बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा खूब जोरशोर से उछाला जाता है लेकिन समाज में माहौल ऐसा बना हुआ है कि बेटी बचाओ, उस का अपहरण करो, उसे रौंदो और रोता या मरता छोड़ जाओ. दिल्ली के पास हरियाणा के पलवल शहर में स्कूल जाती 11वीं क्लास की एक लडक़ी का 3 लडक़ों ने अपहरण कर उस का रेप किया और फिर उसे छोड़ कर भाग गए.

पुलिस इस में क्या करती है, कानून क्या कहता है, दोषियों को सजा होती है या नहीं, पीड़ितों को समाज में सही स्थान मिल पाता है या नहीं, असल में ये बातें दीगर हैं. मुख्य तो यह है कि यह समाज कैसा है जो अभीअभी जवान हुए लडक़ों को इस प्रकार का रिस्क लेने की हिम्मत दे देता है. यह हिम्मत घरों से मिलती हैं. टीवी, अखबारों या अपराध कथाओं से नहीं मिलती यह हिम्मत.

जिन घरों के लडक़े इस प्रकार के क्राइम चलतेचलते कर डालते हैं जिन में पैसा नहीं मिलता, सिर्फ कुछ मिनटों का सुख मिलता है, वे उन घरों से आते हैं जहां इस बात पर आंखें तानी जाती हैं चाहे खुद के घर में बहनबेटी हों. ऐसे हर पुरुष को भरोसा होता है कि वह अपने घर की बेटी या बहन का तो कुछ नहीं होने देगा पर बाहर की लडक़ी का वह कुछ भी कर ले, उस का कुछ नहीं बिगड़ेगा.

समाज चाहे तो यह बंद करा सकता है क्योंकि समाज किसी को यह काम मंदिर में घुस कर करने की इजाजत नहीं देता और ये बिगड़ैल लडक़े भी यह मानते हैं. अपने धर्म की जगह पर लंगर लगाना हो, मेला लगाना हो, जुलूस निकालना हो, ये धर्म की एक आवाज पर इकट्ठे हो जाते हैं. जब धर्म का इतना जोर चलता है तो वह इन बिगड़ैलों से यह क्यों नहीं कह सकता कि जब तक पूरी सहमति न हो, किसी लडक़ी की ओर आंख उठा कर भी न देखो.

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