सब उस ने एक गूंगी लड़की से ही सीखा था. उस की पड़ोसन रजनी की एक ननद सुनबोल नहीं पाती थी. कितनी प्यारी लड़की थी वह. उस के संग वह घंटों बातें करती रहती, पर बात जबान से नहीं, आंखों और हाथों से होती थी.

गूंगी लड़की के अद्भुत किरदार को निभाने के बाद तो वह मंच की रानी ही बन गई. कितनी सारी तालियां, कितना सम्मान, कितना स्नेह उसे एकसाथ मिल गया था. उस ने सोचा, सुकांत आज बेहद खुश होगा, पर नेपथ्यशाला से निकल कर वह बाहर आई तो सुकांत उसे कहीं नहीं दिखा. हार कर नाटक के निर्देशक विनय उसे स्कूटर से घर छोड़ने आए थे.

घर में अंधेरा था. घंटी बजाने पर सुकांत ने दरवाजा खोला. चढ़ी आंखें, बिखरे बाल.

‘‘क्या तुम्हारी तबीयत खराब है, सुकांत?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तुम ने नाटक देखा?’’

‘‘हां, आधा.’’

‘‘पूरा क्यों नहीं?’’

‘‘प्रीता, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

सुकांत की आवाज सुन कर वह सहम गई. वह कुछ बोल नहीं पाई.

‘‘प्रीता, क्या तुम थिएटर छोड़ नहीं सकतीं?’’

वह हतप्रभ रह गई कि सुकांत उस से कह क्या रहा है. उसे अपने कानों पर अविश्वास हो रहा था कि क्या सुकांत ने जो शब्द कहे वे उस ने सही सुने थे. वह फटीफटी आंखों से सुकांत को देख रही थी. उसे लगा कि सुकांत की आंखों में भी वही भाव हैं जो तब रविशेखर की आंखों में रहे थे, जब उस ने छात्रवृत्ति मिलने पर अमेरिका जाने की खबर सुनाई थी.

जानते हुए भी कि सुकांत का उत्तर क्या होगा, वह उस से पूछना चाह रही थी कि क्यों, आखिर क्यों? पर शब्द उस के कंठ में फंस गए. वह न उन्हें उगल सकती थी और न निगल सकती थी. एक दर्द का गोला उस के दिल से उठा और चेतना पर छाता चला गया.

बंद कमरे में फंसी, खुले आकाश में उड़ने को छटपटाती, तेज घूमते पंखे से टकराई चिडि़या सी वह धड़ाम से फर्श पर गिर कर तड़पने लगी. Hindi Love Stories

Social Story : दुनिया नई पुरानी

Social Story : एक सीधीसादी, संतुष्ट जिंदगी जी रहा था जनार्दन का परिवार. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था लेकिन एक दिन ऐसा जलजला आया जो परिवार की सारी खुशियां बहा ले गया.

पदोन्नति के साथ जनार्दन का तबादला किया गया था. अब वे सीनियर अध्यापक थे. दूरदराज के गांवों में 20 वर्षों का लंबा सेवाकाल उन्होंने बिता दिया था. उन की पत्नी शहर आने पर बहुत खुश थी. गांव की अभावभरी जिंदगी से वह ऊब चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ानेलिखाने में जनार्दन व उन की पत्नी ने खूब ध्यान दिया था.

उन की 2 बेटियां और एक बेटा था. बड़ी का नाम मालती, मंझली मधु और छोटे बेटे का नाम दीपू था. मालती सीधीसादी मगर गंभीर स्वभाव की, तो मधु थोड़ी जिद्दी व शरारती थी, जबकि दीपू थोड़ा नटखट था.

मालती बीए की पढ़ाई कर रही थी, मधु 11वीं में पढ़ रही थी और दीपू तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था. समय बीत रहा था.

वहां गांव में जनार्दन पैदल ही स्कूल जातेआते थे. यहां शहर में आ कर उन्होंने बाइक ले ली थी. जिस पर छुट्टी के दिन श्रीमतीजी को बैठा कर जनार्दन शौपिंग करने या घूमने जाते थे. उन की पत्नी दुपहिया वाहन में सैर कर फूले न समाती. कभीकभी दीपू भी जिद कर मांबाप के बीच बैठ कर सवारी का आनंद ले लेता था.

मधु विज्ञान विषय ले कर पढ़ रही थी. जनार्दन ने शहर के एक ट्यूशन सैंटर में भी अब उस का दाखिला करवा दिया था. वह बस से आयाजाया करती. दीपू को जनार्दन खुद स्कूल छोड़ जाया करते और लौटते समय ले आते. एक व्यवस्थित ढर्रे पर जीवन चल रहा था.

नई कालोनी में आ कर जनार्दन की पत्नी बच्चों के लालनपालन में तल्लीन थी. दिन के बाद रात, रात के बाद दिन. समय कट रहा था. बेहद घरेलू टाइप की महिला थी वह. एक ऐसी आम भारतीय महिला जिस का सबकुछ उस का पति, बच्चे व घर होता है. मां का यह स्वभाव बड़ी बेटी को ही मिला था.

मधु ट्यूशन खत्म होते ही बस से ही लौटती. कालोनी के पास ही बस का स्टौप था. ट्यूशन सैंटर के पास एक ढाबा था. शहर के लड़के और बाबू समुदाय अपने खाने का शौक पूरा करने वहां आते थे. एक दिन यहीं पर मधु सड़क पार कर बसस्टौप के लिए जा रही थी, एक कार टर्न लेते हुए मधु के एकदम पास आ कर रुकी. मधु घबरा गई थी. वह पीछे हट गई. कारचालक ने कार किनारे पार्क की और मधु के पास आया, बोला, ‘‘मैडम, सौरी, मैं जरा जल्दी में था.’’  दोनों की आंखें चार हुईं.

‘‘दिखाई नहीं देता क्या,’’ वह गुस्से से बोली.

‘‘अब एकदम ठीक दिखाई देता है मैडम.’’ उस ने मधु की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

‘‘नौनसैंस,’’ मधु ने उसे गुस्से से देख कर कहा.

फिर मधु बसस्टौप की तरफ बढ़ चली. वह उसे जाता हुआ देखता रहा. उस का नाम था शैलेश. शहर के एक कपड़े के व्यापारी का बेटा. अब तो शैलेश अकसर ट्यूशन सैंटर के पास दिखता- कभी ढाबे से निकलते हुए, कभी कार खड़ी कर इंतजार करते हुए. फिर वही हुआ जो ऐसे में होता है. एक शरारत पहचान में, पहचान दोस्ती में, और फिर दोस्ती प्यार में बदल गई.

बस की जगह अब मधु कार या कभी बाइक में ट्यूशन से लौटती. मधु के मातापिता इस बात से अनजान थे. लेकिन कालोनी के एक अशोकन सर को सबकुछ पता था. इधर अशोकन सर

शाम की चहलकदमी को निकलते और कालोनी से कुछ कदम दूर मधु कार से कभी बाइक से उतरती, दबेपांव धीरेधीरे घर की ओर जाती. इन की हायबाय उन्होंने कितनी ही बार देखी.

मां तो यही सोचती कि उस की बेटी सयानी है, विज्ञान की छात्रा है, एक दिन उसे डाक्टर बनना है. वह एक मौडर्न लड़की है. दुनिया में आजकल यही तो चाहिए. पिता को घर की जिम्मेदारियों से फुरसत कहां मिलती है भला.

लेकिन मधु के प्यार की भनक मालती को लग गई थी. उस के फोनकौल्स अब ज्यादा ही आ रहे थे. जब देखो मोबाइल फोन कान से लगाए रहती. एक शाम जब वह काफी देर बातें कर चुकी, तो मालती ने पूछा, ‘‘मधु, कौन था वह जिस से तुम इतनी हंसहंस कर बातें कर रही थी? तुम कहीं ऐसेवैसे के चक्कर में तो नहीं पड़ गईं. अपनी पढ़ाई का खयाल रखना.’’

मधु ने जवाब में कहा, ‘‘नहीं दीदी, ऐसीवैसी कोई बात नहीं है.’’

आखिर एक दिन उस ने दीदी को बता ही दिया कि वह शैलेश से प्यार करने लगी है. वह अच्छा लड़का है.’’

मालती ने मन में सोचा, ‘शायद यह सब सच हो.’

एक दिन अचानक मुख्यभूमि से

जनार्दन के पास फोनकौल आई.

उन्हें अपने पैतृक गांव जाना पड़ा. उन के मित्र वेंकटेश ने फौरन उन के विमान टिकट का बंदोबस्त किया. पापामम्मी दोनों को जाना था. ज्यों ही मम्मीपापा गए, मधु ने दीदी से कहा कि वह 2-3 दिनों के लिए चेन्नई जाना चाहती है. शैलेश 2-3 दिनों के लिए अपने बिजनैस के सिलसिले में चेन्नई जाएगा. वह उसे भी साथ ले जाना चाहता है.

‘‘दीदी, तू साथ दे दे. बस, 2-3 दिनों की ही तो बात है.’’

मालती अवाक रह गई. मगर वह क्या कर पाती भला. उस की ख्वाहिश और बारबार यह आश्वासन कि शैलेश बहुत अच्छा लड़का है, वह उस से शादी करने को राजी है. मालती ने उसे इजाजत दे दी. शैलेश के साथ विमान से मधु चेन्नई चली गई. मालती का जैसे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई थी. पता नहीं क्या हो जाए. लेकिन चौथे दिन वह शैलेश के साथ लौट आई थी. टूरिस्ट सीजन की वजह से उन्हें किसी ने ज्यादा नोटिस नहीं किया था.

एक सप्ताह के बाद मम्मीपापा मुख्यभूमि से लौट आए थे. गांव की पुश्तैनी जमीन का उन का हिस्सा उन्हें मिलने वाला था. मम्मीपापा के लौट आने पर मालती का मन बेहद हलका हो गया था.

समय गुजरता जा रहा था. जनार्दन और उन की पत्नी बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिनरात एक कर रहे थे. मालती अब बीए पास कर चुकी थी. वह आगे पढ़ने की सोच रही थी. दीपू 7वीं कक्षा में पहुंच गया था और मधु अब कालेज में पढ़ रही थी.

आधुनिक खयाल की लड़की होने के कारण मधु के पहनावे भी आधुनिक थे. उस की सहेलियां अमीर घरों की थीं. उन लड़कियों के बीच एक नाम बहुत ही सुनाई देता था- बबलू. वैसे उस का सही नाम जसवंत था. बबलू कभी अकेला नहीं घूमता था, 3-4 चेले हमेशा उसे घेरे रहते. क्यों न हों, वह शहर के एक प्रभावी नेता का बेटा जो था. ऊपर से वह तबीयत का भी रंगीन था. उस ने जब मधु को देखा, तो देखता ही रह गया उस की गोरी काया और भरपूर यौवन को. पर मधु भला उस पर क्यों मोहित होती, वह तो शैलेश की दीवानी थी. जब कभी कक्षाएं औफ होतीं तो मधु अपना समय शैलेश के साथ ही बिताती, कभी किसी पार्क या किसी दूसरी जगह पर.

जर्नादन और वेंकटेश की दोस्ती अब पारिवारिक बंधन में बदलने जा रही थी. वेंकटेश के बेटे को मालती बहुत पसंद थी. पिछले बरस उस ने अपनी सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी और उस की सरकारी नौकरी भी लग गई थी.

एक सुबह वेंकटेश और उन की पत्नी अपने बेटे का रिश्ता मालती के लिए ले कर आ गए थे. और अगले फागुन में शादी की तिथि निकल आई थी. मालती शादी के बाद भी पढ़ाई करे, उन्हें एतराज नहीं था. मां यही तो चाहती थी कि उस की बेटी को अच्छी ससुराल मिले.

