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Top 15 Family Story : टॉप 15 फैमिली स्टोरी हिंदी में

Top 15 Family Story Of 2022: फैमिली हमारे लाइफ का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. जो आपका सपोर्ट सिस्टम भी है. फैमिली बिना स्वार्थ का आपके साथ खड़ी रहती है. इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आये हैं  सरिता की 15 Best Family Story in Hindi. रिश्तों से जुड़ी दिलचस्प कहानियां, जो आपके दिल को छू लेगी. इन Family Story से आपको  कई तरह की सीख मिलेगी. जो आपके रिश्ते को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौक तो पढ़िए सरिता की Top 15 Family Story.

1. तुम कैसी हो : आशा के पति को क्या उसकी चिंता थी?

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एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें.

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2. शिकायतनामा : कृष्णा क्यों करता था इतना अत्याचार ?

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देर शाम अनुष्का का फोन आया. कामधाम से खाली होती तो अपने पिता विश्वनाथ को फोन कर अपना दुखसुख अवश्य साझा करती. शादी के 3 साल हो गए, यह क्रम आज भी बना हुआ था. पिता को बेटियेां से ज्यादा लगाव होता है, जबकि मां को बेटों से. इस नाते अनुष्का निसंकोच अपनी बात कह कर जी हलका कर लेती.

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3. रिश्तों की कसौटी : क्या हुआ था सुरभी को ?

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‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा.

‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

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4. पति नहीं सिर्फ दोस्त : स्वाति का क्यों नहीं आया था फोन ?

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3 दिन हो गए स्वाति का फोन नहीं आया तो मैं घबरा उठी. मन आशंकाओं से घिरने लगा. वह प्रतिदिन तो नहीं मगर हर दूसरे दिन फोन जरूर करती थी. मैं उसे फोन नहीं करती थी यह सोच कर कि शायद वह बिजी हो. कोई जरूरत होती तो मैसेज कर देती थी. मगर आज मुझ से नहीं रहा गया और शाम होतेहोते मैं ने स्वाति का नंबर डायल कर दिया. उधर से एक पुरुष स्वर सुन कर मैं चौंक गई. हालांकि फोन तुरंत स्वाति ने ले लिया मगर मैं उस से सवाल किए बिना नहीं रह सकी.

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5. भाभी : गीता को क्यों याद आ रहे थे पुराने दिन ?

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अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई.

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6. कोरा कागज: आखिर कोरे कागज पर किस ने कब्जा किया

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1996, अब से 25 साल पहले. सुबह के 9 बजने को थे. नाश्ते की मेज पर नवीन और पूनम मौजूद थे. नवीन अखबार पढ़ रहे थे और पूनम चाय बना रही थी, तभी राजन वहां पहुंचा और तेजी से कुरसी खींच कर उस पर जम गया.

“गुड मौर्निंग मम्मीपापा,” राजन ने कहा. “गुड मौर्निंग बेटा,” पूनम ने मुसकरा कर जवाब दिया और उस के लिए ब्रैड पर जैम लगाने लगी.

“मम्मी, सामने वाली कोठी में लोग आ गए क्या…? अभी मैं ने देखा कि लौन में एक अंकल कुरसीपर बैठे हैं.”

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7. मीत मेरा मनमीत तुम्हारा: अंबुज का अपनी भाभी से क्यों था इतना लगाव

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‘‘प्रेरणा भाभी, कहां हो आप?’’ अंबुज ने अपना हैल्मेट एक ओर रख दिया और दूसरे हाथ का पैकेट डाइनिंगटेबल पर रख दिया. बारिश की बूंदों को शर्ट से हटाते हुए वह फिर बोला, ‘‘अब कुछ नहीं बनाना भाभी… अली की शौप खुली थी अभी… बिरयानी मिल गई,’’ और फिर किचन से प्लेटें लेने चला गया.

प्रेरणा रूम से बाहर आ गई. वह नौकरी के लिए इंटरव्यू दे कर कानपुर से अभीअभी लौटी थी. रात के 8 बज रहे थे. पति पंकज अपने काम के सिलसिले में 1 सप्ताह से बाहर था. इसीलिए वह अंबुज की मदद से आराम से इंटरव्यू दे कर लौट आई वरना पंकज उसे जाने ही नहीं देता. गुस्सा करता. अंबुज ने ही विज्ञापन देखा, फार्म भरवाया, टिकट कराया और ट्रेन में बैठा कर भी आया. सुबहशाम हाल भी पूछता रहा. तभी तो नौकरी पक्की हो गई तो उसे बता कर प्रेरणा को कितनी खुशी हुई थी. पंकज से तो शेयर भी नहीं कर सकती.

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8. गर्ल टौक: आंचल खुद रोहिणी की कैसे बन गई दोस्त

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एक दिन साहिल के सैलफोन की घंटी बजने पर जब आंचल ने उस के स्क्रीन पर रोहिणी का नाम देखा तो उस के माथे पर त्योरियां चढ़ गईं.

रोहिणी के महफिल में कदम रखते ही संगीसाथी जो अपने दोस्त साहिल की शादी में नाच रहे थे, के कदम वहीं के वहीं रुक गए. सभी रोहिणी के बदले रूप को देखने लगे.

‘‘रोहिणी… तू ही है न?’’ मोहन की आंखों के साथसाथ उस का मुंह भी खुला का खुला रह गया.

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9. एक साथी की तलाश: क्या श्यामला अपने पति मधुप के पास लौट पाई?

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शाम गहरा रही थी. सर्दी बढ़ रही थी. पर मधुप बाहर कुरसी पर बैठे शून्य में टकटकी लगाए न जाने क्या सोच रहे थे. सूरज डूबने को था. डूबते सूरज की रक्तिम रश्मियों की लालिमा में रंगे बादलों के छितरे हुए टुकड़े नीले आकाश में तैर रहे थे. उन की स्मृति में भी अच्छीबुरी यादों के टुकड़े कुछ इसी प्रकार तैर रहे थे.

2 दिन पहले ही वे रिटायर हुए थे. 35 सालों की आपाधापी व भागदौड़ के बाद का आराम या विराम… पता नहीं…

‘‘पर, अब… अब क्या…’’ विदाई समारोह के बाद घर आते हुए वे यही सोच रहे थे. जीवन की धारा अब रास्ता बदल कर जिस रास्ते पर बहने वाली थी, उस में वे अकेले कैसे तैरेंगे.

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10. अपनी खुशी के लिए: क्या जबरदस्ती की शादी से बच पाई नम्रता?

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‘‘नंदिनी अच्छा हुआ कि तुम आ गईं. तुम बिलकुल सही समय पर आई हो,’’ नंदिनी को देखते ही तरंग की बांछें खिल गईं.

‘‘हम तो हमेशा सही समय पर ही आते हैं जीजाजी. पर यह तो बताइए कि अचानक ऐसा क्या काम आन पड़ा?’’

‘‘कल खुशी के स्कूल में बच्चों के मातापिता को आमंत्रित किया गया है. मैं तो जा नहीं सकता. कल मुख्यालय से पूरी टीम आ रही है निरीक्षण करने. अपनी दीदी नम्रता को तो तुम जानती ही हो. 2-4 लोगों को देखते ही घिग्घी बंध जाती है. यदि कल तुम खुशी के स्कूल चली जाओ तो बड़ी कृपा होगी,’’ तरंग ने बड़े ही नाटकीय स्वर में कहा.

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11. अपना घर: क्या बेटी के ससुराल में माता-पिता का आना गलत है?

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डायबिटीज़ के मरीज अरुण की भूख जब बरदाश्त के बाहर होने लगी और वे आवाज दे कर बोलने ही जा रहे थे कि रेणु ने आंखें तरेरीं, “शर्म है कि नहीं कुछ आप को? बेटी के घर आए हो और भूखभूख कर रहे हो, जरा रुक नहीं सकते? यह आप का अपना घर नहीं है, बेटी की ससुराल आए हैं हम,  समझे?”

“अरे, तो क्या हो गया? क्या बेटी के घर में भूख नहीं लग सकती? भूख तो भूख है, कहीं भी लग सहती है,” अरुण ने ठहाका लगाया, “तुम भी न रेणु, कुछ भी सोचती हो. यह हमारी बेटी का घर है, किसी पराए का नहीं.”

यह सुन कर रेणु भुनभुनाते हुए कहने लगी कि इसलिए वह यहां आना नहीं चाहती है. मगर वाणी  है कि समझती ही नहीं. जाने क्या सोचते होंगे इस की ससुराल वाले?

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12. सच्चाई: आखिर क्यों मां नहीं बनना चाहती थी सिमरन?

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पड़ोस में आते ही अशोक दंपती ने 9 वर्षीय सपना को अपने 5 वर्षीय बेटे सचिन की दीदी बना दिया था. ‘‘तुम सचिन की बड़ी दीदी हो. इसलिए तुम्हीं इस की आसपास के बच्चों से दोस्ती कराना और स्कूल में भी इस का ध्यान रखा करना.’’ सपना को भी गोलमटोल सचिन अच्छा लगा था. उस की मम्मी तो यह कह कर कि गिरा देगी, छोटे भाई को गोद में भी नहीं उठाने देती थीं. समय बीतता रहा. दोनों परिवारों में और बच्चे भी आ गए. मगर सपना और सचिन का स्नेह एकदूसरे के प्रति वैसा ही रहा. सचिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मणिपाल चला गया.

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13. मुक्तिद्वार: क्या थी कुमुद की कहानी

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माधुरी और उस के पूरे ग्रुप का आज धनोल्टी घूमने का प्रोग्राम था. माधुरी ने सारी तैयारी कर ली थी. एक छोटी सी मैडिसिन किट भी बना ली थी. तभी कुमुद चुटकी काटते हुए बोली, “मधु, 2 ही दिनों के लिए जा रहे हैं.” और विनोद हंसते हुए बोला, “भई, माधुरी को मत रोको कोई, पूरे 10 वर्षों बाद कहीं जा रही हैं. कर लेने दो उसे अपने मन की.” तभी जयति और इंद्रवेश अंदर आए, दोनों गुस्से से लाल पीले हो रहे थे.

विनोद बोले, “क्या फिर से प्रिंसिपल से लड़ कर आ रहे हो?” जयति गुस्से में बोली, “वो क्या हमें अपना गुलाम समझते हैं, क्या छुट्टियों पर भी हमारा हक नही हैं?” कुमुद तभी दोनों को चाय के कप पकड़ाते हुए बोली, “अरे, विजय समझा देगा. अभी वह टैक्सी की बात करने गया है.”

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14. चरित्रहीन कौन: कामवाली के साथ क्या कर रहा था उमेश

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पति उमेश की गंदी हरकतों से आयुषी तंग आ चुकी थी. आखिर कितनी मेड बदलेगी वह. उमेश की गंदी हरकतों से परेशान हो कर कितनी मेड काम छोड़ गईं तो कितनी को आयुषी ने खुद निकाल दिया.

आयुषी बैंक में नौकरी करती है और उमेश एलआईसी कार्यालय में है. उमेश तो घर से 10-11 बजे निकलता है, पर आयुषी को घर से जल्दी निकलना पड़ता है. उन के 2 बच्चे हैं- बेटी पावनी 11 साल की और बेटा सनी 7 साल का.

आयुषी दोनों बच्चों को स्कूल भेज उमेश का लंच पैक कर बाकी का काम बाई पर छोड़ तैयार हो कर बैंक निकल जाती. उसे हमेशा यही डर सताता है कि पता नहीं उस के पीछे उमेश और बाई कहीं कुछ…

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15. शरणागत: डा. अमन की जिंदगी क्यों तबाह हो गई?

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आईसीयू में लेटे अमन को जब होश आया तो उसे तेज दर्द का एहसास हुआ. कमजोरी की वजह से कांपती आवाज में बोला, ‘‘मैं कहां हूं?’’

पास खड़ी नर्स ने कहा, ‘‘डा. अमन, आप अस्पताल में हैं. अब आप ठीक हैं. आप का ऐक्सिडैंट हो गया था,’’ कह कर नर्स तुरंत सीनियर डाक्टर को बुलाने चली गई.

खबर पाते ही सीनियर डाक्टर आए और डा. अमन की जांच करने लगे. जांच के बाद बोले, ‘‘डा. अमन गनीमत है जो इतने बड़े ऐक्सिडैंट के बाद भी ठीक हैं. हां, एक टांग में फ्रैक्चर हो गया है. कुछ जख्म हैं. आप जल्दी ठीक हो जाएंगे. घबराने की कोई बात नहीं.’’

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Arvind Kumar : ‘लापतागंज’ के ‘चौरसिया जी’ थे परेशान, हार्ट अटैक से हुई मौत

Arvind Kumar : छोटे पर्दे के शो ‘लापतागंज’ को दर्शकों का खूब प्यार मिला है. इसका हर एक किरदार लोगों को खूब पसंद आता है. शो में चौरसिया जी की भूमिका निभाने वाले अरविंद कुमार को भी इसी सीरियल से एक नई पहचान मिली थी. उनकी एक्टिंग के लोग दीवाने थे, लेकिन अब फिर कभी वो किसी शो में नजर नहीं आएंगे.

दरअसल ‘लापतागंज’ में चौरसिया जी की भूमिका निभाने वाले एक्टर अरविंद कुमार (Arvind Kumar) की मौत हो गई है. वैसे तो उनकी मौत के लिए हार्ट अटैक को जिम्मेदार माना जा रहा है, लेकिन असल में वो बहुत परेशान थे.

रोहिताश गौर ने किया कंफर्म

‘लापतागंज’ के लीड एक्टर रोहिताश गौर ने खुद इस बात की पुष्टी की है. उन्होंने बताया कि 12 जुलाई को अरविंद कुमार की हार्ट अटैक से मौत हुई है. साथ ही उन्होंने ये भी बताया कि, अरविंद (Arvind Kumar) काम न होने और आर्थिक तंगी की वजह से स्ट्रेस में थे.

रोहिताश गौर ने बताया कि, ”अक्सर हम फोन पर बात किया करते थे, लेकिन कभी मेरी अरविंद के परिवार से कोई बात नहीं हुई और न ही हम कभी मिले थे. वह गांव में रह रहे थे. वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के बाद से कई एक्टर्स परेशान थे, क्योंकि कोई भी इस मुश्किल घड़ी में कलाकारों के सपोर्ट में सामने नहीं आया. मैं लकी हूं कि मेरे पास काम है.”

कई शो में काम किया था अरविंद ने

आपको बता दें कि, साल 2004 में अरविंद कुमार (Arvind Kumar) ने टीवी इंडस्ट्री में कदम रखा था. उन्होंने 5 साल तक लापतागंज शो में चौरसिया जी की भूमिका निभाई थी. इसके अलावा वह ‘सावधान इंडिया’ और ‘क्राइम पेट्रोल’ जैसे शो में भी काम कर चुके थे. वहीं उन्हें फिल्मों में भी काम करने का मौका मिला था. उन्होंने ‘चीनी कम’, ‘रामा राम क्या है ड्रामा’  और ‘मैडम चीफ मीनिस्टर’ जैसी कई बड़ी फिल्मों में काम किया था.

राहुल रॉय के लिए मसीहा बने Salman Khan, चुकाया हॉस्पिटल का बिल

Salman Khan helps Rahul Roy : बॉलीवुड एक्टर सलमान खान जितनी अपनी फिल्मों के लिए चर्चा में रहते हैं. उतने ही अभिनेता अपनी दरियादिली से भी लाइफलाइट बटोरते हैं. भाईजान कभी भी किसी की भी मदद करने से इंकार नहीं करते है. इसके अलावा कई बार तो वो मुसीबत में फंसे बॉलीवुड सितारों के लिए भी मसीहा साबित हुए हैं.

हालांकि अब एक बार फिर सलमान खान ने अपनी दरियादिली का सबूत दिया है. दरअसल इस बार उन्होंने ‘आशिकी’ फेम एक्टर राहुल रॉय (Rahul Roy) की मदद की है, जिस बात का खुलासा खुद राहुल रॉय और उनकी बहनन प्रियंका ने किया है.

ब्रेन स्ट्रॉक के कारण अस्पताल में भर्ती थे एक्टर

मीडिया से बात करते हुए राहुल रॉय (Rahul Roy) की बहन ने बताया कि जब राहुल LAC की शूटिंग कर रहे थे तो तब उनको ब्रेन स्ट्रॉक हुआ था. इसके बाद उन्हें मुंबई के नानावटी अस्पताल में भर्ती कराया गया. जहां उनके हार्ट और दिमाग की एंजियोग्राफी हुई और करीब 1.5 महीने तक उनका इलाज चला. इसके अलावा प्रियंका ने ये भी बताया कि, राहुल के अस्पताल का बिल सलमान खान (Salman Khan) ने चुकाया हैं.

प्रियंका ने सलमान को दिया ‘नगीने’ का टैग

प्रियंका के मुताबिक, एक्टर सलमान खान (Salman Khan) ने खुद राहुल को फोन करके पूछा था कि क्या उन्हें किसी भी तरह की मदद की जरूरत तो नहीं है. इसके अलावा राहुल की बहन ने सलमान खान को ‘नगीने’ का भी टैग दे दिया. उन्होंने सलमान की तारीफ करते हुए कहा, ” इस बारे में कभी भी सलमान ने मीडिया के सामने जिक्र नहीं किया. भले ही हमने उनसे मदद नहीं मांगी थी, लेकिन फिर भी परेशानी के समय वह हमारे साथ खड़े रहे और ये ही चीज उन्हें असल मायने में स्टार बनाती है. न कि केवल कैमरे के सामने खड़े होने से व्यक्ति स्टार बन जाता हैं,”

राहुल ने की भाईजान की तारीफ

आपको बता दें कि, प्रियंका रॉय के साथ-साथ राहुल ने भी सलमान खान (Salman Khan) की तारीफ की है. राहुल ने कहा, “सलमान खान के लिए हर कोई बोलता है कि वो ऐसा है, वो वैसा है. लेकिन मेरे लिए वो एक बहुत अच्छे इंसान हैं.” बहरहाल राहुल रॉय की तबीयत अब पहले से बेहतर है और अब वो जल्द ही किसी नए प्रोटेक्ट पर काम करना चाहते हैं.

तलाश : भाग 1, क्या मम्मीपापा के पसंद किए लड़के से शादी करेगी कविता?

‘‘अपने मम्मीपापा की बात मान लो, कविता. वे जहां चाह रहे हैं वहीं शादी कर लो.’’

‘‘रवि, क्या तुम मेरे बिना अकेले जी सकोगे?’’

‘‘नहीं, कविता, वह जिंदगी तो मौत से भी बदतर होगी.’’

‘‘और मैं भी तुम्हारे सिवा किसी और की नहीं होना चाहती. पापा अपने मानसम्मान के लिए अगर मेरे प्यार का गला घोंटने की कोशिश जारी रखेंगे तो उन्हें कल सुबह अपनी मरी बेटी का मुंह देखने को मिलेगा.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो, कविता। हमें साथसाथ मरने से तो कोई नहीं रोक सकता न.’’

‘‘रवि, पापा ने अगर कल उन लङके वालों को रोकने की रस्म अदा करने आने से नहीं रोका तो रात ठीक 10 बजे मैं नींद की सारी गोलियां खा लूंगी.’’

‘‘10 बजे तक तुम ने यदि मेरे पास फोन नहीं किया तो मैं भी अपना जीवन तुम्हारे साथसाथ समाप्त कर लूंगा, कविता.’’

सार्वजनिक पार्क की एक बैंच पर बैठा एक 16 वर्षीय विशाल ने जब यह बातचीत साफसाफ सुनी तो कुछ ही सैकंड बाद उस ने देखा कि रवि और कविता पार्क के गेट की तरफ निकल गए हैं.

विशाल को यह समझते देर न लगी कि ये दोनों एकदूसरे से बेहद प्यार करते हैं और शादी न हो सकने के कारण साथसाथ आत्महत्या करने का फैसला कर चुके हैं. अब वह खुद को एकाएक बेहद परेशान व उत्तेजित सा महसूस कर रहा था, लेकिन वह क्या करे उसे कुछ समझ नहीं आया.

रवि और कविता उस के लिए बिलकुल अनजान थे. यही वजह थी कि वह उन के पास जा कर उन्हें आत्महत्या न करने के लिए समझाने की हिम्मत न कर पाया. लेकिन उसे कुछ करना जरूर चाहिए, यह भाव लगातार उस के मन में आ रहा था.

आखिरकार वह यही निर्णय कर पाया कि वह उन के घर देखने के लिए उन दोनों का पीछा करे. लगभग भागता हुआ वह जब पार्क के गेट से बाहर निकला तो रवि व कविता एक रिकशा में बैठ कर आगे निकल चुके थे.

विशाल ने चाहा कि वह चिल्ला कर उन से कुछ बोले, लेकिन उस के कंठ से आवाज नहीं निकली. देखते ही देखते वह रिकशा उस की आंखों से ओझल हो गया और आंखों में आंसू लिए विशाल अपने घर की तरफ दौङने लगा.

जब उस ने अपने घर में प्रवेश किया तब दीवार पर लगी घड़ी शाम के 5 बजे का समय दर्शा रही थी.

कविता को अपने घर में घुसते ही मातापिता का सामना करना पड़ा. वे दोनों उस से बहुत खफा नजर आ रहे थे,”तू रवि से मिल कर आ रही है न?’’ उस के पिता नरेश चंद्र ने कङकती आवाज में कहा. मगर सदा की तरह अपने पिता के गुस्से के सामने कविता की जबान को लकवा सा मार गया. वह सिर्फ गरदन हिला कर ‘हां’ कर दी.

“क्यों तू मेरी इज्जत का जनाजा निकालने पर तुली हुई है, बेशर्म, कल लङके वाले आ रहे हैं और तुझे अब भी आवारागर्दी करने से फुरसत नहींं है,’’ पिता की आंखों में समाए नफरत के भाव कविता के दिल को कंपा गए.

कविता आगे बढ़ कर अपनी मां अनुपमा के कलेजे से लग गई और रोआंसी हो कर बोली, ‘‘मां, मेरी जबरदस्ती कहीं और शादी मत करो. रवि से दूर हो कर मैं कभी सुखी नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘हम तेरा बुरा नहीं चाहते हैं बेटी,’’ मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फिराया, ‘‘वह लङका अच्छा है. उस का घरपरिवार अच्छा है. रवि का घरबार मामूली है. दवाइयां बेचने का मामूली सा धंधा करता है. रवि के मुकाबले जहां हम ने रिश्ता तय किया है वहां तू हजारगुना ज्यादा सुखी रहेगी.’’

‘‘मां, तुम गलत कह रही हो. मैं रवि को अपनी जान से ज्यादा चाहती हूं. उस की आमदनी जरूर कम है पर उस का प्यार मेरी खुशियों की गांरटी है मां.’’

‘‘ज्यादा बकबक कर के हमारा दिमाग खराब मत कर कविता,’’ नरेश दहाड़ उठे, ‘‘जिंदगी की परेशानियां प्यार का भूत बहुत ही जल्दी सिर से उतार देती हैं. कल को तू ही हमें धन्यवाद देगी कि तेरी जिद को नजरअंदाज कर के हम ने सचमुच तेरा भला किया था.’’

‘‘पापा, प्लीज,’’ कविता की आंखों से आंसू बह निकले.

‘‘जाओ, जा कर अपने कमरे में आराम करो और मुझ से पूछे बिना अब तुम्हें घर से बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं है,’’ पिता ने कठोर लहजे में अपना अंतिम निर्णय सुना दिया.

कविता को मां की आंखों में भी दया या सहानुभूति के भाव नजर नहींं आए. एकाएक उस की जोर से रुलाई फूट पड़ी और वह ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चली गई. विशाल की घबराहट और चिंता देख कर उस के पिता आदित्य और मां नीरजा ने उस की बात बड़े ध्यान से सुनी.

‘‘पापा, कविता और रवि की आवाज से उन की निराशा, दुख और तनाव साफ जाहिर हो रहा था,’’ विशाल ने उत्तेजित लहजे में पूरी बात सुना कर कहा, ‘‘मेरा दिल कह रहा है कि अगर कविता के मम्मीपापा ने उस की शादी कहीं और कहने का अपना इरादा नहीं बदला तो वे दोनों आज रात जरूर आत्महत्या कर लेंगे.’’

‘‘तू इतना टैंशन मत ले, इस बात के लिए विशाल. जान देना इतना आसान भी नहीं होता है,’’ आदित्य ने अपने बेटे को चिंतित लहजे में समझाया.

‘‘पापा, बिलकुल इस तरह कविता के मातापिता भी सोचते होंगे, लेकिन मैं पूछता हूं कि अगर रवि और कविता दोनों ने सचमुच आत्महत्या कर ली, तब क्या वे दोनों खुद को जीवनभर अपराधी महसूस नहीं करेंगे?’’

‘‘करेंगे, कौन मातापिता कभी यह चाहेंगे कि उन की औलाद अपने हाथों अपनी जान ले ले,’’ नीरजा ने अपना मत व्यक्त किया.

‘‘हमें उन दोनों की जान बचाने को कुछ करना होगा, पापा. कविता के मातापिता तक यह खबर पहुंचानी ही होगी वरना कल हमें उन दोनों की मौत का समाचार पढ़नेसुनने को मिला तो कितने अफसोस की बात होगी यह. खुद को तब कैसे माफ कर पाएंगे हम तीनों. विशाल बहुत भावुक हो उठा.

‘‘क्या मुसीबत खड़ी कर रहा है यह तुम्हारा बेटा. इस बात को इतनी गंभीरता से क्यों ले रहा है यह. कहां ढूंढ़ेंगे हम रवि, कविता या उन के मातापिता को. इस ने तो उन दोनों की शक्ल तक नहीं देखी है,’’ विशाल के पापा बुरी तरह चिढ़ उठे.

विवाह का सुख तभी जब पतिपत्नी स्वतंत्र हों

रिद्धिमा अकसर बीमार रहने लगी है. मनोज के साथ उसकी शादी को अभी सिर्फ 5 साल ही हुए हैंमगर ससुराल में शुरू के एक साल ठीकठाक रहने के बाद वह मुरझाने सी लगी. शादी से पहले रिद्धिमा एक सुंदर,खुशमिजाज और स्वस्थ लड़की थी. अनेक गुणों और कलाओं से भरी हुई लड़की. लेकिन शादी करके जब वह मनोज के परिवार में आई तो कुछ ही दिनों में उसको वहां गुलामी का एहसास होने लगा.

दरअसल, उसकी सास बड़ी तुनकमिजाज और ग़ुस्सेवाली है. वह उसके हर काम में नुक्स निकालती है. बातबात पर उसको टोकती है. घर के सारे काम उससे करवाती है और हर काम में तमाम तानेउलाहने देती है. तेरी मां ने तुझे यह नहीं सिखाया, तेरी मां ने तुझे वह नहीं सिखाया, तेरे घर में ऐसा होता होगा हमारे यहां ऐसा नहीं चलेगा, जैसे कटु वचनों से उसका दिल छलनी करती रहती है.

रिद्धिमा बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती है मगर उसकी सास और ननद को उसके हाथ का खाना कभी अच्छा नहीं लगा.वे उसमें कोई न कोई कमी ही निकालती रहती हैं. कभी नमक ज्यादा तो कभी मिर्च ज्यादा का राग अलापती हैं. शुरू में ससुर ने बहू के कामों की दबे सुरों में तारीफ की मगर पत्नी की चढ़ी हुई भृकुटि ने उनको चुप करा दिया. बाद में तो वे भी रिद्धिमा के कामों में मीनमेख निकालने लगे.

रिद्धिमा का पति मनोज सब देखता है कि उसकी पत्नी पर अत्याचार हो रहा है मगर मां, बाप और बहन के आगे उसकी जबान नहीं खुलती. मनोज के घर में रिद्धिमा खुद को एक नौकरानी से ज्यादा नहीं समझती है, वह भी बिना तनख्वाह की. इस घर में वह अपनी मरजी से कुछ नहीं कर सकती. यहां तक कि अपने कमरे को भी यदि वह अपनी सुरुचि के अनुसार सजाना चाहे तो उस पर भी उसकी सास नाराज हो जाती है, कहती है,‘इस घर को मैंने अपने खूनपसीने से बनाया है, इसलिए इसमें परिवर्तन की कोशिश भूल कर भी मत करना. जो चीज मैंने जहां सजाई है, वह वहीं रहेगी.’

रिद्धिमा की सास ने अपनी हरकतों और अपनी कड़वी बातों से यह जता दिया है कि घर उसका है और उसके मुताबिक चलेगा.यहां रिद्धिमा या मनोज की पसंद कोई मतलब नहीं रखती.5 साल लगातार गुस्सा, तनाव और अवसाद में ग्रस्त रिद्धिमा आखिरकार ब्लडप्रैशर की मरीज हो चुकी है. इस शहर में न तो उसका मायका है और न दोस्तों की टोली, जिनसे मिल कर वह अपने तनाव से थोड़ा मुक्त हो जाए.

उसकी तकलीफ दिनबदिन बढ़ रही है. सिर के बाल झड़ने लगे हैं. चेहरे पर झाइयां आ गई हैं. सजनेसंवरने का शौक तो पहले ही खत्म हो गया था. अब तो कईकई दिन वह कपड़े भी नहीं बदलती है. सच पूछो तो वह सचमुच नौकरानी सी दिखने लगी है. काम और तनाव के कारण 3 बार मिसकैरिज हो चुका है. बच्चा न होने के ताने सास से अलग सुनने पड़ते हैं. अब तो मनोज की भी उस में दिलचस्पी कम हो गई है. उसकी मां जब घर में टैंशन पैदा करती है तो उसकी खीझ वह रिद्धिमा पर निकालता है.

वहीं, रिद्धिमा की बड़ी बहन कामिनी, जो शादी के बाद से ही अपने सास, ससुर, देवर और ननद से दूर दूसरे शहर में अपने पति के साथ अपने घर में रहती है, बहुत सुखी, संपन्न और खुश है. चेहरे से नूर टपकता है. छोटीछोटी खुशियां एंजौय करती है. बातबात पर दिल खोल कर खिलखिला कर हंसती है.

कामिनी जिंदगी का भरपूर आनंद उठा रही है. अपने घर की और अपनी मरजी की मालकिन है. कोई उसके काम में हस्तक्षेप करने वाला नहीं है. अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार अपना घर सजाती है. घर को डैकोरेट करने के लिए अपनी पसंद की चीजें बाजार से लाती है. पति भी उसकी सुरुचि और कलात्मकता पर मुग्ध रहता है. बच्चों को वह अपने अनुसार बड़ा कर रही है. इस आजादी का ही परिणाम है कि कामिनी उम्र में बड़ी होते हुए भी रिद्धिमा से छोटी और ऊर्जावान दिखती है.

दरअसल, महिलाओं के स्वास्थ्य, सुंदरता, गुण और कला के विकास के लिए शादी के बाद पति के साथ अलग घर में रहना ही ठीक है. सास, ससुर, देवर, जेठ, ननदों से भरे परिवार में उनकी स्वतंत्रता छिन जाती है. हर वक्त एक अदृश्य डंडा सिर पर रहता है. उन पर घर के काम का भारी बोझ होता है. काम के बोझ के अलावा उनके ऊपर हर वक्त पहरा सा लगा रहता है. सासससुर की नजरें हर वक्त यही देखती रहती हैं कि बहू क्या कर रही है. घर में अगर ननद भी हो तो सास शेरनी बन कर बहू को फाड़ खाने के लिए तैयार रहती है. बेटी की तारीफ और बहू की बुराइयां करते उसकी जबान नहीं थकती.

ये हरकतें बहू को अवसादग्रस्त कर देती हैं. जबकि पति के साथ अलग रहने पर औरत का स्वतंत्र व्यक्तित्व उभर कर आता है. वे अपने निर्णय स्वयं लेती हैं. अपनी रुचि से अपना घर सजाती हैं. अपने अनुसार अपने बच्चे पालती हैं और पति के साथ भी उनका रिश्ता अलग ही रंग लेकर आता है. पतिपत्नी अलग घर में रहें तो वहां काम का दबाव बहुत कम होता है. काम भी अपनी सुविधानुसार और पसंद के अनुरूप होता है. इसलिए कोई मानसिक तनाव और थकान नहीं होती.

बच्चों पर बुरा असर

घर में ढेर सारे सदस्य हों तो बढ़ते बच्चों पर ज्यादा टोकाटाकी की जाती है. उन्हें प्रत्येक व्यक्ति अपने तरीके से सहीगलत की राय देता है, जिससे वे कन्फ्यूज होकर रह जाते हैं. वे अपनी सोच के अनुसार सहीगलत का निर्णय नहीं ले पाते. एकल परिवार में सिर्फ मातापिता होते हैं जो बच्चे से प्यार भी करते हैं और उसको समझते भी हैं, तो बच्चा अपने फैसले लेने में कंफ्यूज नहीं होता और सहीगलत का निर्णय कर पाता है. लेकिन ससुराल में जहां सासबहू की आपस में नहीं बनती है तो वे बच्चों को एकदूसरे के खिलाफ भड़काती रहती हैं.

वे अपनी लड़ाई में बच्चों को हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं. इससे बच्चों के कोमल मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. उनका विकास प्रभावित होता है. देखा गया है कि ऐसे घरों के बच्चे बहुत उग्र स्वभाव के, चिड़चिड़े, आक्रामक और ज़िद्दी हो जाते हैं. उनके अंदर अच्छे मानवीय गुणों जैसे मेलमिलाप, भाईचारा, प्रेम और सौहार्द की कमी होती है. वे अपने सहपाठियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते.

अपना घर तो खर्चा कम

पतिपत्नी स्वतंत्र रूप से अपने घर में रहें तो खर्च कम होने से परिवार आर्थिक रूप से मजबूत होता है. मनोज का ही उदाहरण लें तो यदि किसी दिन उसको मिठाई खाने का मन होता है तो सिर्फ अपने और पत्नी के लिए नहीं बल्कि उसको पूरे परिवार के लिए मिठाई खरीदनी पड़ती है. पत्नी के लिए साड़ी लाए तो उससे पहले मां और बहन के लिए भी खरीदनी पड़ती है. पतिपत्नी कभी अकेले होटल में खाना खाने या थियेटर में फिल्म देखने नहीं जातेक्योंकि पूरे परिवार को ले कर जाना पड़ेगा.

जबकि कामिनी अपने पति और दोनों बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाती है. वे रैस्तरां में मनचाहा खाना खाते हैं, फिल्म देखते हैं, शौपिंग करते हैं. उन्हें किसी बात के लिए सोचना नहीं पड़ता. ऐसे अनेक घर हैं जहां2 या 3 भाइयों की फैमिली एक ही छत के नीचे रहती है. वहां आएदिन झगड़े और मनमुटाव होते हैं. घर में कोई खाने की चीज आ रही है तो सिर्फ अपने बच्चों के लिए नहीं, बल्कि भाइयों के बच्चों के लिए भी लानी पड़ती है. सभी के हिसाब से खर्च करना पड़ता है. यदि परिवार में कोई कमजोर है तो दूसरा ज्यादा खर्च नहीं करता, ताकि उसे बुरा महसूस न हो.

मनोरंजन का अभाव

ससुराल में आमतौर पर बहुओं के मनोरंजन का कोई साधन नहीं होता है. उन को किचेन और बैडरूम तक सीमित कर दिया जाता है. घर का टीवी अगर ड्राइंगरूम में रखा है तो उस जगह सासससुर और बच्चों का कब्ज़ा रहता है. बहू अगर अपनी पसंद का कोई कार्यक्रम देखना चाहे तो नहीं देख सकती. पतिपत्नी कभी अकेले कहीं जाना चाहें तो सबकी निगाहों में सवाल होते हैं, कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? कब तक आओगे?

इससे बाहर जाने का उत्साह ही ठंडा हो जाता है. ससुराल में बहुएं अपनी सहेलियों को घर नहीं बुलातीं, उनके साथ पार्टी नहीं करतीं, जबकि पतिपत्नी अलग घर में रहें तो दोनों ही अपने फ्रैंड्स को घर में इन्वाइट करते हैं, पार्टियां देते हैं और खुल कर एंजौय करते हैं.

जगह की कमी

एकल परिवारों में जगह की कमी नहीं रहती. वन बैडरूम फ्लैट में भी पर्याप्त जगह मिलती है. कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं होता है. बहू खाली वक्त में ड्राइंगरूम में बैठे या बालकनी में, सब जगह उसकी होती है, जबकि सासससुर की उपस्थिति में बहू अपने ही दायरे में सिमट जाती है. बच्चे भी दादादादी के कारण फंसाफंसा अनुभव करते हैं. खेलें या शोरगुल मचाएं तो डांट पड़ती है उन्हें.

स्वतंत्रता खुशी देती है

पतिपत्नी स्वतंत्र रूप से अलग घर ले कर रहें तो वहां हर चीज, हर काम की पूरी आजादी रहती है. किसी की कोई रोकटोक नहीं होती. जहां चाहा, वहां घूम आए. जो मन किया, वह बनाया और खाया. पकाने का मन नहीं है तो बाजार से और्डर कर दिया. जैसे चाहे वैसे कपड़े पहने. सासससुर के साथ रहने पर नौकरीपेशा महिलाएं उनकी इज्जत का खयाल रखते हुए साड़ी या चुन्नी वाला सूट ही पहनती हैं, जबकि स्वतंत्र रूप से अलग रहने वाली औरतें सुविधा और फैशन के अनुसार जींस-टौप, स्कर्ट, मिडी सब पहन सकती हैं. घर में पति के साथ अकेली हैं, तो वे नाइट सूट या सैक्सी नाइटी में रह सकती हैं.

रोमांस और सैक्स की छूट

पति के साथ अकेले हों तो रोमांस और सैक्स का आनंद कभी भी, और घर के किसी भी कोने में उठा सकते हैं. जबकि अन्य परिजनों के बीच रहते हुए ऐसा संभव ही नहीं है. वहां तो छुट्टी के दिन पतिपत्नी अगर दिन में कमरा बंद कर लें तो खुसुरफुसुर होने लगती है और सारा ठीकरा अकेले बहू के सिर पर फूटता है. सास के ताने, ननद के उलाहने और देवर का मजाक हद पार कर जाता है. एकल परिवार में जब पतिपत्नी हर वक्त एकदूसरे के करीब रहते हैं तो उनके बीच आपसी समझ बढ़ती है और बौन्डिंग मजबूत होती है. वे एकदूसरे की जरूरतों को इशारे में समझ जाते हैं.

