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अटूट बंधन : भाग 1

बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. आधे घंटे से लगातार हो रही थी. 1 घंटा पहले जब वे दोनों रैस्टोरैंट में आए थे, तब तो मौसम बिलकुल साफ था. फिर यह अचानक बिन मौसम की बरसात कैसी? खैर, यह इस शहर के लिए कोई नई बात तो नहीं थी परंतु फिर भी आज की बारिश में कुछ ऐसी बात थी, जो उन दोनों के बोझिल मन को भिगो रही थी. दोनों के हलक तक कुछ शब्द आते, लेकिन होंठों तक आने का साहस न जुटा पा रहे थे. घंटे भर से एकाध आवश्यक संवाद के अलावा और कोई बात संभव नहीं हो पाई थी.

कौफी पहले ही खत्म हो चुकी थी. वेटर प्याले और दूसरे बरतन ले जा चुका था. परंतु उन्होंने अभी तक बिल नहीं मंगवाया था. मौन इतना गहरा था कि दोनों सहमे हुए स्कूली बच्चों की तरह उसे तोड़ने से डर रहे थे. प्रकाश त्रिशा के बुझे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करता पर अगले ही पल सहम कर अपनी पलकें झुका लेता. कितनी बड़ीबड़ी और गहरी आंखें थीं त्रिशा की. त्रिशा कुछ कहे न कहे, उस की आंखें सब कह देती थीं.

इतनी उदासी आज से पहले प्रकाश ने इन आंखों में कभी नहीं देखी थी. ‘क्या सचमुच मैं ने इतनी बड़ी गलती कर दी, पर इस में आखिर गलत क्या है?’ प्रकाश का मन इस उधेड़बुन में लगा हुआ था.

‘होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है…’ दोनों की पसंदीदा यह गजल धीमी आवाज में चल रही थी. कोई दिन होता तो दोनों इस के साथसाथ गुनगुनाना शुरू कर देते पर आज…

आखिरकार त्रिशा ने ही बात शुरू करनी चाही. उस के होंठ कुछ फड़फड़ाए, ‘‘तुम…’’

‘‘तुम कुछ पूछना चाहती हो?’’ प्रकाश ने पूछ ही लिया.

‘‘हां, कल तुम्हारा टैक्स्ट मैसेज पढ़ कर मैं बहुत हैरान हुई.’’

‘‘जानता हूं पर इस में हैरानी की क्या बात है?’’

‘‘पर सबकुछ जानते हुए भी तुम यह सब कैसे सोच सकते हो, प्रकाश?’’ इस बार त्रिशा की आवाज पहले से ज्यादा ऊंची थी.प्रकाश बिना कुछ जवाब दिए फर्श की तरफ देखने लगा.

‘‘देखो, मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए. क्या है यह सब?’’ त्रिशा ने उखड़ी हुई आवाज से पूछा.

‘‘जो मैं महसूस करने लगा हूं और जो मेरे दिल में है, उसे मैं ने जाहिर कर दिया और कुछ नहीं. अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो मुझे माफ कर दो, लेकिन मैं ने जो कहा है उस पर गौर करो.’’ प्रकाश रुकरुक कर बोल रहा था, लेकिन वह यह भी जानता था कि त्रिशा अपने फैसले पर अटल रहने वाली लड़की है.

पिछले 3 वर्षों से जानता है उसे वह, फिर भी न जाने कैसे साहस कर बैठा. पर शायद प्रकाश उस का मन बदल पाए.

त्रिशा अचानक खड़ी हो गई. ‘‘हमें चलना चाहिए. तुम बिल मंगवा लो.’’

बिल अदा कर के प्रकाश ने त्रिशा का हाथ पकड़ा और दोनों बाहर चले आए. बारिश धीमी हो चुकी थी. बूंदाबांदी भर हो रही थी. प्रकाश बड़ी सावधानी से त्रिशा को कीचड़ से बचाते हुए गाड़ी तक ले आया.

त्रिशा और प्रकाश पिछले 3 वर्ष से बेंगलरु की एक प्रतिष्ठित मल्टीनैशनल कंपनी में कार्य करते थे. त्रिशा की आंखों की रोशनी बचपन से ही जाती रही थी. अब वह बिलकुल नहीं देख सकती थी. यही वजह थी कि उसे पढ़नेलिखने व नौकरी हासिल करने में हमेशा बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था. पर यहां प्रकाश और दूसरे कई सहकर्मियों व दोस्तों को पा कर वह खुद को पूरा महसूस करने लगी थी. वह तो भूल ही गई थी कि उस में कोई कमी है. वैसे भी उस को देख कर कोई यह अनुमान ही नहीं लगा सकता था कि वह देख नहीं सकती. उस का व्यक्तित्व जितना आकर्षक था, स्वभाव भी उतना ही अच्छा था. वह बेहद हंसमुख और मिलनसार लड़की थी. वह मूलतया दिल्ली की रहने वाली थी. बेंगलुरु में वह एक वर्किंग वुमेन होस्टल में रह रही थी. प्रकाश अपने 2 दोस्तों के साथ शेयरिंग वाले किराए के फ्लैट में रहता था. प्रकाश का फ्लैट त्रिशा के होस्टल से आधे किलोमीटर की दूरी पर ही था.

रोजाना त्रिशा जब होस्टल लौटती तो प्रकाश कुछ न कुछ ऐसी हंसीमजाक की बात कर देता, जिस कारण त्रिशा होस्टल आ कर भी उस बात को याद करकर के देर तक हंसती रहती. परंतु आज जब प्रकाश उसे होस्टल छोड़ने आया तो दोनों में से किसी ने भी कोई बात नहीं की. होस्टल आते ही त्रिशा चुपचाप उतर गई. उस का सिर दर्द से फटा जा रहा था. तबीयत कुछ ठीक नहीं मालूम होती थी.

डिनर के वक्त उस की सहेलियों ने महसूस किया कि आज वह कुछ अनमनी सी है. सो, डिनर के बाद उस की रूममेट और सब से अच्छी सहेली शालिनी ने पूछा, ‘‘क्या बात है त्रिशा, आज तुम्हें आने में देरी क्यों हो गई? सब ठीक तो है न.’’

‘‘हां, बिलकुल ठीक है. बस, आज औफिस में काम कुछ ज्यादा था,’’ त्रिशा ने जवाब तो दिया पर आज उस के बात करने में रोज जैसी आत्मीयता नहीं थी.

शालिनी को ऐसा लगा जैसे त्रिशा उस से कुछ छिपा रही थी. फिर भी त्रिशा को छेड़ने के लिए गुदगुदाते हुए उस ने कहा, ‘‘अब इतनी भी उदास मत हो जाओ, उन को याद कर के. जानती हूं भई, याद तो आती है, पर अब कुछ ही दिन तो बाकी हैं न.’’

क्या आप का बिल चुका सकती हूं : भाग 1

नीलगिरी की गोद में बसे ऊटी में राशा के साथ मैं झील के एक छोर पर एकांत में बैठी थी.

‘‘तुम्हारा चेहरा आज ज्यादा लाल हो रहा है,’’ राशा ने मेरी नाक को पकड़ कर हिलाया और बोली, ‘‘कुछ लाली मुझे दे दो और घूरने वालों को कुछ मुझ पर भी नजरें इनायत करने दो.’’

इतना कह कर राशा मेरी जांघ पर सिर रख कर लेट गई और मैं ने उस के गाल पर चिकोटी काट ली तो वह जोर से चिल्लाई थी.

‘‘मेरी आंखों में अपना चौखटा देख. एक चिकोटी में तेरे गाल लाल हो गए, दोचार में लालमलाल हो जाएंगे और तब बंदरिया का तमाशा देखने के लिए भीड़ लग जाएगी,’’ मैं ने मजाक करते हुए कहा.

उस ने मेरी जांघ पर जरा सा काट लिया तो मैं उस से भी ज्यादा जोर से चीखी.

सहसा बगल के पौधों की ओट से एक चेहरा गरदन आगे कर के हमें देखने को बढ़ा. मेरी नजर उस पर पड़ी तो राशा ने भी उस ओर देखा.

‘‘मैं सोच रही थी कि ऊटी में पता नहीं ऊंट होते भी हैं कि नहीं,’’ राशा के मुंह से निकला.

‘‘चुप,’’ मैं ने उसे रोका.

मेरी नजरों का सामना होते ही वह चेहरा संकोच में पड़ता दिखाई दिया. उस ने आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए कहा, ‘‘आई एम सौरी…मुझे मालूम नहीं था कि आप लोग यहां हैं…दरअसल, मैं सो रहा था.’’

फिर मैं ने उसे खड़ा हो कर अपने कपड़ों को सलीके से झाड़ते हुए देखा. एक युवा, साधारण पैंटशर्ट. गेहुंए चेहरे पर मासूमियत, शिष्टता और कुछ असमंजस. हाथ में कोई मोटी किताब. शायद यहां के कालेज का कोई पढ़ाकू लड़का होगा.

‘‘सौरी…हम ने आप के एकांत और नींद में खलल डाला…और आप को…’’

‘‘और मैं ने आप को ऊंट कहा,’’ राशा ने दो कदम उस की ओर बढ़ कर कहा, ‘‘रियली, आई एम वैरी सौरी.’’

वह सहज ढंग से हंसा और बोला, ‘‘मैं ने तो सुना नहीं…वैसे लंबा तो हूं ही…फिर ऊटी में ऊंट होने में क्या बुराई है? थैंक्स…आप दोनों बहुत अच्छी हैं…मैं ने बुरा नहीं माना…इस तरह की बातें हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा होती हैं. अच्छा…गुड बाय…’’

मैं हक्कीबक्की जब तक कुछ कहती वह जा चुका था.

‘‘अब तुम बिना चिकोटी के लाल हो रही हो,’’ मैं ने राशा के गाल थपथपाए.

‘‘अच्छा नहीं हुआ, यार…’’ वह बोली.

