Download App

नीरजा के बलिदान की कहानी फिल्मी नहीं, जमीनी हकीकत

साल 2016 में निर्देशक राम माधवानी की फिल्म ‘नीरजा’ रिलीज हुई थी. आज पूरे 6 साल बीत चुके हैं लेकिन नीरजा की कहानी कहीं न कहीं सभी के जहन में जिंदा है. नीरजा भनोट की जिंदगी और बलिदान पर आधारित इस बायोपिक में नीरजा भनोट की भूमिका सोनम कपूर ने निभाई.

‘नीरजा’ लोगों को कितनी पसंद आई, कितनी सफल रही, फिल्म में कितना मसाला मिलाया गया, अगर कुछ देर के लिए इन बातों को दरकिनार कर दें तो यह सच है कि नीरजा एक बहादुर लड़की थी और उस ने अपनी जान की परवाह न कर के 359 लोगों की जान बचाई थी.

संदर्भवश हम यहां नीरजा भनोट की असली कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं.

नीरजा का जन्म 7 सितंबर, 1963 को चंडीगढ़ में हुआ था. उन के पिता हरीश भनोट हिंदुस्तान टाइम्स के जानेमाने पत्रकार थे. उन के 3 बच्चे थे, 2 लडक़े अखिल और अनीश तथा एक बेटी नीरजा. एकलौती बेटी होने की वजह से नीरजा अपनी मां रमा भनोट और पिता हरीश भनोट की बहुत लाडली थी. पतिपत्नी उसे बेटों से भी ज्यादा चाहते थे, इसीलिए वे उसे लाडो कहते थे. नीरजा की शिक्षा चंडीगढ़ के सेक्रेड हार्ट कान्वेंट से शुरू हुई.

मार्च, 1974 में जब नीरजा करीब साढ़े 10 साल की थी और छठी कक्षा में पढ़ रही थी, हरीश भनोट का तबादला मुंबई हो गया. मुंबई में हरीश भनोट ने बेटी का दाखिला ख्यातनाम बौंबे स्कौटिश स्कूल में कराया. हाईस्कूल पास कर लेने के बाद नीरजा ने सेंट जेवियर कालेज में एडमिशन लिया और वहां से अर्थशास्त्र और सामाजिक विज्ञान विषयों से स्नातक की डिग्री ली.

कालेज के दिनों में एक दोपहर नीरजा अपनी फ्रैंड्स के साथ कालेज गेट के पास खड़ी थी. तभी ‘बांबे’ पत्रिका के संवाददाताओं और फोटोग्राफर्स की एक टीम वहां से गुजरी. उन लोगों की नजर नीरजा पर पड़ी तो उन्हें पत्रिका के नए शुरू हुए फीचर ‘दि गर्ल नैक्सट डोर’ के लिए नीरजा का चेहरा बिलकुल सटीक लगा. उन्होंने बात की तो नीरजा इस के लिए तैयार भी हो गईं.

फलस्वरूप पत्रिका के आगामी अंक में फीचर के साथ पूरे पेज पर नीरजा का फोटो भी छपा. चित्र के नीचे कैप्शन था नीरजा भनोट. दाहिने गाल पर डिंपल, बास्केट बौल की रसिया और सेंट जेवियर में बीए की छात्रा.

इस तरह अचानक किसी पत्रिका में चित्र छप जाना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं होती, मगर नीरजा के लिए यह उपलब्धि ही रही. क्योंकि यहीं से उस की मौडलिंग की शुरुआत हो गई. इस के बाद उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. करीब 3 सालों तक वह देश के कई प्रतिष्ठित उत्पादों बिनाका टूथपेस्ट, फोरहंस और गोदरेज आदि के विज्ञापनों में दूरदर्शन व सिनेमा के परदे पर दिखाई देती रहीं.

मौडलिंग में मिली अपार सफलता के बाद उन के पास सीरियल और फिल्मों के प्रस्ताव भी आने लगे. लेकिन इन प्रस्तावों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से पहले ही नीरजा के सामने शादी का प्रस्ताव आ गया. मार्च, 1985 में वैवाहिक विज्ञापन के माध्यम से नीरजा का रिश्ता तय हुआ और वह शादी कर के ससुराल चली गईं.

यह रिश्ता नीरजा के लिए जीवन की सब से बड़ी त्रासदी साबित हुई. 2 ही महीने में उन की ससुराल वालों की दहेज की नाजायज मांगें सामने आने लगीं.

यह न नीरजा को स्वीकार था न भनोट परिवार को. फलस्वरूप शादी के चंद महीनों बाद ही नीरजा को वापस उन के मायके भेज दिया गया. बाद में यह रिश्ता तलाक में बदल गया.

इस बीच नीरजा भीतर तक छलनी हो चुकी थीं. ससुराल में बारबार मिले तानों ने उन का मन अवसाद से भर दिया था. जो अपमान उन्हें अपनी ससुराल में मिला था, उस की उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी. वहां निरंतर उन के वजूद को ललकारा जाता था. वह देश के जानेमाने पत्रकार की बेटी थीं, उन की अपनी खुद की भी एक अलग पहचान थी. पढ़ीलिखी तो थी ही, आकर्षक व्यक्तित्व भी था.

बहरहाल, तलाक के बाद नीरजा ने मौडलिंग से मुंह मोड़ लिया था. टीवी धारावाहिकों और फीचर फिल्म निर्माताओं को वह पहले ही मना कर चुकी थीं.

हालांकि नीरजा को अपने पिता के घर में कोई कमी न थी, न ही किसी तरह की कोई परेशानी थी. फिर भी जीवन इतना सरल नहीं होता. आखिर सोचविचार कर उन्होंने नौकरी करने की ठान ली. नौकरी भी कोई आम तरह की नहीं, दूसरों से एकदम हट कर. एक ऐसी नौकरी जो केवल पैसा कमाने के लिए ही न हो, बल्कि जिस में आत्मसंतुष्टि का भी अहसास हो.

आखिर सोचविचार कर नीरजा ने ‘पेन एम’ में फ्लाइट अटैंडेंट की नौकरी के लिए आवेदन कर दिया. इस पद के लिए करीब 10 हजार युवकयुवतियों ने आवेदन किया था. जिन में कुल 80 लोगों को चुना जाना था. नीरजा का नाम भी उन्हीं 80 लोगों में आया. इस के बाद शुरू हो गया नीरजा के जीवन का एक अनोखा अध्याय.

जिस रोज से नीरजा ने पेन एम में काम करना शुरू किया, उसी दिन से हरीश भनोट अपनी पत्नी रमा व कुत्ते टिप्सी को ले कर नीरजा के उड़ान पर जाते वक्त उसे विदा करने जाया करते थे. इतना ही नहीं, उन की वापसी के वक्त भी ये सब उसे घर के दरवाजे पर ही खड़े मिलते थे. ऐसा कभी नहीं हुआ कि नीरजा को घर पहुंच कर डोरबैल बजानी पड़ी हो.

वक्त के साथ नीरजा का जीवन फिर से व्यवस्थित होने लगा था. पिछले जख्म भूल कर वह सामान्य होने की कोशिश करने लगी थीं. इस बीच उन्होंने कुछ शुभचिंतकों के समझाने पर मौडलिंग व अभिनय के छिटपुट कार्यों को भी थोड़ीबहुत तरजीह देना शुरू कर दिया था.

2 सितंबर, 1986 की सुबह नीरजा फ्रैंकफर्ट से वापस आई थी. अगले रोज वह दिन भर शूटिंग में व्यस्त रहीं. इस के अगले दिन उन्हें एक बड़ा असाइनमैंट मिला. उस सुबह 9 बजे वह शूटिंग पर गईं और रात में करीब 8 बजे घर लौटीं. घर पहुंच कर उन्होंने खुशी से चहकते हुए पिता को बताया कि उन्होंने पूरा दिन निर्देशक आयशा सयानी के साथ शूटिंग में बिताया था.

कुछ देर इधरउधर की बातें करने के बाद नीरजा ने खाना खाया. फिर मां से पेन एम की पिकअप कार आने से डेढ़ घंटा पहले जगाने का कहते हुए सो गईं.

पेन एम से सूचना मिली कि पिकअप कार नीरजा को लेने सवा एक बजे आएगी. अत: साढ़े 11 बजे उन्हें जगाने की प्रक्रिया शुरू हुई जो उन की मां के लिए एक कठिन कार्य था. गहरी नींद में सोई नीरजा को उठाने के लिए उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी.

मौसम में हलकी ठंडक थी, फिर भी वह हमेशा की तरह ठंडे पानी से नहाई. तैयार होतेहोते नीरजा मां से बतियाती भी रहीं. 7 सितंबर को नीरजा का जन्मदिन था. इस अवसर पर कितने लोगों को बुलाने की बात पूछी गई तो उन्होंने कहा कि इस बार वह घर पर रह कर सादे तरीके से जन्मदिन मनाएंगी.

सवा एक बजे पिकअप कार उन्हें लेने आ पहुंची. बैग से लदी ट्रौली थामे नीरजा आत्मविश्वास के साथ चलती हुई फ्लैट से बाहर निकल गईं. जब वह कार में बैठ गईं तो मातापिता ने उन्हें हाथ हिला कर विदा किया. तब वे लोग कहां जानते थे कि वे अपनी लाडली बेटी को अंतिम यात्रा पर जाने के लिए विदा कर रहे हैं.

5 सितंबर, 1986 को शुक्रवार था. सुबहसुबह का वक्त. इतनी सुबह कि अभी मसजिदों में अजान के स्वर तक नहीं उभरे थे. कुछ ही देर पहले मुंबई से आया पेन एम विमान कराची की धरती पर उतरा था. और अब फिर से उड़ान भरने की तैयारी में था. विमान में सवार करीबकरीब सभी बच्चे सो रहे थे. केबिन में कुछ यात्री नींद में थे तो कुछ बैठे हुए चायकौफी की चुस्कियां ले रहे थे.

वरिष्ठ परिचारिका होने के नाते नीरजा भनोट विमान में चहलकदमी कर रही थीं. विमान चलने में जब कुछ ही वक्त रह गया, तो नीरजा ने सीढिय़ों के रास्ते आधुनिक हथियारों से लैस 4 व्यक्तियों को विमान में आते देखा. नीरजा को भांपते देर नहीं लगी कि वे आतंकवादी हैं. उन के हावभाव से लग रहा था कि संभवत: वे जहाज को हाईजैक करना चाहते हैं.

