‘दो हजार कम पड़ रहे हैं सर.’ उस का सिर फिर झुक गया.
‘एक मिनट.’ मैं उठा – ‘मैं जरा बाथरूम हो लूं. बस एक मिनट.’
वह वैसे ही बैठा रहा. मैं उठ कर बाथरूम में आया व दरवाजा बंद कर के उस से पीठ लगा कर खड़ा हो गया.
ओह…
तो ये कहानी है. अब तस्वीर धुंधली से स्पष्ट हो गई थी. पहले चार सौ जमा करा कर मेरा विश्वास जीत लिया. धीरेधीरे आत्मीय हो गया. और फिर ये भयानक आंधी पानी का माहौल और एक लंबी भावनात्मक कहानी. उस के बाद दो हजार उधार की मांग.
क्या मुझे बेवकूफ समझा है.
अब इतना बेवकूफ तो नहीं ही हूं. अपने हाथ से बना कर आमलेट स्लाइज खिला दी, गमछा दे दिया, कुर्तापाजामा तो दे ही दिया. चलो वो तो पुराना था. इस के पीछे यही भावना थी कि उस के रुपए मेरे आड़े वक्त में काम आए थे. पर शायद मेरा फर्ज पूरा हुआ.
पर वो चरित्र प्रमाणपत्र.
उस का क्या है. बाजार में छपाछपाया मिलता है. भर कर फोटो ही तो लगानी है.
मैं ने कल ही बैंक से पांच हजार निकाल कर लाया था व अटैची के पीछे वाले फ्लैप में रख कर लाक लगा दिया था. वह मेरी आंखों के सामने घूम गए. पर उसे क्या मालूम.
वह प्रतिदन का छ: सौ कमाता है, ऐसा कहता है. आठ सौ हजार कमाता होगा. महीने का पचीस हजार से तीस हजार. मेरी तनखाह का दो गुना. वह तो मुझसे बड़ा आदमी है.
पर अगर कहीं उसे सचमुच जरूरत हुई तो. उस के चार सौ रुपए मेरे बड़े काम आए थे. पर अगर… क्या बेवकूफी है यार.
मैं बाथरूम का दरवाजा खोल कर अंदर आया व खाट पर बैठ गया. तभी लाइट आ गई. अनुपम ने लालटेन का शीशा ऊपर कर के लालटेन बुझा दी.
‘तो तुम को दो हजार की जरूरत है. क्यों अनुपम.’
‘जी हां.’ उस ने सर हिलाया.
‘पर भाई दो हजार तो मेरे पास अभी नहीं है. दोचारसौ की बात हो तो बात अलग है. फिर पहली तारीख आने में तो अभी कई दिन हैं. तुम ने गलत समय पर मुझे धर्म संकट में डाल दिया है. अभी तो मैं चाह कर भी इंतजाम नहीं कर पाऊंगा.’ मैं ने हाथ मले.
‘कोई बात नहीं साहब.’ अनुपम ने पहली बार मुझे साहब कहा था- ‘मैं कोई और इंतजाम कर लूंगा. बहन का दाखिला तो कराना ही है. अब मैं चलूंगा साहब.’
उस के स्वर की दृणता से मैं लज्जित हो गया. वह बाथरूम में गया और अपनी जींस और टीशर्ट जो अभी गीली ही थी ले आया. पालीथीन को संभाल कर पाजामें में उड़ेस कर उस ने स्टोव के नीचे दबे रुपए उठा लिए.
‘अनुपम मैं तुम्हें छाता दे दूं क्या. आना तो लेते आना.’
‘नहीं साहब. अब जरूरत नहीं है. पानी रुक गया है. चलता हूं. नमस्ते साहब.’
वह दरवाजा खोल कर नीचे उतर गया. मैं दरवाजे पर खड़ा उसे दूर सडक़ पर जाते देखता रहा लाइट तो आ ही गई थी व स्टीट लाइट जल रही थी.
मैं दरवाजा बंद कर के अंदर आया व स्टोव किनारे कर के खाट पर जा लेटा. अंदर से पता नहीं क्यों ग्लानि की सी कोई भावना घेरे ले रही थी.
तभी फिर बाहर के दरवाजे की कुंडी खटकी. मुझे हल्की सी झपकी सी आई थी. मैं ने लाइट आन की व दरवाजा खोला. सामने मेरा कुर्तापाजामा पहने अनुपम खड़ा था.
‘साहब ये आपने पचास रुपया ज्यादा दे दिया है.’ वह हाथ में पकड़ा पचास रुपए का नोट मेरी तरफ बढ़ा रहा था – ‘अभी जब मैं रुपया जेब में रखने लगा तो मैं ने देखा. लीजिए.’
मैं कुछ कह ना पाया. चुपचाप हाथ बढ़ा कर नोट ले लिया.
‘नमस्ते साहब.’ वह घूमा और चला गया.
वह मेरी अनुपम से आखिरी मुलाकात थी.