फैसला लेने की स्वतंत्रता

पतिपत्नी स्वतंत्र घर में रहें तो अपने फैसले दोनों मिलजुल कर लेते हैं जबकि परिजनों के साथ रहने पर हर बात में उनसे राय लेना एक मजबूरी हो जाती है. देखा जाता है कि पतिपत्नी के नितांत निजी फैसलों में भी सास की घुसपैठ बनी रहती है.

अलग घर ले कर रहने पर आप अपने बच्चों को कहीं भी पढ़ा सकते हैं. स्कूल सस्ता हो या मंहगा, हिंदी मीडियम हो या इंग्लिश मीडियम, यह आपका डिसीजन होता है पर पूरे परिवार के साथ रहने पर आपको अपने बच्चे को भी वहीं पढ़ाना पड़ता है जहां बड़े भाई के बच्चे पढ़ रहे हैंभले आपकी आमदनी इतनी है कि आप अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में भेज सकते हैं, उसका अच्छा भविष्य बना सकते हैं.

हमें एक ही जीवन मिला है. उसका 25 फीसदी मातापिता के घर में उनकी सलाह और आज्ञा मानते हुए बीत जाता है. अगर शादी के बाद भी अपनी जिंदगी अपने तरीके और अपनी पसंद से न जी पाएं तो बुढ़ापे में सिवा अफसोस के और कुछ नहीं रहेगा. बहू के लिए ससुराल में सबके साथ तालमेल बैठाना किसी भी हालत में संभव नहीं है. बड़ों के आदर और छोटों से स्नेह के नाम पर वहां हिप्पोक्रेसी ही ज्यादा है. परिवार के सभी सदस्यों के बीच काम का बंटवारा भी ठीक तरीके से नहीं होता है.

आमतौर पर घर की बहू पर सारे काम लाद दिए जाते हैं.वह गधे की तरह दिनभर काम का बोझ ढोती है और लातें भी खाती है. आज लाखों पतिपत्नी ऐसे हैं जो परिजनों के साथ रहते हुए तनावग्रस्त हैं. तनाव के कारण अनेक गंभीर बीमारियों का शिकार भी हैं. कितनी महिलाएं इस तनाव के कारण आत्महत्या कर रही हैं. कितने ही पुरुष इस तनाव के कारण हृदय रोगों का शिकार बन गए हैं. इस तनाव से मुक्त होना जरूरी है और उसके लिए परंपरागत बेड़ियों को काटना आवश्यक है.

अलग घर ले कर रहना कोई जुर्म नहीं है. अगर आपके मातापिता का 4 बैडरूम वाला बड़ा घर है तो आप एक बैडरूम वाला घर लेकर रहें, जहां आप पूरी तरह स्वतंत्र और अपनी मरजी के मालिक हों. जहां सारे फैसले आपके अपने हों. इससे खुशी भी मिलेगी और आप में मैच्योरिटी भी आएगी. जरूरत पड़ने पर, किसी फंक्शन पर, तीजत्योहार में आप मिठाई का डब्बा ले कर मातापिता से मिलने भी जाएं, इससे उनका मानसम्मान भी बना रहेगा और आपकी कद्र भी रहेगी.

लेटरल के नाम पर कुलीनों की डायरैक्ट एंट्री

सुजीत कुमार वाजपेयी, राजीव सक्सेना, सुमन प्रसाद सिंह, अंबर दुबे ये कुछ नाम उन भाग्यशाली लोगों के हैं जिनकी योग्यताएं और अनुभव एक दफा शक के दायरे में खड़े किएजा सकते हैं लेकिन उनके जन्मना श्रेष्ठ यानी ऊंची जाति के होने पर कोई शक नहीं किया जा सकता. इन और इन जैसे कई अधेड़ों को सरकार पिछले 5वर्षों से सीधे आईएएस अधिकारी बना रही है. अंदाजा है कि अब तक कोई डेढ़ सौ के लगभग आईएएस एक नई स्कीम ‘लेटरल एंट्री’ के तहत बनाए जा चुके हैं और 2023 की भरती प्रक्रिया अभी चल रही है.

देश को आईएएस देने वाली संस्था यूपीएससी यानी संघ लोक सेवा आयोग ने एक बार फिर रिक्तियां (विज्ञापन क्रमांक 52/2023) निकालकर प्रतिभाशाली उम्रदराज लोगों से आवेदन मांगे थे जिसकी आखिरी तारीख 19 जून, 2023 थी. ये पद बड़े, मलाईदार और अहम थे, मसलन विभिन्न मंत्रालयों में जौइंट सैक्रेटरी, डिप्टी सैक्रेटरी और डायरैक्टर, जो पद से ज्यादा सरकारी ताकतों के नाम होते हैं.इन पदों के लिए अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता अपने विषय में स्नातक मांगी गई थी और 15 साल का अनुभव अपने क्षेत्र का चाहा गया था. उम्र 40से लेकर 55 सालतक रखी गई थी.वेतन विभिन्न भत्तों सहित लगभग 2 लाख 18 हजार रुपए एक बड़ा आकर्षण साफसाफ दिख रहा था. यह नियुक्ति 3 साल के लिए होती है जिसे 2 साल और बढ़ाया जा सकता है.

इस इश्तिहार के मसौदे में इकलौती अच्छी बात जातपांत यानी जातिगत आरक्षण का झंझट या जिक्र न होना थी कि इतनी पोस्ट एससी, एसटी, ईडब्लूएस के लिए और इतनी ओबीसी के लिए आरक्षित हैं. लेटरल एंट्री का यह 6ठा साल है, इसलिए समझने वाले समझ गए कि हमारे उच्च कुल में जन्म लेने के पुण्य अब फलीभूत हो रहे हैं और बहती गंगा में हाथ धो लिए जाएं.पिछले 3बैचों में जिन भाग्यशाली अधेड़ों को आईएएस अफसर बनाया गया है, उम्मीद और मंशा के मुताबिक उन में से 95 फीसदी सवर्ण थे. भूषण कुमार जैसे 5 फीसदी पिछड़े वर्ग से थे.

क्या है यह लेटरल एंट्री और इसके पीछे छिपी मंशा, इसे समझने से पहले एक नजर 2021 के चयनित 31 उम्मीदवारों, जो आईएएस बने, की लिस्ट पर डालें तो 29 उच्च कुलीन सरनेम थे. एकएक नाम मुसलिम और इसाई समुदाय का था. मुमकिन है एकाध कोई पिछड़े वर्ग का हो हालांकि इस इम्तिहान (प्रतियोगिता परीक्षा कहने की तो कोई वजह ही नहीं) में कास्ट कैटेगरी बताना मना था लेकिन जाहिर है सभी उच्च कुलीन अनारक्षित या सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार माने जाएंगे.

इन होनहारों को भाग्यशाली कहने की एक बड़ी वजह यह भी है कि इन्हें आईएएस बनने के लिए दिनरात हाड़तोड़ मेहनत नहीं करनी पड़ी, महंगी कोचिंग क्लासेस में वक्त और पैसा खर्च नहीं करना पड़ा, घरपरिवार का, खानेपीने और सोने का सुख नहीं छोड़ना पड़ा. पढ़ने के लिए महंगा साहित्य नहीं खरीदना पड़ा, साथियों और दोस्तों से करंट और परंपरागत विषयों व मुद्दों पर बहस नहीं करनी पड़ी. और तो और, उन 3 कड़े स्टैप्स से भी होकर नहीं गुजरना पड़ा जहां इंटरव्यू लेने वाले आकाश पाताल से भी सवाल खोद लाते हैं. किस्मत के धनी इन लोगों का चयन सिर्फ मौखिक साक्षात्कार की बिना पर हुआ. चयन के बाद भी कोई कड़ी मैदानी ट्रेनिंग नहीं, जो नए आईएएस अधिकारियों को देशविदेश में दी जाती है.

केबीसी की तर्ज पर

ये नियुक्तियां या खैरात, कुछ भी समझ लें, रेवड़ी की तरह अपनों को बांटी जाती हैं. जो कुछेक घोषित तौर पर अपने नहीं होते उन में भी मलाई खाने के बाद अपनापन आ जाता है. ये भरतियां ठीक वैसी ही हैं जैसी लोकप्रिय गेम शो कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन हर किसी को करोड़पति बनाते हैं. इस खेल में तो फिर भी थोड़ेबहुत सामान्य ज्ञान की जरूरत प्रतिभागियों को पड़ती है और हौट सीट तक पहुंचने के लिए लाखों लोगों को पार करना पड़ता है.

लेटरल एंट्री में यह जरूरी नहीं. सरकार अगर सहकारिता और किसान कल्याण विभाग में अधिकारी नियुक्त करना चाह रही है तो उम्मीदवार की जनरल नौलेज किस स्तर की है, यह नहीं देखा जाता. देखा यह भी नहीं जाता कि उसे देश में पाई जाने वाली विभिन्न मिट्टियों के बारे में कुछ पता है या नहीं. सहकारी खेती क्या होती है, यह मामूली बात सीखने के लिए उसके पास 3 से 5 साल होते हैं और इस मियाद में भी वह ये बुनियादी बातें न सीखे और जाने तो भी कोई बात नहीं क्योंकि सरकार की मंशा उसे कम से कम एक करोड़ रुपए देने की रहती है.

लेटरल एंट्री के बारे में प्रचार यह किया गया है कि यह निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों का फायदा उठाने के लिए है क्योंकि वे अनुभवी होते हैं.यह एक मूर्खतापूर्ण बात है. मिसाल सहकारिता और किसान कल्याण की ही लें तो यह जमीन से जुड़ा अहम विषय है जिसमें उम्मीदवार का एमएससी एग्रीकल्चर से होना जरूरी होना चाहिए. नियमित परीक्षाओं के जरिए जो फ्रैशर्स आते हैं वे कृषि स्नातक हों यह भी अनिवार्यता नहीं. लेकिन कुछ साल विभिन्न पदों और जिलों में काम करने के बाद वे जमीन और किसान की कई समस्याओं व परेशानियों से अवगत हो जाते हैं.

प्राइवेट सैक्टर के किसी तजारबेकार अधिकारी, जो विलासी जिंदगी और एयर कंडीशंसवगैरह का आदी हो चुका होता है, से यह उम्मीद करना दिल बहलाने जैसी बात होगी कि वह किसानों की जरूरत के मुताबिक उनके हित में कृषि नीतियों में बदलाव की बात कर सके. प्राइवेट सैक्टर सिर्फ बेचना और मुनाफा कमाना जानते हैं. लिहाजा, उनका बंदा सिर्फ इसी दिशा में सोचेगा जिसका खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ेगा.

कौर्पोरेट कल्चर का देश या जनता के हितों से कोई वास्ता नहीं होता. इसलिए उनसे एक अच्छे ब्यूरोक्रेट होने की अपेक्षा पालना नादानी ही है. आईएएस की रोजमर्राई जिंदगी बेहद सार्वजनिक होती है जबकि प्राइवेट सैक्टर के अधिकारी कूपमंडूक से होते हैं जो अपनी कंपनी के कुएं में कैद रहते हैं.

3 साल पहले ही आईएएस बनी मध्यप्रदेश की एक अधिकारी का नाम न छापने की शर्त पर कहना है कि,‘हम चौबीसों घंटे ड्यूटी पर रहते हैं जिस में जिम्मेदारियां और जवाबदेहियां बहुत हैं. इन लोगों (लेटरल एंट्री वालों) के साथ ऐसा कुछ नहीं है. वे अपनी जिंदगी जी चुके होते हैं, खासा पैसा भी उनके पास जमा हो चुका होता है. हमें तो अभी उनसे आधी सैलरी भी नहीं मिल रही. लिहाजा, उन्हें किसी बात का डर नहीं रहता.’ यह स्मार्ट अधिकारी रामचरितमानस का भय बिन होत न प्रीत वाला दोहा सुनाकर काफीकुछ इशारों में कह देती है.

बात इस लिहाज से भी दमदार है कि आईएएस के इम्तिहान में कामयाबी की औसत दर 0.2 फीसदी है जबकि लेटरल एंट्री में यह 20 फीसदी से भी ज्यादा होती है. इस पर भी चयन न हो तो इन कुलीनों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. अभी तक आईएएस बने विशेषज्ञों ने क्या कारनामा ऐसा कर दिखाया जिसकी मिसाल दी जा सके. इसका जवाब तो मिलने से रहा क्योंकि यूपीएससी की नोडल एजेंसी डीओपीटी यानी कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के पास तो इस सवाल का भी जबाब नहीं कि 2018 में कितने विशेषज्ञों की भरती की गई थी.