नीरजा ने सब से पहला काम यह किया कि वह इस की सूचना देने के लिए कौकपिट की ओर दौड़ पड़ीं. लेकिन इस के पहले ही एक आतंकवादी ने आगे बढ़ कर उन्हें बालों से पकड़ लिया. इस पर उन्होंने चिल्लाते हुए सांकेतिक भाषा में संभावित विमान अपहरण की घोषणा कर दी. एक अन्य परिचारिका नीरजा का हाईजैक कोड सुनते ही भाग कर इस की सूचना कौकपिट अधिकारियों को दे आई.

सूचना मिलते ही तीनों कौकपिट अधिकारी, पायलट और इंजीनियर विमान के आपातद्वार से कूद कर हवाईअड्डे के टॢमनल में जा पहुंचे. नीरजा को जैसे ही उन लोगों के भागने की जानकारी हुई, उन्होंने बचाव अभियान की कमान खुद संभालने का निर्णय ले लिया.

अब तक उन्हें बालों से पकडऩे वाला आतंकवादी उन्हें धकेलते हुए विमान के कोने में ले गया था. इस बीच नीरजा संभल चुकी थीं. उन्हें मालूम था कि विमान में उस वक्त अन्य 13 कर्मचारियों के सहित करीब 400 यात्री सवार हैं.

नीरजा ने पहला काम यह किया कि आतंकवादियों के साथ वार्ता शुरू कर दी. बातचीत में उन्होंने उन का मकसद जानने की कोशिश की, उन की मांगों के बारे में पता लगाने का प्रयास किया. इस बातचीत में आतंकी नेता ने यह बात पक्की तरह जाहिर कर दी कि विमान को अपहृत कर लिया गया है. उस ने यह भी कहा कि अगर उन की मांगें नहीं मानी गईं तो विमान में सवार सभी लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाएगा.

इस बात ने नीरजा को भीतर तक हिला कर रख दिया. उन्होंने मन ही मन तय कर लिया कि चाहे उन की खुद की जान क्यों न चली जाए, वह विमान में सवार किसी भी शख्स पर आंच नहीं आने देगी.

उन्होंने किया भी यही.

पूरे 17 घंटों तक जितना भी संभव था, नीरजा अकेली ही सारे यात्रियों की देखभाल करने का प्रयास करती रहीं. इस दौरान उन की मुसकान यात्रियों व अन्य विमानकॢमयों को इस बात पर आश्वस्त करती रही कि खतरा उतना बड़ा नहीं है, जितना उन्होंने सोच लिया था.

नीरजा की भावभीनी मुसकान से आभास होता था कि बस कुछ देर की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा. जबकि नीरजा जानती थीं कि भले ही वह अपनी सूझबूझ और चतुराई से वहां खूनखराबा नहीं होने दे रहीं, लेकिन वक्त गुजरने के साथ अन्य कई तरह की परेशानियां सामने आ सकती हैं. उन्हें और उन की सहयोगी परिचारिकाओं को उड़ान के तकनीकी पक्ष की बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी. पावर जैनरेटर का ईंधन खत्म होता जा रहा था, जिस की वजह से वोल्टेज कम होने लगा था.

इस दौरान नीरजा शायद मन ही मन एक ही बात सोच रही थीं कि विमान के भीतर इस तरह की परेशानी पैदा होने से पहले ही वह किसी भी तरह यात्रियों को बाहर निकालने में सफल हो जाएं. वोल्टेज खत्म होते ही बच्चों का दम घुटने की आशंका थी.

तब तक नीरजा ने अपनी आत्मविश्वास भरी बातों से आतंकवादियों का भी मन मोह लिया था. यही वजह थी कि वे पहले की तरह डरानेधमकाने के बजाय अब उन से दोस्ताना लहजे में बातें करने लगे थे. उस वक्त नीरजा आतंकवादियों के नेता के बिलकुल करीब खड़ी थीं.

इस बीच जरा सी देर पहले उन्होंने एक यात्री को पानी का गिलास दिया था. विमान के भीतर रोशनी काफी मंद हो गई थी. ठीक उसी वक्त अचानक जाने क्या हुआ कि विमान के भीतर गोलियों की तड़तड़ाहट शुरू हो गई.

दरअसल, अपने मंसूबे कामयाब न होते देख किसी बात पर खफा हो कर अपहर्ताओं ने फायरिंग शुरू कर दी थी. नीरजा को मौका मिला तो वह छलांग लगा कर विमान के इमरजेंसी द्वार के पास जा पहुंची. उन्होंने जल्दी से विमान का दरवाजा खोल कर 100 से ज्यादा यात्रियों को बाहर निकाल दिया. बच्चों को उन्होंने हाथों से उठाउठा कर बाहर किया. इस का नतीजा यह निकला कि आतंकवादियों के सरदार ने नीरजा के पास पहुंच कर उन के पेट में गोली दाग दी. तभी दूसरे आतंकी ने एक और गोली चलाई, जो नीरजा के हाथ में लगी.

इस आतंकवादी ने 2 बच्चों को भी निशाने पर ले लिया था. इस से पहले कि वे बच्चे गोलियों का शिकार होते, नीरजा ने उन के सामने पहुंच कर सारी गोलियां अपने जिस्म पर झेल लीं.

नीरजा का समूचा शरीर गोलियों से छलनी हो गया था. बेतहाशा खून बह रहा था. इतना सब होने पर भी उन्होंने यात्रियों को आपातद्वार से कूदने के बारे में समझाना जारी रखा.

इस के बाद की नीरजा की दास्तान केवल इतनी है कि उन्हें किसी तरह अस्पताल ले जाया गया, मगर तक तक वह इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थीं. उन की बहादुरी के विवरण कई दिनों तक दुनिया भर के समाचारपत्रों के मुखपृष्ठ पर विस्तार से छपते रहे.

पूरे विश्व से असंख्य संवेदना संदेश भनोट परिवार के पास पहुंचे. उस वक्त विमान में फंसे यात्रियों ने पूरी घटना और नीरजा की दिलेरी का विवरण देते हुए अपने पत्रों में लिखा था कि यदि आज वे जीवित हैं तो नीरजा के पराक्रम की बदौलत.

नीरजा की याद को ताजा रखने के लिए उन की स्मृति में अनेक लोगों ने पेड़ लगाए. कइयों ने अपनी बेटियों का नाम बदल कर नीरजा रख दिया. कई महानुभावों ने उन की बहादुरी पर कविताएं लिखीं. इन में चर्चित अंगरेजी कवि हरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय भी थे.

असाधारण वीरता के लिए दिया जाने वाला ‘अशोक चक्र’ देश का सर्वोच्च पुरस्कार है. तब तक कुल 16 गैरसैनिकों को इस पुरस्कार से नवाजा गया था. 26 जनवरी, 1987 को नीरजा को मरणोपरांत जब यह सर्वोच्च पुरस्कार दिया गया तो वह इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाली देश की सब से कम उम्र की महिला थीं.

अमेरिका की विश्वविख्यात संस्था ‘दि नैशनल सोसायटी औफ दि संस औफ दि अमेरिकन रेवोल्यूशन’ ने ‘हीरोइन नीरजा’ को विशेष उपाधि से सम्मानित करते हुए नीरजा के बारे में घोषित किया, ‘नीरजा ने क्रूरतम संकट के समक्ष अद्वितीय वीरता का परिचय देते हुए अपना बलिदान दे कर उन ऊंचे आदर्शों का पालन किया, जिन से हमारे देशभक्त पूर्वज अनुप्रमाणित हुए थे.’

पेन एम ने नीरजा को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अॢपत करते हुए अपने उद्गार कुछ इस तरह से सार्वजनिक किए, ‘अपनी असाधारण कत्र्तव्यपरायणता व निश्चित मृत्यु के समक्ष भी नीरजा ने अपनी निर्भयता व अथक प्रयासों से सैंकड़ों भयभीत यात्रियों और अपने सहकॢमयों को मौत के जबड़े से बाहर खींचा. अपना कत्र्तव्य निभाते हुए उन्होंने अपने जीवन का उत्सर्ग कर डाला. नीरजा का यह निस्वार्थ बलिदान और उन की निष्ठापूर्ण सेवाभावना मानवता के लिए प्रेरणास्रोत बनी रहेगी, इस में दो राय नहीं.’

पाकिस्तान की प्रमुख संस्था ‘कैदी सहायक सभा’ ने नीरजा को मरणोपरांत अपने प्रथम मानवता पदक ‘तमगा ए इंसानियत’ से नवाजा था.

इन के अलावा और भी बीसियों संस्थाएं थीं, बीसियों पुरस्कार थे, जिन के माध्यम से नीरजा की स्मृतियों को ताजा रखने के प्रयास किए गए थे. भारतीय डाक विभाग ने उन पर विशेष डाक टिकट जारी किया था. पिता हरीश भनोट ने ‘नीरजा भनोट पेन एम ट्रस्ट’ की स्थापना कर के वह पूरा पैसा इस ट्रस्ट के खाते में डाल दिया, जो उन्हें नीरजा के बलिदान के एवज में विभिन्न संस्थाओं से मिला था. यह खाता साढ़े 36 लाख रुपए की धनराशि से खोला गया था.

इस के तहत सामाजिक उत्थान के अन्य कार्यों के अलावा हर साल 2 ऐसी महिलाओं को ‘नीरजा भनोट अवार्ड’ से सम्मानित किया जाने लगा, जिन्होंने बहादुरी की अद्भुत मिसाल कायम करते हुए अन्य महिलाओं के लिए मार्ग प्रशस्त किया हो. आज इस की गिनती देश के गौरवशाली पुरस्कारों में होती है.

इस साल 26वें अवार्ड के रूप में यह पुरस्कार 13 जनवरी, 2016 को बंगलुरु की सुभाषिनी वसंत को दिया गया. इस बार यह पुरस्कार हासिल करने वाली वह अकेली महिला थीं.

उन्हें डेढ़ लाख रुपए नकद के साथ एक साइटेशन व एक ट्रौफी दी गई थी. इस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत करने के लिए फिल्म ‘नीरजा’ की हीरोइन सोनम कपूर आई थीं.

उल्लेखनीय है कि फौक्सस्टार स्टूडियोज के बैनर तले राम माधवानी के निर्देशन में निर्माता अतुल कासबेकर ने नीरजा के जीवन पर आधारित बायोपिक फिल्म का निर्माण किया है, जिस का टाइटल भी ‘नीरजा’ ही रखा गया है.

इस फिल्म में शबाना आजमी, शेखर खजियानी, उदय चोपड़ा एवं अबरार जहूर के अलावा नीरजा के किरदार में सोनम कपूर हैं. यह फिल्म 19 फरवरी, 2016 को रिलीज हो चुकी है.