तीन साल बीत गए.
इन तीन सालों में सामान्य रूप से बहुत सी घटनाएं हुईं.
मां की तबीयत ठीक हो गई. भाई के यहां एक लडक़ा हो गया. पिताजी नहीं रहे. मेरी शादी हो गई. मेरी पत्नी सीतापुर की थी जो वहीं नौकरी करती थी. वह वहीं रही और मैं आताजाता रहा.
अभी पिछले माह जब मैं सुषमा से मिलने उस के मायके गया तो अजीब वाकया हुआ. शाम के समय मैं थोड़ा टहलने के इरादे से अकेले बाहर निकला तो ठहलते हुए दूर निकल गया. थोड़ी थकान भी लगने लगी. तब मैं ने वापसी की सोची क्योंकि इतना ही वापसी में भी चलना था. तभी मुझे एक अच्छी व बड़ी स्टेशनरी की दुकान दिखाई दी. मैं ने सोचा अपने छोटे साले के लिए एक बढिय़ा सा पेन सेट ले लूं. वह खुश हो जाएगा. मैं दुकान की तरफ बढ़ा. सामने ही काउंटर था जिस के पीछे एक गौर वर्ण हृष्टपुष्टï युवक बैठा था. दो तीन ग्राहक खड़े थे.
‘एक अच्छा सा पेन सेट दिखाइये.’ मैं ने युवक से कहा.
उस ने मुझे देखा व देखता ही रह गया. पर दूसरे ही क्षण वह झटके से उठा व काउंटर का फ्लैप हटा कर बाहर आ गया व मेरे चरणस्पर्श करने लगा – ‘सर आप. आप यहां कैसे.’
मैं अचकचा गया व थोड़ा पीछे हट गया.
‘सर आप ने मुझे पहचाना नहीं.’ उस के चेहरे पर कौतुक भरी मुस्कराहट आ गई.
‘अनुपम.’ मैं आश्चर्य से चीख सा पड़ा – ‘तुम तो मोटे हो गये भाई. एकदम बदल गए.’
‘चलिए आप ने मुझे पहचान तो लिया.’ वह हंस पड़ा – ‘समय भी तो काफी बीता है सर. पर आप नहीं बदले. एकदम वैसे ही हैं. आइये सर अंदर आइए.’
वह मुझे हाथ पकड़ कर अंदर ले गया. दुकान के अंदर भी एक कमरा था जिस में सामान भरा था पर तीन कुॢसयां भी पड़ी थीं.
‘आप बैठिए सर. बस एक मिनट. मैं लडक़ों से बोल दूं. वे काउंटर संभाल लेंगे.’ अनुपम बाहर चला गया.
अनुपम की प्रसन्नता छुपाए नहीं छिप रही थी. यह उस की हाॢदक प्रसन्नता थी. अनुपम का शरीर भर गया था. उस का रंग खिल गया था. सर के बाल अच्छी तरह से कटे हुए थे. उस ने लालपीले रंग की टीशर्ट व नीली जींस ही पहन रखी थी. पर कपड़े नए थे. पैरों में ब्राउन सैंडल थे.
‘सौरी सर.’ उस ने आ कर बैठते हुए कहा- ‘मुझे देर तो नहीं हुई.’
‘नहीं.’ मैं ने कहा – ‘क्या ये दुकान तुम्हारी है.’
‘आप की ही है सर.’ उस ने मुस्करा कर सिर झुकाया- ‘पर पहले यह बताइये आप यहां कैसे. क्या आपकी बदली यहां हो गई है.’
‘नहीं अनुपम.’ मैं ने बताया, ‘दरअसल मेरी शादी हो गई है और मेरी पत्नी का मायका यहीं है. मैं वहीं आया हूं.’
‘अरे वाह.’ वह उछल पड़ा. ‘मैडम को भी ले आए होते.’
‘मुझे ही क्या मालूम था कि तुम से यहां मुलाकात हो जाएगी.’ मैं भी मुस्कराया- ‘तुम से तो अचानक मुलाकात हुई है. ये सब कैसे क्या हुआ बताओ.’
तभी एक लडक़ा कोल्ड ङ्क्षड्रक की दो बोतलें ले आया.
‘बताता हूं सर. सब बताता हूं. पर पहले आप ये ङ्क्षड्रक तो लीजिए.’ उस ने एक बोतल मेरी तरफ बढ़ाई. मैं ने ले लिया.