आरटीआई के तहत दायर एक याचिका में जब एक प्रश्नकर्ता ने यह सवाल किया तो दो टूक जवाब यह मिला कि इसका ब्योरा उपलब्ध नहीं. एक तरह से यह लौटरी लग जाने जैसी बात है कि आप बैठेबिठाए आईएएस अधिकारी बन जाएं. जो ओहदा और रुतबा आप उम्र और वक्त रहते इस दौड़ में पिछड़ जाने के चलते या काबिल न होने के कारण हासिल नहीं कर पाए थे वह जिंदगी के उत्तरार्ध में तोहफे में मिल रहा है. सो, इसमें हर्ज क्या.

आरक्षण का भक्षण

लेटरल एंट्री का इतिहास महज 5 साल पुराना है हालांकि इसके पहले भी सरकार ऐसी भरतियां करती रही है लेकिन इन दोनों में बहुत अंतर है. भक्त लोग किसी भी आरोप से बचने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और रघुराम राजन जैसे आधाएक दर्जन नाम गिनाते यह साबित करने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं कि इसमें नया क्या है, यह रिवाज भी तो कांग्रेस ने शुरू किया था. ये लोग इस बात और तथ्य से कोई वास्ता नहीं रखते कि वे नियुक्तियां अपवाद और छिटपुट थीं और वाकई सरकार को ऐसे विषय विशेषज्ञों की जरूरत थी जो किसी इम्तिहान के जरिएनहीं मिलते.

आज की नियुक्तियां थोक में बाकायदा वैकेंसी निकाल कर की जा रही हैं, इसलिए उन्हें नियुक्ति की जगह भरती कहना ज्यादा बेहतर होगा.सरकार अगर एकाधदो नामी विशेषज्ञों को सीधे नियुक्ति देदे तो उस में कोई सवाल नहीं करेगा खासतौर से आरक्षण के बाबत जो लेटरल एंट्री की थोक भरतियों के बाद इस शक को यकीन में बदलता हुआ है कि भगवा गैंग धीरेधीरे जातिगत आरक्षण खत्म नहीं, तो कमजोर तो कर ही रहा है. और लेटरल एंट्री आधुनिक भारत केएकलव्यों के अंगूठे काटने का नया तरीका है.

लेटरल एंट्री से पिछड़ी और दलित जातियों की युवतियों को ज्यादा हानि हो रही है क्योंकि अब इन जातियों की युवतियों की बड़ी संख्या नौकरियों की प्रतियोगिता में सफल हो रही है. आरक्षणप्राप्त जातियों के युवाओं को तो खेतों, कारखानों में जगह मिल जाती है या फिर हिंदू धर्म के रक्षक बन कर कांवड़ ढोने जैसे काम कर जिंदगी बरबाद कर रहे हैं.

इन जातियों की युवतियों को घरों में रहना होता है और वे अपना समय पढ़ने में लगाती हैं. कम पैसे के बावजूद बिना महंगी कोचिंग के ये युवतियां परीक्षाओं में लड़कों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं और ऊंची जातियों के लड़कों व लड़कियों को पीछे छोड़ रही हैं. भाजपा सरकारों ने इन्हें योजनाबद्ध तरीके से हतोत्साहित करने का फैसला किया है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण साक्षी मलिक जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैडल जीतकर आई पहलवान लड़कियों की मांग को अनदेखा करना है.

इस प्रक्रिया में आरक्षण नियमों की बाध्यता नहीं है. इससे बड़ा नुकसान आरक्षित वर्ग के युवाओं का हो रहा है. अगर सरकार ने अब तक 200 आईएएस अधिकारी बैकडोर से बनाए हैं तो उनमें से आधे के लगभग पिछड़े, दलित और आदिवासी होने चाहिए जैसी कि आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है.

लेटरल एंट्री की सिफारिश कांग्रेस के शासनकाल में भी कई एजेंसियों ने की थी लेकिन सरकार ने साफ मना कर दिया था. प्रधानमंत्री बनने के बाद जो नए प्रयोग नरेंद्र मोदी ने किए उनमें से एक लेटरल एंट्री के जरिए कुलीनों को आईएएस अधिकारी बना देना है.

साल 2018 में जब सरकार ने यह फैसला लिया था तब सबसे ज्यादा विरोध उत्तरपश्चिम दिल्ली से भाजपा सांसद उदित राज ने यह कहते किया था कि इसमें आरक्षण का पालन नहींहो रहा है. इस गुस्ताखी के एवज में बाद में उन्हें भाजपा छोड़नी पड़ी थी. बाकी बातें जो उदित राज तब भाजपाई होने के नाते नहीं कर पाए थे. उन्हें कांग्रेसी सांसद पीएल पुनिया ने यह आरोप लगाते पूरा किया था कि इस फैसले के जरिए सरकार आरएसएस और भाजपा से जुड़े लोगों को पिछले दरवाजे से एंट्री दे रही है. उसने यूपीएससी की कड़ी चयन प्रक्रिया को हाशिए पर रख दिया है. इसमें आरक्षण नीति का पालन न करना सरकार की बदनीयती को दर्शाता है.

जाहिर है यह एक बड़ी चालाकी है जिसमें हल्ला मचने की गुंजाइश न के बराबर है. बहुत सीमित विरोध के साथ जितना हल्ला मचना था वह मच चुका है क्योंकि इससे आरक्षित वर्गों का सीधे और बड़ा नुकसान नहीं हो रहालेकिन इन वर्गों के सोचने वाले यानी हितचिंतकों की राय या चिंता कुछ और है कि सरकार आरक्षण पूरी तरह खत्म करने का जोखिम नहीं उठा सकती लेकिन वह आरक्षण को कमजोर तो कर ही सकती है. छोटे पदों पर आउटसोर्सिंग इसकी बेहतर मिसाल है.

इस प्रतिनिधि ने जब इस बाबत कुछ सरकारी विभागों को टटोला तो हैरतअंगेज बात यह उजागर हुई कि 80 फीसदी कंप्यूटर औपरेटर अनारक्षित वर्ग से हैं यानी सवर्ण हैं, बाकी 20 फीसदी में दलित, पिछड़े वर्ग के युवा हैं. आदिवासी तो न के बराबर हैं. भोपाल नगर निगम सहित मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी में छोटे अनियमित पदों पर काम कर रहे 80 फीसदी युवा सवर्ण हैं. इनकी जानकारी रखना और रखी भी हो तो सार्वजनिक करना या मीडिया को देना विभागों के लिए जरूरी नहीं है क्योंकि ये अस्थायी हैं और ठेका पद्धति से आए हैं.

हैरत की बात यह है कि सड़कों पर सुबहशाम झाड़ू लगा रही महिलाएं और पुरुष दलित जातियों के ही हैं. उनकी संख्या 90 फीसदी के लगभग है.यह इस डिजिटल दौर का मनुवाद और वर्णव्यवस्था है.

भाजपा शासित राज्यों सहित केंद्र सरकार भी नियमित रिक्तियां नहीं निकाल रही क्योंकि इसमें उन्हें आरक्षण रोस्टर का पालन करना पड़ेगा. ओडिशा के भीषण रेल हादसे के बाद पता चला था कि रेलवे में हजारों छोटेबड़े पद सालों से खाली पड़े हैं.इससे सरकार के पैसे तो बच ही रहे हैं, साथ ही, आरक्षितों को नौकरी देने की झंझट से भी वह बची हुई है. जानमाल के नुकसान पर दुख जता देने व खजाने से मुआवजा दे देने से सरकार अपनी जवाबदेही से बच जाती है.

सवर्णवाद आरक्षण पर एक साजिश के तहत भारी पड़ रहा है और दलित, पिछड़े, आदिवासी व अब गरीब भी इस ज्यादती पर खुलकर नहीं बोल पा रहे या विरोध कर पा रहे तो इसकी वजह उनके समुदाय का कमजोर नेतृत्व और एकजुटता का न होना ही है. उसे भी भगवा गैंग ने 9 साल में इतना कमजोर कर दिया है कि अब उसका अपने पैरों पर मजबूती से उठ खड़े होना एक कठिन चुनौती दिख रहा है.

सरकार की मंशा का हलका विरोध सोशल मीडिया पर हुआ था. एक यूजर सौम्या स्वीटी का यह ट्वीट जमकर वायरल हुआ था जिसमें उन्होंने कमैंट किया था कि ‘बिना परीक्षा दिए सवर्णों को आईएएस बना दिया और एससी, एसटी, ओबीसी वालों को भी निराश नहीं किया, उन्हें कांवड़ यात्रा के दौरान डीजे बजाने की छूट दी है.’

जब सरकार ने लेटरल एंट्री का फैसला लिया था तब दिग्गज दलित भाजपाई नेता खामोश रहे थे. इन में सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत सहित 2 और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान और रामदास अठावले के नाम प्रमुख हैं.सरकार की गोद में बैठे इन दलित नेताओं को अपने ही तबके के युवाओं का भविष्य और अधिकार नहीं दिखे थे लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने जरूर तुक की एक बात यह कही थी कि यूपीएससी द्वारा आयोजित इम्तिहान पास नहीं करने वालों को नियुक्त करने का फैसला मोदी सरकार की प्रशासनिक विफलता का संकेत है. यह नीति निर्माण के जरिए बड़े व्यवसायों को फायदा पहुंचाने की साजिश है.

तकनीकी तौर पर इस फैसले के चिथड़े आरजेडी सांसद मनोज झा ने यह बताते उड़ाए थे कि अनुच्छेद 15 (4) और अनुच्छेद 16 (4) के माध्यम से सार्वजानिक रोजगार में आरक्षण/प्रतिनिधित्व विचार को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के पदों को कम करके व्यवस्थित रूप से कमजोर किया जा रहा है.

मुखर दलित इंडियन चैंबरऔफ कौमर्स एंड इंडस्ट्री के संस्थापक अध्यक्ष मिलिंद काम्बले और एक वरिष्ठ दलित लेखक चंद्रभान प्रसाद भी रहे थे जिन्होंने यह तो कहा कि सरकार को आनुपातिक आरक्षण पर विचार करना चाहिए और यह एक संकेत है कि सरकार आरक्षण को खत्म करने की कोशिश कर रही है. लेकिन अब जबकि 2023 की भरतियां हो रही हैं तब इन लोगों के कहीं अतेपते नहीं हैं जिससे लगता है कि इन लोगों ने भी मोदी सरकार के सामने घुटने टेक दिए हैं.

भाजपा सरकारों का संदेश है कि आरक्षण समाप्त ही किया जाएगा और जो विरोध करेगा उन्हें उन्हीं की जातियों की पुलिस से पिटवाया जाएगा. लेटरल एंट्री सुबूत है कि अधिकतर अफसर तो ऊंची जातियों के ही रहेंगे और पिछड़े, दलित युवा, खासतौर पर युवतियां, भूल जाएं कि उन्हें कभी आरक्षण का लाभ मिलेगा या साष्टांग प्रणाम करने के बावजूद कोई हक मिलेगा.

और सच भी है क्योंकिसरकार बिना किसी लिहाज के छोटीबड़ी सभी सरकारी नौकरियों में  नीचे से ऊपर तक कुलीनों व सवर्णों के लिए अलग रास्ता बना रही है. ऐसे में कोई क्या कर लेगा. रहे कल के शूद्र रहे आज के दलित, पिछड़े और आदिवासी, तो वे बागेश्वर जैसे बाबाओं के दिव्य दरबारों में इफरात से हाजिरी देते खुद को सवर्णों जैसा समझ रहे हैं और इसके लिए वे अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई भी बतौर दक्षिणा चढ़ा रहे हैं.अब कौन उन्हें बताएव समझाए कि इसी साजिश ने उन्हें सदियों से पिछड़ा रखा है और आज सरकारी नौकरी से वंचित किया जा रहा है.

खोखली होती जड़ें : गलती पर पछतावा करते एक बेटे की कहानी

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खोया हुआ सच : क्यों दुखी रहती थी सीमा ?

सीमा रसोई के दरवाजे से चिपकी खड़ी रही, लेकिन अपनेआप में खोए हुए उस के पति रमेश ने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बाएं हाथ में फाइलें दबाए वह चुपचाप दरवाजा ठेल कर बाहर निकल गया और धीरेधीरे उस की आंखों से ओझल हो गया.

सीमा के मुंह से एक निश्वास सा निकला, आज चौथा दिन था कि रमेश उस से एक शब्द भी नहीं बोला था. आखिर उपेक्षाभरी इस कड़वी जिंदगी के जहरीले घूंट वह कब तक पिएगी?

अन्यमनस्क सी वह रसोई के कोने में बैठ गई कि तभी पड़ोस की खिड़की से छन कर आती खिलखिलाहट की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह दबेपांव खिड़की की ओर बढ़ गई और दरार से आंख लगा कर देखा, लीला का पति सूखे टोस्ट चाय में डुबोडुबो कर खा रहा था और लीला किसी बात पर खिलखिलाते हुए उस की कमीज में बटन टांक रही थी. चाय का आखिरी घूंट भर कर लीला का पति उठा और कमीज पहन कर बड़े प्यार से लीला का कंधा थपथपाता हुआ दफ्तर जाने के लिए बाहर निकल गया.

सीमा के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई. कितने खुश हैं ये दोनों… रूखासूखा खा कर भी हंसतेखेलते रहते हैं. लीला का पति कैसे दुलार से उसे देखता हुआ दफ्तर गया है. उसे विश्वास नहीं होता कि यह वही लीला है, जो कुछ वर्षों पहले कालेज में भोंदू कहलाती थी. पढ़ने में फिसड्डी और महाबेवकूफ. न कपड़े पहनने की तमीज थी, न बात करने की. ढीलेढाले कपड़े पहने हर वक्त बेवकूफीभरी हरकतें करती रहती थी.

क्लासरूम से सौ गज दूर भी उसे कोई कुत्ता दिखाई पड़ जाता तो बेंत ले कर उसे मारने दौड़ती. लड़कियां हंस कर कहती थीं कि इस भोंदू से कौन शादी करेगा. तब सीमा ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि एक दिन यही फूहड़ और भोंदू लीला शादी के बाद उस की पड़ोसिन बन कर आ जाएगी और वह खिड़की की दरार से चोर की तरह झांकती हुई, उसे अपने पति से असीम प्यार पाते हुए देखेगी.

दर्द की एक लहर सीमा के पूरे व्यक्त्तित्व में दौड़ गई और वह अन्यमनस्क सी वापस अपने कमरे में लौट आई.

‘‘सीमा, पानी…’’ तभी अंदर के कमरे से क्षीण सी आवाज आई.

वह उठने को हुई, लेकिन फिर ठिठक कर रुक गई. उस के नथुने फूल गए, ‘अब क्यों बुला रही हो सीमा को?’ वह बड़बड़ाई, ‘बुलाओ न अपने लाड़ले बेटे को, जो तुम्हारी वजह से हर दम मुझे दुत्कारता है और जराजरा सी बात में मुंह टेढ़ा कर लेता है, उंह.’

और प्रतिशोध की एक कुटिल मुसकान उस के चेहरे पर आ गई. अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर वह तन कर रमेश की फोटो के सामने खड़ी हो गई, ‘‘ठीक है रमेश, तुम इसलिए मुझ से नाराज हो न, कि मैं ने तुम्हारी मां को टाइम पर खाना और दवाई नहीं दी और उस से जबान चलाई. तो लो यह सीमा का बदला, चौबीसों घंटे तो तुम अपनी मां की चौकीदारी नहीं कर सकते. सीमा सबकुछ सह सकती है, अपनी उपेक्षा नहीं. और धौंस के साथ वह तुम्हारी मां की चाकरी नहीं करेगी.’’

और उस के चेहरे की जहरीली मुसकान एकाएक एक क्रूर हंसी में बदल गई और वह खिलाखिला कर हंस पड़ी, फिर हंसतेहंसते रुक गई. यह अपनी हंसी की आवाज उसे कैसी अजीब सी, खोखली सी लग रही थी, यह उस के अंदर से रोतारोता कौन हंस रहा था? क्या यह उस के अंदर की उपेक्षित नारी अपनी उपेक्षा का बदला लेने की खुशी में हंस रही थी? पर इस बदले का बदला क्या होगा? और उस बदले का बदला…क्या उपेक्षा और बदले का यह क्रम जिंदगीभर चलता रहेगा?

आखिर कब तक वे दोनों एक ही घर की चारदीवारी में एकदूसरे के पास से अजनबियों की तरह गुजरते रहेंगे? कब तक एक ही पलंग की सीमाओं में फंसे वे दोनों, एक ही कालकोठरी में कैद 2 दुश्मन कैदियों की तरह एकदूसरे पर नफरत की फुंकारें फेंकते हुए अपनी अंधेरी रातों में जहर घोलते रहेंगे?

उसे लगा जैसे कमरे की दीवारें घूम रही हों. और वह विचलित सी हो कर धम्म से पलंग पर गिर पड़ी.

थप…थप…थप…खिड़की थपथपाने की आवाज आई और सीमा चौंक कर उठ बैठी. उस के माथे पर बल पड़ गए. वह बड़बड़ाती हुई खिड़की की ओर बढ़ी.

‘‘क्या है?’’ उस ने खिड़की खोल कर रूखे स्वर में पूछा. सामने लीला खड़ी थी, भोंदू लीला, मोटा शरीर, मोटा थुलथुल चेहरा और चेहरे पर बच्चों सी अल्हड़ता.

‘‘दीदी, डेटौल है?’’ उस ने भोलेपन से पूछा, ‘‘बिल्लू को नहलाना है. अगर डेटौल हो तो थोड़ा सा दे दो.’’

‘‘बिल्लू को,’’ सीमा ने नाक सिकोड़ कर पूछा कि तभी उस का कुत्ता बिल्लू भौंभौं करता हुआ खिड़की तक आ गया.

सीमा पीछे को हट गई और बड़बड़ाई, ‘उंह, मरे को पता नहीं मुझ से क्या नफरत है कि देखते ही भूंकता हुआ चढ़ आता है. वैसे भी कितना गंदा रहता है, हर वक्त खुजलाता ही रहता है. और इस भोंदू लीला को क्या हो गया है, कालेज में तो कुत्ते को देखते ही बेंत ले कर दौड़ पड़ती थी, पर इसे ऐसे दुलार करती है जैसे उस का अपना बच्चा हो. बेअक्ल कहीं की.’

अन्यमनस्क सी वह अंदर आई और डेटौल की शीशी ला कर लीला के हाथ में पकड़ा दी. लीला शीशी ले कर बिल्लू को दुलारते हुए मुड़ गई और उस ने घृणा से मुंह फेर कर खिड़की बंद कर ली.

पर भोंदू लीला का चेहरा जैसे खिड़की चीर कर उस की आंखों के सामने नाचने लगा. ‘उंह, अब भी वैसी ही बेवकूफ है, जैसे कालेज में थी. पर एक बात समझ में नहीं आती, इतनी साधारण शक्लसूरत की बेवकूफ व फूहड़ महिला को भी उस का क्लर्क पति ऐसे रखता है जैसे वह बहुत नायाब चीज हो. उस के लिए आएदिन कोई न कोई गिफ्ट लाता रहता है. हर महीने तनख्वाह मिलते ही मूवी दिखाने या घुमाने ले जाता है.’

खिड़की के पार उन के ठहाके गूंजते, तो सीमा हैरान होती और मन ही मन उसे लीला के पति पर गुस्सा भी आता कि आखिर उस फूहड़ लीला में ऐसा क्या है जो वह उस पर दिलोजान से फिदा है. कई बार जब सीमा का पति कईकई दिन उस से नाराज रहता तो उसे उस लीला से रश्क सा होने लगता. एक तरफ वह है जो खूबसूरत और समझदार होते हुए भी पति से उपेक्षित है और दूसरी तरफ यह भोंदू है, जो बदसूरत और बेवकूफ होते हुए भी पति से बेपनाह प्यार पाती है. सीमा के मुंह से अकसर एक ठंडी सांस निकल जाती. अपनाअपना वक्त है. अचार के साथ रोटी खाते हुए भी लीला और उस का पति ठहाके लगाते हैं. जबकि दूसरी ओर उस के घर में सातसात पकवान बनते हैं और वे उन्हें ऐसे खाते हैं जैसे खाना खाना भी एक सजा हो. जब भी वह खिड़की खोलती, उस के अंदर खालीपन का एहसास और गहरा हो जाता और वह अपने दर्द की गहराइयों में डूबने लगती.

‘‘सीमा, दवाई…’’ दूसरे कमरे से क्षीण सी आवाज आई. बीमार सास दवाई मांग रही थी. वह बेखयाली में उठ बैठी, पर द्वेष की एक लहर फिर उस के मन में दौड़ गई. ‘क्या है इस घर में मेरा, जो मैं सब की चाकरी करती रहूं? इतने सालों के बाद भी मैं इस घर में पराई हूं, अजनबी हूं,’ और वह सास की आवाज अनसुनी कर के फिर लेट गई.

तभी खिड़की के पार लीला के जोरजोर से रोने और उस के कुत्ते के कातर स्वर में भूंकने की आवाज आई. उस ने झपट कर खिड़की खोली. लीला के घर के सामने नगरपलिका की गाड़ी खड़ी थी और एक कर्मचारी उस के बिल्लू को घसीट कर गाड़ी में ले जा रहा था.

‘‘इसे मत ले जाओ, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं,’’ लीला रोतेरोते कह रही थी.

लेकिन कर्मचारी ने कुत्ते को नहीं छोड़ा. ‘‘तुम्हारे कुत्ते को खाज है, बीमारी फैलेगी,’’ वह बोला.

‘‘प्लीज मेरे बिल्लू को मत ले जाओ. मैं डाक्टर को दिखा कर इसे ठीक करा दूंगी.’’

‘‘सुनो,’’ गाड़ी के पास खड़ा इंस्पैक्टर रोब से बोला, ‘‘इसे हम ऐसे नहीं छोड़ सकते. नगरपालिका पहुंच कर छुड़ा लाना. 2,000 रुपए जुर्माना देना पड़ेगा.’’

‘‘रुको, रुको, मैं जुर्माना दे दूंगी,’’ कह कर वह पागलों की तरह सीमा के घर की ओर भागी और सीमा को खिड़की के पास खड़ी देख कर गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरे बिल्लू को बचा लो. मुझे 2,000 रुपए उधार दे दो.’’

‘‘पागल हो गई हो क्या? इस गंदे और बीमार कुत्ते के लिए 2,000 रुपए देना चाहती हो? ले जाने दो, दूसरा कुत्ता पाल लेना,’’  सीमा बोली.

लीला ने एक बार असीम निराशा और वेदना के साथ सीमा की ओर देखा. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी. सहसा उस की आंखें अपने हाथ में पड़ी सोने की पतली सी एकमात्र चूड़ी पर टिक गईं. उस की आंखों में एक चमक आ गई और वह चूड़ी उतारती हुई वापस कुत्ता गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ी.

‘‘भैया, यह लो जुर्माना. मेरे बिल्लू को छोड़ दो,’’ वह चूड़ी इंस्पैक्टर की ओर बढ़ाती हुई बोली.

इंस्पैक्टर भौचक्का सा कभी उस के हाथ में पकड़ी सोने की चूड़ी की ओर और कभी उस कुत्ते की ओर देखने लगा. सहसा उस के चेहरे पर दया की एक भावना आ गई, ‘‘इस बार छोड़ देता हूं. अब बाहर मत निकलने देना,’’ उस ने कहा और कुत्ता गाड़ी आगे बढ़ गई.

लीला एकदम कुत्ते से लिपट गई, जैसे उसे अपना खोया हुआ कोई प्रियजन मिल गया हो और वह फूटफूट कर रोने लगी.

सीमा दरवाजा खोल कर उस के पास पहुंची और बोली, ‘‘चुप हो जाओ, लीला, पागल न बनो. अब तो तुम्हारा बिल्लू छूट गया, पर क्या कोई कुत्ते के लिए भी इतना परेशान होता है?’’

लीला ने सिर उठा कर कातर दृष्टि से उस की ओर देखा. उस के चेहरे से वेदना फूट पड़ी, ‘‘ऐसा न कहो, सीमा दीदी, ऐसा न कहो. यह बिल्लू है, मेरा प्यारा बिल्लू. जानती हो, यह इतना सा था जब मेरे पति ने इसे पाला था. उन्होंने खुद चाय पीनी छोड़ दी थी और दूध बचा कर इसे पिलाते थे, प्यार से इसे पुचकारते थे, दुलारते थे. और अब, अब मैं इसे दुत्कार कर छोड़ दूं, जल्लादों के हवाले कर दूं, इसलिए कि यह बूढ़ा हो गया है, बीमार है, इसे खुजली हो गई है. नहीं दीदी, नहीं, मैं इस की सेवा करूंगी, इस के जख्म धोऊंगी क्योंकि यह मेरे लिए साधारण कुत्ता नहीं है, यह बिल्लू है, मेरे पति का जान से भी प्यारा बिल्लू. और जो चीज मेरे पति को प्यारी है, वह मुझे भी प्यारी है, चाहे वह बीमार कुत्ता ही क्यों न हो.’’

सीमा ठगी सी खड़ी रह गई. आंसुओं के सागर में डूबी यह भोंदू क्या कह रही है. उसे लगा जैसे लीला के शब्द उस के कानों के परदों पर हथौड़ों की तरह पड़ रहे हों और उस का बिल्लू भौंभौं कर के उसे अपने घर से भगा देना चाहता हो.

अकस्मात ही उस की रुलाई फूट पड़ी और उस ने लीला का आंसुओंभरा चेहरा अपने दोनों हाथों में भर लिया, ‘‘मत रो, मेरी लीला, आज तुम ने मेरी आंखों के जाले साफ कर दिए हैं. आज मैं समझ गई कि तुम्हारा पति तुम से इतना प्यार क्यों करता है. तुम उस जानवर को भी प्यार करती हो जो तुम्हारे पति को प्यारा है. और मैं, मैं उन इंसानों से प्यार करने की भी कीमत मांगती हूं, जो अटूट बंधनों से मेरे पति के मन के साथ बंधे हैं. तुम्हारे घर का जर्राजर्रा तुम्हारे प्यार का दीवाना है और मेरे घर की एकएक ईंट मुझे अजनबी समझती है. लेकिन अब नहीं, मेरी लीला, अब ऐसा नहीं होगा.’’

लीला ने हैरान हो कर सीमा को देखा. सीमा ने अपने घर की तरफ रुख कर लिया. अपनी गलतियों को सुधारने की प्रबल इच्छा उस की आंखों में दिख रही थी.

पैरों में सूजन हाई बीपी की निशानी

निहारिका एक मीडिया संस्थान में कार्यरत है. काफी लंबे समय से उस को पैरों में दर्द की समस्या बनी हुई थी. मेट्रो की सीढ़ियां चढ़ते वक़्त या कार्यालय की सीढ़ियों पर वह रुकरुक कर चढ़ती थी. पैरों के जोड़ों में दर्द और कभीकभी की सूजन ने उसकी परेशानी बढ़ा रखी थी. अभी उम्र ही क्या थी, 35 की ही तो थी, लेकिन लगता था जैसे साठ साल की बुढ़िया की तरह चल रही है. कभीकभी बड़ी शर्म आती जब मेट्रो की सीढ़ियों पर बूढ़े लोग उससे ज़्यादा तेज़ी से चढते हुए प्लेटफार्म पर पहले पहुंच जाते थे. औफिस में निहारिका अपने पैरों को स्टूल पर रख कर बैठती थी. वरना कुरसी से लटकायएलटकायए सूजन इतनी बढ़ जाती थी कि शाम को छुट्टी के वक़्त अपनी चप्पल में पैर डालना मुश्किल हो जाता था. उसने जूते और बेलीज़ पहनना तो लगभग बंद ही कर दिया था. हील्स भी नहीं पहनती थी. बस, फ्लैट खुली चप्पलें ही पहन कर चली आती थी. रात को गर्म पानी में सेंधा नमक डाल कर पैरों की सिंकाई भी करती थी, लेकिन सूजन जाने का नाम ही नहीं ले रही थी.

निहारिका को समझ में ही नहीं आ रहा था कि उसकी एड़ियों और घुटनो में दर्द और सूजन की क्या वजह है. यूरिन टेस्ट भी करवा लिया था. उस में भी सब नौर्मल था. आखिर एक दिन ब्लडप्रेशर चेक करवाया तो 170/110 निकला. ‘आपका बीपी तो बहुत ज़्यादा है ! कब से रह रहा है इतना ज़्यादा बीपी ?’ डाक्टर ने हैरान हो कर पूछा तो निहारिका इतना ही कह पाई कि पता नहीं डॉक्टर साहब, कभी चेक ही नहीं करवाया.

खैर, डाक्टर ने तुरंत ही नमक और चीनी बंद करने को कहा और कुछ दवा और एक्सरसाइज बताई. एक हफ्ते के परहेज़ के बाद निहारिका को पैरों के दर्द और सूजन में कुछ राहत महसूस हुई. डायटीशियन से संपर्क कर के निहारिका ने अपने लिए डाइट चार्ट भी बनवाया. अब वह उसी चार्ट के मुताबिक़ परहेज़ी खाना खाती है और ढेर सारा पानी पीती है.

निहारिका हैरान है कि इतनी कम उम्र में उस को बीपी कैसे हो गया? यह तो बुढ़ापे का रोग होता है. पता नहीं कितने लंबे समय से वह बढे हुए बीपी के साथ सारे काम कर रही थी. शुरू के दिनों में तो उस ने पैरों के दर्द की ओर ध्यान ही नहीं दिया था. दर्द ज़्यादा होता तो वह कौम्बिफ्लेम जैसी दर्दनिवारक गोली खा कर काम में लग जाती थी. क्या पता था कि वह हाई ब्लडप्रेशर की शिकार होती जा रही है. अकसर लोग पैर के दर्द और सूजन को बीपी से नहीं जोड़ते हैं.

फोर्टिस अस्पताल में कार्यरत डाक्टर नीना बहल अपने एक मरीज़ का जिक्र करते हुए बताती हैं कि आशीष एक मल्टिनैशनल कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर हैं. उस पर काम का काफी प्रेशर है. पिछले कुछ समय से वह सिरदर्द और थकान से परेशान था. उस ने इस लक्षण को हलके में लिया और दर्द से राहत के लिए पेनकिलर लेता रहा. जब तक पेनकिलर का असर रहता, सिरदर्द से राहत रहती, लेकिन थकान में ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा था. फिर वह एक दिन मेरे पास आया. मैं ने उस से उस के फैमिली बैकग्राउंड के बारे में पूछा कि कहीं पेरेंट्स को तो हाई बीपी या हाइपरटेंशन की समस्या नहीं है? आशीष ने बताया कि उस की माँ को हाई ब्लडप्रेशर की शिकायत रहती है और वे उस के लिए लंबे समय से दवाएं खा रही हैं. मैं ने आशीष का बीपी टेस्ट किया तो उस का बीपी 177/109 निकला. काफी ज़्यादा था. फिर मैं ने उस को बीपी की दवा शुरू करवाई और लाइफस्टाइल और खानपान में भी काफी बदलाव किए. उस को हिदायत दी कि वह हर दिन जौगिंग और एक्सरसाइज करेगा. बेशक आशीष को बीपी की समस्या पिछले कुछ समय से नहीं बल्कि हो सकता है कि एक या दो साल से रह रही थी, लेकिन उस ने कभी ध्यान नहीं दिया. दरअसल, वह शरीर में उभर रहे लक्षणों को पहचान ही नहीं पाया और सिरदर्द और थकान को काम की वजह से होना मानते रहे.

क्या है हाई ब्लडप्रेशर या हाइपरटेंशन

डाक्टर नीना बहल कहती हैं कि बीपी या हाइपरटेंशन का सीधा संबंध दिल से है. दरअसल, शरीर के सभी अंगों या कोशिकाओं तक साफ खून पहुंचाने और फिर साफ खून का उपयोग अंगों या कोशिकाओं द्वारा करने के बाद खराब खून वापस किडनी और फेफड़ों में भेजने का काम दिल का ही होता है. दिल एक मिनट में यह काम अमूमन 70 से 75 बार करता है. जब सबकुछ सही रहता है तो हमारी खून की नाड़ियों में ब्लडप्रेशर 120/80 होता है. लेकिन खून की नाड़ियों में फैट जमा होने, किडनी की समस्या होने, तंबाकू आदि के सेवन की वजह से नाड़ियों का रास्ता संकरा हो जाता है या नाड़ियों का लचीलापन कम हो जाता है. इस वजह से दिल को विभिन्न अंगों और कोशिकाओं तक खून पहुंचाने और वापस लाने में ज्यादा जोर लगाना पड़ता है. यहीं से हाई बीपी या हाइपरटेंशन की शुरुआत होती है. अगर बीपी मशीन पर रीडिंग 120/80 से अधिक आए तो यह सामान्य नहीं है. 130/90 होने पर डाक्टर से सलाह कर लेना बेहतर है. अगर बीपी  180/120 हो तो देर न करें, तुरंत अस्पताल जाएं.

 हाइपरटेंशन के कारण

  •  खानदानी बीमारी

हाइपरटेंशन का बहुत बड़ा कारण आनुवंशिक होता है यानी अगर पेरेंट्स को हाइपरटेंशन की शिकायत रही है तो बच्चों में भी यह परेशानी हो सकती है. ऐसे में सवाल जरूर उठता है कि क्या इससे बचने का कोई उपाय नहीं है? उपाय जरूर है. अगर हम रूटीन और लाइफस्टाइल को दुरुस्त रखें तो हाइपरटेंशन की समस्या से बच सकते हैं.

  •  खराब लाइफस्टाइल

आजकल हाइपरटेंशन के मामले में खराब लाइफस्टाइल का रोल सब से बड़ा होता है. रात में देर तक जगना, सुबह देर तक सोना, न जौगिंग, न फिजिकल ऐक्टिविटीज, सूरज की रोशनी से दूरी, मेहनत से पसीना न निकालना… ऐसे तमाम कारणों से हमारी लाइफ पूरी तरह से डिस्टर्ब हो जाती है. नतीजा होता है हाइपरटेंशन.

  •  फिजिकल ऐक्टिविटी कम

अगर पेरेंट्स से हम तक हाइपरटेंशन की परेशानी पहुंचने का खतरा है तो हम फिजिकल ऐक्टिविटीज के द्वारा इसे काफी हद तक कम कर सकते हैं. अगर यह खतरा नहीं भी है तो भी हमें फिजिकल ऐक्टिविटीज को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. सच तो यह है कि ज्यादातर लोग न तो जौगिंग करते हैं और न ही एक्सरसाइज. ऐसे में मोटापा और बीपी का बढ़ जाना आम है.

  •  मोटापा

यह जेनेटिक भी हो सकता है और लाइफस्टाइल की वजह से भी. अगर जेनेटिक है तो भी लाइफस्टाइल को दुरुस्त कर के मोटापे से बच सकते हैं. सच तो यह है कि मोटापा सीधेतौर पर कोई बीमारी नहीं है, लेकिन इसकी वजह से शरीर बीमारियों का घर जरूर बन जाता है. हाइपरटेंशन के मामले में तो यह और भी खतरनाक हो जाता है. दरअसल, मोटापे की वजह से शरीर में वसा या कोलेस्ट्रोल सिर्फ स्किन के नीचे ही जमा नहीं होता, बल्कि यह शरीर के विभिन्न अंगों तक खून लाने और ले जाने वाली नाड़ियों में भी जमा हो जाता है. जिस से दिल पर अनावश्यक बोझ बढ़ता है और उसे बहुत ज़ोर लगाना पड़ता है.

  •  नींद पूरी न होना

स्वस्थ शरीर के लिए नींद का पूरा होना जरूरी है. हमारा रिलैक्स होना हमारे अंगों को ऊर्जा से भर देता है. दरअसल, जब हम नींद में होते हैं तो हमारे सभी अंग पूरी तरह से आराम कर रहे होते हैं. जब हम नींद पूरी नहीं करते तो हमारे अंगों को अतिरिक्त काम करना पड़ता है और नतीजा होता है अतिरिक्त दबाव.

  •  किडनी की समस्या

कई बार बीपी बढ़ने की वजह किडनी भी होती है. किडनी से रेनिन एंजियोटेंसिन सिस्टम के द्वारा शरीर में ब्लडप्रेशर को रेग्युलेट किया जाता है. साथ ही, यह फ्लूड और इलेक्ट्रोलाइट के बैलेंस में भी अहम भूमिका निभाता है. ऐसे में जब किडनी में समस्या होती है तो इस सिस्टम पर भी असर होता है और नतीजा होता है बीपी का बढ़ जाना. यही कारण है कि जिन की किडनी में समस्या होती है, उन में अमूमन बीपी की समस्या हो ही जाती है. अगर अचानक बीपी बढ़ गया हो और कोई कारण समझ में नहीं आ रहा हो तो डाक्टर की सलाह से किडनी का अल्ट्रासाउंड करवाना चाहिए. अगर बीपी किडनी की परेशानी की वजह से नहीं बढ़ा हो, किसी और वजह से बढ़ा हो तो भी किडनी का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है क्योंकि हाइपरटेंशन का सीधा असर किडनी पर पड़ता है.

  •  नमक ज्यादा लेना

शरीर के लिए नमक जरूरी है, लेकिन जब इसकी मात्रा शरीर में ज्यादा हो जाए तो बीपी बढ़ जाता है. दरअसल, इसकी वजह यह है कि खून में सोडियम की ज्यादा मौजूदगी खून के संतुलन को बिगाड़ देती है और किडनी की कार्यक्षमता को घटा देती है. इससे किडनी खून में मौजूद पानी को पूरी तरह से नहीं छान पाती. फिर शरीर में पानी की मात्रा बढ़ जाती है. इससे दिल पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है और बीपी बढ़ जाता है.

  •  नौनवेज ज्यादा लेना

मांसाहारी भोजन में वसा की मात्रा अमूमन ज्यादा होती है. वहीं इसे ज्यादा तापमान और ज्यादा चिकनाई में पकाना भी पड़ता है. इस वजह से इन्हें खाने से हाई बीपी की समस्या होने का खतरा बना रहता है.

शराब, तंबाकू का सेवन

इन सभी नशीले पदार्थों के सेवन से खून का रासायनिक संतुलन बिगड़ जाता है. लिहाज़ा, बीपी बढ़ जाता है.

  •  तनाव है बड़ी वजह

तनाव सभी बीमारियों की जड़ है. इसलिए हमें चिंता नहीं, चिंतन करना चाहिए. तनाव की वजह से हमारी नींद खराब होती है. तनाव से हाइपरटेंशन और इससे शुगर और दूसरी बीमारियां होती हैं.

हाइपरटेंशन के लक्षण

– सिर दर्द या सिर में भारीपन

– थकावट

– पैरों के जोड़ो में सूजन और दर्द

– चिड़चिड़ापन या जल्दी और तेज गुस्सा आना

– आंखों में परेशानी

– सीने में दर्द

– सांस लेने में परेशानी

– अनियमित धड़कन

– धड़कनों का बढ़ जाना (ट्रैकी कार्डिया)

– कानों में सनसनाहट

– जबड़ों में जकड़न

– कुछ मामलों में पेशाब में खून

– सांस फूलना

हाइपरटेंशन का नतीजा

– दिल का कमजोर होना

– रक्त नलिकाओं का कमजोर होना

– हार्टअटैक का खतरा

– ब्रेनस्ट्रोक का खतरा

– पैरों की नसें खराब होना

– पैरों में सूजन

– आंखों की परेशानी

– किडनी की परेशानी

– नींद में कमी

लाइफस्टाइल करें दुरुस्त

रूटीन को सुधारें

– हाइपरटेंशन को काबू में रखने के लिए यह जरूरी है कि हम लाइफस्टाइल को बेहतर बनाएं. इस के लिए एक सही रूटीन को फौलो करें. सुबह उठने से ले कर रात में सोने तक की टाइमिंग सही हो.

– औफिस की टेंशन को औफिस में छोड़ें और घर पर फ्री हो कर लौटें. वैसे आजकल ज्यादातर लोगों का वर्क फ्रौम होम है, ऐसे में इस बात का ध्यान रखना और भी जरूरी है.

– इंसान के हाथ में सबकुछ नहीं होता, यह सोच कर आगे बढ़ना चाहिए.

– पिछली गलतियों को सुधारा नहीं जा सकता, लेकिन उन से सीख कर आगे की गलती से बच सकते हैं. पछताने से कोई फायदा नहीं होता. ऐसा सोचने से तनाव जरूर कम होता है. इस से पौजिटिविटी डेवेलप होती है.

– हर दिन सुबह 10 से 15 मिनट मेडिटेशन करने से तनाव काफी कम होता है. यह हमें आपात स्थिति को भी बेहतर तरीके से संभालने में सक्षम बनाता है.

सही खानपान

मैग्नीशियम वाला भोजन

ऐसे फूड का चुनाव करें, जिन में मैग्नीशियम की मात्रा ज्यादा हो. मसलन, सभी तरह के सीड्स (लौकी के बीज, फ्लैक्स सीड आदि), काजू और हरी पत्तेदार सब्जियां. हर दिन अगर हम एक चम्मच लौकी के बीज या सूरजमुखी के बीज अथवा अलसी के भुने हुए बीज या 2 से 3 काजू की कली खाएं तो हमारा काम चल जाएगा. वहीं हरी सब्जियों को रूटीन के हिसाब से ही एक कटोरी हर दिन खाने से मैग्नीशियम की कमी नहीं होगी. अगर किसी के शरीर में मैग्नीशियम की कमी ज्यादा हो गई है तो डाक्टर की सलाह से मैग्नीशियम का सप्लिमेंट ले सकते हैं. मैग्नीशियम एक नेचुरल एंटीडिप्रेशंट एजेंट है. नींद लाने में भी मदद करता है.

चिकनाई कम

हाइपरटेंशन को कम करने में हमारे खानपान का काफी अहम रोल होता है. अगर हाइपरटेंशन से बचना है तो ज्यादा फैट (घी, रिफाइंड और तेल) और मसाले वाले खाने से जरूर बचें. जिन्हें इस परेशानी ने घेर लिया है, उन के लिए तो चिकनाई वाला खाना 15 दिन में एक बार ही होना चाहिए.

नमक बहुत कम

खाने में ऊपर से नमक ले कर खाने की आदत जरूर बंद दें. जिन्हें हाइपरटेंशन की समस्या है, उन के लिए तो यह जरूरी है कि नमक सामान्य से भी कम लें. हर दिन 3 से 5 ग्राम (लगभग 1 छोटा चम्मच) नमक काफी है. कई लोग ऊपर से नमक लेते हैं, यह हानिकारक है. नमकीन, मिक्सचर को न कहें. सेंधा नमक दूसरे नमक की तुलना में कुछ बेहतर हो सकता है.

हरीसब्जी, फल की मात्रा बढ़ाएं

हर दिन सब्जियों और फलों का सेवन करें. सब्जियों में पालक और दूसरे साग, बंद गोभी आदि का सेवन खूब करें.

पार्टनर : छवि ने क्या खो दिया?

आवाज में वही मधुरता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. काम है, करना तो पड़ेगा, कोई लिहाज नहीं है. दुखी हो तो हो जाओ, किसे पड़ी है. बिजनैस देना है तो प्यार से बोलना पड़ेगा. छवि अब भी फोन पर बात करती तो उसी मिठास के साथ कि मानो कुछ हुआ ही नहीं. वैसे कुछ हुआ भी नहीं. बस, एक धुंधली तसवीर को डैस्क से ड्रौअर के नीचे वाले हिस्से में रखा ही तो है. अब उस की औफिस डैस्क पर केवल एक कंप्यूटर, एक पैनहोल्डर और उस के पसंदीदा गुलाबी कप में अलगअलग रंग के हाइलाइटर्स रखे थे. 2 हफ्ते पहले तक उस की डैस्क की शान थी ब्रांच मैनेजर मिस्टर दीपक से बैस्ट एंप्लौयी की ट्रौफी लेते हुए फोटो. कैसे बड़े भाई की तरह उस के सिर पर हाथ रख वे उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे.

आज उस ने फोटो को नीचे ड्रौअर में रख दिया. अब वह ड्रौअर के निचले हिस्से को बंद ही रखती. वह फोटो उस के लिए बहुत माने रखती थी. इस कंपनी में पिछले 6 महीने से छवि सभी एंप्लौयीज के लिए रोलमौडल थी और दीपक सर के लिए एक मिसाल. छवि ने घड़ी देखी, 5 बजने में अब भी 25 मिनट बाकी थे. अगर उस के पास कोई अदृश्य ताकत होती तो समय की इस बाधा को हाथ से पकड़ कर पूरा कर देती. समय चूंकि अपनी गति से धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, छवि ने अपने चेहरे पर हाथ रख, आंखों को ढक अपनी विवशता को कुछ कम किया.

अभी तो उसे लौगआउट करने से पहले रीजनल मैनेजर विनोद को दिनभर की रिपोर्टिंग करनी थी, यही सोच कर उस का मन रोने को कर रहा था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो कभी भी उन का फोन आ सकता है. औफिस का काम औफिस में ही खत्म हो जाए तो अच्छा है. घर तक ले जाने की न तो उस की ताकत थी और न ही मंशा. यह आखिरी काम खत्म कर छवि एक पंख के कबूतर की तरह अपनी कंपनी के वन बैडरूम फ्लैट में आ गई. फ्लैट की औफव्हाइट दीवारों ने उस का स्वागत उसी तरह किया जैसे उस ने किसी अनजान पड़ोसी को गुडमौर्निंग कहा हो. फ्लैट में कंपनी ने उसे बेसिक मगर ब्रैंडेड फर्नीचर मुहैया करवा रखे थे. कभी उसे लगता घर भी औफिस का ही एक हिस्सा है और वह कभी घर आती ही नहीं. सच भी तो है, पिछले 6 महीने में वह एक बार भी घर नहीं गई थी.

मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर उस का कसबा था, सराय अजीतमल. पर वहां दिलों की बहुत दूरी थी. पिता के देहांत के बाद मां ने पिता के एक दोस्त प्रोफैसर महेश से लिवइन रिलेशन बना लिए. अब छवि का घर, जहां वह 22 साल रही, 2 प्रेमियों का अड्डा बन गया जहां उस के पहुंचने से पहले ही उस के जाने के बारे में जानकारी ले ली जाती.

कभीकभी तो उसे अपनी मां पर आश्चर्य होता कि वह क्या उस के पिता के मरने का ही इंतजार कर रही थी. पिता पिछले 5 सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. इसी कारण छवि को बीच में पढ़ाई छोड़ जौब करनी पड़ी और महेश अंकल ने तो मदद की ही थी. यह बात और है कि उसे न चाहते हुए भी अब उन्हें पापा कहना पड़ता.

छवि ने अपनेआप को आईने में देखा और थोड़ा मुसकराई, वह सुंदर लग रही थी. औफिस में नौजवान एंप्लौयी चोरीछिपे उसे देखने का बहाना ढूंढ़ते और कुछेक अधेड़ बेशर्मी के साथ उस से कौफी पीने का अनुरोध करते. दीपक सर की चहेती होने से कोई सीधा हमला नहीं कर पाता. क्या फोन पर रिपोर्टिंग करते समय विनोद सर जान पाते होंगे कि यह एक पंख की कबूतर कौन्ट्रैक्ट की वजह से अब तक इस नौकरी को निभा रही है, हां…दीपक सर का अपनापन भी एक प्रमुख कारण था कि वह दूसरा जौब नहीं ढूंढ़ पाई. क्या पता उन्हें मालूम हो कि औफिस जाना उसे कितना गंदा लगता है. वह नीचे झुकी, ड्रैसिंग टेबल पर फाइवस्टार रिजोर्ट में 2 दिन और 3 रातों का पैकेज टिकट पड़ा था. मन किया उस के टुकड़ेटुकड़े कर फाड़ कर फेंक दे, पर उस ने केवल एक आह भरी और कमरे की दीवारों को देखने लगी. दीवारों की सफेदी ने उसे पिछले महीने गोवा में समंदर किनारे हुई क्लाइंट मीटिंग की याद दिला दी. मन कसैला हो गया. कैसे समुद्र का चिपचिपा नमकीन पानी बारबार कमर तक टकरा रहा था और 2 क्लाइंट उस से अगलबगल चिपके खड़े थे. उन दोनों की बांहों के किले में वह जकड़ी थी और विनोद सर से ‘चीज’ कह कर एक ग्रुप फोटो लेने में व्यस्त थे.

छवि एक बिन ताज की महारानी की तरह कंपनी और क्लाइंट के बीच होने वाली डील में पिस रही थी. एक लहर ने आ कर उसे गिरा दिया, वह सोचने लगी कि क्या वह सचमुच गिर गई थी. बस, विनोद सर बीचबीच में हौसला बढ़ाते रहते, ‘बिजनैस है, हंसना तो पड़ेगा.’ उन के शब्द याद आते ही उस का मन रोने का किया. उसे लगा इस कमरे की दीवारें सफेद लहरें हैं जो उस के मुंह पर उछलउछल कर गिर रही हैं. वह जमीन पर बैठ गईर् और घुटनों को सीने से लगा सुबकने लगी. अपनी कंपनी से एक कौन्ट्रैक्ट साइन कर उस ने 3 साल की सैलरी का 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही ले लिया था. सारा पैसा पिता की बीमारी में लग गया. छवि का मन रोने से हलका हो गया. थोड़ी राहत मिली तो उठ कर बैड पर बैठ गई. डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए सो गई.

सुबह 7 बजे सूरज की किरणें जब परदे को पार कर आंखों में चुभने लगीं तो वह हड़बड़ा कर उठी. वह ठीक 9 बजे औफिस पहुंच गई, उस के पास एक छोटा बैग था. दीपक सर उसे देख कर हलका सा मुसकराए. वह उन से भी छिपती हुई जल्दी से अपने कैबिन में आ कर बैठ गई. 1 घंटा प्रैजैंटेशन बनाने के बाद उसे बड़ी थकान लगने लगी, लगता था कल के रोने ने उस की बहुत ताकत खींच ली थी. तभी फोन बजा और उस का आलस टूटा. दूसरी लाइन पर दीपक सर थे, बोले, ‘‘तुम ने क्या सोचा?’’

ड्रौअर के नीचे के आखिरी खाने में कौन्ट्रैक्ट की कौपी और दीपक सर के साथ उस की फोटो थी. उस ने कौन्ट्रैक्ट को बिना देखे, फोटो को उठा अपने बैग में डाल लिया और बोली, ‘‘आप के साथ पार्टनरशिप,’’ और छवि ने फोन काट दिया. यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि एक सोचासमझा फैसला था. छवि ने ड्रौअर को ताला लगाया और चाबियों को झिझकते हुए, पर दृढ़ता से, पर्स में डाल दिया. 15 दिन लगे पर उसे अपने फैसले पर विश्वास था. फोटो को बैग से निकाल कर एक बार फिर देखा, थोड़ा धुंधला लग रहा था पर उस में अब भी चमक थी.

छवि की आंखों में हलका गीलापन था, कौन्ट्रैक्ट का पैसा दीपक सर की हैल्प से भर पा रही थी. अब वह कंपनी में कभी नहीं आएगी. वह अब आजाद थी. पर 2 दिन और 3 रातें दीपक सर के साथ रिजोर्ट में बिता कर वह उन्हीं के नए फ्लैट में रहेगी, एक पार्टनर बन कर.

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