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‘‘हिंदी रंगमंच की बदौलत भोजन करना संभव नहीं’’- नरोत्तम बेन

इन दिनों एमेजौन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही वैब सीरीज ‘जुबिली’ में मकसूद के किरदार में शोहरत बटोर रहे अभिनेता नरोत्तम बेन के लिए इस मुकाम तक पहुंचना आसान नहीं रहा. जबलपुर में 13 वर्ष तक थिएटर करने के बाद 2004 से मुंबई में थिएटर और फिल्मों से जुड़ कर वे काफी अच्छा काम करते आए हैं. उन्होंने कई सीरियल किए. ‘चलो दिल्ली’, लूटकेस’, ‘आखेट’, ‘मिमी’ सहित कई फिल्में कीं. अब वैब सीरीज ‘जुबली’ ने उन्हें अचानक एक अलग पहचान दिला दी है पर वे आज भी रंगमंच व लोक गायकी से जुड़े हुए हैं. वे 2 फिल्में व एक अन्य वैब सीरीज भी कर रहे हैं.

एक बातचीत में नरोत्तम बताते हैं कि कैसे कला के प्रति उन की रुचि जागृत हुई. वे कहते हैं, ‘‘मैं मूलतया जबलपुर का रहने वाला हूं. मेरे घर में या ननिहाल पक्ष में भी कला का कोई माहौल नहीं रहा पर जब मैं बचपन में थोड़ा सम?ादार हुआ, तभी से अभिनय करने लगा था. फिल्म पत्रिकाएं पढ़ते हुए मु?ो लगने लगा था कि अब तो मु?ो अभिनेता ही बनना है. फिर मेरे भाई के दोस्त मु?ा से मिमिक्री करवाते थे. भले ही वह ऐसा मेरा मजाक उड़ाने के लिए करते रहे हों, मगर इस तरह से मेरी ट्रेनिंग चल रही थी. फिर मैं जबलपुर में ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ गया. वहां पर थिएटर के जो वर्कशौप हुआ करते, उन का हिस्सा बन कर अभिनय सीखता रहा. उस के बाद मैं ने एनएसडी, दिल्ली से भी 45 दिन का अभिनय का वर्कशौप किया.

‘‘मैं बुंदेलखंडी भाषा में फोक गीत भी गाता हूं. मगर मेरी संगीत की कोई ट्रेनिंग नहीं है. बस, यों ही गातेगाते मेरा गला खुल गया. मैं ज्यादातर फोक ही गाता हूं, जिसे लोग काफी पसंद करते हैं. मेरा एक अलबम है- ‘चिलम तंबाकू डब्ब फांके’ जो काफी लोकप्रिय है. कई लोगों ने मेरे इस गीत की पायरेसी वीडियो बना कर यूट्यूब पर डाल रखे हैं. मतलब मेरी आवाज व मेरे वीडियो को ले कर लोगों ने अपनेअपने वीडियो बना कर डाले हैं. यह अलबम पूरे विश्व में बसे भारतीयों तक पहुंच चुका है पर अभिनय की ट्रेनिंग जबलपुर में रहते हुए ही हुई है.’’

मुंबई आने की जर्नी को ले कर वे कहते हैं, ‘‘मैं मुंबई 2004 में फिल्मों में अभिनय करने का सपना ले कर पहुंचा था. मु?ो हीरो नहीं, अभिनेता बनना था. ईमानदारी से कहूं तो मैं छोटी उम्र में ही मुंबई आना चाहता था पर मैं घर से भाग कर नहीं आना चाहता था पर सही दिशा नहीं मिल रही थी. सिर्फ यह सम?ा में आया कि थिएटर से जुड़ने के बाद फिल्मों से जुड़ना आसान हो जाएगा. इसी कारण मैं ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ा था. इरादा तो सिर्फ एक साल का था पर फिर कुछ हालात ऐसे रहे कि 13 साल तक वहीं रह गया.

‘‘मेरी सोच यह थी कि नाटक करते हुए कोई न कोई निर्देशक मु?ो देखेगा और मु?ो मुंबई ले जाएगा. मैं 13 साल सुबह से शाम तक सिर्फ नाटक ही करता रहा. ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ने के बाद मु?ो एहसास हुआ कि मैं गा भी सकता हूं. मैं लिख भी सकता हूं. इसी के साथ सम?ा आई कि हर चीज की विधिवत ट्रेनिंग भी जरूरी है. 13 सालों में मु?ो बहुतकुछ मिला और मैं ने भी बहुतकुछ दिया. फिर 2004 में ?ाला ले कर संघर्ष करने के लिए मुंबई पहुंच गया.’’

बातचीत में नरोत्तम अपने लोकप्रिय नाटकों के बारे में बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा बहुचर्चित नाटक ‘निठल्ले की डायरी’ है जोकि हरिशंकर परसाई के एक उपन्यास पर आधारित है. इस के 100 से अधिक शो हुए. मैं निठल्ला बनता था. यह नाटक अभी भी चल रहा है पर अब निठल्ला का किरदार दूसरा कलाकार कर रहा है. दूसरा चर्चित नाटक रहा- ‘भोले भेडि़या’ यानी कि हबीबजी जिसे चरणदास चोर कहते हैं पर हम ने इसे बुंदेली में किया था और मैं इस में भेडि़या का किरदार निभाता था.

‘‘इस के अलावा ज्ञान रंजन की एक कहानी ‘फैंके इधर उधर’ पर एक नाटक किया. वह भी काफी लोकप्रिय हुआ. इस के अलावा मुंबई आने के बाद भी मैं रंगमंच से जुड़ा रहा. मुंबई के चर्चित नाटकों में ‘इलहाम’ व ‘ऐसा कहते हैं’ के सर्वाधिक शो हुए. इन 2 नाटकों ने मुंबई रंगमंच पर मु?ो अच्छी पहचान दी.’’

अपनी दिलचस्पी को ले कर वे आगे कहते हैं, ‘‘मैं तो थिएटर करना ही नहीं चाहता था. मुंबई पहुंचने के बाद मैं सुबह से शाम तक भटकता हुआ औडिशन दिया करता था. मानव कौल अपना पहला म्यूजिकल प्ले पृथ्वी थिएटर पर करने वाले थे. इस से पहले मानव कौल ने म्यूजिकल नाटक नहीं किए थे. मेरा एक दोस्त उन के साथ काम कर रहा था. उस दोस्त के मारफत मानव कौल ने मु?ो मिलने के लिए बुलाया. मानव कौल से लंबी बातचीत हुई. अभिनय व संगीत पर भी चर्चा हुई. जब मैं उन से विदा लेने लगा तो उन्होंने पूरे अधिकार के साथ मु?ो नाटक की पटकथा देते हुए कहा कि इसे पढ़ लो, इस में आप को अभिनय करना है. मैं ने मना करते हुए कहा कि मु?ो केवल फिल्मों में अभिनय करना है. मानव कौल ने कहा, ‘आप इसे पढ़ें और सोचें, सबकुछ हो जाएगा. मु?ो विश्वास है कि आप कर लेंगे.’

‘‘उस नाटक ने मु?ो पृथ्वी थिएटर की तरफ खींचा. उस नाटक का नाम, ‘ऐसा कहते हैं’ था. उस नाटक का मेरा किरदार पहले शो में ही हिट हो गया. उन दिनों एचबीओ चैनल हुआ करता था. यूके की टीम एक सीरियल बना रही थी- ‘मुंबई कालिंग’, वह टीम भी हमारा यह नाटक देखने आई थी. नाटक का शो खत्म होने के बाद उस टीम के लोगों ने मु?ो एचबीओ के सीरियल ‘मुंबई कालिंग’ में अभिनय करने का अवसर दे दिया. उस के बाद मु?ो पहला चर्चित सीरियल मिला ‘तेरे मेरे सपने’. फिर उस के बाद मु?ो विनय पाठक की फिल्म ‘चलो दिल्ली’ में अभिनय करने का अवसर मिला.

‘‘इस फिल्म से मु?ो काफी फायदा मिला. बड़ी प्यारी सी कहानी है. उस से पहले जो मैं डेढ़ साल तक ?ाला लटका कर भटकते हुए औडिशन दे रहा था उस से कुछ नहीं मिला तो सम?ा में आया कि फिल्म करने के लिए साथ में थिएटर भी करते रहना चाहिए तो मेरी अभिनय की तैयारी से किसी को कोई लेनादेना नहीं था. लोगों ने थिएटर में मेरा काम देखा और मु?ा पर भरोसा किया. इस के बाद मैं ने ‘एमटीवी रिऐलिटी’, ‘लूटकेस’, ‘मिमी’ जैसी फिल्में की हैं.’’

फिल्म ‘आखेट’ पर विस्तार से वे यों बताते हैं, ‘‘रवि बुले निर्देशित यह फिल्म मानवीय संवेदनाओं की जांचपड़ताल करने के साथ ही टाइगर बचाओ, जंगल बचाओ की बात करने वाली है. इस में पहले दृश्य से अंतिम दृश्य तक मैं छाया हुआ हूं. इस में मैं ने मुर्शीद मियां का किरदार निभाया था जो कि जंगल की सैर व शिकार करने वालों का गाइड है. फिल्म की कहानी बहुत मार्मिक है. यह फिल्म मेरे दिल के करीब है. यह मानवीय संवेदना, जीवन कैसे चल रहा है, की कहानी है. यह फिल्म ?ाक?ार कर रख देती है.’’

नरोत्तम बेन एमेजौन प्राइम पर रिलीज सीरियल ‘जुबली’ में अपने अभिनय के अनुभव के बारे में कहते हैं, ‘‘जी हां, औडिशन दे कर ही इस वैब सीरीज से जुड़ा. मैं इस में मेकअपमैन मकसूद के किरदार में नजर आ रहा हूं. इस के निर्देशक विक्रमादित्य मोटावणे के साथ काम करने की मेरी दिली इच्छा भी पूरी हुई.’’

‘जुबली’ में निभाए अपने किरदार के बारे में वे बताते हैं, ‘‘मैं इस में मकसूद के किरदार में नजर आ रहा हूं जो कि लखनऊ से मुंबई आता है. उसे जमशेद भाई अपने साथ लखनऊ से ले कर आते हैं. वह उन का निजी मेकअपमैन के अलावा बहुतकुछ है.’’

रंगमंच में आ रहे बदलाव को ले कर वे कहते हैं, ‘‘अब प्रयोग वाला मसला ज्यादा होने लगा है. इस के अलावा हिंदी रंगमंच को कई मौलिक नाटक मिल गए हैं. 90 के दशक में नए नाटकों के नाम कम सुनाई देते थे. अब हिंदी रंगमंच पर कई नएनए लेखक आ गए हैं. वे बहुत अच्छे नाटक लिख रहे हैं जिन्हें दर्शक पसंद भी कर रहे हैं. इस दौर में हिंदी रंगमंच पर मौलिक कहानियों व पटकथा पर काफी काम हुआ है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘मैं मुंबई और जबलपुर के थिएटर की तुलना करूं तो जबलपुर में भी नाट्य गृह 900 लोगों के बैठने के लिए हैं और सभी हमेशा हाउसफुल रहते हैं. मगर हिंदी रंगमंच की बदौलत भोजन करना संभव नहीं है. पहले लगता था कि छोटे शहरों में थिएटर करना मुश्किल है पर फिर सम?ा में आया कि मुंबई में थिएटर करना ज्यादा मुश्किल है. यहां रिहर्सल के लिए किराए पर जगह लेना भी काफी खर्चीला होता है. हिंदी रंगमंच को अनुदान नहीं मिलता. मैं ने सुना है कि गुजराती और मराठी में थिएटर कर के लोगों के घर आराम से चल जाते हैं.’’

मानव स्वास्थ्य पर रेडिएशन के दुष्प्रभाव

रूस और यूक्रेन के युद्ध में जो बड़ा खतरा दुनिया को लग रहा है वह  सोवियत युग के बने चैरनोबिल में न्यूक्लियर रिएक्टर से निकलने वाले रेडिएशन से है. आज 40 वर्षों बाद भी ऐक्सिडैंट के बाद उस रिएक्टर को ठंडा किया जा रहा है जबकि चैरनोबिल के आसपास का इलाका अब रेडियोधर्मी यानी रेडिएशन अफेक्टेड माना जाता है. युद्ध इस रिएक्टर के आसपास भी हो रहा है.

दिल्ली में वर्षों पहले मायापुरी स्थित स्क्रैप मार्केट के रेडियोधर्मी कबाड़ से रेडिएशन (विकिरण) से प्रभावित होने की घटना ने न केवल जनसाधारण को अचंभित कर दिया बल्कि सरकार को भी इस से बचने के लिए कड़े उपाय अपनाने की दिशा में विवश कर दिया था. कहीं न कहीं चूक हुई और वर्षों से प्रयोगशाला में अनुप्रयुक्त कोबाल्ट-60 युक्त रेडियोधर्मी उपकरण स्क्रैप (कबाड़) व्यापारी के यहां पहुंच गया.

कबाड़ गलाने की प्रक्रिया में 3-4 लोग रेडिएशन से गंभीर रूप से प्रभावित हुए जिस में एक की मृत्यु हो गई और अन्य को सघन उपचार के उपरांत बचाया जा सका था. उस के बाद देश में इस तरह की कोई गंभीर घटना नहीं हुई या फिर प्रकाश में नहीं आई.

रेडिएशन उच्च ऊर्जायुक्त रेज या अल्फा, बीटा या न्यूट्रौंस, रेडौन और प्लूटोनियम नामक रेडियोएक्टिव पदार्थों से उत्पन्न होता है. यह 75 उपयोगी स्रोतों से भी उत्पन्न होता है जैसे कि एक्सरे और रेडियोथेरैपी मशीनें आदि.

रेडिएशन की मात्रा की माप विभिन्न इकाइयों में की जाती है जो एकत्रित ऊर्जा की मात्रा से संबंद्ध होती है. ये इकाइयां हैं- रेंटजन (आर), ग्रे और सीबर्ट (एसयू). सीबर्ट जिंदा लोगों पर विभिन्न प्रकार के रेडिएशन के प्रभावों से संबद्ध है.

रेडिएशन का असर मुख्यतया 2 प्रकार का होता है. ईरेडिएशन और कंटैमिनेशन. रेडिएशन की अधिकांश घटनाओं में इन दोनों का प्रभाव होता है.

रेडिएशन वैक्स शरीर के बाहर से सीधे शरीर को प्रभावित करती है. इस से व्यक्ति तुरंत बीमार हो सकता है जिसे तीव्र रेडिएशन बीमारी कही जाती है. इस के अतिरिक्त, उच्च मात्रा में रेडिएशन की स्थिति में व्यक्ति का डीएनए नष्ट हो सकता है जिस के परिणामस्वरूप कैंसर और जन्मजात दोष जैसी गंभीर स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं.

जो रेडियोधर्मी मैटीरियल त्वचा पर जमा हो सकता है उस से अन्य लोग प्रभावित हो सकते हैं. यह सामग्री फेफड़ों डाइजैस्टिव सिस्टम के माध्यम से अथवा त्वचा फटने के परिणामस्वरूप बोनमैरो जैसे शरीर के विभिन्न हिस्सों में पहुंच जाती है और लगातार रेडिएशन की स्थिति बनी रहती है. ऐसी स्थिति में कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी उत्पन्न हो सकती है.

वैसे, हम बहुत कम स्तर के नैचुरल रेडिएशन से लगातार प्रभावित होते ही रहते हैं. यह रेडिएशन बाह्य अंतरिक्ष से आता है जिसे कौसमिक रेडिएशन कहा जाता है, जिस का बहुत बड़ा हिस्सा पृथ्वी के वायुमंडल द्वारा रोक दिया जाता है. अत्यधिक ऊंचाई पर रहने वाले लोग कौसमिक रेडिएशन से ज्यादा प्रभावित होते हैं.

लोग मानवनिर्मित स्रोतों से ज्यादा रेडिएशन से प्रभावित होते हैं, जैसे कि- आण्विक हथियारों के परीक्षण स्थल तथा विभिन्न मैडिकल परीक्षणों एवं चिकित्सा से.

एक व्यक्ति प्रतिवर्ष प्राकृतिक रेडिएशन और मानव निर्मित स्रोतों से औसतन लगभग 3 से 4 एमएसवी मात्रा में रेडिएशन से प्रभावित होता है. रेडियोधर्मी मैटीरियल्स (द्रव्य) और एक्सरे स्रोतों से संबद्ध क्षेत्रों में कार्य करने वाले लोगों को उच्च स्तर के रेडिएशन की चपेट में आने का बहुत अधिक खतरा होता है.

बढ़ती आबादी की ऊर्जा जरूरतों के मद्देनजर आज न्यूक्लियर रिएक्टर बिजली बनाने के संयंत्र बनाए गए हैं. वैज्ञानिकों की पूरी कोशिश रहती है कि इन संयंत्रों से रेडिएशन न निकले. फिर भी वर्ष 1979 में पेंसिलवेनिया स्थित थ्री माइल आइलैंड संयंत्र और वर्ष 1986 में यूक्रेन स्थित चैरनोबिल संयंत्र में रेडिएशन की दुर्घटनाएं हुईं. प्रथम संयंत्र में विशेष नुकसान नहीं हुआ परंतु चैरनोबिल संयंत्र के आसपास लगभग 30 मौतें प्रकाश में आईं और बड़ी संख्या में लोग घायल हुए. अब फिर यह चर्चा में है.

आण्विक हथियार बड़ी मात्रा में रेडिएशन का उत्सर्जन करते हैं. विश्व में वर्ष 1945 के बाद ऐसे हथियारों का प्रयोग नहीं किया गया है. हालांकि आज विश्व के अनेक देश ऐसे हथियारों से लैस हैं और यहां तक कि कई आतंकवादी संगठन भी ऐसे हथियारों को प्राप्त करने अथवा इस के निर्माण संबंधी जानकारी जुटाने की दिशा में प्रयासरत हैं.

रेडिएशन का प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि शरीर का कितना हिस्सा इस से प्रभावित होता है. उदाहरण के लिए 6 ग्रे से अधिक यूनिट के रेडिएशन से यदि शरीर का संपूर्ण हिस्सा प्रभावित हो तो मृत्यु निश्चित होती है. हालांकि कैंसर के इलाज में रेडिएशन के कैंसरग्रस्त भाग में इस की 3 या 4 गुना अधिक मात्रा में रेडिएशन से शरीर के शेष अन्य हिस्सों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता.

शरीर के कुछ हिस्से रेडिएशन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं. आंत और बोनमैरो जैसे जिन अंगों में कोशिकाओं का गुणन धीमी प्रक्रिया में होता है वहां रेडिएशन का दुष्प्रभाव कम पड़ता है. रेडिएशन की चपेट में आने पर मुख्यतया 2 प्रकार के लक्षण उभरते हैं- तात्कालिक और क्रौनिक.

क्रौनिक स्थिति सामान्यतया शरीर के संपूर्ण भाग पर रेडिएशन प्रभावित होने पर उत्पन्न होती है. यह बीमारी अनेक अवस्थाओं में होते हुए बढ़ती है. शुरुआत में लक्षण उभरते हैं, बाद में लक्षणरहित अवस्था हो जाती है. यह ब्लड सैल्स के प्रमुख उत्पादन स्थलों, बोनमैरो, प्लीहा और लिम्फ नोड, के रेडिएशन से प्रभावित होने से उत्पन्न होता है. इस के अंतर्गत 2 ग्रे से अधिक मात्रा में रेडिएशन से प्रभावित होने के 2 से 12 घंटों के भीतर एनोरेक्सिया (भूख नहीं लगना), आलस, मतली और उलटी होने जैसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं. लगभग 24 से 36 घंटों के भीतर ये लक्षण दूर हो जाते हैं और व्यक्ति एक हफ्ते या इस से अधिक अवधि तक बेहतर अनुभव करता है.

इस अवधि के दौरान बोनमैरो, प्लीहा और लिम्फ नोड की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं. श्वेत रुधिर कोशिकाओं की संख्या अत्यधिक घट जाती है जिस के बाद प्लेटलेट्स और लाल रक्त कोशिकाओं (आरबीसीएस) की संख्या भी घट जाती है. प्लेटलेट्स की कमी से अनियंत्रित रक्तस्राव (ब्लीडिंग) होने लगता है और रैड ब्लड सैंपल की कमी से एनीमिया की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिस से थकान, कमजोरी, शरीर पीला पड़ने और मामूली कार्य करने पर भी सांस फूलने जैसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं.

डाइजैस्टिव सिस्टम की भीतरी कोशिकाओं के रेडिएशन से प्रभावित होने पर 2 से 12 घंटों के भीतर मतली, उलटी होने और अतिसार (डायरिया) जैसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं. इस के परिणामस्वरूप गंभीर डीहाइड्रेशन की स्थिति हो जाती है परंतु 2 दिनों के भीतर स्थिति में सुधार आ जाता है. बाद में सेल्स क्षतिग्रस्त होने लगते हैं. परिणामस्वरूप बहुधा ब्लीडिंग के साथ गंभीर डायरिया की स्थिति उत्पन्न होने के पश्चात गंभीर डीहाइड्रेशन हो जाता है.

कैंसर के लिए रेडिएशन उपचार

कैंसर के लिए रेडिएशन उपचार मुख्यतया 2 विधियों से किया जाता है- भीतरी और बाहरी. भीतरी विधि से उपचार में कैंसर में रेडियोएक्टिव मैटीरियल की एक छोटी गोली सीधे आरोपित की जाती है. बाहरी विधि से उपचार में व्यक्ति के शरीर के माध्यम से कैंसर स्थल को रेडिएशन के एक पुंज से प्रभावित किया जाता है.

बाहरी विधि द्वारा उपचार के दौरान मतली, उलटी होने, भूख नहीं लगने जैसी स्थितियों का अनुभव होता है. शरीर के एक हिस्से पर बड़ी मात्रा में रेडिएशन के प्रभाव में त्वचा क्षतिग्रस्त हो सकती है जिस के परिणामस्वरूप बाल ?ाड़ने, शरीर लाल पड़ने, त्वचा की बाहरी परत ?ाड़ने, घाव होने और त्वचा के नीचे रक्त वाहिकाओं के नष्ट होने जैसी गंभीर स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं.

रेडियोधर्मी संदूषण

रेडियोधर्मी संदूषण का पता लगाने के लिए प्रभावित व्यक्ति की नाक, गले और घाव से प्राप्त स्वैब नमूनों की जांच की जाती है. संदूषण की स्थिति में रेडियोधर्मी सामग्री को तत्काल बाहर निकालना आवश्यक होता है जिस से वह शरीर के अन्य हिस्सों में न फैल सके. प्रभावित त्वचा को साबुन और बड़ी मात्रा में पानी से धोना चाहिए. घाव की स्थिति में उस स्थान की अत्यधिक सफाई की जानी चाहिए. संदूषित बालों को तत्काल काट दिया जाना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति रेडियोधर्मी सामग्री निगल गया हो तो उसे उलटी कराई जानी चाहिए. विशेषज्ञ चिकित्सक से तत्काल संपर्क करना चाहिए जिस से विशिष्ट एंटीडौट्स दिया जा सके.

डाइजैस्टिव सिस्टम और रक्तसंलायी संलक्षणों सहित व्यक्तियों को अलग रखना चाहिए जिस से वे माइक्रोबैक्ट्रीरिया से संक्रमित न हो सकें. संलक्षण सहित व्यक्तियों को अंत:शिरा विधि से तरल (फ्लूड्स) देने की आवश्यकता होती है.

आवश्यकतानुसार एंटीबायोटिक, एंटीवाइकल और एंटीफंगल दवाइयां भी दी जाती हैं. मस्तिष्क संलक्षण की स्थिति में दर्द, व्याकुलता और सांस लेने में कठिनाई जैसी स्थितियों से बचने हेतु दवाइयां दी जानी चाहिए जिस से व्यक्ति को दौरा पड़ने और पैरालिसिस होने से बचाया जा सके.

रेडिएशन से प्रभावित होना अत्यंत खतरनाक होता है परंतु तरहतरह की बीमारियों की जांच में एक्सरे के प्रयोग अथवा कैंसर के उपचार में रेडियोथेरैपी जैसी विधियों से भयभीत अथवा आशंकित होने की जरूरत नहीं, क्योंकि ये सारी विधियां कुशल तकनीशियनों और विशेषज्ञ चिकित्सकों की देखरेख में अपनाई जाती हैं. रेडिएशन से प्रभावित होने की स्थिति में विशेषज्ञ चिकित्सक से तत्काल संपर्क किया जाना चाहिए और उन की सलाह पर ही दवाइयों का सेवन किया जाना चाहिए. स्वउपचार जानलेवा साबित हो सकता है.

एक रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए क्या जरूरी है?

सवाल

प्यार होने के बाद भी एक रिश्ता खत्म क्यों हो जाता है. मैं बहुत कन्फ्यूज हूं. उम्र 26 साल है. मैं ने अपने फ्रैंड्स को देखा है कि उन की रिलेशनशिप में शुरू में तो बहुत प्यार था लेकिन प्यार होने के बावजूद उन्होंने अपने रिश्ते को खत्म कर दिया या फिर शादी कहीं और कर ली. यह सब देख कर न तो मेरा किसी लड़की से दिल लगाने का मन करता है न ही शादी पर मेरा विश्वास रहा है. सम नहीं पा रहा हूं कि क्या किया जाए?

जवाब

आप परेशान हैं क्योंकि सब यही कहते हैं कि रिश्ते में सब से अहम चीज प्यार होती है लेकिन ब्रदरप्यार के अलावा भी एक रिश्ते में बहुतकुछ होना जरूरी है. देखिएप्यार एक चीज है. दो लोगों में हो जाता है लेकिन जब बात शादी की आती है तो आज लड़कीलड़काहर कोई चाहता है कि दोनों कमाएं और मिल कर घर चलाएं. लड़की न भी कमाए लेकिन लड़के का कमाना जरूरी माना जाता है. अगर वह इतना सक्षम नहीं है कि फाइनैंशियल अकेला घर चला पाए तो एक बड़ा कारण होता है कि प्यार होने के बाद भीप्यार करने वाले शादी नहीं कर पाते और उन का रिश्ता खत्म हो जाता है.

बहुत से प्यार करने वाले ऐसे हैं जो चाहते हैं कि उन के प्यार को परिवार की स्वीकृति मिले. बिना परिवार को साथ लिए वे अपने प्यार को आगे नहीं बढ़ाते और उन का रिश्ता प्यार के बावजूद अधूरा रह जाता है.

कई बार प्यार में लड़ाई शुरू हो जाती है और रिश्ता वहीं खत्म हो जाता है. प्यार में विश्वास जरूरी होता है लेकिन कई बार गलतफहमियां इतनी बढ़ जाती हैं कि रिश्ता पीछे छूट जाता है.

प्यार में बहुत बार पार्टनर में आया बदलाव रिलेशनशिप खत्म कर देता है.

अब आप सम गए होंगे कि आप के फ्रैंड्स लोगों की रिलेशनशिप क्यों टूटी होगी. आप इन सब बातों का ध्यान रखेंगे तो आप अपनी रिलेशनशिप को मजबूत बना सकते हैं. ज्यादा परेशान मत होइए. प्यार से विश्वास मत उठाइए. रिलेशनशिप को अपने प्यारविश्वास और समदारी से चलाइए.

Raksha Bandhan: अनमोल रिश्ता- रंजना को संजय से क्या दिक्कत थी?

फेसबुक पर फाइंड फ्रैंड में नाम डालडाल कर कई बार सर्च किया, लेकिन संजय का कोई पता न चला. ‘पता नहीं फेसबुक पर उस का अकाउंट है भी कि नहीं,’ यह सोच कर मैं ने लौगआउट किया ही था कि स्मार्टफोन पर व्हाट्सऐप की मैसेज ट्यून सुनाई दी. फोन की स्क्रीन पर देखा तो जानापहचाना चेहरा लगा. डबल क्लिक कर फोटो को बड़ा किया तो चेहरा देख दंग रह गई. फिर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. ‘बिलकुल वैसा ही लगता है संजय जैसा पहले था.’

मैं अपने मातापिता की एकलौती संतान थी और 12वीं में पढ़ती थी. पिताजी रेलवे में टीटीई के पद पर कार्यरत थे. इस कारण अकसर बाहर ही रहते. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण हम ने डिसाइड किया कि घर का एक कमरा किराए पर दे दिया जाए. बहुत सोचविचार कर पापा ने 2 स्टूडैंट्स जो ग्रैजुएशन करने के बाद आईएएस की तैयारी करने केरल से दिल्ली आए हुए थे, को कमरा किराए पर दे दिया. जब वे हमारे यहां रहने आए तो आपसी परिचय के बाद उन्होंने मुझे कहा, ‘पढ़ाई के सिलसिले में कभी जरूरत हो तो कहिएगा.’

उन में से एक, जिस का नाम संजय था अकसर मुझ से बातचीत करने को उत्सुक रहता. कभी 10वीं की एनसीईआरटी की किताब मांगता तो कभी मेरे कोर्स की. मुझे उस का इस तरह किताबें मांगना बात करने का बहाना लगता. एक दिन जब वह किताब मांगने आया तो मैं ने उसे बुरी तरह डांट दिया, ‘क्या करोगे 10वीं की किताब का. मुझे सब पता है, यह सब बहाने हैं लड़कियों से बात करने के. मुझ से मेलजोल बढ़ाने की कोशिश न करो. आगे से मत आना किताब मांगने.’ उस ने अपने पक्ष में बहुत दलीलें दीं लेकिन मैं ने नकारते हुए सब खारिज कर दीं. उस दिन मुझे स्कूल से ही अपनी फ्रैंड के घर जाना था. मैं मम्मी को बता भी गई थी, लेकिन जब घर आई तो जैसे सभी मुझे शक की निगाह से देखने लगे.

बस्ता रखा ही था कि मम्मी पूछने लगीं, ‘आज तुम रमेश के साथ क्या कर रही थीं?’

‘रमेश,’ मैं समझ गई कि यह आग संजय की लगाई हुई है. मैं ने जैसेतैसे मम्मी को समझाया, लेकिन संजय से बदला लेने उसी के रूम में चली गई. ‘तुम होते कौन हो मेरे मामले में टांग अड़ाने वाले. मैं चाहे किसी के साथ जाऊं, घूमूंफिरूं तुम्हें क्या. तुम किराएदार हो, किराया दो और चुपचाप रहो. आइंदा मेरे बारे में मां से बात करने की कोई जरूरत नहीं, समझे,’ मैं संजय को कह कर बाहर निकल गई. दरअसल, रमेश मेरी कक्षा में पढ़ता था. अच्छी पर्सनैलिटी होने के कारण सभी लड़कियां उस से दोस्ती करना चाहती थीं. मेरे दिल में भी उस के लिए प्यार था और मैं उसे चाहती थी. सो फ्रैंड के घर जाते समय उसी ने मुझे ड्रौप किया था, लेकिन संजय ने मुझे उस के साथ जाते हुए देख लिया था.

थोड़ी देर बाहर घूम कर आई तो संजय मम्मी के पास बैठा दिखा. मुझे उसे देखते ही गुस्सा आ गया, लेकिन मेरे आते ही वह उठ कर चला गया. बाद में मम्मी ने मुझे समझाया,  ‘संजय ने मुझे उस लड़के के बारे में बताया है. वह लड़कियों से फ्लर्ट करता है. उस का तुम्हारे स्कूल की 11वीं में पढ़ने वाली रंजना से भी संबंध है. तुम उस से ज्यादा दोस्ती न ही बढ़ाओ तो ठीक है.’ ‘ठीक है मां,’ मैं ने उन्हें कह दिया, लेकिन संजय पर बिफर पड़ी, ‘अब तुम मेरी जासूसी भी करने लगे. मैं किस से मिलती हूं, कहां जाती हूं इस से तुम्हें क्या?’

इस पर वह चुप ही रहा. शाम को मुझे मैथ्स का एक सवाल समझ नहीं आ रहा था तो मैं ने संजय से ही पूछा. उस ने भी बिना हिचक मुझे समझा दिया, लेकिन ज्यों ही वह सुबह की बात छेड़ने लगा मैं ने फिर डांट दिया, ‘मेरी जासूसी करने की जरूरत नहीं. रमेश को मैं जानती हूं वह अच्छा लड़का है और बड़ी बात है कि मैं उसे चाहती हूं. तुम अपने काम से काम रखो.’ कुछ दिन बाद मैं स्कूल पहुंची तो हैरान रह गई. स्कूल में पुलिस आई हुई थी. पता चला कि रमेश और रंजना घर से भाग गए हैं. अभी तक उन का कुछ पता नहीं चला. पुलिस ने पूछताछ वाले लोगोें में मेरा नाम भी लिख लिया व मुझे थाने आने को कहा. पापा दौरे पर गए हुए थे सो मम्मी ने और कोई सहारा न देख संजय से बात की. फिर न चाहते हुए भी मैं संजय के साथ थाने गई. वहां इंस्पैक्टर ने जो पूछा बता दिया. संजय ने इंस्पैक्टर से मेरी तारीफ की. रमेश से सिर्फ क्लासफैलो होने का नाता बताया और ऐसे बात की जैसे मेरा बड़ा भाई मुझे बचा रहा हो. उस की बातचीत से इंप्रैस हो इंस्पैक्टर ने उस केस से मेरा नाम भी हटा दिया. घर आए तो संजय ने मुझे समझाया, ‘ऐसे लड़कों से दूर ही रहो तो अच्छा है. वैसे भी अभी तुम्हारी उम्र पढ़ने की है. पढ़लिख कर कुछ बन जाओ तब बनाना ऐसे रिश्ते. तब तुम्हें इन की समझ भी होगी,’ साथ ही उस ने मुझे दलील भी दी, ‘‘मैं तुम्हारे भाई जैसा हूं तुम्हारे भले के लिए ही कहूंगा.’’

दरअसल, गुस्सा तो मुझे खुद पर था कि मैं रमेश को समझ न पाई और मुझे प्यार में धोखा हुआ, लेकिन खीज संजय पर निकल गई. मेरी इस बात का संजय पर गहरा असर हुआ. राखी का त्योहार नजदीक था सो शाम को आते समय संजय राखी ले आया और मम्मी के सामने मुझ से रमेश के बारे में बताने व समझाने के लिए क्षमा मांगता हुआ राखी बांध कर भाई बनाने की पेशकश कर खुद को सही साबित करने लगा. मैं कहां मानने वाली थी. मैं पैर पटकती हुई बाहर निकल गई. उस ने राखी वहीं टेबल पर रख दी. पापा अगले दिन जम्मू से लौटने वाले थे. मैं और मम्मी घर में अकेली थीं. रात के लगभग 12 बजे थे कि अचानक मुझे आवाज मारती हुई मम्मी उठ बैठीं.

मैं भी हड़बड़ा कर उठी और देखा कि मम्मी की नाक से खून बह रहा था. मैं कुछ समझ न पाई, बस जल्दी से दराज से रूई निकाल कर नाक में ठूंस दी और खून बंद करने की कोशिश करने लगी. इधरउधर देखा, कुछ समझ न आया कि क्या करूं. लेकिन अचानक संजय के कमरे की बत्ती जलती देखी. कल उन का ऐग्जाम होने के कारण वे दोनों काफी देर तक पढ़ रहे थे. तभी मम्मी बेसुध हो कर गिर पड़ीं. मैं ने उन्हें गिरते देखा तो मेरी चीख निकल गई, ‘मम्मी…’ मेरी चीख सुनते ही संजय के कमरे का दरवाजा खुला. सारी स्थिति भांपते हुए संजय बोला, ‘आप घबराइए नहीं, हम देखते हैं,’ फिर अपने दोस्त कार्तिक से बोला कि औटो ले कर आए. इन्हें अस्पताल ले जाना होगा.

औटो ला कर उन दोनों ने मिल कर मम्मी को उठाया और मुझे चिंता न करने की हिदायत दे कर मम्मी को औल इंडिया मैडिकल हौस्पिटल की इमरजैंसी में ले गए. वहां उन्हें डाक्टर ने बताया कि हाइपरटैंशन के कारण इन के नाक से खून बह रहा है. आप सही वक्त पर ले आए ज्यादा देर होने पर कुछ भी हो सकता था. फिर उन्हें 2 इंजैक्शन दिए गए और अधिक खून बहने के कारण खून चढ़वाने को कहा गया. संजय ने ब्लड बैंक जा कर रक्तदान किया तब जा कर मम्मी के लिए उन के ग्रुप का खून मिला. कार्तिक ने ब्लड बैंक से खून ला कर मम्मी को चढ़वाया. सुबह करीब 6 बजे वे दोनों मम्मी को वापस ले कर आए तो मेरी भी जान में जान आई. अब मम्मी ठीक लग रही थीं. संजय ने बताया कि घबराने की बात नहीं है आप आराम से सो जाएं. हम हफ्ते की दवाएं भी ले आए हैं. आज हमारा पेपर है लेकिन रातभर जगे हैं अत: हम भी थोड़ा आराम कर लेते हैं. मम्मी को सलामत पा मैं बहुत खुश थी. मेरे इतना भलाबुरा कहने के बावजूद संजय ने मुझ पर जो उपकार किया उस ने मुझे अपनी ही नजरों में गिरा दिया था. मैं इन्हीं विचारों में खोई बिस्तर पर लेटी थी कि कब सुबह के 8 बज गए पता ही न चला. मैं ने देखा संजय के कमरे का दरवाजा खुला था और वे दोनों घोड़े बेच कर सोए थे.

अचानक मुझे याद आया कि आज तो इन का पेपर है. अत: मैं तेजी से उन के कमरे में गई और उन्हें उठा कर कहा, ‘पेपर देने नहीं जाना क्या?’ हड़बड़ा कर उठते हुए संजय ने घड़ी देखी तो उन की नींद काफूर हो गई. दोनों फटाफट तैयार हो कर बिना खाएपीए ही पेपर देने चल दिए. मैं ने पीछे से आवाज दे कर उन्हें रोका, ‘भैया रुको,’ भैया शब्द सुन कर संजय अजीब नजरों से मुझे देखने लगा. लेकिन मैं ने बिना समय गंवाए उस की कलाई पर वही राखी बांध दी जो वह सुबह लाया था. फिर मैं ने कहा, ‘जल्दी जाओ, कहीं पेपर में देर न हो जाए.’ शाम को जब पापा आए और उन्हें सारी बात पता चली तो उन्होंने जा कर उन्हें धन्यवाद दिया. मैं ने भी पूछा, ‘पेपर कैसा हुआ?’ तो संजय ने हंस कर कहा, ‘‘अच्छा कैसे नहीं होता. बहन की शुभकामनाएं जो साथ थीं.’

अब मैं और संजय अनमोल रिश्ते में बंध गए थे. जहां बिगर दुरावछिपाव के एकदूसरे के लिए कुछ करने की तमन्ना थी. मेरा अपना तो कोई भाई नहीं था सो मैं संजय को ही भाई मानती. स्कूल से आती तो सीधा उस के पास जाती और बेझिझक उस से कठिन विषयों के बारे में पूछती. कुछ ही दिन में संजय के तरीके से पढ़ने पर मुझे वे विषय भी आसान लगने लगे जो अब तक कठिन लगते थे. घर का कोई सामान लाना हो या अपनी जरूरत का मैं संजय को ही कहती. कभी किसी काम से बाहर जाती तो संजय को साथ ले लेती. वह जैसे मेरा सुरक्षा कवच भी बन गया था. कभीकभी लोग बातें बनाते तो संजय उन को भी बड़े तरीके से हैंडिल करता.

एक बार एक अंकल ने कुछ कह दिया तो संजय बेझिझक उन के पास गया और बताया, ‘यह मेरी मुंहबोली बहन है, गलत न समझें. अगर आप की लड़की अपने भाई के साथ जाती दिखे और लोग गलत समझें तो आप क्या करेंगे.’ उन की बोलती बंद हो गई लेकिन फायदा हमें हुआ, अब गली के लोग हमें सही नजरों से देखने लगे. कुछ दिन बाद मेरा जन्मदिन था. मैं काफी समय से पापा से मोबाइल लेने की जिद कर रही थी, लेकिन हाथ तंग होने के कारण वे नहीं खरीद पा रहे थे. मेरे केक काटते ही संजय ने मुझे केक खिलाया और मेरे हाथ में मेरा मनपसंद तोहफा यानी मोबाइल रख दिया तो मैं इसे पा कर फूली नहीं समाई. उस समय नएनए मोबाइल चले थे. मैं खुश थी कि मैं कालेज जाऊंगी तो मोबाइल के साथ. कुछ दिन बाद उन की प्रतियोगी परीक्षा समाप्त हुई तो पता चला कि वे वापस जाने वाले हैं, यह जान कर मुझे दुख हुआ लेकिन मेरी भी मति मारी गई थी कि मैं ने उन का पता, फोन नंबर कुछ न पूछा. बस यही कहा, ‘भूलना मत इस अनमोल रिश्ते को.’

जिस दिन उन्होंने जाना था उसी दिन मेरी सहेली का बर्थडे था. मैं उस के घर गई हुई थी और पीछे से संजय ने कमरा खाली किया और दोनों केरल रवाना हो गए. वापस आने पर मैं ने पापा से पूछा तो पता चला कि उन्होंने भी उस का पताठिकाना नहीं पूछा था. इस पर मैं पापा से नाराज भी हुई. मैं संजय द्वारा बताए गए परीक्षा के टिप्स अपना कर 12वीं में अव्वल दर्जे से पास हुई और कालेज मोबाइल के साथ गई, जिस में हमारे अनमोल रिश्ते के क्षण छिपे थे. फिर कालेज के साथसाथ जब प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी तो मुझे ज्ञात हुआ कि एनसीईआरटी की किताबें इन में कितनी सहायक होती हैं. तब मुझे अपनी नादानी भरी भूल का भी एहसास हुआ. अब मैं हर साल राखी के सीजन में संजय को मिस करती. जब बाजार में राखियां सजने लगतीं तो मुझे अनबोला भाई याद आ जाता. समय के साथ मोबाइल तकनीक में भी तेजी से बदलाव आया और फोन के टचस्क्रीन और स्मार्टफोन तक के सफर में न जाने कितने ऐप्स भी जुड़े, लेकिन मैं ने अपना नंबर वही रखा जो संजय ने ला कर दिया था, भले मोबाइल बदल लिए. मैं हर बार फेसबुक पर फ्रैंड सर्च में संजय का नाम डालती, लेकिन नतीजा सिफर रहता. कुछ पता चलता तो राखी जरूर भेजती. इस बीच संजय ने भी कोई फोन नहीं किया था. लेकिन अचानक व्हाट्सऐप पर मैसेज देख दंग रह गई. तभी व्हाट्सऐप के मैसेज की टोन बजी और मेरी तंद्रा भंग हुई. संजय ने चैट करते हुए लिखा था, ‘‘नया स्मार्टफोन खरीदा तो पुरानी डायरी में नंबर देख सेव करते हुए जब तुम्हारा नंबर भी सेव किया तो व्हाट्सऐप में तुम्हारा फोटो सहित नंबर सेव हुआ देख मन खुश हो गया.

‘‘फिर फटाफट व्हाट्सऐप पर अपना परिचय दिया. तुम्हें मैं याद हूं न या भूल गई.’’ संजय के शब्दों से मेरी आंखें भर आईं. तुम्हें कैसे भूल सकती हूं निस्वार्थ रिश्ता. अगर तुम न होते तो शायद उस दिन पता नहीं मम्मी के साथ क्या होता. मेरे किशोरावस्था में भटके पांव कौन रोकता. मैं ने फट से मैसेज टाइप किया, ‘‘राखी भेजनी है भैया, फटाफट अपना पता व्हाट्सऐप करो.’’ मिनटों में व्हाट्सऐप पर ही पता भी आ गया और साथ ही  पेटीएम के जरिए राखी का शगुन भी, साथ ही लिखा था, ‘‘इस अनमोल रिश्ते को जिंदगी भर बनाए रखना.’’ मैं ने पढ़ा और अश्रुपूरित नेत्रों से बाजार में राखी पसंद करने चल दी अपने मुंहबोले भाई के लिए.

Raksha Bandhan : मायका- सुधा के ससुराल वाले क्यों ताने देते थे?

सुबह घर की सब खिड़कियां खोल  देना सुधा को बहुत अच्छा लगता था. खुली हवा, ताजगी और आदित्य देव की रश्मियों में वह अपने मन के खालीपन को भरने की कोशिश करती. हर दिन नई उम्मीदें लाता है, सुधा इस नैसर्गिक सत्य को जी रही थी. लेकिन मांजी को यह कहां पसंद आता? शकसंदेह के चश्मे से बहू को देखने की उन की आदत थी. बिना सोचेसमझे वे कुछ भी कह डालतीं.

‘‘किस यार को देखती है जो सुबहसुबह खिड़कियां खोल कर खड़ी हो जाती है.’’

कहते हैं तीरतलवार शायद इतनी गहरी चोट न दे सकें जितने शब्द घायल कर जाते हैं. यहां तो रोज का किस्सा था. औरत जो थी, जिस की नियति सब की सुनने की होती है, इसलिए सुधा उन के कटु शब्दों को भुला देती. सच ही तो है, जब विकल्प न रहे तो सीमा पार जा कर भी समझौते करने पड़ते हैं. इस समझदारी ने ही उसे ऐसा तटस्थ बना दिया था जिसे सब ‘पत्थर’ कह देते थे. कुछ असर नहीं, जो चाहे, कहो. लेकिन यह किसे पता था कि उस का अंतर्मन आहत हो कर कब टूटबिखर गया. यह तो उसे खुद भी पता नहीं था.

उस के मायके को ले कर ससुराल में खूब बातें बनतीं. रोजरोज के ताने सुधा को अब परेशान नहीं करते. आदत जो बन गईर् थी, सुनना और पत्थर की मूरत बनी रहना जिस की न जबान थी न कान. इस मूर्ति में भी दिल धड़कता था, यह एहसास शायद अब किसी को नहीं था. सास की फब्तियां उस के दिल को छलनी करतीं, लेकिन फिर भी वह उसी मुसकराहट से जीती जैसे कुछ हुआ ही नहीं. कितनी अजीब बात है, बहू मुसकराए तो बेहया का तमगा पाती है, बोले या प्रतिकार करे तो संस्कारहीन.

ससुराल में उस की एक देवरानी भी थी, प्रिया. बड़े घर की बेटी जिस के आगे सासुमां की जबान भी तलुए से चिपकी रहती. जब प्रिया अपने मायके जाती तो सुधा को भी अपने घर की बहुत याद आती. पर जाए तो कैसे? किस के घर जाए वह? रिश्ते इतने खोखले हो चुके थे कि अब कोई एक फोन कर के उस का हालचाल पूछने वाला भी नहीं था.

आज जब प्रिया अपने मायके से वापस आई तो उस का मन भी तड़पने लगा. सासुमां उस के लाए उपहारों, कपड़ेगहनों को देख फूली नहीं समा रही थीं. रहरह कर सुधा को कोसना जारी था. प्रिया, सुधा को अपने कमरे में ले आई. उसे अपने पीहर के मजेदार किस्से बताने लगी. सुधा जैसे अतीत

में खोने लगी. अपनी भाभी के कड़वे शब्द उसे फिर याद आने लगे. महारानी, जब चाहे मुंह उठा कर चली आती है. जैसे बाप ने करोड़ों की दौलत छोड़ रखी है.

प्रिया जा चुकी थी. दोपहर का समय था, इसलिए उदास मन के साथ सुधा बिस्तर पर सुस्ताने लेट गई. अतीत की यादें, कटु स्मृतियां चलचित्र की तरह मनमस्तिष्क में साकार होने लगीं. पापा दुनिया से विदा हुए तो पीहर का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो गया. मां बचपन में ही गुजर गई थीं. पापा ने ही दोनों भाईबहनों को संभाला था. यह सच था कि उन्होंने कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी थी.

सुधा ने छोटे भाई को ऐसा ही ममताभरा प्यार दिया जैसा बच्चा अपनी मां से उम्मीद करता है. उम्र में वह 3 साल बड़ी भी तो थी. लेकिन बचपन से उसे बड़ा भी तो बना दिया था. मासूमियत छिन गई, लेकिन भाई राहुल भी उस पर जान छिड़कता था.

समय पंख लगा कर ऐसे उड़ा कि पता ही न चला कि गुड्डेगुडि़यों से खेलते वे कब बड़े हो गए. पापा जल्दी से अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहते थे. विवान का रिश्ता आया. इंजीनियर, सुंदरसौम्य स्वभाव, प्रतिष्ठित परिवार, बस पापा को और क्या चाहिए था? झट से रिश्ता पक्का कर दिया.

सुधा खुदगर्ज नहीं थी. उसे अपनी

शादी के अरमान खुशी तो दे रहे

थे लेकिन पापा और भाई का खयाल उसे बेचैन करने लगा. वह विदा हुई तो फिर? कौन संभालेगा घर को? नारी के बिना घर, घर नहीं हो सकता. भाई के प्रति असीम प्रेम और पिता के स्नेह को समझ सुधा ने जिद पकड़ ली, ‘मैं शादी करूंगी तो एक ही शर्त पर, भाई की शादी भी उस के साथ हो.’ किसे पता था कि यह प्रेम ही आगे समस्या बन जाएगा. सरल जीवन को कठिन कर देगा, रिश्तों में दूरी बढ़ती जाएगी.

सब को झुकना पड़ा और सात दिनों के अंतराल पर दोनों की शादी संपन्न हो गई. सुधा ससुराल के लिए विदा हुई तो पीहर में उस की भाभी आ गई. बहुत खुश थी सुधा. कुदरत ने बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा सुखद दिया था जिस से उन की अधूरी जिंदगी पूर्णता की ओर कदम बढ़ाने लगी थी.

लेकिन जिंदगी इतनी सरल कहां होती है? मन का सोचा पूरा हो जाए, तो क्या कहने. नई जिंदगी में सुधा के सपने यथार्थ की कठोर धरा पर शीघ्र ही दम तोड़ने लगे. विवान बहुत अच्छे समझदार पति थे लेकिन घर की स्थिति ऐसी थी कि वे खुलेरूम में अपनी पत्नी का साथ देने की स्थिति में नहीं थे. प्रतिभाशाली हो कर भी अभी बेरोजगार थे. दोनों ही सासससुर पर निर्भर थे, इसलिए मजबूरियों से समझौता समझदारी था. पापा को शायद यह उम्मीद न रही होगी, इसलिए सुधा की शादी के बाद क्षुब्धबेचैन रहने लगे. दूसरी तरफ राहुल भी अपनी पत्नी और पिता के बीच संतुलन बैठाने में पिस रहा था. पापा को दुख न पहुंचे, इसलिए सुधा ने मुंह सिल लिया.

लेकिन पापा थे कि उस की आंखों को पढ़ जाते. जितना वह छिपाने की कोशिश करती, पापा अनकही बातों को झट से पकड़ जाते. संतान के प्रति प्रेम ऐसा ही होता है जो बच्चे की हर बात को बिना कहे समझ जाता है. जिंदगी इसी का नाम है. अकसर हम अपने घरों में वही व्यवस्था लागू करने की जिद करने लगते हैं जो बेटियां अपनी ससुराल में जीती हैं. नतीजतन, घर में लोग टूटनेबिखरने लगते हैं. सच तो यह था कि सुधा को कहीं चैन नहीं मिल रहा था.

ससुराल में व्यंग्यतानों के बीच पिस रही थी तो मायके में अपने भाई राहुल और पिता के खयाल से. उस की भाभी ने जो समझदारी दिखानी चाहिए थी, उस के विपरीत आचरण किया. सुधा न तो मां बन सकी, न ही विवान के दिल में स्थान पा सकी. दूरी, तटस्थता, यंत्रचालित, कृत्रिम जीवन उसे आहत करता चला गया.

घड़ी ने टन्नटन्न अलार्म बजाया. सुधा जैसे चौंक पड़ी. उसे अपने जिंदा होने का एहसास हुआ. चेहरे पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं. वह उठी, एक गिलास पानी पिया और खाली कमरे में फिर अपने खालीपन से खेलने लगी. पुरानी यादें फिर से न चाहते हुए भी उस के आगे नाचने लगीं. जब पिता का देहांत हुआ तो 12 दिन भी उस ने मायके में कैसे निकाले थे, वह कटु अनुभव उसे याद आने लगा. भाई राहुल बेचारा कितनी कोशिश करता रहा कि दीदी को कुछ महसूस न हो लेकिन सुधा कोई बच्ची नहीं थी.

वह समझ गईर् कि पापा के बाद उस का रिश्ता भी इस घर से टूट गया है. फिर एक दिन वह अनुभव भी हो गया जिस ने सुधा के सारे भ्रम तोड़ दिए. राहुल की जिद पर वह मायके चली गई. भाई के साथ बहन को देख भाभी का मुंह फूल गया. रात को सुधा ने उन के कमरे से आती तेज आवाजों को सुन लिया. राहुल अपनी पत्नी के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार से खीझ उठा था. उस की बीवी ने साफसाफ शब्दों में अल्टीमेटम दे दिया, ‘अगर यह बेहया मुझे दोबारा यहां दिखी, तो समझ लेना उसी क्षण फांसी के फंदे से झूल जाऊंगी. मुझे क्या बेवकूफ समझते हो. मुझे पता है, यह मायके में क्यों मंडराती है? पूरी संपत्ति हड़पने के बाद तुम्हें सड़क पर न ला दे, तो कहना.’

इस के बाद शायद हाथापाई भी हुई होगी. राहुल यह बात कैसे सहन कर पाता? नफरत से सुधा तड़प उठी. छी, क्या कोई ऐसी नीच सोच भी हो सकती हैं? पूरी रात सुधा ने जागते निकाल दी. वह घर जिस में वह पलीबढ़ी थी, अचानक जहर की तरह चुभने लगा. सुबह होते ही वह बिना कुछ कहे वापस अपनी ससुराल आ गई. उसे इंतजार था कि राहुल आएगा माफी मांगने. लेकिन वह नहीं आया.

अब सुधा को अपना फैसला सही लगने लगा. भाईभाभी की जिंदगी में वह दीवार नहीं बनना चाहती थी. उस ने फैसला कर लिया. अब कभी नहीं… खून के रिश्ते पानी हो गए. राखी का त्योहार आया, भाईदूज भी, लेकिन मायके से कोई बुलावा न आया. कहना आसान होता है लेकिन भाई की सूरत देखने को सुधा भी तड़पती. अब उस ने अपना मुंह सिल लिया. किसी से कोई शिकायत नहीं.

एक साल बीत गया. विवान को

अच्छी नौकरी मिल गई. अब सुधा

की हालत भी पहले से बेहतर होने लगी. विवान उसे नौर्मल करने की बहुत कोशिश करता, लेकिन बुझेमन में अब उमंग, उम्मीदें फिर से जागना मुश्किल लगने लगा था.

आज फरवरी की 22 तारीख थी. वैसे तो खास दिन, उस का जन्मदिन था, लेकिन यहां किसे कद्र थी उस की? सुबह के 8 बजे थे. विवान अभी भी सो रहे थे. सासुमां व्यस्त थीं. तभी दरवाजे की घंटी बजी. सुधा ने खिड़की से बाहर देखा. अचानक उस का रोमरोम खिल उठा. अपनों का प्यार सैलाब बन फूट कर बाहर निकलने लगा. दरवाजे पर राहुल और भाभी खड़े थे. सुधा चहकते हुए दौड़ी, ‘‘हैप्पी बर्थडे, दीदी.’’ राहुल ने पैर छूते हुए दी को शुभकामनाएं दीं. भाभी भी उस के पैर छू रही थीं. स्नेहिल क्षणों में कटुता क्षणभर में छूमंतर हो गई.

सास और प्रिया आश्चर्यचकित थे. राहुल आज उन सब के लिए उपहार लाया था. सुधा किचन की तरफ दौड़ी. ससुराल में बहू का सब से बड़ा मेहमान भाई होता है. सुधा के मन पर जमी बर्फ बहने लगी थी. भाभी भी उस का हाथ बंटाने रसोई में आ गई. दोनों खिलखिला कर ऐसे बातें करने लगीं जैसे पहली बार मिली हों.

विवान भी उठ गए. नाश्ते की तैयारी होने लगी. मौका देख विवान ने सुधा को बांहों में भर चूम लिया. ‘‘कैसा लगा मेरा गिफ्ट?’’ सुधा कुछ पूछती, उस से पहले राहुल आ गया, बोला, ‘‘दीदी, यह लो आप का सब से कीमती गिफ्ट… मुझे जीजू ने ही सजैस्ट किया.’’

सुधा पैकेट खोलने लगी. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. एक बड़ी सी फ्रेम की हुई पापा की तसवीर, जिस में उन की मुसकराहट सुधा को नया जीवन देती महसूस हो रही थी. फोटो के अलावा गुड्डेगुडि़या भी थे जिन से सुधा और राहुल बचपन में खेला करते थे.

उपहार तो और भी बहुत लाया था राहुल, लेकिन यह चीज उस का दिल छू गई. आज पूरा दिन सुधा के नाम था. विवान ने शाम को एक आलीशान होटल में डिनर रखा था.

रात में जब सुधा विवान के पास आई, तो देखा सामने की दीवार पर पापा की फोटो टंगी है. विवान कह रहा था, ‘‘सुधा, ससुराल में मायके की यादें न हों, तो जीवन अधूरा रह जाता है.

अब अपने बैडरूम में आधी चीजें मेरी और आधी तुम्हारे मायके की यादगार वाली होंगी.’’

‘‘ओ विवान, तुम इतना चाहते हो मुझे?’’ सुधा भावविह्वल हो विवान से लिपट गई.

‘‘सुधा, चाहने का मतलब ही यही है कि हम बिना कुछ कहे एकदूसरे को समझें, एकदूसरे की कमी को पूरा करें. तुम अंदर ही अंदर घुल रही थीं लेकिन मैं तुम्हें जीतेजी मरता नहीं देख सकता था.’’ बत्ती बुझ गई. दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए. आज अचानक बर्फ पूरी तरह पिघल गई.

सलमान खान ने बदला अपना लुक, फैंस हुए हैरान

Salman khan New Look : बॉलीवुड के सुपरस्टार सलमान खान की फिल्मों का इंतजार हर किसी को रहता है. उनकी हर एक फिल्म में उनका नया किरदार और जबरदस्त ड्रामा देखने को मिलता है. फिलहार तो एक्टर रियलिटी शो ‘बिग बॉस ओटीटी 2’ की शूटिंग में व्यस्त थे. लेकिन अब शो के खत्म होने के बाद वो एक बार फिर अपनी फिल्मों की तरफ लौट आए हैं. उन्होंने अपनी पेंडिंग शूटिंग्स पर काम करना शुरू कर दिया है.

बीते दिनों एक्टर (Salman khan New Look) को एक डिनर पार्टी के बाहर स्पॉट किया गया. जहां वह एकदम नए लुक में नजर आए. उनके इस अलग लुक को देखकर हर कोई हैरान रह गया. पार्टी की वीडियो जैसे ही सोशल मीडिया पर वायरल हुई. वैसे ही लोगों ने फिरकी लेनी शुरू कर दी. जहां कुछ लोगों को उनका लुक बहुत पसंद आया, तो वहीं कुछ ने चुटकी ली.

वायरल हुआ सलमान खान का न्यू लुक

आपको बता दें कि डिनर पार्टी में सलमान खान (Salman khan New Look) ने ब्लैक शर्ट, ब्लैक जीन्स और ब्लैक शूज कैरी कर रखे था. इसके अलावा एक्टर ने अपना ब्रेसलेट भी पहन रखा था. लेकिन इस बार लोगों का ध्यान उनके बालों ने खींचा. उनके सिर पर काफी कम बाल थे, जो कि गजनी की याद दिला रहे थे. तो वहीं कुछ लोगों को उन्हें देख ‘तेरे नाम’ के प्रेम की याद आ गई. जबकि कुछ यूजर्स का कहना है कि यह फिल्म ‘टाइगर 3’ का क्‍लाइमेक्‍स लुक हो सकता है.

लोगों ने ली भाईजान की चुटकी

आपको बता दें कि सलमान (Salman khan New Look) के इस अलग लुक को लोग, करण जौहर के प्रोडक्‍शन में बन रही डायरेक्‍टर विष्णु वर्धन की अनटाइटल्‍ड फिल्म से भी जोड़ रहे हैं. वहीं एक यूजर ने उनकी वायरल वीडियो के नीचे लिखा, ‘विग निकाल दिया…’ अन्य ने लिखा, ‘फाइनली भाईजान बूढ़े दिख रहे हैं.’ इसके अलावा कुछ यूजर ने तो उन्हें गंजा तक कह दिया.

Sunny Deol का बंगला नहीं होगा नीलाम, इस कारण से लगी रोक

Sunny Deol’s bungalow auction notice : बॉलीवुड एक्टर सनी देओल इन दिनों अपनी फिल्म गदर-2 को लेकर चर्चा में बने हुए हैं. उनकी ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर ताबतोड़ कमाई कर रही है. लेकिन अब फिल्म के अलावा वो एक और वजह से सुर्खियों में आ गए हैं.

बीते दिनों खबर आई थी कि भाजपा सांसद सनी देओल (Sunny Deol’s bungalow auction notice) के मुंबई स्थित बंगले की नीलामी होने वाली है, जिसकी कीमत लगभग 55 करोड़ रुपये है. लेकिन अब उनके बंगले की ई-नीलामी पर रोक लगा दी है.

55 करोड़ के कर्ज में डूबे हैं तारा सिंह

दरअसल, बैंक ऑफ बड़ौदा ने रविवार को अखबार में विज्ञापन दिया था, जिसमें उन्होंने लिखा गया था कि अजय सिंह देओल यानी सनी देओल (Sunny Deol’s bungalow auction notice) के नाम पर मुंबई के जुहू स्थित जो 55 करोड़ रुपये का आलीशान बंगला है. उसे 25 सितंबर 2023 को नीलाम किया जाएगा, क्योंकि उन्होंने अभी तक 55 करोड़ रुपये के लोन का भुगतान नहीं किया है. वहीं ब्याज सहित कर्ज 55 करोड़ रुपये से बढ़कर 56 करोड़ रुपये बैठ रहा है.

घर नीलाम तक होने की आई नौबत

हालांकि इस खबर को आए 24 घंटे भी पूरे नहीं हुए थे. इससे पहले सोमवार सुबह यानी आज बैंक ऑफ बड़ौदा ने एक नोटिस जारी किया, जिसमें बताया गया है कि अजय सिंह देओल (Sunny Deol’s bungalow auction notice) के जहू बंगले के नीलाम करने के नोटिस को तकनीकी कारणों से वापस ले लिया गया हैं. जिसका मतलब है कि अब बंगले की नीलामी नहीं होगी.

प्रमोशन के लिए बॉर्डर पर पहुंचे थे सनी देओल

आपको बता दें कि एक्टर सनी देओल (Sunny Deol) ने अपनी फिल्म गदर2 (Gadar 2) के लिए जमकर प्रमोशन किया था. इसके लिए वह तनोट बॉर्डर जा पहुंचे थे. जहां उन्होंने जवानों के साथ डांस किया था. साथ ही भारतीय सेना के वेपेन्स और टैंक के साथ भी तस्वीर क्लिक करवाई थी.

पंसारी के चावल से बनाएं हेल्दी रेसिपी

पंसारी ग्रुप बहुत पुराना ब्रांड हैं, जिसकी शुरुआत राजस्थान के पावटा में एक छोटी सी किराना दुकान से हुई थी. लेकिन आज देश-विदेश में पंसारी ग्रुप एक जाना-माना नाम बन चुका हैं.

अपने माइंड और अपनी कड़ी मेहनत से शम्मी अग्रवाल ने पंसारी ग्रुप के प्रोडक्ट की ब्रांडिंग कर उन्हें मार्केट में लॉन्च किया, जिसके बाद आज पंसारी समूह तेल, चावल, आटा, पास्ता, मसाले और इंडिमिक्स रेंज के तहत पारंपरिक नाश्ते के विकल्पों की एक सूची प्रस्तुत करता है. इनमें पौष्टिक नाश्ता प्रीमिक्स, चटपटे व्यंजन और मीठे व्यंजन शामिल हैं. जिन्हें पंद्रह मिनट से भी कम समय में तैयार किया जा सकता है. पंसारी प्रोडक्ट की खास बात ये है कि ये हेल्दी हैं और हर में इनका इस्तेमाल किया जाता हैं.

तो आइए अब जानते हैं पंसारी ग्रुप के बासमती चावल से कोलकाता चिकन बिरयानी बनाने की रेसिपी के बारे में.

इसके लिए सबसे पहले एक बड़े बर्तन में चिकन ले लें. फिर उसमें पंसारी ग्रुप का ओरियल ऑयल और शाशा बिरयानी मसाला डाले. इसके बाद सभी को मिक्स कर लें. मिक्स करने के बाद फिर उसमें कटी हुई प्याज और स्वाद अनुसार नमक डालें. फिर एक फ्राई पैन लें और उसमें पंसारी का तेल डालें. अपने हिसाब से फिर उसमें कटी हुई प्याज और लहसुन डाल सकते है. अब आपकी चावल की ग्रेवी तैयार हो गई है.
इससे पहले आपने जो चिकन का पेस्ट बनाया था. अब वो इसमें डालें और धीमी आंच पर उसे भूने. इसके बाद उसमें धनिया डाले और आखिर में पंसारी ग्रुप के खास बासमती चावल. अब बनकर तैयार हो गई है आपकी स्पेशल कोलकाता चिकन बिरयानी. हालांकि इसमें आप ऊपर से ड्राईफ्रूट, धनिया और मिर्च आदि भी ड़ाल सकते हैं, जिससे खाने में ये और ज्यादा स्वादिष्ठ लगेगी. साथ ही सेहत के लिए भी ये काफी हेल्दी होती हैं.

Raksha Bandhan : अल्पना- वह अमेरिका क्यों गई थी?

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जीत गया जंगवीर

‘‘खत आया है…खत आया है,’’ पिंजरे में बैठी सारिका शोर मचाए जा रही थी. दोपहर के भोजन के बाद तनिक लेटी ही थी कि सारिका ने चीखना शुरू कर दिया तो जेठ की दोपहरी में कमरे की ठंडक छोड़ मुख्यद्वार तक जाना पड़ा.

देखा, छोटी भाभी का पत्र था और सब बातें छोड़ एक ही पंक्ति आंखों से दिल में खंजर सी उतर गई, ‘दीदी आप की सखी जगवीरी का इंतकाल हो गया. सुना है, बड़ा कष्ट पाया बेचारी ने.’ पढ़ते ही आंखें बरसने लगीं. पत्र के अक्षर आंसुओं से धुल गए. पत्र एक ओर रख कर मन के सैलाब को आंखों से बाहर निकलने की छूट दे कर 25 वर्ष पहले के वक्त के गलियारे में खो गई मैं.

जगवीरी मेरी सखी ही नहीं बल्कि सच्ची शुभचिंतक, बहन और संरक्षिका भी थी. जब से मिली थी संरक्षण ही तो किया था मेरा. जयपुर मेडिकल कालेज का वह पहला दिन था. सीनियर लड़केलड़कियों का दल रैगिंग के लिए सामने खड़ा था. मैं नए छात्रछात्राओं के पीछे दुबकी खड़ी थी. औरों की दुर्गति देख कर पसीने से तरबतर सोच रही थी कि अभी घर भाग जाऊं.

वैसे भी मैं देहातनुमा कसबे की लड़की, सब से अलग दिखाई दे रही थी. मेरा नंबर भी आना ही था. मु?ो देखते ही एक बोला, ‘अरे, यह तो बहनजी हैं.’ ‘नहीं, यार, माताजी हैं.’ ऐसी ही तरहतरह की आवाजें सुन कर मेरे पैर कांपे और मैं धड़ाम से गिरी. एक लड़का मेरी ओर लपका, तभी एक कड़कती आवाज आई, ‘इसे छोड़ो. कोई इस की रैगिंग नहीं करेगा.’

‘क्यों, तेरी कुछ लगती है यह?’ एक फैशनेबल तितली ने मुंह बना कर पूछा तो तड़ाक से एक चांटा उस के गाल पर पड़ा. ‘चलो भाई, इस के कौन मुंह लगे,’ कहते हुए सब वहां से चले गए. मैं ने अपनी त्राणकर्ता को देखा. लड़कों जैसा डीलडौल, पर लंबी वेणी बता रही थी कि वह लड़की है. उस ने प्यार से मु?ो उठाया, परिचय पूछा, फिर बोली, ‘मेरा नाम जगवीरी है. सब लोग मु?ो जंगवीर कहते हैं. तुम चिंता मत करो. अब तुम्हें कोई कुछ भी नहीं कहेगा और कोई काम या परेशानी हो तो मु?ो बताना.’

सचमुच उस के बाद मुझे किसी ने परेशान नहीं किया. होस्टल में जगवीरी ने सीनियर विंग में अपने कमरे के पास ही मुझे कमरा दिलवा दिया. मुझे दूसरे जूनियर्स की तरह अपना कमरा किसी से शेयर भी नहीं करना पड़ा. मेस में भी अच्छाखासा ध्यान रखा जाता. लड़कियां मुझे से खिंचीखिंची रहतीं. कभीकभी फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ती, ‘जगवीरी की नई ‘वो’ आ रही है.’ लड़के मुझे देख कर कन्नी काटते. इन सब बातों को दरकिनार कर मैं ने स्वयं को पढ़ाई में डुबो दिया. थोड़े दिनों में ही मेरी गिनती कुशाग्र छात्रछात्राओं में होने लगी और सभी प्रोफेसर मु?ो पहचानने तथा महत्त्व भी देने लगे.

जगवीरी कालेज में कभीकभी ही दिखाई पड़ती. 4-5 लड़कियां हमेशा उस के आगेपीछे होतीं.

एक बार जगवीरी मु?ो कैंटीन खींच ले गई. वहां बैठे सभी लड़केलड़कियों ने उस के सामने अपनी फरमाइशें ऐसे रखनी शुरू कर दीं जैसे वह सब की अम्मां हो. उस ने भी उदारता से कैंटीन वाले को फरमान सुना दिया, ‘भाई, जो कुछ भी ये बच्चे मांगें, खिलापिला दे.’

मैं सम?ा गई कि जगवीरी किसी धनी परिवार की लाड़ली है. वह कई बार मेरे कमरे में आ बैठती. सिर पर हाथ फेरती. हाथों को सहलाती, मेरा चेहरा हथेलियों में ले मु?ो एकटक निहारती, किसी रोमांटिक सिनेमा के दृश्य की सी उस की ये हरकतें मु?ो विचित्र लगतीं. उस से इन हरकतों को अच्छी अथवा बुरी की परिसीमा में न बांध पाने पर भी मैं सिहर जाती. मैं कहती, ‘प्लीज हमें पढ़ने दीजिए.’ तो वह कहती, ‘मुनिया, जयपुर आई है तो शहर भी तो देख, मौजमस्ती भी कर. हर समय पढ़ेगी तो दिमाग चल जाएगा.’

वह कई बार मु?ो गुलाबी शहर के सुंदर बाजार घुमाने ले गई. छोटीबड़ी चौपड़, जौहरी बाजार, एम.आई. रोड ले जाती और मेरे मना करतेकरते भी वह कुछ कपड़े खरीद ही देती मेरे लिए. यह सब अच्छा भी लगता और डर भी लगा रहता.

एक बार 3 दिन की छुट्टियां पड़ीं तो आसपास की सभी लड़कियां घर चली गईं. जगवीरी मु?ो राजमंदिर में पिक्चर दिखाने ले गई. उमराव जान लगी हुई थी. मैं उस के दृश्यों में खोई हुई थी कि मु?ो अपने चेहरे पर गरम सांसों का एहसास हुआ. जगवीरी के हाथ मेरी गरदन से नीचे की ओर फिसल रहे थे. मु?ो लगने लगा जैसे कोई सांप मेरे सीने पर रेंग रहा है. जिस बात की आशंका उस की हरकतों से होती थी, वह सामने थी. मैं उस का हाथ ?ाटक अंधेरे में ही गिरतीपड़ती बाहर भागी. आज फिर मन हो रहा था कि घर लौट जाऊं.

मैं रो कर मन का गुबार निकाल भी न पाई थी कि जगवीरी आ धमकी. मु?ो एक गुडि़या की तरह जबरदस्ती गोद में बिठा कर बोली, ‘क्यों रो रही हो मुनिया? पिक्चर छोड़ कर भाग आईं.’

‘हमें यह सब अच्छा नहीं लगता, दीदी. हमारे मम्मीपापा बहुत गरीब हैं. यदि हम डाक्टर नहीं बन पाए या हमारे विषय में उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना तो…’ मैं ने सुबकते हुए कह ही दिया.

‘अच्छा, चल चुप हो जा. अब कभी ऐसा नहीं होगा. तुम हमें बहुत प्यारी लगती हो, गुडि़या सी. आज से तुम हमारी छोटी बहन, असल में हमारे 5 भाई हैं. पांचों हम से बड़े, हमें प्यार बहुत मिलता है पर हम किसे लाड़लड़ाएं,’ कह कर उस ने मेरा माथा चूम लिया. सचमुच उस चुंबन में मां की महक थी.

जगवीरी से हर प्रकार का संरक्षण और लाड़प्यार पाते कब 5 साल बीत गए पता ही न चला. प्रशिक्षण पूरा होने को था तभी बूआ की लड़की के विवाह में मु?ो दिल्ली जाना पड़ा. वहां कुणाल ने, जो दिल्ली में डाक्टर थे, मु?ो पसंद कर उसी मंडप में ब्याह रचा लिया. मेरी शादी में शामिल न हो पाने के कारण जगवीरी पहले तो रूठी फिर कुणाल और मु?ा को महंगेमहंगे उपहारों से लाद दिया.

मैं दिल्ली आ गई. जगवीरी 7 साल में भी डाक्टर न बन पाई, तब उस के भाई उसे हठ कर के घर ले गए और उस का विवाह तय कर दिया. उस के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ जगवीरी का स्नेह, अनुरोध भरा लंबा सा पत्र भी था. मैं ने कुणाल को बता रखा था कि यदि जगवीरी न होती तो पहले दिन ही मैं कालेज से भाग आई होती. मु?ो डाक्टर बनाने का श्रेय मातापिता के साथसाथ जगवीरी को भी है.

जयपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर के एक गांव में थी जगवीरी के पिता की शानदार हवेली. पूरे गांव में सफाई और सजावट हो रही थी. मु?ो और पति को बेटीदामाद सा सम्मानसत्कार मिला. जगवीरी का पति बहुत ही सुंदर, सजीला युवक था. बातचीत में बहुत विनम्र और कुशल. पता चला सूरत और अहमदाबाद में उस की कपड़े की मिलें हैं.

सोचा था जगवीरी सुंदर और संपन्न ससुराल में रचबस जाएगी, पर कहां? हर हफ्ते उस का लंबाचौड़ा पत्र आ जाता, जिस में ससुराल की उबाऊ व्यस्तताओं और मारवाड़ी रिवाजों के बंधनों का रोना होता. सुहाग, सुख या उत्साह का कोई रंग उस में ढूंढ़े न मिलता. गृहस्थसुख विधाता शायद जगवीरी की कुंडली में लिखना ही भूल गया था. तभी तो साल भी न बीता कि उस का पति उसे छोड़ गया. पता चला कि शरीर से तंदुरुस्त दिखाई देने वाला उस का पति गजराज ब्लडकैंसर से पीडि़त था. हर साल छह महीने बाद चिकित्सा के लिए वह अमेरिका जाता था. अब भी वह विशेष वायुयान से पत्नी और डाक्टर के साथ अमेरिका जा रहा था. रास्ते में ही उसे काल ने घेर लिया. सारा व्यापार जेठ संभालता था, मिलों और संपत्ति में हिस्सा देने के लिए वह जगवीरी से जो चाहता था वह तो शायद जगवीरी ने गजराज को भी नहीं दिया था. वह उस के लिए बनी ही कहां थी.

एक दिन जगवीरी दिल्ली आ पहुंची. वही पुराना मर्दाना लिबास. अब बाल भी लड़कों की तरह रख लिए थे. उस के व्यवहार में वैधव्य की कोई वेदना, उदासी या चिंता नहीं दिखी. मेरी बेटी मान्या साल भर की भी न थी. उस के लिए हम ने आया रखी हुई थी.

जगवीरी जब आती तो 10-15 दिन से पहले न जाती. मेरे या कुणाल के ड्यूटी से लौटने तक वह आया को अपने पास उल?ाए रखती. मान्या की इस उपेक्षा से कुणाल को बहुत क्रोध आता. बुरा तो मु?ो भी बहुत लगता था पर जगवीरी के उपकार याद कर चुप रह जाती. धीरेधीरे जगवीरी का दिल्ली आगमन और प्रवास बढ़ता जा रहा था और कुणाल का गुस्सा भी. सब से अधिक तनाव तो इस कारण होता था कि जगवीरी आते ही हमारे डबल बैड पर जम जाती और कहती, ‘यार, कुणाल, तुम तो सदा ही कनक के पास रहते हो, इस पर हमारा भी हक है. दोचार दिन ड्राइंगरूम में ही सो जाओ.’

 

कुणाल उस के पागलपन से चिढ़ते ही थे, उस का नाम भी उन्होंने डाक्टर पगलानंद रख रखा था. परंतु उस की ऐसी हरकतों से तो कुणाल को संदेह हो गया. मैं ने लाख सम?ाया कि वह मुझे छोटी बहन मानती है पर शक का जहर कुणाल के दिलोदिमाग में बढ़ता ही चला गया और एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘कनक, तुम्हें मु?ा में और जगवीरी में से एक को चुनना होगा. यदि तुम मु?ो चाहती हो तो उस से स्पष्ट कह दो कि तुम से कोई संबंध न रखे और यहां कभी न आए, अन्यथा मैं यहां से चला जाऊंगा.’

यह तो अच्छा हुआ कि जगवीरी से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. उस के भाइयों के प्रयास से उसे ससुराल की संपत्ति में से अच्छीखासी रकम मिल गई. वह नेपाल चली गई. वहां उस ने एक बहुत बड़ा नर्सिंगहोम बना लिया. 10-15 दिन में वहां से उस के 3-4 पत्र आ गए, जिन में हम दोनों को यहां से दोगुने वेतन पर नेपाल आ जाने का आग्रह था.

मु?ो पता था कि जगवीरी एक स्थान पर टिक कर रहने वाली नहीं है. वह भारत आते ही मेरे पास आ धमकेगी. फिर वही क्लेश और तनाव होगा और दांव पर लग जाएगी मेरी गृहस्थी. हम ने मकान बदला, संयोग से एक नए अस्पताल में मु?ो और कुणाल को नियुक्ति भी मिल गई. मेरा अनुमान ठीक था. रमता जोगी जैसी जगवीरी नेपाल में 4 साल भी न टिकी. दिल्ली में हमें ढूंढ़ने में असफल रही तो मेरे मायके जा पहुंची. मैं ने भाईभाभियों को कुणाल की नापसंदगी और नाराजगी बता कर जगवीरी को हमारा पता एवं फोन नंबर देने के लिए कतई मना किया हुआ था.

जगवीरी ने मेरे मायके के बहुत चक्कर लगाए, चीखी, चिल्लाई, पागलों जैसी चेष्टाएं कीं परंतु हमारा पता न पा सकी. तब हार कर उस ने वहीं नर्सिंगहोम खोल लिया. शायद इस आशा से कि कभी तो वह मु?ा से वहां मिल सकेगी. मैं इतनी भयभीत हो गई, उस पागल के प्रेम से कि वारत्योहार पर भी मायके जाना छूट सा गया. हां, भाभियों के फोन तथा यदाकदा आने वाले पत्रों से अपनी अनोखी सखी के समाचार अवश्य मिल जाते थे जो मन को विषाद से भर जाते.

उस के नर्सिंगहोम में मुफ्तखोर ही अधिक आते थे. जगवीरी की दयालुता का लाभ उठा कर इलाज कराते और पीठ पीछे उस का उपहास करते. कुछ आदतें तो जगवीरी की ऐसी थीं ही कि कोई लेडी डाक्टर, सुंदर नर्स वहां टिक न पाती. सुना था किसी शांति नाम की नर्स को पूरा नर्सिंगहोम, रुपएपैसे उस ने सौंप दिए. वे दोनों पतिपत्नी की तरह खुल्लमखुल्ला रहते हैं. बहुत बदनामी हो रही है जगवीरी की. भाभी कहतीं कि हमें तो यह सोच कर ही शर्म आती है कि वह तुम्हारी सखी है. सुनसुन कर बहुत दुख होता, परंतु अभी तो बहुत कुछ सुनना शेष था. एक दिन पता चला कि शांति ने जगवीरी का नर्सिंगहोम, कोठी, कुल संपत्ति अपने नाम करा कर उसे पागल करार दे दिया. पागलखाने में यातनाएं ?ोलते हुए उस ने मु?ो बहुत याद किया. उस के भाइयों को जब इस स्थिति का पता किसी प्रकार चला तो वे अपनी नाजों पली बहन को लेने पहुंचे. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी जगवीरी.

मैं सोच रही थी कि एक ममत्व भरे हृदय की नारी सामान्य स्त्री का, गृहिणी का, मां का जीवन किस कारण नहीं जी सकी. उस के अंतस में छिपे जंगवीर ने उसे कहीं का न छोड़ा. तभी मेरी आंख लग गई और मैं ने देखा जगवीरी कई पैकेटों से लदीफंदी मेरे सिरहाने आ बैठी, ‘जाओ, मैं नहीं बोलती, इतने दिन बाद आई हो,’ मैं ने कहा. वह बोली, ‘तुम ने ही तो मना किया था. अब आ गई हूं, न जाऊंगी कहीं.’

तभी मुझे मान्या की आवाज सुनाई दी, ‘‘मम्मा, किस से बात कर रही हो?’’ आंखें खोल कर देखा शाम हो गई थी.

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