‘सब आप का ही आशीर्वाद है सर. आप के यहां से उस भयानक बरसाती रात में वापस आने के तीसरे दिन बाद ही चाचा लोगों ने दो लाख नकद दे दिए थे. माताजी ने उन के नाम से पक्की लिखापढ़ी कर दी. इन रुपयों से हमें बड़ा आराम हो गया. मैं ने माताजी से पचास हजार रुपए उधार लिए. उस समय यहां इतनी मारामारी नहीं थी. दस हजार डिपाजिट और दो हजार महीना किराए पर यह दुकान मिल गई. सात हजार में पूरा फर्नीचर लग गया. मैं ने पचीस हजार नकद पर चालीस हजार का माल बाजार से उठा लिया. दुकान जल्द ही चल निकली क्योंकि यहां पर कोई स्टेशनरी की दुकान नहीं थी व पीछे की रोड पर दो हाईस्कूल और पास ही एक कालेज खुल गया था. अब तो दुकान में ही पांच लाख से ज्यादा का माल है. माताजी की उधारी भी चुका दी.’
‘अनुपम एक बात बताओ.’ मैं ने झिझकते हुए पूछा – ‘उस दिन फिर तुम्हारी बहन का एडमिशन हो गया था या कुछ परेशानी आई थी.’
‘हो गया था सर.’ उस का सिर झुक गया, ‘परेशानी तो आई ही थी. माताजी ने खुद ही अपना टाप्स निकाल कर दे दिया था. मैं ने उसे बेच ही दिया और दो हजार मिल गए. उसी से बहन का दाखिला हो पाया. बाद में तो ढ़ेरों रुपया मिल गया था. पर माताजी का नया व उस से भी अच्छा टाप्स मैं ने अपनी कमाई से बनवा कर दिया. बहन इस वर्ष बीए प्रथम वर्ष में आ गई है. इंटर में उस की प्रथम श्रेणी आई थी.’
‘तुम ने शादी की कि नहीं.’ मैं ने बोतल नीचे रख दी.
‘नहीं सर. पहले बहन पढ़ाई पूरी कर ले. फिर पहले उस की शादी करूंगा. उस के बाद ही अपनी शादी करूंगा. छोटी वाली तो अभी छोटी है.’
‘अब मैं चलूंगा अनुपम. देर हो गई है. घर में लोग परेशान हो रहे होंगे.’
‘अरे नहीं सर. आप को घर चलना पड़ेगा. नहीं तो माता जी सुनेंगी तो बेहद नाराज होंगी.’
‘मैं फिर आऊंगा अनुपम. वादा करता हूं. बल्कि वाइफ को भी ले कर आऊंगा.’
‘ज्यादा दूर नहीं है सर. पास ही है. दस मिनट लगेंगे बस. प्लीज सर.’
अनुपम का विनीत चेहरा देख कर मैं मना नहीं कर पाया.
अनुपम अपने स्कूटर से मुझे घर ले गया.
उस का घर किराए का पर ठीक था. उस की माताजी सुसंस्कृत महिला लगीं. बहनों ने मेरे पैर छुए. उन्होंने जबरदस्ती मुझे चाय पिलाई, मिठाई खिलाई.
‘अच्छा अनुपम अब मैं चलूंगा.’ अंतत: मैं उठ गया, ‘काफी देर हो गई है भाई.’
‘चलिए मैं आप को स्कूटर से छोड़ देता हूं.’
‘नहीं तुम दुकान जाओ. मैं रिक्शा कर लेता हूं.’
‘एक मिनट.’ अचानक माताजी ने कहा व अंदर चली गईं. जब वे वापस आईं तो उन के हाथ में एक पैकट था- ‘यह स्वीकार कीजिए हम सब की तरफ से.’
‘यह क्या है.’ माताजी ने पैकेट मेरे हाथ में दे दिया था. मैं ने पैकिट में झांक कर देखा. पैकिट में बढिय़ा सिल्क का बादामी कुर्ता व सफेद पाजामा था.
‘यह…यह…क्या है. किसलिए है.’ मैं हक्काबक्का रह गया.
‘यह मेरी माताजी की तरफ से आपको धन्यवाद स्वरूप एक छोटी सी भेंट है और आप के शिष्य यानी मेरी तरफ से प्रणाम है.’
‘पर…पर…अनुपम…मैं ने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया है.’ मैं अभी भी हलका रहा था.
‘आइये सर. बाहर चलते हैं.’ अनुपम की माताजी व दोनों बहनों ने मकान के दरवाजे से हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. थोड़ा आगे बढ़ते ही रिक्शा मिल गया. मैं रिक्शे में बैठ गया तो अनुपम ने फिर मेरे पैर छुए.
‘अनुपम एक बात बताऊं.’ मैं ने अनुपम के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखते हुए कहा – ‘उस दिन मेरे पास दो हजार रुपए थे पर मैं ने तुम्हें दिए नहीं थे.’
‘मुझे पता है सर.’ अनुपम के चेहरे पर विनोद भरी मुस्कराहट थी – ‘आपने विश्वास नहीं किया था. कोई भी नहीं करता. पर आप का आशीर्वाद तो मेरे साथ था ही ना. जाने के पहले एक बार फिर आइयेगा सर. मैडम को भी लाइयेगा सर. नमस्ते सर.’
रिक्शा आगे सडक़ पर बढ़ गया. पीछे अनुपम मुस्कराते हुए खड़ा हाथ हिलाता रहा.