इधर, मधु कालेज में अपनी सहेलियों की मंडली में हंसतीखेलती व चहकती रहती. क्लास न होने पर कैंटीन में समय बिताती या लाइब्रेरी में पत्रिकाएं उलटतीपलटती. कभीकभार शैलेश उसे पार्क में बुला लेता. बबलू तो बस हाथ मसोस कर रह जाता. वैसे, बहुत बार उस ने मधु को आड़ेहाथों लेने की कोशिश की थी.

वह गांधी जयंती की सुबह थी. कालेज में हर वर्ष की तरह राष्ट्रपिता की जयंती मनाने का प्रबंध बहुत ही अच्छे तरीके से किया गया था. लड़कियां रंगबिरंगे कपड़ों में कालेज के कैंपस और पंडाल में आजा रही थीं. तभी, बबलू की टोली ने देखा कि मधु शैलेश की कार में बैठ रही है.

अक्तूबर का महीना. सूरज की किरणों में गरमी बढ़ रही थी. शहर से दूर समुद्र के किनारे एक पेड़ के तने से लगे मधु और शैलेश बैठे हुए थे. शैलेश का सिर मधु की गोद में था और मधु की उंगलियां उस के बालों से खेल रही थीं. जब भी दोनों को मौका मिलता तो शहर से दूर दोनों एकदूसरे की बांहों में समा जाते. तभी, शैलेश ने जमीन पर फैले पत्तों में किसी के पैरों की पदचाप सुनी और वह उठ गया, देखा कि सामने एक नौजवान खड़ा है और उस के पीछे 3 और लड़के. मधु ने देखा, वह बबलू था.

और अगले क्षण बबलू ने मधु को हाथों में जकड़ लिया. बब्लू ने मधु को उस की गिरफ्त से छुड़ाना चाहा और पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो और इस बदतमीजी का मतलब…’’ बात अभी पूरी भी न हो पाई थी कि बबलू के बूटों का एक प्रहार उस की कमर पर पड़ा. वह उठ कर भिड़ना ही चाहता था कि बबलू का एक सख्त घूंसा उस के गाल पर पड़ा.

बबलू के इशारे पर 2 लड़कों ने उसे पीटना शुरू कर दिया. शैलेश ने मधु को अपनी बलिष्ठ बांहों में उठा लिया और पास ही के जंगल की ओर बढ़ चला. मधु प्रतिवाद करती रही. बबलू का तीसरा सहायक भी उन के पीछे पहुंच गया था.

शाम तक मधु के न लौटने पर जनार्दन व उन के घर वाले घोर चिंता में घिर गए. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी. मालती अनजाने भय से अंदर ही अंदर घबरा रही थी.

अगले दिन यह खबर जंगली आग की तरह फैल गई थी कि शहर से दूर जंगल में एक लड़की का शव और समुद्र के किनारे एक लड़का घायल अवस्था में मिला है. पुलिस हरकत में आई. उस ने शव को अस्पताल पहुंचा दिया और घायल लड़के को अस्पताल में भरती करा दिया.

जनार्दन को पुलिस ने अस्पताल बुला लिया था शिनाख्त के लिए. जब पुलिस अधिकारी ने शव के मुंह से कपड़ा हटाया, जनार्दन के मुंह से चीख निकल गई. वे वहीं गिर पड़े.

दोपहर तक शव कालोनी में लाया गया. कालोनी के लिए वह दिन शोक का था. सभी जनार्दन परिवार के दुख में शामिल थे. मां का रो कर बुरा हाल था, छोटे दीपू को जैसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मालती दहाड़ें मारमार कर रो रही थी. जर्नादन के लिए सबकुछ एक अबूझ पहेली की तरह था. उन के सपनों का महल धराशायी हो गया था. रोरो कर उन का भी बुरा हाल था.

मालती के सिवा कौन जानता था कि मधु के जीवन के ऐसे अंत के लिए मालती भी तो जिम्मेदार थी. काश, शुरू से उस ने उसे बढ़ावा न दिया होता और मांपिताजी को सबकुछ बता दिया होता.

दहाड़े मार कर रोती मालती को अड़ोसीपड़ोसी ढांढ़स बंधा रहे थे. Social Story

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