‘‘प्यारा लड़का है, कोई शाप नहीं देगा,’’ मैं ने मजाक में कहा.

अगले दिन जब राशा अपने मांबाप के साथ बस में बैठी थी और बस चलने लगी तो स्टैंड की ढलान वाले मोड़ पर बस के मुड़ते ही हम ने राशा की एक लंबी चीख सुनी, ‘‘जोया…इधर आओ…’’

ड्राइवर ने डर कर सहसा बे्रक लगाए. मैं भाग कर राशा वाली खिड़की पर पहुंची. वह मुझे देखते ही बेसाख्ता बोली, ‘‘जोया, वह देखो…’’

मैं ने सामने की ढलान की ऊपरी पगडंडी पर नजर दौड़ाई. वही लड़का पेड़ों के पीछे ओझल होतेहोते मुझे दिख गया.

‘‘तुम उस से मिलना और मेरा पता देना,’’ राशा बोली.

उस के मांबाप दूसरी सवारियों के साथसाथ हैरान थे.

‘‘अब चलो भी…’’ बस में कोई चिल्लाया तो बस चली.

मैं ने इस घटना के बारे में जब अपनी टोली के लड़कों को बताया तो वे मुझ से उस लड़के के बारे में पूछने लगे. तभी रोहित बोला, ‘‘बस, इतनी सी बात? राशा इतनी भावुक तो है नहीं…मुझे लगता है, कोई खास ही बात नजर आई है उसे उस लड़के में…’’

मेरे मुंह से निकला, ‘‘खास नहीं, मुझे तो वह अलग तरह का लड़का लगा…सिर्फ उस का व्यवहार ही नहीं, चेहरे की मासूम सजगता भी… कुछ अलग ही थी.’’

‘‘तुम्हें भी?’’ नीलेश हंसी, ‘‘खुदा खैर करे, हम सब उस की तलाश में तुम्हारी मदद करेंगे.’’

मैं ने सब की हंसी में हंसना ही ठीक समझा.

‘‘ऐ प्यार, तेरी पहली नजर को सलाम,’’ सब एक नाजुक भावना का तमाशा बनाते हुए गाने लगे.

राशा का जाना मेरे लिए अकेलेपन में भटकने का सबब बन गया.

एक रोज ऊपर से झील को देखतेदेखते नीचे उस के किनारे पहुंची. खुले आंगन वाले उस रेस्तरां में कोने के पेड़ के नीचे जा बैठी.

आसपास की मेजें भरने लगी थीं. मैं ने वेटर से खाने का बिल लाने को कहा. वह सामने दूसरी मेज पर बिल देने जा रहा था.

सहसा वहां से एक सहमती आवाज आई, ‘‘क्या आप का बिल चुका सकता हूं?’’

मैं चौंकी. फिर पहचाना… ‘‘ओ…यू…’’ मैं चहक उठी और उस की ओर लपकी. वह उठा तो मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाया, ‘‘आई एम जोया…द डिस्टर्बिंग गर्ल…’’

‘‘मी…शेषांत…द ऊंट.’’

सहसा हम दोनों ने उस नौजवान वेटर को मुसकरा कर देखा जो हमारी उमंग को दबी मुसकान में अदब से देख रहा था. मन हुआ उसे भी साथ बिठा लूं.

शेषांत ने अच्छी टिप के साथ बिल चुकाया. मैं उसे देखती रही. उस ने उठते हुए सौंफ की तश्तरी मेरी ओर बढ़ाई और पूछा, ‘‘वाई आर यू सो ऐलोन?’’

‘‘दिस इज माई च्वाइस. अकेलेपन की उदासी अकसर बहुत करीबी दोस्त होती है हमारी. हां, राशा तो वहां से अगले दिन घर लौट गई थी. हमारी एक सैलानी टोली है, पर मैं उन के शोर में ज्यादा देर नहीं टिक पाती.’’

हम दोनों कोने में लगी बेंच पर जा बैठे. झील में परछाइयां फैल रही थीं.

मैं ने उस दिन राशा की विदाई वाला किस्सा उसे सुनाया तो वह संजीदा हो उठा, ‘‘आप लोग बड़ी हैं तो भी इतना सम्मान देती हैं…वरना मैं तो बहुत मामूली व्यक्ति हूं.’’

‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं कि आप करते क्या हैं?’’

‘‘इस तरह की जगहों के बारे में लिखता हूं और उस से कुछ कमा कर अपने घूमने का शौक पूरा करता हूं. कभीकभी आप जैसे अद्भुत लोग मिल जाते हैं तो सैलानी सी कहानी भी कागज पर रवानी पा लेती है.’’

‘‘वंडरफुल.’’

मैं ने उसे राशा का पता नोट करने को कहा तो वह बोला, ‘‘उस से क्या होगा? लेट द थिंग्स गो फ्री…’’

मैं चुप रह गई.

‘‘पता छिपाने में मेरी रुचि नहीं है…’’ वह बोला, ‘‘फिर मैं तो एक लेखक हूं जिस का पता चल ही जाता है.’’

‘‘फिर…पता देने में क्या हर्ज है?’’

‘‘बंधन और रिश्ते के फैलाव से डरता हूं… निकट आ कर सब दूर हो जाते हैं…अकसर तड़पा देने वाली दूरी को जन्म दे कर…’’

‘‘उस रोज भी शायद तुम डरे थे और जल्दी से भाग निकले थे.’’

‘‘हां, आप के कारण.’’

मैं बुरी तरह चौंकी.

‘‘उस रोज आप को देखा तो किसी की याद आ गई.’’

‘‘किस की?’’

‘‘थी कोई…मेरे दिल व दिमाग के बहुत करीब…दूरदूर से ही उसे देखता रहा और उस के प्रभामंडल को…’’ कहतेकहते वह कहीं खो गया.

मैं हथेलियों पर अपना चेहरा ले कर कुहनियों के बल मेज पर झुकी रही.

कैक्टस के फूल : भाग 1

सौरभ के अंतर को कैक्टस के कांटों ने बींध दिया था, तभी उस ने नींद की गोलियां खाने जैसा दुस्साहसी कदम उठाया, लेकिन ममता के पश्चात्ताप से वे कांटे फिर से फूल बन कर उन को सहलाने लगे थे.

तीसरी मंजिल पर चढ़ते हुए नए जूते के कसाव से पैर की उंगलियों में दर्द होने लगा था किंतु ममता का सुगठित सौंदर्य सौरभ को चुंबक के समान ऊपर की ओर खींच रहा था.

रास्ते में बस खराब हो गई थी, इस कारण आने में देर हो गई. सौरभ ने एक बार पुन: कलाई घड़ी देखी, रात के साढ़े 8 बज चुके हैं, मीनीचीनी सो गई होंगी. कमरे का सूना सन्नाटा हाथ उचकाउचका कर आमंत्रित कर रहा था. उंगली की टीस ने याद दिलाया कि जब वे इस भवन में मकान देखने आए थे तो नीचे वाला हिस्सा भी खाली था किंतु ममता ने कहा था कि अकेली स्त्री का बच्चों के साथ नीचे रहना सुरक्षित नहीं, इसी कारण वह तिमंजिले पर आ टंगी थी.

बंद दरवाजे के पीछे से आने वाले पुरुष ठहाके ने सौरभ को चौंका दिया. वह गलत द्वार पर तो नहीं आ खड़ा हुआ? अपने अगलबगल के परिवेश को दोबारा हृदयंगम कर के उस ने अपने को आश्वस्त किया और दरवाजे पर धक्का दिया. हलके धक्के से ही द्वार पूरा खुल गया. भीतर से चिटकनी नहीं लगी थी. ट्यूब- लाइट के धवल प्रकाश में सोफे पर बैठे अपरिचित युवक के कंधों पर झूलती मीनीचीनी और सामने बैठी ममता के प्रफुल्लित चेहरे को देख कर वह तिलमिला गया. वह तो वहां पत्नी और बच्चों की याद में बिसूरता रहता है और यहां मसखरी चल रही है.

उसे आया देख कर ममता अचकचा कर उठ खड़ी हुई, ‘‘अरे, तुम.’’

बच्चियां भी ‘पिताजीपिताजी’ कह कर उस के पैरों से लिपट गईं. पल भर को उस के घायल मन पर शीतल लेप लग गया. अपरिचित युवक उठ खड़ा हुआ था, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

‘‘वाह, मैं आया और आप चल दिए,’’ सौरभ की वाणी में व्यंग्य था.

‘‘ये कपिलजी हैं, मेरे स्कूल में अध्यापक हैं,’’ ममता ने परिचय कराया.

‘‘आज ममताजी स्कूल नहीं गई थीं, वहां पता चला कि मीनी की तबीयत खराब है, उसी को देखने आया था,’’ कपिल ने बिना पूछे अपनी सफाई दी.

‘‘क्या हो गया है मीनी को?’’ सौरभ चिंतित हो गया था.

‘‘कुछ विशेष नहीं, सर्दीखांसी कई दिनों से है. सोचा, आज छुट्टी ले लूं तो उसे भी आराम मिलेगा और मुझे भी.’’

सौरभ का मन बुझता जा रहा था. वह चाहता है कि ममता अपनी छुट्टी का एकएक दिन उस के लिए बचा कर रखे, यह बात ममता से छिपी नहीं है. न जाने कितनी बार कितनी तरह से वह उसे बता चुका है फिर भी…और बीमार तो कोई नहीं है. अनमनेपन से कुरसी पर बैठ कर वह जूते का फीता खोलने लगा, उंगलियां कुछ अधिक ही टीसने लगी थीं.

‘‘चाय बनाऊं या भोजन ही करोगे,’’ ममता के प्रश्न से उस ने कमरे में चारों ओर देखा, कपिल जा चुका था.

‘‘जिस में तुम्हें सुविधा मिले.’’

पति की नाराजगी स्पष्ट थी किंतु ममता विशेष चिंतित नहीं थी. अपने प्रति उन की आसक्ति को वह भलीभांति जानती है, अधिक देर तक वह रूठे रह ही नहीं सकते.

बरतनों की खटपट से सौरभ की नींद खुली. अभी पूरी तरह उजाला नहीं हुआ था, ‘‘ममता, इतने सवेरे से क्या कर रही हो?’’

‘‘अभी आई.’’

कुछ देर बाद ही 2 प्याले चाय ले कर वह उपस्थित हो गई, ‘‘तुम्हारी पसंद का नाश्ता बना रही हूं, कल रात तो कुछ विशेष बना नहीं पाई थी.’’

‘‘अरे भई, नाश्ता 9 बजे होगा, अभी 6 भी नहीं बजे हैं.’’

‘‘स्कूल भी तो जाना है.’’

‘‘क्यों, आज छुट्टी ले लो.’’

‘‘कल छुट्टी ले ली थी न. आज भी नहीं जाऊंगी तो प्रिंसिपल का पारा चढ़ जाएगा, परीक्षाएं समीप हैं.’’

‘‘तुम्हें मालूम रहता है कि मैं बीचबीच में आता हूं फिर उसी समय छुट्टी लेनी चाहिए ताकि हम सब पूरा दिन साथसाथ बिताएं, कल की छुट्टी लेने की क्या तुक थी, मीनी तो ठीक ही है,’’?सौरभ ने विक्षुब्ध हो कर कहा.

‘‘कल मैं बहुत थकी थी और फिर आज शनिवार है. कल का इतवार तो हम सब साथ ही बिताएंगे.’’

सौरभ चुप हो गया. ममता को वह जानता है, जो ठान लिया तो ठान लिया. उस ने एक बार सामने खड़ी ममता पर भरपूर दृष्टि डाली.

10 वर्ष विवाह को हो गए, 2 बच्चियां हो गईं परंतु वह अभी भी फूलों से भरी चमेली की लता के समान मनमोहिनी है. उस के इस रूप के गुरुत्वाकर्षण से खिंच उस की इच्छाओं के इर्दगिर्द चक्कर काटता रहता है सौरभ. उस की रूपलिप्सा तृप्त ही नहीं होती. इंजीनियरिंग पास करने के बाद विद्युत बोर्ड में सहायक अभियंता के रूप में उस की नियुक्ति हुई थी तो उस के घर विवाह योग्य कन्याओं के संपन्न अभिभावकों का तांता लग गया था. लंबेचौड़े दहेज का प्रलोभन किंतु उस की जिद थी कन्या लक्ष्मी हो न हो, मेनका अवश्य हो.

जब भी छुट्टियों में वह घर जाता उस के आगे चित्रों के ढेर लग जाते और वह उन सब को नकार देता.

उस बार भी ऐसा ही हुआ था.

खिसियाई हुई मां ने अंतिम चित्र उस के हाथ में थमा कर कहा था, ‘‘एक फोटो यह भी है किंतु लड़की नौकरी करती है और तुम नौकरी करने वाली लड़की से विवाह करना नहीं चाहते.’’

बेमन से सौरभ ने फोटो को देखा था और जब देखा तो दृष्टि वहीं चिपक कर रह गई, लगा उस की कल्पना प्रत्यक्ष हो आई है.

पहला विदोही : भाग 1

आकाश काले मेघों से आच्छादित था. चौथे पहर तक अंधकार सा छाने लगा था, परंतु वर्षा नहीं हो रही थी. सूर्यदर्शन कई दिनों से नहीं हुआ था. वन हरियाली से लहलहा रहे थे. कई दिन से हो रही घनघोर वर्षा कुछ ही समय पहले थमी थी.

कुमार पृषघ्र अपने आश्रम से दूर एक पहाड़ी चट्टान पर बैठा प्रकृति के इस अनुपम रूप का आनंद ले रहा था. तभी कहीं से एक पुष्पगुच्छ आ कर कुमार के चरणों के पास गिरा. चकित भाव से उसे उठा कर उस ने चारों ओर दृष्टिपात किया, लेकिन कहीं कोई दिखाई नहीं दिया. ऐसा अकसर होता रहता था. जब भी वह संध्या समय एकांत में प्रकृति की गोद में बैठता, कहीं से पुष्पगुच्छ आ कर उस के शरीर का स्पर्श करता. कई प्रयास करने पर भी वह नहीं जान पाया कि पुष्पगुच्छ कहां से, कौन फेंकता है. किंतु आज यह रहस्य स्वत: ही खुल गया.

कुछ क्षणों के अंतराल से एक नारी कंठ की चीख सुनाई दी. कुमार उसी दिशा में तेजी से अग्रसर हुआ. कुछ ही दूरी पर एक नारी छाया धरती पर बैठी दिखाई दी. पीड़ा की छटपटाहट और रुदन स्पष्ट सुनाई दे रहा था.

‘‘कौन हो तुम? क्या हुआ?’’ निकट जा कर कुमार पृषघ्र ने कोमल स्वर में पूछा. अंधकार की वजह से चेहरा स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था.

प्रश्न सुन कर, अपना कष्ट भूल कर वह एकाएक खड़ी हो गई, करबद्ध, नतमस्तक.

‘‘कौन हो? यहां इस निपट अंधकार में क्या कर रही थीं?’’

लेकिन उत्तर देने की अपेक्षा स्त्री ने पीठ मोड़ कर चेहरा छिपा लिया, किंतु प्रस्थान का प्रयास नहीं किया.

‘‘यह तुम्हीं ने फेंका था?’’ कुमार ने अपने हाथ के पुष्पगुच्छ को उस की ओर बढ़ाते हुए पूछा.

उस ने अपना चेहरा कुमार की ओर मोड़ा और तभी भयंकर गड़गड़ाहट के साथ आकाश में बिजली चमकी, जिस से सारा वनप्रदेश क्षण भर के लिए प्रकाशित हो गया. कुमार पृषघ्र ने तरुणी को क्षण भर में ही पहचान लिया.

‘‘तुम…तुम ही मु  झ पर पुष्पगुच्छ फेंकती रही हो, गुर्णवी?’’ कुमार के स्वर में आश्चर्य था.

‘‘जी हां…किंतु क्षमा करें, देव, अब से ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? क्या सहज परिहास के लिए? इस का परिणाम जानती हो?’’

‘‘अपराध क्षमा करें, कुमार, अब ऐसा नहीं होगा,’’ उस ने पुन: करबद्ध, नतमस्तक हो उत्तर दिया.

तभी आकाश में पुन: बिजली चमकी. कुमार ने अब देखा, गुर्णवी पसीने से तर क्षीणलता सी कांप रही है. बालों की वेणी और हाथों के गजरे उन्हीं पुष्पों के थे जिन्हें उस ने पुष्पगुच्छ के रूप में कुमार पर फेंका था. भय और रुदन की हिचकियों से उस का संपूर्ण शरीर रहरह कर थरथरा रहा था. वन विचरण के समय अकसर दोनों की भेंट हो जाया करती थी, अत: अपरिचित नहीं थे.

‘‘वह तो ठीक है कि अब ऐसा नहीं होगा, पर अब तक क्यों होता रहा, यह तो बताओ?’’ पृषघ्र के गौरवर्णी चेहरे पर एक रहस्यमयी मुसकान दौड़ गई, जिसे अंधकार में गुर्णवी न देख सकी.

‘‘क्षमा करें, देव… मैं…’’

‘‘क्या तुम मु  झे चाहने लगी हो? क्या यह सब अभिसार की अभिलाषा से कर रही थीं?’’ कोमल स्वर में कुमार ने पूछा.

‘‘हां…नहीं…नहीं,’’ वह हड़बड़ा कर बोली.

तभी भयंकर गर्जना के साथ फिर बिजली चमकी. कुमार ने देखा, गुर्णवी के दोनों हाथ रक्तरंजित हो रहे थे. करबद्ध होने से रक्त बह कर कुहनियों तक आ गया था.

‘‘तुम तो घायल हो,’’ कहते हुए पृषघ्र ने उस के दोनों हाथों को अलग कर हथेलियां देखने का प्रयास किया.

‘‘मु  झे छुएं नहीं, कुमार, मैं…मैं शूद्र कन्या हूं,’’ कहते हुए उस ने पीछे हटने का प्रयास किया.

‘‘यह समय इन बातों का नहीं है, तुम्हें सहायता और औषधि की आवश्यकता है. चलो, तुम्हें तुम्हारे आवास तक पहुंचा दूं.’’

‘‘मैं धीरेधीरे चली जाऊंगी. पैर में बड़ा शूल लगा है और मोच भी है, धीरेधीरे जाना होगा. किसी ने आप को मु  झे छूते हुए देख लिया तो संकट होगा. आप पर विपत्ति आ जाएगी. आप पधारें,’’ गुर्णवी ने निवेदन किया.

‘‘ओह,’’ पृषघ्र बोला, ‘‘वह सब छोड़ो, मेरे पास आओ,’’ कहते हुए पृषघ्र ने उसे उठा कर अपने बलिष्ठ कंधों पर डाल लिया और चल पड़ा.

गुर्णवी ने कोई विशेष विरोध भी नहीं किया.

उस के आवास तक पहुंचतेपहुंचते दोनों वर्षा की बौछारों में स्नान कर चुके थे. कुटिया काफी बड़ी थी. गुर्णवी दूसरी ओर वस्त्र बदलने चली गई. कुमार पृषघ्र पुन: बाहर आ कर खड़ा हो गया.

‘‘पधारें, कुमार,’’ गुर्णवी ने कुछ देर बाद भीतर से कहा. उस ने जैसेतैसे अग्नि प्रज्ज्वलित कर ली थी.

कुटिया में प्रवेश कर कुमार ने अग्नि के मंद प्रकाश में गुर्णवी के सौंदर्य को देखा और अभिभूत हो गया. भरी देहयष्टि, कटि प्रदेश को चूमती सघन केशराशि, बड़ेबड़े काले नेत्र और राजमहल के शिखर सा गर्वोन्मत्त वक्ष प्रदेश. कुमार पृषघ्र निर्निमेष उसे देखता ही रह गया.

गुर्णवी शूद्र जाति की यौवना थी. प्रकृति ने उसे सजानेसंवारने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी, प्रकृति की वह अनुपम कृति थी. उस दिन के बाद कुमार पृषघ्र उस से अकसर मिलने लगा.

‘‘इस प्रकार की भेंट का परिणाम जानते हैं, कुमार?’’ एक सां  झ उस ने कुमार पृषघ्र से पूछा.

‘‘क्या तुम भयभीत हो?’’ कुमार ने गुर्णवी के   झील से गहरे नेत्रों में   झांकते हुए पूछा.

‘‘मु  झे कोई भय नहीं है,’’ वह बोली, ‘‘अधिक से अधिक क्या होगा… मेरा वध न? आप को पा कर जितना जीवन मिलेगा वह मेरे कई जन्मों की थाती होगी. न मेरे मातापिता हैं, न भाईबंधु. सबकुछ अल्पायु में ही खो चुकी हूं. इन वनों ने ही मु  झे पालपोस कर बड़ा किया है. मैं तो केवल आप के लिए चिंतित हूं,’’ उस के मुखमंडल पर गहन दुख और चिंता का भाव तैर गया.

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, गुर्णवी? जीवन के प्रति सदैव आशावान रहना सीखो.’’

‘‘हमारी व्यवस्था ही ऐसी है. यह जो वर्ण व्यवस्था है, हमारे ऋषियों ने कुछ सोच कर ही बनाई होगी. हमारे मिलन को कभी मान्यता नहीं मिलेगी. मैं…मैं…आप को पा कर भी नहीं पा सकूंगी,’’ कहते हुए गुर्णवी का स्वर भारी हो गया और बड़ेबड़े नेत्रों से 2 मोती टपक पड़े.

यह कैसी विडंबना : भाग 1

आज सुबहसुबह पता चला कि पड़ोस के शर्माजी चल बसे. रात अच्छेभले सोए थे, सुबह उठे ही नहीं. सुन कर अफसोस हुआ मुझे. अच्छे इनसान थे शर्माजी. उन की जीवन यात्रा समाप्त हो गई उस पर सहज उदासी सी लगी मुझे क्योंकि मौत का सुन कर अकसर खुशी नहीं होती. यह अलग बात है कि मौत मरने वाले के लिए वास्तव में मौत ही थी या वरदान. कोई मरमर कर भी जीता है और निरंतर मौत का इंतजार करता है. भला उस इनसान के लिए कैसा महसूस किया जाना चाहिए जिस के लिए जीना ही सब से बड़ी सजा हो.

6 महीने पहले ही तबादला हो कर हम यहां दिल्ली आए. यही महल्ला हमें पसंद आया क्योंकि 15 साल पहले भी हम इसी महल्ले में रह कर गए थे. पुरानी जानपहचान को 15 साल बाद फिर से जीवित करना ज्यादा आसान लगा हमें बजाय इस के कि हम किसी नई जगह में घर ढूंढ़ते.

इतने सालों में बहुत कुछ बदल जाता है. यहां भी बहुत कुछ बदल गया था, जानपहचान में जो बच्चे थे वे जवान हो चुके हैं और जो जवान थे अब अजीब सी थकावट ओढ़े नजर आने लगे और जो तब बूढ़े थे वे अब या तो बहुत कमजोर हो चुके हैं, लाचार हैं, बीमार हैं या हैं ही नहीं. शर्माजी भी उन्हीं बूढ़ों में थे जिन्हें मैं ने 15 साल पहले भी देखा था और अब भी देखा.

हमारे घर के ठीक सामने था तब शर्माजी का घर. तब वे बड़े सुंदर और स्मार्ट थे. शर्माजी तो जैसे भी थे सो थे पर उन की श्रीमती बेहद चुस्त थीं. दादीनानी तो वे कब की बन चुकी थीं फिर भी उन का साजशृंगार उन की तीनों बहुओं से बढ़ कर होता था. सुंदर दिखना अच्छी बात है फिर भी अकसर हम इस सत्य से आंखें चुरा लिया करते थे कि श्रीमती शर्मा ने घर और अपने को कैसे सजा रखा है, तो जाहिर है वे मेहनती ही होंगी.

मुझे याद है तब उन की छत पर मरम्मत का काम चल रहा था. ईंट, पत्थर, सीमेंट, रेत में भी उन की गुलाबी साड़ी की झलक मैं इतने साल के बाद भी नहीं भूली. बिना बांह के गुलाबी ब्लाउज में उन का सुंदर रूप मुझे सदा याद रहा. आमतौर पर हम ईंटसीमेंट के काम में अपने पुराने कपड़ों का इस्तेमाल करते हैं जिस पर मैं तब भी हैरान हुई थी और 15 साल बाद जब उन्हें देखा तब भी हैरान रह गई.

15 साल बाद भी, जब उन की उम्र 75 साल के आसपास थी, उन का बनावशृंगार वैसा ही था. फर्क इतना सा था कि चेहरे का मांस लटक चुका था. खुली बांहों की नाइटी में उन की लटकी बांहें थुलथुल करती आंखों को चुभ रही थीं, बूढ़े होंठों पर लाल लिपस्टिक भी अच्छी नहीं लगी थी और बौयकट बाल भी उम्र के साथ सज नहीं रहे थे.

‘‘शर्मा आंटी आज भी वैसी की वैसी हैं. उम्र हो गई है लेकिन बनावशृंगार आज भी वैसा ही है.’’

संयोग से 15 साल पुरानी मेरी पड़ोसिन अब फिर से मेरी पड़ोसिन थीं. वही घर हमें फिर से मिल गया था जिस में हम पहले रहते थे.

‘‘नाजनखरे तो आज भी वही हैं मगर दोनों का झगड़ा बहुत बुरा है. दिनरात कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं दोनों. आ जाएंगी आवाजें तुम्हें भी. अड़ोसपड़ोस सब परेशान हैं.’’

हैरान रह गई थी मैं सरला की बात सुन कर.

‘‘क्या बात कर रही हैं…इतनी पढ़ीलिखी जोड़ी और गालीगलौज.’’

‘‘आंटी कहती हैं अंकल का किसी औरत से चक्कर है…एक लड़की भी है उस से,’’ सरला बोलीं, ‘‘पुराना चक्कर हो तो हम भी समझ लें कि जवानी का कोई शौक होगा. अब तुम्हीं सोचो, एक 80 साल के बूढ़े का किसी जवान औरत के साथ कुछ…चलो, माना रुपएपैसे के लिए किसी औरत ने फंसा भी लिया…पर क्या बच्चा भी हो सकता है, वह भी अभीअभी पैदा हुई है लड़की. जरा सोचो, शर्मा अंकल इस उम्र में बच्चा पैदा कर सकते हैं.’’

अवाक् थी मैं. इतनी सुंदर जोड़ी का अंत ऐसा.

‘‘बहुत दुख होता है हमें कि तीनों लड़के भी बाहर हैं, कोई अमेरिका, कोई जयपुर और कोई कोलकाता. समझ में नहीं आता क्या वजह है. कभी इन के घर के अंदर जा कर देखो…ऐसा लगता है जैसे किसी पांचसितारा होटल में आ गए हों… इतनी सुंदरसुंदर चीजें हैं घर में. बेटे क्याक्या नहीं भेजते. कोई कमी नहीं. बस, एक ही कमी है इस घर में कि शांति नहीं है.’’

बहुत अचंभा हुआ था मुझे जब सरला ने बताया था. तब हमेें इस घर में आए अभी 2 ही दिन हुए थे. मैं तो बड़ी प्रभावित थी शर्मा आंटी से, उन की साफसफाई से, उन के जीने के तरीके से.

‘‘कोई भी बाई इन के घर में काम नहीं करती. आंटी उसी पर शक करने लगती हैं. कुछ तो हद होनी चाहिए. शर्मा अंकल बेचारे भरी दोपहरी में बाहर पार्क में बैठे रहते हैं. घर में 4-4 ए.सी. लगे हैं मगर ठंडी हवा का सुख उन्हें घर के बाहर ही मिलता है. महल्ले में कोई भी इन से बात नहीं करता. क्या पता किस का नाम कब किस के साथ जोड़ दें.’’

‘‘आंटी पागल हो गई हैं क्या? हर शौक की एक उम्र होती है. इस उम्र में पति पर शक करना यह तो बहुत खराब बात है न.’’

‘‘इसीलिए तो हर सुनने वाला पहले सुनता है फिर दुखी होता है क्योंकि इतनी समृद्ध जोड़ी की जीवनयात्रा का अंतिम पड़ाव इतना दुखदाई नहीं होना चाहिए था.’’

5-6 दिन बीत गए. सामने वाले घर से कोई आवाज नहीं आई तो मुझे लगा शायद मैं ने जो सुना वह गलत होगा. बहुत नखरा होता था शर्मा आंटी का, आम इनसान से तो वे बात भी करना पसंद नहीं करती थीं. जो इनसान आम जीवन न जीता हो उसी का स्तर जब आम से नीचे उतर जाए तो सहज ही विश्वास नहीं न होता.

सांझ की सखियां : भाग 1

“उफ्फ, पापा को कोविड हो गया और अस्पताल में एडमिट करना पड़ा. अब क्या करूं बाला?” निशा रोआंसे स्वर में अपने पति से कहा.

“तुम्हें किस ने बताया? क्या तुम्हारी मम्मी से बात हुई?”

“हां, मम्मी का फोन आया था, बता रही थीं कि 2-3 दिन से बुखार था और फिर खांसी भी शुरू हुई. वहीं पास में मामा रहते हैं न, उन्होंने कहा कि कोविड टेस्ट करवा लो. तब पापा ने टेस्ट करवाया और रिपोर्ट पोजिटिव आई.”

“तुम फिक्र न करो, सब ठीक होगा.”

“क्या ठीक होगा बाला? पापा को वेंटिलेटर पर रखा गया है, मुझे तो डर लग रहा है. मेरी मम्मी वहां अकेली हैं. मेरे सिवा कौन है उन का इस दुनिया में?”

“मैं समझ सकता हूं निशा, पर लौकडाउन चल रहा है, हम यहां रह कर चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते.”

“हम्म, न जाने क्या होगा अब,” निशा की आंखों से आंसू बह निकले थे.

यों तो बालाकृष्णन और निशा का वर्क फ्रोम होम चल रहा है, पर निशा का मन अब काम में कहां लग रहा था, वह तो अपने पिता की फिक्र में घुली जा रही थी. आखिर एकलौती बेटी जो ठहरी और मातापिता ने तो उस की परवरिश बेटे के समान ही की है.

“तुम फिक्र न करो निशा. पापा ठीक हो जाएंगे और फिर लौकडाउन खुलते ही हम उन्हें यहां ले आएंगे,”

बाला की बात सुन कर निशा के चेहरे पर पलभर को मुसकान आ गई थी.

2 दिन बीते निशा फोन पर थी और वह फूटफूट कर रोने लगी. बाला को समझते देर न लगी कि जरूर निशा को अपने पिता के बारे में कोई अनहोनी सुनने को मिली है. वह दौड़ कर कमरे में आया, उस के हाथ से फोन लिया. दूसरी तरफ निशा के मामा थे, जो उसे हिम्मत बंधाने की कोशिश कर रहे थे.

बाला की आवाज सुन कर वे बोले, “निशा के पिताजी को कोविड ने लील लिया. उस की मां का हाल बेहाल है.”

“जी, समझ सकता हूं, अभी निशा को संभालता हूं, फिर आप से बात करता हूं.”

निशा तो बस रोए जा रही थी, “अब मम्मी अकेले कैसे रहेंगी पापा के बिना, वे तो दोनों हर पल हर क्षण के साथी थे.”

“फिक्र न करो निशा. लौकडाउन खुलने दो. हम तुम्हारी मां को यहां ले आएंगे. वे हमारे पास रहेंगी. वैसे भी आज नहीं तो कल हम दोनों को ही मिल कर उन्हें संभालना था,” बाला निशा को सांत्वना देते हुए हिम्मत बंधा रहा था.

कोरोना के चलते दोनों के हाथ में कुछ न था. निशा की मां भी स्वयं को बड़ी असहाय सी महसूस कर रही थी. पर अब कर भी क्या सकते थे, निशा के पिता का अंतिम संस्कार कोविड प्रोटोकोल के तहत अस्पताल वालों ने कर दिया था.

निशा रोज फोन पर अपनी मां से बात करती और उन्हें हिम्मत बंधाती, “मम्मी थोड़े दिन की बात है, बाला ने कहा है, जैसे ही लौकडाउन खुलेगा, हम आप को यहां ले आएंगे, फिर आप हमेशा के लिए यहीं रहिएगा. हमारे लिए भी अच्छा रहेगा. हमारा बेटा ऋत्विक नानी के स्नेह की छांव में बड़ा होगा.”

“पर, हम तो मारवाड़ी हैं, बेटी के घर जा कर कैसे रहूंगी? लोग क्या कहेंगे?”

“किस जमाने की बात करती हो मम्मी? एकलौती बेटी हूं आप की, मेरा भी तो कुछ फर्ज बनता है आप के लिए. अब तो बेटाबेटी एकसमान हैं, फिर आप ने मुझे पढ़ालिखा कर बेटे की तरह ही तो अपने पैरों पर खड़ा किया है. तो फिर मेरे पास मेरे साथ रह क्यों नहीं सकती आप? हमें तो आप से मदद ही मिलेगी, अभी तो वर्क फ्रोम होम है, जब दफ्तर खुलेंगे तो आप ऋत्विक को घर में संभालना और मैं चैन से अपनी नौकरी करूंगी.”

“बेटा, कंवर साहब न जाने क्या सोचेंगे?”

“उन्होंने ही तो कहा है आप को यहां लाने को? ये फालतू के चोंचले हमारे यहां ही होते हैं. बाला तो दक्षिण भारतीय है, इन के यहां ये सब बंदिशें नहीं हैं, बल्कि बेटी के मातापिता अपनी बेटी को ब्याह कर उस के ससुराल में रहने आते हैं, ताकि सुनिश्चित कर सकें कि उन की बेटी वहां पर सुखी है,” निशा ने अपनी मां को अपने पास आने के लिए राजी कर लिया था.

Amitabh Bachchan से लेकर shahrukh khan तक, इन 5 बॉलीवुड सितारों ने झेला है आर्थिक तंगी का दर्द

Bollywood actors who faced financial crisis : मुंबई, महाराष्ट्र में मौजूद एक सबसे अधिक आबादी वाला शहर है. जिसे सपनों का शहर कहे तो भी गलत नहीं होगा, क्योंकि इस माया नगरी मुंबई में रोजाना कई लोग अपनी किस्मत को आजमाने आते हैं. अगर टैलेंट और लक का सिक्का चल जाता है, तो ये ही शहर उन्हें अर्श से फर्श तक पहुंचा देता है.

आज हमारे पास एक से बड़कर एक उम्दा स्टार्स के उदाहरण मौजूद है. जो इसी मुंबई में अपने सपनों को सच करने आए थे और आज लोग उनकी एक झलक पाने के दीवाने हैं. लेकिन इस इंड्रस्टी में कई ऐसे भी लोग शामिल है. जो आज तो सफल और एक अच्छे स्थान पर काबिज है, परन्तु एक समय में उन्होंने बदहाली और तंगहाली का भी सामना किया था. तो आइए जानते हैं उन स्टार्स (Bollywood actors who faced financial crisis) की जिंदगी के बारे में, जिन्होंने कभी आर्थिक संकटों का भी सामना किया था.

  • अमिताभ बच्चन

फिल्म इंडस्ट्री में कामयाबी मिलने के बाद भी कई बार कुछ स्टार्स को पैसों की तंगी का सामना करना पड़ा है. साल 2000 में बॉलीवुड के महानायर ”अमिताभ बच्चन” (Amitabh Bachchan) के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. दरअसल बेशुमार शोहरत और दौलत कमाने के बाद भी अमिताभ बच्चन को अपने जीवन में मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. परेशानियां इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें अपना सब कुछ गिरवी रखना पड़ा था. इस बात का खुलासा उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में किया था. उन्होंने बताया था कि उनके जीवन में एक समय ऐसा भी आया था जब ना तो उनके पास कोई फिल्म थी और ना ही पैसा. और तो और जिस कंपनी के लिए उन्होंने बाजार से बहुत सारा पैसा उठाया था वो भी डूब गई थी.

इन तमाम समस्याओं का सामना करने के बाद एक्टर अमिताभ ने एक बार फिर से छोटे पर्दे के शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से अपने करियर की शुरुआत की. फिर धीरे-धीरे केबीसी की कामयाबी से उनकी जिंदगी पटरी पर आ गई.

  • राज कपूर

अभिनेता, निर्देशक और निर्माता ”राज कपूर” (raj kapoor) ने अपनी जिंदगी में सफलता का स्वाद तो चखा ही, लेकिन इसी के साथ उन्हें नाकामी और पैसों की तंगी का भी सामना करना पड़ा था. कहा जाता है कि फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए एक्टर राज ने मार्केट सहित लोगों से काफी मोटा पैसा लिया था. लेकिन ये फिल्म बड़े पर्दे पर बुरी तरह फ्लॉप रही, जिसके चलते सारा पैसा डूब गया. यहां तक की उनके ऊपर इतना कर्ज हो गया था कि उन्हें अपना सब कुछ बेचना पड़ा था.

इसके बाद एक बार फिर पैसा उधार लेकर उन्होंने फिल्म ‘बॉबी’ बनाई, जिसने बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई की. इसी के साथ उनकी स्थिति सुधरने लगी.

  • गोविंदा

80 और 90 के दशक के सुपरस्टार रहे ”गोविंदा” (govinda) को भी अपनी जिंदगी में ऐसे पलों का सामना करना पड़ा है, जब उनका सब दांव पर लग गया था. उन्होंने खुद एक बार इंटरव्यू में बताया था कि, बीते 14 से 15 सालों में उन्होंने इंडस्ट्री और अपने बिजनेस में काफी पैसा लगाया था लेकिन उनका सारा पैसा डूब गया था, जिसके चलते उन्हें करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ा था. इसके अलावा लंबे समय तक फिल्में न मिलने की वजह से भी उन्हें तंगी का सामना करना पड़ा था. फिर कई सालों बाद उन्हें सलमान खान के साथ फिल्म ‘पार्टनर’ मिली. जो बड़े पर्दे पर सुपर हिट रही और इसी फिल्म की वजह से उन्हें इंडस्ट्री में खड़े होने का मौका मिला.

  • जैकी श्रॉफ

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, बॉलीवुड एक्टर ”जैकी श्रॉफ” (jackie shroff) को भी अपने जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा है. दरअसल उनकी पत्नी आयशा ने फिल्म ‘बूम’ बनाई थी, जिसमें उन्होंने अपना सारा पैसा लगा दिया था. जो बॉक्स ऑफिस पर असफल रही और उनका सारा पैसा डूब गया. यहां तक की वह दिवालिया भी हो गए थे. लेकिन जब उनके बेटे ‘टाइगर’ ने इंडस्ट्री में काम करना शुरू किया तो फिर उनकी स्थिति सुधरने लगी.

  • शाहरुख खान

बॉलीवुड के किंग खान यानी ”शाहरुख खान” (shahrukh khan) ने भी अपनी जिंदगी में कई उतार चढ़ाव देखे हैं. साल 2010 में आई फिल्म ‘रा-वन’ में उन्होंने अपना बहुत सारा पैसा लगाया था लेकिन बड़े पर्दे पर ये फिल्म बुरी तरह फ्लॉप साबित हुई और उनका पूरा पैसा डूब गया. इसके बाद उन्हें कुछ और फिल्में मिली, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति सुधरने लगी.

मनोज झा बनाम आनंद मोहन : ब्राह्मण और ठाकुरों में क्यों खिंची जबानी तलवारें

यों तो पूरे देश में जातिवाद और सवर्णशूद्रवाद का बोलबाला है, लेकिन बिहार के नेता और राजनीति मुफ्त में बदनाम नहीं हैं. बिहार के सवर्ण तो सवर्ण दलित नेताओं तक का हाजमा खराब हो जाता है, अगर किसी दिन जाति पर बवाल न हो.

ताजा विवाद संसद से शुरू हुआ था, जो अब चौपालों तक पसर गया है. हुक्का गुड़गुड़ाते ब्राह्मण और ठाकुर एकदूसरे को पानी पीपी कर कोस रहे हैं, एकदूसरे को भस्म कर देने वाला सनातनी श्राप दे रहे हैं और एकदूसरे की जीभ तक खींचने की धौंस दे रहे हैं. अब इस में कुछ पिछड़ों की भी एंट्री हो गई है. किस्सा दिलचस्प होता जा रहा है, जिस का श्रीगणेश 21 सितंबर, 2023 को राज्यसभा से महिला आरक्षण बिल पर बहस के दौरान आरजेडी सांसद मनोज झा ने किया था. उन्होंने एक कवि ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता पढ़ी थी, जिस में ठाकुरों की दबंगई का वर्णन था.

कविता ज्यादा बड़ी नहीं है, लेकिन उस की आखिरी लाइनों से समझ आता है कि ठाकुर उर्फ राजपूत उर्फ क्षत्रिय उर्फ दबंग उर्फ हुजूर उर्फ मालिक उर्फ सरपंच साहब या सरकार कितने क्रूर और अय्याश हुआ करते थे. प्राचीन भारत के गांवों में सबकुछ उन्हीं की मिल्कियत हुआ करता था. ठाकुर लोग ठीक वैसे ही होते थे, जैसे हिंदी फिल्मों में दिखाए जाते थे. वे अपनी लंबी घनी मूंछों को उमेठते अपनी हवेली के बड़े से कमरे में छक कर दारू पीते थे. ढलती रात में इसी हाल में कोई रधिया या रजिया नाम की अर्धनग्न कमसिन तवायफ कमर और छातियां मटकाते इन शूरवीरों का नशा और बढ़ा रही होती थीं. वह बड़ी अदाओं से इन ठाकुरों की पास जाम से भरा गिलास ले कर आती थी, उन्हें तरसाती थी और फिर उन के होंठों में दबा सौ का नोट अपने होंठों में दबा कर ले जाती थी.

इस तरह लिप किस की शास्वत उत्तेजनात्मक क्रिया संपन्न हो जाती थी. गाने के बाद मुजरा खत्म हो जाता था, कारिंदे लुटाए गए नोट समेट कर अपनी दुकान का साजोसामान उठा कर चलते बनते थे. डायरेक्टर के पास दिखाने रह जाता था कि ठाकुर साहब ने तवायफ को अपने कंधों पर टांग लिया है और अपने बेडरूम की तरफ ले जा रहे हैं. इस के बाद के दृश्य को देखने के लिए दर्शकों को अपनी कल्पनाशीलता का सहारा लेना पड़ता था.

क्या गलत बोले मनोज झा ?

ठाकुरों के प्राचीन चरित्र के इस रात्रिकालीन संक्षिप्त चित्रण के बाद दिन में होता यह था कि ठाकुर साहब घोड़े पर सवार हो कर निकलते थे और 2-4 शूद्र किस्म के मजदूरों की मैलीकुचेली पीठ पर कोड़े बरसाते दूर कहीं जंगल की तरफ निकल जाते थे. जब जीपें आ गईं तो डायरेक्टर ठाकुरों को जीप में बैठालने लगा. ये ठाकुर मजदूरों का तरहतरह से शोषण करते थे, जिन में औरतों की इज्जत लूटना उन का खास शौक होता था. छोटी जाति वालों से ही हथियाए अपने हो गए खेतों में बेगार करवाते थे और खाने को इतना भर देते थे कि वे जिंदा रहें और मजदूरी करते रहें.

बिलाशक मनोज झा और आनंद मोहन प्रकरण से इन चीजों का कोई प्रत्यक्ष लेना देना न हो, लेकिन अप्रत्यक्ष है. और यही सनातनीय भारतीय या हिंदू समाज की मूलभूत संरचना भी है कि ब्राह्मण ठाकुरों को दलितों पर अत्याचार करने को उकसाता था और उन से सालभर मनमानी दक्षिणा बटोरता रहता था.

इस तरह खेतखलिहानों की पैदावार का एक बड़ा हिस्सा बिना कुछ किएधरे उस के घर पहुंच जाता था. इस बाबत उस की हर मुमकिन कोशिश यह होती थी कि यह अर्थ और वर्णव्यवस्था कायम रहे.

यह कैसे टूटी और कितनी टूटी, यह भी हर कोई जानता है कि कुछ खास नहीं हुआ है. यह जेके, अंबुजा या बिरला सीमेंट से बनी मजबूत दीवार है, जिस में बारूद से भी दरार तक नहीं आती फिर टूटना तो दूर की बात है.

ऊपर बताई गई रामायण के नए संस्करण का सार इतना भर है कि मनोज झा ने ठाकुरों को एक दलित कविता के जरीए कोसा और एक मार्मिक अपील भी कर डाली कि अपने अंदर के ठाकुर को मारो. इस अपील का तात्कालिक असर दिल्ली में तो नहीं दिखा, लेकिन डेढ़ दिन पहले बिहार में दिखा जो दीर्घकालिक कहा जा सकता है.

कविता पढ़ने के पहले ही मनोज झा ने डिस्क्लेमर सा पेश कर दिया था कि इस के पीछे उन का मकसद यह जताना था कि महिला आरक्षण बिल को दया भाव की तरह पेश किया जा रहा है और दया कभी अधिकार की श्रेणी में नहीं आती है. इस लिहाज से तो उन की मंशा भगवा गैंग को ठाकुर ठहराने की थी, जो अपने यहां पुत्र रत्न की प्राप्ति पर, अपने जन्मदिन या शादी की सालगिरह पर गरीब दलितों को खैरात बांटता दिखता है. तब यह और बात है कि वह यह आरती नहीं गाता कि तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा…

इस पर 27 सितंबर की गौधूलि बेला में आनंद मोहन का एक सनसनाता बयान आया कि अगर मैं उस वक्त राज्यसभा में होता तो उन की यानी मनोज झा की जीभ खींच कर आसन पर उछाल देता सभापति की ओर… आप इतने बड़े समाजवादी हो तो झा क्यों लगाते हो? आप पहले अपने अंदर के ब्राह्मण को मारो. रामायण में ठाकुर, महाभारत में ठाकुर, सभा कथा में ठाकुर, मंदिर में ठाकुर हैं, कहांकहां से भगाओगे.

सियासत और जुर्म

वक्तव्य हिंसक है, लेकिन मिथ्या नहीं माना जा सकता क्योंकि आनंद मोहन जब सरेआम एक डीएम की हत्या कर सकते हैं तो जीभ खींचने यानी उसे हलक से उखाड़ देने जैसा जुर्म उन के लिए उस के मुकाबले बेहद मामूली लगभग छींकने जैसा है. लेकिन, काटने के बाद उन्हें जीभ सभापति की तरफ ही फेंकने की क्यों सूझी, यह किसी को समझ नहीं आ रहा. उन का सारगर्भित इतिहास बताता है कि वे ऐसा कर भी सकते थे. वे बाहुबली हैं. ऊपर ठाकुरों के बताए तमाम पर्याय और विशेषण उन पर ब्राह्मण होते हुए भी फिट बैठते हैं. वे बिना फरसे वाले परशुराम हैं, क्योंकि उन के व्यवहार में जन्मना ब्राह्मणत्व और कर्मणा क्षत्रियत्व दोनों बराबर की मात्रा में दिखते हैं.

अब इस तुच्छ से दिखने वाले उच्च जाति विवाद में क्या होगा, इस से पहले आनंद मोहन की संक्षिप्त जीवनी देखें –

बिहार के कोसी के छोटे से गांव पचगछिया के एक संपन्न ठाकुर परिवार में पैदा हुए आनंद मोहन के दादा राम बहादुर सिंह फ्रीडम फाइटर थे. पूत के पांव पालने में ही दिखते हैं वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए किशोरवय के आनंद मोहन को महज 17 साल की उम्र में ही राजनीति रास आ गई थी. साल 1974 में जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति आंदोलन शबाब पर था, जिस के प्रभाव में वे भी आ गए और आपातकाल के दौरान 2 साल जेल की हवा भी खाई.

जेल से बाहर आते ही आनंद मोहन ने जातिगत राजनीति का रास्ता पकड़ा और युवा राजपूत नेता बन गए. लेकिन सुर्खियों में वर्ष 1978 में तब आए, जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को काले झंडे दिखाए. इस तरह नेतागिरी की प्राथमिक कक्षा उन्होंने अव्वल नंबरों से पास कर ली.

नाम चल निकला और पूर्वजों के पुण्य कर्मों का फायदा भी मिला तो आनंद मोहन ने अपनी खुद की पार्टी बना ली, जिस का नाम रखा समाजवादी क्रांति सेना. यह पार्टी निचली जातियों के उत्थान का मुकाबला करने के लिए बनाई गई थी, जिस में अधिकतर राजपूत युवक बतौर सैनिक शामिल हुए थे. इसी वक्त में उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए तो उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि पार्टी के नाम के आगेपीछे क्रांति शब्द लटका लेने से कुछ नहीं होता. कुछ ठोस करना जरूरी है.

इस ठोस के नाम पर आनंद मोहन ने अपराध का रास्ता पकड़ लिया, जो राजनीति में सफलता के लिए एक अतिरिक्त योग्यता आज भी होती है. तब तो कुछ ज्यादा ही होती थी और राज्य बिहार हो तो यह योग्यता अनिवार्य हो जाती है.

बढ़ता कद देख कर जनता दल ने साल 1990 में उन्हें माहिषी विधानसभा से मैदान में उतार दिया, जिस में उन की जीत भी हुई.

महत्वाकांक्षी आनंद मोहन ने विधायक रहते हुए एक गिरोह भी बना लिया, जो आरक्षण समर्थकों को तरहतरह से सबक सिखाता था. इस के बाद होने के नाम पर खास इतना भर हुआ कि मंडल कमीशन लागू होने के बाद आनंद मोहन ने जनता दल छोड़ दिया, क्योंकि वह आरक्षण का समर्थक कर रहा था, जबकि इस युवा ब्राह्मण को तो आरक्षण से विकट का बैर था.

झल्लाए आनंद मोहन ने खुद की पार्टी बना ली और इस बार नाम रखा बिहार पीपुल्स पार्टी. 1994 के वैशाली लोकसभा उपचुनाव में उन की पत्नी लवली आनंद जीतीं तो हर कोई इस आनंद दंपति से वाकिफ हो गया. वजह थी, आरजेडी उम्मीदवार किशोरी सिन्हा की हार, जो बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा की पत्नी थीं. इस जीत ने इन दोनों को बिहार का सेलिब्रेटी बना दिया था.
लेकिन 5 दिसंबर, 1994 को एक हाहाकारी हत्याकांड में आनंद मोहन का नाम आया था, जिस ने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. इस दिन मुजफ्फरपुर के भगवानपुर चौक पर गोपालगंज के दलित समुदाय के डीएम जी. कृष्णैया की भीड़ ने पीटपीट कर हत्या कर दी थी. इस भीड़ को आनंद मोहन ने हत्या के लिए उकसाया था.

इस मामले में उन्हें 2007 में निचली अदालत ने दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुनाई थी. यह आजादी के बाद का पहला मामला था, जिस में किसी राजनेता को फांसी की सजा सुनाई गई थी. साल 2008 में हाईकोर्ट ने इस सजा को उम्रकैद की सजा में बदल दिया था, जो सुप्रीम कोर्ट ने कायम रखी.

इस के बाद 1995 के विधानसभा चुनाव में बिहार पीपुल्स पार्टी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाई थी. फिर भी आनंद मोहन बिहार की राजनीति का एक प्रमुख चेहरा बन गए और यह माना जाने लगा कि वे लालू प्रसाद यादव की जगह सीएम बन सकते हैं.

हैरत की बात यह है कि ऐसा तब कहा जा रहा था, जब वे खुद तीन सीटों से लड़ कर हारे थे. अब तक पप्पू यादव और श्रीप्रकाश जैसे अपने समकालीन सरगनाओं और गिरोहों से उन की झड़पें आएदिन की बात हो गई थीं.

चलायमान आस्था

अपनी लोकप्रियता और स्वीकार्यता आनंद मोहन ने 1996 के आम चुनाव में साबित की भी, जब शिवहर सीट जेल में रहते उन्होंने समता पार्टी के टिकट पर जीती थी. फिर 1998 का चुनाव भी शिवहर सीट से उन्होंने जीता, लेकिन 1999 में भाजपा का दामन थाम लिया.

यह वह दौर था, जब भारतीय जनता पार्टी खुलेआम आपराधिक पृष्ठभूमि वाले बाहुबलियों को न्योता और मौका दे रही थी, जिस से अटल बिहारी वाजपेई मजबूत हो सकें. लेकिन वोटर को आनंद मोहन का भगवा गैंग ज्वाइन करना रास नहीं आया, तो उस ने उन्हें खारिज भी कर दिया. एकएक कर दलित हितेषी पार्टियों में से हिंदुस्तानी अवाम मोरचा को छोड़ आनंद परिवार सभी पार्टियों में आया गया. इस से उन की इमेज बिगड़ी थी, जिसे चमकाने के लिए उन्होंने पार्टी सहित कांग्रेस का हाथ थाम लिया, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें चुनाव लड़ने के काबिल ही नहीं समझा.

हालांकि कांग्रेस ने 2014 लवली आनंद को विधानसभा टिकट दिया था, लेकिन तब तक गंगा का बहुत सा पानी बह चुका था. एक सजायाफ्ता दंपती को वोटर ने विधानसभा और लोकसभा भेजना ठीक नहीं समझा तो यह उस की समझदारी ही कही जाएगी.

बिहार में आनंद दंपती की पहले से पूछपरख नहीं रह गई थी, लेकिन लवली ने हिम्मत नहीं हारी और 2020 के विधानसभा चुनाव में फिर आरजेडी से कूदीं. हालांकि वे खुद नहीं जीत पाईं, लेकिन उन का बेटा चेतन आनंद अपनी परंपरागत सीट शिवहर से जीत गया जो ताजा विवाद में पिता के सुर में सुर मिला रहा है.

कानून बदला था नीतीश कुमार ने

इस साल अप्रैल का महीना बिहार की राजनीति के लिए खास था, क्योंकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आनंद मोहन के लिए जेल मैनुअल में बदलाव कर उन की रिहाई का रास्ता खोल दिया था. इस के लिए शासकीय सेवकों की हत्या में उम्रकैद की सजा काट रहे कैदियों को छूट न मिलने का प्रावधान नियमों से हटा लिया गया था. इस के लिए भी नीतीश कुमार ने राज्य के मुख्य सचिव आमिर सुबहानी को आगे किया था.

आनन्द मोहन के पिछली 12 अगस्त को रिहा होने के बाद इस पर खासी गहमागहमी, चर्चा और बहस हुई थी. अब आनंद मोहन खुद साबित कर रहे हैं कि उन की उपयोगिता कहां है और कैसी है.

पेशे से प्रोफैसर मनोज झा, जिन्होंने कुछ दशक पहले के ठाकुरों की जीवनशैली याद दिला दी, वे भी आरजेडी से हैं. ऐसे में ब्राह्मणठाकुर विवाद सहज किसी के गले नहीं उतर रहा है. राजपूत वोट बिहार की 40 विधानसभा और 8 लोकसभा सीटों के नतीजों को उलटपुलट करने की स्थिति में हैं.

प्रथमदृष्ट्या तो यही लगता है कि चूंकि ब्राह्मण वोट तो गठबंधन को मिलने से रहा, इसलिए क्यों न आनंद मोहन को मोहरा बना कर ठाकुरों को साधा जाए. नीतीश और तेजस्वी की यह ट्रिक कितनी कारगर होगी, यह वक्त बताएगा, लेकिन यह साफ दिख रहा है कि आनंद मोहन के कसबल जेल में रहते ढीले पड़ चुके हैं और अब उन्हें केवल अपने बेटे चेतन आनंद के राजनीतिक भविष्य की चिंता है और इस के लिए वे जीभ खींचने को भी तैयार हैं. इस दौरान चाचाभतीजे के इशारों पर नाचना उन की मजबूरी हो गई है.

मूर्ति विसर्जन जानलेवा भी

मध्य प्रदेश के एकएक गांव, जिन में अधिकतर लोग छोटी जाति के रहते हैं, जुलूस की शक्ल में दशा माता का विसर्जन करने जा रहे थे. तभी हाइवे पर तेज रफ्तार से आते एक ट्रक ने बेकाबू हो कर जुलूस को रौंद दिया. जिस से मौके पर ही 3 लोगों की मौत हो गई और कई श्रद्धालु घायल हो गए.

पहली नजर में गलती बेशक ट्रक ड्राइवर की है जो ट्रक की रफ्तार काबू में नहीं रख सका. पर धर्म के नाम पर सड़क को घेर कर भीड़ जमा कर कर मूर्ति विसर्जन के लिए नाचतेगाते जाना किस की गलती है. सड़कें धार्मिक कार्यक्रमों के प्रचार के लिए हैं या वाहनों के लिए. लोग खुद के जनून को काबू में नहीं रख पाते और बेवक्त मारे जाते हैं. कहने को तो दशा माता या कोई और मूर्ति, जिस का विसर्जन होने वाला है, भक्तों की जिंदगी संवारती है, पर वह भी ट्रक ड्राइवर जैसी लापरवाह और बेरहम ही निकले तो सोचना जरूरी है कि आखिर क्यों बचाने वाला भगवान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहता है.

झांकियों का सच

पिछले दशकों में धार्मिक कार्यक्रमों की गिनती अचानक बढ़ी और कई गुना होने लगी है. आएदिन गणेश, दुर्गा, राम और कृष्ण की झांकियां लगती रहती हैं. कुछ जगह ये झांकियां 8-9 दिनों तक चलती हैं. इन में जम कर पूजापाठ और नाचगाना होता है. भीड़ भी ऐसी उमड़ती कि पांव रखने की जगह नहीं मिलती और धक्कामुक्की में ही लोगों को आनंद आने लगता है.

झांकियों के दौरान हर कभी, हर कहीं सड़कें घेर ली जाती हैं. जाम होता है जिस से आम लोगों को परेशानी होती है. इन झांकियों में अरबों नहीं, खरबों रुपए फूंके जाते हैं. इस से चंदे की शक्ल में आम लोगों को जरूर जम कर आमदनी होती है.

लोग पहले 8-10 के गुट में पंडाल में रखी मूर्ति के सामने 8-9 दिन खूब चढ़ावा व प्रसाद चढ़ाते हैं. इस बाबत उन्हें कैसेकैसे उकसाया जाता है, यह वे खुद भी नहीं समझ पाते. गणेश और दुर्गा की झांकियां अब ब्रैंडेड हो चली हैं, जिन में मूर्ति ही करोड़ों रुपए की रखी जाती हैं और इस से भी ज्यादा रकम बिजली, सजावट व नाचगाने पर खर्च किया जाता है. भोपाल के न्यू मार्केट में गणेश की सोने की भी मूर्ति रखी गई तो सहज लगा कि देश में कोई गरीबी या महंगाई नहीं है.

यही हाल दुर्गा की झांकियों का है. नवरात्र के दिनों में भक्तों और भक्ति दोनों का जनून देखते ही बनता है. मामला इस तरह का गंभीर है कि एक राज्य के पीओपी बोर्ड ने पीओपी की मूर्तियों को बनाने पर बैन लगाया क्योंकि विसर्जन के बाद पीओपी जमीन में घुलती नहीं है. इस पर भक्त सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गए. गनीमत है सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2023 में इस पागलपन को धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं माना और भक्तों को भगा दिया.

फिर होता है विसर्जन

8-9 दिन तबीयत से पैसा और वक्त बरबाद करने के बाद होता है इन झांकियों की मूर्तियों का विसर्जन, जिन में लोग पागलों की तरह झूमतेनाचतेगाते मूर्ति को ट्रक, ठेके या दूसरे किसी वाहन में सजा कर नदियों, तालाबों और समुद्रों के किनारे ले जाते हैं. डोल ग्यारस, अनंत चतुर्दशी और नवरात्र में नवमी व दशहरे के दिन देश की जिंदगी झाकियों में ठहर सी जाती है.

विसर्जन के पहले चल समारोह होता है, जो अब गांवदेहातों में भी इफरात से होने लगे हैं. लोग बैंडबाजे के साथ मूति को सजा कर नदी, तालाब या समंदर किनारे ले जाते हैं और बड़े जज्बाती हो कर, गला फाड़ कर जयकारे से मूर्ति को पानी में बहा देते हैं.

जानलेवा जनून

विसर्जन जलसों के दौरान भक्तों का जनून देखते ही बनता है और मूर्ति को पानी में बहाने के दौरान कितने लोग पानी में डूब कर मर जाते हैं. इस का ठीकठाक आंकड़ा तो किसी के पास नहीं क्योंकि ऐसे लोग इसे दुर्घटना मान कर चुप हो कर मृत का दाह कर देते हैं.

राजधानी दिल्ली में बहुत तरह के इंतजाम, वरदी में नियुक्त गार्डों के बावजूद अब भी कई लोग मूर्ति विसर्जन के दौरान डूब कर मरते हैं. यमुना नदी में मूर्ति के साथ डूब कर मरने वालों की तादाद भी रहती है जबकि यमुना में विसर्जन पर बैन है.

गणेश प्रतिमा के विसर्जन के दौरान नदियों के अलगअलग घाटों पर मूर्ति गहरे पानी में ले जाने से भक्त लोग डूब कर मरते रहते हैं, जबकि, हरेक घाट पर चाकचौबंद इंतजाम पुलिस के होते हैं और गोताखोर भी तैनात रहते हैं. इस के बाद भी हादसे हो ही जाते हैं क्योंकि धर्म और दूसरे नशों में डूबे उन्मादी भक्त किसी की सुनते नहीं. आइए देखें ऐसे ही कुछ ताजा हादसे-

– आगरा में गणेश विसर्जन के दौरान पोइया घाट पर 5 युवक डूब गए जिन में से संभवत 3 की मौत हो गई क्योंकि 28 सितम्बर की देर रात तक पुलिस को उन की कोई खबर नहीं मिली थी.

– इसी दिन दिल्ली में गणेश विसर्जन के दौरान यमुना नदी में डूबने से 2 सगे भाइयों की मौत हो गई. निठारी में रहने वाला 6 साल का कृष्णा और 15 साल का धीरज मूर्ति विसर्जित करते करते खुद ही विसर्जित हो गए.

– 26 सितम्बर को मध्यप्रदेश के दतिया के सिद्ध बाबा मंदिर कैंपस में हुए एक बड़े हादसे में 10 बच्चे विसर्जन कुंड में डूब गए, जिन में से 3 मासूम बच्चियां और एक बच्चा बेवक्त काल के गाल में समा गए. कोई भगवान या मूर्ति इन्हें नहीं बचा पाए. ये सभी छोटी जाति के थे.

– उत्तर पूर्वी दिल्ली के न्यू उस्मानपुर इलाके में सपरिवार गणेश विसर्जन के लिए गए 18 वर्षीय युवक सूरज की मौत 28 सितम्बर को यमुना खादर में डूबने से हो गई. सूरज 4 बहनों का इकलौता भाई था.

– इसी दिन उत्तर प्रदेश के उन्नाव में गणेश विसर्जन के दौरान एक छात्र और शिक्षक की डूबने से मौत हो गई. हर बार की तरह देश भर में सैकड़ों ऐसे हादसे हुए जिन की लिस्ट बहुत लम्बी है.

पिछले साल बिहार के गया में सरस्वती की मूर्ति का विसर्जन करने गए 2 युवक नदी में डूब कर मर गए थे, जबकि 3 नौजवानों को गोताखोरों ने वक्त रहते बचा लिया था. इस पर भी भक्तों ने जम कर प्रशासन को कोसा था. बात समझ से परे है कि प्रशासन की इस में क्या गलती है. बारबार अपील करने के बाद भी ये नौजवान भक्त गहरे पानी में जा कर मूर्ति बहाने की जिद पर खड़े थे. ऐसे में सरस्वती माता ने इन्हें बुद्धि नहीं दी, उलटे जान ले ली.

कौन है जिम्मेदार

ये तो कुछ ही उदाहरण थे, वरना तो हर साल गणेश चतुर्थी और नवरात्र के दौरान मूर्ति विसर्जन में हजारों की तादाद में लोग मारे जाते हैं. आजकल मरने वालों में अधिकांश लोग दलित और छोटी जाति के होते हैं क्योंकि मूर्ति ढोने का मेहनतभरा काम बड़ी चालाकी से उन के सिर पर ही थोप दिया गया है. वैसे वे अछूत हैं पर चूंकि ऊंची जातियों के युवाओं में इस तरह काम की आदत नहीं रही तो दलितों को स्थान मिलने लगा है.

जिम्मेदार प्रशासन नहीं, सरकार नहीं, असल में वह पुजारी जो 8-10 दिन झांकी में बैठ कर पूजापाठ, आरती और यज्ञ, हवन करता है लेकिन मूर्ति विसर्जन के लिए जाता नहीं है. दूसरे जिम्मेदार छोटी जाति वालों का मान लिया गया है जिन्हें जान से खेलने में डर नहीं लगता. उन्हें लगता कि इस से उन की जाति सुधर रही है.

इन लोगों के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भर दी गई कि झांकी की मूर्ति जो भी विसर्जित करता है उस पर भगवान ज्यादा खुश होता है. यह खुशी किस तरह ही होती है, यह मौतों से समझ आता है.

विसर्जन के दौरान भक्ति का ढोंग करने वाले लोग छक कर शराब भी पीते हैं और खूब हुड़दंग मचाते हैं. जैसे बिना शराब पिए हिंदुओं की बरातों में डांस नहीं होता, ठीक वैसे ही बगैर नशा किए विसर्जन समारोह में मजा नहीं आता. एक झांकी संचालक की मानें तो खुद झांकी समिति वाले ही विसर्जन के दिन मूर्ति ढोने वालों को शराब मुहैया कराते हैं जिस से उन्हें होश न रहे और वे मुफ्त की हम्माली करते रहें.

मूर्ति विसर्जन के दौरान मरने वालों में 80 फीसदी बच्चे और नौजवान होते हैं. बेरहम भगवान क्यों इन्हें अपने पास बुला लेता है, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं. मरने वालों के घर वाले रोतेबिलखते रहते हैं और उस घड़ी को कोसते नजर आते हैं जब उन्होंने बच्चों को विसर्जन में जाने की इजाजत दी थी.
सरकार को चाहिए कि वह झांकियों के शोर, अनापशनाप पैसों की बरबादी और विसर्जन पर रोक लगाने की पहल करे जिस के चलते हजारों लोग हर साल बेमौत मारे जाते हैं.

मैं एक आदमी से प्यार करती हूं, जो अपनी पत्नी से संतुष्ट नहीं है, बताएं अब मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 40 वर्षीया विधवा हूं. मेरे 4 बच्चे हैं. मैंने बड़ी मेहनत कर के पढ़ाई की और अब नौकरी करती हूं. इसी बीच मेरा परिचय एक 45 वर्षीय व्यक्ति से हो गया. वह मेरी हर बात मानता है. वह अपनी पत्नी से संतुष्ट नहीं है. मुझे उस से प्यार हो गया है. वह अपने परिवार वालों को कोई कष्ट नहीं देना चाहता. वह उन पर पैसा व्यय करता है पर मेरे लिए कभी कुछ ला कर नहीं देता. इसलिए कभीकभी झगड़ा भी हो जाता है. फिर भी मैं उस के लिए बेचैन रहती हूं. बताइए, मुझे क्या करना चाहिए.

जवाब

यदि बिना किसी बंधन व खर्च के किसी विवाहित पुरुष को दूसरी स्त्री का साथ मिल जाए तो कौन छोड़ेगा? यह आप को देखना है कि वह वास्तव में आप से प्रेम करता है या यह सब महज यौनाकर्षण है. आप उस पुरुष को मित्र मानिए और न उस से कोई आशा करें और न मित्रता से अधिक उस से व्यवहार करें. इस के अलावा आप दोनों के निजी मामले से भी कहीं ऊपर आप दोनों की अपनेअपने परिवारों के प्रति जिम्मेदारियां भी हैं. आप को उन जिम्मेदारियों के प्रति सतर्क रहना चाहिए.

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