पिछड़ी जातियों में अगड़े अहीर, यादव और कुर्मी अगर एकसाथ मिल कर चलें तो बड़ी राजनीतिक ताकत बन सकते हैं. जातिगत जनगणना का भी लाभ तभी मिलेगा जब पिछड़ी जातियां आपस में एकजुट होंगी. लेकिन इन की आपसी कलह इन के बीच सब से बड़ी रुकावट है जिस का फायदा सवर्ण उठा जाते हैं.
बचपन में सब ने एक कहानी सुनी होगी, जिस में एक किसान अपने बेटों को एकता का पाठ सिखाने के लिए उन को एकएक लकड़ी तोड़ने के लिए देता है. जिसे सब आसानी से तोड़ देते हैं लेकिन उन्हीं लकड़ी का गट्ठर बना कर जब तोड़ने को देता है तो कोई तोड़ नहीं पाता है.
एकता की यह कहानी पिछड़ी जातियों को भी सम?ानी चाहिए. एकता के अभाव में सब से बड़ी जनसंख्या होने के बाद भी वे अलगथलग पड़े हैं. ये आपस में लड़ कर ही खुश हो रहे हैं. केवल अगड़ी जातियां ही नहीं, दलित भी इन से अधिक संगठित हैं, जिस से उन का महत्त्व बना हुआ है. पिछड़ी जातियां आज भी अपनी जनगणना को ले कर संघर्ष कर रही हैं.
जनसंख्या के हिसाब से देखें तो पिछड़ी आबादी 60 प्रतिशत है. जो किसी भी तरह से हर जाति से ज्यादा है, ताकतवर होने के बाद भी पिछड़े एकजुट नहीं हैं. इस कारण अलगथलग पड़े हैं. पिछड़ी जातियों में यादव 19.4 प्रतिशत और कुर्मी 7.46 प्रतिशत हैं. इस के बाद दूसरी पिछड़ी जातियां आती हैं. बड़ी संख्या में होने के बाद भी पिछड़ी जातियां कोई अपना मजबूत जनाधार नहीं बना पाईं. इस की वजह आपस में एकता का न होना है.
इस के उलट, अगर हम अगड़ी जातियों को देखें तो वे अपनी जाति के अंदर उपजातियों में कोई नया वर्ग नहीं बनाते हैं. जैसे, ब्राह्मण वोटबैंक एकजुट हैं. वह वाजपेयी, शुक्ला, मिश्रा और तिवारी में बंटा हुआ नहीं है. इस से कम तादाद के बाद भी यह वोटबैंक अपना महत्त्व बनाए रखने में सफल होता है.
पिछड़ी आबादी के 2 प्रमुख वर्ग यादव और अहीर एक ही बिरादरी में आते हैं. इन का मूल काम पशुपालन था. कुर्मी खेती करने वाली बिरादरी रही है. आजादी के बाद कई सालों तक इस पिछड़े वर्ग को उन का हक नहीं दिया गया. 1989 में मंडल कमीशन लागू होने के बाद पिछड़ी जातियों के हिस्से कुछ अधिकार मिले. यहां भी बंदरबांट शुरू हो गई. इस के कारण पिछड़ा वर्ग कई जातियों सहित अति पिछड़ा वर्ग जैसे समूहों में बंट गया.
इस का परिणाम यह हुआ कि मंडल कमीशन का लाभ पिछड़े वर्ग को नहीं मिल सका. इन में 2 बड़ी जातियां यादव और कुर्मी आपस में लड़ गए. अति पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियां अलग छिटक गईं.
जातियों के अलगाव का परिवार तक असर
राजनीति में इन के लड़ने?ागड़ने का प्रभाव इन के घरों पर भी पड़ा. ये घरों में भी एकजुट नहीं हो पाए. उत्तर प्रदेश में इस के 2 उदाहरण मौजूद हैं. पहला यादव वर्ग से लेते हैं, जिस में समाजवादी पार्टी का मुलायम सिंह यादव परिवार आता है. मुलायम सिंह ने अपनी राजनीति पिछड़ा वर्ग और किसानों से जोड़ी थी. उन के राजनीतिक गुरु चौधरी चरण सिंह थे जो जाट बिरादरी से आते थे. मुलायम सिंह यादव कुर्मी और दूसरे पिछड़े वर्ग के नेताओं को ले कर चलते थे. बेनी प्रसाद वर्मा कुर्मी बिरादरी से थे, उन के सब से प्रमुख सहयोगी थे.
मुलायम ने केवल पिछड़ी जातियों को ही नहीं, दलितों की अगुआई करने वाली बसपा से भी तालमेल किया था. मुलायम ने दलित और पिछड़ी जातियों का समूह तैयार किया जिस के कारण ही वे 3 बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. 2012 में जब अखिलेश यादव ने सरकार बनाई तो वे पिछड़ी जातियों को एकजुट नहीं कर पाए. पहले जातियों में बिखराव हुआ, फिर उन के घर यानी मुलायम परिवार में बिखराव हुआ. मुलायम के भाई शिवपाल यादव ने अलग पार्टी बना ली. अखिलेश जाति और घर दोनों ही नहीं संभाल पाए.
दूसरा उदाहरण कुर्मी वर्ग से आता है. इस के बड़े नेता तो कई हुए पर एक पार्टी बना कर कुर्मियों को एकजुट करने का काम डाक्टर सोने लाल पटेल ने किया. उन की पार्टी अपना दल इस की सब से मजबूत कड़ी थी. यहां भी जैसे ही पार्टी की कमान दूसरी पीढ़ी के हाथ आई, पार्टी और परिवार दोनों ही बिखर गए. डाक्टर सोनेलाल पटेल की बेटी अनुप्रिया पटेल सब से पहले विधायक बनीं. इस के बाद वे भाजपा के गठबंधन से सांसद बनीं. केंद्र सरकार में मंत्री बन गईं. जाति और पार्टी संभालने का दावा करने वाली अनुप्रिया के साथ उन की मां कृष्णा पटेल का ?ागड़ा शुरू हो गया. ?ागड़ा बढ़ा तो अपना दल 2 हिस्सों में बंट गया.
कृष्णा पटेल और उन की दूसरी बेटी पल्लवी पटेल ने अपनी अलग पार्टी बनाई. उन का गठबंधन समाजवादी पार्टी के साथ हुआ और 2022 के विधानसभा चुनाव में पल्लवी पटेल सिराथू विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुनी गईं. यह अनुप्रिया पटेल और पल्लवी पटेल केवल कुर्मी नेता बन कर रह गईं. डाक्टर सोनेलाल पटेल पूरे पिछड़े समाज की बात करते थे. बिहार में नीतीश कुमार कुर्मी बिरादरी से आते हैं लेकिन वे कुर्मी नेता के रूप में जाने जाते हैं. उन को तमाम दूसरी जातियों का भी समर्थन हासिल है.
यही वजह है कि दूसरे अगड़ेपिछड़े सभी नेता उन के पीछे चलने को मजबूर हैं. नीतीश के समय के ही लालू प्रसाद यादव अपनी जाति के ही नेता बन कर रह गए. अब उन के बेटे तेजस्वी यादव भी उसी तरह से चल रहे हैं. परिणाम यह हुआ कि लालू परिवार में भी आपसी मतभेद उभर आए.
लाभ के लालच में हाशिए पर हिंदी बोली के 2 सब से बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव सब से बड़े नेता के रूप में उभरे. मंडल कमीशन लागू होने के बाद जो लाभ सभी पिछड़ी जातियों को मिलने वाला था, उस का एक बड़ा हिस्सा यादव और कुर्मी तक ही सीमित रह गया.
दूसरी पिछड़ी जातियों तक इस लाभ को पहुंचने नहीं दिया गया. ऐसे में पिछड़े वर्ग की दूसरी जातियों का लाभ भारतीय जनता पार्टी जैसे दलों ने उठाया. पिछड़े वर्ग यादव, कुर्मी और अति पिछड़ा जैसे कई टुकड़ों में बांट दिया गया. इस के बाद संख्या में ज्यादा होने के बाद भी पिछड़ा वर्ग पिछलग्गू ही बन कर रह गया है.
मंडल कमीशन लागू होने के बाद उस का सब से बड़ा लाभ यादवों के हिस्से में आया. पौराणिक ग्रंथों के हवाले से देखें तो राजा यदु का उल्लेख महाभारत, हरिवंश पुराणों जैसे विष्णु पुराण, भागवत पुराण और गरुड़ पुराण में मिलता है. इन ग्रंथों में राजा यदु को राजा ययाति और रानी देवयानी का सब से बड़ा पुत्र बताया गया है. कहा जाता है कि राजा यदु ने आदेश दिया था कि उन की आने वाली पीढि़यों को यादवों के नाम से जाना जाएगा. उन के वंश को यदुवंश के रूप में जाना जाएगा.
यदुवंशीय भीम सात्वत के वृष्णि आदि 4 पुत्र हुए व इन्हीं की कई पीढि़यों बाद राजा आहुक हुए, जिन के वंशज अभीर या अहीर कहलाए. इस से स्पष्ट होता है कि यादव व अभीर मूलतया एक ही वंश के क्षत्रिय थे. बाद के कालखंड में यादवों को पशुपालन से जोड़ा जाता था और इस कारण ये उस समय प्रचलित जातिव्यवस्था से बाहर थे.
यादव समाज के नेता और बुद्धिजीवी महाराजा यदु और गोपालक योद्धा कृष्ण के वंशज होने का दावा करते हैं. 19वीं शताब्दी के अंत में विट्ठल कृष्णजी सचिन खेडकर नाम के एक स्कूली शिक्षक हुए, जिन्होंने यादवों के इतिहास के बारे में दावा किया है कि यादव अहीर जनजाति के वंशज थे और आधुनिक यादव उसी समुदाय से हैं जिन्हें महाभारत और पुराणों में राजवंशों के रूप में जाना जाता है.
अंतिम अहीर राजवंश के वंशज राव बहादुर बलवीर सिंह के नेतृत्व में 1910 में अहीर यादव क्षत्रिय महासभा की स्थापना की गई थी. अहीर यादव क्षत्रिय महासभा ने दावा किया था कि महाराज यदु और भगवान कृष्ण के वंशज होने होने के नाते यादव वर्णव्यवस्था में क्षत्रिय हैं. यादव एक व्यापक शब्द है जिस में कई उपजातियां शामिल हैं जो विभिन्न प्रदेशों में अलगअलग नाम से जानी जाती हैं और जिन का सामान्य पारंपरिक कार्य चरवाहे, गोपालक और दुग्ध विक्रेता का था.
देशभर में हैं अलगअलग नाम
यादव अलगअलग नामों से पूरे देश में फैले हैं. चूंकि इन में एकता का अभाव है, सो, ये दूसरे लोगों की जानकारी नहीं रखते हैं. सोशल मीडिया से अब जागरूकता आ रही है. कर्नाटक में जब सिद्धारमैया मुख्यमंत्री बने तो लखनऊ के रहने वाले राकेश यादव ने सिद्धारमैया को यदुवंशी चरवाहा जाति का यादव लिखा.
यादव पंजाब और गुजरात में अहीर, गोवा और महाराष्ट्र में गवली, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में गल्ला, तमिलनाडु में कोनर, केरल में मनियार के नाम से जाने जाते हैं. यादवों का पारंपरिक पेशा चरवाहा, गोपालक और दुग्ध विक्रेता माना जाता है. बदलते दौर में आज यादव समुदाय के लोग शिक्षा, कला, प्रशासनिक सेवा, फिल्म और टैलीविजन, खेल, साहित्य, राजनीति, आदि में सक्रिय हैं और अपनी सफलता की कहानी लिख रहे हैं.
यादवों को भारत के राज्यों, जैसे बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा, ?ारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में अति पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी श्रेणी में शामिल किया गया है. इस के साथ ही साथ, नेपाल और मौरिशस में भी यादवों की आबादी है. पंजाब, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, ओडिशा, ?ारखंड, दिल्ली हिमाचल प्रदेश आदि में भी यादवों की ठीकठाक आबादी है.
प्रभावशाली रहे हैं यादव नेता
राजनीति में देश की आजादी के बाद यादव वर्ग कांग्रेस के साथ रहा. इस के बाद जयप्रकाश आंदोलन के बाद यादव नेता शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव समाजवादी आंदोलन से जुड़े और कांग्रेस हटाओ मुहिम में जुट गए. इस के बाद 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन लागू किया जिस के बाद आरक्षण का लाभ पिछड़ी जातियों को मिलना शुरू हुआ. इस के बाद यादव नेता शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरे. आज के दौर में केवल यादव नेता होने के कारण उत्तर प्रदेश और बिहार में सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और बिहार में तेजस्वी यादव अपनी जाति से बाहर निकल कर पिछड़ी जातियों का वैसा समूह बनाने में सफल नहीं हो रहे हैं जैसा मुलायम, लालू और शरद यादव ने बनाया था. पिछड़ा वर्ग के दूसरी जातियों के अलग होने से यादवों की ताकत घटी है. पिछड़ा वर्ग की दूसरी सब से बड़ी बिरादरी कुर्मी के साथ इन का संबंध अच्छा नहीं रहा है. जिस के कारण ताकतवर और प्रभावी होने के बाद भी ये कमजोर और अलगथलग पड़े हैं.
मेहनती और ईमानदार हैं कुर्मी
गांव में खेत की फसल को देख कर यह अनुमान लगाना आसान होता है कि यह खेत कुर्मी का है. उस के खेत की फसल अलग ही दिखती है. कुर्मी पूरे देश में अलगअलग जगहों पर अलगअलग पहचान के साथ रह रहे हैं. ?ारखंड और पश्चिम बंगाल में तो इन को दलित वर्ग में शामिल करने का आंदोलन भी चल रहा है. कुर्मी मूलरूप से किसान जाति है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी है. बदले दौर में यह शहरों में भी रहने लगे हैं. कुर्मी भी तमाम जातियों में बंटे हैं. इस के बाद भी ये यादव के मुकाबले कम कट्टर हैं.
कुर्मी बिरादरी में वर्मा, सचान, गंवार, कटियार, बैसवर, जैसवार, महतो, प्रसाद, सिन्हा, सिंह, प्रधान, बघेल, चौधरी, पाटीदार, कुनबी, कुमार, पाटिल, मोहंती, कनौजिया जैसी उपजातियां भी हैं. बंगाल प्रैसिडैंसी के समय में कुर्मियों और धनुकों जैसी समान जातियों को कृषि गुलामों या दासों के तौर पर खरीदा जाता था. 19वीं और 20वीं शताब्दी में कुर्मी जातियों ने सब से पहले ऊंची जाति के तौरतरीके अपनाने की शुरुआत की थी. कुर्मी शब्द कृषि-कर्मी से हुआ है. एक दूसरा वर्ग मानता है कि कुर्मी कोमी शब्द से बना है जिस का अर्थ है हल चलाने वाला.
इतिहास बताता है कि पश्चिमी बिहार में कुर्मियों ने सत्तारूढ़ उज्जैनिया राजपूतों के साथ गठबंधन किया था. 1712 में मुगलों के खिलाफ विद्रोह करने पर कुर्मी समुदाय के कई नेताओं ने उज्जैनिया राजा कुंवर धीर के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ाई लड़ी थी. उन के विद्रोह में शामिल होने वाले कुर्मी समुदाय के नेताओं में नीमा सीमा रावत और ढाका रावत शामिल थे.
18वीं शताब्दी में कुर्मियों को मुसलिमों द्वारा काफी सस्ते दाम पर जंगल को साफ कर के खेत बनाने का कार्य मिलता था. जैसे, आजादी के बाद पंजाब के रहने वालों को उत्तर प्रदेश और दूसरे हिस्सों में जमीन दी गई थी. जब जमीन में अच्छे से पैदावार होने लगती थी तब उस जमीन का किराया बढ़ा दिया जाता था. गांव की ऊंची जातियों को हल चलाना पसंद नहीं था. लिहाजा, कुर्मियों की आय बढ़ने लगी और उन में संपन्नता आती गई.
कई कुर्मी ऐसे भी हैं जो सरनेम का इस्तेमाल ही नहीं करते हैं. भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ?ारखंड, गोवा और कर्नाटक में इस समुदाय के लोग हैं. बिहार के अलावा छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कुर्मी समुदाय से आते हैं. कई राज्यों में कुर्मी वर्ग का आरक्षण स्टेटस ओबीसी है. वहीं, गुजरात में कुर्मी सामान्य वर्ग में आते हैं, जहां वे ओबीसी में आने की मांग कर रहे हैं. वहीं, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में कुर्मी को कुड़मी कहा जाता है और वे एसटी में शामिल होना चाहते हैं.
यूपी और बिहार की सिविल सेवाओं और मैडिकल कालेजों व विश्वविद्यालयों में कुर्मी समाज को बेहतर प्रतिनिधित्व मिला है. साथ ही बिहार, यूपी, ओडिशा, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में कुर्मी वर्ग की राजनीतिक मजबूती भी है. यहां की राजनीति में कुर्मी वर्ग के कई नेता रहे हैं, जिन में शिव पूजन सिंह, पूर्व सांसद और राज्यपाल सिद्धेश्वर प्रसाद, पूर्व मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह आदि शामिल हैं. रामस्वरूप वर्मा यूपी में चौधरी चरण सिंह की पहली सरकार (अप्रैल 1967) में वित्त मंत्री रहे. वहीं, सतीश प्रसाद सिंह
4 दिनों तक प्रदेश के सीएम रहे थे. उत्तर प्रदेश में सोनेलाल पटेल और अब उन की बेटियां केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल और सपा विधायक पल्लवी पटेल अहम नेताओं में से हैं.
उत्तर प्रदेश में कुर्मी समाज के लोग 6 फीसदी हैं, जो ओबीसी में 35 फीसदी के करीब हैं. इन की प्रदेश में 48 विधानसभा सीटें और 8 से 10 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिन पर कुर्मी समुदाय के मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं. यूपी में कुर्मी समाज का प्रभाव 25 जिलों में है, लेकिन 16 जिलों में 12 फीसदी से अधिक सियासी ताकत रखते हैं. पूर्वांचल से ले कर बुदेलखंड और अवध व रुहेलखंड में ये किसी भी दल का सियासी खेल बनाने या बिगाड़ने की स्थिति में हैं. इस समाज को एक बडी राजनीतिक ताकत के रूप में देखा जाता है.
कुर्मियों को पटेल, गंगवार, सचान, कटियार, निरंजन, चौधरी और वर्मा जैसे उपनाम से जाना जाता है. रुहेलखंड में कुर्मी गंगवार और वर्मा से पहचाने जाते हैं तो कानपुर-बुंदेलखंड क्षेत्र में कुर्मी, पटेल, कटियार, निरंजन और सचान कहलाते हैं. अवध और पश्चिमी यूपी के क्षेत्र में कुर्मी समाज के लोग वर्मा, चौधरी और पटेल नाम से जाने जाते हैं.
रामपूजन वर्मा, रामस्वरुप वर्मा, बरखू राम वर्मा, बेनी प्रसाद वर्मा, सोनेलाल पटेल, संतोष गंगवार, भगवत चरण गंगवार, ओमप्रकाश सिंह, पंकज चौधरी, राकेश सचान, मुकुट बिहारी वर्मा, लालजी वर्मा, राकेश वर्मा, आर पी सिंह, विनय कटियार, प्रेमलता कटियार, स्वतंत्रदेव सिंह, ज्योति निरंजन, आर के पटेल, बालकुमार पटेल, नरेश उत्तम पटेल, रामपूजन पटेल यूपी की राजनीति में कुर्मी समाज के दिग्गज नेता हैं.
यूपी में संत कबीर नगर, महाराजगंज, कुशीनगर, मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, प्रयागराज, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर, बस्ती और बाराबंकी, कानपुर, अकबरपुर, एटा, बरेली व लखीमपुर जिलों में इन की ज्यादा आबादी है. यहां की विधानसभा सीटों पर कुर्मी समुदाय जीतने की स्थिति में है या फिर किसी को जिताने की ताकत रखता है. इस तरह से देखें तो अगर कुर्मी व यादव आपस में मिल जाएं व दूसरी पिछड़ी जातियों को अपने साथ ले लें तो ये सत्ता के प्रमुख दावेदार होंगे.
आपस में नहीं करते शादियां
राजनीतिक रूप से अलग होने के कारण ये सामाजिक और पारिवारिक रूप से भी एकसाथ नहीं रहते हैं. पिछड़ा वर्ग में होने के बाद भी ये आपस में शादी नहीं करते हैं. अगर कोई लड़कालड़की शादी कर भी ले तो उस को जातीय समाज स्वीकार नहीं करता है. यादव और कुर्मी दोनों ही अपनीअपनी जाति के सामूहिक विवाह कराते हैं. अगर कुर्मी यादव से शादी कराना चाहे तो उतनी ही दिक्कत है जितनी अगड़ी और पिछड़ी जाति में होती है.
यादव या कुर्मी अगड़ी जाति में शादी करे तो एक बार स्वीकार हो सकती है. जैसे, अखिलेश यादव की पत्नी पहाड़ी ठाकुर हैं. मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता थीं. कुर्मी, यादव के उदाहरण नहीं मिलते. अगर इन की शादी होती है तो इस को छिपाया भी जाता है.
बिहार के बेतिया में कुर्मी जाति की लड़की कृति ने नितेश यादव के साथ शादी की. यह बात कृति के घर वालों को सहन नहीं हुई. वे नितेश को धमकी देने लगे. पुलिस के हस्तक्षेप के बाद मामला सुल?ा. मधुबनी जिले के मनोज यादव ने कुर्मी जाति की रूबी कुमारी के साथ शादी की तो यहां भी मामला तभी सुल?ा जब पुलिस और कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. समाजवादी आंदोलन की शुरुआत जाति छोड़ो अभियान से हुई थी. उस दौर में इंटरकास्ट मैरिज का चलन बढ़ा था. राजनीतिक ताकत भी बढ़ी थी.
मंडल कमीशन के बाद पिछड़ी जातियों में एकदूसरे के बीच श्रेष्ठता का भाव आया, जिस से राजनीतिक ताकत घटी और जातीयता बढ़ी, जिस का प्रभाव घरघर तक पड़ा. यादव और कुर्मी दोनों ही बिरादरियों में कमजोर वर्ग के लड़केलड़कियों के लिए बड़े पैमाने पर सामूहिक विवाह का आयोजन करना पड़ रहा है.
राजनीति का हमारे घर तक असर होता है. जो लोग जातीय रूप से कट्टर होते जाते हैं वे अपने घर में भी कट्टरता करते हैं जिस से लड़केलड़कियों को गैरबिरादरी में शादी की आजादी नहीं है. कई बार अच्छे रिश्तों के लिए कम उम्र में शादियां कर दी जाती हैं. पढ़ीलिखी और थोड़ी बड़ी लड़की के लिए योग्य लड़का अपनी जाति में मिलना कठिन हो जाता है.