अपनी भूख को जानिए

डोली एक गृहिणी है जोकि आजकल अपनी एक आदत से बेहद परेशान है. वह न चाह कर भी अपनी भूख पर कंट्रोल नहीं कर पा रही है. इस कारण अब उसे मोटापे का तो सामना करना पड़ ही रहा है, साथ ही, उसे सिरदर्द, पेटदर्द व तनाव की समस्या भी रहने लगी है. वहीं, कभीकभी हम सभी के साथ अकसर ऐसा होता है कि हम खाना खाने के बाद भी अजीब सी भूख से परेशान रहते हैं या अचानक से कुछ खाने की लालसा जाग उठती है.

किसी विशेष पदार्थ को खाने की लालसा सिर्फ आप की इच्छा ही नहीं होती है बल्कि यह संकेत होता है की आप के अंदर किसी पौष्टिक पदार्थ की कमी हो रही है जिस का कारण हमारे शरीर या जीवनशैली में विशेष पोषक तत्त्वों की कमी होता है.

वास्तव में एक संतुलित आहार हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी होता है. यदि इस में असंतुलन हो जाता है तो यह हमारे शरीर पर नकरात्मक प्रभाव डालता है. कभी अचानक से मीठा खाने का, तो कभी नमकीन, खट्टा, चटपटा या तलाभुना खाने की ललक होती है. सो, जरूरी है कि आप को अपनी इस बढ़ती भूख का सही कारण पता हो जिस से आप जल्दी ही नजात पा सकें.

नमक

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, हर रोज 5 ग्राम से अधिक नमक का सेवन सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है क्योंकि हमारे मूत्र, रक्त और पसीने में भी सोडियम शामिल होता है. इस के अधिक सेवन से हाई ब्लडप्रैशर, किडनी की समस्या, दिल का दौरा या स्ट्रोक विकसित होने का खतरा बढ़ सकता है. इस स्थिति के कई कारण भी हो सकते हैं, जैसे-

  • हमारे शरीर में लवण और खनिजों के स्तर बिगड़ने से पोटैशियम, कैल्शियम या आयरन की कमी का आना.
  • ज्यादा पेशाब और पसीना आना.
  • नमक खाने का आदी (लत) होना.
  • एडिसन बीमारी का होना. इस में अवसाद, चिड़चिड़ापन अत्यधिक थकान, भूख की कमी, वजन का कम होना, कम रक्तचाप, मांसपेशियों में ऐंठन और कमजोरी, मतली, दस्त, उलटी की समस्या हो सकती है.

आदतों में करें बदलाव

  • सफेद नमक की जगह काले नमक का प्रयोग करें.
  • भोजन में ऊपर से नमक न डालें.
  • सलाद या फल बिना नमक के खाएं.

मीठा खाने की लालसा

मीठा खाने से एनर्जी तो मिलती है लेकिन जरूरत से ज्‍यादा ग्‍लूकोज आप को बीमार बना सकता है. यह दिल की समस्या, मोटापा, स्किन प्रौब्लम, डायबिटीज, ब्रेन से जुड़ी समस्‍या, फैटी लिवर जैसी बीमारियों से ग्रस्त कर सकता है, इसलिए सावधानी बरतना बहुत जरूरी है.

कारण

  • भोजन में कार्बोहाईड्रेट की मात्रा ज्यादा लेना.
  • खराब पाचनतंत्र.
  • शरीर में पानी की कमी होना.

आदतों में करें बदलाव

  • अपने दांतों की अच्छे से सफाई करें.
  • रोजाना वर्कआउट करें.
  • खाने से पहले फल खा लें.
  • खाना खाने के आधे घंटे बाद पानी पिएं. इस से भी मीठे की तलब को कम किया जा सकता है.

तलाभुना खाने की लालसा

यदि आप को तलाभुना खाने की इच्छा हो रही है तो इस का मतलब है आप के शरीर में आवश्यक फैटी एसिड ओमेगा-3 और ओमेगा-6 की कमी हो रही है. कभीकभी मौसम में हो रहे बदलाव के कारण भी यह इच्छा बढ़ जाती है लेकिन वसायुक्त भोजन शारीरिक व मानसिक बीमारियों से ग्रस्त कर सकता है, इसलिए इस पर काबू पाना बहुत जरूरी है.

आदतों में करें बदलाव

  • भोजन में प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाएं.
  • नट्स, जैसे काजू, मूंगफली का सेवन करें.
  • व्यायाम अवश्य करें, इस से तनाव से भी राहत मिलेगी.
  • रात में तलाभुना न खाएं, इस से एसिडिटी की परेशानी हो सकती है.

खट्टा खाने की लालसा

खट्टे स्वाद की बढ़ती ललक बताती है कि आप का पाचनतंत्र निर्जलित है. यदि आप का जिगर (लिवर) कमजोर है तो भी खट्टे खाने की तीव्र इच्छा होती है. लेकिन लिवर से संबंधित परेशानी में खट्टी चीजों से परहेज करना चाहिए. ज्यादा खट्टा खाने से क्रोध और ईर्ष्या भावना उत्तेजित होती है जिस से मानसिक तनाव भी बढ़ता है.

आदतों में करें बदलाव

  • पानी का सेवन अधिक करें.
  • दूसरे आहार डाइट में शामिल करें.
  • दही, खट्टा क्रीम, सिरका, अचार या जंक फूड जैसे पदार्थों से परहेज करें.

सांझ का भूला : भाग 1

सीता ने अपने नए फ्लैट का दरवाजा खोला. कुली ट्रक से सामान उतार कर सीता के निर्देश पर उन्हें यथास्थान रख गया. कुली के जाने के बाद सीता ने अपना रसोईघर काफी मेहनत से सजाया. सारा दिन घर में सामान को संवारने में ही निकल गया. शाम को सीता जब आराम से सोफे पर बैठी तो उसे अजीब सी खुशी महसूस हुई. बरसों की घुटन कम होती हुई सी लगी.

सीता को खुद के फैसले पर विश्वास नहीं हो रहा था. 50 वर्ष की उम्र में वह घर की देहरी पार कर अकेली निकल आई है. यह कैसे संभव हुआ? वैसे आचारशील परिवार की नवविवाहिता संयुक्त परिवार से अलग हो कर अपनी गृहस्थी अलग बसा ले तो कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा चलन तो आजकल आम है. लेकिन घर की बुजुर्ग महिला गृह त्याग दे और अलग जीने लगे तो यह सामान्य बात नहीं है. सीता के दिमाग में सारी अप्रिय घटनाएं एक बार फिर घूमने लगीं.

सीता कर्नाटक संगीत के शिक्षक शिवरामकृष्णन की तीसरी बेटी थी. पिताजी अच्छे गायक थे, पर दुनियादारी नहीं जानते थे. अपने छोटे से गांव अरिमलम को छोड़ कर वे कहीं जाना नहीं चाहते थे. उन का गांव तिरुच्ची के पास ही था. गांव के परंपरावादी आचारशील परिवार, जहां कर्नाटक संगीत को महत्त्व दिया जाता था, शहर की ओर चले गए. गांव में कुल 3 मंदिर थे. आमंत्रण के उत्सवों और शादीब्याह में गाने का आमंत्रण शिवरामकृष्णन को मिलता था. उन के कुछ शिष्य घर आ कर संगीत सीखते थे. सीता की मां बीमार रहती थीं और सीता ही उन की देखभाल करती थी. पिताजी ने किसी तरह दोनों बहनों की शादी कर दी थी. एक छोटा भाई भी था, जो स्कूल में पढ़ रहा था.

सीता अपनी मां का गौर वर्ण और सुंदर नयननक्श ले कर आई थी. घने काले बाल, छरहरा बदन और शांत चेहरा बड़ा आकर्षक था. एक उत्सव में तिरुच्ची से आए रामकृष्णन के परिवार के लोगों ने सीता को देखा और उसी दिन शाम को रामकृष्णन ने अपने बेटे रविचंद्रन के साथ सीता की सगाई पक्की कर ली. सीता के पिता ने भी झटपट बेटी का ब्याह रचा दिया.

सीता का ससुराल जनधन से वैभवपूर्ण था. उस का पति कुशल बांसुरीवादक था. वह जब बांसुरीवादन का अभ्यास करता तो राह चलते लोग खड़े हो कर सुनने लगते थे, लेकिन सीता को कुछ ही समय में पता लगा कि उस का पति बुरी संगति के कारण शराबी बन गया है और अपनी इसी लत के कारण वह कहीं टिक कर काम नहीं कर पाता.

कुल 4 वर्षों की गृहस्थी ही सीता की तकदीर में लिखी थी. रविचंद्रन फेफड़े के रोग का शिकार बन कर खांसते हुए सीता को छोड़ कर चल बसा. सासससुर पुत्र शोक से बुझ कर गांव चले गए. जेठ ने सीता को मायके जाने को कह दिया.

सीता अपने दोनों नन्हे पुत्रों को ले कर अपनी दीदी के यहां चेन्नई में रहने लगी. उस ने अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से शुरू कर दी. दीदी के घर का पूरा काम अपने कंधे पर उठाए सीता गुस्सैल जीजा के क्रोध का सामना करती. उस ने किसी तरह संगीत में एम.ए. तक की शिक्षा पूरी की और शहर के प्रसिद्ध महिला कालिज में प्रवक्ता के पद पर काम करने लगी.

सीता के दोनों बेटे 2 अलग दिशाओं में प्रगति करने लगे. बड़ा बेटा जगन्नाथ पिता की तरह संगीतकार बना. वह फिल्मों में सहायक संगीत निर्देशक के रूप में काम करने लगा. अपनी संगीत टीम की एक विजातीय गायिका मोनिका को जगन्नाथ घर ले कर आया तो सीता ने पूरी बिरादरी का विरोध सहन करते हुए जगन्नाथ और मोनिका का विवाह रचाया था. दूसरा बेटा बालकृष्णन ग्रेनेट व्यापार में लग गया. अपनी कंपनी के मालिक ईश्वरन की पुत्री के साथ उस का विवाह हो गया.

सीता ने दोनों बेटों का पालनपोषण काफी मेहनत से किया था. वह उन पर कड़ा अनुशासन रखती थी. मां का संघर्ष, परिवार में मिले कटु अनुभवों ने दोनों बेटों की हंसी छीन ली थी. विवाह के बाद ही दोनों बेटे हंसनेबोलने लगे थे. सैरसपाटे पर जाना, दोस्तों को घर बुलाना, होटल में खाना दोनों को ही अच्छा लगने लगा. कुछ समय तक सीता का घर खुशहाल रहा, लेकिन सीता के जीवन में फिर आंधी आई.

भाग्यलक्ष्मी के पिता काफी संपन्न थे. इसलिए उस के पास ढेर सारे गहने और कांचीपुरम की कीमती रेशमी साडि़यां थीं. उस पर हर 2-3 दिन के बाद वह मायके जाती और वापसी पर फलमिठाइयां भरभर कर लाती थी. मोनिका यह सब देख कर जलभुन जाती थी. सीता दोनों बहुओं को किसी तरह संभालती थी. दोनों के मनमुटाव के बीच फंस कर घर का सारा काम सीता को ही करना पड़ता था.

पोंगल के त्योहार के समय बहुओं को उन के मायके से एक सप्ताह पहले ही नेग आ जाता. भाग्यलक्ष्मी के मातापिता अपनी बेटी, दामाद और सास के कपड़े आदि ले कर आ गए. भाग्यलक्ष्मी काफी खुश थी. पोंगल के पर्व के दिन सीता ने बहुओं को मेहंदी रचाने के लिए बुलाया. भाग्यलक्ष्मी ने मेहंदी रचा ली तो मोनिका का क्रोध फूट पड़ा, ‘बड़ी बहू को पहले न बुला कर छोटी बहू को पहले मेहंदी लगा दी, मुझे नीचा दिखाना चाहती हैं न आप?’

ऐसे नहीं चलता काम- भाग 1

सर्पीली सड़कों पर अरुण को गाड़ियां दौड़ाने में बहुत मजा आता है. मगर नागालैंड की जंगली-पहाड़ी सड़कें कुछ इस तरह खतरनाक मोड़ लिए होती हैं कि देखने से ही भय लगता है. कब अचानक चढ़ाई शुरू हो जाए या ढलान पड़ जाए, पता ही नहीं चलता. तिसपर लैड स्लाइडिंग के कारण अकसर ही सड़कों पर मिट्टी-पत्थर बिखरे पड़े मिलते हैं. बारिश तो यहां जैसे बारहों मास होती है, जिस से सड़क भी या तो गीली रहेगी या कीचड़-मिट्टी से लिथड़ी मिलेगी. और इसी से फिसलने का डर बना रहता है.

मैं ने अरुण से बहुत कहा कि जरा ढंग से और आहिस्ता गाड़ी चलाया करो. य़हां दिल्ली जैसी व्यस्तता और भागमभाग तो है नहीं, जो किसी प्रकार की हड़बड़ी हो. मगर वह कब किसी की सुनता है. आज कालेज में जल्दी छुट्टी हो गई थी. और वह प्रिंसिपल लेपडंग आओ से जीप मांग लाया था. बेचारे अपनी भलमनसाहत की वजह से कभी इनकार नहीं कर पाते. एक तो यहां ढंग के प्रोफैसर नहीं मिलते. तिसपर साईंस का प्रोफैसर तो और मुश्किल से मिलते हैं. फिर अरुण बात भी कुछ इस प्रकार करता है कि कोई चाह कर भी मना न कर पाए. जीप में बैठेबैठे ही हौर्न बजाते शोर मचाने लगा था- “जल्दी करो, आउटिंग पर जाना है.”

सच पूछिए तो मुझे भी यहां नागालैंड का प्राकृतिक सौंदर्य काफी भला और मोहक लगता है. दूरदूर तक जहां नजर जाती, काले-नीले पहाड़ों की श्रृंखलाएं और उन में पसरी पड़ी सघन हरी वनस्पतियों से भरे जंगल. इन सब्ज-श्याम रंगीनियों के बीच रूई के विशालकाय फाहों जैसे तैरते हुए बादलों के झुंड. सूर्य की तेज किरणें जब इस प्राकृतिक सुषमा पर पड़ती है, तो जैसे अनुपम सौंदर्य की सृष्टि सी होती है.

अभी थोड़ी देर पहले बारिश हुई थी. पर्वतों की कोख से जैसे असंख्य जलधार फूट कर सड़क पर प्रवाहमान हो चली थीं. जीप मोकोकचुंग शहर से निकल कर अब धुली हुई काली चौड़ी सड़क पर दौड़ने लगी थी. पेड़पौधों के पत्ते पानी से धुल कर जैसे और सब्ज और सजीव बन चमकने लगे थे. उन से आंखमिचौनी सी खेलती सूर्य की रश्मियां बहुत ही प्यारी लग रही थीं. जीप अब ढलान की ओर बढ़ रही थी. यहां से दूर बहती हुई नदी किसी केंचुए के समान पतली, पाताल में धंसी सी दिख रही थी. कहीं सड़क मोड़ों के बीच गायब सी हो जाती, तो कहीं दूर तक घाटियों में कुंडली मारे सर्पाकृति सी दिखती.

मोकोकचुंग शहर से असम जाने वाले हाईवे पर पहुंचते ही अरुण ने जीप की स्पीड बढ़ाते हुए कहा- “हुमसेन आओ बहुत दिनों से हमें बुला रहा था. आज उसी के घर चुचुइमलांग जाएंगे. मिलना भी हो जाएगा और घूमना भी.”

“वह तो ठीक है,” मैं भय से सिहरते हुए बोली, “मगर तुम गाड़ी की स्पीड तो कम करो. देखते नहीं, रास्ता कितना खतरनाक है. मेरी तो जान निकली जा रही है.”

“मेरे रहते तुम्हारी जान निकल ही नहीं सकती, दिव्या,” वह ठहाके लगाते हुए बोला, “देखोदेखो, उस हिरण को, कैसे भागा जा रहा है.”

सचमुच एक हिरण तेजी से रास्ता पार करते दिखा, जो हमारे देखतेदेखते जंगलों में गुम हो गया. रास्ते में कुछ और जीवजंतु मिले. एक तेंदुए का बच्चा बिलकुल सड़क के किनारे झरने के पास अपनी प्यास बुझाता दिखा. सांप तो खैर हर मीलदोमील पर रेंगते हुए मिल ही जाते थे. पक्षियों का शोर भी सुनाई पड़ रहा था. जंगली जीवों को नजदीक से देखनासुनना कितना सुखद है, इस का एहसास अब हो रहा था.

सड़क के एक तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़, तो दूसरी तरफ पाताल सी नजर आतीं गहरीगहरी घाटियां थीं. बांस-बेंत से ले कर अन्य कई प्रजातियों के विशालकाय वृक्षों की टहनियां सड़क पर छितराईं अपनी छाया दे रही थीं. प्राकृतिक सौंदर्य के उस अनंत संसार में मनमस्तिष्क टहल ही रहा था कि अचानक अरुण की घबराई आवाज आई- “दिव्या, देखो तो क्या हो गया. लगता है ब्रेक फेल हो गया है.”

मौत यदि सामने हो तो कितनाकुछ याद आने लगता है. मांबाप, भाईबहन, सगेसंबंधी और अन्य प्रियजन भी. सभी एकएक कर सामने आते जा रहे थे. कालेज का वह विशाल भवन और फिर वह हौल, जिस में हम डेढ़ सौ छात्रछात्राएं बैठा करते थे. गंगा नदी का वह घाट, वह किनारा और फिर वह पुल, जिस की रेलिंग के सहारे मैं अरुण के पास खड़ी या बैठी रह कर घंटों बात किया करती थी. सब्जी-बाजरा, सुपर मार्केट, सिनेमा हौल, रेलवे स्टेशन, बसअड्डा और बुक स्टौल. क्या मैं कोई फिल्म देख रही थी या कोई स्वप्न. नहीं तो, नहीं तो, फिर यह क्या है. हम कहां हैं, कहां हैं हम. क्या हम मौत के शिकंजे में कसते जा रहे हैं. क्या हमारी मृत्यु सुनिश्चित हो चुकी. जंगल-पहाड़ का वह सारा सौंदर्य कपूर की मानिंद जाने कहां उड़ गया था. और अब सवाल ही सवाल सामने थे. सब से बड़ा जिंदगी और मौत का सवाल.

जीप तेजी से सड़क पर सरकती जा रही थी. अरुण जीप के एकएक कलपुर्जे को ठोंकपीट रहा था. बदहवासी में उस का चेहरा लाल हो चुका था. ठुड्डियां कस गई थीं. अगर जीप घाटी में गिरी, तो क्या पता चलेगा कि यहां कोई नवविवाहित जोड़ा मरखप गया है. 4 माह तो हुए ही इस विवाह को. अभी तो न हाथों से मेहंदी की महक गई है, और न ही पैरों का महावर छूटा है. अभी तो ठीक से जीवन का आनंद भी नहीं लिया. वहां सभी चहक रहे थे- ‘जा रही हो पिया के साथ नागों के देश में. वहां तुम्हारा आंचल मणि-मुक्ताओं से भर जाएगा. समय की बड़ी बलवान हो तुम, जो साथ जा रही हो.’

उन्हें क्या पता होगा कि हम यहां नागालैंड में मौत का आलिंगन करने जा रहे हैं. सरिता तो कानों में फुसफुसा कर बोली थी, ‘देखो, तुम वहां थोड़ा जादूटोना भी सीख लेना. अरुण को वश में करने में बहुत काम आएगा तुम्हारे.’

चलो, सरिता का कहना सही हुआ. ऐसा वश में हुआ अरुण कि इस दुनिया से साथ ही जाना पड़ रहा है.

वह शादी की पार्टी और चहलपहल, वह खनकती हुई सी हंसी के फौआरे व ठहाके, मदभरी मस्तियां और चुहल, हंसीमजाक की बातें आज, अभी ही इसी वक्त क्यों याद आने लगी हैं. तो क्या मौत इतनी जल्द आ जाएगी. हां, आनी ही है. आएगी ही अब. मोकोकचुंग में सभी कितना मना करते थे, ‘अनजान जगह, अनजान लोग. और आप लोगों को सदैव घूमना ही सूझा करता है. न यहां की भाषा जानते हैं, न भाव. क्या जरूरत है आउटिंग की. आप के घर के बाहर से ही तो दिखता है सबकुछ. लंबी पर्वत श्रृंखलाएं, गहरी घाटियां और घने जंगलों की हरियाली, सब यहीं से बैठेबैठे देख लो. क्या जरूरत है खतरा मोल लेने की. आप अरुण को मना तो क्या करतीं, उलटे खुशीखुशी उस के साथ बाहर घूमने निकल जाती हैं…’

और आज जब खतरा सामने था, तो होशहवाश गुम थे. अचानक जीप को एक जोरदार ठोकर लगी और वह रुक गई. शायद सड़क पर लैंडस्लाइडिंग से गिरा कोई बड़ा सा पत्थर था, जिस से टकरा कर जीप रुक गई थी. जीप को ठोकर लगते ही मैं बाहर की ओर फिंका गई. गनीमत यही रही कि मैं झाड़ियों के बीच घास पर गिरी और विशेष चोट नहीं लगी. मौत से तो बालबाल बची थी मैं.

विश्वास : भाग 1

उस शाम पहली बार राजीव के घर वालों से मिल कर अंजू को अच्छा लगा. उस के छोटे भाई रवि और उस की पत्नी सविता ने अंजू को बहुत मानसम्मान दिया था. उन की मां ने दसियों बार उस के सिर पर हाथ रख कर उसे सदा सुखी और खुश रहने का आशीर्वाद दिया होगा.

वह राजीव के घर मुश्किल से आधा घंटा रुकी थी. इतने कम समय में ही इन सब ने उस का दिल जीत लिया था.

राजीव के घर वालों से विदा ले कर वे दोनों पास के एक सुंदर से पार्क में कुछ देर घूमने चले आए.

अंजू का हाथ पकड़ कर घूमते हुए राजीव अचानक मुसकराया और उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘इनसान की जिंदगी में बुरा वक्त आता है और अच्छा भी. 2 साल पहले जब मेरा तलाक हुआ था तब मैं दोबारा शादी करने का जिक्र सुनते ही बुरी तरह बिदक जाता था लेकिन आज मैं तुम्हें जल्दी से जल्दी अपना हमसफर बनाना चाहता हूं. तुम्हें मेरे घर वाले कैसे लगे?’’

‘‘बहुत मिलनसार और खुश- मिजाज,’’ अंजू ने सचाई बता दी.

‘‘क्या तुम उन सब के साथ निभा लोगी?’’ राजीव भावुक हो उठा.

‘‘बड़े मजे से. तुम ने उन्हें यह बता दिया है कि हम शादी करने जा रहे हैं?’’

‘‘अभी नहीं.’’

‘‘लेकिन तुम्हारे घर वालों ने तो मेरा ऐसे स्वागत किया जैसे मैं तुम्हारे लिए बहुत खास अहमियत रखती हूं.’’

‘‘तब उन तीनों ने मेरी आंखों में तुम्हारे लिए बसे प्रेम के भावों को पढ़ लिया होगा,’’ राजीव ने ?ाक कर अंजू के हाथ को चूमा तो वह एकदम से शरमा गई थी.

कुछ देर चुप रहने के बाद अंजू ने पूछा, ‘‘हम शादी कब करें?’’

‘‘क्या…अब मु?ा से दूर नहीं रहा जाता?’’ राजीव ने उसे छेड़ा.

‘‘नहीं,’’ अंजू ने जवाब दे कर शर्माते हुए अपना चेहरा हथेलियों के पीछे छिपा लिया.

‘‘मेरा दिल भी तुम्हें जी भर कर प्यार करने को तड़प रहा है, जानेमन. कुछ दिन बाद मां, रवि और सविता महीने भर के लिए मामाजी के पास छुट्टियां मनाने कानपुर जा रहे हैं. उन के लौटते ही हम अपनी शादी की तारीख तय कर लेंगे,’’ राजीव का यह जवाब सुन कर अंजू खुश हो गई थी.

पार्क के खुशनुमा माहौल में राजीव देर तक अपनी प्यार भरी बातों से अंजू के मन को गुदगुदाता रहा. करीब 3 साल पहले विधवा हुई अंजू को इस पल उस के साथ अपना भविष्य बहुत सुखद और सुरक्षित लग रहा था.

राजीव अंजू को उस के फ्लैट तक छोड़ने आया था. अंजू की मां आरती उसे देख कर खिल उठीं.

‘‘अब तुम खाना खा कर ही जाना. तुम्हारे मनपसंद आलू के परांठे बनाने में मु?ो ज्यादा देर नहीं लगेगी,’’ उन्होंने अपने भावी दामाद को जबरदस्ती रोक लिया था.

उस रात पलंग पर लेट कर अंजू देर तक राजीव और अपने बारे में सोचती रही.

सिर्फ 2 महीने पहले चार्टर्ड बस का इंतजार करते हुए दोनों के बीच औपचारिक बातचीत शुरू हुई और बस आने से पहले दोनों ने एकदूसरे को अपनाअपना परिचय दे दिया था.

उन के बीच होने वाला शुरूशुरू का हलकाफुलका वार्त्तालाप जल्दी ही अच्छी दोस्ती में बदल गया. वे दोनों नियमित रूप से एक ही बस से आफिस आनेजाने लगे थे.

राजीव की आंखों में अपने प्रति चाहत के बढ़ते भावों को देखना अंजू को अच्छा लगा था. अपने अकेलेपन से तंग आ चुके उस के दिल को जीतने में राजीव को ज्यादा समय नहीं लगा.

‘‘रोजरोज उम्र बढ़ती जाती है और अगले महीने मैं 33 साल का हो जाऊंगा. अगर मैं ने अभी अपना घर नहीं बसाया तो देर ज्यादा हो जाएगी. बड़ी उम्र के मातापिता न स्वस्थ संतान पैदा कर पाते हैं और न ही उन्हें अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पूरा समय मिल पाता है,’’ राजीव के मुंह से एक दिन निकले इन शब्दों को सुन कर अंजू के मन ने यह अंदाजा लगाया कि वह उस के साथ शादी कर के घर बसाने में दिलचस्पी रखता था.

उस दिन के बाद से अंजू ने राजीव को अपने दिल के निकट आने के ज्यादा अवसर देने शुरू कर दिए. वह उस के साथ रेस्तरां में चायकौफी पीने चली जाती. फिर उस ने फिल्म देख कर या खरीदारी करने के बाद उस के साथ डिनर करने का निमंत्रण स्वीकार करना भी शुरू कर दिया था.

उस शाम पहली बार उस के घर वालों से मिल कर अंजू के मन ने बहुत राहत और खुशी महसूस की थी. शादी हो जाने के बाद उन सीधेसादे, खुश- मिजाज लोगों के साथ निभाना जरा भी मुश्किल नहीं होगा, इस निष्कर्ष पर पहुंच वह उस रात राजीव के साथ अपनी शादी के रंगीन सपने देखती काफी देर से सोई थी.

अगले दिन रविवार को राजीव ने पहले उसे बढि़या होटल में लंच कराया और फिर खुशखबरी सुनाई, ‘‘कल मैं एक फ्लैट बुक कराने जा रहा हूं, शादी के बाद हम बहुत जल्दी अपने फ्लैट में रहने चले जाएंगे.’’

‘‘यह तो बढि़या खबर है. कितने कमरों वाला फ्लैट ले रहे हो?’’ अंजू खुश हो गई थी.

‘‘3 कमरों का. अभी मैं 5 लाख रुपए पेशगी बतौर जमा करा दूंगा लेकिन बाद में उस की किस्तें हम दोनों को मिल कर देनी पड़ेंगी, माई डियर.’’

‘‘नो प्रौब्लम, सर, मुझ से अभी कोई हेल्प चाहिए हो तो बताओ.’’

‘‘नहीं, डियर, अपने सारे शेयर आदि बेच कर मैं ने 5 लाख की रकम जमा कर ली है. मेरे पास अब कुछ नहीं बचा है. जब फ्लैट को सजानेसंवारने का समय आएगा तब तुम खर्च करना. अच्छा, इसी वक्त सोच कर बताओ कि अपने बेडरूम में कौन सा रंग कराना पसंद करोगी?’’

‘‘हलका आसमानी रंग मु?ो अच्छा लगता है.’’

‘‘गुलाबी नहीं?’’

‘‘नहीं, और ड्राइंग रूम में 3 दीवारें तो एक रंग की और चौथी अलग रंग की रखेंगे.’’

‘‘ओके, मैं किसी दिन तुम्हें वह फ्लैट दिखाने ले चलूंगा जो बिल्डर ने खरीदारों को दिखाने के लिए तैयार कर रखा है.’’

‘‘फ्लैट देख लेने के बाद उसे सजाने की बातें करने में ज्यादा मजा आएगा.’’

‘‘मैं और ज्यादा अमीर होता तो तुम्हें घुमाने के लिए कार भी खरीद लेता.’’

‘‘अरे, कार भी आ जाएगी. आखिर यह दुलहन भी तो कुछ दहेज में लाएगी,’’ अंजू की इस बात पर दोनों खूब हंसे और उन के बीच अपने भावी घर को ले कर देर तक चर्चा चलती रही थी.

अगले शुक्रवार को रवि, सविता और मां महीने भर के लिए राजीव के मामा के यहां कानपुर चले गए. अंजू को छेड़ने के लिए राजीव को नया मसाला मिल गया था.

‘‘मौजमस्ती करने का ऐसा बढि़या मौका फिर शायद न मिले, स्वीटहार्ट. तुम्हें मंजूर हो तो खाली घर में शादी से पहले हनीमून मना लेते हैं,’’ उसे घर चलने की दावत देते हुए राजीव की आंखें नशीली हो उठी थीं.

‘‘शटअप,’’ अंजू ने शरमाते हुए उसे प्यार भरे अंदाज में डांट दिया.

‘‘मान भी जाओ न, जानेमन,’’ राजीव उत्तेजित अंदाज में उस के हाथ को बारबार चूमने लगा.

‘‘तुम जोर दोगे तो मैं मान ही जाऊंगी पर हनीमून का मजा खराब हो जाएगा. थोड़ा सब्र और कर लो, डार्लिंग.’’

अंजू के सम?ाने पर राजीव सब्र तो कर लेता पर अगली मुलाकात में वह फिर उसे छेड़ने से नहीं चूकता. वह उसे कैसेकैसे प्यार करेगा, राजीव के मुंह से इस का विवरण सुन अंजू का तनबदन अजीब सी नशीली गुदगुदी से भर जाता. राजीव की ये रसीली बातें उस की रातों को उत्तेजना भरी बेचैनी से भर जातीं.

अपने अच्छे व्यवहार और दिलकश बातों से राजीव ने उसे अपने प्यार में पागल सा बना दिया था. वह अपने को अब बदकिस्मत विधवा नहीं बल्कि संसार की सब से खूबसूरत स्त्री मानने लगी थी. राजीव से मिलने वाली प्रशंसा व प्यार ने उस का कद अपनी ही नजरों में बहुत ऊंचा कर दिया था.

‘‘भाई, मां की जान बचाने के लिए उन के दिल का आपरेशन फौरन करना होगा,’’ रवि ने रविवार की रात को जब यह खबर राजीव को फोन पर दी तो उस समय वह अंजू के साथ उसी के घर में डिनर कर रहा था.

मां के आपरेशन की खबर सुन कर राजीव एकदम से सुस्त पड़ गया. फिर जब उस की आंखों से अचानक आंसू बहने लगे तो अंजू व आरती बहुत ज्यादा परेशान और दुखी हो उठीं.

भाभी- भाग 1

अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई.

पटना में ट्रेन में बैठने के बाद ही भाभी से मिलने का मन बनाया था. घर का पता तो मुझे मालूम ही था, आखिर जन्म के बाद 19 साल मैं ने वहीं गुजारे थे. हमारा संयुक्त परिवार था. पिताजी की नौकरी के कारण बाद में हम दिल्ली आ गए थे. उस के बाद, इधरउधर से उन के बारे में सूचना मिलती रही, लेकिन मेरा कभी उन से मिलना नहीं हुआ था. आज 25 साल बाद उसी घर में जाते हुए अजीब सा लग रहा था, इतने सालों में भाभी में बहुत परिवर्तन आ गया होगा, पता नहीं हम एकदूसरे को पहचानेंगे भी या नहीं, यही सोच कर उन से मिलने की उत्सुकता बढ़ती जा  रही थी. अचानक पहुंच कर मैं उन को हैरान कर देना चाह रही थी.

स्टेशन से जब आटो ले कर घर की ओर चली तो बनारस का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था. जो सड़कें उस जमाने में सूनी रहती थीं, उन में पैदल चलना तो संभव ही नहीं दिख रहा था. बड़ीबड़ी अट्टालिकाओं से शहर पटा पड़ा था. पहले जहां कारों की संख्या सीमित दिखाई पड़ती थी, अब उन की संख्या अनगिनत हो गई थी. घर को पहचानने में भी दिक्कत हुई. आसपास की खाली जमीन पर अस्पताल और मौल ने कब्जा कर रखा था. आखिर घूमतेघुमाते घर पहुंच ही गई.

घर के बाहर के नक्शे में कोई परिवर्तन नहीं था, इसलिए तुरंत पहचान गई. आगे क्या होगा, उस की अनुभूति से ही धड़कनें तेज होने लगीं. डोरबैल बजाई. दरवाजा खुला, सामने भाभी खड़ी थीं. बालों में बहुत सफेदी आ गई थी. लेकिन मुझे पहचानने में दिक्कत नहीं हुई. उन को देख कर मेरे चेहरे पर मुसकान तैर गई. लेकिन उन की प्रतिक्रिया से लग रहा था कि वे मुझे पहचानने की असफल कोशिश कर रही थीं. उन्हें अधिक समय दुविधा की स्थिति में न रख कर मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं गीता.’’ थोड़ी देर वे सोच में पड़ गईं, फिर खुशी से बोलीं, ‘‘अरे, दीदी आप, अचानक कैसे? खबर क्यों नहीं की, मैं स्टेशन लेने आ जाती. कितने सालों बाद मिले हैं.’’

उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं.

अंदर का नक्शा पूरी तरह से बदला हुआ था. चाचाचाची तो कब के कालकवलित हो गए थे. 2 ननदें थीं, उन का विवाह हो चुका था. भाभी की बेटी की भी शादी हो गई थी. एक बेटा था, जो औफिस गया हुआ था. मेरे बैठते ही वे चाय बना कर ले आईं. चाय पीतेपीते मैं ने उन को भरपूर नजरों से देखा, मक्खन की तरह गोरा चेहरा अपनी चिकनाई खो कर पाषाण जैसा कठोर और भावहीन हो गया था. पथराई हुई आंखें, जैसे उन की चमक को ग्रहण लगे वर्षों बीत चुके हों. सलवटें पड़ी हुई सूती सफेद साड़ी, जैसे कभी उस ने कलफ के दर्शन ही न किए हों. कुल मिला कर उन की स्थिति उस समय से बिलकुल विपरीत थी जब वे ब्याह कर इस घर में आई थीं.

मैं उन्हें देखने में इतनी खो गई थी कि उन की क्या प्रतिक्रिया होगी, इस का ध्यान ही नहीं रहा. उन की आवाज से चौंकी, ‘‘दीदी, किस सोच में पड़ गई हैं, पहले मुझे देखा नहीं है क्या? नहा कर थोड़ा आराम कर लीजिए, ताकि रास्ते की थकान उतर जाए. फिर जी भर के बातें करेंगे.’’ चाय खत्म हो गई थी, मैं झेंप कर उठी और कपड़े निकाल कर बाथरूम में घुस गई.

शादी और सफर की थकान से सच में बदन बिलकुल निढाल हो रहा था. लेट तो गई लेकिन आंखों में नींद के स्थान पर 25 साल पुराने अतीत के पन्ने एकएक कर के आंखों के सामने तैरने लगे…

मेरे चचेरे भाई का विवाह इन्हीं भाभी से हुआ था. चाचा की पहली पत्नी से मेरा इकलौता भाई हुआ था. वह अन्य दोनों सौतेली बहनों से भिन्न था. देखने और स्वभाव दोनों में उस का अपनी बहनों से अधिक मुझ से स्नेह था क्योंकि उस की सौतेली बहनें उस से सौतेला व्यवहार करती थीं. उस की मां के गुण उन में कूटकूट कर भरे थे. मेरी मां की भी उस की सगी मां से बहुत आत्मीयता थी, इसलिए वे उस को अपने बड़े बेटे का दरजा देती थीं.

उस जमाने में अधिकतर जैसे ही लड़का व्यवसाय में लगा कि उस के विवाह के लिए रिश्ते आने लगते थे. भाई एक तो बहुत मनमोहक व्यक्तित्व का मालिक था, दूसरा उस ने चाचा के व्यवसाय को भी संभाल लिया था. इसलिए जब भाभी के परिवार की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया तो चाचा मना नहीं कर पाए. उन दिनों घर के पुरुष ही लड़की देखने जाते थे, इसलिए भाई के साथ चाचा और मेरे पापा लड़की देखने गए. उन को सब ठीक लगा और भाई ने भी अपने चेहरे के हावभाव से हां की मुहर लगा दी तो वे नेग कर के, शगुन के फल, मिठाई और उपहारों से लदे घर लौटे तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. भाई जब हम से मिलने आया तो बहुत शरमा रहा था. हमारे पूछने पर कि कैसी हैं भाभी, तो उस के मुंह से निकल गया, ‘बहुत सुंदर है.’ उस के चेहरे की लजीली खुशी देखते ही बन रही थी.

फातिमा बीबी- भाग 1: भारतीय फौज दुश्मनों के साथ भी मानवीय व्यवहार करती है?

राजपूताना राइफल्स के मुख्यालय में अपने केबिन में बैठे कर्नल अमरीक सिंह सरकारी डाक देख रहे थे. एक पत्र उन की नजरों में ऐसा आया जो सरकारी नहीं था. वह एक विदेशी और प्राइवेट पत्र था. पत्र पर लगे डाक टिकट से उन्होंने अनुमान लगाया कि या तो यह पत्र किसी गल्फ देश से है या पड़ोसी देश पाकिस्तान से. उर्दू में लिखे शब्दों से यही लगता था. उन्हें इन देशों से पत्र कौन लिख सकता है, अपने दिमाग पर जोर देने पर भी उन्हें दूरदूर तक ऐसा कोई अपना याद नहीं आया, जो विदेश में जा कर बस गया हो.

पत्र खोला तो वह भी उर्दू में था. वे जब पहली क्लास में स्कूल गए थे तो पंजाब के स्कूलों ने उर्दू पढ़ाना बंद कर दिया था. पत्र में क्या लिखा है, वे कैसे जान पाएंगे. दिमाग पर जोर दिया कि उन की रैजिमैंट में ऐसा कौन है जो उर्दू पढ़नालिखना जानता हो. अरे, हां, कैप्टन नूर मुहम्मद, वह अवश्य उर्दू जानता होगा. मुसलमान होने के साथसाथ वह लखनऊ का रहने वाला है जहां उर्दू खासतौर पर पढ़ी और लिखी जाती है.

उन्होंने घंटी बजाई. केबिन के बाहर खड़ा जवान आदेश के लिए तुरंत हाजिर हुआ.

‘‘कैप्टन नूर मुहम्मद से कहिए, मैं ने उन को याद किया है.’’

जवान आदेश ले कर चला गया. थोड़ी देर बाद कैप्टन नूर मुहम्मद ने कर्नल साहब को सैल्यूट किया और सामने की कुरसी पर बैठ गए.

कर्नल साहब ने उन की ओर देखा और पत्र आगे बढ़ा दिया.

‘‘आप तो उर्दू जानते होंगे? आप इसे पढ़ कर बताएं कि पत्र कहां से आया है और किस ने लिखा है?’’

‘‘जी, जरूर. यह पत्र लाहौर, पाकिस्तान से आया है और लिखने वाली हैं कोई बीबी फातिमा.’’

‘‘ओह.’’

‘‘सर, आप तो पाकिस्तान कभी गए नहीं, फिर फातिमा बीबी को आप कैसे जानते हैं?’’

‘‘सब बताऊंगा, पहले पढ़ो कि लिखा क्या है.’’

‘‘जी, जरूर. लिखा है, कर्नल अमरीक सिंह साहब को फातिमा बीबी का सलाम. यहां सब खैरियत है, उम्मीद करती हूं, सारे परिवार के साथ आप भी खैरियत से होंगे. परिवार से मेरी मुराद रैजिमैंट के अफसरों, जूनियर अफसरों और जवानों से है.

‘‘मुझे सब याद है, मैं आप सब को कभी भूल ही नहीं पाई. वह खूनी खेल, चारों तरफ खून ही खून, लाशें ही लाशें, लाशें अपनों की, लाशें बेगानों की, बूढ़े मां, बाप, भाइयों की लाशें, टुकड़ों में बिखरी पड़ी थीं. मैं बहुत डरी हुई थी जब आप के जवानों की टुकड़ी ने मुझे रिकवर किया था. आप ने जिस तरह मेरी हिफाजत की थी, तब से मेरा आप के परिवार से संबंध बन गया था. मैं इस संबंध को कभी भूल नहीं पाई. इस बात को 10 साल होने जा रहे हैं. आज मैं हर तरह से खुश हूं. मेरी खुशहाल जिंदगी है, जो आप की देन है, मैं इसे कभी भूल नहीं पाई और कभी भूल भी नहीं पाऊंगी.

‘‘जब आप को मेरा यह खत मिलेगा, मैं दिल्ली के लिए रवाना हो चुकी होऊंगी. वहां मेरी खाला (मौसी) रहती हैं जिन का पता भी लिख रही हूं. मुझे पता नहीं, आप हिंदुस्तान में कहां हैं पर मैं जानती हूं, आप कुछ ऐसा जरूर करेंगे कि मैं आप से और आप के परिवार से मिल सकूं.

‘‘आप की खैरियत चाहने वाली.

फातिमा.’’

कैप्टन नूर मुहम्मद ने देखा, शेर सा दिल रखने वाले कर्नल साहब, जिन्हें भारत सरकार ने उन की बहादुरी के लिए ‘महावीर चक्र’ से नवाजा है, यह छोटा सा पत्र सुन कर पिघल गए, आंखें नम हो गईं. यह आश्चर्य ही था कि विकट से विकट परिस्थितियों में चट्टान की तरह खड़ा रहने वाला व्यक्ति इस प्रकार भावनाओं में बह जाएगा.

‘‘सर, आप की आंखों में आंसू? और यह फातिमा कौन है?’’

‘‘क्यों भई, मैं भी इंसान हूं. मेरी आंखों में भी आंसू आ सकते हैं. फातिमा की एक लंबी कहानी है. आप रैजिमैंट में 65 की लड़ाई के बाद आए.

‘‘65 की लड़ाई का अभी सीजफायर हुआ ही था. 22 दिन यह लड़ाई चली थी. हमारी रैजिमैंट पाक के सियालकोट सैक्टर के ‘अल्लड़’ गांव में थी. ‘अल्लड़’ रेलवे स्टेशन हमारे कब्जे में था. वही रैजिमैंट का मुख्यालय भी था. सियालकोट से डेराबाबा नानक तक पाकिस्तान की मिलिटरी सप्लाई बिलकुल रोक दी गई थी. रैजिमैंट मोरचाबंदी मजबूत करने और छिपे हुए दुश्मनों को सफाया करने में व्यस्त थी. गांव के एक घर से अस्तव्यस्त और क्षतविक्षत अवस्था में यह फातिमा हमारी एक पैट्रोलिंग पार्टी को मिली जिस की कमांड मेजर रंजीत सिंह के हाथ में थी. फातिमा के परिवार के सारे लोग लड़ाई में मारे गए थे. पाक के फौजी फातिमा के पीछे पड़े हुए थे. शायद उस की इज्जत लूटने के बाद मार देते. पर हमारी टुकड़ी से उन की भिड़ंत हो गई. कुछ मारे गए, कुछ भाग गए. डरी, सहमी और जख्मी फातिमा को रिकवर कर लिया गया. जब उसे मेरे सामने पेश किया गया तो वह डर के मारे थरथर कांप रही थी. कपड़े जगहजगह से फटे हुए थे, शरीर पर जख्म थे जिन से खून बह रहा था. उस की आंखों से भी झलक रहा था कि वह अपने फौजियों से बड़ी मुश्किल से बची है, अब तो वह दुश्मन के खेमे में है.

Raksha Bandhan : काश मेरी बेटी होती – भाग 1

‘‘यार, तुम बहुत खुशनसीब हो कि तुम्हें बेटी है…’’ शोभा बोली, ‘‘बेटियां मातापिता का दुखदर्द दिल से महसूस करती हैं…’’

‘‘नहीं यार, मत पूछो, आजकल की बेटियों के हाल… वे हमारे समय की बेटियां होती थीं जो मातापिता का, विशेषकर मां का दुखदर्द सिद्दत से महसूस करती थीं. आजकल की बेटियां तो मातापिता का सिरदर्द बन कर बेटों से होड़ लेती प्रतीत होती हैं…तुम्हारी बेटी नहीं है न…इसलिए कह रही हो.’’

एक बेटी की मां जयंति शोभा की बात काटती हुई बोली, ‘‘इस रक्षा का अच्छा है…बहू ले आई है, बेटी तो हर बात पर मुंहतोड़ जवाब देती है, पर बहू तो दिल ही दिल में भले ही बड़बड़ाए, पर सामने फिर भी लिहाज करती है. कहना सुन लेती है.’’

‘‘आजकल की बहुओं से लिहाज की उम्मीद करना, तौबातौबा… मुंह से कुछ नहीं बोलेंगी पर हावभाव व आंखों से बहुत कुछ जता देंगी,’’ रक्षा जयंति का प्रतिवाद करती हुई बोली, ‘‘जिन बेटियोंं का तू अभीअभी गुणगान कर रही थी, आखिर वही तो बहुएं बनती हैं. कोर्ई ऊपर से थोड़े ही न उतर आती हैं. ऐसा नाकों चने चबवाती हैं. आजकल की बहुएं…बस अंदर ही अंदर दिलमसोस कर रह जाओ…बेटे पर ज्यादा हक भी नहीं जता सकते, नहीं तो बहुत उसे मां का लाड़ला कहने से नहीं चूकेगी…’’ रक्षा ने दिल की भड़ास निकाली.

शोभा दोनों की बातें मुसकराती हुई सुन रही थी. एक लंबी सांस छोड़ती हुई बोली, ‘‘अब मैं क्या जानूं की बेटियां कैसी होती हैं और बहू कैसी…न मेरी बेटी न बहू…पता नहीं मेरा नखरेबाज बेटा कब शादी के लिए हां बोलेगा. कब मैं लड़की ढूंढ़ने जाऊंगी…कब शादी होगी और कब मेरी बहू होगी…अभी तो कोई सूरत नजर नहीं आती मेरे सास बनने की…’’

‘‘जब तक नहीं आती तब तक मस्ती मार…’’ रक्षा और जयंती हंसती हुई बोलीं, ‘‘गोल्डन टाइम चल रहा है तेरा…सुना नहीं, पुरानी कहावत है…पहन ले जब तक बेटी नहीं हुई, खा ले जब तक बहू नहीं आई. इसलिए हमारा खानापहनना तो छूट गया. पर तेरा अभी समय है बेटा…डांस पर चांस मार ले. मस्ती कर, पति के साथ घूमने जा, पिक्चरें देख, कैंडिल लाइट डिनर कर…वगैरह. कम से कम बाद में नातीपोते खिलाने पड़ेंगे और बच्चों को कहना पड़ेगा कि जाओ, घूम आओ, हम तो बहुत घूमे अपने जमाने में, तो दिल तो न दुखेगा, कह कर तीनों सहेलियां कम पड़ोसिन खिलखिला कर हंस पड़ीं और शोभा के घर से उन की सभा बरखास्त हो गई.

रक्षा, जयंति व शोभा तीनोंं पड़ोसिनें व अभिन्न सहेलियां भी थीं. उम्र थोड़ा बहुत ऊपरनीचे होने पर भी तीनों का आपसी तारतम्य बहुत अच्छा था. हर सुखदुख में एकदूसरे के काम आतीं. होली पर गुजिया बनाने से ले कर दीवाली की खरीदारी तीनों साथ करतीं. तीनों एकदूसरे की राजदार भी थीं और लगभग 15 साल पहले जब उन के बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे थे, थोड़ा आगेपीछे तीनों के घर इस कालोनी में बने थे.

तीनों ही अच्छी शिक्षिति महिलाएं थीं और इस समय अपने फिफ्टीज के दौर से गुजर रही थीं. जिन के पास जो था उस से असंतुष्ट और जो नहीं था, उस के लिए मनभावन कल्पनाओं का पिटारा उन के दिमाग में अकसर खुला रहता. लेकिन जो है उस से संतुष्ट रहने की तीनों ही नहीं सोचतीं, न ही सोच पातीं कि जो उन्हें कुदरत ने दिया है, उसे किस तरह से खूबसूरत बनाया जाए.

Raksha Bandhan : अल्पना, भाग 1

लगभग 20 साल बाद जब उस दिन मैं ने अल्पना को देखा तो सोचा भी नहीं था कि अमेरिका वापस जाते वक्त एक विलक्षण सी परिस्थिति में अल्पना भी मेरे साथसाथ अमेरिका जा रही होगी…

उस दिन ड्राईक्लीन हो कर आए कपड़ों में मेरे कुरते पाजामे की जगह लेडीज ड्रैस देख कर उसे वापस दे कर अपना कुरता पाजामा लेने के लिए मैं ड्राईक्लीन की दुकान पर गया था. वहीं पर मैं ने इतने सालों बाद अल्पना को देखा.

उसे दुकानदार से झगड़ता देख कर विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसी बेहूदगी बातें करने वाली औरत अल्पना होगी. लेकिन यकीनन वह अल्पना ही थी.

कुछ देर तक तो मैं दुकानदार और अल्पना के बीच का झगड़ा झेलता रहा और फिर दुकान के बाहर से ही बिना अल्पना की तरफ देखते हुए बड़े ही शांत स्वर में मैं ने दुकानदार से कहा, ‘‘भैयाजी, मेरे कुरते पाजामे की जगह यह किसी की लेडीज ड्रैस आ गई है मेरे कपड़ों में… प्लीज, जरा देखेंगे क्या?’’

‘‘अरे, यह मेरी ड्रैस आप के पास कैसे आई? 4-5 दिन हो गए हैं इसे खोए हुए… इतने दिन क्यों सोए रहे?’’ गुस्से से कह अल्पना ने लगभग झपटते हुए मेरे हाथ से ड्रैस ले ली.

यह सब कहते हुए उस ने मुझे देखा नहीं था. लेकिन मैं ने उसे पहचान लिया था. उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए मैं ने कहा था, ‘‘अरे, अंजू तुम? तुम यहां कैसे? तुम… आप अल्पना ही हैं न?’’

मेरी बात सुन उस ने तुरंत मेरी तरफ देखा और फिर बोली, ‘‘अरे हां, मैं वही तुम्हारी बैस्ट फ्रैंड अल्पना हूं… लेकिन आप यानी अरुण यहां कैसे? आप तो अमेरिका सैटल हो गए थे न?’’

फिर करीब 10-15 मिनट की बातचीत में उस ने 20 सालों का पूरा लेखाजोखा मेरे सामने रख दिया था. मेरे अमेरिका जाने के तुरंत बाद ही उस की शादी हो गई थी. अमीर मांबाप की लाडली बेटी होने के बावजूद मांबाप की अपेक्षाओं के विपरीत जगह उस की शादी हुई थी. उस का पति किसी प्राइवेट कंपनी में सहायक मैनेजर तो था, लेकिन घर के हालात बहुत अच्छे नहीं थे. इसीलिए उसे अपनी सैंट्रल गवर्नमैंट की नौकरी अब तक जारी रखनी पड़ी थी. उस की एक ही बेटी है और इंजीनियरिंग के आखिरी साल में पढ़ रही है. और ऐसी कितनी ही बातें वह लगातार बताती जा रही थी और बिना कुछ बोले मैं उसे निहारता जा रहा था.

इन 20 सालों में अल्पना थोड़ी मोटी हो गई थी, लेकिन अब भी बहुत सुंदर लग रही थी… गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें और कंधों तक कटे बाल… सचमुच आज भी अल्पना उतनी ही आकर्षक थी जितनी 20 साल पहले थी.

बीते सालों की कई यादें संजोए हुए मैं सोच ही रहा था कि उस से क्या कहूं, तभी वह फिर से बोल पड़ी, ‘‘तुम कब आए अमेरिका से यहां? अब यहीं रहोगे कि वापस जाओगे? मृणाल कैसी है? बालबच्चे कितने हैं तुम्हारे?’’

‘‘अरे भई, अब सारी बातें यहीं रास्ते में खड़ीखड़ी करोगी क्या? चलो घर चलो मेरे… मैं यहीं पास में रहता हूं. मैं अपनी कार ले कर आया हूं… चलो घर चलो.’’

‘‘नहीं नहीं, आज रहने दो. आज जरा जल्दी में हूं… फिर कभी… अपना कार्ड दे दो… मैं पहुंच जाऊंगी कभी न कभी तुम्हारे घर.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले दुकानदार से लड़ते वक्त तो तुम्हें जल्दी नहीं थी… अब कह रही हो जल्दी में हूं…’’

‘‘लड़ने से फायदा ही हुआ न? एक तो तुम मिल गए और मेरी बेटी की खोई हुई ड्रैस भी मिल गई.’’

‘‘लड़ने झगड़ने में काफी ऐक्सपर्ट हो गई हो तुम. क्या पति से भी ऐसे ही लड़ती हो?’’

‘‘और नहीं तो क्या…? कुदरत ने हर औरत को एक पति लड़ने के लिए ही तो दिया होता है… मृणाल ने तुम्हें बताया नहीं अब तक?’’

हम बातें करते करते मेरी गाड़ी के बिलकुल पास आ गए थे. मेरी नई मर्सिडीज को देख कर अल्पना की आंखें कुछ देर चुंधिया सी गई थीं और फिर अचानक बोल पड़ी थी, ‘‘वाऊ… मर्सिडीज… बड़े ठाट हैं तुम्हारे तो.’’

मेरी कार को निहारते वक्त अल्पना का चेहरा किसी भोलेभाले बच्चे सा हो गया था.

‘‘चलो, अंजू आज मैं ही तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुंचा देता हूं… तुम्हारा घर भी देख लूंगा… चलो बैठो.’’

‘‘वाऊ, दैट्स ग्रेट… लेकिन थोड़ी देर रुको… मैं ने यहीं पास की गली में अपनी

ड्रैस सिलने दी है. अभी उसे ले कर आती हूं… गली बहुत छोटी है… तुम्हारी मर्सिडीज नहीं जा सकती… मुझे सिर्फ 5-10 मिनट लगेंगे… चलेगा?’’

‘‘औफकोर्स चलेगा… मैं यहीं गाड़ी में बैठ कर तुम्हारा इंतजार करता हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर वह चली गई.

गाड़ी में बैठेबैठे 20 साल पहले की न जाने कितनी यादें मेरे मन में उमड़ने लगीं…

20 साल पहले यहां दिल्ली में ही लाजपत नगर में हम दोनों के परिवार साथसाथ के मकानों में रहते थे. हमारे 2 मकानों के बीच सिर्फ एक दीवार थी. आंगन हमारा साझा था. अल्पना के परिवार में अल्पना के मांबाप, अल्पना और उस का उस से 10 साल छोटा भाई सुरेश यानी 4 लोग थे. मेरा परिवार अल्पना के परिवार से बड़ा था. हमारे परिवार में मां बाबा, हम 4 भाई बहन, हमारी दादी और हमारी एक बिनब्याही बूआ कुल 8 लोग थे. लाजपत नगर में तब सिर्फ हमारे ही 2 परिवार महाराष्ट्रीयन थे, इसलिए हमारे दोनों परिवारों में बहुत ज्यादा प्यार और अपनापन था.

अल्पना की मां मेरी मां से 10-12 साल छोटी थीं, इसलिए हर वक्त मेरी मां के पास कुछ न कुछ नया सीखने हमारे घर आती रहती थीं. अल्पना का छोटा भाई सुरेश अल्पना से 10 साल छोटा होने के कारण हम दोनों परिवारों में सब से छोटा था, इसलिए सब को प्यारा लगता था. अल्पना के पिताजी बैंक में बहुत बड़ी पोस्ट पर होने के कारण हरदम व्यस्त रहते थे. अल्पना देखने में सुंदर तो थी ही, लेकिन उस के बातूनी, चंचल और मिलनसार स्वभाव के कारण हम सभी भाई बहनों की वह बैस्ट फ्रैंड बन गई थी. मेरी दोनों बहनें तो हरदम उसी की बातें करती रहतीं… मेरा बड़ा भाई अजय अपने नए नए शुरू किए बिजनैस में हरदम व्यस्त रहता था, लेकिन मेरे और अल्पना के हमउम्र होने के कारण हमारी बहुत बनती थी.

ये बातें जरूर सिखाएं अपने बच्चों को

आवश्यकता से अधिक बच्चों को बांध कर रखना बच्चों के विकास के लिए हानिकारक हो सकता है. दुनिया तेजी से आगे बढ़ रही है और बच्चों को हमेशा दुनिया की परेशानियों से दूर ऐसी दुनिया में नहीं रख सकते जहां उन्हें हमेशा यह महसूस हो कि सब बहुत अच्छा है. हाल ही में गुजरात के एक हीरा व्यापारी ने अपने इकलौते बेटे को खुद अपने बल पर कुछ कमाने के लिए कहा. अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की 15 वर्षीया बेटी का सीफूड रेस्तरां में काम करना इस बात का प्रमाण है कि जीवन में शिक्षा के साथ और भी बहुतकुछ महत्त्वपूर्ण है. कुछ तरीकों से आप अपने बच्चे को आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर बना सकते हैं, जैसे–

  • उन्हें सिखाएं कि ‘न’ कैसे कहना है : यह सुननेपढ़ने में आसान लगता है पर न कहना सीखना वाकई मुश्किल होता है. दुनिया अपने हिसाब से हमें चलाने की उम्मीद रखती है. ऐसे में न कहने के लिए काफी हिम्मत चाहिए. बच्चों को जल्दी ही न कहना सिखा देना उन्हें कई चीजों में मदद करता है. उन्हें सिखाएं कि जो तुम्हें पसंद नहीं आ रहा है उस के बारे में वे साफसाफ कहें. इस से उन का आत्मविश्वास बढ़ेगा, कोई उन्हें हलके में नहीं लेगा. अगर न कहना नहीं आएगा तो उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. वे तनाव नहीं झेल पाएंगे, झूठ बोल सकते हैं या किसी की भी बातों में फंस सकते हैं.
  • घर में कभीकभी अकेला छोड़ें : बहुत सारे मातापिता को घर में बच्चों को अकेला छोड़ना मुश्किल लगेगा लेकिन सीसीटीवी कैमरा, आप के फोन कौल्स, पड़ोसी, इन सब सुरक्षाओं के साथ आप थोड़ा निश्चिंत हो सकते हैं. एक पेपर पर इमरजैंसी नंबर लिख कर रखें. बच्चों को गैस रैगुलेटर बंद करना सिखाएं. उन्हें फिनायल, कीटनाशक दवाओं या इस तरह की चीजों से दूर रखना सिखाएं. सब से जरूरी बात, उन्हें दरवाजा खोलने से पहले पीपहोल का प्रयोग करना सिखाएं.

10 वर्षीया बेटी की मां सरिता शर्मा कहती हैं, ‘‘कभीकभी बैंक या सब्जी या कुछ और खरीदने के लिए बेटी को घर में छोड़ कर जाना पड़ता है. इसलिए मैं ने उसे डिलीवरी बौयज या किसी अजनबी के लिए दरवाजा खोलने से मना किया हुआ है. दूसरा, यदि मैं घर पर नहीं हूं तो कोई लैंडलाइन पर फोन करता है तो उसे समझाया है कि वह यह कहे कि मम्मी व्यस्त हैं और बस, वह मैसेज ले ले. इस से बच्चे अपना समय ज्यादा अच्छी तरह बिताना सीख लेते हैं और अपनेआप ही उन्हें कई काम करने आ जाते हैं.’’

  • घूमने और अनुभव लेने दें : चाहे कौमिक पढ़ना हो, मूवी देखना हो, कैंप में जाना हो या ट्रैकिंग के लिए जाना हो, उन्हें  मना न करें. उन से अपनी पसंद की पुस्तकें चुनने के लिए कहें. उन से दोस्तों के साथ समय बिताने दें. उन पर हमेशा हावी न रहें. उन्हें भविष्य में बड़े, महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे. 4 वर्षीय बेटे के पिता गौरव कपूर कहते हैं, ‘‘जब मेरा बेटा 7 साल का था तब से ही मैं उसे अपनी बिल्डिंग में नीचे ही सामान खरीदने भेज दिया करता था. उसे स्कूल एजुकेशनल ट्रिप पर भी भेजा करता था. वह अपनी उम्र के बच्चों से ज्यादा आत्मनिर्भर है और बातचीत करने में उस में बहुत आत्मविश्वास है.’’
  • पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बारे में बताएं : अंजू गोयल ने अपने 2 साल के बेटे का जन्मदिन अपने पति के साथ मुंबई में ‘बैस्ट’ बस में बिताया. वे कहती हैं, ‘‘जब भी हम बाहर जाते हैं, मेरा बेटा बस को बहुत शौक से देखता है. मैं ने सोचा अपने जन्मदिन पर वह बस में बैठ कर खुश होगा और वह बहुत खुश हुआ भी. जब वह और बड़ा होगा, मैं उस से पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करने के लिए ही कहूंगी.’’ भले ही आप अपने बच्चे को कार का आराम देना चाहें, उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बारे में बताना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है. सामान्य ट्रैफिक नियम बताएं, सड़क के शिष्टाचार सिखाएं.
  • यदि ऐसा हो तो : जीवन में कई स्थितियों में अपने बच्चों को ऐक्सिडैंटप्रूफ बनाने के लिए, ‘यदि ऐसा हो जाए’ वाली स्थिति से निबटने के लिए समझाएं. 8 और 10 साल के बच्चों की मां रीता शर्मा कहती हैं, ‘‘हम दोनों कामकाजी हैं. हमारे बच्चे डेकेयर में रहते हैं. मैं ने बच्चों को लोकप्रिय गानों की ट्यून पर इमरजैंसी नंबर, पास में रहने वाले रिश्तेदारों के नंबर बताए हैं. अब जब गाना बजता है, वे नंबर दोहराने लगते हैं.’’ बच्चों को अजनबियों से सचेत रहने के लिए कहें. उन्हें असुरक्षित जगहों के बारे में बताएं. अपने घर के आसपास महत्त्वपूर्ण लैंडमार्क समझा दें. भले ही वे सुरक्षित माहौल में हों, आप खुद भी उन पर, उन के आसपास की चीजों पर नजर जरूर रखें. उन की बातें ध्यान से सुनें, उन्हें अपना समय दें.
अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें