Download App

मनोज झा बनाम आनंद मोहन : ब्राह्मण और ठाकुरों में क्यों खिंची जबानी तलवारें

यों तो पूरे देश में जातिवाद और सवर्णशूद्रवाद का बोलबाला है, लेकिन बिहार के नेता और राजनीति मुफ्त में बदनाम नहीं हैं. बिहार के सवर्ण तो सवर्ण दलित नेताओं तक का हाजमा खराब हो जाता है, अगर किसी दिन जाति पर बवाल न हो.

ताजा विवाद संसद से शुरू हुआ था, जो अब चौपालों तक पसर गया है. हुक्का गुड़गुड़ाते ब्राह्मण और ठाकुर एकदूसरे को पानी पीपी कर कोस रहे हैं, एकदूसरे को भस्म कर देने वाला सनातनी श्राप दे रहे हैं और एकदूसरे की जीभ तक खींचने की धौंस दे रहे हैं. अब इस में कुछ पिछड़ों की भी एंट्री हो गई है. किस्सा दिलचस्प होता जा रहा है, जिस का श्रीगणेश 21 सितंबर, 2023 को राज्यसभा से महिला आरक्षण बिल पर बहस के दौरान आरजेडी सांसद मनोज झा ने किया था. उन्होंने एक कवि ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता पढ़ी थी, जिस में ठाकुरों की दबंगई का वर्णन था.

कविता ज्यादा बड़ी नहीं है, लेकिन उस की आखिरी लाइनों से समझ आता है कि ठाकुर उर्फ राजपूत उर्फ क्षत्रिय उर्फ दबंग उर्फ हुजूर उर्फ मालिक उर्फ सरपंच साहब या सरकार कितने क्रूर और अय्याश हुआ करते थे. प्राचीन भारत के गांवों में सबकुछ उन्हीं की मिल्कियत हुआ करता था. ठाकुर लोग ठीक वैसे ही होते थे, जैसे हिंदी फिल्मों में दिखाए जाते थे. वे अपनी लंबी घनी मूंछों को उमेठते अपनी हवेली के बड़े से कमरे में छक कर दारू पीते थे. ढलती रात में इसी हाल में कोई रधिया या रजिया नाम की अर्धनग्न कमसिन तवायफ कमर और छातियां मटकाते इन शूरवीरों का नशा और बढ़ा रही होती थीं. वह बड़ी अदाओं से इन ठाकुरों की पास जाम से भरा गिलास ले कर आती थी, उन्हें तरसाती थी और फिर उन के होंठों में दबा सौ का नोट अपने होंठों में दबा कर ले जाती थी.

इस तरह लिप किस की शास्वत उत्तेजनात्मक क्रिया संपन्न हो जाती थी. गाने के बाद मुजरा खत्म हो जाता था, कारिंदे लुटाए गए नोट समेट कर अपनी दुकान का साजोसामान उठा कर चलते बनते थे. डायरेक्टर के पास दिखाने रह जाता था कि ठाकुर साहब ने तवायफ को अपने कंधों पर टांग लिया है और अपने बेडरूम की तरफ ले जा रहे हैं. इस के बाद के दृश्य को देखने के लिए दर्शकों को अपनी कल्पनाशीलता का सहारा लेना पड़ता था.

क्या गलत बोले मनोज झा ?

ठाकुरों के प्राचीन चरित्र के इस रात्रिकालीन संक्षिप्त चित्रण के बाद दिन में होता यह था कि ठाकुर साहब घोड़े पर सवार हो कर निकलते थे और 2-4 शूद्र किस्म के मजदूरों की मैलीकुचेली पीठ पर कोड़े बरसाते दूर कहीं जंगल की तरफ निकल जाते थे. जब जीपें आ गईं तो डायरेक्टर ठाकुरों को जीप में बैठालने लगा. ये ठाकुर मजदूरों का तरहतरह से शोषण करते थे, जिन में औरतों की इज्जत लूटना उन का खास शौक होता था. छोटी जाति वालों से ही हथियाए अपने हो गए खेतों में बेगार करवाते थे और खाने को इतना भर देते थे कि वे जिंदा रहें और मजदूरी करते रहें.

बिलाशक मनोज झा और आनंद मोहन प्रकरण से इन चीजों का कोई प्रत्यक्ष लेना देना न हो, लेकिन अप्रत्यक्ष है. और यही सनातनीय भारतीय या हिंदू समाज की मूलभूत संरचना भी है कि ब्राह्मण ठाकुरों को दलितों पर अत्याचार करने को उकसाता था और उन से सालभर मनमानी दक्षिणा बटोरता रहता था.

इस तरह खेतखलिहानों की पैदावार का एक बड़ा हिस्सा बिना कुछ किएधरे उस के घर पहुंच जाता था. इस बाबत उस की हर मुमकिन कोशिश यह होती थी कि यह अर्थ और वर्णव्यवस्था कायम रहे.

यह कैसे टूटी और कितनी टूटी, यह भी हर कोई जानता है कि कुछ खास नहीं हुआ है. यह जेके, अंबुजा या बिरला सीमेंट से बनी मजबूत दीवार है, जिस में बारूद से भी दरार तक नहीं आती फिर टूटना तो दूर की बात है.

ऊपर बताई गई रामायण के नए संस्करण का सार इतना भर है कि मनोज झा ने ठाकुरों को एक दलित कविता के जरीए कोसा और एक मार्मिक अपील भी कर डाली कि अपने अंदर के ठाकुर को मारो. इस अपील का तात्कालिक असर दिल्ली में तो नहीं दिखा, लेकिन डेढ़ दिन पहले बिहार में दिखा जो दीर्घकालिक कहा जा सकता है.

कविता पढ़ने के पहले ही मनोज झा ने डिस्क्लेमर सा पेश कर दिया था कि इस के पीछे उन का मकसद यह जताना था कि महिला आरक्षण बिल को दया भाव की तरह पेश किया जा रहा है और दया कभी अधिकार की श्रेणी में नहीं आती है. इस लिहाज से तो उन की मंशा भगवा गैंग को ठाकुर ठहराने की थी, जो अपने यहां पुत्र रत्न की प्राप्ति पर, अपने जन्मदिन या शादी की सालगिरह पर गरीब दलितों को खैरात बांटता दिखता है. तब यह और बात है कि वह यह आरती नहीं गाता कि तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा…

इस पर 27 सितंबर की गौधूलि बेला में आनंद मोहन का एक सनसनाता बयान आया कि अगर मैं उस वक्त राज्यसभा में होता तो उन की यानी मनोज झा की जीभ खींच कर आसन पर उछाल देता सभापति की ओर… आप इतने बड़े समाजवादी हो तो झा क्यों लगाते हो? आप पहले अपने अंदर के ब्राह्मण को मारो. रामायण में ठाकुर, महाभारत में ठाकुर, सभा कथा में ठाकुर, मंदिर में ठाकुर हैं, कहांकहां से भगाओगे.

सियासत और जुर्म

वक्तव्य हिंसक है, लेकिन मिथ्या नहीं माना जा सकता क्योंकि आनंद मोहन जब सरेआम एक डीएम की हत्या कर सकते हैं तो जीभ खींचने यानी उसे हलक से उखाड़ देने जैसा जुर्म उन के लिए उस के मुकाबले बेहद मामूली लगभग छींकने जैसा है. लेकिन, काटने के बाद उन्हें जीभ सभापति की तरफ ही फेंकने की क्यों सूझी, यह किसी को समझ नहीं आ रहा. उन का सारगर्भित इतिहास बताता है कि वे ऐसा कर भी सकते थे. वे बाहुबली हैं. ऊपर ठाकुरों के बताए तमाम पर्याय और विशेषण उन पर ब्राह्मण होते हुए भी फिट बैठते हैं. वे बिना फरसे वाले परशुराम हैं, क्योंकि उन के व्यवहार में जन्मना ब्राह्मणत्व और कर्मणा क्षत्रियत्व दोनों बराबर की मात्रा में दिखते हैं.

अब इस तुच्छ से दिखने वाले उच्च जाति विवाद में क्या होगा, इस से पहले आनंद मोहन की संक्षिप्त जीवनी देखें –

बिहार के कोसी के छोटे से गांव पचगछिया के एक संपन्न ठाकुर परिवार में पैदा हुए आनंद मोहन के दादा राम बहादुर सिंह फ्रीडम फाइटर थे. पूत के पांव पालने में ही दिखते हैं वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए किशोरवय के आनंद मोहन को महज 17 साल की उम्र में ही राजनीति रास आ गई थी. साल 1974 में जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति आंदोलन शबाब पर था, जिस के प्रभाव में वे भी आ गए और आपातकाल के दौरान 2 साल जेल की हवा भी खाई.

जेल से बाहर आते ही आनंद मोहन ने जातिगत राजनीति का रास्ता पकड़ा और युवा राजपूत नेता बन गए. लेकिन सुर्खियों में वर्ष 1978 में तब आए, जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को काले झंडे दिखाए. इस तरह नेतागिरी की प्राथमिक कक्षा उन्होंने अव्वल नंबरों से पास कर ली.

नाम चल निकला और पूर्वजों के पुण्य कर्मों का फायदा भी मिला तो आनंद मोहन ने अपनी खुद की पार्टी बना ली, जिस का नाम रखा समाजवादी क्रांति सेना. यह पार्टी निचली जातियों के उत्थान का मुकाबला करने के लिए बनाई गई थी, जिस में अधिकतर राजपूत युवक बतौर सैनिक शामिल हुए थे. इसी वक्त में उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए तो उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि पार्टी के नाम के आगेपीछे क्रांति शब्द लटका लेने से कुछ नहीं होता. कुछ ठोस करना जरूरी है.

इस ठोस के नाम पर आनंद मोहन ने अपराध का रास्ता पकड़ लिया, जो राजनीति में सफलता के लिए एक अतिरिक्त योग्यता आज भी होती है. तब तो कुछ ज्यादा ही होती थी और राज्य बिहार हो तो यह योग्यता अनिवार्य हो जाती है.

बढ़ता कद देख कर जनता दल ने साल 1990 में उन्हें माहिषी विधानसभा से मैदान में उतार दिया, जिस में उन की जीत भी हुई.

महत्वाकांक्षी आनंद मोहन ने विधायक रहते हुए एक गिरोह भी बना लिया, जो आरक्षण समर्थकों को तरहतरह से सबक सिखाता था. इस के बाद होने के नाम पर खास इतना भर हुआ कि मंडल कमीशन लागू होने के बाद आनंद मोहन ने जनता दल छोड़ दिया, क्योंकि वह आरक्षण का समर्थक कर रहा था, जबकि इस युवा ब्राह्मण को तो आरक्षण से विकट का बैर था.

झल्लाए आनंद मोहन ने खुद की पार्टी बना ली और इस बार नाम रखा बिहार पीपुल्स पार्टी. 1994 के वैशाली लोकसभा उपचुनाव में उन की पत्नी लवली आनंद जीतीं तो हर कोई इस आनंद दंपति से वाकिफ हो गया. वजह थी, आरजेडी उम्मीदवार किशोरी सिन्हा की हार, जो बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा की पत्नी थीं. इस जीत ने इन दोनों को बिहार का सेलिब्रेटी बना दिया था.
लेकिन 5 दिसंबर, 1994 को एक हाहाकारी हत्याकांड में आनंद मोहन का नाम आया था, जिस ने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. इस दिन मुजफ्फरपुर के भगवानपुर चौक पर गोपालगंज के दलित समुदाय के डीएम जी. कृष्णैया की भीड़ ने पीटपीट कर हत्या कर दी थी. इस भीड़ को आनंद मोहन ने हत्या के लिए उकसाया था.

इस मामले में उन्हें 2007 में निचली अदालत ने दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुनाई थी. यह आजादी के बाद का पहला मामला था, जिस में किसी राजनेता को फांसी की सजा सुनाई गई थी. साल 2008 में हाईकोर्ट ने इस सजा को उम्रकैद की सजा में बदल दिया था, जो सुप्रीम कोर्ट ने कायम रखी.

इस के बाद 1995 के विधानसभा चुनाव में बिहार पीपुल्स पार्टी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाई थी. फिर भी आनंद मोहन बिहार की राजनीति का एक प्रमुख चेहरा बन गए और यह माना जाने लगा कि वे लालू प्रसाद यादव की जगह सीएम बन सकते हैं.

हैरत की बात यह है कि ऐसा तब कहा जा रहा था, जब वे खुद तीन सीटों से लड़ कर हारे थे. अब तक पप्पू यादव और श्रीप्रकाश जैसे अपने समकालीन सरगनाओं और गिरोहों से उन की झड़पें आएदिन की बात हो गई थीं.

चलायमान आस्था

अपनी लोकप्रियता और स्वीकार्यता आनंद मोहन ने 1996 के आम चुनाव में साबित की भी, जब शिवहर सीट जेल में रहते उन्होंने समता पार्टी के टिकट पर जीती थी. फिर 1998 का चुनाव भी शिवहर सीट से उन्होंने जीता, लेकिन 1999 में भाजपा का दामन थाम लिया.

यह वह दौर था, जब भारतीय जनता पार्टी खुलेआम आपराधिक पृष्ठभूमि वाले बाहुबलियों को न्योता और मौका दे रही थी, जिस से अटल बिहारी वाजपेई मजबूत हो सकें. लेकिन वोटर को आनंद मोहन का भगवा गैंग ज्वाइन करना रास नहीं आया, तो उस ने उन्हें खारिज भी कर दिया. एकएक कर दलित हितेषी पार्टियों में से हिंदुस्तानी अवाम मोरचा को छोड़ आनंद परिवार सभी पार्टियों में आया गया. इस से उन की इमेज बिगड़ी थी, जिसे चमकाने के लिए उन्होंने पार्टी सहित कांग्रेस का हाथ थाम लिया, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें चुनाव लड़ने के काबिल ही नहीं समझा.

हालांकि कांग्रेस ने 2014 लवली आनंद को विधानसभा टिकट दिया था, लेकिन तब तक गंगा का बहुत सा पानी बह चुका था. एक सजायाफ्ता दंपती को वोटर ने विधानसभा और लोकसभा भेजना ठीक नहीं समझा तो यह उस की समझदारी ही कही जाएगी.

बिहार में आनंद दंपती की पहले से पूछपरख नहीं रह गई थी, लेकिन लवली ने हिम्मत नहीं हारी और 2020 के विधानसभा चुनाव में फिर आरजेडी से कूदीं. हालांकि वे खुद नहीं जीत पाईं, लेकिन उन का बेटा चेतन आनंद अपनी परंपरागत सीट शिवहर से जीत गया जो ताजा विवाद में पिता के सुर में सुर मिला रहा है.

कानून बदला था नीतीश कुमार ने

इस साल अप्रैल का महीना बिहार की राजनीति के लिए खास था, क्योंकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आनंद मोहन के लिए जेल मैनुअल में बदलाव कर उन की रिहाई का रास्ता खोल दिया था. इस के लिए शासकीय सेवकों की हत्या में उम्रकैद की सजा काट रहे कैदियों को छूट न मिलने का प्रावधान नियमों से हटा लिया गया था. इस के लिए भी नीतीश कुमार ने राज्य के मुख्य सचिव आमिर सुबहानी को आगे किया था.

आनन्द मोहन के पिछली 12 अगस्त को रिहा होने के बाद इस पर खासी गहमागहमी, चर्चा और बहस हुई थी. अब आनंद मोहन खुद साबित कर रहे हैं कि उन की उपयोगिता कहां है और कैसी है.

पेशे से प्रोफैसर मनोज झा, जिन्होंने कुछ दशक पहले के ठाकुरों की जीवनशैली याद दिला दी, वे भी आरजेडी से हैं. ऐसे में ब्राह्मणठाकुर विवाद सहज किसी के गले नहीं उतर रहा है. राजपूत वोट बिहार की 40 विधानसभा और 8 लोकसभा सीटों के नतीजों को उलटपुलट करने की स्थिति में हैं.

प्रथमदृष्ट्या तो यही लगता है कि चूंकि ब्राह्मण वोट तो गठबंधन को मिलने से रहा, इसलिए क्यों न आनंद मोहन को मोहरा बना कर ठाकुरों को साधा जाए. नीतीश और तेजस्वी की यह ट्रिक कितनी कारगर होगी, यह वक्त बताएगा, लेकिन यह साफ दिख रहा है कि आनंद मोहन के कसबल जेल में रहते ढीले पड़ चुके हैं और अब उन्हें केवल अपने बेटे चेतन आनंद के राजनीतिक भविष्य की चिंता है और इस के लिए वे जीभ खींचने को भी तैयार हैं. इस दौरान चाचाभतीजे के इशारों पर नाचना उन की मजबूरी हो गई है.

मूर्ति विसर्जन जानलेवा भी

मध्य प्रदेश के एकएक गांव, जिन में अधिकतर लोग छोटी जाति के रहते हैं, जुलूस की शक्ल में दशा माता का विसर्जन करने जा रहे थे. तभी हाइवे पर तेज रफ्तार से आते एक ट्रक ने बेकाबू हो कर जुलूस को रौंद दिया. जिस से मौके पर ही 3 लोगों की मौत हो गई और कई श्रद्धालु घायल हो गए.

पहली नजर में गलती बेशक ट्रक ड्राइवर की है जो ट्रक की रफ्तार काबू में नहीं रख सका. पर धर्म के नाम पर सड़क को घेर कर भीड़ जमा कर कर मूर्ति विसर्जन के लिए नाचतेगाते जाना किस की गलती है. सड़कें धार्मिक कार्यक्रमों के प्रचार के लिए हैं या वाहनों के लिए. लोग खुद के जनून को काबू में नहीं रख पाते और बेवक्त मारे जाते हैं. कहने को तो दशा माता या कोई और मूर्ति, जिस का विसर्जन होने वाला है, भक्तों की जिंदगी संवारती है, पर वह भी ट्रक ड्राइवर जैसी लापरवाह और बेरहम ही निकले तो सोचना जरूरी है कि आखिर क्यों बचाने वाला भगवान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहता है.

झांकियों का सच

पिछले दशकों में धार्मिक कार्यक्रमों की गिनती अचानक बढ़ी और कई गुना होने लगी है. आएदिन गणेश, दुर्गा, राम और कृष्ण की झांकियां लगती रहती हैं. कुछ जगह ये झांकियां 8-9 दिनों तक चलती हैं. इन में जम कर पूजापाठ और नाचगाना होता है. भीड़ भी ऐसी उमड़ती कि पांव रखने की जगह नहीं मिलती और धक्कामुक्की में ही लोगों को आनंद आने लगता है.

झांकियों के दौरान हर कभी, हर कहीं सड़कें घेर ली जाती हैं. जाम होता है जिस से आम लोगों को परेशानी होती है. इन झांकियों में अरबों नहीं, खरबों रुपए फूंके जाते हैं. इस से चंदे की शक्ल में आम लोगों को जरूर जम कर आमदनी होती है.

लोग पहले 8-10 के गुट में पंडाल में रखी मूर्ति के सामने 8-9 दिन खूब चढ़ावा व प्रसाद चढ़ाते हैं. इस बाबत उन्हें कैसेकैसे उकसाया जाता है, यह वे खुद भी नहीं समझ पाते. गणेश और दुर्गा की झांकियां अब ब्रैंडेड हो चली हैं, जिन में मूर्ति ही करोड़ों रुपए की रखी जाती हैं और इस से भी ज्यादा रकम बिजली, सजावट व नाचगाने पर खर्च किया जाता है. भोपाल के न्यू मार्केट में गणेश की सोने की भी मूर्ति रखी गई तो सहज लगा कि देश में कोई गरीबी या महंगाई नहीं है.

यही हाल दुर्गा की झांकियों का है. नवरात्र के दिनों में भक्तों और भक्ति दोनों का जनून देखते ही बनता है. मामला इस तरह का गंभीर है कि एक राज्य के पीओपी बोर्ड ने पीओपी की मूर्तियों को बनाने पर बैन लगाया क्योंकि विसर्जन के बाद पीओपी जमीन में घुलती नहीं है. इस पर भक्त सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गए. गनीमत है सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2023 में इस पागलपन को धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं माना और भक्तों को भगा दिया.

फिर होता है विसर्जन

8-9 दिन तबीयत से पैसा और वक्त बरबाद करने के बाद होता है इन झांकियों की मूर्तियों का विसर्जन, जिन में लोग पागलों की तरह झूमतेनाचतेगाते मूर्ति को ट्रक, ठेके या दूसरे किसी वाहन में सजा कर नदियों, तालाबों और समुद्रों के किनारे ले जाते हैं. डोल ग्यारस, अनंत चतुर्दशी और नवरात्र में नवमी व दशहरे के दिन देश की जिंदगी झाकियों में ठहर सी जाती है.

विसर्जन के पहले चल समारोह होता है, जो अब गांवदेहातों में भी इफरात से होने लगे हैं. लोग बैंडबाजे के साथ मूति को सजा कर नदी, तालाब या समंदर किनारे ले जाते हैं और बड़े जज्बाती हो कर, गला फाड़ कर जयकारे से मूर्ति को पानी में बहा देते हैं.

जानलेवा जनून

विसर्जन जलसों के दौरान भक्तों का जनून देखते ही बनता है और मूर्ति को पानी में बहाने के दौरान कितने लोग पानी में डूब कर मर जाते हैं. इस का ठीकठाक आंकड़ा तो किसी के पास नहीं क्योंकि ऐसे लोग इसे दुर्घटना मान कर चुप हो कर मृत का दाह कर देते हैं.

राजधानी दिल्ली में बहुत तरह के इंतजाम, वरदी में नियुक्त गार्डों के बावजूद अब भी कई लोग मूर्ति विसर्जन के दौरान डूब कर मरते हैं. यमुना नदी में मूर्ति के साथ डूब कर मरने वालों की तादाद भी रहती है जबकि यमुना में विसर्जन पर बैन है.

गणेश प्रतिमा के विसर्जन के दौरान नदियों के अलगअलग घाटों पर मूर्ति गहरे पानी में ले जाने से भक्त लोग डूब कर मरते रहते हैं, जबकि, हरेक घाट पर चाकचौबंद इंतजाम पुलिस के होते हैं और गोताखोर भी तैनात रहते हैं. इस के बाद भी हादसे हो ही जाते हैं क्योंकि धर्म और दूसरे नशों में डूबे उन्मादी भक्त किसी की सुनते नहीं. आइए देखें ऐसे ही कुछ ताजा हादसे-

– आगरा में गणेश विसर्जन के दौरान पोइया घाट पर 5 युवक डूब गए जिन में से संभवत 3 की मौत हो गई क्योंकि 28 सितम्बर की देर रात तक पुलिस को उन की कोई खबर नहीं मिली थी.

– इसी दिन दिल्ली में गणेश विसर्जन के दौरान यमुना नदी में डूबने से 2 सगे भाइयों की मौत हो गई. निठारी में रहने वाला 6 साल का कृष्णा और 15 साल का धीरज मूर्ति विसर्जित करते करते खुद ही विसर्जित हो गए.

– 26 सितम्बर को मध्यप्रदेश के दतिया के सिद्ध बाबा मंदिर कैंपस में हुए एक बड़े हादसे में 10 बच्चे विसर्जन कुंड में डूब गए, जिन में से 3 मासूम बच्चियां और एक बच्चा बेवक्त काल के गाल में समा गए. कोई भगवान या मूर्ति इन्हें नहीं बचा पाए. ये सभी छोटी जाति के थे.

– उत्तर पूर्वी दिल्ली के न्यू उस्मानपुर इलाके में सपरिवार गणेश विसर्जन के लिए गए 18 वर्षीय युवक सूरज की मौत 28 सितम्बर को यमुना खादर में डूबने से हो गई. सूरज 4 बहनों का इकलौता भाई था.

– इसी दिन उत्तर प्रदेश के उन्नाव में गणेश विसर्जन के दौरान एक छात्र और शिक्षक की डूबने से मौत हो गई. हर बार की तरह देश भर में सैकड़ों ऐसे हादसे हुए जिन की लिस्ट बहुत लम्बी है.

पिछले साल बिहार के गया में सरस्वती की मूर्ति का विसर्जन करने गए 2 युवक नदी में डूब कर मर गए थे, जबकि 3 नौजवानों को गोताखोरों ने वक्त रहते बचा लिया था. इस पर भी भक्तों ने जम कर प्रशासन को कोसा था. बात समझ से परे है कि प्रशासन की इस में क्या गलती है. बारबार अपील करने के बाद भी ये नौजवान भक्त गहरे पानी में जा कर मूर्ति बहाने की जिद पर खड़े थे. ऐसे में सरस्वती माता ने इन्हें बुद्धि नहीं दी, उलटे जान ले ली.

कौन है जिम्मेदार

ये तो कुछ ही उदाहरण थे, वरना तो हर साल गणेश चतुर्थी और नवरात्र के दौरान मूर्ति विसर्जन में हजारों की तादाद में लोग मारे जाते हैं. आजकल मरने वालों में अधिकांश लोग दलित और छोटी जाति के होते हैं क्योंकि मूर्ति ढोने का मेहनतभरा काम बड़ी चालाकी से उन के सिर पर ही थोप दिया गया है. वैसे वे अछूत हैं पर चूंकि ऊंची जातियों के युवाओं में इस तरह काम की आदत नहीं रही तो दलितों को स्थान मिलने लगा है.

जिम्मेदार प्रशासन नहीं, सरकार नहीं, असल में वह पुजारी जो 8-10 दिन झांकी में बैठ कर पूजापाठ, आरती और यज्ञ, हवन करता है लेकिन मूर्ति विसर्जन के लिए जाता नहीं है. दूसरे जिम्मेदार छोटी जाति वालों का मान लिया गया है जिन्हें जान से खेलने में डर नहीं लगता. उन्हें लगता कि इस से उन की जाति सुधर रही है.

इन लोगों के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भर दी गई कि झांकी की मूर्ति जो भी विसर्जित करता है उस पर भगवान ज्यादा खुश होता है. यह खुशी किस तरह ही होती है, यह मौतों से समझ आता है.

विसर्जन के दौरान भक्ति का ढोंग करने वाले लोग छक कर शराब भी पीते हैं और खूब हुड़दंग मचाते हैं. जैसे बिना शराब पिए हिंदुओं की बरातों में डांस नहीं होता, ठीक वैसे ही बगैर नशा किए विसर्जन समारोह में मजा नहीं आता. एक झांकी संचालक की मानें तो खुद झांकी समिति वाले ही विसर्जन के दिन मूर्ति ढोने वालों को शराब मुहैया कराते हैं जिस से उन्हें होश न रहे और वे मुफ्त की हम्माली करते रहें.

मूर्ति विसर्जन के दौरान मरने वालों में 80 फीसदी बच्चे और नौजवान होते हैं. बेरहम भगवान क्यों इन्हें अपने पास बुला लेता है, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं. मरने वालों के घर वाले रोतेबिलखते रहते हैं और उस घड़ी को कोसते नजर आते हैं जब उन्होंने बच्चों को विसर्जन में जाने की इजाजत दी थी.
सरकार को चाहिए कि वह झांकियों के शोर, अनापशनाप पैसों की बरबादी और विसर्जन पर रोक लगाने की पहल करे जिस के चलते हजारों लोग हर साल बेमौत मारे जाते हैं.

मैं एक आदमी से प्यार करती हूं, जो अपनी पत्नी से संतुष्ट नहीं है, बताएं अब मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 40 वर्षीया विधवा हूं. मेरे 4 बच्चे हैं. मैंने बड़ी मेहनत कर के पढ़ाई की और अब नौकरी करती हूं. इसी बीच मेरा परिचय एक 45 वर्षीय व्यक्ति से हो गया. वह मेरी हर बात मानता है. वह अपनी पत्नी से संतुष्ट नहीं है. मुझे उस से प्यार हो गया है. वह अपने परिवार वालों को कोई कष्ट नहीं देना चाहता. वह उन पर पैसा व्यय करता है पर मेरे लिए कभी कुछ ला कर नहीं देता. इसलिए कभीकभी झगड़ा भी हो जाता है. फिर भी मैं उस के लिए बेचैन रहती हूं. बताइए, मुझे क्या करना चाहिए.

जवाब

यदि बिना किसी बंधन व खर्च के किसी विवाहित पुरुष को दूसरी स्त्री का साथ मिल जाए तो कौन छोड़ेगा? यह आप को देखना है कि वह वास्तव में आप से प्रेम करता है या यह सब महज यौनाकर्षण है. आप उस पुरुष को मित्र मानिए और न उस से कोई आशा करें और न मित्रता से अधिक उस से व्यवहार करें. इस के अलावा आप दोनों के निजी मामले से भी कहीं ऊपर आप दोनों की अपनेअपने परिवारों के प्रति जिम्मेदारियां भी हैं. आप को उन जिम्मेदारियों के प्रति सतर्क रहना चाहिए.

प्रेग्नेंसी के दौरान बेहद जरूरी है सही खानपान

प्रेग्नेंसी के दिनों में पोष्टिक खानपान की जरूरत होती है. जिससे मां और बच्चे को सही पोषण मिल सके. इसलिए ये जानना बहुत जरूरी है कि खानपान कैसा हो और कितना हो.

डॉक्टर्स का भी मानना है कि गर्भावस्था ऐसा समय है, जब मां को अच्छे पोषण की जरूरत होती है. इस दौरान सही पोषण बच्चे के विकास और मां के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए जरूरी होता है. इसलिए प्रेग्नेंसी के दौरान मां को ध्यान रखना चाहिए कि उसके पोषण में विटामिन और मिनरल्स की कमी न हो. गर्भावस्था के दौरान सही डायट चार्ट बनाना और उसका पालन करना बहुत जरूरी है.

सही आहार, जच्चा बच्चा दोनों स्वस्थ

गर्भावस्था के दौरान आप जो भी आहार लेती हैं, उससे न केवल आपके शरीर को पोषण मिलता है, बल्कि पेट में पल रहे बच्चे का भी विकास होता है. हर दिन के साथ आपकी मैक्रो एवं माइक्रो न्यूट्रिएन्ट्स की जरूरत बढ़ती जाती है.

आपको हर ग्रुप का भोजन अपने आहार में शामिल करना चाहिए. इससे आपके लिए यह ध्यान में रखना आसान हो जाता है कि आप क्या खा रही हैं. जरूरी है कि हर भोजन में कम से कम तीन ग्रुप संतुलित मात्रा में शामिल हों. जंक फूड के सेवन से बचें, क्योंकि इससे बेवजह आपका वजन बढ़ेगा और पोषक पदार्थों की कमी होगी.

तलभुने आहार से रखें दूरी

आमतौर पर हमारे देश में गर्भावस्था के दौरान घी में बना खाना खाने की सलाह दी जाती है. हालांकि इस तरह के आहार के अपने फायदे हैं, लेकिन इसका सेवन सीमित मात्रा में ही करना चाहिए. नहीं तो वजन तेजी से बढ़ता है और बच्चे के जन्म के बाद वजन कम करना  मुश्किल हो जाता है. इस दौरान सक्रिय रहें और सेहतमंद आहार लें.

आहार में सभी समूहों के पोषक पदार्थ शामिल होने चाहिए जैसे काबोर्हाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन व मिनरल्स और डेयरी उत्पाद

खानपान सम्बंधी जरूरी सुझाव

-प्रेग्नेंसी में भूख खूब लगती है और ज्यादातर महिलाएं भूख लगने पर जंक फूड खाना पसंद करती हैं. ऐसे भोजन में काबोहाइड्रेट व वसा भरपूर मात्रा में होता है लेकिन पोषक पदार्थो की कमी होती है.

इसी तरह अगर आपको कोई भोजन अच्छा नहीं लग रहा, जो आपकी सेहत और बच्चे के विकास के लिए जरूरी है तो अपने डायटीशियन से बात कर इसका कोई विकल्प ढूंढें ताकि आपकी पोषण संबंधी सभी जरूरतें पूरी हो सकें.

दिन में दो से तीन बार भरपेट खाने की बजाए कम मात्रा में बार-बार खाएं. इससे पाचन की समस्या नहीं होगी. इसके अलावा नियमित रूप से थोड़ा बहुत व्यायाम करें, जिससे शरीर में हॉर्मोंस का संतुलन बना रहेगा और आप गर्भावस्था के दौरान फिट और चुस्त बनी रहेंगी.

पुनर्जन्म : उसे पुनर्जन्म का अहसास क्यों हो रहा था ?

story in hindi

आदमी का स्वार्थ

उस बालक को मानो सेब के उस पेड़ से स्नेह हो गया था और वह पेड़ भी बालक के साथ खेलना पसंद करता था. समय बीता और समय के साथसाथ नन्हा सा बालक कुछ बड़ा हो गया. अब वह रोजाना पेड़ के साथ खेलना छोड़ चुका था. काफी दिनों बाद वह लड़का पेड़ के पास आया तो बेहद दुखी था.

‘‘आओ, मेरे साथ खेलो,’’ पेड़ ने लड़के से कहा.

‘‘मैं अब नन्हा बच्चा नहीं रह गया और अब पेड़ पर नहीं खेलता,’’ लड़के ने जवाब दिया, ‘‘मुझे खिलौने चाहिए. इस के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं. मैं पैसे कहां से लाऊं?’’

‘‘अच्छा तो तुम इसलिए दुखी हो?’’ पेड़ ने कहा.

‘‘मेरे पास पैसे तो नहीं हैं, पर तुम मेरे सारे सेब तोड़ लो और बेच दो. तुम्हें पैसे मिल जाएंगे.’’

यह सुन कर लड़का बड़ा खुश हुआ. उस ने पेड़ के सारे सेब तोड़ लिए और चलता बना. इस के बाद वह लड़का फिर पेड़ के आसपास दिखाई नहीं दिया. पेड़ दुखी रहने लगा.

अचानक एक दिन लड़का फिर पेड़ के पास दिखाई दिया. वह अब जवान हो रहा था. पेड़ बड़ा खुश हुआ और बोला, ‘‘आओ, मेरे साथ खेलो.’’

‘‘मेरे पास खेलने के लिए समय नहीं है. मुझे अपने परिवार की चिंता सता रही है. मुझे अपने परिवार के लिए सिर छिपाने की जगह चाहिए. मुझे एक घर चाहिए. क्या तुम मेरी मदद कर सकते हो?’’ युवक ने पेड़ से कहा.

‘‘माफ करना, मेरे बच्चे, मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई घर तो नहीं है, हां, अगर तुम चाहो तो मेरी शाखाओं को काट कर अपना घर बना सकते हो.’’

युवक ने पेड़ की सभी शाखाओं को काट डाला और खुशीखुशी चलता बना. उस को प्रसन्न जाता देख कर पेड़ प्रफुल्लित हो उठा. इस तरह नन्हे बच्चे से जवान हुआ दोस्त फिर काफी समय के लिए गायब हो गया और पेड़ फिर अकेला हो गया, उस की हंसीखुशी उस से छिन गई.

काफी समय बाद अचानक एक दिन गरमी के दिनों में वही युवक  से अधेड़ हुआ व्यक्ति पेड़ के पास आया तो पेड़ खुशी से फूला नहीं समाया, मानो उस की जिंदगी वापस आ गई हो. पेड़ ने उस से कहा, ‘‘आओ, मेरे साथ खेलो.’’

‘‘मैं बहुत दुखी हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘अब मैं बूढ़ा होता जा रहा हूं. मैं एक जहाज पर लंबे सफर पर निकलना चाहता हूं ताकि आराम कर सकूं. क्या तुम मुझे एक जहाज दे सकते हो?’’

‘‘मेरे तने को काट कर जहाज बना लो. तुम इस जहाज से खूब लंबा सफर करना और बस, अब खुश हो जाओ,’’ बालक से अधेड़ बने व्यक्ति ने पेड़ के तने से एक जहाज बनाया और सफर पर निकल गया और फिर गायब हो गया.

काफी समय के बाद वह पेड़ के पास फिर पहुंचा.

‘‘माफ करना मेरे बच्चे, अब मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं बचा है. अब तो सेब भी नहीं रहे,’’ पेड़ ने बालक से कहा.

‘‘मेरे दांत ही नहीं हैं कि मैं सेब चबाऊं,’’ उस ने उत्तर दिया.

‘‘अब वह तना भी नहीं बचा जिस पर चढ़ कर तुम खेलते थे.’’

‘‘अब मेरी उम्र मुझे पेड़ पर चढ़ने की इजाजत नहीं देती,’’ रुंधे गले से उस ने कहा.

‘‘मैं सही मानों में तुम्हें कुछ दे नहीं सकता. अब मेरे पास केवल मेरी बूढ़ी मृतप्राय जड़ें ही बची हैं,’’ पेड़ ने आंखों में आंसू ला कर कहा.

‘‘अब मैं ज्यादा कुछ नहीं चाहता. चाहता हूं तो बस एक आराम करने की जगह. मैं इस उम्र में अब बहुत थका सा महसूस कर रहा हूं,’’ उस ने कहा.

‘‘वाह, ऐसी बात है. पेड़ की पुरानी जड़ें टेक लगा कर आराम करने के लिए सब से बढि़या हैं. आओ मेरे साथ बैठो और आराम करो,’’ पेड़ ने खुशीखुशी उस को आराम करने की दावत दी.

वह टेक लगा कर बैठ गया.

ये सेब के पेड़ हमारे अभिभावकों की तरह हैं. जब हम बच्चे होते हैं तो पापामम्मी के साथ खेलना पसंद करते हैं. जब हम पलबढ़ कर बड़े होते हैं तो अपने मातापिता को छोड़ कर चले जाते हैं और उन के पास गाहेबगाहे अपनी जरूरत से ही जाते हैं, जब कोई ऐसी जरूरत आन पड़ती है जिसे खुद पूरा करने में असमर्थ होते हैं. इस के बावजूद हमारे अभिभावक ऐसे मौकों पर हमारी सब जरूरतें पूरी कर हमें खुश देखना चाहते हैं.

आदमी कितना कू्रर है कि उस सेब के पेड़ का फल तो फल उस की शाखाएं और तने तक काट डालता है, वह भी अपने स्वार्थ की खातिर. इतना कू्रर कि पेड़ काटते समय उसे जरा भी उस पेड़ पर दया नहीं आई, जिस के साथ बचपन से खेला, उस के फल खाए और उस के साए में मीठी नींद का मजा लिया.

वहीदा रहमान : दादा साहब फाल्के पुरस्कार सम्मान का अर्थ

हम ज्यादा दूर न भी जाएं, पिछले वर्ष की विजेता आशा पारेख को ही हम लें, तो यह सब जानते हैं कि वहीदा रहमान की अभिनययात्रा आशा पारेख से बहुत पहले की है. कम से कम भारत सरकार की पुरस्कार समिति और सरकार को यह देखना चाहिए कि पुरस्कारों में वरिष्ठता क्रम तो बना रहे. यह कदापि नहीं होना चाहिए कि किसी जूनियर को तख्तोताज पर पहले बैठा दिया जाए और किसी वरिष्ठ को बाद में यह सम्मान मिले तो फिर यह आलोचना का विषय तो बन ही जाएगा. इस के साथ ही हम अपने पाठकों को वहीदा रहमान के उसे जलवे के बारे में बता रहे हैं जिसे उन्होंने वह मुकाम दिया है जो कभी मिटाया नहीं जा सकता और आने वाली पीढ़ियां उसे हमेशा याद रखेंगी.

फिल्म अभिनेत्री वहीदा रहमान को आखिरकार भारतीय सिनेमा में महान योगदान के लिए इस वर्ष के दादासाहेब फाल्के स्कार से सम्मानित किए जाने की केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने घोषणा की है. दरअसल, भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाला दादा साहेब फाल्के पुरस्कार भारतीय फ़िल्म दुनिया के क्षेत्र में देश का सर्वोच्च पुरस्कार है. महान अभिनेत्री वहीदा रहमान को पूर्व में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए 2 फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिल चुके हैं.

अपने सिस्टमेटिक अभिनय से देशदुनिया में अपनी अलग जगह बनाने वाली वहीदा रहमान ने ‘प्यासा’, ‘सीआईडी’, ‘गाइड’, ‘कागज के फूल’, ‘साहिब बीवी और गुलाम’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘तीसरी कसम’, ‘नील कमल’, ‘खामोशी’ और ‘त्रिशूल’ समेत लगभग सौ फिल्मों में अभिनय कर‌ लोगों का दिल जीता. उन्होंने दिवंगत अभिनेता देव आनंद की जन्मशती पर कहा- ‘मैं बहुत खुश हूं और दोगुनी खुशी है क्योंकि आज (26 सितंबर) देव आनंद जी की जयंती है. मुझे लगता है, ‘यह तोहफा उन को मिलना था, मुझे मिल गया है.’

लीक से हट कर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर इस पुरस्कार के संबंध में घोषणा की. उन्होंने लिखा- ‘मुझे यह घोषणा करते हुए बहुत खुशी और सम्मान महसूस हो रहा है कि वहीदा रहमान जी को भारतीय सिनेमा में उन के उत्कृष्ट योगदान के लिए इस वर्ष प्रतिष्ठित ‘दादा साहब फाल्के लाइफटाइम अचीवमैंट पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा रहा है.’

पाठकों को हम बताते चलें कि 2021 के लिए यह पुरस्कार 69वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में प्रदान किया जाएगा. पुरस्कार के 5-सदस्यीय निर्णायक मंडल में वहीदा रहमान की करीबी और विगत वर्ष दादासाहब फाल्के सम्मान की विजेता आशा पारेख, अभिनेता चिरंजीवी, परेश रावल, प्रसन्नजीत चटर्जी और फिल्मकार शेखर कपूर थे जिन्होंने सर्वसम्मति से वहीदा रहमान के नाम पर सहमति जताई. वहीदा रहमान (85 वर्ष) ने 1955 में तेलुगू फिल्मों ‘रोजुलु मारायी’ और ‘जयसिम्हा’ से अभिनय के क्षेत्र में पदार्पण किया. हिंदी फिल्मों में वहीदा रहमान ने 1956 में ‘सीआईडी’ फिल्म के जरिए डैब्यू किया. इस फिल्म में वहीदा रहमान के सब से पसंदीदा नायक देव आनंद ने भी अभिनय किया था.

वहीदा रहमान का जन्म तमिलनाडु के चेंगलपटू में हुआ. उन्होंने और उन की बहन ने मुसलिम होते हुए भी चेन्नई में भरतनाट्यम सीखा. जब वे किशोरावस्था में थीं तब उन के पिताश्री की मृत्यु हो गई. वहीदा रहमान ने 6 दशकों से अधिक के अपने कैरियर में विभिन्न भाषाओं में लगभग सौ फिल्मों में अभिनय कर‌ अनेक फिल्मों को अमर बना दिया जिन में ‘कागज के फूल’, ‘प्यासा’, ‘तीसरी कसम’ प्रमुख हैं. उन्हें ‘रेशमा और शेरा’ (1971) में उत्कृष्ट अभिनय के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण से पहले ही सम्मानित किया जा चुका है.

सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने सोशल मीडिया मंच के जरिए कहा- ‘जब संसद ने ऐतिहासिक नारी शक्ति वंदन अधिनियम पारित किया है, तो ऐसे में भारतीय सिनेमा की शीर्ष महिलाओं में शुमार वहीदा रहमान को इस ‘लाइफटाइम अचीवमैंट’ पुरस्कार से नवाजा जाना और भी उपयुक्त है. उन्होंने आगे कहा- ‘वहीदा रहमान ने फिल्मों के बाद अपना जीवन परोपकार और समाज के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया. मैं उन्हें बधाई देता हूं और उन के उस उत्कृष्ट कार्य के प्रति विनम्रतापूर्वक सम्मान व्यक्त करता हूं जो हमारे फिल्म इतिहास का एक अहम हिस्सा है.”

85 वर्ष की उम्र में

बेंगलुरु में‌ अपने सादगी पूर्ण आवास में रहने वाली वहीदा रहमान बहुत कम फिल्मों में ही काम करती थीं. 1990 और 2000 के दशकों में उन्होंने ‘लम्हे’, ‘चांदनी’, ‘रंग दे बसंती’ और ‘दिल्ली 6’ में चरित्र भूमिकाएं अदा कीं. उन्होंने 2021 में रिलीज हुई ‘स्केटर गर्ल’ फिल्म में आखिरी बार अभिनय किया था. फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित ‘तीसरी कसम’ की हीराबाई अगर अमर है तो वहीदा रहमान भी अपने जीवंत अभिनय के लिए लोगों का प्यार सदैव पाती रहेंगी.

राजनीति में महिलाओं का योगदान कमतर नहीं

1950 में भारतीय महिलाओं को पुरुषों के साथ वोट देने का अधिकार दिया गया जिस के दम पर महिलाओं ने घर की चारदीवारी से निकल कर राष्ट्र निर्माण के स्वाद को चखा. 1951-52 में भारत में पहले आम चुनाव हुए और देश के स्वर्णिम भविष्य का सफर शुरू हुआ जिस में महिलाओं की भागीदारी को भी उतनी ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी जितनी पुरुषों को. लेकिन अफसोस की बात है कि देश की स्वत्रंतता के लिए कंधे से कंधा मिला कर लड़ने वाली इस आधी आबादी को धीरेधीर हाशिए पर धकेल दिया गया. उन्हें केवल परंपरा के नाम पर घर के किचन से पूजापाठ, धर्मकांडों और शोभायात्राओं तक सीमित कर दिया गया. आजादी में उन की भागीदारी को सराहा तो गया, पर जब बात आई नेतृत्व की तो उन्हें इस पुरुष प्रधान देश में नाकाबिल समझ दरकिनार कर दिया गया. जो कोई नई बात नहीं थी.

प्राचीनकाल से ही महिलाओं को समानता की दृष्टि नहीं देखा जा रहा. कमजोर और कमतर समझ कर उन की अवहेलना की जाती रही है. वर्तमान लोकसभा में कुल 542 सदस्य हैं, जिन में से केवल 78 महिलाओं की सदस्यता तो इसी बात को साबित करती है.

आजादी से पहले से और अब तक ऐसे कितने ही नाम हैं जो महिलाओं की चिरपरिचित कमजोर और अबला नारी की छवि को बदलने की कोशिश करते रहे हैं, जिन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना कर उस छवि को तोड़ने की कोशिश की है जैसे मैडम बीकाजी कामा, जिन्होंने लंदन, जरमनी और अमेरिका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया. इन 1के लेख और भाषण क्रांतिकारियों के लिए अत्यधिक प्रेरणास्रोत बने.

विजयलक्ष्मी पंडित, जो भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की बहन थीं, वर्ष 1953 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष बनने वाली वे विश्व की पहली महिला रहीं. वे राज्यपाल और राजदूत जैसे कई महत्त्वपूर्ण पदों पर रहीं. एक सफल राजनीतिक जीवन जिया.

अरुणा आसफ अली एक स्वतंत्रता सेनानी थीं. वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने मुंबई के गोवालिया मैदान में कांग्रेस का झंडा फहराया था. आजादी के बाद वे राजनीति में आईं. 1958 में दिल्ली की मेयर नियुक्त हुईं.

सरोजिनी नायडू, वे अपने पिता की ही भांति एक नामी विद्वान और कवयित्री थीं. उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और जेल भी गईं. नमक आंदोलन के दौरान वे गांधी के साथ रहीं. भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे उत्तर प्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं.

इंदिरा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं. वे देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री रहीं. 4 बार भारत गणराज्य की प्रधानमंत्री रहीं, जिस में चौथी बार में उन की राजनीतिक हत्या कर दी गई.

सुचेता कृपलानी, एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी एवं राजनीतिज्ञ थीं. वे भारत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री बनीं, जिस में उन्होंने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला. जैसे बड़ेबड़े नाम की औरतें ‘एक अच्छा लीडर साबित नहीं हो सकतीं’ वाले मिथक को तोड़ने में नाकाम साबित हुए. और जबतब औरतों की लीडरशिप की अवहेलना की जाती रही और उन पर सवाल उठाए जाते रहे.

सवाल यह नहीं था कि महिलाएं नाकाम हैं या पुरुषों से किसी भी तरह कमतर हैं. मुद्दा यह था कि उन के नीचे काम करना इस पुरुष प्रधान मानसिकता से दूषित समाज को नागवार गुजरता था. यही वजह थी कि इन मजबूत महिला शख्सियतों ने जिस रास्ते की शुरुआत की थी, वह उस तेजी से रफ्तार नहीं पकड़ पाया जैसे पकड़ना चाहिए था.

क्या थी इस की वजह?

परंपरागत बेड़ियां

वैदिक काल से ही भारत अपनेआप को विश्व गुरु कहलवाता रहा है, लेकिन ऐसा विश्व गुरु जो परंपरा की बेड़ियों तले औरतों को केवल पूजापाठ और धर्मकर्म में उलझाए रखना चाहता है. सुबह भगवान का नाम लो और शाम को भगवान का नाम लो और इस तरह सारे काम सफल हो जाएंगे. कर्मों की सही व्याख्या जैसे उन्हें समझाने की कोशिश ही नहीं की गई. व्यापक भजनकीर्तन में उन की उपस्थिति को अनिवार्य बना दिया गया. वेदपुराणों के पाठ उन के लिए आवश्यक कर दिए गए, जिन में उन के अधिकारों की बात तक नहीं की जाती है.

पितृत्तात्मक सोच और परंपरा के तले आधी आबादी को विकास के संपूर्ण मौके नहीं दिए गए. जिसे आधी आबादी केवल वोट बैंक से ज्यादा कुछ दिखाई नहीं देती. यह बाकी दुनिया से भिन्न तो नहीं है, लेकिन पश्चिम के देशों ने जिस तरह विकास के साथसाथ महिलाओं को राजनीति में प्रोत्साहन एवं मौके दिए हैं भारत जैसा दुनिया की तीसरी सब से बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला देश ऐसा नहीं दे पा रहा.

महिलाओं को आज भी एक आश्रित की तरह लिया जा रहा है. कमजोर अबला और कठोर निर्णय लेने में अक्षम समझ हाशिए पर धकेला जा रहा है, जबकि सचाई यह है कि मौके मिलने पर वे किसी भी पुरुष से अच्छा प्रदर्शन कर के दिखा रही हैं. दुनियाभर में अपनी बुद्धिमत्ता और लीडरशिप का लोहा मनवा रही हैं.

गल्फ देशों को छोड़ दिया जाए, तो दुनिया का हर देश उन्हें उन की योग्यता के अनुसार मोके दे रहा है, जिस पर वे खरी उतर रही हैं. लेकिन भारत में आप को राजनीति में उन की सक्षम भागीदारी बहुत कम देखने को मिलेगी.

संविधान के द्वारा उन्हें समानता दिलाने के प्रयास तो किए गए, लेकिन आज के परिदृश्य में ये प्रयास केवल कागजी और नाकाफी से दिखाई पड़ते हैं, खासकर राजनीति में.

पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को अग्रणी होने से रोकता आया है. राजनीति उस से अलग नहीं है. घरों की चारदीवारी में जिन के फैसलों की कदर नहीं की जाती. पिता, भाई और बेटे द्वारा जिन्हें कदमकदम पर रोका जाता है. राज्य और राष्ट्र के मुखिया के तौर पर उन के फैसलों का समर्थन करना उस के पुरुषार्थ पर चोट करता है. जो समाज स्त्री को जायदाद और सेवक की तरह भोगता आया हो, वह उस के मजबूतीकरण के लिए काम करेगा, इस में संदेह है. शायद यही कारण है कि महिला आरक्षण विधेयक जो कि संसद और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों का आरक्षण सुनिश्चित कर सकता है, पर आज तक चुप्पी सधी हुई थी, जिसे 18 अगस्त, 2023 को फिर से हवा देने का काम किया गया. केंद्र की कैबिनेट बैठक में इस बिल को मंजूरी दे दी गई. पर लागू होने में अभी वक्त लगेगा.

बना चुकी हैं पहचान

देश की महिलाओं और संविधान के अब तक के प्रयासों के फलस्वरूप वर्तमान में महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और कारपोरेट जगत में अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं. यदि राजनेता ये समझते हैं कि महिलाएं देश नहीं चला सकतीं और इसलिए वे उन्हें चुनावी टिकट देने से कतराते हैं तो उन्हें देश के अदंर बड़ीबड़ी कंपनियों को स्थापित भी कर रही हैं और चला भी रही हैं.

कंपनियों की महिला प्रबंधकों का बोलबाला

नायका एक ब्यूटी स्टार्टअप, जो देश की सब से बड़ी कंपनियों में शामिल हो गया है, की फाउंडर फाल्गुनी नायर, बायोकौन की संस्थापक किरण मजूमदार शा, फोर्ब्स सूची में भारत की 5वीं सब से अमीर महिला घोषित की जा चुकी हैं.

किरण मजूमदार शा भारत की सब से बड़ी लिस्टेड बायोफार्मास्युटिकल कंपनी बायोकौन की फाउंडर हैं. यह दवा उत्पादन के क्षेत्र की बड़ी कंपनी है.

वंदना लूथरा आज देश की सब से बड़ी और प्रतिष्ठित भारतीय उद्यमियों में से एक हैं. वे वीएलसीसी हैल्थ केयर लिमिटेड की संस्थापक और ब्यूटी एंड वेलनैस सैक्टर स्किल एंड काउंसिल की चेयरपर्सन भी हैं.

ये सभी और इन के जैसी कितनी महिलाएं हैं, जो हजारोंकरोड़ रुपयों का कारोबार संभाल रही हैं. तो महिलाएं देश चलाने के काबिल कैसे नहीं? उन्हें महिलाओं को कमतर समझने से पहले इन की तरफ भी देखना चाहिए.

6 बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रही जयललिता एक अभिनेत्री से राजनीति में आईं. तकरीबन 300 से ज्यादा मूवीज देने वाली जयललिता को ‘अम्मा’ के नाम से जाना जाता था. तमिलनाडु की जनता के बीच वे इस उपनाम से काफी फेमस रहीं. अम्मा कैंटीन, जिस में सस्ते में पेटभर खाना मिल जाता था, के लिए वे आम तमिल के दिलों में जगह बनाती चली गईं.

15 वर्ष तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित, दिल्ली की दूसरी महिला मुख्यमंत्री थीं और देश की पहली ऐसी महिला मुख्यमंत्री थीं, जिन्होंने लगातार 3 बार मुख्यमंत्री पद संभाला.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तकरीबन 20 साल तक कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहीं. विदेशी मूल का होने के कारण उन का विरोध हुआ तो उन्होंने सत्ता छोड़ कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया.

कोलकाता में जनमी ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री पद पर कार्यरत हैं. वहीं जम्मूकश्मीर की प्रथम मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती एक भारतीय राजनीतिज्ञ और जम्मूकश्मीर की 13वीं और एक महिला के रूप में राज्य की प्रथम मुख्यमंत्री हैं. वे जम्मूकश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी हैं.

मायावती 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं. बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, जो बहुजनों या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग और पान्थिक अल्पसंख्यकों के जीवन में सुधार के प्रयास करती हैं. वे भारत में किसी अनुसूचित जाति की पहली महिला मुख्यमंत्री रहीं.

ऐसे बड़ेबड़े और सफल नाम इस बात को साबित करते हैं कि यदि भारतीय राजनीति में महिलाओं को मौके दिए जाते हैं, तो वे किसी पुरुष से बेहतर करने की सामर्थ्य रखती हैं.

यदि इस पुरुष प्रथम वाली सोच को किनारे रख कर उन्हें मौके दिए जाएं तो राजनीति में उन की भागीदारी बेहतर हो पाती और समाज में उन की भागीदार और सशक्तीकरण की तरफ मजबूती से कदम उठाए जाते.

क्या है स्थिति

भारत के 28 राज्यों में से वर्तमान में केवल पश्चिम बंगाल में महिला मुख्यमंत्री हैं और 78 सदस्यों वाली मोदी कैबिनेट में केवल 11 सदस्य महिलाएं हैं. निर्मला सीतारमण भारत की वित्त मंत्री का पद संभाल रही हैं.

स्मृति ईरानी, 2019 से केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री और केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री का पद संभाल रही हैं.

मीनाक्षी लेखी, जो भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं, के अलावा निरंजन ज्योति, रेणुका सिंह सरुता, दर्शना जरदोश, प्रतिभा भौमिक, शोभा करंदलाजे, भारती पवार, अनुप्रिया पटेल, अन्नपूर्णा देवी शामिल हैं. इन में से कइयों के नाम शायद आप पहली बार सुन रहे होंगे. वहीं राज्य विधानसभाओं के मामले में महिला विधायक 9 फीसदी हैं.

भारतीय चुनाव आयोग की नवीनतम उपलब्ध रिपोर्ट के अनुसार, अक्तूबर 2021 तक संसद के सभी सदस्यों में से 10.5 फीसदी महिलाएं प्रतिनिधित्व करती हैं. भारतीय संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के बाद पंचायती राज संस्था में महिलाओं के लिए एकतिहाई सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है. पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी कुछ बढ़ी जरूर है, पर वे पंचायतों से आगे नहीं बढ़ पा रही है. उन्हें अभी भी केवल एक कठपुतली के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.

शिक्षा की कमी और हिंसा भी है कारण

सवाल उठता है कि राजनीति में महिलाओं की सशक्त भागीदार न हो पाने की क्या वजहें हैं?

राजनीति शिक्षा पर केंद्रित है. एक शिक्षित व्यक्ति अपने और दूसरों के अधिकारों की समझ रखता है. संविधान की समझ उसे इस काबिल बनाती है कि वह अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल कर सके. शिक्षा उसे ये मौके देती है. लेकिन महिलाओं में शिक्षा की कमी भी कहींकहीं इस की जिम्मेदार ठहराई जा सकती है.

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में महिला साक्षरता दर मात्र 64.46 फीसदी है, और यह भी केवल नगरों की मुख्य तौर पर, जबकि ग्रामीण महिला साक्षरता दर इस का आधा यानी 31 फीसदी है, जो राजनीति में उन की भागीदीरी के लिए एक बाधक तौर पर उभर कर सामने आती है.

महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा उन्हें राजनीति में आने से रोकती है. यह हिंसा उन के घर से ले कर उन के राइवल्स तक के द्वारा की जाती है. घर से निकलने के लिए उन्हें अपने घर में मौजूद पुरुष सदस्यों की इजाजत लेनी होती है, जिस के बिना वे किसी राजनीति छोड़िए, घर से बाहर भी नहीं निकल सकतीं. यदि वे निकलने की कोशिश करती हैं, तो उन्हें घर से बाहर करने की बातें कही जाती हैं, डरायाधमकाया जाता है और यहां तक कि मारपीट तक की जाती है.

यदि वे घर से निकलने में कामयाब हो जाती हैं, तो उन के पौलीटिकल राइवल्स उन्हें काम करने नहीं देते. उन्हें रोकने के लिए धमकियों भरे संदेश से ले कर गुंडे तक भेजे जाते हैं. बलात्कार से ले कर जान से मार देने या घर के किसी सदस्य तक को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जाती है. न जाने ऐसी कितनी ही महिलाएं इस डर से राजनीति से जुड़ना नहीं चाहती. यही कारण है कि जो इस वक्त राजनीति में सक्रिय हैं, वे या तो जिन की पुश्तें राजनीति करती आई हैं या वे हैं जो संपन्न घरों से आती हैं जैसे प्रियंका गांधी, वसुंधरा राजे, महबूबा मुफ्ती वगैरह.

सवर्ण वर्गों की महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी दलित महिलाओं से अधिक देखी गई. लेकिन उन में भी उन्हें केवल उन की पार्टी द्वारा वोटों के लिए मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया गया.

दलित महिला नेताओं में 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही मायावती और वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के अलावा कोई नाम दिखाई नहीं देता. फिर भी ये बात कहीं से साबित नहीं होती कि महिलाएं किसी भी रूप से पुरुषों से कमतर हैं.

विश्व राजनीति में महिलाएं

भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बेशक कम हो, लेकिन विश्व में ये भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है. विकसित और विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाएं इस का सफल उदाहरण हैं.

जर्मनी की राजनीतिज्ञ और भूतपूर्व शोध वैज्ञानिक एंजेला डोरोथी मर्केल, लाइबेरिया की राष्ट्रपति एलेन जौनसन सरलीफ अफ्रीका में निर्वाचित पहली महिला राष्ट्रपति रहीं. चिली के राष्ट्रपति मिशेल बाचेलेट चिली की कमांडर इन चीफ के रूप में सेवा करने वाली पहली महिला हैं.

दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति पार्क ग्यून – हाय दक्षिण कोरिया की पहली महिला राष्ट्रपति हैं. बेगम खालिदा जिया 3 बार बंगलादेश की प्रधानमंत्री रहीं और वर्तमान में प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद. 32 साल में पोलैंड की सब से युवा मेयर और बाद में प्रधानमंत्री बनी बीटा स्जाइड्लो. और अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस इस के अच्छे उदाहरण माने जा सकते हैं.

संसद में महिलाओं पर आईपीयू की वार्षिक रिपोर्ट में दिखाया गया है कि 1 जनवरी, 2021 तक राष्ट्रीय संसदों में महिलाओं की वैश्विक हिस्सेदारी 25.5 फीसदी है, जो एक साल पहले के 24.9 फीसदी से मामूली वृद्धि है.

संयुक्त राष्ट्र महिला कार्यकारी निदेशक फुमजिले म्लांबो-न्गकुका ने कहा, “कोई भी देश महिलाओं की भागीदारी के बिना समृद्ध नहीं होता है. हमें महिलाओं के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है, जो सभी महिलाओं और लड़कियों को उन की विविधता और क्षमताओं और सभी सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों में प्रतिबिंबित करे.”

नए आंकड़ों के मुताबिक, महिलाएं 22 देशों में राज्य या सरकार के प्रमुखों की भूमिका निभा रही हैं, जो पिछले साल इस समय 20 देशों से अधिक है. 1 जनवरी 2021 तक, निर्वाचित राष्ट्राध्यक्षों में से 5.9 फीसदी, 152 में से 9 और 6.7 फीसदी शासनाध्यक्ष, 193 में से 13 महिलाएं हैं.

यूरोप के समृद्ध होने की शायद यही वजह कि वो महिला समानता को प्राथमिकता देता आया है. यूरोप में सर्वाधिक देशों का नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं, जहां विश्व की 9 राष्ट्राध्यक्षों में से 5 महिलाएं हैं और विश्व की 13 शासनाध्यक्षों में से 7 महिलाएं हैं.

डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड और नार्वे जैसे नार्डिक देशों का नेतृत्व वर्तमान में महिलाओं द्वारा किया गया है. जब पश्चिम के विकसित देश, देश की कमान महिलाओं को सौंप सकते हैं तो भारत जैसा महिलाओं को देवी मान कर पूजता आ रहा देश ऐसा क्यों नहीं कर पा रहा है? यह सवाल उस वक्त तक पूछा जाता रहेगा जब तक कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सक्षम रूप से दिखाई नहीं देती. उन्हें राज्य और राष्ट्र दोनों ही स्तर पर मजबूती की जरूरत है. शिक्षा और सुरक्षा की सुनिश्चितता की जरूरत है. देखना होगा कि वह कब तक मुमकिन हो पाएगा.

महिला आरक्षण विधेयक कितना प्रभावी होगा

वर्षो से अधर में लटका महिला आरक्षण बिल 20 सितंबर, 2023 को लोकसभा और उस के बाद राज्यसभा में पास हो गया. लोकसभा में इसे 2 वोट के विरोध का सामने करना पड़ा, जबकि राज्यसभा में यह निर्विरोध पारित हो गया. यह बिल लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सभी सीटों में से एकतिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान करता है. लेकिन यह बिल प्रभावी होने में अभी वक्त लगेगा. आने वाली जनगणना से पहले इसे लागू कर पाना नामुमकिन है, जो वर्ष 2024 में होनी है.

जनगणना और परमीसन के बाद महिला आरक्षण विधेयक साल 2029 के लोकसभा चुनाव तक ही लागू हो पाएगा, ऐसी संभावना है. इस की समयावधि निश्चित है, जो 15 वर्ष रखी गई है, जिस का मतलब है कि 15 वर्ष बाद महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण समाप्त हो जाएगा.

गलीमहल्लों से संसद तक पूरे देश में महिलाएं जोरशोर से इस का जश्न मना रही हैं. जैसे जो देश परंपराओं और संस्कारों के तले महिलाओं को दबाता आ रहा है, धर्मअधर्म के चंगुल में उन्हें फंसा के अंधविश्वास और अज्ञानता के अंधकार में धकेलता आ रहा देश इस बिल से एक झटके में बदल जाएगा. वेदपुराणों की कसौटी पर जहां हर वक्त महिलाओं को खरा उतरने की शिक्षा दी जाती है. जहां परिवार से ऊपर किसी संस्था के अस्तित्व को स्वीकारना उन के लिए एक अधर्म माना जाता है. जहां महिला साक्षरता दर अभी भी 65.46 है और जीवन के हर मोड़ पर उन्हें लैंगिक, शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी जाती हों. जिस धरती पर औरतों को निर्वस्त्र भीड़ द्वारा सड़कों पर घुमाया जाता है और प्रशासन इस पर महीनेभर बाद जागता हो. जहां आएदिन बच्चियों और महिलाओं के साथ रेप कर उन की हत्या कर दी जाती है और प्रशासन केवल मुंह ताकता रह जाता है. ऐसे देश में ये बिल कोई नई क्रांति ले कर आएगा, इस में संदेह है.

अभी तो इस बिल को पूरी तरह लागू होने में ही वक्त लगेगा. और फिर महिलाओं का जो तबका इस का लाभ उठा भी पाएगा वो केवल एक कठपुतली के समान उन की पार्टी के लिए काम करेगा, न कि समाज और देशहित के लिए, जो कि कोई नई बात नहीं है.

कुछ बदलाव हो, यह संभव है, परंतु महिलाओं को दबाए रखने का आदी रहा यह देश उन्हें राजनीति में कितनी सक्रिय भागीदारी देने देगा, देखना दिलचस्प होगा.

जनगणना में देरी : क्या सरकार को वोट खिसकने का डर है

केंद्र सरकार ने महिला आरक्षण बिल को लोकसभा और राज्यसभा में पारित करवा लिया है. मगर इस के बाद भी अभी यह तय नहीं है कि यह कानून कब से लागू होगा. इस कानून को लागू कराने में 2 बाधाएं पार करना अभी बाकी है. पहली बाधा जनगणना और दूसरी बाधा चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन है.

भारत में हर 10 साल के बाद जनगणना होती है. 2021 में यह जनगणना कोविड के कारण नहीं हुई. कोविड के बाद सबकुछ पटरी पर आ गया। कई राज्यों में चुनाव भी हो गए पर जनगणना के बारे में फैसला नहीं हो सका है.

जनगणना के लिए नैशनल पौपुलेशन रजिस्टर को ठीक करने का काम 1 अप्रैल से 30 सितंबर, 2020 के बीच होना था. इस दौरान कोरोना महामारी की वजह से उस समय इस को टाल दिया गया. तब से लगातार यह टलता जा रहा है. जनगणना कराने वाले औफिस औफ रजिस्ट्रार ऐंड सैंसस ने सभी राज्यों को 30 जून, 2023 तक प्रशासनिक सीमाएं फ्रीज करने को कहा था. इस के 3 माह के बाद जनगणना शुरू हो सकती थी.

30 सितंबर, 2023 तक जनगणना शुरू नहीं हो पाएगी. कब तक शुरू हो पाएगी, यह जानकारी अभी तक उपलब्ध नहीं है. 2024 के लोकसभा चुनाव का समय करीब आ रहा है. इस के बीच जनगणना संभव नहीं लग रही. इस का मतलब यह है कि अब जनगणना का काम लोकसभा चुनाव के बाद होगा. जनगणना में 1 से 2 साल का समय लगता है. इस तरह से 2025-2026 तक ही यह काम पूरा हो पाएगा. जनगणना में देरी का प्रभाव चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन पर पङेगा. इस वजह से महिला आरक्षण लागू होना दूर की कौड़ी लग रहा है. 2029 से पहले इस की संभावना न के बराबर है.

पहली बार हो रही है देरी

भारत में जनगणना के 150 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है. इस से पहले 1941 में जनगणना अपने तय समय पर नहीं हो पाई थी. इस की वजह द्वितीय विश्व युद्ध था. 1961 में भारत और चीन के बीच युद्ध और 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के समय भी जनगणना में देरी नहीं हुई थी. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब कोविड महामारी के बाद सारे काम फिर से शुरू हो गए तो जनगणना को शुरू क्यों नहीं किया गया.

अब 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का समय नजदीक आ गया है. इस के बीच जनगणना संभव नहीं दिख रही है, जिस से यह कहा जाने लगा है कि अब 2024 में लोकसभा चुनाव के बाद ही यह काम हो पाएगा.

कोविड तो बहाना है

जनगणना में देरी की वजह क्या केवल कोविड है या इस के पीछे कुछ और कारण भी हैं? राजनीतिक क्षेत्रों में इस का कारण जाति जनगणना को माना जा रहा है. उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में राजनीतिक दल जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं. ऐसे में 2024 लोकसभा चुनाव के पहले जनगणना में जाति गणना को शामिल नहीं किया जाएगा तो ओबीसी नाराज हो सकते हैं, जिस का खामियाजा केंद्र की मोदी सरकार को उठाना पड़ेगा.

2018 में मोदी सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए ओबीसी जनगणना करने का वादा किया था. चुनाव के बाद सरकार का रुख बदल गया है. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में कहा है कि जाति गणना संभव नहीं है.

कोरोना के कारण सिर्फ भारत में ही जनगणना का काम नहीं हो पाया है. अमेरिका जैसे बाकी बङे देशों में 2020 में जनगणना कराई गई. यूके, इंगलैंड, स्कौटलैंड और आयरलैंड में कोरोना लहर के दौरान तय समय पर जनगणना के लिए आंकड़े जुटाने शुरू कर दिए गए थे. अब इन देशों की एजेंसियां डेटा को व्यवस्थित कर के इस का एनालिसिस कर रही हैं. कोविड महामारी से सब से अधिक प्रभावित चीन ने भी कोरोना महामारी के दौरान तय समय पर जनगणना कराई थी.

जाति जनगणना से परहेज क्यों ?

2018 में जिस बात के लिए सरकार राजी थी अब उस से परहेज क्यों? असल में यह माना जा रहा है कि जाति जनगणना में ओबीसी की संख्या बढ़ सकती है. इस का परिणाम देश की राजनीति पर भी पड़ेगा. ऊंची जातियों का प्रभाव कम होगा. यही वजह है कि सरकार इसे टाल रही है. अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने भी जति जनगणना को गलत नहीं बताया तब दिक्कत क्या आ रही है?

2024 के लोकसभा चुनाव में जाति जनगणना का प्रभाव न पङे इस के लिए इस को टाला जा रहा. केंद्र सरकार की ओर से गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 10 मार्च, 2021 को संसद में भी कहा था कि पहले की तरह ही इस बार भी जनगणना कराई जाएगी. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा किसी दूसरी जाति का डेटा जुटाने की कोई योजना नहीं है।

भारत में 1931 में पहली बार जाति आधारित जनगणना हुई थी. उसी के आंकड़ों पर आज बात होती है. 92 साल में देश के हालात बहुत बदल गए हैं. ऐसे में जाति की जनगणना से ही सही सच सामने आ पाएगा. जनगणना की देरी का प्रभाव आम लोगों पर पङेगा. 1881 के बाद से भारत में 10-10 साल के अंतराल पर जनगणना होती है.

आम लोगों पर पड़ेगा प्रभाव

फरवरी 2011 में 10-10 साल के अंतराल पर 15वीं बार जनगणना हुई थी. जनगणना की जरूरत इस वजह से होती है क्योंकि जनसंख्या का तुलनात्मक आंकङे ले कर तमाम योजनाएं बनाई जाती हैं. जिस 10 साल के आंकड़े नहीं मिलेंगे तो योजना बनाने में दिक्कत होगी. जिस का प्रभाव आम लोगों पर पङेगा.

जनगणना न होने की वजह से करीब 10 करोड़ से ज्यादा लोगों को खाद्य सुरक्षा काननू के तहत फ्री में आनाज नहीं मिल रहा है. कारण यह है कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर वर्ष 2013 में 80 करोड़ लोग फ्री में राशन लेने के योग्य थे, जबकि जनसंख्या में अनुमानित इजाफे के साथ 2020 में यह आंकड़ा 92.2 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है. अगर समय पर जनगणना हो गई होती तो बीते साल के सही आंकड़े मिल गए होते, जिस से जनता की जरूरतों का सही अनुमान लगाना संभव हो जाता.

बचपन में कैंसर, संकेत को पहचानें

सभी गैरसंचारी रोगों (एनसीडी) में कैंसर शायद सब से ज्यादा गंभीर रोग है. आंकड़े बताते हैं कि आज हर 8 लोगों में से 1 को उस के जीवनकाल (0-74 वर्ष) में कैंसर होने की संभावना रहती है. इसी तरह, हर

9 महिलाओं में से 1 को उस के जीवनकाल (0-74 वर्ष) में कैंसर होने की संभावना रहती है. हालांकि, कई कारक हैं जो कैंसर के खतरे को बढ़ाते हैं. उन में जीवनशैली से जुड़ी बातें प्रमुख वजह हैं.

हम यह मान सकते हैं कि कैंसर केवल वयस्कों को प्रभावित करता है, लेकिन भारत में और दुनियाभर में बड़ी संख्या में बच्चों में भी यह रोग दिखाई दे रहा है. जागरूकता की कमी और इस रोग की जांच में देरी से स्थिति और बिगड़ती जाती है. जोड़ों में दर्द, बुखार और सिरदर्द जैसे सामान्य लक्षणों की अनदेखी से कैंसर का निदान यानी इस की पहचान होने व फिर इलाज में देरी हो सकती है.

आंकड़ों के अनुसार, विभिन्न प्रकार के कैंसरों से पीडि़त लगभग 5 प्रतिशत रोगी 18 वर्ष से कम उम्र के हैं. हर साल देश में कैंसर के करीब 45 हजार ऐसे नए रोगी सामने आते हैं जिन की उम्र 18 वर्ष से कम है.

बचपन के कैंसर और इन के प्रकार

बच्चों का कैंसर वयस्कों से अलग होता है. सब से सामान्य अंतर तो यह है कि बच्चों में यह पूरी तरह से ठीक हो सकता है बशर्ते समय पर इस की पहचान कर ली जाए. बचपन के कैंसर के कुछ सामान्य प्रकार निम्न हैं-

मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी के ट्यूमर : बचपन के कैंसर में इन की भागीदारी लगभग 26 प्रतिशत है और इन के विभिन्न प्रकार होते हैं. बच्चों में अधिकांश ब्रेन ट्यूमर मस्तिष्क के निचले हिस्से में शुरू होते हैं, जैसे सेरिबैलम या ब्रेन स्टेम. इन के लक्षणों में प्रमुख हैं- सिरदर्द, उलटी आना, नजर का धुंधलापन, चक्कर आना, दौरे, खड़े होने या चीजों को थामने में परेशानी आदि.

न्यूरोब्लास्टोमा : यह जल्दी शुरू होता है और बड़े हो रहे भू्रण की नर्व सैल्स में पनपता है. न्यूरोब्लास्टोमा बचपन के सभी कैंसरों का लगभग 6 प्रतिशत होता है और यह शिशुओं व छोटे बच्चों में विकसित होता है. यह ट्यूमर आमतौर पर पेट में सूजन के रूप में शुरू होता है और हड्डी का दर्द तथा बुखार पैदा कर सकता है.

ल्यूकेमिया :  यह बोन मैरो और रक्त का कैंसर है, जिस की बच्चों के कैंसर में हिस्सेदारी लगभग 30 प्रतिशत है. ल्यूकेमिया के कुछ लक्षणों में हड्डी और जोड़ों में दर्द, थकान, कमजोरी, त्वचा में पीलापन, रक्तस्राव या चोट, बुखार और वजन घटना आदि शामिल हैं. तीव्र ल्यूकेमिया का जल्द से जल्द निदान और उपचार करना महत्त्वपूर्ण है वरना यह तेजी से बढ़ सकता है.

विल्म्स ट्यूमर :  यह नैफ्रोब्लास्टोमा भी कहलाता है. इस प्रकार का कैंसर एक या दोनों गुरदे में शुरू होता है. यह 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में आम है और पेट में सूजन या गांठ के रूप में प्रकट हो सकता है. अन्य लक्षणों में बुखार, दर्द, मतली या भूख न लगना आदि शामिल हैं.

लिंफोमा :  इस प्रकार का कैंसर लिंफोसाइट्स नामक प्रतिरक्षा प्रणाली कोशिकाओं में शुरू होता है. यह अस्थि मज्जा या बोन मैरो तथा अन्य अंगों को भी प्रभावित करता है. कैंसर के स्थान पर निर्भर करते हुए इस के लक्षणों में प्रमुख हैं- वजन कम हो जाना, बुखार, पसीना, थकान और गरदन, बगल या गले में त्वचा के नीचे गांठ (सूजी हुई लिंफ नोड्स) आदि.

रैब्डोमायोसारकोमा :  यह कैंसर सिर, गरदन, पेट, पैल्विस, हाथ या पैर सहित कहीं भी हो सकता है. लक्षणों में दर्द, सूजन, (एक गांठ) या दोनों हो सकते हैं. बच्चों में 3 प्रतिशत कैंसर इसी श्रेणी के होते हैं. रैब्डोमायोसारकोमा सब से सामान्य प्रकार का नरम ऊतक सारकोमा है.

रेटिनोब्लास्टोमा :  यह बचपन के कैंसरों में लगभग 2 प्रतिशत हिस्सेदारी रखता है और आंखों में होता है. यह 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में आम है. जब बच्चे की आंखों में प्रकाश पड़ता है, तो पुतली लाल दिखाई देती है. इस प्रकार के कैंसर वाले बच्चों में आंख की पुतली सफेद या गुलाबी रंग की हो जाती है और आंख का एक फ्लैश फोटो लेने पर आंख में एक सफेद चमक देखी जा सकती है.

हड्डी का कैंसर (ओस्टियोसारकोमा एवं यूइंग सारकोमा सहित) :  यह कैंसर हड्डियों से शुरू होता है और बचपन के कैंसर मामलों में लगभग 3 प्रतिशत तक पाया जाता है.

जोखिम के कारण

बचपन के कैंसर के कारण अज्ञात होते हैं. उन में से बहुत से जैनेटिक म्यूटेशन के कारण हो सकते हैं. ये अनियंत्रित कोशिका वृद्घि और आखिरकार कैंसर का कारण बनते हैं. किसी एक विशेष कारक पर बात करना मुश्किल है क्योंकि बच्चों में कैंसर एक दुलर्भ स्थिति है. यह इसलिए भी है क्योंकि विकास के चरण के दौरान कोई बच्चा किस स्थिति से गुजरा होगा, यह सुनिश्चित करना कठिन है. बच्चों में लगभग 5 प्रतिशत कैंसर इनहेरिटेड म्यूटेशन के कारण होते हैं. ली-फ्राउमेनी सिंड्रोम, बेकविथ-वीडमान सिंड्रोम, फैनकोनी एनीमिया सिंड्रोम, नूनैन सिंड्रोम और वोन हिप्पल-लिंडाउ सिंड्रोम जैसे कुछ पारिवारिक सिंड्रोम से जुडे़ परिवर्तन बचपन के कैंसर का खतरा बढ़ाते हैं.

बचपन के कैंसर का इलाज किया जा सकता है यदि इस का शीघ्र निदान किया जाता है और इलाज शुरू किया जाता है. यह एक बच्चे से दूसरे तक नहीं फैलता है. बच्चों में कैंसर का उपचार लंबा हो सकता है, इसलिए, घर में अतिरिक्त देखभाल और यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि उपचार का पूर्ण अनुशासन के साथ पालन किया जाए. इस के अतिरिक्त स्वच्छता और संतुलित पोषण भी महत्त्वपूर्ण है. एक बार उपचार पूरा हो जाने पर बच्चा किसी अन्य सामान्य बच्चे की तरह हो सकता है और फिर से स्कूल जाना व खेलना शुरू कर सकता है.

कब हों सचेत

निम्न चेतावनी संकेतों को देखना महत्त्वपूर्ण है. यदि इन में से कोई भी लक्षण बारबार दिखाई देता है या लगातार बना रहता है, तो तुरंत डाक्टर से परामर्श करना चाहिए.

– निरंतर दिख रहे लक्षणों के बारे में चिकित्सा सहायता प्राप्त करें.

– आंखों में सफेद धब्बा, भेंगापन, दृष्टिहीनता या नेत्रगोलक में उभार पर गौर करें.

– पेट और श्रोणि यानी पैल्विस, सिर, गरदन, टैस्टिस, ग्रंथियों आदि में गांठ पर गौर करें.

– बुखार, वजन और भूख में कमी, थकान, एकाएक चोट या खून बहना भी एक लक्षण हो सकता है.

– हड्डियों, जोड़ों, पीठ में दर्द और आसानी से फ्रैक्चर होने पर सचेत हो जाएं.

– व्यवहार, संतुलन, चाल में परिवर्तन तथा सिरदर्द आदि भी जोखिम कारक हैं.

(लेखक लाइब्रेट प्लेटफौर्म में औंकोलौजिस्ट हैं.)

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें